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Wednesday, August 12, 2009

स्टिंग आपरेशन पर मुहर

एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने न्यूज चैनलों के स्टिंग आपरेशन पर वैधता की मुहर लगा दी है। बीएमडब्लू स्टिंग मामले में तीन जजों की बेंच ने कहा कि स्टिंग आपरेशन में कोई बुराई नहीं है। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि यह फैसला स्टिंग आपरेशन के लिए खुली छूट नहीं है। आदेश में एक महत्वपूर्ण शर्त भी लगा दी गई कि स्टिंग आपरेशन तभी सही माना जाएगा जब वह सार्वजनिक हित में किया गया हो।

यानी स्टिंग आपेरशन करने की मनमानी छूट नहीं दी गई है। अदालत के इस फैसले से मीडिया को अनुशासन और उच्च आदर्शो के प्रति समर्पित रहने का एक बेहतरीन मौका मिला है। आदेश में साफ कहा गया है कि मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश में अगर नियम-कानून बनाए गए तो लाभ कम और नुकसान अधिक होगा। मीडियाकर्मियों को चाहिए कि खुद की आचार संहिता के कायदे-कानून खुद बनाएं और पेशागत मानदंडों को हासिल करने के लिए उन्हें लागू करें। 1950 में आल इंडिया न्यूजपेपर एडिटर्स कांफ्रेंस में जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ''इसमें शक नहीं कि सरकार प्रेस की आजादी को बहुत पसंद नहीं करती और उसे खतरनाक मानती है, फिर भी प्रेस की आजादी में दखल देना गलत है।

मैं एकदम स्वतंत्र प्रेस को सही मानता हूं। हर वह खतरा बर्दाश्त करने को तैयार हूं जो प्रेस की आजादी की वजह से संभावित है, लेकिन दबा हुआ या सरकारी कानून के दायरे में बंधा प्रेस मुझे मंजूर नहीं है।'' प्रेस की आजादी कितनी आवश्यक है, यह नेहरू के उपरोक्त कथन से स्पष्ट हो जाती है।
शीर्षस्थ अदालत ने कहा है कि टीवी चैनलों के कुछ कार्यक्रम तो अच्छे हैं, लेकिन कुछ इतने बेकार हैं कि उनके बारे में बातचीत करना भी ठीक नहीं है। इसलिए टीवी चैनलों को अपना स्तर सुधारने का प्रयास करना होगा।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के बारे में सुप्रीम कोर्ट का विचार एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान आया। वरिष्ठ अधिवक्ता आरके आनंद को हाईकोर्ट से मिली सजा के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का आदेश देश के न्याय शास्त्र के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगा। एक गवाह को रिश्वत देने के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने आरके आनंद और सरकारी वकील आईयू खान को सजा सुनाई थी। यह मामला हाई कोर्ट की जानकारी में एक निजी टीवी चैनल के स्टिंग आपरेशन के जरिए आया था।

हाई कोर्ट ने दोनों वकीलों पर दो-दो हजार रुपए का जुर्माना लगाया था। सीनियर एडवोकेट की पदवी छीन ली थी और चार महीने तक वकालत करने पर पाबंदी लगा दी थी। दोनों वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसमें हाई कोर्ट के फैसले को रद करने की प्रार्थना की गई थी और साथ ही यह भी कि स्टिंग आपरेशन करके न्यूज चैनल ने गलती की और मीडिया ने उन्हें फंसाया है। अर्जी में न्यूज चैनलों पर सख्ती लागू करने और सरकारी नियंत्रण की बात भी की गई थी। मीडिया पर नकेल कसने की अभियुक्तों की अपील उल्टी पड़ गई।

अदालत ने एक तरह से स्टिंग आपरेशन को समाचार संकलन की एक तरकीब के रूप में मान्यता दे दी, बशर्ते वह राष्ट्रीय हित में हो। आईयू खान को भी फटकार लगाकर छोड़ दिया, लेकिन आरके आनंद को हैसियत का बोध कराने वाला आदेश पारित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि हाई कोर्ट ने उनके साथ नरमी बरती है।

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि उनकी सजा को क्यों न बढ़ा दिया जाए? कोर्ट ने आनंद को बताया कि उनका जुर्म गंभीर है। एक आपराधिक मुकदमे में गवाह को रिश्वत देने की कोशिश करना निंदनीय है। इसके अलावा हाई कोर्ट के सामने उनका आचरण मामले को और भी गंभीर बना देता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आनंद के अपराध की गंभीरता के मद्देनजर उनको दी गई सजा बहुत कम है।


आर के आनंद को जो सजा मिली है उसके गुण-दोष विवेचन तो अभी सुप्रीम कोर्ट को करना है। आने वाले वक्त में कानून के विद्यार्थी इस मामले की रोशनी में भारतीय न्याय प्रक्रिया का अध्ययन करेंगे, लेकिन साधारण आदमी को इस केस के मानवीय पहलू में भी रुचि है। जिस मामले में आरके आनंद और आईयू खान को टीवी चैनल ने पकड़ा था वह एक रईसजादे द्वारा गरीब लोगों को बीएमडब्लू कार से कुचल कर मार डालने से संबंधित है।

इसी रईसजादे को कानून से बचाने के लिए आरके आनंद ने यह अपराध किया था। जानकार बताते हैं कि आरके आनंद की सजा बढ़ने की संभावना है, क्योंकि वह न्यूज चैनल के स्टिंग आपरेशन पर हमला करके अपने आपको बरी करवाना चाहते थे।

लेख

Saturday, August 8, 2009

ग़रीब लड़की चोरी नहीं करती...

देवरिया जिले के किसी गांव में बिट्‌टन नाम की एक लड़की रहती है, गरीब है, दलित है और मेहनत मजूरी करके दो जून की रोटी का इंतजाम करती है। गांव में ही कोई राय साहब रहते हैं उनका भरा-पूरा परिवार है, ग्रामीण हिसाब से संपन्न हैं और बिट्‌टन की गरीबी पर भारी पड़ते हैं। बिट्‌टन इन्हीं राय साहब के घर मजदूरी करती थी, घर का काम टहल करती थी, जूठा खाती थी, पुराने कपड़े पाकर धन्य हो जाती थी और राय साहब के घर की नौकरानी होने की वजह से अपने आस-पड़ोस में भी उसकी हनक थी।

यह सब खत्म हो गया क्योंकि बिट्‌टन पर चोरी का आरोप लगाकर राय साहब और उनके घर वालों से बिट्‌टन को पीटा, उसके शरीर के नाजुक अंगों में लोहे की गर्म सलाखों से निशान लगा दिए और बिट्‌टन की जिंदगी तबाह कर दी। बिट्‌टन की उम्र यही कोई 15-16 साल होगी। पूरी संभावना है कि बिट्‌टन की नानी 1947 के बाद पैदा हुई हो, यानी आज़ाद भारत मे जन्म लेने वाले गरीब दलितों की तीसरी पीढ़ी को भी इस देश का दबंग वर्ग लोहे की रॉड से दागता है और आजादी की लड़ाई में शामिल हर महापुरुष की विरासत को मुंह चिढ़ाता है।

कैसे होता है यह सब, खासकर उत्तरप्रदेश में जहां दलित की एक बेटी राज कर रही है, राज्य से गुंडो का सर्वनाश करने का बीड़ा उठाकर सत्ता में आई है और दलितों को आत्मसम्मान से जिंदा रहने का अधिकार देना उसकी राजनीति का बुनियादी आधार है?????

बिट्टन को असहाय किसने बनाया? आजादी के बासठ साल बाद भी बिट्‌टन पर ही चोरी का इल्जाम क्यों लगता है, जबकि इस बात की पूरी संभावना है कि राय साहब के घर में चोरी उनके परिवार के ही किसी व्यक्ति ने की हो, या उनकी पत्नी ने ही की हो, कथित रूप से जिनका मंगलसूत्र चोरी हुआ है। लेकिन संभ्रांत मानसिकता के दल-दल में फंसा हुआ प्रशासन, पुलिस, समाज यह मान ही नहीं सकता कि राय साहब का कोई संपन्न रिश्तेदार चोरी कर सकता है। चोरी करे या ना करे इलजाम तो बिट्टन पर ही लगेगा। इसलिए नहीं कि वह गरीब है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी रक्षा में खड़ी नहीं हो सकती।

बिट्‌टन को इतना असहाय किसने बनाया। सीधा सा जवाब है-अगर आजादी के बाद पैदा हुई बिट्‌टन की नानी ने गांव के पास के प्राइमरी स्कूल में जाकर शिक्षा ले ली होती तो पूरी संभावना है कि बिट्‌‌टन की मां किसी सरकारी नौकरी में होती और बिट्टन आज एक पढ़ी-लिखी लड़की होगी और किसी भी राक्षसनुमा राय साहब के यहां मजूरी न कर रही होती। बिट्टन की दुर्दशा पर आज क्रोध, निराशा, हताशा और पछतावा सब कुछ है।

जब आजादी के बाद सबको शिक्षा देने का इंतजाम कर दिया गया था तो बिट्टन की नानी के हाथ से तख्ती किसने छीन ली, क्यों हमारे देश में गरीबी और बदहाली को जिंदा रखने की राजनीति खेली जा रही है। सामाजिक बराबरी से परहेज यह मामला उत्तरप्रदेश का है लेकिन मायावती को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना गलत होगा, कायरता होगी। जरूरत इस बात की है कि यह समझा जाए आजादी मिलने के तीन पीढ़ियों बाद तक लोग क्यों गुलामी की जिंदगी बसर करने पर मजबूर क्यों हैं। जब महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर और राममनोहर लोहिया ने समतामूलक, छुआछूत विहीन समाज की बात की थी तो उनके अनुयायियों ने आजादी के बाद उनकी राजनीतिक सोच को कार्यरूप में क्यों नहीं बदला।

शुरू के बीस साल उत्तरप्रदेश में गांधी नेहरू की पार्टी का राज रहा। बाद में भी कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में पंद्रह साल राज किया। गांधी ने कहा था कि छुआछूत को समाज से मिटाना होगा, जाति के आधार पर शोषण के निजाम को खत्म करना होगा। महात्मा जी ने जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात तो नहीं की थी लेकिन जाति को शोषण का आधार बनाने की हर स्तर पर मुखालफत की थी। सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के अलावा किसी कांग्रेसी ने कोई योजना चलाने की नहीं सोची। उल्टे इंदिरा गांधी के बाद के कांग्रेसियों ने ब्रिटिश हुकूमत के गुलाम राजाओं महाराजाओं को इतनी अहमियत दी कि कभी-कभी तो लगने लगा कि ब्रिटिश हुकूमत फिर लौट आई है।

डा.राम मनोहर लोहिया ने साफ कहा था कि जातिप्रथा का विनाश किया जाना चाहिए इसके लिए उन्होंने अपने सभी शिष्यों से कहा था कि सोचने या भाषण देने से जातिप्रथा समाप्त नहीं होगी। उसके लिए अंर्तजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना होगा और छुआछूत को मिटाना होगा। जातिवाद की दलदललोहिया के चेलों में जिन लोगों ने राज किया उनमें प्रमुख हैं, कर्पूरी ठाकुर, लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार। इन लोगों ने क्या कभी भी अपने राज्य में सह विवाह और सह भोजन की बात की? क्या कभी इन्होंने सरकारी नीतियों में कोई ऐसी राजनीतिक लाइन डालने की कोशिश की जिससे जाति प्रथा का जहर खत्म हो।

पिछले चालीस साल के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो कहीं भी इस तरह की राजनीतिक सोच के बारे में जानकारी होने तक का पता नहीं लगता। डा.अंबेडकर का तो पूरा राजनीतिक दर्शन ही जाति के विकास के सिद्घांत पर आधारित है। उनका कहना था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, सामाजिक बराबरी का सपना पूरा नहीं होगा। पिछले पंद्रह साल से उत्तरप्रदेश की राजनीति में दखल रखने वाली मायावती ने एक बार भी डा.अंबेडकर के इस सपने को पूरा करने की कोशिश क्यों नहीं की, यह पहेली समझ पाना थोड़ा मुश्किल जरूर है, असंभव नहीं। लगता है कि सभी पार्टियों के बड़े नेता किसी न किसी जाति के मतदाताओं को अपना खास समर्थक मानते हैं और उस जाति की पहचान से छेड़छाड़ नहीं करना चाहते शायद इसीलिए गांधी, लोहिया और अंबेडकर के बताए रास्ते में चलने के बजाय जातिवाद के दलदल में फंसते गए।

लोकसभा चुनाव 2009 से कुछ संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि जातियां किसी भी पार्टी के साथ अब बहुत दिन तक चिपकी रहने वाली नहीं हैं। मसलन दलितों ने उत्तरप्रदेश में कई क्षेत्रों में मायावती के उम्मीदवार को हराने की कोशिश की। उत्तरप्रदेश के बाहर तो मायावती को दलित वोट लगभग न के बराबर मिला। बाकी दलों का भी यही हाल है। जाति को राजनीति का आधार बनाने वाली पार्टियों को आने वाले चुनावों में और तरीकों पर गौर करना होगा।

इसलिए उम्मीद बंधती है कि जाति को समाप्त करने की राजनीतिक आवश्यकता पर इनका ध्यान जायेगा और जाति का विनाश एक वास्तविकता की शक्ल अख्तियार करेगा। ऐसी हालत में सामाजिक और आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा और कोई बिट्‌टन इसलिए नहीं अपमानित होगी कि वह दलित है।

Wednesday, August 5, 2009

बुंदेलखंड की राजनीतिक लड़ाई

उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में अपनी खोई हुई राजनीतिक हैसियत को दोबारा हासिल करने के लिए कांग्रेस ने बुंदेलखंड का रास्ता चुना है। बुंदेलखंड में ही राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को फिर से जीवित करने के अपनी योजना का परीक्षण किया था इलाके के दलितों के यहां भोजन करके उन्होंने राज्य की सबसे बड़ी पार्टी की नेता और मुख्यमंत्री मायावती को चुनौती दी थी।

काफी हद तक कामयाब रहे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस आज बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को बराबर की टक्कर दे रही है। रीता बहुगुणा जोशी को गिरफ्तार करवाने की योजना की सफलता के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। जानकार बताते हैं कि रीता बहुगुणा की गिरफ्तारी करवाने की रणनीति के पीछे कांग्रेस की योजना वास्तव में राज्य में विपक्ष के स्पेस पर कब्जा करने की थी लेकिन गिरफ्तारी के साथ-साथ मायावती की पार्टी और सरकार ने राजनीतिक भूल कर दी। रीता बहुगुणा का किराए का घर जलवा दिया।

बस फिर क्या था पूरे देश में इस प्रशासनिक बर्बरता के खिलाफ माहौल बन गया। जिसका कांग्रेस को बड़ा फायदा हुआ। हर जिले में जो भी कुछ लोग कांग्रेसी कार्यकर्ता के नाम पर बचे खुचे थे, सड़कों पर आ गए और हर जिले में कांग्रेस का मामूली ही सही संगठन खड़ा हो गया। अजीब संयोग है कि उत्तर प्रदेश में कांशीराम की राजनीतिक कुशलता के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन खत्म हुआ था, जब मुलायम सिंह और बीजेपी का विरोध करने के नाम पर काशीराम ने कांग्रेस से विधानसभा चुनाव के लिए सीटों का समझौता किया था।

425 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को 134 सीटों पर सीमित कर दिया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। बाकी सीटों पर कांग्रेस का संगठन खत्म हो गया था। आज उन्हीं कांशीराम की शिष्या मायावती की एक राजनीतिक गलती से उत्तर प्रदेश के हर गांव में कांग्रेसी लामबंद हो रहे हैं और मामूली ही सही, एक संगठन का स्वरूप ले रहे हैं। रीता बहुगुणा का घर जलना, कांग्रेस के पुनर्जीवन की पहली सीढ़ी बन गया है। पिछले 20 साल से उत्तर प्रदेश में खाली बैठे कांग्रेसियों का एका एक कुछ काम मिल गया है और राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी बनने का सपना पूरा होने की तरफ बढ़ रहा है।

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में उम्मीद से ज्यादा सीटें पाकर कांग्रेस के नेतृत्व में भी उत्साह है। इसी उत्साह के चलते पार्टी में उत्तर प्रदेश को लेकर सक्रियता बढ़ गई है। राज्य के सांसदों का जो दल प्रधानमंत्री से मिलकर बुंदेलखंड की तरक्की के लिए अलग संगठन बनाने की बात कर रहा था, वह राजनीतिक शतरंज की बहुत अहम चाल को अंजाम दे रहा था। दुनिया जानती है कि बुंदेलखंड देश का सबसे पिछड़ा इलाका है।

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में 2009 के पहले तक मायावती की पार्टी सबसे मजबूत थी लेकिन मायावती ने सरकार बनाने के बाद इलाके की उपेक्षा की। नतीजा यह हुआ कि वहां राजनीतिक स्पेस बन गया। राहुल गांधी ने इसी राजनीतिक स्पेस को भरने की कोशिश शुरू कर दी है। चुनाव के पहले दलितों के यहां खाना पीना एकदम सोची समझी रणनीति के तहत किया गया था और अब बुंदेलखंड के विकास की बात कराना उसी स्पेस को भरने की तैयारी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसी सांसदों ने उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके की तरक्की की बात को मुख्य एजेंडा बनाकर राजनीतिक शतरंज की ऐसी शह दी है जो दोनों ही राज्यों में मौजूदा राजनीतिक ता$कतों को मात देने की ताकत रखती है।

दोनों ही राज्यों में बुंदेलखंड का इलाका सदियों से उपेक्षित है। यह भी सही है कि इस उपेक्षा के लिए कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है लेकिन वह अब इतिहास का हिस्सा है। आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि जवाहर लाल नेहरू का एक वंशज बुंदेलखंड के रास्ते लखनऊ और भोपाल की रियासतों पर कब्ज़ा करने की मंसूबाबंदी कर चुका है।

हालांकि कांग्रेस की बुंदेलखंड नीति से उत्तर प्रदेश में बीएसपी और मध्यप्रदेश में बीजेपी को नु$कसान होने की संभावना है लेकिन घबराहट बीएसपी में ही ज्य़ादा है। बीजेपी ने तो सोमवार को लोकसभा में कांग्रेस की नीयत को कटघरे में लाने की कोशिश की लेकिन लखनऊ की सरकार में तो बुंदेलखंड के मैदान में राहुल को हर क़ीमत पर शिकस्त देने की कोशिश चल रही है। कहीं समरा कमेटी की रिपोर्ट का हवाला दिया जा रहा है जिसने बुंदेलखंड के विकास के लिए 3866 करोड़ रुपये के पैकेज की बात की थी तो मुख्यमंत्री खुद 80, 000 करोड़ की सहायता की मांग कर रही है।

राजनीति के जानकार बताते हैं कि बुंदेलखंड की लड़ाई आंकड़ों के खेल के दायरे से बाहर जा चुकी है, अब कुछ शुद्घ रूप से राजनीतिक युद्घ है जिसमें मैदान बेशक बुंदेलखंड का हो, हथियार और मकसद शुद्घ रूप में राजनीतिक है। सांसद में बीजेपी और बीएसपी के शोर गुल के बाद सरकार की तरफ से स्पष्टीकरण आ गया कि बुंदेलखंड के विकास के लिए किसी सरकारी एजेंसी का गठन पर अभी सरकार कोई विचार नहीं कर रही है।

बहुत सही बात है, सरकार ऐसी कोई योजना नहीं बना रही है। लेकिन एक बात और सच है कि बुंदेलखंड पर जो कांग्रेस की तरफ से जो चालें चली जा रही हैं, वे भी सरकारी नहीं है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात शुद्घ रूप से आइडिया के स्तर पर है लेकिन इस आइडिया ने अपना काम कर दिया है। बुंदेलखंड के विकास के लिए केंद्रीय एजेंसी की बात करके कांग्रेस ने यह बात साफ कर दिया है कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सरकारें इला$के के विकास के प्रति गंभीर नहीं हैं और कांग्रेसी बेचारे बहुत चिंतित हैं।

गेंद अब मायावती और शिवराज सिंह चौहान के पाले में है और उनके जवाब की ता$कत से ही बुंदेलखंड में कांग्रेस को पछाड़ा जा सकता है, दिल्ली में सरकार के सामने हल्ला गुल्ला करके राजनीतिक लड़ाई की बात सोचना भी दीवालियापन की श्रेणी में आएगा। बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी देश की राष्टï्रीय पार्टियां हैं। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें और बुंदेलखंड में हो रहे कांग्रेसी हमले का जवाब राजनीतिक तरीके से दें क्योंकि राजनीतिक लड़ाई के फैसले प्रशासनिक हथियारों से नहीं होते।

Monday, August 3, 2009

हिंदू धर्म और हिंदुत्व मे फर्क

हिंदू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। इसमें बहुत सारे संप्रदाय हैं। संप्रदायों को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको हिंदू कहता है लेकिन हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका प्रतिपादन 1924 में वीडी सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व में किया था। सावरकर इटली के उदार राष्ट्रवादी चिंतक माजिनी से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उन्होंने हिंदुत्व का राजनीतिक अभियान का मंच बनाने की कोशिश की थी।

सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के सवाल पर कोई भी सार्थक बहस शुरू करने के पहले यह जरूरी है कि धर्म के स्वरूप और उसके दर्शन को समझने की कोशिश की जाये।

दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्घा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है।
इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिता, शील, सम्मान और आराधना का विषय है।

यह परिभाषाएं लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में कुछं ऐसे भी धर्म हैं जो सैद्घांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरूद्घ तर्क भी दिए गये हैं। बौद्घ धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्घांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।

इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को, प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक, अदार्श विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियम, बौद्घों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्घांत या वैष्णवों, ईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। विश्वविख्यात दार्शनिक इमनुअल कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुन्ष्टि रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।

आस्था का विषय बुद्घि या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्घि के विपरीत हों, वे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति का जाता है। यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपका इसके लिए तैयार करते हैं।

इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैं, जिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैं, अनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।

लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों और कालों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। अध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता है, ऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकर, जिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्री, करुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।

सांसारिक सुखों के प्रति जो उदासीनता सन्तों में पाई जाती है उसे एक उदाहरण में समझा जा सकता है। छोटी बच्ची गुडिय़ा के गायब हो जाने पर दुखी होती है और मिल जाने पर खुश होती है। उसके माता पिता मुस्कुराते हैं और बच्ची के व्यवहार को नासमझी समझते हैं। उसी प्रकार सन्त भी आम आदमी के ईप्र्या, द्वेष, मान-अपमान संबंधी मापदंडों पर मुस्कुराते हैं और मानते हैं कि जीवन के उच्चतर मूल्यों को न समझ पाने के कारण व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है। भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीनता का यह भाव श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, चिन्तकों आदि में भी पाया जाता है।

लेकिन सन्त मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। अरण्यकांड के अंत मे गोस्वामी तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रद्घा, क्षमा, मैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। बौद्घ ग्रंथों में भी ब्रह्मï विहार को भिक्षुओं का स्वाभाविक गुण बताया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और सांसारिक भागों के प्रति उपेक्षा ही ब्रह्मï विहार हैं। किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त चरित्र ही है। इसीलिए हर धर्म के महान संतों ने मैत्री, करुणा और मुदिता का ही उपदेश दिया है। भारतीय संदर्भ में धर्म का विशेष अर्थ है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मूल्य का प्रयोग नहीं हुआ है। मूल्य की बजाय पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है।

चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम है मोक्ष। आमतौर पर 'धर्म शब्द का प्रयोग मोक्ष या पारलौकिक आनन्द प्राप्त करने के मार्ग के रूप में किया जाता है। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म और मोक्ष समानार्थी शब्द नहीं हैं। धर्म का अर्थ नैतिक आचरण के रूप में किया गया है, धर्म सम्मत अर्थ और काम ही पुरुषार्थ हैं। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वही धर्म है।

यहां धर्म नैतिक चेतना या विवेक के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वैसे भी भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग अधिकतर कर्तव्य के अर्थ में ही होता है। इसीलिए धर्म के दो प्रकार बताए गये हैं-विशेषधर्म और सामान्य धर्म। सामान्य धर्म मानव का स्वाभाविक धर्म है जबकि विशेष धर्म उसके विभिन्न सामाजिक सन्दर्भों में कर्तव्य है। सामान्य धर्म है-धृति:, क्षमा,यम, शौचम् अस्तेयम् इन्द्रिय निग्रह, धा,विद्या, सत्यम, आक्रोध। मतलब यह है कि धर्म इंसान के लिए बहुत जरूरी चीज है। सच्चा धर्म मनुष्य के चरित्र को उदात्त बनाता है और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा को विकसित करता है। धर्म मनुष्यों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।

प्रथम पुरुषार्थ के रूप में धर्म नैतिकता है और चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए नैतिक आचरण या धर्म आचरण का पालन न करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हमने देखा कि भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म पूरी तरह से जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करता है जबकि सम्प्रदाय का एक सीमित क्षेत्र है। संस्कृत कोश के अनुसार सम्प्रदाय का अर्थ है-धर्म (मोक्ष) शिक्षा की विशेष पद्घति। औक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मज़हब का अर्थ है-वह धार्मिक ग्रुप या वर्ग जो मुख्य परम्परा से हटकर हो। सवाल यह है कि विभिन्न सम्प्रदाय पैदा क्यों और कैसे होते हैं। ऐसा लगता है कि सभी लोग धर्म के उदात्त स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं जिस अहंकार से मुक्ति धर्म साधना की मुख्य शर्त होती है, उसी के वशीभूत होकर अपने-अपने ढंग से धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करने लगते हैं।

दार्शनिक मतभेद के कारण भी अलग-अलग सम्प्रदायों का उदय होता है। उपनिषदों में अनुभूतिजन्य सत्य का वर्णन किया गया है। इन अनुभूतियों की व्याख्या उद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्घाद्वैत आदि दार्शनिक दृष्टिïयों से की गयी है। सत्य की अनुभूति के लिए इन सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्घति बताई गयी है। लेकिन जो बात सबसे अहम है, वह यह है कि सभी सम्प्रदायों में साधना की पद्घति की विभिन्नता तो है लेकिन नैतिक आचरण के मामले पर लगभग पूरी तरह से एक रूपता है। परेशानी तब होती है जब विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी इस एकरूपता का कम महत्व देकर, भिन्नता पर ही फोकस कर लेते हैं और अपनी सांप्रदायिक मान्यता को सबसे ऊपर मानने लगते हैं।

यहां समझने की बात यह है कि अपने सम्प्रदाय को सबसे बड़ा मानने में वे अहंकार की शरण जाते हैं और हमने इस की शुरूआत में ही बता दिया है कि धार्मिक साधना की पहली शर्त ही अहंकार का खात्मा है। जब व्यक्ति या सम्प्रदाय अहंकारी हो जाता है तो संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। जाहिर है कि अहंकारी व्यक्ति सांप्रदायिक तो हो सकता है, धार्मिक कतई नहीं हो सकता। संकुचित दृष्टि के कारण सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है। लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं और सत्य तक पहुंचने के रास्ते को ही महत्व देने लगते हैं और यही सांप्रदायिक आचरण है।

कभी-कभी स्वार्थी और चालक लोग भी साधारण लोगों को सांप्रदायिक श्रेष्ठता के नाम पर ठगते हैं। एक खास किस्म की पूजा पद्घति, कर्मकांड आदि के चक्कर में सादा दिल इंसान फंसता जाता है। समाज में दंगे फसाद इसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण होते हैं। जो सत्ता सारी सृष्टि में व्याप्त है, उसे हम मंदिरों और गिरिजाघरों में सीमित कर देते हैं और इंसान को बांट देते हैं।धर्म का लक्ष्य सन्त चरित्र है, दम्भी, लोभी और भोगी गुरू नहीं सत्य तो एक ही है उसकी प्राप्ति के उपाय अनेक हो सकते हैं और अगर मकसद को भूलकर उस तक पहुंचने के साधन पर लड़ाई भिड़ाई हो जाए तो हम लक्ष्यहीन हो जाएंगी और दिग्भ्रम की स्थिति पद होगी। और इसी हालत का फायदा उठाकर हर धर्म का कठमुल्ला और धार्मिक विद्वेष की राजनीति की रोटी खाने वाला नेता सांप्रदायिक दंगे कराएगा, समाज को बांटेगा और धार्मिकता के लक्ष्य में अडंगा खड़ा करेगा।

ज़ाहिर है धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।

Sunday, July 26, 2009

शेखचिल्ली के वारिस

अगर शेखचिल्ली जिंदा होते तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना गुरू मान लेते। सोनिया गांधी गुजरात के चुनावी दौरे पर जाने वाली हैं और नरेंद्र मोदी ने उन्हें चेतावनी दी है कि गुजरात संभलकर आएं। गोया गुजरात मोदी साहब की जागीर है और अगर कोई वहां जाता है तो उसे मोदी से अनुमति लेनी होगी।

पहले वास्तविकता पर गौर कर लेना चाहिए। नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हैं और जिस सोनिया गांधी के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, उनके खिलाफ मोदी की पार्टी पिछले दस वर्षों से नफरत की राजनीति कर रही है। जिस प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के राष्टï्रीय नेता, लालकृष्ण आडवाणी गली-गली घूम रहे हैं, उसी प्रधानमंत्री पद को सोनिया गांधी ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। 2004 के चुनावों में बीजेपी और उसके साथ सत्ता का सुख भोग रही पार्टियों ने सारी ताकत झोंक दी थी लेकिन सोनिया गांधी की पार्टी ने केन्द्र में सरकार बना ली थी। यह साफ कर देना जरूरी है कि सोनिया गांधी या उनकी पार्टी दूध के धुले नहीं हैं। पंजाब, असम और तमिलनाडु में आतंकवाद को बढ़ावा देने में उनकी पार्टी और उनके परिवार का योगदान कम नहीं है।

बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय, केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार थी, प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस का कब्ज़ा था, लेकिन उत्तरप्रदेश के उस वक्त के भाजपाई मुख्यमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट को अंधेरे में रखकर बाबरी मसजिद ढहा दी। देश में भ्रष्टाचार की जो परंपरा है उसमें कांग्रेसी नेता भी भाजपा के नेताओं से कम नहीं है। इस सबके बावजूद भी राजनीतिक रूप से मोदी की वह औकात नहीं है कि वह सोनिया गांधी को धमकाएं। मोदी और उनकी पार्टी के ऊपर दंगों को भड़काने वाली पार्टी होने का आरोप लगता रहा है। देश में 1927 के नागपुर दंगे के बाद हुए ज्यादातर दंगों में आरएसएस के लोग शामिल रहे हैं। गुजरात में 2002 में जो कारनामा मोदी ने किया, उसकी वजह से दुनिया भर के सामने भारत का सिर नीचा हो गया और जब मोदी पर बड़बोलेपन का दौरा पड़ता है तो वह सब कुछ भूल जाते हैं।

जिस विकास की बात मोदी कर रहे है वह गुजरात में हमेशा से ही रहा है। गुजरात के नेताओं हितेंद्र देसाई और मोरारजी देसाई के समय में गुजरात में जो विकास हुआ था, मोदी का विकास उसके सामने कुछ नहीं है। लेकिन सोनिया गांधी को दी गई नरेंद्र मोदी की धमकी को गंभीरता से लेने की जरूरत है। सोनिया की प्रस्तावित यात्रा के नतीजों से मोदी डर गए हैं और आशंका यह है कि वे सोनिया गांधी की सभा में अपने कुछ लोगों को भेजकर सवाल पूछने के बहाने उत्पात करने को कह सकते है। इसलिए कांग्रेस, सोनिया गांधी और केंद्र सरकार को चौकन्ना रहने की जरूरत है। मोदी एक बहुत ही शातिर दिमाग के मालिक हैं और वह कोई भी शरारत करवा सकते है।

सेकुलर सरकार या गैर कांग्रेसी सरकार

लोकसभा चुनावों के पहले दौर में 124 सीटों पर मतदान संपन्न हो गया। अब तक के राजनीतिक और चुनावी संकेत ऐसे हैं, कि केंद्र में इस बार भी ऐसी सरकार बनेगी जिसमें बीजेपी का कोई योगदान नहीं होगा। ऐसा ही संकेत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिया जब उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद की परिस्थितियां तय करेगी कि सरकार बनाने में किन पार्टियों का सहयोग लिया जाए।

प्रधानमंत्री ने लेफ्ट फ्रंट की तारीफ की और स्वीकार किया कि कुम्युनिस्टों के सहयोग से सरकार चलाना एक अच्छा अनुभव था। अपने इस बयान से मनमोहन सिंह वामपंथी पार्टियों के सहयोग के संवाद को फिर से जिंदा कर दिया है।प्रधानमंत्री के इस बयान में जो न्यौता है उसमें राजनीतिक आचरण की कई परते हैं जिसे राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी प्रकाश करात ने तुरंत भांप लिया। गठबंधन राजनीति की स्थिति पर पहुंचने से पहले सभी पार्टियां चुनावी राजनीति के समुद्र में गोते लगा रहीं है। पूरे देश में राजनीतिक हार जीत की चर्चा चल रही है और कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों आमने सामने है।

पश्चिम बंगाल और केरल, जहां से अधिकतर कम्युनिस्ट सदस्य लोकसभा में पहुंचते है, वहां दोनों की पक्षों के गंठबंधन एक दूसरे के खिलाफ कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन की ओर से वामपंथियों को कड़ी चुनौती मिल रहीं है, ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री का यह संदेश कि अभी की लड़ाई तो ठीक है लेकिन चुनाव के बाद हम फिर एक होने की कोशिश करेंगे चुनाव में कार्यकर्ताओं के हौंसले को प्रभावित कर सकता है। ज़ाहिर है कि इससे वामपंथी चुनावी अभियान की धार कुंद हो सकती है।

शायद इसी संभावना की काट के लिए माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने तुरंत बयान दे दिया कि चुनाव के बाद भी कांग्रेस से कोई समझौता नहीं होगा।जानकार मानते है कि अपने अभियान की हवा निकालने वाले किसी भी बयान को बेमतलब साबित करने के उद्देश्य से ही माक्र्सवादी नेता ने यह बयान दिया है। वरना यह सभी जानते है कि लेफ्ट फ्रंट के नेता दिल्ली में एक सेकुलर सरकार बनाना चाहते हैं।

अभी उनकी पोजीशन है कि केंद्र में गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार बनानी है। यह उनकी इच्छा है और इस आदर्श स्थिति को हासिल करने के लिए वामपंथी नेता सारी कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि उन्हें मालूम है कि मौजूदा स्थिति में जो पार्टियां वामपंथी मोर्चा में शामिल है अगर उनके सभी उम्मीदवार जीत जायं तो भी 272 सीटों का लक्ष्य नहीं हासिल कर सकेंगे। जाहिर है ऐसी हालत में तीसरे मोर्चे को अपनी वैकल्पिक योजना को फौरन प्रस्तुत करना पड़ेगा क्योंकि अगर इसमें ज्यादा वक्त लगा तो तीसरा मोर्चा बिखरना शुरू हो जायेगा।

तीसरे मोर्चे में शामिल सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियां कभी न कभी भाजपा के साथ काम कर चुकी हैं और अगर बीजेपी की सरकार बनने की संभावना बनी तो इन पार्टियों को विचारधारा का कोई संकट पेश नहीं आयेगा क्योंकि सभी पार्टियां एनडीए या अन्य गठबंधनों में बीजेपी के साथ रही चुकी हैं। कभी किसी को अपना लक्ष्य मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। यहां सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि अगर गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार का लक्ष्य हासिल करने में तीसरे मोर्चे को सफलता न मिली तो क्या बीजेपी की सरकार बनने की स्थितियां उन्हें स्वीकार होगी अगर बीजेपी के सहयोग से बनने वाली सरकार में वामपंथी पार्टियों को कोई दिक्कत नहीं है, तब तो कोई बात नहीं।

लेकिन अगर बीजेपी को सत्ता में अपने से रोकने के अपने घोषित उद्देश्य को माक्र्सवादी नेता पूरी करना चाहते हैं तो उन्हें कांग्रेस का सहयोग जरुरी होगा। और प्रधानमंत्री का संवाद शुरु करने वाला बयान ऐसी परिस्थिति में सार्थक होगा। सरकार किसकी बनती है, यह उस वक्त की राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करेगा। वामपंथियों के सामने विकल्प दो ही हैं या तो सरकार कांग्रेस की हो और धर्मनिरपेक्ष ताकतें उसका समर्थन करें और या तीसरे मोर्चे का कोई नेता प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस उसे समर्थन दे।

Friday, June 26, 2009

शिव सैनिकों की सनक

यह संतोषजनक है कि शिव सैनिकों की धमकी और पथराव का सामना करने के बावजूद अधिवक्ता अंजलि वाघमारे ने मुंबई हमले के दौरान पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब की वकालत करने की इच्छा जताई। यह निराशाजनक भी है और निंदनीय भी कि शिव सैनिक खुद को प्रखर राष्ट्रभक्त प्रकट करने के फेर में देश की कानूनी प्रक्रिया को अपने हिसाब से चलाने पर आमादा हैं।

उनकी इस सनक भरी जिद का कोई मतलब नहीं कि किसी कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल किए बगैर कसाब को सीधे फांसी पर लटका दिया जाए। यह न तो 16 वीं सदी है और न ही भारत में जंगलराज है। आखिर शिव सेना इस साधारण सी बात पर विचार करने के लिए क्यों नहीं तैयार कि आतंकियों को सजा देने के मामले में उसके सुझावों पर अमल करना संभव नहीं? सच तो यह है कि आतंकियों को दंडित करने के संबंध में उसके उपाय भारत की बदनामी कराने वाले हैं।

जब भारतीय न्याय प्रक्रिया ही नहीं, नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भी यह कहता है कि किसी को अपने बचाव का मौैका दिए बगैर दंडित करना एक तरह का अन्याय है तब फिर शिव सेना की उछल-कूद का कोई मतलब नहीं। महज प्रचार पाने के लिए शिव सेना जो कुछ कर रही है उससे कुल मिलाकर कसाब सरीखे खूंखार आतंकी को दंडित करने में देरी ही हो रही है।

शिव सेना ने पहले यह सुनिश्चित किया कि कोई भी वकील कसाब की वकालत करने के लिए आगे न आने पाए और फिर जब अदालत ने विवश होकर अपनी ओर से एक वकील का नाम घोषित किया तो शिव सैनिक उसे धमकाने उसके घर तक पहुंच गए। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है?

माना कि इसे लेकर रंच मात्र भी संदेह नहीं कि कसाब ने मुंबई में बेहद घृणित कृत्य अंजाम दिया, लेकिन क्या उसे दंड का भागीदार बनाने के लिए न्याय प्रक्रिया का उल्लंघन कर दिया जाए? यदि शिव सैनिक अभी भी शिवाजी से प्रेरणा पाते हैं तो बेहतर होगा कि वे उनके आदर्शो से नए सिरे से कुछ सीख लें। इस तरह की मांग का तो औचित्य समझ आता है कि आतंकियों के मामलों की सुनवाई द्रुत गति से हो और ऐसी कोई व्यवस्था भी बनाई जाए जिससे उनके मुकदमे वर्षो तक न खिंचें, लेकिन ऐसे किसी विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता कि किसी को भी उनकी वकालत करने का अधिकार न मिले।

यह चिंताजनक है कि पिछले कुछ समय से शिव सेना सरीखे दलों के साथ-साथ वकीलों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आ गया है जो न तो स्वयं आतंकियों अथवा अन्य जघन्य अपराधियों की वकालत करता है और न ही किसी को करने देता है। जब कभी अदालत ऐसे तत्वों के लिए सरकारी खर्चे से वकील तय करती है तो उसका विरोध करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी संकोच नहीं किया जाता।

जो अधिवक्ता यह मानते हैं आतंकियों की वकालत करना अनुचित है वे अपनी इस मान्यता पर दृढ़ रह सकते हैं, लेकिन उन्हें अपनी इस मान्यता को दूसरों पर जबरन थोपने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। बेहतर होगा कि बार काउंसिल आफ इंडिया सरीखे संगठन अपने साथियों को यह स्पष्ट संदेश दें कि वे शिव सेना सरीखा दृष्टिकोण अपनाकर न्याय की गरिमा गिराने का काम कर रहे हैं।