Thursday, November 26, 2009

भागलपुर में दंगा पीड़ितों को मदद----एक ऐतिहासिक क़दम

शेषनारायण सिंह


बीस साल पहले जब भागलपुर में दंगे हुए थे तो पूरे देश में आतंक फ़ैल गया था. मुसलमानों को चुन चुन कर मारा गया था. आर एस एस ने यह साबित करने की कोशिश की थी कि उनकी मनमानी को कोई नहीं रोक सकता. बाबरी मस्जिद के खिलाफ फासिस्ट ताक़तें लामबंद हो रही थीं.. शिलापूजन का ज़माना था और बोफोर्स के चक्कर में केंद्र सरकार बैकफुट पर थी. इस पृष्ठभूमि में भागलपुर में मुसलमानों का क़त्ले-आम हुआ और १९८९ के चुनाव के बाद बी जे पी की मदद से विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए. जैसा कि हर बार होता रहा है, दंगे में मारे गए लोगों के परिवार वालों के घाव रिसते रहे, केंद्र सरकार में किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उनपर मरहम लगा सकता क्योंकि १९८९ में गैर कांग्रेसी सत्ता पर चारों तरफ से नागपुर की नकेल लगी हुई थी. १९८४ में सिखों के सामूहिक संहार के बाद के माहौल में कुछ हलकों से पीड़ित परिवारों के पुनर्वास की बात उठ रही थी लेकिन कोई भी इसे गंभीरता से नहीं ले रहा था. . उसके पहले देश में सैकड़ों दंगे हो चुके थे और कहीं भी किसी आर्थिक सहायता की बात नहीं हुई थी . लोग मान चुके थे कि दंगे के बाद अगर मुसलमान को शान्ति से पड़े रहने की आज़ादी मिल जाए तो वही बहुत है .

आज खबर आई है कि भागलपुर दंगों के पीड़ित परिवारों को कुछ आर्थिक सहायता मिलने वाली है. लगता है कि इस फैसले में बिहार की वर्तमान सरकार का योगदान है और उसके लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को श्रेय दिया जाना चाहिए... हालांकि किसी भी आर्थिक सहायता से दंगों से हुए जान माल के नुक्सान की भरपाई नहीं हो सकती लेकिन नीतीश कुमार का यह कदम सभ्य समाज में एक उम्मीद ज़रूर जगायेगा. १९८९ का भागलपुर दंगा , फासिस्ट ताक़तों की नयी तकनीक की शुरुआत माना जाता है. राम शिलापूजन के जुलूस पर किसी ने कथित रूप से बम से हमला कर दिया था . हिंदुत्व की नयी तर्ज़ पर राजनीति कर रही बी जे पी के सहयोगी संगठनों को दंगे का बहाना मिल गया और शायद पहली बार इस इलाके में दंगाई गावों में घुस कर लूटपाट करने लगे . दंगा गावों में बड़े पैमाने पर शुरू हो चुका था और संघ भावना से प्रेरित लोग खुशियाँ मना रहे थे . उनका मानना है कि अगर दंगा फैलता है तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता है और उसका फायेदा चुनाव में बी जे पी को ही होता है. १९८९ के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ. . वी पी सिंह की सरकार बनने के बाद लाल कृष्ण अडवाणी की रथयात्रा निकली . वी पी सिंह की कोर दबी हुई थी और जहां जहां अडवाणी का रथ गया , वहां वहां दंगे हुए. आज समाज के हर वर्ग में जो साम्प्रदायिकता का आलम है उसका ज़िम्मा अडवाणी की उस रथयात्रा पर काफी हद तक है. बहरहाल दंगे फैले और आर एस एस ने उसका लाभ उठाया . अब हालात बदल रहे हैं . सूचना की क्रान्ति के चलते मीडिया की पंहुच दूर दूर तक हो चुकी है . नेताओं को भी समझ में आने लगा है कि जनमत की दिशा तय करने में मीडिया की भूमिका है . हो सकता है कि भागलपुर दंगों के पीड़ितों को इसी सोच के तहत मदद करने का फैसला किया गया हो. जो भी हो यह क़दम महत्वपूर्ण है और इसके लिए बिहार सरकार की प्रशंसा की जानी चाहिए. हालांकि यह भी सच है कि नीतेश कुमार बिहार की गद्दी पर बी जे पी की कृपा से ही विद्यमान हैं लेकिन ऐसा लगता है कि बी जे पी वाले नीतीश कुमार की समाजवादी सोच को दबा नहीं पा रहे हैं .

अन्य राज्य सरकारों को भी चाहिए कि बिहार सरकार के इस क़दम से सबक लें और अपने राज्यों के दंगा पीड़ितों को मदद करें. . अगर एक बात शुरू हुई है तो इसका असर दूर दूर तक जाएगा. सभ्य समाज को कोशिश करना चाहिए कि आने वाले वक़्त में दंगा करने वालों की पहचान करके उनके संगठनों को ही पीड़ितों को सहायता देने का अभियान चलायें.. अगर ऐसा हो सका तो साम्प्रदायिक संगठनों के ऊपर सज़ा का दबाव पड़ेगा और भविष्य में दंगा शुरू करने से पहले लुम्पन लोगों को कई बार सोचना पड़ेगा. अगर दगाइयों को सज़ा देने की परंपरा भी शुरू हो गयी, जैसी सिख दंगों में ह़ा है तो राजनेताओं के लिए दंगों को अंजाम देने के लिए गरीब गुंडों को इस्तेमाल करना बहुत मुश्किल होगा.

Thursday, November 19, 2009

मंत्रियों की शाहखर्ची पर लगाम ज़रूरी

शेष नारायण सिंह


कर्णाटक के मुख्य मंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद, मुख्य मंत्री बी एस येदुरप्पा जिस घर में रहने गए, वह उन्हें ठीक नहीं लगा.. . उसकी सफाई सुथराई से उनको संतोष नहीं हुआ. कई एकड़ में बने हुए इस घर में पहले भी मुख्यमंत्री रह चुके हैं , अच्छा खासा घर है लेकिन मुख्यमंत्री की पसंद पर यह घर खरा नहीं उतरा. अफसर तुंरत सक्रिय हुए और घर दुरुस्त कर दिया गया ..इस घर को नए सिरे से सजाने संवारने में सरकारी खजाने से एक करोड़ सत्तर लाख रूपये का खर्च आया. . यहाँ गौर करने की बात यह है कि दिल्ली और मुंबई में इतने धन से आलीशान फ्लैट खरीदे जा सकते हैं . बहरहाल मुख्यमंत्री जी का घर रहने लायक बन गया और वे उसमें चैन की नींद ले रहे हैं . मतलब यह कि बेल्लारी बंधुओं के बावजूद जितनी नींद ली जा सकती है , ले रहे हैं .. देश के एक बड़े अखबार ने यह सूचना इकठ्ठा करके खबर छाप दी वरना दुनिया को मालूम ही न पड़ता कि कर्णाटक के मुख्यमंत्री जी की ऐश की सीमायें क्या हैं .कर्णाटक में आम आदमी के पैसे की जिस तरह से लूट हुई है उसमें मुख्यमंत्री के अलावा उनकी सरकार के और भी जिम्मेदार लोग शामिल हैं.उनके गृहमंत्री वी एस आचार्य के घर को सजाने सँवारने में इकसठ लाख तीस हज़ार , राजस्व मंत्री ,करुनाकर रेड्डी के घर में अट्ठासी लाख २६ हज़ार और उनकी ख़ास कृपापात्र , शोभा करंदलाजे के घर में अडतीस लाख पांच हज़ार रूपये खर्च हुए हैं .जब मुख्यमंत्री ही इतना खर्च कर रहा है कि तो बाकी लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है .. यहाँ यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि इस तरह की फिजूलखर्ची में बी जे पी वाले अकेले नहीं हैं. यह तो इत्तेफाक है कि आज उनकी कर्णाटक सरकार की पोल ही अखबारों ने खोली है . हर पार्टी में इस तरह के नवाबी खर्च करने वाले नेता मौजूद हैं . सवाल यह उठता है कि इस तरह के खर्च की अनुमति क्या इन्हें संविधान या अन्य किसी सरकारी कायदे कानून से मिला हुआ है . आज़ादी की लड़ाई के सभी महान नेता यह उम्मीद भी नहीं कर सकते थे कि आजाद भारत में कोई मंत्री इतना शाहखर्च हो जाएगा कि वह अपने ऐशो आराम के लिए इस तरह की फिजूलखर्ची कर सके . इसलिए उन्होंने इस बात का संविधान में कहीं ज़िक्र नहीं किया. आज के भ्रष्ट नेताओं की फौज यह बहाना लेती है कि संविधान में इस तरह की शाहखर्ची के खिलाफ कुछ नहीं लिखा हुआ है इसलिए उनको मनमानी करने का अधिकार है ... इस देश में यही नेता लोग अगर दस हज़ार की रिश्वत ले लें तो उनके खिलाफ एक्शन हो सकता है लेकिन अपनी नवाबी जीवनशैली के लिए अगर वे करोडों खर्च करें तो उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है क्योंकि संविधान के निर्माताओं को यह मालूम नहीं था कि जनता के प्रतिनिधि इस तरह की छिछोरी हरकतें भी कर सकते हैं ..


. तो यह है बी जे पी के दक्षिण के सरताज, बी एस युदुराप्पा की कहानी . इनकी तुलना महातम गाँधी से करके महात्मा जी का अपमान करना ठीक नहीं होगा . लेकिन इनकी अपनी पार्टी के संथापक सदस्य, पं दीन दयाल उपाध्याय का ज़िक्र करना ठीक रहेगा. दीन दयाल जी को जब ट्रेन यात्रा के दौरान किसी ने मार डाला था. तो उनके पास अपनी एक चादर , एक तौलिया, एक धोती और एक कुरते के अलावा एक घड़ी थी जो उन्हें नानाजी देशमुख ने कभी भेंट की थी. इसके अलावा उनके पास कुछ नहीं था उनका कहीं घर नहीं था. जिस शहर में भी होते थे उसी के किसी नेता के घर उनकी चिट्ठी पत्री पंहुचती थी. नानाजी देशमुख, जे पी माथुर ,अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, सुन्दर सिंह भंडारी, भाऊ राव देवरस जैसे नेता भी जनसंघ या बी जे पी में रहे हैं जो बहुत ही सादगी का जीवन बिताते थे . तो इन मुख्यमंत्री महोदय को सरकारी पैसे के इस दुरुपयोग की बात कहाँ से सूझी. . साफ़ लगता है कि यह इनकी अपनी फंतासी होगी. वरना आर एस एस, जो इनकी पार्टी का नियंता है , उसमें तो और भी सादगी के जीवन की व्यवस्था है . इस बात पर जनता के बीच में बहस होनी चाहिए .कि क्यों यह लोग जनता के पैसे पर लूट मचाते हैं और मस्त रहते हैं . राजनीतिक नेताओं के ऐशो आराम की कहानियां इतनी ज्यादा हो गयी हैं कि हमें लगने लगा है कि कहीं एक समाज में रूप में हमारी संवेदनाएं शून्य तो नहीं हो गयी हैं . वरना कही कोई मधु कोडा हजारों करोड़ डकार जाता है , कहीं कोई नेता चारे के पैसे को हज़म कर लेता है और कहीं कोई दलाल टाइप नेता जुगाड़ बाजी करके सरकारी कंपनियों को कौडियों के मोल बेच देता है और हम चुप रह जाते हैं .. एक राष्ट्र के रूप में हम क्यों नहीं खड़े हो जाते कि सार्वजनिक संपत्ति की लूट करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा. ऐसा नहीं कि हमारे देश में ऐसी परंपरा नहीं है . परम्परा की कमी नहीं है . अभी बीस साल पहले बोफोर्स में ली गयी ६५ करोड़ की कथित रिश्वत के चक्कर में स्थापित सता को चुनौती दी गयी थी . . उसके पहले भी अवाम ने १९७५ में स्थापित सत्ता को ललकार कर हराया है तो आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता .


बोफोर्स और १९७५ की इमर्जेंसी के दौरान जनता ने सरकारे बादल दी थीं. हो सकता है कि उन दोनों ही मुकाबलों में विपक्षी पार्टी की पहचान कर ली गयी थी . दोनों ही बार जनता कांग्रेस के खिलाफ लामबंद हो रही थी . लेकिन भ्रष्टाचार , बे-ईमानी, सरकारी धन की हेराफेरी के मौजूदा मामलों में सभी पार्टियों के नेता शामिल पाए जाते हैं . इसलिए जन आक्रोश का निशाना तय करने में मुश्किल पेश आयेगी. लेकिन एक अच्छी बात यह है कि अब ज़माना बदल गया है . सूचना के अधिकार जैसे कानून भी बन गए हैं और सूचना के प्रसार के परंपरागत साधनों पर निर्भरता भी ख़त्म हो गयी है . अब तो इन्टरनेट ने सूचना का लोकतंत्रीकरण कर दिया है . इसलिए जनता को राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के अलावा किसी और तरीके के से अपने आन्दोलन को चलाना होगा . तभी जाकर इन नेताओं के भ्रष्टाचार को नकेल लगाई जा सकेगी.. लेकिन यह काम बहुत ज़रूरी है .
आम तौर पर माना जाता है कि इस तरह के किसी आन्दोलन के नेतृत्व के लिए किसी बड़े नेता की ज़रुरत होती है. मसलन आज़ादी की लड़ाई महात्मा गाँधी ने लड़ी, १९७५ का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण के हाथ में था और बोफोर्स मामले में चला आन्दोलन कांग्रेस के बागी विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे करके लड़ा गया. लेकिन एक बात जो सच है वह यह कि सारे आन्दोलन मूल रूप से जनता के आन्दोलन थे और जब जनता का मन बन गया तो उनके बीच से ही कोई नेता बन गया. क्योंकि १९२० में महात्मा गाँधी का आन्दोलन ढीला पद गया था क्यों कोई उसे पूरी जनता का समर्थन नहीं प्राप्त था. उन्ही महात्मा गाँधी के नेतृत्व में १९४२ में पूरा देश उमड़ पड़ा था. १९७४ के पहले तक जय प्रकाश जी की पहचान विनोबा जी के करीबी और सर्वोदयी नेता के रूप में होती थी लेकिन जब बिहार में नौजवानों ने आन्दोलन के राह पकडी तो उन्होंने जय प्रकाश जी को अपना नेता माना और मुद्दा इतना अहम् था कि पूरा देश उनके साथ हो लिया. इसलिए ज़रुरत जनजागरण की है . आम आदमी को फैसला लेना है कि क्या वह भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी या नेता को बता देना चाहती है. क्या जनता यह फैसला करना चाहती है कि उसकी अपनी कमाई को लूटने वाले लोगों को निकाल बाहर फेंकने का वक़्त आ गया है? इसके लिए जनता को घूसखोरों के खिलाफ अपना मन बनाना पड़ेगा . एक बार अगर जनता तैयार हो गयी तो नेता के बिना कोई काम नहीं रुकता. अपने मुल्क में तो बहादुर शाह ज़फर जैसे कमज़ोर बादशाह को नेता बना कर ईस्ट india कंपनी का राज खत्म किया जा चुका है .. यहाँ यह साफ़ करना ज़रूरी है कि १८५७ की आज़ादी की लड़ाई सफल रही थी क्योंकि वह लड़ाई कंपनी के राज के खिलाफ शुरू की गयी थी और उसके बाद वह राज ख़त्म हो गया. यह अलग बात है कि अपने देश में उस वक़्त सता संभालने का बुनियादी ढांचा नहीं उपलब्ध था. अगर कांग्रेस जैसी कोई पार्टी होती तो, हो सकता है कि १८५७ के बार देश में ब्रिटिश एम्पायर का नहीं, अपने लोगों का देशी राज होता.

जो भी हो सरकार के हर स्तर पर फैले गैरजिम्मेदार नेताओं और अफसरों के खिलाफ जब तक जनता सोंटा नहीं उठाएगी कोई भी क्रातिकारी परिवर्तन नहीं होगा

Wednesday, November 18, 2009

बी जे पी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी

शेष नारायण सिंह

बी जे पी को एक बँटा हुआ घर कहकर नए संघ प्रमुख ने इस बात का ऐलान कर दिया है कि बी जे पी में किसी भी गुट की मनमानी नहीं चलेगी आर एस एस ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है कि देश में हिंदुत्व की राजनीति पर केवल उस का कण्ट्रोल है. दिल्ली में बैठे कॉकटेल सर्किट वालों की किसी भी राय का संघ के फैसलों पर कोई असर नहीं पड़ता.पिछले कई महीनों से चल रहे आतंरिक विवाद का जब कोई हल नहीं निकला तो , संघ के मुखिया , मोहन भागवत ने बाकायदा एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू दिया. इस इंटरव्यू में जो कुछ उन्होंने कहा , उसका भावार्थ यह है कि बी जे पी में अब तक सक्रिय अडवाणी और राजनाथ गुटों को किनारे करने का फैसला हो चुका है. दिल्ली में सक्रिय मौजूदा बी जे पी नेताओं की ऐसी ताक़त है कि वे किसी भी नेता के सांकेतिक भाषा में दिए गए बयान को अपने हिसाब से मीडिया में व्याख्या करवा देते हैं . लगता है कि नागपुर वालों को भी इस ताक़त का अंदाज़ लग गया है. इसीलिये अबकी बार , मोहन भागवत ने हिन्दी के सबसे बड़े टी वी न्यूज़ चैनल को अपनी बात कहने के लिए चुना.. कहीं कोई शक न रह जाए इस लिए उन्होंने अडवाणी के करीबी चार बड़े नेताओं का नाम लेकर उन्हें अध्यक्ष पद की दावेदारी से बाहर कर दिया. जब अरुण जेटली,सुषमा स्वराज और वेंकैया नायडू बी जे पी संगठन से बाहर हो जायेंगें , तो एक तरह से अडवाणी की ताक़त ख़त्म हो जायेगी क्योंकि लोकसभा में पार्टी के नेता पद से अडवाणी को हटाने का फैसला पहले ही किया जा चुका है. उस फैसले को लागू करने में थोड़ी मोहलत दे दी गयी है लेकिन हिंदुत्व की राजनीति की बारीकियां समझने वाले जानते हैं कि अडवाणी के लिए अब लोकसभा में नेता बने रहना असंभव है . इसी तरह तो उनके जिन्नाह वाले भाषण के बाद अडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाया गया था. उस वक़्त भी कुछ दिन तक दिल्ली के सत्ता के गलियारों में और मीडिया में प्लांट की गयी ख़बरों के ज़रिये फैसले को टालने की कोशिश की गयी थी लेकिन आखिर में जाना ही पड़ा था. इस बार भी मामला लेट लतीफ़ तो हो सकता है लेकिन अडवाणी और राजनाथ के ख़ास बन्दों के कब्जे से संघ के आला नेता अपनी पार्टी को निकाल लेने का मन बना चुके हैं . यह भी एक सच है कि दिल्ली में जमे हुए अमीर-उमरा आसानी से सत्ता नहीं छोड़ते लेकिन नागपुर की ताक़त को भी कम करके नहीं आँका जा सकता . नागपुर को भी मालूम है कि दिल्ली वाले पूरी कोशिश करेंगें लेकिन आर एस एस का काम भी पूरी प्लानिंग के साथ होता है . १९९८ में सत्ता में आने के बाद जिस तरह से बी जे पी के नेताओं और मंत्रियों ने कांग्रेसियों की तरह घूस और बे-ईमान्री का आचरण शुरू किया था , उस से आर एस एस के नेताओं को बहुत निराशा हुई थी. उसी दौर में उन्होंने अपने सबसे काबिल संगठनकर्ता , गोविन्दाचार्य को बी जे पी से अलग कर दिया था और उन्हें बी जे पी का विकल्प तलाशने और राजनीतिक हस्तक्षेप की अन्य संभावनाओं को तलाशने का काम सौंप दिया था.. राष्ट्र निर्माण जैसे नारों के साथ गोविन्दाचार्य तभी से इस काम में जुटे हुए हैं. उनकी कोशिश है कि आर एस एस के बाहर से भी लोगों को लाकर जोड़ा जाए. देश के ज़्यादातर गांधीवादी संगठनों पर आर एस एस का कब्जा हो ही चुका है . कोशिश की जा रही है कि हिंद स्वराज जैसी गाँधी की विरासत की निशानियों की भी हिन्दुत्ववादी व्याख्या कर ली जाये और जल्द से जल्द बी जे पी का विकल्प तैयार कर लिया जाए. अभी तक के एप्रगति को देखन इसे लगता है कि उसमें अभी कुछ और टाइम लगेगा. शायद इसीलिये संघ ने फैसला किया है कि तब तक दिल्ली में जमे हुए नेताओं के कब्जे से बाहर लाकर अपनी राजनीतिक शाखा को अपने ख़ास बन्दों के हवाले कर दिया आये. जिस से अगर बहुत ज़रूरी न हो तो नयी पार्टी बनाने की झंझट से बचा जा सके.

महाराष्ट्र के बी जे पी अध्यक्ष , नितिन गडकरी की ताजपोशी की तैयारी, शायद इसी योजना का हिस्सा है . नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं . पेशे से इंजीनियर , नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पी डब्ल्यू डी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती. है.उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको भी मालूम है कि यह बात चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं , वहां नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे राज्य में मंत्री रह चुके हैं , उनके पीछे आर एस एस का पूरा संगठन खडा है तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं . और इस बात को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं . मुंबई, बेंगलुरु , हैदराबाद आदि शहरों में भी राष्ट्रीय अनुभव हो सकते हैं . बहरहाल अब लग रहा है कि नितिन गडकरी ही बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगें और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा . राजंथ सिंह की तैनाती के बाद भी दिल्ली वाली जमात को इसी दौर से गुज़रना पड़ा था. .. यह बात भी सच है कि दिल्ली वाले नेता नागपुर की मनमानी को आसानी से मानने वाले नहीं है ..अडवाणी गुट की एक प्रमुख नेता, सुषमा स्वराज ने बयान दिया है कि अडवाणी से पांच साल के लिए लोक सभा में बी जे पी के नेता चुने गए हैं और वे अपना कार्यकाल पूरा करेंगें . राजनीतिक पर्यवेक्षक मानते हैं कि इस बयान में बगावत की बू आ रही है . हो सकता है सच भी हो लेकिन हिंदुत्व की राजनीति में बड़े बड़े लोगों की बगावत को कुचल दिया गया है. सुषमा स्वराज की बी जे पी में रहते हुए, संघ के खिलाफ झंडा बुलंद करने की वैसे भी हैसियत नहीं है क्योंकि वे मूल रूप से समाजवादी राजनीति के रास्ते सत्ता की राजनीति में आई हैं . जिस उम्र में लोग संघ की राजनीति में शामिल होते हैं उस दौर में वे अम्बाला में रह कर आर एस एस को एक फासिस्ट संगठन कहती थीं. बाद में जनता पार्टी बनने पर मंत्री बनीं और जब बी जे पी वाले जनता पार्टी से अलग हुए तो हिन्दुत्ववादी बनीं. इसलिए संघ की राजनीति में उनकी पोजीशन दूसरे स्तर की है. इस लिए अब इस बात में कोई शक नहीं है कि हिन्दुत्व की राजनीति इस देश में करवट ले रही है और आने वाले कुछ महीनों में हिन्दुत्ववादी ताक़तें रिग्रुप होने जा रही हैं .

सचिन की हैसियत के मुकाबले में बाल ठाकरे की औकात

शेष नारायण सिंह

भोजपुरी अभिनेता और गायक मनोज तिवारी के घर पर कुछ गुंडा टाइप लोगों ने हमला कर दिया और तोड़ फोड़ की. मनोज वहां थे नहीं वरना उनको भी नुक्सान पंहुंच सकता था. . जो लोग आये थे उन्होंने अपनी कोई पहचान तो नहीं बतायी लेकिन कहा कि शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने जब क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को फटकार लगाई तो उस पर अपनी प्रतिक्रिया देकर मनोज तिवारी ने शिवसेना के मुखिया को नाराज़ कर दिया है. यह मुखिया महोदय सचिन तेंदुलकर से भी नाराज़ हैं क्योंकि उसने कहीं कह दिया था कि उन्हें भारतीय होने पर गर्व है..अब सचिन ने क्या गलत बात कह दी कि बाल ठाकरे नाराज़ हो गए. कमज़ोर लोगों को हड़का कर ही बाल ठाकरे ने अपनी राजनीतिक खेती की है. उन इस गुण को उनके बेटे तो नहीं अपना पाए लेकिन उनके भतीजे राज ठाकरे में वे सारे गुण विद्यमान हैं . वे भी अपने स्वनामधन्य चाचा की तरह ही मुंबई में आकर रोटी कमाने वालों को धमकाते रहते हैं . और पिछले चुनाव में उनकी हैसियत बढ़ गयी जबकि बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे बेचारे पिछड़ गए. .. सचिन तेंदुलकर को नसीहत देने वाला बाल ठाकरे का सम्पादकीय उसी लुम्पन राजनीति के खोये हुए स्पेस को फिर से हासिल करने की कोशिश है . लेकिन लगता है कि इस बार दांव उल्टा पड़ गया है . बाल ठाकरे के बयान पर पूरे देश में नाराज़गी व्यक्त की जा रही है. हालांकि इस बात की ठाकरे ब्रांड राजनीति करने वालों को कभी कोई परवाह नहीं रही लेकिन अब शिव सेना की सहयोगी पार्टी बी जे पी ने भी सार्वजनिक रूप से सचिन तेंदुलकर को सही ठहरा कर बाल ठाकरे को बता दिया है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी के बर्दाश्त की भीएक हद होतीहै. और बी जे पी के लिए ठाकरे की हर बात को सही कहना संभव नहीं होगा. बी जे पी का बयान किसी प्रवक्ता टाइप आदमी ने नहीं दिया है . पार्टी की तरफ से उनके सबसे गंभीर और प्रभावशाली नेता , अरुण जेटली ने बयान दिया है. अरुण जेटली कोई प्रकाश जावडेकर या रवि शंकर प्रसाद तो हैं नहीं कि उनके बयान को कोई बड़ा नेता खारिज कर देगा . इसलिए अब यह शिव सेना को तय करना है कि मराठी मानूस की अहंकार पूर्ण नीति चलानी है कि सही तरीके से राजनीतिक आचरण करना है . अरुण जेटली के बयान का साफ़ मतलब है कि बी जे पी अब शिवसेना के उन कारनामों से अपने को अलग कर लेगी जो देशवासियों में नफरत फैलाने की दिशा में काम कर सकते होंगें..

सचिन तेंदुलकर को मराठी मानूस वाले खांचे में फिट करने की कोशिश करके बाल ठाकरे ने जहां राष्ट्रीय एकता का अपमान किया है वहीं सचिन को भी नुक्सान पहुचाने की कोशिश की है .सचिन तेंदुलकर आज एक विश्व स्तर के व्यक्ति हैं . पूरे भारत में उनके प्रसंशक हैं . जगह जगह उनके फैन क्लब बने हुए हैं. पूरे देश की कंपनियों से उन्हें धन मिलता है क्योंकि वे उनके विज्ञापनों में देखे जाते हैं . . इस तरह के व्यक्ति को अपने पिंजड़े में बंद करने की बाल ठाकरे की कोशिश की चारों तरफ निंदा हो रही है. विधान सभा चुनावों में राज ठाकरे की मराठी शेखी की मदद कर रही , कांग्रेस पार्टी ने भी बाल ठाकरे की बात का बुरा माना है .महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, अशोक चह्वाण ने भी बाल ठाकरे को उनके गैर ज़िम्मेदार बयान के लिए फटकार लगाई है. . लगता है कि शिव सेना के बूढ़े नेता से नौजवानों के हीरो सचिन तेंदुलकर की अपील के तत्व को समझने में गलती हो गयी क्योंकि अगर कहीं सचिन तेंदुलकर ने अपनी नाराज़गी को ज़ाहिर कर दिया तो शिव सेना का बचा खुचा जनाधार भी भस्म हो जाएगा. पता नहीं बाल ठाकरे को क्यों नहीं सूझ रहा है कि सचिन तेंदुलकर की हैसियत बहुत बड़ी है और किसी बाल ठाकरे की औकात नहीं है कि उसे नुक्सान पंहुचा सके. हाँ अगर सचिन की लोकप्रियता की चट्टान के सामने आकर उसमें सर मारने की कोशिश की तो बाल ठाकरे का कुनबा मराठी समाज के राडार से हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा. क्योंकि जिंदा कौमें अपने हीरो का अपमान करने वालों को कभी माफ़ नहीं करतीं.
सचिन से पंगा लेना बाल ठाकरे को महंगा पड़ेगा इसमें कोई शक नहीं है लेकिन जब तक समय की गति के साथ यह बात ठाकरे के लोगों को पता चलेगी तब तक अपने आका के हुक्म से काम करने वाले शिव सेना के लुम्पन भाई लोग कम से कम मुंबई में अपनी ताक़त का जलवा दिखाने से बाज़ नहीं आयेंगें. . इसका मतलब यह हुआ कि मुंबई एक बार फिर बदमाशी की राजनीति का शिकार होने वाली है. . महानगर के सभ्य समाज को अभी वे दिन नहीं भूले हैं जब राज ठाकरे ने बिहार से आये लोगों को कल्याण स्टेशन पर पिटवाया था, या उत्तर भारत के टैक्सी वालों को नुक्सान पहुचाया था. दुर्भाग्य की बात यह है कि महाराष्ट्र की सरकारें ठाकरे परिवार की राजनीतिक गुंडागर्दी को बर्दाश्त करती हैं , कभी कभी तो बढ़ावा भी देती हैं . ऐसा शायद इस लिए होता रहा है कि हर बार ठाकरे छाप बदमाशी गरीब उत्तर भारतियों या दक्षिण भारतीयों को निशाना बनाती थी लेकिन इस बार तो ठाकरे ने मराठी गौरव के प्रतीक सचिन तेंदुलकर को ही अपनी नफरत की राजनीति के घेरे में ले लिया है . बाल ठाकरे के इस कारनामें को समझने के लिये अगर क्रिकेट की शब्दावली का प्रयोग करें तो इसे लूज़ बाल कहा जाएगा. सबको मालूम है कि जब लूज़ बाल आती है तो छक्का पड़ जाता है . सभ्य समाज को चाहिए कि महाराष्ट्र सरकार पर दबाव बनाए कि वह बाल ठाकरे के इस लूज़ बाल पर छाका मारे और उसे पकड़ कर जेल में बंद कर दे. बाल ठाकरे की नफरत की राजनीति पर लगाम लगाने के लिए यह एक अच्छा अवसर है

Monday, November 16, 2009

ओबामा ने पाकिस्तान परस्त अफसर को तैनात करके गलती की

- शेष नारायण सिंह
अमरीकी राष्ट्रपति, बराक हुसैन ओबामा ने दक्षिण एशिया में गलतियाँ करना शुरू कर दिया है..उन्होंने पाकिस्तान को अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के एक हिस्से की निगरानी का काम रोबिन राफेल को दे दिया है . यह हिस्सा गैर सैनिक सहायता का है. जब अमरीका ने केरी-लुगर एक्ट के तहत पाकिस्तान को करीब डेढ़ अरब डालर प्रति वर्ष की आर्थिक सहायता देने की बात की थी और उसमें बड़ी बड़ी शर्तें लगाई थीं जिसके मुताबिक अमरीका की मदद के एक एक पैसे का हिसाब रखा जाना था और पाकिस्तानी फौजियों पर सिविलियन सरकार की निगरानी रखी जानी थी तो लोगों ने उम्मीद बांधी थी कि अब अमरीका सुधर रहा है. अमरीकी टैक्सपेयर का पैसा पाकिस्तान की मनमानी के हवाले न करके , ऐसा इन्तेजाम कर दिया है कि उसका इस्तेमाल पाकिस्तानी अवाम के लिए होगा . लेकिन इन उम्मीदों पर हमेशा के लिए पानी फेर दिया गया है. अमरीकी गैर सैनिक सहायता की निगरानी का काम अमरीकी सरकार की रिटायर अफसर , रोबिन राफेल के जिम्मे कर दिया गया है. यह तेज़ तर्रार महिला अफसर काबिल तो बहुत हैं लेकिन यह पाकिस्तानी फौज, शासक वर्ग और उनकी खुफिया एजेंसियों से बहुत ही घुली मिली हैं. इनकी तैनाती का मतलब यह है कि पाकिस्तानी फौज जिस तरह से भी चाहे अमरीकी आर्थिक सहायता का इस्तेमाल कर सकती है. रोबिन राफेल को किसी भी कागज़ पर दस्तखत कर देने में कोई दिक्क़त नहीं होगी. लगता है के केरी-लुगर के आर्थिक सहायता वाले कानून के असर को पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत उपयोगी बनाने की गरज से यह नियुक्ति की गयी है. यह वास्तव में अमरीकी फौज को दी गयी एक रियायत है.. जो लोग अमरीकी अफसर रोबिन राफेल को नहीं जानते , उनके लिए इस पहली को समझना थोडा मुश्किल होगा लेकिन दक्षिण एशिया के कूटनीतिक हलकों में इनका इतना नाम है कि कूटनीति का मामूली जानकार भी सारी बात को बहुत आसानी से समझ सकता है . आप ९० के दशक के शुरुआती वर्षों में अमरीकी प्रशासन में दक्षिण एशिया से सम्बंधित मामलों की सहायक सचिव थीं और हर मामले में अमरीकी रुख को भारत के खिलाफ करती रहती थीं. इन्होने ने कश्मीर को अमरीकी विदेशनीति की किताबों में "विवादित क्षेत्र" घोषित करवाया था. जब ये सहायक सचिव के रूप में तैनात थीं, तो पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र में अमरीकी विदेश नीति को सही दिशा में चलाने में मदद देना इनका मुख्य काम था लेकिन इन्होने अपने को पाकिस्तान के दोस्त के रूप में पेश करना ही ठीक समझा . इनके पक्षपात पूर्ण रुख का फायदा , बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उठाया. उस दौर में भारत और अमरीका के आपसी रिश्तों में जो ज़हर इन्होने घोला था, बाद के अमरीकी राष्ट्रपतियों ने उसको साफ़ करने में बहुत मेहनत की .इस पृष्ठभूमि में यह समझ में नहीं आ रहा है कि बराक ओबामा जैसे सुलझे हुए राष्ट्रपति ने पाकिस्तान और अमरीका के बीच ऐसे किसी इंसान को क्यों आने दिया जिसका पाकिस्तान प्रेम इस हद तक जाता है कि वह भारत की दुश्मनी की भी परवाह नहीं करता.

रोबिन राफेल के पाकिस्तान प्रेम के कुछ भावात्मक कारण भी हैं . सबसे महत्वपूर्ण तो शायद यह है कि इनके पति आर्नाल्ड राफेल , पूर्व पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल जिया उल हक के करीबी दोस्त थे . १७ अगस्त १९८८ को जिस विमान हादसे में जिया की मौत हुई, उसी विमान में रोबिन राफेल के पति आर्नाल्ड राफेल भी सवार थे. ज़ाहिर है वह दौर अमरीका और पाकिस्तान की दोस्ती का सबसे बेहतरीन दौर है. उसी दौर में अमरीका ने पाकिस्तान के लिए थैलियाँ खोल दी थीं क्योंकि पाकिस्तानी फौज आज के अपने दुश्मन ,,इन्हीं तालिबान और ओसामा बिल लादेन के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही थी और अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को भगाने का काम चल रहा था. भारत उन दिनों अमरीका का दुश्मन माना जाता था क्योंकि उसकी दोस्ती सोवियत रूस से थी और पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका की मदद से भारत को तबाह करने पर आमादा थे. भारतीय पंजाब में पाकिस्तान की खुफिया एजेन्सी , आई एस आई के आर्शीवाद से आतंकवाद पूरी बुलंदी पर था और कश्मीर में आतंकवाद की तैयारियों में पाकिस्तानी खाद पड़ रही थी. ज़ाहिर है पाकिस्तान से कूटनीतिक सम्बन्ध बनांये रखने के लिए अमरीका अपने बहुत ही अधिक भरोसे के अफसर को वहां राजदूत बनाएगा. और पाकिस्तानी राष्ट्रपति का निजी विश्वास भी उस अफसर पर था , इसीलिए , अपने सबसे ज्यादा भरोसे के अफसरों के साथ किसी सैनिक विमान में यात्रा करते वक़्त , जिया उल हक ने एक विदेशी को साथ ले जाने का फैसला किया . और वह राजदूत इन रोबिन राफेल साहिबा का पति था. पाकिस्तान के मामलों में इनकी दिलचस्पी की यही व्याख्या बताते हैं . पाकिस्तान में बहुत सारे परिवारों में रोबिन राफेल के घरेलू ताल्लुकात भी हैं . पाकिस्तानी राजनयिक, शफ़क़त काकाखेल का परिवार भी ऐसा ही एक परिवार है. शफ़क़त काकाखेल ९० के दशक में दिल्ली के पाकिस्तानी दूतावास में एक बड़े पद पर तैनात थे. उन दिनों के कूटनीतिक हलकों के जानकारों को मालूम है कि श्री काकाखेल जिस तरह से चाहें , अमरीकी नीति को मोड़ सकते थे. वैसे यह बात बिलकुल सच है कि रोबिन राफेल और शफ़क़त काकाखेल की जोड़ी ने भारत के खिलाफ अमरीका का खूब जमकर इस्तेमाल किया और आज भी उन दिनों हुए नुक्सान को संभालने की कोशिश की अमरीकी राजनयिक करते रहते हैं ..

अमरीकी सरकार की सेवा से रिटायर होने के बाद भी रोबिन राफेल साहिबा अमरीका में पाकिस्तान के लिए लाबी करने का काम करती रही हैं ..उनके कुछ ताज़ा काम ऐसे हैं जो कि उनकी निष्पक्षता पर सवाल पैदा कर देते हैं. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने अमरीका के लिए जमकर लाबीइंग की है. और पाकिस्तान से रक़म भी बतौर फीस वसूल पायी है . . पाकिस्तान में अमरीकी खैरात का हिसाब रखने के लिए की गयी उनकी तैनाती ऐसी ही है जैसे कहीं किसी खदान से हो रही चोरी को रोकने के लिए मधु कोडा को तैनात कर दिया जाए ..अमरीकी प्रशासन, ख़ास कर राष्ट्रपति ओबामा को चाहिए कि रोबिन राफेल की नियुक्ति को फ़ौरन रद्द कर दें वरना पूरी दुनिया जान जायेगी कि अमरीका पाकिस्तानी फौज के अफसरों के सामने घुटने टेक चुका है

Thursday, November 12, 2009

भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ जनता का लामबंद होना ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में सत्ता का संघर्ष चल रहा है. हो सकता है कि आज सब कुछ ठीक ठाक हो जाए.मुख्य मंत्री बने रहें और उनके विरोधी भी खुश हो जाएँ. एक सत्ता का संघर्ष पिछले १५ दिनों से महाराष्ट्र में चल रहा था , वहां भी सब कुछ निपट गया . अब सब शान्ति शान्ति है. हरियाणा में भी सत्ताधारी पार्टी के खातेमें बहुमत से कुछ कम सीटें आ गयी थीं तो वहां भी सत्ता में कुछ चिंता के बादल घिर आये थे ,वहां भी सब कुछ संभाल लिया गया. सभी निर्दलियों को मंत्री बना दिया गया. सब अमन चैन है. उत्तर परदेश में सत्ता की शीर्ष पर बैठी दलित अस्मिता की पहचान बन चुकी नेता भी कुछ कष्ट में चल रही हैं . उनके दुश्मनों ने कहीं से ढूंढ निकाला है कि उनके पास जो धन दौलत है , वह उनके घोषित आमदनी के साधनों से बहुत ज्यादा है.. झारखण्ड के एक पूर्व मुख्यमंत्री आजकल बीमार हैं जहां से वे सीधे जेल जायेंगें क्योंकि सत्ता में बिताये गए कीब २ वर्षों में उन्होंने इतनी दौलत इकठ्ठा कर ली कि उनके दुश्मनों को गुस्सा आ गया और उनकी सारी पोल खुल गयी. उनके साथ उनके गिरोह के कुछ और लोग भी पकडे जा सकते हैं . झारखण्ड वाले बाबूजी का खेल तो कुछ इतना दिलचस्प है कि उनकी संपत्ति की हनक पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है. अबू धाबी के एम के माल से लाकर लाइबेरिया और थाईलैंड तक उनके रूपयों की खनक महसूस की जा रही है . लेकिन उनकी दौलत की कृपा से मुंबई में भी एक घर में उदासी छा गयी है. झारखण्ड के एक मधु कोडा मार्गी मंत्री के मुंबई वाले रिश्तेदार मंत्री बनते बनते रह गए क्योंकि दुश्मनों ने जनपथ में विराजमान सत्ता की अधिष्ठात्री को बता दिया था कि झारखण्ड से निकला रूपया मुंबई में भी काम कर रहा है. पश्चिम बंगाल में भी सत्ता का एक खतरनाक खेल खेला जा रहा है . वहां तो पिछले ३३ साल से गद्दी पर विराजमान वामपंथियों को खदेड़ने के लिए आतंकवादियों तक की मदद ली जा रही है ..

मुराद यह है सत्ता के खेल में हर जगह उठा पटक मची है . यहाँ गौर करने की बात यह है कि इस खेल में हर पार्टी के बन्दे शामिल हैं और सत्ता हासिल करने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं. सत्ता के प्रति इस दीवानगी की उम्मीद संविधान निर्माताओं को नहीं थी वरना शायद इसका भी कुछ इंतज़ाम कर दिया गया होता. आज़ादी के बाद जब सरदार पटेल अपने गाव गए ,तो कुछ महीनों तक वहीं रह कर आराम करना चाहते थे लेकिन नहीं रह सके क्योंकि जवाहरलाल नेहरु को मालूम था कि देश की एकता का काम सरदार के बिना पूरा नहीं हो सकता. इस तरह के बहुत सारे नेता थे जो सत्ता के निकट भी नहीं जाना चाहते थे. १९५२ के चुनाव में ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां कांग्रेस ने लोगों को टिकट दे दिया और वे लोग भाग खड़े हुए , कहीं रिश्तेदारी में जा कर छुप गए और टिकट किसी और को देना पड़ा लेकिन वह सब अब सपना है . अब वैसा नहीं होता . ६० के दशक तक चुनाव लड़ने के लिए टिकट मांगना अपमान समझा जाता था . पार्टी जिसको ठीक समझती थी , टिकट दे देती थी . ७० के दशक में उस वक़्त की प्रतिष्ठित पत्रिका दिनमान ने जब टिकट याचकों को टिकटार्थी नाम दिया तो बहुत सारे लोग इस संबोधन से अपमानित महसूस करते थे. लेकिन ८० के दशक तक तो टिकटार्थी सर्व स्वीकार्य विशेषण हो गया. लोग खुले आम टिकट माँगने लगे, जुगाड़बाजी का तंत्र शुरू हो गया. इन हालात को जनतंत्र के लिए बहुत ही खराब माना जाता था लेकिन अब हालात बहुत बिगड़ गए हैं . जुगाड़ करके टिकट माँगने वालों की तुलना आज के टिकट याचकों से की जाए तो लगेगा कि वे लोग तो महात्मा थे क्योंकि आजकल टिकट की कीमत लाखों रूपये होती है. दिल्ली के कई पडोसी राज्यों में तो एक पार्टी ने नियम ही बना रखा है कि करीब १० लाख जमा करने के बाद कोई भी व्यक्ति टिकट के लिए पार्टी के नेताओं के पास हाज़िर हो सकता है . उसके बाद इंटरव्यू होता है जिसके बाद टिकट दिया जाता है यानी टिकट की नीलामी होती है. ज़ाहिर है इन तरीकों से टिकट ले कर विधायक बने लोग लूट पाट करते हैं और अपना खर्च निकालते हैं . इसी खर्च निकालने के लिए सत्ता के इस संघर्ष में सभी पार्टियों के नेता तरह तरह के रूप में शामिल होते हैं .सरकारी पैसे को लूट कर अपने तिजोरियां भरते हैं और जनता मुंह ताकती रहती है . अजीब बात यह है कि दिल्ली में बैठे बड़े नेताओं को इन लोगों की चोरी बे-ईमानी की ख़बरों का पता नहीं लगता जबकि सारी दुनिया को मालूम रहता है.

इसी लूट की वजह से सत्ता का संघर्ष चलता रहता है .सत्ता के केंद्र में बैठा व्यक्ति हजारों करोड़ रूपये सरकारी खजाने से निकाल कर अपने कब्जे में करता रहता है. और जब बाकी मंत्रियों को वह ईमानदारी का पाठ पढाने लगता है तो लोग नाराज़ हो जाते हैं और मुख्यमंत्री को हटाने की बात करने लगते हैं . कर्णाटक की लड़ाई की यही तर्ज है.. झारखण्ड की कहानी में एक अनुभवहीन नेता का चरित्र उभर कर सामने आता है जिसने चोरी की कला में महारत नहीं हासिल की थी . जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा में सत्ता के संघर्ष में सरकारी पैसा झटकने के गुणी लोगों की बारीक चालों का जो बांकपन देखने को मिला वह झारखण्ड जैसे राज्यों में बहुत समय बाद देखा जाएगा.
सवाल पैदा होता है कि यह नेता लोग जनता के पैसे को जब इतने खुले आम लूट रहे होते हैं तो क्या सोनिया गाँधी, लाल कृष्ण आडवाणी. प्रकाश करात, लालू यादव , मुलायम सिंह यादव , मायावती , करूणानिधि , चन्द्रबाबू नायडू , फारूक अब्दुल्ला जैसे नेताओं को पता नहीं लगता कि वे अपनी अपनी पार्टी के चोरों को समझा दें कि जनता का पैसा लूटने वालों को पार्टी से निकाल दिया जाएगा. लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इन सारे नेताओं को सब कुछ पता रहता है और यह लोग भ्रष्ट लोगों को सज़ा देने की बात तो खैर सोचते ही नहीं, उनको बचाने की पूरी कोशिश करते हैं . हाँ अगर बात खुल गयी और पब्लिक ओपीनियन के खराब होने का डर लगा तो उसे पद से हटा देते हैं . सजा देने की तो यह लोग सोचते ही नहीं, अपने लोगों को बचाने की ही कोशिश में जुट जाते हैं . यह अपने देश के लिए बहुत ही अशुभ संकेत हैं . जब राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भ्रष्टाचार को उत्साहित करने लगें तो देश के लिए बहुत ही बुरी बात है. लेकिन अगर भारत को एक रहना है तो इस प्रथा को ख़त्म करना होगा . हम जानते हैं कि यह बड़े नेता अपने लोगों को तभी हटाते हैं जब कि पब्लिक ओपीनियन इनके खिलाफ हो जाए. यानी अभी आशा की एक किरण बची हुई है और वह है बड़े नेताओं के बीच पब्लिक ओपीनियन का डर . इसलिए सभ्य समाज और देशप्रेमी लोगों की जमात का फ़र्ज़ है कि वह पब्लिक ओपीनियन को सच्चाई के साथ खड़े होने की तमीज सिखाएं और उसकी प्रेरणा दें. लेकिन पब्लिक ओपीनियन तो तब बनेगे जब राजनीति और राजनेताओं के आचरण के बारे में देश की जनता को जानकारी मिले. जानकारी के चलते ही १९२० के बाद महात्मा गाँधी ने ताक़तवर ब्रितानी साम्राज्यवाद को चुनौती दी और अंग्रेजों का बोरिया बिस्तर बंध गया. . एक कम्युनिकेटर के रूप में महात्मा गाँधी की यह बहुत बड़ी सफलता थी . आज कोई गाँधी नहीं है लेकिन देश के गली कूचों तक इन सत्ताधारी बे-ईमानों के कारनामों को पहुचाना ज़रूरी है . क्योंकि अगर हर आदमी चौकन्ना न हुआ तो देश और जनता का सारा पैसा यह नेता लूट ले जायेंगें .

इस माहौल में यह बहुत ज़रूरी है कि जनता तक सबकी खबर पहुचाने का काम मीडिया के लोग करें. यह वास्तव में मीडिया के लिए एक अवसर है कि वह अपने कर्त्तव्य का पालन करके देश को इन भ्रष्ट और बे-ईमान नेताओं के चंगुल से बचाए रखने में मदद करें. अब कोई महात्मा गाँधी तो पैदा होंगें नहीं, उनका जो सबसे बड़ा हथियार कम्युनिकेशन का था , उसी को इस्तेमाल करके देश में जवाबदेह लोकशाही की स्थापना की जा सकती है . गाँधी युग में भी कहा गया था कि जब 'तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो '. अखबार निकाले गए और ब्रितानी साम्राज्य की तोपें हमेशा के लिए शांत कर दी गयी. इस लिए मीडिया पर लाजिम है कि वह जन जागरण का काम पूरी शिद्दत से शुरू कर दे और जनता अपनी सत्ता को लूट रहे इन भ्रष्ट नेताओं-अफसरों से अपना देश बचाने के लिए आगे आये.

दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते

शेष नारायण सिंह

कुछ राज्यों में हुए उप-चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होते रूप को और मजबूती दी है. इन चुनावों के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जनता के विश्वास पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता और अब वोटों की ज़मींदारी प्रथा ख़त्म हो रही है. पश्चिम बंगाल से जो नतीजे आये हैं उनसे साफ़ है कि अगर जनता को भरोसेमंद विकल्प मिले तो वह वोट देने में उसका सही इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करेगी. वर्षों तक , तृणमूल कांग्रेस को नॉन-सीरियस राजनीतिक ताक़त मानने वाली पश्चिम बंगाल की जनता ने ऐलान कर दिया है कि वह राज करने वाला नौकर बदलने के मूड में है .ममता बनर्जी को अब वहां की जनता ने गंभीरता से लेने का मन बना लिया है .. पिछले ३३ साल के राज में लेफ्ट फ्रंट ने बहुत सारे अच्छे काम किये जिसकी वजह से दिल्ली की हर सरकार की मर्जी के खिलाफ जनता ने कम्युनिस्टों को सत्ता दे रखी थी लेकिन अब जब कि लेफ्ट फ्रंट के नेता लोग गलतियों पर गलतियाँ करते जा रहे हैं तो जनता ने उन्हें सबक सिखाने का फैसला कर लिया है . इन नतीजों के संकेत बहुत ही साफ़ हैं कि जनता ने . राज्य सरकार और लेफ्ट फ्रंट को समझा दिया है कि अगर ठीक से काम नहीं करोगे तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों से भी कई तरह के संकेत सामने आ रहे हैं . सबसे बड़ा तो यही कि राज्य में कांग्रेस पार्टी ने अपनी स्वीकार्यता की जो प्रक्रिया लोकसभा चुनावों के दौर में शुरू की थी, उसे और भी मज़बूत किया है . इन नतीजों से साफ़ है कि आगे उत्तर प्रदेश में जब भी चुनाव होंगें, कांग्रेस भी एक संजीदा राजनीतिक ताक़त के रूप में हिस्सा लेगी. . जो दूसरी बात बहुत ही करीने से कह दी गयी है , वह यह कि कोई भी सीट किसी का गढ़ नहीं रहेगी. जनता हर सीट पर अपने आप फैसला करेगी. . उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई और बातें भी सामने आई हैं. सबसे बड़ी बात तो यही है कि पिछले कई दशकों से चल रहे जाति के आधार पर वोट लेने या देने की परंपरा को ज़बरदस्त झटका लगा है . इटावा और भरथना की सीटों पर मुलायम सिंह यादव की मर्जी के खिलाफ पड़ा एक एक वोट इस बता की घोषणा है कि जातिगत आधार पर पड़ने वाले वोटों का वक़्त अब अपनी आख़री साँसे ले रहा है. मुलायम सिंह यादव के लिए इस चुनाव से और भी कई संकेत आये हैं. इन् नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि धरती पुत्र के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले मुलायम सिंह अब जनता के उतने करीब नहीं रहे जितने कि पहले हुआ करते थे. . इस बात में दो राय नहीं है कि इन चुनावों में उनकी बदली हुई सोच को धारदार चेतावनी मिली है . फिरोजाबाद लोक सभा सीट पर उनकी निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी . अपने बेटे अखिलेश यादव की खाली हुई सीट पर उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे कर अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा राजनीतिक जुआ खेला था. फिरोजाबाद का इलाका उनकी अपनी जाति के लोगों के बहुमत वाला इलाका है. वहां उनके परम्परागत वोटर, मुसलमान भी बड़ी संख्या में हैं .लोकसभा चुनाव २००९ हे दौरान बहुत दिन बाद यह सामान्य सीट बनायी गयी थी . इसके पहले यह रिज़र्व हुआ करती थी और समाजवादी पार्टी के ही रामजी लाल सुमन यहाँ से विजयी हुआ करते थे. लोकसभा २००९ में वे पड़ोस की रिज़र्व सीट आगरा से चुनाव लड़ गए थे . लेकिन हार गए. जब फिरोजाबाद में उपचुनाव का अवसर आया तो मुलायम सिंह यादव को समझने वालों को भरोसा था कि वे उपचुनाव में रामजी लाल को ही उम्मीदवार बनायेगें. लेकिन ऐसा न हुआ. उन्होंने अपनी बहू को टिकट दे दिया. इस एक टिकट ने मुलायम सिंह यादव की राजनीति को आम आदमी की राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया..ज़ाहिर है कि किसी भी पुराने साथीको टिकट न देकर अपनी बहू को आगे करना , उनकी नयी राजनीतिक सोच का नतीजा है .. उनके ऊपर इस तरह के आरोप बहुत दिनों से लग रहे थे. उनके कई पुराने साथी उनसे अलग होकर उनके खिलाफ काम काम कर रहे हैं. अजीब इत्तेफाक है कि उन सबकी नाराज़गी एक ही व्यक्ति से है. . जो लोग उनके साथ १९८० से १९८९ के बुरे वक़्त में साथ थे , उनमें से बड़ी संख्या लोग अब उनके खिलाफ हैं. मुख्य मंत्री बनने के बाद उनके साथ बहुत सारे नए लोग जुड़े थे , उनसे यह उम्मीद करना कि वे बहुत दिन तक साथ निभायेंगें ,ठीक नहीं था क्योंकि दूध वाले मजनूं कभी खून वाले मजनूं का स्थान नहीं ले सकते. यह लोग तो सत्ता के केंद्र में बैठे मुलायम सिंह यादव के साथी थे . जब सत्ता नहीं रहेगी तो इन लोगों की कोई ख़ास रूचि नेता के साथ रहने में नहीं रह जायेगी. लेकिन उत्तर प्रदेश के गावों में ,कस्बों में और जिलों में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो मुलायम सिंह यादव से किसी स्वार्थ साधन की उम्मीद नहीं रखते लेकिन वे उन्हें अपना साथी मानते हैं . भरथना, इटावा और फिरोजाबाद में समाजवादी पार्टी की हार , मुलायम सिंह के उन्हीं दोस्तों की तरफ से साथ छोड़ने का ऐलान है. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि भाई , वही पुराना वाला, साथी मुलायम सिंह यादव लाओ वरना हम रास्ता बदलने को मजबूर हो जायेंगें. यह समाजवादी पार्टी के आला नेतृत्व पर निर्भर है कि वह इस संकेत को चेतावनी मानकर इसमें सुधार करने की कोशिश करता है कि इसे नज़रंदाज़ करके आगे की राह पकड़ता है जिसमें कि अनजानी मुश्किले हो सकती हैं .

वर्तमान उपचुनावों के नतीजों से कम से कम उत्तर प्रदेश में एक बात और साफ़ उभरी है कि अगला जो भी चुनाव होगा उसमें कांग्रेस एक मज़बूत ताक़त के रूप में मुकाबले में होगी . इसमें दो राय नहीं है कि मुख्य मुकाबला मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में होगा लेकिन कांग्रेस निश्चित रूप से एक अहम् भूमिका निभाने वाली है . फिरोजाबाद के अलावा उतर प्रदेश में जिस दूसरी सीट पर कांग्रेस को जीत हासिल हुई है , वह लखनऊ पश्चिम की विधान सभा सीट है. बी जे पी के बड़े नेता , लालजी टंडन के लोकसभा पंहुंच जाने के बाद यह सीट खाली हुई थी.पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकसभा सीट का हिस्सा, लखनऊ पश्चिम को बी जे पी का गढ़ माना जाता था लेकिन वहां से कांग्रेस की जीत इस बात का पक्का संकेत है कि अगर कांग्रेस वाले अपने नेता राहुल गाँधी की तरह जुट जाएँ तो राज्य की राजनीति में दोबारा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. . हाँ , बी जे पी के लिए यह चुनाव निश्चित रूप से बहुत बुरी खबर है . जिस राज्य में बी जे पी ने बाबरी मस्जिद को ढहाया, भव्य राम मंदिर का वादा किया , कई साल तक या तो खुद राज किया और या मायावती को मुख्य मंत्री बना कर रखा वहां पार्टी के उम्मीदवारों की धडाधड ज़मानते ज़ब्त हो रही हैं. ज़ाहिर है बी जे पी की पोल राज्य में खुल चुकी है और अब उसे उत्तर प्रदेश से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए..

उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के नतीजों से मुसलमानों को वोट बैंक मानने वालों को भी निराशा होगी. इन चुनावों में वोटर कांग्रेस की तरफ खिंचा है . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, आम तौर पर मुसलमान कांग्रेस से दूर चला गया था क्योंकि , उस कारनामें में वह बी जे पी के साथ साथ उस वक़्त के कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को भी बराबर का जिम्मेदार मानता था लेकिन इस बार यह संकेत बहुत साफ़ है कि वह अब बी जे पी के अलावा किसी को भी वोट देने से परहेज़ नहीं करेगा.. हर बार की तरह यह चुनाव पार्टियों के केंद्रीय नेतृत्व की दशा दिशा पर भी फैसला है. केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की हार का एक संकेत यह भी है क उन् राज्यों में पार्टी के कार्यकर्ता दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं . उनकी नज़र में लेफ्ट फ्रंट की सबसे बड़ी पार्टी का आला नेता कमज़ोर है और वह मनमानी करने का शौकीन है.. केंद्र सरकार को परमाणु मुद्दे पर घेरने की असफल कोशिश, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष , सोमनाथ चटर्जी के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार, केरल की राजनीति में गुटबाजी को न केवल प्रोत्साहन देना बल्कि उसमें शामिल हो जाना , पार्टी के आला अफसर के रिपोर्ट कार्ड में ऐसे विवरण हैं जो उसे फ़ेल करने के लिए काफी हैं लेकिन वह जमा हुआ है . शायद इसी लिए जनता ने पार्टी के बाकी नेताओं को यह चेतावनी दी है कि अगर पार्टी को बचाना है तो फ़ौरन कोई कार्रवाई करो वरना बहुत देर हो जायेगी.

Wednesday, November 11, 2009

सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

शेष नारायण सिंह


कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।




वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।




आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।




वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।




सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।




अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।




इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।




अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।




उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।




इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।




सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।




गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।




1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।








वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।




शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।




उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।




बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।




1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।




कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।




आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में



उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।



गंगा जमुना के दो आब में जन्मी और विकसित हुई इस जबान की ऐतिहासिक यात्रा के बारे में विदेश मंत्रालय की ओर से एक बहुत अच्छी फिल्म बनाई गई है। इस फिल्म का नाम है, ''उर्दू है जिसका नाम'। इसके निर्देशक हैं सुभाष कपूर। फिल्म की अवधारणा, शोध और कहानी सुहैल हाशमी की है। इस फिल्म में संगीत का इस्तेमाल बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया गया है जिसे प्रसिद्घ गायिका शुभा मुदगल और डा. अनीस प्रधान ने संजोया है। शुभा की आवाज में मीर और ग़ालिब की गज़लों को बिलकुल नए अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।




फिल्म पर काम 2003 में शुरू हो गया था और 2007 में बनकर तैयार हो गई थी। अभी तक दूरदर्शन पर नहीं दिखाई गई है। इस फिल्म के बनने में सुहैल हाशमी का सबसे ज्य़ादा योगदान था और आजकल वे ही इसे प्राइवेट तौर पर दिखाते हैं। पिछले दिनों प्रेस क्लब दिल्ली में कुछ पत्रकारों को यह फिल्म दिखाई गई। मैंने भी फिल्म देखी और लगा कि उर्दू के विकास की हर गली से गुजर गया।

पूंजीवादी साम्राज्यवादी शोषक वर्ग के निशाने पर आदिवासी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि आदिवासियों का विकास बंदूक के साये में नहीं किया जा सकता। यह बात बहुत ही अजीब है। सवाल उठता है कि क्या आदिवासी इलाकों के लोग शुरू से ही बंदूक लेकर घूमते रहते थे। आजादी के बाद उन्होंने 50 से भी अधिक वर्षों तक इंतजार किया। इस बीच उनका घर-बार तथाकथित विकास योजनाओं की भेंट चढ़ता रहा। आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा की लालच में सरकारें जंगलों में ऊल जलूल परियोजनाएं चलाती रही। यह परियोजनाएं आदिवासियों के शोषण का सबसे बड़ा साधन बनीं। कहीं भी किसी स्तर पर उनको भागीदारी के अवसर नहीं दिए गए। जहां भी आदिवासी इलाकों में विकास का स्वांग रचा गया वहां आदिवासियों की तबाही की इबारत मोटे अक्षरों में लिख दी गई।

वन संपदा पर उनका अधिकार पूरी तरह से खारिज कर दिया गया और उनकी जीवन शैली पर हमला बोला गया। नई परियोजनाओं के लिए बाहर से गए लोगों ने वहां पर सस्ती मजदूरी पर लोगों को काम पर लगाया। कुछ जगहों से तो लड़कियों के शारीरिक शोषण की ख़बरें भी आती थीं। उनके रीति रिवाजों पर हमला हुआ। ईसाई मिशनरियों ने उनके विकास के नाम पर बडे़ पैमाने पर धर्म परिवर्तन करवाकर आस्था के संकट को इतना गहरा दिया कि उन इलाकों में पहचान का संकट पैदा हो गया। ग्राम देवता और कुल देवता जैसे प्राकृतिक रूप से विकसित आस्था के आदर्शों के स्थान पर एक नए देवता की पूजा की परंपरा शुरू की। इस संकट का हल सरकारी स्तर पर कहीं नहीं किया गया। आस्था बदलवाने के काम में हिंदुत्ववादी राजनीतिक वाले भी घुसे लेकिन उन्होंने भी आदिवासी जीवन शैली को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन लोगों ने स्थानीय देवताओं के बजाय हनुमान जी की पूजा करवाने पर जोर दिया। स्थानीय भावनाओं पर अपने पूर्वाग्रहों को लादने के इस खेल के लिए सभी पार्टियां बराबर की जिम्मेदार हैं।

संविधान में व्यवस्था है कि सरकारी नौकरियों में आदिवासी लोगों के लिए आरक्षण रहेगा लेकिन जब उनके पास बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं है तो वे सरकारी नौकरियों तक पहुंचेगे कैसे। इन लोगों की शिक्षा दीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई इसलिए इनके लिए रिजर्व नौकरियों में वे लोग घुस गए जो अपेक्षाकृत विकसित थे, शिक्षित थे लेकिन आदिवासी श्रेणी में आते थे। राजस्थान की एक ऐसी ही बिरादरी का आजकल सरकारी नौकरियों में दबदबा है। लेकिन बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों के लोगों को केंद्रीय नौकरियों में ठिकाना नहीं मिला क्योंकि उनके पास पढ़ने लिखने का साधन नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनका शोषण और बढ़ गया।

इन आदिवासी इलाकों का दुर्भाग्य यह भी था कि इनके अपने बीच से जो नेता भी निकले उनकी ईमानदारी संदिग्ध रही। शिबू सोरेन और उनके परिवार की गाथाएं जगजाहिर हैं। इसी तरह के और भी बहुत से नेता देखे और सुने गए हैं। तथाकथित मुख्यधारा में लाने की कोशिश में भी इनके ऊपर चौतरफा हमला हुआ। जहां भी प्रोजेक्ट लगाए गए वहां के सारे जीवन मूल्य बदल दिए गए। आदिवासी इलाकों के शोषण के रोज ही नए तरीके निकाले गए। एक मुकाम पर तो लगता था कि आदिवासियों के शोषण की सारी सीमाएं पार कर ली गई हैं। लेकिन ऐसा नहीं था, जब बालको का बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अधिग्रहण किया तब लगा कि आने वाला वक्त इन इलाकों के शोषण की नई ऊंचाइयां देगा। बहरहाल अब साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और पूंजी की ताकत इन आदिवासियों के सर्वनाश के लिए झोंक दिया है। और इस मामले में बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है। दोनों ही सलवा जुडूम के रास्ते चल रहे हैं, इस संगठन को अपना मानते हैं। इसलिए इन लोगों पर कोई भरोसा करने की जरूरत नहीं है।

आजादी की बाद की राजनीतिक पार्टियों ने आदिवासी इलाकों में मूल निवासियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भी नज़र अंदाज किया। जबकि आज़ादी की लड़ाई में सबसे अधिक कुर्बानी इस इलाके के आदिवासियों के नाम दर्ज है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ और झारखंड से आए नेताओं पर एक नजर डालिए। वही भाई लोग जो वहां की खनिज संपदा से लाभ लेने पहुंचे थे, वही आज वहां के नेता बने बैठे हैं। और जो नेता वहां से निकले भी वे इन्हीं पूंजीवादी शोषक नेताओं के पिछलग्गू बन गए। ताजा मामला मधु कोड़ा का है जो आजकल सुर्खियों में है। राजनीतिक पार्टियों ने इन इलाकों के लोगों को वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा जिसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति की संसदीय जनतंत्र की धारा में यह लोग नहीं आ सके। जब बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी हितों को लगा कि दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों की मदद से इन इलाकों पर कब्जा नहीं जमाया जा सकता तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद के इन पोषकों ने कुछ ट्रास्टकीवादियों को पकड़ लिया। आदिवासी इलाकों में माओवाद के नाम जो आतंक का राज कायम किया जा रहा है, वह इन्हीं दिग्भ्रमित अति वामपंथियों की कृपा से हो रहा है। माक्र्सवादी लफ्फाजी की मदद से इन्हें हथियार उठाने के लिए तैयार किया गया है। इनकी राजनीतिक शिक्षा शून्य है। ध्यान से देखें तो समझ में आ जाएगा कि इन इलाकों में आदिवासियों के गुस्से का निशाना उन्हीं लोगों को बनाया जा रहा है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिनिधि है। निजी या बहुराष्ट्रीय हितों को कहीं भी निशाने पर नहीं लिया जा रहा है।

इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री के वक्तव्य को लेने से तस्वीर साफ हो जाती है। उनका यह स्वीकार करना कि आदिवासियों के लिए जो कुछ भी किया जाना चाहिए था, वह नहीं किया गया, एक शुभ संकेत है। लेकिन इतना कह देने मात्र से कुछ नहीं होने वाला है। सच्ची बात यह है कि अगर इस संकल्प के बाद भी कुछ ठोस न किया गया तो बहुत मुश्किल होगी। जहां तक माओवादी आतंकवादियों का सवाल है, उनसे तो सरकारी तरीके से निपटा जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री और सभ्य समाज को चाहिए कि आदिवासी इलाकों में ऐसे विकास कार्यक्रम चलाएं जिनका फायदा केवल आदिवासियों को हो। हालांकि यह बहुत बड़ी बात है लेकिन इससे कम पर बात बनने की संभावना नहीं है। बहरहाल अगर देश का प्रधानमंत्री इस बात को ऐलानियां स्वीकार कर रहा है कि गलती हुई है तो उसके सुधारे जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आदिवासियों को तबाह करने के बाज आकर उनके सम्मान की रक्षा के लिए गंभीर कदम उठाए जाएंगे।
( विस्फोट डॉट कॉम से सादर)..

Tuesday, November 10, 2009

अंबेडकर का सपना और जाति का विनाश

पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है।

सत्ता और अंबेडकर के सिद्धांत

The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज उत्तर प्रदेश में जो सरकार कायम है, उसके बारे में माना जाता है कि वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की है। राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज सत्ता उनके पास है। इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोग रही सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है।

क्या मायावती चाहती हैं जाति प्रथा का विनाश?

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की पिछले पंद्रह वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मुख्यमंत्री मायावती की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।

वे कितना जानते हैं अंबेडकर को?

एक अजीब बात यह भी है कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम है कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। अंबेडकर की 118वीं जयंती के अवसर पर उनके सिद्धांतों का जिक्र करना मैं अपना फर्ज़ समझता हूं क्योंकि पत्रकार के रूप में मेरा पेशा ऐसा है कि मैं अवाम को जानकारी देने का अपना काम करता रहूं। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।

अंर्तजातीय विवाह

इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है और विमर्श भी। और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।

इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।

अंबेडकर की दिशा

अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।

तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीति क विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसको अपना मुद्दा बनाए और मायावती को चाहिए कि इस अंदोलन को नेतृत्व प्रदान करें।

Friday, November 6, 2009

आतंक के भस्मासुर के सामने लाचार पाकिस्तान

पाकिस्तान अपने ६२ साल के इतिहास में सबसे भयानक मुसीबत के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद का भस्मासुर उसे निगल जाने की तैयारी में है. देश के हर बड़े शहर को आतंकवादी अपने हमले का निशाना बना चुके हैं . आतंकवादी हमलों के नए दौर के बाद मरने वालों में बच्चो और औरतों की संख्या बहुत ज्यादा है .अगर पाकिस्तान को विखंडन हुआ तो बांग्लादेश की स्थापना के बाद यह सबसे बड़ा झटका माना जाएगा. अजीब बात यह है कि तानाशाही के व्यापार के चक्कर में पाकिस्तान ने अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया है...हालांकि पाकिस्तानी हुक्मरान को बहुत दिनं तक मुगालता था कि आस पास के देशों में आतंक फैला कर वे अपनी राजनीतिक महत्ता बढा सकते थे. दर असल अमरीकी मदद के बदले में इन्हीं तालिबान को अफगानिस्तान में भेजकर पाकिस्तानी हुकूमतों ने अच्छी खासी रक़म पैदा की थी जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाह, जिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे , तभी दुनिया भर के समझ दार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी. लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जो पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मन, अल कायदा , अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे . बाद में उन्होंने ही अमरीका पर आतंकवादी हमला करवाया और आज अमरीकी हुकूमत उनको किसी भी कीमत पर पकड़ने के लिए आमादा है. जबकि अमरीका की घेरेबंदी के चलते बुरी तरह से घिर चुके पाकिस्तानी आतंकवादी , अपने देश को ही तबाह करने के लिए तुले हुए हैं .इस माहौल में कश्मीर की सरकारी यात्रा पर गए भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढा दिया है. अंतर राष्ट्रीय मामलों के जानकार बताते हैं कि मनमोहन सिंह का दोस्ती के लिए बढा हुआ हाथ वास्तव में जले पर नमक की तरह का असर करेगा क्योंकि पाकिस्तान अब किसी से दोस्ती या दुश्मनी करने की ताक़त नहीं रखता. वह तो अपनी अस्तित्व की लड़ाई में इतना बुरी तरह से उलझ चुका है कि उसके पास और किसी काम के लिए फुर्सत ही नहीं है. यहाँ यह याद करना दिलचस्प होगा कि भारत जैसे बड़े देश से पाकिस्तान की दुश्मनी का आधार, कश्मीर है. वह कश्मीर को अपना बनाना चाहता है लेकिन आज वह इतिहास के उस मोड़ पर खडा है जहां से उसको कश्मीर पर कब्जा तो दूर , अपने चार राज्यों को बचा कर रख पाना ही टेढी खीर नज़र आ रही है. लेकिन कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि १९४८ में जब जिनाह की सरपरस्ती में कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद क भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही ख़त्म कर देंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी

पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां रहने वाले ज़्यादातर लोग अपने आपको भारत से जोड़ कर अपने इतिहास को याद करते हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . यह बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी, राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान के संस्थापक जब इतिहास और भूगोल से इस तरह का खिलवाड़ कर रहे थे तो उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि वे किस सर्वनाश की नींव डाल रहे हैं . जब अंग्रेजों के एक खेल को पूरा करने के लिए जिनाह ने पाकिस्तान की जिद पकडी थी उसी वक़्त यह अंदाज़ लग गया था कि आने वाला समय इस नए देश के लिए ठीक नहीं होगा..पाकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई तो लड़ी नहीं गयी . वह देश तो उस वक़्त के ब्रिटिश प्रधान मंत्री, चर्चिल के एक शातिराना खेल का नतीजा था. मुंबई के अपने घर में बैठकर मुहम्मद अली जिनाह ने चिट्ठियाँ लिख लिख कर पाकिस्तान बना दिया था. आज़ादी की जो लड़ाई १९२० से १९४७ तक चली थी , वह पूरे भारत की आज़ादी के लिए थी और उसमें वह इलाके भी शामिल थे जहां आज का पाकिस्तान है. इस इलाके के जन नायक , खान अब्दुल गफ्फार खान थे. जिनाह जननेता कभी नहीं रहे. वे तो मुस्लिम एलीट के नेता थे. उसी एलीट की हैसियत को बनाए रखने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर पाकिस्तान बनवा दिया. उनकी अदूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी खैरात पर जिंदा है. आज पाकिस्तान
की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से विदेशी मदद के सहारे चल रही है.. भारत और पाकिस्तान एक ही दिन स्वतंत्र हुए थे. लेकिन भारत आज एक ताक़तवर देश है जबकि पाकिस्तान के अन्दर होने वाली हर गतिविधि अब अमरीकी निगरानी का विषय बन चुकी है. वैसे पाकिस्तान में भी जिस सिलसिलेवार तरीके से जनतंत्र का खत्म किया गया उसका भी आतंकवाद के विकास में खासा योगदान है.आज वहां पाकिस्तानी फौज पूरी तरह से कण्ट्रोल में है. वह जो चाहती हैं करवाती है.ज़रदारी और गीलानी को जनतंत्र का मुखिया बनना भी संभवतः फौज की ही किसी रणनीति का हिस्सा है. इसी लिए जब ताज़ा अमरीकी मदद के मामले में अमरीकी सीनेट ने एक ऐसा नियम जोड़ दिया जिस से पाकिस्तानी जनरलों की तरक्की तब तक नहीं हो पायेगी जब तक कि सिविलियन सरकार उसकी मंजूरी न दे . फौज के अफसर भड़क गए और अमरीकी राष्ट्रपति को फरमान सुना दिया कि इन शर्तों के साथ अमरीकी सहायता नहीं ली जायेगी. लेकिन पाकिस्तान सरकार इस हुक्म को नहीं मान सकती क्योंकि अगर लैरी कुगर एक्ट वाली आर्थिक सहायता न मिली तो पाकिस्तान में रोज़मर्रा का खर्च चलना भी मुश्किल हो जाये़या. जहां तक मदद की बात है अमरीकी विदेश मंत्री सहित लगभग सभी बड़े अधिकारोयों ने मीडिया की मार्फ़त यह ऐलान कर दिया है कि यह मदद मुफ्त में नहीं दी जा रही है . इसके बदले पाकिस्तानी सत्ता को अमरीकी हितों की साधना करनी पड़ेगी.

सच्ची बात यह है कि यह वास्तव में पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की खुली दखलंदाजी है और पाकिस्तान के शासक इस हस्तक्षेप को झेलने के लिए मजबूर हैं एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में अमरीका की दखलंदाजी को जनतंत्र के समर्थक कभी भी सही नहीं मानते लेकिन आज पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए तो ज़रूरी है ही बाकी दुनिया के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. क्योंकि अगर पाकिस्तान तबाह हुआ तो वहां मौजूद प्रशिक्षित आतंकवादी बाहर निकल पडेंगें और तोड़ फोड़ के अलावा उन्हें और तो कुछ आता नहीं लिहाजा जहां भी जायेंगें तोड़ फोड़ का खेल खेलेंगे..पाकिस्तान के अस्थिर हो जाने का नुकसान भारत को सबसे ज्यादा होगा क्योंकि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी जमातों को शुरू से ही यह बता दिया गया है कि भारत ही उनका असली दुश्मन है. इस लिए बाकी दुनिया के साथ मिलकर भारत को भी यह कोशिश करनी चाहिए कि आतंकवाद का सफाया तो हो जाए लेकिन पाकिस्तान बचा रहे ज विदेशी मामलों के जानकार बताते हैं कि अमरीका की पूरी कोशिश है कि पाकिस्तान का अस्तित्व बना रहे क्योंकि राजनीतिक सत्ता ख़त्म होने के बाद किसी और देश का प्रशासन चला पाना कितना कठिन होता है उसे अमरीकी नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता . इराक और अफगानिस्तान में यह गलती वे कर चुके हैं और कोई दूसरी मुसीबत झेलने को तैयार नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और गैर जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. .इस लिए इस बात में दो राय नहीं कि पाकिस्तान को एक जनतांत्रिक राज्य के रूप में बनाए रखना पूरी दुनिया के हित में है.. यह अलग बात है कि अब तक के गैर जिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है. ..

Tuesday, November 3, 2009

ज्योतिबा फुले ने दलित पक्षधरता की तमीज सिखाई

महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हो रही है, जो जायज भी है। महात्मा जी की इसी किताब ने सत्याग्रह और अहिंसा को राजनीतिक विजय के एक हथियार के रूप में विकसित करने की प्रेरणा दी और 1920 से 1947 तक की भारत की राजनीतिक यात्रा के पाथेय के रूप में हिंद स्वराज में बताये गये मंत्र अमर हो गये।
दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।