प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि आदिवासियों का विकास बंदूक के साये में नहीं किया जा सकता। यह बात बहुत ही अजीब है। सवाल उठता है कि क्या आदिवासी इलाकों के लोग शुरू से ही बंदूक लेकर घूमते रहते थे। आजादी के बाद उन्होंने 50 से भी अधिक वर्षों तक इंतजार किया। इस बीच उनका घर-बार तथाकथित विकास योजनाओं की भेंट चढ़ता रहा। आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा की लालच में सरकारें जंगलों में ऊल जलूल परियोजनाएं चलाती रही। यह परियोजनाएं आदिवासियों के शोषण का सबसे बड़ा साधन बनीं। कहीं भी किसी स्तर पर उनको भागीदारी के अवसर नहीं दिए गए। जहां भी आदिवासी इलाकों में विकास का स्वांग रचा गया वहां आदिवासियों की तबाही की इबारत मोटे अक्षरों में लिख दी गई।
वन संपदा पर उनका अधिकार पूरी तरह से खारिज कर दिया गया और उनकी जीवन शैली पर हमला बोला गया। नई परियोजनाओं के लिए बाहर से गए लोगों ने वहां पर सस्ती मजदूरी पर लोगों को काम पर लगाया। कुछ जगहों से तो लड़कियों के शारीरिक शोषण की ख़बरें भी आती थीं। उनके रीति रिवाजों पर हमला हुआ। ईसाई मिशनरियों ने उनके विकास के नाम पर बडे़ पैमाने पर धर्म परिवर्तन करवाकर आस्था के संकट को इतना गहरा दिया कि उन इलाकों में पहचान का संकट पैदा हो गया। ग्राम देवता और कुल देवता जैसे प्राकृतिक रूप से विकसित आस्था के आदर्शों के स्थान पर एक नए देवता की पूजा की परंपरा शुरू की। इस संकट का हल सरकारी स्तर पर कहीं नहीं किया गया। आस्था बदलवाने के काम में हिंदुत्ववादी राजनीतिक वाले भी घुसे लेकिन उन्होंने भी आदिवासी जीवन शैली को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन लोगों ने स्थानीय देवताओं के बजाय हनुमान जी की पूजा करवाने पर जोर दिया। स्थानीय भावनाओं पर अपने पूर्वाग्रहों को लादने के इस खेल के लिए सभी पार्टियां बराबर की जिम्मेदार हैं।
संविधान में व्यवस्था है कि सरकारी नौकरियों में आदिवासी लोगों के लिए आरक्षण रहेगा लेकिन जब उनके पास बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं है तो वे सरकारी नौकरियों तक पहुंचेगे कैसे। इन लोगों की शिक्षा दीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई इसलिए इनके लिए रिजर्व नौकरियों में वे लोग घुस गए जो अपेक्षाकृत विकसित थे, शिक्षित थे लेकिन आदिवासी श्रेणी में आते थे। राजस्थान की एक ऐसी ही बिरादरी का आजकल सरकारी नौकरियों में दबदबा है। लेकिन बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों के लोगों को केंद्रीय नौकरियों में ठिकाना नहीं मिला क्योंकि उनके पास पढ़ने लिखने का साधन नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनका शोषण और बढ़ गया।
इन आदिवासी इलाकों का दुर्भाग्य यह भी था कि इनके अपने बीच से जो नेता भी निकले उनकी ईमानदारी संदिग्ध रही। शिबू सोरेन और उनके परिवार की गाथाएं जगजाहिर हैं। इसी तरह के और भी बहुत से नेता देखे और सुने गए हैं। तथाकथित मुख्यधारा में लाने की कोशिश में भी इनके ऊपर चौतरफा हमला हुआ। जहां भी प्रोजेक्ट लगाए गए वहां के सारे जीवन मूल्य बदल दिए गए। आदिवासी इलाकों के शोषण के रोज ही नए तरीके निकाले गए। एक मुकाम पर तो लगता था कि आदिवासियों के शोषण की सारी सीमाएं पार कर ली गई हैं। लेकिन ऐसा नहीं था, जब बालको का बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अधिग्रहण किया तब लगा कि आने वाला वक्त इन इलाकों के शोषण की नई ऊंचाइयां देगा। बहरहाल अब साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और पूंजी की ताकत इन आदिवासियों के सर्वनाश के लिए झोंक दिया है। और इस मामले में बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है। दोनों ही सलवा जुडूम के रास्ते चल रहे हैं, इस संगठन को अपना मानते हैं। इसलिए इन लोगों पर कोई भरोसा करने की जरूरत नहीं है।
आजादी की बाद की राजनीतिक पार्टियों ने आदिवासी इलाकों में मूल निवासियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भी नज़र अंदाज किया। जबकि आज़ादी की लड़ाई में सबसे अधिक कुर्बानी इस इलाके के आदिवासियों के नाम दर्ज है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ और झारखंड से आए नेताओं पर एक नजर डालिए। वही भाई लोग जो वहां की खनिज संपदा से लाभ लेने पहुंचे थे, वही आज वहां के नेता बने बैठे हैं। और जो नेता वहां से निकले भी वे इन्हीं पूंजीवादी शोषक नेताओं के पिछलग्गू बन गए। ताजा मामला मधु कोड़ा का है जो आजकल सुर्खियों में है। राजनीतिक पार्टियों ने इन इलाकों के लोगों को वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा जिसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति की संसदीय जनतंत्र की धारा में यह लोग नहीं आ सके। जब बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी हितों को लगा कि दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों की मदद से इन इलाकों पर कब्जा नहीं जमाया जा सकता तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद के इन पोषकों ने कुछ ट्रास्टकीवादियों को पकड़ लिया। आदिवासी इलाकों में माओवाद के नाम जो आतंक का राज कायम किया जा रहा है, वह इन्हीं दिग्भ्रमित अति वामपंथियों की कृपा से हो रहा है। माक्र्सवादी लफ्फाजी की मदद से इन्हें हथियार उठाने के लिए तैयार किया गया है। इनकी राजनीतिक शिक्षा शून्य है। ध्यान से देखें तो समझ में आ जाएगा कि इन इलाकों में आदिवासियों के गुस्से का निशाना उन्हीं लोगों को बनाया जा रहा है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिनिधि है। निजी या बहुराष्ट्रीय हितों को कहीं भी निशाने पर नहीं लिया जा रहा है।
इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री के वक्तव्य को लेने से तस्वीर साफ हो जाती है। उनका यह स्वीकार करना कि आदिवासियों के लिए जो कुछ भी किया जाना चाहिए था, वह नहीं किया गया, एक शुभ संकेत है। लेकिन इतना कह देने मात्र से कुछ नहीं होने वाला है। सच्ची बात यह है कि अगर इस संकल्प के बाद भी कुछ ठोस न किया गया तो बहुत मुश्किल होगी। जहां तक माओवादी आतंकवादियों का सवाल है, उनसे तो सरकारी तरीके से निपटा जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री और सभ्य समाज को चाहिए कि आदिवासी इलाकों में ऐसे विकास कार्यक्रम चलाएं जिनका फायदा केवल आदिवासियों को हो। हालांकि यह बहुत बड़ी बात है लेकिन इससे कम पर बात बनने की संभावना नहीं है। बहरहाल अगर देश का प्रधानमंत्री इस बात को ऐलानियां स्वीकार कर रहा है कि गलती हुई है तो उसके सुधारे जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आदिवासियों को तबाह करने के बाज आकर उनके सम्मान की रक्षा के लिए गंभीर कदम उठाए जाएंगे।
( विस्फोट डॉट कॉम से सादर)..
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Wednesday, November 11, 2009
Friday, August 28, 2009
का बरसा...जब कृषि सुखानी
अब सरकारी तौर पर भी मान लिया गया है कि देश में सूखे की स्थिति है। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन में केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने स्वीकार किया कि आधा देश भयानक सूखे की चपेट में है। कृषि मंत्री ने बताया कि करीब दस राज्यों में सूखे की हालत गंभीर है। करीब ढाई सौ जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। जरूरत पड़ी तो यह संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। जिले को सूखाग्रस्त घोषित करने के बाद वहां सरकार के विशेष अभियान शुरू किए जाते हैं। लगान वसूली, कर्ज वगैरह में ढील दी जाती है। कई बार उसे माफ भी कर दिया जाता है।
जहां तक सरकार की बात है, सूखे से मुकाबला करने की पूरी तैयारी हो चुकी है। केंद्र सरकार ने सूखे पर मंत्रियों की एक समिति का गठन किया है, जिसके अध्यक्ष वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी हैं। सभी अहम विभागों के मंत्रियों को इसमें शामिल किया गया है। अब तक के अनुमान के अनुसार, इस बार धान की पैदावार में करीब 170 लाख टन की कमी आएगी। इसका मतलब यह हुआ कि चावल की भारी कमी होने वाली है। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन में प्रणब मुखर्जी ने बताया कि अगर अनाज की कमी हुई तो विदेशों से भी अनाज मंगाया जा सकता है।
आवश्यक वस्तुओं के निर्यात पर पहले से ही प्रतिबंध लगा हुआ है, जो जारी रहेगा। प्रणब मुखर्जी ने सम्मेलन में बताया कि इस बात का फैसला लिया जा चुका है कि जिस चीज की भी कमी होगी, उसे तुरंत आयात कर लिया जाएगा। यह भी एहतियात रखी जाएगी कि भारत में मांग बढ़ने की चर्चा से अंतरराष्ट्रीय बाजार में अनाज की कीमत बढ़ने न दी जाए यानी सरकार अपनी योजना का प्रचार नहीं करेगी। सरकार ने यह भी दावा किया कि 60 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी खर्च करके मंहगाई पर काबू पा लिया जाएगा। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां बड़ी से बड़ी मुसीबत को आंकड़ों की भाषा में बदल दिया जाता है और वही मीडिया के जरिए सूचना बन जाती है।
सरकारी फैसले इन्हीं आंकड़ों के आधार पर होते हैं। बहरहाल, भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इंतहा है, लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं। भूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है। इन आंकड़ेबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेरकर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करें। इसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता है, तभी इस देश का नेता जागता है।
गांव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता। कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा, जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा, क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांगकर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीब मानसून खराब होने पर सरकारी लापरवाही के चलते भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषि व्यवस्था नए शासकों को मिली थी, वह लगभग आदिमकाल की थी।
जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा, लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गई थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल अयूब खान ने भी हमला कर दिया। युद्घ का दौर और खाने की कमी। बहरहाल, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।
अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आह्वान किया कि सभी लोग हफ्ते में एक दिन का उपवास रखें यानी मुसीबत से लड़ने के लिए हौसलों की जरूरत पर बल दिया, लेकिन भूख की लड़ाई केवल हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे, उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है और अमेरिका से पीएल 480 योजना के तहत मंगाए गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती हैं, लेकिन भूख सब कुछ करवाती है।
केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम कि गांव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहां अनाज खरीदने या मांगने जाता है तो कितनी बार मरता है। अपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। गांवों में रहने वाले किसान के लिए खरीदकर खाना शर्म की बात मानी जाती है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक नेता ने समझा था। 1967 में कृषि मंत्री रहे सी सुब्रमण्यम ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सच्चाई समझाई थी।
उनके प्रयासों से ही खेती को आधुनिक बनाने की कोशिश शुरू हुई। इस प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन यानी हरित क्रांति का नाम दिया गया। लीक से हटकर सोच सकने की सुब्रमण्यम की क्षमता और उस वक्त की प्रधानमंत्री की राजनीतिक इच्छाशक्ति ने अन्न की पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दिया। खेती से संबंधित हर चीज में सब्सिडी का प्रावधान किया गया। बीज, खाद, कृषि उपकरण, निजी ट्यूबवेल, डीजल, बिजली सबकुछ सरकारी मदद के लायक मान लिया गया। भारत के ज्यादातर किसानों के पास मामूली क्षेत्रफल की जमीनें हैं।
भूमि की चकबंदी योजनाएं शुरू हुई और किसान खुशहाल होने लगा। ग्रीन रिवोल्यूशन की भावना और मिशन को आगे जारी नहीं रखा गया। यथास्थितिवादी राजनीतिक सोच के चलते सुब्रमण्यम की पहल में किसी ने भी कोई योगदान नहीं किया। जनता पार्टी की 1977 में आई सरकार में आपसी झगड़े इतने थे कि वे कुछ नहीं कर पाए और जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आई तब तक देश में लुंपन राज आ चुका था और राजनीतिक बिरादरी, खासकर सरकारी पक्ष में गांव के गरीब की खैरियत जानने वाला कोई नहीं था।
आज आलम यह है कि पिछले 35 वर्षो में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि दिल्ली में बैठा राजनीतिक और नौकरशाह ग्रीन रिवोल्यूशन की परंपरा के बारे में नहीं सोचता। सुना तो यहां तक गया है कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को राजनीतिक आकाओं की कृपा से फैक्टरी मालिक सीधे हड़प कर जा रहे हैं, किसानों को उसमें से कुछ नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में जरूरत इस बात की है कि सूचना क्रांति के हथियारों का इस्तेमाल करके राजनीतिक महाप्रभुओं को सच्चाई का आईना दिखाया जाए और यह काम मीडिया को करना है।
भूख से मरने वालों की खबरें पब्लिक डोमेन में लाना बहुत ही महत्वपूर्ण है, उसे आना चाहिए, लेकिन सूखा पड़ने पर ग्रामीण इलाकों में और भी बहुत-सी मुसीबतें आती हैं। इन मुसीबतों से लड़ने के लिए सरकारी मशीनरी की कोई तैयारी नहीं होती। सूखा पड़ जाने पर सबकुछ युद्ध स्तर पर शुरू होता है, और फिर इस में निहित स्वार्थ के प्रतिनिधि घुस जाते हैं। राहत की योजनाओं में इनका शेयर बनने लगता है। सूखा पड़ जाने पर सबसे बड़ी परेशानी जानवरों के चारे का इंतजाम करने में होती है। पशु मरने लगते हैं। कई-कई गांवों के लोग तो अपने जानवरों को छोड़ देते हैं। उनके अपने भोजन की व्यवस्था नहीं होती तो पशुओं को क्या खिलाएं।
जाहिर है कि सूखे की हालत के अकाल बनने के पहले गांव में रहने वाला आदमी बहुत ही ज्यादा मुसीबतों से गुजर चुका होता है। दिल्ली में बैठे राजनेताओं और अफसरों के आंकड़ों में यह कहीं नहीं आता। उसमें तो सारा ध्यान शहरी मध्यवर्ग की खुशहाली की योजनाओं पर फोकस रहता है। गांव के आदमी की परत दर परत मुसीबतें उसकी समझ में नहीं आतीं। ऐतिहासिक रूप से पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों में आम आदमी की पक्षधरता को बहुत ही महत्व दिया गया है। आज भी यह सिद्धांत उतना ही महत्वपूर्ण है।
खासकर सूखा और अकाल की स्थिति में अगर हम आम आदमी की मुसीबतों को सरकार और नीति निर्धारकों का एजेंडा बना सकें तो हालात निश्चित रूप से बदल जाएंगे। यह काम मुश्किल है, क्योंकि इसके लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं होते। बहुत मेहनत के बाद ही कोई जानकारी मिल पाती है, लेकिन असंभव नहीं है। प्रसिद्ध पत्रकार पी साईनाथ ने 80 के दशक में कालाहांडी के अकाल की खबरें सरकारी आंकड़ों से हटकर दी थीं। उन खबरों की वजह से ही अकाल की सच्चाई जनता के सामने आई।
बाकी दुनिया को भी सही जानकारी मिली। मीडिया की जिम्मेदारी है कि इस भयानक सूखे पर नजर रखे और सरकारी आंकड़ों के जाल में फंसने का खतरा झेल रही सूखा राहत योजनाओं को ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीबों तक पहुंचाने में मदद करें।
लेख
जहां तक सरकार की बात है, सूखे से मुकाबला करने की पूरी तैयारी हो चुकी है। केंद्र सरकार ने सूखे पर मंत्रियों की एक समिति का गठन किया है, जिसके अध्यक्ष वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी हैं। सभी अहम विभागों के मंत्रियों को इसमें शामिल किया गया है। अब तक के अनुमान के अनुसार, इस बार धान की पैदावार में करीब 170 लाख टन की कमी आएगी। इसका मतलब यह हुआ कि चावल की भारी कमी होने वाली है। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन में प्रणब मुखर्जी ने बताया कि अगर अनाज की कमी हुई तो विदेशों से भी अनाज मंगाया जा सकता है।
आवश्यक वस्तुओं के निर्यात पर पहले से ही प्रतिबंध लगा हुआ है, जो जारी रहेगा। प्रणब मुखर्जी ने सम्मेलन में बताया कि इस बात का फैसला लिया जा चुका है कि जिस चीज की भी कमी होगी, उसे तुरंत आयात कर लिया जाएगा। यह भी एहतियात रखी जाएगी कि भारत में मांग बढ़ने की चर्चा से अंतरराष्ट्रीय बाजार में अनाज की कीमत बढ़ने न दी जाए यानी सरकार अपनी योजना का प्रचार नहीं करेगी। सरकार ने यह भी दावा किया कि 60 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी खर्च करके मंहगाई पर काबू पा लिया जाएगा। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां बड़ी से बड़ी मुसीबत को आंकड़ों की भाषा में बदल दिया जाता है और वही मीडिया के जरिए सूचना बन जाती है।
सरकारी फैसले इन्हीं आंकड़ों के आधार पर होते हैं। बहरहाल, भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इंतहा है, लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं। भूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है। इन आंकड़ेबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेरकर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करें। इसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता है, तभी इस देश का नेता जागता है।
गांव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता। कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा, जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा, क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांगकर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीब मानसून खराब होने पर सरकारी लापरवाही के चलते भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषि व्यवस्था नए शासकों को मिली थी, वह लगभग आदिमकाल की थी।
जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा, लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गई थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल अयूब खान ने भी हमला कर दिया। युद्घ का दौर और खाने की कमी। बहरहाल, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।
अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आह्वान किया कि सभी लोग हफ्ते में एक दिन का उपवास रखें यानी मुसीबत से लड़ने के लिए हौसलों की जरूरत पर बल दिया, लेकिन भूख की लड़ाई केवल हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे, उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है और अमेरिका से पीएल 480 योजना के तहत मंगाए गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती हैं, लेकिन भूख सब कुछ करवाती है।
केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम कि गांव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहां अनाज खरीदने या मांगने जाता है तो कितनी बार मरता है। अपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। गांवों में रहने वाले किसान के लिए खरीदकर खाना शर्म की बात मानी जाती है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक नेता ने समझा था। 1967 में कृषि मंत्री रहे सी सुब्रमण्यम ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सच्चाई समझाई थी।
उनके प्रयासों से ही खेती को आधुनिक बनाने की कोशिश शुरू हुई। इस प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन यानी हरित क्रांति का नाम दिया गया। लीक से हटकर सोच सकने की सुब्रमण्यम की क्षमता और उस वक्त की प्रधानमंत्री की राजनीतिक इच्छाशक्ति ने अन्न की पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दिया। खेती से संबंधित हर चीज में सब्सिडी का प्रावधान किया गया। बीज, खाद, कृषि उपकरण, निजी ट्यूबवेल, डीजल, बिजली सबकुछ सरकारी मदद के लायक मान लिया गया। भारत के ज्यादातर किसानों के पास मामूली क्षेत्रफल की जमीनें हैं।
भूमि की चकबंदी योजनाएं शुरू हुई और किसान खुशहाल होने लगा। ग्रीन रिवोल्यूशन की भावना और मिशन को आगे जारी नहीं रखा गया। यथास्थितिवादी राजनीतिक सोच के चलते सुब्रमण्यम की पहल में किसी ने भी कोई योगदान नहीं किया। जनता पार्टी की 1977 में आई सरकार में आपसी झगड़े इतने थे कि वे कुछ नहीं कर पाए और जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आई तब तक देश में लुंपन राज आ चुका था और राजनीतिक बिरादरी, खासकर सरकारी पक्ष में गांव के गरीब की खैरियत जानने वाला कोई नहीं था।
आज आलम यह है कि पिछले 35 वर्षो में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि दिल्ली में बैठा राजनीतिक और नौकरशाह ग्रीन रिवोल्यूशन की परंपरा के बारे में नहीं सोचता। सुना तो यहां तक गया है कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को राजनीतिक आकाओं की कृपा से फैक्टरी मालिक सीधे हड़प कर जा रहे हैं, किसानों को उसमें से कुछ नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में जरूरत इस बात की है कि सूचना क्रांति के हथियारों का इस्तेमाल करके राजनीतिक महाप्रभुओं को सच्चाई का आईना दिखाया जाए और यह काम मीडिया को करना है।
भूख से मरने वालों की खबरें पब्लिक डोमेन में लाना बहुत ही महत्वपूर्ण है, उसे आना चाहिए, लेकिन सूखा पड़ने पर ग्रामीण इलाकों में और भी बहुत-सी मुसीबतें आती हैं। इन मुसीबतों से लड़ने के लिए सरकारी मशीनरी की कोई तैयारी नहीं होती। सूखा पड़ जाने पर सबकुछ युद्ध स्तर पर शुरू होता है, और फिर इस में निहित स्वार्थ के प्रतिनिधि घुस जाते हैं। राहत की योजनाओं में इनका शेयर बनने लगता है। सूखा पड़ जाने पर सबसे बड़ी परेशानी जानवरों के चारे का इंतजाम करने में होती है। पशु मरने लगते हैं। कई-कई गांवों के लोग तो अपने जानवरों को छोड़ देते हैं। उनके अपने भोजन की व्यवस्था नहीं होती तो पशुओं को क्या खिलाएं।
जाहिर है कि सूखे की हालत के अकाल बनने के पहले गांव में रहने वाला आदमी बहुत ही ज्यादा मुसीबतों से गुजर चुका होता है। दिल्ली में बैठे राजनेताओं और अफसरों के आंकड़ों में यह कहीं नहीं आता। उसमें तो सारा ध्यान शहरी मध्यवर्ग की खुशहाली की योजनाओं पर फोकस रहता है। गांव के आदमी की परत दर परत मुसीबतें उसकी समझ में नहीं आतीं। ऐतिहासिक रूप से पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों में आम आदमी की पक्षधरता को बहुत ही महत्व दिया गया है। आज भी यह सिद्धांत उतना ही महत्वपूर्ण है।
खासकर सूखा और अकाल की स्थिति में अगर हम आम आदमी की मुसीबतों को सरकार और नीति निर्धारकों का एजेंडा बना सकें तो हालात निश्चित रूप से बदल जाएंगे। यह काम मुश्किल है, क्योंकि इसके लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं होते। बहुत मेहनत के बाद ही कोई जानकारी मिल पाती है, लेकिन असंभव नहीं है। प्रसिद्ध पत्रकार पी साईनाथ ने 80 के दशक में कालाहांडी के अकाल की खबरें सरकारी आंकड़ों से हटकर दी थीं। उन खबरों की वजह से ही अकाल की सच्चाई जनता के सामने आई।
बाकी दुनिया को भी सही जानकारी मिली। मीडिया की जिम्मेदारी है कि इस भयानक सूखे पर नजर रखे और सरकारी आंकड़ों के जाल में फंसने का खतरा झेल रही सूखा राहत योजनाओं को ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीबों तक पहुंचाने में मदद करें।
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