शेष नारायण सिंह
बहुत दिन बाद कुछ चुनिन्दा पत्रकारों से मुखातिब हुए मनमोहन सिंह ने अपनी बात बतायी. उनके मीडिया सलाहकार के पांच मित्र पत्रकारों के कान में उन्होंने कुछ बताया लेकिन जब देखा कि वहां से निकलकर वे संपादक लोग प्रेस कानफरेंस करने लगे हैं और प्रधान मंत्री की बात पर अपनी व्याख्या कर रहे हैं तो हडबडी में करीब नौ घंटे बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की वेबसाईट पर सरकारी पक्ष भी रख दिया गया.उनके दफतर वालों की मेहनत से जारी की गयी ट्रान्सक्रिप्ट पर नज़र डालें तो साफ़ लगता है कि दिल्ली के सत्ता के गलियारों में तैर रही बहुत सारी कहानियों को खारिज करने के लिए प्रधानमंत्री ने इन पंज प्यारों को तलब किया था.उन्होंने एक बार फिर ऐलान किया कि वे कठपुतली प्रधानमंत्री नहीं हैं . राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान को भी उन्होंने अपने तरीके से हैंडिल करने की कोशिश की . कांग्रेस के एक वर्ग की तरफ से चल रहे उस अभियान को भी उन्होंने दफन करने की कोशिश की जिसके तहत दिल्ली में यह कानाफूसी चल रही है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ में प्रधानमंत्री ही हैं . देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अपने आप को बचाने के लिए ही वे प्रधानमंत्री पद को लोकपाल के घेरे में नहीं आने देना चाहते . लेकिन डॉ मनमोहन सिंह ने बहुत ही बारीकी से यह बात स्पष्ट कर दी कि दरअसल कांग्रेस का वह वर्ग प्रधानमंत्री को लोकपाल से बाहर रखने के चक्कर में है जो भावी प्रधानमंत्री की टोली में है. जहां तक उनका सवाल है , वे तो प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच में लाना चाहते हैं . राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनवाने की कोशिश में लगे नेताओं को उनके इस बयान का असर कम करने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ेगी. संपादकों से प्रधानमंत्री के संवाद की यह वे बातें हैं जो आम तौर पर सबकी समझ में आयीं और टेलिविज़न में काम करने वाले कुछ अफसर पत्रकारों ने इसे टी वी के ज़रिये पूरी दुनिया को बताया और सर्वज्ञ की मुद्रा में बहसों को संचालित किया . दिल्ली शहर में बुधवार को कई ऐसे पत्रकारों के दर्शन हुए जो कई वर्षों से प्रधानमंत्री और उनके मीडिया सलाहकार के ख़ास सहयोगी माने जाते थे लेकिन संवाद में नहीं बुलाये गए. उनके चहरे लटके हुए थे. जो लोग नहीं बुलाये गए थे उन्होंने अपने अपने चैनलों पर बाकायदा प्रचारित करवाया कि प्रधानमंत्री अपनी कोशिश में फेल हो गए हैं .इन बातों का कोई मतलब नहीं है , दिल्ली में यह हमेशा से ही होता रहा है .ज़्यादातर प्रधानमंत्री इन्हीं मुद्दों में घिरकर अपने आपको समाप्त करते रहे हैं .केवल जवाहरलाल नेहरू ऐसे व्यक्ति थे जिनको हल्की बातों में कभी नहीं घेरा जा सका.प्रधानमंत्री ने आर एस एस और बीजेपी की अगुवाई में शुरू किये गए उस अभियान को पकड़ने की कोशिश की जिसके बल पर हर बार आर एस एस ने देश की जनता को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाने में सफलता पायी है . उन्होंने संसद, सी ए जी और मीडिया से अपील की उनकी सरकार को सबसे भ्रष्ट सरकार साबित करने की आर एस एस की कोशिश का हिस्सा न बनें और पूरी दुनिया के माहौल को नज़र में रख कर फैसले करें.उन्होंने कहा कि निहित स्वार्थ के लोग उनकी सरकार को लुंजपुंज सरकार साबित करने की फ़िराक़ में हैं और मीडिया उनको हवा दे रहा है. उन्होंने मीडिया से अपील की कृपया सच्चाई की परख के बाद ही अपनी ताक़त का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ करें.
भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की आर एस एस और बीजेपी की कोशिश को पकड़कर प्रधानमंत्री ने निश्चित रूप से दक्षिणपंथी राजनीति को अर्दब में लेने की कोशिश की है .यह बात स्पष्ट कर देने की ज़रुरत है कि १९६७ से लेकर अबतक लगभग सभी सरकारें भ्रष्ट रही हैं . उन पर विस्तार से चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सब को मालूम है कि टाप पर फैले भ्रष्टाचार का शिकार हर हाल में गरीब आदमी ही होता है और उसे मालूम है कि सरकार भ्रष्ट है . लेकिन भारत के समकालीन इतिहास में तीन बार केंद्रीय सरकार को भ्रष्ट साबित करके आर एस एस ने अपने आपको मज़बूत किया है. यह अलग बात है कि २००४ के चुनावों में कांग्रेस ने भी बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को महाभ्रष्ट साबित करके एन डी ए की सरकार को पैदल किया था . लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश के बाद हमेशा ही आर एस एस के हाथ सत्ता लगती रही है . इस विषय पर थोड़े विस्तार से चर्चा कर लेने से तस्वीर साफ़ होने में मदद मिलेगी. १९७४ में जब जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन शुरू हुआ तो उसमें बहुत कम संख्या में लोग शामिल थे लेकिन जब के एन गोविन्दाचार्य ने पटना में उनसे मुलाकात की और आर एस एस को उनके पीछे लगा दिया तो बात बदल गयी. राजनीति की सीमित समझ रखने वाली इंदिरा गाँधी ने थोक में गलतियाँ कीं और १९७७ में अर एस एस के सहयोग से केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बन गयी. महात्मा गाँधी की हत्या के आरोपों की काली छाया में जी रहे संगठन को जीवनदायिनी ऊर्जा मिल गयी.आर एस एस की ओर से बीजेपी में सक्रिय ,उस वक़्त के सबसे बड़े नेता, नानाजी देशमुख ने खुद तो मंत्री पद नहीं स्वीकार किया लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को कैबिनेट में अहम विभाग दिलवा दिया . जनता पार्टी की सरकार में आर एस एस के कई बड़े कार्यकर्ता बहुत ही ताक़तवर पदों पर पंहुच गए. बाद में समाजवादी चिन्तक और जनता पार्टी के नेता मधु लिमये ने इन लोगों को काबू में करने की कोशिश की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी . आर एस एस वालों ने जनता पार्टी को तोड़ दिया और बीजेपी की स्थापना कर दी. लेकिन आर एस एस के नियंत्रण में एक बड़ी राजनीतिक पार्टी आ चुकी थी. आज के बीजेपी के सभी बड़े नेता उसी दौर में राजनीति में आये थे और आज उनके सामने ज़्यादातर पार्टियों के नेता बौने नज़र आते हैं .राजनाथ सिंह , सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, सुशील कुमार मोदी सब उसी दौर के युवक नेता हैं .दिलचस्प बात यह है कि केवल राजनीतिक लाभ के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया गया था क्योंकि सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी की सरकार अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेस से भी ज्यादा भ्रष्ट साबित हुई .
दूसरी बार भ्रष्टाचार के खिलाफ जब आर एस एस ने अभियान चलाया तो मस्कट के रूप में राजीव गाँधी के वित्तमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे किया गया . राजीव गाँधी की टीम में राजनीतिक रूप से निरक्षर लोगों का भारी जमावड़ा था . उन लोगों ने भी भ्रष्टाचार के मुद्दे को ठीक से नहीं संभाला और वी पी सिंह की कठपुतली सरकार बना दी गयी. उस सरकार का कंट्रोल पूरी तरह से आर एस एस के हाथ में था और बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा देने के लिए जितना योगदान वी पी सिंह ने किया उतना किसी ने नहीं किया . वी पी सिंह के अन्तःपुर में सक्रिय सभी बड़े नेता बाद में बीजेपी के नेता बन गए. अरुण नेहरू, आरिफ मुहम्मद खान और सतपाल मलिक का नाम प्रमुखता से वी पी सिंह के सलाहकारों में था . बाद में सभी बीजेपी में शामिल हो गए.बाबरी मस्जिद के मुद्दे को पूरी तरह से गरमाने के बाद भ्रष्टाचार और बोफर्स को भूल कर आर एस एस ने केंद्र में सत्ता स्थापित करने की रण नीति पर काम करना शुरू कर दिया था..
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को लामबंद करके सत्ता हासिल करने के नुस्खे को आर एस एस ने बार बार आजमाया है.यह भी पक्की बात है कि उसके बाद सत्ता भी मिलती है . लेकिन इस बार लगता है कि मनमोहन सिंह उनकी इस योजना की हवा निकालने का मन बना चुके हैं . आर एस एस ने पहले तो अन्ना हजारे को आगे करने की कोशिश की लेकिन सोनिया गाँधी ने उनको अपना बना लिया .बीजेपी के नेता बहुत निराश हो गए .अन्ना हजारे का इस्तेमाल मनमोहन सिंह के खिलाफ तो हो रहा है लेकिन वे बीजेपी के राजसूय यज्ञ का हिस्सा बनने को तैयार नहीं हैं . इस खेल के फेल होने पर बीजेपी अध्यक्ष ,नितिन गडकरी ने योग के टीचर रामदेव को आगे किया लेकिन भ्रष्टाचार की हर विधा में गले तक डूबे रामदेव अब उनकी जान की मुसीबत बने हुए हैं . इन सारे नहलों पर बुधवार को चुनिन्दा और वफादार संपादकों को बुलाकर प्रधान मंत्री ने भारी दहला मारा और साफ़ संकेत दे दिया कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की मंशा को वे उजागर कर देंगें . ज़ाहिर है इस संकेत में यह भी निहित है कि वे पब्लिक डोमेन यह सूचना भी डाल देने वाले हैं कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आर एस एस अपनी साम्प्रदायिक राजनीति को चमकाने के फ़िराक़ में है . जानकार समझ गए हैं कि प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार को निहित स्वार्थों का एजेंडा साबित करने की कोशिश करके अपनी पार्टी के उन लोगों को भी धमकाने की कोशिश की है जो उनको राहुल गाँधी का नाम लेकर डराते रहते हैं . जहां तक बीजेपी का सवाल है उनको तो सौ फीसदी घेरे में लेने की योजना साफ़ नज़र आ रही है . जो भी हो अगले कुछ महीने साम्प्रदायिक राजनीति के विमर्श में इस्तेमाल होने वाले हैं . अगर प्रधानमंत्री ने देश की सेकुलर जमातों को अपना ,मकसद समझाने में सफलता हासिल कर ली तो एक बार बीजेपी फिर बैकफुट पर आ जायेगी
Thursday, June 30, 2011
Tuesday, June 28, 2011
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को बदनाम करना मुसलमानों के खिलाफ साज़िश है
शेष नारायण सिंह
अल्पसंख्यकों के बारे में कांग्रेस पार्टी की सोच एक बार फिर बहस के दायरे में आ गयी है .एक तरफ तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की लाइन है जो मुसलमानों से सम्बंधित किसी भी मसले पर जो कुछ भी कहते हैं वह आम तौर पर मुसलमानों के हित में होता है और दूसरी तरफ केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ,सलमान खुर्शीद हैं जो मुसलमानों के हित की बात करते समय यह ध्यान रखते हैं कि दिल्ली की काकटेल सर्किट के उनके बीजेपी वाले दोस्त नाराज़ न हो जाएँ. दिग्विजय सिंह सरकार में नहीं हैं और उनके विचारों का विरोध कांग्रेस के ज़्यादातर नेता करते पाए जाते हैं . दिग्विजय सिंह के विचारों को वे कांग्रेसी गलत बताते हैं जो कांग्रेस में होते हुए भी हिंदुत्व की राजनीति के पोषक हैं .सलमान खुर्शीद की सोच वाले कांग्रेसी मंत्री भी इसी वर्ग में आते हैं . इन कांग्रेसियों की कोशिश रहती है कि दिग्विजय सिंह के बयान मीडिया में थोड़ी बहुत खलबली फैलाने से ज्यादा काम न आ सकें . लेकिन दिग्विजय सिंह देश के सेकुलर ढाँचे को बनाए रखने में अहम भूमिका निभा रहे हैं और वह देश की राजनीतिक शुचिता के लिए ज़रूरी है . उनके इस काम के लिए उन्हें दक्षिण पंथी हिन्दू और मुसलमानों के संगठन भला बुरा कहते रहते हैं .सलमान खुर्शीद के साथ ऐसा नहीं है. वे दिल्ली के उन अमीर उमरा की तरह हैं जो अपनी गद्दी बचाए रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं .वे केंद्र सरकार के ज़िम्मेदार मंत्री हैं, कांग्रेस आलाकमान के भरोसेमंद सिपाही हैं और मुसलमानों के हित के लिए केंद्र में जो कुछ भी होता है, उसके प्रभारी हैं. उनकी बात वास्तव में भारत सरकार की बात होती है .पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई के एक कालेज में भाषण दिया और कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ सवाल उठाया जाना चाहिए . आपने फरमाया कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट कलामे पाक नहीं है. हम भी मानते हैं कि कोई भी दस्तावेज़ पवित्र कुरान नहीं हो सकता. ज़ाहिर है उन्होंने किसी कमेटी की रिपोर्ट के साथ पवित्र कुरान का नाम लेकर गलती की है और उन्हें उसकी सजा मिलेगी . लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को हल्का करने की उनकी कोशिश को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए . आज़ादी के साठ साल बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी जिस की रिपोर्ट आने के बाद दुनिया को मालूम हुआ कि भारत में मुसलमानों की हालत कितनी खराब है . उसको बुनियादी दस्तावेज़ मान कर कई स्तर पर सरकार ने कुछ काम भी शुरू किया . शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों के पिछड़ेपन को कम करने के लिए बहुत सारे वजीफों का ऐलान हुआ ,जिसकी ज़िम्मेदारी भी सलमान खुर्शीद के पास ही है . उनके एक ख़ास बन्दे ने एक दिन बताया था कि सलमान खुर्शीद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बनकर खुश नहीं हिं ,वे किसी मलाईदार विभाग में जाना चाहते हैं .इसीलिये इस तरह की बात कर रहे हैं जिस से उनको और कोई मंत्रालय मिल जाए.यह खेल उल्टा भी पड़ सकता है क्योंकि अगर उनके आलाकमान की समझ में यह बारीक चाल आ गयी तो सलमान साहब पैदल भी हो सकते हैं . वैसे भी उनकी राजनीतिक हसियत ऐसी नहीं है कि कांग्रेस उनको मह्त्व देने के लिए मजबूर हो सके.
जहां तक सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बारे में उनके ख्यालात की बात है वह बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस सरकारों पर मुसलमानों के तुष्टीकरण के आरोप लगता रहता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. इस रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया था कि केंद्र सरकार ने या राज्य सरकारों ने मुसलमानों को इस देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना रखा था. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद उनके कल्याण की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण पहल हुई है जिस से देश में बराबरी का निजाम कायम होने में मदद मिलेगी. बीजेपी और उसेक सहयोगी दलों की कोशिश है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ अभियान चलाकर उसे बदनाम कर दें . उनके इस अभियान में सलमान खुर्शीद का बयान बहुत ही अहम भूमिका निभाएगा. ऐसी हालत में शक़ होता है कि कहीं सलमान साहब दिल्ली में रहने वाले बीजेपी के उन मित्रों की शह पर काम कर रहे हैं जिनसे उनकी मुलाक़ात रात की दावतों में होती है. देश के सभी इंसाफ़पसंद लोगों को चाहिए कि सलमान खुर्शीद की उस कोशिश को बेनकाब करें जिसके तहत वे सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को बदनाम करने की साज़िश का हिस्सा बन रहे हैं .
अल्पसंख्यकों के बारे में कांग्रेस पार्टी की सोच एक बार फिर बहस के दायरे में आ गयी है .एक तरफ तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की लाइन है जो मुसलमानों से सम्बंधित किसी भी मसले पर जो कुछ भी कहते हैं वह आम तौर पर मुसलमानों के हित में होता है और दूसरी तरफ केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ,सलमान खुर्शीद हैं जो मुसलमानों के हित की बात करते समय यह ध्यान रखते हैं कि दिल्ली की काकटेल सर्किट के उनके बीजेपी वाले दोस्त नाराज़ न हो जाएँ. दिग्विजय सिंह सरकार में नहीं हैं और उनके विचारों का विरोध कांग्रेस के ज़्यादातर नेता करते पाए जाते हैं . दिग्विजय सिंह के विचारों को वे कांग्रेसी गलत बताते हैं जो कांग्रेस में होते हुए भी हिंदुत्व की राजनीति के पोषक हैं .सलमान खुर्शीद की सोच वाले कांग्रेसी मंत्री भी इसी वर्ग में आते हैं . इन कांग्रेसियों की कोशिश रहती है कि दिग्विजय सिंह के बयान मीडिया में थोड़ी बहुत खलबली फैलाने से ज्यादा काम न आ सकें . लेकिन दिग्विजय सिंह देश के सेकुलर ढाँचे को बनाए रखने में अहम भूमिका निभा रहे हैं और वह देश की राजनीतिक शुचिता के लिए ज़रूरी है . उनके इस काम के लिए उन्हें दक्षिण पंथी हिन्दू और मुसलमानों के संगठन भला बुरा कहते रहते हैं .सलमान खुर्शीद के साथ ऐसा नहीं है. वे दिल्ली के उन अमीर उमरा की तरह हैं जो अपनी गद्दी बचाए रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं .वे केंद्र सरकार के ज़िम्मेदार मंत्री हैं, कांग्रेस आलाकमान के भरोसेमंद सिपाही हैं और मुसलमानों के हित के लिए केंद्र में जो कुछ भी होता है, उसके प्रभारी हैं. उनकी बात वास्तव में भारत सरकार की बात होती है .पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई के एक कालेज में भाषण दिया और कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ सवाल उठाया जाना चाहिए . आपने फरमाया कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट कलामे पाक नहीं है. हम भी मानते हैं कि कोई भी दस्तावेज़ पवित्र कुरान नहीं हो सकता. ज़ाहिर है उन्होंने किसी कमेटी की रिपोर्ट के साथ पवित्र कुरान का नाम लेकर गलती की है और उन्हें उसकी सजा मिलेगी . लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को हल्का करने की उनकी कोशिश को माफ़ नहीं किया जाना चाहिए . आज़ादी के साठ साल बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी जिस की रिपोर्ट आने के बाद दुनिया को मालूम हुआ कि भारत में मुसलमानों की हालत कितनी खराब है . उसको बुनियादी दस्तावेज़ मान कर कई स्तर पर सरकार ने कुछ काम भी शुरू किया . शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों के पिछड़ेपन को कम करने के लिए बहुत सारे वजीफों का ऐलान हुआ ,जिसकी ज़िम्मेदारी भी सलमान खुर्शीद के पास ही है . उनके एक ख़ास बन्दे ने एक दिन बताया था कि सलमान खुर्शीद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री बनकर खुश नहीं हिं ,वे किसी मलाईदार विभाग में जाना चाहते हैं .इसीलिये इस तरह की बात कर रहे हैं जिस से उनको और कोई मंत्रालय मिल जाए.यह खेल उल्टा भी पड़ सकता है क्योंकि अगर उनके आलाकमान की समझ में यह बारीक चाल आ गयी तो सलमान साहब पैदल भी हो सकते हैं . वैसे भी उनकी राजनीतिक हसियत ऐसी नहीं है कि कांग्रेस उनको मह्त्व देने के लिए मजबूर हो सके.
जहां तक सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बारे में उनके ख्यालात की बात है वह बहुत ही गैर जिम्मेदाराना है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले राजनेताओं का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस सरकारों पर मुसलमानों के तुष्टीकरण के आरोप लगता रहता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. इस रिपोर्ट ने साफ़ कर दिया था कि केंद्र सरकार ने या राज्य सरकारों ने मुसलमानों को इस देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना रखा था. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के बाद उनके कल्याण की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण पहल हुई है जिस से देश में बराबरी का निजाम कायम होने में मदद मिलेगी. बीजेपी और उसेक सहयोगी दलों की कोशिश है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के खिलाफ अभियान चलाकर उसे बदनाम कर दें . उनके इस अभियान में सलमान खुर्शीद का बयान बहुत ही अहम भूमिका निभाएगा. ऐसी हालत में शक़ होता है कि कहीं सलमान साहब दिल्ली में रहने वाले बीजेपी के उन मित्रों की शह पर काम कर रहे हैं जिनसे उनकी मुलाक़ात रात की दावतों में होती है. देश के सभी इंसाफ़पसंद लोगों को चाहिए कि सलमान खुर्शीद की उस कोशिश को बेनकाब करें जिसके तहत वे सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को बदनाम करने की साज़िश का हिस्सा बन रहे हैं .
Labels:
मुसलमान,
शेष नारायण सिंह,
सच्चर,
सलमान खुर्शीद,
साज़िश
Friday, June 24, 2011
क्योंकि तालीम के बिना कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता.
शेष नारायण सिंह
कांग्रेस पार्टी पूरी मेहनत से मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए जुट गयी है .जब से डॉ मनमोहन सिंह की सत्ता स्थापित हुई है, मुसलमानों के हित के बारे में गंभीरता से चर्चा हो रही है . सच्चर कमेटी का गठन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम माना जाता है . अब कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा पर काबू पाने की कोशिश करने की दिशा में एक बड़ा क़दम उठा दिया है. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने साम्प्रदायिक हिंसा कानून को पास कराने की दिशा में पहल कर दिया है . उम्मीद है कि यह कानून बन भी जाएगा. इसके पहले अल्पसंख्यकों के लिए वजीफों की व्यवस्था करके सरकार ने मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करने की पूरी कोशिश की थी. जिसके नतीजे भी सामने आने लगे हैं . देश में एक ऐसा माहौल बन रहा है कि संजय गाँधी के दौर में जो मुसलमान कांग्रेस से दूर चले गए था अब वही मुसलमान फिर कांग्रेस की तरफ देखने लगा है . यह भी सच है कि बिहार और शायद उत्तर प्रदेश में भी अभी मुसलमानों के वोट कांग्रेस को नहीं मिलने वाले हैं क्योंकि इन राज्यों में कांग्रेस एक बहुत की कमज़ोर जमात है . इसके बावजूद भी कांग्रेस और यू पी ए की सरकारें मुसलमानों के हित बात सोच रही हैं . इस सारी सोच में एक पहलू बहुत ही निराशाजनक है . कांग्रेस के नेता मुसलमानों का ध्यान वहीं रखते हैं जहां उन्हने मुसलमानों के वोट की ज़रुरत है . बाकी इलाकों में सब कुछ खाली खाली ही रहता है . ऐसी हालत में मुसलमानों की सर्वांगीण तरक्की की बात अभी बहुत दूर की कौड़ी नज़र आती है . सरकारी और राजनीतिक उपेक्षा का एक बड़ा उदाहरण दिल्ली के बिलकुल करीब मेवात का इलाका है . गुडगाँव की मेट्रोपोलिटन आबादी से लगा हुआ यह इलाका अभी अठारहवीं सदी की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर है . लड़कियों की तालीम का बंदोबस्त अभी संतोष जनक नहीं है . अभी भी सामाजिक न्याय यहाँ के लोगों के लिए एक सपने से ज्यादा नहीं है . लेकिन पिछले दिनों कुछ हाई प्रोफाइल राजनेता यहाँ पधारे . खुद सोनिया गाँधी वहां गयीं. और जो हालात देखीं उन्हें भी विश्वास नहीं हुआ. कांग्रेस ने अपने कुछ ऐसे नेताओं को भी भेजा जिनका मुसलमानों की तालीम के क्षेत्र में ख़ासा योगदान है . अब पता चला है कि वहां वक्फ की ज़मीन पर एक इंजीनियरिंग कालेज शुरू किया जा रहा है जिसमें दस फीसदी सीटें मेवात के लोगों के लिए रिज़र्व होंगीं.यह बड़ी शुरुआत है . पता चला है कि मेवात में ही एक मेडिकल कालेज शुरू करने की योजना बन चुकी है और उसमें भी मेवाती बच्चों को दस फीसदी सीटें देने का मन बना लिया गया है. लेकिन इस से कुछ नहीं होने वाला . यह इलाका आर्थिक रूप से बहुत पिछड़ा है . यहाँ जो हाई स्कूल हैं उनमें किसी में भी साइंस का टीचर नहीं है . सवाल पैदा होता है कि अगर इस इलाके के बच्चे साइंस की तालीम में बिलकुल जीरो रहेगें तो इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढाई कैसे करेगें .
हालांकि यह संतोष की बात है कि सरकारी पहल के चलते इस इलाके में शिक्षा की तरक्की के कुछ ज़रूरी क़दम उठाये जा रहे हैं लेकिन जब तक इलाके के लोग खुशहाल नहीं होंगें तब तक कुछ नहीं होने वाला है .इस इलाके में रहने वाले लगभग सभी लोग खेती पर निर्भर हैं . लेकिन बाकी देश में किसानों को जो सरकारी सुविधाएं उपलब्ध हैं वे यहाँ के किसानों के लिए नहीं हैं . पता नहीं सरकारी बैंकों ने क्या नियम बना रखा है कि मेवात के लोगों को खेती के लिए ज़रूरी क़र्ज़ नहीं मिलता . अजीब बात यह है कि इस हालत को किसान और सरकारी अफसर बदलने के बारे में सोचते ही नहीं हैं . इस पूरे इलाके में कहीं भी बीज उपलब्ध कराने का लिए कोई केंद्र नहीं हैं . पानी बहुत ही खारा है . ३-४ सौ फीट की गहराई तक का पानी ऐसा नहीं है जिसे पीने या किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जा सके. इसलिए किसान खेती के लिए बारिश के पानी पर पूरी तरह से निर्भर हैं . सरकार को चाहिए कि इस इलाके में बहुत गहरे जाकर पानी की तलाश करे और फिर उसी पानी को पीने और अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल करने की व्यवस्था करे. लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हो रहा है .
अपने मेवात यात्रा के दौरान यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने सामाजिक तरक्की के सबसे अहम पहलू पर सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में काम करने वालों का ध्यान खींचा था. दरअसल उनकी यात्रा के दौरान कांग्रेस सरकार ने 'जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम' को फोकस में लिया था. यह राष्ट्रीय ग्रामीण हेल्थ मिशन का गर्भवती महिलाओं के लिए शुरू किया गया एक कार्यक्रम है . मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुडा वहां मौजूद थे . उनके साथ हरियाणा की पूरी सरकार वहां हाज़िर थी . १ जून के अपने कार्यक्रम में सोनिया गाँधी ने मेवात के एक सौ दस गाँवों के लिए पीने के पानी की एक परियोजना की भी शुरुआत की. किसी भी समाज के विकास में वहां की महिलाओं की तरक्की की सबसे प्रमुख भूमिका होती है . ज़ाहिर है कि कांग्रेस ने मेवात जैसे पिछड़े इलाके में यह पहल करके एक अहम राजनीतिक चाल चल दी है जिसके उसे पक्के तौर पर राजनीति लाभ होगा. मुस्लिम राजनीतिक के जानकार जानते हैं कि उत्तर भारत के बहुत सारे इलाकों में इस्लाम के प्रचार के लिए जो जमातें जाती हैं उनमें भी बड़ी संख्या में इस इलाके के लोग शामिल होते हैं . ज़ाहिर है उनके पाने गाँव में जो भी विकास की कहानी देखने को मिल रही है वे उसका भी ज़िक्र अपनी तकरीरों में ज़रूर करेगें . ऐसा लगता है कि कांग्रेसी राजनीति के मैनेजरों की नज़र इन बातों पर भी होगी.
इस बात को मानने के बहुत सारे अवसर हैं कि कांग्रेसी नेता चुनावी राजनीति के लाभ को ध्यान में रख कर इस तरह की पहल कर रहे हैं लेकिन इस बात में दो राय नहीं है इस पहल से एक बहुत ही पिछड़े इलाके के पिछड़े मुसलमानों का फायदा होगा .ज़रुरत इस बात की है कि इस पहल को बाकी देश में भी नक़ल किया जाए.और लागू किया जाए. ख़ासकर शिक्षा के हलके में होने वाली तरक्की को हर इलाके में दोहराया जाए क्योंकि तालीम के बिना कभी भी कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता.
कांग्रेस पार्टी पूरी मेहनत से मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए जुट गयी है .जब से डॉ मनमोहन सिंह की सत्ता स्थापित हुई है, मुसलमानों के हित के बारे में गंभीरता से चर्चा हो रही है . सच्चर कमेटी का गठन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम माना जाता है . अब कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा पर काबू पाने की कोशिश करने की दिशा में एक बड़ा क़दम उठा दिया है. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने साम्प्रदायिक हिंसा कानून को पास कराने की दिशा में पहल कर दिया है . उम्मीद है कि यह कानून बन भी जाएगा. इसके पहले अल्पसंख्यकों के लिए वजीफों की व्यवस्था करके सरकार ने मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करने की पूरी कोशिश की थी. जिसके नतीजे भी सामने आने लगे हैं . देश में एक ऐसा माहौल बन रहा है कि संजय गाँधी के दौर में जो मुसलमान कांग्रेस से दूर चले गए था अब वही मुसलमान फिर कांग्रेस की तरफ देखने लगा है . यह भी सच है कि बिहार और शायद उत्तर प्रदेश में भी अभी मुसलमानों के वोट कांग्रेस को नहीं मिलने वाले हैं क्योंकि इन राज्यों में कांग्रेस एक बहुत की कमज़ोर जमात है . इसके बावजूद भी कांग्रेस और यू पी ए की सरकारें मुसलमानों के हित बात सोच रही हैं . इस सारी सोच में एक पहलू बहुत ही निराशाजनक है . कांग्रेस के नेता मुसलमानों का ध्यान वहीं रखते हैं जहां उन्हने मुसलमानों के वोट की ज़रुरत है . बाकी इलाकों में सब कुछ खाली खाली ही रहता है . ऐसी हालत में मुसलमानों की सर्वांगीण तरक्की की बात अभी बहुत दूर की कौड़ी नज़र आती है . सरकारी और राजनीतिक उपेक्षा का एक बड़ा उदाहरण दिल्ली के बिलकुल करीब मेवात का इलाका है . गुडगाँव की मेट्रोपोलिटन आबादी से लगा हुआ यह इलाका अभी अठारहवीं सदी की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर है . लड़कियों की तालीम का बंदोबस्त अभी संतोष जनक नहीं है . अभी भी सामाजिक न्याय यहाँ के लोगों के लिए एक सपने से ज्यादा नहीं है . लेकिन पिछले दिनों कुछ हाई प्रोफाइल राजनेता यहाँ पधारे . खुद सोनिया गाँधी वहां गयीं. और जो हालात देखीं उन्हें भी विश्वास नहीं हुआ. कांग्रेस ने अपने कुछ ऐसे नेताओं को भी भेजा जिनका मुसलमानों की तालीम के क्षेत्र में ख़ासा योगदान है . अब पता चला है कि वहां वक्फ की ज़मीन पर एक इंजीनियरिंग कालेज शुरू किया जा रहा है जिसमें दस फीसदी सीटें मेवात के लोगों के लिए रिज़र्व होंगीं.यह बड़ी शुरुआत है . पता चला है कि मेवात में ही एक मेडिकल कालेज शुरू करने की योजना बन चुकी है और उसमें भी मेवाती बच्चों को दस फीसदी सीटें देने का मन बना लिया गया है. लेकिन इस से कुछ नहीं होने वाला . यह इलाका आर्थिक रूप से बहुत पिछड़ा है . यहाँ जो हाई स्कूल हैं उनमें किसी में भी साइंस का टीचर नहीं है . सवाल पैदा होता है कि अगर इस इलाके के बच्चे साइंस की तालीम में बिलकुल जीरो रहेगें तो इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढाई कैसे करेगें .
हालांकि यह संतोष की बात है कि सरकारी पहल के चलते इस इलाके में शिक्षा की तरक्की के कुछ ज़रूरी क़दम उठाये जा रहे हैं लेकिन जब तक इलाके के लोग खुशहाल नहीं होंगें तब तक कुछ नहीं होने वाला है .इस इलाके में रहने वाले लगभग सभी लोग खेती पर निर्भर हैं . लेकिन बाकी देश में किसानों को जो सरकारी सुविधाएं उपलब्ध हैं वे यहाँ के किसानों के लिए नहीं हैं . पता नहीं सरकारी बैंकों ने क्या नियम बना रखा है कि मेवात के लोगों को खेती के लिए ज़रूरी क़र्ज़ नहीं मिलता . अजीब बात यह है कि इस हालत को किसान और सरकारी अफसर बदलने के बारे में सोचते ही नहीं हैं . इस पूरे इलाके में कहीं भी बीज उपलब्ध कराने का लिए कोई केंद्र नहीं हैं . पानी बहुत ही खारा है . ३-४ सौ फीट की गहराई तक का पानी ऐसा नहीं है जिसे पीने या किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जा सके. इसलिए किसान खेती के लिए बारिश के पानी पर पूरी तरह से निर्भर हैं . सरकार को चाहिए कि इस इलाके में बहुत गहरे जाकर पानी की तलाश करे और फिर उसी पानी को पीने और अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल करने की व्यवस्था करे. लेकिन ऐसा कहीं कुछ नहीं हो रहा है .
अपने मेवात यात्रा के दौरान यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने सामाजिक तरक्की के सबसे अहम पहलू पर सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में काम करने वालों का ध्यान खींचा था. दरअसल उनकी यात्रा के दौरान कांग्रेस सरकार ने 'जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम' को फोकस में लिया था. यह राष्ट्रीय ग्रामीण हेल्थ मिशन का गर्भवती महिलाओं के लिए शुरू किया गया एक कार्यक्रम है . मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुडा वहां मौजूद थे . उनके साथ हरियाणा की पूरी सरकार वहां हाज़िर थी . १ जून के अपने कार्यक्रम में सोनिया गाँधी ने मेवात के एक सौ दस गाँवों के लिए पीने के पानी की एक परियोजना की भी शुरुआत की. किसी भी समाज के विकास में वहां की महिलाओं की तरक्की की सबसे प्रमुख भूमिका होती है . ज़ाहिर है कि कांग्रेस ने मेवात जैसे पिछड़े इलाके में यह पहल करके एक अहम राजनीतिक चाल चल दी है जिसके उसे पक्के तौर पर राजनीति लाभ होगा. मुस्लिम राजनीतिक के जानकार जानते हैं कि उत्तर भारत के बहुत सारे इलाकों में इस्लाम के प्रचार के लिए जो जमातें जाती हैं उनमें भी बड़ी संख्या में इस इलाके के लोग शामिल होते हैं . ज़ाहिर है उनके पाने गाँव में जो भी विकास की कहानी देखने को मिल रही है वे उसका भी ज़िक्र अपनी तकरीरों में ज़रूर करेगें . ऐसा लगता है कि कांग्रेसी राजनीति के मैनेजरों की नज़र इन बातों पर भी होगी.
इस बात को मानने के बहुत सारे अवसर हैं कि कांग्रेसी नेता चुनावी राजनीति के लाभ को ध्यान में रख कर इस तरह की पहल कर रहे हैं लेकिन इस बात में दो राय नहीं है इस पहल से एक बहुत ही पिछड़े इलाके के पिछड़े मुसलमानों का फायदा होगा .ज़रुरत इस बात की है कि इस पहल को बाकी देश में भी नक़ल किया जाए.और लागू किया जाए. ख़ासकर शिक्षा के हलके में होने वाली तरक्की को हर इलाके में दोहराया जाए क्योंकि तालीम के बिना कभी भी कोई भी समाज तरक्की नहीं कर सकता.
Thursday, May 19, 2011
वोटों के चक्कर में महिलाओं की इज्ज़त से खेल रहे हैं राहुल गाँधी
शेष नारायण सिंह
कांग्रेस पार्टी के महासचिव राहुल गांधी, ज़रुरत से ज्यादा बोल गए हैं . अफवाहों को सूचना मानकर उन्होंने एक बहुत बड़ी राजनीतिक गलती की है . ग्रेटर नोयडा के एक गाँव में पुलिस अत्याचार के बाद ७४ लोगों के मारे जाने की बात करके उन्होंने न केवल अपने अज्ञान का प्रदर्शन किया है ,बल्कि ग्रामीण भारत की अपनी समझ को बहुत ही बचकाने स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है.यह सच है कि उन्हें ग्रामीण लोगों की सामाजिक संरचना की समझ नहीं है . उनको बताने वाले बहुत सारे लोग हैं लेकिन उनको बताने वालों की समझ भी अब शक़ के घेरे में है. ७४ लोगों के मारे जाने वाली उनकी बात को खैर कोई नहीं मानेगा. सरकारी तौर पर उसका खंडन भी कर दिया गया है . गाँव के लोग भी उनकी इस बात का मजाक उड़ा रहे हैं. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जब भट्टा पारसौल और उसके आस पास के गाँवों के सारे लोग अपने घरों में मौजूद हैं तो क्या मारने के लिए ७४ लोगों को पुलिस वाले कहीं और से लाये थे. उपलों के बीच लोगों जला दिए जाने का उनका दावा हास्यास्पद भी नहीं है . बिलकुल तरस खाने लायक है .लेकिन इससे भी घटिया काम राहुल गांधी ने किया है. बिना सच को जाने समझें उन्होंने महिलाओं और लड़कियों के बलात्कार की बात कर दी. जबकि गाँव से जो जानकारी मिल रही है ,उसके हिसाब से कहीं कोई रेप नहीं हुआ . अगर राहुल गांधी को ग्रामीण सामाजिक संरचना की मामूली जानकारी भी होती तो वे मुंह उठा कर किसी गाँव की महिलाओं के रेप की बात को इतनी गैरजिम्मेदारी से न कहते . शायद उन्हें मालूम नहीं कि उनकी इस बात से उस इलाके के लोगों को कितनी तकलीफ हुई है . रेप के साथ जिस तरह की नकारात्मक बातें जुडी हैं , उसके चलते रेप की बात को लोग खुले आम नहीं करते. लेकिन राहुल गांधी ने रेप की बेबुनियाद बात को प्रचारित करके महिलाओं को अपमान का विषय बना दिया है. होना यह चाहिये था कि अगर उन्हें उन गावों में किसी रेप की बात का पता चला था तो उसकी सच्चाई को समझने की कोशिश करते और फिर इतने नाजुक मसले पर कोई टिप्पणी करते. लेकिन अपने वोटों को पक्का करने के चक्कर में राहुल गाँधी इतनी जल्दी में हैं कि औरतों की आबरू जैसे विषय को भी बहुत ही छिछोरपन के साथ उठा रहे हैं . उन्हें भट्टा पारसौल की महिलाओं के बारे में हल्की टिप्पणी करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए
कांग्रेस पार्टी के महासचिव राहुल गांधी, ज़रुरत से ज्यादा बोल गए हैं . अफवाहों को सूचना मानकर उन्होंने एक बहुत बड़ी राजनीतिक गलती की है . ग्रेटर नोयडा के एक गाँव में पुलिस अत्याचार के बाद ७४ लोगों के मारे जाने की बात करके उन्होंने न केवल अपने अज्ञान का प्रदर्शन किया है ,बल्कि ग्रामीण भारत की अपनी समझ को बहुत ही बचकाने स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है.यह सच है कि उन्हें ग्रामीण लोगों की सामाजिक संरचना की समझ नहीं है . उनको बताने वाले बहुत सारे लोग हैं लेकिन उनको बताने वालों की समझ भी अब शक़ के घेरे में है. ७४ लोगों के मारे जाने वाली उनकी बात को खैर कोई नहीं मानेगा. सरकारी तौर पर उसका खंडन भी कर दिया गया है . गाँव के लोग भी उनकी इस बात का मजाक उड़ा रहे हैं. सवाल पूछे जा रहे हैं कि जब भट्टा पारसौल और उसके आस पास के गाँवों के सारे लोग अपने घरों में मौजूद हैं तो क्या मारने के लिए ७४ लोगों को पुलिस वाले कहीं और से लाये थे. उपलों के बीच लोगों जला दिए जाने का उनका दावा हास्यास्पद भी नहीं है . बिलकुल तरस खाने लायक है .लेकिन इससे भी घटिया काम राहुल गांधी ने किया है. बिना सच को जाने समझें उन्होंने महिलाओं और लड़कियों के बलात्कार की बात कर दी. जबकि गाँव से जो जानकारी मिल रही है ,उसके हिसाब से कहीं कोई रेप नहीं हुआ . अगर राहुल गांधी को ग्रामीण सामाजिक संरचना की मामूली जानकारी भी होती तो वे मुंह उठा कर किसी गाँव की महिलाओं के रेप की बात को इतनी गैरजिम्मेदारी से न कहते . शायद उन्हें मालूम नहीं कि उनकी इस बात से उस इलाके के लोगों को कितनी तकलीफ हुई है . रेप के साथ जिस तरह की नकारात्मक बातें जुडी हैं , उसके चलते रेप की बात को लोग खुले आम नहीं करते. लेकिन राहुल गांधी ने रेप की बेबुनियाद बात को प्रचारित करके महिलाओं को अपमान का विषय बना दिया है. होना यह चाहिये था कि अगर उन्हें उन गावों में किसी रेप की बात का पता चला था तो उसकी सच्चाई को समझने की कोशिश करते और फिर इतने नाजुक मसले पर कोई टिप्पणी करते. लेकिन अपने वोटों को पक्का करने के चक्कर में राहुल गाँधी इतनी जल्दी में हैं कि औरतों की आबरू जैसे विषय को भी बहुत ही छिछोरपन के साथ उठा रहे हैं . उन्हें भट्टा पारसौल की महिलाओं के बारे में हल्की टिप्पणी करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए
Labels:
इज्ज़त,
भट्टा पारसौल,
राहुल गाँधी,
शेष नारायण सिंह
राजनीति की भजनलाली परंपरा में भाजपा ने कांग्रेस को पीछे छोड़ा
शेष नारायण सिंह
कर्नाटक में आजकल जो राजनीतिक ड्रामा चल रहा है उसने १९८० के भजन लाल की याद दिला दी. चरण सिंह सरकार की गिरने के बाद जब १९८० के लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई तो भजन लाल हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री थे. राज कर रहे थे ,मौज कर रहे थे , रिश्वत की गिज़ा काट रहे थे . लेकिन चुनावों के नतीजे आये तो जनता पार्टी ज़मींदोज़ हो चुकी थी . उसके कुछ ही दिनों बाद कुछ विधान सभाओं के चुनाव होने थे .हरियाणा का भी नंबर आने वाला था लेकिन भजन लाल पूरी सरकार के साथ दिल्ली पंहुचे और इंदिरा गाँधी के चरणों में लेट गए. हाथ जोड़कर प्रार्थना की उनको कांग्रेस में भर्ती कर लिया जाए.इंदिरा जी ने उन्हें अभय दान दे दिया . बस उसी वक़्त से उनकी सरकार हरियाणा की कांग्रेस सरकार बन गयी. अगर उस दौर में हरियाणा में भी विधान सभा चुनाव होते तो बिकुल तय था कि जनता पार्टी हार जाती और भजन लाल इतिहास के गर्त में पता नहीं कहाँ गायब हो जाते लेकिन उनकी किस्मत में राज करना लिखा था सो उन्होंने राजनीति की भजन लाली परम्परा की बुनियाद डाली . बाद में उन्होंने रिश्वतखोरी के तरह तरह के रिकार्ड बनाए , भ्रष्टाचार को एक ललित कला के रूप में विकसित किया . पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में सांसदों की खरीद फरोख्त में अहम भूमिका निभाई और भारतीय राजनीतिक आचरण को कलंकित किया . कांग्रेस में आजकल भ्रष्टाचार के बहुत सारे कारनामें अंजाम दिए जा रहे हैं लेकिन बे ईमानी में जो बुलंदियां भजन लाल ने हासिल की थीं वह अभी अजेय हैं .भजन लाल की किताब से ही कुछ पन्ने लेकर बाद के वक़्त में अमर सिंह ने उत्तर प्रदेश में २००३ में मुलायम सिंह यादव को मुख्य मंत्री बनवाने में सफलता पायी थी . परमाणु विवाद के दौर में भी जो खेल किया गया था वह भी राजनीति के भजन लाल सम्प्रदाय की साधना से ही संभव हुआ था . आजकल कांग्रेस के जुगाड़बाज़ नेताओं में वह टैलेंट नहीं है जो भजन लाल के पास था . शहर दिल्ली के मोहल्ला दरियागंज निवासी हंस राज भरद्वाज में उस प्रतिभा के कुछ् लक्षण हैं .कांग्रेस ने उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल बना दिया . उन्होंने वहां अपनी कला को निखारने की कोशिश की और कुछ चालें भी चलीं लेकिन वहां उनकी टक्कर राजनीति के भजनलाली परंपरा के एक बहुत बड़े आचार्य से हो गयी . वहां बीजेपी के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा जी विराजते हैं . उनके आगे भजन लाल जैसे लोग फर्शी सलाम बजाने को मजबूर कर दिए जाते हैं . बेचारे हंसराज भारद्वाज तो भजनलाली संस्कृति के एक मामूली साधक हैं . येदुरप्पा जी ने हंस राज जी को बार बार पटखनी दी. लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उन्होंने अभी तक यह समझ नहीं पा रहे है कि येदुरप्पा जी भजनलाल पंथ के बहुत बाहरी ज्ञाता और महारथी हैं . भजनलाली परम्परा के संस्थापक, भजन लाल की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे अपने आला कमान को चुनौती दें , दर असल वे इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और पी वी नरसिंह राव के आशीर्वाद से ही भ्रष्टाचार की बुलंदियां तय करते थे लेकिन बी एस येदुरप्पा ने अपने आलाकमान को डांट कर रखा हुआ है .जब बेल्लारी बंधुओं के खनिज घोटाले वाले मामले में बीजेपी सरकार की खूब कच्ची हुई तो बीजेपी अध्यक्ष और दिल्ली के अन्य बड़े नेताओं ने उनको दिल्ली तलब किया और मीडिया के ज़रिये माहौल बनाया कि उनको हटा दिया जाएगा . इस आशय के संकेत भी दे दिए गए लेकिन येदुरप्पा ने दिल्ली वालों को साफ़ बता दिया कि वे गद्दी नहीं छोड़ेगें , बीजेपी चाहे तो उनको छोड़ सकती है . उसके बाद बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता का बयान आया कि हम येदुरप्पा को नहीं हटाएगें क्योंकि उस हालत में दक्षिण भारत से उनकी पार्टी का सफाया हो जाएगा.उन दिनों दिल्ली के नेताओं के बहुत बुरी हालत थी.उस घटना का नतीजा यह हुआ कि इस बार जब कर्नाटक के राज्यपाल ने इंदिरा युग की राजनीतिक चालबाजी की शुरुआत की तो बीजेपी के बड़े से बड़े नेताओं ने येदुरप्पा के साथ होने के दावे पेश करना शुरू कर दिया और एक बार फिर यह साबित हो गया कि बीजेपी भी भ्रष्टाचार की समर्थक पार्टी है . जिन विधायकों के बर्खास्त होने के बाद तिकड़म से येदुरप्पा ने विधान सभा में शक्ति परीक्षण में जीत दर्ज किया था , उन्हीं विधयाकों की कृपा से आज बी एस येदुरप्पा ने दोबारा सत्ता हासिल कर ली और राजनीतिक आचरण में शुचिता की बात करने वाली वाली बीजेपी के सभी नेता उनके साथ खड़े हैं . यह बुलंदी बेचारे भजन लाल को कभी नहीं मिली थी .दिल्ली के उनके नेताओं ने जब चाहा उनका हटा दिया और कुछ दिन बाद वे दुबारा जुगाड़ लगा कर सत्ता के केंद्र में पंहुच जाते थे . लेकिन आला नेता की ताबेदारी कभी नहीं छोडी . येदुरप्पा का मामला बिलकुल अलग है . उनकी वजह से बीजेपी की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने की कोशिश मुंह के बल गिर पड़ी है . विधान सभा चुनावों के नतीजों से साबित हो गया है कि जनता ने बीजेपी की मुहिम के बावजूद कांग्रेस को उतना भ्रष्ट नहीं माना जितना बीजेपी चाहती थी. जनता साफ़ देख रही है कांग्रेस तो भ्रष्ट लोगों को जेल भेज रही है , कार्रवाई कर रही है लेकिन बीजेपी अपने भ्रष्ट मुख्यमंत्री को बचा भी रही है और पार्टी के बड़े नेता उसी मुख्यमंत्री की ताल पर ताता थैया कर रहे हैं .ज़ाहिर है राजनीतिक अधोपतन के मुकाबले में देश की दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे के मुक़ाबिल खडी हैं और राजनीतिक शुचिता की परवाह किसी को नहीं है .
कर्नाटक में आजकल जो राजनीतिक ड्रामा चल रहा है उसने १९८० के भजन लाल की याद दिला दी. चरण सिंह सरकार की गिरने के बाद जब १९८० के लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई तो भजन लाल हरियाणा में जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री थे. राज कर रहे थे ,मौज कर रहे थे , रिश्वत की गिज़ा काट रहे थे . लेकिन चुनावों के नतीजे आये तो जनता पार्टी ज़मींदोज़ हो चुकी थी . उसके कुछ ही दिनों बाद कुछ विधान सभाओं के चुनाव होने थे .हरियाणा का भी नंबर आने वाला था लेकिन भजन लाल पूरी सरकार के साथ दिल्ली पंहुचे और इंदिरा गाँधी के चरणों में लेट गए. हाथ जोड़कर प्रार्थना की उनको कांग्रेस में भर्ती कर लिया जाए.इंदिरा जी ने उन्हें अभय दान दे दिया . बस उसी वक़्त से उनकी सरकार हरियाणा की कांग्रेस सरकार बन गयी. अगर उस दौर में हरियाणा में भी विधान सभा चुनाव होते तो बिकुल तय था कि जनता पार्टी हार जाती और भजन लाल इतिहास के गर्त में पता नहीं कहाँ गायब हो जाते लेकिन उनकी किस्मत में राज करना लिखा था सो उन्होंने राजनीति की भजन लाली परम्परा की बुनियाद डाली . बाद में उन्होंने रिश्वतखोरी के तरह तरह के रिकार्ड बनाए , भ्रष्टाचार को एक ललित कला के रूप में विकसित किया . पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में सांसदों की खरीद फरोख्त में अहम भूमिका निभाई और भारतीय राजनीतिक आचरण को कलंकित किया . कांग्रेस में आजकल भ्रष्टाचार के बहुत सारे कारनामें अंजाम दिए जा रहे हैं लेकिन बे ईमानी में जो बुलंदियां भजन लाल ने हासिल की थीं वह अभी अजेय हैं .भजन लाल की किताब से ही कुछ पन्ने लेकर बाद के वक़्त में अमर सिंह ने उत्तर प्रदेश में २००३ में मुलायम सिंह यादव को मुख्य मंत्री बनवाने में सफलता पायी थी . परमाणु विवाद के दौर में भी जो खेल किया गया था वह भी राजनीति के भजन लाल सम्प्रदाय की साधना से ही संभव हुआ था . आजकल कांग्रेस के जुगाड़बाज़ नेताओं में वह टैलेंट नहीं है जो भजन लाल के पास था . शहर दिल्ली के मोहल्ला दरियागंज निवासी हंस राज भरद्वाज में उस प्रतिभा के कुछ् लक्षण हैं .कांग्रेस ने उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल बना दिया . उन्होंने वहां अपनी कला को निखारने की कोशिश की और कुछ चालें भी चलीं लेकिन वहां उनकी टक्कर राजनीति के भजनलाली परंपरा के एक बहुत बड़े आचार्य से हो गयी . वहां बीजेपी के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा जी विराजते हैं . उनके आगे भजन लाल जैसे लोग फर्शी सलाम बजाने को मजबूर कर दिए जाते हैं . बेचारे हंसराज भारद्वाज तो भजनलाली संस्कृति के एक मामूली साधक हैं . येदुरप्पा जी ने हंस राज जी को बार बार पटखनी दी. लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उन्होंने अभी तक यह समझ नहीं पा रहे है कि येदुरप्पा जी भजनलाल पंथ के बहुत बाहरी ज्ञाता और महारथी हैं . भजनलाली परम्परा के संस्थापक, भजन लाल की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे अपने आला कमान को चुनौती दें , दर असल वे इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और पी वी नरसिंह राव के आशीर्वाद से ही भ्रष्टाचार की बुलंदियां तय करते थे लेकिन बी एस येदुरप्पा ने अपने आलाकमान को डांट कर रखा हुआ है .जब बेल्लारी बंधुओं के खनिज घोटाले वाले मामले में बीजेपी सरकार की खूब कच्ची हुई तो बीजेपी अध्यक्ष और दिल्ली के अन्य बड़े नेताओं ने उनको दिल्ली तलब किया और मीडिया के ज़रिये माहौल बनाया कि उनको हटा दिया जाएगा . इस आशय के संकेत भी दे दिए गए लेकिन येदुरप्पा ने दिल्ली वालों को साफ़ बता दिया कि वे गद्दी नहीं छोड़ेगें , बीजेपी चाहे तो उनको छोड़ सकती है . उसके बाद बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता का बयान आया कि हम येदुरप्पा को नहीं हटाएगें क्योंकि उस हालत में दक्षिण भारत से उनकी पार्टी का सफाया हो जाएगा.उन दिनों दिल्ली के नेताओं के बहुत बुरी हालत थी.उस घटना का नतीजा यह हुआ कि इस बार जब कर्नाटक के राज्यपाल ने इंदिरा युग की राजनीतिक चालबाजी की शुरुआत की तो बीजेपी के बड़े से बड़े नेताओं ने येदुरप्पा के साथ होने के दावे पेश करना शुरू कर दिया और एक बार फिर यह साबित हो गया कि बीजेपी भी भ्रष्टाचार की समर्थक पार्टी है . जिन विधायकों के बर्खास्त होने के बाद तिकड़म से येदुरप्पा ने विधान सभा में शक्ति परीक्षण में जीत दर्ज किया था , उन्हीं विधयाकों की कृपा से आज बी एस येदुरप्पा ने दोबारा सत्ता हासिल कर ली और राजनीतिक आचरण में शुचिता की बात करने वाली वाली बीजेपी के सभी नेता उनके साथ खड़े हैं . यह बुलंदी बेचारे भजन लाल को कभी नहीं मिली थी .दिल्ली के उनके नेताओं ने जब चाहा उनका हटा दिया और कुछ दिन बाद वे दुबारा जुगाड़ लगा कर सत्ता के केंद्र में पंहुच जाते थे . लेकिन आला नेता की ताबेदारी कभी नहीं छोडी . येदुरप्पा का मामला बिलकुल अलग है . उनकी वजह से बीजेपी की भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने की कोशिश मुंह के बल गिर पड़ी है . विधान सभा चुनावों के नतीजों से साबित हो गया है कि जनता ने बीजेपी की मुहिम के बावजूद कांग्रेस को उतना भ्रष्ट नहीं माना जितना बीजेपी चाहती थी. जनता साफ़ देख रही है कांग्रेस तो भ्रष्ट लोगों को जेल भेज रही है , कार्रवाई कर रही है लेकिन बीजेपी अपने भ्रष्ट मुख्यमंत्री को बचा भी रही है और पार्टी के बड़े नेता उसी मुख्यमंत्री की ताल पर ताता थैया कर रहे हैं .ज़ाहिर है राजनीतिक अधोपतन के मुकाबले में देश की दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे के मुक़ाबिल खडी हैं और राजनीतिक शुचिता की परवाह किसी को नहीं है .
Labels:
कांग्रेस,
भजनलाली परंपरा,
भाजपा,
शेष नारायण सिंह
Friday, May 13, 2011
शिक्षा के बिना मुसलमानों का पिछड़ापन ख़त्म नहीं होगा
शेष नारायण सिंह
ओसामा बिन लादेन के मर जाने के बाद पूरी दुनिया से तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं .अमरीका में वहां के राष्ट्रपति की लोकप्रियता में ११ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है,यूरोप वाले पाकिस्तान को घेरने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तानी फौज और आई एस आई के चेहरे खिसियाहट में तरह तरह के रंग बदल रहे हैं , पाकिस्तानी हुकूमत की बेचारगी छुपाये नहीं छुप रही है , पाकिस्तानी अवाम को साफ लगने लगा है कि भारत से पाकिस्तानी शासकों ने जिस तरह की दुश्मनी कर रखी है ,उसके नतीजे बहुत भयानक हो सकते हैं.आग में घी डालते हुए भारत के सेना प्रमुख ने बयान दे दिया है कि भारतीय सेना अमरीकी कार्रवाई जैसे आपरेशन को अंजाम दे सकती है .आतंक के कारोबार में लगे पाकिस्तानी नेता सडकों पर रो रहे हैं और अपने लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि उनके तरीके को लोग क्यों सही मानें . जब उनके सबसे बड़े आका को ही उसके घर में घुसकर अमरीकी मार सकते हैं तो यह बेचारे किस खेल की मूली हैं .पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों ने कोशिश शुरू कर दिया है कि ओसामा बिन लादेन की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़कर एकजुटता की कोशिश की जाए . पता नहीं किस तरह यह लोग ओसामा बिन लादेन को मुसलमानों की अस्मिता से जोड़ेगें जबकि उसकी आतंक की राजनीति से मरने वालों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . ओसामा के सहयोगी संगठनों ने बेनजीर भुट्टो सहित जितने भी पाकिस्तानियों को मारा है वे सब मुसलमान थे . पाकिस्तान में उनके सहयोगी मुल्ला उमर और उनकी संस्था तालिबान ने जितने लोगों को मारा वे सब मुसलमान थे . भारत में भी उनके सहयोगी संगठनों की हिंसा के शिकार हुए लोगों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . लेकिन एक और अजीब बात सामने आ रही है . भारत में भी भावनाओं को उभारने के लिए कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं . इसमें दो तरह के लोग हैं . एक तो वे धार्मिक नेता हैं जो चाहते हैं कि मुसलमान हमेशा पिछड़ा ही रहे. मुसलमानों के पिछड़े रहने में राजनेताओं का भी स्वार्थ रहता है . शायद इसीलिए वोट याचकों का एक वर्ग भी ओसामा की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहा है . जबकि आम मुसलमान के सामने जिस तरह की समस्याएं हैं, उनकी तरफ इन में से किसी का ध्यान नहीं जा रहा है . या अगर जा रहा है तो उस समस्याओं को टाल देने की रणनीति के तहत ओसामा जैसे नान इशू को हवा देने की कोशिश की जा रही है . मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है . सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते ? सच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है . दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है .एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार, सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की . उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता . उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चो के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया . कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे . एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आई आई टी में पढ़ रही हैं . हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं . इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पार लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . राज्यसभा के उपाध्यक्ष ,के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में बंगलोर शहर में मुसलमानों का को कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे. उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद मिली. करनाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.
ओसामा बिन लादेन के मर जाने के बाद पूरी दुनिया से तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं .अमरीका में वहां के राष्ट्रपति की लोकप्रियता में ११ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है,यूरोप वाले पाकिस्तान को घेरने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तानी फौज और आई एस आई के चेहरे खिसियाहट में तरह तरह के रंग बदल रहे हैं , पाकिस्तानी हुकूमत की बेचारगी छुपाये नहीं छुप रही है , पाकिस्तानी अवाम को साफ लगने लगा है कि भारत से पाकिस्तानी शासकों ने जिस तरह की दुश्मनी कर रखी है ,उसके नतीजे बहुत भयानक हो सकते हैं.आग में घी डालते हुए भारत के सेना प्रमुख ने बयान दे दिया है कि भारतीय सेना अमरीकी कार्रवाई जैसे आपरेशन को अंजाम दे सकती है .आतंक के कारोबार में लगे पाकिस्तानी नेता सडकों पर रो रहे हैं और अपने लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि उनके तरीके को लोग क्यों सही मानें . जब उनके सबसे बड़े आका को ही उसके घर में घुसकर अमरीकी मार सकते हैं तो यह बेचारे किस खेल की मूली हैं .पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों ने कोशिश शुरू कर दिया है कि ओसामा बिन लादेन की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़कर एकजुटता की कोशिश की जाए . पता नहीं किस तरह यह लोग ओसामा बिन लादेन को मुसलमानों की अस्मिता से जोड़ेगें जबकि उसकी आतंक की राजनीति से मरने वालों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . ओसामा के सहयोगी संगठनों ने बेनजीर भुट्टो सहित जितने भी पाकिस्तानियों को मारा है वे सब मुसलमान थे . पाकिस्तान में उनके सहयोगी मुल्ला उमर और उनकी संस्था तालिबान ने जितने लोगों को मारा वे सब मुसलमान थे . भारत में भी उनके सहयोगी संगठनों की हिंसा के शिकार हुए लोगों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . लेकिन एक और अजीब बात सामने आ रही है . भारत में भी भावनाओं को उभारने के लिए कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं . इसमें दो तरह के लोग हैं . एक तो वे धार्मिक नेता हैं जो चाहते हैं कि मुसलमान हमेशा पिछड़ा ही रहे. मुसलमानों के पिछड़े रहने में राजनेताओं का भी स्वार्थ रहता है . शायद इसीलिए वोट याचकों का एक वर्ग भी ओसामा की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहा है . जबकि आम मुसलमान के सामने जिस तरह की समस्याएं हैं, उनकी तरफ इन में से किसी का ध्यान नहीं जा रहा है . या अगर जा रहा है तो उस समस्याओं को टाल देने की रणनीति के तहत ओसामा जैसे नान इशू को हवा देने की कोशिश की जा रही है . मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है . सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते ? सच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है . दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है .एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार, सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की . उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता . उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चो के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया . कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे . एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आई आई टी में पढ़ रही हैं . हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं . इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पार लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . राज्यसभा के उपाध्यक्ष ,के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में बंगलोर शहर में मुसलमानों का को कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे. उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद मिली. करनाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.
Labels:
के रहमान खान,
पिछड़ापन,
शिक्षा,
शेष नारायण सिंह
सुप्रीम कोर्ट के इंसाफ़ के बाद मुल्क मज़बूत होगा
शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में ३० सितम्बर २०१० के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद संघी बिरादरी के लोग बहुत खुश हुए थे. . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली थी.वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी उसी फैसले में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा और अयोध्या की ज़मीन के मालिकाना हक का मुक़दमा अलग अलग विषय हैं तो आर एस एस वाले लाल पीले होने लगे और उसकी राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और उल जलूल बयान देने लगे. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बकने लगे जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा था . आर एस एस वालों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात करना शुरू कर दिया . लेकिन सच्चाई यह है कि उन तीनों जजों के एक फैसले ने भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया . इस फैसले के बाद इंसाफ़ पसंद लोगों में चारों तरफ निराशा का माहौल था और लगता था कि आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह थी कि उस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही थी . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही थी . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही थी कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए थे कि उस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होता . यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं था . यह एक हाई कोर्ट का फैसला था जिसको बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था . ख़तरा यह था कि उसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगते .
संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उस फैसले को खारिज कर दिया है और उसे अजीब कहा है . सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उल जलूल फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया और ताज्जुब व्यक्त किया . सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान की लाज रख ली वरना हाई कोर्ट का फैसला तो पूरी तरह से मध्यकालीन न्यायपद्धति का उदाहरण था. उसमें कानून कहीं नहीं था, बस आस्था के मुद्दे को केन्द्र में रख कर एक पंचायती फैसला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट का ९ मई २०११ का फैसला देश में न्याय बहाल करने की दिशा में बहुत दूर तलक जाएगा .इस फैसले में यह सन्देश है कि इंसाफ हमेशा कानून की सही व्याख्या कर के ही किया जा सकता है , आस्था को केंद्र में रख कर नहीं. .बाबरी मस्जिद के मामले से अब लोग ऊब चुके हैं लेकिन यह ठीक बात नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो देश को तोड़ने की कोशिश कर रही ताक़तें कुछ भी कहर बरपा कर सकती हैं .अब उम्मीद की जानी चाहिये कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन के बारे में सुप्रीम कोर्ट सारे तथ्यों पर गौर करके एक सही फैसला करेगी . सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आर एस एस और उसके मातहत संगठनों में हडकंप है . बीजेपी के प्रवक्ता गण कहने लगे हैं कि मुसलमानों को दरियादिली दिखानी चाहिए और उन्हें सारी ज़मीन राम मंदिर के लिए दे देनी चाहिए . अगर यह मान भी लिया जाए कि मुसलमानों में आम राय बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा जीतने के बाद ज़मीन राममंदिर के लिए दे दी जाए तो वे आर एस एस वालों को तो कभी नहीं देगें . जिस आर एस एस ने बाबरी मस्जिद का विरोध करते हुए पूरे देश के मुसलमानों और ९८ प्रतिशत हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पंहुचाया है . लेकिन अभी इन बातों का वक़्त बिलकुल नहीं है . अभी तो देश की एकता के रास्ते में आर एस एस और ३० सितम्बर के फैसलें ने जो रुकावटें पैदा कीथीं उसे दुरुस्त करने का वक़्त है . खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके पहला क़दम उठा लिया है .
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में ३० सितम्बर २०१० के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद संघी बिरादरी के लोग बहुत खुश हुए थे. . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली थी.वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी उसी फैसले में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा और अयोध्या की ज़मीन के मालिकाना हक का मुक़दमा अलग अलग विषय हैं तो आर एस एस वाले लाल पीले होने लगे और उसकी राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और उल जलूल बयान देने लगे. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बकने लगे जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा था . आर एस एस वालों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात करना शुरू कर दिया . लेकिन सच्चाई यह है कि उन तीनों जजों के एक फैसले ने भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया . इस फैसले के बाद इंसाफ़ पसंद लोगों में चारों तरफ निराशा का माहौल था और लगता था कि आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह थी कि उस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही थी . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही थी . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही थी कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए थे कि उस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होता . यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं था . यह एक हाई कोर्ट का फैसला था जिसको बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था . ख़तरा यह था कि उसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगते .
संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उस फैसले को खारिज कर दिया है और उसे अजीब कहा है . सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उल जलूल फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया और ताज्जुब व्यक्त किया . सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान की लाज रख ली वरना हाई कोर्ट का फैसला तो पूरी तरह से मध्यकालीन न्यायपद्धति का उदाहरण था. उसमें कानून कहीं नहीं था, बस आस्था के मुद्दे को केन्द्र में रख कर एक पंचायती फैसला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट का ९ मई २०११ का फैसला देश में न्याय बहाल करने की दिशा में बहुत दूर तलक जाएगा .इस फैसले में यह सन्देश है कि इंसाफ हमेशा कानून की सही व्याख्या कर के ही किया जा सकता है , आस्था को केंद्र में रख कर नहीं. .बाबरी मस्जिद के मामले से अब लोग ऊब चुके हैं लेकिन यह ठीक बात नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो देश को तोड़ने की कोशिश कर रही ताक़तें कुछ भी कहर बरपा कर सकती हैं .अब उम्मीद की जानी चाहिये कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन के बारे में सुप्रीम कोर्ट सारे तथ्यों पर गौर करके एक सही फैसला करेगी . सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आर एस एस और उसके मातहत संगठनों में हडकंप है . बीजेपी के प्रवक्ता गण कहने लगे हैं कि मुसलमानों को दरियादिली दिखानी चाहिए और उन्हें सारी ज़मीन राम मंदिर के लिए दे देनी चाहिए . अगर यह मान भी लिया जाए कि मुसलमानों में आम राय बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा जीतने के बाद ज़मीन राममंदिर के लिए दे दी जाए तो वे आर एस एस वालों को तो कभी नहीं देगें . जिस आर एस एस ने बाबरी मस्जिद का विरोध करते हुए पूरे देश के मुसलमानों और ९८ प्रतिशत हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पंहुचाया है . लेकिन अभी इन बातों का वक़्त बिलकुल नहीं है . अभी तो देश की एकता के रास्ते में आर एस एस और ३० सितम्बर के फैसलें ने जो रुकावटें पैदा कीथीं उसे दुरुस्त करने का वक़्त है . खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके पहला क़दम उठा लिया है .
Labels:
इंसाफ़,
बाबरी मस्जिद,
शेष नारायण सिंह,
सुप्रीम कोर्ट
Friday, May 6, 2011
उत्तर प्रदेश की आख़िरी लड़ाई बीजेपी और मायावती के बीच होगी
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए शुरू हो चुके घमासान में प्रधानमंत्री ने भी अपनी हाजिरी लगवा दी है . राहुल गांधी के प्रिय क्षेत्र , बुंदेलखंड में उन्होंने ३० अप्रैल को जो भाषण दिया,उसे हर तरह से चुनावी भाषण ही माना जाएगा. राहुल गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जिनका सीधा लाभ चुनावों में मिलता है . हालांकि विधान सभा का कार्यकाल २०१२ के प्रारंभ में पूरा होगा लेकिन जानकर बता रहे हैं कि चुनाव इस साल के अंत में ही हो जायेगें . सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है . उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है . बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि मई के अंत तक उनके टिकट भी तय हो जायेगें. २००७ के चुनावों के ठीक पहले जो राजनीतिक हालात थे अब वे नहीं हैं . उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ गँवा चुकी कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपने आपको मायावती और मुलायम सिंह यादव की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश की है . लोकसभा २००९ में उसे मिली सीटें इस बात को साफ़ कर देती हैं.मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनावी राजनीति में सफलता की ताकत को बहुत ज्यादा गंवाया है . उनकी हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में जहां वे अपनी पुत्रवधू की जीत पक्की नहीं कर सके ,वहीं पंचायत चुनावोंमें उनेक परिवार के कई सदस्य चुनाव हार गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी नाराज़गी बहुत है . उनके बहुत करीबी रिश्तेदार तक उनके क्षेत्र में उनके खिलाफ काम कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उनके कई विधायक अजित सिंह और बहुजन समाज पार्टी की टिकटों की जुगत भिड़ा रहे हैं . आम तौर पर मुसलमान पिछले २० वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था . उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता,आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे. दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे ,जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे .नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए .इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी . लोकसभा २००९ में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया . नतीजा सामने है . बीजेपी के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली. इसलिए आगामी विधान सभा चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है . वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो बीजेपी को कमज़ोर करता हो. राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए. लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा . इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं . उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में बीजेपी के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए. अब उन्हें किसी पार्टी की तलाश है . मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है . मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है . इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए . कांग्रेस की रण नीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले पांच साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगें और मायावती से नाराज़ मतदाता कांग्रेस को सत्ता देकर मायावती से बदला लेने की कोशिश करेगें . २००७ के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था जब मुलायम सिंह ने नाराज़ सभी वर्गों ने मायावती को जितवाकर अपना बदला चुकाया था .
जहां तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं .उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर ज़रूरी बहुमत सुनिश्चित कर सकते हैं . इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के अगले चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की लड़ाई है . जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मायावती से नाराज़ वोटर अपने आप आ जाएगा . फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं . कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ऐलानियाँ राजपूतों की राजनीति कर रहे हैं . इस मुहिम में उन्होंने अमर सिंह को भी साथ ले लिया है . यह अलग बात है कि अमर सिंह राजपूतों के नेता नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों का सघन दौरा किया और राजपूतों के प्रभाव वाले कुछ क्षेत्रों में उनके प्रति सहानुभूति है . दिग्विजय सिंह की कोशिश है कि उन लोगों को भी साथ लिया जाए . अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा . कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मायावाती से नाराज़ लोग कांग्रेस को प्राथमिकता देगें और राहुल गाँधी का उत्तर प्रदेश को कांग्रेस के लिए मज़बूत करने के सपने को ताक़त मिलेगी . लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बीजेपी इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी. उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले . राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह की सभाएं हो रही हैं. लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाकर उन्हें पूरे देश में घुमाकर दिल्ली वाले नेता उनको लगभग निपटा ही चुके हैं . आडवाणी ने ही राजनाथ सिंह का सबसे ज्यादा नुकसान किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के कमज़ोर हो जाने की वजह से आडवाणी के उस वक़्त के साथियों ने राजनाथ सिंह के खिलाफ माहौल बना दिया था लेकिन अब वही साथी आडवानी को बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर ला चुके हैं .लाल कृष्ण आडवानी बीजेपी के संस्थापक और बड़े नेता थे . हर हाल में राजनाथ सिंह का क़द उनके और वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में बीजेपी की राजनीति के भाग्य विधाता हैं , उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं . ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दुबारा अपना ले. अगर ऐसा हुआ तो मायावती की मुख्य विरोधी पार्टी का रुतबा बीजेपी को ही मिल जाएगा . बीजेपी की कोशिश अभी से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की चल रही है . वरुण गाँधी की राजनीति के पैरोकार लोग उस काम में लग गए हैं . अगर मुसलमानों को लगा कि बीजेपी को कमज़ोर करने में कांग्रेस से ज्यादा मायावती कारगर होंगीं तो वह एकमुश्त बहुजन समाज पार्टी के साथ ही चला जाएगा .ज़ाहिर है कि अभी तस्वीर बहुत धुंधली है . लेकिन बिसात बिछ चुकी है और उत्तर प्रदेश के बहुत ही दिलचस्प होने की संभावना है. हाँ इस बात में दो राय नहीं है कि खेल किसी भी शतरंज के मुकाबले से बेहतर होगा .इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश में आख़िरी लड़ाई बीजेपी और बहुजन समाज पारते के बीच ही होगी. ऐसी हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव का दल बैकग्राउंड में चले जायेगें .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए शुरू हो चुके घमासान में प्रधानमंत्री ने भी अपनी हाजिरी लगवा दी है . राहुल गांधी के प्रिय क्षेत्र , बुंदेलखंड में उन्होंने ३० अप्रैल को जो भाषण दिया,उसे हर तरह से चुनावी भाषण ही माना जाएगा. राहुल गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जिनका सीधा लाभ चुनावों में मिलता है . हालांकि विधान सभा का कार्यकाल २०१२ के प्रारंभ में पूरा होगा लेकिन जानकर बता रहे हैं कि चुनाव इस साल के अंत में ही हो जायेगें . सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है . उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है . बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि मई के अंत तक उनके टिकट भी तय हो जायेगें. २००७ के चुनावों के ठीक पहले जो राजनीतिक हालात थे अब वे नहीं हैं . उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ गँवा चुकी कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपने आपको मायावती और मुलायम सिंह यादव की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश की है . लोकसभा २००९ में उसे मिली सीटें इस बात को साफ़ कर देती हैं.मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनावी राजनीति में सफलता की ताकत को बहुत ज्यादा गंवाया है . उनकी हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में जहां वे अपनी पुत्रवधू की जीत पक्की नहीं कर सके ,वहीं पंचायत चुनावोंमें उनेक परिवार के कई सदस्य चुनाव हार गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी नाराज़गी बहुत है . उनके बहुत करीबी रिश्तेदार तक उनके क्षेत्र में उनके खिलाफ काम कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उनके कई विधायक अजित सिंह और बहुजन समाज पार्टी की टिकटों की जुगत भिड़ा रहे हैं . आम तौर पर मुसलमान पिछले २० वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था . उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता,आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे. दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे ,जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे .नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए .इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी . लोकसभा २००९ में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया . नतीजा सामने है . बीजेपी के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली. इसलिए आगामी विधान सभा चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है . वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो बीजेपी को कमज़ोर करता हो. राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए. लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा . इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं . उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में बीजेपी के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए. अब उन्हें किसी पार्टी की तलाश है . मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है . मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है . इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए . कांग्रेस की रण नीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले पांच साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगें और मायावती से नाराज़ मतदाता कांग्रेस को सत्ता देकर मायावती से बदला लेने की कोशिश करेगें . २००७ के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था जब मुलायम सिंह ने नाराज़ सभी वर्गों ने मायावती को जितवाकर अपना बदला चुकाया था .
जहां तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं .उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर ज़रूरी बहुमत सुनिश्चित कर सकते हैं . इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के अगले चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की लड़ाई है . जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मायावती से नाराज़ वोटर अपने आप आ जाएगा . फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं . कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ऐलानियाँ राजपूतों की राजनीति कर रहे हैं . इस मुहिम में उन्होंने अमर सिंह को भी साथ ले लिया है . यह अलग बात है कि अमर सिंह राजपूतों के नेता नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों का सघन दौरा किया और राजपूतों के प्रभाव वाले कुछ क्षेत्रों में उनके प्रति सहानुभूति है . दिग्विजय सिंह की कोशिश है कि उन लोगों को भी साथ लिया जाए . अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा . कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मायावाती से नाराज़ लोग कांग्रेस को प्राथमिकता देगें और राहुल गाँधी का उत्तर प्रदेश को कांग्रेस के लिए मज़बूत करने के सपने को ताक़त मिलेगी . लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बीजेपी इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी. उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले . राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह की सभाएं हो रही हैं. लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाकर उन्हें पूरे देश में घुमाकर दिल्ली वाले नेता उनको लगभग निपटा ही चुके हैं . आडवाणी ने ही राजनाथ सिंह का सबसे ज्यादा नुकसान किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के कमज़ोर हो जाने की वजह से आडवाणी के उस वक़्त के साथियों ने राजनाथ सिंह के खिलाफ माहौल बना दिया था लेकिन अब वही साथी आडवानी को बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर ला चुके हैं .लाल कृष्ण आडवानी बीजेपी के संस्थापक और बड़े नेता थे . हर हाल में राजनाथ सिंह का क़द उनके और वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में बीजेपी की राजनीति के भाग्य विधाता हैं , उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं . ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दुबारा अपना ले. अगर ऐसा हुआ तो मायावती की मुख्य विरोधी पार्टी का रुतबा बीजेपी को ही मिल जाएगा . बीजेपी की कोशिश अभी से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की चल रही है . वरुण गाँधी की राजनीति के पैरोकार लोग उस काम में लग गए हैं . अगर मुसलमानों को लगा कि बीजेपी को कमज़ोर करने में कांग्रेस से ज्यादा मायावती कारगर होंगीं तो वह एकमुश्त बहुजन समाज पार्टी के साथ ही चला जाएगा .ज़ाहिर है कि अभी तस्वीर बहुत धुंधली है . लेकिन बिसात बिछ चुकी है और उत्तर प्रदेश के बहुत ही दिलचस्प होने की संभावना है. हाँ इस बात में दो राय नहीं है कि खेल किसी भी शतरंज के मुकाबले से बेहतर होगा .इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश में आख़िरी लड़ाई बीजेपी और बहुजन समाज पारते के बीच ही होगी. ऐसी हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव का दल बैकग्राउंड में चले जायेगें .
Labels:
बुंदेलखंड,
मायावती,
राजनाथ सिंह,
शेष नारायण सिंह
Tuesday, May 3, 2011
जीता कोई भी हो हारा पाकिस्तान ही है
शेष नारायण सिंह
करीब १० साल की कोशिश के बाद अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला. पूरी दुनिया में आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने ही बन्दूक के रास्ते पर डाला था और उसका इस्तेमाल किया था. जब पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था तो अमरीका ने अफगानिस्तान में घुस आये सोवियत फौजियों को भगाने के लिए जो योद्धा तैयार किये थे , ओसामा बिन लादेन उसके मुखिया थे. अमरीका ने उनकी खूब मदद की . खूब हथियार दिया , आर्थिक सहायता भी खूब किया और अपने काम के लिए इस्तेमाल किया . इस दौर में जनरल जिया उल हक ने भी अमरीका से खूब माल खींचा . लेकिन जब सोवियत रूस टूट गया और रूसी फौजें अफगानिस्तान से भाग गयीं तो वहां अमरीका की रूचि ख़त्म हो गयी. अमरीका ने पाकिस्तान को भी फ्रीज़र में लगा दिया और ओसामा बिन लादेन को भुला दिया . दाना पानी बंद हो गया . ओसामा ने गुस्से में अमरीका के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . इस बीच अफगानिस्तान में रूसियों के खिलाफ युद्ध में उसके साथ रहे तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया . इस तरह ओसामा को रहने का ठिकाना तो मिल गया लेकिन अफगानिस्तान खुद एक गरीब मुल्क था. आर्थिक गुज़र नहीं हो सकता था . ओसामा ने अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया . इस तरह का पहला बड़ा हमला १९९३ में उसी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया जिसे सितम्बर २००१ में ज़मींदोज़ किया गया .सितम्बर २००१ के पहले और बाद में भी अल कायदा ने अमरीकी हितों को बहुत नुकसान पंहुचाया . इस तरह से अमरीका की कृपा से ही आतंक की दुनिया में प्रवेश करने वाले ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया . पिछले दस साल से अमरीका ने ओसामा को मार डालने या जिंदा पकड़ लेने के लिए खरबों डालर खर्च किया है . ओसामा को पकड़ने और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान ने ही अमरीका से करीब बीस अरब डालर की रक़म दस्तयाब की है . लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली थी . पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को तलाशने के लिए वजीराबाद के कबायली इलाके में अपनी फौज लगा रखा है , वहां उसकी फौज को बहुत सारी मुश्किलात पेश आ रही हैं लेकिन ओसामा को तलाशने का अभियान चल रहा है . बहर हाल अमरीकी खुफिया एजेंसी , सी आई ए ने स्वतंत्र रूप से पता लगाने की कोशिश की और ओसामा मिल गया . वह पाकिस्तान के एक हिल स्टेशन पर आराम की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था. जब अमरीका को पता चला कि पाकिस्तानी फौज के इतने महत्वपूर्ण शहर में ओसामा रह रहा है और पाकिस्तानी सेना के मुखिया अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के बदले उसकी तलाश देश के उत्तरी दुर्गम इलाकों में करवा रहे हैं , तो अमरीकी हुकूमत की समझ में फ़ौरन खेल आ गया. उनको पूरी तरह से पता लग गया कि पाकिस्तान के असली हुक्मरान वहां के फौजी अफसर हैं और वे ओसामा बिन लादेन को किसी भी सूरत में अमरीका के हवाले नहीं करने वाले हैं . शायद उसी के बाद सी आई ए ने तय किया कि ओसामा प्रोजेक्ट पर बिना पाकिस्तानी सहयोग के काम किया जाएगा . ओसामा को ख़त्म करने में अमरीका को सफलता केवल इसी रणनीतिक सोच की वजह से मिली है .
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग असर पड़ेगा . मसलन अमरीका में तो राष्ट्रपति ओबामा को दुबारा राष्ट्रपति बनने में आसानी होगी .जहां तक अमरीका के खिलाफ अल कायदा के आतंकवाद का सवाल है उस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . पिछले दस साल से वैसे भी ओसामा बिन लादेन का सीधे तौर पर अलकायदा के काम में दखल नहीं था लेकिन अल कायदा की गतिविधियों में कहीं कोई कमी नहीं आई थी . इस घटना का सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान में महसूस किया जाएगा . इस बात की पूरी संभावना है कि अब अमरीका पाकिस्तान को वह रक़म देना भी बंद कर देगा जो अब तक प्रोजेक्ट ओसामा के नाम पर बंधी हुई थी. यह कोई मामूली दौलत नहीं थी . इस से एक बार फिर पाकिस्तान के सामने आर्थिक संकट के हालात पैदा हो सकते हैं . लेकिन पाकिस्तान के लिए इस से भी बुरा होने वाला है. पिछले दस साल से मुशर्रफ से लेकर ज़रदारी तक पूरी दुनिया में बताते रहे हैं कि ओसामा पाकिस्तान में नहीं है . अगर होगा भी तो कहीं उत्तर के वजीरिस्तान इलाके में होगा . अब जब ओसामा को एबटाबाद जैसे अहम शहर में पकड़कर मार दिया गया है तो पाकिस्तानी हुकूमत के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है . उसकी विश्वसनीयता पर संकट पैदा हो चुका है . हालांकि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़रदारी, गीलानी और रहमान मलिक जैसे राजनीतिक नेताओं को पाकिस्तानी फौज ने बताया ही न हो कि ओसामा उनकी हिफाज़त में है लेकिन यह तो और भी बुरा है . दुनिया के सामने तो फौज भी सिविलियन सरकार को ही सामने करके बात करती है . हाँ इस बात में कोई दम नहीं कि पाकिस्तानी फौज़ को भी नहीं मालूम था कि ओसामा पाकिस्तान की मिलटरी अकेडमी वाले शहर में ही रह रहा है . वह लगभग पूरी तरह से सेना की कृपा से ही रह रहा था .इसके कई कारण हैं . ओसामा के नाम पर ही पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलती थी . इतने कीमती आदमी को सहेज कर रखना किसी के लिए भी ज़रूरी होता है . हालांकि यह बात भी भरोसे लायक नहीं लगती कि बिना पाकिस्तानी मदद के इतना बड़ा कारनामा किया जा सकता है . हाँ यह हो सकता हो कि आपरेशन शुरू होने के ठीक पहले अमरीकी फौज के कुछ बड़े अफसर पाकिस्तानी सेना प्रमुख के पास चले गए हों और उन्हें कहा हो कि वे लोग एबटाबाद में कुछ बड़ा काम करने वाले हैं ,उसमें पूरी मदद करें . ज़ाहिर है कि जनरल परवेज़ कयानी को मौक़ा ही नहीं मिला होगा को वे ओसामा बिन ल्लादें को कहीं और शिफ्ट कर सकें . बिना पाकिस्तानी फौज़ को भरोसे में लिए यह काम किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता था. इसे पूरी तरह से अमरीकी आपरेशन बता कर पाकिस्तान आने वाले दिनों में ओसामा के समर्थकों से आ रहे खतरों से बचने की सोच रहा होगा . जो भी हो एक राष्ट्रके रूप में पाकिस्तान के सामने भविष्य में बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है .
करीब १० साल की कोशिश के बाद अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला. पूरी दुनिया में आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने ही बन्दूक के रास्ते पर डाला था और उसका इस्तेमाल किया था. जब पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था तो अमरीका ने अफगानिस्तान में घुस आये सोवियत फौजियों को भगाने के लिए जो योद्धा तैयार किये थे , ओसामा बिन लादेन उसके मुखिया थे. अमरीका ने उनकी खूब मदद की . खूब हथियार दिया , आर्थिक सहायता भी खूब किया और अपने काम के लिए इस्तेमाल किया . इस दौर में जनरल जिया उल हक ने भी अमरीका से खूब माल खींचा . लेकिन जब सोवियत रूस टूट गया और रूसी फौजें अफगानिस्तान से भाग गयीं तो वहां अमरीका की रूचि ख़त्म हो गयी. अमरीका ने पाकिस्तान को भी फ्रीज़र में लगा दिया और ओसामा बिन लादेन को भुला दिया . दाना पानी बंद हो गया . ओसामा ने गुस्से में अमरीका के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . इस बीच अफगानिस्तान में रूसियों के खिलाफ युद्ध में उसके साथ रहे तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया . इस तरह ओसामा को रहने का ठिकाना तो मिल गया लेकिन अफगानिस्तान खुद एक गरीब मुल्क था. आर्थिक गुज़र नहीं हो सकता था . ओसामा ने अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया . इस तरह का पहला बड़ा हमला १९९३ में उसी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया जिसे सितम्बर २००१ में ज़मींदोज़ किया गया .सितम्बर २००१ के पहले और बाद में भी अल कायदा ने अमरीकी हितों को बहुत नुकसान पंहुचाया . इस तरह से अमरीका की कृपा से ही आतंक की दुनिया में प्रवेश करने वाले ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया . पिछले दस साल से अमरीका ने ओसामा को मार डालने या जिंदा पकड़ लेने के लिए खरबों डालर खर्च किया है . ओसामा को पकड़ने और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान ने ही अमरीका से करीब बीस अरब डालर की रक़म दस्तयाब की है . लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली थी . पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को तलाशने के लिए वजीराबाद के कबायली इलाके में अपनी फौज लगा रखा है , वहां उसकी फौज को बहुत सारी मुश्किलात पेश आ रही हैं लेकिन ओसामा को तलाशने का अभियान चल रहा है . बहर हाल अमरीकी खुफिया एजेंसी , सी आई ए ने स्वतंत्र रूप से पता लगाने की कोशिश की और ओसामा मिल गया . वह पाकिस्तान के एक हिल स्टेशन पर आराम की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था. जब अमरीका को पता चला कि पाकिस्तानी फौज के इतने महत्वपूर्ण शहर में ओसामा रह रहा है और पाकिस्तानी सेना के मुखिया अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के बदले उसकी तलाश देश के उत्तरी दुर्गम इलाकों में करवा रहे हैं , तो अमरीकी हुकूमत की समझ में फ़ौरन खेल आ गया. उनको पूरी तरह से पता लग गया कि पाकिस्तान के असली हुक्मरान वहां के फौजी अफसर हैं और वे ओसामा बिन लादेन को किसी भी सूरत में अमरीका के हवाले नहीं करने वाले हैं . शायद उसी के बाद सी आई ए ने तय किया कि ओसामा प्रोजेक्ट पर बिना पाकिस्तानी सहयोग के काम किया जाएगा . ओसामा को ख़त्म करने में अमरीका को सफलता केवल इसी रणनीतिक सोच की वजह से मिली है .
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग असर पड़ेगा . मसलन अमरीका में तो राष्ट्रपति ओबामा को दुबारा राष्ट्रपति बनने में आसानी होगी .जहां तक अमरीका के खिलाफ अल कायदा के आतंकवाद का सवाल है उस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . पिछले दस साल से वैसे भी ओसामा बिन लादेन का सीधे तौर पर अलकायदा के काम में दखल नहीं था लेकिन अल कायदा की गतिविधियों में कहीं कोई कमी नहीं आई थी . इस घटना का सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान में महसूस किया जाएगा . इस बात की पूरी संभावना है कि अब अमरीका पाकिस्तान को वह रक़म देना भी बंद कर देगा जो अब तक प्रोजेक्ट ओसामा के नाम पर बंधी हुई थी. यह कोई मामूली दौलत नहीं थी . इस से एक बार फिर पाकिस्तान के सामने आर्थिक संकट के हालात पैदा हो सकते हैं . लेकिन पाकिस्तान के लिए इस से भी बुरा होने वाला है. पिछले दस साल से मुशर्रफ से लेकर ज़रदारी तक पूरी दुनिया में बताते रहे हैं कि ओसामा पाकिस्तान में नहीं है . अगर होगा भी तो कहीं उत्तर के वजीरिस्तान इलाके में होगा . अब जब ओसामा को एबटाबाद जैसे अहम शहर में पकड़कर मार दिया गया है तो पाकिस्तानी हुकूमत के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है . उसकी विश्वसनीयता पर संकट पैदा हो चुका है . हालांकि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़रदारी, गीलानी और रहमान मलिक जैसे राजनीतिक नेताओं को पाकिस्तानी फौज ने बताया ही न हो कि ओसामा उनकी हिफाज़त में है लेकिन यह तो और भी बुरा है . दुनिया के सामने तो फौज भी सिविलियन सरकार को ही सामने करके बात करती है . हाँ इस बात में कोई दम नहीं कि पाकिस्तानी फौज़ को भी नहीं मालूम था कि ओसामा पाकिस्तान की मिलटरी अकेडमी वाले शहर में ही रह रहा है . वह लगभग पूरी तरह से सेना की कृपा से ही रह रहा था .इसके कई कारण हैं . ओसामा के नाम पर ही पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलती थी . इतने कीमती आदमी को सहेज कर रखना किसी के लिए भी ज़रूरी होता है . हालांकि यह बात भी भरोसे लायक नहीं लगती कि बिना पाकिस्तानी मदद के इतना बड़ा कारनामा किया जा सकता है . हाँ यह हो सकता हो कि आपरेशन शुरू होने के ठीक पहले अमरीकी फौज के कुछ बड़े अफसर पाकिस्तानी सेना प्रमुख के पास चले गए हों और उन्हें कहा हो कि वे लोग एबटाबाद में कुछ बड़ा काम करने वाले हैं ,उसमें पूरी मदद करें . ज़ाहिर है कि जनरल परवेज़ कयानी को मौक़ा ही नहीं मिला होगा को वे ओसामा बिन ल्लादें को कहीं और शिफ्ट कर सकें . बिना पाकिस्तानी फौज़ को भरोसे में लिए यह काम किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता था. इसे पूरी तरह से अमरीकी आपरेशन बता कर पाकिस्तान आने वाले दिनों में ओसामा के समर्थकों से आ रहे खतरों से बचने की सोच रहा होगा . जो भी हो एक राष्ट्रके रूप में पाकिस्तान के सामने भविष्य में बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है .
Labels:
ओसामा बिन लादेन,
पाकिस्तान,
शेष नारायण सिंह
Saturday, April 30, 2011
अमरीकी गैरजिम्मेदारी का एक और नमूना
शेष नारायण सिंह
अमरीका में एक संगठन है ,यू एस कमीशन फार इंटर्नेशनल रिलिजस फ्रीडम . वह दुनिया भर में उन देशों की लिस्ट जारी करता है जहां धार्मिक स्वतंत्रता की कमी है .उसकी ताज़ा लिस्ट देखने से पता चलता है कि वह मंद बुद्धि लोगों के प्रभाव वाला संगठन है . उसकी नई लिस्ट में भारत का नाम अफगानिस्तान के साथ रखा गया है.इस श्रेणी में कुछ और भी देश हैं लेकिन जब सबसे ज्यादा अजीब अफगानिस्तान से भारत की बराबरी लगती है . भला बताइये जसी अफगानिस्तान में बामियान बुद्ध की मूर्तियों को तहस नहस कर दिया गया हो , जहां ज़रा सी भी धार्मिक विभिन्नता के कारण लोगों को मार डाला जाता हो उसकी तुलना भारत से करके यह संगठन भारत का तो क्या बिगाड़ेगा ,लेकिन अपनी मूर्खता का परिचय ज़रूर दे दिया है. हालांकि इस बात में दो राय नहीं है कि भारत में हर धर्ममें कुछ ऐसे लोग हैं जो दूसरे धर्म को मानने वाले की धार्मिक आज़ादी में दखल देते रहते हैं लेकिन वे हाशिये पर हैं . उनकी हैसियत केवल लुम्पन की है . मसलन कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यकों को जब पाकिस्तानी भाड़े के आतंकवादियों ने अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर किया तो पूरे देश की कानून व्यवस्था, सरकार और जनता उनेक साथ खडी हो गयी. धार्मिक कारणों से घर छोड़ने वाले कश्मीरी पंडितों को देश के हर भाग में सम्मान पूर्वक काम करने के अवसर दिए गए. सिख के खिलाफ कांग्रेस के दिल्ली के नेताओं की ओर से आयोजित दंगों में बहुत सारे सिखों की जान माल का नुकसान हुआ था लेकिन धार्मिक कारणों से उनकी हत्या करने वालों के खिलाफ पूरा देश और समाज खड़ा है और जिन कांग्रेसियों ने उनके ऊपर हमले करवाए थे उनको कांग्रेसी सरकारों ने भले ही साथ रखा हो लेकिन दंगों के अपराधी नेताओं को एक समाज के रूप में इस देश ने कभी सम्मान नहीं दिया. देश में हिन्दू मुस्लिम दंगों का सिलसिला १९२७ से ही चल रहा है लेकिन दंगाई को कभी भी समाज ने माफ़ नहीं किया . दंगों में जिन सिरफिरे लोगों ने भी हिस्सा लिया वे समाज की नज़रों में हमेशा ही गिर गए. मुसलमानों को अपमानित करने के उद्देश्य से जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया तो उन अपराध को करने वालों के खिलाफ पूरा देश एक जुट हो गया . यहाँ तक कि देश का पूर्व उप प्रधान मंत्री बाबरी मस्जिद विध्वस केस में अभियुक्त है और उनकी अपनी पार्टी में भी एक बड़ा वर्ग उनके इस काम को गलत मानता है . उनकी पार्टी के ही एक मुख्यमंत्री के ऊपर गुजरात नरसंहार२००२ की साज़िश में शामिल होने का आरोप है . पूरे देश में उनके खिलाफ धरने प्रदर्शन होते रहते हैं , बहुसंख्यक हिन्दू समाज के लोग उनके खिलाफ हर मंच पर अभियान चला रहे हैं . पूरे देश के हिन्दू की नज़र में वे अपराधी हैं .जिला स्तर की अदालतों से लेकर देश की सर्वोच्च अदालत तक उनके खिलाफ मुक़दमा चल रहा है . ऐसी हालत में अगर कोई भी नासमझ व्यक्ति या संगठन भारत को धार्मिक असहिष्णु देश के रूप में प्रस्तुत करता है तो उस भारत की स्थिति में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा लेकिन उस संगठन की औकात का पता चल जाता है . ज़ाहिर है कि इस तरह के एगैर ज़िम्मेदार रिपोर्ट को पूरी दुनिया में तिरस्कार की नज़र से देखा जाएगा लेकिन कुछ भारत विरोधी ताक़तें इसको भी भारत के खिलाफ एक तर्क के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगीं. हालांकि यह भी सच है कि इस रिपोर्ट को तैयार कने में कमीशन के अध्यक्ष की मनमानी की ज्यादा भूमिका है क्योंकि इस रिपोर्ट का कमीशन के दो सदस्यों ने विरोध किया उअर रिपोर्ट में ही अपनी मुखैल्फत को दर्ज कराया . फेलिस गाएर और विलियम शा नाम के सदस्यों ने जोर देकर कहा कि भारत के संविधान में ही धार्मिक स्वतंत्रता का प्रावधान है , वहां की न्याय व्यवस्था पूरे इतरह से संविधान के अनुसार काम करती है और धार्मिक कारणों से विभेद करने वाले लोगों को सख्त सज़ा का प्रावधान है . ऐसे देश को उसी स्तर पर रखना जिस पार अफगानिस्तान को रखा गया है बिलकुल गलत है . उन लोगों ने अपने नोट में लिखा है कि इस से भारत का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन कमीशन की विश्वसनीयता के परखचे उड़ जायेंगें . ऐसा नहीं है कि कमीशन को सारी बातों का पता नहीं था . उनको बाकायदा बताया गया था कि अल्पसंख्यकों को जितनी संवैधानिक गारंटियां भारत में उपलब्ध हैं, उतनी तो अमरीका में भी नहीं हैं . बहरत में धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा है . जब अमरीका में काले लोगों को वोट देने तक के बुनियादी अधिकार नहीं थे तो भारत में अल्पसंख्यकों के लिए उनके धार्मिक अधिकारों के अनुसार परिवार के पर्सनल कानून बन चुके थे अल्पसंख्यकों को भारत में हर स्तर पर सब्सिडी की व्यवस्था है .धार्मिक स्थानों पर सरकार का कोई दखल नहीं है .अल्पसंख्यकों के लिए बनी शिक्षा संस्थाओं को विशेष दर्ज़ा दिया गया है . ऐसी हालत में भारत को अफगानिस्तान के बराबर करने की कोशिश परले दर्जे का पागलपन है
अमरीका में एक संगठन है ,यू एस कमीशन फार इंटर्नेशनल रिलिजस फ्रीडम . वह दुनिया भर में उन देशों की लिस्ट जारी करता है जहां धार्मिक स्वतंत्रता की कमी है .उसकी ताज़ा लिस्ट देखने से पता चलता है कि वह मंद बुद्धि लोगों के प्रभाव वाला संगठन है . उसकी नई लिस्ट में भारत का नाम अफगानिस्तान के साथ रखा गया है.इस श्रेणी में कुछ और भी देश हैं लेकिन जब सबसे ज्यादा अजीब अफगानिस्तान से भारत की बराबरी लगती है . भला बताइये जसी अफगानिस्तान में बामियान बुद्ध की मूर्तियों को तहस नहस कर दिया गया हो , जहां ज़रा सी भी धार्मिक विभिन्नता के कारण लोगों को मार डाला जाता हो उसकी तुलना भारत से करके यह संगठन भारत का तो क्या बिगाड़ेगा ,लेकिन अपनी मूर्खता का परिचय ज़रूर दे दिया है. हालांकि इस बात में दो राय नहीं है कि भारत में हर धर्ममें कुछ ऐसे लोग हैं जो दूसरे धर्म को मानने वाले की धार्मिक आज़ादी में दखल देते रहते हैं लेकिन वे हाशिये पर हैं . उनकी हैसियत केवल लुम्पन की है . मसलन कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यकों को जब पाकिस्तानी भाड़े के आतंकवादियों ने अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर किया तो पूरे देश की कानून व्यवस्था, सरकार और जनता उनेक साथ खडी हो गयी. धार्मिक कारणों से घर छोड़ने वाले कश्मीरी पंडितों को देश के हर भाग में सम्मान पूर्वक काम करने के अवसर दिए गए. सिख के खिलाफ कांग्रेस के दिल्ली के नेताओं की ओर से आयोजित दंगों में बहुत सारे सिखों की जान माल का नुकसान हुआ था लेकिन धार्मिक कारणों से उनकी हत्या करने वालों के खिलाफ पूरा देश और समाज खड़ा है और जिन कांग्रेसियों ने उनके ऊपर हमले करवाए थे उनको कांग्रेसी सरकारों ने भले ही साथ रखा हो लेकिन दंगों के अपराधी नेताओं को एक समाज के रूप में इस देश ने कभी सम्मान नहीं दिया. देश में हिन्दू मुस्लिम दंगों का सिलसिला १९२७ से ही चल रहा है लेकिन दंगाई को कभी भी समाज ने माफ़ नहीं किया . दंगों में जिन सिरफिरे लोगों ने भी हिस्सा लिया वे समाज की नज़रों में हमेशा ही गिर गए. मुसलमानों को अपमानित करने के उद्देश्य से जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया तो उन अपराध को करने वालों के खिलाफ पूरा देश एक जुट हो गया . यहाँ तक कि देश का पूर्व उप प्रधान मंत्री बाबरी मस्जिद विध्वस केस में अभियुक्त है और उनकी अपनी पार्टी में भी एक बड़ा वर्ग उनके इस काम को गलत मानता है . उनकी पार्टी के ही एक मुख्यमंत्री के ऊपर गुजरात नरसंहार२००२ की साज़िश में शामिल होने का आरोप है . पूरे देश में उनके खिलाफ धरने प्रदर्शन होते रहते हैं , बहुसंख्यक हिन्दू समाज के लोग उनके खिलाफ हर मंच पर अभियान चला रहे हैं . पूरे देश के हिन्दू की नज़र में वे अपराधी हैं .जिला स्तर की अदालतों से लेकर देश की सर्वोच्च अदालत तक उनके खिलाफ मुक़दमा चल रहा है . ऐसी हालत में अगर कोई भी नासमझ व्यक्ति या संगठन भारत को धार्मिक असहिष्णु देश के रूप में प्रस्तुत करता है तो उस भारत की स्थिति में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा लेकिन उस संगठन की औकात का पता चल जाता है . ज़ाहिर है कि इस तरह के एगैर ज़िम्मेदार रिपोर्ट को पूरी दुनिया में तिरस्कार की नज़र से देखा जाएगा लेकिन कुछ भारत विरोधी ताक़तें इसको भी भारत के खिलाफ एक तर्क के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगीं. हालांकि यह भी सच है कि इस रिपोर्ट को तैयार कने में कमीशन के अध्यक्ष की मनमानी की ज्यादा भूमिका है क्योंकि इस रिपोर्ट का कमीशन के दो सदस्यों ने विरोध किया उअर रिपोर्ट में ही अपनी मुखैल्फत को दर्ज कराया . फेलिस गाएर और विलियम शा नाम के सदस्यों ने जोर देकर कहा कि भारत के संविधान में ही धार्मिक स्वतंत्रता का प्रावधान है , वहां की न्याय व्यवस्था पूरे इतरह से संविधान के अनुसार काम करती है और धार्मिक कारणों से विभेद करने वाले लोगों को सख्त सज़ा का प्रावधान है . ऐसे देश को उसी स्तर पर रखना जिस पार अफगानिस्तान को रखा गया है बिलकुल गलत है . उन लोगों ने अपने नोट में लिखा है कि इस से भारत का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन कमीशन की विश्वसनीयता के परखचे उड़ जायेंगें . ऐसा नहीं है कि कमीशन को सारी बातों का पता नहीं था . उनको बाकायदा बताया गया था कि अल्पसंख्यकों को जितनी संवैधानिक गारंटियां भारत में उपलब्ध हैं, उतनी तो अमरीका में भी नहीं हैं . बहरत में धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा है . जब अमरीका में काले लोगों को वोट देने तक के बुनियादी अधिकार नहीं थे तो भारत में अल्पसंख्यकों के लिए उनके धार्मिक अधिकारों के अनुसार परिवार के पर्सनल कानून बन चुके थे अल्पसंख्यकों को भारत में हर स्तर पर सब्सिडी की व्यवस्था है .धार्मिक स्थानों पर सरकार का कोई दखल नहीं है .अल्पसंख्यकों के लिए बनी शिक्षा संस्थाओं को विशेष दर्ज़ा दिया गया है . ऐसी हालत में भारत को अफगानिस्तान के बराबर करने की कोशिश परले दर्जे का पागलपन है
Thursday, April 28, 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ वैसा ही माहौल है जैसा सन बयालीस में अंग्रेजों के खिलाफ था .
शेष नारायण सिंह
भ्रष्टाचार की चर्चाओं से घिरे देश में विकीलीक्स के संपादक जुलियन असांज ने एक और आयाम जोड़ दिया है . फरमाते हैं कि स्विस बैंकों में जमा काले धन के खातेदारों में बहुत सारे नाम भारतीयों के हैं . इस देश का मध्य वर्ग लगातार भ्रष्टाचार की कहानियां सुन रहा है. टू जी ,कामनवेल्थ ,और येदुरप्पा के घोटालों के माहौल में जब अन्ना हजारे का आन्दोलन आया तो वे सारे लोग मैंदान में आ गए जिनका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है . ज़ाहिर है यह किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत बड़ी खतरे की घंटी है . भ्रष्टाचार के खिलाफ इस सारे मामले में जो सबसे दिलचस्प बात रही, वह यह कि राजनीतिक पार्टियों के सदस्य अपने हिसाब से भ्रष्टाचार की व्याख्या करते रहे , अपने विरोधी को ज्यादा भ्रष्ट बताते रहे लेकिन अखबार पढने वाले देश के उस जागरूक वर्ग ने नेताओं की बातों को गंभीरता से नहीं लिया .ऐसे ही हालात थे जब वजह से १९४२ और १९७७ में परिवर्तन आया था. भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए इस आन्दोलन में आम आदमी नेताओं को आवश्यक तिरस्कार की नज़र से ही देखता रहा . जुलियन असांज का नया खुलासा तस्वीर को बिलकुल नया रंग दे देता है. उसने साफ़ कहा है कि जिन दस्तावेजों को वे लीक कर रहे हैं वे सबूत नहीं हैं लेकिन उनमें बहुत अहम सूचनाएं हैं जिनका इस्तेमाल आगे की जांच में किया जा सकता है . एक निजी टी वी चैनल से बात करते हुए जुलियन असांज ने कहा कि भारत सरकार का यह कहना कि कुछ देशों के साथ दोहरा टैक्स समझौता न होने की वजह से काले धन को निकालना मुश्किल हो रहा है . असांज ने कहा कि यह तर्क बिलकुल बेतुका है . उन्होंने कहा कि काले धन को निकालना टैक्स से सम्बंधित मामला नहीं है . वह वास्तव में बिलकुल अलग, काले धन का मामला है . उसने एक और बात कही जो अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी जानता है . उसने कहा कि देश के अंदर की रिश्वत खोरी हालांकि राष्ट्रीय संसाधनों पर डाका डालती है लेकिन वह विदेशी बैंकों में धन रखने से कम खतरनाक है . उसमें पैसा देश में रहता है और उस रक़म को खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा ज़ाया नहीं होती . जबकि किसी ने किसी रूप में वह पैसा देश के अंदर की इस्तेमाल होता है . यहाँ रिश्वतखोरी को सही ठहराने का कोई इरादा नहीं है . विदेशी बैंकों में पैसा जमा करने वालों के देशद्रोह को रेखांकित करने के उद्देश्य से यह तर्क दिया जा रहा है . चोरी से देश के बाहर पैसा जमा करने वाले देश की अर्थव्यवस्था पर दोहरा वार करते हैं .एक तो देश का पैसा रिश्वत के रास्ते चुराते हैं और दूसरा यह कि दुर्लभ विदेशी मुद्रा खर्च करके भारतीय रूपयों को स्विस बैंकों में जमा करने लायक बनाते हैं . इस तरह अर्थ व्यवस्था पर दोहरी मार करते हैं . देश में बन रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल में जुलियन असांज का यह खुलासा बहुत बड़ी उम्मीद लेकर आया है . यहाँ यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी इस कोशिश में लगे हुए हैं कि कांग्रेस को ही स्विस बैंको में जमा काले धन के खलनायक के रूप में पेश किया जाय. आम तौर पर माना भी यही जाता है कि कांग्रेसियों ने सबसे ज्यादा खेल किया है . ऐसा शायद इसलिए कि यह काम १९७० के दशक से ही चल रहा है . लेकिन इस बात में भी कोई शक़ नहीं है कि बीजेपी के बड़े नेता भी इस लपेट में आयेगें .दुनिया जानती है कि बीजेपी के कई मंत्रियों और टाप नेताओं के बच्चों ने वाजपेयी सरकार के दौरान खुलकर घूस बटोरा था. कर्नाटक में मौजूदा सरकार भी घूस के खेल में किसी कांग्रेसी से कम नहीं है . बाकी पार्टियों के नेता भी विदेशी बैंकों की शरण में जाते रहे हैं .ज़ाहिर है जब खुलासा होगा तो सबका नाम आयेगा और अगर बीजेपी वाले यह सोचते हैं कि वाजपेयी जी की सरकार के दौरान जो लाखों करोड़ के वारे न्यारे हुए थे , वह रक़म भारतीय बैंकों में जमा कर दी गयी होगी ,तो इसे मुगालता ही कहा जाएगा . यानी अगर स्विस बैंकों में जमा रक़म के बारे में पूरी जानकारी मिलती है तो हालात बहुत बदल जायेगें. यह देशहित में है . खुशी इस बात की है कि अब भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय जनमत तैयार हो रहा है और जनता किसी भी भरोसेमंद सूचना पर भरोसा करने को तैयार है . वह किसी भी भ्रष्ट नेता, अफसर या पत्रकार को माफ़ करने को तैयार नहीं है . कोर्ट जाते हुए सुरेश कलमाड़ी के ऊपर चप्पल फेंकने वाला नौजवान दश के सामूहिक गुस्से को ही व्यक्त कर रहा था. राडिया टेप के पहले की एक बहुत ही नामी पत्रकार जब इण्डिया गेट से विशेष कार्यक्रम पंहुची तो जनता ने उन्हें दौड़ा लिया क्योंकि राडिया टेप के बाद की उनकी सच्चाई पत्रकारिता के लिए शुभ लक्षण नहीं है . इसी तरह से लोग बड़े से बड़े लोगों को लोग भ्रष्टाचारी मानने के लिए तैयार बैठे हैं . ऐसी हालत में देश में भ्रष्टाचार के विरोध करने का व्याकरण बदल रहा है . दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक नेताओं को अभी भनक तक नहीं है . वे अभी इसी मुगालते में हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व किसी पार्टी के हाथ आ जाएगा . पूरी संभावना है कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है . अन्ना हजारे के आन्दोलन को जनता ने पूरी तरह नेताओं से मुक्त रखा . आने वाले वक़्त में भी ऐसा ही होने वाला है क्योंकि पूरे देश के जागरूक वर्ग में यह अवधारणा घर कर चुकी है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ राजनीतिक नेता ही हैं . इस बात में भी दो राय नहीं है कि बहुत सारे नेता ऐसे भी हैं जो भ्रष्ट नहीं हैं . लेकिन उनकी अधिसंख्य भ्रष्ट बिरादरी की कारस्तानियों का नतीजा उन्हें भोगना पड़ सकता है .आम आदमी को अभी तक मीडिया पर भरोसा है और यह खुशी की बात है .जो भी हो भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में वैसा ही माहौल बन रहा है जैसा अंग्रेजों के खिलाफ १९४२ में माहौल बना था. उम्मीद की जानी चाहिए कि हालात हर हाल में बेहतर होंगें
भ्रष्टाचार की चर्चाओं से घिरे देश में विकीलीक्स के संपादक जुलियन असांज ने एक और आयाम जोड़ दिया है . फरमाते हैं कि स्विस बैंकों में जमा काले धन के खातेदारों में बहुत सारे नाम भारतीयों के हैं . इस देश का मध्य वर्ग लगातार भ्रष्टाचार की कहानियां सुन रहा है. टू जी ,कामनवेल्थ ,और येदुरप्पा के घोटालों के माहौल में जब अन्ना हजारे का आन्दोलन आया तो वे सारे लोग मैंदान में आ गए जिनका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है . ज़ाहिर है यह किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत बड़ी खतरे की घंटी है . भ्रष्टाचार के खिलाफ इस सारे मामले में जो सबसे दिलचस्प बात रही, वह यह कि राजनीतिक पार्टियों के सदस्य अपने हिसाब से भ्रष्टाचार की व्याख्या करते रहे , अपने विरोधी को ज्यादा भ्रष्ट बताते रहे लेकिन अखबार पढने वाले देश के उस जागरूक वर्ग ने नेताओं की बातों को गंभीरता से नहीं लिया .ऐसे ही हालात थे जब वजह से १९४२ और १९७७ में परिवर्तन आया था. भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए इस आन्दोलन में आम आदमी नेताओं को आवश्यक तिरस्कार की नज़र से ही देखता रहा . जुलियन असांज का नया खुलासा तस्वीर को बिलकुल नया रंग दे देता है. उसने साफ़ कहा है कि जिन दस्तावेजों को वे लीक कर रहे हैं वे सबूत नहीं हैं लेकिन उनमें बहुत अहम सूचनाएं हैं जिनका इस्तेमाल आगे की जांच में किया जा सकता है . एक निजी टी वी चैनल से बात करते हुए जुलियन असांज ने कहा कि भारत सरकार का यह कहना कि कुछ देशों के साथ दोहरा टैक्स समझौता न होने की वजह से काले धन को निकालना मुश्किल हो रहा है . असांज ने कहा कि यह तर्क बिलकुल बेतुका है . उन्होंने कहा कि काले धन को निकालना टैक्स से सम्बंधित मामला नहीं है . वह वास्तव में बिलकुल अलग, काले धन का मामला है . उसने एक और बात कही जो अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी जानता है . उसने कहा कि देश के अंदर की रिश्वत खोरी हालांकि राष्ट्रीय संसाधनों पर डाका डालती है लेकिन वह विदेशी बैंकों में धन रखने से कम खतरनाक है . उसमें पैसा देश में रहता है और उस रक़म को खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा ज़ाया नहीं होती . जबकि किसी ने किसी रूप में वह पैसा देश के अंदर की इस्तेमाल होता है . यहाँ रिश्वतखोरी को सही ठहराने का कोई इरादा नहीं है . विदेशी बैंकों में पैसा जमा करने वालों के देशद्रोह को रेखांकित करने के उद्देश्य से यह तर्क दिया जा रहा है . चोरी से देश के बाहर पैसा जमा करने वाले देश की अर्थव्यवस्था पर दोहरा वार करते हैं .एक तो देश का पैसा रिश्वत के रास्ते चुराते हैं और दूसरा यह कि दुर्लभ विदेशी मुद्रा खर्च करके भारतीय रूपयों को स्विस बैंकों में जमा करने लायक बनाते हैं . इस तरह अर्थ व्यवस्था पर दोहरी मार करते हैं . देश में बन रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल में जुलियन असांज का यह खुलासा बहुत बड़ी उम्मीद लेकर आया है . यहाँ यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी इस कोशिश में लगे हुए हैं कि कांग्रेस को ही स्विस बैंको में जमा काले धन के खलनायक के रूप में पेश किया जाय. आम तौर पर माना भी यही जाता है कि कांग्रेसियों ने सबसे ज्यादा खेल किया है . ऐसा शायद इसलिए कि यह काम १९७० के दशक से ही चल रहा है . लेकिन इस बात में भी कोई शक़ नहीं है कि बीजेपी के बड़े नेता भी इस लपेट में आयेगें .दुनिया जानती है कि बीजेपी के कई मंत्रियों और टाप नेताओं के बच्चों ने वाजपेयी सरकार के दौरान खुलकर घूस बटोरा था. कर्नाटक में मौजूदा सरकार भी घूस के खेल में किसी कांग्रेसी से कम नहीं है . बाकी पार्टियों के नेता भी विदेशी बैंकों की शरण में जाते रहे हैं .ज़ाहिर है जब खुलासा होगा तो सबका नाम आयेगा और अगर बीजेपी वाले यह सोचते हैं कि वाजपेयी जी की सरकार के दौरान जो लाखों करोड़ के वारे न्यारे हुए थे , वह रक़म भारतीय बैंकों में जमा कर दी गयी होगी ,तो इसे मुगालता ही कहा जाएगा . यानी अगर स्विस बैंकों में जमा रक़म के बारे में पूरी जानकारी मिलती है तो हालात बहुत बदल जायेगें. यह देशहित में है . खुशी इस बात की है कि अब भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय जनमत तैयार हो रहा है और जनता किसी भी भरोसेमंद सूचना पर भरोसा करने को तैयार है . वह किसी भी भ्रष्ट नेता, अफसर या पत्रकार को माफ़ करने को तैयार नहीं है . कोर्ट जाते हुए सुरेश कलमाड़ी के ऊपर चप्पल फेंकने वाला नौजवान दश के सामूहिक गुस्से को ही व्यक्त कर रहा था. राडिया टेप के पहले की एक बहुत ही नामी पत्रकार जब इण्डिया गेट से विशेष कार्यक्रम पंहुची तो जनता ने उन्हें दौड़ा लिया क्योंकि राडिया टेप के बाद की उनकी सच्चाई पत्रकारिता के लिए शुभ लक्षण नहीं है . इसी तरह से लोग बड़े से बड़े लोगों को लोग भ्रष्टाचारी मानने के लिए तैयार बैठे हैं . ऐसी हालत में देश में भ्रष्टाचार के विरोध करने का व्याकरण बदल रहा है . दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक नेताओं को अभी भनक तक नहीं है . वे अभी इसी मुगालते में हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व किसी पार्टी के हाथ आ जाएगा . पूरी संभावना है कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है . अन्ना हजारे के आन्दोलन को जनता ने पूरी तरह नेताओं से मुक्त रखा . आने वाले वक़्त में भी ऐसा ही होने वाला है क्योंकि पूरे देश के जागरूक वर्ग में यह अवधारणा घर कर चुकी है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ राजनीतिक नेता ही हैं . इस बात में भी दो राय नहीं है कि बहुत सारे नेता ऐसे भी हैं जो भ्रष्ट नहीं हैं . लेकिन उनकी अधिसंख्य भ्रष्ट बिरादरी की कारस्तानियों का नतीजा उन्हें भोगना पड़ सकता है .आम आदमी को अभी तक मीडिया पर भरोसा है और यह खुशी की बात है .जो भी हो भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में वैसा ही माहौल बन रहा है जैसा अंग्रेजों के खिलाफ १९४२ में माहौल बना था. उम्मीद की जानी चाहिए कि हालात हर हाल में बेहतर होंगें
Labels:
जुलियन असांज,
भ्रष्टाचार के खिलाफ,
विकीलीक्स,
शेष नारायण सिंह,
सन बयालीस
Tuesday, April 26, 2011
भ्रष्टाचार के अभियान में नेताओं का कोई रोल नहीं है.
शेष नारायण सिंह
भ्रष्टाचार के कुछ मामलों में सुरेश कलमाड़ी की गिरफ्तारी देश में चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को ज़बरदस्त ताक़त देगा. आम तौर पर होता यह रहा है कि किसी भी केस में सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी अपने सदस्यों या सहयोगियों को गिरफ्तार नहीं करती . कहीं से बलि के बकरे तलाशे जाते हैं और उन्हें ही शील्ड की तरह इस्तेमाल करके नेता को बचा लिया जाता है . ऐसे सैकड़ों मामले हैं . १९७४ में पांडिचेरी लाइसेंस घोटाले में एक एम पी , तुलमोहन राम को पकड़ लिया गया था . जबकि सबको मालूम था जबकि सबको मालूम था कि खेल उस वक़्त के युवराज संजय गाँधी और उनकी प्रधानमंत्री माँ के फायदे के लिए हुआ था. उस वक़्त देश की लोक सभा में विपक्ष की बेंचों पर बहुत ही बेहतरीन लोग होते थे. मधु लिमये , ज्योतिर्मय बसु, इन्द्रजीत गुप्ता, हरि विष्णु कामथ,अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता विपक्ष की शोभा थे. इंदिरा गाँधी के पास १९७१ वाला दो तिहाई बहुमत था लेकिन मामला उजागर हुआ और पूरी दुनिया को मालूम हुआ कि भ्रष्टाचार की जड़ें कहाँ तक थीं . लेकिन असली अपराधियों का सज़ा नहीं मिली. उसके बाद तो अरुण नेहरू का दबदबा बना और भ्रष्टाचार को एक संस्थागत रूप दे दिया गया. बाद की सभी सरकारों ने भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने में ही भलाई समझी . राजीव गाँधी, वी पी सिंह ,पी वी नरसिम्हा राव , एच डी देवेगौडा , इन्दर कुमार गुजराल , अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के दौरान सत्ता पक्ष के नेताओं ने तबियत से भ्रष्टाचार किया और देश में ऐसा माहौल बना कि बे ईमानी का बुरा मानने का रिवाज़ की ख़त्म हो गया . लेकिन अब देख जा रहा है कि भ्रष्ट आदमियों को पकड़कर जेल भेजा जा रहा है . राजनेता कैसा भी हो जेलों की हवा खाने को मजबूर हो रहा है . दर असल जैन हवाला काण्ड के बाद नेता बेख़ौफ़ हो गए थे . उस रिश्वत काण्ड में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल थे , बीजेपी के आडवाणी थे तो कांग्रेस के सतीश शर्मा . शरद यादव थे तो सीताराम केसरी. आरोप भी बिकुल सही पाए गए थे लेकिन सभी नेताओंने मिलकर ऐसी खिचडी पकाई कि कोई बता ही नहीं सकता कि मामला दफ़न किस रसातल में कर दिया गया . उसके बाद के भी भ्रष्टाचारों को दबाया ही गया . एक से एक भ्रष्ट नेता और मंत्री आते रहे और जाते रहे ,किसी के भ्रष्टाचार का ज़िक्र तक नहीं हुआ . जांच की बात तो सोचने का कोई मतलब ही नहीं है . सब नेताओं को मालूम था कि लूटो और खाओ किसी कानून से डरने की ज़रुरत नहीं है. लेकिन अब देखने में आ रहा है कि बड़े बड़े नेताओं के करीबी लोग जेलों की सैर कर रहे हैं . ऐसा शायद इस लिए हो रहा है कि मीडिया अलर्ट है और सूचना का अधिकार कानून प्रभावी तरीके से चल रहा है . वेब मीडिया के चलते मीडिया को मैनेज करने की नेताओं की कोशिशें भी बेकार साबित हो रही हैं . आज कोई नेता एक चोरी करता है और अगर किसी ब्लॉगर के हाथ सूचना लग गयी तो लगभग उसी क्षण वह सूचना दुनिया भर के लिए उपलब्ध हो जाती है .जिस लोकपाल बिल को पिछले ४० साल से सरकारें ठंडे बस्ते में डाले हुए थीं वह अब देश की जनता की अदालत में है . यानी भ्रष्टाचार से लड़ने की एक देशव्यापी
लड़ाई चल रही है और केंद्र सरकार किसी भी सूचना को छुपा नहीं पा रही है और उसे एक्शन लेना पड़ रहा है . जनमत और मीडिया का दबाव इतना है कि राजनीतिक पार्टियों को कुछ करना पड़ रहा है .यह अलग बात है कि बीजेपी वालों को लग रहा है कि यह अभी कम है . बीजेपी के एक दिल्ली दरबारी प्रवक्ता को आज टेलिविज़न पर कहते सुना गया कि सुरेश कलमाड़ी तो ठीक है लेकिन उनके सारे फैसले प्रधान मंत्री कार्यालय में लिए गए थे इसलिए उसके खिलाफ फ़ौरन गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई होनी चाहिए . भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे जनता के युद्ध में बीजेपी को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. उनके मौजूदा दो मुख्य मंत्री आपराधिक मामलों के आरोपी हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री को जब हटाने की बात आई तो उसने धमका दिया . और दिल्ली वाले बीजेपी के नेता दुबक गए . एक बड़े नेता का बयान आया कि उस मुख्यमंत्री को इसलिए नहीं हटाया जा रहा है उस के बाद दक्षिण में उनकी पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. वाजपेयी सरकार के दौरान सैकड़ों ऐसे घोटाले हैं जिन पर बीजेपी के प्रवक्ताओं की नज़र नहीं जाती . उनका अध्यक्ष पूरी दुनिया के सामने नोटों की गड्डियाँ संभालते देखा गया था. और भी बहुत सारे अपराधी हैं उनकी पार्टी में लेकिन उन्हें कुछ नहीं दिखता . नरेंद्र मोदी के कृत्यों की पोल रोज़ ही खुल रही है लेकिन पूरी पार्टी उनके साथ खडी है . ऐसी हालत में कम से कम बीजेपी की औकात तो नहीं है कि वह अपने आपको भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रूसेडर के रूप में पेश कर सके.इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस वाले पाकसाफ़ है . उनके भ्रष्टाचार तो बीजेपी वालों से भी ज्यादा हैं . और भ्रष्टाचार के खिलाफ मौजूदा अभियान और उसको मिल रही सफलता कांग्रेस की कृपा का नतीजा नहीं है . सही बात यह है कि यह सारी सफलता मीडिया की वजह से मिल रही है .एक खबर आती है और पूरी दुनिया से लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं . अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने इसलिए कांग्रेस सरकार को काम करना पड़ता है . इसलिए मौजूदा लड़ाई में राजनीतिक पार्टियां बिलकुल हाशिये पर हैं और जनता की लड़ाई में मीडिया क्षण क्षण का भागीदार है . इस बात में भी दो राय नहीं है कि मीडिया में बहुत सारे अपराधी हैं . राडिया टेप्स वाले पत्रकारों को कौन नहीं जानता .सच्ची बात यह है कि प्रिंट और टेलिविज़न के बड़े बड़े सूरमा पत्रकार भी भ्रष्ट आचरण के गुनाहगार हैं . लेकिन जो वेब मीडिया है वह सही काम कर रहा है . देखा यह जा रहा है कि टी वी और अखबार वाले भी वेब मीडिया के दबाव में आकर ही मुद्दों को उठा रहे हैं .नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार से ऊब चुकी जनता को अपनी बात कहने के अवसर मिल रहे हैं और भ्रष्ट लोगों की मुसीबत आई हुई है .ज़ाहिर है आने वाला वक़्त देश के आम आदमी के लिए खुश नुमा हो सकता है क्योंकि अगर सार्वजनिक सुविधाओं के लिए निर्धारित पैसा घूस खोरों से बच गया तो वह देश के की काम आयेगा
भ्रष्टाचार के कुछ मामलों में सुरेश कलमाड़ी की गिरफ्तारी देश में चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को ज़बरदस्त ताक़त देगा. आम तौर पर होता यह रहा है कि किसी भी केस में सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी अपने सदस्यों या सहयोगियों को गिरफ्तार नहीं करती . कहीं से बलि के बकरे तलाशे जाते हैं और उन्हें ही शील्ड की तरह इस्तेमाल करके नेता को बचा लिया जाता है . ऐसे सैकड़ों मामले हैं . १९७४ में पांडिचेरी लाइसेंस घोटाले में एक एम पी , तुलमोहन राम को पकड़ लिया गया था . जबकि सबको मालूम था जबकि सबको मालूम था कि खेल उस वक़्त के युवराज संजय गाँधी और उनकी प्रधानमंत्री माँ के फायदे के लिए हुआ था. उस वक़्त देश की लोक सभा में विपक्ष की बेंचों पर बहुत ही बेहतरीन लोग होते थे. मधु लिमये , ज्योतिर्मय बसु, इन्द्रजीत गुप्ता, हरि विष्णु कामथ,अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता विपक्ष की शोभा थे. इंदिरा गाँधी के पास १९७१ वाला दो तिहाई बहुमत था लेकिन मामला उजागर हुआ और पूरी दुनिया को मालूम हुआ कि भ्रष्टाचार की जड़ें कहाँ तक थीं . लेकिन असली अपराधियों का सज़ा नहीं मिली. उसके बाद तो अरुण नेहरू का दबदबा बना और भ्रष्टाचार को एक संस्थागत रूप दे दिया गया. बाद की सभी सरकारों ने भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने में ही भलाई समझी . राजीव गाँधी, वी पी सिंह ,पी वी नरसिम्हा राव , एच डी देवेगौडा , इन्दर कुमार गुजराल , अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के दौरान सत्ता पक्ष के नेताओं ने तबियत से भ्रष्टाचार किया और देश में ऐसा माहौल बना कि बे ईमानी का बुरा मानने का रिवाज़ की ख़त्म हो गया . लेकिन अब देख जा रहा है कि भ्रष्ट आदमियों को पकड़कर जेल भेजा जा रहा है . राजनेता कैसा भी हो जेलों की हवा खाने को मजबूर हो रहा है . दर असल जैन हवाला काण्ड के बाद नेता बेख़ौफ़ हो गए थे . उस रिश्वत काण्ड में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल थे , बीजेपी के आडवाणी थे तो कांग्रेस के सतीश शर्मा . शरद यादव थे तो सीताराम केसरी. आरोप भी बिकुल सही पाए गए थे लेकिन सभी नेताओंने मिलकर ऐसी खिचडी पकाई कि कोई बता ही नहीं सकता कि मामला दफ़न किस रसातल में कर दिया गया . उसके बाद के भी भ्रष्टाचारों को दबाया ही गया . एक से एक भ्रष्ट नेता और मंत्री आते रहे और जाते रहे ,किसी के भ्रष्टाचार का ज़िक्र तक नहीं हुआ . जांच की बात तो सोचने का कोई मतलब ही नहीं है . सब नेताओं को मालूम था कि लूटो और खाओ किसी कानून से डरने की ज़रुरत नहीं है. लेकिन अब देखने में आ रहा है कि बड़े बड़े नेताओं के करीबी लोग जेलों की सैर कर रहे हैं . ऐसा शायद इस लिए हो रहा है कि मीडिया अलर्ट है और सूचना का अधिकार कानून प्रभावी तरीके से चल रहा है . वेब मीडिया के चलते मीडिया को मैनेज करने की नेताओं की कोशिशें भी बेकार साबित हो रही हैं . आज कोई नेता एक चोरी करता है और अगर किसी ब्लॉगर के हाथ सूचना लग गयी तो लगभग उसी क्षण वह सूचना दुनिया भर के लिए उपलब्ध हो जाती है .जिस लोकपाल बिल को पिछले ४० साल से सरकारें ठंडे बस्ते में डाले हुए थीं वह अब देश की जनता की अदालत में है . यानी भ्रष्टाचार से लड़ने की एक देशव्यापी
लड़ाई चल रही है और केंद्र सरकार किसी भी सूचना को छुपा नहीं पा रही है और उसे एक्शन लेना पड़ रहा है . जनमत और मीडिया का दबाव इतना है कि राजनीतिक पार्टियों को कुछ करना पड़ रहा है .यह अलग बात है कि बीजेपी वालों को लग रहा है कि यह अभी कम है . बीजेपी के एक दिल्ली दरबारी प्रवक्ता को आज टेलिविज़न पर कहते सुना गया कि सुरेश कलमाड़ी तो ठीक है लेकिन उनके सारे फैसले प्रधान मंत्री कार्यालय में लिए गए थे इसलिए उसके खिलाफ फ़ौरन गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई होनी चाहिए . भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे जनता के युद्ध में बीजेपी को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. उनके मौजूदा दो मुख्य मंत्री आपराधिक मामलों के आरोपी हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री को जब हटाने की बात आई तो उसने धमका दिया . और दिल्ली वाले बीजेपी के नेता दुबक गए . एक बड़े नेता का बयान आया कि उस मुख्यमंत्री को इसलिए नहीं हटाया जा रहा है उस के बाद दक्षिण में उनकी पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. वाजपेयी सरकार के दौरान सैकड़ों ऐसे घोटाले हैं जिन पर बीजेपी के प्रवक्ताओं की नज़र नहीं जाती . उनका अध्यक्ष पूरी दुनिया के सामने नोटों की गड्डियाँ संभालते देखा गया था. और भी बहुत सारे अपराधी हैं उनकी पार्टी में लेकिन उन्हें कुछ नहीं दिखता . नरेंद्र मोदी के कृत्यों की पोल रोज़ ही खुल रही है लेकिन पूरी पार्टी उनके साथ खडी है . ऐसी हालत में कम से कम बीजेपी की औकात तो नहीं है कि वह अपने आपको भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रूसेडर के रूप में पेश कर सके.इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस वाले पाकसाफ़ है . उनके भ्रष्टाचार तो बीजेपी वालों से भी ज्यादा हैं . और भ्रष्टाचार के खिलाफ मौजूदा अभियान और उसको मिल रही सफलता कांग्रेस की कृपा का नतीजा नहीं है . सही बात यह है कि यह सारी सफलता मीडिया की वजह से मिल रही है .एक खबर आती है और पूरी दुनिया से लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं . अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने इसलिए कांग्रेस सरकार को काम करना पड़ता है . इसलिए मौजूदा लड़ाई में राजनीतिक पार्टियां बिलकुल हाशिये पर हैं और जनता की लड़ाई में मीडिया क्षण क्षण का भागीदार है . इस बात में भी दो राय नहीं है कि मीडिया में बहुत सारे अपराधी हैं . राडिया टेप्स वाले पत्रकारों को कौन नहीं जानता .सच्ची बात यह है कि प्रिंट और टेलिविज़न के बड़े बड़े सूरमा पत्रकार भी भ्रष्ट आचरण के गुनाहगार हैं . लेकिन जो वेब मीडिया है वह सही काम कर रहा है . देखा यह जा रहा है कि टी वी और अखबार वाले भी वेब मीडिया के दबाव में आकर ही मुद्दों को उठा रहे हैं .नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार से ऊब चुकी जनता को अपनी बात कहने के अवसर मिल रहे हैं और भ्रष्ट लोगों की मुसीबत आई हुई है .ज़ाहिर है आने वाला वक़्त देश के आम आदमी के लिए खुश नुमा हो सकता है क्योंकि अगर सार्वजनिक सुविधाओं के लिए निर्धारित पैसा घूस खोरों से बच गया तो वह देश के की काम आयेगा
Subscribe to:
Posts (Atom)