शेष नारायण सिंह
आर एस एस ने अब शायद बी जे पी को हाशिये पर लाने का मन बना लिया है .अपनी आबरू बचाने के लिए १० नवम्बर को आर एस एस के नेता खुद सडकों पर उतरेगें और धरना प्रदर्शन करेगें . उनकी शिकायत है कि यू पी ए सरकार संघी आतंकवाद के ब्रैंड को प्रचारित करने में लगभग कामयाब हो गयी है और बी जे पी वाले कोई भी राजनीतिक पहल नहीं कर रहे हैं. नाराज़ संघी नेतृत्व अब खुद ही मैदान ले रहा है . 1980 से ही आर एस एस की राजनीतिक लडाइयां संचालित करने का ज़िम्मा बी जे पी के पास था . लेकिन जब १९८४ में पार्टी लगभग शून्य पर पंहुच गयी तो राजनीतिक काम के लिए विश्व हिन्दू परिषद् को आगे किया गया . लेकिन आर एस एस का दुर्भाग्य है कि वहां भी निराशा ही हाथ लगी. विश्व हिन्दू परिषद् के नेता बी जे पी वालों से भी ज्यादा गैर ज़िम्मेदार निकले . उन्होंने चौतरफा लूटमार शुरू कर दी .नतीजा यह हुआ कि आर एस एस ने एक बार फिर बी जे पी को आजमाने की कोशिश की लेकिन नागपुर वालों को बी जे पी राजनीतिक क्षमता पर अब भरोसा नहीं है . एक एक करके आर एस एस के आतंकवादी सेल के नेताओं को पकड़ा जा रहा है और बी जे पी की तरफ कोई राजनीतिक एक्शन नज़र नहीं आ रहा है .बी जे पी के रुख से परेशान आर एस एस ने अब कमान खुद ही अपने हाथ में ले ली है . आर एस एस के प्रवक्ता, राम माधव ने शनिवार को संवाद दाताओं को बताया कि १० नवम्बर को देश के हर जिले में आर एस एस के कार्यकर्ता इकट्ठा होंगें और केंद्र सरकार की तरफ से आर एस एस की पोल खोलने की कोशिश के खिलाफ धरना देगें . आर एस एस की तरफ से दावा किया जा रहा है कि उस दिन पूरे देश में आम आदमी की ज़िंदगी दुश्वार कर दी जायेगी लेकिन जानकार बाते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है. जिन राज्यों में आर एस एस के कंट्रोल वाली सरकारें हैं ,वहां तो ज़रूर कुछ बसें आदि तोडी जायेगीं , कुछ राजनीतिक विरोधियों को मारा पीटा जाएगा लेकिन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात के बाहर कोई ख़ास तोड़ फोड़ नहीं होगी. आर एस एस के आवाहन पर आयोजित १० नवम्बर के धरने की सफलता या असफलता का कोई मतलब नहीं है लेकिन राजनीतिक लडाइयां खुद न लड़ कर अपने अधीन सगठनों को आगे करने वाले संगठन के लिए राजनीति की पिच पर उतरना इस बात का संकेत है कि संघी राजनीति में काफी उथलपुथल है . २००४ में केंद्र सरकार से हटाये जाने के बीद बी जे पी में राजनीतिक समायोजन की बात चल रही है . राजनाथ सिंह के कार्यकाल में तो आडवाणी गुट भारी पड़ गया था और आडवाणी के लोगों ने राजनाथ सिंह के लिए क़दम क़दम पर मुश्किलें पैदा कीं लेकिन उनके बाद जब नितिन गडकरी को अध्यक्ष बना दिया गया तो दिल्ली के वे नेता जो गडकरी को एक मामूली कार्यकर्ता समझते थे, परेशान हो गए. आर एस एस और उसके मातहत सभी संगठनों में आतंरिक लोकतंत्र बिलकुल नहीं है . इसीलिये बी जे पी जैसे राजनीतिक रूप से मान्यता प्राप्त संगठन का अध्यक्ष भी नागपुर से तय होता है . वहां किसी को भी नेता मान लेने का फैशन नहीं है . ज़ाहिर है गडकरी को दिल्ली वालों ने वह क़द नहीं हासिल करने दिया जो एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष का होना चाहिये .गडकरी ने जिस तरह से अर्जुन मुंडा को झारखण्ड का मुख्य मंत्री बनाया उसकी फजीहत दिल्ली के नेताओं ने मीडिया के अपने बन्दों के ज़रिये करवाई. केंद्र सरकार में अपने कांग्रेसी मित्रों की मदद से आडवाणी गुट के नेताओं ने गडकरी के ख़ास साथी सुधांशु मित्तल को कामनवेल्थ खेलों की जांच में सुरेश कलमाड़ी से ज्यादा भ्रष्ट साबित करवाने की कोशिश की और काफी हद तक सफल रहे. मुंबई के आदर्श हाउसिंग घोटाले में भी आर एस एस के भरोसेमंद व्यापारी, नागपुर के संचेती को फंसाने की सफलता पूर्वक कोशिश की गयी . नतीजा यह हुआ कि संघी आतंकवाद से लेकर आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों में आर एस एस के करीबी लोगों को फंसा दिया गया . सारा आपरेशन आडवाणी गुट के दिल्ली वाले नेताओं ने कांग्रेस में मौजूद अपने साथियों की मदद से किया इसलिए तकनीकी रूप से उनको ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता . ऐसी हालत में खिसियाहट होती है . आर एस एस आजकल बी जे पी के दिल्ली वाले नेताओं से खिसियाया हुआ है और अब उनको दरकिनार करके वह अपनी लड़ाई खुद ही लड़ने की तैयारी कर चुका है . अजीब बात यह है कि दिल्ली वाले इन ताक़तवर लोगों के बीच भी एकता नहीं है . अब यह तय है कि २०१४ में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में लाल कृष्ण आडवाणी को नहीं पेश किया जाएगा . शायद इसी वजह से आडवानी गुट की दूसरी कतार के नेता भी अपना वर्चस्व कायम करने में भिड़ गए हैं .कुल मिलाकर माहौल ऐसा है कि बी जे पी में हर कोने में मारकाट मची हुई है . कहीं बेल्लारी ब्रदर्स को घेरा जा रहा है तो कहीं सुधांशु मित्तल लतियाये जा रहे हैं . नतीजा साफ़ है कि आर एस एस की राजनीतिक शाखा ,बी जे पी से नागपुर का भरोसा उठ गया है . और हिन्दू राष्ट्र कायम करने की आर एस एस की कोशिश में किसी नयी राजनीतिक सत्ता की आमद की संभावना की हवा बह रही है.
Monday, November 8, 2010
Sunday, November 7, 2010
ओबामा बोले---इक्कीसवीं सदी भारत और अमरीका की है
शेष नारायण सिंह
बराक ओबामा की भारत यात्रा ने भारतीय उप महाद्वीप की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ दिया है .पहले दिन ही १० अरब डालर के अमरीकी निर्यात का बंदोबस्त करके उन्होंने अपने देश में अपनी गिरती लोकप्रियता को थामने का काम किया है . अमरीकी चुनावों में उनकी पार्टी की खासी दुर्दशा भी हुई है . दोबारा चुना जाना उनका सपना है .ज़ाहिर है, भारत के साथ व्यापार को बढ़ावा देकर उन्होंने अपना रास्ता आसान किया है . भारत में उनकी यात्रा को कूटनीतिक स्तर पर सफलता भी माना जा रहा है . बराक ओबामा भारत को एक महान शक्ति मानते हैं . मुंबई के एक कालेज में उन्होंने कहा कि वे इस बात को सही नहीं मानते कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है क्योंकि उनका कहना है कि भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है. अपने भाषण में ओबामा ने कहा कि इक्कीसवीं सदी में दुनिया की दो महाशक्तियां ही प्रमुख रूप से जानी जायेगीं . उन्होंने कहा कि इस सदी में अमरीका के अलावा भारत की दूसरी महाशक्ति रहेगी. इसके अलावा भी उनका रुख भारत के प्रति ऐसा है जिसे दोस्ती के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत से दोस्ती करके अमरीका एशिया में अपने आप को बैलेंस करना चाहता है . अमरीका सहित पूरी दुनिया में चीन की बढ़ती ताक़त और उसकी वजह से कूटनीतिक शक्ति संतुलन को नोटिस किया जा रहा है . भारत और चीन के बीच रिश्तों में १९६२ में शुरू हुआ तनाव बिलकुल ख़त्म नहीं हो रहा है . अमरीकी कूटनीति के जानकार इसी मनमुटाव को अपनी पूंजी मानकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए व्याकरण की स्थापना करने की कोशिश कर रहे हैं . वे चीन की बढ़ती ताक़त को भारत से बैलेंस करना चाहते हैं . उसके बदले में वे पाकिस्तान को उसकी वास्तविक औकात पर रखने की रण नीति पर काम कर रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में अमरीका की पूरी कोशिश थी कि वह पाकिस्तान का इस्तेमाल करके सोवियत खेमे को कमज़ोर करे . उस दौर में भारत भी हालांकि निर्गुट देशों के नेता के रूप में अपने आपको पेश करता था लेकिन अमरीका की नज़र में वह रूस के ज्यादा करीब था. . भारत को कमज़ोर करके प्रस्तुत करने की अमरीकी जल्दी के तहत भारत और पाकिस्तान को एक ही खांचे में रखा जाता था . लेकिन अब सब बदल गया है. सोवियत रूस एतूत चुका है . पाकिस्तान की छवि आतंकवाद के एक समर्थक देश की बन चुकी है और पाकिस्तान का अमरीका की विदेशनीति में कोई इस्तेमाल नहीं है . पाकिस्तान की भूमिका अमरीका के लिए अब केवल इतनी है कि वह अपने आतंकवादी मित्रों की मदद से अमरीका की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है क्योंकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान और अल कायदा को पाकिस्तानी सेना और आई एस आई की कृपा से ही दाल रोटी मिल रही है . आज की तारीख में अमरीका के लिए तालिबान और अल कायदा से बड़ा कोई ख़तरा नहीं है . इन दो आतंकवादी संगठनों को काबू करने में पाकिस्तान का इस्तेमाल हो रहा है . और इस काम के लिए अमरीका की तरफ से पाकिस्तान को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता मिल रही है . भारत के लिए भी पाकिस्तान का कमज़ोर होना ज़रूरी है क्योंकि भारत की पश्चिमी सीमा पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब पाकिस्तानी फौज़ की कृपा से हो रहा है . इसलिए भारत की कोशिश है कि वह अमरीका की मदद से पाकिस्तान को एक दुष्ट राज्य की श्रेणी में रखने में सफलता पा सके. मुंबई में जो कुछ भी ओबामा ने कहा है उसका सार तत्व यह है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के खिलाफ हैं और आतंकवाद के खिलाफ भारत और अमरीका को सहयोग करना चाहिए . उन्होंने साफ़ बता दिया है कि भारत और अमरीका की दोस्ती बराबर के दो देशों की दोस्ती है जबकि पाकिस्तान की स्थिति अमरीका की प्रजा की है . हालांकि भारत में कुछ शेखीबाज़ टाइप नेताओं ने टिप्पणी की थी कि ओबामा ने मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान का नाम न लेकर अच्छा नहीं किया . ऐसे बयान राजनीतिक अज्ञान के उदाहरण हैं और इन बयानों को देने वाले नेताओं की वैसे भी कोई औकात नहीं है .सच्चाई यह है कि ओबामा की इस यात्रा ने एशिया की भू-राजनीतिक सच्चाई को बदल दिया है और उसका असर बहुत दूर तक महसूस किया जायेगा
बराक ओबामा की भारत यात्रा ने भारतीय उप महाद्वीप की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ दिया है .पहले दिन ही १० अरब डालर के अमरीकी निर्यात का बंदोबस्त करके उन्होंने अपने देश में अपनी गिरती लोकप्रियता को थामने का काम किया है . अमरीकी चुनावों में उनकी पार्टी की खासी दुर्दशा भी हुई है . दोबारा चुना जाना उनका सपना है .ज़ाहिर है, भारत के साथ व्यापार को बढ़ावा देकर उन्होंने अपना रास्ता आसान किया है . भारत में उनकी यात्रा को कूटनीतिक स्तर पर सफलता भी माना जा रहा है . बराक ओबामा भारत को एक महान शक्ति मानते हैं . मुंबई के एक कालेज में उन्होंने कहा कि वे इस बात को सही नहीं मानते कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है क्योंकि उनका कहना है कि भारत एक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है. अपने भाषण में ओबामा ने कहा कि इक्कीसवीं सदी में दुनिया की दो महाशक्तियां ही प्रमुख रूप से जानी जायेगीं . उन्होंने कहा कि इस सदी में अमरीका के अलावा भारत की दूसरी महाशक्ति रहेगी. इसके अलावा भी उनका रुख भारत के प्रति ऐसा है जिसे दोस्ती के उदाहरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत से दोस्ती करके अमरीका एशिया में अपने आप को बैलेंस करना चाहता है . अमरीका सहित पूरी दुनिया में चीन की बढ़ती ताक़त और उसकी वजह से कूटनीतिक शक्ति संतुलन को नोटिस किया जा रहा है . भारत और चीन के बीच रिश्तों में १९६२ में शुरू हुआ तनाव बिलकुल ख़त्म नहीं हो रहा है . अमरीकी कूटनीति के जानकार इसी मनमुटाव को अपनी पूंजी मानकर अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए व्याकरण की स्थापना करने की कोशिश कर रहे हैं . वे चीन की बढ़ती ताक़त को भारत से बैलेंस करना चाहते हैं . उसके बदले में वे पाकिस्तान को उसकी वास्तविक औकात पर रखने की रण नीति पर काम कर रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में अमरीका की पूरी कोशिश थी कि वह पाकिस्तान का इस्तेमाल करके सोवियत खेमे को कमज़ोर करे . उस दौर में भारत भी हालांकि निर्गुट देशों के नेता के रूप में अपने आपको पेश करता था लेकिन अमरीका की नज़र में वह रूस के ज्यादा करीब था. . भारत को कमज़ोर करके प्रस्तुत करने की अमरीकी जल्दी के तहत भारत और पाकिस्तान को एक ही खांचे में रखा जाता था . लेकिन अब सब बदल गया है. सोवियत रूस एतूत चुका है . पाकिस्तान की छवि आतंकवाद के एक समर्थक देश की बन चुकी है और पाकिस्तान का अमरीका की विदेशनीति में कोई इस्तेमाल नहीं है . पाकिस्तान की भूमिका अमरीका के लिए अब केवल इतनी है कि वह अपने आतंकवादी मित्रों की मदद से अमरीका की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है क्योंकि अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान और अल कायदा को पाकिस्तानी सेना और आई एस आई की कृपा से ही दाल रोटी मिल रही है . आज की तारीख में अमरीका के लिए तालिबान और अल कायदा से बड़ा कोई ख़तरा नहीं है . इन दो आतंकवादी संगठनों को काबू करने में पाकिस्तान का इस्तेमाल हो रहा है . और इस काम के लिए अमरीका की तरफ से पाकिस्तान को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता मिल रही है . भारत के लिए भी पाकिस्तान का कमज़ोर होना ज़रूरी है क्योंकि भारत की पश्चिमी सीमा पर जो कुछ भी हो रहा है वह सब पाकिस्तानी फौज़ की कृपा से हो रहा है . इसलिए भारत की कोशिश है कि वह अमरीका की मदद से पाकिस्तान को एक दुष्ट राज्य की श्रेणी में रखने में सफलता पा सके. मुंबई में जो कुछ भी ओबामा ने कहा है उसका सार तत्व यह है कि वह मुंबई पर हुए हमलों के खिलाफ हैं और आतंकवाद के खिलाफ भारत और अमरीका को सहयोग करना चाहिए . उन्होंने साफ़ बता दिया है कि भारत और अमरीका की दोस्ती बराबर के दो देशों की दोस्ती है जबकि पाकिस्तान की स्थिति अमरीका की प्रजा की है . हालांकि भारत में कुछ शेखीबाज़ टाइप नेताओं ने टिप्पणी की थी कि ओबामा ने मुंबई पर हुए आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान का नाम न लेकर अच्छा नहीं किया . ऐसे बयान राजनीतिक अज्ञान के उदाहरण हैं और इन बयानों को देने वाले नेताओं की वैसे भी कोई औकात नहीं है .सच्चाई यह है कि ओबामा की इस यात्रा ने एशिया की भू-राजनीतिक सच्चाई को बदल दिया है और उसका असर बहुत दूर तक महसूस किया जायेगा
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शेष नारायण सिंह
Monday, October 25, 2010
बिहार में बदमाशी की राजनीति के खात्मे की शुरुआत
शेष नारायण सिंह
बिहार विधानसभा के लिए दूसरे दौर का मतदान पूरा हो गया . अभी चार दौर बाकी हैं . बिहार-2010 का चुनाव ऐतिहासिक माना जाएगा क्योंकि परम्परागत बिहारी मजबूती के सामने मुकामी गुंडे और माओवादी गुंडे नरम पड़ गए. जनता का राज कायम होने की दिशा में बिहार में यह पहला क़दम है . जनता ने पहली बार अपने आपको अधिकार देने का फैसला किया है. आज़ादी के बाद बिहार में नेताओं की जिस जमात ने काम संभाला उनमें से लगभग सभी सामंती सोच के लोग थे. और भी कारण रहे होगें लेकिन थे लेकिन वहां आज़ादी के बाद सामंतवाद का कुछ नहीं बिगड़ा. जो लोग ज़मींदार थे वे ही सत्ता में शामिल हो गए. हद तो तब हो गयी जब वहां ज़मींदारी उन्मूलन के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए. नतीजा यह हुआ कि बिहार में कोई भी मिडिल क्लास नहीं बन पाया . बिहार में या तो बहुत ही संपन्न ज़मींदार थे और या बहुत गरीब लोग जो मूल रूप से ज़मींदारों की ज़मीन पर काम करने वाले खेतिहर मजदूर थे . साठ के दशक में जब गरीबों के बच्चे स्कूल जाने लगे तो शोषित पीड़ित लोग भी राजनीति में आये. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद राज्य में नौजवान नेताओं का जो नया वर्ग सामने आया ,उसमें बड़ी संख्या में पिछड़े और दलित थे. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद , राम विलास पासवान जैसे लोग राजनीति की शासकवर्गी धारा में शामिल हुए लेकिन शामिल होने के साथ साथ वे रास्ता भूल गए. दलितों वंचितों को अधिकार दिलाने के लिए किसी मौलिक संघर्ष की योजना पर इन लोगों ने विचार ही नहीं किया.. इन्होने वहीं जीवनशैली अपना ली जो बड़ी जातियों के सामंती सोच वाले नेताओं ने अपना रखी थी . डॉ राम मनोहर लोहिया की मृत्यु हो चुकी थी, जयप्रकाश बूढ़े हो चले थे और कर्पूरी टाकुर और भोला पासवान शास्त्री का जीवन इन नौरईस नेताओं को प्रभावित नहीं करता था . इन लोगों ने राजा की तरह ज़िन्दगी जीने के चक्कर में समतामूलक समाज की राजनीतिक लड़ाई को छोड़ दिया और दिल्ली में कहीं विश्वनाथ प्रताप सिंह तो कहीं सोनिया गांधी के दरबार के मुसाहिब हो गए . कुल मिलाकर इन्होने अपना सब कुछ अच्छे खाने और अच्छे कपडे के लिए दांव पर लगा दिया . जबकि इन्हें सभी दलितों-वंचितों के लिए उसी तरह की जीवन शैली का प्रबंध करने के लिए संघर्ष करना चाहिए था जैसी इन्होने अपने लिए तलाश ली थी. बहरहाल सत्तर के दशक में जे पी के आन्दोलन के बाद जो संभावना बनी थी उसे पिछड़े वर्गों के नेताओं ने ख़त्म कर दिया . अस्सी और नब्बे का दशक पूरी तरह से दलितों और पिछड़ों के नेताओं की उस विफलता की कहानी बयान करता है जिसमें वे भी सामंतों के साथ सुर में सुर मिला रहे थे. गरीबों के बहुत सारे बच्चे दिशा भूल चुके माओवादियों के जाल में फंस रहे थे और राज्य फिर तबाही की तरफ बढ़ रहा था . विचारधारा से शून्य जिन नेताओं ने बिहार पर राज किया उन्होंने गुंडों को इतनी इज्ज़त दे दी कि बिहार में जीना दूभर हो गया. बहुत बड़ी संख्या में लोग बिहार छोड़कर भागने लगे . मजदूर भी और पैसे वालों के बच्चे भी . शायद राज्य छोड़ कर बाहर गये लोगों ने अपने नए ठिकाने वाले राज्य से बिहार की तुलना की होगी और राजनीतिक ताक़त के मह्त्व को समझा होगा जिसके चलते आज बिहार में गुंडे बैकफुट पर हैं , उनको समर्थन देने वाले नेता अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं , माओवादियों की हैसियत सड़क छाप बदमाशों की रह गयी है , उनके किसी भी आवाहन को जनता टाल देती है.राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री भी अपराधियों के संरक्षक रह चुके हैं और गुजरात नरसंहार के खलनायकों के साथ कभी उनका बहुत याराना था .लेकिन आजकल असामाजिक तत्वों से बचकर रहते हैं.लालू के पंद्रह साल के राज से त्रस्त जनता उनको गंभीरता से ले रही है . हो सकता है कि उनकी किस्मत में ही बिहार को कुशासन से मुक्त कराना लिखा हो . बहरहाल दो दौर के मतदान बाद साफ़ संकेत मिल रहा है कि अब बिहार में बदमाशी और सामंती सोच वालों की राजनीति आख़री साँसे ले रही है
बिहार विधानसभा के लिए दूसरे दौर का मतदान पूरा हो गया . अभी चार दौर बाकी हैं . बिहार-2010 का चुनाव ऐतिहासिक माना जाएगा क्योंकि परम्परागत बिहारी मजबूती के सामने मुकामी गुंडे और माओवादी गुंडे नरम पड़ गए. जनता का राज कायम होने की दिशा में बिहार में यह पहला क़दम है . जनता ने पहली बार अपने आपको अधिकार देने का फैसला किया है. आज़ादी के बाद बिहार में नेताओं की जिस जमात ने काम संभाला उनमें से लगभग सभी सामंती सोच के लोग थे. और भी कारण रहे होगें लेकिन थे लेकिन वहां आज़ादी के बाद सामंतवाद का कुछ नहीं बिगड़ा. जो लोग ज़मींदार थे वे ही सत्ता में शामिल हो गए. हद तो तब हो गयी जब वहां ज़मींदारी उन्मूलन के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए. नतीजा यह हुआ कि बिहार में कोई भी मिडिल क्लास नहीं बन पाया . बिहार में या तो बहुत ही संपन्न ज़मींदार थे और या बहुत गरीब लोग जो मूल रूप से ज़मींदारों की ज़मीन पर काम करने वाले खेतिहर मजदूर थे . साठ के दशक में जब गरीबों के बच्चे स्कूल जाने लगे तो शोषित पीड़ित लोग भी राजनीति में आये. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद राज्य में नौजवान नेताओं का जो नया वर्ग सामने आया ,उसमें बड़ी संख्या में पिछड़े और दलित थे. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद , राम विलास पासवान जैसे लोग राजनीति की शासकवर्गी धारा में शामिल हुए लेकिन शामिल होने के साथ साथ वे रास्ता भूल गए. दलितों वंचितों को अधिकार दिलाने के लिए किसी मौलिक संघर्ष की योजना पर इन लोगों ने विचार ही नहीं किया.. इन्होने वहीं जीवनशैली अपना ली जो बड़ी जातियों के सामंती सोच वाले नेताओं ने अपना रखी थी . डॉ राम मनोहर लोहिया की मृत्यु हो चुकी थी, जयप्रकाश बूढ़े हो चले थे और कर्पूरी टाकुर और भोला पासवान शास्त्री का जीवन इन नौरईस नेताओं को प्रभावित नहीं करता था . इन लोगों ने राजा की तरह ज़िन्दगी जीने के चक्कर में समतामूलक समाज की राजनीतिक लड़ाई को छोड़ दिया और दिल्ली में कहीं विश्वनाथ प्रताप सिंह तो कहीं सोनिया गांधी के दरबार के मुसाहिब हो गए . कुल मिलाकर इन्होने अपना सब कुछ अच्छे खाने और अच्छे कपडे के लिए दांव पर लगा दिया . जबकि इन्हें सभी दलितों-वंचितों के लिए उसी तरह की जीवन शैली का प्रबंध करने के लिए संघर्ष करना चाहिए था जैसी इन्होने अपने लिए तलाश ली थी. बहरहाल सत्तर के दशक में जे पी के आन्दोलन के बाद जो संभावना बनी थी उसे पिछड़े वर्गों के नेताओं ने ख़त्म कर दिया . अस्सी और नब्बे का दशक पूरी तरह से दलितों और पिछड़ों के नेताओं की उस विफलता की कहानी बयान करता है जिसमें वे भी सामंतों के साथ सुर में सुर मिला रहे थे. गरीबों के बहुत सारे बच्चे दिशा भूल चुके माओवादियों के जाल में फंस रहे थे और राज्य फिर तबाही की तरफ बढ़ रहा था . विचारधारा से शून्य जिन नेताओं ने बिहार पर राज किया उन्होंने गुंडों को इतनी इज्ज़त दे दी कि बिहार में जीना दूभर हो गया. बहुत बड़ी संख्या में लोग बिहार छोड़कर भागने लगे . मजदूर भी और पैसे वालों के बच्चे भी . शायद राज्य छोड़ कर बाहर गये लोगों ने अपने नए ठिकाने वाले राज्य से बिहार की तुलना की होगी और राजनीतिक ताक़त के मह्त्व को समझा होगा जिसके चलते आज बिहार में गुंडे बैकफुट पर हैं , उनको समर्थन देने वाले नेता अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं , माओवादियों की हैसियत सड़क छाप बदमाशों की रह गयी है , उनके किसी भी आवाहन को जनता टाल देती है.राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री भी अपराधियों के संरक्षक रह चुके हैं और गुजरात नरसंहार के खलनायकों के साथ कभी उनका बहुत याराना था .लेकिन आजकल असामाजिक तत्वों से बचकर रहते हैं.लालू के पंद्रह साल के राज से त्रस्त जनता उनको गंभीरता से ले रही है . हो सकता है कि उनकी किस्मत में ही बिहार को कुशासन से मुक्त कराना लिखा हो . बहरहाल दो दौर के मतदान बाद साफ़ संकेत मिल रहा है कि अब बिहार में बदमाशी और सामंती सोच वालों की राजनीति आख़री साँसे ले रही है
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शेष नारायण सिंह
Sunday, October 24, 2010
अजमेर धमाकों के लिए आर एस एस का बड़ा नेता जिम्मेदार ,चार्जशीट दाखिल
शेष नारायण सिंह
आर एस एस के एक बड़े नेता पर अजमेर के धमाकों में शामिल होने की साज़िश में मुक़दमा चलेगा. हालांकि इस बात में कीई को शक़ नहीं था कि आर एस एस हिंसा को राजनीतिक का हथियार बनाता रहता है लेकिन आम तौर पर माना जाता है कि उनके बड़े नेता कभी भी सीधे तौर पर किसी भी हमले की साज़िश में शामिल नहीं होते. पूरे देश में आर एस एस के अधीन काम करने वाले करीब साढ़े तीन हज़ार ऐसे संगठन हैं जो सक्रिय रूप से संघी एजेंडे को लागू करने के लिए काम करते हैं . आम तौर जिन कामों में आपराधिक मुक़दमा चल सकता हो , उसमें आर एस एस के बदेनेता खुद शामिल नहीं होते. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि केंद्र में सरकार बना लेने के बाद आर एस एस वाले यह संकोच भी भूल गए हैं . गुजरात का नरसंहार, मालेगांव बम विस्फोट , हैदराबाद के धमाके कुछ ऐसे काम हैं जिनमें आर एस एस के वरिष्ठ नेता खुद ही शामिल पाए गए हैं .मालेगाँव की मस्जिद में बम विस्फोट करने की अपराधी ,साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और उनके गिरोह के बाकी आतंकवादियों के ऊपर महाराष्ट्र में संगठित अपराधों को कंट्रोल करने वाले कानून, मकोका के तहत मुक़दमा चलाया जायेगा. मालेगांव के धमाकों के गिरोह को उस वक़्त के महाराष्ट्र के एंटी टेररिस्ट स्क्वाड के प्रमुख, शहीद हेमंत करकरे ने पकड़ा था . जब करकरे ने हिंदुत्ववादी संगठनों के आंतंकवादी गिरोहों को पकड़ना शुरू किया तो आर एस एस और उस से सम्बद्ध लोगों में हडकंप मच गया था. गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी घबडा गए थे और हेमंत करकरे को हटाने की माग को लेकर बहुत सक्रिय हो गए थे. बाकी देश में भी संघी लोग खासे परेशान हो गए थे लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था और हेमंत करकरे को मुंबई हमलों के दौरान उनके दुश्मनों ने मार डाला. शहीद हेमंत करकरे की मौत के बाद हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों को थोडा सांस लेने का मौक़ा मिल गया वरना स्वर्गीय करकरे के काम की रफ़्तार को देख कर तो लगता था कि बहुत जल्दी वे हिन्दुत्ववादी संगठनों के आतंक को काबू में कर लेगें.
साध्वी प्रज्ञा और उनके साथियों की गिरफ्तारी भारतीय न्याय प्रक्रिया के इतिहास में एक संगमील माना जाएगा . प्रज्ञा ठाकुर और ले कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित की मालेगांव धमाकों के मामले में गिरफ्तारी ने देश की एकता और अखंडता की रक्षा के मामले में एक अहम भूमिका निभाई थी. मुसलमानों के खिलाफ चल रही संघी ब्रिगेड की मुहिम के तहत संघी भाई कहते फिरते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं . जब इन संघी आतंकवादियों को पकड़ा गया तो संघ का मुसलमानों के खिलाफ जारी प्रचार रुक गया था. और एल के आडवाणी सहित सभी संघी जीव बैकफुट पर आ गए थे . दर असल संघी आतंकवाद से भी बड़े एक नए किस्म को भी शहीद हेमंत करकरे ने देश के सामने ला कर खड़ा कर दिया था . मालेगांव धमाकों के अभियुक्तों में ले कर्नल श्रीकांत पुरोहित के शामिल होने के बाद यह पता लग गया था कि संघी आतंकवाद ने मिलटरी इंटेलिजेंस को भी नहीं बख्शा है और अब आतंकवाद ने सेना में भी घुसपैठ कर ली है .. अब बम्बई हाई कोर्ट के आदेश के बाद उन सभी ग्यारह आतंकवादियों पर मकोका कोर्ट में मुक़दमा चलाया जाएगा जिन्हें स्व हेमंत करकरे ने पकड़ा था. इन ग्यारह आतंकवादियों में ए बी वी पी का एक नेता, अभिनव भारत का एक नेता, और सेना का एक अवकाश प्राप्त मेजर शामिल हैं . कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर तो मुख्य अभियुक्त हैं ही.
गिरफ्तार होने के बाद मीडिया में मौजूद अपने साथियों की मदद से इस गिरोह के मालिकों ने बहुत हल्ला गुल्ला मचाया लेकिन केस इन मज़बूत था कि किसी की एक नहीं चली. शुरू में तो यह लगा था कि यह अति उत्साही टाइप कुछ लोगों की साज़िश भर है लेकिन बाद में जब अजमेर के धमाकों में भी आर एस एस के फुल टाइम कार्यकर्ता और बड़े नेता ,इन्द्रेश कुमार पकडे गए तो साफ़ हो गया कि आर एस एस ने बाकायदा आतंकवाद के लिए एक विभाग बना रखा है. अब बहुत सारे आतंकी मामलों में आर एस और उस से जुड़े संगठनों के शामिल होने की बात के उजागर हो जाने के बाद आर एस एस के नेता लोग घबडाए हुए हैं . अब उन्होंने अपने लोगों को सख्त हिदायत दे दी है कि आतंकवादी गतिविधियों से दूर रहें .यह सख्ती पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कुछ ज़िम्मेदार संघ प्रचारकों से सी बी आई की पूछताछ के बाद अपनाई गयी है. कानपुर में अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय से दिनों सी बी आई ने कड़ाई से पूछ ताछ की थी. अशोक बेरी आर एस एस के क्षेत्रीय प्रचारक हैं और आधे उत्तर प्रदेश के इंचार्ज हैं . वे आर एस एस की केंदीय कमेटी के भी सदस्य हैं .अशोक वार्ष्णेय उनसे भी ऊंचे पद पर हैं . वे कानपुर में रहते हैं और प्रांत प्रचारक हैं .. उनके ठिकाने पर कुछ अरसा पहले एक भयानक धमाका हुआ था. बाद में पता चला कि उस धमाके में कुछ लोग घायल भी हुये थे. घायल होने वाले लोग बम बना रहे थे. सी बी आई के सूत्र बताते हैं कि उनके पास इन लोगों के आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के पक्के सबूत हैं और हैदराबाद की मक्का मस्जिद , अजमेर और मालेगांव में आतंकवादी धमाके करने में जिस गिरोह का हाथ था, उस से उत्तर प्रदेश के इन दोनों ही प्रचारकों के संबंधों की पुष्टि हो चुकी हैं . इसके पहले आर एस एस ने तय किया था कि अगर अपना कोई कार्यकर्ता आतंकवादी काम करते पकड़ा गया तो उस से पल्ला झाड़ लेगें . इसी योजना के तहत अजमेर में २००७ में हुए धमाके के लिए जब देवेन्द्र गुप्ता और लोकेश शर्मा पकडे गए थे तो संघ ने ऐलान कर दिया था कि उन लोगों की आतंकवादी गतिविधियों से आर एस एस को कोई लेना देना नहीं है . वह काम उन्होंने अपनी निजी हैसियत में किया था और नागपुर वालों ने उनके खिलाफ चल रही जांच में पुलिस को सहयोग देने का निर्णय ले लिया था. लेकिन अब वह संभव नहीं है . क्योंकि अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय कोई मामूली कार्यकर्ता नहीं है , वे संगठन के आलाकमान के सदस्य हैं . वे उस कमेटी की बैठकों में शामिल होते हैं जो संगठन की नीति निर्धारित करती है . उनसे पल्ला झाड़ना संभव नहीं है . इसके कारण हैं . वह यह कि अगर इनके साथ आर एस एस की लीडरशिप धोखा करेगी तो कहीं यह लोग बाकी लोगों की पोल-पट्टी भी न खोल दें . इन्द्रेश कुमार से पल्ला झाड़ना आर एस एस के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि वे उनकी संगठन के सर्वोच्च पदाधिकारियों में से एक हैं . उनके ऊपर लगी चार्जशीट से यह साबित हो गया है कि आर एस एस की टाप लीडरशिप आतंकवाद की राजनीति पर ही चलती है
आर एस एस के एक बड़े नेता पर अजमेर के धमाकों में शामिल होने की साज़िश में मुक़दमा चलेगा. हालांकि इस बात में कीई को शक़ नहीं था कि आर एस एस हिंसा को राजनीतिक का हथियार बनाता रहता है लेकिन आम तौर पर माना जाता है कि उनके बड़े नेता कभी भी सीधे तौर पर किसी भी हमले की साज़िश में शामिल नहीं होते. पूरे देश में आर एस एस के अधीन काम करने वाले करीब साढ़े तीन हज़ार ऐसे संगठन हैं जो सक्रिय रूप से संघी एजेंडे को लागू करने के लिए काम करते हैं . आम तौर जिन कामों में आपराधिक मुक़दमा चल सकता हो , उसमें आर एस एस के बदेनेता खुद शामिल नहीं होते. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि केंद्र में सरकार बना लेने के बाद आर एस एस वाले यह संकोच भी भूल गए हैं . गुजरात का नरसंहार, मालेगांव बम विस्फोट , हैदराबाद के धमाके कुछ ऐसे काम हैं जिनमें आर एस एस के वरिष्ठ नेता खुद ही शामिल पाए गए हैं .मालेगाँव की मस्जिद में बम विस्फोट करने की अपराधी ,साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और उनके गिरोह के बाकी आतंकवादियों के ऊपर महाराष्ट्र में संगठित अपराधों को कंट्रोल करने वाले कानून, मकोका के तहत मुक़दमा चलाया जायेगा. मालेगांव के धमाकों के गिरोह को उस वक़्त के महाराष्ट्र के एंटी टेररिस्ट स्क्वाड के प्रमुख, शहीद हेमंत करकरे ने पकड़ा था . जब करकरे ने हिंदुत्ववादी संगठनों के आंतंकवादी गिरोहों को पकड़ना शुरू किया तो आर एस एस और उस से सम्बद्ध लोगों में हडकंप मच गया था. गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी घबडा गए थे और हेमंत करकरे को हटाने की माग को लेकर बहुत सक्रिय हो गए थे. बाकी देश में भी संघी लोग खासे परेशान हो गए थे लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था और हेमंत करकरे को मुंबई हमलों के दौरान उनके दुश्मनों ने मार डाला. शहीद हेमंत करकरे की मौत के बाद हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों को थोडा सांस लेने का मौक़ा मिल गया वरना स्वर्गीय करकरे के काम की रफ़्तार को देख कर तो लगता था कि बहुत जल्दी वे हिन्दुत्ववादी संगठनों के आतंक को काबू में कर लेगें.
साध्वी प्रज्ञा और उनके साथियों की गिरफ्तारी भारतीय न्याय प्रक्रिया के इतिहास में एक संगमील माना जाएगा . प्रज्ञा ठाकुर और ले कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित की मालेगांव धमाकों के मामले में गिरफ्तारी ने देश की एकता और अखंडता की रक्षा के मामले में एक अहम भूमिका निभाई थी. मुसलमानों के खिलाफ चल रही संघी ब्रिगेड की मुहिम के तहत संघी भाई कहते फिरते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं . जब इन संघी आतंकवादियों को पकड़ा गया तो संघ का मुसलमानों के खिलाफ जारी प्रचार रुक गया था. और एल के आडवाणी सहित सभी संघी जीव बैकफुट पर आ गए थे . दर असल संघी आतंकवाद से भी बड़े एक नए किस्म को भी शहीद हेमंत करकरे ने देश के सामने ला कर खड़ा कर दिया था . मालेगांव धमाकों के अभियुक्तों में ले कर्नल श्रीकांत पुरोहित के शामिल होने के बाद यह पता लग गया था कि संघी आतंकवाद ने मिलटरी इंटेलिजेंस को भी नहीं बख्शा है और अब आतंकवाद ने सेना में भी घुसपैठ कर ली है .. अब बम्बई हाई कोर्ट के आदेश के बाद उन सभी ग्यारह आतंकवादियों पर मकोका कोर्ट में मुक़दमा चलाया जाएगा जिन्हें स्व हेमंत करकरे ने पकड़ा था. इन ग्यारह आतंकवादियों में ए बी वी पी का एक नेता, अभिनव भारत का एक नेता, और सेना का एक अवकाश प्राप्त मेजर शामिल हैं . कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर तो मुख्य अभियुक्त हैं ही.
गिरफ्तार होने के बाद मीडिया में मौजूद अपने साथियों की मदद से इस गिरोह के मालिकों ने बहुत हल्ला गुल्ला मचाया लेकिन केस इन मज़बूत था कि किसी की एक नहीं चली. शुरू में तो यह लगा था कि यह अति उत्साही टाइप कुछ लोगों की साज़िश भर है लेकिन बाद में जब अजमेर के धमाकों में भी आर एस एस के फुल टाइम कार्यकर्ता और बड़े नेता ,इन्द्रेश कुमार पकडे गए तो साफ़ हो गया कि आर एस एस ने बाकायदा आतंकवाद के लिए एक विभाग बना रखा है. अब बहुत सारे आतंकी मामलों में आर एस और उस से जुड़े संगठनों के शामिल होने की बात के उजागर हो जाने के बाद आर एस एस के नेता लोग घबडाए हुए हैं . अब उन्होंने अपने लोगों को सख्त हिदायत दे दी है कि आतंकवादी गतिविधियों से दूर रहें .यह सख्ती पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कुछ ज़िम्मेदार संघ प्रचारकों से सी बी आई की पूछताछ के बाद अपनाई गयी है. कानपुर में अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय से दिनों सी बी आई ने कड़ाई से पूछ ताछ की थी. अशोक बेरी आर एस एस के क्षेत्रीय प्रचारक हैं और आधे उत्तर प्रदेश के इंचार्ज हैं . वे आर एस एस की केंदीय कमेटी के भी सदस्य हैं .अशोक वार्ष्णेय उनसे भी ऊंचे पद पर हैं . वे कानपुर में रहते हैं और प्रांत प्रचारक हैं .. उनके ठिकाने पर कुछ अरसा पहले एक भयानक धमाका हुआ था. बाद में पता चला कि उस धमाके में कुछ लोग घायल भी हुये थे. घायल होने वाले लोग बम बना रहे थे. सी बी आई के सूत्र बताते हैं कि उनके पास इन लोगों के आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के पक्के सबूत हैं और हैदराबाद की मक्का मस्जिद , अजमेर और मालेगांव में आतंकवादी धमाके करने में जिस गिरोह का हाथ था, उस से उत्तर प्रदेश के इन दोनों ही प्रचारकों के संबंधों की पुष्टि हो चुकी हैं . इसके पहले आर एस एस ने तय किया था कि अगर अपना कोई कार्यकर्ता आतंकवादी काम करते पकड़ा गया तो उस से पल्ला झाड़ लेगें . इसी योजना के तहत अजमेर में २००७ में हुए धमाके के लिए जब देवेन्द्र गुप्ता और लोकेश शर्मा पकडे गए थे तो संघ ने ऐलान कर दिया था कि उन लोगों की आतंकवादी गतिविधियों से आर एस एस को कोई लेना देना नहीं है . वह काम उन्होंने अपनी निजी हैसियत में किया था और नागपुर वालों ने उनके खिलाफ चल रही जांच में पुलिस को सहयोग देने का निर्णय ले लिया था. लेकिन अब वह संभव नहीं है . क्योंकि अशोक बेरी और अशोक वार्ष्णेय कोई मामूली कार्यकर्ता नहीं है , वे संगठन के आलाकमान के सदस्य हैं . वे उस कमेटी की बैठकों में शामिल होते हैं जो संगठन की नीति निर्धारित करती है . उनसे पल्ला झाड़ना संभव नहीं है . इसके कारण हैं . वह यह कि अगर इनके साथ आर एस एस की लीडरशिप धोखा करेगी तो कहीं यह लोग बाकी लोगों की पोल-पट्टी भी न खोल दें . इन्द्रेश कुमार से पल्ला झाड़ना आर एस एस के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि वे उनकी संगठन के सर्वोच्च पदाधिकारियों में से एक हैं . उनके ऊपर लगी चार्जशीट से यह साबित हो गया है कि आर एस एस की टाप लीडरशिप आतंकवाद की राजनीति पर ही चलती है
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Saturday, October 23, 2010
कश्मीरी अवाम ने भारत में विलय को ही आज़ादी माना था .
शेष नारायण सिंह
दिल्ली में मीडियाजीवियों का एक वर्ग है जो प्रचार के वास्ते कुछ भी कर सकता है . इसी जमात के कुछ लोगों को ब्रेनवेव आई कि कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी एजेंट सैय्यद अली शाह गीलानी को पकड़ कर लाया जाय और दिल्ली में एक मंच दिया जाय जहां से वे अपना प्रचार कर सकें.समझ में नहीं आता कि जो आदमी घोषित रूप से पाकिस्तानी तोड़फोड़ का समर्थक है , कश्मीर को पाकिस्तान की गुलामी में सौंपना चाहता है उसे भारतीय संविधान की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के तहत क्यों महिमामंडित किया जा रहा है . दिल्ली में बहुत सारे धतेंगण घूम रहे हैं जो धार्मिक कठमुल्लापन की भी सारी हदें पार कर जाते हैं , हिन्दू महासभा की राजनीति में गले तक डूबे रहते हैं , मंदिर मार्ग की हिन्दू मह्सभा की प्रापर्टी पर क़ब्ज़ा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं और और मौक़ा मिलते ही मुसलमानों और माओवादियों के शुभचिंतक बन जाते हैं . इस तरह के दिल्ली में करीब एक हज़ार लोग हैं जो हमेशा विवादों के रास्ते मीडिया में मौजूद पाए जाते हैं . इसी प्रजाति के कुछ जीवों ने दिल्ली में गीलानी को मंच दे दिया. तुर्रा यह कि गीलानी जैसे पाकिस्तान के गुलाम आज़ादी की बात करते रहे और बुद्धि के अजीर्ण से ग्रस्त लोग उसे सुनते रहे. दुर्भाग्य यह है कि अपने देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कश्मीरी अवाम की आज़ादी की भावना को समझता ही नहीं. एक बात अगर सबकी समझ में आ जाय तो कश्मीर संबंधी चिंतन का बहुत उपकार होगा और वह यह कि जब १९४७ में जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया तो कश्मीरी अवाम ने अपने आपको आज़ाद माना था . यानी भारत के साथ रहना कश्मीर वालों के लिए आज़ादी का दूसरा नाम है . शेख अब्दुल्ला ने राजा की हुकूमत को ख़त्म करके कश्मीरी अवाम की आज़ादी की बात की थी और जब राजा ने विलय की बात मान ली और कश्मीर भारत का अखंड हिस्सा बन गया तो कश्मीर आज़ाद हो गया . यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि राजा ने विलय के कागजों पर अक्टूबर १९४७ में दस्तखत किया था . दस्तखत करने की प्रक्रिया इसलिए भी तेज़ हो गयी थी कि कश्मीर पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा करने के उद्दश्य से पाकिस्ताने एफौज़ ने कबायलियों को साथ लेकर हमला कर दिया था और राजा ने कहा कि आज़ादी की बात तो दूर, पाकिस्तानी सरकार और उसके मुखिया मुहम्मद अली जिन्ना तो कश्मीर को फौज के बूटों तले रौंद कर गुलाम बनाना चाहते हैं . उनकी भारत के साथ विलय का फैसला पाकिस्तानी हमले के बाद हो गया था . राजा ने कहा कि कश्मीर भारत के साथ जा रहा है क्योंकि भारत ने उसकी आज़ादी की रक्षा की है जबकि पाकिस्तान उन्हने हमेशा के लिए गुलाम बनाना चाहता है . उसी पाकिस्तान के गुलाम और उसी के खर्चे पर ऐश कर रहे गीलानी के मुंह से आज़ादी की बात समझ में नहीं आती है .हाँ यह भी सच है कि शेख अब्दुल्ला को परेशान करके भारत सरकार ने अपना एक बेहतरीन दोस्त खो दिया था लेकिन अब वह सब कुछ इतिहास की बातें हैं वरना अगर प्रजा परिषद् ने शेख साहेब से राजा का बदला लेने की गरज से तूफ़ान न मचाया होता तो कश्मीर की समस्या ही न पैदा होती . कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी को समझने के लिए इतिहास के कुछ तःत्यों पर नज़र डालनी ज़रूरी है .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . महात्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी .
इसलिए यह बात सबकी समझ में आ जानी चाहिए कि कश्मीरी अवाम जिसे आज़ादी कहता है उसका मातलब भारत में विलय है और गीलीनी टाइप पाकिस्तानी पैसे पर पलने वालों को यह हक नहीं है कि वे पाकिस्तान की तारीफ करटे हुए कश्मीर की आज़ादी की बात करें क्योंकि पाकिस्तान ही तो कश्मीर की आज़ादी का असली दुश्मन है
दिल्ली में मीडियाजीवियों का एक वर्ग है जो प्रचार के वास्ते कुछ भी कर सकता है . इसी जमात के कुछ लोगों को ब्रेनवेव आई कि कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी एजेंट सैय्यद अली शाह गीलानी को पकड़ कर लाया जाय और दिल्ली में एक मंच दिया जाय जहां से वे अपना प्रचार कर सकें.समझ में नहीं आता कि जो आदमी घोषित रूप से पाकिस्तानी तोड़फोड़ का समर्थक है , कश्मीर को पाकिस्तान की गुलामी में सौंपना चाहता है उसे भारतीय संविधान की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के तहत क्यों महिमामंडित किया जा रहा है . दिल्ली में बहुत सारे धतेंगण घूम रहे हैं जो धार्मिक कठमुल्लापन की भी सारी हदें पार कर जाते हैं , हिन्दू महासभा की राजनीति में गले तक डूबे रहते हैं , मंदिर मार्ग की हिन्दू मह्सभा की प्रापर्टी पर क़ब्ज़ा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं और और मौक़ा मिलते ही मुसलमानों और माओवादियों के शुभचिंतक बन जाते हैं . इस तरह के दिल्ली में करीब एक हज़ार लोग हैं जो हमेशा विवादों के रास्ते मीडिया में मौजूद पाए जाते हैं . इसी प्रजाति के कुछ जीवों ने दिल्ली में गीलानी को मंच दे दिया. तुर्रा यह कि गीलानी जैसे पाकिस्तान के गुलाम आज़ादी की बात करते रहे और बुद्धि के अजीर्ण से ग्रस्त लोग उसे सुनते रहे. दुर्भाग्य यह है कि अपने देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कश्मीरी अवाम की आज़ादी की भावना को समझता ही नहीं. एक बात अगर सबकी समझ में आ जाय तो कश्मीर संबंधी चिंतन का बहुत उपकार होगा और वह यह कि जब १९४७ में जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया तो कश्मीरी अवाम ने अपने आपको आज़ाद माना था . यानी भारत के साथ रहना कश्मीर वालों के लिए आज़ादी का दूसरा नाम है . शेख अब्दुल्ला ने राजा की हुकूमत को ख़त्म करके कश्मीरी अवाम की आज़ादी की बात की थी और जब राजा ने विलय की बात मान ली और कश्मीर भारत का अखंड हिस्सा बन गया तो कश्मीर आज़ाद हो गया . यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि राजा ने विलय के कागजों पर अक्टूबर १९४७ में दस्तखत किया था . दस्तखत करने की प्रक्रिया इसलिए भी तेज़ हो गयी थी कि कश्मीर पर ज़बरदस्ती क़ब्ज़ा करने के उद्दश्य से पाकिस्ताने एफौज़ ने कबायलियों को साथ लेकर हमला कर दिया था और राजा ने कहा कि आज़ादी की बात तो दूर, पाकिस्तानी सरकार और उसके मुखिया मुहम्मद अली जिन्ना तो कश्मीर को फौज के बूटों तले रौंद कर गुलाम बनाना चाहते हैं . उनकी भारत के साथ विलय का फैसला पाकिस्तानी हमले के बाद हो गया था . राजा ने कहा कि कश्मीर भारत के साथ जा रहा है क्योंकि भारत ने उसकी आज़ादी की रक्षा की है जबकि पाकिस्तान उन्हने हमेशा के लिए गुलाम बनाना चाहता है . उसी पाकिस्तान के गुलाम और उसी के खर्चे पर ऐश कर रहे गीलानी के मुंह से आज़ादी की बात समझ में नहीं आती है .हाँ यह भी सच है कि शेख अब्दुल्ला को परेशान करके भारत सरकार ने अपना एक बेहतरीन दोस्त खो दिया था लेकिन अब वह सब कुछ इतिहास की बातें हैं वरना अगर प्रजा परिषद् ने शेख साहेब से राजा का बदला लेने की गरज से तूफ़ान न मचाया होता तो कश्मीर की समस्या ही न पैदा होती . कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी को समझने के लिए इतिहास के कुछ तःत्यों पर नज़र डालनी ज़रूरी है .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . महात्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी .
इसलिए यह बात सबकी समझ में आ जानी चाहिए कि कश्मीरी अवाम जिसे आज़ादी कहता है उसका मातलब भारत में विलय है और गीलीनी टाइप पाकिस्तानी पैसे पर पलने वालों को यह हक नहीं है कि वे पाकिस्तान की तारीफ करटे हुए कश्मीर की आज़ादी की बात करें क्योंकि पाकिस्तान ही तो कश्मीर की आज़ादी का असली दुश्मन है
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शेष नारायण सिंह
Thursday, October 21, 2010
लो इनकम वालों के लिए बहुत बेदिल है दिल्ली
शेष नारायण सिंह
आज बहुत मज़ा आया . एक टी वी न्यूज़ चैनल में स्टूडियो गेस्ट के रूप में बुलाया गया था . कार्यक्रम के अंत में डेढ़ हज़ार रूपये मिले . बहुत खुशी हुई . पिछले चार पांच साल से स्टूडियो में बतौर गेस्ट बुलाया जाता हूँ लेकिन कहीं कभी कोई पैसा नहीं मिला . दरअसल जो चैनल पैसा देते हैं ,वे हमें बुलाते ही नहीं . जिन चैनलों में हम जाते थे वहां पैसा देने की परम्परा नहीं थी. आज एक महत्वपूर्ण चैनल में पैसा मिला तो दिल्ली में अपना अस्सी का दशक याद आ गया.उन दिनों जब भी कभी कहीं से एक्स्ट्रा पैसा मिल जाता था , मन खुशी से भर जाता था . सबसे पहले दालें खरीदता था . ऑटो रिक्शा में बैठकर जब मैं घर पंहुचता था तो मेरी पत्नी बहुत खुश हो जाती थीं. उन्हें अंदाज़ लग जाता कि आज कुछ पैसा मिला है और कोई ऐसा सामान खरीद कर आ रहा है जो बस में नहीं लाया जा सकता था . लोकसभा के स्वागत कक्ष के सामने जहां आज कल पार्किंग बनी हुई है,उन दिनों वहीं केंद्रीय भण्डार हुआ करता था. आम बोलचाल की भाषा में उसे ' पी ब्लाक ' कहते थे. जब दिल्ली के भ्रष्ट नेताओं और अफसरों ने सुपर बाज़ार को दफन कर दिया था तो पी ब्लाक ही वह ठिकाना था जहां से सही दाम पर लो इनकम ग्रुप वाले सही सामान ले सकते थे. हमारे यहाँ दाल वहीं से आती थी. मेरे बच्चे तब बड़े हो रहे थे . मैंने अपनी औकात से ज़्यादा खर्चे बढ़ा रखे थे . दोनों बड़े बच्चे तो पब्लिक स्कूलों में जाते ही थे , छोटी बेटी को उस समय के दिल्ली के सबसे महंगे स्कूल में भर्ती करा दिया गया. दिल्ली में तीन बच्चों की फीस और दक्षिण दिल्ली के किसी साधारण इलाके में किराए का मकान लेकर रहने के लिए मजबूर आदमी की क्षमता का हर तरह से इम्तिहान हो रहा था. लेकिन हम भी अपनी जिद पर कायम थे , बच्चों की शिक्षा में कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे. ज़ाहिर है एक्स्ट्रा काम करना पड़ता था . और हम जैसे लोगों को एक्स्ट्रा काम भी क्या मिलता है . कहीं ट्रांसलेशन कर लिया, कहीं किसी के लिए घोस्ट राइटिंग के रास्ते कुछ लिख पढ़ दिया , कभी किसी ऐसे आदमी के बच्चे को सामान्य ज्ञान और अंग्रेज़ी की तैयारी करवा दी, जो किसी कम्पटीशन में बैठने की कोशिश कर रहा होता था. दिलचस्प बात यह है कि इस काम के बारे में अपनी पत्नी के अलावा किसी को बताया नहीं जाता था. जिस दिन ट्रांसलेशन के पैसे मिलते थे, उस दिन बच्चों के लिए वे चीज़ें खरीदी जाती थीं जो बहुत दिनों से ज़रूरी सामान की लिस्ट का हिस्सा बनी हुई होती थीं . मेरे बच्चों को भी मालूम था कि जो फिक्स पैसे पिता जी को मिलते हैं वह तो पहली तारीख को ही ख़त्म हो जाते हैं. उनकी छोटी छोटी ज़रूरतों के लिए इसी तरह के पैसों का सहारा रहता था. आज जब चैनल में गेस्ट के रूप में जाने का पैसा मिला तो बहुत खुशी हुई लेकिन अपनी पिछ्ली ज़िंदगी के वे खौफनाक क्षण भी याद आ गये , जिन्हें हम भुला देना चाहते हैं .
आज बहुत मज़ा आया . एक टी वी न्यूज़ चैनल में स्टूडियो गेस्ट के रूप में बुलाया गया था . कार्यक्रम के अंत में डेढ़ हज़ार रूपये मिले . बहुत खुशी हुई . पिछले चार पांच साल से स्टूडियो में बतौर गेस्ट बुलाया जाता हूँ लेकिन कहीं कभी कोई पैसा नहीं मिला . दरअसल जो चैनल पैसा देते हैं ,वे हमें बुलाते ही नहीं . जिन चैनलों में हम जाते थे वहां पैसा देने की परम्परा नहीं थी. आज एक महत्वपूर्ण चैनल में पैसा मिला तो दिल्ली में अपना अस्सी का दशक याद आ गया.उन दिनों जब भी कभी कहीं से एक्स्ट्रा पैसा मिल जाता था , मन खुशी से भर जाता था . सबसे पहले दालें खरीदता था . ऑटो रिक्शा में बैठकर जब मैं घर पंहुचता था तो मेरी पत्नी बहुत खुश हो जाती थीं. उन्हें अंदाज़ लग जाता कि आज कुछ पैसा मिला है और कोई ऐसा सामान खरीद कर आ रहा है जो बस में नहीं लाया जा सकता था . लोकसभा के स्वागत कक्ष के सामने जहां आज कल पार्किंग बनी हुई है,उन दिनों वहीं केंद्रीय भण्डार हुआ करता था. आम बोलचाल की भाषा में उसे ' पी ब्लाक ' कहते थे. जब दिल्ली के भ्रष्ट नेताओं और अफसरों ने सुपर बाज़ार को दफन कर दिया था तो पी ब्लाक ही वह ठिकाना था जहां से सही दाम पर लो इनकम ग्रुप वाले सही सामान ले सकते थे. हमारे यहाँ दाल वहीं से आती थी. मेरे बच्चे तब बड़े हो रहे थे . मैंने अपनी औकात से ज़्यादा खर्चे बढ़ा रखे थे . दोनों बड़े बच्चे तो पब्लिक स्कूलों में जाते ही थे , छोटी बेटी को उस समय के दिल्ली के सबसे महंगे स्कूल में भर्ती करा दिया गया. दिल्ली में तीन बच्चों की फीस और दक्षिण दिल्ली के किसी साधारण इलाके में किराए का मकान लेकर रहने के लिए मजबूर आदमी की क्षमता का हर तरह से इम्तिहान हो रहा था. लेकिन हम भी अपनी जिद पर कायम थे , बच्चों की शिक्षा में कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे. ज़ाहिर है एक्स्ट्रा काम करना पड़ता था . और हम जैसे लोगों को एक्स्ट्रा काम भी क्या मिलता है . कहीं ट्रांसलेशन कर लिया, कहीं किसी के लिए घोस्ट राइटिंग के रास्ते कुछ लिख पढ़ दिया , कभी किसी ऐसे आदमी के बच्चे को सामान्य ज्ञान और अंग्रेज़ी की तैयारी करवा दी, जो किसी कम्पटीशन में बैठने की कोशिश कर रहा होता था. दिलचस्प बात यह है कि इस काम के बारे में अपनी पत्नी के अलावा किसी को बताया नहीं जाता था. जिस दिन ट्रांसलेशन के पैसे मिलते थे, उस दिन बच्चों के लिए वे चीज़ें खरीदी जाती थीं जो बहुत दिनों से ज़रूरी सामान की लिस्ट का हिस्सा बनी हुई होती थीं . मेरे बच्चों को भी मालूम था कि जो फिक्स पैसे पिता जी को मिलते हैं वह तो पहली तारीख को ही ख़त्म हो जाते हैं. उनकी छोटी छोटी ज़रूरतों के लिए इसी तरह के पैसों का सहारा रहता था. आज जब चैनल में गेस्ट के रूप में जाने का पैसा मिला तो बहुत खुशी हुई लेकिन अपनी पिछ्ली ज़िंदगी के वे खौफनाक क्षण भी याद आ गये , जिन्हें हम भुला देना चाहते हैं .
कामनवेल्थ की हेराफेरी की जांच में फिल्म 'जाने भी दो यारो 'की झलक
शेष नारायण सिंह
कामनवेल्थ खेलों के भ्रष्टाचार की जांच शुरू हो गयी है . कांग्रेस सरकार और उसके कुछ नेता कामनवेल्थ खेलों के सभी फैसलों के लिए ज़िम्मेदार हैं लेकिन जांच में पहला हमला बी जे पी के एक बड़े नेता के घर और दफ्तर में छापा डालकर किया गया है . इस छापे का एक मकसद तो शायद यह बताना था कि कामनवेल्थ की लूट में बी जे पी के नेता भी शामिल हैं लेकिन इसका एक मतलब और भी हो सकता है कि भाई जब सभी शामिल हैं तो सुरेश कलमाड़ी को ही बलि का बकरा क्यों बनाया जाय . जब सबने लूटा है तो मिलजुल कर मामले को रफा दफा करना ही ठीक रहेगा. यानी कामनवेल्थ खेलों की जांच में भी करीब २७ साल पुरानी फिल्म "जाने भी दो यारो" को एक बार फिर जीवंत किया जायेगा .जहाना तक कांग्रेस का सवाल है उसने अध्यक्ष के गुट के बड़े सिपहसालार को घेर कर यह सन्देश दे दिया है कि अगर जांच की बार बार बात की गयी तो बी जे पी की अंदरूनी कलह की पिच पर ही कामनवेल्थ के भ्रष्टाचार के जांच की क्रिकेट खेली जायेगी. मैं आम तौर पर अपने पुराने लेखों के शब्दों को कापी नहीं करता लेकिन १६ अक्टूबर को लिखी गयी अपनी टिप्पणी के कुछ वाक्यों को आज के लेख में इस्तेमाल करना चाहता हूँ .
मैंने लिखा था " अपने कामनवेल्थ खेलों के समापन के अगले दिन ही खेलों की तैयारियों में हुई हेराफेरी की जांच का आदेश देकर केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर संभावित राजनीतिक पैंतरेबाजी पर लगाम लगा दिया है लेकिन इस जांच की गंभीरता पर सवाल किये जाने लगे हैं . दिल्ली में सत्ता के गलियारों में सक्रिय ज़्यादातर लोग इस खेल में शामिल थे. पूना वाले बुड्ढे नौजवान ने मामला इस तरह से डिजाइन किया था कि दिल्ली के सभी अमीर उमरा ७० हज़ार करोड़ रूपये की लूट में थोडा बहुत हिस्सा पा जाएँ . दिल्ली की काकटेल सर्किट में पिछले ३० वर्षों से सक्रिय इस राजनेता के लिए यह कोई असंभव बात नहीं थी. देश के कोने कोने से आये और दिल्ली में धंधा करने वाले सत्ता के ब्रोकरों के एक बड़े वर्ग के आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित , सुरेश कलमाडी को नुकसान पंहुचा पाना आसान नहीं माना जाता . पिछले एक वर्ष में देखा गया है कि दिल्ली में जिसके कंधे पर भी सुरेश कलमाडी ने हाथ रख दिया ,वह करोडपति हो गया. ऐसी स्थिति में यह मुश्किल लगता है कि इस लूट के लिए उनको ज़िम्मेदार ठहराया जा सकेगा . दिल्ली में सक्रिय सभी पार्टियों के सत्ता के दलालों के रिश्तेदारों को कोई न कोई ठेका दे चुके कलमाडी के चेहरे पर जो प्रसन्नता नज़र आ रही है ,उसे देख कर तो लगता है कि वे आश्वस्त हैं कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा. जिन लोगों ने इसी दिल्ली में जैन हवाला काण्ड की जांच होते देखी है , उनका कहना है कि मौजूदा जांच का भी वही हश्र होने वाला है."
यह मेरी १६ अक्टूबर वाली टिप्पणी है. मुझे भी उम्मीद नहीं थी कि कामनवेल्थ के घोटालों की जांच को इतनी जल्दी राजनीति की बलि बेदी पर कुरबान करने की तैयारियां शुरू हो जायेगीं . लेकिन जांच को जैन हवाला काण्ड बनाने का काम शुरू हो चुका है . जांच के पहले ही दिन बी जे पी के नेता और स्व प्रमोद महाजन के करीबी रहे व्यापारी सुधांशु मित्तल को घेरे में लेकर सरकार ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वह तक़ल्लुफ़ में विश्वास नहीं करती. इस बात में दो राय नहीं है कि खेलों के घोटाले में कांग्रेसी नेताओं के मित्र और रिश्तेदार भी शामिल होंगें . लेकिन सबसे पहले बी जे पी के एक हाई प्रोफाइल नेता को पकड़ कर केंद्र सरकार ने साफ़ कर दिया है कि अगर इस मुद्दे पर राजनीति खेली तो सबसे पहले विपक्षियों के घरों में ही आग लगाई जायेगी. लेकिन बी जे पी को निशाने में लेने की सरकार की तरकीब के शिकार कई और भी हैं . सुधांशु मित्तल बी जे पी की आन्तरिक राजनीति में नितिन गडकरी के करीबी माने जाते हैं . आडवानी गुट के डी-4 वाले नेता गडकरी को ठिकाने लगाना ही चाहते हैं वे सुधांशु मित्तल को गडकरी के विनाश की सीढ़ी बनाना चाहते हैं . गडकरी गुट में इस बात की भी चर्चा है कि डी-4 वालों ने अपने दिल्ली दरबार के संपर्कों का इस्तेमाल करके जांच की मुसीबत को सबसे पहले गडकरी के ख़ास बन्दे दरवाज़े पर पंहुचा दी. घबड़ाकर गडकरी ने विशेष प्रेस कान्फरेन्स बुला दी और प्रधान मंत्री पर ही आरोपों की झड़ी लगा दी . बी जे पी के अक़लमंद तबके को मालूम है कि प्रधानमंत्री के ऊपर व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगाए जा सकते , कोई फायदा नहीं होगा . कांग्रेस वाले गडकरी को गंभीरता से नहीं लेते . उनके प्रवक्ता मनीष तिवारी ने यह बयान कि खोदा पहाड़ निकला गडकरी ,निश्चित रूप से सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष का अपमान है लेकिन बी जे पी का डी-4 खुश है .
सुधांशु मित्तल के यहाँ जांच की शुरुआत करके सरकार ने बी जे पी के गडकरी गुट को बैकफुट पर लाने में सफलता पायी है लेकिन अभी तो यह शुरुआत है . अभी तो बी जे पी में गडकरी के विरोधी भी फंसेगें क्योंकि उनके बहुत सारे रिश्तेदारों को भी ठेका दिया गया है और हर ठेके में हेराफेरी हुई है . इसका मतलब यह कतई नहीं कि कांग्रेस वाले बहुत ही पवित्र हैं . जांच का दायरा उन तक पंहुचेगा ज़रूर लेकिन केंद्र सरकार के मौजूदा रुख को देख कर लगता है कि सबसे पहले कामनवेल्थ घोटालों के जांच की डुगडुगी बी जे पी के दर पर ही बजेगी. गडकरी गुट के एक मज़बूत नेता के यहाँ शुरुआती छापा डालकर यह सन्देश तो दे ही दिया गया है कि भ्रष्टाचार के जांच की मशाल लिए हुए कांग्रेस दिल्ली में राजनीति करने वाले किसी भी नेता को हड़का सकती है . बी जे पी के नेताओं को जांच के डंडे से धमकाकर कांग्रेसी अपने आप को बचा सकते हैं क्योंकि अगर बी जे पी के नेता डर गए तो भ्रष्टाचार पर से पर्दा नहीं उठ पायेगा . अंत में वही होगा जो जैन हवाला काण्ड में हुआ था . और ठेकेदारी और बे-ईमानी पर आधारित फिल्म " जाने भी दो यारो " को एक बार फिर से दोहराया जाएगा.
कामनवेल्थ खेलों के भ्रष्टाचार की जांच शुरू हो गयी है . कांग्रेस सरकार और उसके कुछ नेता कामनवेल्थ खेलों के सभी फैसलों के लिए ज़िम्मेदार हैं लेकिन जांच में पहला हमला बी जे पी के एक बड़े नेता के घर और दफ्तर में छापा डालकर किया गया है . इस छापे का एक मकसद तो शायद यह बताना था कि कामनवेल्थ की लूट में बी जे पी के नेता भी शामिल हैं लेकिन इसका एक मतलब और भी हो सकता है कि भाई जब सभी शामिल हैं तो सुरेश कलमाड़ी को ही बलि का बकरा क्यों बनाया जाय . जब सबने लूटा है तो मिलजुल कर मामले को रफा दफा करना ही ठीक रहेगा. यानी कामनवेल्थ खेलों की जांच में भी करीब २७ साल पुरानी फिल्म "जाने भी दो यारो" को एक बार फिर जीवंत किया जायेगा .जहाना तक कांग्रेस का सवाल है उसने अध्यक्ष के गुट के बड़े सिपहसालार को घेर कर यह सन्देश दे दिया है कि अगर जांच की बार बार बात की गयी तो बी जे पी की अंदरूनी कलह की पिच पर ही कामनवेल्थ के भ्रष्टाचार के जांच की क्रिकेट खेली जायेगी. मैं आम तौर पर अपने पुराने लेखों के शब्दों को कापी नहीं करता लेकिन १६ अक्टूबर को लिखी गयी अपनी टिप्पणी के कुछ वाक्यों को आज के लेख में इस्तेमाल करना चाहता हूँ .
मैंने लिखा था " अपने कामनवेल्थ खेलों के समापन के अगले दिन ही खेलों की तैयारियों में हुई हेराफेरी की जांच का आदेश देकर केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर संभावित राजनीतिक पैंतरेबाजी पर लगाम लगा दिया है लेकिन इस जांच की गंभीरता पर सवाल किये जाने लगे हैं . दिल्ली में सत्ता के गलियारों में सक्रिय ज़्यादातर लोग इस खेल में शामिल थे. पूना वाले बुड्ढे नौजवान ने मामला इस तरह से डिजाइन किया था कि दिल्ली के सभी अमीर उमरा ७० हज़ार करोड़ रूपये की लूट में थोडा बहुत हिस्सा पा जाएँ . दिल्ली की काकटेल सर्किट में पिछले ३० वर्षों से सक्रिय इस राजनेता के लिए यह कोई असंभव बात नहीं थी. देश के कोने कोने से आये और दिल्ली में धंधा करने वाले सत्ता के ब्रोकरों के एक बड़े वर्ग के आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित , सुरेश कलमाडी को नुकसान पंहुचा पाना आसान नहीं माना जाता . पिछले एक वर्ष में देखा गया है कि दिल्ली में जिसके कंधे पर भी सुरेश कलमाडी ने हाथ रख दिया ,वह करोडपति हो गया. ऐसी स्थिति में यह मुश्किल लगता है कि इस लूट के लिए उनको ज़िम्मेदार ठहराया जा सकेगा . दिल्ली में सक्रिय सभी पार्टियों के सत्ता के दलालों के रिश्तेदारों को कोई न कोई ठेका दे चुके कलमाडी के चेहरे पर जो प्रसन्नता नज़र आ रही है ,उसे देख कर तो लगता है कि वे आश्वस्त हैं कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा. जिन लोगों ने इसी दिल्ली में जैन हवाला काण्ड की जांच होते देखी है , उनका कहना है कि मौजूदा जांच का भी वही हश्र होने वाला है."
यह मेरी १६ अक्टूबर वाली टिप्पणी है. मुझे भी उम्मीद नहीं थी कि कामनवेल्थ के घोटालों की जांच को इतनी जल्दी राजनीति की बलि बेदी पर कुरबान करने की तैयारियां शुरू हो जायेगीं . लेकिन जांच को जैन हवाला काण्ड बनाने का काम शुरू हो चुका है . जांच के पहले ही दिन बी जे पी के नेता और स्व प्रमोद महाजन के करीबी रहे व्यापारी सुधांशु मित्तल को घेरे में लेकर सरकार ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वह तक़ल्लुफ़ में विश्वास नहीं करती. इस बात में दो राय नहीं है कि खेलों के घोटाले में कांग्रेसी नेताओं के मित्र और रिश्तेदार भी शामिल होंगें . लेकिन सबसे पहले बी जे पी के एक हाई प्रोफाइल नेता को पकड़ कर केंद्र सरकार ने साफ़ कर दिया है कि अगर इस मुद्दे पर राजनीति खेली तो सबसे पहले विपक्षियों के घरों में ही आग लगाई जायेगी. लेकिन बी जे पी को निशाने में लेने की सरकार की तरकीब के शिकार कई और भी हैं . सुधांशु मित्तल बी जे पी की आन्तरिक राजनीति में नितिन गडकरी के करीबी माने जाते हैं . आडवानी गुट के डी-4 वाले नेता गडकरी को ठिकाने लगाना ही चाहते हैं वे सुधांशु मित्तल को गडकरी के विनाश की सीढ़ी बनाना चाहते हैं . गडकरी गुट में इस बात की भी चर्चा है कि डी-4 वालों ने अपने दिल्ली दरबार के संपर्कों का इस्तेमाल करके जांच की मुसीबत को सबसे पहले गडकरी के ख़ास बन्दे दरवाज़े पर पंहुचा दी. घबड़ाकर गडकरी ने विशेष प्रेस कान्फरेन्स बुला दी और प्रधान मंत्री पर ही आरोपों की झड़ी लगा दी . बी जे पी के अक़लमंद तबके को मालूम है कि प्रधानमंत्री के ऊपर व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगाए जा सकते , कोई फायदा नहीं होगा . कांग्रेस वाले गडकरी को गंभीरता से नहीं लेते . उनके प्रवक्ता मनीष तिवारी ने यह बयान कि खोदा पहाड़ निकला गडकरी ,निश्चित रूप से सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष का अपमान है लेकिन बी जे पी का डी-4 खुश है .
सुधांशु मित्तल के यहाँ जांच की शुरुआत करके सरकार ने बी जे पी के गडकरी गुट को बैकफुट पर लाने में सफलता पायी है लेकिन अभी तो यह शुरुआत है . अभी तो बी जे पी में गडकरी के विरोधी भी फंसेगें क्योंकि उनके बहुत सारे रिश्तेदारों को भी ठेका दिया गया है और हर ठेके में हेराफेरी हुई है . इसका मतलब यह कतई नहीं कि कांग्रेस वाले बहुत ही पवित्र हैं . जांच का दायरा उन तक पंहुचेगा ज़रूर लेकिन केंद्र सरकार के मौजूदा रुख को देख कर लगता है कि सबसे पहले कामनवेल्थ घोटालों के जांच की डुगडुगी बी जे पी के दर पर ही बजेगी. गडकरी गुट के एक मज़बूत नेता के यहाँ शुरुआती छापा डालकर यह सन्देश तो दे ही दिया गया है कि भ्रष्टाचार के जांच की मशाल लिए हुए कांग्रेस दिल्ली में राजनीति करने वाले किसी भी नेता को हड़का सकती है . बी जे पी के नेताओं को जांच के डंडे से धमकाकर कांग्रेसी अपने आप को बचा सकते हैं क्योंकि अगर बी जे पी के नेता डर गए तो भ्रष्टाचार पर से पर्दा नहीं उठ पायेगा . अंत में वही होगा जो जैन हवाला काण्ड में हुआ था . और ठेकेदारी और बे-ईमानी पर आधारित फिल्म " जाने भी दो यारो " को एक बार फिर से दोहराया जाएगा.
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Wednesday, October 20, 2010
वंशवादी राजनीति देश के नौजवान को अलग थलग कर देगी
शेष नारायण सिंह
मुंबई में दशहरा के दिन शिव सेना के नेता बाल ठाकरे ने अपनी पार्टी में अपने और अपने बेटे के बाद तीसरी पीढी को भी राजनीति में शामिल कर लिया है और उसे अपने वंश का उत्तराधिकारी बनाने का अघोषित सन्देश जारी कर दिया है . इस तरह से वंशवाद की राजनीति के एक पुराने विरोधी ने धृतराष्ट्र की तरह पुत्र मोह की बेदी पर अपने आपको कुरबान कर दिया है . देश के भविष्य को सबसे बड़ा ख़तरा वंशवादी राजनीति से है . वंशवाद की राजनीति राष्ट्र की मुख्यधारा से नौजवानों के एक बड़े वर्ग को अलग कर सकने की क्षमता रखती है . देश में अपने बच्चों को की अपनी राजनीतिक विरासत थमा देने की राजनीति फिर से सामंती व्यवस्था लागू करने जैसा है . पिछले एक हज़ार साल के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि राजपरिवारों की बातों में देश का आम आदमी नहीं शामिल होता था. राजा महाराजा आपस में लड़ते रहते थे. उनकी लड़ाई में उनके निजी स्वार्थ मुख्य भूमिका निभाते थे. इसलिए आमआदमी को कोई मतलब नहीं रहता था. भारत की एकता का सूत्र उसकी संस्कृति और उसकी धार्मिक परम्पराएं थी. राजनीति पूरी तरह से वंशवाद की भेट चढ़ चुकी होती थी. देश एक रहता था और सामंत लड़ते रहते थे . महात्मा गाँधी ने यह सब बदल दिया . जब वे कांग्रेस में आये तो कांग्रेस एक तरह से अंग्रेजों से छूट मांगने का फोरम मात्र था लेकिन महात्मा गाँधी ने कांग्रेस को जन आकांक्षाओं से जोड़ दिया और १९२० में पूरा देश महात्मा गाँधी के साथ कहदा हो गया. महातम अगंधी ने पूरे देश में यह सन्देश पंहुचा दिया कि आज़ादी के लड़ाई किसी एक राजा ,एक वंश या एक खानदान के हितों के लिए नहीं लड़ी जा रही थी , वह भारत के हर आदमी की अपनी लड़ाई थी . और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया. अपने किसी बच्चे को महात्मा गाँधी ने राजनीति में महत्व नहीं दिया . यह परंपरा आज़ादी मिलने के शुरुआती वर्षों में भी थी. जवाहरलाल नेहरू की बेटी , इंदिरा गाँधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं , वे राजनीति में भूमिका भी अदा करना चाहती थीं लेकिन आज़ादी की लड़ाई की जो गतिशीलता थी, उसके दबाव में जवाहरलाल नेहरू की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वे इंदिरा गाँधी को अपने वारिस के रूप में पेश करते. उनकी मौत के बाद स्व लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा गाँधी को पहली बार मंत्री बनाया था . लेकिन इंदिरा गाँधी में आजादी की महान परम्पराओं के प्रति वह सम्मान नहीं था . उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को राजनीति में शामिल किया और उसे मनमानी करने की पूरी छूट दी और भारतीय राजनीति में वंशवाद की बुनियाद रख दी. संजय गाँधी की याद इस देश के राजनीतिक इतिहास के उस अध्याय में की जायेगी जिसमें यह बताया जायेगा कि कांग्रेस ने महात्मा गाँधी की राजनीतिक मान्यताओं को कैसे तिलांजलि दी थी.. संजय गांधी की राजनीतिक ताजपोशी का बहुत सारे कांग्रेसियों ने विरोध भी किया था लेकिन वे सब इतिहास के डस्टबिन के हवाले हो गए. संजय गांधी को इंदिरा गाँधी ने १९८० में जितनी ताक़त दी थी , उतनी समकालीन इतिहास में किसी के पास नहीं थी. संजय गाँधी की राजनीतिक ताजपोशी की सफलता के बाद बाकी पार्टियों में भी यही ज़हर फैल गया .. मुंबई में शिव सेना की तीसरी पीढी की ताजपोशी उसी वंशवादी राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण है .
इस दशहरे के दिन मुंबई में जो हुआ , उसके पहले बहुत सारी पार्टियों के नेता अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित कर चुके हैं और ज्यदातर ऐसे नेताओं की दूसरी तीसरी पीढी राजनीति के चरागाह में मौज उड़ा रही है . दक्षिण से लेकर उत्तर तक लगभग हर बड़े नेता के बच्चे बिलकुल नाकारा होने के बावजूद राज कर रहे हैं . करूणानिधि, शरद पवार , जी के मूपनार , करुणाकरण, राजशेखर रेड्डी, एन टी रामाराव ,बीजू पटनायक , लालू प्रसाद यादव , मुलायम सिंह यादव , चौधरी चरण सिंह , देवी लाल, बंसी लाल , भजन लाल, शेख अब्दुल्ला, प्रकाश सिंह बदल , सिंधिया परिवार, कांग्रेस में लगभग सभी नेता ,इस मर्ज़ के शिकार हैं. अभी पिछले दिनों बिहार से खबर आई थी कि बी जे पी के प्रदेश अध्यक्ष ने इस्तीफा दे दिया था क्योंकि वे अपने बेटे को टिकट नहीं दिलवा पाए थे. देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार में तो वंशवाद है ही.ज़ाहिर है कि हालात बहुत खराब हैं और अपने वंश जो कायम करने की बेसब्री में बहुत सारे नेता देश की राजनीतिक संस्थाओं का बहुत अपमान कर रहे हैं . अगर यही हालत चलती रही तो देश के नौजवानों की बहुत बड़ी संख्या राजनीति में रूचि लेना बंद कर देगी और देश की एकता और अखंडता को भारी ख़तरा पैदा हो जाएगा. जिन देशों में कुछ खानदानों के लोग ही सत्ता पर काबिज़ रहते हैं , उनके हस्र को देखना दिलचस्प होगा. पड़ोसी देश नेपाल के अलावा इस सन्दर्भ में उत्तर कोरिया का उदाहरण दिया जा सकता है अगर देश के सभी लोग देश की भलाई में साझी नहीं किये जायेगें तो देश का भला नहीं होगा. वंशवादी राजनीति आम आदमी को सत्ता से भगा देने की एक साजिश है और उसका विरोध किया जाना चाहिये
मुंबई में दशहरा के दिन शिव सेना के नेता बाल ठाकरे ने अपनी पार्टी में अपने और अपने बेटे के बाद तीसरी पीढी को भी राजनीति में शामिल कर लिया है और उसे अपने वंश का उत्तराधिकारी बनाने का अघोषित सन्देश जारी कर दिया है . इस तरह से वंशवाद की राजनीति के एक पुराने विरोधी ने धृतराष्ट्र की तरह पुत्र मोह की बेदी पर अपने आपको कुरबान कर दिया है . देश के भविष्य को सबसे बड़ा ख़तरा वंशवादी राजनीति से है . वंशवाद की राजनीति राष्ट्र की मुख्यधारा से नौजवानों के एक बड़े वर्ग को अलग कर सकने की क्षमता रखती है . देश में अपने बच्चों को की अपनी राजनीतिक विरासत थमा देने की राजनीति फिर से सामंती व्यवस्था लागू करने जैसा है . पिछले एक हज़ार साल के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि राजपरिवारों की बातों में देश का आम आदमी नहीं शामिल होता था. राजा महाराजा आपस में लड़ते रहते थे. उनकी लड़ाई में उनके निजी स्वार्थ मुख्य भूमिका निभाते थे. इसलिए आमआदमी को कोई मतलब नहीं रहता था. भारत की एकता का सूत्र उसकी संस्कृति और उसकी धार्मिक परम्पराएं थी. राजनीति पूरी तरह से वंशवाद की भेट चढ़ चुकी होती थी. देश एक रहता था और सामंत लड़ते रहते थे . महात्मा गाँधी ने यह सब बदल दिया . जब वे कांग्रेस में आये तो कांग्रेस एक तरह से अंग्रेजों से छूट मांगने का फोरम मात्र था लेकिन महात्मा गाँधी ने कांग्रेस को जन आकांक्षाओं से जोड़ दिया और १९२० में पूरा देश महात्मा गाँधी के साथ कहदा हो गया. महातम अगंधी ने पूरे देश में यह सन्देश पंहुचा दिया कि आज़ादी के लड़ाई किसी एक राजा ,एक वंश या एक खानदान के हितों के लिए नहीं लड़ी जा रही थी , वह भारत के हर आदमी की अपनी लड़ाई थी . और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया. अपने किसी बच्चे को महात्मा गाँधी ने राजनीति में महत्व नहीं दिया . यह परंपरा आज़ादी मिलने के शुरुआती वर्षों में भी थी. जवाहरलाल नेहरू की बेटी , इंदिरा गाँधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं , वे राजनीति में भूमिका भी अदा करना चाहती थीं लेकिन आज़ादी की लड़ाई की जो गतिशीलता थी, उसके दबाव में जवाहरलाल नेहरू की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वे इंदिरा गाँधी को अपने वारिस के रूप में पेश करते. उनकी मौत के बाद स्व लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा गाँधी को पहली बार मंत्री बनाया था . लेकिन इंदिरा गाँधी में आजादी की महान परम्पराओं के प्रति वह सम्मान नहीं था . उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को राजनीति में शामिल किया और उसे मनमानी करने की पूरी छूट दी और भारतीय राजनीति में वंशवाद की बुनियाद रख दी. संजय गाँधी की याद इस देश के राजनीतिक इतिहास के उस अध्याय में की जायेगी जिसमें यह बताया जायेगा कि कांग्रेस ने महात्मा गाँधी की राजनीतिक मान्यताओं को कैसे तिलांजलि दी थी.. संजय गांधी की राजनीतिक ताजपोशी का बहुत सारे कांग्रेसियों ने विरोध भी किया था लेकिन वे सब इतिहास के डस्टबिन के हवाले हो गए. संजय गांधी को इंदिरा गाँधी ने १९८० में जितनी ताक़त दी थी , उतनी समकालीन इतिहास में किसी के पास नहीं थी. संजय गाँधी की राजनीतिक ताजपोशी की सफलता के बाद बाकी पार्टियों में भी यही ज़हर फैल गया .. मुंबई में शिव सेना की तीसरी पीढी की ताजपोशी उसी वंशवादी राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण है .
इस दशहरे के दिन मुंबई में जो हुआ , उसके पहले बहुत सारी पार्टियों के नेता अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित कर चुके हैं और ज्यदातर ऐसे नेताओं की दूसरी तीसरी पीढी राजनीति के चरागाह में मौज उड़ा रही है . दक्षिण से लेकर उत्तर तक लगभग हर बड़े नेता के बच्चे बिलकुल नाकारा होने के बावजूद राज कर रहे हैं . करूणानिधि, शरद पवार , जी के मूपनार , करुणाकरण, राजशेखर रेड्डी, एन टी रामाराव ,बीजू पटनायक , लालू प्रसाद यादव , मुलायम सिंह यादव , चौधरी चरण सिंह , देवी लाल, बंसी लाल , भजन लाल, शेख अब्दुल्ला, प्रकाश सिंह बदल , सिंधिया परिवार, कांग्रेस में लगभग सभी नेता ,इस मर्ज़ के शिकार हैं. अभी पिछले दिनों बिहार से खबर आई थी कि बी जे पी के प्रदेश अध्यक्ष ने इस्तीफा दे दिया था क्योंकि वे अपने बेटे को टिकट नहीं दिलवा पाए थे. देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार में तो वंशवाद है ही.ज़ाहिर है कि हालात बहुत खराब हैं और अपने वंश जो कायम करने की बेसब्री में बहुत सारे नेता देश की राजनीतिक संस्थाओं का बहुत अपमान कर रहे हैं . अगर यही हालत चलती रही तो देश के नौजवानों की बहुत बड़ी संख्या राजनीति में रूचि लेना बंद कर देगी और देश की एकता और अखंडता को भारी ख़तरा पैदा हो जाएगा. जिन देशों में कुछ खानदानों के लोग ही सत्ता पर काबिज़ रहते हैं , उनके हस्र को देखना दिलचस्प होगा. पड़ोसी देश नेपाल के अलावा इस सन्दर्भ में उत्तर कोरिया का उदाहरण दिया जा सकता है अगर देश के सभी लोग देश की भलाई में साझी नहीं किये जायेगें तो देश का भला नहीं होगा. वंशवादी राजनीति आम आदमी को सत्ता से भगा देने की एक साजिश है और उसका विरोध किया जाना चाहिये
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शेष नारायण सिंह
Tuesday, October 19, 2010
मंसूर सईद ने पाकिस्तानी तानाशाह जिया उल हक को चुनौती दी थी
शेष नारायण सिंह
भाई मंसूर को विदा हुए धीरे धीरे छः महीने हो गए . इतने महीनों में कई बार उनका जिक्र हुआ लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि भाई मंसूर को जाना चाहिए था . बताते हैं कि भाई मंसूर आख़िरी वक़्त तक अपनी आदत से बाज़ नहीं आये थे . वे अपने चाहने वालों को खुश रखने के लिए कुछ भी कर सकते थे. यहाँ तक कि झूठ भी बोल सकते थे. मैं ऐसे दसियों लोगों को जानता हूँ जो इस बात की गवाही दे देगें कि भाई मंसूर ने उनकी खुशी के लिए झूठ बोला था . जिस आदमी में कभी किसी फायदे के लिए झूठ बोला ही न हो उसके लिए यह बहुत बड़ी बात है .लेकिन कभी कोई उनके झूठ को पकड़ नहीं पाया . अपने भाई सुहेल हाशमी के लिए ही उन्होंने सुहेल के टीचर से झूठ बोला था लेकिन टीचर मियाँ को पता नहीं चला. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो आजकल ५५ से ६० साल की उम्र हासिल कर चुके हैं और माशा अल्ला बड़े दानिश्वर हैं या कम से कम दानिश्वरी की एक्टिंग तो करते ही हैं और अपने बचपन में भाई मंसूर के चेलों में शामिल थे . इन लोगों ने अपनी उम्र के खासे पड़ाव पार कर लेने के बाद तक नहीं माना था कि जवाहर लाल नेहरू भी पाखाने जाते होगें. यह इल्हाम इन लोगों को इसलिए हुआ था कि भाई मंसूर ने कभी मजाक में इनको बता दिया था. यह भारत के दानिश्वरों की वही बिरादरी है जो मानने लगी थी कि बहुत जल्द इंक़लाब आने वाला है . भाई मंसूर ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय में नाम लिखाया तो स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य बने और आस पास के लोगों को पक्का यक़ीन हो गया कि बस अब इंक़लाब आने में बहुत कम अरसा रह गया है . यह अलग बात है कि भाई मंसूर को ऐसा कोई मुगालता नहीं था . भाई मंसूर ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया . अपनी बचपन की दोस्त और अपनी रिश्ते की चचेरी बहन से जब वे शादी करने कराची गए तो किस को उम्मीद थी कि दोनों मुल्कों के बीच लड़ाई शुरू हो जायेगी . लेकिन लड़ाई शुरू हुई और वे वापस नहीं आ सके . लेकिन दिल्ली में उनके चाहने वालों का आलम यह था कि वे भाई मंसूर का अभी तक इंतज़ार कर रहे हैं . कम से कम २४ मई तक तो कर ही रहे थे कि वे ज़रूर वापस आयेगें . लेकिन वे नहीं आये. बताते हैं कि उन्होंने अपनी बेटी को भी वादा किया था कि फिर मुलाक़ात होगी लेकिन उसने उनकी आख़री बात पर विश्वास नहीं किया और कहा
जाते हुए कहते हो ,क़यामत को मिलेगें,
क्या खूब , क़यामत का है गोया कोई दिन और
बहरहाल यह क़यामत मुसीबत बन कर आई और भारत- पाकिस्तान में मंसूर सईद के चाहने वालों के एक बहुत बड़े वर्ग को मायूस कर गयी. . अब वे इस दुनिया में नहीं हैं. दिल्ली में जब भाई मंसूर को याद करने के लिए लोग इकठ्ठा हुए तो सुहेल हाशमी ने एक बहुत ही दिलचस्प बात कही थी . उन्होंने कहा कि मंसूर सईद के लिए शोकसभा का आयोजन तो किया ही नहीं जा सकता . लेकिन उनकी याद जब छ महीने बाद आती है तो यादों का जो सिलसिला शुरू होता है वह रुक नहीं सकता. यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि जो लोग उनसे मिले हैं वे तो बहुत भाग्यशाली हैं लेकिन जो लोग उनके भाई बहनों के दोस्त हैं वह भी बहुत भाग्यशाली हैं . क्योंकि वे सभी बहुत ही अच्छे दास्तानगो हैं . मैं भाई मंसूर से ब मुश्किल सात आठ बार मिला हूँ , वह भी १९८२ के बाद . लेकिन उनके भाई बहनों ने मुझे इतनी कहानियाँ बता रखी हैं कि जब एक बार मैंने उनसे दिल्ली के इण्डिया गेट से खान मार्केट तक की उनकी कुछ कारगुजारियों का ज़िक्र किया तो उन्हें लगा कि शायद मैं भी उस जमात में शामिल था जो उन दिनों उनके मुरीद थे. मैंने उनसे बताया कि ऐसा नहीं था, मुझे उनके घर वालों ने सारी बातें कहानी की शक्ल में बतायी थी.उनकी एक छोटी बहन तो बहुत बाद तक मानती रहीं कि जेम्स बांड फिल्मों का पहला हीरो sean connery भाई मंसूर की नक़ल किया करता था .
दिल्ली और कराची में बाएं बाजू की राजनीतिक सोच को इज्ज़त दिलाने में भाई मंसूर का बहुत बड़ा योगदान है . उन्होंने बाएं बाजू की राजनीति करने वालों को पाकिस्तान के खूंखार जनरल जिया उल हक से पंगा लेने की तमीज सिखाई थी. दिल्ली में उनके शहर की रहने वाली गायिका, इक़बाल बानों भी पाकिस्तान में जाकर बस गयी थीं उन्होंने फैज़ की नज्मों की मदद से जिया को चुनौती दे रही जमातों को ताकत दी थी . जिया के दौर में भाई मंसूर जवान थे और पूरी दुनिया में उसके खिलाफ माहौल बनाने में अपना योगदान किया था लेकिन चले गए और अब वे कभी नहीं आयेगें .नवम्बर में उनके घर में जन्मदिन मनाने का सिलसिला शुरू होता था और लगभग पूरे महीने चलता रहता था . इस साल भी उनका जन्मदिन मनाया जाये़या लेकिन वे नहीं होगें .
भाई मंसूर को विदा हुए धीरे धीरे छः महीने हो गए . इतने महीनों में कई बार उनका जिक्र हुआ लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि भाई मंसूर को जाना चाहिए था . बताते हैं कि भाई मंसूर आख़िरी वक़्त तक अपनी आदत से बाज़ नहीं आये थे . वे अपने चाहने वालों को खुश रखने के लिए कुछ भी कर सकते थे. यहाँ तक कि झूठ भी बोल सकते थे. मैं ऐसे दसियों लोगों को जानता हूँ जो इस बात की गवाही दे देगें कि भाई मंसूर ने उनकी खुशी के लिए झूठ बोला था . जिस आदमी में कभी किसी फायदे के लिए झूठ बोला ही न हो उसके लिए यह बहुत बड़ी बात है .लेकिन कभी कोई उनके झूठ को पकड़ नहीं पाया . अपने भाई सुहेल हाशमी के लिए ही उन्होंने सुहेल के टीचर से झूठ बोला था लेकिन टीचर मियाँ को पता नहीं चला. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो आजकल ५५ से ६० साल की उम्र हासिल कर चुके हैं और माशा अल्ला बड़े दानिश्वर हैं या कम से कम दानिश्वरी की एक्टिंग तो करते ही हैं और अपने बचपन में भाई मंसूर के चेलों में शामिल थे . इन लोगों ने अपनी उम्र के खासे पड़ाव पार कर लेने के बाद तक नहीं माना था कि जवाहर लाल नेहरू भी पाखाने जाते होगें. यह इल्हाम इन लोगों को इसलिए हुआ था कि भाई मंसूर ने कभी मजाक में इनको बता दिया था. यह भारत के दानिश्वरों की वही बिरादरी है जो मानने लगी थी कि बहुत जल्द इंक़लाब आने वाला है . भाई मंसूर ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय में नाम लिखाया तो स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य बने और आस पास के लोगों को पक्का यक़ीन हो गया कि बस अब इंक़लाब आने में बहुत कम अरसा रह गया है . यह अलग बात है कि भाई मंसूर को ऐसा कोई मुगालता नहीं था . भाई मंसूर ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया . अपनी बचपन की दोस्त और अपनी रिश्ते की चचेरी बहन से जब वे शादी करने कराची गए तो किस को उम्मीद थी कि दोनों मुल्कों के बीच लड़ाई शुरू हो जायेगी . लेकिन लड़ाई शुरू हुई और वे वापस नहीं आ सके . लेकिन दिल्ली में उनके चाहने वालों का आलम यह था कि वे भाई मंसूर का अभी तक इंतज़ार कर रहे हैं . कम से कम २४ मई तक तो कर ही रहे थे कि वे ज़रूर वापस आयेगें . लेकिन वे नहीं आये. बताते हैं कि उन्होंने अपनी बेटी को भी वादा किया था कि फिर मुलाक़ात होगी लेकिन उसने उनकी आख़री बात पर विश्वास नहीं किया और कहा
जाते हुए कहते हो ,क़यामत को मिलेगें,
क्या खूब , क़यामत का है गोया कोई दिन और
बहरहाल यह क़यामत मुसीबत बन कर आई और भारत- पाकिस्तान में मंसूर सईद के चाहने वालों के एक बहुत बड़े वर्ग को मायूस कर गयी. . अब वे इस दुनिया में नहीं हैं. दिल्ली में जब भाई मंसूर को याद करने के लिए लोग इकठ्ठा हुए तो सुहेल हाशमी ने एक बहुत ही दिलचस्प बात कही थी . उन्होंने कहा कि मंसूर सईद के लिए शोकसभा का आयोजन तो किया ही नहीं जा सकता . लेकिन उनकी याद जब छ महीने बाद आती है तो यादों का जो सिलसिला शुरू होता है वह रुक नहीं सकता. यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि जो लोग उनसे मिले हैं वे तो बहुत भाग्यशाली हैं लेकिन जो लोग उनके भाई बहनों के दोस्त हैं वह भी बहुत भाग्यशाली हैं . क्योंकि वे सभी बहुत ही अच्छे दास्तानगो हैं . मैं भाई मंसूर से ब मुश्किल सात आठ बार मिला हूँ , वह भी १९८२ के बाद . लेकिन उनके भाई बहनों ने मुझे इतनी कहानियाँ बता रखी हैं कि जब एक बार मैंने उनसे दिल्ली के इण्डिया गेट से खान मार्केट तक की उनकी कुछ कारगुजारियों का ज़िक्र किया तो उन्हें लगा कि शायद मैं भी उस जमात में शामिल था जो उन दिनों उनके मुरीद थे. मैंने उनसे बताया कि ऐसा नहीं था, मुझे उनके घर वालों ने सारी बातें कहानी की शक्ल में बतायी थी.उनकी एक छोटी बहन तो बहुत बाद तक मानती रहीं कि जेम्स बांड फिल्मों का पहला हीरो sean connery भाई मंसूर की नक़ल किया करता था .
दिल्ली और कराची में बाएं बाजू की राजनीतिक सोच को इज्ज़त दिलाने में भाई मंसूर का बहुत बड़ा योगदान है . उन्होंने बाएं बाजू की राजनीति करने वालों को पाकिस्तान के खूंखार जनरल जिया उल हक से पंगा लेने की तमीज सिखाई थी. दिल्ली में उनके शहर की रहने वाली गायिका, इक़बाल बानों भी पाकिस्तान में जाकर बस गयी थीं उन्होंने फैज़ की नज्मों की मदद से जिया को चुनौती दे रही जमातों को ताकत दी थी . जिया के दौर में भाई मंसूर जवान थे और पूरी दुनिया में उसके खिलाफ माहौल बनाने में अपना योगदान किया था लेकिन चले गए और अब वे कभी नहीं आयेगें .नवम्बर में उनके घर में जन्मदिन मनाने का सिलसिला शुरू होता था और लगभग पूरे महीने चलता रहता था . इस साल भी उनका जन्मदिन मनाया जाये़या लेकिन वे नहीं होगें .
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Monday, October 18, 2010
जांच का खेल शुरू ,क्या दिल्ली के मालपुआ जीवियों का कुछ बिगड़ेगा
शेष नारायण सिंह
कामनवेल्थ खेलों के समापन के अगले दिन ही खेलों की तैयारियों में हुई हेराफेरी की जांच का आदेश देकर केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर संभावित राजनीतिक पैंतरेबाजी पर लगाम लगा दिया है लेकिन इस जांच की गंभीरता पर सवाल किये जाने लगे हैं . दिल्ली में सत्ता के गलियारों में सक्रिय ज़्यादातर लोग इस खेल में शामिल थे. पूना वाले बुड्ढे नौजवान ने मामला इस तरह से डिजाइन किया था कि दिल्ली के सभी अमीर उमरा ७० हज़ार करोड़ रूपये की लूट में थोडा बहुत हिस्सा पा जाएँ . दिल्ली की काकटेल सर्किट में पिछले ३० वर्षों से सक्रिय इस राजनेता के लिए यह कोई असंभव बात नहीं थी. देश के कोने कोने से आये और दिल्ली में धंधा करने वाले सत्ता के ब्रोकरों के एक बड़े वर्ग के आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित , सुरेश कलमाडी को नुकसान पंहुचा पाना आसान नहीं माना जाता . पिछले एक वर्ष में देखा गया है कि दिल्ली में जिसके कंधे पर भी सुरेश कलमाडी ने हाथ रख दिया ,वह करोडपति हो गया. ऐसी स्थिति में यह मुश्किल लगता है कि इस लूट के लिए उनको ज़िम्मेदार ठहराया जा सकेगा . दिल्ली में सक्रिय सभी पार्टियों के सत्ता के दलालों के रिश्तेदारों को कोई न कोई ठेका दे चुके कलमाडी के चेहरे पर जो प्रसन्नता नज़र आ रही है ,उसे देख कर तो लगता है कि वे आश्वस्त हैं कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा. जिन लोगों ने इसी दिल्ली में जैन हवाला काण्ड की जांच होते देखी है , उनका कहना है कि मौजूदा जांच का भी वही हश्र होने वाला है. जैन हवाला काण्ड भी राजनीतिक मिलीभगत और भ्रष्टाचार का अजीबोगरीब नमूना था . उसमें लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, अरुण नेहरू ,आरिफ मुहम्मद खां , सतीश शर्मा आदि का नाम था . कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा उन सभी पार्टियों के एकाध नेता थे जो पार्टियां दिल्ली में सक्रिय हैं . जब स्व मधु लिमये और राम बहादुर राय ने पोल खोली तो मीडिया में बहुत हल्ला गुल्ला हुआ. जांच की मांग शुरू हुई . निजी न्यूज़ चैनलों के शुरुआती दिन थे ,लिहाजा बात सरकार के घेरे से बाहर आई. बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से जांच की मांग की गयी और जनाब, जांच के आदेश दे दिए गए .उसके बाद किसी को कुछ पता नहीं चला कि हुआ क्या . लाल कृष्ण आडवाणी ने एक बार लोक सभा का चुनाव यह कहकर नहीं लड़ा कि जब तक उनका नाम जैन हवाला काण्ड के कलंक से नहीं मुक्त हो जाता ,वे चुनाव नहीं लड़ेगें. बाकी तो कहीं कुछ नहीं बदला . धीरे धीरे मीडिया वालों की भी हिम्मत छूट गयी और जांच का क्या नतीजा हुआ, यह पता लगा सकना नामुमकिन नहीं हो, लेकिन मुश्किल ज़रूर है . दिल्ली के मिजाज़ क समझने वाले कुछ खांटी शक्की किस्म के मित्रों ने बताया कि जांच का आदेश तुरंत देकर कांग्रेस मारल हाई ग्राउंड लेने में कामयाब हो गयी है और विपक्ष को भी इस विषय पर हल्ला मचाने से मुक्ति मिल गयी है . अब सभी लोग आराम से कह सकते हैं कि जांच चालू आहे ,सब नतीजा आएगा तो सच्च्चाई का पता चलेगा. उसके बाद ही अगली कार्रवाई की बात की जायेगी. जिन्हें मालूम है वे जानते हैं कि भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक की जांच के बाद कोई भी आपराधिक मुक़दमा नहीं चल सकता . उसकी जांच के आधार पर आगे की कार्रवाई डिजाइन की जा सकती है बस. यानी किसी आपराधिक जांच एजेंसी को शामिल करना पड़ेगा जिसके पास पुलिस के पावर हों .सी वी सी वालों को भी जांच जांच खेलने का मौक़ा मिल रहा है , उनकी जांच के बाद भी आपराधिक कार्रवाई के लिए सी बी आई जैसी किसी ऐसी एजेंसी को लाना पड़ेगा जो आपराधिक जांच करके मुक़दमा कायम कर सके. . सी बी आई के पास जांच के मामलों का बहुत बड़ा ज़खीरा जमा है . ज़ाहिर हैं कि वह बहुत जल्दी में नहीं रहेगी. वैसे भी विपक्षी पार्टियां सी बी आई के राजनीतिक इस्तेमाल की बात करती रहती हैं . इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कामनवेल्थ खेलों में भी जांच का वही हश्र होगा जो जैन हवाला काण्ड का हुआ था. इसलिए इस जाँच को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जांच की मांग को लेकर संभावित शोरगुल को बचाकर तुरंत जांच का आदेश कर दिया जाय और वक़्त के साथ साथ जब लोग धीरे धीरे भूलना शुरू कर दें तो एक दस हज़ार पृष्ठों की सरकारी भाषा से लैस रिपोर्ट पेश कर दी जाय जिसका कोई मतलब न हो . इस प्रकार दिल्ली में बसने वाले मालपुआजीवियों की बड़ी जमात को खिसियाना भी न पड़े और जांच जांच का खेल भी पूरा हो जाय.
कामनवेल्थ खेलों के समापन के अगले दिन ही खेलों की तैयारियों में हुई हेराफेरी की जांच का आदेश देकर केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर संभावित राजनीतिक पैंतरेबाजी पर लगाम लगा दिया है लेकिन इस जांच की गंभीरता पर सवाल किये जाने लगे हैं . दिल्ली में सत्ता के गलियारों में सक्रिय ज़्यादातर लोग इस खेल में शामिल थे. पूना वाले बुड्ढे नौजवान ने मामला इस तरह से डिजाइन किया था कि दिल्ली के सभी अमीर उमरा ७० हज़ार करोड़ रूपये की लूट में थोडा बहुत हिस्सा पा जाएँ . दिल्ली की काकटेल सर्किट में पिछले ३० वर्षों से सक्रिय इस राजनेता के लिए यह कोई असंभव बात नहीं थी. देश के कोने कोने से आये और दिल्ली में धंधा करने वाले सत्ता के ब्रोकरों के एक बड़े वर्ग के आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित , सुरेश कलमाडी को नुकसान पंहुचा पाना आसान नहीं माना जाता . पिछले एक वर्ष में देखा गया है कि दिल्ली में जिसके कंधे पर भी सुरेश कलमाडी ने हाथ रख दिया ,वह करोडपति हो गया. ऐसी स्थिति में यह मुश्किल लगता है कि इस लूट के लिए उनको ज़िम्मेदार ठहराया जा सकेगा . दिल्ली में सक्रिय सभी पार्टियों के सत्ता के दलालों के रिश्तेदारों को कोई न कोई ठेका दे चुके कलमाडी के चेहरे पर जो प्रसन्नता नज़र आ रही है ,उसे देख कर तो लगता है कि वे आश्वस्त हैं कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा. जिन लोगों ने इसी दिल्ली में जैन हवाला काण्ड की जांच होते देखी है , उनका कहना है कि मौजूदा जांच का भी वही हश्र होने वाला है. जैन हवाला काण्ड भी राजनीतिक मिलीभगत और भ्रष्टाचार का अजीबोगरीब नमूना था . उसमें लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, अरुण नेहरू ,आरिफ मुहम्मद खां , सतीश शर्मा आदि का नाम था . कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा उन सभी पार्टियों के एकाध नेता थे जो पार्टियां दिल्ली में सक्रिय हैं . जब स्व मधु लिमये और राम बहादुर राय ने पोल खोली तो मीडिया में बहुत हल्ला गुल्ला हुआ. जांच की मांग शुरू हुई . निजी न्यूज़ चैनलों के शुरुआती दिन थे ,लिहाजा बात सरकार के घेरे से बाहर आई. बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से जांच की मांग की गयी और जनाब, जांच के आदेश दे दिए गए .उसके बाद किसी को कुछ पता नहीं चला कि हुआ क्या . लाल कृष्ण आडवाणी ने एक बार लोक सभा का चुनाव यह कहकर नहीं लड़ा कि जब तक उनका नाम जैन हवाला काण्ड के कलंक से नहीं मुक्त हो जाता ,वे चुनाव नहीं लड़ेगें. बाकी तो कहीं कुछ नहीं बदला . धीरे धीरे मीडिया वालों की भी हिम्मत छूट गयी और जांच का क्या नतीजा हुआ, यह पता लगा सकना नामुमकिन नहीं हो, लेकिन मुश्किल ज़रूर है . दिल्ली के मिजाज़ क समझने वाले कुछ खांटी शक्की किस्म के मित्रों ने बताया कि जांच का आदेश तुरंत देकर कांग्रेस मारल हाई ग्राउंड लेने में कामयाब हो गयी है और विपक्ष को भी इस विषय पर हल्ला मचाने से मुक्ति मिल गयी है . अब सभी लोग आराम से कह सकते हैं कि जांच चालू आहे ,सब नतीजा आएगा तो सच्च्चाई का पता चलेगा. उसके बाद ही अगली कार्रवाई की बात की जायेगी. जिन्हें मालूम है वे जानते हैं कि भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक की जांच के बाद कोई भी आपराधिक मुक़दमा नहीं चल सकता . उसकी जांच के आधार पर आगे की कार्रवाई डिजाइन की जा सकती है बस. यानी किसी आपराधिक जांच एजेंसी को शामिल करना पड़ेगा जिसके पास पुलिस के पावर हों .सी वी सी वालों को भी जांच जांच खेलने का मौक़ा मिल रहा है , उनकी जांच के बाद भी आपराधिक कार्रवाई के लिए सी बी आई जैसी किसी ऐसी एजेंसी को लाना पड़ेगा जो आपराधिक जांच करके मुक़दमा कायम कर सके. . सी बी आई के पास जांच के मामलों का बहुत बड़ा ज़खीरा जमा है . ज़ाहिर हैं कि वह बहुत जल्दी में नहीं रहेगी. वैसे भी विपक्षी पार्टियां सी बी आई के राजनीतिक इस्तेमाल की बात करती रहती हैं . इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कामनवेल्थ खेलों में भी जांच का वही हश्र होगा जो जैन हवाला काण्ड का हुआ था. इसलिए इस जाँच को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जांच की मांग को लेकर संभावित शोरगुल को बचाकर तुरंत जांच का आदेश कर दिया जाय और वक़्त के साथ साथ जब लोग धीरे धीरे भूलना शुरू कर दें तो एक दस हज़ार पृष्ठों की सरकारी भाषा से लैस रिपोर्ट पेश कर दी जाय जिसका कोई मतलब न हो . इस प्रकार दिल्ली में बसने वाले मालपुआजीवियों की बड़ी जमात को खिसियाना भी न पड़े और जांच जांच का खेल भी पूरा हो जाय.
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कामनवेल्थ खेल,
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शेष नारायण सिंह
Saturday, October 16, 2010
बिहार की चुनावी राजनीति में परिवर्तन की दस्तक
शेष नारायण सिंह
बिहार चुनाव में एक और आयाम जुड़ गया है . बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने बुधवार को अपना पहला चुनावी दौरा करके यह साबित कर दिया है कि वे बिहार को अपनी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं में बहुत ऊपर रख कर चल रही हैं . इसके बाद भी मायावती बिहार में चुनाव प्रचार करने जायेगीं और हर दौर के पहले कुछ चुनिन्दा विधानसभा क्षेत्रों में लोगों से वोट मागेगीं. पिछले दिनों बिहार में हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी को एक सीट मिली थी . ज़ाहिर है कि राज्य में उनकी विचारधारा की स्वीकार्यता है. उनकी कोशिश है कि इस राजनीतिक स्थिति को चुनावी सफलता की कसौटी पर कसा जाय. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक साख बिहार के मतदाताओं के एक वर्ग में सौ फीसदी है . उत्तर प्रदेश में इस प्रयोग के राजनीतिक नतीजे सब के सामने हैं . इसलिए बिहार में मायावती के राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से बहुत सारे सपनों के धूल में मिल जाने की आशंका है . उनके दखल का फौरी नुकसान तो रामविलास पासवान को होगा क्योंकि रामविलास पासवान हालांकि अपने को दलित नेता कहते हैं लेकिन मायावती के टक्कर में उनकी वोट बटोरने की योग्यता का मीलों तक कहीं पता नहीं चलेगा . जिन वोटों के बल पर रामविलास पासवान ने बिहार में अपनी राजनीतिक हैसियत बनायी थी , उन वोटों में अब उनकी साख नहीं है . बिहार पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राज्य के दलितों में उनके विकल्प की तलाश गंभीरता से शुरू हो गयी है . बिहार के मौजूदा राजनीतिक क्षितिज पर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो शोषित पीड़ित वर्गों में विश्वास जगा सके .शायद इसीलिये गरीब आदमियों का एक वर्ग कांग्रेस की तरफ झुकता नज़र आ रहा था लेकिन मायावाती के प्रवेश के बाद सब कुछ बदल सकता है. मुसलमानों में भी नीतीश कुमार की बी जे पी से मुहब्बत को लेकर बहुत ऊहापोह के हालात हैं . बी जे पी के खूंखार छवि के नेताओं , नरेंद्र मोदी और वरुण गाँधी के खिलाफ खड़े होने का अभिनय करके नीतीश कुमार ने मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की है लेकिन वह प्रयास सफल होता नज़र नहीं आ रहा है . अब तक मुसलमान का झुकाव कांग्रेस की तरफ था लेकिन ३० सितम्बर को बाबरी मस्जिद के टाइटिल के फैसले के बाद सब कुछ बदल रहा है . हालांकि फैसला हाई कोर्ट का है लेकिन आम मुसलमान को शक़ हो गया है कि इसमें कांग्रेस का हाथ है . इसलिये कांग्रेस की तरफ उसके झुकाव में बहुत पक्के तौर पर कमी आई है . अब वह बी जे पी और उसके दोस्तों को हराने के लिए वैकल्पिक राजनीतिक समीकरण की तलाश कर रहा है . ऐसी हालत में उसे मायावती सूट करती हैं क्योंकि वरुण गांधी छाप खूंखार आतंकी राजनीति को मायावाती ने काबू करके दिखाया है . मुसलमानों के हाथ काट लेने वाले उनके भाषण के बाद मायावती ने उनको जेल में ठूंस दिया था और तब छोड़ा था जब गुप्त तरीके से जुगाड़ की राजनीति खेली गयी थी और वरुण गांधी को हड़का दिया था कि अगर दुबारा गैरजिम्मेदार भाषण करोगे तो रासुका लगा देगें. उसके बाद वरुण गांधी को सारी शेखी भूल गयी थी. ज़ाहिर है नीतीश के ज़बानी जमा खर्च की तुलना में वरुण गाँधी टाइप खूंखार भाषणबाज़ लोगों को काबू में करने का मायावती का तरीका लोगों को ज्यादा पसंद आता है . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि नीतीश के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रहे मुस्लिम राजनीति के नेताओं को कांग्रेस और नीतीश की तुलना में मायावती की राजनीति ज्यादा पसंद आयेगी. ऐसी स्थिति में बिहार में मायावती की राजनीतिक इंट्री बहुत ही दूरगामी राजनीतिक परिणामों को जन्म दे सकती है . बिहार की मौजूदा राजनीतिक पार्टियों से ऊब चुका दलित-पीड़ित तबका अगर मायावाती के रूप में अपने मसीहा को देखना शुरू कर देगा तो बिहार के राजनीतिक समीकरणों में बुनियादी बद्लाव आ जाये़या .
बिहार में मायावती के प्रवेश के बाद बहुत सारे राजनेताओं के भविष्य की इबारत भी बदल जायेगी . सबसे ज्यादा असर तो कांग्रेस के महामंत्री, राहुल गांधी की राजनीतिक क्षमता पर पडेगा . उन्होंने बिहार में बहुत सारा समय लगाया है . उनका निशाना नौजवान और मुसलमान हैं . जहां तक नौजवानों का सवाल है ,वे पूरे देश की तरह बिहार में भी जातियों में बँटे हैं . इसलिए वहां वोट की तलाश करना बेमतलब है. मुसलानों के बीच कांग्रेस के प्रति कुछ आकर्षण देखा गया था लेकिन अब मायावती के आ जाने के बाद समीकरण निश्चित रूप से बदल जायेगें. उत्तर प्रदेश में उन्होंने बहुत गंभीर तरीके से मुसलमानों को साथ लेने की राजनीति का सबूत दिया है .उनकी पार्टी ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया था .लोकसभा और विधानसभा में बड़ी संख्या में मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुने भी गए हैं. वरुण गांधी के साथ उनकी सरकार ने जैसा व्यवहार किया था, मुस्लिम इलाकों में उसकी बहुत इज्ज़त है . ज़ाहिर है कि मायावाती बिहार में मुसलमानों को अपनी राजनीति की तरफ खींच सकने की क्षमता रखती हैं . उनके साथ दलित वोट अपने आप खिंचे चले आते हैं . मुस्लिम-यादव वोट की राजनीति करके लालू प्रसाद यादव ने बिहार में पंद्रह साल तक राज किया था . अगर दलित और मुसलमान मिल गए तो मायावती बिहार की सरकार में प्रभावी दखल रख सकती हैं. उनकी उम्मीदवारों की सूची देखने से लगता है कि उन्होंने जीत सकने लायक ही लोगों को टिकट दिया है . अगर उम्मीदवार अपनी जाति का वोट लेने में कामयाब हो गया तो मायावती के करिश्मा की वजह से मिलने वाला दलित और मुस्लिम वोट उसे विधानसभा तक पंहुचा देगा . अभी यह सारी बातें राजनीतिक विश्लेषण के स्तर पर हैं लेकिन आने वाले वक़्त में उम्मीद की जानी चाहिये कि बिहार की चुनावी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन की दस्तक पड़ रही है
बिहार चुनाव में एक और आयाम जुड़ गया है . बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने बुधवार को अपना पहला चुनावी दौरा करके यह साबित कर दिया है कि वे बिहार को अपनी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं में बहुत ऊपर रख कर चल रही हैं . इसके बाद भी मायावती बिहार में चुनाव प्रचार करने जायेगीं और हर दौर के पहले कुछ चुनिन्दा विधानसभा क्षेत्रों में लोगों से वोट मागेगीं. पिछले दिनों बिहार में हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी को एक सीट मिली थी . ज़ाहिर है कि राज्य में उनकी विचारधारा की स्वीकार्यता है. उनकी कोशिश है कि इस राजनीतिक स्थिति को चुनावी सफलता की कसौटी पर कसा जाय. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक साख बिहार के मतदाताओं के एक वर्ग में सौ फीसदी है . उत्तर प्रदेश में इस प्रयोग के राजनीतिक नतीजे सब के सामने हैं . इसलिए बिहार में मायावती के राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से बहुत सारे सपनों के धूल में मिल जाने की आशंका है . उनके दखल का फौरी नुकसान तो रामविलास पासवान को होगा क्योंकि रामविलास पासवान हालांकि अपने को दलित नेता कहते हैं लेकिन मायावती के टक्कर में उनकी वोट बटोरने की योग्यता का मीलों तक कहीं पता नहीं चलेगा . जिन वोटों के बल पर रामविलास पासवान ने बिहार में अपनी राजनीतिक हैसियत बनायी थी , उन वोटों में अब उनकी साख नहीं है . बिहार पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राज्य के दलितों में उनके विकल्प की तलाश गंभीरता से शुरू हो गयी है . बिहार के मौजूदा राजनीतिक क्षितिज पर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो शोषित पीड़ित वर्गों में विश्वास जगा सके .शायद इसीलिये गरीब आदमियों का एक वर्ग कांग्रेस की तरफ झुकता नज़र आ रहा था लेकिन मायावाती के प्रवेश के बाद सब कुछ बदल सकता है. मुसलमानों में भी नीतीश कुमार की बी जे पी से मुहब्बत को लेकर बहुत ऊहापोह के हालात हैं . बी जे पी के खूंखार छवि के नेताओं , नरेंद्र मोदी और वरुण गाँधी के खिलाफ खड़े होने का अभिनय करके नीतीश कुमार ने मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की है लेकिन वह प्रयास सफल होता नज़र नहीं आ रहा है . अब तक मुसलमान का झुकाव कांग्रेस की तरफ था लेकिन ३० सितम्बर को बाबरी मस्जिद के टाइटिल के फैसले के बाद सब कुछ बदल रहा है . हालांकि फैसला हाई कोर्ट का है लेकिन आम मुसलमान को शक़ हो गया है कि इसमें कांग्रेस का हाथ है . इसलिये कांग्रेस की तरफ उसके झुकाव में बहुत पक्के तौर पर कमी आई है . अब वह बी जे पी और उसके दोस्तों को हराने के लिए वैकल्पिक राजनीतिक समीकरण की तलाश कर रहा है . ऐसी हालत में उसे मायावती सूट करती हैं क्योंकि वरुण गांधी छाप खूंखार आतंकी राजनीति को मायावाती ने काबू करके दिखाया है . मुसलमानों के हाथ काट लेने वाले उनके भाषण के बाद मायावती ने उनको जेल में ठूंस दिया था और तब छोड़ा था जब गुप्त तरीके से जुगाड़ की राजनीति खेली गयी थी और वरुण गांधी को हड़का दिया था कि अगर दुबारा गैरजिम्मेदार भाषण करोगे तो रासुका लगा देगें. उसके बाद वरुण गांधी को सारी शेखी भूल गयी थी. ज़ाहिर है नीतीश के ज़बानी जमा खर्च की तुलना में वरुण गाँधी टाइप खूंखार भाषणबाज़ लोगों को काबू में करने का मायावती का तरीका लोगों को ज्यादा पसंद आता है . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि नीतीश के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रहे मुस्लिम राजनीति के नेताओं को कांग्रेस और नीतीश की तुलना में मायावती की राजनीति ज्यादा पसंद आयेगी. ऐसी स्थिति में बिहार में मायावती की राजनीतिक इंट्री बहुत ही दूरगामी राजनीतिक परिणामों को जन्म दे सकती है . बिहार की मौजूदा राजनीतिक पार्टियों से ऊब चुका दलित-पीड़ित तबका अगर मायावाती के रूप में अपने मसीहा को देखना शुरू कर देगा तो बिहार के राजनीतिक समीकरणों में बुनियादी बद्लाव आ जाये़या .
बिहार में मायावती के प्रवेश के बाद बहुत सारे राजनेताओं के भविष्य की इबारत भी बदल जायेगी . सबसे ज्यादा असर तो कांग्रेस के महामंत्री, राहुल गांधी की राजनीतिक क्षमता पर पडेगा . उन्होंने बिहार में बहुत सारा समय लगाया है . उनका निशाना नौजवान और मुसलमान हैं . जहां तक नौजवानों का सवाल है ,वे पूरे देश की तरह बिहार में भी जातियों में बँटे हैं . इसलिए वहां वोट की तलाश करना बेमतलब है. मुसलानों के बीच कांग्रेस के प्रति कुछ आकर्षण देखा गया था लेकिन अब मायावती के आ जाने के बाद समीकरण निश्चित रूप से बदल जायेगें. उत्तर प्रदेश में उन्होंने बहुत गंभीर तरीके से मुसलमानों को साथ लेने की राजनीति का सबूत दिया है .उनकी पार्टी ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया था .लोकसभा और विधानसभा में बड़ी संख्या में मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुने भी गए हैं. वरुण गांधी के साथ उनकी सरकार ने जैसा व्यवहार किया था, मुस्लिम इलाकों में उसकी बहुत इज्ज़त है . ज़ाहिर है कि मायावाती बिहार में मुसलमानों को अपनी राजनीति की तरफ खींच सकने की क्षमता रखती हैं . उनके साथ दलित वोट अपने आप खिंचे चले आते हैं . मुस्लिम-यादव वोट की राजनीति करके लालू प्रसाद यादव ने बिहार में पंद्रह साल तक राज किया था . अगर दलित और मुसलमान मिल गए तो मायावती बिहार की सरकार में प्रभावी दखल रख सकती हैं. उनकी उम्मीदवारों की सूची देखने से लगता है कि उन्होंने जीत सकने लायक ही लोगों को टिकट दिया है . अगर उम्मीदवार अपनी जाति का वोट लेने में कामयाब हो गया तो मायावती के करिश्मा की वजह से मिलने वाला दलित और मुस्लिम वोट उसे विधानसभा तक पंहुचा देगा . अभी यह सारी बातें राजनीतिक विश्लेषण के स्तर पर हैं लेकिन आने वाले वक़्त में उम्मीद की जानी चाहिये कि बिहार की चुनावी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन की दस्तक पड़ रही है
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शेष नारायण सिंह
Thursday, October 14, 2010
कर्नाटक में खेल अभी ख़त्म नहीं हुआ है
शेष नारायण सिंह
कर्नाटक में बी जे पी का संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ है .ऐसा लगता है कि पार्टी के बागी विधायकों ने मुख्यमंत्री को हटाने के लिए लंबा दांव खेल दिया है .पता चला है कि जिन बारह विधायकों ने पहले बगावत का नारा बुलंद किया था , वे बागी विधायकों की पहली किस्त थे.निर्दलीय विधायक शिवराज तंगदागी ने दावा किया है कि इस बार उनके लोग बिना हल्ला गुल्ला किये विधान सभा के अन्दर ही खेल कर जायेगें . यह भी संभव है कि विधान सभा में शक्ति परीक्षण के ऐन पहले बारह विधायक और बगावत का नारा लगा दें . नामी अखबार डेकन हेराल्ड को शिवराज ने बताया कि हालांकि बी जे पी की ओर से सन्देश आ रहे हैं कि अगर बागी विधायक साथ आने को तैयार हो जाएँ तो उनकी सदस्यता को बहाल किया जा सकता है लेकिन सारे लोग एकजुट हैं और उनकी कोशिश है कि बी जे पी विधायकों की कुल संख्या के एक तिहाई से ज्यादा लोग पार्टी से अलग होकर अपने आपको ही असली बी जे पी घोषित कर देगें . इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा रहा है कि बी जे पी से अलग होने वाले विधायक राज्य में एक गैर कांग्रेस सरकार बनाने में मदद करेगें और एच डी कुमारस्वामी की अगुवाई में एक गैर-कांग्रेस ,गैर-बीजेपी सरकार बन जायेगी. उन्होंने कहा कि बी जे पी के राष्ट्रीय नेतृत्व और राज्य के नेताओं को अंदाज़ ही नहीं है कि ज़मीनी सच्चाई क्या है . वे लोग यह मान कर चल रहे हैं कांग्रेस के तिकड़म की वजह से येदुरप्पा के एसर्कार की विदाई हो रही है . जबकि हकीकत यह है कि राज्य की जनता बी जे पी की मुआजूदा सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामों से ऊब चुकी है और वह इसको हटाकर कोई भी सरकार बनवाने की सोच रही है. विधायकों की बगावत का असली कारण यह है कि वे अब अपनी पार्टी की सरकार के पक्ष में कुछ भी नहीं बोल पा रहे हैं . कांग्रेस का दुर्भाग्य है है कि कर्नाटक में जिस आदमी को राज्यपाल बनाकर भेजा गया है ,वह दिल्ली दरबार के वफादारों की सूची में सबसे ऊपर रहना चाहता है . उसकी कारस्तानी की वजह से ही ऐसा लगने लगा था कि उठा पटक के खेल में कांग्रेस का हाथ है लेकिन अब साफ़ हो गया है कि कांग्रेस ऐसे किसी खेल में शामिल नहीं रहना चाहती क्योंकि एच डी देवेगौडा के बेटे ,एच डी कुमारस्वामी के साथ कांग्रेस का पुराना तजुर्बा बहुत की रद्दी रहा है लिहाजा कांग्रेस ने साफ़ कर दिया है वह कर्नाटक की सत्ता में आने के लिए अभी इंतज़ार करेगी. यह अलग बात है कि कांग्रेस कर्नाटक में बी जे पी को उसकी औकात बताने के लिए किसी का भी इस्तेमाल करने को तैयार है .और फिलहाल एच डी कुमारस्वामी और बी जे पी के बागी विधायक कांग्रेस की मनोकामना पूरी कर रहे हैं .
अब इस बात में किसी को शक़ नहीं है कि कर्नाटक की मौजूदा सरकार पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी है . राज्यपाल ने ऐलानियाँ बताया है कि यह लोग अपराध से पैसा वसूल रहे हैं , खनिज सम्पदा को गैर कानूनी तरीके से लूट रहे हैं , ज़मीनों के धंधे में हेरा फेरी कर रहे हैं और जनता को उसकी किस्मत के सहारे छोड़ दिया गया है . यह सारे सवाल जायज़ हैं और येदुरप्पा को इसका जवाब देना होगा क्योंकि सवाल उठाये हे यूस आदमी ने हैं जिसकी सरकार में येदुरप्पा मुख्य मंत्री के रूप में काम कर रहे हैं . जवाब तो येदुरप्पा के दिल्ली के आकाओं को भी देना होगा क्योंकि दुनिया जानती है कि येदुरप्पा और उनके साथियों की लूट में दिल्ली के बड़े बी जे पी नेता हिस्सा पाते हैं . लेकिन उन लोगों ने दूसरा रास्ता अपनाने का फैसला किया है . बी जे पी के हर बड़े नेता की कोशिश है कि राज्यपाल को ही हटवा दिया जाय क्योंकि वह बड़े पैमाने पर पोल खोलने की कोशिश कर रहा है . राज्यपाल ने अपनी प्रेस कान्फरेन्स में साफ़ कहा कि आधे से ज्यादा बी जे पी मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं . अगर इन मामलों की सही जांच हो जाय तो कर्नाटक के बी जे पी नेता तो फंसेगे ही , दिल्ली के वे नेता भी फंस सकते हैं जिनके यहाँ कर्नाटक के नेताओं ने माल पंहुचाया है . कुल मिलाकर हालात बहुत खराब हैं . लेकिन देश और जनता का दुर्भाग्य यह है कि कहीं भी कोई आवाज़ नेताओं की लूट के खिलाफ नहीं उठती. चारों तरफ लूट का आलम है . यह कहना ठीक नहीं होगा कि बी जे पी वाले ही लूट में शामिल हैं . सच्ची बात यह है कि कांग्रेस ने ही इस देश में लूट की राजनीतिक संस्कृति का आविष्कार किया और उसको बाकायदा चला रही है . इसलिए कर्नाटक में बी जे पी की लूट के हवाले से कांग्रेस को धर्मात्मा मानने की गलती नहीं की जानी चाहिए . इन दोनों पार्टियों से ऊब कर जनता ने जिन क्षेत्रीय पार्टियों को सता थमाई वे भी लूट के मामले में बड़ी पार्टियों से पीछे नहीं हैं . तमिल नाडू , आंध्र प्रदेश , उत्तर प्रदेश , बिहार, आदि राज्यों में दलितों और पिछड़ों की सरकारें आयीं लेकिन राजनीतिक घूसखोरी में कोई कमी नहीं आई . इसलिए आज की हालत में जनता के उठ खड़े होने के अलावा देश की इज्ज़त बचाने का कोई रास्ता नहीं है लेकिन वहां भी गड़बड़ है . सूचना के सारे तन्त्र पर आर एस एस का क़ब्ज़ा है और सही बात जनता तक वे कभी नहीं पंहुचने देगें. ज़ाहिर है कि स्थिति बहुत ही चिंताजनक है और उम्मीद के सिवा आम आदमी के पास कुछ नहीं बचा है .
कर्नाटक में बी जे पी का संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ है .ऐसा लगता है कि पार्टी के बागी विधायकों ने मुख्यमंत्री को हटाने के लिए लंबा दांव खेल दिया है .पता चला है कि जिन बारह विधायकों ने पहले बगावत का नारा बुलंद किया था , वे बागी विधायकों की पहली किस्त थे.निर्दलीय विधायक शिवराज तंगदागी ने दावा किया है कि इस बार उनके लोग बिना हल्ला गुल्ला किये विधान सभा के अन्दर ही खेल कर जायेगें . यह भी संभव है कि विधान सभा में शक्ति परीक्षण के ऐन पहले बारह विधायक और बगावत का नारा लगा दें . नामी अखबार डेकन हेराल्ड को शिवराज ने बताया कि हालांकि बी जे पी की ओर से सन्देश आ रहे हैं कि अगर बागी विधायक साथ आने को तैयार हो जाएँ तो उनकी सदस्यता को बहाल किया जा सकता है लेकिन सारे लोग एकजुट हैं और उनकी कोशिश है कि बी जे पी विधायकों की कुल संख्या के एक तिहाई से ज्यादा लोग पार्टी से अलग होकर अपने आपको ही असली बी जे पी घोषित कर देगें . इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा रहा है कि बी जे पी से अलग होने वाले विधायक राज्य में एक गैर कांग्रेस सरकार बनाने में मदद करेगें और एच डी कुमारस्वामी की अगुवाई में एक गैर-कांग्रेस ,गैर-बीजेपी सरकार बन जायेगी. उन्होंने कहा कि बी जे पी के राष्ट्रीय नेतृत्व और राज्य के नेताओं को अंदाज़ ही नहीं है कि ज़मीनी सच्चाई क्या है . वे लोग यह मान कर चल रहे हैं कांग्रेस के तिकड़म की वजह से येदुरप्पा के एसर्कार की विदाई हो रही है . जबकि हकीकत यह है कि राज्य की जनता बी जे पी की मुआजूदा सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामों से ऊब चुकी है और वह इसको हटाकर कोई भी सरकार बनवाने की सोच रही है. विधायकों की बगावत का असली कारण यह है कि वे अब अपनी पार्टी की सरकार के पक्ष में कुछ भी नहीं बोल पा रहे हैं . कांग्रेस का दुर्भाग्य है है कि कर्नाटक में जिस आदमी को राज्यपाल बनाकर भेजा गया है ,वह दिल्ली दरबार के वफादारों की सूची में सबसे ऊपर रहना चाहता है . उसकी कारस्तानी की वजह से ही ऐसा लगने लगा था कि उठा पटक के खेल में कांग्रेस का हाथ है लेकिन अब साफ़ हो गया है कि कांग्रेस ऐसे किसी खेल में शामिल नहीं रहना चाहती क्योंकि एच डी देवेगौडा के बेटे ,एच डी कुमारस्वामी के साथ कांग्रेस का पुराना तजुर्बा बहुत की रद्दी रहा है लिहाजा कांग्रेस ने साफ़ कर दिया है वह कर्नाटक की सत्ता में आने के लिए अभी इंतज़ार करेगी. यह अलग बात है कि कांग्रेस कर्नाटक में बी जे पी को उसकी औकात बताने के लिए किसी का भी इस्तेमाल करने को तैयार है .और फिलहाल एच डी कुमारस्वामी और बी जे पी के बागी विधायक कांग्रेस की मनोकामना पूरी कर रहे हैं .
अब इस बात में किसी को शक़ नहीं है कि कर्नाटक की मौजूदा सरकार पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी है . राज्यपाल ने ऐलानियाँ बताया है कि यह लोग अपराध से पैसा वसूल रहे हैं , खनिज सम्पदा को गैर कानूनी तरीके से लूट रहे हैं , ज़मीनों के धंधे में हेरा फेरी कर रहे हैं और जनता को उसकी किस्मत के सहारे छोड़ दिया गया है . यह सारे सवाल जायज़ हैं और येदुरप्पा को इसका जवाब देना होगा क्योंकि सवाल उठाये हे यूस आदमी ने हैं जिसकी सरकार में येदुरप्पा मुख्य मंत्री के रूप में काम कर रहे हैं . जवाब तो येदुरप्पा के दिल्ली के आकाओं को भी देना होगा क्योंकि दुनिया जानती है कि येदुरप्पा और उनके साथियों की लूट में दिल्ली के बड़े बी जे पी नेता हिस्सा पाते हैं . लेकिन उन लोगों ने दूसरा रास्ता अपनाने का फैसला किया है . बी जे पी के हर बड़े नेता की कोशिश है कि राज्यपाल को ही हटवा दिया जाय क्योंकि वह बड़े पैमाने पर पोल खोलने की कोशिश कर रहा है . राज्यपाल ने अपनी प्रेस कान्फरेन्स में साफ़ कहा कि आधे से ज्यादा बी जे पी मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं . अगर इन मामलों की सही जांच हो जाय तो कर्नाटक के बी जे पी नेता तो फंसेगे ही , दिल्ली के वे नेता भी फंस सकते हैं जिनके यहाँ कर्नाटक के नेताओं ने माल पंहुचाया है . कुल मिलाकर हालात बहुत खराब हैं . लेकिन देश और जनता का दुर्भाग्य यह है कि कहीं भी कोई आवाज़ नेताओं की लूट के खिलाफ नहीं उठती. चारों तरफ लूट का आलम है . यह कहना ठीक नहीं होगा कि बी जे पी वाले ही लूट में शामिल हैं . सच्ची बात यह है कि कांग्रेस ने ही इस देश में लूट की राजनीतिक संस्कृति का आविष्कार किया और उसको बाकायदा चला रही है . इसलिए कर्नाटक में बी जे पी की लूट के हवाले से कांग्रेस को धर्मात्मा मानने की गलती नहीं की जानी चाहिए . इन दोनों पार्टियों से ऊब कर जनता ने जिन क्षेत्रीय पार्टियों को सता थमाई वे भी लूट के मामले में बड़ी पार्टियों से पीछे नहीं हैं . तमिल नाडू , आंध्र प्रदेश , उत्तर प्रदेश , बिहार, आदि राज्यों में दलितों और पिछड़ों की सरकारें आयीं लेकिन राजनीतिक घूसखोरी में कोई कमी नहीं आई . इसलिए आज की हालत में जनता के उठ खड़े होने के अलावा देश की इज्ज़त बचाने का कोई रास्ता नहीं है लेकिन वहां भी गड़बड़ है . सूचना के सारे तन्त्र पर आर एस एस का क़ब्ज़ा है और सही बात जनता तक वे कभी नहीं पंहुचने देगें. ज़ाहिर है कि स्थिति बहुत ही चिंताजनक है और उम्मीद के सिवा आम आदमी के पास कुछ नहीं बचा है .
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