Thursday, October 21, 2010

कामनवेल्थ की हेराफेरी की जांच में फिल्म 'जाने भी दो यारो 'की झलक

शेष नारायण सिंह

कामनवेल्थ खेलों के भ्रष्टाचार की जांच शुरू हो गयी है . कांग्रेस सरकार और उसके कुछ नेता कामनवेल्थ खेलों के सभी फैसलों के लिए ज़िम्मेदार हैं लेकिन जांच में पहला हमला बी जे पी के एक बड़े नेता के घर और दफ्तर में छापा डालकर किया गया है . इस छापे का एक मकसद तो शायद यह बताना था कि कामनवेल्थ की लूट में बी जे पी के नेता भी शामिल हैं लेकिन इसका एक मतलब और भी हो सकता है कि भाई जब सभी शामिल हैं तो सुरेश कलमाड़ी को ही बलि का बकरा क्यों बनाया जाय . जब सबने लूटा है तो मिलजुल कर मामले को रफा दफा करना ही ठीक रहेगा. यानी कामनवेल्थ खेलों की जांच में भी करीब २७ साल पुरानी फिल्म "जाने भी दो यारो" को एक बार फिर जीवंत किया जायेगा .जहाना तक कांग्रेस का सवाल है उसने अध्यक्ष के गुट के बड़े सिपहसालार को घेर कर यह सन्देश दे दिया है कि अगर जांच की बार बार बात की गयी तो बी जे पी की अंदरूनी कलह की पिच पर ही कामनवेल्थ के भ्रष्टाचार के जांच की क्रिकेट खेली जायेगी. मैं आम तौर पर अपने पुराने लेखों के शब्दों को कापी नहीं करता लेकिन १६ अक्टूबर को लिखी गयी अपनी टिप्पणी के कुछ वाक्यों को आज के लेख में इस्तेमाल करना चाहता हूँ .

मैंने लिखा था " अपने कामनवेल्थ खेलों के समापन के अगले दिन ही खेलों की तैयारियों में हुई हेराफेरी की जांच का आदेश देकर केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर संभावित राजनीतिक पैंतरेबाजी पर लगाम लगा दिया है लेकिन इस जांच की गंभीरता पर सवाल किये जाने लगे हैं . दिल्ली में सत्ता के गलियारों में सक्रिय ज़्यादातर लोग इस खेल में शामिल थे. पूना वाले बुड्ढे नौजवान ने मामला इस तरह से डिजाइन किया था कि दिल्ली के सभी अमीर उमरा ७० हज़ार करोड़ रूपये की लूट में थोडा बहुत हिस्सा पा जाएँ . दिल्ली की काकटेल सर्किट में पिछले ३० वर्षों से सक्रिय इस राजनेता के लिए यह कोई असंभव बात नहीं थी. देश के कोने कोने से आये और दिल्ली में धंधा करने वाले सत्ता के ब्रोकरों के एक बड़े वर्ग के आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित , सुरेश कलमाडी को नुकसान पंहुचा पाना आसान नहीं माना जाता . पिछले एक वर्ष में देखा गया है कि दिल्ली में जिसके कंधे पर भी सुरेश कलमाडी ने हाथ रख दिया ,वह करोडपति हो गया. ऐसी स्थिति में यह मुश्किल लगता है कि इस लूट के लिए उनको ज़िम्मेदार ठहराया जा सकेगा . दिल्ली में सक्रिय सभी पार्टियों के सत्ता के दलालों के रिश्तेदारों को कोई न कोई ठेका दे चुके कलमाडी के चेहरे पर जो प्रसन्नता नज़र आ रही है ,उसे देख कर तो लगता है कि वे आश्वस्त हैं कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा. जिन लोगों ने इसी दिल्ली में जैन हवाला काण्ड की जांच होते देखी है , उनका कहना है कि मौजूदा जांच का भी वही हश्र होने वाला है."

यह मेरी १६ अक्टूबर वाली टिप्पणी है. मुझे भी उम्मीद नहीं थी कि कामनवेल्थ के घोटालों की जांच को इतनी जल्दी राजनीति की बलि बेदी पर कुरबान करने की तैयारियां शुरू हो जायेगीं . लेकिन जांच को जैन हवाला काण्ड बनाने का काम शुरू हो चुका है . जांच के पहले ही दिन बी जे पी के नेता और स्व प्रमोद महाजन के करीबी रहे व्यापारी सुधांशु मित्तल को घेरे में लेकर सरकार ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वह तक़ल्लुफ़ में विश्वास नहीं करती. इस बात में दो राय नहीं है कि खेलों के घोटाले में कांग्रेसी नेताओं के मित्र और रिश्तेदार भी शामिल होंगें . लेकिन सबसे पहले बी जे पी के एक हाई प्रोफाइल नेता को पकड़ कर केंद्र सरकार ने साफ़ कर दिया है कि अगर इस मुद्दे पर राजनीति खेली तो सबसे पहले विपक्षियों के घरों में ही आग लगाई जायेगी. लेकिन बी जे पी को निशाने में लेने की सरकार की तरकीब के शिकार कई और भी हैं . सुधांशु मित्तल बी जे पी की आन्तरिक राजनीति में नितिन गडकरी के करीबी माने जाते हैं . आडवानी गुट के डी-4 वाले नेता गडकरी को ठिकाने लगाना ही चाहते हैं वे सुधांशु मित्तल को गडकरी के विनाश की सीढ़ी बनाना चाहते हैं . गडकरी गुट में इस बात की भी चर्चा है कि डी-4 वालों ने अपने दिल्ली दरबार के संपर्कों का इस्तेमाल करके जांच की मुसीबत को सबसे पहले गडकरी के ख़ास बन्दे दरवाज़े पर पंहुचा दी. घबड़ाकर गडकरी ने विशेष प्रेस कान्फरेन्स बुला दी और प्रधान मंत्री पर ही आरोपों की झड़ी लगा दी . बी जे पी के अक़लमंद तबके को मालूम है कि प्रधानमंत्री के ऊपर व्यक्तिगत रूप से भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगाए जा सकते , कोई फायदा नहीं होगा . कांग्रेस वाले गडकरी को गंभीरता से नहीं लेते . उनके प्रवक्ता मनीष तिवारी ने यह बयान कि खोदा पहाड़ निकला गडकरी ,निश्चित रूप से सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष का अपमान है लेकिन बी जे पी का डी-4 खुश है .

सुधांशु मित्तल के यहाँ जांच की शुरुआत करके सरकार ने बी जे पी के गडकरी गुट को बैकफुट पर लाने में सफलता पायी है लेकिन अभी तो यह शुरुआत है . अभी तो बी जे पी में गडकरी के विरोधी भी फंसेगें क्योंकि उनके बहुत सारे रिश्तेदारों को भी ठेका दिया गया है और हर ठेके में हेराफेरी हुई है . इसका मतलब यह कतई नहीं कि कांग्रेस वाले बहुत ही पवित्र हैं . जांच का दायरा उन तक पंहुचेगा ज़रूर लेकिन केंद्र सरकार के मौजूदा रुख को देख कर लगता है कि सबसे पहले कामनवेल्थ घोटालों के जांच की डुगडुगी बी जे पी के दर पर ही बजेगी. गडकरी गुट के एक मज़बूत नेता के यहाँ शुरुआती छापा डालकर यह सन्देश तो दे ही दिया गया है कि भ्रष्टाचार के जांच की मशाल लिए हुए कांग्रेस दिल्ली में राजनीति करने वाले किसी भी नेता को हड़का सकती है . बी जे पी के नेताओं को जांच के डंडे से धमकाकर कांग्रेसी अपने आप को बचा सकते हैं क्योंकि अगर बी जे पी के नेता डर गए तो भ्रष्टाचार पर से पर्दा नहीं उठ पायेगा . अंत में वही होगा जो जैन हवाला काण्ड में हुआ था . और ठेकेदारी और बे-ईमानी पर आधारित फिल्म " जाने भी दो यारो " को एक बार फिर से दोहराया जाएगा.

Wednesday, October 20, 2010

वंशवादी राजनीति देश के नौजवान को अलग थलग कर देगी

शेष नारायण सिंह

मुंबई में दशहरा के दिन शिव सेना के नेता बाल ठाकरे ने अपनी पार्टी में अपने और अपने बेटे के बाद तीसरी पीढी को भी राजनीति में शामिल कर लिया है और उसे अपने वंश का उत्तराधिकारी बनाने का अघोषित सन्देश जारी कर दिया है . इस तरह से वंशवाद की राजनीति के एक पुराने विरोधी ने धृतराष्ट्र की तरह पुत्र मोह की बेदी पर अपने आपको कुरबान कर दिया है . देश के भविष्य को सबसे बड़ा ख़तरा वंशवादी राजनीति से है . वंशवाद की राजनीति राष्ट्र की मुख्यधारा से नौजवानों के एक बड़े वर्ग को अलग कर सकने की क्षमता रखती है . देश में अपने बच्चों को की अपनी राजनीतिक विरासत थमा देने की राजनीति फिर से सामंती व्यवस्था लागू करने जैसा है . पिछले एक हज़ार साल के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि राजपरिवारों की बातों में देश का आम आदमी नहीं शामिल होता था. राजा महाराजा आपस में लड़ते रहते थे. उनकी लड़ाई में उनके निजी स्वार्थ मुख्य भूमिका निभाते थे. इसलिए आमआदमी को कोई मतलब नहीं रहता था. भारत की एकता का सूत्र उसकी संस्कृति और उसकी धार्मिक परम्पराएं थी. राजनीति पूरी तरह से वंशवाद की भेट चढ़ चुकी होती थी. देश एक रहता था और सामंत लड़ते रहते थे . महात्मा गाँधी ने यह सब बदल दिया . जब वे कांग्रेस में आये तो कांग्रेस एक तरह से अंग्रेजों से छूट मांगने का फोरम मात्र था लेकिन महात्मा गाँधी ने कांग्रेस को जन आकांक्षाओं से जोड़ दिया और १९२० में पूरा देश महात्मा गाँधी के साथ कहदा हो गया. महातम अगंधी ने पूरे देश में यह सन्देश पंहुचा दिया कि आज़ादी के लड़ाई किसी एक राजा ,एक वंश या एक खानदान के हितों के लिए नहीं लड़ी जा रही थी , वह भारत के हर आदमी की अपनी लड़ाई थी . और पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया. अपने किसी बच्चे को महात्मा गाँधी ने राजनीति में महत्व नहीं दिया . यह परंपरा आज़ादी मिलने के शुरुआती वर्षों में भी थी. जवाहरलाल नेहरू की बेटी , इंदिरा गाँधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं , वे राजनीति में भूमिका भी अदा करना चाहती थीं लेकिन आज़ादी की लड़ाई की जो गतिशीलता थी, उसके दबाव में जवाहरलाल नेहरू की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वे इंदिरा गाँधी को अपने वारिस के रूप में पेश करते. उनकी मौत के बाद स्व लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा गाँधी को पहली बार मंत्री बनाया था . लेकिन इंदिरा गाँधी में आजादी की महान परम्पराओं के प्रति वह सम्मान नहीं था . उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को राजनीति में शामिल किया और उसे मनमानी करने की पूरी छूट दी और भारतीय राजनीति में वंशवाद की बुनियाद रख दी. संजय गाँधी की याद इस देश के राजनीतिक इतिहास के उस अध्याय में की जायेगी जिसमें यह बताया जायेगा कि कांग्रेस ने महात्मा गाँधी की राजनीतिक मान्यताओं को कैसे तिलांजलि दी थी.. संजय गांधी की राजनीतिक ताजपोशी का बहुत सारे कांग्रेसियों ने विरोध भी किया था लेकिन वे सब इतिहास के डस्टबिन के हवाले हो गए. संजय गांधी को इंदिरा गाँधी ने १९८० में जितनी ताक़त दी थी , उतनी समकालीन इतिहास में किसी के पास नहीं थी. संजय गाँधी की राजनीतिक ताजपोशी की सफलता के बाद बाकी पार्टियों में भी यही ज़हर फैल गया .. मुंबई में शिव सेना की तीसरी पीढी की ताजपोशी उसी वंशवादी राजनीति का सबसे ताज़ा उदाहरण है .
इस दशहरे के दिन मुंबई में जो हुआ , उसके पहले बहुत सारी पार्टियों के नेता अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित कर चुके हैं और ज्यदातर ऐसे नेताओं की दूसरी तीसरी पीढी राजनीति के चरागाह में मौज उड़ा रही है . दक्षिण से लेकर उत्तर तक लगभग हर बड़े नेता के बच्चे बिलकुल नाकारा होने के बावजूद राज कर रहे हैं . करूणानिधि, शरद पवार , जी के मूपनार , करुणाकरण, राजशेखर रेड्डी, एन टी रामाराव ,बीजू पटनायक , लालू प्रसाद यादव , मुलायम सिंह यादव , चौधरी चरण सिंह , देवी लाल, बंसी लाल , भजन लाल, शेख अब्दुल्ला, प्रकाश सिंह बदल , सिंधिया परिवार, कांग्रेस में लगभग सभी नेता ,इस मर्ज़ के शिकार हैं. अभी पिछले दिनों बिहार से खबर आई थी कि बी जे पी के प्रदेश अध्यक्ष ने इस्तीफा दे दिया था क्योंकि वे अपने बेटे को टिकट नहीं दिलवा पाए थे. देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार में तो वंशवाद है ही.ज़ाहिर है कि हालात बहुत खराब हैं और अपने वंश जो कायम करने की बेसब्री में बहुत सारे नेता देश की राजनीतिक संस्थाओं का बहुत अपमान कर रहे हैं . अगर यही हालत चलती रही तो देश के नौजवानों की बहुत बड़ी संख्या राजनीति में रूचि लेना बंद कर देगी और देश की एकता और अखंडता को भारी ख़तरा पैदा हो जाएगा. जिन देशों में कुछ खानदानों के लोग ही सत्ता पर काबिज़ रहते हैं , उनके हस्र को देखना दिलचस्प होगा. पड़ोसी देश नेपाल के अलावा इस सन्दर्भ में उत्तर कोरिया का उदाहरण दिया जा सकता है अगर देश के सभी लोग देश की भलाई में साझी नहीं किये जायेगें तो देश का भला नहीं होगा. वंशवादी राजनीति आम आदमी को सत्ता से भगा देने की एक साजिश है और उसका विरोध किया जाना चाहिये

Tuesday, October 19, 2010

मंसूर सईद ने पाकिस्तानी तानाशाह जिया उल हक को चुनौती दी थी

शेष नारायण सिंह

भाई मंसूर को विदा हुए धीरे धीरे छः महीने हो गए . इतने महीनों में कई बार उनका जिक्र हुआ लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि भाई मंसूर को जाना चाहिए था . बताते हैं कि भाई मंसूर आख़िरी वक़्त तक अपनी आदत से बाज़ नहीं आये थे . वे अपने चाहने वालों को खुश रखने के लिए कुछ भी कर सकते थे. यहाँ तक कि झूठ भी बोल सकते थे. मैं ऐसे दसियों लोगों को जानता हूँ जो इस बात की गवाही दे देगें कि भाई मंसूर ने उनकी खुशी के लिए झूठ बोला था . जिस आदमी में कभी किसी फायदे के लिए झूठ बोला ही न हो उसके लिए यह बहुत बड़ी बात है .लेकिन कभी कोई उनके झूठ को पकड़ नहीं पाया . अपने भाई सुहेल हाशमी के लिए ही उन्होंने सुहेल के टीचर से झूठ बोला था लेकिन टीचर मियाँ को पता नहीं चला. मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो आजकल ५५ से ६० साल की उम्र हासिल कर चुके हैं और माशा अल्ला बड़े दानिश्वर हैं या कम से कम दानिश्वरी की एक्टिंग तो करते ही हैं और अपने बचपन में भाई मंसूर के चेलों में शामिल थे . इन लोगों ने अपनी उम्र के खासे पड़ाव पार कर लेने के बाद तक नहीं माना था कि जवाहर लाल नेहरू भी पाखाने जाते होगें. यह इल्हाम इन लोगों को इसलिए हुआ था कि भाई मंसूर ने कभी मजाक में इनको बता दिया था. यह भारत के दानिश्वरों की वही बिरादरी है जो मानने लगी थी कि बहुत जल्द इंक़लाब आने वाला है . भाई मंसूर ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय में नाम लिखाया तो स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य बने और आस पास के लोगों को पक्का यक़ीन हो गया कि बस अब इंक़लाब आने में बहुत कम अरसा रह गया है . यह अलग बात है कि भाई मंसूर को ऐसा कोई मुगालता नहीं था . भाई मंसूर ने कभी किसी को धोखा नहीं दिया . अपनी बचपन की दोस्त और अपनी रिश्ते की चचेरी बहन से जब वे शादी करने कराची गए तो किस को उम्मीद थी कि दोनों मुल्कों के बीच लड़ाई शुरू हो जायेगी . लेकिन लड़ाई शुरू हुई और वे वापस नहीं आ सके . लेकिन दिल्ली में उनके चाहने वालों का आलम यह था कि वे भाई मंसूर का अभी तक इंतज़ार कर रहे हैं . कम से कम २४ मई तक तो कर ही रहे थे कि वे ज़रूर वापस आयेगें . लेकिन वे नहीं आये. बताते हैं कि उन्होंने अपनी बेटी को भी वादा किया था कि फिर मुलाक़ात होगी लेकिन उसने उनकी आख़री बात पर विश्वास नहीं किया और कहा

जाते हुए कहते हो ,क़यामत को मिलेगें,
क्या खूब , क़यामत का है गोया कोई दिन और

बहरहाल यह क़यामत मुसीबत बन कर आई और भारत- पाकिस्तान में मंसूर सईद के चाहने वालों के एक बहुत बड़े वर्ग को मायूस कर गयी. . अब वे इस दुनिया में नहीं हैं. दिल्ली में जब भाई मंसूर को याद करने के लिए लोग इकठ्ठा हुए तो सुहेल हाशमी ने एक बहुत ही दिलचस्प बात कही थी . उन्होंने कहा कि मंसूर सईद के लिए शोकसभा का आयोजन तो किया ही नहीं जा सकता . लेकिन उनकी याद जब छ महीने बाद आती है तो यादों का जो सिलसिला शुरू होता है वह रुक नहीं सकता. यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि जो लोग उनसे मिले हैं वे तो बहुत भाग्यशाली हैं लेकिन जो लोग उनके भाई बहनों के दोस्त हैं वह भी बहुत भाग्यशाली हैं . क्योंकि वे सभी बहुत ही अच्छे दास्तानगो हैं . मैं भाई मंसूर से ब मुश्किल सात आठ बार मिला हूँ , वह भी १९८२ के बाद . लेकिन उनके भाई बहनों ने मुझे इतनी कहानियाँ बता रखी हैं कि जब एक बार मैंने उनसे दिल्ली के इण्डिया गेट से खान मार्केट तक की उनकी कुछ कारगुजारियों का ज़िक्र किया तो उन्हें लगा कि शायद मैं भी उस जमात में शामिल था जो उन दिनों उनके मुरीद थे. मैंने उनसे बताया कि ऐसा नहीं था, मुझे उनके घर वालों ने सारी बातें कहानी की शक्ल में बतायी थी.उनकी एक छोटी बहन तो बहुत बाद तक मानती रहीं कि जेम्स बांड फिल्मों का पहला हीरो sean connery भाई मंसूर की नक़ल किया करता था .

दिल्ली और कराची में बाएं बाजू की राजनीतिक सोच को इज्ज़त दिलाने में भाई मंसूर का बहुत बड़ा योगदान है . उन्होंने बाएं बाजू की राजनीति करने वालों को पाकिस्तान के खूंखार जनरल जिया उल हक से पंगा लेने की तमीज सिखाई थी. दिल्ली में उनके शहर की रहने वाली गायिका, इक़बाल बानों भी पाकिस्तान में जाकर बस गयी थीं उन्होंने फैज़ की नज्मों की मदद से जिया को चुनौती दे रही जमातों को ताकत दी थी . जिया के दौर में भाई मंसूर जवान थे और पूरी दुनिया में उसके खिलाफ माहौल बनाने में अपना योगदान किया था लेकिन चले गए और अब वे कभी नहीं आयेगें .नवम्बर में उनके घर में जन्मदिन मनाने का सिलसिला शुरू होता था और लगभग पूरे महीने चलता रहता था . इस साल भी उनका जन्मदिन मनाया जाये़या लेकिन वे नहीं होगें .

Monday, October 18, 2010

जांच का खेल शुरू ,क्या दिल्ली के मालपुआ जीवियों का कुछ बिगड़ेगा

शेष नारायण सिंह

कामनवेल्थ खेलों के समापन के अगले दिन ही खेलों की तैयारियों में हुई हेराफेरी की जांच का आदेश देकर केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर संभावित राजनीतिक पैंतरेबाजी पर लगाम लगा दिया है लेकिन इस जांच की गंभीरता पर सवाल किये जाने लगे हैं . दिल्ली में सत्ता के गलियारों में सक्रिय ज़्यादातर लोग इस खेल में शामिल थे. पूना वाले बुड्ढे नौजवान ने मामला इस तरह से डिजाइन किया था कि दिल्ली के सभी अमीर उमरा ७० हज़ार करोड़ रूपये की लूट में थोडा बहुत हिस्सा पा जाएँ . दिल्ली की काकटेल सर्किट में पिछले ३० वर्षों से सक्रिय इस राजनेता के लिए यह कोई असंभव बात नहीं थी. देश के कोने कोने से आये और दिल्ली में धंधा करने वाले सत्ता के ब्रोकरों के एक बड़े वर्ग के आराध्य देव के रूप में प्रतिष्ठित , सुरेश कलमाडी को नुकसान पंहुचा पाना आसान नहीं माना जाता . पिछले एक वर्ष में देखा गया है कि दिल्ली में जिसके कंधे पर भी सुरेश कलमाडी ने हाथ रख दिया ,वह करोडपति हो गया. ऐसी स्थिति में यह मुश्किल लगता है कि इस लूट के लिए उनको ज़िम्मेदार ठहराया जा सकेगा . दिल्ली में सक्रिय सभी पार्टियों के सत्ता के दलालों के रिश्तेदारों को कोई न कोई ठेका दे चुके कलमाडी के चेहरे पर जो प्रसन्नता नज़र आ रही है ,उसे देख कर तो लगता है कि वे आश्वस्त हैं कि उनका कोई नुकसान नहीं होगा. जिन लोगों ने इसी दिल्ली में जैन हवाला काण्ड की जांच होते देखी है , उनका कहना है कि मौजूदा जांच का भी वही हश्र होने वाला है. जैन हवाला काण्ड भी राजनीतिक मिलीभगत और भ्रष्टाचार का अजीबोगरीब नमूना था . उसमें लाल कृष्ण आडवाणी, शरद यादव, अरुण नेहरू ,आरिफ मुहम्मद खां , सतीश शर्मा आदि का नाम था . कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा उन सभी पार्टियों के एकाध नेता थे जो पार्टियां दिल्ली में सक्रिय हैं . जब स्व मधु लिमये और राम बहादुर राय ने पोल खोली तो मीडिया में बहुत हल्ला गुल्ला हुआ. जांच की मांग शुरू हुई . निजी न्यूज़ चैनलों के शुरुआती दिन थे ,लिहाजा बात सरकार के घेरे से बाहर आई. बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से जांच की मांग की गयी और जनाब, जांच के आदेश दे दिए गए .उसके बाद किसी को कुछ पता नहीं चला कि हुआ क्या . लाल कृष्ण आडवाणी ने एक बार लोक सभा का चुनाव यह कहकर नहीं लड़ा कि जब तक उनका नाम जैन हवाला काण्ड के कलंक से नहीं मुक्त हो जाता ,वे चुनाव नहीं लड़ेगें. बाकी तो कहीं कुछ नहीं बदला . धीरे धीरे मीडिया वालों की भी हिम्मत छूट गयी और जांच का क्या नतीजा हुआ, यह पता लगा सकना नामुमकिन नहीं हो, लेकिन मुश्किल ज़रूर है . दिल्ली के मिजाज़ क समझने वाले कुछ खांटी शक्की किस्म के मित्रों ने बताया कि जांच का आदेश तुरंत देकर कांग्रेस मारल हाई ग्राउंड लेने में कामयाब हो गयी है और विपक्ष को भी इस विषय पर हल्ला मचाने से मुक्ति मिल गयी है . अब सभी लोग आराम से कह सकते हैं कि जांच चालू आहे ,सब नतीजा आएगा तो सच्च्चाई का पता चलेगा. उसके बाद ही अगली कार्रवाई की बात की जायेगी. जिन्हें मालूम है वे जानते हैं कि भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक की जांच के बाद कोई भी आपराधिक मुक़दमा नहीं चल सकता . उसकी जांच के आधार पर आगे की कार्रवाई डिजाइन की जा सकती है बस. यानी किसी आपराधिक जांच एजेंसी को शामिल करना पड़ेगा जिसके पास पुलिस के पावर हों .सी वी सी वालों को भी जांच जांच खेलने का मौक़ा मिल रहा है , उनकी जांच के बाद भी आपराधिक कार्रवाई के लिए सी बी आई जैसी किसी ऐसी एजेंसी को लाना पड़ेगा जो आपराधिक जांच करके मुक़दमा कायम कर सके. . सी बी आई के पास जांच के मामलों का बहुत बड़ा ज़खीरा जमा है . ज़ाहिर हैं कि वह बहुत जल्दी में नहीं रहेगी. वैसे भी विपक्षी पार्टियां सी बी आई के राजनीतिक इस्तेमाल की बात करती रहती हैं . इसलिए इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कामनवेल्थ खेलों में भी जांच का वही हश्र होगा जो जैन हवाला काण्ड का हुआ था. इसलिए इस जाँच को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जांच की मांग को लेकर संभावित शोरगुल को बचाकर तुरंत जांच का आदेश कर दिया जाय और वक़्त के साथ साथ जब लोग धीरे धीरे भूलना शुरू कर दें तो एक दस हज़ार पृष्ठों की सरकारी भाषा से लैस रिपोर्ट पेश कर दी जाय जिसका कोई मतलब न हो . इस प्रकार दिल्ली में बसने वाले मालपुआजीवियों की बड़ी जमात को खिसियाना भी न पड़े और जांच जांच का खेल भी पूरा हो जाय.

Saturday, October 16, 2010

बिहार की चुनावी राजनीति में परिवर्तन की दस्तक

शेष नारायण सिंह

बिहार चुनाव में एक और आयाम जुड़ गया है . बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री मायावती ने बुधवार को अपना पहला चुनावी दौरा करके यह साबित कर दिया है कि वे बिहार को अपनी पार्टी की राजनीतिक प्राथमिकताओं में बहुत ऊपर रख कर चल रही हैं . इसके बाद भी मायावती बिहार में चुनाव प्रचार करने जायेगीं और हर दौर के पहले कुछ चुनिन्दा विधानसभा क्षेत्रों में लोगों से वोट मागेगीं. पिछले दिनों बिहार में हुए उपचुनाव में उनकी पार्टी को एक सीट मिली थी . ज़ाहिर है कि राज्य में उनकी विचारधारा की स्वीकार्यता है. उनकी कोशिश है कि इस राजनीतिक स्थिति को चुनावी सफलता की कसौटी पर कसा जाय. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक साख बिहार के मतदाताओं के एक वर्ग में सौ फीसदी है . उत्तर प्रदेश में इस प्रयोग के राजनीतिक नतीजे सब के सामने हैं . इसलिए बिहार में मायावती के राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से बहुत सारे सपनों के धूल में मिल जाने की आशंका है . उनके दखल का फौरी नुकसान तो रामविलास पासवान को होगा क्योंकि रामविलास पासवान हालांकि अपने को दलित नेता कहते हैं लेकिन मायावती के टक्कर में उनकी वोट बटोरने की योग्यता का मीलों तक कहीं पता नहीं चलेगा . जिन वोटों के बल पर रामविलास पासवान ने बिहार में अपनी राजनीतिक हैसियत बनायी थी , उन वोटों में अब उनकी साख नहीं है . बिहार पर नज़र रखने वाले बताते हैं कि राज्य के दलितों में उनके विकल्प की तलाश गंभीरता से शुरू हो गयी है . बिहार के मौजूदा राजनीतिक क्षितिज पर कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो शोषित पीड़ित वर्गों में विश्वास जगा सके .शायद इसीलिये गरीब आदमियों का एक वर्ग कांग्रेस की तरफ झुकता नज़र आ रहा था लेकिन मायावाती के प्रवेश के बाद सब कुछ बदल सकता है. मुसलमानों में भी नीतीश कुमार की बी जे पी से मुहब्बत को लेकर बहुत ऊहापोह के हालात हैं . बी जे पी के खूंखार छवि के नेताओं , नरेंद्र मोदी और वरुण गाँधी के खिलाफ खड़े होने का अभिनय करके नीतीश कुमार ने मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाने की कोशिश की है लेकिन वह प्रयास सफल होता नज़र नहीं आ रहा है . अब तक मुसलमान का झुकाव कांग्रेस की तरफ था लेकिन ३० सितम्बर को बाबरी मस्जिद के टाइटिल के फैसले के बाद सब कुछ बदल रहा है . हालांकि फैसला हाई कोर्ट का है लेकिन आम मुसलमान को शक़ हो गया है कि इसमें कांग्रेस का हाथ है . इसलिये कांग्रेस की तरफ उसके झुकाव में बहुत पक्के तौर पर कमी आई है . अब वह बी जे पी और उसके दोस्तों को हराने के लिए वैकल्पिक राजनीतिक समीकरण की तलाश कर रहा है . ऐसी हालत में उसे मायावती सूट करती हैं क्योंकि वरुण गांधी छाप खूंखार आतंकी राजनीति को मायावाती ने काबू करके दिखाया है . मुसलमानों के हाथ काट लेने वाले उनके भाषण के बाद मायावती ने उनको जेल में ठूंस दिया था और तब छोड़ा था जब गुप्त तरीके से जुगाड़ की राजनीति खेली गयी थी और वरुण गांधी को हड़का दिया था कि अगर दुबारा गैरजिम्मेदार भाषण करोगे तो रासुका लगा देगें. उसके बाद वरुण गांधी को सारी शेखी भूल गयी थी. ज़ाहिर है नीतीश के ज़बानी जमा खर्च की तुलना में वरुण गाँधी टाइप खूंखार भाषणबाज़ लोगों को काबू में करने का मायावती का तरीका लोगों को ज्यादा पसंद आता है . इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि नीतीश के खिलाफ सक्रिय रूप से काम कर रहे मुस्लिम राजनीति के नेताओं को कांग्रेस और नीतीश की तुलना में मायावती की राजनीति ज्यादा पसंद आयेगी. ऐसी स्थिति में बिहार में मायावती की राजनीतिक इंट्री बहुत ही दूरगामी राजनीतिक परिणामों को जन्म दे सकती है . बिहार की मौजूदा राजनीतिक पार्टियों से ऊब चुका दलित-पीड़ित तबका अगर मायावाती के रूप में अपने मसीहा को देखना शुरू कर देगा तो बिहार के राजनीतिक समीकरणों में बुनियादी बद्लाव आ जाये़या .

बिहार में मायावती के प्रवेश के बाद बहुत सारे राजनेताओं के भविष्य की इबारत भी बदल जायेगी . सबसे ज्यादा असर तो कांग्रेस के महामंत्री, राहुल गांधी की राजनीतिक क्षमता पर पडेगा . उन्होंने बिहार में बहुत सारा समय लगाया है . उनका निशाना नौजवान और मुसलमान हैं . जहां तक नौजवानों का सवाल है ,वे पूरे देश की तरह बिहार में भी जातियों में बँटे हैं . इसलिए वहां वोट की तलाश करना बेमतलब है. मुसलानों के बीच कांग्रेस के प्रति कुछ आकर्षण देखा गया था लेकिन अब मायावती के आ जाने के बाद समीकरण निश्चित रूप से बदल जायेगें. उत्तर प्रदेश में उन्होंने बहुत गंभीर तरीके से मुसलमानों को साथ लेने की राजनीति का सबूत दिया है .उनकी पार्टी ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया था .लोकसभा और विधानसभा में बड़ी संख्या में मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुने भी गए हैं. वरुण गांधी के साथ उनकी सरकार ने जैसा व्यवहार किया था, मुस्लिम इलाकों में उसकी बहुत इज्ज़त है . ज़ाहिर है कि मायावाती बिहार में मुसलमानों को अपनी राजनीति की तरफ खींच सकने की क्षमता रखती हैं . उनके साथ दलित वोट अपने आप खिंचे चले आते हैं . मुस्लिम-यादव वोट की राजनीति करके लालू प्रसाद यादव ने बिहार में पंद्रह साल तक राज किया था . अगर दलित और मुसलमान मिल गए तो मायावती बिहार की सरकार में प्रभावी दखल रख सकती हैं. उनकी उम्मीदवारों की सूची देखने से लगता है कि उन्होंने जीत सकने लायक ही लोगों को टिकट दिया है . अगर उम्मीदवार अपनी जाति का वोट लेने में कामयाब हो गया तो मायावती के करिश्मा की वजह से मिलने वाला दलित और मुस्लिम वोट उसे विधानसभा तक पंहुचा देगा . अभी यह सारी बातें राजनीतिक विश्लेषण के स्तर पर हैं लेकिन आने वाले वक़्त में उम्मीद की जानी चाहिये कि बिहार की चुनावी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन की दस्तक पड़ रही है

Thursday, October 14, 2010

कर्नाटक में खेल अभी ख़त्म नहीं हुआ है

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में बी जे पी का संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ है .ऐसा लगता है कि पार्टी के बागी विधायकों ने मुख्यमंत्री को हटाने के लिए लंबा दांव खेल दिया है .पता चला है कि जिन बारह विधायकों ने पहले बगावत का नारा बुलंद किया था , वे बागी विधायकों की पहली किस्त थे.निर्दलीय विधायक शिवराज तंगदागी ने दावा किया है कि इस बार उनके लोग बिना हल्ला गुल्ला किये विधान सभा के अन्दर ही खेल कर जायेगें . यह भी संभव है कि विधान सभा में शक्ति परीक्षण के ऐन पहले बारह विधायक और बगावत का नारा लगा दें . नामी अखबार डेकन हेराल्ड को शिवराज ने बताया कि हालांकि बी जे पी की ओर से सन्देश आ रहे हैं कि अगर बागी विधायक साथ आने को तैयार हो जाएँ तो उनकी सदस्यता को बहाल किया जा सकता है लेकिन सारे लोग एकजुट हैं और उनकी कोशिश है कि बी जे पी विधायकों की कुल संख्या के एक तिहाई से ज्यादा लोग पार्टी से अलग होकर अपने आपको ही असली बी जे पी घोषित कर देगें . इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा रहा है कि बी जे पी से अलग होने वाले विधायक राज्य में एक गैर कांग्रेस सरकार बनाने में मदद करेगें और एच डी कुमारस्वामी की अगुवाई में एक गैर-कांग्रेस ,गैर-बीजेपी सरकार बन जायेगी. उन्होंने कहा कि बी जे पी के राष्ट्रीय नेतृत्व और राज्य के नेताओं को अंदाज़ ही नहीं है कि ज़मीनी सच्चाई क्या है . वे लोग यह मान कर चल रहे हैं कांग्रेस के तिकड़म की वजह से येदुरप्पा के एसर्कार की विदाई हो रही है . जबकि हकीकत यह है कि राज्य की जनता बी जे पी की मुआजूदा सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामों से ऊब चुकी है और वह इसको हटाकर कोई भी सरकार बनवाने की सोच रही है. विधायकों की बगावत का असली कारण यह है कि वे अब अपनी पार्टी की सरकार के पक्ष में कुछ भी नहीं बोल पा रहे हैं . कांग्रेस का दुर्भाग्य है है कि कर्नाटक में जिस आदमी को राज्यपाल बनाकर भेजा गया है ,वह दिल्ली दरबार के वफादारों की सूची में सबसे ऊपर रहना चाहता है . उसकी कारस्तानी की वजह से ही ऐसा लगने लगा था कि उठा पटक के खेल में कांग्रेस का हाथ है लेकिन अब साफ़ हो गया है कि कांग्रेस ऐसे किसी खेल में शामिल नहीं रहना चाहती क्योंकि एच डी देवेगौडा के बेटे ,एच डी कुमारस्वामी के साथ कांग्रेस का पुराना तजुर्बा बहुत की रद्दी रहा है लिहाजा कांग्रेस ने साफ़ कर दिया है वह कर्नाटक की सत्ता में आने के लिए अभी इंतज़ार करेगी. यह अलग बात है कि कांग्रेस कर्नाटक में बी जे पी को उसकी औकात बताने के लिए किसी का भी इस्तेमाल करने को तैयार है .और फिलहाल एच डी कुमारस्वामी और बी जे पी के बागी विधायक कांग्रेस की मनोकामना पूरी कर रहे हैं .

अब इस बात में किसी को शक़ नहीं है कि कर्नाटक की मौजूदा सरकार पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी है . राज्यपाल ने ऐलानियाँ बताया है कि यह लोग अपराध से पैसा वसूल रहे हैं , खनिज सम्पदा को गैर कानूनी तरीके से लूट रहे हैं , ज़मीनों के धंधे में हेरा फेरी कर रहे हैं और जनता को उसकी किस्मत के सहारे छोड़ दिया गया है . यह सारे सवाल जायज़ हैं और येदुरप्पा को इसका जवाब देना होगा क्योंकि सवाल उठाये हे यूस आदमी ने हैं जिसकी सरकार में येदुरप्पा मुख्य मंत्री के रूप में काम कर रहे हैं . जवाब तो येदुरप्पा के दिल्ली के आकाओं को भी देना होगा क्योंकि दुनिया जानती है कि येदुरप्पा और उनके साथियों की लूट में दिल्ली के बड़े बी जे पी नेता हिस्सा पाते हैं . लेकिन उन लोगों ने दूसरा रास्ता अपनाने का फैसला किया है . बी जे पी के हर बड़े नेता की कोशिश है कि राज्यपाल को ही हटवा दिया जाय क्योंकि वह बड़े पैमाने पर पोल खोलने की कोशिश कर रहा है . राज्यपाल ने अपनी प्रेस कान्फरेन्स में साफ़ कहा कि आधे से ज्यादा बी जे पी मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं . अगर इन मामलों की सही जांच हो जाय तो कर्नाटक के बी जे पी नेता तो फंसेगे ही , दिल्ली के वे नेता भी फंस सकते हैं जिनके यहाँ कर्नाटक के नेताओं ने माल पंहुचाया है . कुल मिलाकर हालात बहुत खराब हैं . लेकिन देश और जनता का दुर्भाग्य यह है कि कहीं भी कोई आवाज़ नेताओं की लूट के खिलाफ नहीं उठती. चारों तरफ लूट का आलम है . यह कहना ठीक नहीं होगा कि बी जे पी वाले ही लूट में शामिल हैं . सच्ची बात यह है कि कांग्रेस ने ही इस देश में लूट की राजनीतिक संस्कृति का आविष्कार किया और उसको बाकायदा चला रही है . इसलिए कर्नाटक में बी जे पी की लूट के हवाले से कांग्रेस को धर्मात्मा मानने की गलती नहीं की जानी चाहिए . इन दोनों पार्टियों से ऊब कर जनता ने जिन क्षेत्रीय पार्टियों को सता थमाई वे भी लूट के मामले में बड़ी पार्टियों से पीछे नहीं हैं . तमिल नाडू , आंध्र प्रदेश , उत्तर प्रदेश , बिहार, आदि राज्यों में दलितों और पिछड़ों की सरकारें आयीं लेकिन राजनीतिक घूसखोरी में कोई कमी नहीं आई . इसलिए आज की हालत में जनता के उठ खड़े होने के अलावा देश की इज्ज़त बचाने का कोई रास्ता नहीं है लेकिन वहां भी गड़बड़ है . सूचना के सारे तन्त्र पर आर एस एस का क़ब्ज़ा है और सही बात जनता तक वे कभी नहीं पंहुचने देगें. ज़ाहिर है कि स्थिति बहुत ही चिंताजनक है और उम्मीद के सिवा आम आदमी के पास कुछ नहीं बचा है .

Wednesday, October 13, 2010

शासक वर्ग हिन्दी से डरते क्यों हैं ?

शेष नारायण सिंह

हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार , अजय ब्रह्मात्मज ने एक दिलचस्प विषय पर फेसबुक पर चर्चा शुरू की है . कहते हैं कि सारी पीआर कंपनियां हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहती हैं।कोई विरोध नहीं करता। वक्‍त आ गया है कि उन्‍हें भारतीय भाषा कहा जाए। आगे कहते हैं कि मैं उनकी राय से सहमत हूं और उन सभी पीआर कंपनियों की भर्त्‍सना करता हूं जो सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल कैटेगरी में डालती हैं . इस बहस में बहुत बड़े लोग शामिल हो गए हैं . गरम हवा और और श्याम बेनेगल की ज़्यादातर फिल्मों की सहयात्री ,शमा ज़हरा जैदी का कहना है कि अंग्रेज़ी को नेशनल मीडिया कहना गलत है .उसे एंग्लो-इन्डियन मीडिया कहना चाहिए अजय जी कहते हैं आज से उन्होंने विरोध और फटकार आरंभ कर दिया है। थोड़ा प्रेम से भी समझाएंगे। उन्‍हें मालूम ही नहीं कि वे कौन सी परंपरा ढो रहे हैं। एक तरीका यह भी है कि सभी स्‍टारों को रीजनल स्‍टार कहा जाए। सलमान,आमिर,रितिक,शाहरूख सभी रीजनल स्‍टार हैं,क्‍योंकि हिंदी मीडिया रीजनल मीडिया है।
इस बहस में शामिल होने की ज़रूरत है . अंग्रेज़ी जिसे इस देश में दो प्रतिशत लोग भी नहीं जानते , उसे यह लोग राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं . भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहने की यह बीमारी अखबारों में भी है . कुछ तो ऐसे पाषाण युगीन सोच के लोग हैं कि वे भारतीय भाषाओं के अखबारों को वर्नाक्युलर प्रेस भी कहते हैं.
यह हमारी गुलामी की मानसिकता की उपज है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . मामला मीडिया से सम्बंधित है इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि इस पर बाकायदा बहस चलाई जाय.

Tuesday, October 12, 2010

गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ हुआ है . जिस तरह से विधायकों ने मारपीट की , ध्वनिमत से विश्वास मत पारित हुआ, जिस तरह से अध्यक्ष के पद की गरिमा को नीचा दिखाया गया , सब कुछ अक्षम्य और अमान्य है . हालांकि राज्यपाल की ख्याति ऐसी है कि वह कांग्रेसी खेल का हिस्सा माना जाता है और वह पूरे जीवन तिकड़म की राजनीति करता रहा है लेकिन उसकी ख्याति का बहाना लेकर किसी पार्टी को लोकतंत्र के खिलाफ काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. इस सारे काण्ड में बी जे पी के आला हाकिम नितिन गडकरी फिर घेर लिए गए हैं और दिल्ली में उनके दुश्मन , डी-4 वाले कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष ने गलती की . उन्हें मंत्रिमंडल में बी एस येदुरप्पा को अपना प्रभाव बढाने के लिए अपने विरोधियों के खिलाफ एक्शन लेने की अनुमति नहीं देनी चाहिये थी. यह अलग बात है कि डी -4 भी अब उतना मज़बूत नहीं है लेकिन मीडिया में अच्छे संबंधों के बल पर गडकरी का मखौल उड़ाने की उसकी ताक़त तो है ही. बी जे पी की गलतियों पर कांग्रेसी नेता मज़ा ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस को भी यह समझ लेना चाहिए कि वे भी घटिया राजनीति के मामले में बी जे पी से कम नहीं हैं. वास्तव में दल-बदल की राजनीति को उसके सबसे निचले मुकाम तक पंहुचाने में कांग्रेस का ही सबसे ज्यादा हाथ है . पी वी नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के चक्कर में जो सौदेबाज़ी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और अजित सिंह से हुई थी , उसके चक्कर में लोकशाही की राजनीति को शर्मसार होना पड़ा था. कर्नाटक में ही कांग्रेस ने बार बार लोकतंत्र को रसातल में ले जाने का काम किया है ,इसलिए कांग्रेस के नेताओं के बयानों के आधार पर लोकशाही की पक्षधरता के बात नहीं की जानी चाहिये . बी जे पी वाले जिस फासिस्ट राजनीति को चलाने के लिए विचारधारा के स्तर पर प्रतिबद्ध हैं , कांग्रेस की पूर्व नेता, स्व इंदिरा गांधी ने उसी राजनीति को अपने प्रिय पुत्र संजय गाँधी के साथ मिलकर परवान चढाया था और देश ने इमरजेंसी के नरक को भोगा था . आज भी कांग्रेस में वंशवाद जिस गहराई के साथ जमा हुआ है ,वह फासिस्ट राजनीति का ही उदाहरण है . इसलिए कांग्रेस को बहुत बढ़ बढ़ कर बात करने की ज़रुरत नहीं है .. लेकिन विधानसभा में जो कुछ भी हुआ उसके लिए उसमें शामिल नेताओं की निंदा की जानी चाहिए . एक बार सत्ता में आ जाने के बाद इन नेताओं को लगने लगता है कि उन्हें सत्ता में बने रहने का निर्द्वंद अधिकार मिल गया है . और यही लोकतंत्र का सबसे बड़ा नुकसान है. कर्नाटक की सत्ता पर काबिज़ बी जे पी और उसके मुख्यमंत्री अपने को सत्ता का स्थायी दावेदार समाझने लगे हैं . इसीलिए शायद उन लोगों ने मनमानी का आचरण शुरू कर दिया . जिसकी वजह से उनकी अपनी पार्टी में भी मतभेद हो गए. बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है कि किसी राजनीतिक पार्टी में आपसी गणित क्या है लेकिन जब उस गणित के चलते लोकशाही की संस्थाएं प्रभावित होती हैं तो चिंता होती है . इस बार लोक शाही को शर्मसार करने वालों में सबसे ज्यादा बी जे पी का हाथ है . उसने अध्यक्ष की मर्यादा का पार्टी हित में इस्तेमाल किया. वरना अध्यक्ष की तरफ से निर्दलीय विधायकों को दल बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का अधिकार कहाँ से आ गया था . अब सबके सामने यह सच्चाई आ चुकी है बी जे पी के टिकट पर चुन कर आये अध्यक्ष ने अपनी पार्टी की सरकार को बचाने के लिए वह काम किया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था. दल बदल कानून के पैराग्राफ 2 में लिखा है कि अगर कोई सदस्य अपनी मर्ज़ी से पार्टी छोड़ दे या पार्टी के निर्देश के खिलाफ सदन में किसी प्रस्ताव पर वोट दे या पार्टी के निर्देश का पालन न करे ,तो उसे सदस्यता से हटाया जा सकता है . सवाल यह उठता है कि जब ऐसी कोई नौबत आई ही नहीं तो माननीय अध्यक्ष जी ने किस आधार पर बी जे पी के बागी सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी. हालांकि यह बात तो विचार के दायरे में आ सकती है लेकिन निर्दलीय विधायकों की सदस्यता रद्द कर देने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे तो किसी पार्टी के सदस्य ही नहीं है .यानी साफ़ हो जाता है कि कर्नाटक में बी जे पी ने " गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा " की मानसिकता के वशीभूत होकर काम किया है .लोक तंत्र में इस तरह के आचरण के लिए जगह नहीं है . बी जे पी के प्रवक्ता गण कहते फिर रहे हैं कि कांग्रेस ने राज्यपाल के पद और गरिमा का दुरुपयोग किया है. यह बात सच लगती है लेकिन इसकी वजह से बी जे पी को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह सत्ता से चिपके रहने के लिए विधान सभा में लोकशाही की बुनियादी अवधारणा का मखौल उडाये. वरना बिना किसी मत विभाजन के अध्यक्ष जी बी एस येदुरप्पा की सरकार को विजयी न घोषित कर देते. ध्वनि मत से विश्वास प्रस्ताव पास करवाने के मामले में बी जे पी वाले कह रहे हैं कि गोवा में भी तो ऐसा ही हुआ था. सवाल यह है कि अगर एक जगह गलत काम हो रहा है तो उसके हवाले से अपनी गलती को को छुपाने की कोशिश करना भी गलती है .इस में भी दो राय नहीं है कि राज्यपाल ने अपने पद का दुरुपयोग किया लेकिन उसको ठीक करने के अलग मंच उपलब्ध हैं , विधान सभा में मारपीट करना और अध्यक्ष के पद का राजनीतिक पक्ष पाट के लिए इस्तेमाल करना अक्षम्य है

Sunday, October 10, 2010

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री में राजनीतिक समझ है ही नहीं

शेष नारायण सिंह

जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री, उमर अब्दुल्ला के ताज़ा बयानों से लगता है कि वे अपना दिमागी संतुलन खो बैठे हैं और जम्मू-कश्मीर के बारे में अंट-शंट बोल रहे हैं .उन्होंने विधानसभा में कहा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय एक संधि के तहत और देश की राजनीतिक पार्टियों ने उस संधि को ख़त्म कर दिया है और कश्मीर के लोग इस से बहुत नाराज़ हैं . विधान सभा में उमर अब्दुल्ला गुस्से में थे और बी जे पी वालों के हल्ले गुल्ले के जवाब में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे . गैर ज़िम्मेदार बात को आगे बढाते हुए उमर ने कहा कि हम दोनों से उम्मीद की गयी थी कि हम समझौते का सम्मान करेगें. उन्होंने कहा कि जम्मू- कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ था, वह एक संधि थी. उन्होंने ज्ञान दिया कि जूनागढ़ और हैदराबाद के भारत में विलय की बात जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होती . उन राज्यों का मामला अलग था जम्मू-कश्मीर के राजा की संधि उस से अलग थी .उसी भाषण में आपने फरमाया कि जम्मू-कश्मीर की समस्या के हल के लिए एक राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए जिसके बाद ही राज्य का विलय भारतीय गणराज्य में पूरा होगा . अभी यह अधूरा है .

उमर अब्दुल्ला की बातों में कोई सच्चाई नहीं है . और ज़रूरी का है कि इतिहास को कोई विद्यार्थी उन्हें पकड़कर जम्मू-कश्मीर के इतिहास की जानकारी दे. उनकी सबसे बड़ी गलती तो यह है कि वे कह रहे हैं कि वह विलय के दस्तावेज़ को संधि मान रहे हैं . उनको पता होना चाहिए कि जिस कागज़ पर जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह और भारत के गवर्नर जनरल, माउंटबेटन ऑफ़ बर्मा ने दस्तखत किया था .उसके दूसरे पैराग्राफ में ही लिखा है कि वह इंस्ट्रू मेंट ऑफ़ ऐक्सेशन था यानी विलय का दस्तावेज़ था. यह वही कागज़ है जिस पर बाकी सैकड़ों राजाओं ने दस्तखत किया था और उस दस्तावेज़ का प्रोफार्मा सरदार पटेल के झोले में हमेशा मौजूद रहता था . वह टाइप किया हुआ कागज़ था .उसी पर राजा ने दस्तखत किया था और अपना नाम और अपने राज्य का नाम कलम से लिखा था . जम्मू-कश्मीर के मामले में थोडा रियायत दी गयी थी क्योंकि ख़तरा तह था कि राज हरि सिंह और उनकी जेबी राजनीतिक पार्टी , प्रजा परिषद् पाकिस्तान से बात करके स्वतंत्र रहने का षड्यंत्र कर रहे थे. उनकी इसी योजना पर पाबंदी लगाने के लिए यह कह दिया गया था कि विलय पर जम्मू-कश्मीर की जनता से मंजूरी ली जायेगी . यह भारत के पक्ष में था क्योंकि राजा के कुछ चापलूसों को छोड़कर बाकी पूरी कश्मीरी जनता ,शेख अब्दुल्ला के साथ थी और शेख साहेब की कोशिश से ही जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में हुआ था. यह अलग बात है कि प्रजा परिषद् और उसकी उत्तराधिकारी पार्टी ने राज्य में माहौल इतना खराब कर दिया कि सब कुछ बर्बाद हो गया लेकिन बात इतनी खराब कभी नहीं हुई थी कि जम्मू-कश्मीर का कोई अज्ञानी नेता यह कह दे कि राज्य का विलय भारत में पूरी तरह से नहीं हुआ था. जब २६ अक्टूबर १९४७ के दिन राजा ने विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया ,उसके बाद ही भारत की सेना को श्रीनगर भेजा गया और पाकिस्तानी सेना की अगुवाई में श्रीनगर की ओर बढ़ रहे लूट-पाट करते कबायलियों को वापस खदेड़ा जा सका. बस उस वक़्त गलती यह हुई कि सीजफायर हो गया और कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में रह गया . आज जो कश्मीर समस्या है वह उसी हिस्से को भारत में वापस लेने की है . यह बात जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री और राहुल गांधी के भक्त उमर अब्दुल्ला की समझ में आ जानी चाहिए .अपने बयान में जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री ने एक और भी मूर्खतापूर्ण बात की है . फरमाते हैं कि जम्मू-कश्मीर की मौजूदा समस्या का हल करने के लिए बाकायदा राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की ज़रूरत है जिसमें पाकिस्तान को भी शामिल करने की ज़रूरत है .यह उनकी गैरज़िम्मेदार समझ की हद है .उन्हें मालूम होना चाहिए कि २६ अक्टूबर १९४७ के दिन जब राजा ने भारत के साथ विलय के कागजों पर दस्तखत किया था तो वह काम उन्होंने एक राजनीतिक प्रक्रिया के अंत में ही किया था .महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए जो भी काम किया था, वह सब राजनीति ही थी . उसके बाद से ही वह राज्य भारत का हिस्सा है . हाँ यह भी सही है कि जम्मू-कश्मीर को थोडा अलग दर्ज़ा दिया गया है लेकिन वह भारतीय संविधान के हिसाब से दिया गया है . उसके बाद जम्मू-कश्मीर की हर समस्या भारत की समस्या है . जहां तक जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के शामिल होने की बात है वह केवल पाकिस्तान के कब्जे वाले इलाके के लिए है और वह जम्मू-कश्मीर के मुख्य मंत्री के कार्य क्षेत्र के बाहर है .

इसलिए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के इस गैरजिम्मेदार बयान की निंदा की जानी चाहिए . कांग्रेस ने भी जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद जम्मू-कश्मीर में सन्दर्भ में गैरज़िम्मेदार राजनीति का पालन किया है जिसकी वजह से वहां हालात बद से बदतर होते गए. १९७७ में स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण की सकारात्मक पहल के बाद दिल्ली के सभी नेताओं का रवैया कश्मीर के प्रति गैर ज़िम्मदारी का रहा है . इंदिरा गाँधी, अरुण नेहरू, फारूक अब्दुल्ला, मुफ्ती मुहम्मद सईद, जगमोहन आदि कश्मीर में बिगड़ी हालात के लिए बहुत बड़े पैमाने पर ज़िम्मेदार हैं . पिछले विधानसभा चुनावों में एक और अवसर आया था जब आतंकवादियों और अलगाववादियों की गोलियों की परवाह ह किये बिना कश्मीरी जनता ने वोट डाला था . लेकिन उमर अब्दुल्ला ने उसे भी गंवा दिया . इस आदमी में नेतृत्व का कोई गुण ही नहीं है . जब किन्हीं कारणों से नाराज़ नौजवानों ने पत्थर फेंकना शुरू किया तो इनको चाहिए था कि उनके नेताओं को तलाशें और उनसे बात करें . अगर यही काम उमर ने कर लिया होता तो अलगाववादी बिलकुल हाशिये पर आ जाते लेकिन इनकी गफलत के चलते सब कुछ खराब हो गया . अब उन पत्थर फेंकने वालों का कंट्रोल पाकिस्तानी सेना और आई एस आई के हाथ में है . ज़ाहिर है उमर अब्दुल्ला की राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण यह हाल हुए हैं . तकलीफ की बात यह है कि देश भर के कांग्रेसी जिस राहुल गाँधी की जय जय कार कर रहे हैं वह भी अपने जिद पर अड़े हुए हैं और उमर अब्दुल्ला की तारीफ कर रहे हैं . देश का दुर्भाग्य यह भी है कि खानदानी सत्ता को स्थापित करने की कांग्रेस की कोशिश को किसी भी राजनीतिक दल से कारगर चुनौती नहीं मिल रही है . सभी पार्टियों में अपने वंशजों को राजा बनाने की होड़ लगी हुई है . ऐसी हालत में शेख अब्दुल्ला की तीसरी पीढी और जवाहरलाल नेहरू की चौथी पीढी मिलकर कश्मीर की समस्या को बद से बदतर बना रहे हैं और देश की एक अरब से ज्यादा जनता ठगी सी खडी है और और हाथ मल रही है .

Saturday, October 9, 2010

जनरल मुशर्रफ ने माना ,कश्मीर के आतंकवाद में पाकिस्तान का हाथ

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ,जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक जर्मन अखबार के साथ बातचीत में कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दिल्ली दरबार सकते में है . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के करता धरता समझ नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान की राजनीति में शीर्ष पर रह चुके एक फौजी जनरल की बात को कूटनीतिक भाषा में कैसे फिट करें.हालांकि भारत समेत पूरी दुनिया को मालूम है कि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह से पाकिस्तान की कृपा से ही फल फूल रहा है लेकिन अभी तक पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट ने इस बात को कभी नहीं स्वीकार किया था . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . भारत के विदेश मंत्रालय के लिए भी आसान था कि वह कूटनीतिक स्तर पर अपनी बात कहता रहे और कोई मज़बूत एक्शन न लेना पड़े . लेकिन अब बात बदल गयी है . अब तो कश्मीर में आतंकवाद को इस्तेमाल करने वाले एक बड़े फौजी और कई वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहे जनरल ने साफ़ साफ़ कह दिया है कि हाँ हम कश्मीर में आतंकवाद फैला रहे हैं , जो करना हो कर लो. यह भारत के लिए मुश्किल है . इस तरह की साफगोई के बाद तो भारत को पाकिस्तान के साथ वही करना चाहिए जो अल-कायदा का मददगार साबित हो जाने के बाद ,तालिबान के खिलाफ अमरीका ने किया था या १९६५ में कश्मीर में घुसपैठ करा रही पाकिस्तान की जनरल अयूब सरकार को औकात बताने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने किया था . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . शरारत पर आमादा पाकिस्तान को अब सैनिक भाषा में जवाब नहीं दिया जा सकता क्योंकि अभी पाकिस्तान की सरकार औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रही है कि कश्मीर में आतंकवाद उनकी तरफ से करवाया जा रहा है . पाकिस्तान की हालत तो मुशर्रफ के खुलासे के बाद बहुत ही खराब है . पाकिस्तान सरकार के मालिक सन्न हैं .औपचारिक रूप से पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कह दिया है कि मुशर्रफ के बयान बेबुनियाद हैं लेकिन सबको मालूम है कि मुशर्रफ को नकार पाना पाकिस्तानी फौज और सिविलियन सरकार ,दोनों के लिए असंभव है . पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि उसे नहीं मालूम कि मुशर्रफ ने यह बात सार्वजनिक रूप से क्यों कही वैसे अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव के डर से पाकिस्तानी सरकार कह रही है कि सरकार इन बेबुनियाद आरोपों का खंडन करती है यह अलग बात है कि पाकिस्तान कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन करता है.

मुशर्रफ आजकल पाकिस्तान की राजनीति में वापसी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं . उन्हें मालूम है कि अमरीका की मर्जी के बिना पाकिस्तान में राज नहीं किया जा सकता. आजकल पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . पाकिस्तान की राजनीति का स्थायी भाव भारत का विरोध करने की राजनीतिक रणनीति है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मने में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं और उनका यह इकबालिया बयान इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार के दिन गिने चुने रह गए हैं, भारत के लिए भी पाकिस्तान में जनरल कयानी से बेहतर मुशर्रफ ही रहेगें क्योंकि वे अमरीकी हुक्म को मानने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं .दुनिया जानती है कि अमरीका भारत को खुश रखने की विदेश नीति का गंभीरता से पालन कर रहा है

Friday, October 8, 2010

पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन की अफवाह , मुशर्रफ की वापसी की चर्चा

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान पर अमरीकी शिकंजा कसता जा रहा है. गुरुवार को फिर पाकिस्तान में ५० ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया जो अमरीकी सेना के लिए पेट्रोल ,डीज़ल आदि लेकर अफगानिस्तान जा रहे थे. कल भी कुछ ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया था. खबर है कि अमरीका ने तय किया है कि अब नैटो की अफगानिस्तान में तैनात सेनाओं के लिए सारा सामान रूस के रास्ते भेजा जायेगा . पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों के बारे में अमरीका किसी बड़ी कार्रवाई की तैयारी कर रहा है. अब अमरीका पाकिस्तान को कोई भी स्पेस देने को तैयार नहीं है . पाकिस्तान की सिविलियन सरकार और सेना प्रमुख जनरल कयानी को अब अमरीकी बहुत दिनों तक बर्दाश्त करने के मूड में नहीं दीखते.पाकिस्तान की तरफ से अमरीका में काम कर रही कुछ लाबी कंपनियों ने बहुत ही सोच विचार कर एक अफवाह फैलाई थी कि नवम्बर में भारत की यात्रा पर जा रहे अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत से कहने वाले हैं कि कश्मीर के मामले में पाकिस्तान के साथ सुलह सफाई कर लो तो भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल करने पर विचार किया जाएगा . पाकिस्तान की आतंरिक राजनीति में इस अफवाह के ज़रिये बहुत काम हो सकता था . आम तौर पर इस तरह की अफवाहों का खंडन नहीं किया जाता . और मित्र देश को इस अफवाह के सहारे कुछ राजनीतिक माइलेज लेने दिया जाता है . लेकिन अब अमरीकी प्रशासन पाकिस्तान के साथ थोड़ी सख्ती बरत रहा है शायद इसी योजना के तहत एक अंग्रेज़ी टेलीविज़न चैनेल से बातचीत में भारत में अमरीकी राजदूत , रोमर ने साफ़ कह दिया कि कश्मीर में अमरीका किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा क्योंकि अमरीका मानता है कि कश्मीर का मामला शुद्ध रूप से भारत का आन्तरिक मामला है . इस खंडन के बाद पाकिस्तानी हुक्मरान को खासी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है . इस बीच पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में यह चर्चा ज़ोरों पर है कि अमरीका पाकिस्तानी फौज़ और सिविलियन सरकार दोनों के आला हाकिम बदलना चाहता है . अफवाहों का बाज़ार गर्म है और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ को झाड़ पोंछ कर तैयार किया जा रहा है . दक्षिण एशिया की नयी भू-राजनैतिक साच्चाई के मद्दे नज़र अब अमरीका पाकिस्तान में ऐसा राजा तैनात करना चाहता है जो भारत के साथ दुश्मनी को थोडा कम करे . अमरीका ने जनरल मुशर्रफ को बैपरा हुआ है. उसे मालूम है कि जनरल मुशर्रफ को अपना रुख बदलने में कोई टाइम नहीं लगता . इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मनी में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं .
जनरल परवेज़ मुशर्रफ का एक जर्मन अखबार को दिया गया बयान इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दुनिया भर के कूटनीतिक हलकों में यह चर्चा शुरू हो गयी है कि जनरल मुशर्रफ अमरीकियों के पसंद की बात कह कर उनके करीब आने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . लेकिन अब उनकी बोली बदल रही है . पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. और मुशर्रफ के बयान को कूटनीतिक हलकों में इसी पृष्ठभूमि के साथ समझा जा रहा है .

Tuesday, October 5, 2010

क्या हिन्दी रीजनल भाषा है ?

शेष नारायण सिंह

हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार , अजय ब्रह्मात्मज ने एक दिलचस्प विषय पर फेसबुक पर चर्चा शुरू की है . कहते हैं कि सारी पीआर कंपनियां हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहती हैं।कोई विरोध नहीं करता। वक्‍त आ गया है कि उन्‍हें भारतीय भाषा कहा जाए। आगे कहते हैं कि मैं उनकी राय से सहमत हूं और उन सभी पीआर कंपनियों की भर्त्‍सना करता हूं जो सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल कैटेगरी में डालती हैं . इस बहस में बहुत बड़े लोग शामिल हो गए हैं . गरम हवा और और श्याम बेनेगल की ज़्यादातर फिल्मों की सहयात्री ,शमा ज़हरा जैदी का कहना है कि अंग्रेज़ी को नेशनल मीडिया कहना गलत है .उसे एंग्लो-इन्डियन मीडिया कहना चाहिए अजय जी कहते हैं आज से उन्होंने विरोध और फटकार आरंभ कर दिया है। थोड़ा प्रेम से भी समझाएंगे। उन्‍हें मालूम ही नहीं कि वे कौन सी परंपरा ढो रहे हैं। एक तरीका यह भी है कि सभी स्‍टारों को रीजनल स्‍टार कहा जाए। सलमान,आमिर,रितिक,शाहरूख सभी रीजनल स्‍टार हैं,क्‍योंकि हिंदी मीडिया रीजनल मीडिया है।
इस बहस में शामिल होने की ज़रूरत है . अंग्रेज़ी जिसे इस देश में दो प्रतिशत लोग भी नहीं जानते , उसे यह लोग राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं . भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहने की यह बीमारी अखबारों में भी है . कुछ तो ऐसे पाषाण युगीन सोच के लोग हैं कि वे भारतीय भाषाओं के अखबारों को वर्नाक्युलर प्रेस भी कहते हैं.
यह हमारी गुलामी की मानसिकता की उपज है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . मामला मीडिया से सम्बंधित है इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि इस पर बाकायदा बहस चलाई जाय. सब के सुझाव आमंत्रित है