शेष नारायण सिंह
अंग्रेज़ी के अखबार द हिन्दू ने खोजी और जन पक्षधरता की पत्रकारिता का एक नया कारनामा अंजाम दिया है . अखबार ने छाप दिया है कि भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ जो अन्याय हुआ है उसके लिए कांग्रेस और भी जे पी के नेता बराबर के ज़िम्मेदार हैं .भोपाल काण्ड के वक़्त यूनियन कार्बाइड कंपनी के अध्यक्ष , वारेन एंडरसन के मामले में एक नया आयाम सामने आ गया है . बी जे पी वाले भोपाल के बहाने एक और बोफोर्स की तलाश में हैं. सारी ज़िम्मेदारी राजीव गाँधी के मत्थे मढ़ देने के चक्कर में हैं जिस से सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को रक्षात्मक मुद्रा में लाया जा सके . लेकिन अब खेल बदल गया है . अब पता चाल है कि पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता, अरुण जेटली जब कानून मंत्री थे तो उन्होंने भी एंडरसन के बारे में वही कहा था जो कहने के आरोप में बी जे पी वाले कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं . आज देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार में छप गया है कि २५ सितम्बर को २००१ को कानून मंत्री के रूप में अरुण जेटली ने फ़ाइल में लिखा था कि एंडरसन को वापस बुला कर उन पर मुक़दमा चलाने का केस बहुत कमज़ोर है . जब यह नोट अरुण जेटली ने लिखा उस वक़्त उनके ऊपर कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री पद की ज़िम्मेदारी थी . यही नहीं उस वक़्त देश के अटार्नी जनरल के पद पर देश के सर्वोच्च योग्यता वाले एक वकील, सोली सोराबजी विद्यमान थे. सोराबजी ने अपनी राय में लिखा था कि अब तक जुटाया गया साक्ष्य ऐसा नहीं है जिसके बल पर अमरीकी अदालतों में मामला जीता जा सके. अरुण जेटली के नोट में जो लिखा है उससे एंडरसन बिलकुल पाक साफ़ इंसान के रूप में सामने आता है . ज़ाहिर है आज बी जे पी राजीव गांधी के खिलाफ जो केस बना रही है , उसकी वह राय तब नहीं थी जब वह सरकार में थी. अरुण जेटली ने सरकारी फ़ाइल में लिखा है कि यह कोई मामला ही नहीं है कि मिस्टर एंडरसन ने कोई ऐसा काम किया जिस से गैस लीक हुई और जान माल की भारी क्षति हुई . श्री जेटली ने लिखा है कि कहीं भी कोई सबूत नहीं है कि मिस्टर एंडरसन को मालूम था कि प्लांट की डिजाइन में कहीं कोई दोष है या कहीं भी सुरक्षा की बुनियादी ज़रूरतों से समझौता किया गया है. कानून मंत्री, अरुण जेटली कहते हैं कि सारा मामला इस अवधारणा पर आधारित है कि कंपनी के अध्यक्ष होने के नाते एंडरसन को मालूम होना चाहिए कि उनकी भोपाल यूनिट में क्या गड़बड़ियां हैं . श्री जेटली के नोट में साफ़ लिखा है कि इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि अमरीका में मौजूद मुख्य कंपनी के अध्यक्ष ने भोपाल की फैक्टरी के रोज़ के काम काज में दखल दिया. उन्होंने कहा कि हालांकि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन अगर मामले को आगे तक ले जाने की पालिसी बनायी जाती है तो केस दायर किया जा सकता है . ज़ाहिर हैं उस वक़्त की सरकार ने कानून के विद्वान् अपने मंत्री, अरुण जेटली की राय को जान लेने के बाद मामले को आगे नहीं बढ़ाया .
मौजूदा सरकार की भी यही राय है . उन्हें भी मालूम है कि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन बी जे पी की ओर से मीडिया के ज़रिये शुरू किये गए अभियान से संभावित राजनीतिक नुकसान के डर से यू पी ए सरकार भी मामले चलाने का स्वांग करने के पक्ष में लगते हैं .वैसे भी बी जे पी ने इस मामले को अपनी टाप प्रायरिटी पर डाल दिया है . पता चला है कि संसद के मानसून सत्र में वे इस मामले पर भारी ताक़त के साथ जुटने वाले हैं . अब यह देखना दिलचस्प होगा कि एंडरसन के केस में राजीव गाँधी, अर्जुन सिंह वगैरह के साथ क्या अरुण जेटली को भी कटघरे में रखने की कोशिश की जायेगी क्योंकि अगर कांग्रेस ज़िम्मेदार है तो ठीक वही ज़िम्मेदारी अरुण जेटली पर भी बनती है .सरकार में मंत्री के रूप में तो अरुण जेटली ने बयान दिया ही था, निजी हैसियत में भी उन्होंने यूनियन कार्बाइड खरीदने वाली वाली कंपनी डाव केमिकल्स को कानूनी सलाह दी थी कि डाव को भोपाल गैस लीक मामले के किसी भी सिविल या क्रिमनल मुक़दमे में ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता..यह सलाह अरुण जेटली ने २००६ में दी थी जाब वे डाव केमिकल्स के एडवोकेट थे.
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीतिक फायदे के लिए बी जे पी वाले भोपाल के पीड़ितों को राहत देने के काम में हाथ डालते हैं कि नहीं . इस में दो राय नहीं है कि १९८४ से लेकर अब तक जितनी भी सरकारें दिल्ली और भोपाल में आई हैं वे सब भोपाल के गैस पीड़ितों के गुनहगार हैं . लेकिन सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी कांगेस की है . अब यह साफ़ हो गया है कि बी जेपी का सबसे मज़बूत नेता भी उसमें शामिल था. अब यह भी पता है कि अमरीका परस्ती की अपनी नीति के कारण न तो , बी जे पी और न ही कांग्रेस भोपाल के पीड़ितों का पक्ष लेगी . ऐसी हालत में मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि वह दोषियों को सामने लाये और सार्वजनिक रूप से कायल करे. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने बिगुल बजा दिया है , बाकी मीडिया संगठनों को भी कांग्रेस और बी जे पी के दोषी नेताओं के एकार्तूतों को सार्वजनिक डोमेन में लाने में मदद करनी चाहिये .
Friday, June 25, 2010
Wednesday, June 23, 2010
बात बिगड़ गयी है, जातिवादी नरक से निकालने के लिए महात्मा फुले की ज़रुरत है
शेष नारायण सिंह
दिल्ली में पापी लोग अपनी ही बहनों को मार डाल रहे हैं . इन दुष्टों से अपनी ही सगी बहनों की खुशियाँ नहीं देखी जा रही हैं.अभी मोनिका और कुलदीप की निर्मम हत्या की खबर आई थी . .अब उसी परिवार की एक और लड़की को भाई ने ही मार डाला. वह इसलिए नाराज़ था कि उसकी बहन ने अपनी खुशी के लिए शादी कर ली थी. उसने शादी किसी दूसरी जाति के लडके से की थी. अजीब बात है कि कहीं बच्चे इसलिए मार डाले जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी जाति के बाहर शादी कार ली है और वहीं दिल्ली के आस पास बहुत सारे लड़के लडकियां इस लिए मौत के घाट उतार दिए जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी ही जाति और गोत्र में शादी कर ली है .इक्कीसवीं सदी चल रही है , मुल्क को आज़ाद हुए ६० साल से ऊपर हो चुके हैं ,जिन इलाकों से इस तरह की तंगदिली की खबरें आ रही हैं उन इलाकों में शिक्षा का भी प्रचार प्रसार ख़ासा है . सूचना माध्यमों का प्रभाव है जिसके चलते दुनिया भर के रीति रिवाजों की जानकारी है लेकिन फिर भी निहायत ही जंगली तरीके से अपने सगे सम्बन्धियों को मौत की सज़ा दे रहे हैं यहाँ के लोग. समझ में नहीं आता कि एकाएक जाति और उस से जुड़े मुद्दे इतने अहम क्यों हो गए हैं . सबसे अजीब बात यह है कि इन मामलों में यह जानते हुए कि भयानक अपराध के काम किये जा रहे हैं , नेता लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं. हरियाणा के मुख्य मंत्री ने तो एक तरह से जाति के बाहर शादी करने की बात को परम्परा विरुद्ध कह कर इन अपराधियों का समर्थन ही कर दिया है . बाकी नेता भी मीडिया द्वारा घेरे जाने पर गोल मोल जवाब देकर अपना पिंड छुड़ा रहे हैं. जबकि आज़ादी की लड़ाई में यह समाया हुआ है कि देश में बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की जायेगी. हरियाणा के मुख्य मंत्री की बात बहुत अजीब इसलिए लगती है कि उनके पिता आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे और उस संविधान सभा के सदस्य थे जिसने जीवन के मौलिक अधिकार देने वाले संविधान की स्थापना की थी. इसी लिए इस वहशत के निजाम को समर्थन देने वाले भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की बात समझ मेंआने वाली नहीं है . महात्मा गाँधी खुद जाति की कट्टरता के खिलाफ थे. उन्होंने इंदिरा गाँधी की दूसरी जाति में हुई शादी को समर्थन दिया था जबकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी भी जाति और धर्म के आधार पर गैर बराबरी का समर्थन नहीं किया था. कांग्रेस को चाहिए कि जो लोग भी उनकी पार्टी में जाति और धर्म की कट्टरता का समर्थन कर रहे हों उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दें . डॉ भीम राव अंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया के नाम पर भी आज़ादी के लड़ाई के दौरान बहुत सारे लोग लामबंद हुए थे . इनकी विचार धारा को लागू करने के लिए अब कई राजनीतिक पार्टियां हैं. लेकिन वे पार्टियां भी जाति के शिकंजे को तोड़ने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं . उलटे जाति की संस्था को वोट दिलाऊ दुधारू गाय की तरह जिंदा रखना चाहती हैं .एक और अजीब बात है कि आजकल जिन इलाकों में जाति के बाहर शादी करने या अपने गोत्र में शादी करने पर हिंसक वारदातें हो रही हैं वह आर्य समाज के प्रभाव वाले क्षेत्र भी है . जो रूढ़िवाद का विरोध करने के लिए शुरू किया गया था . और तो और इस्लाम धर्म को माने वाले भी इस जाति के चक्र व्यूह में फंस गए हैं .जहां जाति के आधार पर गैर बराबरी की अनुमति ही नहीं है . लगता हैकि इस सारे जाति वादी गोरख धंधे के पीछे राजनीतिक लालच काम कर रही है और जाति को वोट बैंक के रूप में जिंदा रखने वालों का एक वर्ग देश का नेता बना हुआ है . लगता है कि अपने समाज को इस जातिवादी नरक से निकालने के लिए किसी ज्योति बा फुले की ज़रुरत पड़ेगी वरना सत्ता के लोभी नेता बिरादरी के लोग आज़ादी की विरासत को चट कर जायेंगें.हालांकि पिछले ४० वर्षों से जाति की राजनीति को हवा दे रही राजनीतिक बिरादरी के लिए जाति के मोह को छोड़ना मुश्किल होगा.लेकिन यह तय है कि किसी न किसी को आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना पडेगा और उसे कुर्बानी भी देनी पड़ेगी. जब १८४८ में ज्योति बा फुले ने दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोला था तो उन्हें उनके पिता ने ही घर से निकाल दिया था. और लगता है कि मौजूदा जातिवादी नरक का इलाज़ महात्मा फुले ही कर सकते हैं . क्योंकि बात बहुत बिगड़ गयी है
दिल्ली में पापी लोग अपनी ही बहनों को मार डाल रहे हैं . इन दुष्टों से अपनी ही सगी बहनों की खुशियाँ नहीं देखी जा रही हैं.अभी मोनिका और कुलदीप की निर्मम हत्या की खबर आई थी . .अब उसी परिवार की एक और लड़की को भाई ने ही मार डाला. वह इसलिए नाराज़ था कि उसकी बहन ने अपनी खुशी के लिए शादी कर ली थी. उसने शादी किसी दूसरी जाति के लडके से की थी. अजीब बात है कि कहीं बच्चे इसलिए मार डाले जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी जाति के बाहर शादी कार ली है और वहीं दिल्ली के आस पास बहुत सारे लड़के लडकियां इस लिए मौत के घाट उतार दिए जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी ही जाति और गोत्र में शादी कर ली है .इक्कीसवीं सदी चल रही है , मुल्क को आज़ाद हुए ६० साल से ऊपर हो चुके हैं ,जिन इलाकों से इस तरह की तंगदिली की खबरें आ रही हैं उन इलाकों में शिक्षा का भी प्रचार प्रसार ख़ासा है . सूचना माध्यमों का प्रभाव है जिसके चलते दुनिया भर के रीति रिवाजों की जानकारी है लेकिन फिर भी निहायत ही जंगली तरीके से अपने सगे सम्बन्धियों को मौत की सज़ा दे रहे हैं यहाँ के लोग. समझ में नहीं आता कि एकाएक जाति और उस से जुड़े मुद्दे इतने अहम क्यों हो गए हैं . सबसे अजीब बात यह है कि इन मामलों में यह जानते हुए कि भयानक अपराध के काम किये जा रहे हैं , नेता लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं. हरियाणा के मुख्य मंत्री ने तो एक तरह से जाति के बाहर शादी करने की बात को परम्परा विरुद्ध कह कर इन अपराधियों का समर्थन ही कर दिया है . बाकी नेता भी मीडिया द्वारा घेरे जाने पर गोल मोल जवाब देकर अपना पिंड छुड़ा रहे हैं. जबकि आज़ादी की लड़ाई में यह समाया हुआ है कि देश में बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की जायेगी. हरियाणा के मुख्य मंत्री की बात बहुत अजीब इसलिए लगती है कि उनके पिता आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे और उस संविधान सभा के सदस्य थे जिसने जीवन के मौलिक अधिकार देने वाले संविधान की स्थापना की थी. इसी लिए इस वहशत के निजाम को समर्थन देने वाले भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की बात समझ मेंआने वाली नहीं है . महात्मा गाँधी खुद जाति की कट्टरता के खिलाफ थे. उन्होंने इंदिरा गाँधी की दूसरी जाति में हुई शादी को समर्थन दिया था जबकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी भी जाति और धर्म के आधार पर गैर बराबरी का समर्थन नहीं किया था. कांग्रेस को चाहिए कि जो लोग भी उनकी पार्टी में जाति और धर्म की कट्टरता का समर्थन कर रहे हों उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दें . डॉ भीम राव अंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया के नाम पर भी आज़ादी के लड़ाई के दौरान बहुत सारे लोग लामबंद हुए थे . इनकी विचार धारा को लागू करने के लिए अब कई राजनीतिक पार्टियां हैं. लेकिन वे पार्टियां भी जाति के शिकंजे को तोड़ने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं . उलटे जाति की संस्था को वोट दिलाऊ दुधारू गाय की तरह जिंदा रखना चाहती हैं .एक और अजीब बात है कि आजकल जिन इलाकों में जाति के बाहर शादी करने या अपने गोत्र में शादी करने पर हिंसक वारदातें हो रही हैं वह आर्य समाज के प्रभाव वाले क्षेत्र भी है . जो रूढ़िवाद का विरोध करने के लिए शुरू किया गया था . और तो और इस्लाम धर्म को माने वाले भी इस जाति के चक्र व्यूह में फंस गए हैं .जहां जाति के आधार पर गैर बराबरी की अनुमति ही नहीं है . लगता हैकि इस सारे जाति वादी गोरख धंधे के पीछे राजनीतिक लालच काम कर रही है और जाति को वोट बैंक के रूप में जिंदा रखने वालों का एक वर्ग देश का नेता बना हुआ है . लगता है कि अपने समाज को इस जातिवादी नरक से निकालने के लिए किसी ज्योति बा फुले की ज़रुरत पड़ेगी वरना सत्ता के लोभी नेता बिरादरी के लोग आज़ादी की विरासत को चट कर जायेंगें.हालांकि पिछले ४० वर्षों से जाति की राजनीति को हवा दे रही राजनीतिक बिरादरी के लिए जाति के मोह को छोड़ना मुश्किल होगा.लेकिन यह तय है कि किसी न किसी को आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना पडेगा और उसे कुर्बानी भी देनी पड़ेगी. जब १८४८ में ज्योति बा फुले ने दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोला था तो उन्हें उनके पिता ने ही घर से निकाल दिया था. और लगता है कि मौजूदा जातिवादी नरक का इलाज़ महात्मा फुले ही कर सकते हैं . क्योंकि बात बहुत बिगड़ गयी है
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शेष नारायण सिंह
Tuesday, June 22, 2010
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अमर सिंह ने कांशीराम का रास्ता अपनाया
शेष नारायण सिंह
बिहार के साथ साथ उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम वोटों के लिए जुगाड़ शुरू हो गया है . बिहार में तो मुसलमानों को रिझाने के पारंपरिक तरीके इस्तेमाल किये जा रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ नए प्रयोग हो रहे हैं . आम तौर पर चुनाव में कुछ पैसों की लालच में छोटी राजनीतिक पार्टियां बना ली जाती हैं लेकिन इस बार जो छोटी राजनीतिक पार्टियां बन रही हैं, उन्हें जनता ने गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है . डुमरिया गंज विधान सभा चुनाव में इस बात पर बहस नहीं थी कि कौन जीतेगा . सब को मालूम था कि सत्ताधारी पार्टी की उम्मीदवार ही जीतेगी लेकिन दूसरी जगह पर कौन आएगा ,इस पर चर्चा थी क्योंकि उस को ही सबसे लोकप्रिय पार्टी माना जाएगा. दूसरी जगह पर बी जे पी आ गयी जबकि राहुल गाँधी और जगदम्बिका पाल की कोशिश के बावजूद कांग्रेस बहुत पीछे छूट गयी . उत्तर प्रदेश में आम तौर पर मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी, समाजवादी पार्टी भी बहुत पिछड़ गयी. और गैर मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देकर घोषित रूप से पिछड़े मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए बनायी गयी , पीस पार्टी का उम्मीदवार बाकायदा लड़ाई में बना रहा. पीस पार्टी के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का नंबर आया. पीस पार्टी के बारे में कहा जाता है कि उसे हिंदुत्व वादी ताक़तों ने बनवाया है ताकि मुसलमानों का वोट कांग्रेस या समाजवादी पार्टी को न मिल सके. इस बात के कोई सबूत नहीं है लेकिन ऐसा कहने वाले बहुत सारे लोग मिल जायेगें . पीस पार्टी के अलावा भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के नाम पर कई पार्टियां बन चुकी हैं. अभी उनकी राजनीतिक हैसियत कुछ ख़ास नहीं है लेकिन चुनाव के मैदान में उनकी मौजूदगी निश्चित रूप से नतीजों को प्रभावित कर रही है और करेगी भी .
उत्तर प्रदेश में डुमरिया गंज के उपचुनाव ने बहुत सारे राजनीतिक विमर्श के सूत्र छोड़े हैं . डुमरिया गंज जिस लोक सभा क्षेत्र में पड़ता है , वहां से पिछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार जगदम्बिका पाल विजयी रहे थे. डुमरिया गंज सेगमेंट में भी वे आगे थे . यानी वहां माहौल कांग्रेस के पक्ष में था लेकिन विधान सभा उपचुनाव में पांचवें स्थान पर आकर कांग्रेस ने साबित कर दिया कि लोक सभा चुनाव का नतीजा एक इत्तेफाक था .इस से ज्यादा कुछ नहीं .लेकिन इसमें कांग्रेस की प्रतिष्टा दांव पर लगी थी और वह धूमिल हुई है ..इस उपचुनाव में और भी बहुत कुछ दांव पर लगा था. कल्याण सिंह को साथ लेने के बाद समाजवादी पार्टी और मुसलमानों के सम्बन्ध भी मुस्लिम जनमत के बीच बहस का विषय हैं . हालांकि कल्याणसिंह को अब समाजवादी पार्टी ने निकाल दिया है लेकिन अभी विश्वसनीयता का संकट बना हुआ है . कुछ मुसलमान नेता भी कल्याण सिंह मामले को मुद्दा बनाने के चक्कर में थे लेकिन सफल नहीं हुए . इनमें से एक तो पार्टी से निकाले भी गए. पूरे देश के मुसलमानों का प्रतिनिधि बनने का दावा करने वाले यह नेता जी अपने विधान सभा क्षेत्र में भी समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार जयाप्रदा को हरा नहीं पाए . उनके घर के सामने , जयाप्रदा के समर्थकों ने सभा की और उनके समर्थन वाली कांग्रेसी उम्मीदवार को हराया .इसलिए मुस्लिम जनमत में उन नेता जी की तो कोई ख़ास इज्ज़त नहीं है लेकिन लोक सभा चुनावों में बड़े पैमाने पर मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से जोड़ने वाले पार्टी के पूर्व महासचिव ,अमर सिंह की राजनीति का खामियाजा समाजवादी पार्टी को भोगना पड़ रहा है. डुमरिया गंज में भी अमर सिंह ने पूरी ताक़त से पीस पार्टी के उम्मीदवार की मदद की थी. भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी और हिन्दी फिल्मों की नायिका और संसद सदस्य , जयाप्रदा के साथ डुमरिया गंज में सभा भी की थी. और भी कारण रहे होंगें जिसकी वजह से मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दिया लेकिन इस चुनाव ने साबित कर दिया कि समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह चुक जाने को तैयार नहीं हैं.. कांग्रेस की तरह समाजवादी पार्टी में भी नेता की कृपा से सत्ता का सुख भोगने का फैशन है . कांगेस में इंदिरा गाँधी के नाम पर चुनाव जीते जाते थे और जिसको भी वे पार्टी से निकाल देती थीं उसकी राजनीति का अंत हो जाता था. अब सोनिया गाँधी की लोकप्रियता की छाया में कांग्रेस के नेता लोग सत्ता का आनंद ले रहे हैं . समाजवादी पार्टी में भी यही होता था. मुलायम सिंह यादव के नाम पर ही सारी जमात राज कर रही थी . माना जा रहा था कि अमर सिंह भी उसी भीड़ का हिसा हैं जो नेता जी के नाम पर मौज कर रहे हैं. जिसको भी नेता जी ने निकाल दिया उनकी हालत खस्ता हो जाती थी और पार्टी का कोई नुकसान नहीं होता था . बेनी प्रसाद वर्मा, रघु ठाकुर,राज बब्बर, आज़म खां आदि कुछ ऐसे नाम हैं जो समाजवादी पार्टी के आलाकमान हुआ करते थे लेकिन आज कहीं नहीं हैं . अमर सिंह भी इसी दशा को प्राप्त होगें ऐसा माना जा रहा था लेकिन उन्होंने डुमरिया गंज चुनाव में हस्तक्षेप करके बता दिया है कि वे राज्य की राजनीति में मजबूती के साथ मौजूद हैं और आने वाले महीनों में अपनी पुरानी पार्टी के लिए तो मुश्किल पैदा करेगें ही, छोटी पार्टियों को जोड़कर एक ऐसा गठबंधन तैयार कर देगें जो उत्तर प्रदेश की पारंपरिक पार्टियों को सत्ता के गलियारों से बाहर भी खदेड़ सकता है. १९८७ के बाद कांशी राम ने भी यही प्रयोग किया था और आज देश के हर कोने में उनकी पार्टी की ताक़त से लोग डरते हैं. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़े पैमाने पर परिवर्तन का डंका बज चुका है . भविष्य में क्या होगा , उसके बारे में अभी कुछ कहना इसलिए ठीक नहीं होगा कि अपनी राजनीतिक समझदारी की समझ दांव पर लग सकती है .
बिहार के साथ साथ उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम वोटों के लिए जुगाड़ शुरू हो गया है . बिहार में तो मुसलमानों को रिझाने के पारंपरिक तरीके इस्तेमाल किये जा रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ नए प्रयोग हो रहे हैं . आम तौर पर चुनाव में कुछ पैसों की लालच में छोटी राजनीतिक पार्टियां बना ली जाती हैं लेकिन इस बार जो छोटी राजनीतिक पार्टियां बन रही हैं, उन्हें जनता ने गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है . डुमरिया गंज विधान सभा चुनाव में इस बात पर बहस नहीं थी कि कौन जीतेगा . सब को मालूम था कि सत्ताधारी पार्टी की उम्मीदवार ही जीतेगी लेकिन दूसरी जगह पर कौन आएगा ,इस पर चर्चा थी क्योंकि उस को ही सबसे लोकप्रिय पार्टी माना जाएगा. दूसरी जगह पर बी जे पी आ गयी जबकि राहुल गाँधी और जगदम्बिका पाल की कोशिश के बावजूद कांग्रेस बहुत पीछे छूट गयी . उत्तर प्रदेश में आम तौर पर मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी, समाजवादी पार्टी भी बहुत पिछड़ गयी. और गैर मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देकर घोषित रूप से पिछड़े मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए बनायी गयी , पीस पार्टी का उम्मीदवार बाकायदा लड़ाई में बना रहा. पीस पार्टी के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का नंबर आया. पीस पार्टी के बारे में कहा जाता है कि उसे हिंदुत्व वादी ताक़तों ने बनवाया है ताकि मुसलमानों का वोट कांग्रेस या समाजवादी पार्टी को न मिल सके. इस बात के कोई सबूत नहीं है लेकिन ऐसा कहने वाले बहुत सारे लोग मिल जायेगें . पीस पार्टी के अलावा भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के नाम पर कई पार्टियां बन चुकी हैं. अभी उनकी राजनीतिक हैसियत कुछ ख़ास नहीं है लेकिन चुनाव के मैदान में उनकी मौजूदगी निश्चित रूप से नतीजों को प्रभावित कर रही है और करेगी भी .
उत्तर प्रदेश में डुमरिया गंज के उपचुनाव ने बहुत सारे राजनीतिक विमर्श के सूत्र छोड़े हैं . डुमरिया गंज जिस लोक सभा क्षेत्र में पड़ता है , वहां से पिछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार जगदम्बिका पाल विजयी रहे थे. डुमरिया गंज सेगमेंट में भी वे आगे थे . यानी वहां माहौल कांग्रेस के पक्ष में था लेकिन विधान सभा उपचुनाव में पांचवें स्थान पर आकर कांग्रेस ने साबित कर दिया कि लोक सभा चुनाव का नतीजा एक इत्तेफाक था .इस से ज्यादा कुछ नहीं .लेकिन इसमें कांग्रेस की प्रतिष्टा दांव पर लगी थी और वह धूमिल हुई है ..इस उपचुनाव में और भी बहुत कुछ दांव पर लगा था. कल्याण सिंह को साथ लेने के बाद समाजवादी पार्टी और मुसलमानों के सम्बन्ध भी मुस्लिम जनमत के बीच बहस का विषय हैं . हालांकि कल्याणसिंह को अब समाजवादी पार्टी ने निकाल दिया है लेकिन अभी विश्वसनीयता का संकट बना हुआ है . कुछ मुसलमान नेता भी कल्याण सिंह मामले को मुद्दा बनाने के चक्कर में थे लेकिन सफल नहीं हुए . इनमें से एक तो पार्टी से निकाले भी गए. पूरे देश के मुसलमानों का प्रतिनिधि बनने का दावा करने वाले यह नेता जी अपने विधान सभा क्षेत्र में भी समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार जयाप्रदा को हरा नहीं पाए . उनके घर के सामने , जयाप्रदा के समर्थकों ने सभा की और उनके समर्थन वाली कांग्रेसी उम्मीदवार को हराया .इसलिए मुस्लिम जनमत में उन नेता जी की तो कोई ख़ास इज्ज़त नहीं है लेकिन लोक सभा चुनावों में बड़े पैमाने पर मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से जोड़ने वाले पार्टी के पूर्व महासचिव ,अमर सिंह की राजनीति का खामियाजा समाजवादी पार्टी को भोगना पड़ रहा है. डुमरिया गंज में भी अमर सिंह ने पूरी ताक़त से पीस पार्टी के उम्मीदवार की मदद की थी. भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी और हिन्दी फिल्मों की नायिका और संसद सदस्य , जयाप्रदा के साथ डुमरिया गंज में सभा भी की थी. और भी कारण रहे होंगें जिसकी वजह से मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दिया लेकिन इस चुनाव ने साबित कर दिया कि समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह चुक जाने को तैयार नहीं हैं.. कांग्रेस की तरह समाजवादी पार्टी में भी नेता की कृपा से सत्ता का सुख भोगने का फैशन है . कांगेस में इंदिरा गाँधी के नाम पर चुनाव जीते जाते थे और जिसको भी वे पार्टी से निकाल देती थीं उसकी राजनीति का अंत हो जाता था. अब सोनिया गाँधी की लोकप्रियता की छाया में कांग्रेस के नेता लोग सत्ता का आनंद ले रहे हैं . समाजवादी पार्टी में भी यही होता था. मुलायम सिंह यादव के नाम पर ही सारी जमात राज कर रही थी . माना जा रहा था कि अमर सिंह भी उसी भीड़ का हिसा हैं जो नेता जी के नाम पर मौज कर रहे हैं. जिसको भी नेता जी ने निकाल दिया उनकी हालत खस्ता हो जाती थी और पार्टी का कोई नुकसान नहीं होता था . बेनी प्रसाद वर्मा, रघु ठाकुर,राज बब्बर, आज़म खां आदि कुछ ऐसे नाम हैं जो समाजवादी पार्टी के आलाकमान हुआ करते थे लेकिन आज कहीं नहीं हैं . अमर सिंह भी इसी दशा को प्राप्त होगें ऐसा माना जा रहा था लेकिन उन्होंने डुमरिया गंज चुनाव में हस्तक्षेप करके बता दिया है कि वे राज्य की राजनीति में मजबूती के साथ मौजूद हैं और आने वाले महीनों में अपनी पुरानी पार्टी के लिए तो मुश्किल पैदा करेगें ही, छोटी पार्टियों को जोड़कर एक ऐसा गठबंधन तैयार कर देगें जो उत्तर प्रदेश की पारंपरिक पार्टियों को सत्ता के गलियारों से बाहर भी खदेड़ सकता है. १९८७ के बाद कांशी राम ने भी यही प्रयोग किया था और आज देश के हर कोने में उनकी पार्टी की ताक़त से लोग डरते हैं. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़े पैमाने पर परिवर्तन का डंका बज चुका है . भविष्य में क्या होगा , उसके बारे में अभी कुछ कहना इसलिए ठीक नहीं होगा कि अपनी राजनीतिक समझदारी की समझ दांव पर लग सकती है .
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शेष नारायण सिंह
Sunday, June 20, 2010
माँ खीर भवानी का जयकारा कश्मीरियत की एक अहम पहचान है
शेष नारायण सिंह
करीब बीस साल बाद कश्मीरी पंडितों ने माता खीर भवानी के मंदिर पर अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाए. धार्मिक कश्मीरी पंडित के लिए माता खीर भवानी के दर पर सिर झुकाना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत है . १९९० के बाद से यहाँ के पंडितों को घर छोड़ने पर मजबूर किया गया था. तब राजनीतिक हालात ठीक नहीं थे . भारत में अस्थिरता चौतरफा मुंह बाए खडी थी.हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बाबरी मस्जिद के नाम पर पूरे देश में विभाजन करने की राजनीति के इर्द गिर्द राजनीतिक पार्टियां डोल रही थीं. देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ,कांग्रेस में नेतृत्व का संकट था. दुनिया की दूसरी बड़ी ताक़त , सोवियत रूस टूट चुका था . अमरीका पूंजीवादी विश्व व्यवस्था कायम करने के अपने सपने को पूरा करने के लिएय कुछ भी करने को तैयार था. अमरीकी पैसे से पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक ने अपने देश में भारत विरोधी आतंकवादियों की एक फौज खडी कर रखी थी और वे कश्मीर में आतंक फैला रहे थे. अमरीकी साम्राज्यवादी डिजाइन की सफलता की आहट पूरी दुनिया में महसूस की जा रही थी . भारत भी उसकी चपेट में आ चुका था . ऐसी हालत में कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी आतंकवादियों ने घाटी में कश्मीरी पंडितों को मारना पीटना शुरू किया . उस वक़्त कश्मीर में जो भी नेता थे उनमें से ज़्यादातर बहुत ही लालची और पाकिस्तान परस्त थे. हालांकि एक कश्मीरी ही गृह मंत्री की कुर्सी पर मौजूद था लेकिन हालात बेकाबू हो गए थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह बी जे पी की कृपा से प्रधान मंत्री बने थे और उसके सामने उनका सिर झुका हुआ था. दबाव में आकर उन्होंने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बना दिया . यह इतनी बड़ी राजनीतिक गलती है जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . जगमोहन ने अपनी आदत के हिसाब से मुसलमानों के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया और पाकिस्तानी आतंकवादियों को कश्मीर में मुसलमानों के रक्षक के रूप में अपने आप को पेश करने का मौक़ा मिल गया . आम तौर पर अशिक्षित कश्मीरी नौजवानों को भी आतंक की सेना में भर्ती किया जाने लगा . कश्मीर में अफरा तफरी मच गयी और भारत के खिलाफ एक अजीब सा माहौल बनता गया . बाद में जगमोहन को भी हटाया गया और कश्मीर में स्थिरता लाने की राजनीतिक कोशिश भी की गयी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी .ऐसी हालत में कश्मीरी पंडितों ने अपना घर छोड़ कर बाकी देश में शरण ली . हर साल जब भी माता खीर भवानी की पूजा का समय आता था , आतंरिक रूप से विस्थापित कश्मीरी पंडित के दिलों में हूक सी उठती थी लेकिन उल्मूला की हालत ऐसी थी कि वहां जाकर कोई भी पूजा पाठ नहीं कर सकता था.देश के बाकी शहरों में शरण लेकर अपना वक़्त काट रहे कश्मीरी तड़प उठते थे और घाटी में खीर भवानी के मंदिर के आस पास रहने वाले मुसलमान अपने विस्थापित कश्मीरी पड़ोसियों की याद में मायूस हो जाया करते थे. शायद इसी लिए इस बार खीर भवानी के मंदिर पर पूरी दुनिया और भारत के कोने कोने से आये कश्मीरियों को यह लग रहा था कि यह तीर्थ यात्रा एक तरह से घर वापसी की शुरुआत थी . जब वे अपनी मातृभूमि छोड़कर बाहर जाने को मजबूर हुए थे , उस वक़्त की राजनीतिक हालात और आज की हालत में बहुत फर्क पड़ चुका है . आज पाक्सितानी आतंकवाद की कमर टूट चुकी है . कश्मीर में उनके लिए काम करने वाले नेताओं को अब कहीं से आर्थिक मदद नहीं मिल रही है . अमरीका अब भारत में पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ पोजीशन ले चुका है . मौजूदा पाकिस्तान सरकार के लिए अमरीकी इच्छा को सम्मानित करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. कश्मीर में रहने वाला मुसलमान अब आज़ादी का नारा लगाने वाले पाकिस्तान के एजेंटों की बात का विश्वान नहीं कर रहा है . मुकामी कश्मीरी मुसलमान कभी भी न तो भारत के खिलाफ था और न ही कश्मीरी पंडितों के. यह बात इस बार माता खीर भवानी मंदिर में पूजा करने आये पंडितों की सेवा में लगे मुसलमानों की मौजूदगी से लगा. मुस्लिम नौजवान तीर्थ यात्रियों के लिए कोल्ड ड्रिंक और पानी का इंतज़ाम कर रहे थे . उसमें कुछ २१ साल के थे जिन्होंने पहली बार खीर भवानी की पूजा देखी और कुछ साठ साल के थे जो अपने बिछुड़े हुए कश्मीरी पंडित पड़ोसियों से गले मिलकर अपनी यादें ताज़ा कर रहे थे. वहां राज्य के मुख्य मंत्री , उमर अब्दुल्ला भी अपनी पत्नी पायल के साथ आये और रुंधे हुए गले से ऐलान किया कि यही कश्मीरियत है .उमर अब्दुल्ला ने कहा और ठीक कहा कि कश्मीर में निहित स्वार्थ के लोगों ने कश्मीरी अवाम के बीच खाई खोदने की कोशिश की थी . आंशिक रूप से वे सफल भी हो चुके थे लेकिन अब उस गड्ढे को बंद करने का वक़्त आ चुका है . हालांकि अभी बहुत काम बाकी है लेकिन माता खीर भवानी की अर्चना से शुरू होने वाला यह अभियान दूर तलक जाएगा, खासकर अगर पूजा कर रहे कश्मीरी पंडितों की हिफाज़त में उनके मुस्लिम भाई भी खड़े रहें . दरार तो बहुत बड़ी है लेकिन अगर विदेशी आतंकवाद और साम्प्रदायिक ताक़तों को कमज़ोर करने में सरकार और आम जनता सफलता पाती है तो कश्मीर में हालात बहुत जल्द दुरुस्त हो जायेगें .
करीब बीस साल बाद कश्मीरी पंडितों ने माता खीर भवानी के मंदिर पर अपने श्रद्धा सुमन चढ़ाए. धार्मिक कश्मीरी पंडित के लिए माता खीर भवानी के दर पर सिर झुकाना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत है . १९९० के बाद से यहाँ के पंडितों को घर छोड़ने पर मजबूर किया गया था. तब राजनीतिक हालात ठीक नहीं थे . भारत में अस्थिरता चौतरफा मुंह बाए खडी थी.हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बाबरी मस्जिद के नाम पर पूरे देश में विभाजन करने की राजनीति के इर्द गिर्द राजनीतिक पार्टियां डोल रही थीं. देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ,कांग्रेस में नेतृत्व का संकट था. दुनिया की दूसरी बड़ी ताक़त , सोवियत रूस टूट चुका था . अमरीका पूंजीवादी विश्व व्यवस्था कायम करने के अपने सपने को पूरा करने के लिएय कुछ भी करने को तैयार था. अमरीकी पैसे से पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक ने अपने देश में भारत विरोधी आतंकवादियों की एक फौज खडी कर रखी थी और वे कश्मीर में आतंक फैला रहे थे. अमरीकी साम्राज्यवादी डिजाइन की सफलता की आहट पूरी दुनिया में महसूस की जा रही थी . भारत भी उसकी चपेट में आ चुका था . ऐसी हालत में कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानी आतंकवादियों ने घाटी में कश्मीरी पंडितों को मारना पीटना शुरू किया . उस वक़्त कश्मीर में जो भी नेता थे उनमें से ज़्यादातर बहुत ही लालची और पाकिस्तान परस्त थे. हालांकि एक कश्मीरी ही गृह मंत्री की कुर्सी पर मौजूद था लेकिन हालात बेकाबू हो गए थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह बी जे पी की कृपा से प्रधान मंत्री बने थे और उसके सामने उनका सिर झुका हुआ था. दबाव में आकर उन्होंने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बना दिया . यह इतनी बड़ी राजनीतिक गलती है जिसका खामियाजा आज तक भोगा जा रहा है . जगमोहन ने अपनी आदत के हिसाब से मुसलमानों के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया और पाकिस्तानी आतंकवादियों को कश्मीर में मुसलमानों के रक्षक के रूप में अपने आप को पेश करने का मौक़ा मिल गया . आम तौर पर अशिक्षित कश्मीरी नौजवानों को भी आतंक की सेना में भर्ती किया जाने लगा . कश्मीर में अफरा तफरी मच गयी और भारत के खिलाफ एक अजीब सा माहौल बनता गया . बाद में जगमोहन को भी हटाया गया और कश्मीर में स्थिरता लाने की राजनीतिक कोशिश भी की गयी लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी .ऐसी हालत में कश्मीरी पंडितों ने अपना घर छोड़ कर बाकी देश में शरण ली . हर साल जब भी माता खीर भवानी की पूजा का समय आता था , आतंरिक रूप से विस्थापित कश्मीरी पंडित के दिलों में हूक सी उठती थी लेकिन उल्मूला की हालत ऐसी थी कि वहां जाकर कोई भी पूजा पाठ नहीं कर सकता था.देश के बाकी शहरों में शरण लेकर अपना वक़्त काट रहे कश्मीरी तड़प उठते थे और घाटी में खीर भवानी के मंदिर के आस पास रहने वाले मुसलमान अपने विस्थापित कश्मीरी पड़ोसियों की याद में मायूस हो जाया करते थे. शायद इसी लिए इस बार खीर भवानी के मंदिर पर पूरी दुनिया और भारत के कोने कोने से आये कश्मीरियों को यह लग रहा था कि यह तीर्थ यात्रा एक तरह से घर वापसी की शुरुआत थी . जब वे अपनी मातृभूमि छोड़कर बाहर जाने को मजबूर हुए थे , उस वक़्त की राजनीतिक हालात और आज की हालत में बहुत फर्क पड़ चुका है . आज पाक्सितानी आतंकवाद की कमर टूट चुकी है . कश्मीर में उनके लिए काम करने वाले नेताओं को अब कहीं से आर्थिक मदद नहीं मिल रही है . अमरीका अब भारत में पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ पोजीशन ले चुका है . मौजूदा पाकिस्तान सरकार के लिए अमरीकी इच्छा को सम्मानित करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. कश्मीर में रहने वाला मुसलमान अब आज़ादी का नारा लगाने वाले पाकिस्तान के एजेंटों की बात का विश्वान नहीं कर रहा है . मुकामी कश्मीरी मुसलमान कभी भी न तो भारत के खिलाफ था और न ही कश्मीरी पंडितों के. यह बात इस बार माता खीर भवानी मंदिर में पूजा करने आये पंडितों की सेवा में लगे मुसलमानों की मौजूदगी से लगा. मुस्लिम नौजवान तीर्थ यात्रियों के लिए कोल्ड ड्रिंक और पानी का इंतज़ाम कर रहे थे . उसमें कुछ २१ साल के थे जिन्होंने पहली बार खीर भवानी की पूजा देखी और कुछ साठ साल के थे जो अपने बिछुड़े हुए कश्मीरी पंडित पड़ोसियों से गले मिलकर अपनी यादें ताज़ा कर रहे थे. वहां राज्य के मुख्य मंत्री , उमर अब्दुल्ला भी अपनी पत्नी पायल के साथ आये और रुंधे हुए गले से ऐलान किया कि यही कश्मीरियत है .उमर अब्दुल्ला ने कहा और ठीक कहा कि कश्मीर में निहित स्वार्थ के लोगों ने कश्मीरी अवाम के बीच खाई खोदने की कोशिश की थी . आंशिक रूप से वे सफल भी हो चुके थे लेकिन अब उस गड्ढे को बंद करने का वक़्त आ चुका है . हालांकि अभी बहुत काम बाकी है लेकिन माता खीर भवानी की अर्चना से शुरू होने वाला यह अभियान दूर तलक जाएगा, खासकर अगर पूजा कर रहे कश्मीरी पंडितों की हिफाज़त में उनके मुस्लिम भाई भी खड़े रहें . दरार तो बहुत बड़ी है लेकिन अगर विदेशी आतंकवाद और साम्प्रदायिक ताक़तों को कमज़ोर करने में सरकार और आम जनता सफलता पाती है तो कश्मीर में हालात बहुत जल्द दुरुस्त हो जायेगें .
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पाकिस्तान-चीन परमाणु समझौता -दुनिया को ब्लैकमेल करने की कोशिश
(मूल लेख दैनिक जागरण में छपा है )
शेष नारायण सिंह
बीजिंग से मिल रही ख़बरों के अनुसार चीन ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ब्लैकमेल करने के लिए पाकिस्तान के साथ परमाणु समझौता करने की चाल चलने का मन बना लिया है . पाकिस्तान की जो आर्थिक हालात हैं उसमें उसे किसी परमाणु समझौते की नहीं राजनीतिक स्थिरता की ज़रुरत है लेकिन फौजी जनरलों के हुक्म के गुलाम राष्ट्रपति ज़रदारी और प्रधानमंत्री गीलानी से सही तरह से राज चलाने की उम्मीद करना भी बेमतलब है . चीन और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौते की सम्भावना बहुत ज्यादा बढ़ गयी है . चीन के नए व्यवहार से लगता है कि वह भारत के साथ वही पचास के दशक वाला खेल खेलने वाला है . पिछले साल भारत और चीन के संबंधों में एक बार फिर सुधार आना शुरू हुआ था जब दिसंबर में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह और चीनी प्रधान मंत्री वेन जिबाओ जलवायु सम्मलेन में मिले थे. उसके बाद भारत की राष्ट्रपति , प्रतिभा पाटिल चीन की यात्रा पर भी हो आयीं. दोनों ही पक्षों से अच्छी अच्छी बातें हो रही हैं . हालांकि तर्ज हिन्दी-चीनी भाई-भाई वाला तो नहीं है लेकिन सुधार के लक्षण साफ़ नज़र आ रहे हैं . वैसे भी नए भूराजनीतिक माहौल में चीन और भारत को मालूम है कि आपस में दोस्ती के संकेत देने पड़ेगें . लेकिन एक नयी कूटनीतिक चाल करवट लेती नज़र आने लगी है . चीन की तरफ से ऐसी खबरें आ रही हैं कि वह पाकिस्तान से वैसी ही परमाणु संधि करना चाह रहा है जैसी भारत और अमरीका के बीच हुई है. पाकिस्तान बहुत दिनों से अमरीका पर दबाव डाल रहा है कि अमरीका उसके साथ भी भारत की तरह का समझौता करे. पाकिस्तान को मुगालता है कि वह चीन की तरफ परमाणु दोस्ती का हाथ बढ़ा कर अमरीका को ब्लैकमेल कर सकता है लेकिन अब तक मिले संकेतों से साफ़ लगता है कि अमरीकी विदेश विभाग पाकिस्तान के सामने ब्लैकमेल होने को तैयार नहीं है . अमरीका जानता है कि पाकिस्तान के रोज़मर्रा के खर्च भी उसकी मदद के बिना नहीं चल सकते. और चीन या अन्य किसी देश की यह मंशा नहीं है कि वह पाकिस्तानी हुक्मरान की रोटी पानी का खर्च दे . इस लिए पाकिस्तान और चीन की परमाणु कूटनीति की भनक लगने के बाद अमरीकी सेना और विदेश नीति के मझोले दर्जे के अधिकारियों ने पाकिस्तान के सर्वोच्च अधिकारियों को बता दिया है कि अगर चीन से परमाणु समझौता किया तो ठीक नहीं होगा . ज़ाहिर है कि पाकिस्तान के लिए चीन से दोस्ती बढ़ा कर भारत को चिढाने में तो कोई ख़ास परेशानी नहीं होगी लेकिन पाकिस्तान को मालूम है कि अमरीका से पंगा लेना उसकी औकात के बाहर है .. हालांकि चीन को मज़ा आ रहा है कि वह पाकिस्तान के बहाने अमरीका और भारत दोनों को ही परेशानी में डालने की स्थिति में है . चीनी राजनयिक जानते हैं कि अगर पाकिस्तान ने चीन से परमाणु समझौता कर लिया तो अमरीका की जनता पाकिस्तान को मिलने वाली अमरीकी सहायता को जारी नहीं रखने देगी. इस से पाकिस्तान को परेशानी होगी और वह चीन पर पहले से भी ज्यादा निर्भर हो जाएगा . उस स्थिति में पाक्सितान का इस्तेमाल भारत को बन्दर घुडकी देने के लिए और भी बेहतर तरीके से किया जा सकेगा.
चीन की यात्रा पर गए पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष , जनरल परवेज़ अशफाक कियानी ने सारी ताक़त लगा दी है कि उनकी इस यात्रा के दौरान ही पाक-चीन परमाणु समझौते की घोषणा हो जाए लेकिन लगता है कि अमरीका के दबाव के चलते ,चीन इस घोषणा को कुछ वक़्त के लिए स्थगित कर सकता है . पिछले कुछ हफ़्तों से चीन की राजधानी से इस तरह के संकेत मिलने शुरू हुए हैं .कि वह पाकिस्तान को भारत से बराबर साबित करने की कोशिश में पाकिस्तान से परमाणु समझौता कर सकता है .लेकिन भारत सरकार ने भी चीन को आगाह कर दिया है कि अगर वह पाकिस्तान से परमाणु समझौता करता है तो दोनों देशों के सुधर रहे रिश्तों पर उलटा असर पड़ सकता है . . इस बात के भी ज़ोरदार संकेत हैं कि चीन अब भारत से रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहा है.विदेश मंत्रालय में सर्वोच्च स्तर पर ऐसे लोग विद्यामान हैं जो चीन को अच्छी तरह से समझते हैं , विदेश सचिव निरुपमा राव और उनके पूर्व वर्ती शिव शंकर मेनन चीनी मामलों के अच्छे जानकार माने जाते हैं . ज़ाहिर है चीन से रिश्ते सुधारने की पहल के पीछे खूब सोची विचारी नीति काम कर रही है लेकिन चीन से आ रहे संकेतों के मद्दे-नज़र यह ख़तरा तो बना ही हुआ है कि चीन पाकिस्तान को इस्तेमाल करने की अपनी रणनीति में परमाणु आयाम भी जोड़ देगा. चीन की इस नीति को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत इसलिए भी है कि चीन के परमाणु ऊर्जा विभाग और पाकिस्तान के परमाणु ऊर्जा आयोग के बीच सारी बात चीत हो चुकी है . आर्थिक और व्यापारिक पहलू पर गौर किया जा चुका है . अब राजनीतिक हरी झंडी का इंतज़ार है . जो दोनों देशों एक सरकारों के सर्वोच्च स्तर पर तय होना है .जहां तक पाकिस्तान का सवाल है उनका सर्वोच्च राजनीतिक और सैनिक अधिकारी जनरल कियानी ही हैं . ज़रदारी और गीलानी को वैसे भी जनरल कियानी की मर्जी के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं है लेकिन चीन में भारत और अमरीकी रिश्तों पर पड़ने वाले नफ़ा -नुकसान का जायज़ा लिया जा रहा है और उसके बाद ही कोई फैसला होगा. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां कूटनीतिक प्रशासन के जानकार बिलकुल नहीं है . वहां फौज की मर्जी ही चलती है
शेष नारायण सिंह
बीजिंग से मिल रही ख़बरों के अनुसार चीन ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को ब्लैकमेल करने के लिए पाकिस्तान के साथ परमाणु समझौता करने की चाल चलने का मन बना लिया है . पाकिस्तान की जो आर्थिक हालात हैं उसमें उसे किसी परमाणु समझौते की नहीं राजनीतिक स्थिरता की ज़रुरत है लेकिन फौजी जनरलों के हुक्म के गुलाम राष्ट्रपति ज़रदारी और प्रधानमंत्री गीलानी से सही तरह से राज चलाने की उम्मीद करना भी बेमतलब है . चीन और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौते की सम्भावना बहुत ज्यादा बढ़ गयी है . चीन के नए व्यवहार से लगता है कि वह भारत के साथ वही पचास के दशक वाला खेल खेलने वाला है . पिछले साल भारत और चीन के संबंधों में एक बार फिर सुधार आना शुरू हुआ था जब दिसंबर में प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह और चीनी प्रधान मंत्री वेन जिबाओ जलवायु सम्मलेन में मिले थे. उसके बाद भारत की राष्ट्रपति , प्रतिभा पाटिल चीन की यात्रा पर भी हो आयीं. दोनों ही पक्षों से अच्छी अच्छी बातें हो रही हैं . हालांकि तर्ज हिन्दी-चीनी भाई-भाई वाला तो नहीं है लेकिन सुधार के लक्षण साफ़ नज़र आ रहे हैं . वैसे भी नए भूराजनीतिक माहौल में चीन और भारत को मालूम है कि आपस में दोस्ती के संकेत देने पड़ेगें . लेकिन एक नयी कूटनीतिक चाल करवट लेती नज़र आने लगी है . चीन की तरफ से ऐसी खबरें आ रही हैं कि वह पाकिस्तान से वैसी ही परमाणु संधि करना चाह रहा है जैसी भारत और अमरीका के बीच हुई है. पाकिस्तान बहुत दिनों से अमरीका पर दबाव डाल रहा है कि अमरीका उसके साथ भी भारत की तरह का समझौता करे. पाकिस्तान को मुगालता है कि वह चीन की तरफ परमाणु दोस्ती का हाथ बढ़ा कर अमरीका को ब्लैकमेल कर सकता है लेकिन अब तक मिले संकेतों से साफ़ लगता है कि अमरीकी विदेश विभाग पाकिस्तान के सामने ब्लैकमेल होने को तैयार नहीं है . अमरीका जानता है कि पाकिस्तान के रोज़मर्रा के खर्च भी उसकी मदद के बिना नहीं चल सकते. और चीन या अन्य किसी देश की यह मंशा नहीं है कि वह पाकिस्तानी हुक्मरान की रोटी पानी का खर्च दे . इस लिए पाकिस्तान और चीन की परमाणु कूटनीति की भनक लगने के बाद अमरीकी सेना और विदेश नीति के मझोले दर्जे के अधिकारियों ने पाकिस्तान के सर्वोच्च अधिकारियों को बता दिया है कि अगर चीन से परमाणु समझौता किया तो ठीक नहीं होगा . ज़ाहिर है कि पाकिस्तान के लिए चीन से दोस्ती बढ़ा कर भारत को चिढाने में तो कोई ख़ास परेशानी नहीं होगी लेकिन पाकिस्तान को मालूम है कि अमरीका से पंगा लेना उसकी औकात के बाहर है .. हालांकि चीन को मज़ा आ रहा है कि वह पाकिस्तान के बहाने अमरीका और भारत दोनों को ही परेशानी में डालने की स्थिति में है . चीनी राजनयिक जानते हैं कि अगर पाकिस्तान ने चीन से परमाणु समझौता कर लिया तो अमरीका की जनता पाकिस्तान को मिलने वाली अमरीकी सहायता को जारी नहीं रखने देगी. इस से पाकिस्तान को परेशानी होगी और वह चीन पर पहले से भी ज्यादा निर्भर हो जाएगा . उस स्थिति में पाक्सितान का इस्तेमाल भारत को बन्दर घुडकी देने के लिए और भी बेहतर तरीके से किया जा सकेगा.
चीन की यात्रा पर गए पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष , जनरल परवेज़ अशफाक कियानी ने सारी ताक़त लगा दी है कि उनकी इस यात्रा के दौरान ही पाक-चीन परमाणु समझौते की घोषणा हो जाए लेकिन लगता है कि अमरीका के दबाव के चलते ,चीन इस घोषणा को कुछ वक़्त के लिए स्थगित कर सकता है . पिछले कुछ हफ़्तों से चीन की राजधानी से इस तरह के संकेत मिलने शुरू हुए हैं .कि वह पाकिस्तान को भारत से बराबर साबित करने की कोशिश में पाकिस्तान से परमाणु समझौता कर सकता है .लेकिन भारत सरकार ने भी चीन को आगाह कर दिया है कि अगर वह पाकिस्तान से परमाणु समझौता करता है तो दोनों देशों के सुधर रहे रिश्तों पर उलटा असर पड़ सकता है . . इस बात के भी ज़ोरदार संकेत हैं कि चीन अब भारत से रिश्तों को सुधारने की कोशिश कर रहा है.विदेश मंत्रालय में सर्वोच्च स्तर पर ऐसे लोग विद्यामान हैं जो चीन को अच्छी तरह से समझते हैं , विदेश सचिव निरुपमा राव और उनके पूर्व वर्ती शिव शंकर मेनन चीनी मामलों के अच्छे जानकार माने जाते हैं . ज़ाहिर है चीन से रिश्ते सुधारने की पहल के पीछे खूब सोची विचारी नीति काम कर रही है लेकिन चीन से आ रहे संकेतों के मद्दे-नज़र यह ख़तरा तो बना ही हुआ है कि चीन पाकिस्तान को इस्तेमाल करने की अपनी रणनीति में परमाणु आयाम भी जोड़ देगा. चीन की इस नीति को गम्भीरता से लेने की ज़रूरत इसलिए भी है कि चीन के परमाणु ऊर्जा विभाग और पाकिस्तान के परमाणु ऊर्जा आयोग के बीच सारी बात चीत हो चुकी है . आर्थिक और व्यापारिक पहलू पर गौर किया जा चुका है . अब राजनीतिक हरी झंडी का इंतज़ार है . जो दोनों देशों एक सरकारों के सर्वोच्च स्तर पर तय होना है .जहां तक पाकिस्तान का सवाल है उनका सर्वोच्च राजनीतिक और सैनिक अधिकारी जनरल कियानी ही हैं . ज़रदारी और गीलानी को वैसे भी जनरल कियानी की मर्जी के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं है लेकिन चीन में भारत और अमरीकी रिश्तों पर पड़ने वाले नफ़ा -नुकसान का जायज़ा लिया जा रहा है और उसके बाद ही कोई फैसला होगा. जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां कूटनीतिक प्रशासन के जानकार बिलकुल नहीं है . वहां फौज की मर्जी ही चलती है
Saturday, June 19, 2010
नीतीश कुमार ने बी जे पी से पिंड छुडाने का काम शुरू किया
खबर छोटी है लेकिन बात बहुत बड़ी है . बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने आर एस एस को अलविदा कह दिया और उस की राजनीतिक शाखा से पिंड छुडाने का काम शुरू कर दिया है . शिवानन्द तिवारी गुस्से में हैं. उनके छात्र जीवन के साथी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी गुस्से में हैं. नीतीश ने वह रक़म लौटा दी है जो मोदी ने कोसी की आपदा के समय बिहार सरकार को दी थी . मदद करके उसका उल्लेख करना वैसे भी ठीक काम नहीं है. लेकिन मोदी को शिष्टाचार का पाठ पढ़ाना पत्थर पर दूब उगाने जैसा नामुमकिन काम है मोदी ने पूरी दुनिया को बता दिया कि उनकी कृपा से बिहार सरकार को पांच करोड़ रूपये हासिल हुए थे. दर असल बी जे पी वालों से समझने में गलती हो गयी. उनको लगा कि नीतीश कुमार की पार्टी से उनका पक्का सम्बन्ध है . लेकिन जो लोग नीतीश को जानते हैं उनका कहना है कि नीतीश बी जे पी के साथ से खुश नहीं थे लेकिन जार्ज फर्नांडीज़ और शरद की बात मानकर बी जे पी को ढो रहे थे . उधर बी जे पी के बडबोले नेता लोग बिहार को अपनी सरकार बताते घूमते फिरते थे. नाराज़ नीतीश ने उनको औकात बताने का काम शुरू कर दिया है और बहुत जल्दी जे पी आन्दोलन के नौजवान नेता, नीतीश कुमार अपने साथियों सहित बी जे पी से पिंड छुड़ा लेंगें
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Friday, June 18, 2010
प्रकाश झा की फिल्म ही नहीं लगती राजनीति
शेष नारायण सिंह
प्रकाश झा एक संवेदनशील फिल्मकार हैं . एक से एक अच्छी फ़िल्में बनायी हैं उन्होंने. उनकी फिल्म 'गंगाजल और अपहरण ' को देखने के बाद अंदाज़ लगा था कि किसी नीरस विषय पर वे इतनी संवेदनशील फिल्म बना सकते हैं . ज़ाहिर है कि आम फिल्मकार इस तरह की फिल्म नहीं बना सकता. अब उनकी नयी फिल्म आई है ,राजनीति . विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी चर्चित फिल्म को देखने के लिए मुंबई के इतने बड़े हाल में केवल १०-१२ लोग आये थे.. शुरू तो बहुत ही मज़बूत तरीके से हुई लेकिन बाद में साफ़ हो गया कि फिल्म बिलकुल मामूली है .नसीरुद्दीन शाह , अजय देवगन,मनोज बाजपेयी और नाना पाटेकर के अलावा बाकी कलाकारों का काम बहुत ही मामूली है.फिल्म के कलात्मक पक्ष पर कुछ ज्यादा कह सकने की मेरी हैसियत नहीं है लेकिन एक आम दर्शक पर जो असर पड़ता है उसके हिसाब से बात करने की कोशिश की जायेगी.पहली बात तो यह कि बोली के लिहाज़ से फिल्म में भौगोलिक असंतुलन है . नक्शा मध्य प्रदेश का दिखाया जाता है और बोली बिहार की है .इसी भोजपुरी हिन्दी के बल पर गंगाजल और अपहरण ने गुणवत्ता की दुनिया में झंडे बुलंद किये थे. दूसरी बात कि फिल्म में जो सबसे सशक्त करेक्टर पृथ्वी और समर का है .वह कुछ मॉडलनुमा अभिनेताओं से करवाया गया है जिनके मुंह से डायलाग ऐसे निकलते हैं जैसे पांचवीं जमात का बच्चा याद किया गया अपना पाठ सुनाता है .. फिल्म में जो कुछ दृश्य नसीरुद्दीन शाह के हैं वे फिल्मकार के काम को और भी मुश्किल बना देते हैं . जो ऊंचाई नसीर ने भास्कर सान्याल के चरित्र को दे दी है , यह बेचारे मोडल टाइप कलाकार उसे कभी भी नहीं प्रस्तुत कर सकते . उनसे तो इसकी उम्मीद करना भी बेमानी है . बाकी सब कुछ प्रकाश झा वाला ही है लेकिन कहानी बहुत ही बम्बइया हो गयी है . राजनीतिक सुप्रीमेसी के लिए लड़ी गयी लड़ाई इस तरह से पेश कर दी गयी है जैसे किसी शहर में ठेके में मिली कमाई के लिए लड़ाई लड़ी जाती है . कहीं महाभारत के सन्दर्भ मिल जाते हैं तो कहीं श्याम बेनेगल की कलियुग के . जब फिल्म बन रही थी ,उस वक़्त से ही ऐसा प्रचार किया जा रहा था कि प्रियंका गाँधी की तरह दिखने वाली एक अभिनेत्री को शामिल किया गया है और वह उनके व्यक्तित्व को नक़ल करने की कोशिश करेगी लेकिन ऐसा कोसों तक नहीं दिखा. आखीर के कुछ दृश्यों में उस अभिनेत्री ने प्रियंका की कुछ साड़ियों के रंग को कॉपी करने में आंशिक सफलता ज़रूर पायी है . बाकी उस रोल में प्रियंका गांधी कहीं नहीं नज़र आयीं .उनके व्यक्तित्व के किसी पक्ष को नहीं दिखा पायी कटरीना नाम की कलाकार . कुल मिलाकर प्रकाश झा ने एक ऐसी फिल्म बना दी ,जो प्रकाश झा की फिल्म तो बिलकुल नहीं लगती क्योंकि प्रकाश झा से उम्मीदें थोडा ज़्यादा की जाती हैं . उन्हें मेरे जैसे लोग श्याम बेनेगाल, मणि रत्नम, शुरू वाले राम गोपाल वर्मा की लाइन में रखने के चक्कर में रहते हैं . यह फिल्म तो उन्होंने ऐसी बना दी जो कोई भी राज कपूर , सुनील दत्त या मोहन कुमार बना देता, . इन्ही लोगों की वजह से फ़िल्मी गाँव पेश किये जाते हैं जहां सारे लोग अजीबो गरीब भाषा बोलते हैं , वहां के छप्परों के नीचे बारिश से नहीं बचा जा सकता , गरीब से गरीब आदमी के घर में जर्सी गाय बंधी होती है . इन फंतासीलैंड के फिल्मकारों की वजह से ही ज़्यादातर ठाकुर काले कुरते पहने होते हैं , माँ भवानी की पूजा करते रहते हैं , काला तिलक लगाते हैं और हमेशा दुनाली बन्दूक लिए रहते हैं .
अगर प्रकश झा का नाम न होता तो इस फिल्म को दारा सिंह की पुरानी फिल्मों की तरह ठाकुर दिलेर सिंह टाइप फिल्मों के सांचे में रखा जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं है . प्रकश झा से उम्मीद ज़्यादा की जाती है .मनोज बाजपेयी को चुनौती देने वाला जो नौजवान है वह किसी बड़े नेता के बेटे के रोल तक तो ठीक है , वहीअमरीका जाना , ड्राइवर को काका कहना, और किसी पैसे वाले की लडकी से इश्क करना लेकिन जब वह भारतीय राजनीति के खूंखार खेल में अजय देवगन और मनोजबाजपेयी जैसे बड़े अभिनेताओं को चुनौती देता है तो लगता है कि बस अब कह पड़ेगा कि यह बहादुरी मैंने फला साबुन से नहा कर पायी है . आप भी इस्तेमाल करें. उनके चेहरे पर हिन्दी हार्टलैंड की राजनीति की क्रूरता का कोसों तक पता नहीं है . कुल मिलाकर फिल्म इतनी साधारण है कि इसे फिल्म समीक्षा का विषय बनाना भी एक सड़क छाप काम है . लेकिन करना पड़ता है
प्रकाश झा एक संवेदनशील फिल्मकार हैं . एक से एक अच्छी फ़िल्में बनायी हैं उन्होंने. उनकी फिल्म 'गंगाजल और अपहरण ' को देखने के बाद अंदाज़ लगा था कि किसी नीरस विषय पर वे इतनी संवेदनशील फिल्म बना सकते हैं . ज़ाहिर है कि आम फिल्मकार इस तरह की फिल्म नहीं बना सकता. अब उनकी नयी फिल्म आई है ,राजनीति . विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी चर्चित फिल्म को देखने के लिए मुंबई के इतने बड़े हाल में केवल १०-१२ लोग आये थे.. शुरू तो बहुत ही मज़बूत तरीके से हुई लेकिन बाद में साफ़ हो गया कि फिल्म बिलकुल मामूली है .नसीरुद्दीन शाह , अजय देवगन,मनोज बाजपेयी और नाना पाटेकर के अलावा बाकी कलाकारों का काम बहुत ही मामूली है.फिल्म के कलात्मक पक्ष पर कुछ ज्यादा कह सकने की मेरी हैसियत नहीं है लेकिन एक आम दर्शक पर जो असर पड़ता है उसके हिसाब से बात करने की कोशिश की जायेगी.पहली बात तो यह कि बोली के लिहाज़ से फिल्म में भौगोलिक असंतुलन है . नक्शा मध्य प्रदेश का दिखाया जाता है और बोली बिहार की है .इसी भोजपुरी हिन्दी के बल पर गंगाजल और अपहरण ने गुणवत्ता की दुनिया में झंडे बुलंद किये थे. दूसरी बात कि फिल्म में जो सबसे सशक्त करेक्टर पृथ्वी और समर का है .वह कुछ मॉडलनुमा अभिनेताओं से करवाया गया है जिनके मुंह से डायलाग ऐसे निकलते हैं जैसे पांचवीं जमात का बच्चा याद किया गया अपना पाठ सुनाता है .. फिल्म में जो कुछ दृश्य नसीरुद्दीन शाह के हैं वे फिल्मकार के काम को और भी मुश्किल बना देते हैं . जो ऊंचाई नसीर ने भास्कर सान्याल के चरित्र को दे दी है , यह बेचारे मोडल टाइप कलाकार उसे कभी भी नहीं प्रस्तुत कर सकते . उनसे तो इसकी उम्मीद करना भी बेमानी है . बाकी सब कुछ प्रकाश झा वाला ही है लेकिन कहानी बहुत ही बम्बइया हो गयी है . राजनीतिक सुप्रीमेसी के लिए लड़ी गयी लड़ाई इस तरह से पेश कर दी गयी है जैसे किसी शहर में ठेके में मिली कमाई के लिए लड़ाई लड़ी जाती है . कहीं महाभारत के सन्दर्भ मिल जाते हैं तो कहीं श्याम बेनेगल की कलियुग के . जब फिल्म बन रही थी ,उस वक़्त से ही ऐसा प्रचार किया जा रहा था कि प्रियंका गाँधी की तरह दिखने वाली एक अभिनेत्री को शामिल किया गया है और वह उनके व्यक्तित्व को नक़ल करने की कोशिश करेगी लेकिन ऐसा कोसों तक नहीं दिखा. आखीर के कुछ दृश्यों में उस अभिनेत्री ने प्रियंका की कुछ साड़ियों के रंग को कॉपी करने में आंशिक सफलता ज़रूर पायी है . बाकी उस रोल में प्रियंका गांधी कहीं नहीं नज़र आयीं .उनके व्यक्तित्व के किसी पक्ष को नहीं दिखा पायी कटरीना नाम की कलाकार . कुल मिलाकर प्रकाश झा ने एक ऐसी फिल्म बना दी ,जो प्रकाश झा की फिल्म तो बिलकुल नहीं लगती क्योंकि प्रकाश झा से उम्मीदें थोडा ज़्यादा की जाती हैं . उन्हें मेरे जैसे लोग श्याम बेनेगाल, मणि रत्नम, शुरू वाले राम गोपाल वर्मा की लाइन में रखने के चक्कर में रहते हैं . यह फिल्म तो उन्होंने ऐसी बना दी जो कोई भी राज कपूर , सुनील दत्त या मोहन कुमार बना देता, . इन्ही लोगों की वजह से फ़िल्मी गाँव पेश किये जाते हैं जहां सारे लोग अजीबो गरीब भाषा बोलते हैं , वहां के छप्परों के नीचे बारिश से नहीं बचा जा सकता , गरीब से गरीब आदमी के घर में जर्सी गाय बंधी होती है . इन फंतासीलैंड के फिल्मकारों की वजह से ही ज़्यादातर ठाकुर काले कुरते पहने होते हैं , माँ भवानी की पूजा करते रहते हैं , काला तिलक लगाते हैं और हमेशा दुनाली बन्दूक लिए रहते हैं .
अगर प्रकश झा का नाम न होता तो इस फिल्म को दारा सिंह की पुरानी फिल्मों की तरह ठाकुर दिलेर सिंह टाइप फिल्मों के सांचे में रखा जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं है . प्रकश झा से उम्मीद ज़्यादा की जाती है .मनोज बाजपेयी को चुनौती देने वाला जो नौजवान है वह किसी बड़े नेता के बेटे के रोल तक तो ठीक है , वहीअमरीका जाना , ड्राइवर को काका कहना, और किसी पैसे वाले की लडकी से इश्क करना लेकिन जब वह भारतीय राजनीति के खूंखार खेल में अजय देवगन और मनोजबाजपेयी जैसे बड़े अभिनेताओं को चुनौती देता है तो लगता है कि बस अब कह पड़ेगा कि यह बहादुरी मैंने फला साबुन से नहा कर पायी है . आप भी इस्तेमाल करें. उनके चेहरे पर हिन्दी हार्टलैंड की राजनीति की क्रूरता का कोसों तक पता नहीं है . कुल मिलाकर फिल्म इतनी साधारण है कि इसे फिल्म समीक्षा का विषय बनाना भी एक सड़क छाप काम है . लेकिन करना पड़ता है
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Thursday, June 17, 2010
फर्जी शक़ की बुनियाद पर केवल मुसलमानों को क्यों पकड़ती है पुलिस
शेष नारायण सिंह
पुणे की जर्मन बेकरी के विस्फोट के मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने मुंह की खाई है .राज्य के पुलिस महानिदेशक,डी शिवनंदन ने बयान दे दिया है कि जर्मन बेकरी केस में पुलिस का काम बिलकुल गलत ढर्रे पर चल रहा था और अब तक जो कुछ भी जांच हुई है उसका केस से कोई मतलब नहीं है. जांच को फिर से करना होगा .जांच का काम ए टी एस को दिया गया था . राज्य के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी ने ऐलानियाँ कहा है कि अब तक की जांच को कूड़े दान के हवाले करके नए सिरे से तफ्तीश होगी . उन्होंने अखबार वालों को बताया कि ए टी एस को केस का ठीक से अध्ययन करना पड़ेगा,वैज्ञानिक तरीके से सबूत हटाना पड़ेगा और तब उन लोगों के एपह्चान करनी पड़ेगी जो जर्मन बेकरी काण्ड के लिए वास्तव में ज़िम्मेदार हैं . यानी अब तक पुलिस ने जो भी किया उसमें पेशागत ईमानदारी बिलकुल नहीं है , .इस बात की जांच की जानी चाहिए कि जिन लोगों को भी पुलिस ने पकड़ रखा था ,उनके खिलाफ केस क्यों बनाया गया. वैसे भी महाराष्ट्र पुलिस आजकल तरह तरह के गैरकानूनी काम के सिलसिले में ख़बरों में है . उनके एक इन्स्पेक्टर को गिरफ्तार किया गया है क्योंकि उसने सुपारी लेकर एक बिल्डर को जान से मारने की कोशिश की थी. ऐसे और भी बहुत से मामले सामने आ चुके हैं जिसमें पुलिस के तथा कथित इनकाउंटर स्पेशलिस्टों ने निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया था .जर्मन बेकरी का मामला थोडा पेचीदा है. जिस आदमी के बारे में सर्वोच्च पुलिस अधिकारी ने न बताया है कि उसके खिलाफ कोई मामला नहीं है , जब उसे ए टी एस वालों ने पकड़ा था तो क्या माहौल था उस पर नज़र डाल लेने से पुलिस की मानसिकता ठीक से समझ में आ जायेगी.
पुणे की जर्मन बेकरी में करीब ४ महीने पहले हुए धमाके में १७ लोग मारे गए थे . पुलिस ने अब्दुल समद उर्फ़ भटकल नाम के एक आदमी को २४ मई को कर्णाटक में जाकर पकड़ लिया था . यह समद इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य यासीन भटकल नाम के आदमी का भाई है .तो क्या पुलिस किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य के भाई को बिना किसी बुनियाद के गिरफ्तार कने के लिए आज़ाद है . अब्दुल समद की गिरफ्तारी के बाद तो माहौल ही बदल गया . पुलिस ने दावा किया कि जर्मन बेकरी में लगे क्लोज़ सर्किट टी वी की तस्वीरें देखने के बाद यह गिरफ्तारी हुई थी और वास्तव में जो आदमी बेकरी के अन्दर बम रख रहा था , वह भटकल ही है और उसे गिरफ्तार करके ए टी एस वालों ने बड़ी वाह वाही बटोरी थी. हद तो तब हो गयी जब केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने महाराष्ट्र ए टी एस को सार्वजनिक रूप से बधाई दी.और कहा कि कि समद जर्मन बेकरी धमाके का एक प्रमुख संदिग्ध है और उसको पकड़ कर पुलिस ने बहुत बड़ा काम किया है . आज जब पुलिस ने खुद ही यह स्वीकार कर लिया है कि उसके खिलाफ कोई केस नहीं है तो समद के नागरिक अधिकारों का मलीदा बनाने वालों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए . किसी भी आतंकवादी मामले में किसी भी मुसलमान कोपकड़ लेने की पुलिस की मानसिकता का इलाज़ किये जाने की ज़रुरत है . समद को गलत तरीके से हिरासत में ले लेने का यह कोई इकलौता मामला नहीं है . मुंबई में ही ऐसे कई नौजवान बंद हैं जनके ऊपर पोटा का केस बनाकर पुलिस ने पकड़ लिया था लेकिन बाद में पता चला कि उन पर कोई मामला ही नहीं था . इन हालात कोदुरुस्त करने की ज़रुरत है . जब से गुजरात में नरेंद्र मोदी का राज आया है , वहां की पुलिस अपने राजनीतिक आका को खुश करने के लिए किसी भी मुसलमान को पकड़ लेती है और उसे प्रताड़ना देकर छोड़ देती है . गुजरात पुलिस ने मुंबई की लड़की इशरत जहां को भी इसी तरह के मामले में पकड़ा था और बाद में फर्जी मुठभेड़ दिखा कर मारा डाला था. उसी मामले में पुलिस वाले आजकल जेल की हवा खा रहे हैं . . लेकिन वह तब संभव हुआ अजब मामला सुप्रीम कोर्ट तक पंहुचा .
ज़रुरत इस बात की है कि शक़ की बिना पर लोगों को गिरफ्तार करने की पुलिस की ताक़त की कानूनी समीक्षा की जाए. वरना मुंबई और गुजरात की जेलों में ऐसे सैकड़ों मुसलमान बंद हैं जिनके ऊपर जो दफाएँ लगाई गयी हैं उन में कहीं तीन साल ,तो कहीं ७ साल की सज़ा होती है लेकिन यह लडके पिछले ८-१० साल से बंद हैं और बाद में उन्हें बाइज्ज़त बरी कर दिया जाएगा. . यह न्याय व्यवस्था की एक बड़ी कमी है और इस पर फ़ौरन सिविल सोसाइटी , मीडिया और राजनीतिक बिरादरी की नज़र पड़नी चाहिए . और अंग्रेजों के वक़्त की नज़रबंदी की पुलिस की ताक़त को कम करके देश को एक सभ्य प्रशासन देने की कोशिश करनी चाहिए
पुणे की जर्मन बेकरी के विस्फोट के मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने मुंह की खाई है .राज्य के पुलिस महानिदेशक,डी शिवनंदन ने बयान दे दिया है कि जर्मन बेकरी केस में पुलिस का काम बिलकुल गलत ढर्रे पर चल रहा था और अब तक जो कुछ भी जांच हुई है उसका केस से कोई मतलब नहीं है. जांच को फिर से करना होगा .जांच का काम ए टी एस को दिया गया था . राज्य के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी ने ऐलानियाँ कहा है कि अब तक की जांच को कूड़े दान के हवाले करके नए सिरे से तफ्तीश होगी . उन्होंने अखबार वालों को बताया कि ए टी एस को केस का ठीक से अध्ययन करना पड़ेगा,वैज्ञानिक तरीके से सबूत हटाना पड़ेगा और तब उन लोगों के एपह्चान करनी पड़ेगी जो जर्मन बेकरी काण्ड के लिए वास्तव में ज़िम्मेदार हैं . यानी अब तक पुलिस ने जो भी किया उसमें पेशागत ईमानदारी बिलकुल नहीं है , .इस बात की जांच की जानी चाहिए कि जिन लोगों को भी पुलिस ने पकड़ रखा था ,उनके खिलाफ केस क्यों बनाया गया. वैसे भी महाराष्ट्र पुलिस आजकल तरह तरह के गैरकानूनी काम के सिलसिले में ख़बरों में है . उनके एक इन्स्पेक्टर को गिरफ्तार किया गया है क्योंकि उसने सुपारी लेकर एक बिल्डर को जान से मारने की कोशिश की थी. ऐसे और भी बहुत से मामले सामने आ चुके हैं जिसमें पुलिस के तथा कथित इनकाउंटर स्पेशलिस्टों ने निरीह लोगों को मौत के घाट उतार दिया था .जर्मन बेकरी का मामला थोडा पेचीदा है. जिस आदमी के बारे में सर्वोच्च पुलिस अधिकारी ने न बताया है कि उसके खिलाफ कोई मामला नहीं है , जब उसे ए टी एस वालों ने पकड़ा था तो क्या माहौल था उस पर नज़र डाल लेने से पुलिस की मानसिकता ठीक से समझ में आ जायेगी.
पुणे की जर्मन बेकरी में करीब ४ महीने पहले हुए धमाके में १७ लोग मारे गए थे . पुलिस ने अब्दुल समद उर्फ़ भटकल नाम के एक आदमी को २४ मई को कर्णाटक में जाकर पकड़ लिया था . यह समद इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य यासीन भटकल नाम के आदमी का भाई है .तो क्या पुलिस किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य के भाई को बिना किसी बुनियाद के गिरफ्तार कने के लिए आज़ाद है . अब्दुल समद की गिरफ्तारी के बाद तो माहौल ही बदल गया . पुलिस ने दावा किया कि जर्मन बेकरी में लगे क्लोज़ सर्किट टी वी की तस्वीरें देखने के बाद यह गिरफ्तारी हुई थी और वास्तव में जो आदमी बेकरी के अन्दर बम रख रहा था , वह भटकल ही है और उसे गिरफ्तार करके ए टी एस वालों ने बड़ी वाह वाही बटोरी थी. हद तो तब हो गयी जब केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने महाराष्ट्र ए टी एस को सार्वजनिक रूप से बधाई दी.और कहा कि कि समद जर्मन बेकरी धमाके का एक प्रमुख संदिग्ध है और उसको पकड़ कर पुलिस ने बहुत बड़ा काम किया है . आज जब पुलिस ने खुद ही यह स्वीकार कर लिया है कि उसके खिलाफ कोई केस नहीं है तो समद के नागरिक अधिकारों का मलीदा बनाने वालों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए . किसी भी आतंकवादी मामले में किसी भी मुसलमान कोपकड़ लेने की पुलिस की मानसिकता का इलाज़ किये जाने की ज़रुरत है . समद को गलत तरीके से हिरासत में ले लेने का यह कोई इकलौता मामला नहीं है . मुंबई में ही ऐसे कई नौजवान बंद हैं जनके ऊपर पोटा का केस बनाकर पुलिस ने पकड़ लिया था लेकिन बाद में पता चला कि उन पर कोई मामला ही नहीं था . इन हालात कोदुरुस्त करने की ज़रुरत है . जब से गुजरात में नरेंद्र मोदी का राज आया है , वहां की पुलिस अपने राजनीतिक आका को खुश करने के लिए किसी भी मुसलमान को पकड़ लेती है और उसे प्रताड़ना देकर छोड़ देती है . गुजरात पुलिस ने मुंबई की लड़की इशरत जहां को भी इसी तरह के मामले में पकड़ा था और बाद में फर्जी मुठभेड़ दिखा कर मारा डाला था. उसी मामले में पुलिस वाले आजकल जेल की हवा खा रहे हैं . . लेकिन वह तब संभव हुआ अजब मामला सुप्रीम कोर्ट तक पंहुचा .
ज़रुरत इस बात की है कि शक़ की बिना पर लोगों को गिरफ्तार करने की पुलिस की ताक़त की कानूनी समीक्षा की जाए. वरना मुंबई और गुजरात की जेलों में ऐसे सैकड़ों मुसलमान बंद हैं जिनके ऊपर जो दफाएँ लगाई गयी हैं उन में कहीं तीन साल ,तो कहीं ७ साल की सज़ा होती है लेकिन यह लडके पिछले ८-१० साल से बंद हैं और बाद में उन्हें बाइज्ज़त बरी कर दिया जाएगा. . यह न्याय व्यवस्था की एक बड़ी कमी है और इस पर फ़ौरन सिविल सोसाइटी , मीडिया और राजनीतिक बिरादरी की नज़र पड़नी चाहिए . और अंग्रेजों के वक़्त की नज़रबंदी की पुलिस की ताक़त को कम करके देश को एक सभ्य प्रशासन देने की कोशिश करनी चाहिए
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फिर पूछें कि मौत का सौदागर कौन है
शेष नारायण सिंह
(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )
दिसंबर १९८४ में हुए भोपाल गैस हादसे का विवाद एक बार फिर जिंदा हो गया है . राजीव गाँधी का नाम आते ही बी जे पी को लगने लगा है कि शायद बोफर्स टाइप कुछ काम बन जाए और राजनीतिक फसल में मुनाफ़ा हो . उधर दिल्ली में बैठे कांग्रेस के ज़रुरत से ज्यादा वफादार लोग राजीव के नाम को बचाने के चक्कर में उल जलूल बयान दे रहे हैं . जिन्होंने भोपाल की उस खूंखार रात को देखा है उनके लिए भोपाल गैस त्रासदी के किसी अपराधी को माफ़ कर् पाना मुश्किल है . अब भोपाल गैस काण्ड पर विधिवत राजनीति शुरू हो गयी है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन राजनीतिक किलेबंदी के चक्कर में मुद्दे से जनमत का ध्यान हटाने की कोशिश को भी बात को को हड़प लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. मुद्दा यह है कि भोपाल के इतने बड़े मामले को जिन लोगों ने मामूली कानून व्यवस्था के मामले की तरह पेश किया , वे ज़िम्मेदार हैं और उन्हें सवालों के घेरे में लिया जाना चाहिए . हादसा जिस दिन हुआ उस दिन मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ,अर्जुन सिंह थे , उनकी जो भी ज़िम्मेदारी हो उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिये. उन पर आरोप है कि उन्होंने युनियन कार्बाइड के मुखिया को देश से भाग जाने में मदद की. लेकिन इस मामले में इस से बहुत बड़े बड़े घपले हुए हैं . उन पर भी नज़र डाली जानी चाहिए और सब को कटघरे में लाया जाना चाहिए जिस से भविष्य में कोई भी नेता या अधिकारी इस तरह के काम करने से डरे . भोपाल गैस काण्ड में बहुत सारे आयाम हैं. यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि दंड संहिता की धाराओं को हल्का किसने किया , लोगों के पुनर्वास के काम में ढिलाई किसने बरती , एक अभियुक्त को तत्कालीन गृह मंत्री और राष्ट्रपति के पास कौन लेकर गया और क्यों यह मुलाक़ात करवाई गयी. उस वक़्त के ताक़तवर लोगों की क्या भूमिका थी . यह सब ऐसे सवाल हैं जिनकी जांच करने से आगे की बात साफ़ करने में मदद मिलेगी. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. दिसंबर ८४ से लेकर आजतक इस मामले में बहुत सारे लोग आये हैं. उसमें भोपाल के जिला प्रशासन के वे अधिकारी हैं जिन्होंने मामले को हल्का किया . इसमें पुलिस का रोल है , मुकामी न्यायपालिका का रोल हैं , मुकामी नेताओं का रोल है. सब की पड़ताल की जानी चाहिए . और इस तरह से अर्जुन सिंह के बाद जो लोग भी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री हुए हों सबसे पूछ ताछ की जानी चाहिए . अगर ऐसा हुआ तो पिछले २५ वर्षों के हर मुख्य मंत्री की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी तय की जा सकेगी और आने वाले दौर में मुख्य मंत्री मनमानीकरने से बाज़ आयेगें. हाँ अगर कांग्रेस के उस वक़्त के मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री को सूली पर चढ़ाना है तो मीडिया में जिस तरह का काम चल रहा है , उसे जारी रखा जा सकता है लेकिन अगर सही बात को सामने लाना है तो मीडिया के लिए भी लाजिम है कि वह सारी बातों को बहस के घेरे में लाये और बात को आगे बढाए. भारत के कानून ऐसे हैं कि वह यह सुनिश्चित करने के अवसर देते हैं कि किसी के साथ अन्याय न हो . इसके लिए कभी भी किसी मुक़दमे में दुबारा जांच की जा सकती है . इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि क्या अर्जुन सिंह के बाद से लेकर अब तक किसी मुख्य मंत्री ने जांच के बारे में कोई जानकारी ली क्योंकि जनता के प्रतिनधि के रूप में चुने गए हर मुख्यमंत्री का यह कि वह जनता के हितों के कस्टोडियन के रूप में काम करे.इसलिए यह ज़रूरी है कि कि दिग्विजय सिंह , मोतीलाल वोरा, उमा भारती , कैलाश जोशी. सुन्दर लाल पटवा ,राजीव गाँधी, वी पी सिंह , पी वी नरसिंह राव, एच डी देवेगोड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी, और मनमोहन सिंह की भूमिका की भी जांच कर लेनी छाहिये . मीडिया को भी चौकन्ना रहने की ज़रुरत है कि वह बी जे पी की ओर से एजेंडा फिक्स कर रहे लोगों की बात को भी ध्यान में रखें लेकिन बी जे पी वालों को बचाने की कोशिशों का भी पर्दा फाश करें. ताज़ा खबर यह है कि मौत के सौदागर वाली बहस भी शुरू हो गयी है . और गुजरात २००२ के लिए ज़िम्मेदार नेता ने पूछना शुरू कर दिया है कि मौत का सौदागर कौन है . उन नेता जी को भी यह बताने की ज़रुरत है कि मौत का सौदागर वह होता है जो अपनी निगरानी में हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारे . वे खुद तय कर लें कि उस सांचे में कौन फिट बैठता है.
(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार )
दिसंबर १९८४ में हुए भोपाल गैस हादसे का विवाद एक बार फिर जिंदा हो गया है . राजीव गाँधी का नाम आते ही बी जे पी को लगने लगा है कि शायद बोफर्स टाइप कुछ काम बन जाए और राजनीतिक फसल में मुनाफ़ा हो . उधर दिल्ली में बैठे कांग्रेस के ज़रुरत से ज्यादा वफादार लोग राजीव के नाम को बचाने के चक्कर में उल जलूल बयान दे रहे हैं . जिन्होंने भोपाल की उस खूंखार रात को देखा है उनके लिए भोपाल गैस त्रासदी के किसी अपराधी को माफ़ कर् पाना मुश्किल है . अब भोपाल गैस काण्ड पर विधिवत राजनीति शुरू हो गयी है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन राजनीतिक किलेबंदी के चक्कर में मुद्दे से जनमत का ध्यान हटाने की कोशिश को भी बात को को हड़प लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. मुद्दा यह है कि भोपाल के इतने बड़े मामले को जिन लोगों ने मामूली कानून व्यवस्था के मामले की तरह पेश किया , वे ज़िम्मेदार हैं और उन्हें सवालों के घेरे में लिया जाना चाहिए . हादसा जिस दिन हुआ उस दिन मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ,अर्जुन सिंह थे , उनकी जो भी ज़िम्मेदारी हो उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिये. उन पर आरोप है कि उन्होंने युनियन कार्बाइड के मुखिया को देश से भाग जाने में मदद की. लेकिन इस मामले में इस से बहुत बड़े बड़े घपले हुए हैं . उन पर भी नज़र डाली जानी चाहिए और सब को कटघरे में लाया जाना चाहिए जिस से भविष्य में कोई भी नेता या अधिकारी इस तरह के काम करने से डरे . भोपाल गैस काण्ड में बहुत सारे आयाम हैं. यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि दंड संहिता की धाराओं को हल्का किसने किया , लोगों के पुनर्वास के काम में ढिलाई किसने बरती , एक अभियुक्त को तत्कालीन गृह मंत्री और राष्ट्रपति के पास कौन लेकर गया और क्यों यह मुलाक़ात करवाई गयी. उस वक़्त के ताक़तवर लोगों की क्या भूमिका थी . यह सब ऐसे सवाल हैं जिनकी जांच करने से आगे की बात साफ़ करने में मदद मिलेगी. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. दिसंबर ८४ से लेकर आजतक इस मामले में बहुत सारे लोग आये हैं. उसमें भोपाल के जिला प्रशासन के वे अधिकारी हैं जिन्होंने मामले को हल्का किया . इसमें पुलिस का रोल है , मुकामी न्यायपालिका का रोल हैं , मुकामी नेताओं का रोल है. सब की पड़ताल की जानी चाहिए . और इस तरह से अर्जुन सिंह के बाद जो लोग भी मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री हुए हों सबसे पूछ ताछ की जानी चाहिए . अगर ऐसा हुआ तो पिछले २५ वर्षों के हर मुख्य मंत्री की जवाबदेही और ज़िम्मेदारी तय की जा सकेगी और आने वाले दौर में मुख्य मंत्री मनमानीकरने से बाज़ आयेगें. हाँ अगर कांग्रेस के उस वक़्त के मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री को सूली पर चढ़ाना है तो मीडिया में जिस तरह का काम चल रहा है , उसे जारी रखा जा सकता है लेकिन अगर सही बात को सामने लाना है तो मीडिया के लिए भी लाजिम है कि वह सारी बातों को बहस के घेरे में लाये और बात को आगे बढाए. भारत के कानून ऐसे हैं कि वह यह सुनिश्चित करने के अवसर देते हैं कि किसी के साथ अन्याय न हो . इसके लिए कभी भी किसी मुक़दमे में दुबारा जांच की जा सकती है . इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि क्या अर्जुन सिंह के बाद से लेकर अब तक किसी मुख्य मंत्री ने जांच के बारे में कोई जानकारी ली क्योंकि जनता के प्रतिनधि के रूप में चुने गए हर मुख्यमंत्री का यह कि वह जनता के हितों के कस्टोडियन के रूप में काम करे.इसलिए यह ज़रूरी है कि कि दिग्विजय सिंह , मोतीलाल वोरा, उमा भारती , कैलाश जोशी. सुन्दर लाल पटवा ,राजीव गाँधी, वी पी सिंह , पी वी नरसिंह राव, एच डी देवेगोड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी, और मनमोहन सिंह की भूमिका की भी जांच कर लेनी छाहिये . मीडिया को भी चौकन्ना रहने की ज़रुरत है कि वह बी जे पी की ओर से एजेंडा फिक्स कर रहे लोगों की बात को भी ध्यान में रखें लेकिन बी जे पी वालों को बचाने की कोशिशों का भी पर्दा फाश करें. ताज़ा खबर यह है कि मौत के सौदागर वाली बहस भी शुरू हो गयी है . और गुजरात २००२ के लिए ज़िम्मेदार नेता ने पूछना शुरू कर दिया है कि मौत का सौदागर कौन है . उन नेता जी को भी यह बताने की ज़रुरत है कि मौत का सौदागर वह होता है जो अपनी निगरानी में हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारे . वे खुद तय कर लें कि उस सांचे में कौन फिट बैठता है.
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Tuesday, June 15, 2010
पंद्रह हज़ार करोड़ रूपये का मुआवजा देंगें लीबिया के गद्दाफी
शेष नारायण सिंह
आतंकवाद के प्रायोजकों के लिए बहुत बुरी खबर है . आतंकवादियों को मदद देने वालों को सभ्य समाज की ताक़त दबोचती ज़रूर है . ओसामा बिन लादेन का उदाहरण दुनिया के सामने है .उसे अंदाज़ भी नहीं रहा होगा कि आतंक की कीमत इतनी भारी हो सकती है . ताज़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी का है . गुजरात में आतंक और २००२ के नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार नेता, नरेंद्र मोदी की पूरी दुनिया के सभ्य समाजों में प्रवेश की मनाही है . अभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें ज़रा संभल के रहने की चेतावनी दी है .इसके पहले अमरीका और यूरोप के देशों की कुछ सरकारों ने उनकी वीजा की अर्जी को ठुकरा कर उन्हें अपनी हैसियत में रहने की ताकीद की थी. १९७४ में चिली के राष्ट्रपति अलेंदे को मार कर चिली में आतंक का शासन कायम करने वाले पिनोशे का भी वही हाल हुआ जो बाकी आतंक फैलाने वालों का होता है . आतंक की सियासत के आदिपुरुष, एडोल्फ हिटलर को अपने किये की जो सज़ा मिली, उस से दुनिया में आतंक की खेती करने वाले आजतक सबक लेते हैं .१९८४ में सिखों को चुन चुन कर आतंक का शिकार बनाने वाले अर्जुन दास, ललित माकन, हरिकिशन लाल भगत ,सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का हश्र दुनिया ने देखा ही है .आतंक की सियासत के नतीजों को भोगने का एक नया मामला सामने आया है . करीब ३५ साल से अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों के खिलाफ अभियान चला रहे, लीबिया के राष्ट्रपति , कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को तीसरी दुनिया के बहुत सारे देशों में इज्ज़त से देखा जाता था लेकिन अपने आपको गलत समझने के चक्कर में वे आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक हो गए.और इंग्लैंड में आतंक फैला रहे आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के आतंकवादियों को हथियार देने लगे जिसका इस्तेमाल करके उन लोगों ने आयरलैंड और इंग्लैण्ड में खूब आतंक फैलाया . हज़ारों लोगों का मौत के घाट उतारा और सामान्य जीवन को खतरनाक बनाया .. अब तो दुनिया जानती है कि लाकरबी विमान विस्फोट काण्ड भी कर्नल गद्दाफी के दिमाग की उपज थी क्योंकि अब उन्होंने ही उसे स्वीकार कर लिया है ... हालांकि सबको मालूम है कि गद्दाफी ने अमरीकी और पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी मुल्कों की उस लूट पर लगाम लगाई थी जो पेट्रोल के आविष्कार के बाद से ही जारी थी . लेकिन अपने उत्साह में उन्होंने निर्दोष लोगों को मारने का काम शुरू कर दिया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था लेकिन गद्दाफी निरंकुश तानाशाह थे और उनको टोकने की हिम्मत किसी के पास नहीं थी . बाद में जब सोवियत रूस का विघटन हुआ तो गद्दाफी ने पश्चिम के देशों से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी लेकिन वह कोशिश उनको बहुत महंगी पड़ रही है . लाकरबी विमान के हादसे के शिकार हुए लोगों के परिवारों को वे बहुत बड़ी रक़म बतौर मुआवजा दे चुके हैं . और अब खबर आई है कि वे आयरलैंड में आतंक के शिकार हुए परिवारों को भी करीब १५ हज़ार करोड़ रूपये के बराबर की रक़म देने वाले हैं . हालांकि वे इसे मुआवजा नहीं मान रहे हैं , उनका कहना है कि यह तो मानवीय सहायता के लिए दिया जा रहा है लेकिन यह तय है कि कि लीबिया की सरकार आयरलैंड के आतंक के शिकार लोगों को बहुत बड़ी रक़म दे रही है .. गद्दाफी ने आयरलैंड के आतंकवादियों को एक खतरनाक विस्फोटक सेमटैक्स की सप्लाई की थी . यह एक प्लास्टिक विस्फोटक है और आर डी एक्स जैसा असर करता है . गद्दाफी की सरकार की तरफ से सप्लाई किये गए सेमटैक्स का इस्तेमाल कम से कम दस आतंकवादी वारदातों में हुआ था लन्दन के विख्यात डिपार्टमेंटल स्टोर, हैरड्स और लाकरबी विमान के धमाके में इसी विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ था. लाकरबी धमाके के शिकार लोगों के परिवार वालों को तो गद्दाफी पहले ही मुआवाज़ा दे चुके हैं . यह सारी रक़म रखवा लेने के बाद ब्रिटेन की सरकार ने गद्दाफी को केवल यह राहत दी है कि वे आयरलैंड में मानवीय सहायता के नाम पर कुछ कार्यक्रम चला सकते हैं जिस से यह लगे कि वे जो कुछ भी दे रहे हैं अपनी खुशी से दे रहे हैं ,उन पर कोई दबाव नहीं है . बहर हाल तरीकों पर चर्चा करना यहाँ उद्देश्य नहीं है लेकिन यह पक्का है कि आतंकवादी की राजनीति हमेशा हार कू ही गले लगाती है और इंसानियत हर बार विजयी रहती है . भविष्य के आतंकवादियों को इन पुराने आतंकियों के अंजाम को देख कर सबक ज़रूर लेना चाहिए
आतंकवाद के प्रायोजकों के लिए बहुत बुरी खबर है . आतंकवादियों को मदद देने वालों को सभ्य समाज की ताक़त दबोचती ज़रूर है . ओसामा बिन लादेन का उदाहरण दुनिया के सामने है .उसे अंदाज़ भी नहीं रहा होगा कि आतंक की कीमत इतनी भारी हो सकती है . ताज़ा उदाहरण नरेंद्र मोदी का है . गुजरात में आतंक और २००२ के नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार नेता, नरेंद्र मोदी की पूरी दुनिया के सभ्य समाजों में प्रवेश की मनाही है . अभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन्हें ज़रा संभल के रहने की चेतावनी दी है .इसके पहले अमरीका और यूरोप के देशों की कुछ सरकारों ने उनकी वीजा की अर्जी को ठुकरा कर उन्हें अपनी हैसियत में रहने की ताकीद की थी. १९७४ में चिली के राष्ट्रपति अलेंदे को मार कर चिली में आतंक का शासन कायम करने वाले पिनोशे का भी वही हाल हुआ जो बाकी आतंक फैलाने वालों का होता है . आतंक की सियासत के आदिपुरुष, एडोल्फ हिटलर को अपने किये की जो सज़ा मिली, उस से दुनिया में आतंक की खेती करने वाले आजतक सबक लेते हैं .१९८४ में सिखों को चुन चुन कर आतंक का शिकार बनाने वाले अर्जुन दास, ललित माकन, हरिकिशन लाल भगत ,सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का हश्र दुनिया ने देखा ही है .आतंक की सियासत के नतीजों को भोगने का एक नया मामला सामने आया है . करीब ३५ साल से अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों के खिलाफ अभियान चला रहे, लीबिया के राष्ट्रपति , कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को तीसरी दुनिया के बहुत सारे देशों में इज्ज़त से देखा जाता था लेकिन अपने आपको गलत समझने के चक्कर में वे आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक हो गए.और इंग्लैंड में आतंक फैला रहे आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के आतंकवादियों को हथियार देने लगे जिसका इस्तेमाल करके उन लोगों ने आयरलैंड और इंग्लैण्ड में खूब आतंक फैलाया . हज़ारों लोगों का मौत के घाट उतारा और सामान्य जीवन को खतरनाक बनाया .. अब तो दुनिया जानती है कि लाकरबी विमान विस्फोट काण्ड भी कर्नल गद्दाफी के दिमाग की उपज थी क्योंकि अब उन्होंने ही उसे स्वीकार कर लिया है ... हालांकि सबको मालूम है कि गद्दाफी ने अमरीकी और पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी मुल्कों की उस लूट पर लगाम लगाई थी जो पेट्रोल के आविष्कार के बाद से ही जारी थी . लेकिन अपने उत्साह में उन्होंने निर्दोष लोगों को मारने का काम शुरू कर दिया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था लेकिन गद्दाफी निरंकुश तानाशाह थे और उनको टोकने की हिम्मत किसी के पास नहीं थी . बाद में जब सोवियत रूस का विघटन हुआ तो गद्दाफी ने पश्चिम के देशों से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी लेकिन वह कोशिश उनको बहुत महंगी पड़ रही है . लाकरबी विमान के हादसे के शिकार हुए लोगों के परिवारों को वे बहुत बड़ी रक़म बतौर मुआवजा दे चुके हैं . और अब खबर आई है कि वे आयरलैंड में आतंक के शिकार हुए परिवारों को भी करीब १५ हज़ार करोड़ रूपये के बराबर की रक़म देने वाले हैं . हालांकि वे इसे मुआवजा नहीं मान रहे हैं , उनका कहना है कि यह तो मानवीय सहायता के लिए दिया जा रहा है लेकिन यह तय है कि कि लीबिया की सरकार आयरलैंड के आतंक के शिकार लोगों को बहुत बड़ी रक़म दे रही है .. गद्दाफी ने आयरलैंड के आतंकवादियों को एक खतरनाक विस्फोटक सेमटैक्स की सप्लाई की थी . यह एक प्लास्टिक विस्फोटक है और आर डी एक्स जैसा असर करता है . गद्दाफी की सरकार की तरफ से सप्लाई किये गए सेमटैक्स का इस्तेमाल कम से कम दस आतंकवादी वारदातों में हुआ था लन्दन के विख्यात डिपार्टमेंटल स्टोर, हैरड्स और लाकरबी विमान के धमाके में इसी विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ था. लाकरबी धमाके के शिकार लोगों के परिवार वालों को तो गद्दाफी पहले ही मुआवाज़ा दे चुके हैं . यह सारी रक़म रखवा लेने के बाद ब्रिटेन की सरकार ने गद्दाफी को केवल यह राहत दी है कि वे आयरलैंड में मानवीय सहायता के नाम पर कुछ कार्यक्रम चला सकते हैं जिस से यह लगे कि वे जो कुछ भी दे रहे हैं अपनी खुशी से दे रहे हैं ,उन पर कोई दबाव नहीं है . बहर हाल तरीकों पर चर्चा करना यहाँ उद्देश्य नहीं है लेकिन यह पक्का है कि आतंकवादी की राजनीति हमेशा हार कू ही गले लगाती है और इंसानियत हर बार विजयी रहती है . भविष्य के आतंकवादियों को इन पुराने आतंकियों के अंजाम को देख कर सबक ज़रूर लेना चाहिए
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Monday, June 14, 2010
दांतेवाडा के आस पास दलितों की बेटियों की इज्ज़त लूटी जा रही है
शेष नारायण सिंह
छत्तीस गढ़ के दांतेवाडा जिले में माओवादी आतंकवादियों ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस के ७६ सिपाहियों को ६ अप्रैल २०१० की रात में मार डाला था. मारे गए पुलिस के वे जवान अपनी ड्यूटी कर रहे थे , उनको बहुत ही मुश्किल से सी आर पी की नौकरी मिली थी. गरीबी से जूझ रहे भारत के गावों में जब किसी बच्चे को सी आर पी एफ , बी एस एफ, आई टी बी पी या अन्य अर्ध सैनिक संगठनों में नौकरी मिल जाती है तो खुशी मनाई जाती है ., प्रीतिभोज किया जाता है और इलाके में परिवार की इज़्ज़त बढ़ती है . संपन्न इलाकों के लोगों की समझ में यह बात नहीं आयेगी लेकिन व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि इन अर्ध सैनिक बलों में नौकरी पाने के लिए इन बच्चों के मातापिता बड़ी रक़म बतौर रिश्वत के भी देते हैं . सरकारी नौकरी की सुरक्षा के लिए गरीब आदमी सब कुछ करता है . लेकिन जब दांतेवाडा में आतंकवादियों ने इन्ही गरीब परिवारों के बच्चों को मार डाला तो पूरे देश में गम और गुस्से का माहौल बन गया .वैसे भी जिन लोगों के हाथों में माओवादी लुटेरों ने बंदूक पकड़ा दी है , वे भी तो गरीब लोगों की औलादें हैं और उनको बेवक़ूफ़ बना कर कुछ पैसों की लालच में फंसाया गया है . इसलिए माओवादी आतंक के इस खूनी खेल में दोनों तरफ ही शिकार हो रही शोषित पीड़ित जनता है और शासक वर्गों के लोग उनको अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं . वास्तव में सरकारी नेताओं और माओवादी आतंकवादियों का वर्गचरित्र एक ही है. . वे दोनों ही गरीबों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन इस सब में सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी सरकारों की है , केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों की . उन्होंने विदेशी और स्वदेशी पूंजीपतियों के हाथों आदिवासी इलाकों की खनिज सम्पदा को औने पौने दामों में बेच कर इन इलाकों में रहने वाले और इस खनिज सम्पदा के असली वारिस लोगों के भविष्य को बड़ी पूंजी के हाथों गिरवी रख दिया है. ज़ाहिर हैं यह वही लोग हैं जो राजनीति और नौकरशाही में बड़े पदों पर विराजमान हैं और हज़ारों करोड़ की रिश्वत खा कर आम आदमी का शोषण कर रहे हैं . दूसरी तरफ माओवादी हैं जो अपने हितों के लिए गरीब आदिवासी जनता के हाथों में बंदूक पकड़ा रहे हैं . इस सारे ड्रामे में मुकामी बदमाश भी शामिल हो गए हैं और चारों तरफ से राष्ट्र हित पर हमला बोल दिया गया है .यहाँ यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज्य या केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो , सभी पार्टियां घूस की लालच में अपने देश के हितों के खिलाफ काम कर रही हैं . जहां भी आतंकवाद बढ़ता है, वहां हालात पर सामाजिक कंट्रोल बिलकुल ख़त्म हो जाता है . उसके बाद हालात पर लोकल ठगों का क़ब्ज़ा हो जाता है , सरकार का हुक्म नहीं चलता और आतंकवादी संगठन जो अपने को क्रांतिकारी समझ रहे होते हैं, वे बदमाशों को भी अपना मानने की गलती कर बैठते हैं और हालात बेकाबू हो जाते हैं . दांतेवाडा के आस पास भी यही हो रहा है. हालात के बेकाबू होने का सबसे बड़ा नुकसान उन लोगों को होता है जो गरीब होते हैं और जिनमें शिक्षा का अभाव होता है . कुछ चालाक और शातिर किस्म के लोग आतंकवादियों और सरकारी एजेंसियों के मुखबिर बन जाते हैं और आतंक की वजह से जो लूट होती है उनको यही करते हैं .
दांतेवाडा के आस पास आजकल हर लेवल पर आतंक का राज है . दैनिक हिन्दू अखबार के रिपोर्टर ने दांतेवाडा जिले के गावों का दौरा करने के बाद अपनी आँखों से देखा कि पुलिस और माओवादियों के मुखबिर किस तरह से लोगों का शोषण कर रहे हैं . इस इलाके में आजकल पुलिस का बहुत ही भारी बंदोबस्त है . लिहाजा माओवादी आतंकवादियों की गतिविधियाँ तो उतनी ज्यादा नहीं हैं लेकिन पुलिस के मुखबिर खुले आम लूट पाट कर रहे हैं . मुकरम गाँव में जाकर संवाददाता ने पाया कि मुखबिरों ने तीन लड़कियों को मारा पीटा और उनके साथ बलात्कार किया . उनके शरीर के नाजुक स्थानों पर लात से मारा और बच्चियों को फेंक कर चले गए.इन लड़कियों ने बताया कि जब एक बड़ा पुलिस अधिकारी उधर से गुज़रा तब यह लोग उन्हें फेंक कर भागे वरना पता नहीं क्या हो सकता था. यह तो एक गाँव की घटना है . छत्तीस गढ़ और झारखण्ड में इस तरह के हज़ारों गाँव हैं और इमकान है कि हर जगह यही हो रहा होगा . इस घटना का पता तो बाकी दुनिया को इस लिए चल गया कि वहां एक सम्मानित अखबार का रिपोर्टर पंहुच गया . इस रिपोर्टर ने पड़ोस के गाँव में भी इसी तरह का आतंक देखा जो कि सरकारी पक्ष से हो रहा है
दांतेवाडा नरसंहार को दो महीने हो गए हैं और आस पास का इलाका पूरी तरह से छावनी की शक्ल अख्तियार कर चुका है .वहां गए रिपोर्टर को गाँव वालों ने बताया कि जब गाँव के मर्द खेतों में काम करने चले जाते हैं , तो आस पास तैनात पुलिस वाले गश्त के बहाने गाँवों में आते हैं और औरतों को परेशान करते हैं इस तरह की अमानवीय आचरण की बहुत सारी घटनाएं इन इलाकों में हो रही हैं .सरकारों और सिविल सोसाइटी को चाहिए कि फ़ौरन से पेशतर ज़रूरी कार्रवाई करें वरना बहुत देर हो जायेगी. .
छत्तीस गढ़ के दांतेवाडा जिले में माओवादी आतंकवादियों ने केंद्रीय रिज़र्व पुलिस के ७६ सिपाहियों को ६ अप्रैल २०१० की रात में मार डाला था. मारे गए पुलिस के वे जवान अपनी ड्यूटी कर रहे थे , उनको बहुत ही मुश्किल से सी आर पी की नौकरी मिली थी. गरीबी से जूझ रहे भारत के गावों में जब किसी बच्चे को सी आर पी एफ , बी एस एफ, आई टी बी पी या अन्य अर्ध सैनिक संगठनों में नौकरी मिल जाती है तो खुशी मनाई जाती है ., प्रीतिभोज किया जाता है और इलाके में परिवार की इज़्ज़त बढ़ती है . संपन्न इलाकों के लोगों की समझ में यह बात नहीं आयेगी लेकिन व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है कि इन अर्ध सैनिक बलों में नौकरी पाने के लिए इन बच्चों के मातापिता बड़ी रक़म बतौर रिश्वत के भी देते हैं . सरकारी नौकरी की सुरक्षा के लिए गरीब आदमी सब कुछ करता है . लेकिन जब दांतेवाडा में आतंकवादियों ने इन्ही गरीब परिवारों के बच्चों को मार डाला तो पूरे देश में गम और गुस्से का माहौल बन गया .वैसे भी जिन लोगों के हाथों में माओवादी लुटेरों ने बंदूक पकड़ा दी है , वे भी तो गरीब लोगों की औलादें हैं और उनको बेवक़ूफ़ बना कर कुछ पैसों की लालच में फंसाया गया है . इसलिए माओवादी आतंक के इस खूनी खेल में दोनों तरफ ही शिकार हो रही शोषित पीड़ित जनता है और शासक वर्गों के लोग उनको अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं . वास्तव में सरकारी नेताओं और माओवादी आतंकवादियों का वर्गचरित्र एक ही है. . वे दोनों ही गरीबों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन इस सब में सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी सरकारों की है , केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों की . उन्होंने विदेशी और स्वदेशी पूंजीपतियों के हाथों आदिवासी इलाकों की खनिज सम्पदा को औने पौने दामों में बेच कर इन इलाकों में रहने वाले और इस खनिज सम्पदा के असली वारिस लोगों के भविष्य को बड़ी पूंजी के हाथों गिरवी रख दिया है. ज़ाहिर हैं यह वही लोग हैं जो राजनीति और नौकरशाही में बड़े पदों पर विराजमान हैं और हज़ारों करोड़ की रिश्वत खा कर आम आदमी का शोषण कर रहे हैं . दूसरी तरफ माओवादी हैं जो अपने हितों के लिए गरीब आदिवासी जनता के हाथों में बंदूक पकड़ा रहे हैं . इस सारे ड्रामे में मुकामी बदमाश भी शामिल हो गए हैं और चारों तरफ से राष्ट्र हित पर हमला बोल दिया गया है .यहाँ यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज्य या केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो , सभी पार्टियां घूस की लालच में अपने देश के हितों के खिलाफ काम कर रही हैं . जहां भी आतंकवाद बढ़ता है, वहां हालात पर सामाजिक कंट्रोल बिलकुल ख़त्म हो जाता है . उसके बाद हालात पर लोकल ठगों का क़ब्ज़ा हो जाता है , सरकार का हुक्म नहीं चलता और आतंकवादी संगठन जो अपने को क्रांतिकारी समझ रहे होते हैं, वे बदमाशों को भी अपना मानने की गलती कर बैठते हैं और हालात बेकाबू हो जाते हैं . दांतेवाडा के आस पास भी यही हो रहा है. हालात के बेकाबू होने का सबसे बड़ा नुकसान उन लोगों को होता है जो गरीब होते हैं और जिनमें शिक्षा का अभाव होता है . कुछ चालाक और शातिर किस्म के लोग आतंकवादियों और सरकारी एजेंसियों के मुखबिर बन जाते हैं और आतंक की वजह से जो लूट होती है उनको यही करते हैं .
दांतेवाडा के आस पास आजकल हर लेवल पर आतंक का राज है . दैनिक हिन्दू अखबार के रिपोर्टर ने दांतेवाडा जिले के गावों का दौरा करने के बाद अपनी आँखों से देखा कि पुलिस और माओवादियों के मुखबिर किस तरह से लोगों का शोषण कर रहे हैं . इस इलाके में आजकल पुलिस का बहुत ही भारी बंदोबस्त है . लिहाजा माओवादी आतंकवादियों की गतिविधियाँ तो उतनी ज्यादा नहीं हैं लेकिन पुलिस के मुखबिर खुले आम लूट पाट कर रहे हैं . मुकरम गाँव में जाकर संवाददाता ने पाया कि मुखबिरों ने तीन लड़कियों को मारा पीटा और उनके साथ बलात्कार किया . उनके शरीर के नाजुक स्थानों पर लात से मारा और बच्चियों को फेंक कर चले गए.इन लड़कियों ने बताया कि जब एक बड़ा पुलिस अधिकारी उधर से गुज़रा तब यह लोग उन्हें फेंक कर भागे वरना पता नहीं क्या हो सकता था. यह तो एक गाँव की घटना है . छत्तीस गढ़ और झारखण्ड में इस तरह के हज़ारों गाँव हैं और इमकान है कि हर जगह यही हो रहा होगा . इस घटना का पता तो बाकी दुनिया को इस लिए चल गया कि वहां एक सम्मानित अखबार का रिपोर्टर पंहुच गया . इस रिपोर्टर ने पड़ोस के गाँव में भी इसी तरह का आतंक देखा जो कि सरकारी पक्ष से हो रहा है
दांतेवाडा नरसंहार को दो महीने हो गए हैं और आस पास का इलाका पूरी तरह से छावनी की शक्ल अख्तियार कर चुका है .वहां गए रिपोर्टर को गाँव वालों ने बताया कि जब गाँव के मर्द खेतों में काम करने चले जाते हैं , तो आस पास तैनात पुलिस वाले गश्त के बहाने गाँवों में आते हैं और औरतों को परेशान करते हैं इस तरह की अमानवीय आचरण की बहुत सारी घटनाएं इन इलाकों में हो रही हैं .सरकारों और सिविल सोसाइटी को चाहिए कि फ़ौरन से पेशतर ज़रूरी कार्रवाई करें वरना बहुत देर हो जायेगी. .
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शेष नारायण सिंह
Saturday, June 12, 2010
इरान पर सुरक्षा परिषद् की नयी पाबंदी से भारत पर भी असर पडेगा
शेष नारायण सिंह
किसी और मुल्क को अपनी बराबरी न करने देने की अमरीकी जिद का एक और नमूना सामने है . अमरीका ने इरान की सरकार के ऊपर फिर से पाबंदी लगा दी है .और पश्चिम एशिया में अमरीकी दादागीरी का एक और कारनामा अंजाम दे दिया है . अमरीका को इरान का परमाणु कार्यक्रम रास नहीं आ रहा है . हर बार की तरह इस बार भी इरान पर पाबंदी लगाने के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का इस्तेमाल किया . अजीब बात यह है कि पांच स्थायी सदस्यों, ब्रिटेन,फ्रांस,चीन और रूस में किसी ने भी किसी तरह का विरोध नहीं किया. बाकी १० अ-स्थायी सदस्यों में ७ ने अमरीका का साथ दिया , दो ने विरोध किया और एक ने वोते में हिस्सा नहीं लिया. अ-स्थायी सदस्यों के वोट का बहुत मतलब नहीं है लेकिन अमरीका ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह अब इकलौता सुपर पॉवर है और उसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलने वाली है . सुरक्षा परिषद् मेंचर्चा के दौरान अमरीकी राजदूत, सूज़न राईस ने कहा कि इस बार की पाबंदियाँ निर्णायक साबित होंगीं.उन्हें शिकायत है कि इरान ने उन अवसरों का इस्तेमाल नहीं किया जब उसे अपने परमाणु कार्यक्रम के शांतिपूर्ण साबित करने के अवसर दिए गए. ब्राज़ील और तुर्की ने पाबंदियों क अविरोध किया. इन दोनों ही देशों ने इरान के साथ परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण इस्तेमाल के लिए पिछले महीने ही समझौता किया है . दोनों ही मुल्कों ने कहा कि पाबंदी लगान इसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है . पाबंदी की धमकी, और किसी मुल्क को अलग थलग करने की कोशिश के नतीजे बहुत ही दुखदायी हो सकते हैं . अगर अमरीका को इरान के परमाणु कार्यक्रम से कोई शिकायत हा इतो उसे बातचीत के ज़रिये सुलझाने की कोशिश करना चाहिए. पाबंदियों की घोषणा के तुरंत बाद अमरीकी राष्ट्रपति , बराक ओबामा ने प्रेस को संबोधित किया और कहा कि इस बार इरान पर लगाई गयी पाबंदियां ज्यादा प्रभावी होंगीं और पिछले ३ बार की पाबंदियों से बेहतर नतीजे लायेंगीं . उन्होंने कहा कि पाबंदियों का मतलब यह नहीं है कि बातचीत के रास्ते बंद हो गए हैं . ओबामा ने दावा किया कि इरान से कूटनीतिक स्तर पर संवाद जारी रहेगा. लेकिन नयी पाबंदियां इरान को अलग थलग करने की गंभीर कोशिश हैं . इन पाबंदियों के तहत इरान कहीं से भी भारी हथियार नहीं खरीद सकता, उसके माल को किसी भी बन्दरगाह या हवाई अड्डे पर जांच के लिए रोका जा सकता है . उन बैंकों के लाइसेंस रद्द किये जायेंगें जिनके ऊपर शक़ होगा कि वे इरानी परमाणु कार्यक्रम में किसे एताढ़ से भी सहयोग कर रही हैं. इरान के साथियों के घेरने की कोशिश भी की जायेगी . क्योंकि रूस, फ्रांस और अमरीका ने पिछले महीने हुए ब्राजील, तुर्की और इरान के परमाणु समझौते की भी आलोचना की है . यह देश अपने आपको वियान ग्रुप कहते हैं और एक तरह से बाकी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों की चौकी दारी करने का ठेका ले रखा है .
अमरीकी कोशिश के बाद सुरक्षा परिषद् की तरफ से घोषित इन पाबंदियों का भारत पर भी असर पडेगा. इंदिरा गाँधी के युग में तो किसी अमरीकी राष्ट्रपति की हिम्मत नहीं थी कि वह भारत को यह समझाए कि कइसी तीसरे देश के साथ कैसा बर्ताव करना है लेकिन अब मामला बदल गया है . अभी पिछले दिनों ही संयुक्त राष्ट्र के एक मंच पर भारत के प्रतिनिधि ने अमरीका के दबाव में आकर इरान के खिलाफ वोट दिया था . लेकिन इस बार मामला बिलकुल अलग है.अमरीकी दबाव में सुरक्षा परिषद् ओर से आये इस प्रतिबन्ध पर इरान ने बिलकुल अलगर्ज़ रवैया अपनाया है . इरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने कहा है कि संयुक्त राष्ट्र का यह प्रताव किसी काम का नईं है इसे इस्तेमाल किये गए रूमाल की तरह किसी कूड़े दान में फेंक देना चाहिए.इरान ने घोषणा की है इस पाबंडे एके प्रताव के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा . इरान का इस्लामी गणराज्य यूरेनियम के संवर्धन के अपने कार्यक्रम को बदस्तूर जारी रखेगा . ज़ाहिर है कि अगर इरान सुरक्षा परिषद् और अमरीका की पाबंदी वाली धमकी को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है तो वह उम्मीद करेगा कि उस से अच्छा सम्बन्ध बनाने के इच्छुक देश भी इस पाबंदी की घोषणा के बाद इरान से अपन एरिष्टों में तबदीली न लायें . इरान के इस रुख से भारत के लिए परेशानी बढ़ सकती है . भारत का इरान से मज़बूत आर्थिक सम्बन्ध है . हालांकि अमरीका से भारत के आर्थिक सम्बन्ध आब जायद हो गए हैं लेकिन इरान से जो सम्बन्ध हैं उनके खराब होने पर भारत की ऊर्जा संबंधी ज़रूरतें प्रभावित होंगीं जिससे विकास की गति भी धीमी पड़ेगी और आम आदमी पर आर्थिक बोझ भी बढेगा यानी इरान को नाराज़ करके भारत महंगाई के दलदल में फंस सकता है . ज़ाहिर है कि नयी दिल्ली की कोई भी सरकार बैठे ठाले इस मुसीबत से बचना चाहेगी.इसका मतलब यह हुआ कि भारत के सामने सुरक्षा परिषद् की इरान संबंधी पाबंदी आने के बाद कठिन परिस्थितियाँ पैदा हो गयी हैं .सबसे बड़ी बात तो यह है कि इरान से भारत आने वाली गैस की पाईपलाइन की योजना ही प्रभावित होगी. दुनिया जानती है कि इस पाईपलाइन के बाद देश की ऊर्जा की ज़रूरतों पर बहुत ही सकारात्मक असर पडेगा.ऐसी हालत में अमरीका की इरान को घेरने की नयी कोशिश का बाकी दुनिया की कूटनीति पर उल्टा प्रभाव पड़ने की आशंका है .
किसी और मुल्क को अपनी बराबरी न करने देने की अमरीकी जिद का एक और नमूना सामने है . अमरीका ने इरान की सरकार के ऊपर फिर से पाबंदी लगा दी है .और पश्चिम एशिया में अमरीकी दादागीरी का एक और कारनामा अंजाम दे दिया है . अमरीका को इरान का परमाणु कार्यक्रम रास नहीं आ रहा है . हर बार की तरह इस बार भी इरान पर पाबंदी लगाने के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का इस्तेमाल किया . अजीब बात यह है कि पांच स्थायी सदस्यों, ब्रिटेन,फ्रांस,चीन और रूस में किसी ने भी किसी तरह का विरोध नहीं किया. बाकी १० अ-स्थायी सदस्यों में ७ ने अमरीका का साथ दिया , दो ने विरोध किया और एक ने वोते में हिस्सा नहीं लिया. अ-स्थायी सदस्यों के वोट का बहुत मतलब नहीं है लेकिन अमरीका ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह अब इकलौता सुपर पॉवर है और उसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलने वाली है . सुरक्षा परिषद् मेंचर्चा के दौरान अमरीकी राजदूत, सूज़न राईस ने कहा कि इस बार की पाबंदियाँ निर्णायक साबित होंगीं.उन्हें शिकायत है कि इरान ने उन अवसरों का इस्तेमाल नहीं किया जब उसे अपने परमाणु कार्यक्रम के शांतिपूर्ण साबित करने के अवसर दिए गए. ब्राज़ील और तुर्की ने पाबंदियों क अविरोध किया. इन दोनों ही देशों ने इरान के साथ परमाणु ऊर्जा के शान्तिपूर्ण इस्तेमाल के लिए पिछले महीने ही समझौता किया है . दोनों ही मुल्कों ने कहा कि पाबंदी लगान इसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है . पाबंदी की धमकी, और किसी मुल्क को अलग थलग करने की कोशिश के नतीजे बहुत ही दुखदायी हो सकते हैं . अगर अमरीका को इरान के परमाणु कार्यक्रम से कोई शिकायत हा इतो उसे बातचीत के ज़रिये सुलझाने की कोशिश करना चाहिए. पाबंदियों की घोषणा के तुरंत बाद अमरीकी राष्ट्रपति , बराक ओबामा ने प्रेस को संबोधित किया और कहा कि इस बार इरान पर लगाई गयी पाबंदियां ज्यादा प्रभावी होंगीं और पिछले ३ बार की पाबंदियों से बेहतर नतीजे लायेंगीं . उन्होंने कहा कि पाबंदियों का मतलब यह नहीं है कि बातचीत के रास्ते बंद हो गए हैं . ओबामा ने दावा किया कि इरान से कूटनीतिक स्तर पर संवाद जारी रहेगा. लेकिन नयी पाबंदियां इरान को अलग थलग करने की गंभीर कोशिश हैं . इन पाबंदियों के तहत इरान कहीं से भी भारी हथियार नहीं खरीद सकता, उसके माल को किसी भी बन्दरगाह या हवाई अड्डे पर जांच के लिए रोका जा सकता है . उन बैंकों के लाइसेंस रद्द किये जायेंगें जिनके ऊपर शक़ होगा कि वे इरानी परमाणु कार्यक्रम में किसे एताढ़ से भी सहयोग कर रही हैं. इरान के साथियों के घेरने की कोशिश भी की जायेगी . क्योंकि रूस, फ्रांस और अमरीका ने पिछले महीने हुए ब्राजील, तुर्की और इरान के परमाणु समझौते की भी आलोचना की है . यह देश अपने आपको वियान ग्रुप कहते हैं और एक तरह से बाकी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों की चौकी दारी करने का ठेका ले रखा है .
अमरीकी कोशिश के बाद सुरक्षा परिषद् की तरफ से घोषित इन पाबंदियों का भारत पर भी असर पडेगा. इंदिरा गाँधी के युग में तो किसी अमरीकी राष्ट्रपति की हिम्मत नहीं थी कि वह भारत को यह समझाए कि कइसी तीसरे देश के साथ कैसा बर्ताव करना है लेकिन अब मामला बदल गया है . अभी पिछले दिनों ही संयुक्त राष्ट्र के एक मंच पर भारत के प्रतिनिधि ने अमरीका के दबाव में आकर इरान के खिलाफ वोट दिया था . लेकिन इस बार मामला बिलकुल अलग है.अमरीकी दबाव में सुरक्षा परिषद् ओर से आये इस प्रतिबन्ध पर इरान ने बिलकुल अलगर्ज़ रवैया अपनाया है . इरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने कहा है कि संयुक्त राष्ट्र का यह प्रताव किसी काम का नईं है इसे इस्तेमाल किये गए रूमाल की तरह किसी कूड़े दान में फेंक देना चाहिए.इरान ने घोषणा की है इस पाबंडे एके प्रताव के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा . इरान का इस्लामी गणराज्य यूरेनियम के संवर्धन के अपने कार्यक्रम को बदस्तूर जारी रखेगा . ज़ाहिर है कि अगर इरान सुरक्षा परिषद् और अमरीका की पाबंदी वाली धमकी को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है तो वह उम्मीद करेगा कि उस से अच्छा सम्बन्ध बनाने के इच्छुक देश भी इस पाबंदी की घोषणा के बाद इरान से अपन एरिष्टों में तबदीली न लायें . इरान के इस रुख से भारत के लिए परेशानी बढ़ सकती है . भारत का इरान से मज़बूत आर्थिक सम्बन्ध है . हालांकि अमरीका से भारत के आर्थिक सम्बन्ध आब जायद हो गए हैं लेकिन इरान से जो सम्बन्ध हैं उनके खराब होने पर भारत की ऊर्जा संबंधी ज़रूरतें प्रभावित होंगीं जिससे विकास की गति भी धीमी पड़ेगी और आम आदमी पर आर्थिक बोझ भी बढेगा यानी इरान को नाराज़ करके भारत महंगाई के दलदल में फंस सकता है . ज़ाहिर है कि नयी दिल्ली की कोई भी सरकार बैठे ठाले इस मुसीबत से बचना चाहेगी.इसका मतलब यह हुआ कि भारत के सामने सुरक्षा परिषद् की इरान संबंधी पाबंदी आने के बाद कठिन परिस्थितियाँ पैदा हो गयी हैं .सबसे बड़ी बात तो यह है कि इरान से भारत आने वाली गैस की पाईपलाइन की योजना ही प्रभावित होगी. दुनिया जानती है कि इस पाईपलाइन के बाद देश की ऊर्जा की ज़रूरतों पर बहुत ही सकारात्मक असर पडेगा.ऐसी हालत में अमरीका की इरान को घेरने की नयी कोशिश का बाकी दुनिया की कूटनीति पर उल्टा प्रभाव पड़ने की आशंका है .
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