शेष नारायण सिंह
प्रकाश झा एक संवेदनशील फिल्मकार हैं . एक से एक अच्छी फ़िल्में बनायी हैं उन्होंने. उनकी फिल्म 'गंगाजल और अपहरण ' को देखने के बाद अंदाज़ लगा था कि किसी नीरस विषय पर वे इतनी संवेदनशील फिल्म बना सकते हैं . ज़ाहिर है कि आम फिल्मकार इस तरह की फिल्म नहीं बना सकता. अब उनकी नयी फिल्म आई है ,राजनीति . विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी चर्चित फिल्म को देखने के लिए मुंबई के इतने बड़े हाल में केवल १०-१२ लोग आये थे.. शुरू तो बहुत ही मज़बूत तरीके से हुई लेकिन बाद में साफ़ हो गया कि फिल्म बिलकुल मामूली है .नसीरुद्दीन शाह , अजय देवगन,मनोज बाजपेयी और नाना पाटेकर के अलावा बाकी कलाकारों का काम बहुत ही मामूली है.फिल्म के कलात्मक पक्ष पर कुछ ज्यादा कह सकने की मेरी हैसियत नहीं है लेकिन एक आम दर्शक पर जो असर पड़ता है उसके हिसाब से बात करने की कोशिश की जायेगी.पहली बात तो यह कि बोली के लिहाज़ से फिल्म में भौगोलिक असंतुलन है . नक्शा मध्य प्रदेश का दिखाया जाता है और बोली बिहार की है .इसी भोजपुरी हिन्दी के बल पर गंगाजल और अपहरण ने गुणवत्ता की दुनिया में झंडे बुलंद किये थे. दूसरी बात कि फिल्म में जो सबसे सशक्त करेक्टर पृथ्वी और समर का है .वह कुछ मॉडलनुमा अभिनेताओं से करवाया गया है जिनके मुंह से डायलाग ऐसे निकलते हैं जैसे पांचवीं जमात का बच्चा याद किया गया अपना पाठ सुनाता है .. फिल्म में जो कुछ दृश्य नसीरुद्दीन शाह के हैं वे फिल्मकार के काम को और भी मुश्किल बना देते हैं . जो ऊंचाई नसीर ने भास्कर सान्याल के चरित्र को दे दी है , यह बेचारे मोडल टाइप कलाकार उसे कभी भी नहीं प्रस्तुत कर सकते . उनसे तो इसकी उम्मीद करना भी बेमानी है . बाकी सब कुछ प्रकाश झा वाला ही है लेकिन कहानी बहुत ही बम्बइया हो गयी है . राजनीतिक सुप्रीमेसी के लिए लड़ी गयी लड़ाई इस तरह से पेश कर दी गयी है जैसे किसी शहर में ठेके में मिली कमाई के लिए लड़ाई लड़ी जाती है . कहीं महाभारत के सन्दर्भ मिल जाते हैं तो कहीं श्याम बेनेगल की कलियुग के . जब फिल्म बन रही थी ,उस वक़्त से ही ऐसा प्रचार किया जा रहा था कि प्रियंका गाँधी की तरह दिखने वाली एक अभिनेत्री को शामिल किया गया है और वह उनके व्यक्तित्व को नक़ल करने की कोशिश करेगी लेकिन ऐसा कोसों तक नहीं दिखा. आखीर के कुछ दृश्यों में उस अभिनेत्री ने प्रियंका की कुछ साड़ियों के रंग को कॉपी करने में आंशिक सफलता ज़रूर पायी है . बाकी उस रोल में प्रियंका गांधी कहीं नहीं नज़र आयीं .उनके व्यक्तित्व के किसी पक्ष को नहीं दिखा पायी कटरीना नाम की कलाकार . कुल मिलाकर प्रकाश झा ने एक ऐसी फिल्म बना दी ,जो प्रकाश झा की फिल्म तो बिलकुल नहीं लगती क्योंकि प्रकाश झा से उम्मीदें थोडा ज़्यादा की जाती हैं . उन्हें मेरे जैसे लोग श्याम बेनेगाल, मणि रत्नम, शुरू वाले राम गोपाल वर्मा की लाइन में रखने के चक्कर में रहते हैं . यह फिल्म तो उन्होंने ऐसी बना दी जो कोई भी राज कपूर , सुनील दत्त या मोहन कुमार बना देता, . इन्ही लोगों की वजह से फ़िल्मी गाँव पेश किये जाते हैं जहां सारे लोग अजीबो गरीब भाषा बोलते हैं , वहां के छप्परों के नीचे बारिश से नहीं बचा जा सकता , गरीब से गरीब आदमी के घर में जर्सी गाय बंधी होती है . इन फंतासीलैंड के फिल्मकारों की वजह से ही ज़्यादातर ठाकुर काले कुरते पहने होते हैं , माँ भवानी की पूजा करते रहते हैं , काला तिलक लगाते हैं और हमेशा दुनाली बन्दूक लिए रहते हैं .
अगर प्रकश झा का नाम न होता तो इस फिल्म को दारा सिंह की पुरानी फिल्मों की तरह ठाकुर दिलेर सिंह टाइप फिल्मों के सांचे में रखा जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं है . प्रकश झा से उम्मीद ज़्यादा की जाती है .मनोज बाजपेयी को चुनौती देने वाला जो नौजवान है वह किसी बड़े नेता के बेटे के रोल तक तो ठीक है , वहीअमरीका जाना , ड्राइवर को काका कहना, और किसी पैसे वाले की लडकी से इश्क करना लेकिन जब वह भारतीय राजनीति के खूंखार खेल में अजय देवगन और मनोजबाजपेयी जैसे बड़े अभिनेताओं को चुनौती देता है तो लगता है कि बस अब कह पड़ेगा कि यह बहादुरी मैंने फला साबुन से नहा कर पायी है . आप भी इस्तेमाल करें. उनके चेहरे पर हिन्दी हार्टलैंड की राजनीति की क्रूरता का कोसों तक पता नहीं है . कुल मिलाकर फिल्म इतनी साधारण है कि इसे फिल्म समीक्षा का विषय बनाना भी एक सड़क छाप काम है . लेकिन करना पड़ता है
Showing posts with label गंगाजल. Show all posts
Showing posts with label गंगाजल. Show all posts
Friday, June 18, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)