शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय लोगों की दो मस्जिदों में शुक्रवार की नमाज़ के वक़्त जो हमला हुआ वह पाकिस्तानी समाज में व्याप्त असहिष्णुता को एक बार भी फिर रेखांकित कर देता है .. अहमदिया समुदाय के लोग अपने आप को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उन्हें मुसलमान नहीं मानती. वे वहां के सरकारी रिकॉर्ड में गैर-मुस्लिम जमात के रूप में दर्ज हैं . शायद इसीलिए जब शुक्रवार के दिन मस्जिद में हुए हमलों में मारे गए अहमदिया समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार किया गया तो कोई भी सरकारी नेता या अधिकारी वहां नहीं गया . राजनीतिक पार्टियों ने तो दो मस्जिदों में हुए इस नरसंहार के खिलाफ बयान दे दिए लेकिन कोई नेता सार्वजनिक रूप से सहानुभूति व्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.दरअसल पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों के खिलाफ बहुत असहिष्णुता है . पाकिस्तानी हुकूमत का दावा है कि अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों की आबादी उनके देश में चौथाई प्रतिशत से भी कम है . पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही जब जमाते-इस्लामी के नेता , मौलाना मौदूदी ने नए देश को इस्लामी राज्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम शुरू की , तो लोगों को लगने लगा था कि पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान तो कभी नहीं बन पायेगा. इसका कारण यह था कि पाकिस्तान की बुनियादी मांग ही धार्मिक आधार पर की गयी थी. जिन्ना ने अंग्रेजों से पाकिस्तान हासिल ही इसलिए किया था कि उन्हें शक़ था कि आज़ादी के बाद जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो हिन्दू बहुमत की सरकारें मुसलमानों को परेशान करेंगीं . जिन्ना की यह सोच गलत थी क्योंकि आज भी मुसलमान भारत में गर्व से रहते हैं और मुस्लिम विरोधी आर एस एस के खिलाफ लगभग पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष हिन्दू लामबंद हैं.. जिन्ना की वफादारी और भारत के टुकड़े करने की अपनी नीति के तहत अंग्रेजों ने मुल्क का बँटवारा कर दिया . शायद इसीलिए जमाते इस्लामी की अगुवाई में मुल्लाओं ने इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए कोशिश शुरू कर दी लेकिन जिन्ना के दिमाग में कुछ और था . वे धार्मिक मामलों को राजकाज का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. इसीलिए पाकिस्तान के बँटवारे के बाद उन्होंने जो सबसे चर्चित भाषण दिया था उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि नया मुल्क एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा. उनका वह भाषण बार बार उद्धृत किया जाता है . उस पर गौर करने की ज़रुरत है क्योंकि उसकी रोशनी में ही समझ में आयेगा कि पाकिस्तान के संस्थापक के असली सपने कितने नीचे दफन कर दिए गए हैं .
जिन्ना ने अपने उस विख्यात भाषण में कहा था कि ' मेरी समझ से भारत के विकास में धार्मिक मतभेद की समस्या सबसे बड़ी बाधा रही है . इसलिए हमें इस से एक सबक सीखना चाहिए . इस नए पाकिस्तान में आप मंदिर में जाने के लिए स्वतंत्र हैं .आप अपनी मस्जिदों में जा सकते हैं या किसी और पूजा स्थल पर जा सकते हैं . आप किसी भी धर्म, जाति या मत से ताल्लुक रख सकते हैं , उस से राज्य का कोई लेना देना नहीं है .' जिन्ना का यह भाषण साफ़ कर देता है कि पाकिस्तान हथियाने के लिए उन्होंने चाहे जो कुछ भी किया हो लेकिन नए देश को वे भी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर चलाना चाहते थे . लेकिन उनकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था . उनके मरने के कुछ बाद ही उनके चहेते और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली को मार डाला गया , पंजाबी साम्राज्यवाद की शुरुआत हो गयी शुरू में तो जिन्ना की सोच को इज्ज़त देने का ड्रामा होता रहा लेकिन बाद में अपने आप को बहुत सेकुलर और आधुनिक कहलाने के शौकीन , ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सत्ता पर काबिज़ होने के बाद सरकारी स्तर पर मुल्लाओं की बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ही अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को गैर-मुस्लिम घोषित किया था . बाद में उनके हत्यारे और पाकिस्तान के फौजी तानाशाह ,जिया उल हक ने उसे बहुत ही मज़बूत कर दिया .
बहरहाल यह पक्का है कि मुहम्मद अली जिन्ना वाला पाकिस्तान आज कहीं दूर दूर तक नहीं है . यह हाल शुरू से ही है . पाकिस्तान में सत्तर के दशक में लोग कहते पाए जाते थे कि यहाँ सिन्धी हैं , पंजाबी हैं , पख्तून हैं और बलूच हैं लेकिन पाकिस्तानी कोई नहीं . आज हालात उस से भी बदतर हैं . जिस तरह से पूरे पाकिस्तान में खून खराबा हो रहा है, उसे देखकर कई बार शक़ होने लगता है आज के पाकिस्तान में इंसान की इज्ज़त करने वाली जमातें भी कहीं छुप गयी हैं . मुहम्मद अली जिन्ना मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पैरोकार थे ..१९१९ के पहले की कांग्रेस में उनकी हैसियत एक बड़े नेता की थी लेकिन अपने चिडचिडे और दूसरों की राय की इज्ज़त न करने के स्वभाव कारण उन्हें कांग्रेस से अलग होना पड़ा . बाद में लियाक़त अली के साथ मिलकर वे मुल्क के बँटवारे के अभियान के नेता बने. लेकिन आज़ादी के बाद वे पाकिस्तान में वैज्ञानिक सोच के आधार पर हुकूमत के पक्षधर थे. जो हो न सका .उनका सपना पूरा नहीं हुआ .. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के सपने अब कहीं नहीं हैं. पूर्व तानाशाह जिया उल हक ने जिस तरह से हर पाकिस्तानी के दिमाग में भारत से दुश्मनी का ज़हर भर दिया था , वह अब रंग दिखाने लगा है . भारत को तबाह करने के लिए जिया ने आतंकवाद को अपनी सरकार की प्राथमिकता में शामिल किया था और आई एस आई का इस्तेमाल करके आतंकवाद का एक बड़ा तामझाम तैयार किया था . भारत ने तो अपने आप को सुरक्षित कर लिया लेकिन वही आतंकवाद आज पाकिस्तान की तबाही का कारण बनता नज़र आ रहा है. और लगता है कि जिया से शुरू होकर बेनजीर ,नवाज़ शरीफ और मुशर्रफ के शासन काल में जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी थी ,वह पाकिस्तान को तबाह करके ही दम लेगा.
Friday, June 4, 2010
अगर आतंक में पकडे गए तो आर एस एस अपने लोगों से पल्ला झाड़ लेगा
शेष नारायण सिंह
देश में हुई आतंकवादी गतिविधियों में आर एस एस के शामिल होने की पोल खुलने के बाद नागपुर के मठाधीश बहुत परेशान हैं . एक बहुत ही आदरणीय पत्रकार से बात चीत में संगठन के एक ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह ठीक नहीं है क्योंकि अगर आर एस एस के कार्यक्रताओं के नाम आतंकवादी काम में जुड़ गए तो उनकी उस रणनीति की हवा निकल जायेगी जिसके तहत वे कहते पाए जाते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं .. उनकी कोशिश रहती थी कि मुसलमानों को आतंकवाद के साचे में मुकम्मल तरीके से फिक्स रखा जाए . लेकिन महाराष्ट्र के मालेगांव, राजस्थान के अजमेर और आन्ध्र प्रदेश के मक्का मस्जिद धमाकों में आर एस एस के लोगों के पकडे जाने और उनके शामिल होने की बात के साबित हो जाने के बाद यह तो पता चल ही गया है कि सभी आतंकवादी मुसलमान नहीं होते, बल्कि यह भी कि आर एस एस ही इस देश में होने वाले आतंकवाद का एक प्रमुख नियंता है और आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता .. अब आर एस एस की ताज़ा लाइन अलग है. अब तक तो यह था कि अपने लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पकडे जाने के बाद भी मदद की जायेगी . इस सोच के तहत ही जब उनकी मध्य प्रदेश की नेता, प्रज्ञा सिंह ठाकुर आतंकवादी होने के आरोप में पकड़ी गयी थीं तो उस वक़्त के आर एस एस की राजनीतिक शाखा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधान मंत्री पद के प्रतीक्षक, लाल कृष्ण आडवानी ने उनके समर्थन में बयान दिया था लेकिन अब बात बिगड़ रही है. प्रज्ञा ठाकुर वाले मामले में बचत की एक गुंजाइश थी . वे आर एस एस के उन संगठनों के साथ थीं जो चोरी छुपे उनका काम करते हैं और पकडे जाने पर नागपुर उनसे पल्ला झाड लेता है . लेकिन अब बात बदल गयी है . अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जो धमाका हुआ था , उसका सरगना पकड़ लिया गया है और वह आर एस एस का आधिकारिक रूप से तैनात किया गया प्रचारक था. प्रचारक ,आर एस एस का सबसे महत्वपूर्ण पद्दाधिकारी होता है . सही बात यह है कि वही सारे खेल में केंदीय भूमिका अदा करता है . संगठन के सभी बड़े नेता मूल रूप से स्वयंसेवक होते हैं लेकिन जो प्रचारक होकर बी जे पी में आते हैं ,उनकी ताक़त औरों से ज्यादा होती है . गुजरात के नरेंद्र मोदी भी आर एस एस के प्रचारक रह चुके हैं . ज़ाहिर है प्रचारकों के पकडे जाने के बाद आर एस एस वालों को लगने लगा है कि अगर सारी पोल पट्टी खुल गयी तो उनका एक बार फिर वही हाल होगा जो गाँधी जी की हत्या में पकडे जाने के बाद हुआ था. उस मामले में तो उनके मुखिया ,गोलवलकर तक पकड़ लिए गए थे . बाद में छूट गए लेकिन उनके अपने बन्दे सावरकर , नाथूराम गोडसे वगैरह के ऊपर आरोप साबित हो गए थे. और उन लोगों को माकूल सज़ा भी हुई. गांधी हत्या में पकडे जाने की वजह से इस संगठन पर बहुत दिनों तक किसी को भरोसा नहीं हुआ था. वह तो १९७७ में जयप्रकाश नारायण ने इनको मुख्य धारा में लाने में मदद की. शायद इसीलिए अब आर एस एस के नेता लोग खुले आम बदमाशी करने या अपने लोगों को आतंकवादी कहलवाने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते . जिस गुमनाम आर एस एस वाले ने एक प्रतिष्ठित अखबार की संवाददाता से बात की उसने साफ़ कहा कि गाँधी जी की ह्त्या वाले मामले के बाद उनका संगठन बहुत पिछड़ गया था .
इस नयी सोच के तहत अजमेर के आतंकवादी धामाके में पकड़ा गया नरेंद्र गुप्ता अपनी जान बचाने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है . हालांकि आर एस एस के लिए यह साबित कर पाना मुश्किल है कि नरेंद्र गुप्ता का उनसे कोई लेना देना नहीं है. क्योंकि आर एस एस ने ही उसे प्रचारक के रूप में झारखण्ड में कई वर्षों तक तैनात रखा था . उसका जो सिम कार्ड बरामद हुआ है उस से उसके सम्बन्ध अजमेर धमाके के दौरान भी आर एस एस के टाप नेताओं से बने रहने की बात साबित हो गयी है . यह भी साबित हो गया है कि अपने अन्य साथियों से भी वह उसी सिम कार्ड से संपर्क में था . उसकी मक्का मस्जिद विस्फोट में हिस्सेदारी की पुष्टि हो गयी है और आर एस एस के बाकी आतंकवादी भी उसकी निशान देही पर पकडे जा रहे हैं . इस तरह से आतंकवादी हरकतों में आर एस एस के शामिल होने के पुख्ता सबूत मिल जाने के बाद उसके आला नेता परेशानी में हैं और अब उनकी नीति यह है कि जब तक पकड़ा न जाए तब तक तो आर एस एस अपने आतंकवादियों की मदद करेगा लेकिन पकडे जाने के बाद उसको कुर्बान कर देगा. आर एस एस के इस गुमनाम बड़े नेता ने सम्मानित पत्रकार को बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस का आतंकवादी गतिविधियों में डाइरेक्ट शामिल होता हुआ पकड़ा गया तो बहुत बुरा होगा . यानी आगे से आर एस एस का जो भी स्वयंसेवक आतंक का काम करते पकड़ा जाएगा उसका वही हश्र होगा जो अजमेर के केस में पकडे गए नरेंद्र गुप्ता का हो रहा है . यानी अब नागपुर वाले अपने उन आतंकवादियों को नहीं बचायेंगें जो पुलिस की पकड़ में आ जायेंगें
देश में हुई आतंकवादी गतिविधियों में आर एस एस के शामिल होने की पोल खुलने के बाद नागपुर के मठाधीश बहुत परेशान हैं . एक बहुत ही आदरणीय पत्रकार से बात चीत में संगठन के एक ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह ठीक नहीं है क्योंकि अगर आर एस एस के कार्यक्रताओं के नाम आतंकवादी काम में जुड़ गए तो उनकी उस रणनीति की हवा निकल जायेगी जिसके तहत वे कहते पाए जाते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं .. उनकी कोशिश रहती थी कि मुसलमानों को आतंकवाद के साचे में मुकम्मल तरीके से फिक्स रखा जाए . लेकिन महाराष्ट्र के मालेगांव, राजस्थान के अजमेर और आन्ध्र प्रदेश के मक्का मस्जिद धमाकों में आर एस एस के लोगों के पकडे जाने और उनके शामिल होने की बात के साबित हो जाने के बाद यह तो पता चल ही गया है कि सभी आतंकवादी मुसलमान नहीं होते, बल्कि यह भी कि आर एस एस ही इस देश में होने वाले आतंकवाद का एक प्रमुख नियंता है और आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता .. अब आर एस एस की ताज़ा लाइन अलग है. अब तक तो यह था कि अपने लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पकडे जाने के बाद भी मदद की जायेगी . इस सोच के तहत ही जब उनकी मध्य प्रदेश की नेता, प्रज्ञा सिंह ठाकुर आतंकवादी होने के आरोप में पकड़ी गयी थीं तो उस वक़्त के आर एस एस की राजनीतिक शाखा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधान मंत्री पद के प्रतीक्षक, लाल कृष्ण आडवानी ने उनके समर्थन में बयान दिया था लेकिन अब बात बिगड़ रही है. प्रज्ञा ठाकुर वाले मामले में बचत की एक गुंजाइश थी . वे आर एस एस के उन संगठनों के साथ थीं जो चोरी छुपे उनका काम करते हैं और पकडे जाने पर नागपुर उनसे पल्ला झाड लेता है . लेकिन अब बात बदल गयी है . अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जो धमाका हुआ था , उसका सरगना पकड़ लिया गया है और वह आर एस एस का आधिकारिक रूप से तैनात किया गया प्रचारक था. प्रचारक ,आर एस एस का सबसे महत्वपूर्ण पद्दाधिकारी होता है . सही बात यह है कि वही सारे खेल में केंदीय भूमिका अदा करता है . संगठन के सभी बड़े नेता मूल रूप से स्वयंसेवक होते हैं लेकिन जो प्रचारक होकर बी जे पी में आते हैं ,उनकी ताक़त औरों से ज्यादा होती है . गुजरात के नरेंद्र मोदी भी आर एस एस के प्रचारक रह चुके हैं . ज़ाहिर है प्रचारकों के पकडे जाने के बाद आर एस एस वालों को लगने लगा है कि अगर सारी पोल पट्टी खुल गयी तो उनका एक बार फिर वही हाल होगा जो गाँधी जी की हत्या में पकडे जाने के बाद हुआ था. उस मामले में तो उनके मुखिया ,गोलवलकर तक पकड़ लिए गए थे . बाद में छूट गए लेकिन उनके अपने बन्दे सावरकर , नाथूराम गोडसे वगैरह के ऊपर आरोप साबित हो गए थे. और उन लोगों को माकूल सज़ा भी हुई. गांधी हत्या में पकडे जाने की वजह से इस संगठन पर बहुत दिनों तक किसी को भरोसा नहीं हुआ था. वह तो १९७७ में जयप्रकाश नारायण ने इनको मुख्य धारा में लाने में मदद की. शायद इसीलिए अब आर एस एस के नेता लोग खुले आम बदमाशी करने या अपने लोगों को आतंकवादी कहलवाने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते . जिस गुमनाम आर एस एस वाले ने एक प्रतिष्ठित अखबार की संवाददाता से बात की उसने साफ़ कहा कि गाँधी जी की ह्त्या वाले मामले के बाद उनका संगठन बहुत पिछड़ गया था .
इस नयी सोच के तहत अजमेर के आतंकवादी धामाके में पकड़ा गया नरेंद्र गुप्ता अपनी जान बचाने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है . हालांकि आर एस एस के लिए यह साबित कर पाना मुश्किल है कि नरेंद्र गुप्ता का उनसे कोई लेना देना नहीं है. क्योंकि आर एस एस ने ही उसे प्रचारक के रूप में झारखण्ड में कई वर्षों तक तैनात रखा था . उसका जो सिम कार्ड बरामद हुआ है उस से उसके सम्बन्ध अजमेर धमाके के दौरान भी आर एस एस के टाप नेताओं से बने रहने की बात साबित हो गयी है . यह भी साबित हो गया है कि अपने अन्य साथियों से भी वह उसी सिम कार्ड से संपर्क में था . उसकी मक्का मस्जिद विस्फोट में हिस्सेदारी की पुष्टि हो गयी है और आर एस एस के बाकी आतंकवादी भी उसकी निशान देही पर पकडे जा रहे हैं . इस तरह से आतंकवादी हरकतों में आर एस एस के शामिल होने के पुख्ता सबूत मिल जाने के बाद उसके आला नेता परेशानी में हैं और अब उनकी नीति यह है कि जब तक पकड़ा न जाए तब तक तो आर एस एस अपने आतंकवादियों की मदद करेगा लेकिन पकडे जाने के बाद उसको कुर्बान कर देगा. आर एस एस के इस गुमनाम बड़े नेता ने सम्मानित पत्रकार को बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस का आतंकवादी गतिविधियों में डाइरेक्ट शामिल होता हुआ पकड़ा गया तो बहुत बुरा होगा . यानी आगे से आर एस एस का जो भी स्वयंसेवक आतंक का काम करते पकड़ा जाएगा उसका वही हश्र होगा जो अजमेर के केस में पकडे गए नरेंद्र गुप्ता का हो रहा है . यानी अब नागपुर वाले अपने उन आतंकवादियों को नहीं बचायेंगें जो पुलिस की पकड़ में आ जायेंगें
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Thursday, June 3, 2010
मध्यावधि चुनाव ही झारखण्ड में थोड़ी राहत दे सकेगा
शेष नारायण सिंह
झारखण्ड में एक बार फिर राष्ट्रपति राज लगा दिया गया है . राज्य के राजनीतिक हालात ऐसे हो गए थे कि राष्ट्रपति शासन लगाना ही एक रास्ता बचा था.हालांकि अगर केंद्र सरकार चाहती तो राजनीतिक क्षितिज पर बहुत सारे ऐसे खिलाड़ी हैं जो तोड़फोड़ की राजनीति की कला के उस्ताद हैं और अगर उनको खुली छूट दे दी जाती तो सरकार तो बन ही जाती . आखिर बिना किसी राजनीतिक समर्थन के इन्हीं मौकापरस्त नेताओं ने तो मधु कोड़ा की सरकार बनवा दी थी . राज्यपाल ने पूरी कोशिश की कि कोई सरकार बन जाए. उन्होंने कांग्रेस , बी जे पी और दीगर पार्टियों से पूछा लेकिन बात बनी नहीं. बी जे पी तो अपने किसी नेता को मुख्य मंत्री बनाना चाहती है , जो किसी को मंज़ूर नहीं . कांग्रेस के दिल्ली में बैठे नेता सच्चाई से बिलकुल अनभिज्ञ हैं . उनको लगता है कि झारखण्ड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी को आगे करके कोई खेल बनाया जा सकता है लेकिन वह भी होता नहीं दिखता. हालात ऐसे हैं कि जब तक बी जे पी या शिबू सोरेन की पार्टी को साथ न लिया जाए , कोई सरकार बनती नज़र नहीं आती. कांग्रेस वाले शिबू सोरेन को साथ लेने के लिए तो तैयार हैं लेकिन उन्हें मुख्य मंत्री बनवाकर अपना भी हाल बी जे पी जैसा नहीं करना चाहते .अभी विधान सभा को भंग नहीं किया गया है . यानी उम्मीद की जा रही है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में तोड़ फोड़ होगी और एक बार फिर कोई सरकार बना दी जायेगी. इस बात की संभावना इस लिए भी बहुत ज्यादा है कि झारखण्ड के मौजूदा राजनीतिक ड्रामे में कोई भी विधायक चुनाव नहीं चाहता . चुनाव तो बी जे पी और कांग्रेस भी नहीं चाहते . इसलिए पार्टी की लाइन से ऊपर हटकर विधायक लोग खुद ही सरकार बनाने की संभावना तलाश सकते हैं . इस लिहाज़ से जो छोटे दल हैं वे तो किसी भी सरकार के लिए उपलब्ध हैं . बड़े दलों में लगभग सभी में बड़े पैमाने पर दल बदल हो सकता है . इसलिए सरकार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता . राज्य में महत्वाकांक्षी लोगों की भी कमी नहीं है . शिबू सोरेन तो तो दुनिय जानती है . वे सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं . उनका बेटा भी उनसे कम नहीं है . बी जे पी से झगड़े के दौरान तो हालात यहाँ तक पैदा हो गए थे कि वह अपने पिता जी को ही धता बताकर सत्ता में आने के चक्कर में था . इसलिए अभी तोड़ फोड़ की संभावना पूरी है कि झारखण्ड में एक सरकार और बनेगी ता जाकर कहीं विधान सभा भंग होगी. .
तोड़ फोड़ की भावी सरकार में सबसे ज्यादा तोड़फोड़ की संभावना बी जे पी में ही है . जानकार बताते हैं कि स्थानीय बी जे पी विधायकों को लगता है कि अगर सरकार बनने की नौबत आई तो दिल्ली से कोई बी जे पी नेता वहां मुख्य मंत्री बनाकर भेज दिया जाएगा . इसलिए वे किसी को भी मुख्य मंत्री मानने को तैयार हैं , वह चाहे हेमंत सोरेन हो या शिबू सोरेन . ऐसी हालात में जो भी बी जे पी में फूट की व्यवस्था कर लेगा उसकी सरकार बन जायेगी. एक दूसरी संभावना यह है कि बी जे पी को तोड़ कर कांग्रेस सरकार बनाए . लेकिन कांग्रेस में आजकल दूर की सोचने का फैशन है . शायद इसी लिए कांग्रेस आलाकमान वाले चाहते है कि बाबू लाल मरांडी को साथ लेकर चला जाए जो आगे चलकर राज्य में पार्टी को मज़बूत करेगें . यह उम्मीद भी बेतुका है क्योंकि पिछले चुनाव तो बाबू लाल मरांडी कांग्रेस के साथ लड़ चुके हैं लेकिन अब वे राजनीतिक रूप से इतने मज़बूत हो चुके हैं कि उन्हें लगने लगा है कि वे अपने बल पर सरकार बनने लायक बहुमत जीत सकते हैं . इसलिए वे जल्दी चुनाव के लिए कोशिश कर रहे हैं . इसी मई में उन्होंने रांची में अपनी पार्टी का दो दिन का कार्यकर्ता सम्मलेन करके राजनीतिक विश्लेषकों को बता दिया है कि वे राज्य के विकास के लिए पूरी ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं और राज्य के हर गाँव में उनका संगठन बन चुका है . उन्होंने बताया कि दिल्ली और नागपुर से कंट्रोल होने वाली पार्टियों को मालूम ही नहीं है कि राज्य की समस्याएं क्या हैं और उनका हल कैसे निकाला जाए . इन तथाकथित बड़ी पार्टियों की नीतियों की वजह से ही ग्रामीण इलाकों का आदमी ठगा ठगा महसूस करता है . और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बाहर जाकर अपने कल्याण की बात सोचता है . शायद माओवादी आतंकवाद के फलने फूलने के पीछे भी बड़ी पार्टियों की यही अदूरदर्शिता सबसे बड़ा कारण है . बाबू लाल मरांडी को चुनाव से निश्चित फायदा होगा , और वे जो भी राजनीति कर रहे हैं , वह राज्य को चुनाव की तरफ ही बढ़ा रही है लेकन लगता हैकि अभी उसमें थोड़ी देर है क्योंकि विधान सभा अभी निलंबित ही की गयी है , भंग नहीं . इसलिए अभी तोड़फोड़ की मदद से एक सरकार और बनेगी और् शायद अगले साल कभी चुनाव होगा . तब तक राज्य के भ्रष्टाचार पीड़ित लोगों राहत मिलने की उम्मीद नहीं है . अगला चुनाव ही झारखण्ड के लोगों को कोई राहत दे सकेगा
झारखण्ड में एक बार फिर राष्ट्रपति राज लगा दिया गया है . राज्य के राजनीतिक हालात ऐसे हो गए थे कि राष्ट्रपति शासन लगाना ही एक रास्ता बचा था.हालांकि अगर केंद्र सरकार चाहती तो राजनीतिक क्षितिज पर बहुत सारे ऐसे खिलाड़ी हैं जो तोड़फोड़ की राजनीति की कला के उस्ताद हैं और अगर उनको खुली छूट दे दी जाती तो सरकार तो बन ही जाती . आखिर बिना किसी राजनीतिक समर्थन के इन्हीं मौकापरस्त नेताओं ने तो मधु कोड़ा की सरकार बनवा दी थी . राज्यपाल ने पूरी कोशिश की कि कोई सरकार बन जाए. उन्होंने कांग्रेस , बी जे पी और दीगर पार्टियों से पूछा लेकिन बात बनी नहीं. बी जे पी तो अपने किसी नेता को मुख्य मंत्री बनाना चाहती है , जो किसी को मंज़ूर नहीं . कांग्रेस के दिल्ली में बैठे नेता सच्चाई से बिलकुल अनभिज्ञ हैं . उनको लगता है कि झारखण्ड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी को आगे करके कोई खेल बनाया जा सकता है लेकिन वह भी होता नहीं दिखता. हालात ऐसे हैं कि जब तक बी जे पी या शिबू सोरेन की पार्टी को साथ न लिया जाए , कोई सरकार बनती नज़र नहीं आती. कांग्रेस वाले शिबू सोरेन को साथ लेने के लिए तो तैयार हैं लेकिन उन्हें मुख्य मंत्री बनवाकर अपना भी हाल बी जे पी जैसा नहीं करना चाहते .अभी विधान सभा को भंग नहीं किया गया है . यानी उम्मीद की जा रही है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में तोड़ फोड़ होगी और एक बार फिर कोई सरकार बना दी जायेगी. इस बात की संभावना इस लिए भी बहुत ज्यादा है कि झारखण्ड के मौजूदा राजनीतिक ड्रामे में कोई भी विधायक चुनाव नहीं चाहता . चुनाव तो बी जे पी और कांग्रेस भी नहीं चाहते . इसलिए पार्टी की लाइन से ऊपर हटकर विधायक लोग खुद ही सरकार बनाने की संभावना तलाश सकते हैं . इस लिहाज़ से जो छोटे दल हैं वे तो किसी भी सरकार के लिए उपलब्ध हैं . बड़े दलों में लगभग सभी में बड़े पैमाने पर दल बदल हो सकता है . इसलिए सरकार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता . राज्य में महत्वाकांक्षी लोगों की भी कमी नहीं है . शिबू सोरेन तो तो दुनिय जानती है . वे सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं . उनका बेटा भी उनसे कम नहीं है . बी जे पी से झगड़े के दौरान तो हालात यहाँ तक पैदा हो गए थे कि वह अपने पिता जी को ही धता बताकर सत्ता में आने के चक्कर में था . इसलिए अभी तोड़ फोड़ की संभावना पूरी है कि झारखण्ड में एक सरकार और बनेगी ता जाकर कहीं विधान सभा भंग होगी. .
तोड़ फोड़ की भावी सरकार में सबसे ज्यादा तोड़फोड़ की संभावना बी जे पी में ही है . जानकार बताते हैं कि स्थानीय बी जे पी विधायकों को लगता है कि अगर सरकार बनने की नौबत आई तो दिल्ली से कोई बी जे पी नेता वहां मुख्य मंत्री बनाकर भेज दिया जाएगा . इसलिए वे किसी को भी मुख्य मंत्री मानने को तैयार हैं , वह चाहे हेमंत सोरेन हो या शिबू सोरेन . ऐसी हालात में जो भी बी जे पी में फूट की व्यवस्था कर लेगा उसकी सरकार बन जायेगी. एक दूसरी संभावना यह है कि बी जे पी को तोड़ कर कांग्रेस सरकार बनाए . लेकिन कांग्रेस में आजकल दूर की सोचने का फैशन है . शायद इसी लिए कांग्रेस आलाकमान वाले चाहते है कि बाबू लाल मरांडी को साथ लेकर चला जाए जो आगे चलकर राज्य में पार्टी को मज़बूत करेगें . यह उम्मीद भी बेतुका है क्योंकि पिछले चुनाव तो बाबू लाल मरांडी कांग्रेस के साथ लड़ चुके हैं लेकिन अब वे राजनीतिक रूप से इतने मज़बूत हो चुके हैं कि उन्हें लगने लगा है कि वे अपने बल पर सरकार बनने लायक बहुमत जीत सकते हैं . इसलिए वे जल्दी चुनाव के लिए कोशिश कर रहे हैं . इसी मई में उन्होंने रांची में अपनी पार्टी का दो दिन का कार्यकर्ता सम्मलेन करके राजनीतिक विश्लेषकों को बता दिया है कि वे राज्य के विकास के लिए पूरी ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं और राज्य के हर गाँव में उनका संगठन बन चुका है . उन्होंने बताया कि दिल्ली और नागपुर से कंट्रोल होने वाली पार्टियों को मालूम ही नहीं है कि राज्य की समस्याएं क्या हैं और उनका हल कैसे निकाला जाए . इन तथाकथित बड़ी पार्टियों की नीतियों की वजह से ही ग्रामीण इलाकों का आदमी ठगा ठगा महसूस करता है . और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बाहर जाकर अपने कल्याण की बात सोचता है . शायद माओवादी आतंकवाद के फलने फूलने के पीछे भी बड़ी पार्टियों की यही अदूरदर्शिता सबसे बड़ा कारण है . बाबू लाल मरांडी को चुनाव से निश्चित फायदा होगा , और वे जो भी राजनीति कर रहे हैं , वह राज्य को चुनाव की तरफ ही बढ़ा रही है लेकन लगता हैकि अभी उसमें थोड़ी देर है क्योंकि विधान सभा अभी निलंबित ही की गयी है , भंग नहीं . इसलिए अभी तोड़फोड़ की मदद से एक सरकार और बनेगी और् शायद अगले साल कभी चुनाव होगा . तब तक राज्य के भ्रष्टाचार पीड़ित लोगों राहत मिलने की उम्मीद नहीं है . अगला चुनाव ही झारखण्ड के लोगों को कोई राहत दे सकेगा
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Wednesday, June 2, 2010
मंसूर सईद की इच्छा के मुताबिक फैज़ की जन्मशती बनायी जायेगी
नयी दिल्ली के मुक्तधारा सभागार में २ जून २०१० को मंसूर सईद को याद करने उनके साथी पंहुचे. . ६८ साल की उम्र में पिछले हफ्ते कराची में उनकी मृत्यु हो गयी थी. . वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की सेन्ट्रल कमेटी के सदस्य थे. इस मौक पर वहां मंसूर के दोस्त मौजूद थे . ५० के दशक के उनके साथी सलीम भाई भी थे तो साठ के दशक के उनके दोस्त राजेन्द्र , बबली और मधु भी थे. ज़हूर सिद्दीकी थे तो सोहेल हाशमी थे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव , प्रकाश करात ने बताया कि जब वे दिल्ली आये थे तो आज से करीब ४२ साल पहले उन्हें मंसूर सईद की यूनिट में ही रखा गया था .. प्रकाश ने मंसूर को एक बेहतरीन इंसान के रूप में याद किया .उनके सबसे करीबी लोगों के लिए भाषण देना तो बहुत मुश्किल था लेकिन काफी कुछ यादें पब्लिक डोमेन में आयीं. उनके चचाज़ाद भाई और कामरेड ,सुहेल हाशमी ने बताया कि जब उनसे मंसूर के बारे में कुछ लिखने को कहा गया तो उन्हें कितनी परेशानी हुई . उन्होंने कहा था कि भाई मंसूर के बारे में लिखना कोई आसान काम नहीं है . यही हाल , मधु और सलीम भाई का भी था. सलीम भाई का अपने दोस्त ,मंसूर से १९५४ से साथ था , जो अब छूट गया . यादोंका सिलसिला शुरू करने के पहले सुहेल ने साफ़ कर दिया था कि मंसूर सईद की शोक सभा नहीं की जा सकती . यहाँ तो उन्हें याद करने के लिए ही लोग आये हैं . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो के सदस्य , सीताराम येचुरी ने कहा कि उनको यह बात अजीब लगी जब बताया गया कि मंसूर की उम्र ६८ साल थी. वे तो मंसूर को हमउम्र मानते थे. मंसूर की इच्छा थी कि अगले साल उर्दू के शायर फैज़ अहमद फैज़ की जन्मशती मनाई जाए .मंसूर तो चले गए लेकिन हम मनायेंगें और पाकिस्तान और भारत में इस अवसर पर कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगें .
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Sunday, May 30, 2010
माओवादी आतंक को राजनीतिक जवाब देना होगा
शेष नारायण सिंह
पश्चिम बंगाल में एक और ट्रेन हाद्से का शिकार हो गयी . पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री समेत शासक वर्गों के सभी प्रतिनिधियों ने कहा कि माओवादियों ने किया . ऐसा करने से इन सत्ताधीशों को बड़ी राहत मिल गयी . अब जब भी इस हादसे की जांच का स्वांग रचाया जाएगा तो जांच एजेंसी वालों को मालूम रहेगा कि सत्ताधीशों की क्या मर्जी है .आम तौर पर होता यह है कि जब भी कोई आतंकवादी संगठन इस तरह के धमाके करता है तो वह उसकी ज़िम्मेदारी लेता है . वह यह काम करता ही प्रचार के लिए है . लेकिन जब कोई आतंकवादी संगठन ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा है तो बात गंभीर हो जाती है . इसमें देश के दुश्मनों का हाथ हो सकता है .सवाल पैदा होता है कि यह हमारे नेता लोग बिना किसी तरह की जांच पड़ताल कराये कैसे जान लेते हैं कि किसने किया विस्फोट , किसने की तबाही ? यह निहायत ही गैर जिम्मेदाराना रवैया है और इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए. कोलकता से दिल्ली तक बैठे इन नेताओं को किसने बता दिया कि ट्रेन पर हमला माओवादियों ने किया था. यहाँ माओवादियों को दोषमुक्त करने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है लेकिन सत्ता पर काबिज़ लोग जिनके पास सारी ताक़त है उन्हें बिना किसी बुनियाद के किसी को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए क्योंकि इस में सबसे बड़ा ख़तरा है कि अपराधी बच जाते हैं और जांच गलत दिशा में चल पड़ती है . खडग पुर के पास हुए ट्रेन हादसे में मारे गए लोगों को जिसने भी मारा है , वह अपराधी है . ट्रेन में सभी सीधे सादे लोग थे. उसको उड़ा देने की कोशिश करने वाले अपराधी को पकड़ कर कानून के अनुसार सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिये . उसकी सजा वही होनी चाहिए जो ७८ लोगों का क़त्ल करने वाले की हो . लेकिन बिना यह पता लगाए कि हत्या किसने की है , यह नहीं किया जाना चाहिए .हाँ , इस तरह के हादसों के लिए जो सरकारें ज़िम्मेदार हैं उनको भी सख्त से सख्त सज़ा देने के बारे में बहस शुरू हो जानी चाहिए . उसमें नक्सलवाद को बढ़ावा देने वालों को सज़ा देने के अलावा ठीक से सरकार न चला पाने वालों को भी दण्डित किये जाने का प्रावधान होना चाहिए .
नक्सलवाद और उस से जुड़े मुद्दों की एक बार फिर पड़ताल की ज़रुरत है . कुछ बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आजकल यह कहता पाया जाता है कि देश के आदिवासी इलाकों में जो शोषित पीड़ित गरीब जनता रहती है उसने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाया है और वे नक्सलियों से मिलकर सत्ता के केन्द्रों को कमज़ोर कर रहे हैं . वे बहुत गरीब हैं और अब उन्होंने हथियार उठा लिये है . यह तर्क बिलकुल बोगस है और साधारणीकरण के भयानक दोष से ग्रस्त है . इसका मतलब यह हुआ कि जो भी गरीब होगा हथियार उठा लेगा . इस लिए इस तर्क को आगे बढाने की ज़रुरत नहीं है . आदिवासी इलाकों के शोषण और खनिज सम्पदा के बेजा दोहन के लिए सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , पूंजीवादी मानसिकता के सत्ताधीशों की इलीट सोच को दोषी ठहराया जाना चाहिए और जागरूक लोगों को बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि माओवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों के गरीब , बेरोजगार नौजवानों को फंसाने वाले तथाकथित माओवादियों को भी एक्सपोज़ करने की ज़रुरत है .. वामपंथी राजनीति की वैज्ञानिक सोच से विचलित हुए ये संशोधनवादी अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए इन गरीब आदिवासियों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . आज ही कुछ अखबारों के संवाददाताओं ने आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादी हथियारबंद नौजवानों से बातचीत करके खबर दी है कि उन लड़कों को यह माओवादी नेता लोगों को मार डालने केलिए भेजते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि क्यों मार डालना है . यानी यह तथाकथित माओवादी नेता इन नौजवानों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह कर रहे हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक किलेबंदी के लिए वे इन लोगों को इस्तेमाल कर रहे हैं .इतने शातिर दिमाग दिग्भ्रमित कम्युनिस्टों की चाल को बेनकाब करने के लिए अपनाई जाने वाली रण नीति में गोली बन्दूक को प्रातामिकता देना ठीक नहीं है . क्योंकि अगर चिदंबरम साहेब वाला कार्यक्रम चल पड़ा कि हवाई हमले करके इन माओवादियों को मारो , तो मारे यही गरीब आदिवासी जायेंगें जिनका पिछले कई वर्षों से बूढ़े माओवादी नेता इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन दिल्ली और कोलकता की सरकारें भी इन माओवादी नेताओं से कम ज़िम्मेदार नहीं है .पूंजीवादी पार्टियां और कम्युनिस्ट विचारधारा की सभी पार्टियां, माओवादी आतंक में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार हैं इसलिए इन सब के खिलाफ जनता और जागरूक पब्लिक ओपिनियन को लामबंद होना पड़ेगा और दिशा भ्रम के मरीज़ इन माओवादियों और गैर ज़िम्मेदार सरकारों को सच्चाई से रू ब रू करवाना पड़ेगा.
पश्चिम बंगाल में एक और ट्रेन हाद्से का शिकार हो गयी . पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री समेत शासक वर्गों के सभी प्रतिनिधियों ने कहा कि माओवादियों ने किया . ऐसा करने से इन सत्ताधीशों को बड़ी राहत मिल गयी . अब जब भी इस हादसे की जांच का स्वांग रचाया जाएगा तो जांच एजेंसी वालों को मालूम रहेगा कि सत्ताधीशों की क्या मर्जी है .आम तौर पर होता यह है कि जब भी कोई आतंकवादी संगठन इस तरह के धमाके करता है तो वह उसकी ज़िम्मेदारी लेता है . वह यह काम करता ही प्रचार के लिए है . लेकिन जब कोई आतंकवादी संगठन ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा है तो बात गंभीर हो जाती है . इसमें देश के दुश्मनों का हाथ हो सकता है .सवाल पैदा होता है कि यह हमारे नेता लोग बिना किसी तरह की जांच पड़ताल कराये कैसे जान लेते हैं कि किसने किया विस्फोट , किसने की तबाही ? यह निहायत ही गैर जिम्मेदाराना रवैया है और इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए. कोलकता से दिल्ली तक बैठे इन नेताओं को किसने बता दिया कि ट्रेन पर हमला माओवादियों ने किया था. यहाँ माओवादियों को दोषमुक्त करने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है लेकिन सत्ता पर काबिज़ लोग जिनके पास सारी ताक़त है उन्हें बिना किसी बुनियाद के किसी को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए क्योंकि इस में सबसे बड़ा ख़तरा है कि अपराधी बच जाते हैं और जांच गलत दिशा में चल पड़ती है . खडग पुर के पास हुए ट्रेन हादसे में मारे गए लोगों को जिसने भी मारा है , वह अपराधी है . ट्रेन में सभी सीधे सादे लोग थे. उसको उड़ा देने की कोशिश करने वाले अपराधी को पकड़ कर कानून के अनुसार सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिये . उसकी सजा वही होनी चाहिए जो ७८ लोगों का क़त्ल करने वाले की हो . लेकिन बिना यह पता लगाए कि हत्या किसने की है , यह नहीं किया जाना चाहिए .हाँ , इस तरह के हादसों के लिए जो सरकारें ज़िम्मेदार हैं उनको भी सख्त से सख्त सज़ा देने के बारे में बहस शुरू हो जानी चाहिए . उसमें नक्सलवाद को बढ़ावा देने वालों को सज़ा देने के अलावा ठीक से सरकार न चला पाने वालों को भी दण्डित किये जाने का प्रावधान होना चाहिए .
नक्सलवाद और उस से जुड़े मुद्दों की एक बार फिर पड़ताल की ज़रुरत है . कुछ बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आजकल यह कहता पाया जाता है कि देश के आदिवासी इलाकों में जो शोषित पीड़ित गरीब जनता रहती है उसने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाया है और वे नक्सलियों से मिलकर सत्ता के केन्द्रों को कमज़ोर कर रहे हैं . वे बहुत गरीब हैं और अब उन्होंने हथियार उठा लिये है . यह तर्क बिलकुल बोगस है और साधारणीकरण के भयानक दोष से ग्रस्त है . इसका मतलब यह हुआ कि जो भी गरीब होगा हथियार उठा लेगा . इस लिए इस तर्क को आगे बढाने की ज़रुरत नहीं है . आदिवासी इलाकों के शोषण और खनिज सम्पदा के बेजा दोहन के लिए सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , पूंजीवादी मानसिकता के सत्ताधीशों की इलीट सोच को दोषी ठहराया जाना चाहिए और जागरूक लोगों को बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि माओवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों के गरीब , बेरोजगार नौजवानों को फंसाने वाले तथाकथित माओवादियों को भी एक्सपोज़ करने की ज़रुरत है .. वामपंथी राजनीति की वैज्ञानिक सोच से विचलित हुए ये संशोधनवादी अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए इन गरीब आदिवासियों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . आज ही कुछ अखबारों के संवाददाताओं ने आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादी हथियारबंद नौजवानों से बातचीत करके खबर दी है कि उन लड़कों को यह माओवादी नेता लोगों को मार डालने केलिए भेजते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि क्यों मार डालना है . यानी यह तथाकथित माओवादी नेता इन नौजवानों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह कर रहे हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक किलेबंदी के लिए वे इन लोगों को इस्तेमाल कर रहे हैं .इतने शातिर दिमाग दिग्भ्रमित कम्युनिस्टों की चाल को बेनकाब करने के लिए अपनाई जाने वाली रण नीति में गोली बन्दूक को प्रातामिकता देना ठीक नहीं है . क्योंकि अगर चिदंबरम साहेब वाला कार्यक्रम चल पड़ा कि हवाई हमले करके इन माओवादियों को मारो , तो मारे यही गरीब आदिवासी जायेंगें जिनका पिछले कई वर्षों से बूढ़े माओवादी नेता इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन दिल्ली और कोलकता की सरकारें भी इन माओवादी नेताओं से कम ज़िम्मेदार नहीं है .पूंजीवादी पार्टियां और कम्युनिस्ट विचारधारा की सभी पार्टियां, माओवादी आतंक में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार हैं इसलिए इन सब के खिलाफ जनता और जागरूक पब्लिक ओपिनियन को लामबंद होना पड़ेगा और दिशा भ्रम के मरीज़ इन माओवादियों और गैर ज़िम्मेदार सरकारों को सच्चाई से रू ब रू करवाना पड़ेगा.
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मंसूर सईद साठ के दशक के नौजवानों के हीरो थे
शेष नारायण सिंह
भाई मंसूर नहीं रहे. पाकिस्तान के शहर कराची में मंसूर सईद का इंतकाल हो गया. मौलाना अहमद सईद का एक पोता और चला गया .मृत्यु के समय मंसूर सईद की उम्र 68 साल थी . वे जियों टी वी में बहुत ऊंचे पद पर थे. उनकी पत्नी आबिदा , कराची में एक मशहूर स्कूल की संस्थापक और प्रिंसिपल हैं , उनकी बड़ी बेटी सानिया सईद पाकिस्तान की बहुत मशहूर एंकर और एक्टर है. पाकिस्तानी टेलीविज़न देखने वाला हर शख्श उन्हें पहचानता है . बेटा अहमर सईद पाकिस्तान की अंडर 19 टीम का कप्तान रह चुका है . फिलहाल ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में क्रिकेट खेलने के अलावा मीडिया से भी जुड़ा हुआ है .
१९७१ के बाद से भाई मंसूर पाकिस्तान चले गए थे और वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था.
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे , मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया , उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.
भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. उन्होंने दिल्ली के जामिया स्कूल और एंग्लो-अरबिक स्कूल में शुरुआती तालीम पायी ,दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज और दिल्ली कॉलेज से BA और MA किया . कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया , जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता , शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me .
वे सन १९७१ में अपनी दोस्त आबिदा हाशमी से मिलने पकिस्तान गए और शादी करके वहीं बस गए. आबिदा के पिता,अनीस हाशमी कराची में रहते थे. और पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली के बड़े पैरोकार थे . वे रावलपिंडी साज़िश केस में फैज़ के साथ जेल में रह चुके थे और पाकिस्तान सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे .१९७१ के युद्ध के कारण मंसूर सईद का भारत वापस आना संभव नहीं हो पाया . बाद में बंगलादेश बन जाने के बाद दोनों मुल्कों के बीच तनाव बढ़ गया और भाई मंसूर को मजबूरन वहीं रहना पड़ा . मंसूर सईद ने वहां की कम्युनिस्ट तहरीक का हिस्सा बनने का फैसला कर लिया . अपनी मृत्यु के समय वे पकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का हिस्सा थे.
पाकिस्तान जाने के पहले भाई मंसूर दिल्ली में नौजवानों की एक पूरी पीढी के हीरो थे. दिल्ली में जब साठ के दशक में छात्रों में वामपंथी राजनीति की समझ का सिलसिला शुरू हुआ तो भाई मंसूर उन प्रगतिशील छात्रों की अगली कतार में थे. उनके दो भाई सुहेल हाशमी और सफ़दर हाशमी बाद के वामपंथी आन्दोलन में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं . सफ़दर की तो कुछ राजनीतिक बदमाशों ने हत्या कर दी थी और सुहेल आज भी वैज्ञानिक सोच और दिल्ली की विरासत के बड़े जानकार माने जाते हैं . मंसूर की चचेरी बहन शबनम हाशमी ने पूरे देश में शोषित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई छेड़ रखी है . और धर्म निरपेक्षता के आन्दोलन की बड़ी नेता हैं .
भाई मंसूर की कमी दिल्ली में बहुत से परिवारों में महसूस की जायेगी . उनका जाना हमारी पीढी के लोगों के लिए निजी नुकसान है , सरहद के इस पार भी और उस पार भी .
भाई मंसूर नहीं रहे. पाकिस्तान के शहर कराची में मंसूर सईद का इंतकाल हो गया. मौलाना अहमद सईद का एक पोता और चला गया .मृत्यु के समय मंसूर सईद की उम्र 68 साल थी . वे जियों टी वी में बहुत ऊंचे पद पर थे. उनकी पत्नी आबिदा , कराची में एक मशहूर स्कूल की संस्थापक और प्रिंसिपल हैं , उनकी बड़ी बेटी सानिया सईद पाकिस्तान की बहुत मशहूर एंकर और एक्टर है. पाकिस्तानी टेलीविज़न देखने वाला हर शख्श उन्हें पहचानता है . बेटा अहमर सईद पाकिस्तान की अंडर 19 टीम का कप्तान रह चुका है . फिलहाल ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में क्रिकेट खेलने के अलावा मीडिया से भी जुड़ा हुआ है .
१९७१ के बाद से भाई मंसूर पाकिस्तान चले गए थे और वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था.
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे , मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया , उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.
भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. उन्होंने दिल्ली के जामिया स्कूल और एंग्लो-अरबिक स्कूल में शुरुआती तालीम पायी ,दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज और दिल्ली कॉलेज से BA और MA किया . कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया , जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता , शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me .
वे सन १९७१ में अपनी दोस्त आबिदा हाशमी से मिलने पकिस्तान गए और शादी करके वहीं बस गए. आबिदा के पिता,अनीस हाशमी कराची में रहते थे. और पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली के बड़े पैरोकार थे . वे रावलपिंडी साज़िश केस में फैज़ के साथ जेल में रह चुके थे और पाकिस्तान सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे .१९७१ के युद्ध के कारण मंसूर सईद का भारत वापस आना संभव नहीं हो पाया . बाद में बंगलादेश बन जाने के बाद दोनों मुल्कों के बीच तनाव बढ़ गया और भाई मंसूर को मजबूरन वहीं रहना पड़ा . मंसूर सईद ने वहां की कम्युनिस्ट तहरीक का हिस्सा बनने का फैसला कर लिया . अपनी मृत्यु के समय वे पकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का हिस्सा थे.
पाकिस्तान जाने के पहले भाई मंसूर दिल्ली में नौजवानों की एक पूरी पीढी के हीरो थे. दिल्ली में जब साठ के दशक में छात्रों में वामपंथी राजनीति की समझ का सिलसिला शुरू हुआ तो भाई मंसूर उन प्रगतिशील छात्रों की अगली कतार में थे. उनके दो भाई सुहेल हाशमी और सफ़दर हाशमी बाद के वामपंथी आन्दोलन में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं . सफ़दर की तो कुछ राजनीतिक बदमाशों ने हत्या कर दी थी और सुहेल आज भी वैज्ञानिक सोच और दिल्ली की विरासत के बड़े जानकार माने जाते हैं . मंसूर की चचेरी बहन शबनम हाशमी ने पूरे देश में शोषित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई छेड़ रखी है . और धर्म निरपेक्षता के आन्दोलन की बड़ी नेता हैं .
भाई मंसूर की कमी दिल्ली में बहुत से परिवारों में महसूस की जायेगी . उनका जाना हमारी पीढी के लोगों के लिए निजी नुकसान है , सरहद के इस पार भी और उस पार भी .
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Saturday, May 29, 2010
कनाडा के गैरजिम्मेदार वीजा अफसर और भारत
शेष नारायण सिंह
कनाडा ने भारत की सुरक्षा एजेंसियों के अवकाशप्राप्त अफसरों को वीजा देने से मना कर के अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है . नयी दिल्ली स्थित कनाडा के हाई कमीशन के अफसर अब तक यह खेल बेख़ौफ़ चलाते रहे हैं लेकिन जब बी एस एफ के एक पूर्व कर्मचारी का मामला टाइम्स नाउ , नाम के अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल की नज़र में आया तब से मामला तूल पकड़ गया है .यह कोई नयी बात नहीं है . पश्चिमी यूरोप के पूंजीवादी देश ऐसा बहुत दिनों से कर रहे हैं लेकिन बात आई गयी हो जाती थी . इस बार बात फंस गयी है .. शायद इसका कारण यह हो कि अब सूचना क्रान्ति की वजह से किसी भी घटना को खबर बनते देर नहीं लगती. जो भी हो पश्चिमी देशों की भारत के प्रति हठधर्मी ने एक नया रूप ले लिया है .मामला अब कूटनीतिक दांव पेंच में फंस गया है . और भारत जैसे ताक़तवर देश के सामने कनाडा के अड़े रहने की संभावना बहुत कम है . कनाडा को अपनी भूल सुधारनी होगी और अपनी सोच में बदलाव करना होगा. जहां तक माफी माँगने की बात है , वह तो उसे करना ही पडेगा. .लेकिन कनाडा के हाई कमीशन में तैनात वीजा देने वाले अफसरों की इस दम्भी प्रवृत्ति के मनोविज्ञान को समझना भी ज़रूरी है .. यह समझने की ज़रुरत है कि उन्हें यह क्यों लगता है कि भारत के नागरिकों को वे भेड़ बकरियों की तरह ट्रीट कर सकते हैं . और भारत सरकार की आदरणीय संस्थाओं के खिलाफ उल जलूल टिप्पणी कर सकते हैं . पहले सवाल का जवाब तो आसान है . जिस तरह से अपने मुल्क के कुछ हिस्सों के लोग अमरीका, कनाडा और ब्रिटेन जाने के लिए उमड़ पड़ते हैं , उस से इन पश्चिमी राजनयिकों को लग सकता है कि भारत से विदेश जाने की लालसा रखने वाले दीन-हीन लोग हैं और कनाडा जा कर दो जून की रोटी का इंतज़ाम करने के चक्कर में हैं . हालांकि यह सच नहीं है लेकिन जिस तरह से कनाडा जाने के लिए लोग उमड़ते हैं और वीजा देने वाले अधिकारियों और उनके दलालों को रिश्वत तक देने की पेशकश करते हैं , उस से अंदाज़ लग जाता है कि हाई कमीशन में तैनात अफसर इनके बारे में घटिया राय क्यों बनाते हैं .. आजकल कनाडा जाने वाले ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार वहीं रहते हैं और उनकी बड़ी संख्या अब कनाडा की नागरिक भी हो गयी है .इस लिए यह मसला भारत के लोगों के लिए जितनी चिंता का विषय है उतनी ही चिंता कनाडा के नागरिकों को भी होनी चाहिए .वैसे भी किसी को वीजा देना, न देना सम्बंधित देश का अपना मामला है . वह जिसको चाहे वीजा दे और जिसको न चाहे न दे. एक संप्रभु राष्ट्र का अफसर अपने देश के हित में जो भी ठीक समझे, फैसला लेने को स्वतंत्र है , उस पर किसी तरह का सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए और भारत सरकार की ओर से उनके उस अधिकार और दायित्व को चुनौती नहीं दी जा सकती. लेकिन जब कनाडा सरकार का कोई अफसर अपने काम के सिलसिले में भारत सरकार के सुरक्षा संगठनों के बारे में गैर ज़िम्मेदार टिप्पणी करेगा तो भारत सरकार को उस पर एक्शन लेना चाहिए . बी एस एफ और इंटेलीजेंस ब्यूरो के के अवकाश प्राप्त कर्मचारियों की वीजा के दरखास्त पर विचार करते समय भारत सरकार के संगठनों के लिए अपशब्द प्रयोग करने की छूट किसी भी विदेशी सरकार के कर्मचारी को नहीं दी जा सकती
भारत सरकार को एतराज़ इस बात पर है कि कनाडा के हाई कमीशन के अफसरों ने वीजा माँगने वाले लोगों को इसलिए मना कर दिया कि वे भारत सरकार की सुरक्षा एजेंसियों में काम कर रहे थे . यह गलत है और इसके लिए भारत सरकार ने कनाडा को चेतावनी दी है और अगर ज़रूरी हुआ तो उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टाईट भी किया जाएगा . यह सही रुख है क्योंकि कनाडा के वीजा देने वाले अफसरों का आचरण बहुत ही गैरजिम्मेदाराना था . . उनका दिमाग इतना खराब हो गया था कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जो एडवांस टीम कनाडा जा रही है उसके एक सदस्य को भी वीजा देने से मना कर दिया. . सवाल पैदा होता है कि जब दोनों देशों के बेच राजनयिक सम्बन्ध हैं और प्रधान मंत्रियों की आवाजाही का सिलसिला भी है तो प्रधान मंत्री की सुरक्षा का जिम्मा रखने वाले विभाग के अफसर को वीजा न देना तो निहायत ही अहमकाना काम है . ज़ाहिर है कि भारत में तैनात किये जाने वाले अफसरों को थोड़ी बहुर कूटनीतिक नफासत की ट्रेनिंग देकर कनाडा के हुक्मरान बहुत अच्छा काम करेंगें क्योंकि भारत अब कोई मामूली देश नहीं है . वह एक बड़ा देश है और अगर राजनीतिक स्तर पर फैसला हो गया तो बाकी दुनिया में भारत, कनाडा को नुकसान पंहुचा सकता है . कनाडा को यह ध्यान रखना चाहिए कि कभी भारत और कनाडा पर राज करने वाले ब्रिटेन की सरकार भी अब भारत के नेताओं से अदब से बात करती है तो कनाडा की वैसे भी हैसियत अमरीका के चम्पू की ही है . जहां तक भारत का सवाल है वह अब अमरीका से बराबरी के स्तर पर बात करता है . इसलिए यह कनाडा के अपने हित में होगा कि वह भारत से फ़ौरन माफी मांगे और आगे से तमीज से आचरण करने का भरोसा दिलाये
कनाडा ने भारत की सुरक्षा एजेंसियों के अवकाशप्राप्त अफसरों को वीजा देने से मना कर के अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है . नयी दिल्ली स्थित कनाडा के हाई कमीशन के अफसर अब तक यह खेल बेख़ौफ़ चलाते रहे हैं लेकिन जब बी एस एफ के एक पूर्व कर्मचारी का मामला टाइम्स नाउ , नाम के अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल की नज़र में आया तब से मामला तूल पकड़ गया है .यह कोई नयी बात नहीं है . पश्चिमी यूरोप के पूंजीवादी देश ऐसा बहुत दिनों से कर रहे हैं लेकिन बात आई गयी हो जाती थी . इस बार बात फंस गयी है .. शायद इसका कारण यह हो कि अब सूचना क्रान्ति की वजह से किसी भी घटना को खबर बनते देर नहीं लगती. जो भी हो पश्चिमी देशों की भारत के प्रति हठधर्मी ने एक नया रूप ले लिया है .मामला अब कूटनीतिक दांव पेंच में फंस गया है . और भारत जैसे ताक़तवर देश के सामने कनाडा के अड़े रहने की संभावना बहुत कम है . कनाडा को अपनी भूल सुधारनी होगी और अपनी सोच में बदलाव करना होगा. जहां तक माफी माँगने की बात है , वह तो उसे करना ही पडेगा. .लेकिन कनाडा के हाई कमीशन में तैनात वीजा देने वाले अफसरों की इस दम्भी प्रवृत्ति के मनोविज्ञान को समझना भी ज़रूरी है .. यह समझने की ज़रुरत है कि उन्हें यह क्यों लगता है कि भारत के नागरिकों को वे भेड़ बकरियों की तरह ट्रीट कर सकते हैं . और भारत सरकार की आदरणीय संस्थाओं के खिलाफ उल जलूल टिप्पणी कर सकते हैं . पहले सवाल का जवाब तो आसान है . जिस तरह से अपने मुल्क के कुछ हिस्सों के लोग अमरीका, कनाडा और ब्रिटेन जाने के लिए उमड़ पड़ते हैं , उस से इन पश्चिमी राजनयिकों को लग सकता है कि भारत से विदेश जाने की लालसा रखने वाले दीन-हीन लोग हैं और कनाडा जा कर दो जून की रोटी का इंतज़ाम करने के चक्कर में हैं . हालांकि यह सच नहीं है लेकिन जिस तरह से कनाडा जाने के लिए लोग उमड़ते हैं और वीजा देने वाले अधिकारियों और उनके दलालों को रिश्वत तक देने की पेशकश करते हैं , उस से अंदाज़ लग जाता है कि हाई कमीशन में तैनात अफसर इनके बारे में घटिया राय क्यों बनाते हैं .. आजकल कनाडा जाने वाले ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार वहीं रहते हैं और उनकी बड़ी संख्या अब कनाडा की नागरिक भी हो गयी है .इस लिए यह मसला भारत के लोगों के लिए जितनी चिंता का विषय है उतनी ही चिंता कनाडा के नागरिकों को भी होनी चाहिए .वैसे भी किसी को वीजा देना, न देना सम्बंधित देश का अपना मामला है . वह जिसको चाहे वीजा दे और जिसको न चाहे न दे. एक संप्रभु राष्ट्र का अफसर अपने देश के हित में जो भी ठीक समझे, फैसला लेने को स्वतंत्र है , उस पर किसी तरह का सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए और भारत सरकार की ओर से उनके उस अधिकार और दायित्व को चुनौती नहीं दी जा सकती. लेकिन जब कनाडा सरकार का कोई अफसर अपने काम के सिलसिले में भारत सरकार के सुरक्षा संगठनों के बारे में गैर ज़िम्मेदार टिप्पणी करेगा तो भारत सरकार को उस पर एक्शन लेना चाहिए . बी एस एफ और इंटेलीजेंस ब्यूरो के के अवकाश प्राप्त कर्मचारियों की वीजा के दरखास्त पर विचार करते समय भारत सरकार के संगठनों के लिए अपशब्द प्रयोग करने की छूट किसी भी विदेशी सरकार के कर्मचारी को नहीं दी जा सकती
भारत सरकार को एतराज़ इस बात पर है कि कनाडा के हाई कमीशन के अफसरों ने वीजा माँगने वाले लोगों को इसलिए मना कर दिया कि वे भारत सरकार की सुरक्षा एजेंसियों में काम कर रहे थे . यह गलत है और इसके लिए भारत सरकार ने कनाडा को चेतावनी दी है और अगर ज़रूरी हुआ तो उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टाईट भी किया जाएगा . यह सही रुख है क्योंकि कनाडा के वीजा देने वाले अफसरों का आचरण बहुत ही गैरजिम्मेदाराना था . . उनका दिमाग इतना खराब हो गया था कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जो एडवांस टीम कनाडा जा रही है उसके एक सदस्य को भी वीजा देने से मना कर दिया. . सवाल पैदा होता है कि जब दोनों देशों के बेच राजनयिक सम्बन्ध हैं और प्रधान मंत्रियों की आवाजाही का सिलसिला भी है तो प्रधान मंत्री की सुरक्षा का जिम्मा रखने वाले विभाग के अफसर को वीजा न देना तो निहायत ही अहमकाना काम है . ज़ाहिर है कि भारत में तैनात किये जाने वाले अफसरों को थोड़ी बहुर कूटनीतिक नफासत की ट्रेनिंग देकर कनाडा के हुक्मरान बहुत अच्छा काम करेंगें क्योंकि भारत अब कोई मामूली देश नहीं है . वह एक बड़ा देश है और अगर राजनीतिक स्तर पर फैसला हो गया तो बाकी दुनिया में भारत, कनाडा को नुकसान पंहुचा सकता है . कनाडा को यह ध्यान रखना चाहिए कि कभी भारत और कनाडा पर राज करने वाले ब्रिटेन की सरकार भी अब भारत के नेताओं से अदब से बात करती है तो कनाडा की वैसे भी हैसियत अमरीका के चम्पू की ही है . जहां तक भारत का सवाल है वह अब अमरीका से बराबरी के स्तर पर बात करता है . इसलिए यह कनाडा के अपने हित में होगा कि वह भारत से फ़ौरन माफी मांगे और आगे से तमीज से आचरण करने का भरोसा दिलाये
Thursday, May 27, 2010
समाजवादी पार्टी में अमर सिंह के विरोधियों को मुलायम चेतावनी
शेष नारायण सिंह
समाजवादी पार्टी में राजनीतिक घटनाक्रम बहुत तेज़ी से घूम रहा है . अमर सिंह के हटने के बाद जो शिथिलता आई थी ,लगता है वह अब ख़त्म होने वाली है . पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी का ऐसा दांव मारा है कि अभी लोगों को पता ही नहीं चल रहा है कि हमला किस पर है. अमर सिंह के बाद की राजनीति के बड़े बड़े सूरमा एक दूसरे से पूछते पाए जा रहे हैं कि भाई हुआ क्या. राज्य सभा और विधान परिषद् के लिए जिन पांच उम्मीदवारों की घोषणा मुलायम सिंह यादव ने की है , वह आधुनिक राजनीति के विद्यार्थी के लिए एक बड़ा सबक हो सकता है . . दुनिया जानती है कि मुलायम सिंह यादव अमर सिंह को पार्टी से निकालना नहीं चाहते थे लेकिन माहौल ऐसा बना कि उनके लिए अमर सिंह को पार्टी में रख पाना मुश्किल हो गया . अमर सिंह ने भी अपनी हैसियत को बहुत बढ़ा कर आंक रखा था . यह उनकी गलती थी . दिल्ली की राजनीति में कोई भी बहुत ताक़तवर नहीं होता . इसी दिल्ली में सबसे बेहतरीन मुग़ल बादशाह को उसी के बेटे औरंगजेब ने जेल की हवा खिलाई थी . बाद के युग में इंदिरा गाँधी के दरबार के बहुत करीबी लोग ऐसे मुहल्लों में खो गए थे जहां कोई भी ताक़तवर आदमी जाना नहीं चाहेगा. दिनेश सिंह एक बार जवाहरलाल नेहरू के करीबी हुआ करते थे, इंदिरा जी के ख़ास सलाहकार थे और बाद में राज नारायण समेत बहुत सारे लोगों के दरवाजों पर दस्तक देते देखे गए थे. वामपंथी रुझान के नेता चन्द्र जीत यादव की हनक का अंदाज़ वह इंसान लगा ही नहीं सकता जिसने सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में उनका जलवा नहीं देखा . कभी बाबू जगजीवन राम की मर्जी को इंदिरा जी अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करती थीं , बाद में वे ही उनके सबसे बड़े दुश्मन हुए . इसलिए दिल्ली की राजनीति एक ऐसा अखाड़ा है जहां जो पहलवान मुकाबिल हो वहां से तो हमला होता ही है , अपने साथी भी ज़बर्दस्त वार करते हैं . अमर सिंह इसी बारकी को समझने में गच्चा खा गए और जब उन्हें राजनीति के शतरंज की शह की जानकारी मिली तब तक वे मात चुके थे . लेकिन समाजवादी पार्टी में उनके विरोधियों को भी मुगालता था कि उन्होंने लड़ाई जीत ली है . और यहीं वे गच्चा खा गए. अमर सिंह के चेलों को हटा कर उन लोगों ने अपने बन्दों को ख़ास पदों बैठा दिया लेकिन अब तस्वीर की बारीकियां उभरने लगी हैं . मुलायम सिंह ने साफ़ कर दिया है कि समाजवादी पार्टी में उनकी ही चलेगी . अमर सिंह के भाई की पत्नी को दुबारा राज्य सभा की टिकट देकर उन्होंने ऐलान कर दिया है कि अमर सिंह ज्यादा बोलने की अपनी आदत के चलते उनको नाराज़ करने में तो भले ही सफल हो गए हैं लेकिन अभी मुलायम सिंह यादव उन्हें दुश्मन नहीं मानते. समाजवादी पार्टी की मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम को देखने से स्वर्गीय चन्द्र शेखर की एक बात याद आती हैं. वे कहा करते थे कि राजनीति संभाव्यता का खेल है . यानी यहाँ कुछ भी संभव है . राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता . एक घटना से बात को समझने की कोशिश की जायेगी. एक बार लालू प्रसाद यादव को देवेगौड़ा ने पार्टी से निकला दिया था. लालू ने उनके खिलाफ बहुत सारे बयान दिए . कुछ दिन बाद फिर एकता हो गयी. किसी प्रेस वार्ता में दोनों ही नेता साथ साथ प्रेस को संबोधित कर रहे थे . किसी ने पूछा कि लालू जी आपने तो देवेगौडा को बहुत गालियाँ दी थीं, आज उनके साथ क्यों बैठे हैं ? लालू ने बगल में बैठे हुए देवेगौडा की तरफ इशारा करके जवाब दिया कि इन्होने हमें पार्टी से निकाला था , तो क्या हम इनकी आरती उतारते. बात एक बहुत ही ज़ोरदार ठहाके में ख़त्म हो गयी और सारी तल्खी हवा हो गयी . बहरहाल समाजवादी पार्टी में भी लगता है कि यही हो रहा है. अमर सिंह के सारे बयानों के बावजूद पार्टी में उनके विरोधियों को औकात पर रखना और उनके सबसे करीबी परिवार की मुखिया को राज्यसभा में दुबारा भेजने का फैसला करके मुलायम सिंह यादव ने बहस को अखाड़े में फेंक दिया है . अब आगे का घटनाक्रम देखना बहुत ही दिलचस्प होगा..
इसके अलावा भी राज्यसभा और विधान परिषद् का टिकट देने में मुलायम सिंह यादव ने राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया है . जब मायावती और काशी राम उनसे अलग हुए तो उन्होंने उनके दलित वोट बैंक को बैलेंस करने के लिए फूलन देवी को अपने साथ ले लिया था . और कहा कि दलितों की आबादी के सत्तर प्रतिशत निषाद भी उत्तर प्रदेश में रहते हैं .मुसलमानों में रशीद मसूद को टिकट देकर उन्होंने लगभग ऐलान कर दिया है कि अब आज़म खान की वापसी उनकी पार्टी में नहीं होगी, हालांकि अमर सिंह का विरोधी खेमा पूरी कोशिश कर रहा है .जया बच्चन को टिकट देकर उन्होंने बड़ा जुआ खेला है . हो सकता है कि वे सीट हाथ आ जाने के बाद साथ छोड़ जाएँ लेकिन इस बात की भी पूरी संभावना है कि उनको सम्मानित किये जाने के बाद अमर सिंह को गलती का पता चले और वे वापस आने के लिये पहल कर दें . जो भी हो , उत्तर प्रदेश में राजनीतिक माहौल में निश्चित रूप से परिवर्तन होने वाला है . देखिये ऊँट किस करवट बैठता है
समाजवादी पार्टी में राजनीतिक घटनाक्रम बहुत तेज़ी से घूम रहा है . अमर सिंह के हटने के बाद जो शिथिलता आई थी ,लगता है वह अब ख़त्म होने वाली है . पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी का ऐसा दांव मारा है कि अभी लोगों को पता ही नहीं चल रहा है कि हमला किस पर है. अमर सिंह के बाद की राजनीति के बड़े बड़े सूरमा एक दूसरे से पूछते पाए जा रहे हैं कि भाई हुआ क्या. राज्य सभा और विधान परिषद् के लिए जिन पांच उम्मीदवारों की घोषणा मुलायम सिंह यादव ने की है , वह आधुनिक राजनीति के विद्यार्थी के लिए एक बड़ा सबक हो सकता है . . दुनिया जानती है कि मुलायम सिंह यादव अमर सिंह को पार्टी से निकालना नहीं चाहते थे लेकिन माहौल ऐसा बना कि उनके लिए अमर सिंह को पार्टी में रख पाना मुश्किल हो गया . अमर सिंह ने भी अपनी हैसियत को बहुत बढ़ा कर आंक रखा था . यह उनकी गलती थी . दिल्ली की राजनीति में कोई भी बहुत ताक़तवर नहीं होता . इसी दिल्ली में सबसे बेहतरीन मुग़ल बादशाह को उसी के बेटे औरंगजेब ने जेल की हवा खिलाई थी . बाद के युग में इंदिरा गाँधी के दरबार के बहुत करीबी लोग ऐसे मुहल्लों में खो गए थे जहां कोई भी ताक़तवर आदमी जाना नहीं चाहेगा. दिनेश सिंह एक बार जवाहरलाल नेहरू के करीबी हुआ करते थे, इंदिरा जी के ख़ास सलाहकार थे और बाद में राज नारायण समेत बहुत सारे लोगों के दरवाजों पर दस्तक देते देखे गए थे. वामपंथी रुझान के नेता चन्द्र जीत यादव की हनक का अंदाज़ वह इंसान लगा ही नहीं सकता जिसने सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में उनका जलवा नहीं देखा . कभी बाबू जगजीवन राम की मर्जी को इंदिरा जी अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करती थीं , बाद में वे ही उनके सबसे बड़े दुश्मन हुए . इसलिए दिल्ली की राजनीति एक ऐसा अखाड़ा है जहां जो पहलवान मुकाबिल हो वहां से तो हमला होता ही है , अपने साथी भी ज़बर्दस्त वार करते हैं . अमर सिंह इसी बारकी को समझने में गच्चा खा गए और जब उन्हें राजनीति के शतरंज की शह की जानकारी मिली तब तक वे मात चुके थे . लेकिन समाजवादी पार्टी में उनके विरोधियों को भी मुगालता था कि उन्होंने लड़ाई जीत ली है . और यहीं वे गच्चा खा गए. अमर सिंह के चेलों को हटा कर उन लोगों ने अपने बन्दों को ख़ास पदों बैठा दिया लेकिन अब तस्वीर की बारीकियां उभरने लगी हैं . मुलायम सिंह ने साफ़ कर दिया है कि समाजवादी पार्टी में उनकी ही चलेगी . अमर सिंह के भाई की पत्नी को दुबारा राज्य सभा की टिकट देकर उन्होंने ऐलान कर दिया है कि अमर सिंह ज्यादा बोलने की अपनी आदत के चलते उनको नाराज़ करने में तो भले ही सफल हो गए हैं लेकिन अभी मुलायम सिंह यादव उन्हें दुश्मन नहीं मानते. समाजवादी पार्टी की मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम को देखने से स्वर्गीय चन्द्र शेखर की एक बात याद आती हैं. वे कहा करते थे कि राजनीति संभाव्यता का खेल है . यानी यहाँ कुछ भी संभव है . राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता . एक घटना से बात को समझने की कोशिश की जायेगी. एक बार लालू प्रसाद यादव को देवेगौड़ा ने पार्टी से निकला दिया था. लालू ने उनके खिलाफ बहुत सारे बयान दिए . कुछ दिन बाद फिर एकता हो गयी. किसी प्रेस वार्ता में दोनों ही नेता साथ साथ प्रेस को संबोधित कर रहे थे . किसी ने पूछा कि लालू जी आपने तो देवेगौडा को बहुत गालियाँ दी थीं, आज उनके साथ क्यों बैठे हैं ? लालू ने बगल में बैठे हुए देवेगौडा की तरफ इशारा करके जवाब दिया कि इन्होने हमें पार्टी से निकाला था , तो क्या हम इनकी आरती उतारते. बात एक बहुत ही ज़ोरदार ठहाके में ख़त्म हो गयी और सारी तल्खी हवा हो गयी . बहरहाल समाजवादी पार्टी में भी लगता है कि यही हो रहा है. अमर सिंह के सारे बयानों के बावजूद पार्टी में उनके विरोधियों को औकात पर रखना और उनके सबसे करीबी परिवार की मुखिया को राज्यसभा में दुबारा भेजने का फैसला करके मुलायम सिंह यादव ने बहस को अखाड़े में फेंक दिया है . अब आगे का घटनाक्रम देखना बहुत ही दिलचस्प होगा..
इसके अलावा भी राज्यसभा और विधान परिषद् का टिकट देने में मुलायम सिंह यादव ने राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया है . जब मायावती और काशी राम उनसे अलग हुए तो उन्होंने उनके दलित वोट बैंक को बैलेंस करने के लिए फूलन देवी को अपने साथ ले लिया था . और कहा कि दलितों की आबादी के सत्तर प्रतिशत निषाद भी उत्तर प्रदेश में रहते हैं .मुसलमानों में रशीद मसूद को टिकट देकर उन्होंने लगभग ऐलान कर दिया है कि अब आज़म खान की वापसी उनकी पार्टी में नहीं होगी, हालांकि अमर सिंह का विरोधी खेमा पूरी कोशिश कर रहा है .जया बच्चन को टिकट देकर उन्होंने बड़ा जुआ खेला है . हो सकता है कि वे सीट हाथ आ जाने के बाद साथ छोड़ जाएँ लेकिन इस बात की भी पूरी संभावना है कि उनको सम्मानित किये जाने के बाद अमर सिंह को गलती का पता चले और वे वापस आने के लिये पहल कर दें . जो भी हो , उत्तर प्रदेश में राजनीतिक माहौल में निश्चित रूप से परिवर्तन होने वाला है . देखिये ऊँट किस करवट बैठता है
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हाफ़िज़ सईद पाकिस्तानी फौज़ का भाग्यविधाता है
(दैनिक जागरण से साभार )
शेष नारायण सिंह
मुंबई हमलों के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया है . अदालत ने कहा कि सरकार हाफ़िज़ सईद के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं पेश कर सकी है इस लिए उसे हिरासत में रखने का कोई आधार नहीं है . पाकिस्तानी सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आत्नक का जो भी इंतज़ाम है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . और वह से पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . . यह बेचारे तो अमरीका से लोक तंत्र बहाली के नाम पर पैसा ऐंठने के लिए बैठाए गए हैं . वहां सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. फौज और आईएसआई में कोई फर्क नहीं है. सब मिलकर काम करते हैं और पाकिस्तान की गरीब जनता के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं .हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश भी करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके होंगें . और वे हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.
यानी अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है उनकी फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है उनकी फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है और उसे करना भी चाहिए क्योंकि अब तक तो पाकिस्तानी आतंक का सबसे बड़ा नुकसान भारत ही झेल रहा है लेकिन अमरीका पर भी अब पाकिस्तानी आतंकवादियों की टेढ़ी नज़र है क्योंकि पिछले दिनों टाइम्स स्क्वायर में बम विस्फोट करने की कोशिश में जो आदमी पकड़ा गया है वह पूरी तरह से पाकिस्तानी फौज की पैदाइश है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पाल रहे पकिस्तान को अमरीका सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. इसके लिए दान करने वाले देशों को अपना इन्स्पेक्टर तैनात करने के बारे में भी सोचना चाहिए ..अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं
ऐसी हालात में आतंकवाद के सबसे बड़े माहिर, हाफिज़ सईद पर कार्रवाई करने की उम्मीद करना भी बेकार की बात है जब तक उस व्यवस्था पर लगाम न लगाई जाए जो उसे चला रही है. और उस व्यवस्था का नाम है पाकिस्तानी फौज और आई एस आई .पाकिस्तान से आतंकवाद का ताम झाम हटाने के लिए फौज को कमज़ोर करना पड़ेगा और यह काम केवल भारत का ज़िम्मा नहीं है. पाकिस्तानी आतंकवाद का नुकसान सबसे ज्यादा भारत को हो रहा है, इसमें कोई शक नहीं है लेकिन अब तो अमरीका भी उसी कतार में खड़ा हो गया है जिसमें पाकिस्तान की ज़मीन से शुरू होने वाले आतंक को भोग रहे भारत और अफगानिस्तान खड़े हैं .. इस लिए सबको मिलकर पाकिस्तानी फौज को तमीज सिखानी होगी. क्योंकि ज़रदारी या गिलानी तो मुखौटा हैं . असली खेल की चाभी फौज और आई एस आई के पास ही है . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ साई दक कुछ नहीं बिगड़ेगा . यहाँ यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हाफ़िज़ सईद की ताक़त के सामने पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट भी कोई हैसियत नहीं है .
शेष नारायण सिंह
मुंबई हमलों के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने रिहा कर दिया है . अदालत ने कहा कि सरकार हाफ़िज़ सईद के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं पेश कर सकी है इस लिए उसे हिरासत में रखने का कोई आधार नहीं है . पाकिस्तानी सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आत्नक का जो भी इंतज़ाम है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . और वह से पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . . यह बेचारे तो अमरीका से लोक तंत्र बहाली के नाम पर पैसा ऐंठने के लिए बैठाए गए हैं . वहां सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. फौज और आईएसआई में कोई फर्क नहीं है. सब मिलकर काम करते हैं और पाकिस्तान की गरीब जनता के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हैं .हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश भी करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके होंगें . और वे हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.
यानी अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है उनकी फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है उनकी फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है और उसे करना भी चाहिए क्योंकि अब तक तो पाकिस्तानी आतंक का सबसे बड़ा नुकसान भारत ही झेल रहा है लेकिन अमरीका पर भी अब पाकिस्तानी आतंकवादियों की टेढ़ी नज़र है क्योंकि पिछले दिनों टाइम्स स्क्वायर में बम विस्फोट करने की कोशिश में जो आदमी पकड़ा गया है वह पूरी तरह से पाकिस्तानी फौज की पैदाइश है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पाल रहे पकिस्तान को अमरीका सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. इसके लिए दान करने वाले देशों को अपना इन्स्पेक्टर तैनात करने के बारे में भी सोचना चाहिए ..अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं
ऐसी हालात में आतंकवाद के सबसे बड़े माहिर, हाफिज़ सईद पर कार्रवाई करने की उम्मीद करना भी बेकार की बात है जब तक उस व्यवस्था पर लगाम न लगाई जाए जो उसे चला रही है. और उस व्यवस्था का नाम है पाकिस्तानी फौज और आई एस आई .पाकिस्तान से आतंकवाद का ताम झाम हटाने के लिए फौज को कमज़ोर करना पड़ेगा और यह काम केवल भारत का ज़िम्मा नहीं है. पाकिस्तानी आतंकवाद का नुकसान सबसे ज्यादा भारत को हो रहा है, इसमें कोई शक नहीं है लेकिन अब तो अमरीका भी उसी कतार में खड़ा हो गया है जिसमें पाकिस्तान की ज़मीन से शुरू होने वाले आतंक को भोग रहे भारत और अफगानिस्तान खड़े हैं .. इस लिए सबको मिलकर पाकिस्तानी फौज को तमीज सिखानी होगी. क्योंकि ज़रदारी या गिलानी तो मुखौटा हैं . असली खेल की चाभी फौज और आई एस आई के पास ही है . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ साई दक कुछ नहीं बिगड़ेगा . यहाँ यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि हाफ़िज़ सईद की ताक़त के सामने पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट भी कोई हैसियत नहीं है .
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Monday, May 24, 2010
झारखण्ड की जनता को राजकाज से जोड़ेगें बाबूलाल मरांडी
शेष नारायण सिंह
बीजेपी की राजनीतिक अदूरदर्शिता की जितनी धुनाई झारखंड में हुई है, उतनी कभी नहीं हुई। झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन ने बीजेपी का जो हाल किया है, इतिहास में किसी भी राजनीतिक पार्टी की ऐसी दुर्दशा नहीं हुई। बीजेपी ने झारखंड चुनाव पूरी तरह से शिबू सोरेन और भ्रष्टाचार के विरोध को मुद्दा बनाकर लड़ा था। लेकिन जब सरकार बनाने की नौबत आई तो बीजेपी ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनवाने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया।
सरकार बन गयी और भ्रष्टाचार का कारोबार शुरू हो गया। बीजेपी के ट्रेनी राष्ट्रीय अध्यक्ष को मुगालता था कि वे चक्रवर्ती सम्राट बन गये हैं। ब्रिटिश पीरियड के भारतीय राजाओं की तरह मनमानी के बादशाह हो गए हैं। उन्होंने जल्दबाजी में फैसले करके सब काम ठीक कर दिया। बीजेपी के कट मोशन पर जब शिबू सोरेन ने कांग्रेस का साथ दे दिया तो बीजेपी वालों ने उन्हें सबक सिखाने की धमकी दी। राजनीति का मामूली जानकार भी जानता है कि शिबू सोरेन के सामने बीजेपी के किसी नेता की कोई औकात नहीं है लेकिन सारे लोग नितिन गडकरी को ललकार रहे थे कि शिबू सोरेन को ठीक कर दिया जाए। बेचारे नौसिखिया नितिन गडकरी टूट पड़े और दिल्ली में आडवाणी गुट के नेताओं ने नितिन गडकरी की इज्जत का जो फालूदा बनाया है, वह तो बंगारू लक्ष्मण का भी नहीं बना था। आज बीजेपी के विधायकों ने राज्यपाल को सूचित कर दिया है कि वे शिबू सोरेन सरकार से समर्थन वापस ले रहे हैं। झारखंड की राजनीति के जानकार बताते हैं कि राज्य में बीजेपी की जग हंसाई का सिलसिला आज शुरू हुआ है। विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी के विधायकों की संख्या 18 थी। माना जा रहा है कि इसमें से कम से कम एक तिहाई तो अब बीजेपी छोड़ ही देंगे। शिबू सोरेन के करीबी लोगों का कहना है कि इससे ज्यादा भी छोड़ सकते हैं।
झारखंड में पूरी तरह से कुव्यवस्था का राज है। बिहार के हिस्से के रूप में रांची, धनबाद और जमशेदपुर का इलाका लूट का केन्द्र माना जाता था। अब यह और बढ़ गया है। राज्य की स्थापना के बाद कुछ दिन तक बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री रहे। सुलझी हुई राजनीतिक सोच के मालिक बाबूलाल मरांडी ने नए राज्य की संस्थाओं के निर्माण का काम शुरू किया लेकिन उन दिनों उनकी पार्टी बीजेपी थी, दिल्ली में राज था, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य का युग चल रहा था, उनकी कसौटी पर बाबूलाल मरांडी खरे नहीं उतरे। वे बेइमान और रिश्वतखोर नहीं थे। बीजेपी ने उन्हें पीछे धकेल दिया। उसके बाद तो लूट का अभियान शुरू हो गया। शिबू सोरेन और मधु कोड़ा की सरकारों ने भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड बनाए और झारखंड में भ्रष्टाचार की संस्कृति अब संस्थागत रूप लेने के मुकाम पर पहुंच चुकी है। बीजेपी के समर्थन वापसी के फैसले से कुछ बदलने वाला नहीं है क्योंकि खींचखांच कर जो सरकार बनेगी उसका स्थायी भाव भ्रष्टाचार ही होगा क्योंकि कांग्रेस के नेता भी बीजेपी वालों से किसी भी तरह से कम नहीं है। भ्रष्टाचार के हवाले से कांग्रेस का शिबू सोरेन से पुराना याराना है क्योंकि पीवी नरसिंहराव की सरकार को बचाने के लिए जो भ्रष्टाचार का रिकॉर्ड कांग्रेस ने बनाया था उसमें शिबू सोरेन मुख्य अभिनेता थे। उसके बाद भी जब भी मौका मिला कांग्रेस ने शिबू सोरेन मार्का भ्रष्टाचार का भरपूर उपयोग किया।
यह झारखंड का दुर्भाग्य है कि नए राज्य के गठन के बाद भी वहां उसी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। बिहार में तो नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद चीजें बदली लेकिन झारखंड में लूट-खसोट का सिलसिला जारी है। झारखंड में 32 वर्षों से पंचायत चुनाव नहीं हुए हैं। इसलिए केन्द्र सरकार की कई योजनाओं का लाभ राज्य को नहीं मिल पा रहा है। सत्ता लोभी बीजेपी, कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा की तिकड़मबाजी के चलते राज्य में किसी भी स्थिरता की संभावना नहीं है। राज्य में उद्योगों की हालत खस्ता है। दुनिया भर की कंपनियां राज्य की खनिज संपदा को लूटने की फिराक में हैं। तरह-तरह के पूंजीवादी जाल बिछाए गए हैं और जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
इस निराशा के माहौल में राज्य में एक व्यक्ति ऐसा है जो झारखंड को लोगों के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखा रहा है। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी पिछले चार वर्षों से झारखंड के गांव-गांव में घूम रहे थे। पिछले हफ्ते रांची में अपनी नवगठित पार्टी के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन किया और झारखंड के लोगों को राजनीतिक रूप से मजबूत करने के अपने मंसूबों का एलान किया। उन्होंने दिल्ली और नागपुर में बैठकर राज्य की राजनीति का भाग्यविधाता बनने का स्वांग रचने वालों को साफ बता दिया कि राज्य के समग्र विकास के लिए राष्ट्रीय नेताओं और पार्टियों को ईस्ट इंडिया कंपनी की मानसिकता से बाहर निकलना पड़ेगा।
राज्य के सीधे सादे लोगों को बाबूलाल मरांडी ने बता दिया है कि अपने यहां से किसी भी सूरत में खनिजों की कच्चे माल की निकासी का विरोध करेंगे। अब झारखंड की जनता यह मांग करेगी कि आइरन ओर का निर्यात नहीं, लोहे की बनी वस्तुओं का निर्यात होगा। कोयला निर्यात करने की जरूरत नहीं है, उससे बिजली बनाकर बाकी राज्यों और उद्योगों को दिया जाएगा। बड़ी कंपनियों को झारखंड राज्य की सीमा में ही मुख्यालय रखना होगा। उन्होंने टाटा को भी चेताया है कि टाटा स्टील का मुख्यालय जमशेदपुर में होना चाहिए, मुंबई में नहीं। बाबूलाल मरांडी ने बताया कि अगर जरूरत पड़ी और दिल्ली में बैठे कलर ब्लाइंड लोगों की समझ में झारखंडी अवाम की बात न आई तो जनता जाम भी लगाएगी और डंडा भी बजाएगी। झारखंड की तबाह हो चुकी राजनीति और भ्रष्टाचार का भोजन बनने के लिए तैयार अर्थव्यवस्था के लिए बाबूलाल मरांडी की योजना आशा की एक किरण है। देखना यह है कि सत्ता के बाहर का नेता क्या सत्ता पाने पर भी ईमानदार रह पाएगा
बीजेपी की राजनीतिक अदूरदर्शिता की जितनी धुनाई झारखंड में हुई है, उतनी कभी नहीं हुई। झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन ने बीजेपी का जो हाल किया है, इतिहास में किसी भी राजनीतिक पार्टी की ऐसी दुर्दशा नहीं हुई। बीजेपी ने झारखंड चुनाव पूरी तरह से शिबू सोरेन और भ्रष्टाचार के विरोध को मुद्दा बनाकर लड़ा था। लेकिन जब सरकार बनाने की नौबत आई तो बीजेपी ने शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनवाने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया।
सरकार बन गयी और भ्रष्टाचार का कारोबार शुरू हो गया। बीजेपी के ट्रेनी राष्ट्रीय अध्यक्ष को मुगालता था कि वे चक्रवर्ती सम्राट बन गये हैं। ब्रिटिश पीरियड के भारतीय राजाओं की तरह मनमानी के बादशाह हो गए हैं। उन्होंने जल्दबाजी में फैसले करके सब काम ठीक कर दिया। बीजेपी के कट मोशन पर जब शिबू सोरेन ने कांग्रेस का साथ दे दिया तो बीजेपी वालों ने उन्हें सबक सिखाने की धमकी दी। राजनीति का मामूली जानकार भी जानता है कि शिबू सोरेन के सामने बीजेपी के किसी नेता की कोई औकात नहीं है लेकिन सारे लोग नितिन गडकरी को ललकार रहे थे कि शिबू सोरेन को ठीक कर दिया जाए। बेचारे नौसिखिया नितिन गडकरी टूट पड़े और दिल्ली में आडवाणी गुट के नेताओं ने नितिन गडकरी की इज्जत का जो फालूदा बनाया है, वह तो बंगारू लक्ष्मण का भी नहीं बना था। आज बीजेपी के विधायकों ने राज्यपाल को सूचित कर दिया है कि वे शिबू सोरेन सरकार से समर्थन वापस ले रहे हैं। झारखंड की राजनीति के जानकार बताते हैं कि राज्य में बीजेपी की जग हंसाई का सिलसिला आज शुरू हुआ है। विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी के विधायकों की संख्या 18 थी। माना जा रहा है कि इसमें से कम से कम एक तिहाई तो अब बीजेपी छोड़ ही देंगे। शिबू सोरेन के करीबी लोगों का कहना है कि इससे ज्यादा भी छोड़ सकते हैं।
झारखंड में पूरी तरह से कुव्यवस्था का राज है। बिहार के हिस्से के रूप में रांची, धनबाद और जमशेदपुर का इलाका लूट का केन्द्र माना जाता था। अब यह और बढ़ गया है। राज्य की स्थापना के बाद कुछ दिन तक बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री रहे। सुलझी हुई राजनीतिक सोच के मालिक बाबूलाल मरांडी ने नए राज्य की संस्थाओं के निर्माण का काम शुरू किया लेकिन उन दिनों उनकी पार्टी बीजेपी थी, दिल्ली में राज था, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, प्रमोद महाजन और रंजन भट्टाचार्य का युग चल रहा था, उनकी कसौटी पर बाबूलाल मरांडी खरे नहीं उतरे। वे बेइमान और रिश्वतखोर नहीं थे। बीजेपी ने उन्हें पीछे धकेल दिया। उसके बाद तो लूट का अभियान शुरू हो गया। शिबू सोरेन और मधु कोड़ा की सरकारों ने भ्रष्टाचार के रिकॉर्ड बनाए और झारखंड में भ्रष्टाचार की संस्कृति अब संस्थागत रूप लेने के मुकाम पर पहुंच चुकी है। बीजेपी के समर्थन वापसी के फैसले से कुछ बदलने वाला नहीं है क्योंकि खींचखांच कर जो सरकार बनेगी उसका स्थायी भाव भ्रष्टाचार ही होगा क्योंकि कांग्रेस के नेता भी बीजेपी वालों से किसी भी तरह से कम नहीं है। भ्रष्टाचार के हवाले से कांग्रेस का शिबू सोरेन से पुराना याराना है क्योंकि पीवी नरसिंहराव की सरकार को बचाने के लिए जो भ्रष्टाचार का रिकॉर्ड कांग्रेस ने बनाया था उसमें शिबू सोरेन मुख्य अभिनेता थे। उसके बाद भी जब भी मौका मिला कांग्रेस ने शिबू सोरेन मार्का भ्रष्टाचार का भरपूर उपयोग किया।
यह झारखंड का दुर्भाग्य है कि नए राज्य के गठन के बाद भी वहां उसी भ्रष्टाचार का बोलबाला है। बिहार में तो नीतिश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद चीजें बदली लेकिन झारखंड में लूट-खसोट का सिलसिला जारी है। झारखंड में 32 वर्षों से पंचायत चुनाव नहीं हुए हैं। इसलिए केन्द्र सरकार की कई योजनाओं का लाभ राज्य को नहीं मिल पा रहा है। सत्ता लोभी बीजेपी, कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा की तिकड़मबाजी के चलते राज्य में किसी भी स्थिरता की संभावना नहीं है। राज्य में उद्योगों की हालत खस्ता है। दुनिया भर की कंपनियां राज्य की खनिज संपदा को लूटने की फिराक में हैं। तरह-तरह के पूंजीवादी जाल बिछाए गए हैं और जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
इस निराशा के माहौल में राज्य में एक व्यक्ति ऐसा है जो झारखंड को लोगों के साथ खड़े होने की हिम्मत दिखा रहा है। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी पिछले चार वर्षों से झारखंड के गांव-गांव में घूम रहे थे। पिछले हफ्ते रांची में अपनी नवगठित पार्टी के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन किया और झारखंड के लोगों को राजनीतिक रूप से मजबूत करने के अपने मंसूबों का एलान किया। उन्होंने दिल्ली और नागपुर में बैठकर राज्य की राजनीति का भाग्यविधाता बनने का स्वांग रचने वालों को साफ बता दिया कि राज्य के समग्र विकास के लिए राष्ट्रीय नेताओं और पार्टियों को ईस्ट इंडिया कंपनी की मानसिकता से बाहर निकलना पड़ेगा।
राज्य के सीधे सादे लोगों को बाबूलाल मरांडी ने बता दिया है कि अपने यहां से किसी भी सूरत में खनिजों की कच्चे माल की निकासी का विरोध करेंगे। अब झारखंड की जनता यह मांग करेगी कि आइरन ओर का निर्यात नहीं, लोहे की बनी वस्तुओं का निर्यात होगा। कोयला निर्यात करने की जरूरत नहीं है, उससे बिजली बनाकर बाकी राज्यों और उद्योगों को दिया जाएगा। बड़ी कंपनियों को झारखंड राज्य की सीमा में ही मुख्यालय रखना होगा। उन्होंने टाटा को भी चेताया है कि टाटा स्टील का मुख्यालय जमशेदपुर में होना चाहिए, मुंबई में नहीं। बाबूलाल मरांडी ने बताया कि अगर जरूरत पड़ी और दिल्ली में बैठे कलर ब्लाइंड लोगों की समझ में झारखंडी अवाम की बात न आई तो जनता जाम भी लगाएगी और डंडा भी बजाएगी। झारखंड की तबाह हो चुकी राजनीति और भ्रष्टाचार का भोजन बनने के लिए तैयार अर्थव्यवस्था के लिए बाबूलाल मरांडी की योजना आशा की एक किरण है। देखना यह है कि सत्ता के बाहर का नेता क्या सत्ता पाने पर भी ईमानदार रह पाएगा
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Thursday, May 20, 2010
समाज के हस्तक्षेप के बिना घरेलूं हिंसा पर रोक नहीं लग पायेगी
शेष नारायण सिंह
आई सी एस ई बोर्ड के दसवीं और बारहवीं के नतीजे आ गए हैं. इस बार भी लड़कियों ने बाज़ी मारी है . सभी वर्गों में लड़कियों ने ही टाप किया है . दो दिन बाद सी बी एस ई के नतीजे आ जायेंगें ,उम्मीद है कि वहां भी हर साल की तरह लड़कियां ही टाप करेंगीं .क्योंकि हर साल ऐसा ही होता रहा है . कुल नतीजों में भी लड़कियां बेहतर पायी गयी हैं . फेल होने वालों में लड़कों की संख्या लड़कियों से बहुत ज्यादा है . पिछले बीस वर्षों से दसवीं और बारहवीं के नतीजों में लड़कियों का प्रदर्शन बेहतर होता रहा है लेकिन आगे की ज़िंदगी में वे बहुत कम संख्या में नज़र आती हैं . आज के नतीजों में पास हुई बहुत सारी लड़कियों की पढ़ाई अब ख़त्म हो जायेगी , वे आगे नहीं पढ़ पाएंगीं. लेकिन इनमें से जो कुछ लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए जायेंगीं , वे सफल होंगीं क्योंकि अब लगभग हर कम्पटीशन में लड़कियां ही टाप कर रही हैं . इस साल के आई ए एस के नतीजे भी उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल किये जा सकते हैं .इसका मतलब यह हुआ कि अगर लड़कियों को अवसर दिया जाए तो वे ज़िंदगी के किसी क्षेत्र में लड़कों से पीछे नहीं रहेंगीं . लेकिन सच्चाई यह है कि महिलायें हमारे समाज में पीछे हैं . माइक्रोसाफ्ट कंपनी के मुखिया , बिल गेट्स जब राहुल गाँधी के साथ अमेठी गए तो उन्होंने किसी से पूछा कि कार्यक्रमों में महिलायें क्यों नहीं हैं , सडकों पर भी महिलायें बहुत कम दिख रही हैं ..उनको कौन बताये कि यह हमारे देश की सच्चाई है . आज जो लड़कियां बोर्ड की परीक्षाओं में टाप कर रही हैं कल इनमें से बड़ी संख्या में स्कूल जाना बंद कर देंगीं . उनकी शादी होगी और वे घर के काम काज में लग जायेंगीं . बहुत सारे ऐसे मामले आजकल देखे जा रहे हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कियां दसवीं फेल लड़कों के साथ ब्याह दी जा रही हैं .. सामाजिक बंधन ऐसे हैं कि उनको अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुनने का मौक़ा नहीं दिया जा सकता . उन्हें उसी लडके से शादी करनी पड़ेगी जिसे उनके माता पिता ने पसंद कर दिया है . हरियाणा और उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों के उदारण ताज़ा हैं और उनके हवाले से बात को ठीक से समझा जा सकता है . दिल्ली की पत्रकार निरुपमा पाठक का हाल दुनिया जानती है. उसको भी मार डाला गया कि क्योंकि वह अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुनना चाहती थी.
यह तो कुछ ऐसे मामले हैं जो पब्लिक डोमेन में आ गए है और दुनिया को इनकी जानकारी हो गयी. लेकिन बहुत बड़ी संख्या उन लड़कियों की है जो शादी के बाद चुपचाप अपमानित होती रहती हैं और कहीं भी बात को कहती नहीं .उनकी ज़िंदगी डांट फटकार खाते बीत जाती है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के गावों से बहुत सारे ऐसे मामलों की जानकारी आई है जहाँ कम पढ़े लिखे लडके अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए ही अपनी बीवियों को मार-पीट रहे हैं हालांकि बीवी एम ए पास है और पति देव दसवीं फेल हैं .. कुदरत ने सबको बराबर बनाया है लेकिन औरत को अपने से कमज़ोर समझने के रीति रिवाज़ को सही ठहराने वाले समाज में औरत को दबा कर रखना शेखी मना जाता है .. घरेलू हिंसा आज की एक बड़ी समस्या है . ज्यादातर समाजों में औरतों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जो अक्षम्य अपराध है लेकिन यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है . सरकार को भी इसकी जानकारी है लेकिन वह कुछ नहीं कर पा रही है.,घरेलू हिंसा को रोकने के लिए सरकार ने कानून भी बनाया है लेकिन उसको लागू कर पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि अगर कोई औरत अपने पति के खिलाफ घरेलू हिंसा कानून के तहत शिकायत कर दे तो उसकी खैर नहीं है क्योंकि रहना तो उसको उसी छत के नीचे है जहां हिंसा को अपना हक समझने वाला उसका पति रहता है . घरेलू हिंसा के भी कई रूप हैं . सीधे मार पीट को तो घरेलू हिंसा की श्रेणी में रखा ही जा सकता है लेकिन और भी बहुत से तरीके हैं जिनके ज़रिये औरतों को हिंसा का शिकार बनाया जा सकता है और बनाया जा रहा है . उनको अपमानित करना मानसिक यातना पंहुचाना, बलात्कार आदि बहुत से ऐसे तरीके हैं जो महिलाओं को अपमानित करने के लिए इस्तेमाल किये जा रहे हैं और घरेलू हिंसा कानून, अपराधी का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा है .
इसका मतलब यह हुआ कि घरेलू हिंसा को रोकने के लिए कानून उतना कारगर नहीं है जितना होना चाहिए . ज़ाहिर है और रास्ते तलाशने पड़ेंगें .एक रास्ता तो यह है कि लड़कियों को इतनी शिक्षा दे दी जाए कि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रहें . परिवार का हिस्सा रहें और परिवार की तरक्की में बराबर की भागीदारी करें लेकिन जो सबसे उपयोगी तरीका है वह है सामाजिक सरोकार . जिन समाजों में औरत को डांटने फटकारने या मारने पीटने पर सामाजिक बहिष्कार का खतरा रहता है वहां , घरेलू हिंसा बिलकुल नहीं होती. केरल में कई ऐसे समाज हैं . पूर्वोत्तर भारत में भी कई राज्यों में सही मायनों में औरतों और मर्दों के बराबरी की परम्परा है और उसे समाज की मंजूरी है .वहां भी घरेलू हिंसा शून्य के बराबर है . इसका मतलब यह हुआ कि अगर समाज और सरकार को घरेलू हिंसा का माहौल ख़त्म करना है तो समाज को जागरूक करना होगा और औरत को अपने हक के लिए तैयार होना होगा
आई सी एस ई बोर्ड के दसवीं और बारहवीं के नतीजे आ गए हैं. इस बार भी लड़कियों ने बाज़ी मारी है . सभी वर्गों में लड़कियों ने ही टाप किया है . दो दिन बाद सी बी एस ई के नतीजे आ जायेंगें ,उम्मीद है कि वहां भी हर साल की तरह लड़कियां ही टाप करेंगीं .क्योंकि हर साल ऐसा ही होता रहा है . कुल नतीजों में भी लड़कियां बेहतर पायी गयी हैं . फेल होने वालों में लड़कों की संख्या लड़कियों से बहुत ज्यादा है . पिछले बीस वर्षों से दसवीं और बारहवीं के नतीजों में लड़कियों का प्रदर्शन बेहतर होता रहा है लेकिन आगे की ज़िंदगी में वे बहुत कम संख्या में नज़र आती हैं . आज के नतीजों में पास हुई बहुत सारी लड़कियों की पढ़ाई अब ख़त्म हो जायेगी , वे आगे नहीं पढ़ पाएंगीं. लेकिन इनमें से जो कुछ लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए जायेंगीं , वे सफल होंगीं क्योंकि अब लगभग हर कम्पटीशन में लड़कियां ही टाप कर रही हैं . इस साल के आई ए एस के नतीजे भी उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल किये जा सकते हैं .इसका मतलब यह हुआ कि अगर लड़कियों को अवसर दिया जाए तो वे ज़िंदगी के किसी क्षेत्र में लड़कों से पीछे नहीं रहेंगीं . लेकिन सच्चाई यह है कि महिलायें हमारे समाज में पीछे हैं . माइक्रोसाफ्ट कंपनी के मुखिया , बिल गेट्स जब राहुल गाँधी के साथ अमेठी गए तो उन्होंने किसी से पूछा कि कार्यक्रमों में महिलायें क्यों नहीं हैं , सडकों पर भी महिलायें बहुत कम दिख रही हैं ..उनको कौन बताये कि यह हमारे देश की सच्चाई है . आज जो लड़कियां बोर्ड की परीक्षाओं में टाप कर रही हैं कल इनमें से बड़ी संख्या में स्कूल जाना बंद कर देंगीं . उनकी शादी होगी और वे घर के काम काज में लग जायेंगीं . बहुत सारे ऐसे मामले आजकल देखे जा रहे हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त लड़कियां दसवीं फेल लड़कों के साथ ब्याह दी जा रही हैं .. सामाजिक बंधन ऐसे हैं कि उनको अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुनने का मौक़ा नहीं दिया जा सकता . उन्हें उसी लडके से शादी करनी पड़ेगी जिसे उनके माता पिता ने पसंद कर दिया है . हरियाणा और उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों के उदारण ताज़ा हैं और उनके हवाले से बात को ठीक से समझा जा सकता है . दिल्ली की पत्रकार निरुपमा पाठक का हाल दुनिया जानती है. उसको भी मार डाला गया कि क्योंकि वह अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुनना चाहती थी.
यह तो कुछ ऐसे मामले हैं जो पब्लिक डोमेन में आ गए है और दुनिया को इनकी जानकारी हो गयी. लेकिन बहुत बड़ी संख्या उन लड़कियों की है जो शादी के बाद चुपचाप अपमानित होती रहती हैं और कहीं भी बात को कहती नहीं .उनकी ज़िंदगी डांट फटकार खाते बीत जाती है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के गावों से बहुत सारे ऐसे मामलों की जानकारी आई है जहाँ कम पढ़े लिखे लडके अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए ही अपनी बीवियों को मार-पीट रहे हैं हालांकि बीवी एम ए पास है और पति देव दसवीं फेल हैं .. कुदरत ने सबको बराबर बनाया है लेकिन औरत को अपने से कमज़ोर समझने के रीति रिवाज़ को सही ठहराने वाले समाज में औरत को दबा कर रखना शेखी मना जाता है .. घरेलू हिंसा आज की एक बड़ी समस्या है . ज्यादातर समाजों में औरतों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जो अक्षम्य अपराध है लेकिन यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है . सरकार को भी इसकी जानकारी है लेकिन वह कुछ नहीं कर पा रही है.,घरेलू हिंसा को रोकने के लिए सरकार ने कानून भी बनाया है लेकिन उसको लागू कर पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि अगर कोई औरत अपने पति के खिलाफ घरेलू हिंसा कानून के तहत शिकायत कर दे तो उसकी खैर नहीं है क्योंकि रहना तो उसको उसी छत के नीचे है जहां हिंसा को अपना हक समझने वाला उसका पति रहता है . घरेलू हिंसा के भी कई रूप हैं . सीधे मार पीट को तो घरेलू हिंसा की श्रेणी में रखा ही जा सकता है लेकिन और भी बहुत से तरीके हैं जिनके ज़रिये औरतों को हिंसा का शिकार बनाया जा सकता है और बनाया जा रहा है . उनको अपमानित करना मानसिक यातना पंहुचाना, बलात्कार आदि बहुत से ऐसे तरीके हैं जो महिलाओं को अपमानित करने के लिए इस्तेमाल किये जा रहे हैं और घरेलू हिंसा कानून, अपराधी का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा है .
इसका मतलब यह हुआ कि घरेलू हिंसा को रोकने के लिए कानून उतना कारगर नहीं है जितना होना चाहिए . ज़ाहिर है और रास्ते तलाशने पड़ेंगें .एक रास्ता तो यह है कि लड़कियों को इतनी शिक्षा दे दी जाए कि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रहें . परिवार का हिस्सा रहें और परिवार की तरक्की में बराबर की भागीदारी करें लेकिन जो सबसे उपयोगी तरीका है वह है सामाजिक सरोकार . जिन समाजों में औरत को डांटने फटकारने या मारने पीटने पर सामाजिक बहिष्कार का खतरा रहता है वहां , घरेलू हिंसा बिलकुल नहीं होती. केरल में कई ऐसे समाज हैं . पूर्वोत्तर भारत में भी कई राज्यों में सही मायनों में औरतों और मर्दों के बराबरी की परम्परा है और उसे समाज की मंजूरी है .वहां भी घरेलू हिंसा शून्य के बराबर है . इसका मतलब यह हुआ कि अगर समाज और सरकार को घरेलू हिंसा का माहौल ख़त्म करना है तो समाज को जागरूक करना होगा और औरत को अपने हक के लिए तैयार होना होगा
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शेष नारायण सिंह,
समाज के हस्तक्षेप
बाबू जगजीवन राम को ये लोग केवल दलित नेता ही मानते हैं
शेष नारायण सिंह
हर साल एकाध बार दिल्ली के कृष्ण मेनन मार्ग की कोठी नंबर ६ के बारे में अखबारों में खबरें निकलती रहती हैं. आजकल भी वही सीज़न शुरू हो गया है . किसी ने सूचना के अधिकार कानून के तहत फिर कुछ जानकारी इकठ्ठा कर ली है और उसे सवर्ण मानसिकता वालों ने अखबारों की सेवा में पेश कर दिया है ,खबर छप गयी है , और भी अखबारों में छपेगी और समाज की नैतिकता के ठेकेदार बड़े बड़े उपदेश देने लगेंगें कि सार्वजनिक संपत्ति पर गैरज़रूरी क़ब्ज़ा कर लिया गया है और उसे फ़ौरन उस महकमे के हवाले कर दिया जाना चाहिए जो सरकारी अफसरों और मंत्रियों के लिए दिल्ली में कोठियों का इंतज़ाम करता है .बात सही है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है . नयी दिल्ली में ऐसे बहुत सारे मकान हैं जो किसी न किसी के नाम पर यादगार में बदल दिए गए हैं तो बाबू जगजीवन राम के लिए क्या यह देश एक स्मारक नहीं बनवा सकता . जिस बिल्डिंग में आज़ादी की लड़ाई के एक महत्वपूर्ण योद्धा ने अपना लगभग पूरा जीवन बिताया हो उस भवन को उसी याद में रखने की मांग करके क्या जगजीवन राम के प्रशंसक कोई ऐसी मांग कर रहे हैं जो बहुत ही अनुचित है .. क्या ऊंची जातियों के लोगों के लिए ही सरकारी भवनों में स्मारक बनाए जाने चाहिए ? क्या सरकार में बैठे लोगों को नहीं मालूम है कि जगजीवन राम का योगदान आज़ादी की लड़ाई में बेजोड़ रहा है .? जगजीवन राम उस वक़्त महात्मा गाँधी के नेतृत्व में आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाली जमातों में शामिल हुए थे जब अँगरेज़ अपनी पूरी ताक़त के साथ आज़ादी के सपने को हमेशा के लिए कुचल देना चाहते थे . पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अंग्रेजों ने अपनी सारी ताक़त झोंक दी थी . मुस्लिम लीग की कमान जिन्नाह के हाथ में आ चुकी थी और वे अंग्रेजों के हाथ में खेल रहे थे . अंग्रेजों की कोशिश थी कि दलितों के लिए भी पृथक चुनाव क्षेत्रों का गठन कर दिया जाए . दुनिया जानती है कि पाकिस्तान के गठन की शुरुआत पृथक चुनाव क्षेत्रों की चर्चा के साथ ही शुरू हो चुकी थी . अँगरेज़ का इरादा दलितों के बारे में भी यही था . गाँधी जी ने साम्राज्यवादी अंग्रेजों के इरादे को भांप लिया था कि अँगरेज़ बांटो और राज करो के अपने खेल को पूरी तरह से अंजाम तक पहुचाने की तैयारी कर चुका था. एकाध दलित नेताओं को भी पटा लिया गया था कि वे पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की बात का समर्थन करें लेकिन महात्मा गाँधी ने इसका विरोध किया और उस काम में बाबू जगजीवन राम उनके साथ खड़े थे .
आज़ादी की लड़ाई को एक सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के रूप में चलाने के लिए गाँधी जी ने अभियान चलाया था. दलितों के लिए जो अभियान चलाया गया था उसमें बाबू जगजीवन राम पूरे जोर से लगे हुए थे .. पटना में आयोजित छुआछूत विरोधी समेलन में उन्होंने कहा कि " सवर्ण हिन्दुओं की इन नसीहतों से कि मांस भक्षण छोड़ दो,मदिरा मत पियो.सफाई के साथ रहो ,अब काम नहीं चलेगा . अब दलित उपदेश नहीं , अच्छे व्यवहार की मांग करते हैं और उनकी मांग स्वीकार करनी होगी. शब्दों की नहीं ठोस काम की आवश्यकता है . मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को अपना अलग देश बनाने के लिए उकसा दिया है . डॉ आम्बेडकर ने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की माग की है .राष्ट्र की रचना हमसे हुई है ,राष्ट्र से हमारी नहीं /. राष्ट्र हमारा है . इसे एकताबद्ध करने का प्रयास भारत के लोगों को ही करना है . महात्मा गाँधी ने निर्णय लिया है कि छुआछूत को समाप्त करना होगा . इसके लिए मुझे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़े तो मैं पीछे नहीं हटूंगा . देश की आज़ादी की लड़ाई में सभी धर्म और जाति के लोगों को बड़ी संख्या में जोड़ना होगा. "
यह एक महान राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के साथ हमेशा खड़े रहने वाले जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन का हमेशा नेतृत्व किया . आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए. सब जानते हैं कि ६ फरवरी १९७७ के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी के राज को ख़त्म किया. उसके बाद उन्हें इस देश ने प्रधानमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित थे . हालांकि उनको ही प्रधान मंत्री होना चाहिए था . केंद्र में वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों में रहे . कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में उन्होंने देश की खाद्य समस्या का ऐसा हल निकाला कि आज तक अनाज के लिए हमें किसी मुल्क के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ा . बंगलादेश की स्थापना के समय वे रक्षा मंत्री थे . सेना को जो नेतृत्व उन्होंने दिया वह अपने आप में एक मिसाल है . उन दिनों एक बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आदमी अमरीका का राष्ट्रपति था , उसने भारत को धमकाने के लिए हिंद महासागर में अमरीकी सेना का परमाणु हथियारों से लैस विमानवाहक पोत , 'इंटरप्राइज़' भेज दिया था. बाबू जगजीवन राम ने ऐलान कर दिया कि अगर ' इंटरप्राइज़' बंगाल की खाड़ी में ज़रा सा भी आगे बढा तो भारत के जांबाज़ सैनिक उसे वहीं डूबा देंगें .
उन्हीं बाबू जगजीवन राम की याद में उनके प्रशंसक एक स्मारक बनवाना चाहते हैं . ऐसे समारक के लिए उस बिल्डिंग से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई इमारत हो ही नहीं सकती, जहां आज़ादी के इस महान योद्धा का लगभग पूरा जीवन बीता लेकिन सवर्णवादी सोच की मानसिकता से ग्रस्त नेता और अफसर उसमें अडंगा लगाते रहते हैं . .जबकि कुछ परिवारों के मामूली लोगों के नाम पर भी देश में भर में स्मारक बने हुए हैं . कुछ पार्टियों के नेताओं के नाम भी स्मारक बन रहे हैं लेकिन आज़ादी के इतने बड़े सिपाही के नाम पर अडंगा लगाने वाले ऐलानिया घूम रहे हैं और कोई उनका कुछ नहेने बिगाड़ पा रहा है .
हर साल एकाध बार दिल्ली के कृष्ण मेनन मार्ग की कोठी नंबर ६ के बारे में अखबारों में खबरें निकलती रहती हैं. आजकल भी वही सीज़न शुरू हो गया है . किसी ने सूचना के अधिकार कानून के तहत फिर कुछ जानकारी इकठ्ठा कर ली है और उसे सवर्ण मानसिकता वालों ने अखबारों की सेवा में पेश कर दिया है ,खबर छप गयी है , और भी अखबारों में छपेगी और समाज की नैतिकता के ठेकेदार बड़े बड़े उपदेश देने लगेंगें कि सार्वजनिक संपत्ति पर गैरज़रूरी क़ब्ज़ा कर लिया गया है और उसे फ़ौरन उस महकमे के हवाले कर दिया जाना चाहिए जो सरकारी अफसरों और मंत्रियों के लिए दिल्ली में कोठियों का इंतज़ाम करता है .बात सही है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो रहा है . नयी दिल्ली में ऐसे बहुत सारे मकान हैं जो किसी न किसी के नाम पर यादगार में बदल दिए गए हैं तो बाबू जगजीवन राम के लिए क्या यह देश एक स्मारक नहीं बनवा सकता . जिस बिल्डिंग में आज़ादी की लड़ाई के एक महत्वपूर्ण योद्धा ने अपना लगभग पूरा जीवन बिताया हो उस भवन को उसी याद में रखने की मांग करके क्या जगजीवन राम के प्रशंसक कोई ऐसी मांग कर रहे हैं जो बहुत ही अनुचित है .. क्या ऊंची जातियों के लोगों के लिए ही सरकारी भवनों में स्मारक बनाए जाने चाहिए ? क्या सरकार में बैठे लोगों को नहीं मालूम है कि जगजीवन राम का योगदान आज़ादी की लड़ाई में बेजोड़ रहा है .? जगजीवन राम उस वक़्त महात्मा गाँधी के नेतृत्व में आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाली जमातों में शामिल हुए थे जब अँगरेज़ अपनी पूरी ताक़त के साथ आज़ादी के सपने को हमेशा के लिए कुचल देना चाहते थे . पृथक निर्वाचन क्षेत्रों के लिए अंग्रेजों ने अपनी सारी ताक़त झोंक दी थी . मुस्लिम लीग की कमान जिन्नाह के हाथ में आ चुकी थी और वे अंग्रेजों के हाथ में खेल रहे थे . अंग्रेजों की कोशिश थी कि दलितों के लिए भी पृथक चुनाव क्षेत्रों का गठन कर दिया जाए . दुनिया जानती है कि पाकिस्तान के गठन की शुरुआत पृथक चुनाव क्षेत्रों की चर्चा के साथ ही शुरू हो चुकी थी . अँगरेज़ का इरादा दलितों के बारे में भी यही था . गाँधी जी ने साम्राज्यवादी अंग्रेजों के इरादे को भांप लिया था कि अँगरेज़ बांटो और राज करो के अपने खेल को पूरी तरह से अंजाम तक पहुचाने की तैयारी कर चुका था. एकाध दलित नेताओं को भी पटा लिया गया था कि वे पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की बात का समर्थन करें लेकिन महात्मा गाँधी ने इसका विरोध किया और उस काम में बाबू जगजीवन राम उनके साथ खड़े थे .
आज़ादी की लड़ाई को एक सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के रूप में चलाने के लिए गाँधी जी ने अभियान चलाया था. दलितों के लिए जो अभियान चलाया गया था उसमें बाबू जगजीवन राम पूरे जोर से लगे हुए थे .. पटना में आयोजित छुआछूत विरोधी समेलन में उन्होंने कहा कि " सवर्ण हिन्दुओं की इन नसीहतों से कि मांस भक्षण छोड़ दो,मदिरा मत पियो.सफाई के साथ रहो ,अब काम नहीं चलेगा . अब दलित उपदेश नहीं , अच्छे व्यवहार की मांग करते हैं और उनकी मांग स्वीकार करनी होगी. शब्दों की नहीं ठोस काम की आवश्यकता है . मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को अपना अलग देश बनाने के लिए उकसा दिया है . डॉ आम्बेडकर ने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की माग की है .राष्ट्र की रचना हमसे हुई है ,राष्ट्र से हमारी नहीं /. राष्ट्र हमारा है . इसे एकताबद्ध करने का प्रयास भारत के लोगों को ही करना है . महात्मा गाँधी ने निर्णय लिया है कि छुआछूत को समाप्त करना होगा . इसके लिए मुझे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़े तो मैं पीछे नहीं हटूंगा . देश की आज़ादी की लड़ाई में सभी धर्म और जाति के लोगों को बड़ी संख्या में जोड़ना होगा. "
यह एक महान राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के साथ हमेशा खड़े रहने वाले जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन का हमेशा नेतृत्व किया . आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए. सब जानते हैं कि ६ फरवरी १९७७ के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी के राज को ख़त्म किया. उसके बाद उन्हें इस देश ने प्रधानमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित थे . हालांकि उनको ही प्रधान मंत्री होना चाहिए था . केंद्र में वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों में रहे . कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में उन्होंने देश की खाद्य समस्या का ऐसा हल निकाला कि आज तक अनाज के लिए हमें किसी मुल्क के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ा . बंगलादेश की स्थापना के समय वे रक्षा मंत्री थे . सेना को जो नेतृत्व उन्होंने दिया वह अपने आप में एक मिसाल है . उन दिनों एक बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आदमी अमरीका का राष्ट्रपति था , उसने भारत को धमकाने के लिए हिंद महासागर में अमरीकी सेना का परमाणु हथियारों से लैस विमानवाहक पोत , 'इंटरप्राइज़' भेज दिया था. बाबू जगजीवन राम ने ऐलान कर दिया कि अगर ' इंटरप्राइज़' बंगाल की खाड़ी में ज़रा सा भी आगे बढा तो भारत के जांबाज़ सैनिक उसे वहीं डूबा देंगें .
उन्हीं बाबू जगजीवन राम की याद में उनके प्रशंसक एक स्मारक बनवाना चाहते हैं . ऐसे समारक के लिए उस बिल्डिंग से ज्यादा महत्वपूर्ण और कोई इमारत हो ही नहीं सकती, जहां आज़ादी के इस महान योद्धा का लगभग पूरा जीवन बीता लेकिन सवर्णवादी सोच की मानसिकता से ग्रस्त नेता और अफसर उसमें अडंगा लगाते रहते हैं . .जबकि कुछ परिवारों के मामूली लोगों के नाम पर भी देश में भर में स्मारक बने हुए हैं . कुछ पार्टियों के नेताओं के नाम भी स्मारक बन रहे हैं लेकिन आज़ादी के इतने बड़े सिपाही के नाम पर अडंगा लगाने वाले ऐलानिया घूम रहे हैं और कोई उनका कुछ नहेने बिगाड़ पा रहा है .
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