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Thursday, September 29, 2011

बीजेपी ने कांग्रेस को घेरने की पूरी पेशबंदी की

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,२८ सितम्बर.बीजेपी ने कांग्रेस की सरकार को घेरने के लिए सारी ताक़तों को आगे कर दीया है . आज संसद में दोनों सदनों के नेताओं, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने प्रेस को संबोधित किया और कहा कि कांग्रेस की सरकार के सामने विश्वसनीयता का संकट है और वह अपने ही विरोधाभासों के नीचे बुरी तरह से दब चुकी है . बीजेपी ने प्रधान मंत्री के उस बयान को गलत बताया जिसमें उन्होंने कहा है कि बीजेपी समेत विपक्ष की कुछ पार्टियां सरकार क स्थिर करने की कोशिश कर रही हैं . प्रधान मंत्री ने अपनी विदेश यात्रा से लौटते समय यह आरोप लगाया था कि विपक्ष की कोशिश है कि देश में जल्दी ही चुनाव हो जाएँ जबकि अभी सरकार का कार्यकाल पूरा होने में करीब ढाई साल बाकी हैं . बीजेपी ने पी चिदंबरम को बचाने के मामले में प्रधान मंत्री को दोषी ठहराया लेकिन प्रधान मंत्री के इस्तीफे की मांग नहीं की जबकि अरुण जेटली ने साफ़ कहा कि प्रधान मंत्री को मालूम था कि २००८ में वित्त मंत्री रहे पी चिदंबरम और ए राजा मिलकर २ जी घोटाला कर रहे थे.
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लोक सभा में विपक्ष की नेता,सुषमा स्वराज ने कहा कि बीजेपी अभी चुनाव के लिए दबाव नहीं डाल रही है . अगर मध्यावधि चुनाव होता है तो उसके लिए कांग्रेस और उसकी अगुवाई वाली सरकार का गलत काम ही ज़िम्मेदार होंगें . दोनों नेताओं ने गृह मंत्री पी चिदंबरम को भ्रष्ट बाताया और मांग की कि उनकी जांच की जानी चाहिए. बीजेपी ने दावा किया है कि जब यू पी ए सरकार में शामिल गैर कांग्रेस पार्टियों के नेता किसी गलती में पकडे जाते हैं तो कांग्रेस नेतृत्व और प्रधान मंत्री उन्हें अपने हाल पर छोड़ देते हैं ./ उन्होंने २ जी मामले में ए राजा को जेल में भेजने का ज़िक्र किया . सुषमा स्वराज ने कहा कि जब मंहगाई के बढ़ने की बात आती है तो एन सी पी के शरद पवार को ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है . इसी तरह जब एयर इंडिया में भ्रष्टाचार की बात आती है तो एन सी पी के प्रफुल पटेल का नाम ले लिया जाता है लेकिन जब कांग्रेस के पी चिदंबरम पर बात आती है तो कांग्रेस उनके बचाव में आ जाती है . अरुण जेटली ने प्रधान मंत्री पर आरोप लगाया कि वे पी चिदंबरम का बचाव करके भ्रष्टाचार को शह दे रहे हैं ..उन्होंने कहा कि पी चिदंबरम दागी हैं और उन पर अगर भरोसा करते रहे तो प्रधान मंत्री देश का भरोसा बहुत जल्द खो देगें.बीजेपी ने अब कैश फार वोट मामले में फंसे अपने सदस्यों का बचाव करने का फैसला कर लिया है . कल सुषमा स्वराज जेल में बंद अपनी पार्टी के कैश फार वोट के अभियुक्तों से मिल कर आई हैं और आज अरुण जेटली और आडवानी से सुधीन्द्र कुलकर्णी और अन्य दो पूर्व सांसदों से मिलने जा रहे हैं . जब पूछा गया कि अब कैश फार वोट के केस से आप लोग अपनी पार्टी को कैसे बचायेगें तो अरुण जेटली ने कहा कि उनकी पार्टी के लोग तो भ्रष्टाचार को एक्सपोज कर रहे थे . वे अपराधी नहीं हैं .

Wednesday, September 28, 2011

भ्रष्टाचार के बहाने बीजेपी को चाहिए गृहमंत्री का इस्तीफा

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,२७ सितम्बर.बीजेपी किसी भी कीमत पर पी चिदंबरम को सरकार से बाहर देखना चाहती है . आज अपनी नियमित ब्रीफिंग में पार्टी ने पी चिदम्बरम को निशाने पर लिया . २ जी के मुख्य खलनायक के रूप में चिदंबरम को प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही बीजेपी ने रामदेव के रामलीला मैदान वाले कार्यक्रम के दौरान घायल हुई महिला , राजबाला के मृत्यु के लिए भी गृह मंत्री को ज़िम्मेदार ठहराया और उनका इस्तीफा माँगा . जबकि कांग्रेस का दावा है कि पी चिदम्बरम को बीजेपी इसलिए हटाने की कोशिश कर रही है कि उनके विभाग के अधीन काम करने वाली जांच एजेंसी,एन आई ए की जांच के चलते बीजेपी और आर एस एस के कथित आतंकवादी नेटवर्क का पर्दाफ़ाश हो रहा है. कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह का दावा हैकि बीजेपी वाले गृह मंत्री के रूप में ,पी चिदंबरम की सफलता से बहुत परेशान हैं और इसीलिये वे पी चिदंबरम को गृह मंत्री पदसे हटाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं .


बीजेपी मुख्यालय में आज पार्टी की ब्रीफिंग में प्रवक्ता, निर्मला सीतारामन ने देश के सामने आये कई संकटों के लिए गृह मंत्री पी चिदंबरम को ज़िम्मेदार ठहराया और उनके इस्तीफे की मांग की.उन्होंने प्रधानमंत्री को सुझाव दिया कि अगर चिदंबरम इस्तीफा न दें तो उन्हें बर्खास्त कर दिया जाए. पार्टी ने २५ मार्च के उस पत्र का हवाला दिया जो सूचना के अधिकार का इसेतमाल करके निकाला गया है जिसमें वित्त मंत्रालय की ओर से बताया गया है कि अगर तत्कालीन वित् मंत्री चिदंबरम ने चाहा होता तो संचार मंत्री, ए राजा स्पेक्ट्रम के काम में हेराफेरी न कर पाते..निर्मला सीतारामन ने कहा कि २००१ के कीमतों पर २००७ में स्पेक्ट्रम क्यों बेचा गया. कुल मिलाकर तत्कालीन वित्तमंत्री को ज़िम्मेदार बताते हुए बीजेपी प्रवक्ता ने गृह मंत्री के इस्तीफे के फरमाइश कर दी. रामदेव के रामलीला मैदान वाले आन्दोलन में घायल हुई महिला राजबाला की मृत्यु के मामले में भी बीजेपी प्रवक्ता ने बहुत दुःख जताया और कहा कि राजबाला की हत्या दिल्ली पुलिस की लाठियों से चोट खाकर हुई थी. दिल्ली पुलिस चिदम्बरम के मातहत एक महकमा है इसलिए राजबाला की मौत के लिए भी पी चिदंबरम को ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए और इस्तीफ़ा दे देना चाहिए . ठीक इसी तरह का बयान लोकसभा में विपक्ष की नेता ,सुषमा स्वराज ने भी दिया . सुषमा स्वराज राजबाला के अंतिम संस्कार में शामिल होने आज हरियाणा गयी हुई हैं . बीजेपी प्रवक्ता ने तेलंगाना में अलग राज्य की मांग बनाने के लिए चल रहे आन्दोलन के केस में भी पी चिदंबरम के इस्तीफे की मांग कर डाली. उन्होंने कहा कि यह बहुत ही दुखद है कि २ जी मामले में हुई सरकारी खजाने की लूट में पी चिदंबरम की संलिप्तता को कांग्रेस अध्यक्ष , सोनिया गाँधी अपनी पार्टी का मामला मान रही हैं और प्रणव मुखर्जी और पी चिदंबरम के बीच सुलह कराने की कोशिश कर रही हैं . बीजेपी प्रवक्ता ने कहा कि यह न तो कांग्रेस का आन्तरिक माला है और न ही इसमें किसी सुलह की ज़रुरत है . इसमें तो गृह मंत्री का इस्तीफ़ा ही समस्या का हल निकाल सकता है.

उधर कांग्रेस भी हमलावर मूड में दिखी.कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने बयान दिया है कि बीजेपी हाथ धोकर पी चिदंबरम के पीछे इसलिए पड़ गयी है कि अब आर एस एस के आतंकवाद के तामझाम का पर्दाफाश बहुत जल्द होने वाला है .दिग्विजय सिंह ने दावा किया कि पी चिदंबरम दिग्विजय सिंह के अधीन काम करने वाली एन आई ए की जांच का नतीजा है कि देश में पिछले कुछ वर्षों में हुई कई आतंकवादी घटनाओं में संघ से जुड़े लोग पकडे जा रहे हैं . मालेगांव, समझौता ,अजमेर आदि आतंकवादी घटनाओं में आर एस एस शामिल पायी गयी है . उन्होंने साफ़ कहा कि आर एस एस ने पहले तो आतंकवादी वारदात में पकडे जा रहे अपने कार्यकर्ताओं से पल्ला झाड़ते रहने का सिलसिला अपनाया था लेकिन जब आर एस एस के राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी भी जांच के घेरे में आ गए तो पी चिदंबरम को निशाने पर लिया गया. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस सांसद जगदम्बिका पाल ने भी चिदंबरम को निशाना बनाने की बीजेपी की कोशिश की आलोचना की और कहा कि बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति का भंडाफोड़ हो रहा है . यह काम गृह मंत्रालय कर रहा है.इसलिए बीजेपी पी चिदंबरम के खिलाफ अभियान चला रही है .इस मुद्दे पर देश के मुस्लिम बुद्धिजीवियों के संगठन सेकुलर फ्तंत के अध्यक्ष जमशेद जैदी भी दिग्विजय सिंह के एबात को सही मानते हैं . उन्होंने कहा कि देश के जागरूक वर्ग को चाहिए कि वह आर एस एस /बीजेपी की हर साज़िश को जनता के सामने लाये. जहां तक २ जे एस्पेत्रम का सवाल है उसकी जांच में राजनीति घुसाने की ज़रूरत नहीं है . २ जी घोटाले में शामिल हर दोषी व्यक्ति को सजा मिलनी चाहिए

Thursday, September 22, 2011

योजना आयोग और कांग्रेस के बीच गरीबी रेखा पर मतभेद

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,२१ सितम्बर.बीजेपी ने आज सरकार के उस हलफनामे की सख्त निंदा की जिसमें कथित रूप से गरीबों की संख्या घटाने की साज़िश की गयी है . बीजेपी ने एक बयान जारी करके कहा कि यह उस गरीब व्यक्ति का अपमान है जो बढ़ती मंहगाई और भ्रष्टाचार का शिकार हो रहा है.गरीब को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के बजाय सरकार ने तथ्य को नकारने और गरीब व्यक्तियों की संख्या छिपाने का रास्ता चुना यह गरीबी दूर करना नहीं बल्कि गरीब को गरीब न मानना है. बीजेपी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू पी ए सरकार के इस गरीब विरोधी रवैये का सभी उपलब्ध मंचों पर विरोध करेगी. हालांकि कांग्रेस ने इस हलफनामे को अंतिम सत्य मानने से इनकार कर दिया और कहा कि योजना आयोग के पास इस मामले में सुझाव दिए जायेगें . कांग्रेस का दावा है कि यह सुझाव कोई भी दे सकता है . एक सीधे सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी भी योजना आयोग को सकारात्मक सुझाव देगी.लगता है कि अर्थशात्र के विद्वान् योजना आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने कांग्रेस के पार्टी से गरीबी की रेखा की परिभाषा तय करने के पहले हरी झंडी नहीं ली थी.

योजना आयोग ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल करके कहा था कि देश के शहरी इलाकों में रह रहे लोग अगर ९६५ रूपये प्रति माह अपने परिवार के रख रखाव पर खर्च करते हैं तो वे गरीबी रेखा कि उपर मानेजायेगें जबकि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले पारिवारों के पास अगर ७८१ रूपये खर्च करने के लिए उपलब्ध है तो वे गरीब नहीं माने जायेगें. बीजेपी का कहना है कि यह सरकार की गैर ज़िम्मेदार कोशिश है . बीजेपी का दावा है कि यह दिमागी दिवालियापन है और इस प्रकार का हलफनामा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की विफलता का प्रतीक है .

खाद्य सुरक्षा का कानून बनाकर गरीब आदमी के बीच लोकप्रिय बनने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए योजना आयोग़ का यह हलफ़नामा बहुत मुश्किलें पैदा कर रहा है . आज जब कांग्रेस प्रवक्ता से इस बारे में जब सवाल किया गया तो तो उन्होंने साफ़ कहा कि अभी इस हलफनामे में सुधार किया जायेगा . हालांकि बात को बहुत घुमावदार तरीके से पेश किया गया लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता की बात से साफ़ था कि योजना आयोग ने उसके लिए मुश्किल पेश कर दी है . उनका कहना है कि बहुत ही सोच विचार के बाद यह आंकड़े उपलब्ध हुए हैं और योजना आयोग के बहुत ही काबिल लोगों ने इस हलफ नामे पर काम किया है . इसलिए इस पर सोच विचार के बाद कोई फैसला लिया जायेगा. कांगेस के सूत्रों का दावा है कि यह हलफनामा पार्टी को मुश्किल में डालने वाला है और बिना राजनीतिक क्लियरेंस के इसे सुप्रीम कोर्ट में पेश कर दिया गया है .

Tuesday, July 5, 2011

यू पी में २०१२ का युद्ध मायावती और बीजेपी के बीच होने की संभावना बढ़ी

शेष नारायण सिंह

राजनाथ सिंह को अपनी पार्टी का उत्तर प्रदेश में आला मालिक बनाकर बीजेपी ने उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव की तैयारियों को टाप गियर में डाल दिया है.कांग्रेस के दो सबसे ताक़तवर महासचिव पिछले कई महीने से उत्तर प्रदेश के बारे में ही चिंता करते पाए जा रहे हैं . ग्रेटर नोयडा के गाँव भट्टा और पारसौल में राहुल गाँधी का नाटकीय अंदाज़ मीडिया के लिए बहुत ही अच्छे विजुवल का मौक़ा था , उनके सबसे करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह भी आजकल वही राग चला रहे हैं. दिग्विजय सिंह और राहुल गाँधी को उम्मीद है कि अगर किसी एक वर्ग का वोट अपने नाम मुक़म्मल तरीके से ले लिया जाए तो मुसलमानों के वोट कांग्रेस को मिल जायेगें . इसी रणनीति के तहत अब किसानों के एक बड़े वर्ग को साथ लेने की कोशिश चल रही है . अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट , गूजर और राजपूत किसानों में कांग्रेस की आंशिक पैठ बन गयी तो इस इलाके के प्रभावशाली मुसलमानों को कांग्रेस की तरफ खींचने की कोशिश के कुछ कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक नतीजे हो सकते हैं . इसके पहले दिग्विजय सिंह ने मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश को ठाकुरों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी. उसी अभियान में उन्होंने अमर सिंह को भी इस्तेमाल करने की योजना बनाई थी लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. राज्य के मज़बूत राजपूत कांग्रेसी सांसदों ने दिग्विजय सिंह को जमने नहीं दिया . जगदम्बिका पाल , संजय सिंह , हर्षवर्धन आदि ऐसे कांग्रेसी सांसद हैं जो अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . जब दिग्विजय सिंह को इस खेल का अंदाज़ लगा तो उन्होंने ठाकुरों वाले प्रोजेक्ट को तिलांजलि दे दी और अब मुस्लिम बहुल इलाकों में सभी जातियों के किसानों के हितचिंतन की पिच पर राहुल गाँधी को घुमा रहे हैं. भट्टा पारसौल और अलीगढ की सभा का मकसद यही है . लेकिन दिग्विजय सिंह जैसा मंजा हुआ खिलाड़ी यह कैसे भूल जाता है कि " किसान " नाम का कोई वोट बैंक नहीं होता. किसान आम तौर पर जातियों में बंटा होता है और जब वोट देने की बात आती है तो वह अपनी जाति के हिसाब से वोट देता है .इसलिए किसान को केंद्र में रख कर राजनीतिक अभियान चलाने का दिग्विजय सिंह का कार्यक्रम राहुल गाँधी को व्यस्त रखने से ज्यादा खुछ नहीं है .
उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य फिरोजाबाद लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव बहुत अजीब तरीके से बदल गया था . जब फिरोजबाद जैसी सीट पर मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधू चुनाव हार गयी तो राजनीति के बड़े बड़े जानकार सन्न रह गए थे. लेकिन सच्चाई यह है कि माहौल बदल गया था . उस चुनाव में मुलायम सिंह यादव को शिकस्त देने के बाद कांग्रेस के हौसले भी बढ़ गए थे. उसे भी उत्तर प्रदेश की सीधी लड़ाई को त्रिकोणीय करने की रणनीति पर काम करने का मौक़ा मिल गया था . उन दिनों ऐसा लगता था कि बीजेपी ने राज्य में हार मान ली है और मायावती की ताक़त के सामने उसकी कोई औकात नहीं है . शायद इसी लिए बीजेपी ने कुछ मनोरंजक नेताओं को सामने करने का फैसला किया था . वरुण गाँधी जैसे लोग उसी योजना के तहत सामने लाये गए थे . दिल्ली के कुछ शहरी नेताओं को उत्तर प्रदेश में रणनीति संचालन का काम दिया गया . पूरा माहौल ऐसा था कि लगता था कि बीजेपी ने स्वीकार कर लिया है कि वह अब देश के सबसे बड़े राज्य में हाशिये पर ही रहेगी. कांग्रेस ने लोकसभा २००९ में कई राजपूतों को जिताया था तो वह राजपूतों को अपने साथ लाने की योजना पर काम कर रही थी. उम्मीद यह थी कि अगर कांग्रेस के जीतने की कोई उम्मीद बनेगी तो मुसलमान उसके साथ चला जाएगा. इस बात में दो राय नहीं है कि मुसलमानों के बीच में कांग्रेस की विश्वसनीयता बढ़ रही है . लेकिन मुसलमान किसी भी कीमत पर बीजेपी को नहीं जीतने देना चाहता .अगर कांग्रेस के साथ कोई और वोट बैंक न जुड़ा तो मुसलमान का बीजेपी को हराने की बजाय उसे जिताने में काम आ जायेगा . रायबरेली ,अमेठी और प्रतापगढ़ के अलावा उत्तर प्रदेश के किसी जिले में ठाकुर अब कांग्रेस के साथ नहीं है. यह बात बीजेपी के रणनीतिकारों की समझ में आ गयी है .राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का पूरी तरह से इंचार्ज बनाने के पीछे पार्टी की मंशा यह है कि एक राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े नेता के क़द का फायदा उठाया जाए. इस बीच मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी यू पी में लगा दिया गया है . हालांकि मायावती के सामने उनके टिक पाने की संभावना बहुत कम है लेकिन ज़मीन से जुडी एक महिला राजनेता की मौजूदगी से लाभ तो होगा ही.उधर मीडिया में मौजूद आर एस एस के कार्यकर्ताओं ने भी अपना काम शुरू कर दिया है और मायावती की सरकार के खिलाफ रोज़ ही कुछ न कुछ प्रमुखता से सुर्ख़ियों में मिल रहा है.राजनाथ सिंह को कमान सौंपने के बीजेपी के फैसले में यह भी निहित है कि जो तिकड़म की राजनीति करने वाले नेता यू पी में मुखिया बने बैठे थे अब वे आराम करेगें. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने लिखा है कि उत्तरप्रदेश में जितने भी बीजेपी नेता है लगभग सभी कभी न कभी वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती के समर्थक रह चुके हैं . राजनाथ सिंह अकेले ऐसे बीजेपी नेता हैं जिनकी छवि मायावती के धुर विरोधी की है . ऐसी हालत में उनको वे वोट भी मिल सकते हैं जो मौजूदा सरकार को हराना चाहते हैं . जहां तक मायावती का सवाल है उत्तर प्रदेश में सबसे मज़बूत जनाधार उनका ही है . और अगर यह लगा कि उनको सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी से मिल रही है तो मुसलमान थोक में मायावती के साथ चले जायेगें . उस हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह दोनों ही कमज़ोर पड़ेगें और उत्तर प्रदेश की लड़ाई पूरी तरह से मायावती बनाम बीजेपी हो जायेगी . बाकी लोग केवल हाशिये के खिलाड़ी के रूप में ही उत्तर प्रदेश चुनाव २०१२ में शामिल हो सकेंगें.

Sunday, July 3, 2011

हर भ्रष्ट नेता मज़बूत लोकपाल के खिलाफ है

शेष नारायण सिंह

लोकपाल के मुद्दे पर सभी पार्टियां घिरती नज़र आ रही हैं. यह दुनिया जानती है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म कर देने के पक्ष में नहीं है . भ्रष्टाचार की कमाई से ही तो पार्टियों का खर्चा चलता है ,उसी से नेताओं की दाल रोटी का बंदोबस्त होता है . यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार के नाम पर अन्य पार्टियों को घेरने की बात सभी करते रहते हैं .कांग्रेस ने साफ़ ऐलान कर ही दिया है कि वह प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच के दायरे में नहीं लाना चाहती. बीजेपी की कोशिश थी कि वह इसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री को भ्रष्ट साबित करने की अपनी योजना को आगे बढाती लेकिन बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उसकी पार्टी में मौजूद गुणी जनों की तरह कांग्रेस में भी कुछ उस्ताद मौजूद हैं जो बीजेपी को घेरने की योजना पर ही दिन रात काम करते हैं . लोकपाल के मामले में ताज़ा खेल बीजेपी की पोल खोलता नज़र आता है .कांग्रेस ने सर्भी पार्टियों की बैठक बुलाकर लोकपाल के मसौदे पर चर्चा करने की योजना बना दी जिसमें प्रधानमंत्री समेत सभी मुख्यमंत्रियों को लोकपाल की जांच के दायरे में लाने पर चर्चा की बात है. ज़ाहिर है कि बीजेपी सभी मुख्यमंत्रियों को लोकपाल के दायरे में नहीं ला सकती. अगर कहीं बीजेपी ने तय किया कि वह रणनीतिक कारणों से ही कुछ वक़्त के लिए मुख्यमंत्री को लोकपाल में लाने के बारे में सोच सकती है तो उनके मुख्यमंत्री नाराज़ हो जायेगें . इसका सीधा भावार्थ यह हुआ कि उनकी पार्टी टूट जायेगी. बी एस येदुरप्पा कभी नहीं मानेगें कि उनके भ्रष्टाचार की जांच किसी ऐसी एजेंसी से कराई जाय जो उनके अधीन न हो .बीजेपी के दिल्ली में रहने वाले सभी नेता जानते हैं कि बी एस येदुरप्पा की नज़र में दिल्ले में केवल अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और राजनाथ सिंह बड़े नेता हैं .बाकी राष्ट्रीय नेताओं को वे बहुत मामूली नेता मानते हैं . उन्हें यह भी मालूम है कि कर्नाटक में बीजेपी की ताक़त बी एस येदुरप्पा की निजी ताक़त है . अगर वे पार्टी से अलग हो जाएँ तो राज्य में बीजेपी शून्य हो जायेगी. इसीलिये बीजेपी वाले पिछले कई दिनों से अपने प्रवक्ताओं के मुंह से कहलवा रहे हैं कि पहले सरकार यह बताये कि वह क्या चाहती है . पार्टी की मंशा यह लगती है कि अगर कांग्रेस ने कोई पोजीशन ले ली तो उसी की धज्ज़ियां उड़ाकर सर्वदलीय बैठक के संकट से बच जायेगें लेकिन कांग्रेस उनको यह अवसर नहीं दे रही है. बीजेपी ने इस संकट से बचने के लिए ही तय किया था कि वह सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार करेगी लेकिन नीतीश कुमार और प्रकाश सिंह बादल ने दबाव डालकर ऐसा नहीं करने दिया . पता नहीं क्यों मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थकविहीन नेता, प्रकाश करात बीजेपी के सुर में सुर मिला रहे हैं .वे भी कह रहे हैं कि उन्हें भी सरकारी ड्राफ्ट चाहिए . खैर उनकी तो कोई औकात नहीं है लेकिन बीजेपी बुरी तरह से फंस गयी है . मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को बाहर रखने की उनकी नीति जब बहस के दायरे में आयेगी तो देश को पता लग जाएगा कि बीजेपी वाले भी कांग्रेस की तरह की भ्रष्ट हैं . इसलिए लोकपाल की संस्था को बहुत ही कमज़ोर कर देने के बारे में देश की दोनों की बड़ी पार्टियों में लगभग एक राय है लेकिन एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए दोनों की पार्टियों के वे प्रवक्ता , जो टी वी की कृपा से नेता बने हुए हैं,कुछ ऐसी बातें करते रहते हैं जिसका उनकी पार्टी को राजनीतिक फायदा होता है . उनका दुर्भाग्य यह है कि जिस टी वी ने उन्हें नेता बनाया है ,वही टी वी और मीडिया देश की जनता को भी सही खबर देता रहता है . अभी पंद्रह साल पहले एक ऐसा मामला आया था जिसमें सभी पार्टियों के नेता फंसे थे .जैन हवाला काण्ड के नाम से कुख्यात इस केस में कांग्रेस, बीजेपी , लोकदल, जनता दल सभी पार्टियों के बड़े नेता एक कश्मीरी संदिग्ध संगठन से रिश्वत लेने के आरोप में जांच के घेरे में आये थे लेकिन सब ने मिलजुल कर मामले को दफना दिया था . लगता है कि लोकपाल बिल के साथ भी वही करने की योजना इन नेताओं की है . लेकिन इस बार यह काम इतना आसान नहीं होगा . यह संभव है कि समाचार देने वाले बड़े संगठनों के कुछ मालिकों को यह नेता लोग अरदब में लेने में सफल हो जाएँ लेकिन वैकल्पिक मीडिया सबकी पोल खोलने की ताक़त रखता है और वह खोल भी देगा. देश की जनता को उम्मीद है कि एक ऐसा लोकपाल कानून बने जिसके बाद भ्रष्टाचार को लगाम देने का काम शुरू किया जा सके.

Monday, March 28, 2011

बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को इस्तेमाल किया है अब तक

शेष नारायण सिंह

विकीलीक्स ने अमरीकी दूतावास के संदेशों को पब्लिक डोमेन में लाकर भारतीय राजनीति का बहुत उपकार किया है . विकीलीक्स की कृपा से ही हम जानते हैं कि बीजेपी की नज़र में हिंदुत्व एक अवसरवादी राजनीति है. बीजेपी के बड़े नेता और टाप पद के प्रमुख दावेदार अरुण जेटली ने यह बात अमरीकी अफसर राबर्ट ब्लेक को एक अन्तरंग बातचीत में बतायी थी .श्री जेटली ने उसको भरोसे के साथ बताया था कि हिन्दू राष्ट्रवाद एक अवसरवादी मुद्दा है . उन्होंने समझाया कि बातचीत शुरू करने के लिए यह ठीक तरीका है .इस से ज्यादा कुछ नहीं . आज से करीब छः साल पहले हुई इस बातचीत में अरुण जेटली ने अमरीका को बता दिया था कि लाल कृष्ण आडवानी कुछ वर्षों के बाद बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर आ जायेगें और अगली पीढी के लोग काम संभाल लेगें. अगर आडवाणी को उस वक़्त मालूम होता कि अरुण जेटली उनके बारे में इस तरह की बात करते हैं तो आज अरुण जेटली का राजनीतिक जीवन बिलकुल अलग होता .यह जिस दौर की बात चीत है उसके बारे में सबको मालूम है अरुण जेटली को बीजेपी के आडवाणी गुट ख़ास नेता माना जाता था . आडवाणी से पिछले पांच वर्षों में अरुण जेटली को बहुत समर्थन मिला है . जानकार बताते हैं कि अरुण जेटली को राज्यसभा का सदस्य बनवाने में भी आडवानी की प्रमुख भूमिका रही है . उनको राज्यसभा में बीजेपी का नेता भी आडवाणी ने ही बनवाया था. २००९ में लाल कृष्णा आडवाणी पूरे देश में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन कर घूमते फिर रहे थे और अरुण जेटली उनको उसके चार साल पहले ही रिटायर करवाने की तैयारी में थे . . बाद में मीडिया को अरुण जेटली ने बताया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा था . यहाँ उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि जब पहले दिन विकीलीक्स के संदेशों को द हिन्दू अखबार ने छापा था और पता चला था कि कांग्रेस की मनमोहन सरकार को बचाने के लिए २००८ में पैसे चले थे ,तो क्यों उसको अंतिम सत्य मानकर संसद नहीं चलने दिया था . सच्चाई यह है सारा देश जानता है कि २००८ में परमाणु बिल के मुद्दे पर पैसे चले थे और उस काण्ड में लाल कृष्ण आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेता किसी न किसी रूप में शामिल थे . लेकिन बीजेपी का यह आग्रह कि मनमोहन सिंह इस्तीफ़ा दें बिलकुल तर्कसंगत नहीं लगा था . अब नए खुलासे के बाद तो बीजेपी को उन सभी लोगों से माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद की पक्षधर पार्टी के रूप में बीजेपी को सम्मान दिया है और अपनाया है . बीजेपी की वैचारिक सोच की नियंता पार्टी आर एस एस है . आर एस एस की राजनीति का मकसद घोषित रूप से हिन्दू राष्ट्रवाद है . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी चिन्तक मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस नई पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक दर्शन को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया है इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया है . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी और अब अरुण जेटली इसको बोगस विचारधारा के रूप में पेश कर रहे हैं . लेकिन विकीलीक्स के खुलासों ने इस अहम जानकारी को पब्लिक डोमेन में डालकर भारतीय राजनीति के टाप नेताओं की सोच को उजागर किया है जिसकी सराहना के जानी चाहिए

Saturday, March 26, 2011

विकीलीक्स ने किया बीजेपी की दोहरी चाल को बेनकाब

शेष नारायण सिंह

विकीलीक्स के कंधे पर बैठकर मनमोहन सिंह को पैदल करने की बीजेपी की रणनीति उल्टी पड़ गयी है.विकीलीक्स के ज़रिये उजागर हुए नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास के अफसरों की ओर से अमरीकी विदेश विभाग को भेजे गए संदेशों के बाद बीजेपी ने ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि लगता था कि बस अगले कुछ घंटों में ही वे लोग मनमोहन सिंह को लपक लेगें . संघभक्त मीडिया ने भी अपनी भूमिका निभाई . कांग्रेसी सहम भी गए लेकिन बीजेपी के भाग से छींका टूटा नहीं. मनमोहन सिंह ने संसद के दोनों सदनों में बयान दिया कि बीजेपी के हल्ले गुल्ले का कोई मतलब नहीं है . लेकिन बीजेपी वाले विकीलीक्स को अंतिम सत्य मनवाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे.. प्रधानमंत्री पद के पूर्व उम्मीदवार सहित बीजेपी के सभी बड़े नेता मनमोहन सिंह से एक इस्तीफे की फ़रियाद करते रहे लेकिन मनमोहन सिंह ने साफ़ मना कर दिया . उन्होंने कहा कि बीजेपी को जनता ने रिजेक्ट करके बहुत अच्छा काम किया है . दुनिया जानती है कि परमाणु बिल को पास करवाने के लिए पैसे के इस्तेमाल के मसले में ऐसा कुछ भी नया नहीं था जिसे विकीलीक्स ने उजागर किया हो . सब को मालूम था कि पैसा चला था और बीजेपी के आला नेता ,लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनकी पार्टी के संसद सदस्यों ने उनसे मंजूरी लेकर कथित रूप से रिश्वत में मिला पैसा लोकसभा में लाकर पेश किया था . जांच भी हुई थी और अन्य लोगों के अलावा लाल कृष्ण आडवाणी के उन दिनों के भक्त, सुधीन्द्र कुलकर्णी की जांच करने का सुझाव भी इस काम के लिए नियुक्त जेपीसी ने दिया था. कांग्रेस के खिलाफ तो जो भी विकीलीक्स में पता चला था,वह दुनिया जानती थी लेकिन द हिन्दू अखबार ने आज जो कुछ बीजेपी के बारे में विकीलीक्स के हवाले से छापा है,वह एक अनहोनी है. लोकसभा चुनाव २००९ के नतीजे आने के ठीक पहले नई दिल्ली के अमरीकी दूतावास में चार्ज ड अफ़ेयर्स के रूप में तैनात पीटर बरले,१३ मई २००९ को लाल कृष्ण आडवाणी से मिले थे . मुलाक़ात के बाद उसी दिन उन्होंने एक सन्देश अपनी सरकार के पास अमरीका में भेजा था. उस तार में जो कुछ लिखा है अगर उसे सच माना जाय तो बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी की छवि बहुत ही धूमिल नज़र आयेगी.. अमरीका बहुत चिंतित था कि २००९ के चुनावों के बाद सत्ता पाने की उम्मीद में बैठी बीजेपी और प्रधान मंत्री हासिल करने के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी अगर सफल हो गए तो अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचेगा . अपने सन्देश में चार्ज ड अफ़ेयर्स ने लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बहुत ही शांतचित्त बैठे थे . बात चीत के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी ने भारत-अमरीका परमाणु संधि के बारे में अपनी पार्टी के सख्त रुख को गंभीरता से न लेने की सलाह दी और भरोसा दिलाया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जाती है तो परमाणु समझौते पर फिर से कोई विचार नहीं किया जाएगा . चार्ज ड अफ़ेयर्स ने इस बात को जोर देकर लिखा है कि श्री आडवाणी ने स्वीकार किया कि बीजेपी ने जुलाई २००८ में सार्वजनिक रूप से कहा था कि समझौते से भारत की सामरिक स्वायत्तता कमज़ोर हुई है और सत्ता में आने पर उनकी पार्टी उस संधि का पुनर्परीक्षण करेगी. चार्ज ड अफ़ेयर्स का दावा है कि लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ़ कहा कि वह बयान देश की आन्तरिक राजनीति की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर दिया गया था. सत्ता में आने पर बीजेपी ऐसा कुछ नहीं करेगी. लाल कृष्ण आडवाणी का यह बयान अगर यह सच है तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण है . क्योंकि आडवाणी साफ़ साफ़ यह कह रहे हैं कि परमाणु संधि का जो भी विरोध किया गया था, वह पब्लिक के लिए था . ऐसा भी नहीं है कि श्री आडवाणी यह बात यूं ही कह रहे थे . अपने तर्क की गंभीरता को उन्होंने ऐतिहासिक सन्दर्भों से पुष्ट भी किया .उन्होंने कहा कि ऐसा उनकी पार्टी पहले भी कर चुकी है . श्री आडवाणी ने ख़ास तौर से १९७२ के इंदिरा गाँधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच हुए शिमला समझौते का उल्लेख किया और कहा कि समझौते के बाद उनकी तत्कालीन पार्टी ( भारतीय जनसंघ ) ने पब्लिक की नज़र में समझौते का विरोध किया था लेकिन जब सत्ता में आई तो उसका पूरी तरह से पालन किया गया .



यहाँ यह समझ लेना ज़रूरी है कि लाल कृष्ण आडवाणी का बयान उनका कोई निजी बयान नहीं है . वास्तव में वह उनकी पार्टी की नीति पर आधारित बयान है . विकीलीक्स के एक अन्य सन्देश के हवाले से यह बात समझी जा सकती है . बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एक अहम बैठक २६ और २७ दिसंबर २००५ को मुंबई में हुई थी जहां यू पी ए सरकार की सख्त आलोचना की गई थी और कहा गया था कि उसने ऐसी विदेश नीति अपनाई है जो भारत को अमरीका का गुलाम बना देगी . लेकिन इस प्रस्ताव को पास करने के तुरंत बाद ही बीजेपी के नेताओं ने अमरीकी दूतावास में तैनात अफसरों को बताना शुरू कर दिया कि घबडाने के कोई बात नहीं है क्योंकि यह बयान यू पी ए के खिलाफ जनता की नज़र में ऊंचा उठने के लिए दिया गया है . सच्चाई यह है कि जहां तक अमरीका का सवाल है कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों में कोई फ़र्क़ नहीं है . उस वक़्त के नई दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ आफ मिशन, राबर्ट ब्लेक ने २८ दिसंबर २००५ के दिन अपनी सरकार को भेजे गए सन्देश में साफ़ लिखा है कि २८ दिसंबर को ही उनके साथ एक निजी बातचीत में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्रि चारी ने कहा कि विदेशनीति वाले प्रस्ताव को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. खासकर वे बातें तो बिलकुल गंभीरता से न ली जायें जहां अमरीका के खिलाफ टिप्पणी की गयी है .उन्होंने यह भी कहा कि भारत में अमरीका विरोध का आम तौर पर माहौल रहता है ,इसलिए जनता को ध्यान में रख कर इस तरह के बयान दिए जाते हैं . इसका मतलब यह है कि बीजेपी वाले भारत की जनता को कुछ कहते हैं लेकिन उनकी मंशा कुछ और रहती है . रिचर्ड ब्लेक ने बीजेपी के इरादों का विश्लेषण भी किया है . उन्होंने अपने सन्देश में लिखा है कि बीजेपी के प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने भी इन स्पष्ट किया कि भारत-अमरीका संबंधों के बारे में बीजेपी को कोई एतराज़ नहीं है . उनका विचार है कि बीजेपी की राजनीतिक लाइन यू पी ए का विरोध करने की है . वैसे बीजेपी के नेताओं को मालूम है कि अमरीका में उनकी इतनी इज़्ज़त है कि अगर वे सार्वजनिक रूप से अमरीका के खिलाफ भी बयान देगें तो अमरीका बुरा नहीं मानेगा. तो यह है बीजेपी की अमरीका विरोध की सच्चाई . ज़ाहिर है इन मामलों के सार्वजनिक होने के बाद देश की जनता बीजेपी की बातों को गंभीरता से नहीं लेगी.

Monday, January 10, 2011

बीजेपी ने सोनिया गाँधी को मुद्दा बनाया

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में १९६७ के चुनाव में बीजेपी के पूर्व अवतार,जनसंघ ने मजबूती से चुनाव लड़ा था.इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी जीत गयी थी लेकिन थोड़ी सम्मानजनक सीटें मिल गयी थी. मेरे गाँव में भी १९६७ के चुनाव में जनसंघ का जोर था. पूरे गाँव ने जनसंघ को वोट दिया था लेकिन जब नतीजे आये तो उम्मीदवार हार गया ,कांग्रेस वाला जीत गया था . मेरे गाँव में हर आदमी हतप्रभ था कि जब पूरी आबादी जनसंघ को वोट दे रही है तो हारने का क्या मतलब है .जनसंघ की हनक भी इतनी थी कि आसपास के गाँवों के लोग डर के मारे यही कहते थे कि उनके गाँव में भी जनसंघ के चुनाव निशान दीपक पर ही वोट पड़ा था. लेकिन सच्चाई यह थी कि हमारे गाँव के बाहर के गाँवों के लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था. पूरे जिले में कांग्रेस को ही वोट मिला था और कांग्रेस लगभग सभी सीटों पर जीत गयी थी . मैं बहुत परेशान था और मेरे गाँव के भगेलू सिंह ने जब जनसंघ के उम्मीदवार के घर से लौट कर बताया कि कांग्रेसियों ने बक्सा बदल दिया तो हमारे गाँव में सबने विश्वास कर लिया था . १९७१ में जब इंदिरा गाँधी की पार्टी को भारी बहुमत मिला तो मेरे गाँव में भगेलू सिंह के समर्थकों ने साफ़ ऐलान कर दिया कि बक्सा बदल गया है .हालांकि तब तक कुछ और पढ़े लिखे लोग गाँव में पैदा हो चुके थे और उन्होंने कहा कि बक्सा नहीं बदला गया बल्कि अखबार में छपा था कि उस वक़्त के जनसंघ के बड़े नेता , बलराज मधोक ने कहा है कि कांग्रेस ने बैलट पेपर के ऊपर ऐसा केमिकल लगवा दिया था कि मोहर कहीं भी लगाओ निशान गाय बछड़े पर ही बन रहा था जो इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव निशान था.बहरहाल जो भी हो कांग्रेस की जीत में बेईमानी का योगदान मुकम्मल तौर पर माना जाता था . हमारे गाँव में कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि जनसंघ जैसी अच्छी पार्टी को छोड़कर कोई किसी अन्य पार्टी को वोट दे सकता था..धीरे धीरे लोगों की समझ में आया कि एक गाँव के वोट से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बाकी गाँवों में भी लोग रहते हैं और वोट देते हैं. हमारे गाँव वालों की समझ में यह बात तो बहुत पहले आ गयी लेकिन जनसंघ/बीजेपी के नेताओं की समझ में यह बात अभी तक नहीं आई है कि लोग उनके अलावा किसी और को वोट कैसे दे सकते हैं . शायद इसी मानसिकता से पीड़ित होकर गुवाहाटी में जमा हुये बीजेपी नेताओं ने बोफोर्स तोप के सौदे को एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है . उन्हें लगता है कि जब बोफोर्स जैसा मुद्दा मौजूद है तो और किसी बात पर क्यों ध्यान दिया जाय . अब जब आम आदमी के दिमाग में बैठ गया है कि कामनवेल्थ और २ जी के घोटाले में कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों ही शामिल हैं,तो बीजेपी उससे बचने की कोशिश कर रही है . प्याज की बढ़ी हुई कीमतें भी अच्छा मुद्दा थीं लेकिन अब ज़खीरेबाज़ों की धर पकड़ में तो बीजेपी वाले ही फंस रहे हैं .इसलिए कुल मिला कर बीजेपी को भ्रष्टाचार का एक मुद्ददा मिल रहा है जिसमें उसके लोग बिलकुल शामिल नहीं हैं और वह है , बोफोर्स वाला . लेकिन सवाल यह उठता है कि आज २५ साल बाद तक बोफोर्स मुद्दा चल पायेगा क्या? ख़ास तौर पर जब बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के घूस के बदले जब बीजेपी के नेताओं ने अपनी सरकार के दौरान सैकड़ों करोड़ की हेराफेरी की हो . वैसे भी जानकार बताते हैं कि १९८९ के चुनाव में बीजेपी की सीटें बोफोर्स के चक्कर में नहीं बढीं थीं . हिंदुत्व के नारे ने काम किया था, बोफोर्स तो मरीचिका ही था . वैसे भी बाद के वर्षों में बोफोर्स केवल बीजेपी के नेताओं के दरबारों में मुद्दा रहा देश ने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया .लेकिन गुवाहाटी में तो बीजेपी के नागपुरी अध्यक्ष ने न केवल बोफोर्स को मुद्दा बनाने का ऐलान किया बल्कि सोनिया गाँधी के परिवार को मीडिया के फोकस में रखने का भी फैसला कर दिया . यह क़दम उतना ही अजीब है जितना जनता पार्टी के राज में चौधरी चरण सिंह का इंदिरा गाँधी को गिरफतार करने का फैसला था . इंदिरा गाँधी को देश ने १९७७ में दुत्कार दिया था लेकिन केंद्र सरकार की उस मूर्खतापूर्ण कारवाई के बाद जब इंदिरा गाँधी अखबारों के पहले पन्ने पर आयीं तो कभी हटी ही नहीं .इस तरह १९७७ में जनता ने जो बाज़ी जीती थी उसे उस दौर के गैर कांग्रेसी नेताओं ने हार में बदल दिया . बीजेपी के गुवाहाटी के फैसले से भी लगता है कि अब रोज़ ही इनकी प्रेस कानफरेंस में सोनिया गाँधी छायी रहेगीं और उन्हें ही सारा मीडिया कवर करने को मजबूर होगा. बीजेपी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है उसे इस तरह के गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण से बच कर रहना चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिये कि भ्रष्टाचार ही मुद्दा बना रहे , कोई परिवार मुद्दा न बन बान जाए . बीजेपी के इस काम से आम आदमी की सत्ता को बदल देने की इच्छा प्रभावित होती है.

Tuesday, December 28, 2010

राडिया के जाल में फंसी बीजेपी को बचाने के लिए तैयार नहीं हैं मुरली मनोहर जोशी

शेष नारायण सिंह

राडिया की कृपा से २ जी स्पेक्ट्रम के इंद्रधनुष में रोज़ ही नए रंग हावी होने लगे हैं . राडिया के ताज़ा शिकार पूर्व उड्डयन मंत्री ,अनंत कुमार बन गए हैं .यह अलग बात है कि राडिया जी के मूल मित्र वही हैं लेकिन उनके कारनामों के बारे में जानकारी बाद में पब्लिक के सामने आई. खैर अब तो सारा मामला खुल चुका है . जब राडिया के एक पूर्व मित्र का दावा सार्वजनिक हुआ कि अनंत कुमार जी ने राडिया देवी को मंत्रिमंडल के गुप्त दस्तावेज़ भी थमा दिए थे, तो बीजेपी में उनके मित्रों की हालात देखने लायक थी. बेचारों ने घबडाहट में ऐसे बयान दे दिए जो अनंत कुमार पर लगे आरोपों को पुष्ट करते थे. मसलन , अनंत जी के मित्र और बीजेपी के एक आला नेता ने कहा कि अनंत कुमार ने राडिया को कोई ज़मीन नहीं अलाट की . हम भी जानते हैं कि पर्यटन और नागरिक उड्डयन मंत्री ,ज़मीन अलाट नहीं करता ,वह तो ज़मीन को अलाट करवाने में मदद करता है . उन नेता जी बताया कि गृहमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी ने किसी ऐसे ट्रस्ट की बिल्डिंग का शिलान्यास नहीं किया जिसकी अध्यक्ष नीरा राडिया हैं . हाँ किसी स्वामी के किसी मठ का शिलान्यास करने वे ज़रूर गए थे . ठीक है. बहुत सारे संगठन ऐसे होते हैं जिसका मालिक उसका अध्यक्ष नहीं होता. उन नेता जी से जनता की अपील यह है कि बस इतना बता दें कि इन स्वामी जी से अनंत जी और राडिया जी के क्या सम्बन्ध हैं . कुल मिलाकर राडिया जी के सारे खेल के केंद्र में अब अनंत कुमार जी ही मौजूद पाए जा रहे हैं . २ जी स्पेक्ट्रम का पूरा केस राडिया के इर्द गिर्द ही बुना गया था . अब जब ए राजा और अनंत कुमार एक ही अखाड़े के पहलवान के रूप में पहचाने जाने लगे हैं तो जो हमला ए राजा पर होगा ,वह निश्चित रूप से अनंत कुमार को लपेटे में लेगा . कुल मिलाकर बीजेपी की उस कोशिश में ब्रेक लग गया है जिसके तहत वे यू पी ए को घेरने के चक्कर में थे .जो कुछ कसर बाकी रह गयी थी उसे संसद भवन के अन्दर एक प्रेस कानफरेंस करके डॉ मुरली मनोहर जोशी ने पूरी कर दी और जेपीसी की मांग की हवा निकाल दी. उन्होंने बीजेपी को जो सबसे बड़ी चोट दी ,वह थी एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रूपये के २ स्पेक्ट्रम घोटाले की हेडलाइन ही बदल दी. उन्होंने बाआवाज़ेबुलंद बताया कि यह घाटा एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ रूपये का भी हो सकता है और सत्तावन हज़ार करोड़ रूपये का भी हो सकता है . उसकी जांच की जायेगी और जांच पी ए सी ही करेगी. दूसरी बात जो सबसे दिलचस्प है वह यह कि पी ए सी का काम केवल हिसाब किताब की जांच करना नहीं है ,डॉ जोशी ने बताया कि पी ए सी के पास पूरी टेलीकाम पालिसी की जांच करने का अधिकार है .उन्होंने साफ़ कहा कि अगर ज़रूरी हुआ तो एन डी ए के शासन काल के दौरान हुए काम की जांच भी की जा सकती है. ज़ाहिर है कि इस लपेट में अरुण शोरी और प्रमोद महाजन का काम भी आ जाएगा और जब राडिया वहां भी सक्रिय थीं, तो हेराफेरी ज़रूर हुई होगी.जेपीसी के पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे थे उनमें एक यह भी था कि प्रधान मंत्री और मंत्रियों से पूछ ताछ करने का वही सबसे अच्छा फोरम है . डॉ जोशी ने साफ़ कह दिया कि प्रधान मंत्री ने तो चिट्ठी लिख कर पी ए सी के सामने हाज़िर होने का अपना प्रस्ताव भेज ही दिया है ,पी ए सी के अधिकार में है कि अगर वह चाहे तो मंत्रियों को भी तलब कर सकती है . डॉ जोशी की पत्रकार वार्ता में मौजूद कुछ पत्रकारों ने जब पूछा कि क्या वे प्रधान मंत्री को समन करने जा रहे हैं तो उन्होंने लगभग झिडकते हुए कहा कि समन करने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि अब तो प्रधान मंत्री ने खुद ही हाज़िर होने की पेशकश कर दी है . यानी बीजेपी की वह इच्छा बी पूरी नहीं होने वाली है जिसमें वे प्रधान मंत्री को समन भेजकर तलब करने वाले थे. डॉ जोशी के बयानों से साफ़ है कि पी ए सी उन सभी बिन्दुओं की जांच कर सकती है जिनके लिए पी ए सी के गठन की बात की जा रही है . जानकार बताते हैं कि पी ए सी के पास जेपीसी से ज्यादा ताक़त है क्योंकि उसका अध्यक्ष विपक्ष का होता है जबकि जेपीसी का अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी का ही होगा.
बीजेपी के सिर राडिया के चक्कर में दूसरी मुसीबत भी आने वाली है .केंद्र में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने ने कहा कि " केंद्र सरकार इस बात की जांच करेगी कि क्या अनंत कुमार ने एन डी ए के शासनकाल के दौरान नागर उड्डयन मंत्री रहते हुए नीरा राडिया को किसी फैसले के बारे में जानकारी दी थी. अगर ऐसा किया है तो सरकारी जानकारियों को इस तरह सार्वजनिक कार्य राजद्रोह की श्रेणी में आता है."यानी अब मामला उलट कर बीजेपी के ही दरवाज़े पर पंहुच गया है और राडिया के चक्कर में फंस चुकी बीजेपी की कोशिश है कि किसी तरह इन राडिया जी से जान छूटे . इन कोशिशों को भारी झटका लगा है . जहां तक प्रोफ़ेसर मुरली मनोहर जोशी का सवाल है ,उनको वह दर्द नहीं भूला होगा जब आडवाणी गुट के लोगों ने डॉ जोशी को बीजेपी अध्यक्ष के रूप में चैन से नहीं बैठने दिया था. आज भी अगर बीजेपी को राजनीतिक फायदा होगा तो उसका लाभ दिल्ली में बैठे बीजेपी वालों को होगा जो आडवाणी गुट के बड़े नेता हैं . ज़ाहिर है जोशी जी भी इन लोगों के फायदे के लिए कोई भी गलत काम नहीं करेगें .वैसे भी वे आम तौर पर राजनीति लाभ के लिए उलटे सीधे काम नहीं करते.

Saturday, December 25, 2010

भ्रष्टाचार के मैदान में बीजेपी और कांग्रेस बराबर के वीर हैं ,मैडम राडिया से पूछो

शेष नारायण सिंह

भारतीय जनता पार्टी की पूरी कोशिश है कि अपने ख़ास लोगों, नीरा राडिया और बी एस येदुरप्पा का कोई भी नुक्सान न होने पाए .बीजेपी की यह अदा मुझे बहुत पसंद आ गयी. कर्नाटक के राज्यपाल ने जब बीजेपी के नेता और मुख्य मंत्री को भ्रष्टाचार की ऐसी गलियों में घेर लिया जहां उनके बचने की संभावना बहुत कम रह गयी तो , बीजेपी ने अपनी वही पुरानी वाली चाल चल दी. बेंगलूरू में चर्चा है कि राज्यपाल हटाओ वाला खेल लगा दिया जाएगा . इसके पहले बीजेपी यह काम कई बार कर चुकी है . जब स्पेक्ट्रम घोटाले में बीजेपी के नेता ही फंसने लगे और सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ ऐलान कर दिया कि स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच २००१ से होगी तो बीजेपी वालों ने कहा कि उसे बाद में देख लेगें ,अभी तो फिलहाल मनमोहन सिंह को धमका कर भागने को मजबूर करते हैं .ज़ाहिर है कि २००१ से जांच होने पर प्रमोद महाजन के अलावा अरुण शोरी , अनंत कुमार और रंजन भट्टाचार्य के नाम भी उछ्लेगें . शायद इसीलिये स्पेक्ट्रम राजा के नाम से कुख्यात पूर्व संचार मंत्री के खिलाफ उनके सुर भी थोड़े पतले पड़ रहे हैं क्यों कि अब पता चल चुका है कि स्पेक्ट्रम राजा के गैंग की सबसे बड़ी लठैत , नीरा राडिया के तो मूल सम्बन्ध बीजेपी वालों से ही हैं .आज एक अखबार में खबर छपी है कि नीरा रादिया ने बीजेपी की वाजपेयी सरकार के दौर में नागरिक उड्डयन विभाग के बारे में बहुत सारी इकठ्ठा की थी और उसको अपने विदेशी मुवक्किलों को बेचा था . जानकार बताते हैं कि जब नीरा राडिया पर शिकंजा कसने लगा तो उसने ही बीजेपी में अपने लोगों को आगे कर दिया कि अब इस सरकार को गिराने का वक़्त आ गया है . वास्तव में सारा घोटाला तो नीरा राडिया के फोन टेप होने से जुडा हुआ है . राजा तो एक बहाना है . यहाँ यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि राजा पाक साफ़ है . माननीय राजी जी तो चोरकट हैं ही . नामी अखबार " हिन्दू " में राजा और प्रधान मंत्री के पत्र छपने के बाद साफ़ हो गया है कि राजा ने खेल लम्बा किया था . आजकल बीजेपी के आन्दोलन की दिशा बिलकुल मुड़ गयी है . अब बीजेपी वाले राजा का नाम नहीं ले रहे हैं . अब निशाने पर प्रधान मंत्री हैं . अखबार के पर्दा फाश से साफ़ हो चुका है कि राडिया के सबसे ख़ास दोस्त बीजेपी के नेता अनंत कुमार हैं ,जबकि आडवाणी गुट के बाकी लोग भी राडिया के पक्ष में काम कर चुके हैं . आज अखबार में छपी सूचना से पता चला है कि आडवाणी ने गृहमंत्री के रूप में राडिया के दरबार में हाजिरी लगाई थी . अब बीजेपी वाले कहते हैं कि वह रादिया नहीं, किसी स्वामी जी का कार्यक्रम था. मामला अगर इतना गंभीर है तो यह पक्का है कि बीजेपी वाले राडिया गैंग का कोई नुकसान नहीं होने देगें . इसी अखबार ने दावा किया है कि राडिया ने पहले महाराष्ट्र सरकार में भी बड़े काम करवाए थे जब नितिन गडकरी वहां मंत्री थे. इसलिए अब रहस्य से पर्दा उठ रहा है कि बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व सारा खेल राडिया को बचाने के लिए कर रहा है . और बीजेपी की जांची परखी रणनीति भी सामने आ रही है कि अगर कोई प्रधान मंत्री या कोई अन्य बड़ा नेता बीजेपी की मर्जी के खिलाफ कोई काम करेगा तो उसके खिलाफ अभियान इतना तेज़ कर दिया जाएगा कि वह खुद मुश्किल में पड़ जाएगा .यह काम बीजेपी के आला नेता पहले भी कर चुके हैं . जब प्रधान मंत्री के रूप में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं तो बीजेपी ने उन्हें पैदल करने का मन बना लिया . लेकिन ऐलानियाँ मंडल का विरोध करने की हिम्मत नहीं थी , तो मंदिर के नाम पर आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की साम्प्रदायिक यात्रा कर दी. विश्वनाथ प्रताप सिंह कहीं के नहीं रह गए. जब मुलायम सिंह यादव मज़बूत पड़ने लगे और पिछड़ों के नेता बनने के ढर्रे पर चल निकले तो मायावती और कांशी राम को ललकार कर उनको पैदल कर दिया .विश्वनाथ प्रताप सिंह वाले खेल में तो बहुत ही अजीब तथ्य सामने आये . राम विलास पासवान और शरद यादव ने वी पी सिंह को घेर कर इमोशनल ब्लैकमेल के ज़रिये मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करवाईं थीं , बाद में यह दोनों ही बीजे पी के बहुत ख़ास हो गए, वी पी सिंह अपनी बाकी ज़िंदगी कमंडल के घाव चाटते रहे. इस बार भी यही लग रहा है कि नीरा राडिया और उसके गैंग को बचाने के लिए बीजेपी का आला नेतृत्व कुछ भी करेगा जबकि कर्नाटक में बी एस येदुरप्पा को बचाने के लिए भी वही तरीका अपनाया जा रहा है जिसका इस्तेमाल करके राडिया को बचाया जाने वाला है . वहां भी हंसराज भरद्वाज को हटाने का अभियान चल चुका है. बस बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि इस बार मुकाबला विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे कमज़ोर आदमी से नहीं है . मुकाबले में सोनिया गाँधी की राजनीतिक कुशलता खडी है जिसने बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व के कई बहादुरों को पैदल किया है

Monday, December 20, 2010

कांग्रेस ने बीजेपी को भ्रष्ट और साम्प्रदायिक साबित करने का मंसूबा बनाया

शेष नारायण सिंह

भारतीय राजनीति बहुत बड़े पैमाने पर करवट लेने वाली है. कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में सोनिया गाँधी ने जिस तरह से भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता पर हमला बोला है वह अगले कुछ दिनों में राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल देगा. भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका पांच सूत्रीय कार्यक्रम कांग्रेसियों को ईमानदार तो नहीं बना देगा लेकिन आलोचना का डर ज़रूर पैदा कर देगा. सोनिया गाँधी के भ्रष्टाचार विरोधी भाषण के केंद्र में बीजेपी की कर्नाटक इकाई है . बीजेपी के बड़े नेताओं को मालूम है कि अगर वे भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिरे हुए बी एस येदुरप्पा को पैदल करेगें तो उनकी कर्नाटक इकाई भंग हो जायेगी क्योंकि येदुरप्पा बगावत कर देगें और अपनी नयी पार्टी बना लेगें . पिछली बार जब दिल्ली वालों ने उन्हें हटाने की कोशिश की थी तो यदुरप्पा ने साफ़ बता दिया था कि वे बीजेपी को ख़त्म कर देगें. बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता ने उन दिनों बयान दिया था कि कर्नाटक में कथित रूप से भ्रष्ट येदुरप्पा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी क्योंकि उसके बाद उनकी पार्टी की औकात वहां शून्य हो जायेगी. यह बात बाकी लोगों के साथ साथ सोनिया गाँधी को भी मालूम है . इसीलिये उनका भ्रष्टाचार वाला भाषण पूरी तरह से कर्नाटक केन्द्रित था. अगर कर्नाटक में बीजेपी ख़त्म होती है तो उसका सीधा फायदा वहां कांग्रेस को होगा . वैसे भी सोनिया गाँधी का भ्रष्टाचार के खिलाफ रुख हमेशा डायरेक्ट रहता है . उन्हें मालूम है कि वे खुद ,मनमोहन सिंह और राहुल गाँधी को किसी भी भ्रष्टाचार के मामले में कोई नहीं पकड़ सकता .बाकी कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसको हटा देने से कांग्रेस का कुछ बिगड़ने वाला है . इसलिए जिसके खिलाफ भी भ्रष्टाचार की चर्चा हो रही है उसको वे बाहर कर दे रही हैं . यह सुख बीजेपी वालों के पास नहीं है . उनके कई ऐसे नेता भ्रष्टाचार के जाल में हैं जिनको अगर निकाल दिया जाय तो पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. बड़ी मुश्किल से बीजेपी के हाथ २जी स्पेक्ट्रम वाला मामला आया था लेकिन हालात ऐसे बने कि अब उसकी जांच २००१ से शुरू हो रही है . इसका भावार्थ यह हुआ कि अगले दो वर्षों तक बीजेपी के राज में संचार मंत्री रहे पार्टी के नेताओं अरुण शोरी और स्व प्रमोद महाजन के कार्यकाल के भ्रष्टाचार मीडिया को लीक किये जायेगें और बीजेपी के प्रवक्ता लोग कोई जवाब नहीं दे पायेगें. तब तक तो बीजेपी को कांग्रेस और मीडिया में उसके साथी महाभ्रष्ट के रूप में पेश कर चुके होंगें. लुब्बो लुबाब यह है कि राजनीति के मैदान में सोनिया गाँधी का बुराड़ी भाषण जो धमक पैदा करने जा रहा है, उसका असर दूर तलक महसूस किया जाएगा.

लेकिन बुराड़ी का असल सन्देश यह नहीं है . भ्रष्टाचार के खेल में बीजे पी ने कांग्रेस को घेरने की रणनीति के सहारे विपक्षी एकता को पुख्ता करने की कोशिश की थी, बुराड़ी लाइन ने उसे तहस नहस कर दिया है . अब अगर बीजेपी येदुरप्पा को नहीं हटाती तो शरद यादव जैसे वफादार के लिए भी बीजेपी के साथ खड़े रह पाना बहुत मुश्किल होगा . इस भाषण ने भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बना सकने की बीजेपी की ताक़त को ख़त्म कर दिया है क्योंकि जिस तरह से राजनीतिक शतरंज की गोटें बिछ रही हैं ,उसके बाद बीजेपी को दुनिया कांग्रेस से ज्यादा भ्रष्ट मानना शुरू कर देगी.बुराड़ी का असल सन्देश यह है कि सोनिया गाँधी ने साम्प्रदायिकता के मैदान में बीजेपी को चुनौती दी है . राहुल गाँधी के विकीलीक्स रहस्योद्घाटन के बाद जिस तरह से बीजेपी वाले टूट पड़े थे , उस खेल को बुराड़ी ने बिलकुल नाकाम कर दिया है . सोनिया गाँधी ने बिना नाम लिए आर एस एस की साम्प्रदायिकता और उस से जुड़े आतंकवाद को बेनकाब करने के अभियान की शुरुआत कर दी है . इस राजनीतिक सन्देश की बात दूर तलक जायेगी. जो बात सोनिया गाँधी ने नहीं कही उसे दिग्विजय सिंह ने पूरा कर दिया . उन्होंने साफ़ कह दिया कि आर एस एस की विचारधारा हिटलर वाली है . जैसे हिटलर ने यहूदियों को ख़त्म करने की राजनीति की थी ,ठीक उसी तरह आर एस एस भी मुसलमानों को ख़त्म करने की योजना पर काम कर रहा है . बुराड़ी का यह सन्देश बीजेपी के लिए भारी मुश्किल पैदा कर देगा . इसमें दो राय नहीं है कि आर एस एस की विचारधारा पूरी तरह से हिटलर की लाइन पर आधारित है . १९३७ में आर एस एस के दूसरे सर संघचालक , गोलवलकर ने एक किताब लिखकर हिटलर की तारीफ़ की थी .गोलवलकर की किताब ,वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड , में हिटलर और उसकी राजनीति को महान बताया गया है . बीजेपी और आर एस एस के मौजूदा नेता कहते हैं कि बीजेपी ने वह किताब वापस ले ली है लेकिन इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता . वैसे भी जिस हिंदुत्व की बात आर एस एस करता है ,वह हिन्दू धर्म नहीं है . हिंदुत्व वास्तव में सावरकर की राजनीतिक विचारधारा है जिसके आधार पर नागपुर में १९२५ में आर एस एस की स्थापना की गयी थी . यह विचारधारा इटली के चिन्तक माज़िनी की सोच पर आधारित है जिसके आधार पर इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने राजनीतिक अभियान चलाया था . उसी विचारधारा को संघी विचारधारा बताकर दिग्विजय सिंह ने बीजेपी और संघी राजनीति के अन्य समर्थकों को आइना दिखाया है . बुराड़ी में सोनिया गाँधी के भाषण का नतीजा यह होगा कि अब साम्प्रदायिकता के मसले पर दिग्विजय सिंह की लाइन को कांग्रेस की आफिशियल लाइन बना दिया गया जाएगा .

एक बात और ऐतिहासिक रूप से सत्य है . वह यह कि जब भी कांग्रेस आर एस एस के खिलाफ हमलावर होती है उसे राजनीतिक सफलता मिलती है . महात्मा गाँधी की हत्या और उसमें आर एस एस के नेताओं की गिरफ्तारी के बाद नेहरू-पटेल की कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया था .नतीजा यह हुआ कि १९६२ तक कांग्रेस की ताक़त मज़बूत बनी रही. नेहरू की मृत्यु के बाद साम्प्रदायिकता के खिलाफ अभियान कुछ ढीला पड़ गया था .नतीजा यह हुआ कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस १९६७ का चुनाव हार गयी थी . जब १९६९ में कांग्रेस के तो टुकड़े हुए तो दक्षिण पंथी और साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ इंदिरा गांधी ने ज़बरदस्त हमला बोला और १९७१ में भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुईं . १९७४ में जब उनका बिगडैल बेटा संजय गाँधी राजनीति में आया तो उसने भी साफ्ट हिंदुत्व की लाइन शुरू कर दी और १९७७ में कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी. इंदिरा गाँधी ने १९७७ से लेकर १९७९ तक साम्प्रद्यिकता के खिलाफ अभियान चलाया और १९८० में दुबारा सत्ता में आ गयीं . लगता है कि इस बार भी सोनिया गांधी को सही सलाह मिल रही है और वे आर एस एस -बीजेपी को राजनीतिक रूप से ख़त्म करने की रणनीति पर काम कर रही हैं . ज़ाहिर है आने वाला वक़्त राजनीतिक विश्लेषकों के लिए बहुत ही दिलचस्प होने वाला है

Wednesday, December 15, 2010

मध्य प्रदेश में सरकारी स्कीमों का फायदा लेने वालों को बीजेपी में भर्ती किया जाएगा

शेष नारायण सिंह

मध्य प्रदेश में बीजेपी का सदस्यता अभियान जोर शोर से चल रहा है . हर जिले में पार्टी के कार्यकर्ता ऐसे लोगों को तलाश रहे हैं जो पार्टी की सदस्यता स्वीकार कर लें और राज्य में बीजेपी का बहुत ही मज़बूत जनाधार बन जाय.इसके लिए बीजेपी ने जो तरीका अपनाया है वह लोकतंत्र के बुनियादी नियमों के खिलाफ है.एक बहुत ही सम्मानित अखबार में छपा है कि बीजेपी के जिला स्तर के कार्यकर्ता उन लोगों की लिस्ट लेकर घूम रहे हैं जिन्हें केंद्र और राज्य सरकार की स्कीमों से फायदा मिला है. ग्वालियर जिले में बीजेपी के एक नेता ने बताया कि जिन लोगों की लिस्ट बनायी गयी है ,उन्हें मजबूर नहीं किया जा रहा है . उनसे निवेदन किया जा रहा है कि बीजेपी बहुत अच्छी पार्टी है और उसका सदस्य बनने से बहुत लाभ होगा . उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों की सामाजिक संरचना को समझने वाले जानते हैं कि इस निवेदन का क्या भावार्थ है . एक उदाहरण से बात को समझने की कोशिश की जायेगी . एक बार उत्तर प्रदेश पुलिस का शिष्टाचार सप्ताह मनाया गया था .ऊपर से आदेश दिया गया कि सभी पुलिस वाले किसी को भी श्रीमान जी कहकर संबोधित करेगें और डांट फटकार की भाषा में किसी को संबोधित नहीं करेगें . थाने में तैनात सिपाहियों ने लोगों से बदतमीजी करना तो जारी रखा लेकिन संबोधन श्रीमान जी का ही होता था . मसलन जब किसी रिक्शे वाले को बिना अकिराया दिए कहेने ले जाना होता था तो उसे श्रीमानजी कहकर ही संबोधित किया जाता था . सरकारी पार्टी के निवेदन को भी इस हवाले से समझने में आसानी होगी.
सरकारी स्कीमों के लाभार्थियों की लिस्ट में से दस लाख लोगों को बीजेपी का सदस्य बनाने का लक्ष्य लेकर चल रहे बीजेपी के जिला स्तर के कार्यकर्ताओं में बहुत उत्साह है .पार्टी को भरोसा है कि २०१३ में जब विधान सभा के चुनाव होंगें तो इन दस लाख कार्यकर्ताओं की मदद से विपक्षी कांग्रेस के लिए मुश्किल पैदा हो जायेगी. मध्य प्रदेश में सरकार की बहुत सारी स्कीमें हैं. लाडली लक्ष्मी , मुख्यमंत्री कन्यादान ,जननी सुरक्षा आदि ऐसी स्कीमें हैं जिनकी वजह से ग्रामीण इलाकों के लोग सरकार के अहसानमंद हैं और सरकार चलाने वाली पार्टी उसी एहसान के बदले लोगों को अपनी पार्टी में भर्ती कर रही है . भारत के ग्रामीण इलाकों में लडकी की शादी जैसी जिम्मेवारी हर माता पिता के लिए एक ऐसी ज़िम्मेवारी होती है जिसमें मदद करने वालों का अहसान सभी मानते हैं . शिवराज सिंह सरकार की उस अहसान के बदले लोगों को पार्टी में शामिल करने की मुहिम से निश्चित रूप से बड़ी संख्या में लोग पार्टी में शामिल होंगें लेकिन सरकारी स्कीमों के सहारे और उनका अपने हित में इस्तेमाल करके लोगों को साथ लेना निश्चित रूप से सही राजनीतिक आचरण नहीं है . हालांकि इसमें कानूनी तौर पर कोई गलती नहीं निकाली जा सकती क्योंकि सदस्यता अभियान में किसी सरकारी कर्मचारी का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है लेकिन बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को इन सवालों का जवाब देना होगा . वैसे इस तरह के कुराजनीतिक आचरण को रोकने का ज़िम्मा तो मुख्य रूप से मध्य प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी का है लेकिन मध्य प्रदेश कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि वहां के ज्यादातर कांग्रेसी नेता राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हैं . उनके पास राज्य के लिए समय नहीं है. बीजेपी का यह अभियान जिन जिलों में चल रहा है उसमें ग्वालियर प्रमुख है लेकिन ग्वालियर से कांग्रेस की अगुवाई करने वाले लोग सामंत हैं और पिछले डेढ़ सौ वर्षों से दिल्ली में राज करने वालों की वफादारी के बल पर सत्ता में बने रहते हैं .ज़ाहिर है उनकी राजनीति का मुख्य आधार ग्वालियर की जनता नहीं, दिल्ली और कलकत्ता में राज करने वाले लोग रहते हैं . इसी तरह से एक मामूली रियासत के राजा भी हैं जो मध्य प्रदेश कांग्रेस में शीर्ष तक पंहुच कर आजकल बीमारी की हालत में पड़े हुए हैं . उनेक परिवार के लोग वफादारी के इनाम के चक्कर में दिल्ली दरबार में हमेशा सक्रिय रहते हैं . इन बीमार सामंती कांग्रेसी नेता के एक शिष्य आजकल राष्ट्रीय राजनीति में इतने तल्लीन हैं कि उन्हें मध्य प्रदेश की चिंता ही नहीं है . ऐसी हालत में बीजेपी नेतृत्व का गैर लोकतांत्रिक तरीकों से सदस्यता अभियान चलाने के काम को बेलगाम छोड़ दिया गया है जिस से लोकशाही के निजाम को पक्के तौर पर नुकसान होगा .बीजेपी वाले मौजूदा सदस्यता अभियान के बाद इंदौर में 'नवीन कार्यकर्ता सम्मान समारोह' का आयोजन करेगें जिसके बाद कांग्रेस के लोग हाथ मलते रह जायेगें और लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों पर एक और कुठाराघात हो चुका होगा

Friday, December 10, 2010

सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए शासक वर्ग ने टाटा को मैदान में उतारा

शेष नारायण सिंह

टेलीकाम घोटाले ने सुखराम युग की याद ताज़ा कर दी .उस बार भी करीब ३७ दिन तक बीजेपी ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दिया था. पी वी नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे और सुखराम ने हिमाचल फ्यूचरिस्टिक नाम की किसी कंपनी को नाजायज़ लाभ पंहुचा कर हेराफेरी की थी. बाद में वही सुखराम बीजेपी के आदरणीय सदस्य बन गए थे . आज भी जब बीजेपी के नेताओं की पत्रकार वार्ताओं में सुखराम शब्द का ज़िक्र आता है ,वे खिसिया जाते हैं . लगता है कि मौजूदा टेलीकाम घोटाले के बाद भी बीजीपी का वही हाल होने वाला है . क्योंकि १९९९ से लेकर २००४ तक बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार की आँखों के तारे रहे रतन टाटा ने बीजेपी की पोल खोलने का काम शुरू कर दिया है . अपने मुल्क में टाटा को बहुत ही पवित्र पूंजीपति मानने का फैशन है . बीजेपी वालों ने भी अब तक टाटा को बहुत ही पवित्र आत्मा बताने की बार बार कोशिश की है . आज भी आरोप लगाया जाता है कि कि बीजेपी की सरकार ने विदेश सचार निगम जैसी संपन्न कंपनी को टाटा के हाथों कौड़ियों के मोल बेच दिया था. बताते हैं कि विदेश संचार निगम के पास जितनी ज़मीन दिल्ली में है ,उसके १ प्रतिशत से ही १२०० करोड़ निकाला जा सकता है . आरोप है कि बीजेपी के राज में जो भी भाई संचार मंत्री था, उसने खेल कर दिया था और सरकारी कंपनी को सस्ते दाम पर बेच कर नंबर दो में रक़म अपनी अंटी में डाल लिया था . उन्हीं टाटा महोदय ने बीजेपी की कृपा से एम पी बने एक उद्योगपति की चिट्ठी के जवाब में साफ़ लिख दिया है कि संचार के क्षेत्र में हेराफेरी बीजेपी के राज में भी हुई थी. टाटा की इस चिट्ठी के बाद काकटेल सर्किट में हडकंप मच गया है. इस चिट्ठी के पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी सुझाव दिया था कि २००१ से शुरू कर के संचार और २ जी स्पेक्ट्रम घोटालों की जांच की जानी चाहिए . बीजेपी वाले फ़ौरन रक्षात्मक मुद्रा में आ गए और कहने लगे कि हम तो तैयार हैं . अब उन्हें कौन बताये कि भाई आपके तैयार होने का कोई मतलब नहीं है . अब तो सुप्रीम कोर्ट का संकेत आ गया है और अब तो जांच शुरू हो जायेगी. आप लोगों को चाहिए कि अब अपने आप को बचाने की कोशिश शुरू कर दें .टाटा के मैदान ले लेने के बाद लगता है कि अब संचार घोटाले की जांच सही तरीके से नहीं होगी और फिल्म 'जाने भी दो यारों 'की तर्ज़ पर लीपा पोती कर दी जायेगी . यह काम दिल्ली की काकटेल सर्किट के नेता जैन हवाला काण्ड के दौरान कर चुके हैं . जैन हवाला काण्ड में भी बीजेपी के लाल कृष्ण आडवाणी, जे डी यू के शरद यादव , कांग्रेस के अरुण नेहरू और सतीश शर्मा पर जे के एल एफ के हवाले से पैसा लेने का आरोप लगा था ,जांच भी बैठाई गयी थी लेकिन उस जांच का नतीजा पता नहीं इतिहास के किस डस्टबिन में दफ़न हो गया .कामनवेल्थ खेलों में भी हज़ारों करोड़ की लूट मचाई गयी थी लेकिन जब दोनों की मुख्य पार्टियों के सूरमाओं के नाम आने लगे तो उसके भी दफ़न की तैयारी कर दी गयी. अब जब टाटा ने बीजेपी की पोल भी खोलना शुरू कर दिया है तो लगता है कि २जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच का भी वही हस्र होगा जो जैन हवाला काण्ड की जांच का हुआ था. पूंजीपतियों के सबसे प्रिय चैनल ने जिस जोशो खरोश से टाटा की चिट्ठी के हवाले से मामले को तूल देना शुरू किया है ,उस से तो साफ़ ज़ाहिर है कि टाटा की चिट्ठी सोची समझी नीति के तहत लिखी गयी है जिस से संचार के अरबों रूपये के घोटालों पर पूरी तरह से पर्दा डाला जा सके. ऐसा लगता है कि टाटा ने यह चिट्ठी ऐसे लोगों से सलाह करके लिखा है जो बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ धंधा करते हैं .दुनिया जानती है कि टाटा ग्रुप के लोग कांग्रेस और बीजेपी दोनों के ही बहुत क़रीबी हैं . आखिर अभी कल की बात है जब यू पी ए की रेल मंत्री ममता बनर्जी ने टाटा को सिंगुर से खदेड़ा था ,तो बीजेपी के सबसे ताक़तवर नेता , नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपने राज्य में सम्मान सहित स्थापित किया था और रतन टाटा ने भी नरेंद्र मोदी की तारीफ़ में गीत गाये थे. इसलिए टाटा को बीजेपी का दुश्मन बताने की कोशिश तो बिलकुल नहीं की जानी चाहिए , वे दोनों ही पूंजीवादी पार्टियों के अपने बन्दे हैं . जानकार बता रहे हैं कि टाटा के हस्तक्षेप को सोच समझ कर करवाया गया है जिस से जनता की जो संपत्ति लूटी गयी है उसको जांच के दायरे से बाहर लाया जा सके. दुर्भाग्य यह है कि इस देश में लगभग सभी बड़े मीडिया हाउस पूंजीवादी व्यवस्था के सेवक हैं और सब चाहते हैं कि शासक वर्गों की पार्टियां मौज करती रहें और गरीब आदमी जिसके विकास के लिए सरकारी नीतियाँ बनायी जानी चाहिए वह परेशानी के कुचक्र में डूबता उतराता रहे.

जो भी हो टाटा के नए बयान से कम से कम पवित्रता की चादर ओढ़ कर बाकी दुनिया को भ्रष्ट कह रहे हर टी वी चैनल पर प्रकट होने वाले बीजेपी के नेताओं की वाणी में थोड़ी विनम्रता की झलक देखने को मिलेगी. अब बात समझ में आने लगी है कि कि क्यों बीजेपी वाले आपराधिक जांच का विरोध करते रहे हैं .आपराधिक जांच का काम पुलिस का पावर रखने वाली एजेंसियों की तरफ से होने की वजह से जांच का काम पूरा होते ही अपने आप मुक़दमा चल जाता है यानी अगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में कोई जांच होती है तो अगर अपराध साबित हुआ तो अपने आप आपराधिक मुक़दमा चल पडेगा . अन्य किसी जांच के बाद सी बी आई या किसी अन्य पुलिस एजेंसी को एफ आई आर लिख कर जांच करके तब मुक़दमा चलाने की बात होती है .मसलन अब अगर २००१ से लेकर अब तक के दूरसंचार के घोटालों की जांच करवाई जायेगी तो जो भी दोषी होगा उसके खिलाफ आपराधिक मुक़दमा चल पड़ेगा. ऐसी हालत बीजेपी को सूट नहीं करती और कांग्रेस को मज़ा आ रहा है क्योंकि अगर ए राजा पकड़ा भी जाता है तो वह कांग्रेस का सदस्य तो है नहीं जबकि बीजेपी के राज में जो भी मंत्री थे सब बीजेपी वालों के सदस्य थे . जिन लोगों ने उस दौर में रिपोर्ट किया है उन्हें याद होगा कि स्व प्रमोद महाजन इस बात का बहुत बुरा मानते थे जब दूरसंचार जैसा मलाईदार विभाग किसी सहयोगी पार्टी के पास जाने की बाद की जाती थी. बहरहाल अब जनता की ओर से पत्रकारिता कर रहे लोगों को चाहिए कि ए राजा और २००१ की हेराफेरी की जांच के लिए दबाव बनाये रखें वरना जो एक लाख छिहत्तर हज़ार करोड़ राजा ने डकारे हैं और २५ जनवरी की एक रात को एन डी ए के राज में जो मुफ्त स्पेक्ट्रम देकर लाखों करोड़ डकारे गए थे सब की जांच अधूरी रह जायेगी

Saturday, November 28, 2009

राजनाथ सिंह होंगें हिन्दुत्व के नए अलम्बरदार

शेष नारायण सिंह

ख़बरों में बने रहकर भारतीय राजनेता बहुत कुछ हासिल कर लेता है. खबर चाहे पक्ष में हो या खिलाफ हो, वह नेताओं के बड़े काम की होती है. जब १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आई तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कांग्रेस और उसकी नेता इंदिरा गाँधी को जनता ने हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है . इंदिरा गाँधी की समझ में भी नहीं आ रहा था कि क्या करें. आपराधिक राजनीति का विशेषज्ञ उनका बेटा , जो इमरजेंसी की तानाशाही के लिए बराबर का ज़िम्मेदार था , अपने ऊपर चल रहे आपराधिक मुक़दमों की पैरवी में व्यस्त हो गया था लेकिन इंदिरा गाँधी के सामने दिशाभ्रम की स्थिति थी. ठीक ऐसे वक़्त में तत्कालीन गृहमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह ने इंदिरा गाँधी को संजीवनी दे दी .इंदिरा गाँधी की राजनीतिक गिरफ्तारी का आदेश दे दिया और सी बी आई के एक अति उत्साही अफसर ने इंदिरा गाँधी को गिरफ्तार भी कर लिया . अगले दिन इंदिरा गाँधी हर अखबार के पहले पेज पर छा गयीं. और भारत की राजनीति में उनकी धमाकेदार वापसी का रास्ता खुल गया. इसलिए राजनीति में अगर कोई व्यक्ति या पार्टी अखबारी सुर्ख़ियों में बना रहने में सफलता हासिल कर लेता है तो उसे राजनीति में अपनी मंजिल पाने में आसानी होती है . खबर चाहे नकारात्मक कारणों से ही छपे , उसका फायदा होता है.

राजनीति की सफलता का यह मन्त्र बी जे पी वालों ने खूब अच्छी तरह से समझ लिया है. इसीलिए पार्टी के नेता अक्सर विवादों में छाये रहते हैं .आजकल नया विवाद लोकसभा में लिब्रहान आयोग पर होने वाली बहस के सन्दर्भ में है .पहले विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सदन में उपनेता सुषमा स्वराज को इस विषय में होने वाली बहस को शुरू करने की जिम्मेदारी दी थी लेकिन चंदौली वाले बाबू साहब ने खेल बदल दिया है .अब लोकसभा में बहस की शुरुआत पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह करेंगे। इस घटनाक्रम से पार्टी में लोकसभा में आडवाणी के उत्तराधिकारी को लेकर अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं। अभी तक सुषमा स्वराज को ही इसका स्वाभाविक दावेदार माना जाता रहा है।
बी जे पी को उम्मीद थी कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट राजनीतिक हलकों में तूफान खड़ा कर देगी. लेकिन ऐसा न हो सका . मीडिया में जो लोग आर एस एस के बन्दे माने जाते हैं वे भी लिब्रहान पर कोई तूफ़ान नहीं पैदा कर सके लेकिन बी जे पी की कोशिश है कि उस पर होने वाली बहस को जोरदार बनाया जाए. जैसी की उम्मीद थी , रिपोर्ट में बी जे पी और आर एस एस के आला नेताओं को अपराधी की तरह पेश किया गया है इसलिए भाजपा ने इस पर बहस की शुरुआत के लिए दोनों सदनों के अपने प्रखर वक्ताओं राज्यसभा में अरुण जेटली व लोकसभा में सुषमा स्वराज को तय किया था। लेकिन गुरुवार को अचानक भाजपा ने सुषमा स्वराज की जगह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लोकसभा में बहस शुरू कराने का फैसला किया। सुषमा स्वराज पार्टी की दूसरी प्रमुख वक्ता होंगी, जबकि अयोध्या मामले से सीधे जुड़े रहे दोनों प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी व डा मुरली मनोहर जोशी बहस में हस्तक्षेप करेंगे। राजनाथ सिंह का नाम तय होने का किस्सा जितना रोचक है, उतना ही पार्टी की अंदरूनी राजनीति को लेकर संवेदनशील भी है। उपनेता सुषमा स्वराज ने लोकसभा में अपने बगल में बैठे राजनाथ सिंह से चर्चा करते हुए उनसे सदन में किसी बहस में हिस्सा लेने के बारे में पूछा. राजनाथ सिंह ने कहा कि वे ऐसी किसी बहस में हिस्सा लेने के लिए तैयार हैं, जिसकी तारीख तय हो. सुषमा स्वराज ने उनसे लिब्रहान आयोग पर अगले मंगलवार को होने वाली बहस में हिस्सा लेने की बात कही. राजनाथ सिंह राजी हो गए.अब सुषमा के सामने कोई चारा नहीं था उन्होंने बहस की शुरुआत करने के लिए राजनाथ को संकेत किया और उन्होंने सहमति दे दी .सुषमा स्वराज ने खुद को दूसरे वक्ता के रूप में रखा और इस बदलाव की जानकारी लालकृष्ण आडवाणी को दे दी. राजनाथ सिंह अयोध्या आंदोलन के समय पार्टी के बड़े नेता नहीं थे, लेकिन सक्रिय थे जबकि सुषमा स्वराज दिल्ली में ही रहती थीं और सत्ता के गलियारों की माहिर के रूप में उनकी पहचान होती थी. सच्ची बात यह है कि १९९२ तक राजनाथ सिंह की पहचान बनारस से आये एक नौजवान कार्यकर्ता के रूप में होती थी, वे उत्तर प्रदेश के बड़े नेताओं में भी नहीं गिने जाते थे. अडवाणी गुट के खिलाफ, आर एस एस की शह पर उनको राष्ट्रीय नेता के रूप में विकसित किया गया है .कोशिश है कि उन्हें हिन्दुत्व-वादी राजनीति के नए अलंबरदार के रूप में स्थापित किया जाए. ज़ाहिर है इस डिजाइन को अमली जामा पहनाने के लिये इस मुद्दे पर उनको बोलने का मौक़ा देकर पार्टी को संसद में एक हिंदुत्ववादी छवि के नेता के रूप में उन्हें आगे बढ़ाने का मौका भी मिलेगा। अभी लोकसभा में आडवाणी व डा जोशी प्रख्रर हिंदुत्ववादी व संघ विचारधारा के प्रमुख नेता हैं। हालांकि इस बदलाव से लोकसभा में आडवाणी के भावी उत्तराधिकारी को लेकर नई सुगबुगाहट शुरू हो गई है।

Friday, October 23, 2009

महाराष्ट्र के नतीजे -राज ठाकरे की हैसियत नपी

महाराष्ट्र विधान सभा के चुनाव के बाद राज्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा.नतीजे आ गए हैं जैसी कि उम्मीद थी बी जे पी-शिव सेना गठबंधन को फिर सत्ता नहीं मिली. कांग्रेस ने सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल कर लिया. हर बार की तरह इस बार भी टी वी चैनलों के पूर्वानुमान गलत निकले. ज्यादातर ने शरद पवार वाली पार्टी को बी जे पी , कांग्रेस और शिव सेना के बाद चौथे स्थान पर डाला था. हर बार की तरह इस बार भी टी वी चैनलों ने अपनी तथा कथित भविष्य वाणी में से कोई एक वाक्य उठा कर ढिंढोरा पीटा कि देखिये उनके चैनल ने कितनी सही बात कही थी. हर बार की तरह टी वी चैनलों के स्टूडियो में दिल्ली और मुंबई के विश्लेषक सर्वज्ञ मुद्रा में बुकराती गांठते देखे गए जैसे उन्हें सब कुछ पहले से ही मालूम था. यह अलग बात है कि उनमें से ज़्यादातर ने भारत के गावों का दर्शन बम्बइया फिल्मों में ही किया होगा. मुराद यह कि सब कुछ पहले जैसा ही था . हर बार की तरह बी जे पी ने आपनी हार का ज़िम्मा अपने अलावा सब पर डाला--ई वी एम , विरोधी पार्टियों की एकता, कांग्रेस का मज़बूत चुनाव अभियान , मीडिया की गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग वगैरह वगैरह. यानी बी जे पी की हार के लिए उसके अपने कार्यकर्ताओं के अलावा सभी जिम्मेदार थे. हर बार की तरह कांग्रेस की जीत के लिए इस बार भी केवल सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी जिम्मेदार रहे . हाँ , हरियाणा में थोडा ज़िम्मा भूपेंद्र सिंह हुड्डा का भी रहा क्योंकि स्पष्ट बहुमत से कुछ सीटें कम आ गयीं. अरुणाचल प्रदेश की जीत पूरी तरह से सोनिया , राहुल और मनमोहन सिंह की वजह से हुई.. इतना सब तो हर बार की तरह पहले की तरह हुआ लेकिन इस बार महाराष्ट्र के चुनाव में एक नयी बात हुई जिसे अगर हमारे समाज के प्रभावशाली वर्गों ने संभाल लिया तो आने वाले वक़्त में राजनीतिक आचरण के तरीके बदल सकते हैं ..

महाराष्ट्र विधान सभा के लिए हुए चुनाव के जो नतीजे हैं उनसे एक बात बहुत ही साफ़ तौर पर सामने आई है कि राजनीतिक प्रचार अभियान के रूप में दंभ भरी क्षेत्रीयता अब काम नहीं आने वाली है. शिव सेना और राज ठाकरे के पार्टी की जो दुर्दशा हुई है , उसकी धमक आने वाले कई वर्षों तक महसूस की जायेगी. यहाँ यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज ठाकरे को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है जैसा कि कई टी वी चैनलों में राग दरबारी की स्टाइल में चलाया जा रहा है. उनको भी इस चुनाव में जनता ने औकात बता दी है कि , भाई नफरत की बुनियाद पर सियासत करोगे तो ऐसे ही कुछ सीटें लाकर बैठे रहोगे.. उनको १३ सीटें मिली हैं जो कुछ न मिलने से ज्यादा तो हैं लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता की राजनीति में इतनी सीटों से उन्हें कुछ नहीं हासिल होने वाला है..लुम्पन नौजवानों को इकठ्ठा करके मुंबई जैसे शहर में सड़क वीर बनने की भी उनकी तमन्ना धरी रह जायेगी. अब तक तो पुलिस और प्रशासन को शक था कि राज ठाकरे के पास नौजवानों की एक फौज है जिसकी वजह से वह सरकार को परेशान कर सकते हैं लेकिन इन चुनावों में उनकी ताक़त नप गयी . अब तो सब को मालूम है कि राज ठाकरे की क्या ताक़त है.अगर कहीं एक ईमानदार पुलिस अफसर तय कर लेगा तो राज ठाकरे की सारी मुरादें हवालात के हवाले हो जायेंगी .उनके चाचा, बाल ठाकरे, ने ६० के दशक में मराठी बेरोजगार नौजवानों और बाहर से मुंबई में काम की तलाश में आये लोगों को एक सेना की तरह लामबंद कर लिया था और उसे राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया था . राज ठाकरे ने भी उसी तर्ज़ पर फौज तैयार करके खेल करने की कोशिश की थी लेकिन आज के हालात वैसे नहीं हैं जैसे मुंबई में आज के ४०-५० साल पहले थे..उस वक़्त बाल ठाकरे ने जवाहरलाल नेहरु के जाने के बाद कमज़ोर पड़ रही कांग्रेस की अलोकप्रियता को भुनाने में सफलता पायी थी. उन दिनों उनके साथ आने को भी बहुत सारे नौजवान तैयार खड़े रहते थे. मुंबई के दादर-परेल इलाके में बहुत सारे कारखाने थे और वहां नौकरियों की तलाश में आने वाले नौजवानों की संख्या बहुत ज्यादा थी, ६२-६३ के दौर में किसानों की फसलें बहुत ही खराब हो गयी थीं. गाव से भाग कर मुंबई आने वाले युवकों की संख्या बहुत ज्यादा होती थी और साल छः महीने खाली बैठने के बाद वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे.ठीक ऐसे मौके की तलाश में बैठे बाल ठाकरे उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे और बाद में वे लोग धन अर्जन के अन्य तरीकों से संपन्न बनने की कोशिश में लग जाते थे.बाद में येही सैनिक शहर के अलग अलग इलाकों में प्रोटेक्शन वगैरह का धंधा करने में जुट जाते थे. धीरे धीरे यही सेना एक राजनीतिक पार्टी बन गयी और बी जे पी से समझौता करके इज्ज़त की दावेदार भी बन गयी. बाल ठाकरे की दूसरी खासियत यह थी कि वह खुद भी संघर्ष कर रहे थे. ६० रूपये फीस न दे पाने के कारण उन्हें पढाई छोड़नी पडी थी और कहीं कोई काम नहीं था . फ्री प्रेस में मामूली तनखाह पर जब कार्टूनिस्ट की नौकरी मिली तो उनके लिए रोटी पानी का जुगाड़ हुआ था. इसलिए उनके साथ जुड़ने वाले लोग उनको अपने में से ही एक समझते थे. इसी दौर में उनका एक मैनरिज्म भी विकसित हुआ . आज राज ठाकरे उसी स्टाइल को कॉपी करने की कोशिश करते हैं . लेकिन आज हालात वह नहीं हैं जो 6० और 7० के दशक में थे. आज उतनी बड़ी संख्या में नौजवान बेरोजगार नहीं हैं. आर्थिक उदारीकरण की वजह से काम के अवसर ज्यादा हैं. जो भी मुंबई में रहता है उसे मालूम है कि राज ठाकरे को रोटी पानी के लिए नौजवान बाल ठाकरे की तरह जुगाड़ नहीं करना पड़ता . वे अरब पति हैं, करजट में उनका फार्म हाउस है और बाल ठाकरे के मैनरिज्म का वे अभिनय करते हैं . ऐसी हालत में उनकी अपील का कोई मतलब नहीं है. मुंबई के जागरूक मत दाताओं को मालूम है कि मराठी मानूस की बोगी चलाकर राज ठाकरे अपनी ही चमक को दुरुस्त करना चाहते हैं .. इस लिए उन्हें मराठी मानूस का वोट थोक में नहीं मिला.

राज ठकारे के उदय को कोई राजनीतिक घटना न मान कर बाल ठाकरे के बच्चों के बीच मूंछ की लड़ाई मानना ज्यादा सही होगा. यह भी मानना गलत होगा कि राज ठाकरे ने महारष्ट्र की राजनीति को कहीं से प्रभावित किया है . बस हुआ यह है कि जो सीटें शिव सेना को मिलनी थीं वे राज ठाकरे को मिल गयीं. जहां तक कांग्रेस की जीत का सवाल है उसमें विपक्षी वोटों के बिखराव का योगदान है . यह कोई नयी बात नहीं है. हर चुनाव में खिलाफ पड़ने की संभावना वाले वोटों को राजनीतिक दल एक दूसरे से भिडाने की कोशिश करते हैं . हाँ इस चुनाव के बाद, हो सकता है कि ठाकरे परिवार की राजनीति में कुछ बदलाव आये. हो सकता है कि वे अपने सगे बेटे उद्धव को पीछे करके , राज ठाकरे को आगे लायें . लेकिन इस से राजनीतिक विश्लेषकों , मीडिया और आम आदमी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.. इस चुनाव के नतीजे आम समझ के हिसाब से वही हैं जिसकी उम्मीद की जा रही थी.. लोक सभा चुनावों में हार का मुंह देख चुकी बी जे पी ने अगर कुछ ज्यादा उम्मीदें लगा रखी थीं तो वह उनकी समस्या है. और अगर मीडिया एक नॉन-इश्यू को बढा चढा कर पेश करता है तो वह भी उसकी समस्या है.

Tuesday, October 20, 2009

पाकिस्तान के बिना बी जे पी का क्या होगा

बी जे पी की राजनीति का एक और प्रमुख स्तम्भ ढहने वाला है...लगता है कि पाकिस्तान पर भी अब वोटों की खेती नहीं हो पायेगी. अयोध्या विवाद पर तो अब वोट की खेती नहीं हो सकती और बोफोर्स का मुद्दा भी अब दफ़न हो गया है . उसके सहारे बी जे पी जैसी भावनाओं पर राजनीति करने वाली पार्टियों को काफी खुराक मिलती थी. वह भी ख़त्म ही है .लोक सभा चुनावों के पहले से ही मुद्दों की तलाश जारी है . बी जे पी की राजनीति में पाकिस्तान का बहुत बड़ा महत्व है . पाकिस्तान के खिलाफ तलवारें भांज कर बी जे पी वाले अपने सीधे सादे कार्यकर्ताओं को अब तक चलाते रहे हैं . कभी पाकिस्तान का कच्छ में घुसना , कभी ताशकंद में गडबडी, कभी सीमा पर झंझट ,कभी कारगिल तो कभी सीमा पार से आने वाला आतंकवाद , यह सब बी जे पी की सियासत को जिंदा रखने में काम आते रहे हैं . लेकिन अब खबर आ रही है कि कांग्रेस पार्टी वाले पाकिस्तान को टालने की राजनीति शुरू कर चुके हैं . कांग्रेस के महासचिव राहुल गाँधी ने शिमला में बयान दे दिया है कि भारत की तुलना पाकिस्तान से नहीं की जानी चाहिए . उन्होंने कहा कि पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना हम समझते हैं . भारत और पाकिस्तान में बहुत फर्क है. हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक अहम् मुकाम रखते हैं जब कि पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . उन्होंने कहा कि यह अलग बात है कि पाकिस्तान कुछ न कुछ गड़बड़ करता रहता है और उसका इलाज़ वही लोग कर देंगें जिन्हें उसका ज़िम्मा दिया गया है . पाकिस्तान हमारी विश्वदृष्टि में एक बहुत ही मामूली जगह घेरता है राहुल गाँधी के इस बयान के बाद बी जे पी में चिंता की स्थिति दिख रही है . राहुल गाँधी का बयान किसी मामूली कांग्रेसी का बयान नहीं है . वैसे भी, राहुल गाँधी के व्यक्तित्व की एक खासियत उभर कर सामने आ रही है कि वे बहुत गंभीर बात भी साधारण तरीके से कह देते हैं . बाद में उस पर बहस होती है और उनकी बात ही पार्टी की नीति के रूप में स्वीकार कर ली जाती है . इस लिए हो सकता है कि पाकिस्तान संबन्धी उनका बयान भी कांग्रेस की मौजूदा सोच की प्रतिध्वनि हो. बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने बयान दे दिया कि राहुल गाँधी को अभी बहुत कुछ सीखना है . आपने फरमाया कि अगर पाकिस्तान इतना कम महत्वपूर्ण है तो प्रधान मंत्री को शर्म अल शैख़ में क्यों शर्म उठानी पडी. बी जे पी की चिंता का कारण यह है कि पाकिस्तान के इस्लामी गणराज्य और उसके एजेंटों की मुखालिफत की बुनियाद पर राजनीति करने वाली बी जे पी को कहाँ ठिकाना मिलेगा. वैसे भी पार्टी के पास आम आदमी से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं है . अगर पाकिस्तान भी निकल गया तो क्या होगा . दरअसल बी जे पी की राजनीतिक सोच में पाकिस्तान का केंद्रीय मुकाम है . कश्मीर, संविधान की धारा ३७०. आतंकवाद, मुसलमान , राष्ट्रीय सुरक्षा मुस्लिम तुष्टिकरण , सीमा पार से सांस्कृतिक हमले उर्फ़ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , बी जे पी की राजनीति के प्रमुख शब्दजाल हैं और अगर पाकिस्तान को कम महत्व देने की राहुल गाँधी की राजनीति ने जोर पकड़ लिया तो संघ की राजनीति को मीडिया में मिलने वाली जगह अपने आप कम हो जायेगी क्योंकि जब पाकिस्तान की ही कोई औकात नहीं रहेगी ,तो उसके विरोध की राजनीति को कौन पूछेगा. सवाल यह कि बी जे पी की राजनीति को जिंदा रखने के लिए पाकिस्तान के मह्त्व को कब तक जिंदा रखा जा सकता है . अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की शुरू से कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौला जाए. अब तक वे सफल भी होते रहे हैं . लेकिन अब ऐसा करना अमरीका के लिए भी संभव नहीं है . पिछले ६० वर्षों में पाकिस्तान विकास के क्षेत्र में भारत से बहुत पीछे रह गया है और अब पाकिस्तान एक गरीब खस्ताहाल देश है . जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है . बलोचिस्तान और सूबा-ए- सरहद, पाकिस्तान से अलग होने की कोशिश कर रहे हैं .उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है . फौज ने पिछले ५५ वर्षों में पाकिस्तान की जो दुर्दशा की है कि उसके लिए अपनी रोटी के लिए भी विदेशी मदद की ज़रुरत पड़ती है . ऐसी हालात में पाकिस्तान को कब तक बी जे पी की राजनीतिक सुविधा के लिए जिंदा रखा जा सकता है .जहां तक पाकिस्तान से भारत में आतंकवाद आने का खतरा है वह अब राजनीतिक या कूटनीतिक सवाल नहीं है . क्योंकि वहां की ज़रदारी-गीलानी की सिविलियन सरकार की इतनी हैसियत नहीं है कि वह पाकिस्तानी फौज को लगाम लगा सके. इसका मतलब यह हुआ कि पाकिस्तानी शरारतों को राजनीतिक तरीके से नहीं रोका जा सकता . उसे रोकने के लिए तो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई को ही काबू करना पड़ेगा . आजकल यह काम अमरीकी फौज के अफगानिस्तान में तैनात जनरलों के जिम्मे है और वे उठते बैठते पाकिस्तानी सेना के आला अफसरों को धमका रहे हैं .सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में सारी मुसीबतों की जड़ फौज ही है और अगर उनको दबा दिया गया तो पाकिस्तानी अवाम भी खुश हो जाएगा और भारत पर पाकिस्तान से आने वाली रोज़ रोज़ की परेशानियां अपने आप ख़त्म हो जायेगी . ज़ाहिर है कि यह भारत के लिए एक अच्छी स्थिति होगी.हाँ बी जे पी वालों को चाहिए कि वे राजनीति करने के लिए नए मुद्दे ढूंढ लें क्योंकि पाकिस्तान दीन, हीन खस्ताहाल और गरीब मुल्क है उसकी दुश्मनी की बुनियाद पर बहुत दिन तक राजनीति नहीं चलने वाली है .

Thursday, September 3, 2009

दर्द पर न हों हमदर्द

एक मशहूर फिल्मी गीत है- तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना। भला जो दर्द दे रहा है, अगर उसे दवा देना है तो वह दर्द ही क्यों देगा? यह गीत अपने जमाने में बहुत हिट हुआ था। असल जिंदगी में भी कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जो तकलीफ देता है, वह पछताता है और मरहम लगाने पहुंच जाता है लेकिन सियासत में ऐसा नहीं होता। राजनीति में जो दर्द देता है वह अगर दवा देने की कोशिश करता है तो उसे व्यंग्य माना जाता है।

इसलिए जब राजस्थान की यात्रा पर गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि बीजेपी की अस्थिरता लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है तो बात का अलग असर हुआ। उनका कहना था कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों में स्थिरता होनी चाहिए। बात तो ठीक थी। कहीं कोई गलती नहीं है लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बुरा मान गए। उन्होंन प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिख दी कि भाई, आप अपना काम देखिए देश में सूखा पड़ा है, उसको संभालिए, हमारी चिंता छोड़ दीजिए।

बीजेपी अपने गठन के बाद से सबसे कठिन दौर से गुजर रही है, उसके शीर्ष नेतृत्व में विश्वास का संकट चल रहा है, कौन किसको कब हमले की जद में ले लेगा, बता पाना मुश्किल है। तिकड़म के हर समीकरण पर मैकबेथ की मानसिकता हावी है सभी एक दूसरे पर शक कर रहे हैं। ऐसी हालत में प्रधानमंत्री की बीजेपी का शुभचिंतक बनने की कोशिश, राजनाथ सिंह को अच्छी नहीं लगी। शायद उनको लगा कि मनमोहन सिंह ताने की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं और वे नाराज हो गए।

उनकी पार्टी के प्रवक्ता ने इस घटना को अपनी रूटीन प्रेस कान्फ्रेंस में भी बताया और टीवी चैनलों ने इस को दिन भर चलाया और मजा लिया। ज़ाहिर है कि खबर में जितना रस था सब बाहर आ चुका है और बीजेपी का मीडिया चित्रण एक खिसियानी बिल्ली का हो चुका है जो कभी कभार खंबे वगैरह भी नोच लेती है। आगे पढ़ें...

Sunday, August 30, 2009

आडवाणी और झूठ का राजनीति शास्त्र

बीजेपी के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को आज कल अखबारों, टीवी चैनलों में और खबरिया पोर्टलों में खूब कवरेज मिल रही है उनका एक झूठ चर्चा का विषय बना हुआ है। उन पर आरोप है कि उन्होंने मुल्क को गुमराह किया कि जैशे मुहम्मद के मुखिया मसूद अज़हर की रिहाई में उनका हाथ नहीं था और अपने फैसलों को अपना कह पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।

यह आडवाणी के लिए बड़ा झटका है। पिछले दो-तीन साल से प्रधानमंत्री पद की उम्मीद लगाए बैठे थे और अपने को मजबूत नेता बता रहे थे। उनकी पार्टी में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो आडवाणी की हर बात को सही ठहराते हैं। इस समूह में कुछ स्वनाम धन्य पत्रकार भी हैं और कुछ ऐसे नेता हैं जो आडवाणी के प्रभाव से ओहदा पद पाते रहते हैं। ये लोग भी आस लगाए बैठे थे कि अगर मजबूत नेता, निर्णायक सरकार कायम हुई तो कुछ न कुछ हाथ आ जाएगा। बहरहाल सरकार बनने की संभावना तो कभी नहीं थी सो नहीं बनी लेकिन आज कल आडवाणी अपनी झूठ बोलने की आदत के चलते मुसीबत में हैं।

झूठ बोलने के कारण यह संकट लालकृष्ण आडवाणी पर पहली बार आया है ऐसा शायद इसलिए हुआ कि कंधार विमान अपहरण कांड के मामले में उन्होंने गलत बयानी की जो कि राष्ट्रीय महत्व का मामला था। देश की गरिमा से समझौता करने वाली उस वक्त की राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति के सबसे शर्मनाक फैसले से वे अपने को अलग करने अपने बाकी साथियों को नाकारा साबित करने के चक्कर में बेचारे बुरे फंस गए। ऐसा नहीं है कि आडवाणी ने पहली बार झूठ बोला हो, वे बोलते ही रहते हैं उनकी इस आदत से परिचित लोग, बात को टाल देते हैं या कभी कभार उनका मजाक बनाते हैं।

एक बार अपनी शिक्षा को लेकर उन्होंने कोई बयान दिया था। बिहार के नेता लालू प्रसाद ने सिद्घ कर दिया कि जिस कोई की बात आडवाणी कर रहे थे, वह उस कॉलेज में था ही नहीं। आडवाणी ने लालू यादव की बात का कभी खंडन नहीं किया। ऐसे बहुत सारे मामले हैं लेकिन कंधार विमान अपहरण कांड जैसा मामला कोई नहीं इसलिए पूरे मुल्क में इस बात की चिंता है कि अगर किसी वजह से भी बीजेपी जीत गई होती तो यह आदमी देश का नेता होता तो हमारा क्या होता। शुक्र है कि हम बच गए।

लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ अरसा पहले एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि कंधार कांड में जो राष्ट्रीय अपमान हुआ था, उससे उनका कोई लेना देना नहीं था, उन्हें मालूम ही नहीं था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को लेकर कंधार जा रहे हैं। प्रधानमंत्री पद के लालच में उन्होंने अपने आपको राष्ट्रीय शर्म की इस घटना से अलग कर लिया था। जबकि यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति में लिया गया। यह समिति सरकार की सबसे ताकतवर संस्था है।

इसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होते हैं और गृहमंत्री, रक्षामंत्री व वित्तमंत्री और विदेशमंत्री सदस्य होते हैं। इसे एक तरह से सुपर कैबिनेट भी कहा जा सकता है। कंधार में फंसे आईसी 814 को वापस लगाने के लिए तीन आतंकवादियों को छोडऩे का फैसला इसी कमेटी में लिया गया था। अब पता लग रहा है कि फैसला एकमत से लिया गया था यानी अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नाडीस, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह सब की राय थी कि आतंकवादियों को छोड़ देना चाहिए। आडवाणी इस मसले से अपने को अलग कर रहे थे और यह माहौल बना रहे थे कि उनकी जानकारी के बिना ही यह महत्वपूर्ण फैसला ले लिया गया था।

जाहिर है उनके बाकी साथी आडवाणी की इस चालाकी से नाराज थे और अब जार्ज फर्नांडीज यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने आडवाणी के ब्लाक को उजागर कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की तबीयत ठीक नहीं है वरना वह भी अपनी बात कहते। सवाल यह उठता है कि जब पिछले दो साल से आडवाणी इतने महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मामले पर गलत बयानी कर रहे थे। तो इन तीन महत्वपुरुषों ने सच्ची बात पर परदा डाले रखना क्यों जरूरी समझा? यह जानते हुए कि इतनी बड़ी बात पर खुले आम झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति प्रधानमंत्री पद हथियाने के चक्कर में है उसे इन लोगों ने नहीं रोका।

रोकना तो खैऱ दूर की बात है आडवाणी को प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में ऐसे लोग शामिल रहे, उनकी जय-जय कार करते रहे। इस पहेली को समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह लोग भी लालच में रहे होंगे कि सरकार बनने पर इन्हें भी कुछ मिल जाएगा। जो भी हो अब कंधार जैसे महत्वपूर्ण मामले पर उस वक्त की एन.डी.ए. सरकार के गैर जि़म्मेदाराना रुख़ से जाल साजी की परतें वरक-दर-वरक हट रही है।

सवाल यह उठता है कि जिस पार्टी की टॉप लीडरशिप सच्चाई को छुपाने के इतने बड़े खेल में शामिल रही हो उसको क्या सजा मिलनी चाहिए। देश को जागरुक जनता का इन लोगों की जवाब देही सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।

Monday, August 24, 2009

बीजेपी के झूठ का भंडाफोड़

बीजेपी से निकाले जाने के बाद जसवंत सिंह ने बहुत सारी ऐतिहासिक सच्चाइयों से परदा उठाया है इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी की शिमला चिंतन बैठक में लिए गए फैसलों से जसवंत सिंह और बीजेपी का चाहे जो नुकसान हो, आम जनता का बहुत फायदा हुआ है। जसवंत सिंह वह सब कुछ बता रहे हैं जो अब तक बीजेपी के बड़े नेताओं को ही मालूम था। जसवंत सिंह ने बताया है कि 2002 में जब गुजरात में नरसंहार हुआ था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री, नरेंद्र मोदी को दंडित करने का फैसला किया था।

पूरी दुनिया की तरह गुजरात में हुई मुसलमानों की तबाही के लिए वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को ही जि़म्मेदार माना था लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी ने मोदी को बचाने के लिए अपनी सारी ताक़त लगा दी थी। उन्होंने वाजपेयी को चेतावनी दी थी कि अगर नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई कार्रवाई की तो बवाल हो जायेगा। अब तक बीजेपी के लोग यही बताते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ कार्रवाई न करने का फैसला सर्वसम्मति से हुआ था। जसवंत सिंह के कंधार विमान अपहरण कांड संबंधी बयान ने तो लालकृष्ण आडवाणी को कहीं का नहीं छोड़ा।

आडवाणी बार-बार कहते रहे थे कि कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान आतंकवादियों को सरकारी विमान से ले जाकर वहां पहुंचाने के फैसले की जानकारी उन्हें नहीं थी। उनके चेलों की टोली भी इसी बात को बार-बार दोहरा रही थी, प्रेस कांफ्रेंस, इंटरव्यू हर माध्यम का इस्तेमाल करके यही बात कही जा रही थी। इस बात में कोई शक नहीं कि लोग इस बात का विश्वास नहीं कर रहे थे। संसदीय लोकतंत्र में मंत्रिपरिषद की संयुक्त जि़म्मेदारी का सिद्घांत लागू होता है। इस लिहाज़ से भी यह बात गले नहीं उतर रही थी कि राष्ट्रहित या अहित से जुड़ा इतना बड़ा फैसला और उपप्रधानमंत्री को जानकारी तक नहीं। अगर यह सच होता तो उस वक्त की केंद्र सरकार अपनी सबसे बड़ी संवैधानिक जि़म्मेदारी का उल्लंघन करने का जुर्म कर रही होती।

लेकिन शुक्र है कि आडवाणी झूठ बोल रहे थे और उन्हें मालूम था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को छोडऩे कंधार जा रहे थे। एक राष्ट्र के रूप में हमें इस बात पर तो परेशानी होती कि आडवाणी को अंधेरे में रखकर अटल बिहारी वाजपेयी ने हमारे उप प्रधानमंत्री का अपमान किया लेकिन आडवाणी के झूठा साबित होने का हमें कोई ग़म नहीं है। झूठ बोलना कुछ लोगों की फितरत का हिस्सा होता है। जसवंत सिंह ने पार्टी से निकाले जाने के बाद आडवाणी के झूठ का भंडाफोड़ करके राष्टï्रीय मंडल महत्व का काम किया है। जसवंत सिंह ने एक और महत्वपूर्ण विषय पर बात करना शुरू कर दिया है।

उन्होंने आर एस एस वालों से कहा है कि उन्हें इस बात पर अपनी पोजीशन साफ कर देनी चाहिए कि उनका संगठन राजनीति में है कि नहीं। उन्होंने कहा कि आर.एस.एस. वाले आमतौर पर दावा करते रहते हैं कि वे राजनीति में नहीं हैं लेकिन बीजेपी का कोई भी फैसला उनके इशारे पर ही लिया जाता है। बीजेपी उनके मातहत काम करने वाली पार्टी है और अगर कभी आरएसएस की नापसंद वाला कोई फैसला बीजेपी के नेता ले लेते हैं तो उसे तुरंत वीटो कर दिया जाता है। ज़ाहिर है कि वीटो पावरफुल होता है। आरएसएस की सर्वोच्चता और बीजेपी की हीनता समकालीन राजनीतिक इतिहास में कई बार चर्चा का विषय बन चुकी है। 1978 में यह बहस समाजवादी विचारक मधु लिमये ने शुरू की थी। जनता पार्टी में जनसंघ के विलय के बाद जनसंघ के सारे नेता पार्टी में शामिल हो गए थे।

वाजपेयी आडवाणी और बृजलाल वर्मा मंत्री थे। ये लोग रोजमर्रा के प्रशासनिक फैसलों के लिए भी नागपुर से हुक्म लेते थे। इस बात को जनता पार्टी के नेता पसंद नहीं करते थे। मधु लिमये ने कहा कि जनता पार्टी का नियम है कि उसके सदस्य किसी और घटक के मंत्रियों को आरएसएस से रिश्ते खत्म करने पड़ेंगे क्योंकि आरएसएस एक राजनीतिक संगठन है। इन बेचारों की हिम्मत नहीं पड़ी और यह लोग साल भर की कशमकश के बाद जनता पार्टी से अलग हो गए। जसवंत सिंह ने भी उसी बहस को शुरू करने की कोशिश की है लेकिन अब इस बात में कोई दम नहीं है क्योंकि अब सबको मालूम है कि असली राजनीति तो नागपुर में होती है, यह राजनाथ सिंह, आडवाणी वग़ैरह तो हुक्म का पालन करने के लिए हैं।

जसवंत सिंह ने बीजेपी में भरती हुए संजय गांधी के पुत्र वरुण गांधी के गैऱ जि़म्मेदार नफरत भरे भाषण पर भी बीजेपी की सहमति का जि़क्र किया है। वरुण गांधी के नफरत आंदोलन के दौरान आडवाणी समेत सभी भाजपाई ऐसी बानी बोलते थे जिसका मनपसंद अर्थ निकाला जा सके। अब हम जसवंत के हवाले से जानते हैं कि वह उनकी रणनीति का हिस्सा था। यानी वरुण गांधी कोई मनमानी नहीं कर रहे थे बल्कि बीजेपी की नफरत की राजनीति में एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल हो रहे थे। जसवंत सिंह की इन बातों में कोई नयापन नहीं है।

सबको ठीक यही सच्चाई मालूम है लेकिन बीजेपी की तरफ से कोई अधिकारिक बात नहीं आ रही थी। अब उनकी गवाही के बाद बात बिल्कुल पक्की हो गई है लेकिन जसवंत सिंह का इससे कोई फायदा नहीं होने वाला है क्योंकि उनका खिसियाहट में दिया गया यह बयान इतिहास की यात्रा में एक क्षत्रिय की औकात भी नहीं रखता।

Friday, August 21, 2009

जसवंत बर्खास्त! आडवाणी क्यों नहीं?

बीजेपी ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने एक किताब लिखी है जिसमें पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह की तारीफ की है और उन्हें सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू की तुलना में ज्याद ऊंचा दर्जा दिया है। जहां तक जसवंत सिंह की किताब का प्रश्न है उसे कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा है, किताब में लिखी गई बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि जसवंत सिंह बेचारे बहुत ही मामूली बौद्घिक स्तर के इंसान हैं। लगता है पढ़ाई लिखाई भी उनकी मामूली ही है क्योंकि पांच साल तक रिसर्च करके उन्होंने जो किताब लिखी है, वह बहुत ही मामूली है।

तथ्यों की तो बहुत सारी गलतियां हैं, और जो निष्कर्ष निकाले गए हैं वे बहुत ही ऊलजलूल है। ऐसा लगता है कि जसवंत सिंह भी इसी क्लास में पढ़ते थे जिसमें मुंगेरी लाल, तीस मार खां, शेख चिल्ली वगैरह ने नाम लिखा रखा था। बहरहाल उनकी किताब को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। इस बात में कोई शक नहीं है कि जसवंत सिंह की जिनाह वाले निष्कर्ष का मुकाम डस्टबिन है और रिलीज होने के साथ वह अपनी मंजिल हासिल कर चुका है लेकिन उनकी पार्टी में इस किताब ने एक तूफान खड़ा कर दिया है। शिमला में शुरू हुई बीजेपी की चिंतन बैठक में शुरू में ही जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया।

मामले को नागपुर मठाधीशों ने भी बहुत गंभीरता से लिया और राजनाथ सिंह को आदेश हो गया कि जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल बाहर करो। राजनाथ सिंह वैसे तो पार्टी के अध्यक्ष हैं लेकिन उनकी छवि एक हुक्म के गुलाम की ही है और जसवंत सिंह बहुत ही बे आबरू होकर हिंदुत्व वादी पार्टी से निकल चुके हैं। जसवंत सिंह का बीजेपी से निष्कासन पार्टी के आंतरिक जनतंत्र पर भी सवाल पैदा करता है अपराध के कारण उन्हें बीजेपी से बाहर किया गया। तो क्या पाकिस्तान के संस्थापक की तारीफ करने वालों को बीजेपी से निकाल दिया जाता है। जाहिर है यह सच नहीं है। अगर ऐसा होता तो लालकृष्ण आडवाणी कभी के बाहर कर दिए गए होते।

जसवंत सिंह पर तो आरोप है कि उन्होंने अपनी किताब में जिनाह की तारीफ की है, आडवाणी तो उनकी कब्र पर गए थे और बाकायदा माथा टेक कर वहां खड़े होकर मुहम्मद अली जिनाह की शान में कसीदे पढ़े थे और पाकिस्तान के संस्थापक को बहुत ज्यादा सेकुलर इंसान बताकर आए थे। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन दिनों आरएसएस की ताकत इतनी कमजोर थी कि वह अपने मातहत काम करने वाली बीजेपी पर लगाम नहीं लगा सकता था। इस हालत में लगता है कि जसवंत के निकाले जाने में जिनाह प्रेम का योगदान उतना नहीं है, जितना माना जा रहा है। अगर ऐसा होता तो आडवाणी का भी वही हश्र होता जो जसवंत सिंह का हुआ।

लगता है कि पेंच कहीं और है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी में आडवाणी गुट की ताकत की धमक ऐसी थी कि आर एस एस वालों की हिम्मत नहीं पड़ी कि उन्हें पार्टी से निकालने की कोशिश करें। डर यह था कि अगर आडवाणी को बाहर किया तो उनके गुट के लोग बाहर चले जाएंगे। जसवंत सिंह को दिल्ली की राजनीतिक गलियों में अटल बिहारी वाजपेयी के आखाड़े का पहलवान माना जाता है। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जसवंत सिंह को महत्व भी खूब दिया था। मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण विभाग भी मिला था उन्हें जब कंधार जाकर आतंकवादियों को छोडऩे की बात आई तो वही भेजे गए थे। वे वाजपेयी गुट के भरोसेमंद माने जाते हैं।

आजकल वाजपेयी गुट के नेता लोग परेशानी में हैं। कहीं ऐसा नही कि वाजपेयी की बीमारी के कारण उनके गुट के कमजोर पड़ जाने की वजह से आडवाणी के चेलों ने आरएसएस के कंधे पर बंदूक चला दी हो और राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी को सबसे ऊंचा बनाने की कोशिश हो। जसवंत सिंह की किताब में नेहरू की निंदा की गई है। इसे संघी राजनीति की गिजा माना जाता है। लेकिन जसवंत बाबू ने साथ में सरदार पटेल को भी लपेट लिया, उनको भी जिनाह से छोटा करार दे दिया। यह बात बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति के खिलाफ जाती है। भगवा ब्रिगेड की पूरी कोशिश है कि सरदार पटेल को अपना नेता बनाकर पेश करें। ऐसा इसलिए कि आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस और उसके मातहत संगठनों के किसी नेता ने हिस्सा नहीं लिया था।

उनकी पूरी कोशिश रहती है कि ऐसे किसी भी आदमी को अपनी विचार धारा का बनाकर पेश कर दें जो नेहरू परिवार के मुखालिफ रहा हो। सरदार पटेल की यह छवि बनाने की नेहरू विरोधियों की हमेशा से कोशिश रही है। हालांकि यह बिलकुल गलत कोशिश है लेकिन संघी बिरादरी इसमें लगी हुई है। इसी तरह एक बार आरएसएस वालों ने कोशिश की थी कि सरदार भगत सिंह को अपना लिया जाय। साल-दो साल कोशिश भी चली लेकिन जब पता चला कि भगत सिंह तो कम्युनिस्ट पार्टी में थे तबसे यह कोशिश है कि सरदार पटेल को अपनाया जाय लिहाजा उनके खिलाफ अभी कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।

इस बीच खबर है कि उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेता कलराज मिश्र ने जसवंत सिंह की बर्खास्तगी का विरोध किया है। उनका कहना है कि जसवंत सिंह ने जो भी कहा है वह तथ्यों पर आधारित है इसलिए उनको हटाने की बात करना ठीक है। अगर इस बात में जरा भी दम है तो इस बात में शक नहीं कि बीजेपी के दो टुकड़े होने वाले हैं।