Monday, June 7, 2010

कुछ तमाशा ये नहीं,कौम ने करवट ली है

शेष नारायण सिंह
महिलाओं के लिए संसद और विधान मंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए औरतों ने मैदान ले लिया है .अब वे अपने हक को हर हाल में लेने के लिए संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ी हैं .करीब २० हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके महिलाओं के तीन जत्थे दिल्ली पंहुचे थे और जब यह उत्साही महिलायें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से उनके आवास पर मिलीं तो वे बहुत प्रभावित हुईं और उन्होएँ अपने आप को इनके मिशन से जोड़ दिया. लेकिन उन्होंने चेतावनी भी दी कि अभी लम्बी लड़ाई है . उनको मालूम है कि महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १२ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं .अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . बात तो ठीक है लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है .महिला आरक्षण की ज़बरदस्त वकील, महिलाओं का कहना है कि एक बार महिलाओं के रिज़र्वेशन का कानून बन जाए तो शोषित वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के लिए फिर आन्दोलन किया जा सकता है . लेकिन राजनीतिक पार्टियों के दादा लोग किसी भी वायदे पर ऐतबार नहीं करना चाहते .ऐतबार तो महिलाओं को भी इन नेताओं का नहीं है . सच्ची बात यह है कि २० हज़ार किलोमीटर की जागरूकता यात्रा करके लौटी इन औरतों को जिसने देखा है , उसे मालूम है कि महिला आरक्षण का माला अब राजनीतिक प्रबंधन की सीमा से बाहर जा चुका है . लगता है कि इतिहास एक नयी दिशा में चल पड़ा है और आने वाली नस्लें इन औरतों पर फख्र करेगीं . यह कोई तफरीह नहीं है , यहाँ इतिहास अंगडाई ले रहा है.

इसके पहले महिला आरक्षण कारवां ६ जून को दिल्ली पंहुचा था . पूरे भारत में करीब २० हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके तीन काफिले जब दिल्ली के मावलंकर हाल के मैदान में पंहुचे तो उनका बाजे गाजे के साथ स्वागत किया गया. यह तीनों काफिले १८५७ की हीरो झलकारी बाई और लक्ष्मीबाई की बलिदान स्थली, झांसी से २० मई को चले थे. १८५७ में मई के महीने में ही भारतीय इतिहास की इन वीरांगनाओं ने ब्रितानी साम्राज्यवाद को चुनौती दी थी . और साम्राज्यवादी सामन्ती सोच के सामने इन्होने वीरता का वरण किया था और शहीद हुई थीं. . भारत की आज़ादी की नींव में जिन लोगों का खून लगा है , यह दोनों उसमें सर-ए-फेहरिस्त हैं . १८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं है, वे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं , उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमान, सिख, ईसाई, बूढ़े ,बच्चे नौजवान , औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये और देश वासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की . लेकिन आज़ादी हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चनाचूर कर दिया . इनकी पुरातन पंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की. हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. बहरहाल नेहरू बहुत बड़े नेता थे , उनका विरोध कर पाना पुरातन पंथियों के लिए संभव नहीं था और बिल पास हो गया .

महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी. राजीव गाँधी ने पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीन लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . धीरे धीरे सब सुधर रहा है .लेकिन जब संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात आई तो अड़ंगेबाजी का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया. किसी न किसी बहाने से पिछले १२ वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे,. . देश का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पिछले २० वर्षों से देश में ऐसी सरकारें हैं जो गठबंधन की राजनीति की शिकार हैं . लिहाज़ा कांग्रेस , बी जे पी या लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक मंशा होने के बावजूद भी कुछ नहीं हो पा रहा है . मर्दवादी सोच चौतरफा हावी है . इस बार भी राज्य सभा में बिल को पास करा लिया गया है लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता. असली काम तो लोक सभा में होना है और मामला हर बार की तरह एक बार फिर लटक गया है .. अब तो कांग्रेस और बी जे पी जैसी पार्टियां भी इस बिल से बच कर निकल जाना चाहती हैं . ऐसे माहौल में मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए बनायी गयी संस्था, अनहद की अगुवाई में करीब दो सौ महिला संगठनों के कार्यकर्ता सामने आये और चल पड़ा जागरूकता का कारवां. झांसी से चल कर करीब बीस हज़ार किलोमीटर की यात्रा करके जो महिलायें दिल्ली पंहुची थीं , उनका उत्साह देखते बनता था . राजस्थान में महिला अधिकारों की अलख जगाने वाली भंवरी देवी थीं , तो गुजरात पुलिस के हाथों फर्जी इनकाउंटर में मारी गयी लड़की इशरत जहां के माँ शमीमा और उसकी बहन मुसर्रत भी थीं . अनहद की शबनम हाशमी का दावा है कि जब पूरे देश में जागरूक महिलाओं की ओर से आवाज़ उठेगी तो दिल्ली में बैठे सरकारी नेताओं के लिए महिलाओं के अधिकार को हड़प कर पाना बहुत मुश्किल होगा

Sunday, June 6, 2010

ता हद्दे नज़र शहरे-खामोशां के निशाँ हैं

शेष नारायण सिंह

गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है . पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा है . शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है . गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं , वे भी उसी में शामिल हैं. विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एक जुट करने की कोशिश कर रहे हैं .उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन सेवा में काम करती हैं , वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी है ,उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई हैं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई हैं . ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था. इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ,अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था . किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं .गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक़्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसक अभी वही हाल होगा जो पिछले १० साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है .नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जायेगी. और मोदी क एपुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है . वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद , राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं . अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी , राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता , एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा .
अहमदाबाद में जारी के बयान में मानवाधिकार संस्था,दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी ने कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनो , दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है ' लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं है . शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज़्यादा आतंक है, . वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगें जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसी हालात पैदा की जायेगीं कि वे लोगों को गिरफ्तार करें . ज़ाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगें और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा.वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा.

वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है , सब अमन चैन से हैं . गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा . सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है , कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है . उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है.बड़ा अच्छा लगा कि चलो १० साल बाद गुजरात में ऐसी शान्ति आई है .लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी. वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे , जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं . गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का . गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है , पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है . अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है. मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं . लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली . इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं . गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था . उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है . उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो . पाकेटमारी, दफा १५१ , चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे , उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे . पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था .लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था . ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की ..इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया . इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो . उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था . इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता ..डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है . कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं . वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी ज़रूरत है .यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा. फिर मोदी को किसी से कोई ख़तरा नहीं रह जाएगा. हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बी जे पी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेन्द्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा

Friday, June 4, 2010

बेगुनाह कश्मीरियों के हत्यारे फौजियों को सज़ा देना हुकूमत का फ़र्ज़ है

शेष नारायण सिंह


पिछले महीने संपन्न हुए प्रधान मंत्री के राष्ट्रीय पत्रकार सम्मलेन में जो सवाल पूछे गए उनमें से ज़्यादातर बहुत आसान सवाल थे . उसके लिए उनकी आलोचना भी हुई थी लेकिन कुछ कठिन सवाल भी पूछे गए थे .यह अलग बात है कि उन्होंने जो कुछ भी जवाब दे दिया , वह हर्फे-आखिर हो गया क्योंकि किसी को भी दूसरा सवाल पूछने की अनुमति नहीं थी. प्रधानमंत्री बार बार यह कहते रहते हैं कि कि मानवाधिकारों का हनन करने वालों के लिए उनकी सरकार में कोई नरमी नहीं है , उनसे सख्ती से पेश आया जाएगा लेकिन जब सन २००० में पथरीबल में मारे गए निर्दोष नौजवानों के बारे में पूछा गया तो उनके पास कोई जवाब नहीं था . हो सकता है कि वे इस सवाल की उम्मीद न कर रहे हों लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि बाद में वे क्या कार्रवाई करते हैं . उनसे पूछा गया था कि सन २०० में पथरीबल में मारे गए पांच निर्दोष नौजवानों को मारने वाले जिन फौजियों के ऊपर सी बी आई ने चार्जशीट दाखिल किया है उनके खिलाफ मुक़दमा चलाये जाने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है . आगे की कार्रवाई के बारे में सिविल सोसाइटी को इंतज़ार रहेगा.
हुआ यह था कि २० मार्च ,२००० के दिन अनंतनाग जिले के छतीसिंहपुरा में लश्कर-ए-तय्यबा के कुछ आतंकियों ने गाँव के सभी सिख मर्दों को इकठ्ठा किया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया . . उस वक़्त लाल कृष्ण आडवानी देश के गृह मंत्री थे . इस क़त्ले-आम के पांच दिन बाद उन्होंने देश को बताया कि हत्यारों का पता लगा लिया गया है . वे विदेशी आतंकवादी थे . उन्होंने दावा किया कि ५ विदेशी आतंकवादियों को मार गिराया गया है . . राष्ट्रीय राइफल्स और राज्य पुलिस की ओर से एक एफ आई आर लिखाया गया जिसमें सूचना दी गयी कि पथरीबल के पास एक मुठभेड़ हुई जिसमें आतंकवादियों को घेर लिया गया और उन्हें मार डाला गया. . वहां मिले शव इतने जल गए थे कि उनको पहचानना मुश्किल था और उन्हें दफन कर दिया गया . लेकिन बाद में पता चला कि लाल कृष्ण आडवानी ने देश को गुमराह करने की कोशिश की थी. पता यह भी चला कि जो पांच लोग मारे गए तह वे विदेशी नहीं थे और आतंकवादी नहीं थे. वे निर्दोष थे. उन पाँचों को अनंतनाग के आस पास से २४ मार्च को उठाया गया था . उनके नाम थे, ज़हूर दलाल ,बशीर अहमद भट, मुहम्मद मलिक , जुमा खान . एक और नौजवान भी था जिसका नाम भी शायद जुमा खान ही था. . जब २५ मार्च को पास के जंगलों में पांच लोगों के मारे जाने की खबर प्रचारित हुई तो गाँव वालों को शक़ हुआ कि कहीं यह पाँचों उनके अपने ही लोग तो नहीं हैं . भारी हल्ले गुल्ले के बाद उन पाँचों तथाकथित विदेशी आतंकवादियों के शवों को ज़मीन से बाहर निकाला गया . परिवार वालों के खून के नमूने लिए गए और डी एन ए जांच के लिए भेज दिया गया लेकिन यहाँ भी डाक्टरों की मदद से सेना और पुलिस ने हेराफेरी की और खून के नमूने बदल दिए . ज़ाहिर है कि जांच में यह आ गया कि मारे और दफन किये गए लोग गाँव वालों के रिश्तेदार नहीं थे . लेकिन मार्च २००२ में पता चला कि हेराफेरी हुई थी . फिर खून के नमूने लिए गए और पक्के तौर पर साबित हो गया कि जिन लोगों को सेना और पुलिस ने मारा था वे विदेशी नहीं थे . वे वास्तव में वही लड़के थे जिन्हें सुरक्षा बालों ने २४ मार्च २००० के दिन अनंत नाग के आस पास के गावों से उठाया था .

पूरे देश में सिविल सोसाइटी के लोगों ने मांग की कि मामले की निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए .राज्य सरकार ने मामले की सी बी आई जांच का आदेश दे दिया . जिसने पांच साल की गहरी जांच के बाद पता लगाया कि जो लोग मरे थे वे वास्तव में विदेशी नहीं थे , वे यही पांच नौजवान थे जिन्हें गावों से उठाया गया था ..सी बी आई ने श्रीनगर के चीफ जुडिसियल मजिस्ट्रेट की अदालत में जुलाई २००६ में चार्ज शीट दाखिल कर दिया जिसमें ब्रिगेडियर अजय सक्सेना, ले. कर्नल ब्रिजेन्द्र प्रताप सिंह , मेजर सौरभ शर्मा ,मेजर अमित सक्सेना और सूबेदार आई खान के खिलाफ रणबीर पेनल कोड की दफा ३०२ के तहत मुक़दमा चलाया जाना है . अभी तक मुक़दमे की सुनवाई शुरू नहीं हुई है . . मामला अदालती दांव पेंच के घेरे में फंस गया है .और अभी तक कुछ नहीं हुआ . प्रधान मंत्री अगर मानवाधिकारों के हनन वालों के खिलाफ गंभीर हैं और उनके खिलाफ किसी तरह की नरमी को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं तो उन्हें इस समाले में सी बी आई की मदद करनी चाहिए और उन फौजियों को सख्त से सख्त सज़ा दिलवानी चाहिए जिन्होंने गरीब और निर्दोष कश्मीरियों को पकड़ कर बेरहमी से मार डाला था

मीडिया को रिटायर्ड फौजी अफसरों को महिमा मंडित नहीं करना चाहिए

शेष नारायण सिंह

जब से टेलिविज़न पर चौबीसों घंटे ख़बरों का सिलसिला शुरू हुआ है , एक अजीब प्रवृत्ति नज़र आने लगी है . शुरू तो यह एक बहुत ही मामूली तरीके से हुई थी लेकिन अब प्रवृत्ति यह खतरनाक मुकाम तक पंहुंच चुकी है. देखा गया है कि हर मसले पर पूर्व और वर्तमान फौजी अफसर अपनी राय देने लगे हैं और टेलिविज़न चैनलों पर उसे प्रमुखता से दिखाया जाने लगा है . समाचार संकलन अपने आप में एक गंभीर काम है , ज़रा सी चूक से क्या से क्या हो सकता है .टेलिविज़न के समाचार तो और भी गंभीर माने जाने चाहिए क्योंकि देखी गयी खबर का असर सुनी या पढी गयी खबर से ज्यादा होता है . इसलिए टेलिविज़न की ज़िम्मेदारी है कि वह मामले को हल्का फुल्का करके पेश करने की लालच में न पड़े. लेकिन ऐसा धड़ल्ले से हो रहा है . यह लोकतंत्र और समाज के लिए ठीक नहीं है . आजकल कारगिल के युद्ध के बारे में तरह तरह की खबरें दिखाई जा रही हैं . किसी ब्रिगेडियर के साथ हुए अन्याय को केंद्र में रख कर कई टी वी चैनलों पर सेना और इतिहास से जुड़े तरह तरह के विषयों पर चर्चा की जा रही है . यह ठीक नहीं है . लोकतंत्र में बहस का महत्व है या यह कह सकते हैं कि बिना बहस के लोकतंत्र में जान ही नहीं आती लेकिन यह बहस उन मुद्दों के बारे में होनी चाहिए जो सरकारी नीति के बनाने में सहयोग कर सकें या उन पर निगरानी करने में काम आ सकें . राज काज और राजनीतिक विषयों पर बहस बहुत ज़रूरी है और उसे उत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन सेना और राष्ट्रीय सुरक्षा के नीतियों और योजनाओं को पब्लिक डोमेन में लाना राष्ट्रीय सुरक्षा से खेलना है और इसे किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.
खबर आई है कि कारगिल युद्ध में हेरा फेरी के आरोपी एक जनरल ने कहा है कि उस लड़ाई में भारत की जीत ही नहीं हुई थी. इस जनरल का आचरण संदेह के घेरे में आ चुका है और उसके बारे में अदालती हस्तक्षेप के बाद यह पता लग चुका है कि यह भाई हेरा फेरी का उस्ताद है . उसके दृष्टिकोण को पब्लिक डोमेन में लाने का कोई मतलब नहीं है . जहां तक कारगिल की लड़ाई की बात है , वह हमारी विदेश नीति की नाकामी का एक बड़ा उदाहरण है . भला बताइये , हमारा प्रधानमंत्री पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए सकारात्मक पहल कर रहा है और बस से लाहौर की यात्रा पर गया हुआ है और पाकिस्तानी फौज हमारे महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर रही है . और हमारी खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं है . ज़ाहिर है कि उस वक़्त के कूटनीति के प्रबंधकों को दण्डित किया जाना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी पुराना फौजी मुंह उठाकर चला आये और कह दे कि जिस लड़ाई में हमारे इतने नौजवान शहीद हुए हों , वह बेकार की लड़ाई थी ., उसमें हमारी जीत ही नहीं हुई थी. यह बहुत ही गैरज़िम्मेदार बयान है और अगर कोई ऐसा आदमी कह रहा हो, जो उस लड़ाई के संचालन में बहुत ही महत्वपूर्ण पद पर रहा हो , तो और भी गंभीर बात है . हालांकि कि फौजियों को इतने गंभीर मामलों के राजनीतिक और कूटनीतिक पक्ष में शामिल नहीं किया जाना चाहिए लेकिन अब बात बहस में घसीट ली गयी है तो बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है . जहां तक कारगिल में हार जीत की बात है , निश्चित रूप से भारत ने वहां सैनिक सफलता पायी है . यह भी सही है कि उस लड़ाई में अपने बहुत से बहादुर अफसर और जवान शहीद भी हुए . लेकिन अगर उस वक़्त हमारी सेना सफल न हुई होती तो कारगिल और आसपास के इलाकों में सामरिक रूप से जिन ऊंचाइयों पर पाकिस्तानी सेना ने अपने अड्डे बना लिये थे , वह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है . वहां से पाकिस्तान को बेदखल कर के सैनिक सुरक्षा की अपनी व्यवस्था को दुरुस्त करना अगर जीत नहीं है तो फिर क्या है . इस गैर ज़िम्मेदार,हेराफेरी मास्टर और कुंठित पूर्व जनरल के प्रलाप को पूरे देश में प्रचारित करके जिस न्यूज़ चैनल ने राष्ट्रीय सुरक्षा को सवालों के घेरे में खड़ा करने की कोशिश की है , उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था. सवाल पैदा होता है कि वह फौजी जिसकी बे-ईमानी की कथा अब जगज़ाहिर है , उसके अध् कचरे ख्यालात को राष्ट्रहित के खिलाफ इतनी अहमियत क्यों दी जा रही है . जिस चैनल पर यह श्रीमान जी अपने आप को महिमामंडित कर रहे थे उसकी एक बहुत ही वरिष्ठ कार्यकर्ता पर पिछले दिनों पावर ब्रोकर होने के आरोप भी लग चुके हैं . कारगिल युद्ध के दौरान भी इस चैनल की एक रिपोर्टर पर आरोप लग चुका है कि उसकी एक खबर की वजह से हमारे कुछ सैनिक शहीद हुए थे . हालांकि इन खबरों में सच्चाई नहीं है लेकिन उस युद्ध के दौरान जो बंदा इंचार्ज था, उसको बहुत हाईलाईट करके कहीं एहसान का बदला तो नहीं चुकाया जा रहा है .

जहां तक कारगिल की लड़ाई को बेकार साबित करने की कोशिश है , वह भी बिलकुल बेकार की बात है .. उस लड़ाई में भारतीय फौज विजयी रही थी क्योंकि उसने महत्वपूर्ण सैनिक ठिकानों को पाकिस्तानी फौज से वापस लेकर वहां तिरंगा लहरा दिया था .. लेकिन असली जीत तो अंतरराष्ट्रीय मैदान में हुई थी. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अमरीका जाकर उसके राष्ट्रपति से मदद की गुहार की थी लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर पाकिस्तानी फौजें फ़ौरन न हटीं तो मुश्किल हो जायेगी. परंपरागत रूप से आँख मूँद कर पाकिस्तान की मदद करने वाले अमरीका की नज़र में पाकिस्तान का यह पतन भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत थी . लेकिन इन बातों से फौजी जनरलों को कोई मतलब नहीं होना चाहिए और समाचार माध्यमों को भी सावधान रहना चाहिए कि कहीं उनकी अधकचरी समझ की वजह से राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा न पैदा हो जाय

पाकिस्तान को ख़त्म कर सकता है आतंकवाद

शेष नारायण सिंह


पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय लोगों की दो मस्जिदों में शुक्रवार की नमाज़ के वक़्त जो हमला हुआ वह पाकिस्तानी समाज में व्याप्त असहिष्णुता को एक बार भी फिर रेखांकित कर देता है .. अहमदिया समुदाय के लोग अपने आप को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तानी सरकार उन्हें मुसलमान नहीं मानती. वे वहां के सरकारी रिकॉर्ड में गैर-मुस्लिम जमात के रूप में दर्ज हैं . शायद इसीलिए जब शुक्रवार के दिन मस्जिद में हुए हमलों में मारे गए अहमदिया समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार किया गया तो कोई भी सरकारी नेता या अधिकारी वहां नहीं गया . राजनीतिक पार्टियों ने तो दो मस्जिदों में हुए इस नरसंहार के खिलाफ बयान दे दिए लेकिन कोई नेता सार्वजनिक रूप से सहानुभूति व्यक्त करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.दरअसल पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय के लोगों के खिलाफ बहुत असहिष्णुता है . पाकिस्तानी हुकूमत का दावा है कि अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों की आबादी उनके देश में चौथाई प्रतिशत से भी कम है . पाकिस्तान की स्थापना के बाद से ही जब जमाते-इस्लामी के नेता , मौलाना मौदूदी ने नए देश को इस्लामी राज्य के रूप में स्थापित करने की मुहिम शुरू की , तो लोगों को लगने लगा था कि पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान तो कभी नहीं बन पायेगा. इसका कारण यह था कि पाकिस्तान की बुनियादी मांग ही धार्मिक आधार पर की गयी थी. जिन्ना ने अंग्रेजों से पाकिस्तान हासिल ही इसलिए किया था कि उन्हें शक़ था कि आज़ादी के बाद जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो हिन्दू बहुमत की सरकारें मुसलमानों को परेशान करेंगीं . जिन्ना की यह सोच गलत थी क्योंकि आज भी मुसलमान भारत में गर्व से रहते हैं और मुस्लिम विरोधी आर एस एस के खिलाफ लगभग पूरे देश के धर्मनिरपेक्ष हिन्दू लामबंद हैं.. जिन्ना की वफादारी और भारत के टुकड़े करने की अपनी नीति के तहत अंग्रेजों ने मुल्क का बँटवारा कर दिया . शायद इसीलिए जमाते इस्लामी की अगुवाई में मुल्लाओं ने इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए कोशिश शुरू कर दी लेकिन जिन्ना के दिमाग में कुछ और था . वे धार्मिक मामलों को राजकाज का हिस्सा नहीं बनाना चाहते थे. इसीलिए पाकिस्तान के बँटवारे के बाद उन्होंने जो सबसे चर्चित भाषण दिया था उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि नया मुल्क एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा. उनका वह भाषण बार बार उद्धृत किया जाता है . उस पर गौर करने की ज़रुरत है क्योंकि उसकी रोशनी में ही समझ में आयेगा कि पाकिस्तान के संस्थापक के असली सपने कितने नीचे दफन कर दिए गए हैं .
जिन्ना ने अपने उस विख्यात भाषण में कहा था कि ' मेरी समझ से भारत के विकास में धार्मिक मतभेद की समस्या सबसे बड़ी बाधा रही है . इसलिए हमें इस से एक सबक सीखना चाहिए . इस नए पाकिस्तान में आप मंदिर में जाने के लिए स्वतंत्र हैं .आप अपनी मस्जिदों में जा सकते हैं या किसी और पूजा स्थल पर जा सकते हैं . आप किसी भी धर्म, जाति या मत से ताल्लुक रख सकते हैं , उस से राज्य का कोई लेना देना नहीं है .' जिन्ना का यह भाषण साफ़ कर देता है कि पाकिस्तान हथियाने के लिए उन्होंने चाहे जो कुछ भी किया हो लेकिन नए देश को वे भी धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर चलाना चाहते थे . लेकिन उनकी बात को सुनने वाला कोई नहीं था . उनके मरने के कुछ बाद ही उनके चहेते और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली को मार डाला गया , पंजाबी साम्राज्यवाद की शुरुआत हो गयी शुरू में तो जिन्ना की सोच को इज्ज़त देने का ड्रामा होता रहा लेकिन बाद में अपने आप को बहुत सेकुलर और आधुनिक कहलाने के शौकीन , ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सत्ता पर काबिज़ होने के बाद सरकारी स्तर पर मुल्लाओं की बात को स्वीकार करना शुरू कर दिया . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ही अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को गैर-मुस्लिम घोषित किया था . बाद में उनके हत्यारे और पाकिस्तान के फौजी तानाशाह ,जिया उल हक ने उसे बहुत ही मज़बूत कर दिया .

बहरहाल यह पक्का है कि मुहम्मद अली जिन्ना वाला पाकिस्तान आज कहीं दूर दूर तक नहीं है . यह हाल शुरू से ही है . पाकिस्तान में सत्तर के दशक में लोग कहते पाए जाते थे कि यहाँ सिन्धी हैं , पंजाबी हैं , पख्तून हैं और बलूच हैं लेकिन पाकिस्तानी कोई नहीं . आज हालात उस से भी बदतर हैं . जिस तरह से पूरे पाकिस्तान में खून खराबा हो रहा है, उसे देखकर कई बार शक़ होने लगता है आज के पाकिस्तान में इंसान की इज्ज़त करने वाली जमातें भी कहीं छुप गयी हैं . मुहम्मद अली जिन्ना मूल रूप से धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के पैरोकार थे ..१९१९ के पहले की कांग्रेस में उनकी हैसियत एक बड़े नेता की थी लेकिन अपने चिडचिडे और दूसरों की राय की इज्ज़त न करने के स्वभाव कारण उन्हें कांग्रेस से अलग होना पड़ा . बाद में लियाक़त अली के साथ मिलकर वे मुल्क के बँटवारे के अभियान के नेता बने. लेकिन आज़ादी के बाद वे पाकिस्तान में वैज्ञानिक सोच के आधार पर हुकूमत के पक्षधर थे. जो हो न सका .उनका सपना पूरा नहीं हुआ .. पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के सपने अब कहीं नहीं हैं. पूर्व तानाशाह जिया उल हक ने जिस तरह से हर पाकिस्तानी के दिमाग में भारत से दुश्मनी का ज़हर भर दिया था , वह अब रंग दिखाने लगा है . भारत को तबाह करने के लिए जिया ने आतंकवाद को अपनी सरकार की प्राथमिकता में शामिल किया था और आई एस आई का इस्तेमाल करके आतंकवाद का एक बड़ा तामझाम तैयार किया था . भारत ने तो अपने आप को सुरक्षित कर लिया लेकिन वही आतंकवाद आज पाकिस्तान की तबाही का कारण बनता नज़र आ रहा है. और लगता है कि जिया से शुरू होकर बेनजीर ,नवाज़ शरीफ और मुशर्रफ के शासन काल में जिस आतंकवाद को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश की गयी थी ,वह पाकिस्तान को तबाह करके ही दम लेगा.

अगर आतंक में पकडे गए तो आर एस एस अपने लोगों से पल्ला झाड़ लेगा

शेष नारायण सिंह

देश में हुई आतंकवादी गतिविधियों में आर एस एस के शामिल होने की पोल खुलने के बाद नागपुर के मठाधीश बहुत परेशान हैं . एक बहुत ही आदरणीय पत्रकार से बात चीत में संगठन के एक ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह ठीक नहीं है क्योंकि अगर आर एस एस के कार्यक्रताओं के नाम आतंकवादी काम में जुड़ गए तो उनकी उस रणनीति की हवा निकल जायेगी जिसके तहत वे कहते पाए जाते थे कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं .. उनकी कोशिश रहती थी कि मुसलमानों को आतंकवाद के साचे में मुकम्मल तरीके से फिक्स रखा जाए . लेकिन महाराष्ट्र के मालेगांव, राजस्थान के अजमेर और आन्ध्र प्रदेश के मक्का मस्जिद धमाकों में आर एस एस के लोगों के पकडे जाने और उनके शामिल होने की बात के साबित हो जाने के बाद यह तो पता चल ही गया है कि सभी आतंकवादी मुसलमान नहीं होते, बल्कि यह भी कि आर एस एस ही इस देश में होने वाले आतंकवाद का एक प्रमुख नियंता है और आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता .. अब आर एस एस की ताज़ा लाइन अलग है. अब तक तो यह था कि अपने लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पकडे जाने के बाद भी मदद की जायेगी . इस सोच के तहत ही जब उनकी मध्य प्रदेश की नेता, प्रज्ञा सिंह ठाकुर आतंकवादी होने के आरोप में पकड़ी गयी थीं तो उस वक़्त के आर एस एस की राजनीतिक शाखा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधान मंत्री पद के प्रतीक्षक, लाल कृष्ण आडवानी ने उनके समर्थन में बयान दिया था लेकिन अब बात बिगड़ रही है. प्रज्ञा ठाकुर वाले मामले में बचत की एक गुंजाइश थी . वे आर एस एस के उन संगठनों के साथ थीं जो चोरी छुपे उनका काम करते हैं और पकडे जाने पर नागपुर उनसे पल्ला झाड लेता है . लेकिन अब बात बदल गयी है . अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जो धमाका हुआ था , उसका सरगना पकड़ लिया गया है और वह आर एस एस का आधिकारिक रूप से तैनात किया गया प्रचारक था. प्रचारक ,आर एस एस का सबसे महत्वपूर्ण पद्दाधिकारी होता है . सही बात यह है कि वही सारे खेल में केंदीय भूमिका अदा करता है . संगठन के सभी बड़े नेता मूल रूप से स्वयंसेवक होते हैं लेकिन जो प्रचारक होकर बी जे पी में आते हैं ,उनकी ताक़त औरों से ज्यादा होती है . गुजरात के नरेंद्र मोदी भी आर एस एस के प्रचारक रह चुके हैं . ज़ाहिर है प्रचारकों के पकडे जाने के बाद आर एस एस वालों को लगने लगा है कि अगर सारी पोल पट्टी खुल गयी तो उनका एक बार फिर वही हाल होगा जो गाँधी जी की हत्या में पकडे जाने के बाद हुआ था. उस मामले में तो उनके मुखिया ,गोलवलकर तक पकड़ लिए गए थे . बाद में छूट गए लेकिन उनके अपने बन्दे सावरकर , नाथूराम गोडसे वगैरह के ऊपर आरोप साबित हो गए थे. और उन लोगों को माकूल सज़ा भी हुई. गांधी हत्या में पकडे जाने की वजह से इस संगठन पर बहुत दिनों तक किसी को भरोसा नहीं हुआ था. वह तो १९७७ में जयप्रकाश नारायण ने इनको मुख्य धारा में लाने में मदद की. शायद इसीलिए अब आर एस एस के नेता लोग खुले आम बदमाशी करने या अपने लोगों को आतंकवादी कहलवाने का ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते . जिस गुमनाम आर एस एस वाले ने एक प्रतिष्ठित अखबार की संवाददाता से बात की उसने साफ़ कहा कि गाँधी जी की ह्त्या वाले मामले के बाद उनका संगठन बहुत पिछड़ गया था .
इस नयी सोच के तहत अजमेर के आतंकवादी धामाके में पकड़ा गया नरेंद्र गुप्ता अपनी जान बचाने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है . हालांकि आर एस एस के लिए यह साबित कर पाना मुश्किल है कि नरेंद्र गुप्ता का उनसे कोई लेना देना नहीं है. क्योंकि आर एस एस ने ही उसे प्रचारक के रूप में झारखण्ड में कई वर्षों तक तैनात रखा था . उसका जो सिम कार्ड बरामद हुआ है उस से उसके सम्बन्ध अजमेर धमाके के दौरान भी आर एस एस के टाप नेताओं से बने रहने की बात साबित हो गयी है . यह भी साबित हो गया है कि अपने अन्य साथियों से भी वह उसी सिम कार्ड से संपर्क में था . उसकी मक्का मस्जिद विस्फोट में हिस्सेदारी की पुष्टि हो गयी है और आर एस एस के बाकी आतंकवादी भी उसकी निशान देही पर पकडे जा रहे हैं . इस तरह से आतंकवादी हरकतों में आर एस एस के शामिल होने के पुख्ता सबूत मिल जाने के बाद उसके आला नेता परेशानी में हैं और अब उनकी नीति यह है कि जब तक पकड़ा न जाए तब तक तो आर एस एस अपने आतंकवादियों की मदद करेगा लेकिन पकडे जाने के बाद उसको कुर्बान कर देगा. आर एस एस के इस गुमनाम बड़े नेता ने सम्मानित पत्रकार को बताया कि अगर एक दिन के लिए भी आर एस एस का आतंकवादी गतिविधियों में डाइरेक्ट शामिल होता हुआ पकड़ा गया तो बहुत बुरा होगा . यानी आगे से आर एस एस का जो भी स्वयंसेवक आतंक का काम करते पकड़ा जाएगा उसका वही हश्र होगा जो अजमेर के केस में पकडे गए नरेंद्र गुप्ता का हो रहा है . यानी अब नागपुर वाले अपने उन आतंकवादियों को नहीं बचायेंगें जो पुलिस की पकड़ में आ जायेंगें

Thursday, June 3, 2010

मध्यावधि चुनाव ही झारखण्ड में थोड़ी राहत दे सकेगा

शेष नारायण सिंह

झारखण्ड में एक बार फिर राष्ट्रपति राज लगा दिया गया है . राज्य के राजनीतिक हालात ऐसे हो गए थे कि राष्ट्रपति शासन लगाना ही एक रास्ता बचा था.हालांकि अगर केंद्र सरकार चाहती तो राजनीतिक क्षितिज पर बहुत सारे ऐसे खिलाड़ी हैं जो तोड़फोड़ की राजनीति की कला के उस्ताद हैं और अगर उनको खुली छूट दे दी जाती तो सरकार तो बन ही जाती . आखिर बिना किसी राजनीतिक समर्थन के इन्हीं मौकापरस्त नेताओं ने तो मधु कोड़ा की सरकार बनवा दी थी . राज्यपाल ने पूरी कोशिश की कि कोई सरकार बन जाए. उन्होंने कांग्रेस , बी जे पी और दीगर पार्टियों से पूछा लेकिन बात बनी नहीं. बी जे पी तो अपने किसी नेता को मुख्य मंत्री बनाना चाहती है , जो किसी को मंज़ूर नहीं . कांग्रेस के दिल्ली में बैठे नेता सच्चाई से बिलकुल अनभिज्ञ हैं . उनको लगता है कि झारखण्ड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी को आगे करके कोई खेल बनाया जा सकता है लेकिन वह भी होता नहीं दिखता. हालात ऐसे हैं कि जब तक बी जे पी या शिबू सोरेन की पार्टी को साथ न लिया जाए , कोई सरकार बनती नज़र नहीं आती. कांग्रेस वाले शिबू सोरेन को साथ लेने के लिए तो तैयार हैं लेकिन उन्हें मुख्य मंत्री बनवाकर अपना भी हाल बी जे पी जैसा नहीं करना चाहते .अभी विधान सभा को भंग नहीं किया गया है . यानी उम्मीद की जा रही है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में तोड़ फोड़ होगी और एक बार फिर कोई सरकार बना दी जायेगी. इस बात की संभावना इस लिए भी बहुत ज्यादा है कि झारखण्ड के मौजूदा राजनीतिक ड्रामे में कोई भी विधायक चुनाव नहीं चाहता . चुनाव तो बी जे पी और कांग्रेस भी नहीं चाहते . इसलिए पार्टी की लाइन से ऊपर हटकर विधायक लोग खुद ही सरकार बनाने की संभावना तलाश सकते हैं . इस लिहाज़ से जो छोटे दल हैं वे तो किसी भी सरकार के लिए उपलब्ध हैं . बड़े दलों में लगभग सभी में बड़े पैमाने पर दल बदल हो सकता है . इसलिए सरकार की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता . राज्य में महत्वाकांक्षी लोगों की भी कमी नहीं है . शिबू सोरेन तो तो दुनिय जानती है . वे सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं . उनका बेटा भी उनसे कम नहीं है . बी जे पी से झगड़े के दौरान तो हालात यहाँ तक पैदा हो गए थे कि वह अपने पिता जी को ही धता बताकर सत्ता में आने के चक्कर में था . इसलिए अभी तोड़ फोड़ की संभावना पूरी है कि झारखण्ड में एक सरकार और बनेगी ता जाकर कहीं विधान सभा भंग होगी. .

तोड़ फोड़ की भावी सरकार में सबसे ज्यादा तोड़फोड़ की संभावना बी जे पी में ही है . जानकार बताते हैं कि स्थानीय बी जे पी विधायकों को लगता है कि अगर सरकार बनने की नौबत आई तो दिल्ली से कोई बी जे पी नेता वहां मुख्य मंत्री बनाकर भेज दिया जाएगा . इसलिए वे किसी को भी मुख्य मंत्री मानने को तैयार हैं , वह चाहे हेमंत सोरेन हो या शिबू सोरेन . ऐसी हालात में जो भी बी जे पी में फूट की व्यवस्था कर लेगा उसकी सरकार बन जायेगी. एक दूसरी संभावना यह है कि बी जे पी को तोड़ कर कांग्रेस सरकार बनाए . लेकिन कांग्रेस में आजकल दूर की सोचने का फैशन है . शायद इसी लिए कांग्रेस आलाकमान वाले चाहते है कि बाबू लाल मरांडी को साथ लेकर चला जाए जो आगे चलकर राज्य में पार्टी को मज़बूत करेगें . यह उम्मीद भी बेतुका है क्योंकि पिछले चुनाव तो बाबू लाल मरांडी कांग्रेस के साथ लड़ चुके हैं लेकिन अब वे राजनीतिक रूप से इतने मज़बूत हो चुके हैं कि उन्हें लगने लगा है कि वे अपने बल पर सरकार बनने लायक बहुमत जीत सकते हैं . इसलिए वे जल्दी चुनाव के लिए कोशिश कर रहे हैं . इसी मई में उन्होंने रांची में अपनी पार्टी का दो दिन का कार्यकर्ता सम्मलेन करके राजनीतिक विश्लेषकों को बता दिया है कि वे राज्य के विकास के लिए पूरी ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं और राज्य के हर गाँव में उनका संगठन बन चुका है . उन्होंने बताया कि दिल्ली और नागपुर से कंट्रोल होने वाली पार्टियों को मालूम ही नहीं है कि राज्य की समस्याएं क्या हैं और उनका हल कैसे निकाला जाए . इन तथाकथित बड़ी पार्टियों की नीतियों की वजह से ही ग्रामीण इलाकों का आदमी ठगा ठगा महसूस करता है . और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बाहर जाकर अपने कल्याण की बात सोचता है . शायद माओवादी आतंकवाद के फलने फूलने के पीछे भी बड़ी पार्टियों की यही अदूरदर्शिता सबसे बड़ा कारण है . बाबू लाल मरांडी को चुनाव से निश्चित फायदा होगा , और वे जो भी राजनीति कर रहे हैं , वह राज्य को चुनाव की तरफ ही बढ़ा रही है लेकन लगता हैकि अभी उसमें थोड़ी देर है क्योंकि विधान सभा अभी निलंबित ही की गयी है , भंग नहीं . इसलिए अभी तोड़फोड़ की मदद से एक सरकार और बनेगी और् शायद अगले साल कभी चुनाव होगा . तब तक राज्य के भ्रष्टाचार पीड़ित लोगों राहत मिलने की उम्मीद नहीं है . अगला चुनाव ही झारखण्ड के लोगों को कोई राहत दे सकेगा

Wednesday, June 2, 2010

मंसूर सईद की इच्छा के मुताबिक फैज़ की जन्मशती बनायी जायेगी

नयी दिल्ली के मुक्तधारा सभागार में २ जून २०१० को मंसूर सईद को याद करने उनके साथी पंहुचे. . ६८ साल की उम्र में पिछले हफ्ते कराची में उनकी मृत्यु हो गयी थी. . वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की सेन्ट्रल कमेटी के सदस्य थे. इस मौक पर वहां मंसूर के दोस्त मौजूद थे . ५० के दशक के उनके साथी सलीम भाई भी थे तो साठ के दशक के उनके दोस्त राजेन्द्र , बबली और मधु भी थे. ज़हूर सिद्दीकी थे तो सोहेल हाशमी थे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव , प्रकाश करात ने बताया कि जब वे दिल्ली आये थे तो आज से करीब ४२ साल पहले उन्हें मंसूर सईद की यूनिट में ही रखा गया था .. प्रकाश ने मंसूर को एक बेहतरीन इंसान के रूप में याद किया .उनके सबसे करीबी लोगों के लिए भाषण देना तो बहुत मुश्किल था लेकिन काफी कुछ यादें पब्लिक डोमेन में आयीं. उनके चचाज़ाद भाई और कामरेड ,सुहेल हाशमी ने बताया कि जब उनसे मंसूर के बारे में कुछ लिखने को कहा गया तो उन्हें कितनी परेशानी हुई . उन्होंने कहा था कि भाई मंसूर के बारे में लिखना कोई आसान काम नहीं है . यही हाल , मधु और सलीम भाई का भी था. सलीम भाई का अपने दोस्त ,मंसूर से १९५४ से साथ था , जो अब छूट गया . यादोंका सिलसिला शुरू करने के पहले सुहेल ने साफ़ कर दिया था कि मंसूर सईद की शोक सभा नहीं की जा सकती . यहाँ तो उन्हें याद करने के लिए ही लोग आये हैं . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो के सदस्य , सीताराम येचुरी ने कहा कि उनको यह बात अजीब लगी जब बताया गया कि मंसूर की उम्र ६८ साल थी. वे तो मंसूर को हमउम्र मानते थे. मंसूर की इच्छा थी कि अगले साल उर्दू के शायर फैज़ अहमद फैज़ की जन्मशती मनाई जाए .मंसूर तो चले गए लेकिन हम मनायेंगें और पाकिस्तान और भारत में इस अवसर पर कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगें .

Sunday, May 30, 2010

माओवादी आतंक को राजनीतिक जवाब देना होगा

शेष नारायण सिंह

पश्चिम बंगाल में एक और ट्रेन हाद्से का शिकार हो गयी . पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री समेत शासक वर्गों के सभी प्रतिनिधियों ने कहा कि माओवादियों ने किया . ऐसा करने से इन सत्ताधीशों को बड़ी राहत मिल गयी . अब जब भी इस हादसे की जांच का स्वांग रचाया जाएगा तो जांच एजेंसी वालों को मालूम रहेगा कि सत्ताधीशों की क्या मर्जी है .आम तौर पर होता यह है कि जब भी कोई आतंकवादी संगठन इस तरह के धमाके करता है तो वह उसकी ज़िम्मेदारी लेता है . वह यह काम करता ही प्रचार के लिए है . लेकिन जब कोई आतंकवादी संगठन ज़िम्मेदारी नहीं ले रहा है तो बात गंभीर हो जाती है . इसमें देश के दुश्मनों का हाथ हो सकता है .सवाल पैदा होता है कि यह हमारे नेता लोग बिना किसी तरह की जांच पड़ताल कराये कैसे जान लेते हैं कि किसने किया विस्फोट , किसने की तबाही ? यह निहायत ही गैर जिम्मेदाराना रवैया है और इस पर लगाम लगाई जानी चाहिए. कोलकता से दिल्ली तक बैठे इन नेताओं को किसने बता दिया कि ट्रेन पर हमला माओवादियों ने किया था. यहाँ माओवादियों को दोषमुक्त करने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है लेकिन सत्ता पर काबिज़ लोग जिनके पास सारी ताक़त है उन्हें बिना किसी बुनियाद के किसी को अपराधी घोषित नहीं करना चाहिए क्योंकि इस में सबसे बड़ा ख़तरा है कि अपराधी बच जाते हैं और जांच गलत दिशा में चल पड़ती है . खडग पुर के पास हुए ट्रेन हादसे में मारे गए लोगों को जिसने भी मारा है , वह अपराधी है . ट्रेन में सभी सीधे सादे लोग थे. उसको उड़ा देने की कोशिश करने वाले अपराधी को पकड़ कर कानून के अनुसार सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिये . उसकी सजा वही होनी चाहिए जो ७८ लोगों का क़त्ल करने वाले की हो . लेकिन बिना यह पता लगाए कि हत्या किसने की है , यह नहीं किया जाना चाहिए .हाँ , इस तरह के हादसों के लिए जो सरकारें ज़िम्मेदार हैं उनको भी सख्त से सख्त सज़ा देने के बारे में बहस शुरू हो जानी चाहिए . उसमें नक्सलवाद को बढ़ावा देने वालों को सज़ा देने के अलावा ठीक से सरकार न चला पाने वालों को भी दण्डित किये जाने का प्रावधान होना चाहिए .

नक्सलवाद और उस से जुड़े मुद्दों की एक बार फिर पड़ताल की ज़रुरत है . कुछ बुद्धिजीवियों का एक वर्ग आजकल यह कहता पाया जाता है कि देश के आदिवासी इलाकों में जो शोषित पीड़ित गरीब जनता रहती है उसने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाया है और वे नक्सलियों से मिलकर सत्ता के केन्द्रों को कमज़ोर कर रहे हैं . वे बहुत गरीब हैं और अब उन्होंने हथियार उठा लिये है . यह तर्क बिलकुल बोगस है और साधारणीकरण के भयानक दोष से ग्रस्त है . इसका मतलब यह हुआ कि जो भी गरीब होगा हथियार उठा लेगा . इस लिए इस तर्क को आगे बढाने की ज़रुरत नहीं है . आदिवासी इलाकों के शोषण और खनिज सम्पदा के बेजा दोहन के लिए सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए , पूंजीवादी मानसिकता के सत्ताधीशों की इलीट सोच को दोषी ठहराया जाना चाहिए और जागरूक लोगों को बड़े पैमाने पर आन्दोलन शुरू करने की कोशिश करनी चाहिए . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रूरत है कि माओवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों के गरीब , बेरोजगार नौजवानों को फंसाने वाले तथाकथित माओवादियों को भी एक्सपोज़ करने की ज़रुरत है .. वामपंथी राजनीति की वैज्ञानिक सोच से विचलित हुए ये संशोधनवादी अपने निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए इन गरीब आदिवासियों को चारे की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं . आज ही कुछ अखबारों के संवाददाताओं ने आदिवासी इलाकों में सक्रिय माओवादी हथियारबंद नौजवानों से बातचीत करके खबर दी है कि उन लड़कों को यह माओवादी नेता लोगों को मार डालने केलिए भेजते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि क्यों मार डालना है . यानी यह तथाकथित माओवादी नेता इन नौजवानों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह कर रहे हैं . ज़ाहिर है कि अपनी राजनीतिक किलेबंदी के लिए वे इन लोगों को इस्तेमाल कर रहे हैं .इतने शातिर दिमाग दिग्भ्रमित कम्युनिस्टों की चाल को बेनकाब करने के लिए अपनाई जाने वाली रण नीति में गोली बन्दूक को प्रातामिकता देना ठीक नहीं है . क्योंकि अगर चिदंबरम साहेब वाला कार्यक्रम चल पड़ा कि हवाई हमले करके इन माओवादियों को मारो , तो मारे यही गरीब आदिवासी जायेंगें जिनका पिछले कई वर्षों से बूढ़े माओवादी नेता इस्तेमाल कर रहे हैं . लेकिन दिल्ली और कोलकता की सरकारें भी इन माओवादी नेताओं से कम ज़िम्मेदार नहीं है .पूंजीवादी पार्टियां और कम्युनिस्ट विचारधारा की सभी पार्टियां, माओवादी आतंक में बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेदार हैं इसलिए इन सब के खिलाफ जनता और जागरूक पब्लिक ओपिनियन को लामबंद होना पड़ेगा और दिशा भ्रम के मरीज़ इन माओवादियों और गैर ज़िम्मेदार सरकारों को सच्चाई से रू ब रू करवाना पड़ेगा.

मंसूर सईद साठ के दशक के नौजवानों के हीरो थे

शेष नारायण सिंह

भाई मंसूर नहीं रहे. पाकिस्तान के शहर कराची में मंसूर सईद का इंतकाल हो गया. मौलाना अहमद सईद का एक पोता और चला गया .मृत्यु के समय मंसूर सईद की उम्र 68 साल थी . वे जियों टी वी में बहुत ऊंचे पद पर थे. उनकी पत्नी आबिदा , कराची में एक मशहूर स्कूल की संस्थापक और प्रिंसिपल हैं , उनकी बड़ी बेटी सानिया सईद पाकिस्तान की बहुत मशहूर एंकर और एक्टर है. पाकिस्तानी टेलीविज़न देखने वाला हर शख्श उन्हें पहचानता है . बेटा अहमर सईद पाकिस्तान की अंडर 19 टीम का कप्तान रह चुका है . फिलहाल ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में क्रिकेट खेलने के अलावा मीडिया से भी जुड़ा हुआ है .

१९७१ के बाद से भाई मंसूर पाकिस्तान चले गए थे और वहीं के हो गए लेकिन थे वे असली दिल्ली वाले. उनके दादा मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी और अंग्रेजों ने पूरी शिद्दत से भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था.
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण लीडरों में माने जाते थे , मौलाना अहमद सईद के इन्तेकाल पर पंडित नेहरु ने कहा था की आखरी दिल्ली वाला चला गया , उनकी शव यात्रा में जवाहरलाल नेहरू बिना जूतों के साथ साथ चले थे.

भाई मंसूर इन्हीं मौलाना अहमद सईद के पोते थे. उन्होंने दिल्ली के जामिया स्कूल और एंग्लो-अरबिक स्कूल में शुरुआती तालीम पायी ,दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज और दिल्ली कॉलेज से BA और MA किया . कॉलेज के दिनों में वे वामपंथी छात्र आन्दोलन से जुड़े , . उन दिनों दिल्ली में वामपंथी छात्र आन्दोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों पर ज्यादा जोर था और इसी दौरान मंसूर सईद ने मशहूर जर्मन नाटककार ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद हिन्दुस्तानी में किया , जो बहुत बार खेला गया .अपनी पूरी ज़िंदगी में मंसूर सईद ने हार नहीं मानी हालांकि बार बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हुईं कि लोगों को लगता था कि वे हार गए हैं . लेकिन वे हमेशा जीत की तरफ बढ़ते रहे. जेम्स बांड फिल्मों में शुरुआती दौर में जेम्स बांड का रोल करने वाले ब्रिटिश अभिनेता , शान कोनरी और भाई मंसूर की शक्ल मिलती जुलती थी. जब कोई इस बात की तरह संकेत करता तो मंसूर सईद फरमाते थे , Yes, Sean Connery tries to look like me .

वे सन १९७१ में अपनी दोस्त आबिदा हाशमी से मिलने पकिस्तान गए और शादी करके वहीं बस गए. आबिदा के पिता,अनीस हाशमी कराची में रहते थे. और पाकिस्तान में जम्हूरियत की बहाली के बड़े पैरोकार थे . वे रावलपिंडी साज़िश केस में फैज़ के साथ जेल में रह चुके थे और पाकिस्तान सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे .१९७१ के युद्ध के कारण मंसूर सईद का भारत वापस आना संभव नहीं हो पाया . बाद में बंगलादेश बन जाने के बाद दोनों मुल्कों के बीच तनाव बढ़ गया और भाई मंसूर को मजबूरन वहीं रहना पड़ा . मंसूर सईद ने वहां की कम्युनिस्ट तहरीक का हिस्सा बनने का फैसला कर लिया . अपनी मृत्यु के समय वे पकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का हिस्सा थे.

पाकिस्तान जाने के पहले भाई मंसूर दिल्ली में नौजवानों की एक पूरी पीढी के हीरो थे. दिल्ली में जब साठ के दशक में छात्रों में वामपंथी राजनीति की समझ का सिलसिला शुरू हुआ तो भाई मंसूर उन प्रगतिशील छात्रों की अगली कतार में थे. उनके दो भाई सुहेल हाशमी और सफ़दर हाशमी बाद के वामपंथी आन्दोलन में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं . सफ़दर की तो कुछ राजनीतिक बदमाशों ने हत्या कर दी थी और सुहेल आज भी वैज्ञानिक सोच और दिल्ली की विरासत के बड़े जानकार माने जाते हैं . मंसूर की चचेरी बहन शबनम हाशमी ने पूरे देश में शोषित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई छेड़ रखी है . और धर्म निरपेक्षता के आन्दोलन की बड़ी नेता हैं .
भाई मंसूर की कमी दिल्ली में बहुत से परिवारों में महसूस की जायेगी . उनका जाना हमारी पीढी के लोगों के लिए निजी नुकसान है , सरहद के इस पार भी और उस पार भी .

Saturday, May 29, 2010

कनाडा के गैरजिम्मेदार वीजा अफसर और भारत

शेष नारायण सिंह

कनाडा ने भारत की सुरक्षा एजेंसियों के अवकाशप्राप्त अफसरों को वीजा देने से मना कर के अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है . नयी दिल्ली स्थित कनाडा के हाई कमीशन के अफसर अब तक यह खेल बेख़ौफ़ चलाते रहे हैं लेकिन जब बी एस एफ के एक पूर्व कर्मचारी का मामला टाइम्स नाउ , नाम के अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल की नज़र में आया तब से मामला तूल पकड़ गया है .यह कोई नयी बात नहीं है . पश्चिमी यूरोप के पूंजीवादी देश ऐसा बहुत दिनों से कर रहे हैं लेकिन बात आई गयी हो जाती थी . इस बार बात फंस गयी है .. शायद इसका कारण यह हो कि अब सूचना क्रान्ति की वजह से किसी भी घटना को खबर बनते देर नहीं लगती. जो भी हो पश्चिमी देशों की भारत के प्रति हठधर्मी ने एक नया रूप ले लिया है .मामला अब कूटनीतिक दांव पेंच में फंस गया है . और भारत जैसे ताक़तवर देश के सामने कनाडा के अड़े रहने की संभावना बहुत कम है . कनाडा को अपनी भूल सुधारनी होगी और अपनी सोच में बदलाव करना होगा. जहां तक माफी माँगने की बात है , वह तो उसे करना ही पडेगा. .लेकिन कनाडा के हाई कमीशन में तैनात वीजा देने वाले अफसरों की इस दम्भी प्रवृत्ति के मनोविज्ञान को समझना भी ज़रूरी है .. यह समझने की ज़रुरत है कि उन्हें यह क्यों लगता है कि भारत के नागरिकों को वे भेड़ बकरियों की तरह ट्रीट कर सकते हैं . और भारत सरकार की आदरणीय संस्थाओं के खिलाफ उल जलूल टिप्पणी कर सकते हैं . पहले सवाल का जवाब तो आसान है . जिस तरह से अपने मुल्क के कुछ हिस्सों के लोग अमरीका, कनाडा और ब्रिटेन जाने के लिए उमड़ पड़ते हैं , उस से इन पश्चिमी राजनयिकों को लग सकता है कि भारत से विदेश जाने की लालसा रखने वाले दीन-हीन लोग हैं और कनाडा जा कर दो जून की रोटी का इंतज़ाम करने के चक्कर में हैं . हालांकि यह सच नहीं है लेकिन जिस तरह से कनाडा जाने के लिए लोग उमड़ते हैं और वीजा देने वाले अधिकारियों और उनके दलालों को रिश्वत तक देने की पेशकश करते हैं , उस से अंदाज़ लग जाता है कि हाई कमीशन में तैनात अफसर इनके बारे में घटिया राय क्यों बनाते हैं .. आजकल कनाडा जाने वाले ज़्यादातर लोगों के रिश्तेदार वहीं रहते हैं और उनकी बड़ी संख्या अब कनाडा की नागरिक भी हो गयी है .इस लिए यह मसला भारत के लोगों के लिए जितनी चिंता का विषय है उतनी ही चिंता कनाडा के नागरिकों को भी होनी चाहिए .वैसे भी किसी को वीजा देना, न देना सम्बंधित देश का अपना मामला है . वह जिसको चाहे वीजा दे और जिसको न चाहे न दे. एक संप्रभु राष्ट्र का अफसर अपने देश के हित में जो भी ठीक समझे, फैसला लेने को स्वतंत्र है , उस पर किसी तरह का सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए और भारत सरकार की ओर से उनके उस अधिकार और दायित्व को चुनौती नहीं दी जा सकती. लेकिन जब कनाडा सरकार का कोई अफसर अपने काम के सिलसिले में भारत सरकार के सुरक्षा संगठनों के बारे में गैर ज़िम्मेदार टिप्पणी करेगा तो भारत सरकार को उस पर एक्शन लेना चाहिए . बी एस एफ और इंटेलीजेंस ब्यूरो के के अवकाश प्राप्त कर्मचारियों की वीजा के दरखास्त पर विचार करते समय भारत सरकार के संगठनों के लिए अपशब्द प्रयोग करने की छूट किसी भी विदेशी सरकार के कर्मचारी को नहीं दी जा सकती

भारत सरकार को एतराज़ इस बात पर है कि कनाडा के हाई कमीशन के अफसरों ने वीजा माँगने वाले लोगों को इसलिए मना कर दिया कि वे भारत सरकार की सुरक्षा एजेंसियों में काम कर रहे थे . यह गलत है और इसके लिए भारत सरकार ने कनाडा को चेतावनी दी है और अगर ज़रूरी हुआ तो उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टाईट भी किया जाएगा . यह सही रुख है क्योंकि कनाडा के वीजा देने वाले अफसरों का आचरण बहुत ही गैरजिम्मेदाराना था . . उनका दिमाग इतना खराब हो गया था कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जो एडवांस टीम कनाडा जा रही है उसके एक सदस्य को भी वीजा देने से मना कर दिया. . सवाल पैदा होता है कि जब दोनों देशों के बेच राजनयिक सम्बन्ध हैं और प्रधान मंत्रियों की आवाजाही का सिलसिला भी है तो प्रधान मंत्री की सुरक्षा का जिम्मा रखने वाले विभाग के अफसर को वीजा न देना तो निहायत ही अहमकाना काम है . ज़ाहिर है कि भारत में तैनात किये जाने वाले अफसरों को थोड़ी बहुर कूटनीतिक नफासत की ट्रेनिंग देकर कनाडा के हुक्मरान बहुत अच्छा काम करेंगें क्योंकि भारत अब कोई मामूली देश नहीं है . वह एक बड़ा देश है और अगर राजनीतिक स्तर पर फैसला हो गया तो बाकी दुनिया में भारत, कनाडा को नुकसान पंहुचा सकता है . कनाडा को यह ध्यान रखना चाहिए कि कभी भारत और कनाडा पर राज करने वाले ब्रिटेन की सरकार भी अब भारत के नेताओं से अदब से बात करती है तो कनाडा की वैसे भी हैसियत अमरीका के चम्पू की ही है . जहां तक भारत का सवाल है वह अब अमरीका से बराबरी के स्तर पर बात करता है . इसलिए यह कनाडा के अपने हित में होगा कि वह भारत से फ़ौरन माफी मांगे और आगे से तमीज से आचरण करने का भरोसा दिलाये

Thursday, May 27, 2010

समाजवादी पार्टी में अमर सिंह के विरोधियों को मुलायम चेतावनी

शेष नारायण सिंह

समाजवादी पार्टी में राजनीतिक घटनाक्रम बहुत तेज़ी से घूम रहा है . अमर सिंह के हटने के बाद जो शिथिलता आई थी ,लगता है वह अब ख़त्म होने वाली है . पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी का ऐसा दांव मारा है कि अभी लोगों को पता ही नहीं चल रहा है कि हमला किस पर है. अमर सिंह के बाद की राजनीति के बड़े बड़े सूरमा एक दूसरे से पूछते पाए जा रहे हैं कि भाई हुआ क्या. राज्य सभा और विधान परिषद् के लिए जिन पांच उम्मीदवारों की घोषणा मुलायम सिंह यादव ने की है , वह आधुनिक राजनीति के विद्यार्थी के लिए एक बड़ा सबक हो सकता है . . दुनिया जानती है कि मुलायम सिंह यादव अमर सिंह को पार्टी से निकालना नहीं चाहते थे लेकिन माहौल ऐसा बना कि उनके लिए अमर सिंह को पार्टी में रख पाना मुश्किल हो गया . अमर सिंह ने भी अपनी हैसियत को बहुत बढ़ा कर आंक रखा था . यह उनकी गलती थी . दिल्ली की राजनीति में कोई भी बहुत ताक़तवर नहीं होता . इसी दिल्ली में सबसे बेहतरीन मुग़ल बादशाह को उसी के बेटे औरंगजेब ने जेल की हवा खिलाई थी . बाद के युग में इंदिरा गाँधी के दरबार के बहुत करीबी लोग ऐसे मुहल्लों में खो गए थे जहां कोई भी ताक़तवर आदमी जाना नहीं चाहेगा. दिनेश सिंह एक बार जवाहरलाल नेहरू के करीबी हुआ करते थे, इंदिरा जी के ख़ास सलाहकार थे और बाद में राज नारायण समेत बहुत सारे लोगों के दरवाजों पर दस्तक देते देखे गए थे. वामपंथी रुझान के नेता चन्द्र जीत यादव की हनक का अंदाज़ वह इंसान लगा ही नहीं सकता जिसने सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में उनका जलवा नहीं देखा . कभी बाबू जगजीवन राम की मर्जी को इंदिरा जी अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करती थीं , बाद में वे ही उनके सबसे बड़े दुश्मन हुए . इसलिए दिल्ली की राजनीति एक ऐसा अखाड़ा है जहां जो पहलवान मुकाबिल हो वहां से तो हमला होता ही है , अपने साथी भी ज़बर्दस्त वार करते हैं . अमर सिंह इसी बारकी को समझने में गच्चा खा गए और जब उन्हें राजनीति के शतरंज की शह की जानकारी मिली तब तक वे मात चुके थे . लेकिन समाजवादी पार्टी में उनके विरोधियों को भी मुगालता था कि उन्होंने लड़ाई जीत ली है . और यहीं वे गच्चा खा गए. अमर सिंह के चेलों को हटा कर उन लोगों ने अपने बन्दों को ख़ास पदों बैठा दिया लेकिन अब तस्वीर की बारीकियां उभरने लगी हैं . मुलायम सिंह ने साफ़ कर दिया है कि समाजवादी पार्टी में उनकी ही चलेगी . अमर सिंह के भाई की पत्नी को दुबारा राज्य सभा की टिकट देकर उन्होंने ऐलान कर दिया है कि अमर सिंह ज्यादा बोलने की अपनी आदत के चलते उनको नाराज़ करने में तो भले ही सफल हो गए हैं लेकिन अभी मुलायम सिंह यादव उन्हें दुश्मन नहीं मानते. समाजवादी पार्टी की मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम को देखने से स्वर्गीय चन्द्र शेखर की एक बात याद आती हैं. वे कहा करते थे कि राजनीति संभाव्यता का खेल है . यानी यहाँ कुछ भी संभव है . राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता . एक घटना से बात को समझने की कोशिश की जायेगी. एक बार लालू प्रसाद यादव को देवेगौड़ा ने पार्टी से निकला दिया था. लालू ने उनके खिलाफ बहुत सारे बयान दिए . कुछ दिन बाद फिर एकता हो गयी. किसी प्रेस वार्ता में दोनों ही नेता साथ साथ प्रेस को संबोधित कर रहे थे . किसी ने पूछा कि लालू जी आपने तो देवेगौडा को बहुत गालियाँ दी थीं, आज उनके साथ क्यों बैठे हैं ? लालू ने बगल में बैठे हुए देवेगौडा की तरफ इशारा करके जवाब दिया कि इन्होने हमें पार्टी से निकाला था , तो क्या हम इनकी आरती उतारते. बात एक बहुत ही ज़ोरदार ठहाके में ख़त्म हो गयी और सारी तल्खी हवा हो गयी . बहरहाल समाजवादी पार्टी में भी लगता है कि यही हो रहा है. अमर सिंह के सारे बयानों के बावजूद पार्टी में उनके विरोधियों को औकात पर रखना और उनके सबसे करीबी परिवार की मुखिया को राज्यसभा में दुबारा भेजने का फैसला करके मुलायम सिंह यादव ने बहस को अखाड़े में फेंक दिया है . अब आगे का घटनाक्रम देखना बहुत ही दिलचस्प होगा..

इसके अलावा भी राज्यसभा और विधान परिषद् का टिकट देने में मुलायम सिंह यादव ने राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया है . जब मायावती और काशी राम उनसे अलग हुए तो उन्होंने उनके दलित वोट बैंक को बैलेंस करने के लिए फूलन देवी को अपने साथ ले लिया था . और कहा कि दलितों की आबादी के सत्तर प्रतिशत निषाद भी उत्तर प्रदेश में रहते हैं .मुसलमानों में रशीद मसूद को टिकट देकर उन्होंने लगभग ऐलान कर दिया है कि अब आज़म खान की वापसी उनकी पार्टी में नहीं होगी, हालांकि अमर सिंह का विरोधी खेमा पूरी कोशिश कर रहा है .जया बच्चन को टिकट देकर उन्होंने बड़ा जुआ खेला है . हो सकता है कि वे सीट हाथ आ जाने के बाद साथ छोड़ जाएँ लेकिन इस बात की भी पूरी संभावना है कि उनको सम्मानित किये जाने के बाद अमर सिंह को गलती का पता चले और वे वापस आने के लिये पहल कर दें . जो भी हो , उत्तर प्रदेश में राजनीतिक माहौल में निश्चित रूप से परिवर्तन होने वाला है . देखिये ऊँट किस करवट बैठता है