शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२१ फरवरी. उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस बेताब हो गयी है . पार्टी की कोशिश है कि मीडिया में ज़्यादा से ज्यादा जगह घेर कर रखा जाए और खिलाफ पार्टियों को मीडिया से दूर रखा जाए. यह एक रणनीति का हिस्सा है. मुस्लिम आरक्षण के मुद्दे पर कांग्रेस के आला मंत्रियों ने चुनाव आयोग पर वार पर वार करने की योजना पर काम बंद नहीं किया था कि राहुल गांधी ने कानपुर में ऐसा कुछ कर दिया जिस से मीडिया में पिछले २४ घंटों से छाये हुए है . मीडिया पर बने रहने के आदी हो चुके बीजेपी वाले कांग्रेस की इस कारस्तानी से बहुत खफा हैं लेकिन सच्चाई यह है कि चुनाव के इस मौके पर वे कुछ नहीं कर नहीं पा रहे हैं .
चुनाव आयोग की ताक़त कम करने की कांग्रेसी रण नीति की जानकारी आज एक अखबार में छप जाने के बाद आज का दिन दिल्ली में पूरी तरह से कांग्रेस और चुनाव आयोग के विवाद के हवाले हो गया .नतीज यह हुआ कि बीजेपी ने भी अपने रूटीन वाले प्रवक्ताओं को पीछे धकेल कर अपने सबसे सक्षम प्रवक्ता को मैदान में उतारा . बात को बहुत दमदार बनाने की कोशिश में अरुण जेटली ने कांग्रेस को सीरियल अपराधी बता दिया और बात को गर्माना चाहा लेकिन उनके कुछ प्रिय पत्रकारों के अलावा किसी ने खबर को आगे नहीं बढ़ाया .उधर चुनाब आयोग ने बिलकुल साफ़ कह दिया है कि केंद्र सरकार की उस कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा जिसके तहत वह चुनाव आयोग और आचार संहिता को बेअसर करने की कोशिश कर रहे हैं . इस बीच प्रणब मुखर्जी के बयान आ गया कि ऐसी कोई चर्चा नहीं है . अखबार की खबर का भरोसा नहीं किया जाना चाहिए. दिल्ली की राजनीति के एक बहुत पुराने जानकार पत्रकार ने बताया कि कांग्रेस भी चुनाव आयोग को कमज़ोर करने का ख़तरा नहीं लेने वाली है . उसकी तो कोशिश केवल यह है कि रोज़ ही इस तरह के मुद्दे चुनावी मैदान में फेंकती रहे जिससे विपक्ष को मीडिया में कम स कम जगह मिले . इस काम में दक्ष पुराने खिलाडी दिग्विजय सिंह तो आजकल गंभीर चुनाव विमर्श में लग गए हैं जबकि बेनी प्रसाद वर्मा और सलमान खुर्शीद जैसे लोग मीडिया को घेरने के काम में लगे हुए हैं . आज तो मीडिया का सारा ध्यान राहुल गांधी के खिलाफ कानपुर में दर्ज रिपोर्ट पर है . उस पर तरह तरह के बयान दिया जा रहे हैं और विपक्ष भी कांग्रेस की चाल में लगातार फंसता जा रहा है .आज दिन भर जिस दूसरी बात की चर्चा रही वह है केन्द्रीय कैबिनेट में चुनाव सुधारों के मुद्दे पर चर्चा जिसमें चुनाव आयोग को कमज़ोर कर दिया जायेगा और आचार संहिता के अपराध अब चुनाव आयोग नहीं, अदालत तय करेगी . सूत्र बताते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है . चुनाव में मुसलमानों को वोट देने के लिए प्रेरित करने के लिए से शुरू की गयी सलमान खुर्शीद और बेनी प्रसाद वर्मा की योजना को भी भुला दिया जाएगा और राहुल गांधी भी एकाध दिन में खेद प्रकट कर देगें.ज़ाहिर है यह सारा काम मीडिया के प्रबंधन के लिए किया गया है और चुनाव ख़त्म होते सारे विवाद ख़त्म कर दिए जायेगें अगर कानून के हिसाब से ज़रूरी हुआ तो माफी आदि भी मांग ली जायेगी.
Thursday, February 23, 2012
Tuesday, February 21, 2012
भारत की लोकसभा स्पीकर की पाकिस्तान यात्रा पार्लियामेंटरी डिप्लोमेसी की बुलंदी का मौक़ा है
शेष नारायण सिंह
भारत के व्यापार मंत्री आनंद शर्मा पिछले दिनों पाकिस्तान गए थे. उनकी यात्रा का मकसद पाकिस्तान को यह समझाना था कि दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ने से बहुत फायदा होगा. अब बयान आया है कि भारत और पाकिस्तान इस बात पर सहमत हो गए हैं कि वे एक ऐसी योजना पर काम करेगें जिसके बाद दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्ते पूरी तरह से सामान्य हो जायेगें.यह बड़ी बात है क्यों कि इस फैसले के एक दिन पहले ही पाकिस्तानी मंत्रिमंडल ने इसी विषय पर एक फैसले नहीं लिया था और मामले को टाल दिया था. भारत और पाकिस्तान में रहने वाले बहुत सारे परिवारों के बीच जितने क़रीबी सम्बन्ध हैं ,उतने दुनिया में किन्हीं भी दो देशों की जनता के बीच नहीं हैं .लेकिन राजनेताओं की अदूरदर्शिता के चलते रिश्तों में खटास हमेशा बनी रहती है . हालांकि पाकिस्तान और भारत में नेताओं का एक ऐसा वर्ग भी है जो दोनों देशों के बीच रिश्तों को सामान्य करना चाहता है लेकिन दोनों ही देशों में ऐसे पुरातनपंथी सोच के लोग मौजूद हैं जो रिश्तों को खराब बनाए रखने में सफल रहते हैं . दोनों ही मुल्कों में ऐसे लोग हैं जिनका राजनीतिक धंधा ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पर ही निर्भर करता है .
शान्ति स्थापित करने की मुहिम में लगे लोगों के लिए संतोष की बात यह है कि आजकल दोनों ही देशों के बीच उन लोगों की ताक़त बढ़ रही है रिश्तों को मज़बूत करना चाहते हैं बुधवार को इस्लामाबाद में हुए समझौते को इसी रोशनी में देखे जाने की ज़रुरत है . यह समझौता इस बात का सबूत है कि भारत के व्यापार मंत्री आनंद शर्मा और पाकिस्तान के व्यापार मंत्री,मख्दूम मोहम्मद अमीन फहीम अपने देशों के बीच के दोस्ताना रिश्तों को आगे बढ़ाना चाहते हैं .यह इस बात का भी सबूत है को दोनों देशों के बीच अब सरकारी स्तर पर भी गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं कि ट्रैक टू डिप्लोमेसी को आगे बढ़ाना है .
आनंद शर्मा की पाकिस्तान यात्रा के ठीक बाद भारत की लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार भी संसद सदस्यों के एक गुडविल मिशन का नेतृत्व करेगीं. वे अगले हफ्ते इस्लामाबाद जा रही हैं . इस प्रतिनिधि मंडल में अन्य लोगों के अलावा बीजेपी के सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन और तरुण विजय भी शामिल हैं .यह यात्रा पाकिस्तान की संसद , कौमी असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा के निमत्रण पर हो रही है . मीरा कुमार को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने भी पाकिस्तान आने की दावत दिया था.. इसके पहले लोकसभा का कोई भी स्पीकर कभी भी पाकिस्तान की यात्रा पर नहीं गया है. यह बहुत ही दिलचस्प संयोग है कि भारत और पाकिस्तान ,दोनों ही देशों में आजकल संसद के निचले सदन की पीठासीन अधिकारी महिलायें हैं . दरअसल पाकिस्तानी कौमी असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा तो किसी भी एशियायी देश की पहली महिला स्पीकर हैं . मीरा कुमार २००९ में लोक सभा की अध्यक्ष बनीं जबकि फहमीदा मिर्ज़ा २००८ में ही पाकिस्तान की कौमी असेम्बली की स्पीकर बन चुकी थीं . मीरा कुमार और डॉ फहमीदा मिर्ज़ा के बीच निजी तौर पर भी बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं . मीरा कुमार को लिखे एक पत्र में फहमीदा मिर्ज़ा ने कहा था कि हमारे दोनों ही देशों के लोग चाहते हैं कि इस इलाके में शान्ति और सम्पन्नता हो . यह उनका हक भी है . हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनकी आकांक्षा को हकीकत बनाने में मदद करें.हमारे दोनों ही मुल्क पड़ोसी तो हैं ही वे गरीबी,अशिक्षा ,बीमारी और अभाव के भी शिकार हैं . मुझे उम्मीद है कि हम दो महिला स्पीकर साथ साथ काम करके अपने क्षेत्र में लोगों की ,ख़ासकर महिलाओं की तरक्की को सुनिश्चित करने में कामयाब हो सकेगीं . पाकिस्तान की संसद की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा भी पाकिस्तान की राजनीति में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनेता हैं ,. १९९७ में पहली बार वे पाकिस्तानी कौमी असेम्बली के लिए चुनी गयी थीं. तीन टर्म से लगातार चुनाव जीत रहीं हैं .वे पाकिस्तान के एक राजनीतिक परिवार की सदस्य हैं . उनके पिता काजी आबिद , सिंध की राजनीति में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे. वे सिंध की प्रांतीय सरकार और केंद्रीय सरकार में कई बार मंत्री रहे. डॉ फहमीदा के पति डॉ ज़ुल्फ़िकार मिर्ज़ा राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के मित्र हैं और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बड़े नेता हैं .
मीरा कुमार को संसदीय कूटनीति की एक्सपर्ट माना जाता है .वे खुद भारत की विदेश सेवा की आला अफसर रही हैं . उन्होंने अंतर राष्ट्रीय संबंधों की बारीकियों को बहुत करीब से देखा है. विदेश सेवा के अफसर के रूप में वे स्पेन, ब्रिटेन और मारीशस में काम कर चुकी हैं . राजनीति में उन्होंने १९८५ में प्रवेश किया और लोक सभा में धमाके दार इंट्री ली. अपने पहले चुनाव में ही उन्होंने उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री मायावती को बिजनौर संसदीय क्षेत्र से हुए उपचुनाव में हराया था. उस चुनाव में कारने वालों में लोकजनशक्ति पार्टी के नेता राम विलास पासवान भी थे. वे केंद्र सरकार में मंत्री भी रहीं .उनके पिता बाबू जगजीवन राम भारत की आज़ादी की लड़ाई के बहुत त बड़े नेता थे . उन्होंने महात्मा गाँधी के साथ काम किया और जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में देश में बहुत सारी ऐसी संस्थाओं की स्थापना की जो आज देश को मज़बूत बनाने में अहम भूमिका निभा रही हैं .
ज़ाहिर है दक्षिण एशिया की दो प्रभावशाली महिला राजनेताओं के प्रयास से भारत और पाकिस्तान के समबन्धों में बेहतरी का जज़बा पैदा होगा और उब लोगों को ताक़त मिलेगी जो दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्तों के लिए कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तान का सबसे ज्यादा विरोध भारत में बीजेपी के ओर से होता है . अगले हफ्ते जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में बीजेपी के दो प्रमुख नेता शामिल हैं. सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन पहले भी पाकिस्तान जा चुके हैं . जब वे मणि शंकर ऐय्यर के साथ पाकिस्तान गए थे तो उन्होंने ही कहा था कि जो विवाद के मामले हैं उनपर बात करते रहने की ज़रूरत है लेकिन अगर व्यापार के रास्ते खोल दिए जाएँ तो दोनों की देशों के आम आदमियों का बहुत भला होगा. एक बातचीत में उन्होंने बताया कि चीन से भी भारत का सीमा विवाद है ,उस पर अलग से बात चीत चलती रहती है लेकिन कारोबार भी चलता रहता है . दो देशों के बीच रिश्तों को अच्छा बनने में कारोबार का सबसे ज्यादा योगदान है .उनका कहना है कि पाकिस्तान से भी इसी तरह की बात चीत की ज़रुरत है .
शान्ति के पैरोकारों को लोक सभा की अध्यक्ष मीरा कुमार की इस यात्रा से बहुत उम्मीदें हैं . क्योंकि गैर सरकारी तौर पर तो ट्रैक टू डिप्लोमेसी बहुत वक़्त से चल रही है लेकिन संसद की स्पीकर की संसदीय डिप्लोमेसी की पहल निश्चित रूप से भारत और पाकिस्तान के अवाम के बीच रिश्तों को मज़बूत करने की दिशा में बहुत ही कारगर साबित होगी.
भारत के व्यापार मंत्री आनंद शर्मा पिछले दिनों पाकिस्तान गए थे. उनकी यात्रा का मकसद पाकिस्तान को यह समझाना था कि दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ने से बहुत फायदा होगा. अब बयान आया है कि भारत और पाकिस्तान इस बात पर सहमत हो गए हैं कि वे एक ऐसी योजना पर काम करेगें जिसके बाद दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्ते पूरी तरह से सामान्य हो जायेगें.यह बड़ी बात है क्यों कि इस फैसले के एक दिन पहले ही पाकिस्तानी मंत्रिमंडल ने इसी विषय पर एक फैसले नहीं लिया था और मामले को टाल दिया था. भारत और पाकिस्तान में रहने वाले बहुत सारे परिवारों के बीच जितने क़रीबी सम्बन्ध हैं ,उतने दुनिया में किन्हीं भी दो देशों की जनता के बीच नहीं हैं .लेकिन राजनेताओं की अदूरदर्शिता के चलते रिश्तों में खटास हमेशा बनी रहती है . हालांकि पाकिस्तान और भारत में नेताओं का एक ऐसा वर्ग भी है जो दोनों देशों के बीच रिश्तों को सामान्य करना चाहता है लेकिन दोनों ही देशों में ऐसे पुरातनपंथी सोच के लोग मौजूद हैं जो रिश्तों को खराब बनाए रखने में सफल रहते हैं . दोनों ही मुल्कों में ऐसे लोग हैं जिनका राजनीतिक धंधा ही भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पर ही निर्भर करता है .
शान्ति स्थापित करने की मुहिम में लगे लोगों के लिए संतोष की बात यह है कि आजकल दोनों ही देशों के बीच उन लोगों की ताक़त बढ़ रही है रिश्तों को मज़बूत करना चाहते हैं बुधवार को इस्लामाबाद में हुए समझौते को इसी रोशनी में देखे जाने की ज़रुरत है . यह समझौता इस बात का सबूत है कि भारत के व्यापार मंत्री आनंद शर्मा और पाकिस्तान के व्यापार मंत्री,मख्दूम मोहम्मद अमीन फहीम अपने देशों के बीच के दोस्ताना रिश्तों को आगे बढ़ाना चाहते हैं .यह इस बात का भी सबूत है को दोनों देशों के बीच अब सरकारी स्तर पर भी गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं कि ट्रैक टू डिप्लोमेसी को आगे बढ़ाना है .
आनंद शर्मा की पाकिस्तान यात्रा के ठीक बाद भारत की लोकसभा की स्पीकर मीरा कुमार भी संसद सदस्यों के एक गुडविल मिशन का नेतृत्व करेगीं. वे अगले हफ्ते इस्लामाबाद जा रही हैं . इस प्रतिनिधि मंडल में अन्य लोगों के अलावा बीजेपी के सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन और तरुण विजय भी शामिल हैं .यह यात्रा पाकिस्तान की संसद , कौमी असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा के निमत्रण पर हो रही है . मीरा कुमार को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने भी पाकिस्तान आने की दावत दिया था.. इसके पहले लोकसभा का कोई भी स्पीकर कभी भी पाकिस्तान की यात्रा पर नहीं गया है. यह बहुत ही दिलचस्प संयोग है कि भारत और पाकिस्तान ,दोनों ही देशों में आजकल संसद के निचले सदन की पीठासीन अधिकारी महिलायें हैं . दरअसल पाकिस्तानी कौमी असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा तो किसी भी एशियायी देश की पहली महिला स्पीकर हैं . मीरा कुमार २००९ में लोक सभा की अध्यक्ष बनीं जबकि फहमीदा मिर्ज़ा २००८ में ही पाकिस्तान की कौमी असेम्बली की स्पीकर बन चुकी थीं . मीरा कुमार और डॉ फहमीदा मिर्ज़ा के बीच निजी तौर पर भी बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं . मीरा कुमार को लिखे एक पत्र में फहमीदा मिर्ज़ा ने कहा था कि हमारे दोनों ही देशों के लोग चाहते हैं कि इस इलाके में शान्ति और सम्पन्नता हो . यह उनका हक भी है . हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनकी आकांक्षा को हकीकत बनाने में मदद करें.हमारे दोनों ही मुल्क पड़ोसी तो हैं ही वे गरीबी,अशिक्षा ,बीमारी और अभाव के भी शिकार हैं . मुझे उम्मीद है कि हम दो महिला स्पीकर साथ साथ काम करके अपने क्षेत्र में लोगों की ,ख़ासकर महिलाओं की तरक्की को सुनिश्चित करने में कामयाब हो सकेगीं . पाकिस्तान की संसद की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्ज़ा भी पाकिस्तान की राजनीति में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनेता हैं ,. १९९७ में पहली बार वे पाकिस्तानी कौमी असेम्बली के लिए चुनी गयी थीं. तीन टर्म से लगातार चुनाव जीत रहीं हैं .वे पाकिस्तान के एक राजनीतिक परिवार की सदस्य हैं . उनके पिता काजी आबिद , सिंध की राजनीति में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति थे. वे सिंध की प्रांतीय सरकार और केंद्रीय सरकार में कई बार मंत्री रहे. डॉ फहमीदा के पति डॉ ज़ुल्फ़िकार मिर्ज़ा राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के मित्र हैं और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बड़े नेता हैं .
मीरा कुमार को संसदीय कूटनीति की एक्सपर्ट माना जाता है .वे खुद भारत की विदेश सेवा की आला अफसर रही हैं . उन्होंने अंतर राष्ट्रीय संबंधों की बारीकियों को बहुत करीब से देखा है. विदेश सेवा के अफसर के रूप में वे स्पेन, ब्रिटेन और मारीशस में काम कर चुकी हैं . राजनीति में उन्होंने १९८५ में प्रवेश किया और लोक सभा में धमाके दार इंट्री ली. अपने पहले चुनाव में ही उन्होंने उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री मायावती को बिजनौर संसदीय क्षेत्र से हुए उपचुनाव में हराया था. उस चुनाव में कारने वालों में लोकजनशक्ति पार्टी के नेता राम विलास पासवान भी थे. वे केंद्र सरकार में मंत्री भी रहीं .उनके पिता बाबू जगजीवन राम भारत की आज़ादी की लड़ाई के बहुत त बड़े नेता थे . उन्होंने महात्मा गाँधी के साथ काम किया और जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में देश में बहुत सारी ऐसी संस्थाओं की स्थापना की जो आज देश को मज़बूत बनाने में अहम भूमिका निभा रही हैं .
ज़ाहिर है दक्षिण एशिया की दो प्रभावशाली महिला राजनेताओं के प्रयास से भारत और पाकिस्तान के समबन्धों में बेहतरी का जज़बा पैदा होगा और उब लोगों को ताक़त मिलेगी जो दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्तों के लिए कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तान का सबसे ज्यादा विरोध भारत में बीजेपी के ओर से होता है . अगले हफ्ते जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में बीजेपी के दो प्रमुख नेता शामिल हैं. सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन पहले भी पाकिस्तान जा चुके हैं . जब वे मणि शंकर ऐय्यर के साथ पाकिस्तान गए थे तो उन्होंने ही कहा था कि जो विवाद के मामले हैं उनपर बात करते रहने की ज़रूरत है लेकिन अगर व्यापार के रास्ते खोल दिए जाएँ तो दोनों की देशों के आम आदमियों का बहुत भला होगा. एक बातचीत में उन्होंने बताया कि चीन से भी भारत का सीमा विवाद है ,उस पर अलग से बात चीत चलती रहती है लेकिन कारोबार भी चलता रहता है . दो देशों के बीच रिश्तों को अच्छा बनने में कारोबार का सबसे ज्यादा योगदान है .उनका कहना है कि पाकिस्तान से भी इसी तरह की बात चीत की ज़रुरत है .
शान्ति के पैरोकारों को लोक सभा की अध्यक्ष मीरा कुमार की इस यात्रा से बहुत उम्मीदें हैं . क्योंकि गैर सरकारी तौर पर तो ट्रैक टू डिप्लोमेसी बहुत वक़्त से चल रही है लेकिन संसद की स्पीकर की संसदीय डिप्लोमेसी की पहल निश्चित रूप से भारत और पाकिस्तान के अवाम के बीच रिश्तों को मज़बूत करने की दिशा में बहुत ही कारगर साबित होगी.
Wednesday, February 15, 2012
उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक राजनीति का कोई भविष्य नहीं है .
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के बाद तस्वीर कुछ साफ़ होने लगी है . करीब एक महीने पहले तक माना जा रहा था कि चुनाव में मुकाबले चार मुख्य पार्टियों में होंगें लेकिन बीजेपी के चुनावी अभियान के कारण उसके पुराने वोटरों में वह उत्साह नहीं पैदा हो सका जिसके लिए यह पार्टी जानी जाती है . इस एक राजनीतिक घटना के चलते उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव के तरीके, बदल गए हैं . ज़ाहिर है इनका असर नतीजों पर भी होगा. .
उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार जानते हैं कि राज्य में सत्ता तक पंहुचने के लिए मुसलमानों का समर्थन बहुत ज़रूरी होता है . इसीलिए सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है . गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही हैं . तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमान की असली शुभचिन्तक हैं . कांग्रेस पार्टी आज़ादी के बाद से ही मुसलमानों में लोकप्रिय हुआ करती थी. लेकिन १९७७ के बाद वह रुख बदला था . ६ दिसंबर १९९२ के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए. उसके बाद उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की प्रिय पार्टी का रुतबा समाजवादी पार्टी को मिल गया . लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने कल्याण सिंह को साथ ले लिया तो मुसलमानों ने तय कर लिया कि समाजवादी पार्टी उनका ठिकाना नहीं है . उसी एक फैसले के कारण मुसलमानों ने कांग्रेस को फिर एक विकल्प के रूप में देखना शुरू किया. २००९ के लोक सभा चुनावों में इस बदलाव का नतीजा भी सामने आ गया जब राज्य में चौथे मुकाम पर पंहुच चुकी कांग्रेस पार्टी ने पहले से बहुत अधिक सीटें जीतने में सफलता पायी. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमान की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमान का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमान का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई .
१९९२ के बाद से हर चुनाव में मुसलमानों ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए वोट दिया है . हर बार बीजेपी मुख्य रूप से मुकाबले में रहती थी लेकिन इस बार हालात बदल गए हैं . मौजूदा चुनाव में बीजेपी की वह ताक़त नहीं है कि उस से डर कर मुसलमान ऐसी पार्टी को वोट दे जो बीजेपी को हरा सके. बीजेपी ज़्यादातर सीटों पर मुख्य मुकाबले में ही नहीं है. बहुजन समाज पार्टी के बारे में यह चर्चा पूरे राज्य में सुनने को मिल जाती है कि अगर सरकार बनाने में उसे कुछ सीटें कम पडीं तो वह बीजेपी के समर्थन से सरकार बना लेगी. शायद इसीलिये बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देने के बाद भी आम मुसलमान बहुजन समाज पार्टी को अपनी पहली प्राथमिकता नहीं मान रहा है. उत्तर प्रदेश में आज मुसलमानों के वोट को हासिल करने के लिए मुख्य रूप से मुकाबला कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच है . कांग्रेस की रणनीति मुसलमान को अपने साथ लेने की है . सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग आदि ऐसे कुछ कार्य हैं जिसके बल पर कांग्रेस अपने आपको मुस्लिम दोस्त के रूप में पेश कर रही है . पार्टी के महासचिव राहुल गांधी कई साल से मुसलमानों से संपर्क बनाए हुये हैं . हर उस ठिकाने पर जाते रहते हैं जिसक सम्बन्ध मुसलमानों से माना जाता है . चुनाव के ठीक अफ्ले ओबीसी मुसलमानों को साढ़े चार प्रतिशत की बात भी की जा चुकी है . लेकिन समाजवादी पार्टी अभी भी मुस्लिम वोटों की मुख्य दावेदार के रूप में पहचानी जा रही है. कम से कम समाजवादी पार्टी कोशिश तो यही कर रही है . समाजवादी पार्टी के सांसद और पार्टी के मुखिया के परिवार के सदस्य धर्मेन्द्र यादव ने अपनी पार्टी की बात विस्तार से की. जब उनसे पूछा गया कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान कांग्रेस को छोड़कर उनकी पार्टी को क्यों वोट दे तो वे फ़ौरन शुरू हो गए. बताया कि राज्य में मुसलमानों को कांग्रेस को किसी कीमत पर वोट नहीं देना चाहिए . उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस हमेशा से मुसलमानों के हित के खिलाफ काम करती रही है . कांग्रेस ने मुसलमानों के भावनात्मक मुद्दों पर भी गैर ज़िम्मेदार काम किया है . उन्होंने बाबरी मस्जिद के हवाले से बताया कि कांग्रेस ने हमेशा ही मुस्लिम विरोधी रवैया अपनाया है . उनका आरोप है कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद में १९४९ में मूर्ति रखवाई ,१९४७ में ताला खुलवाया, १९८९ में शिलान्यास करवाया और कांग्रेस नेता और प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने १९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में भूमिका निभाई. समाजवादी पार्टी का आरोप है कि कांग्रेस ने मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से बिकुल बेदखल कर दिया. कहते हैं कि १९४७ में सरकारी नौकरियों में राज्य में ३५ प्रतिशत मुसलमान थे जबकि कांग्रेस के राज में वह घट कर २ प्रतिशत रह गया. धर्मेन्द्र यादव का दावा है कि अगर उनकी पार्टी सरकार में आई तो वे मुसलमानों के हित में ठोस क़दम उठायेगें . उर्दू को तरक्की देगें और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को मह्त्व दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव का संचालन कर रहे पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने समाजवादी पार्टी की बातों को बेबुनियाद बताया . उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी को इतिहास को सही तरह से समझना चाहिए . उन्होंने कहा कि १९४९ में फैजाबाद के जिस कलेक्टर ने बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखवाई थी वह बाद में आर एस एस की राजनीतिक पार्टी जनसंघ की ओर से लोक सभा का सदस्य बना .उसने साज़िश की थी . उसकी साज़िश का नतीजा आजतक पूरा देश भोग़ रहा है.१९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने आर एस एस की साजिश को समझने में गलती की और बाबरी मस्जिद को तबाह करने की योजना में शामिल उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के उस हलफनामे पर विश्वास किया जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था . बाद में कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट और इस देश की जनता के साथ विश्वासघात किया जिस के लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने सज़ा दी और कांग्रेस अब तक उस गलती की सज़ा भोग रही है . जहां तक १९४७ में ३५ प्रतिशत मुसलमानों का सरकारी नौकरी में होने का सवाल है , समाजवादी पार्टी को पता होना चाहिए कि १९४७ के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे. वहां जाने वालों में पढ़े लिखे मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी. दिग्विजय सिंह कहते हैं कि जबसे सोनिया गाँधी ने कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला है तब से मुसलमानों के लिए कांग्रेस ने बहुत कल्याणकारी योजनायें चलाईं . उन्होंने दावा किया कि सच्चर कमेटी ,रंगनाथ मिश्रा कमीशन , साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण कुछ ऐसी बातें हैं जिनके बाद मुसलमानों का भविष्य हर हाल में सुधरेगा. कांग्रेस ने मुसलमानों के कल्याण के लिए समर्पित अल्पसंख्यक मंत्रालय की स्थापना करके अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है . दिग्विजय सिंह कहते हैं मुसलमानों के वोट के लिए कोशिश कर रहे मुलायम सिंह यादव को कुछ सवालों के जवाब देने होंगें . वे कहते हैं वास्तव में यह सवाल बार बार मुसलमानों की तरफ से पूछे जाने चाहिए . वे पूछते हैं कि कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद से सम्बंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन सज़ा दी थी, उस सज़ायाफ्ता कल्याण सिंह के लिए मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के आगरा अधिवेशन में जिंदाबाद के नारे लगाए थे.कल्याण सिंह के बेटे को अपने साथ मंत्री बनाया और उसी मंत्रिमंडल में उनके ख़ास दोस्त आज़म खां साहेब भी थे. २००९ के चुनावों में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा का सदस्य बनवाया और आज भी कल्याण सिंह लोक सभा में मुलायम सिंह की मदद की वजह से ही हैं . साक्षी महाराज बाबरी मस्जिद के विध्वंस अभियुक्त हैं . उनको राज्य सभा में मुलायम सिंह यादव ने ही भेजा था .दिग्विजय सिंह कहते हैं कि उन्होंने इस बात पर रिसर्च किया है कि मुलायम सिंह यादव ने कभी भी आर एस एस के खिलाफ बयान नहीं दिया है और मुलायम सिंह यादव २००३ में बीजेपी के साथ एक गुप्त समझौते के तहत मुख्यमंत्री बने थे. दिग्विजय सिंह के इन आरोपों को टाल पाना मुलायम सिंह यादव के लिए बहुत आसान नहीं होगा.
मुसलमानों के वोट की तीसरी दावेदार बहुजन समाज पार्टी है . वह पार्टी पिछले पांच साल से राज्य में सरकार चला रही है और उसे कोई वादा करने की ज़रुरत नहीं है . लोग उसके काम को साफ़ देख रहे हैं . जैसा कि आम तौर पर होता है हर सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में मुश्किल पेश आती है लेकिन मायावती ने जिस बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया है उसकी रोशनी में कहा जा सकता है कि मुसलमानों की आबादी का एक हिस्सा बहुजन समाज पार्टी को भी वोट देगा. इस बात में दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौ सीटें हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है कि कोई भी पार्टी लखनऊ में सरकार बनाए वह सेकुलर सरकार ही होगी, लगता है कि उत्तर प्रदेश में मौजूदा चुनाव के नतीजे ऐसे होगें कि आने वाले वक़्त में यहाँ साम्प्रदायिक राजनीति कर पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा. .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के बाद तस्वीर कुछ साफ़ होने लगी है . करीब एक महीने पहले तक माना जा रहा था कि चुनाव में मुकाबले चार मुख्य पार्टियों में होंगें लेकिन बीजेपी के चुनावी अभियान के कारण उसके पुराने वोटरों में वह उत्साह नहीं पैदा हो सका जिसके लिए यह पार्टी जानी जाती है . इस एक राजनीतिक घटना के चलते उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव के तरीके, बदल गए हैं . ज़ाहिर है इनका असर नतीजों पर भी होगा. .
उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार जानते हैं कि राज्य में सत्ता तक पंहुचने के लिए मुसलमानों का समर्थन बहुत ज़रूरी होता है . इसीलिए सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है . गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही हैं . तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमान की असली शुभचिन्तक हैं . कांग्रेस पार्टी आज़ादी के बाद से ही मुसलमानों में लोकप्रिय हुआ करती थी. लेकिन १९७७ के बाद वह रुख बदला था . ६ दिसंबर १९९२ के बाद तो हालात बिलकुल बदल गए. उसके बाद उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की प्रिय पार्टी का रुतबा समाजवादी पार्टी को मिल गया . लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने कल्याण सिंह को साथ ले लिया तो मुसलमानों ने तय कर लिया कि समाजवादी पार्टी उनका ठिकाना नहीं है . उसी एक फैसले के कारण मुसलमानों ने कांग्रेस को फिर एक विकल्प के रूप में देखना शुरू किया. २००९ के लोक सभा चुनावों में इस बदलाव का नतीजा भी सामने आ गया जब राज्य में चौथे मुकाम पर पंहुच चुकी कांग्रेस पार्टी ने पहले से बहुत अधिक सीटें जीतने में सफलता पायी. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमान की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमान का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमान का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई .
१९९२ के बाद से हर चुनाव में मुसलमानों ने बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए वोट दिया है . हर बार बीजेपी मुख्य रूप से मुकाबले में रहती थी लेकिन इस बार हालात बदल गए हैं . मौजूदा चुनाव में बीजेपी की वह ताक़त नहीं है कि उस से डर कर मुसलमान ऐसी पार्टी को वोट दे जो बीजेपी को हरा सके. बीजेपी ज़्यादातर सीटों पर मुख्य मुकाबले में ही नहीं है. बहुजन समाज पार्टी के बारे में यह चर्चा पूरे राज्य में सुनने को मिल जाती है कि अगर सरकार बनाने में उसे कुछ सीटें कम पडीं तो वह बीजेपी के समर्थन से सरकार बना लेगी. शायद इसीलिये बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देने के बाद भी आम मुसलमान बहुजन समाज पार्टी को अपनी पहली प्राथमिकता नहीं मान रहा है. उत्तर प्रदेश में आज मुसलमानों के वोट को हासिल करने के लिए मुख्य रूप से मुकाबला कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच है . कांग्रेस की रणनीति मुसलमान को अपने साथ लेने की है . सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग आदि ऐसे कुछ कार्य हैं जिसके बल पर कांग्रेस अपने आपको मुस्लिम दोस्त के रूप में पेश कर रही है . पार्टी के महासचिव राहुल गांधी कई साल से मुसलमानों से संपर्क बनाए हुये हैं . हर उस ठिकाने पर जाते रहते हैं जिसक सम्बन्ध मुसलमानों से माना जाता है . चुनाव के ठीक अफ्ले ओबीसी मुसलमानों को साढ़े चार प्रतिशत की बात भी की जा चुकी है . लेकिन समाजवादी पार्टी अभी भी मुस्लिम वोटों की मुख्य दावेदार के रूप में पहचानी जा रही है. कम से कम समाजवादी पार्टी कोशिश तो यही कर रही है . समाजवादी पार्टी के सांसद और पार्टी के मुखिया के परिवार के सदस्य धर्मेन्द्र यादव ने अपनी पार्टी की बात विस्तार से की. जब उनसे पूछा गया कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान कांग्रेस को छोड़कर उनकी पार्टी को क्यों वोट दे तो वे फ़ौरन शुरू हो गए. बताया कि राज्य में मुसलमानों को कांग्रेस को किसी कीमत पर वोट नहीं देना चाहिए . उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस हमेशा से मुसलमानों के हित के खिलाफ काम करती रही है . कांग्रेस ने मुसलमानों के भावनात्मक मुद्दों पर भी गैर ज़िम्मेदार काम किया है . उन्होंने बाबरी मस्जिद के हवाले से बताया कि कांग्रेस ने हमेशा ही मुस्लिम विरोधी रवैया अपनाया है . उनका आरोप है कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद में १९४९ में मूर्ति रखवाई ,१९४७ में ताला खुलवाया, १९८९ में शिलान्यास करवाया और कांग्रेस नेता और प्रधान मंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने १९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस में भूमिका निभाई. समाजवादी पार्टी का आरोप है कि कांग्रेस ने मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से बिकुल बेदखल कर दिया. कहते हैं कि १९४७ में सरकारी नौकरियों में राज्य में ३५ प्रतिशत मुसलमान थे जबकि कांग्रेस के राज में वह घट कर २ प्रतिशत रह गया. धर्मेन्द्र यादव का दावा है कि अगर उनकी पार्टी सरकार में आई तो वे मुसलमानों के हित में ठोस क़दम उठायेगें . उर्दू को तरक्की देगें और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को मह्त्व दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव का संचालन कर रहे पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने समाजवादी पार्टी की बातों को बेबुनियाद बताया . उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी को इतिहास को सही तरह से समझना चाहिए . उन्होंने कहा कि १९४९ में फैजाबाद के जिस कलेक्टर ने बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखवाई थी वह बाद में आर एस एस की राजनीतिक पार्टी जनसंघ की ओर से लोक सभा का सदस्य बना .उसने साज़िश की थी . उसकी साज़िश का नतीजा आजतक पूरा देश भोग़ रहा है.१९९२ में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए निश्चित रूप से प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने आर एस एस की साजिश को समझने में गलती की और बाबरी मस्जिद को तबाह करने की योजना में शामिल उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के उस हलफनामे पर विश्वास किया जो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था . बाद में कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट और इस देश की जनता के साथ विश्वासघात किया जिस के लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट ने सज़ा दी और कांग्रेस अब तक उस गलती की सज़ा भोग रही है . जहां तक १९४७ में ३५ प्रतिशत मुसलमानों का सरकारी नौकरी में होने का सवाल है , समाजवादी पार्टी को पता होना चाहिए कि १९४७ के बाद बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे. वहां जाने वालों में पढ़े लिखे मुसलमानों की संख्या सबसे ज्यादा थी. दिग्विजय सिंह कहते हैं कि जबसे सोनिया गाँधी ने कांग्रेस का नेतृत्व सम्भाला है तब से मुसलमानों के लिए कांग्रेस ने बहुत कल्याणकारी योजनायें चलाईं . उन्होंने दावा किया कि सच्चर कमेटी ,रंगनाथ मिश्रा कमीशन , साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण कुछ ऐसी बातें हैं जिनके बाद मुसलमानों का भविष्य हर हाल में सुधरेगा. कांग्रेस ने मुसलमानों के कल्याण के लिए समर्पित अल्पसंख्यक मंत्रालय की स्थापना करके अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है . दिग्विजय सिंह कहते हैं मुसलमानों के वोट के लिए कोशिश कर रहे मुलायम सिंह यादव को कुछ सवालों के जवाब देने होंगें . वे कहते हैं वास्तव में यह सवाल बार बार मुसलमानों की तरफ से पूछे जाने चाहिए . वे पूछते हैं कि कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद से सम्बंधित एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन सज़ा दी थी, उस सज़ायाफ्ता कल्याण सिंह के लिए मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के आगरा अधिवेशन में जिंदाबाद के नारे लगाए थे.कल्याण सिंह के बेटे को अपने साथ मंत्री बनाया और उसी मंत्रिमंडल में उनके ख़ास दोस्त आज़म खां साहेब भी थे. २००९ के चुनावों में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव ने लोक सभा का सदस्य बनवाया और आज भी कल्याण सिंह लोक सभा में मुलायम सिंह की मदद की वजह से ही हैं . साक्षी महाराज बाबरी मस्जिद के विध्वंस अभियुक्त हैं . उनको राज्य सभा में मुलायम सिंह यादव ने ही भेजा था .दिग्विजय सिंह कहते हैं कि उन्होंने इस बात पर रिसर्च किया है कि मुलायम सिंह यादव ने कभी भी आर एस एस के खिलाफ बयान नहीं दिया है और मुलायम सिंह यादव २००३ में बीजेपी के साथ एक गुप्त समझौते के तहत मुख्यमंत्री बने थे. दिग्विजय सिंह के इन आरोपों को टाल पाना मुलायम सिंह यादव के लिए बहुत आसान नहीं होगा.
मुसलमानों के वोट की तीसरी दावेदार बहुजन समाज पार्टी है . वह पार्टी पिछले पांच साल से राज्य में सरकार चला रही है और उसे कोई वादा करने की ज़रुरत नहीं है . लोग उसके काम को साफ़ देख रहे हैं . जैसा कि आम तौर पर होता है हर सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में मुश्किल पेश आती है लेकिन मायावती ने जिस बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट दिया है उसकी रोशनी में कहा जा सकता है कि मुसलमानों की आबादी का एक हिस्सा बहुजन समाज पार्टी को भी वोट देगा. इस बात में दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौ सीटें हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है कि कोई भी पार्टी लखनऊ में सरकार बनाए वह सेकुलर सरकार ही होगी, लगता है कि उत्तर प्रदेश में मौजूदा चुनाव के नतीजे ऐसे होगें कि आने वाले वक़्त में यहाँ साम्प्रदायिक राजनीति कर पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा. .
Wednesday, February 8, 2012
१९४७ में भारत में विलय को कश्मीरी अवाम ने आज़ादी माना था.
शेष नारायण सिंह
जश्ने आजादी नाम की एक फिल्म के हवाले से कश्मीर एक बार फिर फोकस में है . पुणे में यह फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन एक राजनीतिक पार्टी की छात्र शाखा के लोगों को लगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए .सच्चाई यह है कि कश्मीर की आज़ादी की अवधारणा बाकी देश की अवधारणा से बिलकुल अलग है .कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे जबकि जवाहरलाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . उस मुक़दमे में शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर को हरि सिंह के पूर्वजों ने अंग्रेजों से खरीदा था . अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को महात्मा गांधी की यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें.
शेख अब्दुल्ला ,कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली लड़ाके,कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते थे जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इसके बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उनको जवाहरलाल नेहरू के घर पर बातचीत के लिए समय दिया गया .उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. उनकी यह शर्त सुनकर जवाहर लाल नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " . बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , उस दौर में पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह का विरोध करता था.शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकंद में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.
भारत में उसके बाद अदूरदर्शी शासक आते गए. हद तो तब हुए जब राजीव गांधी के प्रधान मंत्रित्वा के दौरान अरुण नेहरू ने शेख साहेब के दामाद ,गुज शाह हो मुख्य मंत्री बनावाकर फारूक अब्दुल्ला से बदला ने की कोशिश की . एक बार फिर साफ़ हो गया कि दिल्ली वाले कश्मीरी अवाम के पक्ष धर नहीं हैं , वेट तो कश्मीर पर हुकूमत करना चाहते हैं . उसके बाद एक से एक गलतियाँ होती गयीं. जगमोहन को राज्य का गवर्नर बनाकर भेजा गया . उन्होंने जो कुछ भी किया उसे कश्मीरी जनता ने पसंद नहीं किया. वी पी सिंह सरकार में गृह मंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का अपहरण करके आतंकवादियों ने साबित कर दिया कि वे कश्मीरी जनता को भारत के खिलाफ कर चुके हैं . बाद में तो भारत की सेना ने ही कश्मीर को सम्भाला. और हालात बाद से बदतर होते गए . आज आलम यह है कि कश्मीर के बारे में कुछ भे एबोलकर हर तरह के स्वार्थी लोग अपने एराजनीति चमकाते फिर रह एहियन . ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर में वही माहौल एक बार फिर पैदा हो जो १९५३ के पहले था. वरना पता नहीं कब तक कश्मीर का आम आदमी राजनीतिक स्वार्थों का शिकार होता रहेगा.
जश्ने आजादी नाम की एक फिल्म के हवाले से कश्मीर एक बार फिर फोकस में है . पुणे में यह फिल्म दिखाई जानी थी लेकिन एक राजनीतिक पार्टी की छात्र शाखा के लोगों को लगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए .सच्चाई यह है कि कश्मीर की आज़ादी की अवधारणा बाकी देश की अवधारणा से बिलकुल अलग है .कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था .कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे. शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे जबकि जवाहरलाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . उस मुक़दमे में शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर को हरि सिंह के पूर्वजों ने अंग्रेजों से खरीदा था . अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को महात्मा गांधी की यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें.
शेख अब्दुल्ला ,कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली लड़ाके,कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते थे जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इसके बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उनको जवाहरलाल नेहरू के घर पर बातचीत के लिए समय दिया गया .उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. उनकी यह शर्त सुनकर जवाहर लाल नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " . बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , उस दौर में पाकिस्तान कश्मीर में जनमत संग्रह का विरोध करता था.शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकंद में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.
भारत में उसके बाद अदूरदर्शी शासक आते गए. हद तो तब हुए जब राजीव गांधी के प्रधान मंत्रित्वा के दौरान अरुण नेहरू ने शेख साहेब के दामाद ,गुज शाह हो मुख्य मंत्री बनावाकर फारूक अब्दुल्ला से बदला ने की कोशिश की . एक बार फिर साफ़ हो गया कि दिल्ली वाले कश्मीरी अवाम के पक्ष धर नहीं हैं , वेट तो कश्मीर पर हुकूमत करना चाहते हैं . उसके बाद एक से एक गलतियाँ होती गयीं. जगमोहन को राज्य का गवर्नर बनाकर भेजा गया . उन्होंने जो कुछ भी किया उसे कश्मीरी जनता ने पसंद नहीं किया. वी पी सिंह सरकार में गृह मंत्री रहे मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी का अपहरण करके आतंकवादियों ने साबित कर दिया कि वे कश्मीरी जनता को भारत के खिलाफ कर चुके हैं . बाद में तो भारत की सेना ने ही कश्मीर को सम्भाला. और हालात बाद से बदतर होते गए . आज आलम यह है कि कश्मीर के बारे में कुछ भे एबोलकर हर तरह के स्वार्थी लोग अपने एराजनीति चमकाते फिर रह एहियन . ज़रुरत इस बात की है कि कश्मीर में वही माहौल एक बार फिर पैदा हो जो १९५३ के पहले था. वरना पता नहीं कब तक कश्मीर का आम आदमी राजनीतिक स्वार्थों का शिकार होता रहेगा.
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शेष नारायण सिंह
Saturday, January 28, 2012
पाकिस्तान में लोकतंत्र की मजबूती से इस इलाके में शान्ति कायम होगी
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तानी अखबार डान के पहले पेज पर खबर छपी है कि पाकिस्तानी फौज के मुखिया, जनरल अशफाक परवेज़ कयानी और आई एस आई के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा ने मंगलवार को प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी के दफ्तर जाकर उनसे मुलाक़ात की . इस बैठक में राजकाज के बहुत सारी बातों के अलावा यह भी तय किया गया कि अफगानिस्तान में सरकार की नीतियों को लागू करने की दिशा में क्या क़दम उठाये जाने हैं . प्रधानमंत्री ने विदेशमंत्री, हिना रब्बानी खार को अफगानिस्तान की यात्रा करने का निर्देश दिया .इस यात्रा का उद्देश्य अमरीका-पाकिस्तान-अफगानिस्तान की शीर्ष बैठक के पहले माहौल ठीक करना भी बताया गया है .
इस खबर का ज़िक्र करने का मतलब यह है कि जहाँ पाकिस्तानी फौज और आई एस आई देश की सबसे ताक़तवर संस्थाएं मानी जाती थीं और अगर किसी नवाज़ शरीफ या किसी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसका हुक्म नहीं माना तो उसे सत्ता से बेदखल कर दिया जाता था, उसी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गीलानी के सख्त तेवर के बाद आई एस आई और फौज का मुखिया राजकाज के मामलों की चर्चा में शामिल होने के लिए प्रधान मंत्री के यहाँ हाजिरी लगा रहा है . पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि फौज का मुखिया डांट खाने के बाद कभी किसी भी सिविलियन सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए ही उसके दफतर जाता है .लेकिन पाकिस्तान में भी हालात बदल रहे हैं . चारों तरफ से लोकतंत्र की मजबूती की खबरें आ रही हैं जो पाकिस्तान के लिए तो बहुत अच्छा है ही, भारत और अफगानिस्तान के लिए बहुत अच्छा है, बाकी दुनिया के लिए बहुत अच्छा है .
पाकिस्तान के बारे में पिछले कुछ महीनों से अजीब खबरें आ रही थीं . पाकिस्तानी मामलों के भारत में मौजूद लाल बुझक्कड़ अक्सर बताते रहते हैं कि बहुत जल्द पाकिस्तान में फौजी हुकूमत कायम होने वाली है. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . जब से सिविलियन हुकूमत ने फौज को अपनी हद में रहने की हिदायत दी है,उसी वक़्त से बार बार यह चर्चा जोर पकड़ लेती है कि फौज अब फ़ौरन राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की छुट्टी कर देगी और खुद सरकार बन जायेगी. सारी दुनिया में पाकिस्तानी मामलों के जानकार अपनी इस तर्ज़ पर की गयी भविष्यवाणियों के पूरा होने का इंतज़ार करते रहे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.पाकिस्तानी मीडिया में भी इस तरह की खबरें रोज़ ही आ रही थीं कि पता नहीं कब क्या हो जाए लेकिन लगता है कि वहां लोकशाही की जड़ें मज़बूत होना शुरू हो गयी हैं .पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों को विश्वास होने लगा है कि अब उनके देश में लोकतंत्र के लिए अब पहले से ज़्यादा अवसर मौजूद हैं . हालांकि यह भी हो सकता है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में मौजूदा सरकार हटा दी जाए लेकिन सिविलियन हुकूमत के पिछले कुछ हफ़्तों के तेवर ऐसे हैं जो पक्की तरह से लोक शाही की ताकत का सन्देश देते हैं . अगर मौजूदा सरकार चुनाव के पहले नहीं हटाई जायेगी गयी तो पाकिस्तान के इतिहास में पहली सिविलियन सरकार बन जायेगी जिसने अपने पूरा कार्यकाल पूरा किया हो .
पाकिस्तान में सारा विवाद तब शुरू हुआ जब उनकी फौज की नाक के नीचे ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी साबित हो गयी जबकि जनरल परवेश मुशर्रफ से लेकर जनरल कयानी तक सभी फौजी कहते रहे थे कि उन्हें नहीं मालूम कि ओसामा कहाँ है. उसके बाद जब सरकार ने फौज को आइना दिखाने की कोशिश की तो सेना मुख्यालय से तख्तापलट के संकेत आने लगे थे . बाद में उसी चक्कर में मेमो काण्ड वाला लफडा भी हुआ . लगने लगा कि सिविलियन हुकूमत के आदेश न मानने के लिए बदनाम पाकिस्तानी फौज अब सरकार की छुट्टी कर देगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ .पाकिस्तान में फौज ने चार बार सिविलियन सत्ता को हटाकर खुद गद्दी पर क़ब्ज़ा किया है . चारों बार सडकों पर टैंक उतार दिए जाते थे, रेडियो और टेलीविज़न पर क़ब्ज़ा कर लिया जाता था और सिविलियन शासक को पकड़ लिया जाता था . इस बार ऐसा संभव नहीं है . आज न्यायपालिका एक मज़बूत सत्ता केंद्र के रूपमें विकसित हो चुकी है , पाकिस्तानी मीडिया भी अपनी भूमिका बहुत ही खूबी से निभा रहा है और आज मीडिया ब्लैक और का सपना देखना किसी ही शासक के लिए संभव नहीं है . पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पूरा भरोसा है कि आज फौज की हिम्मत नहीं है कि वह सीधे हस्तक्षेप कर सके.
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद फौज की जो बदनामी हुई उसके बाद से ही ज़रदारी-गीलानी सरकार ने अपनी अथारिटी को स्थापित करना शुरू कर दिया था . उसी जद्दो-जहद में देश में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले चार महीनों में कुछ ऐसे कानून पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में बदलाव ही हवा बह रही है. पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ,बी एम कुट्टी दिसंबर में मुंबई आये थे .उन्होंने बहुत सारे उदाहरणों के साथ यह बात समझाया कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान में अब आम तौर पर माना जाने लगा है कि फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं .
पाकिस्तानी अखबार डान के पहले पेज पर खबर छपी है कि पाकिस्तानी फौज के मुखिया, जनरल अशफाक परवेज़ कयानी और आई एस आई के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल शुजा पाशा ने मंगलवार को प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी के दफ्तर जाकर उनसे मुलाक़ात की . इस बैठक में राजकाज के बहुत सारी बातों के अलावा यह भी तय किया गया कि अफगानिस्तान में सरकार की नीतियों को लागू करने की दिशा में क्या क़दम उठाये जाने हैं . प्रधानमंत्री ने विदेशमंत्री, हिना रब्बानी खार को अफगानिस्तान की यात्रा करने का निर्देश दिया .इस यात्रा का उद्देश्य अमरीका-पाकिस्तान-अफगानिस्तान की शीर्ष बैठक के पहले माहौल ठीक करना भी बताया गया है .
इस खबर का ज़िक्र करने का मतलब यह है कि जहाँ पाकिस्तानी फौज और आई एस आई देश की सबसे ताक़तवर संस्थाएं मानी जाती थीं और अगर किसी नवाज़ शरीफ या किसी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसका हुक्म नहीं माना तो उसे सत्ता से बेदखल कर दिया जाता था, उसी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गीलानी के सख्त तेवर के बाद आई एस आई और फौज का मुखिया राजकाज के मामलों की चर्चा में शामिल होने के लिए प्रधान मंत्री के यहाँ हाजिरी लगा रहा है . पाकिस्तान के पिछले साठ साल के इतिहास को जानने वाले जानते हैं कि फौज का मुखिया डांट खाने के बाद कभी किसी भी सिविलियन सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए ही उसके दफतर जाता है .लेकिन पाकिस्तान में भी हालात बदल रहे हैं . चारों तरफ से लोकतंत्र की मजबूती की खबरें आ रही हैं जो पाकिस्तान के लिए तो बहुत अच्छा है ही, भारत और अफगानिस्तान के लिए बहुत अच्छा है, बाकी दुनिया के लिए बहुत अच्छा है .
पाकिस्तान के बारे में पिछले कुछ महीनों से अजीब खबरें आ रही थीं . पाकिस्तानी मामलों के भारत में मौजूद लाल बुझक्कड़ अक्सर बताते रहते हैं कि बहुत जल्द पाकिस्तान में फौजी हुकूमत कायम होने वाली है. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . जब से सिविलियन हुकूमत ने फौज को अपनी हद में रहने की हिदायत दी है,उसी वक़्त से बार बार यह चर्चा जोर पकड़ लेती है कि फौज अब फ़ौरन राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री की छुट्टी कर देगी और खुद सरकार बन जायेगी. सारी दुनिया में पाकिस्तानी मामलों के जानकार अपनी इस तर्ज़ पर की गयी भविष्यवाणियों के पूरा होने का इंतज़ार करते रहे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.पाकिस्तानी मीडिया में भी इस तरह की खबरें रोज़ ही आ रही थीं कि पता नहीं कब क्या हो जाए लेकिन लगता है कि वहां लोकशाही की जड़ें मज़बूत होना शुरू हो गयी हैं .पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों को विश्वास होने लगा है कि अब उनके देश में लोकतंत्र के लिए अब पहले से ज़्यादा अवसर मौजूद हैं . हालांकि यह भी हो सकता है कि आने वाले कुछ हफ़्तों में मौजूदा सरकार हटा दी जाए लेकिन सिविलियन हुकूमत के पिछले कुछ हफ़्तों के तेवर ऐसे हैं जो पक्की तरह से लोक शाही की ताकत का सन्देश देते हैं . अगर मौजूदा सरकार चुनाव के पहले नहीं हटाई जायेगी गयी तो पाकिस्तान के इतिहास में पहली सिविलियन सरकार बन जायेगी जिसने अपने पूरा कार्यकाल पूरा किया हो .
पाकिस्तान में सारा विवाद तब शुरू हुआ जब उनकी फौज की नाक के नीचे ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी साबित हो गयी जबकि जनरल परवेश मुशर्रफ से लेकर जनरल कयानी तक सभी फौजी कहते रहे थे कि उन्हें नहीं मालूम कि ओसामा कहाँ है. उसके बाद जब सरकार ने फौज को आइना दिखाने की कोशिश की तो सेना मुख्यालय से तख्तापलट के संकेत आने लगे थे . बाद में उसी चक्कर में मेमो काण्ड वाला लफडा भी हुआ . लगने लगा कि सिविलियन हुकूमत के आदेश न मानने के लिए बदनाम पाकिस्तानी फौज अब सरकार की छुट्टी कर देगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ .पाकिस्तान में फौज ने चार बार सिविलियन सत्ता को हटाकर खुद गद्दी पर क़ब्ज़ा किया है . चारों बार सडकों पर टैंक उतार दिए जाते थे, रेडियो और टेलीविज़न पर क़ब्ज़ा कर लिया जाता था और सिविलियन शासक को पकड़ लिया जाता था . इस बार ऐसा संभव नहीं है . आज न्यायपालिका एक मज़बूत सत्ता केंद्र के रूपमें विकसित हो चुकी है , पाकिस्तानी मीडिया भी अपनी भूमिका बहुत ही खूबी से निभा रहा है और आज मीडिया ब्लैक और का सपना देखना किसी ही शासक के लिए संभव नहीं है . पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को पूरा भरोसा है कि आज फौज की हिम्मत नहीं है कि वह सीधे हस्तक्षेप कर सके.
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद फौज की जो बदनामी हुई उसके बाद से ही ज़रदारी-गीलानी सरकार ने अपनी अथारिटी को स्थापित करना शुरू कर दिया था . उसी जद्दो-जहद में देश में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले चार महीनों में कुछ ऐसे कानून पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में बदलाव ही हवा बह रही है. पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ,बी एम कुट्टी दिसंबर में मुंबई आये थे .उन्होंने बहुत सारे उदाहरणों के साथ यह बात समझाया कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान में अब आम तौर पर माना जाने लगा है कि फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं .
नितिन गडकरी चाहते क्या हैं ?
शेष नारायण सिंह
मुंबई,२७ जनवरी . बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ,नितिन गडकरी आजकल खूब मज़े ले रहे हैं . अपनी पार्टी के उन नेताओं का मजाक उड़ा रहे हैं जो अपने को २०१४ में प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं . अभी दो दिन पहले उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बताकर लाल कृष्ण आडवाणी को सन्देश देने की कोशिश की थी. आज किसी अखबार में खबर है कि उन्होंने अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधान मंत्री बनाने की पेशकश की है. उनके इस बयान से भी लाल कृष्ण आडवाणी और उनके क़रीबी लोगों को बहुत खुशी नहीं होगी क्योंकि नरेंद्र मोदी ,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज का नाम उछाल कर नितिन गडकरी जी, लाल कृष्ण आडवाणी के दावे को कमज़ोर करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे हैं. वैसे बीजेपी के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम पार्टी के उन अध्यक्षों की पंक्ति में लिख दिया गया है जिन्होंने जाने अनजाने बीजेपी को पिछले तीस वर्षों में एक अगंभीर पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश की है. वैसे भी लाल कृष्ण आडवानी को हल्का करने की कोशिश करके बीजेपी अध्यक्ष ने पार्टी के उन वफादार सदस्यों को तकलीफ पंहुचायी है जो नितिन गडकरी के राजनीति में आने से पहले से ही जनसंघ और बीजेपी में लाल कृष्ण आडवानी को एक बड़े नेता के रूप में देखते रहे हैं .
बीजेपी की राजनीति की अंतर्कथाओं के जानकार जानते हैं कि इन चार नेताओं को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बताकर नितिन गडकरी ने पार्टी के अंदर चल रही लड़ाई को एक नया आयाम दिया है . सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते नितिन गडकरी अब राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं . यह अलग बात है कि जिन नेताओं का नाम वे प्रधान मंत्री के दावेदार के रूप में पेश कर रहे हैं,उनमें से सभी नितिन गडकरी से बहुत बड़े क़द के नेता हैं . दिल्ली में बीजेपी बीट को कवर करने वाले पत्रकारों को मालूम है कि पार्टी का अध्यक्ष बनने के पहले ,जब भी नितिन गडकरी दिल्ली आते थे, वे लाल कृष्ण आडवाणी,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से मिलने की कोशिश ज़रूर करते थे और अक्सर उन्हें समय मिल भी जाता था . आज भी आम धारणा यह है कि वे बीजेपी के सी ई ओ भले हो गए हों लेकिन वे इन बड़े नेताओं के नेता नहीं हैं . लेकिन नितिन गडकरी अपनी अध्यक्ष की कुर्सी के सहारे अपने को सर्वोच्च साबित करने के लिए ऐसे काम कर रहे हैं जो बीजेपी का कोई भी शुभचिन्तक कभी न करता . मसलन उत्तर प्रदेश में उनकी राजनीतिक प्रबंधन की कृपा से बीजेपी कांग्रेस से भी पीछे चली गयी है. अभी कल एक टी वी चैनल पर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण देखने का मौक़ा मिला. वह चैनल ऐसे लोगों का है जिन्हें बीजेपी का करीबी माना जाता है. उनके सर्वे में भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को कांग्रेस से पीछे दिखाया गया था.
दुनिया जानती है कि किसी भी पार्टी को अपने किसी कार्यकर्ता को भारत का प्रधान मंत्री बनाने के लिए उत्तर प्रदेश से बहुत बड़ी संख्या में संसद सदस्य जितवाने ज़रूरी हैं . जब उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी की रणनीति सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में अपने आपको स्थापित करने की लग रही हो तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे केंद्र में सरकार बनाने के बारे में सोच भी रही है.प्रधान मंत्री बनाने के नौबत तो तब आयेगी जब केंद्र में सरकार बनने के संभावना नज़र आयेगी, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में जिस तरह से नितिन गडकरी ने चुनाव संचालन का तंत्र बनाया है,उससे तो यही lagtaa है कि २०१४ में वे किसी भी हालत में केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार नहीं बनने देगें. उन्होंने राज्य के बड़े नेताओं राजनाथ सिंह , कलराज मिश्र, मुरली मनोहर जोशी, केशरी नाथ त्रिपाठी ,विनय कटियार , सूर्य प्रताप शाही, आदि को दरकिनार किया है उससे तो यही लगता है कि वे बीजेपी को उसी मुकाम पर पंहुचा देने के चक्कर में हैं जहां अभी पिछले चुनावों तक कांग्रेस विराजती थी. वरना उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में राज्य के सभी बड़े नेताओं को पैदल करने का और कोई मतलब समझ में नहीं आता
मुंबई,२७ जनवरी . बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ,नितिन गडकरी आजकल खूब मज़े ले रहे हैं . अपनी पार्टी के उन नेताओं का मजाक उड़ा रहे हैं जो अपने को २०१४ में प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं . अभी दो दिन पहले उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बताकर लाल कृष्ण आडवाणी को सन्देश देने की कोशिश की थी. आज किसी अखबार में खबर है कि उन्होंने अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधान मंत्री बनाने की पेशकश की है. उनके इस बयान से भी लाल कृष्ण आडवाणी और उनके क़रीबी लोगों को बहुत खुशी नहीं होगी क्योंकि नरेंद्र मोदी ,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज का नाम उछाल कर नितिन गडकरी जी, लाल कृष्ण आडवाणी के दावे को कमज़ोर करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे हैं. वैसे बीजेपी के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम पार्टी के उन अध्यक्षों की पंक्ति में लिख दिया गया है जिन्होंने जाने अनजाने बीजेपी को पिछले तीस वर्षों में एक अगंभीर पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश की है. वैसे भी लाल कृष्ण आडवानी को हल्का करने की कोशिश करके बीजेपी अध्यक्ष ने पार्टी के उन वफादार सदस्यों को तकलीफ पंहुचायी है जो नितिन गडकरी के राजनीति में आने से पहले से ही जनसंघ और बीजेपी में लाल कृष्ण आडवानी को एक बड़े नेता के रूप में देखते रहे हैं .
बीजेपी की राजनीति की अंतर्कथाओं के जानकार जानते हैं कि इन चार नेताओं को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बताकर नितिन गडकरी ने पार्टी के अंदर चल रही लड़ाई को एक नया आयाम दिया है . सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते नितिन गडकरी अब राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं . यह अलग बात है कि जिन नेताओं का नाम वे प्रधान मंत्री के दावेदार के रूप में पेश कर रहे हैं,उनमें से सभी नितिन गडकरी से बहुत बड़े क़द के नेता हैं . दिल्ली में बीजेपी बीट को कवर करने वाले पत्रकारों को मालूम है कि पार्टी का अध्यक्ष बनने के पहले ,जब भी नितिन गडकरी दिल्ली आते थे, वे लाल कृष्ण आडवाणी,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से मिलने की कोशिश ज़रूर करते थे और अक्सर उन्हें समय मिल भी जाता था . आज भी आम धारणा यह है कि वे बीजेपी के सी ई ओ भले हो गए हों लेकिन वे इन बड़े नेताओं के नेता नहीं हैं . लेकिन नितिन गडकरी अपनी अध्यक्ष की कुर्सी के सहारे अपने को सर्वोच्च साबित करने के लिए ऐसे काम कर रहे हैं जो बीजेपी का कोई भी शुभचिन्तक कभी न करता . मसलन उत्तर प्रदेश में उनकी राजनीतिक प्रबंधन की कृपा से बीजेपी कांग्रेस से भी पीछे चली गयी है. अभी कल एक टी वी चैनल पर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण देखने का मौक़ा मिला. वह चैनल ऐसे लोगों का है जिन्हें बीजेपी का करीबी माना जाता है. उनके सर्वे में भी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को कांग्रेस से पीछे दिखाया गया था.
दुनिया जानती है कि किसी भी पार्टी को अपने किसी कार्यकर्ता को भारत का प्रधान मंत्री बनाने के लिए उत्तर प्रदेश से बहुत बड़ी संख्या में संसद सदस्य जितवाने ज़रूरी हैं . जब उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी की रणनीति सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में अपने आपको स्थापित करने की लग रही हो तो कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे केंद्र में सरकार बनाने के बारे में सोच भी रही है.प्रधान मंत्री बनाने के नौबत तो तब आयेगी जब केंद्र में सरकार बनने के संभावना नज़र आयेगी, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में जिस तरह से नितिन गडकरी ने चुनाव संचालन का तंत्र बनाया है,उससे तो यही lagtaa है कि २०१४ में वे किसी भी हालत में केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार नहीं बनने देगें. उन्होंने राज्य के बड़े नेताओं राजनाथ सिंह , कलराज मिश्र, मुरली मनोहर जोशी, केशरी नाथ त्रिपाठी ,विनय कटियार , सूर्य प्रताप शाही, आदि को दरकिनार किया है उससे तो यही लगता है कि वे बीजेपी को उसी मुकाम पर पंहुचा देने के चक्कर में हैं जहां अभी पिछले चुनावों तक कांग्रेस विराजती थी. वरना उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में राज्य के सभी बड़े नेताओं को पैदल करने का और कोई मतलब समझ में नहीं आता
Monday, January 23, 2012
पश्चिम बंगाल में भी यू पी की तर्ज पर जयराम रमेश का निरीक्षण शुरू
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २१ जनवरी .लगता है कि कांग्रेस ने ममता बनर्जी को औकात बनाने का मन बना लिया है . पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के काम करने के तरीके से कांग्रेस में सर्वोच्च स्तर पर बहुत ही असुविधा होती बतायी जा रही है. वैसे भी जिस तरह से लगभग हर हफ्ते पश्चिम बंगाल सरकार की नकारात्मक पब्लिसिटी हो रही है उसके चलते कांग्रेस ममता बनर्जी के खराब काम में अपने आप को शामिल नहीं दिखाना चाहती . अस्पतालों के खस्ता प्रबंध की जो खबरें आजकल मीडिया में छाई हुई हैं उसके चलते कांग्रेस आलाकमान में ममता से राजनीतिक दोस्ती रखने के खिलाफ माहौल बन रहा है .
सोमवार को ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कोलकाता जा रहे हैं और वहां जाकर वे २४ परगना, बांकुरा और पुरुलिया जिलों में अपने मंत्रालय के सौजन्य से चल रही स्कीमों की समीक्षा करेगें .इसके पहले ममता बनर्जी ने कई बार कांग्रेस के नेताओं को अहसास करवाया है केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार अपने अस्तित्व के लिए ममता बनर्जी की कृपा पर बहुत ज्यादा निर्भर है .पिछले दिनों उन्होंने कांग्रेस के पश्चिम बंगाल के कार्यकर्ताओं और राज्य स्तर के नेताओं को भी धमकाने की योजना पर काम शुरू कर दिया . पश्चिम बंगाल में उन्होंने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाया है लेकिन अपनी ही सरकार में काम कर रहे कांग्रेसी मंत्रियों को बिलकुल जीरो पर बैठा दिया है . एक मंत्री को तो इतना परेशान कर दिया कि उसने इस्तीफ़ा देने में ही भलाई समझी. . नई दिल्ली में राजनीतिक मौसम के जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में चुनावों के बाद यू पी ए में मुलायम सिंह यादव की पार्टी के शामिल होने की बिसात बिछ चुकी है. जिसके बाद सोनिया गाँधी ममता बनर्जी को यू पी ए छोड़ने का विकल्प दे देगीं. इसका मतलब यह हुआ कि वे ममता को साफ़ बता देगीं कि अगर सरकार में रहना है तो कांग्रेस के साथ शिष्टाचार की सीमा में ही रहना पडेगा. उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार को घेरने के पहले भी वहां जयराम रमेश ने जांच का काम शुरू किया था और कई जिलों में मनरेगा में हो रही घूसखोरी को राजनीतिक बहस के दायरे में ला दिया था . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस जयराम रमेश के निरीक्षण के ज़रिये ममता से दूरी बनाने के अपने प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर चुकी है .
जयराम रमेश का पश्चिम बंगाल का दौरा बिलकुल सरकारी है. २३ जनवरी को वे कोलकाता में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती पर आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होंगें.उसके बाद वे २४ परगना जिले के डोंगरिया कस्बे के लिए रवाना हो जायेगें जहां अफसरों से वे बातचीत करेगें और ग्रामीण विकास की केंद्रीय स्कीमों की समीक्षा करेगें .२४ जनवरी को जयराम रमेश बांकुरा जायेगें जहां वे पुरंदरपुर ब्लाक में पानी की जांच की प्रयोगशाला, सैनिटरी मार्ट और वाटर हार्वेस्टिंग स्कीमों के बारे में जानकारी लेगें .अगले दिन बुधवार को वे पुरुलिया जिले के रघुनाथपुर ब्लाक में प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना और वाटर ट्रीटमेंट प्लान का निरीक्षण करेगें . बुधवार को वे नई दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाक़ात करेगें . जयराम रमेश के सरकारी कार्यक्रम से बिलकुल साफ़ नज़र आ रहा है कि ममता बनर्जी को भी कांग्रेस वही सम्मान और रुतबा देने वाली है जो विधान सभा चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने के पहले उसने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, मायावती को दिया था .
नई दिल्ली, २१ जनवरी .लगता है कि कांग्रेस ने ममता बनर्जी को औकात बनाने का मन बना लिया है . पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के काम करने के तरीके से कांग्रेस में सर्वोच्च स्तर पर बहुत ही असुविधा होती बतायी जा रही है. वैसे भी जिस तरह से लगभग हर हफ्ते पश्चिम बंगाल सरकार की नकारात्मक पब्लिसिटी हो रही है उसके चलते कांग्रेस ममता बनर्जी के खराब काम में अपने आप को शामिल नहीं दिखाना चाहती . अस्पतालों के खस्ता प्रबंध की जो खबरें आजकल मीडिया में छाई हुई हैं उसके चलते कांग्रेस आलाकमान में ममता से राजनीतिक दोस्ती रखने के खिलाफ माहौल बन रहा है .
सोमवार को ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कोलकाता जा रहे हैं और वहां जाकर वे २४ परगना, बांकुरा और पुरुलिया जिलों में अपने मंत्रालय के सौजन्य से चल रही स्कीमों की समीक्षा करेगें .इसके पहले ममता बनर्जी ने कई बार कांग्रेस के नेताओं को अहसास करवाया है केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार अपने अस्तित्व के लिए ममता बनर्जी की कृपा पर बहुत ज्यादा निर्भर है .पिछले दिनों उन्होंने कांग्रेस के पश्चिम बंगाल के कार्यकर्ताओं और राज्य स्तर के नेताओं को भी धमकाने की योजना पर काम शुरू कर दिया . पश्चिम बंगाल में उन्होंने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाया है लेकिन अपनी ही सरकार में काम कर रहे कांग्रेसी मंत्रियों को बिलकुल जीरो पर बैठा दिया है . एक मंत्री को तो इतना परेशान कर दिया कि उसने इस्तीफ़ा देने में ही भलाई समझी. . नई दिल्ली में राजनीतिक मौसम के जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में चुनावों के बाद यू पी ए में मुलायम सिंह यादव की पार्टी के शामिल होने की बिसात बिछ चुकी है. जिसके बाद सोनिया गाँधी ममता बनर्जी को यू पी ए छोड़ने का विकल्प दे देगीं. इसका मतलब यह हुआ कि वे ममता को साफ़ बता देगीं कि अगर सरकार में रहना है तो कांग्रेस के साथ शिष्टाचार की सीमा में ही रहना पडेगा. उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार को घेरने के पहले भी वहां जयराम रमेश ने जांच का काम शुरू किया था और कई जिलों में मनरेगा में हो रही घूसखोरी को राजनीतिक बहस के दायरे में ला दिया था . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस जयराम रमेश के निरीक्षण के ज़रिये ममता से दूरी बनाने के अपने प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर चुकी है .
जयराम रमेश का पश्चिम बंगाल का दौरा बिलकुल सरकारी है. २३ जनवरी को वे कोलकाता में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयन्ती पर आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होंगें.उसके बाद वे २४ परगना जिले के डोंगरिया कस्बे के लिए रवाना हो जायेगें जहां अफसरों से वे बातचीत करेगें और ग्रामीण विकास की केंद्रीय स्कीमों की समीक्षा करेगें .२४ जनवरी को जयराम रमेश बांकुरा जायेगें जहां वे पुरंदरपुर ब्लाक में पानी की जांच की प्रयोगशाला, सैनिटरी मार्ट और वाटर हार्वेस्टिंग स्कीमों के बारे में जानकारी लेगें .अगले दिन बुधवार को वे पुरुलिया जिले के रघुनाथपुर ब्लाक में प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना और वाटर ट्रीटमेंट प्लान का निरीक्षण करेगें . बुधवार को वे नई दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाक़ात करेगें . जयराम रमेश के सरकारी कार्यक्रम से बिलकुल साफ़ नज़र आ रहा है कि ममता बनर्जी को भी कांग्रेस वही सम्मान और रुतबा देने वाली है जो विधान सभा चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने के पहले उसने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री, मायावती को दिया था .
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शेष नारायण सिंह
अब मुसलमान जज़्बात नहीं, विकास के मुद्दों पर वोट डालेगा
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के पहले सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है .इस बार के चुनाव में सभी दलों को पता है कि सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है. शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक साबित करने के चक्कर हैं . जब टेलिविज़न की खबरों का ज़माना नहीं था तो एक ख़ास विचारधारा के लोग अफवाहों के सहारे चुनावों के ठीक पहले राज्य के कुछ मुसलिम बहुल इलाकों में साम्प्रदायिक दंगा करवा लेते थे और उनकी अपनी सीट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर निकल जाती थी . लेकिन टी वी न्यूज़ की बहुत बड़े पैमाने पर मौजूदगी के चलते अब अफवाहों की बिना पर दंगा करवा पाना बहुत मुश्किल हो गया है . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार विचारधारा वाले तो अब मुसलमानों के ध्रुवीकरण की उम्मीद छोड़ चुके हैं . लेकिन बाकी तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमानों की असली शुभचिन्तक हैं . समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की प्रिय पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है .इसमें सच्च्चाई भी थी. जब भी समाजवादी पार्टी को मौक़ा मिला उसने मुसलमानों के समाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने की कोशिश की . कभी राज्य में उर्दू को बढ़ावा दिया तो कभी पुलिस जैसी सरकारी नकारियों में मुसलमानों को बड़ी संख्या में भर्ती किया . लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों के ठीक पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सज़ा पा चुके नेता कल्याण सिंह को सम्मान सहित पार्टी में भर्ती करके समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को बहुत निराश किया था . उसका नतीजा भी लोकसभा चुनावों में सामने आ गया था . समाजवादी पार्टी २००४ में करीब ४० सीटें जीतकर लोक सभा पंहुची थी वहीं २००९ में बीस के आस पास रह गयी . हालांकि मुसलमानों ने पूरी तरह तो साथ नहीं छोड़ा था लेकिन कल्याण सिंह के प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी मुसलमानों की प्रिय पार्टी नहीं रह गयी थी. कल्याण सिंह के भर्ती होने के बाद पैदा हुई समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी को कांग्रेस ने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी . कांग्रेस पार्टी को भी मुसलमानों के बीच ६ दिसंबर १९९२ के बाद पसंद नहीं किया जाता था . उसके कई कारण थे. सबसे बड़ा तो यही कि १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए कांग्रेस पार्टी भी कम ज़िम्मेदार नहीं थी. ६ दिसंबर १९९२ के दिन दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा था ,पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह पर भरोसा किया था कि वे बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करेगें . अजीब बात है कि कांग्रेस ने कल्याण सिंह पर भरोसा किया जबकि हर सरकारी अफसर को मालूम था कि बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ करने की योजना बन चुकी थी और उस साज़िश में कल्याण सिंह बाकायदा शामिल थे . . कांग्रेस की इस मिलीभगत के कारण मुसलमानों और सेकुलर जमातों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था . लेकिन जब से राहुल गांधी ने मैदान लिया है उन्होंने मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में थोड़ी बहुत सफलता हासिल की है .जानकार बाते हैं कि उनकी कोशिश का ही नतीजा था कि लोक सभा २००९ में कांग्रेस को बीस से ज्यादा सीटों पर सफलता मिली. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमानों की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमानों का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. अब सभी गैर बीजेपी पार्टियां रंगनाथ मिश्रा कमीशन की बात करने लगी हैं और उस तरफ कुछ काम भी हो रहा है . मसलन जब यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमानों का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई . जबकि सच्चाई यह है कि इस साढ़े चार प्रतिशत वाली बात से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है . क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई , जैन और बौध समाज से कम्पटीशन करना पडेगा. ज़ाहिर है यह सारा का सारा साढ़े चार प्रतिशत इन्हीं अल्पसंख्यक समुदायों के हिस्से में जाएगा जो शैक्षिक रूप से आगे हैं . लेकिन कांग्रेस के नेताओं के भाषणों के हवाले से बाद में सामाजिक न्याय की पक्षधर जमातें कांग्रेस को मजबूर कर सकती हैं कि वह शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों का कुछ प्रतिशत अलग से रिज़र्व कर दे .
बहरहाल अब एक बात साफ़ है कि पुराने तरीकों को इस्तेमाल करके अब मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना थोडा मुश्किल होगा. मसलन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने अधिक संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को ज़ाहिर करने की कोशिश की है .कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को दिखाने की कोशिश की है . लेकिन मुसलिम नौजवानों का मौजूदा वर्ग इस बात से प्रभावित नहीं हो रहा है . वह सवाल पूछ रहा है कि कुछ संपन्न और ताक़तवर मुसलमानों को एम पी ,एम एल ए बनाकर कोई भी पार्टी आम मुसलमान को कैसे संतुष्ट कर सकती है . अब मुसलामान कुछ सत्ता प्रेमी मुसलमानों को मिली हुई इज़्ज़त से खुश होने को तैयार नहीं है . वह इंसाफ़ की मांग करने लगा है . उसे शिक्षा चाहिए , उसे सरकारी नौकरियों और निजी औद्योगिक क्षेत्र में अपना हक चाहिए . कुछ मुसलमानों के सामने टिकट की खैरात फेंक कर आम मुसलमान को संतुष्ट कर पाना अब नामुमकिन है . इसीलिये देखा यह जा रहा है कि सच्चर और रंगनाथ मिश्रा को जिस सम्मान की नज़र से मुस्लिम समाज में देखा जाता है ,वह इज्ज़त किसी भी मुस्लिम राजनेता को मयस्सर नहीं है .वैसे भी मुसलमान हर उस आदमी की इज़्ज़त करता है जो उसके लिए न्याय की बात करता अहै . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो भी मुसलमान राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेता है वह मुसलमानों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव २०१२ के पहले जो माहौल बन रहा है वह इस देश के आम मुसलमान के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होगा. मसलन कांग्रेस अपने साढ़े चार प्रतिशत के अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताने की कोशिश में जब नाकाम हो गयी तो अपने एक मुस्लिम मंत्री से बयान दिलवा दिया कि अब मुसलमानों को ९ प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इस बात को मीडिया का इस्तेमाल करके गरमाने की कोशिश भी की जा रही है .. कांग्रेस की इस कोशिश को आम मुसलमान गंभीरता से ले रहा है . उधर समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन की बात करना शुरू कर दिया है . समाजवादी पार्टी की इस बात को चुनावी स्टंट ही माना जा रहा है . यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता इतनी ज्यादा है कि उनकी बात को लोग हल्का नहीं मानते,लेकिन लोगों को यह भी मालूम है कि फिलहाल मुसलमानों को १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन देना राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है .
इस चुनाव की एक और दिलचस्प बात यह है कि भावनात्मक मुद्दों को उठाने की कोई कोशिश काम नहीं आ रही है . कल्याण सिंह का हिन्दू हृदय सम्राट वाला चोला बिलकुल बेकार साबित हो रहा है . अपने इलाके में अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के अलावा वह किसी के हृदय सम्राट नहीं बन पा रहे हैं .ज़ाहिर है वे चुनावों में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभा पायेगें .. बाबरी मस्जिद केस में उनकी सह अभियुक्त उमा भारती को भी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यू पी में अहम भूमिका देने की कोशिश की है लेकिन उनकी मौजूदगी भी कट्टर हिन्दूवादी वोटरों पर वह असर नहीं डाल पा रही है जो १९९२ के बाद के चुनावों में थी. यही हाल बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वाले मुसलमानों का भी है . उस वक़्त के ज़्यादातर नेता तो पता नहीं कहाँ चले गए हैं .. जो एकाध कहीं नज़र भी रहे हैं उनकी मुसलमानों की बीच कोई ख़ास औकात नहीं है ..दरअसल इस चुनाव में यह बात बिकुल साफ़ हो गयी है कि अब मुसलमान ज़ज़बाती मुद्दों को अपनाने को तैयार नहीं है. उसे तो इंसाफ़ चाहिए और अपना हक चाहिए . उसे विकास चाहिए और सामान अवसर चाहिए . अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान इस बार इन मुद्दों को चुनाव की मुख्य धारा बनाने में कामयाब हो गया तो देश का और मुसलमान का मुस्तकबिल अच्छा होगा अब सभी मानने लगे हैं कि मुसलमान जज्बाती होकर फैसला नहीं करने वाला है . वह किसी भी दंगाई की बात में नहीं आने वाला है . यह संकेत २००७ में ही मिलना शुरू हो गया था. जब २००७ के विधान सभा चुनाव के ठीक पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे कुछ होर्डिंग लगा दिए गए थे, सी डी बांटी गयी थी और मुसलमानों को और तरीकों से भड़काने की कोशिश की गयी थी तो मुसलमानों ने आम तौर पर उस कोशिश को नज़र अंदाज़ किया था. उसके बाद के किसी भी चुनाव में भड़काऊ बयान या चुनाव सामग्री का बाज़ार नहीं चल पाया .शायद इसीलिये मौजूदा चुनाव भी विकास के मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नज़र आ रहा है . और सभी पार्टियों के मालूम है कि इस बार मुसलमानों की निर्णायक मदद के बिना सरकार नहीं बनने वाली है .
इंसाफ़ की इस लड़ाई में इस बार उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .मुसलमानों की संख्या के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां उनकी मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौत सीटें पड़ती हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है जहां मुसलमानों के वोट के लिए तीन अहम पार्टियां जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहां यह वोटर इंसाफ़ की जद्दो जहद में एक ज़बरदस्त भूमिका निभा सकते हैं . ऐसा लगता है अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के जज़्बात को भड़का कार राजनीति करना मुश्किल होगा. अब राजनीतिक पार्टियों को असली मुद्दों को संबोधित करना पडेगा.
उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के पहले सभी राजनीतिक पार्टियों में वोटर को अपनी तरफ खींच लेने की होड़ मची हुई है .इस बार के चुनाव में सभी दलों को पता है कि सत्ता की चाभी मुसलमानों के हाथ में है. शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक साबित करने के चक्कर हैं . जब टेलिविज़न की खबरों का ज़माना नहीं था तो एक ख़ास विचारधारा के लोग अफवाहों के सहारे चुनावों के ठीक पहले राज्य के कुछ मुसलिम बहुल इलाकों में साम्प्रदायिक दंगा करवा लेते थे और उनकी अपनी सीट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर निकल जाती थी . लेकिन टी वी न्यूज़ की बहुत बड़े पैमाने पर मौजूदगी के चलते अब अफवाहों की बिना पर दंगा करवा पाना बहुत मुश्किल हो गया है . इसलिए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार विचारधारा वाले तो अब मुसलमानों के ध्रुवीकरण की उम्मीद छोड़ चुके हैं . लेकिन बाकी तीन मुख्य राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों के समर्थन के बल पर लखनऊ की सत्ता पर काबिज़ होने के सपने देख रही हैं . इसके लिए जहां पुराने तरीकों को भी अपनाया जा रहा है तो नए से नए तरीके भी अपनाए जा रहे हैं .राज्य की सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर यह माहौल बनाने की कोशिश की है कि वह मुसलमानों की असली शुभचिन्तक हैं . समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की प्रिय पार्टी के रूप में पेश किया जाता रहा है .इसमें सच्च्चाई भी थी. जब भी समाजवादी पार्टी को मौक़ा मिला उसने मुसलमानों के समाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने की कोशिश की . कभी राज्य में उर्दू को बढ़ावा दिया तो कभी पुलिस जैसी सरकारी नकारियों में मुसलमानों को बड़ी संख्या में भर्ती किया . लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों के ठीक पहले बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट से सज़ा पा चुके नेता कल्याण सिंह को सम्मान सहित पार्टी में भर्ती करके समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को बहुत निराश किया था . उसका नतीजा भी लोकसभा चुनावों में सामने आ गया था . समाजवादी पार्टी २००४ में करीब ४० सीटें जीतकर लोक सभा पंहुची थी वहीं २००९ में बीस के आस पास रह गयी . हालांकि मुसलमानों ने पूरी तरह तो साथ नहीं छोड़ा था लेकिन कल्याण सिंह के प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी मुसलमानों की प्रिय पार्टी नहीं रह गयी थी. कल्याण सिंह के भर्ती होने के बाद पैदा हुई समाजवादी पार्टी से मुसलमानों की नाराज़गी को कांग्रेस ने अपने फायदे में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी . कांग्रेस पार्टी को भी मुसलमानों के बीच ६ दिसंबर १९९२ के बाद पसंद नहीं किया जाता था . उसके कई कारण थे. सबसे बड़ा तो यही कि १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के लिए कांग्रेस पार्टी भी कम ज़िम्मेदार नहीं थी. ६ दिसंबर १९९२ के दिन दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस का क़ब्ज़ा था ,पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह पर भरोसा किया था कि वे बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करेगें . अजीब बात है कि कांग्रेस ने कल्याण सिंह पर भरोसा किया जबकि हर सरकारी अफसर को मालूम था कि बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ करने की योजना बन चुकी थी और उस साज़िश में कल्याण सिंह बाकायदा शामिल थे . . कांग्रेस की इस मिलीभगत के कारण मुसलमानों और सेकुलर जमातों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया था . लेकिन जब से राहुल गांधी ने मैदान लिया है उन्होंने मुसलमानों का भरोसा हासिल करने में थोड़ी बहुत सफलता हासिल की है .जानकार बाते हैं कि उनकी कोशिश का ही नतीजा था कि लोक सभा २००९ में कांग्रेस को बीस से ज्यादा सीटों पर सफलता मिली. उसके बाद तो कांग्रेस ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिससे लगता है कि कांग्रेस ६ दिसंबर १९९२ के अपने काम के लिए शर्मिंदा है और बात को ठीक करना चाहती है . कांग्रेस की सरकार ने जो सच्चर कमेटी बनायी है वह मुसलमानों की हालत सुधारने की दिशा में उठाया गया एक निर्णायक क़दम है . सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आ जाने के बाद अब तक प्रचलित बहुत सारी भ्रांतियों से पर्दा उठ गया है . मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का प्रचार करके संघ परिवार और उसके मातहत संगठन हर सरकार पर आरोप लगाते रहते थे कि मुसलमानों का अपीजमेंट किया जाता है.लेकिन सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद उस तर्क की हवा निकल चुकी है .इतना ही नहीं ,कांग्रेस की सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन बनाकर मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में रिज़र्वेशन देने की भी सरकारी पहल को एक शक्ल दे दी. अब सभी गैर बीजेपी पार्टियां रंगनाथ मिश्रा कमीशन की बात करने लगी हैं और उस तरफ कुछ काम भी हो रहा है . मसलन जब यू पी ए सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओ बी सी कोटे से काटकर साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक आरक्षण की बात की, तो बात कुछ आगे बढ़ी. कांग्रेस ने इसका खूब प्रचार प्रसार भी किया और इस साढ़े चार प्रतिशत को मुसलमानों का आरक्षण बताने की राजनीतिक मुहिम चलाई . जबकि सच्चाई यह है कि इस साढ़े चार प्रतिशत वाली बात से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है . क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई , जैन और बौध समाज से कम्पटीशन करना पडेगा. ज़ाहिर है यह सारा का सारा साढ़े चार प्रतिशत इन्हीं अल्पसंख्यक समुदायों के हिस्से में जाएगा जो शैक्षिक रूप से आगे हैं . लेकिन कांग्रेस के नेताओं के भाषणों के हवाले से बाद में सामाजिक न्याय की पक्षधर जमातें कांग्रेस को मजबूर कर सकती हैं कि वह शुद्ध रूप से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों का कुछ प्रतिशत अलग से रिज़र्व कर दे .
बहरहाल अब एक बात साफ़ है कि पुराने तरीकों को इस्तेमाल करके अब मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बनाना थोडा मुश्किल होगा. मसलन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी की मुखिया ने अधिक संख्या में मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को ज़ाहिर करने की कोशिश की है .कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने भी मुसलमानों को टिकट देकर अपने मुस्लिम प्रेम को दिखाने की कोशिश की है . लेकिन मुसलिम नौजवानों का मौजूदा वर्ग इस बात से प्रभावित नहीं हो रहा है . वह सवाल पूछ रहा है कि कुछ संपन्न और ताक़तवर मुसलमानों को एम पी ,एम एल ए बनाकर कोई भी पार्टी आम मुसलमान को कैसे संतुष्ट कर सकती है . अब मुसलामान कुछ सत्ता प्रेमी मुसलमानों को मिली हुई इज़्ज़त से खुश होने को तैयार नहीं है . वह इंसाफ़ की मांग करने लगा है . उसे शिक्षा चाहिए , उसे सरकारी नौकरियों और निजी औद्योगिक क्षेत्र में अपना हक चाहिए . कुछ मुसलमानों के सामने टिकट की खैरात फेंक कर आम मुसलमान को संतुष्ट कर पाना अब नामुमकिन है . इसीलिये देखा यह जा रहा है कि सच्चर और रंगनाथ मिश्रा को जिस सम्मान की नज़र से मुस्लिम समाज में देखा जाता है ,वह इज्ज़त किसी भी मुस्लिम राजनेता को मयस्सर नहीं है .वैसे भी मुसलमान हर उस आदमी की इज़्ज़त करता है जो उसके लिए न्याय की बात करता अहै . लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो भी मुसलमान राजनीतिक सत्ता हासिल कर लेता है वह मुसलमानों से दूर रहने में ही अपनी भलाई समझता है .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव २०१२ के पहले जो माहौल बन रहा है वह इस देश के आम मुसलमान के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होगा. मसलन कांग्रेस अपने साढ़े चार प्रतिशत के अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताने की कोशिश में जब नाकाम हो गयी तो अपने एक मुस्लिम मंत्री से बयान दिलवा दिया कि अब मुसलमानों को ९ प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा. इस बात को मीडिया का इस्तेमाल करके गरमाने की कोशिश भी की जा रही है .. कांग्रेस की इस कोशिश को आम मुसलमान गंभीरता से ले रहा है . उधर समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों के लिए १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन की बात करना शुरू कर दिया है . समाजवादी पार्टी की इस बात को चुनावी स्टंट ही माना जा रहा है . यह अलग बात है कि मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता इतनी ज्यादा है कि उनकी बात को लोग हल्का नहीं मानते,लेकिन लोगों को यह भी मालूम है कि फिलहाल मुसलमानों को १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन देना राजनीतिक रूप से किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है .
इस चुनाव की एक और दिलचस्प बात यह है कि भावनात्मक मुद्दों को उठाने की कोई कोशिश काम नहीं आ रही है . कल्याण सिंह का हिन्दू हृदय सम्राट वाला चोला बिलकुल बेकार साबित हो रहा है . अपने इलाके में अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के अलावा वह किसी के हृदय सम्राट नहीं बन पा रहे हैं .ज़ाहिर है वे चुनावों में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभा पायेगें .. बाबरी मस्जिद केस में उनकी सह अभियुक्त उमा भारती को भी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यू पी में अहम भूमिका देने की कोशिश की है लेकिन उनकी मौजूदगी भी कट्टर हिन्दूवादी वोटरों पर वह असर नहीं डाल पा रही है जो १९९२ के बाद के चुनावों में थी. यही हाल बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वाले मुसलमानों का भी है . उस वक़्त के ज़्यादातर नेता तो पता नहीं कहाँ चले गए हैं .. जो एकाध कहीं नज़र भी रहे हैं उनकी मुसलमानों की बीच कोई ख़ास औकात नहीं है ..दरअसल इस चुनाव में यह बात बिकुल साफ़ हो गयी है कि अब मुसलमान ज़ज़बाती मुद्दों को अपनाने को तैयार नहीं है. उसे तो इंसाफ़ चाहिए और अपना हक चाहिए . उसे विकास चाहिए और सामान अवसर चाहिए . अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान इस बार इन मुद्दों को चुनाव की मुख्य धारा बनाने में कामयाब हो गया तो देश का और मुसलमान का मुस्तकबिल अच्छा होगा अब सभी मानने लगे हैं कि मुसलमान जज्बाती होकर फैसला नहीं करने वाला है . वह किसी भी दंगाई की बात में नहीं आने वाला है . यह संकेत २००७ में ही मिलना शुरू हो गया था. जब २००७ के विधान सभा चुनाव के ठीक पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे कुछ होर्डिंग लगा दिए गए थे, सी डी बांटी गयी थी और मुसलमानों को और तरीकों से भड़काने की कोशिश की गयी थी तो मुसलमानों ने आम तौर पर उस कोशिश को नज़र अंदाज़ किया था. उसके बाद के किसी भी चुनाव में भड़काऊ बयान या चुनाव सामग्री का बाज़ार नहीं चल पाया .शायद इसीलिये मौजूदा चुनाव भी विकास के मुद्दों के इर्द गिर्द घूमता नज़र आ रहा है . और सभी पार्टियों के मालूम है कि इस बार मुसलमानों की निर्णायक मदद के बिना सरकार नहीं बनने वाली है .
इंसाफ़ की इस लड़ाई में इस बार उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की संख्या अहम भूमिका निभाने वाली है .मुसलमानों की संख्या के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां उनकी मर्जी के लोग ही चुने जायेगें . इन जिलों में करीब सवा सौत सीटें पड़ती हैं . रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर ,मुज़फ्फरनगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . ज़ाहिर है जहां मुसलमानों के वोट के लिए तीन अहम पार्टियां जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहां यह वोटर इंसाफ़ की जद्दो जहद में एक ज़बरदस्त भूमिका निभा सकते हैं . ऐसा लगता है अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के जज़्बात को भड़का कार राजनीति करना मुश्किल होगा. अब राजनीतिक पार्टियों को असली मुद्दों को संबोधित करना पडेगा.
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Thursday, January 19, 2012
21 जनवरी को म्यूजिक फोरम वाले कुलदीप कुमार को सम्मानित करेगें .
शेष नारायण सिंह
हिन्दी के नामी कवि और संगीत मर्मज्ञ कुलदीप कुमार को इस साल का मीडिया एक्सीलेंस अवार्ड दिया जाएगा. २१ जनवरी २०१२ को मुंबई के एन सी पी ए सभागार में रोल आफ मीडिया इन द प्रमोशन ऑफ़ म्यूजिक इन इण्डिया नाम का सेमिनार आयोजित किया गया है . इसी अवसर पर इस पुरस्कार को देने का कार्यक्रम है . संगीत की तरक्की के लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रही कंपनी आई टी सी के तत्वावधान में बनाए गए इंटरनैशनल फ़ौंडेशन फार द फाइन आर्ट्स के म्यूजिक फोरम की तरफ से यह अवार्ड पिछले कई वर्षों से दिया जा रहा है . कुलदीप कुमार को इस महीने की ५ दिसंबर को ही चिट्ठी भेज दी गयी थी और उनसे म्यूजिक फोरम के संयोजक अरविंद पारिख ने अनुरोध किया था कि कृपया इस अवार्ड को स्वीकार कर लें . पता चला है कि कुलदीप कुमार ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है.
कुलदीप हिन्दी के बड़े कवि हैं . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में ही वे एक कवि के रूप में पहचाने जाते थे. छात्र जीवन में हिन्दी आलोचना के कुछ भारी मठाधीशों से कुलदीप कुमार का पंगा हो गया था . उनको कवि के रूप में स्थापित न होने देने के लिए भी कुछ कोशिशें हुईं लेकिन वे रुके नहीं . अपना काम करते रहे. कुलदीप इतिहास के विद्वान् हैं और देश के बहुत बड़े अखबारों में नौकरी की है . पत्रकार के रूप में उनको बहुत सम्मान से देखा जाता है . आजकल जनसत्ता,द हिन्दू , फ्रंट लाइन , इकानामिक टाइम्स आदि अखबारों में उनके कालम छपते हैं . देश के कई बहुत बड़े अखबारों में वे बाकायदा नौकरी कर चुके हैं. जर्मनी के रेडियो द्वाइचे वैले में भी उन्होंने दिल्ली प्रतिनिधि के रूप में नौकरी की है .
कुलदीप कुमार की पहचान एक ऐसे लेखक के रूप में है जो संस्कृति की बारीकियों और नफासत को पूरी संजीदगी से न केवल समझते हैं , उसे आम बोलचाल की भाषा में समझा भी सकते हैं . आजकल संगीत के बारे में लिखे जा रहे उनके द हिन्दू के कालम को चाहने वालों की संख्या बहुत बढ़ रही है . कुलदीप के लेखन से संगीत की समझ को विकसित करने के मौके बहुत लोगों को मिल रहे हैं. कुलदीप कुमार को सम्मनित करके जहां एक तरफ म्यूजिक फोरम ने एक बहत ही संवेदन शील रचनाकार को समानित किया है वहीं उन्होंने यह ऐलान भी किया है कि उनके संगठन ने मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय संगीत के सबसे बड़े जानकारों को पहचानने में कभी कोई गलती नहीं की है . १९९५ से शुरू हुए इस सम्मान को पाने वालों की सूची में देश के बहुत बड़े संगीत समालोचाकों के नाम मौजूद हैं . १९९५ में पहला सम्मान छाया गांगुली को मिला था. बाद के वर्षों में इस सम्मान को लक्ष्मी नारायण गर्ग, पट्टाभि रमण .मोहन नाडकर्णी, शांता गोखले ,अमरेन्द्र धनेश्वर और मुकुंद सगोरम जैसे प्रसिद्ध लोगों को दिया गया . पिछले साल यह सम्मान सम्मान द हिन्दू अखबार के एन मुरली को दिया गया था .
एक बेहतीन लेखक और पत्रकार के अलावा कुलदीप कुमार एक संवेदनशील कवि के रूप में भी जाने जाने जाते हैं.औरत के बारे में लिखी गयी उनकी कविता को कई गुणी लोगों के मुंह से सुनने का अवसर मिला है . उस कविता के अंत में जब कुलदीप कहते हैं कि ," अपने पुरुष होने के अभिमान पर लजाता हुआ " तो लगता है कि सामंती सोच वाले पूरे पुरुष समाज को झकझोड़ कर बता रहे हैं कि औरत वास्तव में पुरुष से कम नहीं है , सुपीरियर है . कुलदीप कुमार को सम्मानित करके आई टी सी और म्यूजिक फोरम ने अपना भी मान बढाया है
हिन्दी के नामी कवि और संगीत मर्मज्ञ कुलदीप कुमार को इस साल का मीडिया एक्सीलेंस अवार्ड दिया जाएगा. २१ जनवरी २०१२ को मुंबई के एन सी पी ए सभागार में रोल आफ मीडिया इन द प्रमोशन ऑफ़ म्यूजिक इन इण्डिया नाम का सेमिनार आयोजित किया गया है . इसी अवसर पर इस पुरस्कार को देने का कार्यक्रम है . संगीत की तरक्की के लिए बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रही कंपनी आई टी सी के तत्वावधान में बनाए गए इंटरनैशनल फ़ौंडेशन फार द फाइन आर्ट्स के म्यूजिक फोरम की तरफ से यह अवार्ड पिछले कई वर्षों से दिया जा रहा है . कुलदीप कुमार को इस महीने की ५ दिसंबर को ही चिट्ठी भेज दी गयी थी और उनसे म्यूजिक फोरम के संयोजक अरविंद पारिख ने अनुरोध किया था कि कृपया इस अवार्ड को स्वीकार कर लें . पता चला है कि कुलदीप कुमार ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है.
कुलदीप हिन्दी के बड़े कवि हैं . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में ही वे एक कवि के रूप में पहचाने जाते थे. छात्र जीवन में हिन्दी आलोचना के कुछ भारी मठाधीशों से कुलदीप कुमार का पंगा हो गया था . उनको कवि के रूप में स्थापित न होने देने के लिए भी कुछ कोशिशें हुईं लेकिन वे रुके नहीं . अपना काम करते रहे. कुलदीप इतिहास के विद्वान् हैं और देश के बहुत बड़े अखबारों में नौकरी की है . पत्रकार के रूप में उनको बहुत सम्मान से देखा जाता है . आजकल जनसत्ता,द हिन्दू , फ्रंट लाइन , इकानामिक टाइम्स आदि अखबारों में उनके कालम छपते हैं . देश के कई बहुत बड़े अखबारों में वे बाकायदा नौकरी कर चुके हैं. जर्मनी के रेडियो द्वाइचे वैले में भी उन्होंने दिल्ली प्रतिनिधि के रूप में नौकरी की है .
कुलदीप कुमार की पहचान एक ऐसे लेखक के रूप में है जो संस्कृति की बारीकियों और नफासत को पूरी संजीदगी से न केवल समझते हैं , उसे आम बोलचाल की भाषा में समझा भी सकते हैं . आजकल संगीत के बारे में लिखे जा रहे उनके द हिन्दू के कालम को चाहने वालों की संख्या बहुत बढ़ रही है . कुलदीप के लेखन से संगीत की समझ को विकसित करने के मौके बहुत लोगों को मिल रहे हैं. कुलदीप कुमार को सम्मनित करके जहां एक तरफ म्यूजिक फोरम ने एक बहत ही संवेदन शील रचनाकार को समानित किया है वहीं उन्होंने यह ऐलान भी किया है कि उनके संगठन ने मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय संगीत के सबसे बड़े जानकारों को पहचानने में कभी कोई गलती नहीं की है . १९९५ से शुरू हुए इस सम्मान को पाने वालों की सूची में देश के बहुत बड़े संगीत समालोचाकों के नाम मौजूद हैं . १९९५ में पहला सम्मान छाया गांगुली को मिला था. बाद के वर्षों में इस सम्मान को लक्ष्मी नारायण गर्ग, पट्टाभि रमण .मोहन नाडकर्णी, शांता गोखले ,अमरेन्द्र धनेश्वर और मुकुंद सगोरम जैसे प्रसिद्ध लोगों को दिया गया . पिछले साल यह सम्मान सम्मान द हिन्दू अखबार के एन मुरली को दिया गया था .
एक बेहतीन लेखक और पत्रकार के अलावा कुलदीप कुमार एक संवेदनशील कवि के रूप में भी जाने जाने जाते हैं.औरत के बारे में लिखी गयी उनकी कविता को कई गुणी लोगों के मुंह से सुनने का अवसर मिला है . उस कविता के अंत में जब कुलदीप कहते हैं कि ," अपने पुरुष होने के अभिमान पर लजाता हुआ " तो लगता है कि सामंती सोच वाले पूरे पुरुष समाज को झकझोड़ कर बता रहे हैं कि औरत वास्तव में पुरुष से कम नहीं है , सुपीरियर है . कुलदीप कुमार को सम्मानित करके आई टी सी और म्यूजिक फोरम ने अपना भी मान बढाया है
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शेष नारायण सिंह
Wednesday, January 18, 2012
बटला हाउस काण्ड पर अमर सिंह और समाजवादी पार्टी के बीच बयानबाजी तेज़
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, १७ जनवरी. दिल्ली के ओखला इलाके के बटला हाउस में सितम्बर 2008 में हुए कथित मुठभेड़ में मारे गए मुस्लिम नौजवानों और दिल्ली पुलिस के इन्स्पेक्टर मोहन चन्द्र शर्मा की मौत पर हो रही राजनीति में एक नया आयाम जुड़ गया है . उत्तर प्रदेश में चुनावी दौरे कर रहे, लोकमंच के नेता,अमर सिंह ने कल बयान दे दिया था अकी उनकी पुरानी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने उन्हें बटला हाउस जाकर मुस्लिम नौजवानों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने से रोका था . सब को मालूम है कि आजकल अमर सिंह मुलायम सिंह के घोर विरोधी हैं और उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा है कि हो सकता है कि उनकी पार्टी चुनाव में सीटें न जीते लेकिन वे मुलायम सिंह की पार्टी को नुकसान ज़रूर पंहुचायेगें . बटला हाउस केस में मुलायम सिंह यादव की भूमिका को मुस्लिम विरोधी बताते हुए अमर सिंह की कोशिश है कि वे मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से दूर खींच ले जाएँ . ज़ाहिर है कि समाजवादी पार्टी को यह बात पसंद नहीं आई और पार्टी ने अमर सिंह के बयान को बेबुनियाद ,झूठा और बेहूदा बताया और उसका खंडन किया .
अमर सिंह का बटला हाउस संबंधी बयान आज के अखबारों में छपा है . समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रो. राम गोपाल यादव ने आज उस बयान को पूरी तरह से गलत बताया और उसका खंडन किया. उन्होंने कहा कि अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर आरोप लगाया है कि श्री यादव ने उन्हें घटना स्थल पर जाने से रोका था . यह बयान पूरी तरह से झूठा और तथ्यहीन है .उन्होंने कहा कि मैं और अमर सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्देश पर बटला हाउस गए थे .अमर सिंह ने बटला हाउस में मारे गए इन्स्पेक्टर शर्मा के पिताजी को दस लाख रूपये देने की घोषणा की थी और चेक भी भेजा था. समाजवादी पार्टी ने चेक देने का विरोध किया था. बाद में स्वर्गीय शर्मा के पिता जी ने वह चेक वापस कर दिया था. उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने उस इनकाउंटर को फर्जी मानते हुए अपने प्रतिनिधि के रूप में हमें भेजा था .इसलिए अमर सिंह के बेबुनियाद, झूठे और बेहूदे बयान का समाजवादी पार्टी खंडन करती है .
अमर सिंह ने प्रो.राम गोपाल यादव के बयान को दुर्भावनापूर्ण बताया और कहा कि बटला हाउस काण्ड में मुस्लिम बच्चे भी मारे गए थे और दिल्ली पुलिस के इन्स्पेक्टर शर्मा भी मारे गए थे . दोनों ही साज़िश का शिकार हुए थे. इनकाउंटर फर्जी था और इन्स्पेक्टर शर्मा को भी किसी साज़िश के तहत मारा गया था. इसलिए मैंने उनके परिवार को दस लाख रूपये देने की पेशकश की थी . साथ ही मैं जामिया मिलिया जाकर उन मुस्लिम लड़कों को भी दस लाख देकर आया था जो फर्जी इनकाउंटर के शिकार मुस्लिम लड़कों के सम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे और यह साबित करने की कोशिश कर रहे थे के मारे गए लड़के आतंकवादी नहीं थे ,वे निर्दोष थे. . उन्होंने समाजवादी पार्टी के उस बयान को भी गलत बताया कि इन्स्पेक्टर शर्मा के परिवार को चेक देने का विरोध समाजवादी पार्टी ने किया था. उसका विरोध वास्तव में संघ परिवार और बीजेपी ने किया था . बटला हाउस में मारे गए एक लडके के पिता शादाब साहेब आज़म गढ़ में समाजवादी पार्टी की ज़िला ईकाई के उपाध्यक्ष थे . समाजवादी पार्टी के जिला अध्यक्ष बलराम यादव ने उन्हें पार्टी से यह कह कर निकाल दिया था कि एक दहशत गर्द के बाप को पार्टी में रहने का कोई हक नहीं है . इसलिए समाजवादी पार्टी को कोई हक नहीं है कि वह आज अपने आप को मुसलमानों का खैरख्वाह बताये .अमर सिंह कहते हैं कि जो लड़के बटला हाउस के फर्जी इनकाउंटर में मारे गए थे वे आज़मगढ़ के थे ,इसलिए वे उनके ज़्यादा करीबी थे .बटला हाउस का वाकया उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के वोट खींचने का एक अहम तरीका बनता जा रहा ज़ाहिर है अभी इसके बारे में बहुत कुछ बयान आयेगें .
नई दिल्ली, १७ जनवरी. दिल्ली के ओखला इलाके के बटला हाउस में सितम्बर 2008 में हुए कथित मुठभेड़ में मारे गए मुस्लिम नौजवानों और दिल्ली पुलिस के इन्स्पेक्टर मोहन चन्द्र शर्मा की मौत पर हो रही राजनीति में एक नया आयाम जुड़ गया है . उत्तर प्रदेश में चुनावी दौरे कर रहे, लोकमंच के नेता,अमर सिंह ने कल बयान दे दिया था अकी उनकी पुरानी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने उन्हें बटला हाउस जाकर मुस्लिम नौजवानों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने से रोका था . सब को मालूम है कि आजकल अमर सिंह मुलायम सिंह के घोर विरोधी हैं और उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा है कि हो सकता है कि उनकी पार्टी चुनाव में सीटें न जीते लेकिन वे मुलायम सिंह की पार्टी को नुकसान ज़रूर पंहुचायेगें . बटला हाउस केस में मुलायम सिंह यादव की भूमिका को मुस्लिम विरोधी बताते हुए अमर सिंह की कोशिश है कि वे मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से दूर खींच ले जाएँ . ज़ाहिर है कि समाजवादी पार्टी को यह बात पसंद नहीं आई और पार्टी ने अमर सिंह के बयान को बेबुनियाद ,झूठा और बेहूदा बताया और उसका खंडन किया .
अमर सिंह का बटला हाउस संबंधी बयान आज के अखबारों में छपा है . समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रो. राम गोपाल यादव ने आज उस बयान को पूरी तरह से गलत बताया और उसका खंडन किया. उन्होंने कहा कि अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर आरोप लगाया है कि श्री यादव ने उन्हें घटना स्थल पर जाने से रोका था . यह बयान पूरी तरह से झूठा और तथ्यहीन है .उन्होंने कहा कि मैं और अमर सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्देश पर बटला हाउस गए थे .अमर सिंह ने बटला हाउस में मारे गए इन्स्पेक्टर शर्मा के पिताजी को दस लाख रूपये देने की घोषणा की थी और चेक भी भेजा था. समाजवादी पार्टी ने चेक देने का विरोध किया था. बाद में स्वर्गीय शर्मा के पिता जी ने वह चेक वापस कर दिया था. उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने उस इनकाउंटर को फर्जी मानते हुए अपने प्रतिनिधि के रूप में हमें भेजा था .इसलिए अमर सिंह के बेबुनियाद, झूठे और बेहूदे बयान का समाजवादी पार्टी खंडन करती है .
अमर सिंह ने प्रो.राम गोपाल यादव के बयान को दुर्भावनापूर्ण बताया और कहा कि बटला हाउस काण्ड में मुस्लिम बच्चे भी मारे गए थे और दिल्ली पुलिस के इन्स्पेक्टर शर्मा भी मारे गए थे . दोनों ही साज़िश का शिकार हुए थे. इनकाउंटर फर्जी था और इन्स्पेक्टर शर्मा को भी किसी साज़िश के तहत मारा गया था. इसलिए मैंने उनके परिवार को दस लाख रूपये देने की पेशकश की थी . साथ ही मैं जामिया मिलिया जाकर उन मुस्लिम लड़कों को भी दस लाख देकर आया था जो फर्जी इनकाउंटर के शिकार मुस्लिम लड़कों के सम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे और यह साबित करने की कोशिश कर रहे थे के मारे गए लड़के आतंकवादी नहीं थे ,वे निर्दोष थे. . उन्होंने समाजवादी पार्टी के उस बयान को भी गलत बताया कि इन्स्पेक्टर शर्मा के परिवार को चेक देने का विरोध समाजवादी पार्टी ने किया था. उसका विरोध वास्तव में संघ परिवार और बीजेपी ने किया था . बटला हाउस में मारे गए एक लडके के पिता शादाब साहेब आज़म गढ़ में समाजवादी पार्टी की ज़िला ईकाई के उपाध्यक्ष थे . समाजवादी पार्टी के जिला अध्यक्ष बलराम यादव ने उन्हें पार्टी से यह कह कर निकाल दिया था कि एक दहशत गर्द के बाप को पार्टी में रहने का कोई हक नहीं है . इसलिए समाजवादी पार्टी को कोई हक नहीं है कि वह आज अपने आप को मुसलमानों का खैरख्वाह बताये .अमर सिंह कहते हैं कि जो लड़के बटला हाउस के फर्जी इनकाउंटर में मारे गए थे वे आज़मगढ़ के थे ,इसलिए वे उनके ज़्यादा करीबी थे .बटला हाउस का वाकया उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के वोट खींचने का एक अहम तरीका बनता जा रहा ज़ाहिर है अभी इसके बारे में बहुत कुछ बयान आयेगें .
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Monday, January 16, 2012
पाकिस्तान में लोकतंत्र और राजनीतिक पार्टियों का इम्तिहान हो रहा है
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान में आजकल वह हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ.देश की संसद में यह तय हो रहा है कि देश में लोकतंत्र का निजाम रहना है कि एक बार फिर तानाशाही कायम होनी है . अब तक तो होता यह था कि कोई फौजी जनरल आकर सिविलियन सरकारों को बता देता था कि भाई बहुत हुआ अब चलो ,हम राजकाज संभालेगें . सिविलियन हुकूमत वाले जब ज्यादा लोकशाही की बात करते थे तो उन्हें दुरुस्त कर दिया जाता था. चाहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो रहे हों या लियाकत अली खां और या नवाज़ शरीफ रहे हों सब को फौज ने अपमानित ही किया लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि पूरे देश में आजकल लोकतंत्र बनाम तानाशाही की बहस चल रही है . हालांकि मौजूदा सरकार की लोकप्रियता और भ्रष्टाचार के हवाले से उसे हटाने का राग चारों तरफ से सुनायी पड़ने लगा है लकिन लगता है कि अब पुरानी बातें नहीं चलने वाली हैं . संसद का विशेष सत्र चल रहा है और सोमवार को संसद तय करेगी कि आगे का रास्ता क्या हो . प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने संसद में कहा कि तय यह होना है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही .उन्होंने कहा कि अगर उनकी सरकार ने गलातियाँ की हैं तो ठीक है उन्हें सज़ा दी जाए लेकिन संसद या लोकतंत्र को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए .पाकिस्तानी जनमत का दबाव ऐसा है कि अब तक फौज के बूटों पर ताल दे रहे पंजाबी राजनेता , नवाज़ शरीफ भी कहने लगे हैं कि सरकार को चाहिए कि वक़्त से पहले चुनाव करवाकर लोकतंत्र की बहाली को सुनिश्चित करें.
शुक्रवार को अवामी नेशनल पार्टी के नेता, अफसंदर वली खां ने कौमी असेम्बली में संसद,सरकार और लोकतंत्र के पक्ष में एक प्रस्ताव रखा. इसी प्रस्ताव पर सोमवार को वोट पडेगा. प्रस्ताव में राजनीतिक नेतृत्व की उस कोशिश का भी समर्थन किया गया है जिसमें वह लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रही है .पाकिस्तान में आजकल सरकार ही सवालों के घेरे में नहीं है .सही बात यह है कि पाकिस्तान के अस्तित्व पर एक बार फिर सवालिया निशान लग गया है .पाकिस्तान के लोकतंत्र को एक बार फिर अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया गया है .लेकिन यह एक दिन में नहीं हुआ. बहुत शुरू से ही पाकिस्तान की हर मुसीबत के लिए नेताओं को ज़िम्मेदार ठहराकर पाकिस्तानी फौज़ सत्ता हथियाती रही है . नेता भी आम तौर पर इतने बेईमान और भ्रष्ट हो जाते थे कि जनता दुआ करने लगती थी कि किसी तरह से फौज ही आ जाए . आम तौर पर फौज के सत्ता में आने पर लोग राहत की सांस लेते थे .लेकिन अब पहली बार ऐसा हो रहा है कि जनता इस बात पर बहस कर रही है कि देश में किस तरह का निजाम स्थापित किया जाए . हुकूमत के फैसलों में मनमानी करने की आदी पाकिस्तानी फौज़ के सामने भी विकल्प कम होते जा रहे हैं . हर बार होता यह था कि जब भी पाकिस्तान की सरकार पर फौज का क़ब्ज़ा होता था तो अमरीका फौजी तानाशाह को मदद करने लगता था . आर्थिक रूप से अमरीकी सरकार के शामिल हो जाने के बाद फौजी जनरल को कोई रोक नहीं सकता था . इस इलाके में रूस के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से अमरीका ने शुरुआती दो जनरलों, अयूब और याहया खां को समर्थन दिया था. जिया उल हक को अफगानिस्तान में सोवियत दखल को कम करने के लिए समर्थन दिया गया था और परवेज़ मुशर्रफ को तालिबानी आतंकियों को काबू में करने के लिए धन दिया गया था . लेकिन इस बार यह बिलकुल तय है कि अमरीका किसी भी फौजी हुकूमत को समर्थन देने को तैयार नहीं है . उसके अपने हित में है कि पाकिस्तान में जैसी भी हो लोकतंत्र वाली सरकार ही रहे. ऐसे माहौल में लगता है कि पाकिस्तान की जनता को आज़ादी के साठ साल बाद ही सही अपने हक को हासिल करने का मौक़ा मिल रहा है .
हालांकि अभी यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि जिस तरह का माहौल है उसमें संसदीय लोकतंत्र सुरक्षित बच पायेगा .फौज ने एक पुराने क्रिकेट खिलाड़ी को आगे कर दिया है और लगता है कि वह उसी को आगे करके लोकतंत्र को कंट्रोल में रखने की कोशिश कर रही है .इस खिलाड़ी ने एक राजनीतिक पार्टी भी बना रखा है और अगर पहले जैसे हालात होते तो अब तक वह सत्ता पर काबिज़ भी हो चुका होता लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और जनमत का दबाव ऐसा है कि फौज को चुप बैठने के लिए मजबूर कर दिया गया है .पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियां भी एक इम्तिहान के दौर से गुज़र रही है देखना यह है कि आने वाले वक़्त में पाकिस्तान में लोक तंत्र बचता है कि नहीं और अगर बचता है तो किस रूपमें .
पाकिस्तान में आजकल वह हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ.देश की संसद में यह तय हो रहा है कि देश में लोकतंत्र का निजाम रहना है कि एक बार फिर तानाशाही कायम होनी है . अब तक तो होता यह था कि कोई फौजी जनरल आकर सिविलियन सरकारों को बता देता था कि भाई बहुत हुआ अब चलो ,हम राजकाज संभालेगें . सिविलियन हुकूमत वाले जब ज्यादा लोकशाही की बात करते थे तो उन्हें दुरुस्त कर दिया जाता था. चाहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो रहे हों या लियाकत अली खां और या नवाज़ शरीफ रहे हों सब को फौज ने अपमानित ही किया लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि पूरे देश में आजकल लोकतंत्र बनाम तानाशाही की बहस चल रही है . हालांकि मौजूदा सरकार की लोकप्रियता और भ्रष्टाचार के हवाले से उसे हटाने का राग चारों तरफ से सुनायी पड़ने लगा है लकिन लगता है कि अब पुरानी बातें नहीं चलने वाली हैं . संसद का विशेष सत्र चल रहा है और सोमवार को संसद तय करेगी कि आगे का रास्ता क्या हो . प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने संसद में कहा कि तय यह होना है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही .उन्होंने कहा कि अगर उनकी सरकार ने गलातियाँ की हैं तो ठीक है उन्हें सज़ा दी जाए लेकिन संसद या लोकतंत्र को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए .पाकिस्तानी जनमत का दबाव ऐसा है कि अब तक फौज के बूटों पर ताल दे रहे पंजाबी राजनेता , नवाज़ शरीफ भी कहने लगे हैं कि सरकार को चाहिए कि वक़्त से पहले चुनाव करवाकर लोकतंत्र की बहाली को सुनिश्चित करें.
शुक्रवार को अवामी नेशनल पार्टी के नेता, अफसंदर वली खां ने कौमी असेम्बली में संसद,सरकार और लोकतंत्र के पक्ष में एक प्रस्ताव रखा. इसी प्रस्ताव पर सोमवार को वोट पडेगा. प्रस्ताव में राजनीतिक नेतृत्व की उस कोशिश का भी समर्थन किया गया है जिसमें वह लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रही है .पाकिस्तान में आजकल सरकार ही सवालों के घेरे में नहीं है .सही बात यह है कि पाकिस्तान के अस्तित्व पर एक बार फिर सवालिया निशान लग गया है .पाकिस्तान के लोकतंत्र को एक बार फिर अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया गया है .लेकिन यह एक दिन में नहीं हुआ. बहुत शुरू से ही पाकिस्तान की हर मुसीबत के लिए नेताओं को ज़िम्मेदार ठहराकर पाकिस्तानी फौज़ सत्ता हथियाती रही है . नेता भी आम तौर पर इतने बेईमान और भ्रष्ट हो जाते थे कि जनता दुआ करने लगती थी कि किसी तरह से फौज ही आ जाए . आम तौर पर फौज के सत्ता में आने पर लोग राहत की सांस लेते थे .लेकिन अब पहली बार ऐसा हो रहा है कि जनता इस बात पर बहस कर रही है कि देश में किस तरह का निजाम स्थापित किया जाए . हुकूमत के फैसलों में मनमानी करने की आदी पाकिस्तानी फौज़ के सामने भी विकल्प कम होते जा रहे हैं . हर बार होता यह था कि जब भी पाकिस्तान की सरकार पर फौज का क़ब्ज़ा होता था तो अमरीका फौजी तानाशाह को मदद करने लगता था . आर्थिक रूप से अमरीकी सरकार के शामिल हो जाने के बाद फौजी जनरल को कोई रोक नहीं सकता था . इस इलाके में रूस के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से अमरीका ने शुरुआती दो जनरलों, अयूब और याहया खां को समर्थन दिया था. जिया उल हक को अफगानिस्तान में सोवियत दखल को कम करने के लिए समर्थन दिया गया था और परवेज़ मुशर्रफ को तालिबानी आतंकियों को काबू में करने के लिए धन दिया गया था . लेकिन इस बार यह बिलकुल तय है कि अमरीका किसी भी फौजी हुकूमत को समर्थन देने को तैयार नहीं है . उसके अपने हित में है कि पाकिस्तान में जैसी भी हो लोकतंत्र वाली सरकार ही रहे. ऐसे माहौल में लगता है कि पाकिस्तान की जनता को आज़ादी के साठ साल बाद ही सही अपने हक को हासिल करने का मौक़ा मिल रहा है .
हालांकि अभी यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि जिस तरह का माहौल है उसमें संसदीय लोकतंत्र सुरक्षित बच पायेगा .फौज ने एक पुराने क्रिकेट खिलाड़ी को आगे कर दिया है और लगता है कि वह उसी को आगे करके लोकतंत्र को कंट्रोल में रखने की कोशिश कर रही है .इस खिलाड़ी ने एक राजनीतिक पार्टी भी बना रखा है और अगर पहले जैसे हालात होते तो अब तक वह सत्ता पर काबिज़ भी हो चुका होता लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और जनमत का दबाव ऐसा है कि फौज को चुप बैठने के लिए मजबूर कर दिया गया है .पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियां भी एक इम्तिहान के दौर से गुज़र रही है देखना यह है कि आने वाले वक़्त में पाकिस्तान में लोक तंत्र बचता है कि नहीं और अगर बचता है तो किस रूपमें .
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Sunday, January 8, 2012
पाकिस्तान में लोकशाही भारत और पाकिस्तान , दोनों के हित में है .
शेष नारायण सिंह
मुंबई,५ दिसंबर . पाकिस्तान में पिछले ४ हफ़्तों में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले महीने तीन ऐसे बिल पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में जनमत के दबाव के तले परिवर्तन की बयार बह रही है. .पाकिस्तान के बड़े राजनीतिक कार्यकर्ता और पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ,बी एम कुट्टी ने आज मुंबई में कहा कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व गवर्नर , सलमान तासीर की हत्या के एक साल बाद उनकी याद में मुंबई प्रेस क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में आज बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान की जो तस्वीर आज यहाँ बी एम कुट्टी ने पेश की उस से लगता है कि वहां अब फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं . .
बी एम कुट्टी पाकिस्तान में बहुत ही सम्मान से देखे जाते हैं . उन्होंने बताया कि पिछले ४ हफ़्तों में जो कानून पास हुए हैं उस से इस बात का अंदाज़ लग जाता है कि पाकिस्तान में अब मुल्ला और मिलिटरी की मर्जी से हुकूमत नहीं चलेगी. पाक्सितान में एक कानून था कि लड़कियों की शादी कुरआन से कर दी जाती थी. ऐसा इसलिए किया जाता था कि ज़मींदारी प्रथा के बीच जी रहे पाकिस्तानी समाज को नहीं मंज़ूर था कि पुश्तैनी ज़मीन का बँटवारा हो . पिछले महीने संसद में सर्व सम्मति से बिल पास करके इस अमानवीय कानून को रद्द कर दिया गया..बी एम कुट्टी ने बताया कि पाकिस्तान में इस बात पर भी जनमत बन रहा है कि ईशनिंदा कानून को भी बदल दिया जाए. इसी कानून का विरोध करने के बाद ही सलमान तासीर की ह्त्या की गयी थी. उनके बेटे को पिछली अगस्त में किडनैप कर लिया गया था और उनकी बेटी को धमकियां मिल रही हैं . उसके हत्यारे के ऊपर इस्लामाबाद में कुछ वकीलों ने फूल भे बरसाए थे . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है . पिछले दिनों पाकिस्तानी हैदराबाद में एम क्यू एम नाम के राजनीतिक संगठन की एक सभा में कुछ लोग सलमान तासीर की तस्वीर लेकर आये थे उन्हें शहीद का दर्ज़ा देने की बात कर रहे थे . बी एम कुट्टी ने भारत के लोगों और मीडिया से अपील की कि वे पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को समर्थन दें ,मुल्ला और मिलिटरी के भड़काऊ बयानों को नज़र अन्दाज़करें क्योंकि वे वहां अल्पमत में हैं . पाकिस्तान में लोकशाही की मजबूती भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में है .
मुंबई,५ दिसंबर . पाकिस्तान में पिछले ४ हफ़्तों में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले महीने तीन ऐसे बिल पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में जनमत के दबाव के तले परिवर्तन की बयार बह रही है. .पाकिस्तान के बड़े राजनीतिक कार्यकर्ता और पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ,बी एम कुट्टी ने आज मुंबई में कहा कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व गवर्नर , सलमान तासीर की हत्या के एक साल बाद उनकी याद में मुंबई प्रेस क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में आज बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान की जो तस्वीर आज यहाँ बी एम कुट्टी ने पेश की उस से लगता है कि वहां अब फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं . .
बी एम कुट्टी पाकिस्तान में बहुत ही सम्मान से देखे जाते हैं . उन्होंने बताया कि पिछले ४ हफ़्तों में जो कानून पास हुए हैं उस से इस बात का अंदाज़ लग जाता है कि पाकिस्तान में अब मुल्ला और मिलिटरी की मर्जी से हुकूमत नहीं चलेगी. पाक्सितान में एक कानून था कि लड़कियों की शादी कुरआन से कर दी जाती थी. ऐसा इसलिए किया जाता था कि ज़मींदारी प्रथा के बीच जी रहे पाकिस्तानी समाज को नहीं मंज़ूर था कि पुश्तैनी ज़मीन का बँटवारा हो . पिछले महीने संसद में सर्व सम्मति से बिल पास करके इस अमानवीय कानून को रद्द कर दिया गया..बी एम कुट्टी ने बताया कि पाकिस्तान में इस बात पर भी जनमत बन रहा है कि ईशनिंदा कानून को भी बदल दिया जाए. इसी कानून का विरोध करने के बाद ही सलमान तासीर की ह्त्या की गयी थी. उनके बेटे को पिछली अगस्त में किडनैप कर लिया गया था और उनकी बेटी को धमकियां मिल रही हैं . उसके हत्यारे के ऊपर इस्लामाबाद में कुछ वकीलों ने फूल भे बरसाए थे . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है . पिछले दिनों पाकिस्तानी हैदराबाद में एम क्यू एम नाम के राजनीतिक संगठन की एक सभा में कुछ लोग सलमान तासीर की तस्वीर लेकर आये थे उन्हें शहीद का दर्ज़ा देने की बात कर रहे थे . बी एम कुट्टी ने भारत के लोगों और मीडिया से अपील की कि वे पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को समर्थन दें ,मुल्ला और मिलिटरी के भड़काऊ बयानों को नज़र अन्दाज़करें क्योंकि वे वहां अल्पमत में हैं . पाकिस्तान में लोकशाही की मजबूती भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में है .
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