शेष नारायण सिंह
हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार , अजय ब्रह्मात्मज ने एक दिलचस्प विषय पर फेसबुक पर चर्चा शुरू की है . कहते हैं कि सारी पीआर कंपनियां हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहती हैं।कोई विरोध नहीं करता। वक्त आ गया है कि उन्हें भारतीय भाषा कहा जाए। आगे कहते हैं कि मैं उनकी राय से सहमत हूं और उन सभी पीआर कंपनियों की भर्त्सना करता हूं जो सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल कैटेगरी में डालती हैं . इस बहस में बहुत बड़े लोग शामिल हो गए हैं . गरम हवा और और श्याम बेनेगल की ज़्यादातर फिल्मों की सहयात्री ,शमा ज़हरा जैदी का कहना है कि अंग्रेज़ी को नेशनल मीडिया कहना गलत है .उसे एंग्लो-इन्डियन मीडिया कहना चाहिए अजय जी कहते हैं आज से उन्होंने विरोध और फटकार आरंभ कर दिया है। थोड़ा प्रेम से भी समझाएंगे। उन्हें मालूम ही नहीं कि वे कौन सी परंपरा ढो रहे हैं। एक तरीका यह भी है कि सभी स्टारों को रीजनल स्टार कहा जाए। सलमान,आमिर,रितिक,शाहरूख सभी रीजनल स्टार हैं,क्योंकि हिंदी मीडिया रीजनल मीडिया है।
इस बहस में शामिल होने की ज़रूरत है . अंग्रेज़ी जिसे इस देश में दो प्रतिशत लोग भी नहीं जानते , उसे यह लोग राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं . भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहने की यह बीमारी अखबारों में भी है . कुछ तो ऐसे पाषाण युगीन सोच के लोग हैं कि वे भारतीय भाषाओं के अखबारों को वर्नाक्युलर प्रेस भी कहते हैं.
यह हमारी गुलामी की मानसिकता की उपज है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . मामला मीडिया से सम्बंधित है इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि इस पर बाकायदा बहस चलाई जाय.
Wednesday, October 13, 2010
Tuesday, October 12, 2010
गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा
शेष नारायण सिंह
कर्नाटक में लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ हुआ है . जिस तरह से विधायकों ने मारपीट की , ध्वनिमत से विश्वास मत पारित हुआ, जिस तरह से अध्यक्ष के पद की गरिमा को नीचा दिखाया गया , सब कुछ अक्षम्य और अमान्य है . हालांकि राज्यपाल की ख्याति ऐसी है कि वह कांग्रेसी खेल का हिस्सा माना जाता है और वह पूरे जीवन तिकड़म की राजनीति करता रहा है लेकिन उसकी ख्याति का बहाना लेकर किसी पार्टी को लोकतंत्र के खिलाफ काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. इस सारे काण्ड में बी जे पी के आला हाकिम नितिन गडकरी फिर घेर लिए गए हैं और दिल्ली में उनके दुश्मन , डी-4 वाले कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष ने गलती की . उन्हें मंत्रिमंडल में बी एस येदुरप्पा को अपना प्रभाव बढाने के लिए अपने विरोधियों के खिलाफ एक्शन लेने की अनुमति नहीं देनी चाहिये थी. यह अलग बात है कि डी -4 भी अब उतना मज़बूत नहीं है लेकिन मीडिया में अच्छे संबंधों के बल पर गडकरी का मखौल उड़ाने की उसकी ताक़त तो है ही. बी जे पी की गलतियों पर कांग्रेसी नेता मज़ा ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस को भी यह समझ लेना चाहिए कि वे भी घटिया राजनीति के मामले में बी जे पी से कम नहीं हैं. वास्तव में दल-बदल की राजनीति को उसके सबसे निचले मुकाम तक पंहुचाने में कांग्रेस का ही सबसे ज्यादा हाथ है . पी वी नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के चक्कर में जो सौदेबाज़ी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और अजित सिंह से हुई थी , उसके चक्कर में लोकशाही की राजनीति को शर्मसार होना पड़ा था. कर्नाटक में ही कांग्रेस ने बार बार लोकतंत्र को रसातल में ले जाने का काम किया है ,इसलिए कांग्रेस के नेताओं के बयानों के आधार पर लोकशाही की पक्षधरता के बात नहीं की जानी चाहिये . बी जे पी वाले जिस फासिस्ट राजनीति को चलाने के लिए विचारधारा के स्तर पर प्रतिबद्ध हैं , कांग्रेस की पूर्व नेता, स्व इंदिरा गांधी ने उसी राजनीति को अपने प्रिय पुत्र संजय गाँधी के साथ मिलकर परवान चढाया था और देश ने इमरजेंसी के नरक को भोगा था . आज भी कांग्रेस में वंशवाद जिस गहराई के साथ जमा हुआ है ,वह फासिस्ट राजनीति का ही उदाहरण है . इसलिए कांग्रेस को बहुत बढ़ बढ़ कर बात करने की ज़रुरत नहीं है .. लेकिन विधानसभा में जो कुछ भी हुआ उसके लिए उसमें शामिल नेताओं की निंदा की जानी चाहिए . एक बार सत्ता में आ जाने के बाद इन नेताओं को लगने लगता है कि उन्हें सत्ता में बने रहने का निर्द्वंद अधिकार मिल गया है . और यही लोकतंत्र का सबसे बड़ा नुकसान है. कर्नाटक की सत्ता पर काबिज़ बी जे पी और उसके मुख्यमंत्री अपने को सत्ता का स्थायी दावेदार समाझने लगे हैं . इसीलिए शायद उन लोगों ने मनमानी का आचरण शुरू कर दिया . जिसकी वजह से उनकी अपनी पार्टी में भी मतभेद हो गए. बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है कि किसी राजनीतिक पार्टी में आपसी गणित क्या है लेकिन जब उस गणित के चलते लोकशाही की संस्थाएं प्रभावित होती हैं तो चिंता होती है . इस बार लोक शाही को शर्मसार करने वालों में सबसे ज्यादा बी जे पी का हाथ है . उसने अध्यक्ष की मर्यादा का पार्टी हित में इस्तेमाल किया. वरना अध्यक्ष की तरफ से निर्दलीय विधायकों को दल बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का अधिकार कहाँ से आ गया था . अब सबके सामने यह सच्चाई आ चुकी है बी जे पी के टिकट पर चुन कर आये अध्यक्ष ने अपनी पार्टी की सरकार को बचाने के लिए वह काम किया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था. दल बदल कानून के पैराग्राफ 2 में लिखा है कि अगर कोई सदस्य अपनी मर्ज़ी से पार्टी छोड़ दे या पार्टी के निर्देश के खिलाफ सदन में किसी प्रस्ताव पर वोट दे या पार्टी के निर्देश का पालन न करे ,तो उसे सदस्यता से हटाया जा सकता है . सवाल यह उठता है कि जब ऐसी कोई नौबत आई ही नहीं तो माननीय अध्यक्ष जी ने किस आधार पर बी जे पी के बागी सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी. हालांकि यह बात तो विचार के दायरे में आ सकती है लेकिन निर्दलीय विधायकों की सदस्यता रद्द कर देने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे तो किसी पार्टी के सदस्य ही नहीं है .यानी साफ़ हो जाता है कि कर्नाटक में बी जे पी ने " गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा " की मानसिकता के वशीभूत होकर काम किया है .लोक तंत्र में इस तरह के आचरण के लिए जगह नहीं है . बी जे पी के प्रवक्ता गण कहते फिर रहे हैं कि कांग्रेस ने राज्यपाल के पद और गरिमा का दुरुपयोग किया है. यह बात सच लगती है लेकिन इसकी वजह से बी जे पी को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह सत्ता से चिपके रहने के लिए विधान सभा में लोकशाही की बुनियादी अवधारणा का मखौल उडाये. वरना बिना किसी मत विभाजन के अध्यक्ष जी बी एस येदुरप्पा की सरकार को विजयी न घोषित कर देते. ध्वनि मत से विश्वास प्रस्ताव पास करवाने के मामले में बी जे पी वाले कह रहे हैं कि गोवा में भी तो ऐसा ही हुआ था. सवाल यह है कि अगर एक जगह गलत काम हो रहा है तो उसके हवाले से अपनी गलती को को छुपाने की कोशिश करना भी गलती है .इस में भी दो राय नहीं है कि राज्यपाल ने अपने पद का दुरुपयोग किया लेकिन उसको ठीक करने के अलग मंच उपलब्ध हैं , विधान सभा में मारपीट करना और अध्यक्ष के पद का राजनीतिक पक्ष पाट के लिए इस्तेमाल करना अक्षम्य है
कर्नाटक में लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ हुआ है . जिस तरह से विधायकों ने मारपीट की , ध्वनिमत से विश्वास मत पारित हुआ, जिस तरह से अध्यक्ष के पद की गरिमा को नीचा दिखाया गया , सब कुछ अक्षम्य और अमान्य है . हालांकि राज्यपाल की ख्याति ऐसी है कि वह कांग्रेसी खेल का हिस्सा माना जाता है और वह पूरे जीवन तिकड़म की राजनीति करता रहा है लेकिन उसकी ख्याति का बहाना लेकर किसी पार्टी को लोकतंत्र के खिलाफ काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. इस सारे काण्ड में बी जे पी के आला हाकिम नितिन गडकरी फिर घेर लिए गए हैं और दिल्ली में उनके दुश्मन , डी-4 वाले कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष ने गलती की . उन्हें मंत्रिमंडल में बी एस येदुरप्पा को अपना प्रभाव बढाने के लिए अपने विरोधियों के खिलाफ एक्शन लेने की अनुमति नहीं देनी चाहिये थी. यह अलग बात है कि डी -4 भी अब उतना मज़बूत नहीं है लेकिन मीडिया में अच्छे संबंधों के बल पर गडकरी का मखौल उड़ाने की उसकी ताक़त तो है ही. बी जे पी की गलतियों पर कांग्रेसी नेता मज़ा ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस को भी यह समझ लेना चाहिए कि वे भी घटिया राजनीति के मामले में बी जे पी से कम नहीं हैं. वास्तव में दल-बदल की राजनीति को उसके सबसे निचले मुकाम तक पंहुचाने में कांग्रेस का ही सबसे ज्यादा हाथ है . पी वी नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के चक्कर में जो सौदेबाज़ी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और अजित सिंह से हुई थी , उसके चक्कर में लोकशाही की राजनीति को शर्मसार होना पड़ा था. कर्नाटक में ही कांग्रेस ने बार बार लोकतंत्र को रसातल में ले जाने का काम किया है ,इसलिए कांग्रेस के नेताओं के बयानों के आधार पर लोकशाही की पक्षधरता के बात नहीं की जानी चाहिये . बी जे पी वाले जिस फासिस्ट राजनीति को चलाने के लिए विचारधारा के स्तर पर प्रतिबद्ध हैं , कांग्रेस की पूर्व नेता, स्व इंदिरा गांधी ने उसी राजनीति को अपने प्रिय पुत्र संजय गाँधी के साथ मिलकर परवान चढाया था और देश ने इमरजेंसी के नरक को भोगा था . आज भी कांग्रेस में वंशवाद जिस गहराई के साथ जमा हुआ है ,वह फासिस्ट राजनीति का ही उदाहरण है . इसलिए कांग्रेस को बहुत बढ़ बढ़ कर बात करने की ज़रुरत नहीं है .. लेकिन विधानसभा में जो कुछ भी हुआ उसके लिए उसमें शामिल नेताओं की निंदा की जानी चाहिए . एक बार सत्ता में आ जाने के बाद इन नेताओं को लगने लगता है कि उन्हें सत्ता में बने रहने का निर्द्वंद अधिकार मिल गया है . और यही लोकतंत्र का सबसे बड़ा नुकसान है. कर्नाटक की सत्ता पर काबिज़ बी जे पी और उसके मुख्यमंत्री अपने को सत्ता का स्थायी दावेदार समाझने लगे हैं . इसीलिए शायद उन लोगों ने मनमानी का आचरण शुरू कर दिया . जिसकी वजह से उनकी अपनी पार्टी में भी मतभेद हो गए. बहरहाल यह हमारा विषय नहीं है कि किसी राजनीतिक पार्टी में आपसी गणित क्या है लेकिन जब उस गणित के चलते लोकशाही की संस्थाएं प्रभावित होती हैं तो चिंता होती है . इस बार लोक शाही को शर्मसार करने वालों में सबसे ज्यादा बी जे पी का हाथ है . उसने अध्यक्ष की मर्यादा का पार्टी हित में इस्तेमाल किया. वरना अध्यक्ष की तरफ से निर्दलीय विधायकों को दल बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित करने का अधिकार कहाँ से आ गया था . अब सबके सामने यह सच्चाई आ चुकी है बी जे पी के टिकट पर चुन कर आये अध्यक्ष ने अपनी पार्टी की सरकार को बचाने के लिए वह काम किया जो उन्हें नहीं करना चाहिए था. दल बदल कानून के पैराग्राफ 2 में लिखा है कि अगर कोई सदस्य अपनी मर्ज़ी से पार्टी छोड़ दे या पार्टी के निर्देश के खिलाफ सदन में किसी प्रस्ताव पर वोट दे या पार्टी के निर्देश का पालन न करे ,तो उसे सदस्यता से हटाया जा सकता है . सवाल यह उठता है कि जब ऐसी कोई नौबत आई ही नहीं तो माननीय अध्यक्ष जी ने किस आधार पर बी जे पी के बागी सदस्यों की सदस्यता रद्द कर दी. हालांकि यह बात तो विचार के दायरे में आ सकती है लेकिन निर्दलीय विधायकों की सदस्यता रद्द कर देने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे तो किसी पार्टी के सदस्य ही नहीं है .यानी साफ़ हो जाता है कि कर्नाटक में बी जे पी ने " गद्दी के वास्ते कुछ भी करेगा " की मानसिकता के वशीभूत होकर काम किया है .लोक तंत्र में इस तरह के आचरण के लिए जगह नहीं है . बी जे पी के प्रवक्ता गण कहते फिर रहे हैं कि कांग्रेस ने राज्यपाल के पद और गरिमा का दुरुपयोग किया है. यह बात सच लगती है लेकिन इसकी वजह से बी जे पी को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह सत्ता से चिपके रहने के लिए विधान सभा में लोकशाही की बुनियादी अवधारणा का मखौल उडाये. वरना बिना किसी मत विभाजन के अध्यक्ष जी बी एस येदुरप्पा की सरकार को विजयी न घोषित कर देते. ध्वनि मत से विश्वास प्रस्ताव पास करवाने के मामले में बी जे पी वाले कह रहे हैं कि गोवा में भी तो ऐसा ही हुआ था. सवाल यह है कि अगर एक जगह गलत काम हो रहा है तो उसके हवाले से अपनी गलती को को छुपाने की कोशिश करना भी गलती है .इस में भी दो राय नहीं है कि राज्यपाल ने अपने पद का दुरुपयोग किया लेकिन उसको ठीक करने के अलग मंच उपलब्ध हैं , विधान सभा में मारपीट करना और अध्यक्ष के पद का राजनीतिक पक्ष पाट के लिए इस्तेमाल करना अक्षम्य है
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Sunday, October 10, 2010
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री में राजनीतिक समझ है ही नहीं
शेष नारायण सिंह
जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री, उमर अब्दुल्ला के ताज़ा बयानों से लगता है कि वे अपना दिमागी संतुलन खो बैठे हैं और जम्मू-कश्मीर के बारे में अंट-शंट बोल रहे हैं .उन्होंने विधानसभा में कहा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय एक संधि के तहत और देश की राजनीतिक पार्टियों ने उस संधि को ख़त्म कर दिया है और कश्मीर के लोग इस से बहुत नाराज़ हैं . विधान सभा में उमर अब्दुल्ला गुस्से में थे और बी जे पी वालों के हल्ले गुल्ले के जवाब में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे . गैर ज़िम्मेदार बात को आगे बढाते हुए उमर ने कहा कि हम दोनों से उम्मीद की गयी थी कि हम समझौते का सम्मान करेगें. उन्होंने कहा कि जम्मू- कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ था, वह एक संधि थी. उन्होंने ज्ञान दिया कि जूनागढ़ और हैदराबाद के भारत में विलय की बात जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होती . उन राज्यों का मामला अलग था जम्मू-कश्मीर के राजा की संधि उस से अलग थी .उसी भाषण में आपने फरमाया कि जम्मू-कश्मीर की समस्या के हल के लिए एक राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए जिसके बाद ही राज्य का विलय भारतीय गणराज्य में पूरा होगा . अभी यह अधूरा है .
उमर अब्दुल्ला की बातों में कोई सच्चाई नहीं है . और ज़रूरी का है कि इतिहास को कोई विद्यार्थी उन्हें पकड़कर जम्मू-कश्मीर के इतिहास की जानकारी दे. उनकी सबसे बड़ी गलती तो यह है कि वे कह रहे हैं कि वह विलय के दस्तावेज़ को संधि मान रहे हैं . उनको पता होना चाहिए कि जिस कागज़ पर जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह और भारत के गवर्नर जनरल, माउंटबेटन ऑफ़ बर्मा ने दस्तखत किया था .उसके दूसरे पैराग्राफ में ही लिखा है कि वह इंस्ट्रू मेंट ऑफ़ ऐक्सेशन था यानी विलय का दस्तावेज़ था. यह वही कागज़ है जिस पर बाकी सैकड़ों राजाओं ने दस्तखत किया था और उस दस्तावेज़ का प्रोफार्मा सरदार पटेल के झोले में हमेशा मौजूद रहता था . वह टाइप किया हुआ कागज़ था .उसी पर राजा ने दस्तखत किया था और अपना नाम और अपने राज्य का नाम कलम से लिखा था . जम्मू-कश्मीर के मामले में थोडा रियायत दी गयी थी क्योंकि ख़तरा तह था कि राज हरि सिंह और उनकी जेबी राजनीतिक पार्टी , प्रजा परिषद् पाकिस्तान से बात करके स्वतंत्र रहने का षड्यंत्र कर रहे थे. उनकी इसी योजना पर पाबंदी लगाने के लिए यह कह दिया गया था कि विलय पर जम्मू-कश्मीर की जनता से मंजूरी ली जायेगी . यह भारत के पक्ष में था क्योंकि राजा के कुछ चापलूसों को छोड़कर बाकी पूरी कश्मीरी जनता ,शेख अब्दुल्ला के साथ थी और शेख साहेब की कोशिश से ही जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में हुआ था. यह अलग बात है कि प्रजा परिषद् और उसकी उत्तराधिकारी पार्टी ने राज्य में माहौल इतना खराब कर दिया कि सब कुछ बर्बाद हो गया लेकिन बात इतनी खराब कभी नहीं हुई थी कि जम्मू-कश्मीर का कोई अज्ञानी नेता यह कह दे कि राज्य का विलय भारत में पूरी तरह से नहीं हुआ था. जब २६ अक्टूबर १९४७ के दिन राजा ने विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया ,उसके बाद ही भारत की सेना को श्रीनगर भेजा गया और पाकिस्तानी सेना की अगुवाई में श्रीनगर की ओर बढ़ रहे लूट-पाट करते कबायलियों को वापस खदेड़ा जा सका. बस उस वक़्त गलती यह हुई कि सीजफायर हो गया और कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में रह गया . आज जो कश्मीर समस्या है वह उसी हिस्से को भारत में वापस लेने की है . यह बात जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री और राहुल गांधी के भक्त उमर अब्दुल्ला की समझ में आ जानी चाहिए .अपने बयान में जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री ने एक और भी मूर्खतापूर्ण बात की है . फरमाते हैं कि जम्मू-कश्मीर की मौजूदा समस्या का हल करने के लिए बाकायदा राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की ज़रूरत है जिसमें पाकिस्तान को भी शामिल करने की ज़रूरत है .यह उनकी गैरज़िम्मेदार समझ की हद है .उन्हें मालूम होना चाहिए कि २६ अक्टूबर १९४७ के दिन जब राजा ने भारत के साथ विलय के कागजों पर दस्तखत किया था तो वह काम उन्होंने एक राजनीतिक प्रक्रिया के अंत में ही किया था .महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए जो भी काम किया था, वह सब राजनीति ही थी . उसके बाद से ही वह राज्य भारत का हिस्सा है . हाँ यह भी सही है कि जम्मू-कश्मीर को थोडा अलग दर्ज़ा दिया गया है लेकिन वह भारतीय संविधान के हिसाब से दिया गया है . उसके बाद जम्मू-कश्मीर की हर समस्या भारत की समस्या है . जहां तक जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के शामिल होने की बात है वह केवल पाकिस्तान के कब्जे वाले इलाके के लिए है और वह जम्मू-कश्मीर के मुख्य मंत्री के कार्य क्षेत्र के बाहर है .
इसलिए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के इस गैरजिम्मेदार बयान की निंदा की जानी चाहिए . कांग्रेस ने भी जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद जम्मू-कश्मीर में सन्दर्भ में गैरज़िम्मेदार राजनीति का पालन किया है जिसकी वजह से वहां हालात बद से बदतर होते गए. १९७७ में स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण की सकारात्मक पहल के बाद दिल्ली के सभी नेताओं का रवैया कश्मीर के प्रति गैर ज़िम्मदारी का रहा है . इंदिरा गाँधी, अरुण नेहरू, फारूक अब्दुल्ला, मुफ्ती मुहम्मद सईद, जगमोहन आदि कश्मीर में बिगड़ी हालात के लिए बहुत बड़े पैमाने पर ज़िम्मेदार हैं . पिछले विधानसभा चुनावों में एक और अवसर आया था जब आतंकवादियों और अलगाववादियों की गोलियों की परवाह ह किये बिना कश्मीरी जनता ने वोट डाला था . लेकिन उमर अब्दुल्ला ने उसे भी गंवा दिया . इस आदमी में नेतृत्व का कोई गुण ही नहीं है . जब किन्हीं कारणों से नाराज़ नौजवानों ने पत्थर फेंकना शुरू किया तो इनको चाहिए था कि उनके नेताओं को तलाशें और उनसे बात करें . अगर यही काम उमर ने कर लिया होता तो अलगाववादी बिलकुल हाशिये पर आ जाते लेकिन इनकी गफलत के चलते सब कुछ खराब हो गया . अब उन पत्थर फेंकने वालों का कंट्रोल पाकिस्तानी सेना और आई एस आई के हाथ में है . ज़ाहिर है उमर अब्दुल्ला की राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण यह हाल हुए हैं . तकलीफ की बात यह है कि देश भर के कांग्रेसी जिस राहुल गाँधी की जय जय कार कर रहे हैं वह भी अपने जिद पर अड़े हुए हैं और उमर अब्दुल्ला की तारीफ कर रहे हैं . देश का दुर्भाग्य यह भी है कि खानदानी सत्ता को स्थापित करने की कांग्रेस की कोशिश को किसी भी राजनीतिक दल से कारगर चुनौती नहीं मिल रही है . सभी पार्टियों में अपने वंशजों को राजा बनाने की होड़ लगी हुई है . ऐसी हालत में शेख अब्दुल्ला की तीसरी पीढी और जवाहरलाल नेहरू की चौथी पीढी मिलकर कश्मीर की समस्या को बद से बदतर बना रहे हैं और देश की एक अरब से ज्यादा जनता ठगी सी खडी है और और हाथ मल रही है .
जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री, उमर अब्दुल्ला के ताज़ा बयानों से लगता है कि वे अपना दिमागी संतुलन खो बैठे हैं और जम्मू-कश्मीर के बारे में अंट-शंट बोल रहे हैं .उन्होंने विधानसभा में कहा कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय एक संधि के तहत और देश की राजनीतिक पार्टियों ने उस संधि को ख़त्म कर दिया है और कश्मीर के लोग इस से बहुत नाराज़ हैं . विधान सभा में उमर अब्दुल्ला गुस्से में थे और बी जे पी वालों के हल्ले गुल्ले के जवाब में अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे . गैर ज़िम्मेदार बात को आगे बढाते हुए उमर ने कहा कि हम दोनों से उम्मीद की गयी थी कि हम समझौते का सम्मान करेगें. उन्होंने कहा कि जम्मू- कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ था, वह एक संधि थी. उन्होंने ज्ञान दिया कि जूनागढ़ और हैदराबाद के भारत में विलय की बात जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं होती . उन राज्यों का मामला अलग था जम्मू-कश्मीर के राजा की संधि उस से अलग थी .उसी भाषण में आपने फरमाया कि जम्मू-कश्मीर की समस्या के हल के लिए एक राजनीतिक प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए जिसके बाद ही राज्य का विलय भारतीय गणराज्य में पूरा होगा . अभी यह अधूरा है .
उमर अब्दुल्ला की बातों में कोई सच्चाई नहीं है . और ज़रूरी का है कि इतिहास को कोई विद्यार्थी उन्हें पकड़कर जम्मू-कश्मीर के इतिहास की जानकारी दे. उनकी सबसे बड़ी गलती तो यह है कि वे कह रहे हैं कि वह विलय के दस्तावेज़ को संधि मान रहे हैं . उनको पता होना चाहिए कि जिस कागज़ पर जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह और भारत के गवर्नर जनरल, माउंटबेटन ऑफ़ बर्मा ने दस्तखत किया था .उसके दूसरे पैराग्राफ में ही लिखा है कि वह इंस्ट्रू मेंट ऑफ़ ऐक्सेशन था यानी विलय का दस्तावेज़ था. यह वही कागज़ है जिस पर बाकी सैकड़ों राजाओं ने दस्तखत किया था और उस दस्तावेज़ का प्रोफार्मा सरदार पटेल के झोले में हमेशा मौजूद रहता था . वह टाइप किया हुआ कागज़ था .उसी पर राजा ने दस्तखत किया था और अपना नाम और अपने राज्य का नाम कलम से लिखा था . जम्मू-कश्मीर के मामले में थोडा रियायत दी गयी थी क्योंकि ख़तरा तह था कि राज हरि सिंह और उनकी जेबी राजनीतिक पार्टी , प्रजा परिषद् पाकिस्तान से बात करके स्वतंत्र रहने का षड्यंत्र कर रहे थे. उनकी इसी योजना पर पाबंदी लगाने के लिए यह कह दिया गया था कि विलय पर जम्मू-कश्मीर की जनता से मंजूरी ली जायेगी . यह भारत के पक्ष में था क्योंकि राजा के कुछ चापलूसों को छोड़कर बाकी पूरी कश्मीरी जनता ,शेख अब्दुल्ला के साथ थी और शेख साहेब की कोशिश से ही जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में हुआ था. यह अलग बात है कि प्रजा परिषद् और उसकी उत्तराधिकारी पार्टी ने राज्य में माहौल इतना खराब कर दिया कि सब कुछ बर्बाद हो गया लेकिन बात इतनी खराब कभी नहीं हुई थी कि जम्मू-कश्मीर का कोई अज्ञानी नेता यह कह दे कि राज्य का विलय भारत में पूरी तरह से नहीं हुआ था. जब २६ अक्टूबर १९४७ के दिन राजा ने विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया ,उसके बाद ही भारत की सेना को श्रीनगर भेजा गया और पाकिस्तानी सेना की अगुवाई में श्रीनगर की ओर बढ़ रहे लूट-पाट करते कबायलियों को वापस खदेड़ा जा सका. बस उस वक़्त गलती यह हुई कि सीजफायर हो गया और कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में रह गया . आज जो कश्मीर समस्या है वह उसी हिस्से को भारत में वापस लेने की है . यह बात जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री और राहुल गांधी के भक्त उमर अब्दुल्ला की समझ में आ जानी चाहिए .अपने बयान में जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री ने एक और भी मूर्खतापूर्ण बात की है . फरमाते हैं कि जम्मू-कश्मीर की मौजूदा समस्या का हल करने के लिए बाकायदा राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की ज़रूरत है जिसमें पाकिस्तान को भी शामिल करने की ज़रूरत है .यह उनकी गैरज़िम्मेदार समझ की हद है .उन्हें मालूम होना चाहिए कि २६ अक्टूबर १९४७ के दिन जब राजा ने भारत के साथ विलय के कागजों पर दस्तखत किया था तो वह काम उन्होंने एक राजनीतिक प्रक्रिया के अंत में ही किया था .महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए जो भी काम किया था, वह सब राजनीति ही थी . उसके बाद से ही वह राज्य भारत का हिस्सा है . हाँ यह भी सही है कि जम्मू-कश्मीर को थोडा अलग दर्ज़ा दिया गया है लेकिन वह भारतीय संविधान के हिसाब से दिया गया है . उसके बाद जम्मू-कश्मीर की हर समस्या भारत की समस्या है . जहां तक जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के शामिल होने की बात है वह केवल पाकिस्तान के कब्जे वाले इलाके के लिए है और वह जम्मू-कश्मीर के मुख्य मंत्री के कार्य क्षेत्र के बाहर है .
इसलिए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के इस गैरजिम्मेदार बयान की निंदा की जानी चाहिए . कांग्रेस ने भी जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद जम्मू-कश्मीर में सन्दर्भ में गैरज़िम्मेदार राजनीति का पालन किया है जिसकी वजह से वहां हालात बद से बदतर होते गए. १९७७ में स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण की सकारात्मक पहल के बाद दिल्ली के सभी नेताओं का रवैया कश्मीर के प्रति गैर ज़िम्मदारी का रहा है . इंदिरा गाँधी, अरुण नेहरू, फारूक अब्दुल्ला, मुफ्ती मुहम्मद सईद, जगमोहन आदि कश्मीर में बिगड़ी हालात के लिए बहुत बड़े पैमाने पर ज़िम्मेदार हैं . पिछले विधानसभा चुनावों में एक और अवसर आया था जब आतंकवादियों और अलगाववादियों की गोलियों की परवाह ह किये बिना कश्मीरी जनता ने वोट डाला था . लेकिन उमर अब्दुल्ला ने उसे भी गंवा दिया . इस आदमी में नेतृत्व का कोई गुण ही नहीं है . जब किन्हीं कारणों से नाराज़ नौजवानों ने पत्थर फेंकना शुरू किया तो इनको चाहिए था कि उनके नेताओं को तलाशें और उनसे बात करें . अगर यही काम उमर ने कर लिया होता तो अलगाववादी बिलकुल हाशिये पर आ जाते लेकिन इनकी गफलत के चलते सब कुछ खराब हो गया . अब उन पत्थर फेंकने वालों का कंट्रोल पाकिस्तानी सेना और आई एस आई के हाथ में है . ज़ाहिर है उमर अब्दुल्ला की राजनीतिक अदूरदर्शिता के कारण यह हाल हुए हैं . तकलीफ की बात यह है कि देश भर के कांग्रेसी जिस राहुल गाँधी की जय जय कार कर रहे हैं वह भी अपने जिद पर अड़े हुए हैं और उमर अब्दुल्ला की तारीफ कर रहे हैं . देश का दुर्भाग्य यह भी है कि खानदानी सत्ता को स्थापित करने की कांग्रेस की कोशिश को किसी भी राजनीतिक दल से कारगर चुनौती नहीं मिल रही है . सभी पार्टियों में अपने वंशजों को राजा बनाने की होड़ लगी हुई है . ऐसी हालत में शेख अब्दुल्ला की तीसरी पीढी और जवाहरलाल नेहरू की चौथी पीढी मिलकर कश्मीर की समस्या को बद से बदतर बना रहे हैं और देश की एक अरब से ज्यादा जनता ठगी सी खडी है और और हाथ मल रही है .
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उमर अब्दुल्ला,
जम्मू-कश्मीर,
मुख्यमंत्री,
राजनीतिक समझ,
शेष नारायण सिंह
Saturday, October 9, 2010
जनरल मुशर्रफ ने माना ,कश्मीर के आतंकवाद में पाकिस्तान का हाथ
शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ,जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक जर्मन अखबार के साथ बातचीत में कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दिल्ली दरबार सकते में है . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के करता धरता समझ नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान की राजनीति में शीर्ष पर रह चुके एक फौजी जनरल की बात को कूटनीतिक भाषा में कैसे फिट करें.हालांकि भारत समेत पूरी दुनिया को मालूम है कि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह से पाकिस्तान की कृपा से ही फल फूल रहा है लेकिन अभी तक पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट ने इस बात को कभी नहीं स्वीकार किया था . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . भारत के विदेश मंत्रालय के लिए भी आसान था कि वह कूटनीतिक स्तर पर अपनी बात कहता रहे और कोई मज़बूत एक्शन न लेना पड़े . लेकिन अब बात बदल गयी है . अब तो कश्मीर में आतंकवाद को इस्तेमाल करने वाले एक बड़े फौजी और कई वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहे जनरल ने साफ़ साफ़ कह दिया है कि हाँ हम कश्मीर में आतंकवाद फैला रहे हैं , जो करना हो कर लो. यह भारत के लिए मुश्किल है . इस तरह की साफगोई के बाद तो भारत को पाकिस्तान के साथ वही करना चाहिए जो अल-कायदा का मददगार साबित हो जाने के बाद ,तालिबान के खिलाफ अमरीका ने किया था या १९६५ में कश्मीर में घुसपैठ करा रही पाकिस्तान की जनरल अयूब सरकार को औकात बताने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने किया था . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . शरारत पर आमादा पाकिस्तान को अब सैनिक भाषा में जवाब नहीं दिया जा सकता क्योंकि अभी पाकिस्तान की सरकार औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रही है कि कश्मीर में आतंकवाद उनकी तरफ से करवाया जा रहा है . पाकिस्तान की हालत तो मुशर्रफ के खुलासे के बाद बहुत ही खराब है . पाकिस्तान सरकार के मालिक सन्न हैं .औपचारिक रूप से पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कह दिया है कि मुशर्रफ के बयान बेबुनियाद हैं लेकिन सबको मालूम है कि मुशर्रफ को नकार पाना पाकिस्तानी फौज और सिविलियन सरकार ,दोनों के लिए असंभव है . पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि उसे नहीं मालूम कि मुशर्रफ ने यह बात सार्वजनिक रूप से क्यों कही वैसे अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव के डर से पाकिस्तानी सरकार कह रही है कि सरकार इन बेबुनियाद आरोपों का खंडन करती है यह अलग बात है कि पाकिस्तान कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन करता है.
मुशर्रफ आजकल पाकिस्तान की राजनीति में वापसी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं . उन्हें मालूम है कि अमरीका की मर्जी के बिना पाकिस्तान में राज नहीं किया जा सकता. आजकल पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . पाकिस्तान की राजनीति का स्थायी भाव भारत का विरोध करने की राजनीतिक रणनीति है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मने में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं और उनका यह इकबालिया बयान इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार के दिन गिने चुने रह गए हैं, भारत के लिए भी पाकिस्तान में जनरल कयानी से बेहतर मुशर्रफ ही रहेगें क्योंकि वे अमरीकी हुक्म को मानने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं .दुनिया जानती है कि अमरीका भारत को खुश रखने की विदेश नीति का गंभीरता से पालन कर रहा है
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ,जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक जर्मन अखबार के साथ बातचीत में कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दिल्ली दरबार सकते में है . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के करता धरता समझ नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान की राजनीति में शीर्ष पर रह चुके एक फौजी जनरल की बात को कूटनीतिक भाषा में कैसे फिट करें.हालांकि भारत समेत पूरी दुनिया को मालूम है कि कश्मीर में आतंकवाद पूरी तरह से पाकिस्तान की कृपा से ही फल फूल रहा है लेकिन अभी तक पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट ने इस बात को कभी नहीं स्वीकार किया था . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . भारत के विदेश मंत्रालय के लिए भी आसान था कि वह कूटनीतिक स्तर पर अपनी बात कहता रहे और कोई मज़बूत एक्शन न लेना पड़े . लेकिन अब बात बदल गयी है . अब तो कश्मीर में आतंकवाद को इस्तेमाल करने वाले एक बड़े फौजी और कई वर्षों तक सत्ता पर काबिज़ रहे जनरल ने साफ़ साफ़ कह दिया है कि हाँ हम कश्मीर में आतंकवाद फैला रहे हैं , जो करना हो कर लो. यह भारत के लिए मुश्किल है . इस तरह की साफगोई के बाद तो भारत को पाकिस्तान के साथ वही करना चाहिए जो अल-कायदा का मददगार साबित हो जाने के बाद ,तालिबान के खिलाफ अमरीका ने किया था या १९६५ में कश्मीर में घुसपैठ करा रही पाकिस्तान की जनरल अयूब सरकार को औकात बताने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने किया था . लेकिन अब ज़माना बदल गया है . शरारत पर आमादा पाकिस्तान को अब सैनिक भाषा में जवाब नहीं दिया जा सकता क्योंकि अभी पाकिस्तान की सरकार औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रही है कि कश्मीर में आतंकवाद उनकी तरफ से करवाया जा रहा है . पाकिस्तान की हालत तो मुशर्रफ के खुलासे के बाद बहुत ही खराब है . पाकिस्तान सरकार के मालिक सन्न हैं .औपचारिक रूप से पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कह दिया है कि मुशर्रफ के बयान बेबुनियाद हैं लेकिन सबको मालूम है कि मुशर्रफ को नकार पाना पाकिस्तानी फौज और सिविलियन सरकार ,दोनों के लिए असंभव है . पाकिस्तानी सरकार के प्रवक्ता ने कहा है कि उसे नहीं मालूम कि मुशर्रफ ने यह बात सार्वजनिक रूप से क्यों कही वैसे अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक दबाव के डर से पाकिस्तानी सरकार कह रही है कि सरकार इन बेबुनियाद आरोपों का खंडन करती है यह अलग बात है कि पाकिस्तान कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन करता है.
मुशर्रफ आजकल पाकिस्तान की राजनीति में वापसी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं . उन्हें मालूम है कि अमरीका की मर्जी के बिना पाकिस्तान में राज नहीं किया जा सकता. आजकल पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . पाकिस्तान की राजनीति का स्थायी भाव भारत का विरोध करने की राजनीतिक रणनीति है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मने में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं और उनका यह इकबालिया बयान इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार के दिन गिने चुने रह गए हैं, भारत के लिए भी पाकिस्तान में जनरल कयानी से बेहतर मुशर्रफ ही रहेगें क्योंकि वे अमरीकी हुक्म को मानने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं .दुनिया जानती है कि अमरीका भारत को खुश रखने की विदेश नीति का गंभीरता से पालन कर रहा है
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शेष नारायण सिंह
Friday, October 8, 2010
पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन की अफवाह , मुशर्रफ की वापसी की चर्चा
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान पर अमरीकी शिकंजा कसता जा रहा है. गुरुवार को फिर पाकिस्तान में ५० ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया जो अमरीकी सेना के लिए पेट्रोल ,डीज़ल आदि लेकर अफगानिस्तान जा रहे थे. कल भी कुछ ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया था. खबर है कि अमरीका ने तय किया है कि अब नैटो की अफगानिस्तान में तैनात सेनाओं के लिए सारा सामान रूस के रास्ते भेजा जायेगा . पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों के बारे में अमरीका किसी बड़ी कार्रवाई की तैयारी कर रहा है. अब अमरीका पाकिस्तान को कोई भी स्पेस देने को तैयार नहीं है . पाकिस्तान की सिविलियन सरकार और सेना प्रमुख जनरल कयानी को अब अमरीकी बहुत दिनों तक बर्दाश्त करने के मूड में नहीं दीखते.पाकिस्तान की तरफ से अमरीका में काम कर रही कुछ लाबी कंपनियों ने बहुत ही सोच विचार कर एक अफवाह फैलाई थी कि नवम्बर में भारत की यात्रा पर जा रहे अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत से कहने वाले हैं कि कश्मीर के मामले में पाकिस्तान के साथ सुलह सफाई कर लो तो भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल करने पर विचार किया जाएगा . पाकिस्तान की आतंरिक राजनीति में इस अफवाह के ज़रिये बहुत काम हो सकता था . आम तौर पर इस तरह की अफवाहों का खंडन नहीं किया जाता . और मित्र देश को इस अफवाह के सहारे कुछ राजनीतिक माइलेज लेने दिया जाता है . लेकिन अब अमरीकी प्रशासन पाकिस्तान के साथ थोड़ी सख्ती बरत रहा है शायद इसी योजना के तहत एक अंग्रेज़ी टेलीविज़न चैनेल से बातचीत में भारत में अमरीकी राजदूत , रोमर ने साफ़ कह दिया कि कश्मीर में अमरीका किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा क्योंकि अमरीका मानता है कि कश्मीर का मामला शुद्ध रूप से भारत का आन्तरिक मामला है . इस खंडन के बाद पाकिस्तानी हुक्मरान को खासी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है . इस बीच पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में यह चर्चा ज़ोरों पर है कि अमरीका पाकिस्तानी फौज़ और सिविलियन सरकार दोनों के आला हाकिम बदलना चाहता है . अफवाहों का बाज़ार गर्म है और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ को झाड़ पोंछ कर तैयार किया जा रहा है . दक्षिण एशिया की नयी भू-राजनैतिक साच्चाई के मद्दे नज़र अब अमरीका पाकिस्तान में ऐसा राजा तैनात करना चाहता है जो भारत के साथ दुश्मनी को थोडा कम करे . अमरीका ने जनरल मुशर्रफ को बैपरा हुआ है. उसे मालूम है कि जनरल मुशर्रफ को अपना रुख बदलने में कोई टाइम नहीं लगता . इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मनी में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं .
जनरल परवेज़ मुशर्रफ का एक जर्मन अखबार को दिया गया बयान इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दुनिया भर के कूटनीतिक हलकों में यह चर्चा शुरू हो गयी है कि जनरल मुशर्रफ अमरीकियों के पसंद की बात कह कर उनके करीब आने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . लेकिन अब उनकी बोली बदल रही है . पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. और मुशर्रफ के बयान को कूटनीतिक हलकों में इसी पृष्ठभूमि के साथ समझा जा रहा है .
पाकिस्तान पर अमरीकी शिकंजा कसता जा रहा है. गुरुवार को फिर पाकिस्तान में ५० ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया जो अमरीकी सेना के लिए पेट्रोल ,डीज़ल आदि लेकर अफगानिस्तान जा रहे थे. कल भी कुछ ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया था. खबर है कि अमरीका ने तय किया है कि अब नैटो की अफगानिस्तान में तैनात सेनाओं के लिए सारा सामान रूस के रास्ते भेजा जायेगा . पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों के बारे में अमरीका किसी बड़ी कार्रवाई की तैयारी कर रहा है. अब अमरीका पाकिस्तान को कोई भी स्पेस देने को तैयार नहीं है . पाकिस्तान की सिविलियन सरकार और सेना प्रमुख जनरल कयानी को अब अमरीकी बहुत दिनों तक बर्दाश्त करने के मूड में नहीं दीखते.पाकिस्तान की तरफ से अमरीका में काम कर रही कुछ लाबी कंपनियों ने बहुत ही सोच विचार कर एक अफवाह फैलाई थी कि नवम्बर में भारत की यात्रा पर जा रहे अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत से कहने वाले हैं कि कश्मीर के मामले में पाकिस्तान के साथ सुलह सफाई कर लो तो भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल करने पर विचार किया जाएगा . पाकिस्तान की आतंरिक राजनीति में इस अफवाह के ज़रिये बहुत काम हो सकता था . आम तौर पर इस तरह की अफवाहों का खंडन नहीं किया जाता . और मित्र देश को इस अफवाह के सहारे कुछ राजनीतिक माइलेज लेने दिया जाता है . लेकिन अब अमरीकी प्रशासन पाकिस्तान के साथ थोड़ी सख्ती बरत रहा है शायद इसी योजना के तहत एक अंग्रेज़ी टेलीविज़न चैनेल से बातचीत में भारत में अमरीकी राजदूत , रोमर ने साफ़ कह दिया कि कश्मीर में अमरीका किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा क्योंकि अमरीका मानता है कि कश्मीर का मामला शुद्ध रूप से भारत का आन्तरिक मामला है . इस खंडन के बाद पाकिस्तानी हुक्मरान को खासी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है . इस बीच पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में यह चर्चा ज़ोरों पर है कि अमरीका पाकिस्तानी फौज़ और सिविलियन सरकार दोनों के आला हाकिम बदलना चाहता है . अफवाहों का बाज़ार गर्म है और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति और सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ को झाड़ पोंछ कर तैयार किया जा रहा है . दक्षिण एशिया की नयी भू-राजनैतिक साच्चाई के मद्दे नज़र अब अमरीका पाकिस्तान में ऐसा राजा तैनात करना चाहता है जो भारत के साथ दुश्मनी को थोडा कम करे . अमरीका ने जनरल मुशर्रफ को बैपरा हुआ है. उसे मालूम है कि जनरल मुशर्रफ को अपना रुख बदलने में कोई टाइम नहीं लगता . इस पृष्ठभूमि में जनरल मुशर्रफ से बढ़िया कोई आदमी हो ही नहीं सकता क्योंकि मुशर्रफ अमरीका की इच्छा का आदर करने के लिए भारत के खिलाफ दुश्मनी में कमी लाने में कोई संकोच नहीं करेगें . उन्होंने अमरीका को खुश रखने के लिए पाकिस्तान की अफगान नीति को एक दिन में बदल दिया था . तालिबान की सरकार को पाकिस्तान ने ही बनवाया था लेकिन जब अमरीका ने कहा कि उन्हें तालिबान के खिलाफ काम करना है , मुशर्रफ बिना पलक झपके तैयार हो गए थे. उन्हें उम्मीद है कि भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को अब अमरीका पाकिस्तान के तख़्त पर नहीं बैठाना चाहता . उन्हें यह भी मालूम है कि मौजूदा ज़रदारी-गीलानी सरकार से भी अमरीका पिंड छुडाना चाहता है . फौज के मौजूदा मुखिया के दिलो-दिमाग पर भारत के खिलाफ नफरत कूट कूट कर भरी हुई है . ऐसी हालत में पाकिस्तान पर राज करने के लिए जिस पाकिस्तानी की तलाश अमरीका को है , जनरल मुशर्रफ अपने आप को उसी सांचे में फिट काना चाहते हैं . अमरीका और भारत की पसंद की बातें करके जनरल मुशर्रफ अपने प्रति सही माहौल बनाने के चक्कर में हैं .
जनरल परवेज़ मुशर्रफ का एक जर्मन अखबार को दिया गया बयान इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि कश्मीर में आतंक का राज कायम करने की कोशिश में लगे आतंकवादियों को पाकिस्तान सरकार ने ही ट्रेनिंग दी है और उनकी देख-भाल भी पाकिस्तानी सरकार ही कर रही है . परवेज़ मुशर्रफ के इस इकबालिया बयान के बाद दुनिया भर के कूटनीतिक हलकों में यह चर्चा शुरू हो गयी है कि जनरल मुशर्रफ अमरीकियों के पसंद की बात कह कर उनके करीब आने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तान का राष्ट्रपति रहते हुए जनरल मुशर्रफ ने हमेशा यही कहा कि कश्मीर में जो भी हो रहा है वह कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई है और पाकिस्तान की सरकार कश्मीर में लड़ रहे लोगों को केवल नैतिक समर्थन दे रही है . लेकिन अब उनकी बोली बदल रही है . पाकिस्तान में अमरीका की रूचि केवल इतनी है कि वह उसे अल-कायदा को ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है . .अमरीका अब भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा चुका है . ज़ाहिर है वह भारत से दुश्मनी करने वाले को पाकिस्तान का चार्ज देने में संकोच करेगा . उसे ऐसे किसी बन्दे की तलाश है जो भारत को दुश्मन नंबर एक न माने. और मुशर्रफ के बयान को कूटनीतिक हलकों में इसी पृष्ठभूमि के साथ समझा जा रहा है .
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सत्ता परिवर्तन अफवाह
Tuesday, October 5, 2010
क्या हिन्दी रीजनल भाषा है ?
शेष नारायण सिंह
हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार , अजय ब्रह्मात्मज ने एक दिलचस्प विषय पर फेसबुक पर चर्चा शुरू की है . कहते हैं कि सारी पीआर कंपनियां हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहती हैं।कोई विरोध नहीं करता। वक्त आ गया है कि उन्हें भारतीय भाषा कहा जाए। आगे कहते हैं कि मैं उनकी राय से सहमत हूं और उन सभी पीआर कंपनियों की भर्त्सना करता हूं जो सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल कैटेगरी में डालती हैं . इस बहस में बहुत बड़े लोग शामिल हो गए हैं . गरम हवा और और श्याम बेनेगल की ज़्यादातर फिल्मों की सहयात्री ,शमा ज़हरा जैदी का कहना है कि अंग्रेज़ी को नेशनल मीडिया कहना गलत है .उसे एंग्लो-इन्डियन मीडिया कहना चाहिए अजय जी कहते हैं आज से उन्होंने विरोध और फटकार आरंभ कर दिया है। थोड़ा प्रेम से भी समझाएंगे। उन्हें मालूम ही नहीं कि वे कौन सी परंपरा ढो रहे हैं। एक तरीका यह भी है कि सभी स्टारों को रीजनल स्टार कहा जाए। सलमान,आमिर,रितिक,शाहरूख सभी रीजनल स्टार हैं,क्योंकि हिंदी मीडिया रीजनल मीडिया है।
इस बहस में शामिल होने की ज़रूरत है . अंग्रेज़ी जिसे इस देश में दो प्रतिशत लोग भी नहीं जानते , उसे यह लोग राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं . भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहने की यह बीमारी अखबारों में भी है . कुछ तो ऐसे पाषाण युगीन सोच के लोग हैं कि वे भारतीय भाषाओं के अखबारों को वर्नाक्युलर प्रेस भी कहते हैं.
यह हमारी गुलामी की मानसिकता की उपज है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . मामला मीडिया से सम्बंधित है इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि इस पर बाकायदा बहस चलाई जाय. सब के सुझाव आमंत्रित है
हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार , अजय ब्रह्मात्मज ने एक दिलचस्प विषय पर फेसबुक पर चर्चा शुरू की है . कहते हैं कि सारी पीआर कंपनियां हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहती हैं।कोई विरोध नहीं करता। वक्त आ गया है कि उन्हें भारतीय भाषा कहा जाए। आगे कहते हैं कि मैं उनकी राय से सहमत हूं और उन सभी पीआर कंपनियों की भर्त्सना करता हूं जो सभी भारतीय भाषाओं को रीजनल कैटेगरी में डालती हैं . इस बहस में बहुत बड़े लोग शामिल हो गए हैं . गरम हवा और और श्याम बेनेगल की ज़्यादातर फिल्मों की सहयात्री ,शमा ज़हरा जैदी का कहना है कि अंग्रेज़ी को नेशनल मीडिया कहना गलत है .उसे एंग्लो-इन्डियन मीडिया कहना चाहिए अजय जी कहते हैं आज से उन्होंने विरोध और फटकार आरंभ कर दिया है। थोड़ा प्रेम से भी समझाएंगे। उन्हें मालूम ही नहीं कि वे कौन सी परंपरा ढो रहे हैं। एक तरीका यह भी है कि सभी स्टारों को रीजनल स्टार कहा जाए। सलमान,आमिर,रितिक,शाहरूख सभी रीजनल स्टार हैं,क्योंकि हिंदी मीडिया रीजनल मीडिया है।
इस बहस में शामिल होने की ज़रूरत है . अंग्रेज़ी जिसे इस देश में दो प्रतिशत लोग भी नहीं जानते , उसे यह लोग राष्ट्रीय मीडिया कहते हैं . भारतीय भाषाओं को रीजनल मीडिया कहने की यह बीमारी अखबारों में भी है . कुछ तो ऐसे पाषाण युगीन सोच के लोग हैं कि वे भारतीय भाषाओं के अखबारों को वर्नाक्युलर प्रेस भी कहते हैं.
यह हमारी गुलामी की मानसिकता की उपज है और इसका हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए . मामला मीडिया से सम्बंधित है इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि इस पर बाकायदा बहस चलाई जाय. सब के सुझाव आमंत्रित है
चुनाव में पेड न्यूज़ के चलते लोकशाही पर ही मुसीबत आ सकती है
शेष नारायण सिंह
सोमवार को सभी पार्टियों के नेताओं के साथ मुख्य चुनाव आयुक्त ने नयी दिल्ली में बैठक की और उनसे पैसा लेकर खबर लिखने और प्रकाशित करने की समस्या पर बात की. लगभग सभी पार्टियों की राय थी कि चुनाव आयोग ने जो खर्च पर सीमा बाँध दी है उसकी वजह से पेड न्यूज़ का सहारा लेना पड़ रहा है. नेताओं ने कहा कि जुलूस, पोस्टर,भोंपू और अखबारों में विज्ञापन पर लगे प्रतिबन्ध की वजह से सभी पार्टियां अपनी बात पंहुचाने के लिए कोई न कोई रास्ता तलाशती हैं और पेड न्यूज़ उसमें से एक है . नेताओं ने इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए चुनाव आयोग से आग्रह तो किया लेकिन यह भी सुझाव दिया कि इस से बचने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका यह होगा अकी चुनाव आयोग प्रचार के पुराने तरीकों पर लगी पाबंदी पर एक बार और नज़र डाले और यह जांच करे कि क्या पुराने तरीकों की बहाली से हालात सुधारे जा सकते हैं .बी जे पी के प्रतिनिधि ने कहा कि पेड न्यूज़ की वजह से निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा को ज़बरदस्त चुनौती मिल रही है और इसे फ़ौरन रोका जाना चाहिए . बी जे पी के इस सुझाव का सभी पार्टियों ने समर्थन किया . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बासुदेव आचार्य कि पेड न्यूज़ को भ्रष्ट आचरण की लिस्ट में डाल देना चाहिए जिस से अगर कोई पेड न्यूज़ के बाद चुनाव जीतता है तो उसका चुनाव रद्द किया जा सके. लेकिन उन्होंने कहा कि इस सारे खेल में पत्रकारों की सुरक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए और सज़ा का भागीदार मालिकों को ही बनाया जाना चाहिए क्योंकि पेड न्यूज़ में पैसा मीडिया संस्थानों के मालिक ही खाते हैं ,पत्रकार नहीं . उनका कहना था कि अगर यह सुनिश्चित न किया गया तो हर केस में बलि का बकरा पत्रकार ही बनाया जाएगा. बी जे पी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर उठ रहे सवालों की बाकायदा जांच करने का आग्रह किया और कहा कि कुछ ऐसा किया जाना चाहिए जिससे इन मशीनों में पड़े वोटों का कोई कागजी रिकार्ड भी बन जाय जिस से मन में उठ रही शंकाओं को शांत किया जा सके. चुनाव में धन की बढ़ रही भूमिका पर भी चिंता जताई गयी और चुनाव आयोग से निवेदन किया गया कि इस पर भी उनकी पूरा ध्यान जाना कहिये . मुद्दा राजनीति के अपराधीकरण का भी उठा लेकिन कोई भी पार्टी अपराधियों को चुनाव लड़ाने के बारे में संभावित सख्ती से सहमत नहीं थी . चुनाव आयोग समेत देश के सभी ठीक सोचने वाले लोगों में आमतौर पर एक राय है कि राजनीति के अपराधीकरण के ज़हर को ख़त्म करने के लिए पार्टियों को ही आगे आना पडेगा लेकिन अभी इस मसले पर राजनीतिक आम राय कायम होने में वक़्त लगेगा. राजनीति के अपराधीकरण के बाद सबसे बड़ा ज़हर मीडिया संस्थानों की पैसे लेकर खबर लिखने की प्रवृत्ति है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पेड़ न्यूज़ की वजह से लोकशाही की बुनियाद पर ही हमला हो रहा है. पिछले चुनावों में यह बात बहुत ज्यादा चर्चा में रही. नतीजा यह हुआ कि एक ही पेज पर उसी क्षेत्र के तीन तीन उम्मीदवारों की जीत की मुकम्मल भविष्यवाणी की खबरें छपी देखी गयीं. दिल्ली विधान सभा चुनाव के दौरान एक दिन एक बहुत बड़े अखबार में खबर थी कि मुख्य मंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ कोई राजीव जी पक्के तौर पर जीत रहे हैं .खुशी हुई कि चलो स्थापित सत्ता की एक बड़ी पैरोकार की हार से सत्ताधारियों को कुछ सबक मिलेगा. ढूंढ कर राजीव जी को तलाशा . एक राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार थे. अपनी जीत के प्रति वे खुद आश्वस्त नहीं थे बल्कि वे अपनी हार को निश्चित मान रहे थे .मैंने कहा कि अखबार में तो छपा है . उन्होंने कहा कि यह तो मैं आपके लिए भी छपवा दूंगा अगर आप सही रक़म अखबार के दफ्तर में जमा करवा दें . कई लोगों से इसका जिक्र किया. सबके पास ऐसी ही कहानियाँ थीं. उसके बाद तो दुनिया जान गयी कि पेड न्यूज़ का ग्रहण मीडिया को लग चुका है और वह लोकशाही के लिए दीमक का काम कर रहा है . अपने जीवन काल में प्रभाष जोशी ने पेड न्यूज़ के मामले पर बहुत काम किया था और जनमत बनाने की कोशिश की थी लेकिन जल्दी चले गए. अब भी बहुत सारे पत्रकार इस समस्या से चिंतित हैं और कोई राष्ट निकालने की कोशिश चल रही है . वरिष्ठ पत्रकार ,प्रनंजोय गुहा ठाकुरता इस सन्दर्भ में एक अभियान चला रहे हैं . उम्मीद की जानी चाहिये कि बहुत जल्दी पेड न्यूज़ की मुसीबत से भी लोकतंत्र को छुटकारा मिलेगा
सोमवार को सभी पार्टियों के नेताओं के साथ मुख्य चुनाव आयुक्त ने नयी दिल्ली में बैठक की और उनसे पैसा लेकर खबर लिखने और प्रकाशित करने की समस्या पर बात की. लगभग सभी पार्टियों की राय थी कि चुनाव आयोग ने जो खर्च पर सीमा बाँध दी है उसकी वजह से पेड न्यूज़ का सहारा लेना पड़ रहा है. नेताओं ने कहा कि जुलूस, पोस्टर,भोंपू और अखबारों में विज्ञापन पर लगे प्रतिबन्ध की वजह से सभी पार्टियां अपनी बात पंहुचाने के लिए कोई न कोई रास्ता तलाशती हैं और पेड न्यूज़ उसमें से एक है . नेताओं ने इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए चुनाव आयोग से आग्रह तो किया लेकिन यह भी सुझाव दिया कि इस से बचने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका यह होगा अकी चुनाव आयोग प्रचार के पुराने तरीकों पर लगी पाबंदी पर एक बार और नज़र डाले और यह जांच करे कि क्या पुराने तरीकों की बहाली से हालात सुधारे जा सकते हैं .बी जे पी के प्रतिनिधि ने कहा कि पेड न्यूज़ की वजह से निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा को ज़बरदस्त चुनौती मिल रही है और इसे फ़ौरन रोका जाना चाहिए . बी जे पी के इस सुझाव का सभी पार्टियों ने समर्थन किया . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बासुदेव आचार्य कि पेड न्यूज़ को भ्रष्ट आचरण की लिस्ट में डाल देना चाहिए जिस से अगर कोई पेड न्यूज़ के बाद चुनाव जीतता है तो उसका चुनाव रद्द किया जा सके. लेकिन उन्होंने कहा कि इस सारे खेल में पत्रकारों की सुरक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए और सज़ा का भागीदार मालिकों को ही बनाया जाना चाहिए क्योंकि पेड न्यूज़ में पैसा मीडिया संस्थानों के मालिक ही खाते हैं ,पत्रकार नहीं . उनका कहना था कि अगर यह सुनिश्चित न किया गया तो हर केस में बलि का बकरा पत्रकार ही बनाया जाएगा. बी जे पी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों पर उठ रहे सवालों की बाकायदा जांच करने का आग्रह किया और कहा कि कुछ ऐसा किया जाना चाहिए जिससे इन मशीनों में पड़े वोटों का कोई कागजी रिकार्ड भी बन जाय जिस से मन में उठ रही शंकाओं को शांत किया जा सके. चुनाव में धन की बढ़ रही भूमिका पर भी चिंता जताई गयी और चुनाव आयोग से निवेदन किया गया कि इस पर भी उनकी पूरा ध्यान जाना कहिये . मुद्दा राजनीति के अपराधीकरण का भी उठा लेकिन कोई भी पार्टी अपराधियों को चुनाव लड़ाने के बारे में संभावित सख्ती से सहमत नहीं थी . चुनाव आयोग समेत देश के सभी ठीक सोचने वाले लोगों में आमतौर पर एक राय है कि राजनीति के अपराधीकरण के ज़हर को ख़त्म करने के लिए पार्टियों को ही आगे आना पडेगा लेकिन अभी इस मसले पर राजनीतिक आम राय कायम होने में वक़्त लगेगा. राजनीति के अपराधीकरण के बाद सबसे बड़ा ज़हर मीडिया संस्थानों की पैसे लेकर खबर लिखने की प्रवृत्ति है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि पेड़ न्यूज़ की वजह से लोकशाही की बुनियाद पर ही हमला हो रहा है. पिछले चुनावों में यह बात बहुत ज्यादा चर्चा में रही. नतीजा यह हुआ कि एक ही पेज पर उसी क्षेत्र के तीन तीन उम्मीदवारों की जीत की मुकम्मल भविष्यवाणी की खबरें छपी देखी गयीं. दिल्ली विधान सभा चुनाव के दौरान एक दिन एक बहुत बड़े अखबार में खबर थी कि मुख्य मंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ कोई राजीव जी पक्के तौर पर जीत रहे हैं .खुशी हुई कि चलो स्थापित सत्ता की एक बड़ी पैरोकार की हार से सत्ताधारियों को कुछ सबक मिलेगा. ढूंढ कर राजीव जी को तलाशा . एक राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार थे. अपनी जीत के प्रति वे खुद आश्वस्त नहीं थे बल्कि वे अपनी हार को निश्चित मान रहे थे .मैंने कहा कि अखबार में तो छपा है . उन्होंने कहा कि यह तो मैं आपके लिए भी छपवा दूंगा अगर आप सही रक़म अखबार के दफ्तर में जमा करवा दें . कई लोगों से इसका जिक्र किया. सबके पास ऐसी ही कहानियाँ थीं. उसके बाद तो दुनिया जान गयी कि पेड न्यूज़ का ग्रहण मीडिया को लग चुका है और वह लोकशाही के लिए दीमक का काम कर रहा है . अपने जीवन काल में प्रभाष जोशी ने पेड न्यूज़ के मामले पर बहुत काम किया था और जनमत बनाने की कोशिश की थी लेकिन जल्दी चले गए. अब भी बहुत सारे पत्रकार इस समस्या से चिंतित हैं और कोई राष्ट निकालने की कोशिश चल रही है . वरिष्ठ पत्रकार ,प्रनंजोय गुहा ठाकुरता इस सन्दर्भ में एक अभियान चला रहे हैं . उम्मीद की जानी चाहिये कि बहुत जल्दी पेड न्यूज़ की मुसीबत से भी लोकतंत्र को छुटकारा मिलेगा
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शेष नारायण सिंह
Monday, October 4, 2010
तबाही की कगार पर खड़े पाकिस्तान के हुक्मरान शेखचिल्ली के वारिस हैं .
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद कुरेशी ने एक बार फिर कश्मीर की बात अंतर राष्ट्रीय मंच पर की है . पुरानी कहावत है कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की तरफ भागता है .इस बार यह कहावत पाकिस्तान की विदेश नीति के बारे में फिट बैठ रही है . पाकिस्तान आजकल तबाही के दौर से गुज़र रहा है.अमरीका और सउदी अरब से मदद न मिले तो वहां रोटी तक के लाले हैं लेकिन पाकिस्तानी फौज है कि भारत को गालियाँ देने से बाज़ नहीं आ रही है .अमरीका के राष्ट्रपति ने भी पाकिस्तान को बता दिया है कि अगर अफगान तालिबान को अपने देश में छुपने का मौक़ा दते रहे तो पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलना तो बंद ही हो जायेगी , उस के खिलाफ और भी सख्ती की जा सकती है .लेकिन पाकिस्तानी फौज की समस्या दूसरी है . पाकिस्तान की फौज के मौजूदा नेता वे लोग हैं जिन्होंने १९७१ में पाकिस्तानी सेना को भारत के सामने घुटने टेकते देखा था. वे बदले की आग में जल रहे हैं . उनको लगता है कि १९७१ में जिस तरह से भारत की मदद से पाकिस्तान को तोड़कर एक अलग देश बना दिया गया था, उसी तरह से पाकिस्तानी फौज कश्मीर को भी भारत से अलग कर सकती है . कल्पना की उड़ान पर रोक लगाने की किसी तरकीब का अब तक आविष्कार नहीं हुआ है ,इसलिए पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया , अशफाक परवेज़ कयानी सोचते रहते हैं कि वे अपने देश की फौज के उस अपमान का बदला कैसे लें जो भारत ने उसे १९७१ में बुरी तरह से हराकर दिया था . हालांकि ऐशो आराम की ज़िंदगी जी रही ,पाकिस्तानी फौज़ के लिए यह बिलकुल असंभव है लेकिन किसी को अपने मन में कुछ सोचने से कौन रोक सकता है. अब पाकिस्तान को अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए बहुत ही सकारात्मक सोच का परिचय देना होगा क्योंकि अगर भारत के धीरज का बाँध कहीं टूट गया तो पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत ज्यादा परेशानी खडी हो सकती है .क्योंकि अमरीका की कृपा पर पल रही पाकिस्तानी फौज को सी आई ए के निदेशक पनेटा ने साफ़ बता दिया है कि आफर उत्तर पाकिस्तान में छुपे हुए तालिबान और अल-कायदा के आतंकियों को फ़ौरन काबू न किया गया तो उनके काम में पाकिस्तानी हुकूमत की साझेदारी पक्की मान ली जायेगी. यह धमकी बहुत ही सख्त है . अफगानिस्तान में बुरी तरह फंस गए अमरीका के लिए वहां से जल्द से जल्द निकला भागना सबसे बड़ी प्राथमिकता है लेकिन पाकिस्तान की मिलीभगत की वजह से सब गड़बड़ हो रहा है .पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों में अमरीकी सेना का काम पूरी तरह से सी आई ए के हाथ में है.इस काम के लिए वहां अमरीकी सैनिक नहीं लगाए गए हैं . पाकिस्तान और अफगानिस्तान के वे नागरिक काम कर रहे हैं जिन्होंने सी आई ए की नौकरी स्वीकार कर ली है .इस में अमरीकी नागरिकों के मारे जाने का ख़तरा पूरी तरह से ख़त्म कर दिया गया है . दूसरी अहम बात यह है कि सी आई ए की तरफ से काम करने वाले यह लड़ाके जो हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं वह अमरीकी फौज़ ने ही दिया है. इन हथियारों में ड्रोन भी शामिल हैं जो बिना किसी सैनिक की जान को ख़तरा बने ,अन्दर तक घुस कर मार करते हैं. पाकिस्तानी फौज को यह सब पसंद नहीं आ रहा है क्योंकि वह तो तालिबान आतंकियों की सरपरस्त है और उसे अमरीका को डराने के लिए तालिबान को हमेशा सुरक्षित रखना चाहती है . शायद इसीलिए भारत और अमरीका की नयी दोस्ती को पंचर करने के उद्देश्य से पाकिस्तानी फौज़ ने शाह महमूद कुरेशी को डांट कर संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा उठवाया है . लेकिन अब इस बन्दरघुडकी को न तो अमरीका गंभीरता से लेता है और न ही भारत . अब सारी दुनिया को मालूम है कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है जबकि पाकिस्तान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . इसीलिए पिछले २ महीने में सी आई ए ने पाकिस्तानी सेना के एतराज़ की परवाह न करते हुए करीब २४ ड्रोन हमले किये हैं और खासी बड़ी संख्या में अल कायदा और तालिबान के आतंकवादियों को घेर घेर कर मारा है . जाहिर है कि यह सारे आतंकी आई एस आई के ख़ास बन्दे हैं और इनके मारे जाने का अफ़सोस सेना प्रमुख जनरल कयानी को बहुत ज्यादा होगा.
पाकिस्तान में भयानक बाढ़ के बाद बहुत कुछ तबाह हो गया है . गरीब आदमी दाने दाने को मुहताज है . राजनीतिक और धार्मिक नेता, जो भी विदेशी मदद मिलती है ,उसकी लूट मचाये हुए हैं . पाकिस्तानी फौज द्वारा सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेने की आशंका हमेशा बनी रहती है . इस बीच पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष और फौजी तानाशाह , जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने भी वापस आकर राजनीति राजनीति खेलने की धमकी दे दी है . जनरल मुशर्रफ की धमकी को अगर पाकिस्तान गंभीरता से नहीं लेगा तो उसके सामने बड़ी मुश्किल पेश आयेगी. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि परवेज़ मुशर्रफ के चाहने वाले पाकिस्तानी फौज़ में बड़ी संख्या में मौजूद हैं. हालांकि मौजूदा जनरल उन्हें आसानी से सत्ता हथियाने नहीं देगा लेकिन उनकी कोशिश भी पाकिस्तान में अस्थिरता का माहौल बना सकती है . ऐसी हालत में पाकिस्तानी सरकार कई मोर्चों पर एक साथ लड़ती नज़र आ रही है . यह पाकिस्तानी जनता और हुकूमत के हित में होगा कि वह भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाए और उसे दुश्मन की तरह पेश करना बंद कर दे. सरकार के इस एक क़दम से पाकिस्तान की बहुत सारी मुसीबतें कम हो जायेगी. पाकिस्तान में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो मानते हैं कि अगर भारत का सक्रिय सहयोग मिल जाए तो बाढ़ के नरक से जूझ रहे पाकिस्तानी लोगों को बहुत बड़ी राहत मिल जायगी. लेकिन फौज का भारत के प्रति नफरत का रवैया इस मामले में आड़े आ रहा है . उम्मीद की जानी चाहिए कि हालात की गंभीरता के मद्दे-नज़र पाकिस्तानी शासकों को सद्बुद्धि मिलेगी और वे अपने देश को बचाने में भारत का सहयोग लें .
पाकिस्तान के विदेशमंत्री शाह महमूद कुरेशी ने एक बार फिर कश्मीर की बात अंतर राष्ट्रीय मंच पर की है . पुरानी कहावत है कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की तरफ भागता है .इस बार यह कहावत पाकिस्तान की विदेश नीति के बारे में फिट बैठ रही है . पाकिस्तान आजकल तबाही के दौर से गुज़र रहा है.अमरीका और सउदी अरब से मदद न मिले तो वहां रोटी तक के लाले हैं लेकिन पाकिस्तानी फौज है कि भारत को गालियाँ देने से बाज़ नहीं आ रही है .अमरीका के राष्ट्रपति ने भी पाकिस्तान को बता दिया है कि अगर अफगान तालिबान को अपने देश में छुपने का मौक़ा दते रहे तो पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलना तो बंद ही हो जायेगी , उस के खिलाफ और भी सख्ती की जा सकती है .लेकिन पाकिस्तानी फौज की समस्या दूसरी है . पाकिस्तान की फौज के मौजूदा नेता वे लोग हैं जिन्होंने १९७१ में पाकिस्तानी सेना को भारत के सामने घुटने टेकते देखा था. वे बदले की आग में जल रहे हैं . उनको लगता है कि १९७१ में जिस तरह से भारत की मदद से पाकिस्तान को तोड़कर एक अलग देश बना दिया गया था, उसी तरह से पाकिस्तानी फौज कश्मीर को भी भारत से अलग कर सकती है . कल्पना की उड़ान पर रोक लगाने की किसी तरकीब का अब तक आविष्कार नहीं हुआ है ,इसलिए पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया , अशफाक परवेज़ कयानी सोचते रहते हैं कि वे अपने देश की फौज के उस अपमान का बदला कैसे लें जो भारत ने उसे १९७१ में बुरी तरह से हराकर दिया था . हालांकि ऐशो आराम की ज़िंदगी जी रही ,पाकिस्तानी फौज़ के लिए यह बिलकुल असंभव है लेकिन किसी को अपने मन में कुछ सोचने से कौन रोक सकता है. अब पाकिस्तान को अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए बहुत ही सकारात्मक सोच का परिचय देना होगा क्योंकि अगर भारत के धीरज का बाँध कहीं टूट गया तो पाकिस्तानी फौज के लिए बहुत ज्यादा परेशानी खडी हो सकती है .क्योंकि अमरीका की कृपा पर पल रही पाकिस्तानी फौज को सी आई ए के निदेशक पनेटा ने साफ़ बता दिया है कि आफर उत्तर पाकिस्तान में छुपे हुए तालिबान और अल-कायदा के आतंकियों को फ़ौरन काबू न किया गया तो उनके काम में पाकिस्तानी हुकूमत की साझेदारी पक्की मान ली जायेगी. यह धमकी बहुत ही सख्त है . अफगानिस्तान में बुरी तरह फंस गए अमरीका के लिए वहां से जल्द से जल्द निकला भागना सबसे बड़ी प्राथमिकता है लेकिन पाकिस्तान की मिलीभगत की वजह से सब गड़बड़ हो रहा है .पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों में अमरीकी सेना का काम पूरी तरह से सी आई ए के हाथ में है.इस काम के लिए वहां अमरीकी सैनिक नहीं लगाए गए हैं . पाकिस्तान और अफगानिस्तान के वे नागरिक काम कर रहे हैं जिन्होंने सी आई ए की नौकरी स्वीकार कर ली है .इस में अमरीकी नागरिकों के मारे जाने का ख़तरा पूरी तरह से ख़त्म कर दिया गया है . दूसरी अहम बात यह है कि सी आई ए की तरफ से काम करने वाले यह लड़ाके जो हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं वह अमरीकी फौज़ ने ही दिया है. इन हथियारों में ड्रोन भी शामिल हैं जो बिना किसी सैनिक की जान को ख़तरा बने ,अन्दर तक घुस कर मार करते हैं. पाकिस्तानी फौज को यह सब पसंद नहीं आ रहा है क्योंकि वह तो तालिबान आतंकियों की सरपरस्त है और उसे अमरीका को डराने के लिए तालिबान को हमेशा सुरक्षित रखना चाहती है . शायद इसीलिए भारत और अमरीका की नयी दोस्ती को पंचर करने के उद्देश्य से पाकिस्तानी फौज़ ने शाह महमूद कुरेशी को डांट कर संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा उठवाया है . लेकिन अब इस बन्दरघुडकी को न तो अमरीका गंभीरता से लेता है और न ही भारत . अब सारी दुनिया को मालूम है कि भारत एक उभरती हुई महाशक्ति है जबकि पाकिस्तान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . इसीलिए पिछले २ महीने में सी आई ए ने पाकिस्तानी सेना के एतराज़ की परवाह न करते हुए करीब २४ ड्रोन हमले किये हैं और खासी बड़ी संख्या में अल कायदा और तालिबान के आतंकवादियों को घेर घेर कर मारा है . जाहिर है कि यह सारे आतंकी आई एस आई के ख़ास बन्दे हैं और इनके मारे जाने का अफ़सोस सेना प्रमुख जनरल कयानी को बहुत ज्यादा होगा.
पाकिस्तान में भयानक बाढ़ के बाद बहुत कुछ तबाह हो गया है . गरीब आदमी दाने दाने को मुहताज है . राजनीतिक और धार्मिक नेता, जो भी विदेशी मदद मिलती है ,उसकी लूट मचाये हुए हैं . पाकिस्तानी फौज द्वारा सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेने की आशंका हमेशा बनी रहती है . इस बीच पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष और फौजी तानाशाह , जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने भी वापस आकर राजनीति राजनीति खेलने की धमकी दे दी है . जनरल मुशर्रफ की धमकी को अगर पाकिस्तान गंभीरता से नहीं लेगा तो उसके सामने बड़ी मुश्किल पेश आयेगी. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि परवेज़ मुशर्रफ के चाहने वाले पाकिस्तानी फौज़ में बड़ी संख्या में मौजूद हैं. हालांकि मौजूदा जनरल उन्हें आसानी से सत्ता हथियाने नहीं देगा लेकिन उनकी कोशिश भी पाकिस्तान में अस्थिरता का माहौल बना सकती है . ऐसी हालत में पाकिस्तानी सरकार कई मोर्चों पर एक साथ लड़ती नज़र आ रही है . यह पाकिस्तानी जनता और हुकूमत के हित में होगा कि वह भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाए और उसे दुश्मन की तरह पेश करना बंद कर दे. सरकार के इस एक क़दम से पाकिस्तान की बहुत सारी मुसीबतें कम हो जायेगी. पाकिस्तान में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो मानते हैं कि अगर भारत का सक्रिय सहयोग मिल जाए तो बाढ़ के नरक से जूझ रहे पाकिस्तानी लोगों को बहुत बड़ी राहत मिल जायगी. लेकिन फौज का भारत के प्रति नफरत का रवैया इस मामले में आड़े आ रहा है . उम्मीद की जानी चाहिए कि हालात की गंभीरता के मद्दे-नज़र पाकिस्तानी शासकों को सद्बुद्धि मिलेगी और वे अपने देश को बचाने में भारत का सहयोग लें .
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शेष नारायण सिंह
Sunday, October 3, 2010
चली है रस्म जहां के कोई न सर उठा के चले
शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के फैसले के बाद संघी बिरादरी खुश है . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली है और अब वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी इसी में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. शायद इसीलिए जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा अपनी जगह है और यह फैसला अपनी जगह तो संघ की राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और बयान देने लगे. टेलेविज़न की कृपा से पत्रकार बने कुछ लोग अखबारों में लेख लिखने लगे कि देश की जनता ने शान्ति को बनाए रखने की दिशा में जो काम किया है वह बहुत ही अहम है. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बक रहे हैं जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा है. लेकिन सवाल तो उठ रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिये कि अगले कुछ दिनों में अयोध्या की विवादित ज़मीन के फैसले में जो सूराख हैं वह सारी दुनिया के सामने आ जायेगें . इस बीच धर्मनिरपेक्ष ताक़तों में भी कमजोरी नज़र आ रही है . आम तौर पर सही सोच वाले बहुत सारे लोग अब अजीब बात करने लगे हैं . वह कह रहें हैं कि कितना संयम बरत रहा है हिंदुस्तान . कोई हिंसा नहीं . आम मुसलमान उन्हें याद आ गया है जो सिर्फ रोज़ी रोटी चाहता है . कह रहे हैं कि वह बहुत खुश है फैसले से . सरकार की तारीफ़ कर रहे हैं और इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात कर रहे हैं जिन्होंने यह फैसला सुनाया आज भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है और उस से उम्मीद की जा रही है की वह खुश रहे . पिछले दो महीने से इस फैसले के आने की खबर को इतनी हवा दी गयी है की आम मुसलमान डरा हुआ है कि पता नहीं क्या होगा. ऐसे में सवाल यह उठता है की अगर फैसला कानून के आधार पर हुआ होता और आस्था के आधार पर न हुआ होता ,तो भी क्या इतना ही संयम रहता . सब को मालूम है की संघी बिरादारी बहुत पहले से कहती आ रही थी कि अगर फैसला सुन्नी वक्फ बोर्ड के पक्ष में गया तो वे इस फैसले को नहीं मानेगें. ज़ाहिर है कि फैसला आर एस एस का पसंद का आया है ,इसलिए वे संयम की बात कर रहे हैं . इस तथाकथित संयम के अलम्बरदार यह भी कह रहे हैं की मुसलमान ने संयम दिखा कर बहुत अच्छा किया . इसका अर्थ यह हुआ कि पहले जो भी दंगे होते थे वह मुसलमान की करवाता था. इस फैसले के बाद लगता है कि अब आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह है कि इस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही है . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही है . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही है कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए कि कि इस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होगा. यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं है. यह एक हाई कोर्ट का फैसला है ज्सिको कि बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है . जिसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगेगें.
इस बीच खबर है कि दिल्ली के कुछ बुद्धिजीवियों ने इस फैसले से पैदा होने वाले नतीजों के बारे में विचार किया है और तय किया गया है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर यह आदेश लेने की कोशिश करेगें कि क्या आस्था के सवाल पर अदालत को फैसला देने की आज़ादी है . यह भी सवाल पूछा जाएगा कि क्या कानून को दरकिनार करके किसी विवाद पर आया फैसला मानने के लिए जनता को बाध्य किया जा सकता है . कुछ जागरूक वर्गों की कोशिश है कि सभी राजनीतिक दलों को भी इस फैसले पर अपनी राय बनाने को मजबूर किया जाए, उनसे सार्वजनिक मंचों से सवाल किये जाएँ और भारत के संविधान को बचाने की कोशिश में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाये.
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बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के फैसले के बाद संघी बिरादरी खुश है . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली है और अब वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी इसी में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. शायद इसीलिए जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा अपनी जगह है और यह फैसला अपनी जगह तो संघ की राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और बयान देने लगे. टेलेविज़न की कृपा से पत्रकार बने कुछ लोग अखबारों में लेख लिखने लगे कि देश की जनता ने शान्ति को बनाए रखने की दिशा में जो काम किया है वह बहुत ही अहम है. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बक रहे हैं जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा है. लेकिन सवाल तो उठ रहे हैं और उम्मीद की जानी चाहिये कि अगले कुछ दिनों में अयोध्या की विवादित ज़मीन के फैसले में जो सूराख हैं वह सारी दुनिया के सामने आ जायेगें . इस बीच धर्मनिरपेक्ष ताक़तों में भी कमजोरी नज़र आ रही है . आम तौर पर सही सोच वाले बहुत सारे लोग अब अजीब बात करने लगे हैं . वह कह रहें हैं कि कितना संयम बरत रहा है हिंदुस्तान . कोई हिंसा नहीं . आम मुसलमान उन्हें याद आ गया है जो सिर्फ रोज़ी रोटी चाहता है . कह रहे हैं कि वह बहुत खुश है फैसले से . सरकार की तारीफ़ कर रहे हैं और इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात कर रहे हैं जिन्होंने यह फैसला सुनाया आज भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है और उस से उम्मीद की जा रही है की वह खुश रहे . पिछले दो महीने से इस फैसले के आने की खबर को इतनी हवा दी गयी है की आम मुसलमान डरा हुआ है कि पता नहीं क्या होगा. ऐसे में सवाल यह उठता है की अगर फैसला कानून के आधार पर हुआ होता और आस्था के आधार पर न हुआ होता ,तो भी क्या इतना ही संयम रहता . सब को मालूम है की संघी बिरादारी बहुत पहले से कहती आ रही थी कि अगर फैसला सुन्नी वक्फ बोर्ड के पक्ष में गया तो वे इस फैसले को नहीं मानेगें. ज़ाहिर है कि फैसला आर एस एस का पसंद का आया है ,इसलिए वे संयम की बात कर रहे हैं . इस तथाकथित संयम के अलम्बरदार यह भी कह रहे हैं की मुसलमान ने संयम दिखा कर बहुत अच्छा किया . इसका अर्थ यह हुआ कि पहले जो भी दंगे होते थे वह मुसलमान की करवाता था. इस फैसले के बाद लगता है कि अब आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह है कि इस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही है . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही है . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही है कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए कि कि इस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होगा. यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं है. यह एक हाई कोर्ट का फैसला है ज्सिको कि बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है . जिसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगेगें.
इस बीच खबर है कि दिल्ली के कुछ बुद्धिजीवियों ने इस फैसले से पैदा होने वाले नतीजों के बारे में विचार किया है और तय किया गया है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर यह आदेश लेने की कोशिश करेगें कि क्या आस्था के सवाल पर अदालत को फैसला देने की आज़ादी है . यह भी सवाल पूछा जाएगा कि क्या कानून को दरकिनार करके किसी विवाद पर आया फैसला मानने के लिए जनता को बाध्य किया जा सकता है . कुछ जागरूक वर्गों की कोशिश है कि सभी राजनीतिक दलों को भी इस फैसले पर अपनी राय बनाने को मजबूर किया जाए, उनसे सार्वजनिक मंचों से सवाल किये जाएँ और भारत के संविधान को बचाने की कोशिश में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल किया जाये.
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Friday, October 1, 2010
क्या कांग्रेस महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्ष राजनीति को संभाल पा रही है .
( गाँधी जयंती पर विशेष )
शेष नारायण सिंह
महात्मा गाँधी होते तो १४१ साल के हो गए होते . इस बार महात्मा गाँधी का जन्म दिन बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के मुक़दमे के आस पास ही पड़ रहा है . बाबरी मस्जिद के मामले में संघी राजनीति के चलते जो उबाल आ गया था, वह तो शांत हो गया था लेकिन धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति करने की बी जे पी की योजना के तहत देश का बहुत नुकसान हुआ है . इस बार भी उनकी कोशिश थी कि फैसला कुछ भी वे झगडा झंझट का माहौल पैदा करेगें .लेकिन लगता है कि अब भारत का हिन्दू आर एस एस की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है . वह देश की एकता में ज्यादा रूचि रखता है . बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के दिन तो लगने लगा था कि संघी राजनीति सफल हो जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आज भारत एक है और रहेगा भी . अब लगने लगा है कि आर एस एस के बूते की बात नहीं है कि वह देश को तोड़ सके. .ऐसा इसलिए है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था .आज महात्मा गांधी के जन्म दिन के मौके पर धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।
कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"
सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।
कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। लेकिन आज एक बार फिर आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है . कांग्रेस पार्टी और सरकार को धर्म निरपेक्षता की राजनीति को सबसे ऊपर रखने के लिए एकजुट होना पडेगा
शेष नारायण सिंह
महात्मा गाँधी होते तो १४१ साल के हो गए होते . इस बार महात्मा गाँधी का जन्म दिन बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के मुक़दमे के आस पास ही पड़ रहा है . बाबरी मस्जिद के मामले में संघी राजनीति के चलते जो उबाल आ गया था, वह तो शांत हो गया था लेकिन धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति करने की बी जे पी की योजना के तहत देश का बहुत नुकसान हुआ है . इस बार भी उनकी कोशिश थी कि फैसला कुछ भी वे झगडा झंझट का माहौल पैदा करेगें .लेकिन लगता है कि अब भारत का हिन्दू आर एस एस की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है . वह देश की एकता में ज्यादा रूचि रखता है . बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के दिन तो लगने लगा था कि संघी राजनीति सफल हो जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आज भारत एक है और रहेगा भी . अब लगने लगा है कि आर एस एस के बूते की बात नहीं है कि वह देश को तोड़ सके. .ऐसा इसलिए है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था .आज महात्मा गांधी के जन्म दिन के मौके पर धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।
कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"
सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।
कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। लेकिन आज एक बार फिर आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है . कांग्रेस पार्टी और सरकार को धर्म निरपेक्षता की राजनीति को सबसे ऊपर रखने के लिए एकजुट होना पडेगा
आपके गाँव में इसे फैसला कहते हैं
शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद की ज़मीन का फैसला आ गया है . इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपना आदेश सुना दिया है .फैसले से एक बात साफ़ है कि जिन लोगों ने एक ऐतिहासिक मस्जिद को साज़िश करके ज़मींदोज़ किया था , उनको इनाम दे दिया गया है . जो टाइटिल का मुख्य मुक़दमा था उसके बाहर के भी बहुत सारे मसलों को मुक़दमे के दायरे में लेकर फैसला सुना दिया गया है. ऐसा लगता है कि ज़मीन का विवाद अदालत में ले जाने वाले हाशिम अंसारी संतुष्ट हैं. हाशिम अंसारी ने पिछले २० वर्षों में अपने इसी मुक़दमे की बुनियाद पर बहुत सारे झगड़े होते देखे हैं .शायद इसीलिये उनको लगता है कि चलो बहुत हुआ अब और झगड़े नहीं होने चाहिए . लेकिन यह फैसला अगर न्याय की कसौटी पर कसा जाए तो कानून के बहुत सारे जानकारों की समझ में नहीं आ रहा है कि हुआ क्या है . सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए एम अहमदी पूछते हैं कि अगर टाइटिल सुन्नी वक्फ बोर्ड की नहीं है तो उन्हें एक तिहाई ज़मीन क्यों दी गयी और अगर टाइटिल उनकी है तो उनकी दो तिहाई ज़मीन किसी और को क्यों दे दी गयी. उनको लगता है कि यह फैसला कानून और इविडेंस एक्ट से ज़्यादा भावनाओं और आस्था को ध्यान में रख कर दिया गया है .इसलिए यह फैसला किसी हाई कोर्ट का कम किसी पंचायत का ज्यादा लगता है . अगर कोर्ट भी भावनाओं को ध्यान में रख कर फैसले करने लगे तो संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का क्या होगा. हाई कोर्ट का फैसला सब की भावनाओं को ध्यान में रख कर किया गया फैसला लगता है .
जहां तक फैसले के कानूनी पक्ष का सवाल है ,वह तो कानून के ज्ञाता तय करेगें. सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ज़फ़रयाब जीलानी के बयान के बाद यह लगभग तय है कि मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में जाएगा जहां देश के चोटी के विधिवेत्ता मौजूद हैं . वहां पर इस फैसले और अन्य कानूनी पहलुओं की जांच होगी . उसके बाद जो भी फैसला आयेगा वह सब को मंज़ूर होगा क्योंकि उसके ऊपर कोई अदालत नहीं है लेकिन इसके पीछे की राजनीति साफ़ नज़र आ रही है . ऐसा लगता है कि कांग्रेस की मुराद पूरी हो गयी है .अभी एक हफ्ते पहले अपने आपको कांग्रेस का बन्दा बताने वाले एक संसद सदस्य की ओर से अखबारों में छपा था कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन को तीन हिस्सों में बाँट दिया जाएगा . हालांकि यह मानने के कोई सुबूत नहीं हैं कि फैसले को कांग्रेस ने प्रभावित किया है लेकिन लगता है कि फैसला कांग्रेस की मर्जी और खुशी का हुआ है . बी जे पी वाले खुश हैं कि उनकी बात को अदालत ने सही माना है और उनके संगठनों को हिन्दुओं का प्रतिनधि मान कर आर एस एस की राजनीति को चमकने का मौक़ा मिला है . लेकिन यह बात तय है कि आम मुसलमान इस फैसले से खुश नहीं होगा क्योंकि बाबरी मस्जिद की जगह पर अब आर एस एस वाले अपना क़ब्ज़ा जतायेगें और पूरे देश के मुसलमानों को मुंह चिढायेगें . ज़ाहिर है मुसलमानों का शुभचिंतक बनने की कांग्रेस की मुहिम को भी इस आदेश से भारी नुकसान होगा. बी जे पी को भी इस फैसले से कोई राजनीतिक फायदा होता नहीं दिख रहा है . हालांकि मोहन भागवत, लाल कृष्ण आडवानी, प्रवीण तोगड़िया सहित संघ भावना से ओत प्रोत सभी लोग इसे अपनी जीत बता रहे हैं लेकिन इस बात में शक़ है कि संघी राजनीति को कोई ख़ास फायदा होगा . इसका मुख्य कारण है कि मुसलमान इस फैसले के बाद आर एस एस वालों को किसी तरह का ध्रुवीकरण करने का मौक़ा नहीं देगा. हालांकि आर एस एस की कोशिश है कि हाई कोर्ट के आदेश की आड़ में मुसलमानों को अपमानित किया जाए. इस फैसले के बाद एक बात और साफ़ हो गयी है कि आर एस एस की अब हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वह अपने को हिन्दुओं का प्रतिनधि घोषित करे क्योंकि दिल्ली , फैजाबाद , मुंबई आदि शहरों में कुछ मुकामी संघी नेताओं की कोशिश थी कि फैसले के बाद जश्न मनाया जाय लेकिन उनके साथ अपने सदस्यों के अलावा कोई नहीं आया . उसी तरह से मुसलमानों में इस फैसले के बाद गुस्सा तो है लेकिन बाबरी मस्जिद से जुड़े झगड़ों को याद करके वह तकलीफ में डूब जाता है और उन घटनाओं को दुबारा होने से बचाना चाहता है . शायद इसीलिये वह चुप है . मुसलमान कांग्रेस से नाराज़ है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं का नाम लेकर कुछ लोग पिछले कई हफ्ते से इसी तरह के फैसले की बात कर रहे थे . उसे लग रहा है कि सब कांगेस ने करवाया है. लेकिन राजनीतिक रूप से बी जे पी को भी कोई फायदा नहीं होगा . उसके हाथ से हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ा सकने का एक बड़ा हथियार छिन गया है . दुनिया जानती है कि अब इस देश में बी जे पी किसी भी मुद्दे पर भीड़ जुटाने की क्षमता खो चुकी है .. इसे देश की जनता की जीत मानी जानी चाहिए क्योंकि अगर बी जे पी कमज़ोर होती है तो देश मज़बूत होता है . जहां तक फैसले के कानूनी पहलू पर सही आदेश की बात है , वह सुप्रीम कोर्ट में ही होगा
बाबरी मस्जिद की ज़मीन का फैसला आ गया है . इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपना आदेश सुना दिया है .फैसले से एक बात साफ़ है कि जिन लोगों ने एक ऐतिहासिक मस्जिद को साज़िश करके ज़मींदोज़ किया था , उनको इनाम दे दिया गया है . जो टाइटिल का मुख्य मुक़दमा था उसके बाहर के भी बहुत सारे मसलों को मुक़दमे के दायरे में लेकर फैसला सुना दिया गया है. ऐसा लगता है कि ज़मीन का विवाद अदालत में ले जाने वाले हाशिम अंसारी संतुष्ट हैं. हाशिम अंसारी ने पिछले २० वर्षों में अपने इसी मुक़दमे की बुनियाद पर बहुत सारे झगड़े होते देखे हैं .शायद इसीलिये उनको लगता है कि चलो बहुत हुआ अब और झगड़े नहीं होने चाहिए . लेकिन यह फैसला अगर न्याय की कसौटी पर कसा जाए तो कानून के बहुत सारे जानकारों की समझ में नहीं आ रहा है कि हुआ क्या है . सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए एम अहमदी पूछते हैं कि अगर टाइटिल सुन्नी वक्फ बोर्ड की नहीं है तो उन्हें एक तिहाई ज़मीन क्यों दी गयी और अगर टाइटिल उनकी है तो उनकी दो तिहाई ज़मीन किसी और को क्यों दे दी गयी. उनको लगता है कि यह फैसला कानून और इविडेंस एक्ट से ज़्यादा भावनाओं और आस्था को ध्यान में रख कर दिया गया है .इसलिए यह फैसला किसी हाई कोर्ट का कम किसी पंचायत का ज्यादा लगता है . अगर कोर्ट भी भावनाओं को ध्यान में रख कर फैसले करने लगे तो संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का क्या होगा. हाई कोर्ट का फैसला सब की भावनाओं को ध्यान में रख कर किया गया फैसला लगता है .
जहां तक फैसले के कानूनी पक्ष का सवाल है ,वह तो कानून के ज्ञाता तय करेगें. सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील ज़फ़रयाब जीलानी के बयान के बाद यह लगभग तय है कि मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में जाएगा जहां देश के चोटी के विधिवेत्ता मौजूद हैं . वहां पर इस फैसले और अन्य कानूनी पहलुओं की जांच होगी . उसके बाद जो भी फैसला आयेगा वह सब को मंज़ूर होगा क्योंकि उसके ऊपर कोई अदालत नहीं है लेकिन इसके पीछे की राजनीति साफ़ नज़र आ रही है . ऐसा लगता है कि कांग्रेस की मुराद पूरी हो गयी है .अभी एक हफ्ते पहले अपने आपको कांग्रेस का बन्दा बताने वाले एक संसद सदस्य की ओर से अखबारों में छपा था कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन को तीन हिस्सों में बाँट दिया जाएगा . हालांकि यह मानने के कोई सुबूत नहीं हैं कि फैसले को कांग्रेस ने प्रभावित किया है लेकिन लगता है कि फैसला कांग्रेस की मर्जी और खुशी का हुआ है . बी जे पी वाले खुश हैं कि उनकी बात को अदालत ने सही माना है और उनके संगठनों को हिन्दुओं का प्रतिनधि मान कर आर एस एस की राजनीति को चमकने का मौक़ा मिला है . लेकिन यह बात तय है कि आम मुसलमान इस फैसले से खुश नहीं होगा क्योंकि बाबरी मस्जिद की जगह पर अब आर एस एस वाले अपना क़ब्ज़ा जतायेगें और पूरे देश के मुसलमानों को मुंह चिढायेगें . ज़ाहिर है मुसलमानों का शुभचिंतक बनने की कांग्रेस की मुहिम को भी इस आदेश से भारी नुकसान होगा. बी जे पी को भी इस फैसले से कोई राजनीतिक फायदा होता नहीं दिख रहा है . हालांकि मोहन भागवत, लाल कृष्ण आडवानी, प्रवीण तोगड़िया सहित संघ भावना से ओत प्रोत सभी लोग इसे अपनी जीत बता रहे हैं लेकिन इस बात में शक़ है कि संघी राजनीति को कोई ख़ास फायदा होगा . इसका मुख्य कारण है कि मुसलमान इस फैसले के बाद आर एस एस वालों को किसी तरह का ध्रुवीकरण करने का मौक़ा नहीं देगा. हालांकि आर एस एस की कोशिश है कि हाई कोर्ट के आदेश की आड़ में मुसलमानों को अपमानित किया जाए. इस फैसले के बाद एक बात और साफ़ हो गयी है कि आर एस एस की अब हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वह अपने को हिन्दुओं का प्रतिनधि घोषित करे क्योंकि दिल्ली , फैजाबाद , मुंबई आदि शहरों में कुछ मुकामी संघी नेताओं की कोशिश थी कि फैसले के बाद जश्न मनाया जाय लेकिन उनके साथ अपने सदस्यों के अलावा कोई नहीं आया . उसी तरह से मुसलमानों में इस फैसले के बाद गुस्सा तो है लेकिन बाबरी मस्जिद से जुड़े झगड़ों को याद करके वह तकलीफ में डूब जाता है और उन घटनाओं को दुबारा होने से बचाना चाहता है . शायद इसीलिये वह चुप है . मुसलमान कांग्रेस से नाराज़ है क्योंकि कांग्रेस के नेताओं का नाम लेकर कुछ लोग पिछले कई हफ्ते से इसी तरह के फैसले की बात कर रहे थे . उसे लग रहा है कि सब कांगेस ने करवाया है. लेकिन राजनीतिक रूप से बी जे पी को भी कोई फायदा नहीं होगा . उसके हाथ से हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ा सकने का एक बड़ा हथियार छिन गया है . दुनिया जानती है कि अब इस देश में बी जे पी किसी भी मुद्दे पर भीड़ जुटाने की क्षमता खो चुकी है .. इसे देश की जनता की जीत मानी जानी चाहिए क्योंकि अगर बी जे पी कमज़ोर होती है तो देश मज़बूत होता है . जहां तक फैसले के कानूनी पहलू पर सही आदेश की बात है , वह सुप्रीम कोर्ट में ही होगा
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Thursday, September 30, 2010
कामनवेल्थ खेलों के चक्कर में दिल्ली के शासकों ने अंगेजों की तरह लूट मचाई
शेष नारायण सिंह
दिल्ली दरबार में आजकल बड़े बड़े खेल हो रहे हैं . सबसे बड़ा खेल तो खेल के मैदानों में होना है लेकिन उसके पहले के खेल भी कम दिलचस्प नहीं हैं. जैसा कि आदि काल से होता रहा है किसी भी आयोजन में राजा के दरबारी अपनी नियमित आमदनी से दो पैसे ज्यादा खींचने के चक्कर में रहते हैं . दिल्ली में आजकल दरबारियों की संख्या में भी खासी वृद्धि हुई है . जवाहरलाल नेहरू के टाइम में तो इंदिरा गाँधी की सहेलियां ही लूटमार के खेल की मुख्य ड्राइविंग फ़ोर्स हुआ करती थीं. वैसे लूटमार होती भी कम थी . दिल्ली में जब १९५६ में संयुक्त राष्ट्र की यूनिसेफ की कान्फरेन्स हुई तो एक आलीशान होटल की ज़रूरत थी . जवाहरलाल नेहरू जहां अशोका होटल बन रहा था ,उस जगह पर खुद ही अपनी मार्निंग वाक में जाकर खड़े हो जाते थे. ज़ाहिर है लूटमार की संभावना बहुत कम होती थी .सरकारी प्रोजेक्ट में लूटमार का सिलसिला सही मायनों में तब शुरू हुआ, जब संजय गाँधी दिल्ली की सडकों पर सक्रिय हुए. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से लेकर अर्जुन दास तक जो भी दिल्ली वाले सरकारी धन की लूट में शामिल हुए ,उन्होंने इसी रास्ते को अपनाया. मोरारजी देसाई के काल में लूट के कई दरबार खुल गए थे. उनका अपना अधेड़ बेटा भी इसी धंधे में था और भी कई दरबार थे . लेकिन सरकारी खजाने की लूट का सबसे बड़ा खेल तब शुरू हुआ जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में गठबंधन सरकार बनी जिसमें भ्रष्टाचार के भांति भांति के शिरोमणि शामिल हुए . उसके बाद देवगौड़ा आये जिनका खुद का रिकार्ड ही एक मामूली ठेकेदार का था . जब १९९८ में बी जे पी वाले सत्ता में आये उसके बाद से खजाने की लूट की विधा को एक ललित कला के रूप में विकसित किया गया. कोई बम्बई का ठग था तो कुछ लोग दिल्ली की सडकों पर पत्रकार बन कर टहल रहे थे. कोई दामाद का अभिनय कर रहा था तो कोई दक्षिण की रानी की सहेली का भतीजा था . कोई किसी साहूकार का दलाल था तो कोई खुद ही दलाल भी था और साहूकार भी. कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा बाकी सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने घर वालों को लूट का साम्राज्य सौंप दिया. जिनके तन पर कपड़ा नहीं था वे कपड़ा मंत्री बन गए और लूट के नए नए आयाम तलाशे गए. कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जो लूट हो रही है उसमें कोई भी दोषी नहीं पाया जाएगा क्योंकि जैन हवाला काण्ड की तरह सभी पार्टियों के नेताओं के रिश्तेदारों को पूना से आये बांके ने बाकायदा हिस्सा दिया है . उस बेचारे से ग़लती केवल यह हुई कि उसने एक बड़े मीडिया ग्रुप की बात को गंभीरता से नईं लिया और उसे ठेका नहीं दिया और उसने पोल खोल दी . वरना सारे लोग मिलजुल कर खेल कर जाते और देशवासी टापते रह जाते. बहर हाल पूरी उम्मीद है कि खेलों के ख़त्म होने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा और एक आयोग बैठाया जाएगा जिसका काम यह यह होगा कि वह पता लगाए कि क्या वास्तव में लूट हुए है लेकिन उसको हिदायत दे दी जायेगी कि उसे यह साबित करना होगा कि कहीं कोई लूट हुई ही नहीं है. ऐसा इसलिए संभव होगा कि आजकल कांग्रेस और बी जे पी में बहुत अच्छी जुगलबंदी चल रही है . चाहे अमरीकी हुक्म से परमाणु समझौता हो या भोपाल काण्ड , दोनों पार्टियां एक ही राग गा रही हैं . इसकी वजह शायद यह है कि कांग्रेसी मालिकों को तो पूना वाला शेख बाकायदा हफ्ता पंहुचा रहा है और विपक्ष के हाकिमों के रिश्तेदार ठेके का लुत्फ़ उठा रहे हैं ..
दिल्ली की मौजूदा लूट के कुछ सबक भी हैं. कांग्रेसी नेता, सोनिया गाँधी के परिवार के करीबी और पूर्व खेल मंत्री , मणिशंकर अय्यर इस लूट का सबसे बेहतरीन वर्णन करते हैं . उनका कहना है कि उनके खेल मंत्री बनने के पहले ही दिल्ली में उन्नीसवां कामनवेल्थ खेल आयोजित करने का फैसला हो चुका था . जब वे मंत्री बने तो उन्होंने इस खर्च पर सवाल उठाये लेकिन विरासत का हवाला देकर उनको चुप करा दिया गया. मणिशंकर अय्यर के कई सवाल थे . मसलन उन्होंने कहा कि अगर खेल कूद के इतने बड़े आयोजन से एक नया शहर बसाने के रास्ते खुल सकते हैं तो उत्तरी दिल्ली के बवाना गाँव के पास जो खाली जगह पड़ी है वहां एक नया शहर बसाया जाए और वहीं पर बिना किसी रोक टोक सभी सुविधायें बनाई जाएँ . उस वक़्त कामनवेल्थ खेलों के आयोजन पर कुल छः हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना थी . लेकिन वे हटा दिए गए और नयी व्यवस्था में सब कुछ बदल गया . छः हज़ार करोड़ का खर्च अब दस गुना हो चुका है . खेल कूद के आयोजन के नाम पर दिल्ली शहर के हर कोने में लूटमार मची है . पता चला है कि दिल्ली के कनाट प्लेस को ही चमकाने के लिए एक हज़ार करोड़ का ठेका दे दिया गया. और जिसे ठेका दिया गया उसकी आर्थिक हैसियत बीस करोड़ की भी नहीं है .नतीजा सामने है खिलाड़ी आ चुके हैं और कनाट प्लेस खुदा पड़ा है . अब कहा जा रहा है कि उस से कोई फर्क नहीं पड़ता . कनाट प्लेस में कोई खेल तो होना नहीं है . सवाल उठता है कि जब कनाट प्लेस की खेलों के आयोजन में कोई भूमिका ही नहीं थी तो सरकारी खजाने से एक हज़ार करोड़ रूपया झटकने की क्या ज़रुरत थी. ज़ाहिर है कि किसी ख़ास बन्दे ने इस ठेके में आर्थिक मदद पायी है . लेकिन यह भी उम्मीद करने की ज़रूरत नहीं है कि आने वाले वक़्त में इसका पता चल पायेगा क्योंकि इस सारे भ्रष्टाचार की जब जांच होगी तो दिल्ली दरबार के अमीर उमरा अपने ख़ास लोगों को बचा लेगें . इसी तरह से दिल्ली शहर में तमाम फालतू विकास कार्य चल रहे हैं जिनका खेलों से कोई लेना देना नईं है लेकिन उनका पैसा खेलों के नाम पर ही खींचा जा रहा है और दिल्ली के अमीर उमरा के रिश्तेदार ठेके की गिज़ा उड़ा रहे हैं . पता चला है कि दिल्ली की ज़्यादातर सडकों के फुटपाथों पर जो पत्थर लगे थे, वे सब ठीक हालत में थे. लेकिन सब को उखाड़कर नया पत्थर लगाने का फसिअला कर लिया गया और हज़ारों करोड़ का खेल कर दिया गया. मुराद यह है कि दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जम कर लूट हुई और ऐसे काम के लिए हुई जिसका खेलों से कोई लेना देना नहीं था. खेल गाँव के ठेके में ही दिल्ली के बहुत ताक़तवर लोगों के एक रिश्तेदार को आर्थिक रूप से खस्ता हाल डी डी ए से करीब नौ सौ करोड़ रूपये दिलवा दिया गया . अब खेल गाँव बन कर तैयार है . वहां के फ़्लैट करोड़ों में बेचे जायेगें और उसका फायदा इसी ताक़तवर नेता के मामा को होगा. दिलचस्प बात यह है कि इस खेल में ज़रूरी नहीं कि कांग्रेसी को ही फायदा हुआ हो . इस बार की लूट में सभी शामिल हैं .
दिल्ली दरबार में आजकल बड़े बड़े खेल हो रहे हैं . सबसे बड़ा खेल तो खेल के मैदानों में होना है लेकिन उसके पहले के खेल भी कम दिलचस्प नहीं हैं. जैसा कि आदि काल से होता रहा है किसी भी आयोजन में राजा के दरबारी अपनी नियमित आमदनी से दो पैसे ज्यादा खींचने के चक्कर में रहते हैं . दिल्ली में आजकल दरबारियों की संख्या में भी खासी वृद्धि हुई है . जवाहरलाल नेहरू के टाइम में तो इंदिरा गाँधी की सहेलियां ही लूटमार के खेल की मुख्य ड्राइविंग फ़ोर्स हुआ करती थीं. वैसे लूटमार होती भी कम थी . दिल्ली में जब १९५६ में संयुक्त राष्ट्र की यूनिसेफ की कान्फरेन्स हुई तो एक आलीशान होटल की ज़रूरत थी . जवाहरलाल नेहरू जहां अशोका होटल बन रहा था ,उस जगह पर खुद ही अपनी मार्निंग वाक में जाकर खड़े हो जाते थे. ज़ाहिर है लूटमार की संभावना बहुत कम होती थी .सरकारी प्रोजेक्ट में लूटमार का सिलसिला सही मायनों में तब शुरू हुआ, जब संजय गाँधी दिल्ली की सडकों पर सक्रिय हुए. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से लेकर अर्जुन दास तक जो भी दिल्ली वाले सरकारी धन की लूट में शामिल हुए ,उन्होंने इसी रास्ते को अपनाया. मोरारजी देसाई के काल में लूट के कई दरबार खुल गए थे. उनका अपना अधेड़ बेटा भी इसी धंधे में था और भी कई दरबार थे . लेकिन सरकारी खजाने की लूट का सबसे बड़ा खेल तब शुरू हुआ जब विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई में गठबंधन सरकार बनी जिसमें भ्रष्टाचार के भांति भांति के शिरोमणि शामिल हुए . उसके बाद देवगौड़ा आये जिनका खुद का रिकार्ड ही एक मामूली ठेकेदार का था . जब १९९८ में बी जे पी वाले सत्ता में आये उसके बाद से खजाने की लूट की विधा को एक ललित कला के रूप में विकसित किया गया. कोई बम्बई का ठग था तो कुछ लोग दिल्ली की सडकों पर पत्रकार बन कर टहल रहे थे. कोई दामाद का अभिनय कर रहा था तो कोई दक्षिण की रानी की सहेली का भतीजा था . कोई किसी साहूकार का दलाल था तो कोई खुद ही दलाल भी था और साहूकार भी. कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा बाकी सभी पार्टियों के नेताओं ने अपने घर वालों को लूट का साम्राज्य सौंप दिया. जिनके तन पर कपड़ा नहीं था वे कपड़ा मंत्री बन गए और लूट के नए नए आयाम तलाशे गए. कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जो लूट हो रही है उसमें कोई भी दोषी नहीं पाया जाएगा क्योंकि जैन हवाला काण्ड की तरह सभी पार्टियों के नेताओं के रिश्तेदारों को पूना से आये बांके ने बाकायदा हिस्सा दिया है . उस बेचारे से ग़लती केवल यह हुई कि उसने एक बड़े मीडिया ग्रुप की बात को गंभीरता से नईं लिया और उसे ठेका नहीं दिया और उसने पोल खोल दी . वरना सारे लोग मिलजुल कर खेल कर जाते और देशवासी टापते रह जाते. बहर हाल पूरी उम्मीद है कि खेलों के ख़त्म होने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा और एक आयोग बैठाया जाएगा जिसका काम यह यह होगा कि वह पता लगाए कि क्या वास्तव में लूट हुए है लेकिन उसको हिदायत दे दी जायेगी कि उसे यह साबित करना होगा कि कहीं कोई लूट हुई ही नहीं है. ऐसा इसलिए संभव होगा कि आजकल कांग्रेस और बी जे पी में बहुत अच्छी जुगलबंदी चल रही है . चाहे अमरीकी हुक्म से परमाणु समझौता हो या भोपाल काण्ड , दोनों पार्टियां एक ही राग गा रही हैं . इसकी वजह शायद यह है कि कांग्रेसी मालिकों को तो पूना वाला शेख बाकायदा हफ्ता पंहुचा रहा है और विपक्ष के हाकिमों के रिश्तेदार ठेके का लुत्फ़ उठा रहे हैं ..
दिल्ली की मौजूदा लूट के कुछ सबक भी हैं. कांग्रेसी नेता, सोनिया गाँधी के परिवार के करीबी और पूर्व खेल मंत्री , मणिशंकर अय्यर इस लूट का सबसे बेहतरीन वर्णन करते हैं . उनका कहना है कि उनके खेल मंत्री बनने के पहले ही दिल्ली में उन्नीसवां कामनवेल्थ खेल आयोजित करने का फैसला हो चुका था . जब वे मंत्री बने तो उन्होंने इस खर्च पर सवाल उठाये लेकिन विरासत का हवाला देकर उनको चुप करा दिया गया. मणिशंकर अय्यर के कई सवाल थे . मसलन उन्होंने कहा कि अगर खेल कूद के इतने बड़े आयोजन से एक नया शहर बसाने के रास्ते खुल सकते हैं तो उत्तरी दिल्ली के बवाना गाँव के पास जो खाली जगह पड़ी है वहां एक नया शहर बसाया जाए और वहीं पर बिना किसी रोक टोक सभी सुविधायें बनाई जाएँ . उस वक़्त कामनवेल्थ खेलों के आयोजन पर कुल छः हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने की योजना थी . लेकिन वे हटा दिए गए और नयी व्यवस्था में सब कुछ बदल गया . छः हज़ार करोड़ का खर्च अब दस गुना हो चुका है . खेल कूद के आयोजन के नाम पर दिल्ली शहर के हर कोने में लूटमार मची है . पता चला है कि दिल्ली के कनाट प्लेस को ही चमकाने के लिए एक हज़ार करोड़ का ठेका दे दिया गया. और जिसे ठेका दिया गया उसकी आर्थिक हैसियत बीस करोड़ की भी नहीं है .नतीजा सामने है खिलाड़ी आ चुके हैं और कनाट प्लेस खुदा पड़ा है . अब कहा जा रहा है कि उस से कोई फर्क नहीं पड़ता . कनाट प्लेस में कोई खेल तो होना नहीं है . सवाल उठता है कि जब कनाट प्लेस की खेलों के आयोजन में कोई भूमिका ही नहीं थी तो सरकारी खजाने से एक हज़ार करोड़ रूपया झटकने की क्या ज़रुरत थी. ज़ाहिर है कि किसी ख़ास बन्दे ने इस ठेके में आर्थिक मदद पायी है . लेकिन यह भी उम्मीद करने की ज़रूरत नहीं है कि आने वाले वक़्त में इसका पता चल पायेगा क्योंकि इस सारे भ्रष्टाचार की जब जांच होगी तो दिल्ली दरबार के अमीर उमरा अपने ख़ास लोगों को बचा लेगें . इसी तरह से दिल्ली शहर में तमाम फालतू विकास कार्य चल रहे हैं जिनका खेलों से कोई लेना देना नईं है लेकिन उनका पैसा खेलों के नाम पर ही खींचा जा रहा है और दिल्ली के अमीर उमरा के रिश्तेदार ठेके की गिज़ा उड़ा रहे हैं . पता चला है कि दिल्ली की ज़्यादातर सडकों के फुटपाथों पर जो पत्थर लगे थे, वे सब ठीक हालत में थे. लेकिन सब को उखाड़कर नया पत्थर लगाने का फसिअला कर लिया गया और हज़ारों करोड़ का खेल कर दिया गया. मुराद यह है कि दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के नाम पर जम कर लूट हुई और ऐसे काम के लिए हुई जिसका खेलों से कोई लेना देना नहीं था. खेल गाँव के ठेके में ही दिल्ली के बहुत ताक़तवर लोगों के एक रिश्तेदार को आर्थिक रूप से खस्ता हाल डी डी ए से करीब नौ सौ करोड़ रूपये दिलवा दिया गया . अब खेल गाँव बन कर तैयार है . वहां के फ़्लैट करोड़ों में बेचे जायेगें और उसका फायदा इसी ताक़तवर नेता के मामा को होगा. दिलचस्प बात यह है कि इस खेल में ज़रूरी नहीं कि कांग्रेसी को ही फायदा हुआ हो . इस बार की लूट में सभी शामिल हैं .
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