Friday, March 12, 2010

सज्जन और मोदी के दरवाज़े न्याय की दस्तक

शेष नारायण सिंह


लोकतंत्र की ताक़त को कम करके आंकने वालों के उत्साह को बढाने के लिए वक़्त ने एक साथ दो अवसर प्रस्तुत कर दिया. लोकतंत्र की उपयोगिता पर सवाल उठा रहे लोग इस बात से परेशान थे कि राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ लोग अपनी मनमानी करते हैं और लोकतंत्र की संस्थाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं . जिसका नतीजा यह होता है कि आम आदमी के साथ अन्याय हो जाता है .जबकि आम आदमी को न्याय दिला सकना ही लोकशाही की सबसे पहली शर्त है . लेकिन जिस तरह से कानून ने सिख दंगों के अभियुक्त सज्जन कुमार को घेरा है उस से लोकशाही की संस्थाओं पर एक बार फिर भरोसा बढ़ा है. जिन लोगों ने १ नवम्बर से ३ नवम्बर १९८४ की दिल्ली देखी है , उन्हें उस वक़्त के दिल्ली के कांग्रेस के नेताओं को इंसान मानने में भी दिक्क़त होती है . अर्जुन दास, हरिकिशन लाल भगत,ललित माकन, सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर कुछ ऐसे नाम हैं जिनको सुनकर भी मेरे जैसे लोग बहुत साल बाद तक कांप जाते थे . दंगों के बाद कुलदीप नैय्यर , रोमेश थापर, श्रीमती धर्मा कुमार जैसे लोगों लोगों के नेतृत्व में शुरू हुए गैरसरकारी राहत के काम में शामिल होने के बाद त्रिलोक पुरी, मादी पुर , पंजाबी बाग़ , पश्चिम विहार , सफदरजंग इन्क्लेव आदि मुहल्लों में जो मरघट की शान्ति देखी गयी थी, वह आज भी बहुत तकलीफ दे जाती है . लेकिन उस आतंक के सूत्रधार कांग्रेसी नेता बहुत दिनों तक ऐश करते रहे. भगत, अर्जुन दास, ललित माकन आदि तो मर गए लेकिन कानून की ताक़त का अनुभव करने के लिए अभी कुछ लोग बचे हैं , सज्जन कुमार उसी खेप के एक कांग्रेसी हैं. जिस तरह से उनके चारों तरफ कानून का घेरा बन रहा है ,उस से लगता है कि लोकशाही की संस्थाएं अपना काम कर रही हैं. सज्जन कुमार को बहुत लोगों ने भीड़ को उकसाते देखा था लेकिन ज़्यादातर लोग कन्नी काट गए. बहरहाल आज लोकतंत्र की प्रमुख संस्था ,न्यायपालिका अपना काम कर रही है और यह सुकून की बात है .


सज्जन कुमार से ज्यादा खूंखार मनमानी के एक और उदाहरण हैं , श्री नरेंद्र मोदी . उनके बारे में कहा जाता है कि फरवरी २००२ के गुजरात नरसंहार की स्क्रिप्ट उनकी निगरानी में ही लिखी गयी थी . लेकिन उन्होंने कहीं भी अपने क़दमों के निशान नहीं छोड़े थे , इसलिए कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा था. अब खबर आई है कि लोकशाही के प्रमुख स्तम्भ , सुप्रीम कोर्ट ने मोदी के दरवाज़े पर भी कानून की ताक़त की दस्तक दिलवा दी है .उस वक़्त तक लोकसभा के सदस्य रहे, एहसान जाफरी को उनके ही घर में जिंदा जला डालने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने , स्वर्गीय एहसान जाफरी की पत्नी, ज़किया जाफरी की अर्जी पर सुनवाई के दौरान एस आई टी को आदेश दिया है कि नरेंद्र मोदी को समन भेज कर बुलाया जाए और उनसे पूछताछ की जाए. इस मामले में दर्ज एफ आई आर में नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है . इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें अभियुक्त के रूप में नहीं बुलाया जा सकता , उन्हें बतौर गवाह पेश होना है . हाँ अगर तफ्तीश के दौरान जांच अधिकारी को लगा कि अपराध में उनके शामिल होने के कुछ कारण हैं तो उनसे मुलजिम ( मुज़रिम नहीं ) के तौर पूछताछ की जा सकती है .


सवाल यह नहीं है कि मोदी या सज्जन कुमार जैसे लोगो को सज़ा क्या होगी. उनकी दोनों की पार्टियां देश की राजनीतिक सत्ता के सबसे महत्व पूर्ण संगठन हैं . दुर्भाग्य यह है कि दोनों ही लोगों की पार्टियां उनको बचाने की पूरी कोशिश कर रही हैं.लेकिन लोकशाही के समर्थकों के लिए संतोष का विषय यह है कि कानून की सर्वोच्चता का अनुभव सज्जन कुमार और मोदी जैसों को भी हो रहा है और यही लोकतंत्र के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है .राजनीतिक नेताओं के अपराध को न्याय की परिधि में लाने का जो काम लोकशाही की संस्थाएं कर रही हैं ,वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है . ज़ाहिर है लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का भी इसमें कम योगदान नहीं है .. १९८६ के बाद जब बी जे पी ने आक्रामक हिंदुत्व को राजनीतिक हथियार के रूप में अपनाने का फैसला किया तब से ही देश में राजनीतिक बाबाओं का भारी आतंक था . आर एस एस के संगठनों ने इन बाबाओं का पूरा राजनीतिक इस्तेमाल किया और देश की धर्मपरायण जनता को अपने साथ राजनीतिक रूप से इकठ्ठा करने के लिए इन बाबाओं को आगे भी किया. उन दिनों आज की तरह न्यूज़ चैनल नहीं होते थे .. टेलीविज़न सरकारी था और बाबा लोगों के बारे में जो भी अखबारों में छपता था, सीधे सादे लोग विश्वास करते थे . लेकिन आजकल पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से मीडिया ने बाबाओं को घेरा है और न्याय की सीमा में लाने की कोशिश की है , वह भी काबिले-तारीफ़ है . मीडिया का यह काम लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है... वह लोकतंत्र के हित में है .. उम्मीद की जानी चाइये कि आने वाले वक़्त बी जे पी जैसी पार्टियां भी अपने राजनीतिक कार्य में बाबापंथी का धंधा करने वालों को दूर रखेंगें . क्योंकि इन्हें इस्तेमाल करने में ख़तरा यह रहेगा कि पता नहीं कब नए युग का कौन सा मीडिया सारी पोल पट्टी खोल दे. . सेक्स के धंधे में लगे हुए बाबाओं को अब शायद ही राजनीति में जगह मिल पायेगी. इस लिए अरुंधती रॉय टाइप लोगों को लोकशाही के खिलाफ लाठी भांजने से बाज़ आना चाहिये

Wednesday, March 10, 2010

मौजूदा बिल महिलाओं के एक बड़े वर्ग को मुख्यधारा से अलग करने का निमित्त

शेष नारायण सिंह

बी जे पी के खेल में सभी फंस गए. महिला आरक्षण की बहस को शुरू ही उलटे तरीके से किया गया. महिला आरक्षण बिल को समझने के लिए मैं अपने गाँव जाना चाहूंगा.. मेरे गाँव में दलित भी हैं, पिछड़े और सवर्ण भी. बगल के गाँव में मुसलमान हैं .बचपन से लेकर अब तक मैंने हर तरह की सामाजिक सोच देखी है . जब मैंने समझना शुरू किया,मेरे गाँव में सब गरीब थे . आज भी कोई बहुत धनी नहीं हैं . मेरे पिता खुद एक ठाकुर ज़मींदार थे लेकिन १९५२ के बाद वे भी बहुत गरीब हो गए थे लेकिन गाँव के सवर्ण अपने को दलितों, मुसलमानों और अन्य पिछड़ी जातियों से ऊंचा मानते थे . दलितों और मुसलमानों के प्रति उन दिनों जो सोच थी, आज तक वही है ,. मेरे गाँव में मेरी उम्र के कुछ लोगों ने मुझे मेरे पिता जी से पिटवाने की कोशिश की थी जब मैंने ९० के दशक की शुरुआत में डॉ अंबेडकर के निर्वाण के दिन जाति के विनाश पर बाबा साहेब के तर्क का समर्थन करने वाला लेख लिख दिया था. .यह वही लोग हैं जो गाँव के दलितों के बच्चों को स्कूल जाने से रोकते थे . मेरे गाँव में मेरे पिता जी से दो एक साल उम्र में छोटे,दलित जाति के रामदास जी थे . मुझसे उन्होंने पूछा कि क्या हमारे बच्चों की भी तरक्की हो सकती है . मैंने कहा कि अगर आप अपने बच्चों को पढ़ा दें तो कोई नहीं रोक सकता . यह बात उन्होंने कुछ लोगों को बता दी. तब से ही मेरे खिलाफ मेरे गाँव में माहौल है .. दलितों के कुछ बच्चे पढ़ लिख गए. कुछ डाक खाने में चिट्ठीरसा हो गए, कुछ और छोटी मोटी सरकारी नौकरियों में चले गए. जबकि ठाकुरों के दसवीं फेल बच्चे खाली घूम रहे हैं . सवर्ण मानसिकता के लोग गाँव के ठाकुरों के पिछड़ेपन के लिए दलितों की शिक्षा को ज़िम्मेदार बताते हैं .. मेरे गाँव को देख कर लगता है की गरीबी अपने आप में एक जाति है. जिस बिल को राज्यसभा में पास करवाया गया है वह निश्चित रूप से एक इलीट कोशिश है . जिसका मकसद गरीब से गरीब लोगों को देश के फैसलों से बाहर रखना है .ज़ाहिर है इस तरह की स्थिति से बी जे पी जैसी पार्टियों का ही फायदा होगा क्योंकि उनके साथ न तो मुसलमान हैं और न ही दबे कुचले लोग .संसद और विधान सभाओं मेंअगर इनकी संख्या कम कर दी जाए तो बी जे पी अपना वह एजेंडा लागू करने में सफल रहेगी जिसमें मुसलमान, दलित और पिछड़ों को १९४७ के पहले की स्थिति में रखने की योजना है . कांग्रेस भी कहे कुछ भी, करती वही है जो सामंती, संपन्न , पूंजीवादी सोच की मांग होती है . इन लोगों को नहीं मालूम की दिल्ली शहर के अन्दर ही मुसलमानों और दलितों की बच्चियों को शिक्षा के अवसर नहीं उपलब्ध हैं . . इन लोगों को यह भी नहीं मालूम नहीं कि असली गावों में रहने वाले लोगों को जब तक शिक्षा के सही अवसर नहीं दिए जाते तब तक उन दबे कुचले परिवारों की महिलाओं से संभ्रांत परिवारों की महिलाओं के मुकाबले खड़े होकर जीतने की उम्मीद करना एक सपना है . इस लिए मुस्लिम, दलित और पिछड़ी जातियों और गरीब सवर्णों के परिवारों की महिलाओं को राजनीति की मुख्यधारा से अलग करने वाले बिल का समर्थन उसी हालत में किया जाना चाहिए जब वह आधी आबादी के पूरे हिस्से के हित में हो. मौजूदा बिल महिलाओं के एक बड़े वर्ग को मुख्य धारा से अलग करने का निमित्त है और इसे इसके इस स्वरुप में समर्थन देना ठीक नहीं है .

Friday, March 5, 2010

लोकतंत्र को खारिज करने वालों की साज़िश से सावधान रहने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह


गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे में लगी आग के बाद जिस तरह से खून खराबा हुआ, उस से दुनिया भर में तकलीफ महसूस की गयी थी. उसके बाद से लोकतंत्र के औचित्य पर सवाल उठाने लगे थे . कई पुरस्कारों से सम्मानित लेखिका , अरुंधती रॉय ने पहला हमला किया था . उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री, नरेन्द्र मोदी के गोधरा के बाद के काम को निशाने में लेकर यह तर्क दिया था कि कल्याणकारी राज्य की स्थापना कर सकना लोकतंत्र के बूते की बात नहीं है .. यहाँ नरेंद्र मोदी को सही ठहराने का कोई इरादा नहीं है लेकिन उनके बहाने से पूरे लोकतंत्र को खारिज करने की कोशिश को भी रोके जाने की ज़रुरत है .. अरुंधती रॉय एक विद्वान् लेखिका मानी जाती हैं , उनका मीडिया प्रोफाइल बहुत ही ऊंचा है और उन्हें हम लोगों की तरह अपनी रोटी-पानी के लिए रोज़ संघर्ष नहीं करना पड़ता . उनके पास जुगाड़ है, कई साल तक के भोजन-भजन का इंतज़ाम है . लेकिन इस देश में आबादी का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसे लोकतंत्र बहुत कुछ देता है. लोकतंत्र के बड़े बड़े ठेकेदार गरीब आदमी की रोटी-पानी की बात करते देखे गए हैं. आजकल भी सत्ताधारी पार्टी, राग ' आम आदमी ' में अपनी बात कह रही है लिहाज़ा लोक तंत्र के खिलाफ लाठी भांजने का वक़्त शायद अभी नहीं आया है . २००२ में जब अरुंधती रॉय का लोकतंत्र विरोधी लेख छपा था तो मुझे एक महात्मा जी का प्रवचन बहुत याद आया था जो मेरे कस्बे में वर्षों पहले पधारे थे . उन्होंने रामराज्य का ज़िक्र किया था और कहा था कि वर्तमान राज-काज बिलकुल बेकार है ,हमें रामराज्य के लिए प्रयास करना चाहिए जिस से चारों तरफ दूध-दही की नदियाँ बहेंगीं , लोग सुखी रहेंगें और कहीं कोई कष्ट नहीं होगा. महात्मा जी का प्रवचन ख़त्म हुआ , तम्बू उखड गया , वहां बिछी हुई दरी वगैरह हटा दी गयी. जो मजदूर इस काम में लगे थे उनको न्यूनतम मजदूरी मिली, उन लोगों ने दुकान वाले को पिछला बकाया अदा किया और नया उधार लेकर अपने घर चले गए.सूखी रोटी ,प्याज के साथ खाई और सो गए. महात्मा जी प्रवचन के आयोजकों के यहाँ पधारे , वहां दिव्य भोजन किया, भक्तों ने उनके चरण की सेवा की और वे सो गए.. उनके लिए तो रामराज्य के सुख का बंदोबस्त हो चुका था लेकिन उन मजदूरों के लिए रामराज्य अभी बहुत दूर था . उनका संघर्ष लम्बा चलेगा तब कहीं उन्हें रामराज्य के सुख का दर्शन होगा ..अरुंधती रॉय जैसे लोगों का लोकतंत्र के खिलाफ दिया गया प्रवचन उन्हीं महात्मा जी के प्रवचन जैसा है जो हकीकत से दूर रह कर अपने ख्याली पुलाव को वाताविकता की तरह स्वीकार करने का आग्रह करता नज़र आता है ..अरुंधती रॉय अपने उस आग्रह पर आज भी कायम हैं क्योंकि एक नामी पत्रिका में छपे अपने उस लेख को उन्होंने अपनी ताज़ा किताब में ज्यों का त्यों छाप दिया है. उनके अलावा भी कुछ चिंतकों ने लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देना शुरू कर दिया है और एकाधिकारवादी पूंजी और गुंडों की राजनीतिक सफलता का उदाहरण दे कर वे लोकतंत्र के खिलाफ तर्क देने की कोशिश करते हैं. यह सच है कि सत्ता के सबसे ऊंचे मुकाम पर बैठे लोगों तक पूंजीवादी शक्ति के प्रतिनिधियों की पंहुच आसानी से हो जाती है , वे कई बार ऐसे फैसले भी करवा लेते हैं जो जनविरोधी होते हैं . यह भी सच है कि आजकल चुनाव जीतने वालों में ऐसे लोग भी शामिल हो जाते हैं जो अपराधी हैं या जिनका सामाजिक उत्थान से कोई लेना देना नहीं होता .कई बार यह अपराधी लोग विकास के लिए निर्धारित रक़म को अपने निजी स्वार्थ के लिए हड़प भी लेते हैं . इन अपराधियों, नेताओं, अफसरों और बड़ी पूंजी वालों के गठजोड़ का हवाला देकर भी लोकतंत्र के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है लेकिन इस सबके बावजूद अभी लोकतंत्र के खिलाफ सुनी जा रही खुसुर-फुसुर को समर्थन देना ठीक नहीं होगा . ज़रुरत इस बात की है कि सार्थक बहस की शुरुआत की जाए और लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ बन रहे माहौल को दबाने की कोशिश की जाए. लोक तंत्र के पक्ष में सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस व्यवस्था में अपराधी और जनविरोधी टाइप लोगों को बेदखल करने के अवसर उपलब्ध हैं . दूसरी बात यह है कि जो लोग भी लोकतंत्र के खिलाफ माहौल बना रहे हैं उनके पास कोई वास्तविक विकल्प नहीं है. उनके पास विकल्प के नाम पर वही महात्मा जी वाला कार्यक्रम है . .

सच्ची बात यह है कि लोकतंत्र की अवधारणा किसी की कृपा से नहीं आई है . इसके लिए आम आदमी ने सैकड़ों वर्षों तक संघर्ष किया है .और अभी लोकशाही के सभी पक्ष सामने नहीं आये हैं . लोकतंत्र के बड़े केंद्र अमरीका में अभी लोकतंत्र की बुनियादी बातें भी नहीं आई हैं . चुनाव व्यवस्था शुरू होने के कई सौ वर्षों की परंपरा के बाद पिछले चुनाव में वहां यह सोचा गया कि क्या कोई काला यानी दलित आदमी राष्ट्रपति हो सकता है या कि कोई महिला सर्वोच्च पद पर पंहुच सकती है . अभी ५० साल पहले तक अमरीका में सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था . उन्होंने अपने दलितों को चुनाव प्रणाली से बाहर रखा था, महिलाओं को भी बहुत देर से वोट देने का अधिकार मिला . इसी तरह से बाकी देशों एक लोकतंत्र में भी विकास की अलग अलग अवस्थाएं हैं ... लेकिन एक बात पक्की है कि जो कुछ भी हासिल होगा उसके लिए संघर्ष करना पडेगा.आज जो भी लोकतंत्र का स्वरुप है उसके विकास में एक लम्बा वक़्त लगा है इस में दो राय नहीं है कि लोकतंत्र की अभी बहुत सी संभावनाएं खुलना बाकी हैं .लोकशाही के जो बुनियादी सिद्धांत हैं वे फ्रांसीसी क्रान्ति के बराबरी, भाईचारा और स्वतंत्रता के नारों से विकसित हुए हैं . आज दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है .ज़ाहिर है कि उसे हासिल करने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होकर ही कोशिश करनी पड़ेगी . उसके खिलाफ माहौल बना कर नहीं.

हमारे अपने लोकतंत्र में भी अभी बहुत सारी संभावनाएं हैं . सही बात यह है कि अभी तक दलितों और मुसलमानों को लोकशाही की मुख्यधारा में शामिल होने का मौक़ा नहीं मिला है.एक मायावती को मुख्यमंत्री पद मिला है लेकिन उसकी वजह से दलितों की मुक्ति की लड़ाई एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी है .. आज़ादी के साथ वर्षों बाद भी पिछड़ी और दलित महिलाओं को राजनीतिक सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए संघर्ष चल रहा है . पंचायतों में कुछ भागीदारी का काम हुआ है लेकिन मर्दवादी सोच के पुरुषों ने वहां भी स्त्री को सत्ता के बाहर रखने की सारे गोटें बिछा रखी हैं ..आजकल जो नक्सलवाद के खिलाफ सारी सत्ता जुटी हुई है , उस नक्सलवाद को शुरू होने से ही रोका जा सकता था .अगर दलितों और आदिवासियों को उनका हक दिया गया होता तो वे कभी भी वह राह न अपनाते . वरना आज वे लोग ही दिग्भ्रमित मार्क्सवादियों की राजनीतिक डिजाइन को पूरा करने के लिए आगे कर दिए गए हैं .वे अति वामपंथी आंतंकवादी सोच के लिए शील्ड का काम कर रहे हैं .. उनके खिलाफ तोप चलाने वाली सरकारों को चाहिए कि उनका इस्तेमाल करने वाले हिंसक वामपंथियों और उनका राजनीतिक लाभ लेने वाली जमातों को अलग थलग करें.

यह भी सच है कि राजनीतिक लोकतंत्र की सीमाएं हैं . वह पूरी तरह से कल्याणकारी निजाम नहीं कायम कर सकता लेकिन लोकतंत्र को कम करने के नतीजे भी भयानक होंगें . लोकतंत्र को कम करने का नतीजा यह होगा कि तानाशाही प्रवृत्तियाँ बढ़ेगी . इसलिए लोकतंत्र की मात्रा बढ़ा कर चाहे थोड़ी तकलीफ भी हो लेकिन उसको ही आगे किया जाना चाहिए और राजनीतिशास्त्र के बारे में शौकिया प्रवचन करने वाले महात्मा टाइप लोगों की बात को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए .

Monday, March 1, 2010

मेरा गाँव , जो होली के दिन ज़रूर याद आता है

शेष नारायण सिंह

होली के दिन मुझे अपने गाँव की बहुत याद आती है .सुलतान पुर जिले में मेरा बहुत छोटा सा गाँव है . उसका नाम कहीं भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं है . सरकारी रिकॉर्ड में पड़ोस के गाँव का नाम है . मेरा गाँव उसी का अटैचमेंट है.. मेरे बचपन में होली एक ऐसा त्यौहार था जब सारा गाँव साथ साथ हो जाता था. बाकी तो कोई त्यौहार इस रुतबे का नहीं होता था. हाँ अपनी बेटियों की शादी में पूरा गाँव एक साथ खड़ा रहता था..जब मैंने अपने गाँव के बाहर की दुनिया देखनी शुरू की तब मुझे लगने लगा था कि हमारा गाँव गरीब आदमियों का गाँव था. सन ६१ की जनगणना में मैं लेखपाल के साथ गेरू लेकर जुटा था. तब कुल २६ परिवार थे मेरे गाँव में .मैंने हर घर के सामने, जो भी लेखपाल जी ने बताया था,उसे गेरू से लिखा था.. . अब तो शायद ८० परिवार होंगें. खेत उतना ही . आबादी की ज़मीन उतनी ही . लेकिन जनसँख्या चार गुनी हो गयी है .. उन्ही २६ परिवारों के लोग होली के दिन ऐसे हो जाते थे जैसे एक ही घर के हों...मेरे गाँव में कई जातियों के लोग रहते थे. ब्राह्मणों की दो उप जातियां थीं,पाण्डेय और मिश्र ..ठाकुरों की पांच उपजातियां थीं, चौहान , गौतम ,बैस, परिहार और राजकुमार . नाऊ, कहार और दलितों के भी परिवार थे . .पूरे गाँव के लोग एक दूसरे के भाई, बहन , काकी, काका, बाबा, आजी, भौजी जैसे रिश्तों में बंधे थे . कई साल बाद मेरी समझ में यह बात आई कि यह सारे रिश्ते माने मनाये के थे . कहीं भी रिश्तेदारी का कोई आ़धार नहीं था.. गाँव में मेरे सबसे प्रिय थे हमारे फूफा. वे दलित थे, ससुराल में रहते थे, दूलम नाम था उनका. उनकी पत्नी गाँव के ज्यादातर लोगों की फुआ थीं. बूढ़े लोग उनका नाम लेते थे .. होली के दिन मिलने वाले कटहल की सब्जी और दाल की पूरी की याद आज भी मुझे होली के दिन अपने गाँव में जाने के लिए बेचैन कर देती है . मेरे गाँव में पढ़े लिखे लोग नहीं थे . केवल एक ग्रेजुएट थे पूरे गाँव में . बाद में उन्होंने पी एच डी तक की पढाई की . स्कूल जाने वाले सभी बच्चे उन्हीं डॉ श्रीराज सिंह को ही आदर्श मानते थे.

१९६७ में आई हरित क्रान्ति के साथ मेरे गाँव में लोगों के सन्दर्भ बदलना शुरू हुए. कुछ लोगों ने किसी तरह से कुछ पैसा कौड़ी इकठ्ठा करके औरों की ज़मीन खरीदना शुरू कर दिया . गरीबी का मजाक उड़ना शुरू हो गया और इंसानी रिश्ते हैसियत से जोड़ कर देखे जाने लगे. . मेरे गाँव के लोग कहा करते थे कि हमारे गाँव में कभी पुलिस नहीं आई थी. लेकिन ज़मीन की खरीद के साथ शुरू हुई बे-ईमानी के चलते फौजदारी हुई , सर फूटे, मुक़दमे बाज़ी शुरू हुई. और मेरा गाँव तरह तरह के टुकड़ों में विभाजित हो गया. . कुछ साल बाद गाँव के ही एक बुज़ुर्ग का क़त्ल हुआ . फिर गाँव के लोग कई खेमों में दुश्मन बन कर बँट गए . कुछ साल पहले जब मैं अपने गाँव गया था तो लगा कि कहीं और आ गया हूँ. मेरे आस्था के सारे केंद्र ढह गए हैं . लोग होली मिलने की रस्म अदायगी करते हैं . ज़्यादातर परिवारों के नौजवान किसी बड़े शहर में चले गए हैं . कुछ लड़कों ने पढ़ाई कर ली है लेकिन खेती में काम करना नहीं चाहते और बेरोजगार हैं . मेरे गाँव की तहसील पहले कादीपुर हुआ करती थी , नदी पार कर के जाना होता था . लेकिन अब तहसील ३ किलोमीटर दूर लम्भुआ बाज़ार में है. . मेरे गाँव के कुछ हों हरा लडके अब तहसील में दलाली कारते हैं . कुछ नौजवानों का थाने की दलाली का अच्छा कारोबार चल रहा है .. मेरा गाँव अब मेरे बचपन का गाँव नहीं है .लेकिन यहान दूर देश में बैठे मैं अपने उसी गाँव की याद करता रहता हूँ जो मेरे बचपन की हर याद से जुडा हुआ है .. जिसमें मेरी माँ का रोल सबसे ज्यादा स्थायी है . मेरी माँ जौनपुर शहर से लगे हुए एक गाँव के बहुत ही संपन्न किसान kee बेटी थीं, . मेरे नाना के खेत में तम्बाकू और चमेली की कैश क्रॉप उगाई जाती थी. और इस सदी की शुरुआत में वे मालदार किसान थे. १९३७ में उन्होंने अपनी बेटी की शादी अवध के एक मामूली ज़मींदार परिवार में कर दिया था . मेरे पिता के परिवार में शिक्षा को कायथ कारिन्दा का काम माना जाता था और जब मेरे माता- पिता की शादी के १४ साल बाद ज़मींदारी का उन्मूलन हो गया तब लगा कि सब कुछ लुट गया . सारा अपराध उसी गंधिया का माना जाता था , बाद में वही गंधिया मेरा देवता बना और आज मैं मानता हूँ कि अगर महात्मा गाँधी न पैदा हुए होते तो भारत ही एक न होता . मेरी माँ ने महात्मा गांधी को कभी गाली नहीं दी.लेकिन उसी वक़्त मेरी माँ को एहसास हो गया किशिक्षा होती तो गरीबी का वह खूंखार रूप न देखना पड़ता जो उसने जीवन भर झेला. बहरहाल अब मेरे गाँव में पहले जैसा कुछ नहीं है लेकिन हर होली के दिन मुझे अपने गाँव की याद बहुत आती है . क्या करूँ मैं ? ज़ाहिर है उस अपनेपन को याद करके पछताने के सिवा मेरे पास कोई रास्ता नहीं है .

मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा!

कवि ,लेखक और चिन्तक अरविन्द चतुर्वेद का यह शाहकार मुझे इतना अच्छा लगा कि मन ने कहा , हाय हसन ,हम न हुए. बिना उनको बताये, इसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूँ. देखें क्या होता है .
http://yaarkahani.blogspot.com/2010/02/blog-post_28.html


अरविंद चतुर्वेद


सृष्टि की सर्वोत्तम रचना होकर भी पुरूष रंगों के मामले में प्रकृति से कई हाथ पीछे है। प्रकृति हमसे कहीं ज्यादा रंगीन है। उसके खजाने में रंग ही रंग हैं। आदमी ने रंगों के आचरण का पहला पाठ भी प्रकृति से ही पढ़ा होगा। यानी रंगों की पाठशाला में प्रकृति की भूमिका शिक्षक की है और पुरूष की महज एक छात्र की। भांति-भांति के पशु-पक्षी हमसे ज्यादा रंग-बिरंगे हैं और तितलियां तो खैर उड़ते-थिरकते रंग ही हैं। हालांकि ये सब न फैशन शो लगाते हैं और न कैटवाक करते हैं। इसकी जरूरत हमें पड़ती है, क्योंकि जैसे-जैसे आदमी के भीतर के रंग गायब होते जाते हैं, वैसे-वैसे वह बाहर ही बाहर रंग तलाशने लगता है। मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा! लेकिन यह जरा दार्शनिक किस्म की बात हो गई, इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं।
फिर भी होली का त्यौहार है- रंगों का उत्सव, तो भीतरी रंग के लिए कबीर को याद करना ही पड़ेगा- लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल/ लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। ऐसी सम्पूर्ण रंगीनी क्यों नहीं है हमारे मिजाज में? पहले थी लेकिन आज क्यों नहीं है। एक तरफ तो आदमी के भीतर के रंग सूखते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे राजनीति और साम्प्रदायिकता के शिकार होते गए हैं। एक सम्प्रदाय हरे रंग का दीवाना है तो दूसरा केशरिया रंग ले उड़ा है। जिसे दोनों सम्प्रदायों की राजनीति करते हुए अपनी रोटी सेंकनी है, वह दुरंगा हो गया है। एक मोहतरमा तो नीले रंग पर कब्जा जमाकर नीलिमा ही बन बैठी हैं। इस बदरंग परिदृश्य में भीतर के रंग सूखगें नहीं तो क्या होगा?
हाय, कहां हो नीलांजना! होली का त्यौहार है और तुम उदास खोई-खोई-सी बैठी हो? वेलेंटाइल डे जैसे प्रेम दिवस को पानी पी-पीकर कोसने वाले संस्कृति के वीर बांकुड़े होली के हास-उल्लास, रंग-उमंग और रस रंग को बनाए रखने के लिए क्या कर रहे हैं? राग फाग गाते हुए, अबीर गुलाल उड़ाते हाथों में रंग पिचकारी लिए सबको रंगों में सराबोर कर देने के लिए क्या उनकी टोलियां सड़कों पर निकलेंगी? उनके मन में वेलेंटाइन के प्रति केवल घृणा भरी है, विद्वेष और उन्माद ही भरा है या होलिकोत्सव के लिए वह राग-अनुराग भी है, जो सबको प्रेम के रंग में सराबोर कर दे! कहीं उनकी होली की तैयारी क्यों नहीं है, जो ढोल-मंजीरा बजाते हुए फाग गा सकते हैं। अधिक से अधिक यही होगा कि होली पर फिल्मों के गाने बजेंगे-होली आई रे कन्हाई या फिर रंग बरसे, भीजे चुनर वाली..., थोड़ा हुल्लड़ होगा, कुछ लोग रंग में भंग करेंगे और होली की जैसे-तैसे रस्म अदा कर दी जाएगी। सच्चाई तो यह है कि दूसरे लोकोत्सवों और तीज-त्यौहारों की तरह होली पर भी हमारी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है।
दरअसल, रंगों का त्यौहार होली हो या दूसरे लोकोत्सव हों, सभी प्रकृति के सहचार में उपजी संस्कृति के ही अंग हैं। चूंकि आज हम प्रकृति विरोधी हो गए हैं इसलिए तीज-त्यौहारों की संस्कृति भी हमसे गाहे बगाहे छूटती जा रही है। गांवों के विनाश की कीमत पर जिस शहरी संस्कृति का हमने विकास किया है, उसमें प्रकृति का तो कोई स्थान है नहीं, लिहाजा हमारे तीज-त्यौहार या तो उसमें अनफिट हो जाते हैं या फिर उनका स्वरूप विकृत हो जाता है। हम जितने बड़े शहर में रहते हैं, तीज-त्यौहारों से हमारी दूरी भी उतनी ही बढ़ जाती है। उसकी आत्मा, उसका मन, जीवन के राग, उमंग, उल्लास सभी उससे विदा ले लेते हैं। आदमी महज एक कामकाजी मशीन बनकर रह जाता है और त्यौहार प्रकृति की छांह से अनाथ होकर आदमी के लिए आनंदोत्सव के बजाय पीड़ादायक अनुभूति बन जाते हैं। लाखों की भीड़ में जहां आदमी इतना अकेला हो गया है कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी को पहचानता तक नहीं, जहां लोक ही नहीं बसता, वहां लोकोत्सव कैसे जीवित रह सकते हैं? आज हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों की सभ्य सड़कों पर होली मनाने वाले अलमस्तों की टोली ढोलक-मंजीरे की ताल पर रंग-गुलाल उड़ाते, फाग गाते, नाचते-झूमते निकले और सबको रंग-उमंग से सराबोर कर दे! हां, यह जरूर है कि महानगरों की उन बस्तियों में जहां आज भी गांवों का बचा-खुचा हस्तक्षेप है, तीज-त्यौहार के मौके पर एक चहल-पहल हो जाया करती है। दिल्ली-मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में ये इलाके शहर सीमांत पर या पुरानी बस्तियों के रूप में हैं। वरना शहरीकरण की प्रक्रिया में पनपी अपदूषण की संस्कृति में लोक उत्सव और लोकगीतों की जगह ही कहां है। भौतिकता में ऊभचूभ करती शहरी संस्कृति में हर चीज उत्पादन और खरीद-फरोख्त के दायरे में है, सो इस उत्पादक और बाजार मनोवृत्ति की छाया में तीज-त्यौहारों का रूप भी बदला और विकृत हुआ है। होली में प्राकृतिक रंगों की जगह वार्निश, रासायनिक रंग, पिचकारियों के स्थान पर रंग भरे गुब्बारे फें क कर दूसरे को रंग देना और लोकरंग में सराबोर फाग के रसिया की जगह शोर भरे फिल्मी गानों के कैसेट पर फूहड़ ढंग से कूल्हे लचकाकर उछल-कूद करते युवक - आम शहरी होली की यही तस्वीर है। असल में प्रकृति की सहचारिता को छोड़कर भौतिकता का बीमार आदमी जो इकतरफा खेल खेल रहा है, उसमें लोकजीवन की उष्मा और आत्मा को बचाया ही नहीं जा सकता। महानगरों की बात छोड़ भी दें तो लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर, पटना, रांची, जबलपुर जैसे मंझोले दर्जे के शहरों में भी गांवों के लोक जीवन का हस्तक्षेप दिन-प्रतिदिन तेजी से घटता गया है। इन शहरों का स्वभाव भी ग्रामोन्मुखी न होकर महानगरोन्मुखी होता गया है। इसीलिए इन शहरों में भी दस बरस पहले होली के राग-रंग में जो स्वाभाविता और अंतरंगता दिखाई पड़ती थी, उसकी जगह अब फूहड़ कृत्रिमता और प्रदर्शनप्रियता की झलक मिलती है। चूंकि त्यौहार सामाजिकता की अभिव्यक्ति होते हैं और शहर में आदमी का सामाजिक होना आधुनिकता के लिहाज से पिछड़ापन है, इसलिए होली जैसे उन्मुक्तता और उमंग के उत्सव में असामाजिकता का शहरों में भयानक ढंग से प्रवेश हुआ है। शायद होली ही हमारा एक ऐसा पर्व है जिसमें स्त्रियों की भागीदारी सबसे कम होती है। विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थाओं में होली के चार-पांच दिन पहले से ही लड़कियों का आना बंद हो जाता है। यह त्यौहार उनके लिए आक्रामक होता है। होली के अवसर पर स्त्रियों के अंगों का बखान करने वाले जिस तरह के द्विअर्थी गीत-संगीत के कैसेट नंगी भाषा में सार्वजनिक तौर पर पेश किए जाते हैं, वे इस हद तक स्त्री विरोधी होते हैं कि उन्हें सुनने और झेलने का साहस कोई स्त्री जुटा ही नहीं सकती। क्या हम होलिकात्सव में आई विकृतियों को दूसरे प्रदूषणों की तरह ही दूर करने की चिंता के साथ एक स्वस्थ सुंदर जीवन-पर्यावरण रचने का सांस्कृतिक पराक्रम नहीं दिखा सकते? तनी हुई रस्सी पर नट-खेल की अभ्यासी हमारी कसी हुई दिनचर्या के तनाव को ढीला कर हमें उन्मुक्त और अनौपचारिक बनाकर राग-अनुराग और उमंग-उल्लास से भर देने वाला रंगोत्सव दस्तक दे रहा है। आइए, सारी कुंठाएं मिटाकर हम इसका स्वागत करें और अपने को इसके योग्य बनाएं।

Saturday, February 27, 2010

मीडिया,शोषित-पीड़ित वर्गों की राजनीति और मौजूदा बजट

शेष नारायण सिंह

अब तक बजट पर जितनी प्रतिक्रियाएं आई हैं उनमें मायावती की टिप्पणी सबसे सही है . उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि "बजट में विदेशी पूंजीपतियों को खुले बाजार में अनाप-शनाप मुनाफा कमाने का मौका दिया गया है। यह बजट पूंजीपति समर्थक तथा धन्नासेठों को माला-माल करने वाला है." एक अन्य प्रतिक्रिया में मायावती ने कहा है "कि बजट में सोशल सेक्टर, ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के निर्धन लोगों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया गया है ,बल्कि आंकड़ों की बाजीगरी से देश के लोगों को गुमराह करने की कोशिश की गयी है."
हो सकता है कि यह टिप्पणी अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की लफ्फाजी के हिसाब से बहुत उपयुक्त न हो , अर्थशास्त्र की सांचाबद्ध सोच से हट कर हो लेकिन यह पक्का है कि देश के अवाम की भाषा यही है . यह भी हो सकता है कि यह दिल्ली और मुंबई के काकटेल सर्किट वालों की समझ में भी न आये और दिल्ली में अड्डा जमाये पूंजीपतियों के संगठनों के नौकर अर्थशास्त्री इस तर्क को टालने की कोशिश करें लेकिन आम आदमी का सच यही है यह सच है कि जब से कांग्रेस ने विकास का समाजवादी रास्ता छोड़ने की राजनीति पर काम करना शुरू किया उसी वक़्त से वह शोषित-पीड़ित वर्ग जो महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस में अपना भविष्य देख रहा था ,उसने उस से कन्नी काटना शुरू कर दिया . राजनीतिक प्रक्रिया का यह विकास उत्तर प्रदेश में सबसे प्रमुखता से देखा जा रहा था.. इस क्षेत्र में दलितों के पक्षधरता की राजनीति के आधुनिक युग के विद्वान्, कांशीराम भी अपना प्रयोग कर रहे थे . उन्होंने कांग्रेस के पूंजीपति परस्त झुकाव को भांप लिया था और तय कर लिया था कि देश के गरीब आदमी को कांग्रेसी स्टाइल के विकास से बचा लेंगें जिसमें शोषित पीड़ित जनता को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के विकास का साधन बनाना था. आम आदमी कहीं सस्ते मजदूर के रूप में तो कहीं पूंजीपतियों के कारखानों में बनाए गए फालतू सामान के खरीदार के रूप में इस्तेमाल हो रहा था. .कांशीराम को तो यह भी मालूम था कि पूंजीपति वर्ग के क़ब्ज़े वाला प्रेस भी उनकी बात को नहीं छापेगा ,शायद इसी लिए उन्होंने बहुत ही सस्ते कागज़ पर छपे हुए पम्फलेटों के ज़रिये अपनी बात दलितों और शोषितों तह पंहुचायी थी.. संवाद कायम करने की दिशा में उनका यह प्रयोग लगभग क्रांतिकारी था..उन्होंने गावों में अनुसूचित जातियों के कुछ शिक्षित नौजवानों की पहचान कर ली थी . संगठन का काम देखने वाले डी एस फोर( बहुजन समाज पार्टी का पूर्व अवतार) के लोग इन नौजवानों से संपर्क में रहते थे. कांशीराम के पम्फलेट दिल्ली में करोलबाग़ और शाहदरा के कुछ प्रेसों में छापे जाते थे और लगभग पूरे उत्तर प्रदेश के इन कार्यकर्ताओं तक पंहुच जाते थे . . उन्होंने अखबारों का इस्तेमाल अपनी बात पंहुचाने के लिए कभी नहीं किया. डाइरेक्ट संवाद की इस विधा का कांशीराम ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया . उनका कहना था कि प्रेस और मीडिया पर मनुवादियों का क़ब्ज़ा है . वे अगर दलितों की कोई बात छापेंगें तो उसे तोड़-मरोड़ कर अपनी बात साबित करने के लिए ही छापेंगें . इस लिए कई बार वे अपनी मीटिंग से तथाकथित मुख्य धारा के पत्रकारों को भगा भी देते थे ... इस तरीके का इस्तेमाल करके उन्होंने बड़ी से बड़ी सभाएं कीं. अखबारों में कहीं ज़िक्र तक नहीं होता था और रैली के दिन अपनी अपनी साइकिलों से या पैदल बहुत बड़ी संख्या में दलित जनता इकट्ठा हो जाती थी. . एक बार सितम्बर १९९४ में मुझे उन्होंने,लखनऊ से दिल्ली के जहाज़ में मुझे पकड़ लिया . उस हफ्ते राष्ट्रीय सहारा अखबार के सम्पादकीय पृष्ठ पर मेरा एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था कि "जब जाति टूटेगी,तभी समता होगी". परिचय होने पर उन्होंने कहा कि समता के लिए जाति का टूटना ज़रूरी नहीं है . उत्तर प्रदेश में उन्होंने मुलायम सिंह यादव की सरकार बनवा दी थी . उन्होंने कहा कि जाति के टूटने के पहले ही समता आ जायेगी. सत्ता पर शोषित पीड़ित जनता के कब्जे का फायदा सामाजिक बराबरी कायम करने में होगा मैंने जब कहा कि वह लेख डॉ. अंबेडकर के विचारों के हवाले से लिखा गया है तो उन्होंने साफ़ कहा था कि आप अपनी सोच बदलिए . नयी राजनीतिक सच्चाई यह है कि जाति भी रहेगी और समता भी रहेगी. आज करीब १५ साल बाद उनकी बाद सही होती नज़र आ रही है.हालांकि उस वक़्त मैं उनकी बात से सहमत नहीं हुआ था .लेकिन उनकी सोच की जो मौलिकता थी, वह हमेशा याद आ जाती है समता मूलक समाज की शुरुआत की उनकी बात १५ साल बाद सही साबित होने की डगर पर है..आज जब मायावती का बजट संबंधी बयान अखबारों में देखा तो एक बार लगा कि बहुत ही सीधे और सपाट तरीके से , साधारण भाषा में आम आदमी की तकलीफों का उन्होंने ज़िक्र कर दिया है .कांशी राम के आन्दोलन में अभिजात्य वर्ग की राजनीतिक समझ से लोहा लेना था , सो उन्होंने अपना तरीका अपनाया . आज ज़रुरत इस बात की है कि उसी आभिजात्य और सामंती सोच वाले वर्ग की आर्थिक समझ के खिलाफ शोषित पीड़ित जनता की आवाज़ को उठाया जाए . और मायावती उस काम को बखूबी निभा रही हैं .बजट का विरोध, बी जे पी के नेतृत्व में कुछ अन्य पार्टियों ने भी लिया लेकिन उस विरोध को उनकी अपने हित की लड़ाई कहना ही ठीक होगा क्योंकि उन सभी पार्टियों के लोग कभी नं कभी केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं और लगभग सभी पर पूंजीवादी साम्राज्यवादी सत्ता के हित चिन्तक होने के आरोप लग चुके हैं. हो सकता है कि यह आरोप गलत होने लेकिन इस पार्टियों के बड़े नेताओं के बड़े पूंजीपतियों से मधुर सम्बन्ध की सच्चाई को इनकार नहीं किया जा सकता .

पिछले १८ वर्षों से देश में आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के नाम पर देश की कमाई का एक बड़ा हिस्सा विदेशी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है . दुर्भाग्य यह है कि देश में वामपंथी पार्टियों के अलावा कोई इसका विरोध नहीं कर रहा है ..वामपंथी नेता भी अपनी सांचाबद्ध सोच के बाहर जाने को तैयार नहीं हैं. ऐसी हालत में मायावती का दो टूक बयान स्वागत करने की चीज़ है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए.. और हो सकता है कि देश के दलितों और गरीब आदमियों की बात को उनकी भाषा में समझने के लिए दिल्ली की रायसीना पहाड़ियों पर रहने वाले शासक वर्गों को भी मजबूर किये जा सकें

Thursday, February 25, 2010

भारत -पाक वार्ता, ढाक के तीन पात

शेष नारायण सिंह
अमरीका की तरफ से बार बार की गयी पहल के बाद करीब १४ महीने बाद ,भारत और पाकिस्तान के बीच एक बार फिर बात-चीत का सिलसिला शुरू हो गया है .विदेश सचिव स्तर की बात-चीत से कुछ नहीं निकलेगा ,यह सबको मालूम था . लेकिन दोनों देशों की जनता के लिए यह एक ऐसी गोली है जिसका बीमारी पर कोई असर नहीं पड़ना था लेकिन शान्ति के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए यह एक लाली पाप ज़रूर है.. भारत और पाकिस्तान के बीच जो भी समस्या है ,वह राजनीतिक है . ज़ाहिर है कि उसका हल भी राजनीतिक होना चाहिए . इस लिए जब भी सचिव स्तर की बीत चीत होती है उसे असली बात की तैयारी के रूप में ही देखा जाना चाहिए.लेकिन दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य बनाने की कोशिश करने वालों को और भी बहुत कुछ ध्यान में रखना चाहिए. अपने ६३ साल के इतिहास में पाकिस्तान के शासक यह कभी नहीं भूले हैं कि भारत उनका दुश्मन नंबर एक है . और उन्होंने अपनी जनता को भी यह बात भूलने का कभी भी अवसर नहीं दिया है .शुरुआती गलती तो पाकिस्तान के संस्थापक , मुहम्मद अली जिनाह ने ही कर दी थी . उन्होंने बंटवारे के पहले अविभाजित भारत के मुसलमानों को मुगालते में रखा और सबको यह उम्मीद बनी रही कि उनका अपना इलाका पाकिस्तान में आ जाएगा लेकिन जब सही पाकिस्तान का नक्शा बना तो उसमें वह कुछ नहीं था जिसका वादा करके जिनाह ने मुसलमानों को पाकिस्तान के पक्ष में लाने की कोशिश की थी और सफल भी हुए थे ... बाद में लोगों की नाराज़गी को संभालने की गरज से पाकिस्तानी शासकों ने कश्मीर , हैदराबाद और जूनागढ़ की बात में अपने देश वालों को कुछ दिन तक भरमाये रखा. लेकिन काठ की हांडी के एक उम्र होती है और वह बहुत दिन तक काम नहीं आ सकती . वही पाकिस्तान के हुक्मरान के साथ भी हुआ. . जिसका नतीजा यह है कि पकिस्तान में आज सारे लोगों की एकता को सुनिश्चित करने के लिए कश्मीर की बोगी का इस्तेमाल होता है . पिछले ६० वषों में इतनी बार कश्मीर को अपना बताया हैं इन बेचारे नेताओं और फौजियों ने कि अब कश्मीर के बारे में कोई भी तर्क संगत बात की ही नहीं जा सकती है . जहां तक भारत का सवाल है, वह कश्मीर को अपना हिस्सा मानता है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को अपने इलाके में मिलाना चाहता है . . पाकिस्तानी हुकूमतें कहती रही हैं कि कश्मीर के मसले पर उन्होंने भारत से ३ युद्ध लड़े हैं . लिहाज़ा वे कश्मीर को छोड़ नहीं सकते.बहर हाल यह पाकिस्तानी अवाम का दुर्भाग्य है कि अपनी आज़ादी के ६३ वर्षों में उन्हें महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू जैसा कोई नेता नहीं मिला. दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़ी गयी. वास्तव में पाकिस्तान की स्थापना भारत की आजादी की लड़ाई को बेकार साबित करने के लिए अंग्रेजों की तरफ से डिजाइन किया गया एक धोखा है जिसे जिनाह को उनकी अँगरेज़ परस्ती के लिए इनाम में दिया गया था .

आज की हकीक़तें बिलकुल अलग हैं.आज जब पाकिस्तानी विदेश सचिव दिल्ली में बात कर रहे हैं , उनके ऊपर पाकिस्तानी सत्ता के ३ केन्द्रों को खुश रखने का लक्ष्य है . ज़ाहिर तौर पर तो वहां पाकिस्तानी राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री हैं . जिनकी अपनी विश्वसनीयता की कोई औकात नहीं है .वे दोनों ही वहां इस लिए बैठे हैं कि उन्हें अमरीका का आशीर्वाद प्राप्त है . वे दोनों ही अमरीका के हुक्म के गुलाम हैं , जो भी अमरीका कहेगा उसे वे पूरा करेंगें ... दूसरी पाकिस्तानी ताक़त का नाम है , वहां की फौज. शुरू से ही फौज़ ने भारत विरोधी माहौल बना रखा है . उसी से उनकी दाल रोटी चलती है . और शायद इसी लिए पाकिस्तानी समाज में भी फौजी होना स्टेटस सिम्बल माना जाता है . आई एस आई भी इसी फौजी खेल का हिसा है . तीसरी ताक़त है वहां का आतंकवादी . इसे भी सरकार और फौज का आशीर्वाद मिला हुआ है. धार्मिक नेताओं के ज़रिये बेरोजगार नौजवानों को जिहादी बनाने का काम १९७९ में जनरल जिया उल हक ने शुरू किया था . उसी दौर में आज आतंक का पर्याय बन चुका हाफ़िज़ मुहम्मद सईद , जनरल जिया उल हक का सलाहकार बना था . और अब वह इतना बड़ा हो गया है कि आज पाकिस्तान में कोई भी उसको सज़ा नहीं दे सकता . जिया के वक़्त में उसका इतना रुतबा था कि वह लोगों को देश की बड़ी से बड़ी नौकरियों पर बैठा सकता था. बताते हैं कि पाकिस्तानी हुकूमत के हर विभाग में उसकी कृपा से नौकरी पाए हुए लोगों की भरमार है , जिसमें फौजी अफसर तो हैं ही, जज और सिविलियन अधिकारी भी शामिल हैं ..बहुत सारे नेता भी आज उसकी कृपा से ही राजनीति में हैं . पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री, नवाज़ शरीफ भी कभी उसका हुक्का भरते थे . भारत के खिलाफ जो भी माहौल है , उसके मूल में इसी हाफ़िज़ सईद का हाथ है . बताया गया है कि पाकिस्तान का मौजूदा विदेश मंत्री , शाह महमूद कुरेशी भी इसी हाफ़िज़ सईद के अखाड़े का एक मामूली पहलवान है . ऐसी हालत में विदेश सचिव स्तर की बात चीत से कुछ भी नहीं निकलना था और न निकलेगा. भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश सचिवों की बात चीत को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए ..शायद इसी लिए वार्ता शुरू होने से पहले ही चीन में जाकर पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी ने चीन को बिचौलिया बनाने की बात कर डाली. सब को मालूम है कि इस सुझाव को कोई नहीं मानने वाला है. पाकिस्तान की रोज़मर्रा की रोटी पानी का खर्च उठा रहे अमरीका को भी यह सुझाव नागवार गुज़रा है . . पाकिस्तानी फौज को मालूम है कि अगर भारत को सैन्य विकल्प का इस्तेमाल करना पड़ा तो पाकिस्तान का तथाकथित परमाणु बम धरा रह जाएगा और पाकिस्तान का वही हश्र हो सकता है जो १९७१ की लड़ाई के बाद हुआ था लेकिन फौज किसी कीमत पर दोनों देशों के बीच सामान्य सम्बन्ध नहीं होने देगी क्योंकि अगर भारत और पाकिस्तान में दुश्मनी न रही तो पाकिस्तानी फौज़ के औचित्य पर ही सवाल पैदा होने लगेगें. आई एस आई और उसके सहयोगी आतंकवादी संगठनों को भी भारत विरोधी माहौल चाहिए क्योंकि उसके बिना उन का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा. जहाँ तक ज़रदारी-गीलानी जोड़ी का सवाल है उनकी तरफ से भारत से बात चीत का राग चलता रहेगा क्योंकि अगर उन्होंने भी इस से ना नुकुर की तो अमरीका नाराज़ हो जाएगा और अमरीका के नाराज़ होने का मतलब यह है कि पकिस्तान में भूखमरी फैल जायेगी. . आज पाकिस्तान की बुनियादी ज़रूरतें भी अमरीकी खैरात से चलती हैं . इस लिए बात चीत की प्रक्रिया को चलाते रहना उनकी मजबूरी है. . लेकिन उनकी राजनीतिक हैसियत इतनी नहीं है कि वे कोई फैसला ले सकें . इस लिए पूरे भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि भारत और पकिस्तान के बीच समबन्धों में निकट भविष्य में कोई सुधार नहीं होने वाला है ..

Friday, February 19, 2010

दुनिया भर में साइबर चोरों का आतंक-- अंतर-राष्ट्रीय सुरक्षा पर ख़तरा

शेष नारायण सिंह



दुनिया के सामने एक अजीब विपदा आ पड़ी है . दुनिया भर में करीब ढाई हज़ार ठिकानों पर लगे हुए लगभग ७५ हज़ार कम्प्यूटर प्रणालियों को साइबर अपराधियों ने अपने निशाने में ले लिया है . इस तरह से दुनिया भर में लाखों कार्यालयों का डाटा, हैकरों के रहमो करम पर है .ख़तरा यह भी है कि इस चुराई गयी सूचना का कोई भी इस्तेमाल हो सकता है . हैक किये गए कम्प्यूटरों से निकाली गयी सूचना अगर आतंकवादी समूहों के हाथ लग गयी तो दुनिया का बहुत ज्यादा नुकसान हो सकता है ...अमरीका के नामी अखबार वाशिंगटन पोस्ट ने यह सनसनी खेज़ खुलासा किया है .

साइबर अपराधियों ने अपना काम २००८ में शुरू किया लेकिन इसका पता करीब एक महीने पहले लगा .अभी तक की जानकारी के हिसाब से कुछ बड़ी कंपनियों के रिकॉर्ड, क्रेडिट कार्ड के आंकड़े, और स्वास्थ्य संबंधी जानकारी पर इन साइबर अपराधियों ने हाथ साफ़ कर दिया है ..हैकरों का यह जाल दुनिया के लगभग सभी देशों में फैला हुआ है ..अमरीकी शहर वर्जीनिया की एक कम्प्यूटर सुरक्षा कंपनी, नेट विटनेस की खोज के बाद यह सारी जानकारी सम्बंधित लोगों को हासिल हुई है ..अभी पिछले महीने गूगल ने दावा किया था कि उनकी बहुत सारी गुप्त सूचना को हैक कर लिया गया है .गूगल ने उस वक़्त कहा था कि यह सारी कारस्तानी चीन में शुरू हुई थी .. गूगल के अलावा वित्त, सुरक्षा , ऊर्जा, और मीडिया की क़रीब ३० बड़ी अमरीकी कंपनियों का डाटा भी साइबर चोरों के लिए खुली किताब बन चुका है ..

दिलचस्प बात यह है कि अब कम्पूटरों की सुरक्षा के लिए जो भी तरीके उपलब्ध हैं वे इस तरह के हमले केलिए नाकाफी हैं..यह हैकर इतने बेहतरीन कमांड और कंट्रोल सिस्टम इस्तेमाल कर रहे हैं कि अगर किसी तरीके से उन का पता भी लगा लिया जाए तो कम्पूटरों में सुरक्षित जानकारी तक उनकी पंहुच को रोका नहीं जा सकता.जानकार बताते हैं कि लोगों के लोगिन की पूरी जानकारी इकठ्ठा करने का मतलब यह है कि साइबर अपराधियों के हाथ वह तरीके लग गए हैं जिस से वे दुनिया की वित्तीय व्यवस्था और बैंकों को भारी नुकसान पंहुचा सकते हैं .. अमरीकी सॉफ्टवेर सुरक्षा कंपनी नेट विटनेस के मुखिया अमित योरन का कहना है कि उनके सहयोगी इस बात का पता लगाने में जुटे हैं कि अब तक कितना नुकसान हो चुका है .. नुकसान को कम करने की तरकीबों पर भी काम हो रहा है . साइबर अपराधियों के इस खेल का शिकार जो कम्पनियां हुई हैं .अमरीका के सम्मानित अखबार वाल स्ट्रीट जर्नल केअनुसार उसमें कार्डिनल हेल्थ और मर्क जैसी बड़ी कम्पनियां हैं.. इनके अलावा शिक्षा संस्थाएं, ऊर्जा कम्पनियां , बैंक और इन्टरनेट सेवाएँ प्रधान करने वाली कई बड़ी कम्पनियां इस अपराध के लपेटे में आ गयी हैं .अमरीकी सरकार के १० विभाग भी हैकिंग के शिकार हुए हैं . अमरीकी सरकारी सूत्रों ने दावा किया है कि इनमें सुरक्षा से सम्बंधित कोई भी एजेंसी शामिल नहीं है . अभी तक अमरीका , सउदी अरब , मिस्र, तुर्की और मेक्सिको में इस अपराध के शिकार हुए कम्पूटरों की जानकारी मिली है . इस सूची के बढ़ते जाने का ख़तरा बना हुआ है ...

Monday, February 15, 2010

पवार और बाल ठाकरे की दोस्ती पर भारी पड़ी मुंबई की जनता

शेष नारायण सिंह

शिव सेना की राजनीति का आख़री दौर शुरू हो गया है. एक हफ्ते में लगातार दो बार उनके इलाकाई नेता पुलिस के हाथों विधिवत पीटे गए हैं . अक्खी मुंबई में शिव सेना छाप बकैती का कोई पुछत्तर नहीं है .जिस कांग्रेस ने उसे शुरू करवाया और बाकायदा मदद की , उसके सभी नेता पल्ला झाड चुके हैं . सबसे अजीब बात तो यह है कि अपने विरोधियों की सियासी चमक को फीका करने के लिए पिछले ३० वर्षों से शिव सेना का इस्तेमाल कर रहे शरद पवार ने भी अपने ताज़ा बयान में शिव सेना से पिंड छुडाने की कसरत शुरू कर दी है .यह अलग बात है कि राहुल गाँधी वाली धुनाई के दिन ही शिव सेना वालों के हौसले पस्त हो गए थे . शिव सेना के युवराज अपनी बिल में विराजमान थे और उनके चचेरे भाई बहुत ही अदब से बात कर रहे थे . शिव सेना के संस्थापक को औकातबोध हो चुका था और वे भीगी बिल्ली के रूप में अपने घर के अन्दर छुप गए थे. कहीं कोई बयान नहीं था . ऐसी हालत में मुंबई में अराजकता फैला कर सियासत करने वाले ,केंद्रीय कृषि मंत्री, शरद पवार ने बाल ठाकरे के घर जाकर फर्शी सलाम बजाया . उनकी मंशा यह थी कि शिव सेना वालों को भड़काया जाए क्योंकि अगर मुंबई में अमन-चैन कायम हो गया तो उनकी राजनीतिक रौनक कमज़ोर पड़ जायेगी. . उनकी इस यात्रा से घर के अन्दर दुबके , बाल ठाकरे की हिम्मत बढ़ी और उन्होंने एक निहायत ही कमजोर विकेट पर खेलने के फैसला कर लिया. उन्होंने एक लोकप्रिय अभिनेता के खिलाफ मर्चा खोल दिया और १२ फरवरी को रिलीज़ होने वाली उसकी फिल्म के खिलाफ मैदान ले लिया . क्रिकेट के खेल का एक नियम है कि जब किसी मज़बूत खिलाड़ी के सामने कोई लूज़ बाल फेंकी जाती है तो एक ज़ोरदार छक्का लगता है ..लेकिन सियासत की क्रिकेट के नियम कुछ अलग हैं . इस खेल में जब कोई भी खिलाड़ी लूज़ बाल फेंकता है तो सैकड़ों छक्के लगते हैं और कई बार तो इस एक लूज़ बाल की वजह से उसकी टीम ही हार जाती है . मातोश्री जाकर बाल ठाकरे को भड़काने की शरद पवार की भड़ी में आकर शिव सेना ने वही बेवकूफी कर दी और अब शिव सेना मुंबई शहर में पूरी तरह से अलग थलग पड़ गयी है... मुसीबत में पड़े किसी भी साथी को मंझधार में छोड़ देने के खेल के उस्ताद, शरद पवार ने भी अब शिव सेना से पिंड छुडाने की कोशिश शुरू कर दी है ..

अब तक होता यह था कि शिव सेना का इस्तेमाल कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के नेता उन कामों के लिए करते थे , जो वे कानून के दायरे में रह कर खुद नहीं कर सकते थे .मुंबई के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में कम्युनिस्टों की हैसियत को कम करने के लिए उस वक़्त के कांग्रेसी नेताओं ने एक मामूली कार्टूनिस्ट को आगे करके शिवसेना की स्थापना करवाई थी. उस दौर के कांग्रेसी ही शिवसेना के संरक्षक हुआ करते थे . परेल के विधायक सुभाष देसाई का मुंबई के ट्रेड यूनियन हलकों में ख़ासा दबदबा था . वे कम्युनिस्ट थे . १९७० में उनकी हत्या कर दी गयी . आरोप शिव सेना पर लगा लेकिन जानकार बताते हैं कि उस वक़्त की कांग्रेसी सरकार ने शिव सेना प्रमुख को साफ़ बचा लिया .. बात में दत्ता सामंत के खिलाफ भी शिव सेना का इस्तेमाल किया गया . उनके नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों को सरकार ने ख़त्म किया और मुंबई का औद्योगिक नक्शा बदल दिया . जब कामगारों में शिव सेना की ताक़त बढ़ी तो मजदूरों के साथ साथ मिल मालिकों से भी वसूली जोर पकड़ने लगी और शिव सेना ने बाकायदा हफ्ता वसूली का काम शुरू कर दिया...यहाँ समझने वाली बात यह है कि जब दत्ता सामंत पर शिव सेना भारी पड़ी और उनकी हत्या हुई ,उस दौर में शरद पवार एक राजनीतिक ताक़त बन चुके थे . वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके थे .तब से अब तक शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे और शरद पवार की दोस्ती का सिलसिला जारी है और दोनों हमेशा एक दूसरे के काम आते रहे हैं ..मौजूदा दौर में भी उनकी कोशिश यही थी कि शिवसेना का इस्तेमाल करके दिल्ली में अपने आप को महत्वपूर्ण बनाए रखें लेकिन उनकी बदकिस्मती है कि आजकल दिल्ली में राज करने वाला कोई लल्लू नहीं है . दिल्ली में सोच समझ कर फैसले लेने की परंपरा शुरू हो गयी है . शायद इसी लिए जब वे बाल ठाकरे को चने की झाड पर चढ़ा कर वापस लौटे तो दिल्ली वालों ने बाल ठाकरे के लोगों की धुनाई की योजना बना ली. बेचारे बाल ठाकरे अपने घर में बैठ कर शरद पवार को गरिया रहे हैं और उनकी समझ में नहीं आ रहा है अब क्या करें ? क्योंकि यह बात सारी दुनिया जानती है कि अगर गुंडे से लोग डरना बंद कर दें तो उसकी दूकान बंद हो जाती है . शिव सेना में काम करने वालों को कोई तनख्वाह तो मिलती नहीं , उनका खर्चा- पानी तो मोहल्ले और झोपड़-पट्टी में वसूली से ही चलता है . जब गरीब आदमी शिव सेना के मुकामी कार्यकर्ता से डरना बंद कर देगा तो उसे पैसा क्यों देगा. और अगर शिव सैनिक होने के बावजूद शहरी लुम्पन को खाने पीने की तकलीफ होने लगेगी तो वह शिव सेना के साथ क्यों रहेगा .वह कोई और रास्ता देखने के लिए मजबूर हो जाएगा. . यहाँ यह देखना दिलचस्प होगा कि शिव सेना की न्युसांस वैल्यू ख़त्म होने के बाद बाल ठाकरे और उनका कुनबा तो पैदल हो ही जाएगा, शरद पवार की सियासत भी बहुत कमज़ोर हो जायेगी.

महाराष्ट्र की राजनीति का कोई भी जानकार बता देगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार की ताक़त में जब भी वृद्धि हुई, उसी दौर में राज्य और राजधानी मुंबई में शिव सेना को मजबूती मिली. १९७८-७९ से शुरू हुआ यह सिलसिला आज तक चल रहा है. १९९२-९३ के मुंबई दंगों के दौरान तो उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री सुधाकर राव नाईक ने श्रीकृष्ण कमीशन के सामने बयान दिया था कि तत्कालीन रक्षा मंत्री, शरद पवार ने सेना की तैनाती में अड़चन लगाई जिस से कि शिव सेना के दंगाई गुंडे उन इलाकों में लूट,आगज़नी और क़त्ल का नंगा कर सकें जहां बड़ी संख्या में मुसलमान रहते थे .. उसके बाद भी जब भी मौक़ा मिलता है ,शरद पवार शिव सेना की मदद करते रहते हैं . यह अलग बात है कि इस बार शिव सेना को आगे बढाने की उनकी कोशिश को सोनिया गाँधी और मनमोहन सिंह ने पकड़ लिया और वे आजकल अपने घाव चाटते देखे जा रहे हैं .. शिव सेना ने भी उनकी हमेशा मदद की है पिछले दिनों जब प्रधान मंत्री पद एक लिए शरद पवार की दावेदारी की बात चली थी, शिवसेना के मुखिया बाल ठाकरे खुल कर उनके पक्ष में आ गए थे ..

लेकिन एक फिल्म की रिलीज़ जैसे मुद्दे पर अपना सब कुछ दांव पर लगा देने की बेवकूफी कर के शिव सेना ने अपना सर्वनाश कर लिया है .. शाहरुख खान की फिल्म की मुखालिफत करके शिवसेना की अपनी गुंडई वाली ज़मीन को वापस लेने की कोशिश बहुत महंगी पड़ गयी है .और एक बार साफ़ हो गया है कि अब मुंबई की जनता के ऊपर ,शिवसेना के बड़े से बड़े नेता की घुड़की का कोई असर नहीं पड़ने वाला है ..वरना दादर इलाके में लोगों को घरों में बैठे रहने की नसीहत देने वाले पूर्व मुख्यमंत्री, मनोहर जोशी की बात पर लोग विचार करते.जो ११ फरवरी को घूम घूम कर कह रहे थे कि अगर पत्थर न खाना हो तो १२ फरवरी को सड़क पर न निकलें .. जो आदमी महाराष्ट्र का मुख्य मंत्री रह चुका हो और लोकसभा का अध्यक्ष रह चुका हो उसे सड़क छाप गुंडों की तरह लोगों को धमकाते देख कर मन में बहुत तकलीफ होती है . लेकिन सच्चाई यह है कि यही शिवसेना की सियासत है और इसी के सहारे उसकी दाल रोटी चलती है . लेकिन इस देश के लोक तंत्र और राजनीति में काम करने वाले लोगों के लिए यह शर्म की बात है कि शरद पवार जैसा राष्ट्रीय स्तर का नेता भी शिव सेना की दादागीरी के खेल में शामिल हो कर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करता है ..बहरहाल जो भी हुआ,एक बात तो पक्की है कि शाहरुख खान की फिल्म के बाद हुए घटनाक्रम से साफ़ हो गया है कि अब शिव सेना को गंभीरता से लेने वालों की संख्या में बहुत बड़ी कमी आई है .

Sunday, February 14, 2010

तबाह शिवसेना के कार्यकर्ताओं को मुख्य धारा में लाने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह

पहली बार मुंबई की सडकों पर शिव सेना अपमानित हुई है . इसके पहले कभी भी ऐसा दिन नहीं देखा था... परेल और दादर के औद्योगिक इलाकों में १९७० के आस पास इनकी ताक़त का अहसास होने लगा था . कम्युनिस्ट विधायक, कृष्णा देसाई की हत्या के बाद तो बहुत बड़ी संख्या में मिल मजदूर शिव सेना वालों से डरने लगे थे . दत्ता सामंत की हत्या के बाद से यह संगठन मुंबई और उसके उप नगरों में सबसे ताक़तवर जमात के रूप में माना जाने लगा था. बेरोजगार युवकों की टोलियाँ उन दिनों जार्ज फर्नांडीज़ के साथ भी जुड़ रही थीं लेकिन वहां पैसा-कौड़ी नहीं था लिहाजा ज़्यादातर नौजवान शिव सेना से जुड़ने लगे. आज तक यही हाल था . मोहल्ले में लोग शिव सेना के युवकों से डरते थे और चंदा देते थे . कांग्रेस और बी जे पी की सरकारें कभी भी शिव सैनिकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करती थीं. कभी कोई वारदात होती थी तो मुंबई पुलिस कुछ देर थाने में बैठाकर छोड़ देती थी . शायद इसी लिए शिव सेना में भर्ती होना राजनीति के साथ साथ आर्थिक विकास और मुकामी सम्मान का भी रास्ता माना जाता था लेकिन पिछले १० दिनों में सब कुछ बदल गया . राहुल गाँधी की यात्रा और उनके पारिवारिक मित्र ,शाहरुख खान की फिल्म को हिट करवाने के चक्कर में महाराष्ट्र की कांग्रेसी सरकार की पुलिस ने शिव सैनिकों को खूब पीटा. शरद पवार की पार्टी का उप मुख्यमंत्री भी उन्हें बचा न सका . पहली बार मुंबई की सडकों पर सरकार के हाथों शिव सैनिक पिटा है. जिसका नतीजा यह है कि वह निराश है . बाल ठाकरे की अपने बन्दों को बचा सकने की योग्यता पर पहली बार सवाल उठा है . ज़ाहिर है कि बड़ी संख्या में नौजवान हताशा का शिकार हुआ है ..यह नौजवान बिलकुल निर्दोष है . इसे सामाजिक जीवन में जीने और अपने नेता की बात मानने की आदत पड़ चुकी है . इसको फिर से किसी राजनीतिक जमात में शामिल किये जाने की ज़रुरत है . इस लिए मुम्बई में सक्रिय राजनीतिक पार्टियों को चाहिए कि वे इन नौजवानों को अपने साथ ले कर इनका राजनीतिक पुनर्वास करें..अगर ऐसा न हुआ तो यह नौजवान किसी ऐसे संगठन में भी शामिल हो सकते हैं जिसके देशप्रेम का रिकॉर्ड संदिग्ध हो..इस लिए कांग्रेस, बी जे पी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को तुरंत यह घोषणा कर देनी चाहिए कि अगर शिव सेना से निराश नौजवान चाहें तो उनको सम्मान पूर्वक मुख्य धारा की इन पार्टियों में शामिल किया जाएगा. . यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि शिव सेना के मालिकों की नीति कुछ भी हो , मराठी बेरोजगार नौजवान तो उनके साथ देश और समाज की सेवा के लिए जुडा था. उसका इस्तेमाल इन लोगों ने गलत काम के लिए कर लिया तो नौजवान का कोई दोष नहीं है .इस लिए उसे बदमाशी की राजनीति से बाहर लाकर मुख्य धारा में शामिल करने का यह अवसर गंवाया नहीं जाना चाहिए . सवाल उठ सकता है कि इन गुमराह नौजवानों को राजनीति के पचड़े से दूर रख कर किसी रचनात्मक काम में लगा दिया जाए तो ज्यादा उपयोगी होगा . लेकिन इस तर्क में बुनियादी दोष है . पिछले १५-२० साल से जो लडके राजनीति में काम कर रहे हैं ,उन्हें और किसी भी काम में लगाना खतरे से खाली नहीं है .अव्वल तो राजनीति में शामिल ज़्यादातर नौजवानों के पास कोई ख़ास योग्यता नहीं होती और अगर होगी भी तो इतने दिनों तक शिव सेना की गुंडई और दादागीरी की राजनीति करके वे बेचारे सब कुछ भूल भाल गए होंगें .. ऐसी हालत में उन्हें राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में ही पुनर्वास देने के बारे में सोचा जा सकता है ... दूसरा सवाल यह उठ सकता है कि शिव सेना टाइप राजनीति करने के बाद क्या यह नौजवान मुख्य धारा की राजनीति में शामिल हो सकते हैं . . जवाब हाँ में है क्योंकि बाकी पार्टियों में भी गुंडे ही बहुतायत में हैं . हाँ उनके यहाँ फर्क इतना है कि हर पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व खुले आम बदमाशी को समर्थन नहीं करता जबकि शिव सेना वाले राष्ट्रीय नेता भी दादागीरी के पक्ष में भाषण देते पाए जाते हैं ..
इस बहस को हलके लेने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि इस बात का भी पूरा ख़तरा बना हुआ है कि दिशा से बहक गए ये नौजवान आतंकवादियों के हाथ भी लग सकते हैं . जहां तक महाराष्ट्र का सवाल है वहां बड़ी संख्या में आतंकवादी संगठनों के रिक्रूटिंग एजेंट घूम रहे हैं . मालेगांव में विस्फोट करने वालों को भी आतंकवादी गतिविधियाँ चलाने के लिए नौजवानों की ज़रुरत है और उनके लिए हिंदुत्व की ट्रेनिंग पा चुके इन नौजवानों का बहुत ही ज्यादा इस्तेमाल है . इन लोगों का इस्तेमाल पाकिस्तान में रहने वाले आतंकवादी भी कर सकते हैं . यहाँ यह बात भी साफ़ कर देने की ज़रुरत है कि आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता.. पिछले ३० वर्षों का इतिहास देखें तो समझ में आ जाएगा कि पाकिस्तान की आई एस आई ने पंजाब, असम और मुंबई में आतंकवादी गतिविधियों के लिए हिन्दू और सिख लड़कों का इस्तेमाल किया था....इस लिए सभी पार्टियों को शिव सेना की तबाही का जश्न मनाना छोड़कर फ़ौरन उन लड़कों को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने की कोशिश करनी चाहिए जो शिव सेना के चक्कर में रास्ते से बहक गए थे

Tuesday, February 9, 2010

मुंबई की दौलत में मुसलमानों का ख़ून पसीना

शेष नारायण सिंह

अभी कल की बात है जब मुंबई में राहुल गाँधी ने मुंबई की लोकल ट्रेन से यात्रा की और पूरी दुनिया के सामने यह बात एक बार साबित हो गयी कि अगर हुकूमत चाहे तो किसी भी गुंडे को उसकी बिल में छुपने को मजबूर कर सकती है . शिवसेना के मुखिया, बाल ठाकरे ने धमकी दी थी कि उनकी जमात के लोग राहुल गाँधी का स्वागत काले झंडों से करेंगें . महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्य मंत्री ने सरकार को चौकन्ना कर दिया और शिव सेना वालों की हिम्मत नहीं पड़ी कि कि वे कहीं भी उत्पात मचाएं. हम जैसे लोगों ने साफ़ कहा कि राहुल गाँधी की हिम्मत और राजनीतिक सोच की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी सरकार को शिवसेना की गुंडई पर लगाम लगाने के लिए तैयार किया ..लेकिन दो दिन बाद ही कांग्रेस के नेताओं ने उस भरोसे को चकनाचूर कर दिया . आज मुंबई की सडकों पर शिव सेना के कार्यकर्ता लाठी डंडे लेकर घूम रहे हैं और जहां चाह रहे हैं तोड़ फोड़ कर रहे हैं .पुलिस वाले चुपचाप खड़े नज़र आ रहे हैं और कुछ नहीं कर रहे हैं ... शिव सेना वाले शाहरुख खान के खिलाफ नारे लगा रहे हैं. और धमकी दे रहे हैं कि मुंबई में उनकी फिल्म रिलीज़ नहीं होने दी जायेगी. . उनकी फिल्म के निर्माता. करण जौहर ने मुख्य मंत्री और पुलिस कमिश्नर से मुलाक़ात की है और उन्हें भरोसा दिया गया है कि उनकी फिल्म जहां भी रिलीज़ होगी , वहां पुलिस का बंदोबस्त रहेगा.. उन पुलिस वालों की छुट्टियां रद्द कर दी गयी हैं जो छुट्टी पर गए हुए हैं .. ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि कि बहुत बड़ी आफत आ गयी है और सारी पुलिस शाहरुख खान की फिल्म दिखाने वाले सिनेमा हालों की सुरक्षा में लगा दी जायेगी.
महाराष्ट्र में जो कुछ भी वहां की सरकार कर रही है, उस से उसकी नीयत पर शक होता है .. जिस मुंबई पुलिस ने अभी दो दिन पहले राहुल गाँधी की मुंबई यात्रा के दौरान शिव सेना के अराजक लोगों को बिलों में घुसने को मजबूर कर दिया था, उसे क्या हो गया है .? ज़ाहिर है पुलिस अधिकारी अपने वे तरीके नहीं भूले होंगें जो उन्होंने राहुल गाँधी की सुरक्षा बंदोबस्त के दौरान इस्तेमाल किया था . कौन रोक रहा है . अब सबको मालूम है कि राहुल गाँधी की यात्रा के दौरान जिन लोगों पर शक था उन्हें पकड़ लिया गया था और ज़्यादा खूंखार शिव सैनिकों को माहिम पुलिस थाने में बैठा कर समझा दिया गया था कि अगर गड़बड़ी हुई तो हड्डियों का डिजाइन बदल दिया जाएगा.... ज़ाहिर है कि धौंस पट्टी से काम चलाने वाला आदमी कायर होता है ,इस लिए पुलिस की धुनाई के सामने सारी हेकड़ी धरी रह गयी थी और शिव सेना के उत्पाती लोग घरों से बाहर नहीं निकल सके थे .. . हमारा सवाल है कि मुंबई में आम आदमी को पुलिस की वहीं सुरक्षा क्यों नहीं मिल सकी जो एक स्वतंत्र देश के नागरिक का हक है .. क्या कारण है कि जब राहुल गांधी मुंबई आते हैं तो अशोक चह्वाण शिव सेना को औकात पर ला देते हैं और जब मुंबई में रहने वाले अन्य लोगों की सुरक्षा की बात आती है तो शिव सेना को उकसा देते हैं ..
इसका मतलब यह हुआ कि मुंबई में शिव सेना की बदमाशी में कांग्रेस की मिली भगत है . आज मुंबई पुलिस केबड़े अधिकारी और राज्य के मुख्य मंत्री का बयान आया है कि जिन थियेटरों में शाह रुख खान की फिल्म लगेगी वहां पुलिस तैनात रहेगी. क्या राहुल गांधी के लिए भी इसी तरह पुलिस लगाई गयी थी या शिव सैनकों का प्रिवेंटिव डिटेंशन किया गया था .. क्यों नहीं महाराष्ट्र की सरकार ऐसा उपाय करती कि शिव सेना की बदमाशी हमेशा के लिए ख़त्म हो जाए.. मुख्य मंत्री के ताज़ा रुख से तो नहीं लगता कि वे शिव सेना को काबू में करना चाहते हैं ...उनका रुख तो ऐसा है कि वे शिव सेना को जिंदा रखना चाहते हैं .. और उस का इस्तेमाल लोगों को परेशान करने के लिए करना चाहते हैं ..क्या राहुल गाँधी और उनकी पार्टी का आला कमान मुंबई में सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कोई क़दम उठाएगा या पिछले ४० साल से जिस तरह से उनके पूर्वजों ने शिव सेना को बढ़ावा दिया है , वे भी उसी लाइन पर लग जायेंगें ..यह राहुल गाँधी की परीक्षा की घड़ी है कि जिस तरह से उनकी पार्टी की सरकार ने उनकी सुरक्षा की थी क्या वही सुरक्षा आम आदमी को मिल पायेगी क्योंकि संविधान तो यही गारंटी करता है ..

एक बात और . क्या कांग्रेस धर्म निरपेक्षता को केवल चुनावी नारा मानती है या उसे राज काज के दिशा निदेशक सिद्धांत के रूप में मान्यता देती है . क्योंकि अगर मुंबई में शाह रुख खान को पाकिस्तान समर्थक कह कर किसी जमात के लोग अपमानित कर सकते हैं तो देश के बाकी मुसलमान नागरिकों की हिफाज़त की क्या उम्मीद की जाए ? शाह रुख खान निजी हैसियत में भी बड़े कलाकार हैं लेकिन उस से भी बड़ी बात यह है कि वे उस बाप के बेटे हैं जो खान अब्दुल गफ्फार खान की लाल कुर्ती टुकड़ी का वालंटियर था. इसी लाल कुर्ती टुकड़ी ने महात्मा गांधी के अगले दस्ते के रूप में काम किया था. . क्या राहुल गाँधी एक बार कोशिश करेंगें कि इस देश में रहने वाले देशप्रेमी मुसलमानों से सड़क छाप गुंडे देश प्रेम की सर्टिफिकेट मांगना बंद कर दें . गौर करने वाली बात यह है कि यह सर्टिफिकेट उस फ़िल्मी दुनिया में माँगी जा रही है जहां पिछली सदी में भी और आज भी मुसलमान कलाकारों की एक बड़ी जमात पूरे देश की वाह वाही की हक़दार रही है ... क्या कांग्रेसी नेता एक मिनट के लिए कल्पना करना चाहेंगें कि दिलीप कुमार, सोहराब मोदी, मधु बाला, मीना कुमारी, शाहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी,. नौशाद, के आसिफ, कमाल अमरोही, ताहिर हुसैन, ख्वाजा अहमद अब्बास, नूर जहां, कैफ़ी आजमी, शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह ,जावेद अख्तर, सलीम खान, हेलेन, निम्मी आदि आदि के बिना हिन्दी सिनेमा का क्या हाल हुआ होता. जिस मुंबई की दौलत पर शिव सेना के मालिक इतराते फिरते हैं , उसमें इन मुसलमानों का ख़ून पसीना लगा है .. कांग्रेस को चाहिए कि फ़ौरन से पेश्तर मुंबई में शिव सेना पर लगाम लागाने की अपनी मंशा का ऐलान करे और उसे लागू करें वरना इस देश के लोग यह मानने लगेंगें कि कांग्रेस और शिव सेना के बीच नूरा कुश्ती चल रही है.

Saturday, February 6, 2010

राहुल गाँधी बोल्या----- मुंबई में मनमानी नहीं चलेगी

शेष नारायण सिंह


राहुल गांधी ने अपनी मुंबई यात्रा से साबित कर दिया है कि उनमें जन नेता बनने की वही ताकत है जो उनके पिताजी के नाना जवाहर लाल नेहरू में थी। जवाहरलाल नेहरू के बारे में बताते हैं कि वे भीड़ के अंदर बेखौफ घुस जाते थे। राहुल गांधी ने उससे भी बड़ा काम किया है। उन्होंने मुंबई में आतंक का पर्याय बन चुके ठाकरे परिवार और उनके समर्थकों को बता दिया है कि हुकूमत और राजनीतिक इच्छा शक्ति की मजबूती के सामने बंदर घुड़की की राजनीति की कोई औकात नहीं है।

शुक्रवार को मुंबई में राहुल गांधी उन इलाकों में घूमते रहे जो शिवसेना के गढ़ माने जाते हैं लेकिन शिवसेना के आला अधिकारी बाल ठाकरे के हुक्म के बावजूद कोई भी शिवसैनिक उनको काले झंडे दिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। अपनी मुंबई यात्रा के दौरान राहुल गांधी के व्यवहार से एक बात साफ हो गई है कि अब मुंबई में शिवसेना का फर्जी भौकाल खत्म होने के मुकाम पर पहुंच चुका है। सुरक्षा की परवाह न करते हुए राहुल गांधी ने उन इलाकों की यात्रा आम मुंबईकर की तरह की जहां शिवसेना और राज ठाकरे के लोगों की मनमानी चलती है। लेकिन राहुल गांधी ने साफ बता दिया कि अगर सरकार तय कर ले तो बड़ा से बड़ा गुंडा भी अपनी बिल में छुपने को मजबूर हो सकता है।

मुंबई में राहुल गांधी का कार्यक्रम एसपी.जी. की सुरक्षा हिसाब से बनाया गया था। सांताक्रज हवाई अड्डे पर उतरकर उन्हें हेलीकोप्टर से जुहू जाना था जहां कालेज के कुछ लडके -लड़कियों के बीच में उनका भाषण था। यहां तक तो राहुल गांधी ने सुरक्षा के हिसाब से काम किया। कालेज में भाषण के बाद राहुल गांधी को फिर हेलीकाप्टर से ही घाटकोपर की एक दलित बस्ती में जाना था लेकिन उन्होंने इस कार्यक्रम को अलग करके मुंबई की लोकल ट्रेन से वहां पहुंचने का फैसला किया। जुहू से अंधेरी रेलवे स्टेशन पहुंचे, वहां एटीएम से पैसा निकाला, फिर वहां से चर्चगेट की फास्ट लोकल पकड़ी। दादर में उतरे और पुल से स्टेशन पार किया जैसे आम आदमी करता है। दूसरी तरफ जाकर सेंट्रल रेलवे के दादर स्टेशन से घाटकोपर की ट्रेन पर बैठे और आम आदमियों से मिलते जुलते अपने कार्यक्रम में पहुंच गए। शिवसेना वाले अपने मालिक के हुक्म को पूरा नहीं कर पाए और शहर में कहीं भी काले झंडे नहीं दिखाए गये।

राहुल गांधी की हिम्मत के यह चार घंटे भारत में गुंडई की राजनीति के मुंह पर एक बड़ा तमाचा है। अजीब इत्तफाक है कि इस देश में गुंडों को राजनीतिक महत्व देने का काम राहुल गांधी के चाचा, स्व. संजय गांधी ने ही शुरू किया था। और अब गुंडों को राजनीति के हाशिए पर लाने का बिगुल भी नेहरू के वंशज राहुल गांधी ने ही फूंका है। जो लोग मुंबई का इतिहास भूगोल जानते हैं, उन्हें मालूम है कि अंधेरी से लोकल ट्रेन के जरिए घाटकोपर जाना अपने आप में एक कठिन काम है। जिन रास्तों से होकर ट्रेन गुजरती है वह सभी शिवसेना के प्रभाव के इलाके हैं और वहां कहीं भी,कोई भी आम आदमी राहुल गांधी के खिलाफ नहीं खड़ा हुआ। इससे यह बात साफ है कि मुंबई महानगर में भी कुछ कार्यकर्ताओं के अलावा बाल ठाकरे और राज ठाकरे के साथ कोई नहीं है।

हालांकि यह मानना भी नहीं ठीक होगा कि सुरक्षा एजेंसियों ने राहुल गांधी की हर संभव सुरक्षा का पक्का इंतजाम नहीं किया होगा लेकिन मुंबई में शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुकामी दादाओं के आतंक के साए में रह रहे लोगों का यह मुगालता जरूर टूटेगा कि शिवसेना वालों को कोई नहीं रोक सकता। राहुल गांधी की ताज़ा मुंबई यात्रा से यह संदेश जरूर जायेगा कि अगर हुकूमत तय कर ले तो कोई भी मनमानी नहीं कर सकता। पता चला है कि पुलिस ने शिवसेना के मुहल्ला लेवेल के नेताओं को ठीक तरीके से धमका दिया है और पुलिस की भाषा में धमकाए गए यह मुकामी दादा लोग आने वाले वक्त में जोर जबरदस्ती करने से पहले बार बार सोचेंगे। कुल मिलाकर राहुल गांधी ने शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के फर्जी भौकाल पर लगाम लगाकर आम मुंबईकर को यह भरोसा दिलाया है कि सभ्य समाज और बाकी राजनीतिक बिरादरी भविष्य में उसे शिवसेना छाप राजनीति के रहमोकरम पर नहीं छोड़ेगी।