Monday, October 26, 2009
भारत के प्रति चीन का गैरजिम्मेदार रुख
अब प्रधानमंत्री ने जो बयान दिया है वह तो भारत के खिलाफ चीन के अभियान की अंदरूनी कोशिशों को काफी हद तक खोल देता है। तीनों सेनाओं के कमाडरों की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत पर आतंकवादी हमलों की आशका बहुत ही बढ़ गई है। देश के प्रधानमंत्री की ओर से आने वाला यह बयान निश्चित रूप से चिंता का विषय है। जाहिर है कि केंद्र सरकार को मालूम है कि भारत के खिलाफ खासी गाढ़ी खिचड़ी पाक रही है। इस बीच यहां साफ कर देना जरूरी है कि कुछ टीवी चैनलों की तरफ से चलाए जा रहे चीनी खतरे के अभियान को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। उनकी युद्धोन्मादी खबरें केवल मनोरंजन की सीमाओं में ही रखी जानी चाहिए, लेकिन भारत के अंदर और बाहर मौजूद चीन के दोस्तों की कारस्तानियों को हल्का करके आकने की गुंजाइश नहीं रह गई है। भारत के अंदर अपनी राह से भटके कम्युनिस्ट, जो माओवादी बन गए हैं, देश और समाज को तबाह करने परआमादा हैं। सरकार और सिविल सोसाइटी को उनके खिलाफ कोई भी अभियान चलाने के पहले बार बार सोचना पड़ेगा। नेपाल भी आजकल चीन का बड़ा दोस्त है, क्योंकि बाबूराम और प्रचंड ने चीन की कृपा से ही नेपाल में अब तक संघर्ष चलाया और अब सत्ता का सुख भोग रहे हैं। उनको भी अगर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से हुक्म मिला तो नेपाल का भी इस्तेमाल भारत के खिलाफ करने में संकोच नहीं करेंगे। सबसे बड़ी दुविधा पाकिस्तान की है। अभी पिछले दिनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी चीन की यात्रा पर गए थे। पूरी संभावना है कि वहा उनको भारत के खिलाफ आतंकवादियों को छोड़ देने का फरमान सुना दिया गया हो। पाकिस्तान की हालत यह है कि वह आजकल चीन के एक अधीन राज्य की भूमिका अदा करता है। पाकिस्तान ने बहुत सी राजनीतिक गलतियां की हैं उनमें से एक यह है कि उसने अपने परमाणु कार्यक्रम और अन्य सैनिक साजो सामान के लिए चीन से भारी मदद ली है और अब उसके अहसान के नीचे दबा हुआ है। चीन का पाकिस्तान में इतना ही स्वार्थ था कि वह उसे भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता था। चीन को लगता है कि वह वक्त आ गया है।
जहा तक पाकिस्तान का सवाल है, उसे मालूम है कि भारत के खिलाफ अभियान चलाना उसके हित में नहीं है। आतंकवाद के भस्मासुरी जाल में फंसे पाकिस्तान की यह हैसियत भी नहीं है कि वह भारत के खिलाफ कोई तोड़-फोड़ की गतिविधि चला सके, लेकिन चीन के हुक्म को मना करना अब पाकिस्तान के लिए संभव नहीं है। पाकिस्तान की दुर्दशा का आलम यह है कि उसे भारत के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने पर अमेरिका से डाट पड़ेगी, लेकिन फिर भी चीन के हुक्म को नजरअंदाज कर पाना पाकिस्तान के लिए बहुत ही मुश्किल फैसला होगा। सच्चाई यह है कि आज की तारीख में पाकिस्तान को बुनियादी खर्च के लिए भी अमेरिका से मदद मिल रही है। अमेरिका नहीं चाहता कि पाकिस्तान का ध्यान और कहीं जाए। उसकी पूरी कोशिश है कि वह पाकिस्तान की सारी ताकत का इस्तेमाल तालिबान आतंकियों के खिलाफ करे। अंदर से बिखर चुकी पाकिस्तानी फौज के लिए भारत जैसी किसी संगठित सेना से मुकाबला कर पाना बहुत ही कठिन होगा, क्योंकि वह तो अपने ही देश में सक्रिय आतंकवादियों से कई बार हार का सामना कर चुकी है। इसलिए पाकिस्तान की तरफ से किसी हमले की संभावना तो नहीं है, लेकिन चीन को खुश करने के लिए पाकिस्तान की आईएसआई भारत के अंदर आतंकवादी हमले जरूर करवा सकती है। (दैनिक जागरण से साभार )
Sunday, October 25, 2009
अमरीका का कारिन्दा बन कर रहना ठीक नहीं
अमरीकी विदेश नीति के एकाधिकारवादी मिजाज की वजह से हमेशा ही अमरीका को दुनिया के हर इलाके में कोई न कोई कारिन्दा चाहिए होता है.अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए अमरीकी प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है .शुरू से लेकर अब तक अमरीकी विदेश विभाग की कोशिश रही है कि भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू में तौलें. यह काम भारत को औकात बताने के उद्देश्य से किया जाता था लेकिन पाकिस्तान में पिछले ६० साल से चल रहे पतन के सिलसिले की वजह से अमरीका का वह सपना तो साकार नहीं हो सका लेकिन अब उनकी कोशिश है कि भारत को ही इस इलाके में अपना लठैत बना कर पेश करें.भारत में भी आजकल ऐसी राजनीतिक ताक़तें सत्ता और विपक्ष में शोभायमान हैं जो अमरीका का दोस्त बनने के लिये किसी भी हद तक जा सकती हैं .वामपंथियों को अपनी राजनीतिक ज़रुरत के हिसाब से अमरीका विरोध की मुद्रा धारण करनी पड़ती है लेकिन सी पी एम के वर्तमान आला अफसर की सांचा बद्ध सोच के चलते देश में कम्युनिस्ट ताक़तें हाशिये पर आने के ढर्रे पर चल चुकी हैं .इस लिए अमरीका को एशिया में अपनी हनक कायम करने में भारत का इस्तेमाल करने में कोई दिक्क़त नहीं होगी.
अब जब यह लगभग पक्का हो चुका है कि एशिया में अमरीकी खेल के नायक के रूप में भारत को प्रमुख भूमिका मिलने वाली है तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद के अमरीकी एकाधिकारवादी रुख की पड़ताल करना दिलचस्प होगा. शीत युद्ध के दिनों में जब माना जाता था कि सोवियत संघ और अमरीका के बीच दुनिया के हर इलाके में अपना दबदबा बढाने की होड़ चल रही थी तो अमरीका ने एशिया के कई मुल्कों के कन्धों पर रख कर अपनी बंदूकें चलायी थीं. यह समझना दिलचस्प होगा कि इराक से जिस सद्दाम हुसैन को हटाने के के लिए अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र तक को ब्लैकमेल किया , वह सद्दाम हुसैन अमरीका की कृपा से ही पश्चिम एशिया में इतने ताक़त वर बने थे . उन दिनों सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल इरान पर हमला करने के लिए किया जाता था . सद्दाम हुसैन अमरीकी विदेश नीति के बहुत ही प्रिय कारिंदे हुआ करते थे . बाद में उनका जो हस्र अमरीका की सेना ने किया वह टेलिविज़न स्क्रीन पर दुनिया ने देखा है .और जिस इरान को तबाह करने के लिए सद्दाम हुसैन का इस्तेमाल किया जा रहा था उसी इरान और अमरीका में एक दौर में दांत काटी रोटी का रिश्ता था. शाह इरान, रजा पहलवी , एशिया, खासकर पश्चिम एशिया में अमरीकी लठैतों के सरदार के रूप में काम करते थे .जिस ओसामा बिन लादेन को तबाह करने के लिए अमरीका ने पाकिस्तान को फौजी छावनी में तब्दील कर दिया है और अफगानिस्तान को रौंद डाला , वहीं ओसामा बिन लादेन अम्र्रेका के सबसे बड़े सहयोगी थे और उनका कहीं भी इस्तेमाल होता रहता था. जिस तालिबान को आज अमरीका अपना दुश्मन नंबर एक मानत है उसी के बल पर अमरीकी विदेश नीति ने अफगानिस्तान में कभी विजय का डंका बजाया था . अपने हितों को सर्वोपरि रखने के लिए अमरीका किस्सी का भी कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है. जब सोवियत संघ के एक मित्र देश के रूप में भारत आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा था तो , एक के बाद एक अमरीकी राष्ट्रपतियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान का इस्तेमाल किया था . बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में उस वक़्त के अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने भारत के खिलाफ अपने परमाणु सैन्य शक्ति से लैस सातवें बेडे के विमानवाहक पोत , इंटरप्राइज़, से हमला करने की धमकी तक दे डाली थी. उन दिनों यही पाकिस्तान अमरीकी विदेश नीति का ख़ास चहेता हुआ करता था. बाद में भी पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होता रहा था. पंजाब में दिग्भ्रमित सिखों के ज़रिये पाकिस्तानी खुफिया तंत्र ने जो आतंकवाद चलाया, उसे भी अमरीका का आर्शीवाद प्राप्त था . अमरीकी हठधर्मिता की हद तो उस वक़्त देखी गयी जब चीन के नाम पर ताइवान को सुरक्षा परिषद् में बैठाया गया. . पश्चिम एशिया के सभी देशों को एक दुसरे के खिलाफ इस्तेमाल करने की अमरीकी विदेश नीति का ही जलवा है कि इजरायल आज भी सभी अरब देशों को धमकाता रहता है.
वर्तमान कूटनीतिक हालात ऐसे हैं अमरीका की छवि एक इसलाम विरोधी देश की बन गई है. अमरीका को अब किसी भी इस्लामी देश में इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जाता . यहान तक कि पाकिस्तानी अवाम भी अमरीका को पसंद नाहीं करता जबकि पाकिस्तान की रोटी पानी भी अमरीकी मदद से चलती है. इस पृष्ठभूमि में अमरीकी विदेश नीति के नियंता भारत को अपना बना लेने के खेल में जुट गए हैं .उन्हनें इस स्क्षेत्र में चीन की बढ़ रही ताक़त से दहशत है. जिसे बैलेंस करने के लिए ,अमरीका की नज़र में भारत सही देश है. पाकिस्तान में भी बढ़ रहे अमरीका विरोध के मदद-ए-नज़र , अगर वहां से भागना पड़े तो भारत में शरण मिल सकती हाई. भारत में राजनीतिक महाल भी अमरीकाप्रेमी ही है. सत्ता पक्ष तो है ही मुख्य विपक्षी पार्टी का भी अमरीका प्रेम जग ज़ाहिर है. ऐसे माहौल में भारत से दोस्ती अमरीका के हित में है .लेकिन भारत के लिए माहौल इतना पुर सुकून नहीं है . अमरीका की दोस्ती के अब तक के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका किसी से दोस्ती नहीं करता, वह तो बस देशों को अपने राष्ट्र हित में इस्तेमाल करता है.इस लिए भारत के नीति निर्धारकों को चाहिए कि अमरीकी राष्ट्र हित के बजाय अपने राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर नित बनाएं और एशिया में अमरीकी हितों के चौकीदार बनने से बचे. दुनिया जानती है कि अमरीका से दोस्ती करने वाले हमेशा अमरीका के हाथों अपमानित होते रहे हैं . इस लिए अमरीकी सामरिक सहयोगी बनना भारत के हित में नहीं हैl
Friday, October 23, 2009
महाराष्ट्र के नतीजे -राज ठाकरे की हैसियत नपी
महाराष्ट्र विधान सभा के लिए हुए चुनाव के जो नतीजे हैं उनसे एक बात बहुत ही साफ़ तौर पर सामने आई है कि राजनीतिक प्रचार अभियान के रूप में दंभ भरी क्षेत्रीयता अब काम नहीं आने वाली है. शिव सेना और राज ठाकरे के पार्टी की जो दुर्दशा हुई है , उसकी धमक आने वाले कई वर्षों तक महसूस की जायेगी. यहाँ यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि राज ठाकरे को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है जैसा कि कई टी वी चैनलों में राग दरबारी की स्टाइल में चलाया जा रहा है. उनको भी इस चुनाव में जनता ने औकात बता दी है कि , भाई नफरत की बुनियाद पर सियासत करोगे तो ऐसे ही कुछ सीटें लाकर बैठे रहोगे.. उनको १३ सीटें मिली हैं जो कुछ न मिलने से ज्यादा तो हैं लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता की राजनीति में इतनी सीटों से उन्हें कुछ नहीं हासिल होने वाला है..लुम्पन नौजवानों को इकठ्ठा करके मुंबई जैसे शहर में सड़क वीर बनने की भी उनकी तमन्ना धरी रह जायेगी. अब तक तो पुलिस और प्रशासन को शक था कि राज ठाकरे के पास नौजवानों की एक फौज है जिसकी वजह से वह सरकार को परेशान कर सकते हैं लेकिन इन चुनावों में उनकी ताक़त नप गयी . अब तो सब को मालूम है कि राज ठाकरे की क्या ताक़त है.अगर कहीं एक ईमानदार पुलिस अफसर तय कर लेगा तो राज ठाकरे की सारी मुरादें हवालात के हवाले हो जायेंगी .उनके चाचा, बाल ठाकरे, ने ६० के दशक में मराठी बेरोजगार नौजवानों और बाहर से मुंबई में काम की तलाश में आये लोगों को एक सेना की तरह लामबंद कर लिया था और उसे राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया था . राज ठाकरे ने भी उसी तर्ज़ पर फौज तैयार करके खेल करने की कोशिश की थी लेकिन आज के हालात वैसे नहीं हैं जैसे मुंबई में आज के ४०-५० साल पहले थे..उस वक़्त बाल ठाकरे ने जवाहरलाल नेहरु के जाने के बाद कमज़ोर पड़ रही कांग्रेस की अलोकप्रियता को भुनाने में सफलता पायी थी. उन दिनों उनके साथ आने को भी बहुत सारे नौजवान तैयार खड़े रहते थे. मुंबई के दादर-परेल इलाके में बहुत सारे कारखाने थे और वहां नौकरियों की तलाश में आने वाले नौजवानों की संख्या बहुत ज्यादा थी, ६२-६३ के दौर में किसानों की फसलें बहुत ही खराब हो गयी थीं. गाव से भाग कर मुंबई आने वाले युवकों की संख्या बहुत ज्यादा होती थी और साल छः महीने खाली बैठने के बाद वे कुछ भी करने को तैयार रहते थे.ठीक ऐसे मौके की तलाश में बैठे बाल ठाकरे उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे और बाद में वे लोग धन अर्जन के अन्य तरीकों से संपन्न बनने की कोशिश में लग जाते थे.बाद में येही सैनिक शहर के अलग अलग इलाकों में प्रोटेक्शन वगैरह का धंधा करने में जुट जाते थे. धीरे धीरे यही सेना एक राजनीतिक पार्टी बन गयी और बी जे पी से समझौता करके इज्ज़त की दावेदार भी बन गयी. बाल ठाकरे की दूसरी खासियत यह थी कि वह खुद भी संघर्ष कर रहे थे. ६० रूपये फीस न दे पाने के कारण उन्हें पढाई छोड़नी पडी थी और कहीं कोई काम नहीं था . फ्री प्रेस में मामूली तनखाह पर जब कार्टूनिस्ट की नौकरी मिली तो उनके लिए रोटी पानी का जुगाड़ हुआ था. इसलिए उनके साथ जुड़ने वाले लोग उनको अपने में से ही एक समझते थे. इसी दौर में उनका एक मैनरिज्म भी विकसित हुआ . आज राज ठाकरे उसी स्टाइल को कॉपी करने की कोशिश करते हैं . लेकिन आज हालात वह नहीं हैं जो 6० और 7० के दशक में थे. आज उतनी बड़ी संख्या में नौजवान बेरोजगार नहीं हैं. आर्थिक उदारीकरण की वजह से काम के अवसर ज्यादा हैं. जो भी मुंबई में रहता है उसे मालूम है कि राज ठाकरे को रोटी पानी के लिए नौजवान बाल ठाकरे की तरह जुगाड़ नहीं करना पड़ता . वे अरब पति हैं, करजट में उनका फार्म हाउस है और बाल ठाकरे के मैनरिज्म का वे अभिनय करते हैं . ऐसी हालत में उनकी अपील का कोई मतलब नहीं है. मुंबई के जागरूक मत दाताओं को मालूम है कि मराठी मानूस की बोगी चलाकर राज ठाकरे अपनी ही चमक को दुरुस्त करना चाहते हैं .. इस लिए उन्हें मराठी मानूस का वोट थोक में नहीं मिला.
राज ठकारे के उदय को कोई राजनीतिक घटना न मान कर बाल ठाकरे के बच्चों के बीच मूंछ की लड़ाई मानना ज्यादा सही होगा. यह भी मानना गलत होगा कि राज ठाकरे ने महारष्ट्र की राजनीति को कहीं से प्रभावित किया है . बस हुआ यह है कि जो सीटें शिव सेना को मिलनी थीं वे राज ठाकरे को मिल गयीं. जहां तक कांग्रेस की जीत का सवाल है उसमें विपक्षी वोटों के बिखराव का योगदान है . यह कोई नयी बात नहीं है. हर चुनाव में खिलाफ पड़ने की संभावना वाले वोटों को राजनीतिक दल एक दूसरे से भिडाने की कोशिश करते हैं . हाँ इस चुनाव के बाद, हो सकता है कि ठाकरे परिवार की राजनीति में कुछ बदलाव आये. हो सकता है कि वे अपने सगे बेटे उद्धव को पीछे करके , राज ठाकरे को आगे लायें . लेकिन इस से राजनीतिक विश्लेषकों , मीडिया और आम आदमी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.. इस चुनाव के नतीजे आम समझ के हिसाब से वही हैं जिसकी उम्मीद की जा रही थी.. लोक सभा चुनावों में हार का मुंह देख चुकी बी जे पी ने अगर कुछ ज्यादा उम्मीदें लगा रखी थीं तो वह उनकी समस्या है. और अगर मीडिया एक नॉन-इश्यू को बढा चढा कर पेश करता है तो वह भी उसकी समस्या है.
Wednesday, October 21, 2009
मुलगी शिकली , प्रगति झाली
यह बात उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश के उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये जाते हैं . इन् इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की बात तो और भी चिंता पैदा करने वाली है. हज़रत मुहम्मद ने फरमाया था कि शिक्षा इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है. आपने कहा था कि अगर इल्म के लिए उन्हें चीन भी जाना पड़े तो कोई परेशानी वाली बात नहीं है. इसका मतलब यह है कि मुसलमान को शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा पिछडे हुए हैं . उनके इस पिछडेपन का एक बड़ा कारण यह है कि इन इलाकों में मुसलमानों की लड़कियों की शिक्षा का कोई इन्तेजाम नहीं है. जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि जब पैगम्बर साहेब ने ही तालीम पर सबसे ज्यादा जोर दिया था तो उनके बताये रास्ते पर चलने वाले शिक्षा के क्षेत्र में इतना पिछड़ क्यों गए. सब को मालूम है कि अगर लडकियां शिक्षित नहीं होंगी तो आने वाली नस्लें शिक्षा से वंचित ही रह जाएँगीं, इस लिए मुसलमानों के सामाजिक और धार्मिक नेताओं को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करें जिस के बाद उनकी अपनी बच्चियां अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.अभी पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में यह बात सामने आई कि मुसलमानों में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं हो रही है. बड़े पत्रकार विनोद मेहता ने तो यहाँ तक कह दिया है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद , मुसलमानों ने आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के लिए कोई भी अहम् पहल नहीं की है. राजनीतिक सामाजिक नेता और लेखक आरिफ मुहम्मद खान के एक ताजे लेख से पता चलता है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक और क्रांतिकारी शिक्षाविद , सर सैय्यद अहमद खान को भी उस वक़्त के धार्मिक नेताओं ने खुशी से स्वीकार नहीं किया था . इस लिए मुसलमानों और समाज की तरक्की के लिए ज़रूरी है कि अर्जेंट आधार पर लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज और काम के नेता ज़रूरी पहल करें वरना खतरा यह है कि बहुत देर हो जायेगी. जहां तक समाज के सहयोग की बात है उसकी उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा की क्रान्ति के सूत्रधार ज्योतिबा फुले को भी उनके पिता जी ने घर से निकाल दिया था जब उन्होंने १८४८ में दलित लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला था. आज के समाज, खासकर मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों को आगे आने की ज़रुरत है जो सर सैय्यद की तरह आगे आयें और समाज को परिवर्तन की राह पर डालने की कोशिश करें
Tuesday, October 20, 2009
अब क्या करेगी बी जे पी
मजदूरों में पार्टी की कहीं कोई हैसियत नहीं है. दत्तोपंत ठेंगडी की मौत के बाद ट्रेड यूनियन की राजनीति में संघ की कोई ख़ास उपस्थिति नहीं है. नौजवानों में भी वही आर एस एस वाले सक्रिय हैं . गरज कि बी जे पी के समर्थकों में से अगर आर एस एस वालों को हटा लिया जाए तो वहां कुछ नहीं बचेगा . ज़ाहिर है इस तरह की बात शुरू होने के बाद बी जे पी में चिंता का माहौल बन गया . वैसे भी २००९ में पार्टी की चुनाव में हुई हार के बाद उसकी दुर्दशा की खबरें रोज़ ही अखबारों में छपती ही रहती हैं .. लेकिन आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बी जे पी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने पटना में मीडिया को बताया कि मोहनराव भागवत ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि संघ के कार्यकर्ता चाहे तो भाजपा को वोट करें या न करें.
राजगीर में चल रही आर एस एस की कार्यकारिणी में शामिल किसी सूत्र के हवाले से आईएएनएस एजंसी ने एक खबर जारी कर दी थी जिसमें कहा गया था कि मोहनराव भागवत ने कहा है कि वे यह स्वयंसेवकों को तय करना है कि वे भाजपा को वोट करें या न करें. यह खबर जब अखबारों में छपी तो बी जे पी में खलबली मच गयी. इसके बाद रविशंकर ने कहा कि संघ हमेशा ही यह कहता रहता है कि संघ के स्वयंसेवक जिसे चाहें वोट कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप में ऐसा होता नहीं है.. आर एस एस की विश्वसनीयता के बारे में रवि शंकर प्रसाद की इस बात को शायाद उनकी पार्टी के लोग ही गंभीरता से न लें लेकिन इस बात में दो राय नईं है कि आर एस एस के नए प्रमुख मोहन भागवत बी जे पी के मौजूदा नेतृत्व से खुश नहीं हैं . यह बात उन्होंने बार बार कह भी दिया है .कम से कम सिद्धांत रूप से आर एस एस मानता है कि वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए किसी भी राजनीतिक दल की मदद कर सकता है.
बी जे पी को अपने पूर्व अवतार में जनसंघ कहा जाता था. उसकी स्थापना के बाद से ही स्वर्गीय दीन दयाल उपाध्याय के ज़रिये आर एस एस ने पार्टी पर पूरा कंट्रोल रखा. और जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोगों को हुक्म नागपुर से ही लेना पड़ता था. बी जे पी बनने के बाद तो इस बात पर कभी चर्चा भी नहीं हुई कि पार्टी में आर एस एस की भूमिका क्या है. सब जानते हैं कि बी जे पी पूरी तरह से आर एस एस का सहयोगी संगठन है . लेकिन आजकल आर एस एस में बी जे पी की उपयोगिता के बारे में बेचैनी है. आर एस एस के कुछ ख़ास लोग कद्दावर आर एस एस नेता , गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में बी जे पी के विकल्प की तालाश कर रहे हैं . उसी प्रोजेक्ट के तहत महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपना बना लेने की कोशिश चल रही है है. गोविन्दाचार्य के दोस्त लोग राष्ट्र निर्माण जैसे लोक लुभावन नारों के ज़रिये जनता तक पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं जिस से सही वक़्त पर संघ की नयी पार्टी की घोषणा कर दी जाए. बताया गया है कि गोविन्दाचार्य के व्यक्तित्व के आकर्षण की वजह से वर्तमान बी जे पी के भी कुछ बड़े नेता उनके संपर्क में हैं . इन लोगों ने महात्मा गाँधी के नाम पर चलने वाले कई संगठनों पर कब्जा भी कर लिया है . आज कल आर एस एस वालों का एक बड़ा तबका अपने आप को गांधीवादी भी कहता पाया जा रहा है . इस लिए मोहन राव भागवत की इस बात में दम लगता है कि आर एस एस जल्दी ही बी जे पी से पिंड छुडाने वाला है.
आर एस एस के लिए नयी राजनीतिक पार्टी की तलाश कोई नयी बात नहीं है. १९७५ में जब पूरी दुनिया संजय गाँधी की क्रूर तानाशाही प्रवृत्तियों से दहशत में थी, तो आर एस एस वाले उन्हें अपना बना लेने के चक्कर में थे. अकाल मृत्यु ने संजय गाँधी के जीवन में हस्तक्षेप कर दिया वरना हो सकता है कि बाद में जो उनकी पत्नी और बेटे ने किया वह काम संजय गाँधी के जीवन में ही हो गया होता.
आजकल भी आर एस एस के लोग पुराने कांग्रेसियों, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपना पूर्वज बताने की कोशिश तो कर ही रहे हैं , नए वालों पर भी उनकी नज़र है. आर एस एस के प्रमुख ने पिछले दिनों राहुल गाँधी की तारीफ़ की और पी चिदंबरम के काम पर बहुत ही संतोष ज़ाहिर किया. महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों के बीच में आर एस एस के कांग्रेस के नेताओं की तारीफ करना बीजेपी को ठीक बिलकुल नहीं लगा लेकिन बेचारे कर क्या सकते हैं. इस लिए आर एस एस के मुखिया के बयान के बाद बीजेपी में परेशानी शुरू होना स्वाभाविक है और इस बात को भी पूरा बल मिलता है कि आर एस एस ने नयी राजनीतिक पार्टी के विकल्प वाले प्रोजेक्ट पर गंभीरता से काम शुरू कर दिया है. इसके लिए खुद आरएसएस के अंदर ही कई धाराएं हैं जो नये राजनीतिक विकल्प का खाका तैयार करने में लगी हुई हैं. हालांकि आरएसएस 2007 में कह चुका है कि वह इसी भाजपा को ठीक करेगा लेकिन यह भाजपा ठीक होती दिखाई न दी तो नये विकल्पों को आजमाने से आरएसएस हिचकेगा भी नहीं
पाकिस्तान के बिना बी जे पी का क्या होगा
प्राकृतिक सम्पदा पर अधिकार का सवाल और अर्थशास्त्र का नोबेल
नोबेल पुरस्कारों की स्थापना डायनामाइट के आविष्कारक, स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ़्रेड नोबेल के नाम पर हुई थी.1901 से दिए जा रहे नोबेल पुरस्कार पहले तो पाँच वर्गों में दिए जाते थे मगर 1968 से अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी नोबेल पुरस्कार दिए जाने लगे. इस साल के अर्थशास्त्र के पुरस्कार की घोषणा करते हुए नोबेल समिति ने प्रोफ़ेसर ओस्ट्रॉम की बहुत तारीफ़ की और कहा कि उन्होंने ये दिखाया कि वनों, और जलस्रोतों जैसी प्राकृतिक और सार्वजनिक संपदाओं की व्यवस्था सरकारों और निजी कंपनियों से बेहतर इनका इस्तेमाल करनेवाले लोग करते हैं.76 वर्षीया एलिनोर ओस्ट्रॉम ने कहा कि पुरस्कार मिलने की खबर सुनकर उन्हें बहुत खुशी हुई है .उन्होंने कहा,"जब उन्होंने मुझे फ़ोन कर बताया तो मैं बिल्कुल चौंक गई. ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने बहुत-बहुत संघर्ष किया है और उनके बीच से पुरस्कार के लिए चुना जाना बहुत बड़े सम्मान की बात है."
हालांकि पश्चिमी देशों में महिलाओं का सम्मान किया जाता है लेकिन अभी पुरुष प्रधान समाज में उनकी स्थिति उतनी मज़बूत नहीं है जितनी कि पुरुषों की है .इसके लिए पूरी दुनिया की तरह ऐतिहासिक कारण ही जिम्मेदार हैं लेकिन जागरूकता की कमी भी महिलाओं की शक्ति को सीमित करने के लिए काफी हद तक जिम्मेवार हैं . प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम को पुरस्कार देने से महिला सशक्तिकरण की कोशिशों को ताक़त मिलेगी . इसके दो कारण हैं . एक तो किसी महिला को अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा सम्मान मिलने के अपने ही प्रेरक रहेंगें और दूसरी तरफ उनको जिस विषय के लिए पुरस्कार दिया गया है वह कम क्रांतिकारी नहीं है .प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम ने बताया है कि जंगलों और पानी के ठिकानों का इन्तेजाम वही लोग सबसे अच्छा करते हैं जो वास्तव में उसका इस्तेमाल करते हैं . . यानी सरकार या वन सम्पदा का लाभ लेने वाली कंपनियाँ जंगलों का सही देखभाल नहीं कर सकतीं . इस विचार को अगर आगे बढाया जाए और भारत की सरकार इसे ईमानदारी से लागू कर दे तो भारत की बहुत सारी समस्यायें अपने आप ख़त्म हो जाएँगीं. देश के आदिवासी इलाकों में चल रहे माओवादी हमलों के बहुत सारे कारण हैं लेकिन एक यह भी है कि उन इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से वन सम्पदा संबन्धी उनके अधिकारों को सरकारों ने छीन लिया है और राजधानियों में बैठकर बनाए गए कानूनों के ज़रिये जंगलों के मूल निवासियों को केवल मजदूर की औकात पर ला कर रख दिया है . आजकल तो खनिज सम्पदा के चक्कर में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी आदिवासी इलाकों पर काबू करने की जुगाड़ भिड़ा रही हैं . नतीजा यह हो रहा है कि वहां रहने वाले लोग राजनीतिक नेताओं और व्यापारी वर्ग को अपना दुश्मन नंबर एक मानने लगे हैं . ऐसे माहौल में कुछ दिग्भ्रमित वामपंथियों ने उन्हें माओ के नाम पर लामबंद किया और गलत राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उन्हें हथियार पकडा दिए. यह समझ लेना ज़रूरी है कि संशोधनवादी विचारधारा का शिकार कम्युनिस्ट भी पूंजीपति वर्ग के हित में ही काम करता है . देश के आदिवासी इलाकों में चल रहे खूनी संघर्ष के बाद उसके नेतागण तो सरकार से सुलह कर लेंगें लेकिन आदिवासी समाज का जो नुक्सान हो जाएगा उसकी भरपाई असंभव होगी. अगर प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम की वन सम्पदा के प्रबंधन के अर्थशास्त्रीय सिद्धांत को भारत के आदिवासी इलाकों में लागू कर दिया जाए तो देश और समाज का बहुत ही भला होगा.
आज ही खबर आई है कि पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखण्ड के इलाकों में माओवादियों ने हिंसा का तांडव शुरू करवा दिया है . इन माओवादियों की तरफ से हथियार उठाने वाले और कोई नहीं , भारत के जंगली इलाकों में रहने वाले गरीब लोग हैं अगर नोबेल पुरस्कार की इस साल की विजेता एलिनोर ओस्ट्रॉम के वन सम्पदा के प्रबंधन के सिद्धांत को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लागू करना शुरू कर दें तो समस्या की जड़ तक पंहुचना आसान हो जाएगा. इसका असर सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ेगा . आदिवासी इलाकों में परंपरागत रूप से स्त्री पुरुष में बहुत ज्यादा भेद नहीं होता. इसलिए अगर आदिवासी समाज को उसकी पुश्तैनी संपत्ति के प्रबंधन का अधिकार दिया गया तो जाहिरा तौर पर औरतों को भी अधिकार मिलेगा और जिस समाज में महिलाओं के पास आर्थिक अधिकार होते हैं वह समाज कभी भी पिछड़ नहीं सकता . इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि एलिनोर ओस्ट्रॉम को नोबेल ऐसे वक़्त पर दिया आ है जब कि उनके सिद्धांत को सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है .
इस बीच झारखण्ड सरकार ने बताया है कि राज्य में रहने वाले आदिवासियों पर लगाए गए १ लाख मुक़दमे वापस ले लिए गए हैं . यह संख्या हैरानी में डालने वाली है . एक छोटे से राज्य में १ लाख ऐसे मुक़दमे थे जिन्हें कि वापस लेने लायक माना गया . इसका सीधा मतलब यह है कि आदिवासियों के खिलाफ राज्य सरकार की ताकत का इस्तेमाल उन्हें परेशान करने के लिए किया जा रहा था . मुक़दमे वापस ले कर तो बीमारी के लक्षणों का इलाज़ ही संभव होगा . ज़रुरत इस बात की है कि बीमारी को जड़ से मिटा दिया जाए. और उसके लिए भूमिपुत्रों को उनके अधिकार देना पड़ेगा जिसके लिए दार्शनिक पृष्ठभूमि नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफ़ेसर एलिनोर ओस्ट्रॉम के अर्थ शास्त्र के सिद्धांतों से ली जा सकती है.
पाकिस्तान पर अमेरिका का शिकंजा
अब तक जो भी अमेरिकी सहायता पाकिस्तान को मिलती थी उससे फौज के आला अफसर मजे करते थे। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती थी। इस रकम का इस्तेमाल भारत के खिलाफ हथियार जुटाने और आतंकवाद फैलाने के लिए भी किया जाता था। इस बार अमेरिका की कोशिश है कि पाकिस्तान में सत्तारूढ़ लोकतांत्रिक सरकार को मजबूत किया जाए। आपरेशन एक्ट (पीस एक्ट) नाम के इस कानून में वास्तव में कुछ शर्तें ऐसी हैं जिन्हें किसी भी स्वतंत्र और संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप माना जा सकता है। एक्ट में व्यवस्था है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हर छह महीने बाद एक सर्टिफिकेट जारी करेंगी कि पाकिस्तान ने बीते छह महीने सही तरह काम लिया है, लिहाजा अगली किस्त जारी की जा सकती है। सही तरह काम करने वाले देश के रूप में अमेरिकी विदेश मंत्री की सनद हासिल करने के लिए पाकिस्तान को परमाणु प्रसार और अनधिकृत कारोबार के बारे में जानकारी अमेरिका को देनी पड़ेगी। पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक एक्यू खान का नाम लिए बिना उनकी हर गतिविधि पर अमेरिकी नियंत्रण की बात की गई है।
पड़ोसी देशों के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां करने वालों पर पूरी तरह से रोक लगाने की बात भी की गई है। अल-कायदा, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद का साफ उल्लेख करके यह बता दिया गया है कि अगर भारत के खिलाफ आतंक फैलाया गया तो दाना-पानी बंद कर दिया जाएगा। दुनिया जानती है कि लाहौर के पास स्थित मुरीदके शहर में लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज मुहम्मद सईद और जमात-उद्-दावा का मुख्यालय है। इस शहर को अमेरिकी पीस एक्ट में आतंकवाद के प्रमुख केंद्र के रूप में दिखाया गया है। जाहिर है कि अगर पाकिस्तान सरकार हाफिज मुहम्मद सईद को काबू में नहीं रखती तो अमेरिकी खैरात पर रोक लग सकती है। पाकिस्तानी फौज को जो बात सबसे नागवार गुजरी है वह यह कि अमेरिका पाकिस्तान की सरकार और वहां की फौज पर नियंत्रण रखे। सरकार को आगे से सेना के बजट, कमांड की प्रक्रिया, जनरलों का प्रमोशन, रणनीतिक नीति निर्धारण और नागरिक प्रशासन में सेना की भूमिका पर नजर रखनी पड़ेगी और अमेरिका को इसके बारे में जानकारी देनी पड़ेगी। सबसे मुश्किल बात यह है कि पाकिस्तानी सरकार के लिखकर देने मात्र से बात नहीं बनेगी। अमेरिकी विदेश मंत्री की ओर से अच्छे काम की सनद तब मिलेगी जब मौके पर तैनात अमेरिकी अधिकारी इस बात की पुष्टि कर देंगे। सही बात यह है कि अगर अमेरिका इस बात पर अड़ा रहता है तो यह माना जाएगा कि उसने पाकिस्तान की सरकार पर एक प्रकार से कब्जा कर लिया है, लेकिन अमेरिकी प्रशासन की परेशानी यह है कि पिछले तीस साल में पाकिस्तानी शासकों ने अमेरिकी मदद का दुरुपयोग ही किया है।
पिछले दिनों रावलपिंडी में सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कियानी ने पाकिस्तानी सेना के शीर्ष कमांडरों की बैठक की अध्यक्षता की। इस बैठक के बाद एक बयान जारी किया गया, जिसमें पीस एक्ट के प्रावधानों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया कि इन प्रावधानों के लागू होने पर पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा पर उलटा असर पड़ेगा। कमांडरों ने लगभग आदेश देने की भाषा में जरदारी सरकार को कहा कि राष्ट्रीय असेंबली (संसद) की बैठक बुलाएं और इस कानून के खिलाफ राष्ट्रीय प्रतिक्रिया व्यक्त करें। पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) ने भी अमेरिकी मदद के साथ जुड़ी हुई शर्तो का विरोध किया है, जबकि जरदारी सरकार इस कानून से खुश है। पाकिस्तानी राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहत उल्ला बाबर ने कहा कि जो लोग अमेरिकी सहायता का विरोध कर रहे हैं वे वैकल्पिक रास्ता सुझाएं। दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व विदेशी मामलों की उपसमिति के उपाध्यक्ष सीनेटर गैरी एकरमैन ने पाक अधिकारियों को हड़काया है कि अमेरिकी मदद किसी मकसद को हासिल करने के लिए दी जा रही है। यह कोई खैरात नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान शर्तो का उल्लंघन करता है तो मदद को रद भी किया जा सकता ह
Monday, October 19, 2009
बिज़नस स्कूलों के सर्वे का खेल
बिज़नस स्कूलों के सर्वे का यह खेल और उस से जुडी हेराफेरी कोई नई बात नहीं है .१९९८ में जब इस पत्रिका का सर्वे आया था तो एफ एम एस दिल्ली ने शिकायत की थी किउनक अनाम नीचे डाल दिया गया क्योंकि पत्रिका के प्रतिनधि ने विआपन माँगा था जो नहीं दिया गया था , इस तरह के सर्वे का काम पूरे अमरीका और यूरोप में होता है. वहां होने वाले सर्वे आम तौर पर भरोसे मंद भी होते हैं . अगर वे हेरा फेरी करते पाए जाते हैं तो उन पर मुक़दमा भी होता है और जुर्माना भा, शायद इसी लिए वहां की मीडिया कंपनियां गड़बड़ नहीं करतीं . लेकिन भारत में यह सारा काम नया है . शायद दस साल के करीब से यह धंधा चल रहा है.. लेकिन अगर मीडिया हाउस फ़ौरन से पेश्तर संभल न गए तो उन्हें सज़ा भी होगी और जुर्माना भी क्योंकि इन्टरनेट के चलते उनकी पोल पट्टी किसी भी वेबसाइट पर खुल जायेगी . मीडिया का जनवादीकरण हो चुका है . मीडिया पर धीरे धीरे धन्ना सेठों की गिरफ्त कमज़ोर पड़ रही है और कुछ न्यायप्रिय नौजवान पत्रकार मीडिया को पूंजी के शिकंजे से मुक्ति दिलाने की क्रान्ति के हरावल दस्ते की अगुवाई कर रहे हैं . |
Thursday, October 8, 2009
सत्ता का खूंखार चेहरा और गरीब आदमी
झारखंड के पुलिस अधिकारी फ्रांसिस इदवार को उनके अपहर्ताओं ने निर्ममता पूर्वक मार डाला। फ्रांसिस एक मामूली आदमी थे और सरकारी नौकरी के सहारे अपने बच्चों का लालन पालन कर रहे थे। अपनी ड्यूटी करते हुए वे अपहरण का शिकार हो गए और अपनी जान गंवा बैठे। सरकारी तंत्र ने छूटते ही कह दिया कि माओवादियों ने उन्हें मार डाला है। टी.वी. चैनलों और अखबारों की खबरें भी यही बताती हैं।
हालांकि आज के जमाने में इस तरह के मामलों में सरकारों की विश्वसनीयता बहुत ही आदरणीय नहीं रह गयी है लेकिन सम्माननीय अखबारों ने भी इसे माओवादियों की करतूत बताया है इसलिए लगता है कि अति वामपंथी विचारधारा ने एक ऐसे आदमी की जान ले ली। एक टी.वी. चैनल में बहस करने आए वामपंथी लेखक और कार्यकर्ता गौतम नवलखा मानने को तैयार नहीं थे कि फ्रांसिस की बर्बर हत्या माओवादियों ने की होगी। उनको लगता था कि बिना तथ्यों की पूरी जानकारी हासिल किए इस विषय में कुछ भी कहना ठीक नहीं है।
यानी वे यह कहना चाह रहे थे कि हो सकता है कि माओवादियों को बदनाम करने के लिए किसी और ने फ्रांसिस को मार डाला हो। यह बात दूर की कौड़ी है हालांकि इस बात की संभावना से भी पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता। एक गौतम नवलखा की बात मानकर बाकी सारी दुनिया को झूठा ठहराना बहुत ही बेतुका राग है। सच्ची बात यह है कि मीडिया के पास इस तरह की वारदात के कारणों की जांच करने के तरीके होते है जिससे सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। यह जानकारी किसी भी अदालत में सबूत तो नहीं बनती लेकिन होती सही है।
इस आधार पर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि फ्रांसिस की हत्या माओवादियों ने ही की। फ्रांसिस की हत्या एक बहुत ही खतरनाक संकेत है। माओवादी राजनीति, निश्चित रूप से हिंसा का सहारा ले रही है। धनाढ्य वर्गों के हित पोषक भारत की राजनीतिक पार्टियां अपने वर्गों को लाभ पहुंचाने में जुटी हुई हैं। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि माओवादियों के लाल कॉरिडर में पडऩे वाले राज्यों में राज करने वाली सभी पार्टियों का वर्ग चरित्र वही है जो किसी भी सामंतवादी साम्राज्यवादी पार्टी की सोच का होता है।
इन सारे इलाकों में कही भी भूमि सुधार नहीं हुआ है, राजनीतिक नेता सामंतों की तरह का आचरण करते हैं और गरीब आदमियों के लिए आने वाली सभी स्कीमों का पैसा हड़प लेते है। निराश हताश गरीब आदमी दिग्भ्रमित वामपंथियों के चंगुल में फंस जाता है और वह हथियार उठा लेता है।
इस तरह सत्ता के दो दावेदारों के बीच में लड़ाई शुरू हो जाती है। सरकारी सत्ता पर काबिज भू-स्वामियों-पूंजीपतियों के सेवक राजनेता एक तरफ और माक्र्सवादी शब्दजाल इस्तेमाल करके अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे, कम्युनिस्ट विचारधारा से दिशाभ्रम की स्थिति में पहुंच चुके शातिर सत्ताकामी वामपंथी सरगनाओं की मंडली दूसरी तरफ। अजीब बात है कि इस खेल में मरने वाला हर आदमी गरीब है। चाहे वह माओवादियों की तरफ से हो या सरकार की तरफ से। पुलिस का इंस्पेक्टर फ्रांसिस बहुत ही मामूली आदमी था, अगर उसे सरकारी नौकरी न मिली होती तो वह शायद कहीं मजदूरी कर रहा होता।
लेकिन ज्यों ही सत्ता के प्रतिष्ठानों के संचालक पकड़े जाते हैं तो तूफान मच जाता है। माओवादियों का यह नया खूंखार रूप उनके बड़े नेताओं कोबाद गांधी और छत्रधर महतो के पकड़े जाने के बाद ही समाने आया है। इसके बाद हुकूमतों को भी माओवादियों के बहाने आदिवासी इलाकों में आम आदमी को घेरकर मारने का मौका मिल जायेगा। यह बात सबको मालूम है कि इस खूनी खेल में कोई बड़ा आदमी नहीं मारा जायेगा।
आदिवासी इलाकों में चल रहे नए खून खराबे में एक नया आयाम भी जुड़ रहा है। बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा अनमोल है और अब उस पर बहुराष्टï्रीय कंपनियों की नजर लगी हुई है। इस बात की पूरी संभावना है कि इन इलाकों में चल रहे ताजा खून खराबे में इस साम्राज्यवादी खेल का भी कुछ योगदान हो। जहां तक सरकारों का प्रश्न है, वे तो पूंजीपति वर्ग की भलाई के लिए ही सत्ता में हैं, उन्हें सत्ता पर स्थापित करने में थैलीशाहों की चमक के योगदान की भी चर्चाएं होती रहती हैं, इस बात की भी पूरी आशंका है कि माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व में भी कुछ ऐसे लोग हों जो पूंजीपति वर्ग का खेल जमाने में मदद कर रहे हों।
इस तरह की बात हर उस इलाके में हो चुकी है। जहां खनिज संपदा होती है पेट्रोल के इस्तेमाल के पहले अरब का इलाका एक ऐसा क्षेत्र था जहां कभी किसी की नजर नहीं जाती थी। समुद्र के रास्ते संपन्न इलाकों की खोज में निकलने वाले यूरोपीय यात्री पश्चिम एशिया के इस इलाके पर नजर ही नहीं डालते थे, सीधे भारत की तरफ बढ़ते थे, जहां की संपन्नता का तिलिस्म उनको खींचता रहता था।
लेकिन पेट्रोल और अन्य हाइड्रोकार्बन पदार्थों के ऊर्जा के मुख्य स्रोत के विकसित होने के बाद पश्चिम एशिया में साम्राज्यवादियों के हित साधन के रास्ते पैदा किए गए और आज पेट्रोलियम पदार्थों से संपन्न यह इलाका पूंजीपति साम्राज्यवादी शक्तियों की बर्बरता का केंद्र बना हुआ है। वहां रहने वाले लोगों को हर तरह के खूनी खेल का नतीजा झेलना पड़ रहा है।
भारत में नये विकसित हो रहे लाल कॉरिडर के क्षेत्र भी खनिज संपदा से लैस हैं। वहां पर राज करने वाली पार्टियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधन करने में कोई संकोच नहीं होगा। इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन क्षेत्रों की तबाही में माओवादी भी किन्हीं निहित स्वार्थों के कारिंदे हों। इसलिए सिविल सोसाइटी को चौकन्ना रहना पड़ेगा कि साम्राज्यवादियों के हितों की साधना के चक्कर में कहीं भारत का एक बड़ा हिस्सा विवादों के घेरे में न आ जाय और अवाम की पहले से ही मुश्किल जिंदगी और मुश्किल न हो जाय।
Wednesday, October 7, 2009
राहुल न बच्चे हैं, न कच्चे
पिछले दिनों उनकी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की यात्रा और उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में एक दलित के घर जाकर रहना, उसके यहां भोजन करना और वहीं गांव में लगे इंडिया मार्क II हैंडपंप पर तौलिया पहन कर नहाना, भारतीय राजनीतिक नेताओं को उनका असली फर्ज याद दिलाने का काम करेगा।
उत्तर प्रदेश सरकार को एतराज हो सकता है कि राहुल गांधी ने अपनी सुरक्षा की परवाह नहीं की या उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत वाले दलों को बुरा लग सकता है कि राहुल गांधी उन लोगों का विश्वास जीतने की कोशिश कर रहे हैं जो परंपरागत रूप से उनकी पार्टी के वोटर हैं। जहां तक सुरक्षा का सवाल है तो वह सुरक्षा एजेंसियों का विषय है, उसपर उन्हें ही ध्यान देना चाहिए लेकिन राहुल की यात्राओं का जो राजनीतिक भावार्थ है, उसको समझना और उसे आम आदमी तक पहुंचाना हमारा कर्तव्य है और हमारे पेशे की बुनियादी जरूरत भी। राहुल गांधी गांव के सबसे गरीब आदमी के दुख दर्द को समझने की कोशिश कर रहे हैं। ज़ाहिर है जिस तरह से उनका लालन पालन हुआ है, उसमें उन्हें गरीब आदमी की तकलीफों को समझने के अवसर बहुत कम मिले हैं। आज जब गरीबों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से नरेगा जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं जिसमें बहुत सारा सरकारी धन लग रहा है तो राजनेताओं का फर्ज है कि वे नजर रखें कि जो योजना बनी है, वह सही तरीके से लागू भी हो रही है। राहुल गांधी वही काम कर रहे हैं जो उन्हें एक राजनीतिक नेता के रूप में करना चाहिए लेकिन इस देश का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता उस काम की खिल्ली उड़ा रहे हैं, जो उन्हें भी करना चाहिए।
जरूरत इस बात की है समाज के जागरूक लोग, मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता नेताओं को यह बताएं कि आपका कर्तव्य क्या है। किसी भी राजनेता को पूरे देश में कहीं भी आम आदमी से मिलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और उस पर सवालिया निशान लगाने वालों की मंशा की विवेचना की जानी चाहिए। कुछ भी करना पड़े ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है कि राजनीति में सक्रिय लोगों को तब तक सामाजिक मान्यता न मिले जब तक कि वे आम आदमी के बीच में जाकर उसके दुख दर्द को समझने के लिए सक्रिय प्रयास न करें। सच्चाई यह है कि अगर राजनेता ग्रामीण भारत की तकलीफों को समझने के लिए उनके बीच में समय बिताएगा तो भ्रष्टाचार के दानव से कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ी जा सकती है। अगर ईमानदार राजनेता के ग्रामीण स्तर पर किसी भी वक्त पहुंच जाने का माहौल बन गया तो बहुत छोटे स्तर के भ्रष्टाचार पर बहुत आसानी से लगाम लगाई जा सकेगी।
अगर इस बिरादरी को कमजोर करने में सफलता मिल गई तो टॉप पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को बहुत बड़ी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि मीडिया से जुड़े लोग चौकन्ना रहें और ज्यों ही कोई बड़ा नेता किसी भी राजनीतिक कार्यकर्ता के ग्रामीण इलाकों में जाने या वहां काम करने का मखौल उड़ाए, उससे तुरंत सवाल पूछ लिया जाय कि आप क्यों नहीं जाते? अगर नेताओं के बीच गरीब आदमी की सेवा करने और उसका दुख दर्द बांटने की होड़ लग गई तो देश की आज़ादी को सम्मान दिया जा सकेगा। यहां राहुल गांधी की प्रशस्ति करने का कोई मकसद नहीं है। बस एक बात बता देना ज़रूरी है कि जो लोग भी अच्छा काम करें उनकी तारीफ की जानी चाहिए। एक और बात राहुल गांधी के बारे में की जाती है कि वे बच्चे हैं, अभी उनको राजनीति सीखने की ज़रूरत है। यह बात भी बहुत ही गैर जिम्मेदार बयानों की श्रेणी में आयेगी। राहुल गांधी लगभग 40 साल के होने वाले हैं। महात्मा गांधी चालीस के भी नहीं हुए थे जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह नाम के अजेय राजनीतिक हथियार का अविष्कार कर दिया था। 1909 में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बीजक, क्वहिंद स्वराजं की जब रचना हुई तो महात्मा गांधी 40 साल के ही थे। दुनिया जानती है कि क्वहिंद स्वराजं का भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन में कितना योगदान है।
40 साल की उम्र में जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बन चुके थे। इसके पहले 32 साल की उम्र में ही नेहरू उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय नेता बन चुके थे। 1921 में उत्तर प्रदेश के राजनीतिक सम्मेलन में उन्होंने स्वदेशी के पक्ष में जनमत तैयार कर लिया था और पूरे राज्य में उनका विश्वास किया जाता था। 1921 के असहयोग आंदोलन के सिलसिले में फैजाबाद जिले के भीटी गांव में उन्हें एक सभा को संबोधित करना था। कलेक्टर ने दफा 144 लगाकर मीटिंग में दखल देने की कोशिश की। पता चला कि साढ़े चार मील दूर सुल्तानपुर जिला शुरू हो जाता है। जवाहर लाल ने अपने श्रोताओं समेत सुल्तानपुर की सीमा में पैदल ही प्रवेश किया और वहां जाकर भाषण किया। इन्हीं श्रोतओं में 11 साल का एक बालक भी था जिसका नाम राम मनोहर लोहिया था। बाद में डा. लोहिया देश के बहुत बड़े नेता बने। 24 साल की उम्र में उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना कर दी थी और उसके पहले ही भारत का प्रतिनिधि बनाए गए बीकानेर के महाराजा को लंदन में फटकार लगाई थी। जब लोहिया चालीस साल के थे तो जवाहर लाल नेहरू को चुनौती दे रहे थे। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के, बड़े नेता माधव सदाशिव गोलवलकर भी 34 साल की उम्र में संघ के सर्वोच्च पद पर असीन हो हो चुके थे। इसलिए राहुल गांधी को बच्चा कहने वालों को इतिहास से सबक लेना चाहिए और ग्रामीण भारत को मुख्यधारा में लाने की उनकी कोशिश की निंदा नहीं करनी चाहिए बल्कि उसे अपने राजनीतिक एजेंडे में शामिल करना चाहिए।