Wednesday, August 10, 2011

सुप्रीम कोर्ट का फरमान-फर्जी मुठभेड़ के गुनहगार पुलिस वालों को फांसी



शेष नारायण सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी मुठभेड़ के मामलों में बहुत ही सख्त रुख अपनाया है . राजस्थान के फर्जी मुठभेड़ के अक्टूबर २००६ के एक मामले की सुनवाई के दौरान माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में शामिल पुलिस वालों को फांसी दी जानी चाहिए . माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि अगर साधारण लोग कोई अपराध करते हैं तो उन्हें साधारण सज़ा दी जानी चाहिए लेकिन अगर वे लोग अपराध करते हैं जिन्हें अपराध रोकने की ज़िम्मेदारी दी गयी है तो उसे दुर्लभ से दुर्लभ अपराध मान कर उन्हें उसी हिसाब से सज़ा दी जानी चाहिए .राजस्थान के इस मामले में पुलिस के बहुत बड़े अधिकारी भी शामिल हैं .दारा सिंह नाम के एक व्यक्ति को पुलिस ने यह कह कर मार डाला था कि वह हिरासत से भाग रहा था . जबकि उस व्यक्ति की पत्नी ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने सोचे समझे षड्यंत्र के तहत उसकी हत्या की थी. बात सुप्रीम कोर्ट तक पंहुच गयी और देश की सर्वोच्च अदालत ने सख्ती का रुख अपनाया और सी बी आई को आदेश दिया कि मामले की फ़ौरन जांच की जाए. अदालत ने आदेश दिया कि राज्य के अतिरिक्त पुलिस निदेशक ए के जैन और अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक अरशद अली को भी गिरफ्तार करके उनसे पूछताछ की जाए. अभी सरकारी रिकार्ड में यह दोनों ही अफसर अपने को फरार दिखा रहे हैं .सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी के बाद देश में फर्जी इनकाउंटर के मसले पर एक दिलचस्प बहस शुरू हो जायेगी . इन सवालों पर भी गौर करने की ज़रुरत है कि फर्जी मुठभेड़ के मामलों में फौरी इंसाफ़ के चक्कर में कीं निर्दोष न मारे जाएँ. आने वालो दिनों में इस बात पर भी बहस होगी कि न्याय प्रशासन में मौजूद कमजोरियों का लाभ उठा कर असली अपराधी निर्दोष लोगों को फंसाने में कामयाब न हो जाएँ.

इस बात में दो राय नहीं है कि आम आदमी को इंसाफ़ दिलवाने की कोशिश में पुलिस अपने अधिकारों का दरुपयोग करती रहती है.लेकिन फर्जी मुठभेड़ों के कुछ ऐसे मामले भी प्रकाश में आये हैं जो सभ्य समाज के माथे पर कलंक से कम नहीं हैं.इस सिलसिले में एक संगमील मामला मुंबई की एक लडकी इशरत जहां का था जिसे गुजरात पुलिस के बड़े अधिकारी डी जी वंजारा ने तथाकथित आतंकियों के साथ अहमदाबाद में जून २००५ में फर्जी मुठभेड़ में मार डाला था. इशरत जहां के घर वाले पुलिस की इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि उनकी लड़की आतंकवादी है . मामला अदालतों में गया और सिविल सोसाइटी के कुछ लोगों ने उनकी मदद की और जब सुप्रीम कोर्ट की नज़र पड़ी तब जाकर असली अपराधियों को पकड़ने की कोशिश शुरू हुई . न्याय के उनके युद्ध के दौरान इशरत जहां की मां , शमीमा कौसर को कुछ राहत मिली जब गुजरात सरकार के न्यायिक अधिकारी, एस पी तमांग की रिपोर्ट आई जिसमें उन्होंने साफ़ कह दिया कि इशरत जहां को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया था और उसमें उसी पुलिस अधिकारी, वंजारा का हाथ था जो कि इसी तरह के अन्य मामलों में शामिल पाया गया था. एस पी तमांग की रिपोर्ट ने कोई नयी जांच नहीं की थी, उन्होंने तो बस उपलब्ध सामग्री और पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के आधार पर सच्चाई को सामने ला दिया था. इशरत जहां के मामले में मीडिया के एक वर्ग की गैर जिम्मेदाराना सोच भी सामने आ गयी थी. अपनी बेटी की याद को बेदाग़ बनाने की उसकी मां की मुहिम को फिर भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में विश्वास हो गया. हालांकि एस पी तमांग की रिपोर्ट आने के बाद इशरत जहां की माना शमीमा कौसर ने बहुत कोशिश की . निचली अदालतों से उसे कोई राहत नहीं मिली शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार की और देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला आया तब जाकर इशरत जहांइशरत जहां केस के फर्जी मुठभेड़ से सम्बंधित सारे मामले रोक दिए गए...इस स्टे के साथ ही मामले को जल्दी निपटाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है . एस पी तमांग की रिपोर्ट में तार्किक तरीके से उसी सामग्री की जांच की गयी थी जिसके आधार पर इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के मामले को पुलिस अफसरों की बहादुरी के तौर पर पेश किया जा रहा था. तमांग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि जिन अधिकारियों ने इशरत जहां को मार गिराया था उनको उम्मीद थी कि उनके उस कारनामे से मुख्य मंत्री बहुत खुश हो जायेंगें और उन्हें कुछ इनाम -अकराम देंगें . अफसरों की यह सोच ही देश की लोकशाही पर सबसे बड़ा खतरा है . जिस राज में अधिकारी यह सोचने लगे कि किसी बेक़सूर को मार डालने से मुख्य मंत्री खुश होगा , वहां आदिम राज्य की व्यवस्था कायम मानी जायेगी. यह ऐसी हालत है जिस पर सभ्य समाज के हर वर्ग को गौर करना पड़ेगा वरना देश की आज़ादी पर मंडरा रहा खतरा बहुत ही बढ़ जाएगा और एक मुकाम ऐसा भी आ सकता है जब सही और न्यायप्रिय लोग कमज़ोर पड़ जायेंगें . ज़ाहिर है ऐसी किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सभी लोकतांत्रिक लोगों को तैयार रहना पड़ेगा. अगर ऐसा न हुआ तो सत्ता का बेजा इस्तेमाल करने वाले हमारी आज़ादी को तानाशाही में बदल देंगें . ऐसा न हो सके इसके लिए जनमत को तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा , लोकतंत्र के चारों स्तंभों , न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया को भी हमेशा सतर्क रहना पडेगा .

राजस्थान के मौजूदा मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस सी के प्रसाद की बेंच ने ने निचली अदालत के ११ अप्रैल के उस आदेश पर सख्त एतराज़ किया जिसमें नए सिरे से एफ आई आर लिखने का फैसला सुनाया गया था . सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब सी बी आई मामले की जांच कर रही थी तो नए एफ आई आर का कोई मतलब नहीं है.जबकि सी बी आई की जांच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही शुरू की गयी थी. लेकिन यह उम्मीद करना भी असंभव है कि सुप्रीम कोर्ट हर मामले संज्ञान में लेगी. ज़रुरत इस बात की है कि देश का हर नागरिक अन्याय के खिलाफ हमेशा चौकन्ना रहे औअर अगर ज़रुरत पड़े तो आम आदमी लामबंद होकर न्याय के लिए आन्दोलन तक करने के लिए तैयार रहे.

Saturday, August 6, 2011

काश अन्ना हजारे अपने मकसद में कामयाब हो गए होते

शेष नारायण सिंह

लोकसभा में सरकार ने लोक पाल बिल पेश कर दिया.सरकारी कोशिश से लागता है कि एक ऐसा कानून बनने वाला है जो बिलकुल दन्त विहीन होगा . भ्रष्टाचार को खत्म करना तो दूर उसे बढ़ावा देगा.इस तरह के अपने मुल्क में बहुत सारे कानून हैं . एक सरकारी विभाग बनेगा,कुछ नौकरशाहों को दिल्ली में पार्किंग स्पेस मिलेगा. लेकिन भ्रष्टाचार का बाल नहीं बांका होगा. देश में आज लगभग हर इंसान भ्रष्टाचार का शिकार है ,त्राहि त्राहि कर रहा है. उसकी भावनाओं को एक दिशा देने की दिशा में अन्ना हजारे ने एक सराहनीय क़दम उठाया था जो तूफ़ान बन सकता था,जन अभियान बन सकता था लेकिन जनता की इन भावनाओं को जनांदोलन बनने से निहित स्वार्थों ने रोक दिया . कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जननायक बन रहे अन्ना हजारे को अपने साथ ले लिया, दिल्ली के सत्ता के गलियारों की सैर करा दी . उनके आगे पीछे कुछ ऐसे लोग घूम रहे थे जिन्होंने कभी जाना ही नहीं कि भ्रष्टाचार आदमी को कितनी गहरी चोट करता है . उनके साथ लगे हुए पुलिस , इनकम टैक्स और न्यायव्यस्था से जुड़े लोग अपनी विभाग में इतने ताक़तवर लोग हैं कि कभी किसी ने उनसे घूस माँगा ही नहीं होगा, उन्हें घूस की मार का अंदाज़ नहीं है . उन्होंने अपने साथ काम करने वाले बड़े अफसरों को घूस लेते देखा ज़रूर होगा लेकिन यह लगभग पक्का है कि कभी भी उनके सामने रिश्वत देने की मजबूरी नहीं पड़ी होगी .घूस के खिलाफ लड़ाई आम आदमी की है. इसलिए जब अन्ना ने नारा दिया तो वह उनके साथ हो गया. देश के लाखों पत्रकारों ने अन्ना की राह पकड़ ली. लगने लगा कि १९२० के महात्मा गांधी या १९७५ के जयप्रकाश नारायण के आन्दोलनों की तरह का कोई आन्दोलन शुरू हो चुका था. देश के कोने कोने में अन्ना हजारे की डुगडुगी बज चुकी थी, जो जहां था वहीं से भ्रष्टाचार के खिलाफ जुझारू राग में नारे लगा रहा था . शासक वर्गों को यह बात जंची नहीं , वे नाराज़ हुए और भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए तूफ़ान के नायक की ताक़त को ही बेकार करने की योजना पर काम शुरू कर दिया. अन्ना हजारे को सरकारी कमेटी में शामिल होने की दावत दे दी. यह एक जाल था जिसे सत्ता ने फेंका था. उस जाल के साथ नत्थी वायदों को देख कर अन्ना हजारे फंस गए. नतीजा यह हुआ कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जन आन्द्दोलन बन रहा था वह आज कहीं नज़र नहीं आता. अब भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराने की बीजेपी की योजना ही चारों तरफ नज़र आ रही है . इस बात में कोई शक़ नहीं है कि कांग्रेस के राज में भ्रष्टाचार की नई ऊंचाइयां तय की गयी हैं लेकिन बीजेपी वाले भी कम भ्रष्ट नहीं हैं .उनके मंत्री और नेता भी भ्रष्टाचार की कथाओं में बहुत ही आदर से उद्धृत किये जाते हैं . इसलिए भ्रष्टाचार को जनांदोलन बनने से रोकने के लिए दोनों ही शासक पार्टियों ने मेहनत की और आम आदमी का दुर्भाग्य है कि समकालीन इतिहास में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाला सबसे बड़ा नायक सत्ता के गलियारों में भटक गया .आज बीजेपी वाले इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दे रहे हैं कि प्रधान मंत्री को लोकपाल के घेरे में लिया जाए लेकिन जन लोकपाल बिल में जो सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं वे पता नहीं कहाँ खो गयी हैं. बीजेपी समेत सारे देश को मालूम है कि अगर कांग्रेस ने तय कर लिया है कि वह प्रधान मंत्री को दायरे में नहीं आने देगी तो वही होगा . इसलिए उस बात को राष्ट्रीय बहस के दायरे में नहीं लाना चाहिए था. इसलिए ज़रूरी यह था कि जन लोक पाल बिल में जो अच्छी बातें हैं उसे सरकारी बिल में लाने की कोशिश की जाती. जहां तक इस देश के आम आदमी की बात है उसे भ्रष्टाचार से फौरी राहत चाहिए . प्रधान मंत्री के भ्रष्टाचार की बात को वह बाद में अगले आन्दोलन के बाद देख सकता है . भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को प्रभावी बनाने के लिए जन लोक पाल बिल में कुछ बहुत अच्छे प्रावधान हैं . मसलन उसकी धारा २० में लिखा है कि जो व्यक्ति भ्रष्टाचार की पोल खोलेगा उसे पूरी सुरक्षा दी जायेगी . लिखा है कि भ्रष्टाचार की जानकारी देने वाले के जीवन को ख़तरा रहता है इसलिए उसकी सुरक्षा की गारंटी के साथ साथ जांच के काम को बहुत तेज़ी से निपटाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. उसके बाद धारा २१ महत्वपूर्ण है . इसमें न्याय मिलने में होने वाली देरी को निशाने पर लिया गया है .न्याय मिलने में देरी की परिस्थिति के लिए अधिकारी को ज़िम्मेदार ठहराने का सुझाव है . यह दो बातें भ्रष्टाचार के निजाम पर ज़बरदस्त हमला कर सकती थीं . लेकिन इन पर कहीं कोई बात नहीं हो रही है . नतीजा यह है कि कांग्रेस ने जिन नेताओं को भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे तूफ़ान को रोकने का ज़िम्मा दिया था वे बहुत ही खुश हैं . अन्ना की ओर से प्रस्तावित जन लोक पाल बिल में धारा २० और २१ ऐसे प्रावधान हैं जो भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे अभियान को ताक़तवर बना सकते थे. अभी देर नहीं हुई है . भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक तेवर दिखाने वाली बीजेपी को चाहिए कि वह लोकपाल बिल की चर्चा के दौरान ऐसी हालत पैदा करे कि जन लोकपाल बिल की वे बातें जो आम आदमी को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की ताक़त रखती है, कानून की शक्ल ले सकें. भ्रष्टाचार के खिलाफ उठे जन ज्वार को शांत करने की शासक पार्टियों की सफलता के बाद भी अगर जन लोक पाल की अहम बातें सरकारी बिल में शामिल करवाई जा सकें तो जनता और देश का बहुत भला होगा.

Friday, August 5, 2011

शातिर अपराधियों को संसद और विधानसभा में नहीं घुसने देगें

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार ने ऐसी पहल की है कि आने वाले दिनों में अपराधियों के लिए चुनाव लड़ पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. कानून मंत्रालय ने केंद्रीय मंत्रिपरिषद के विचार के लिए एक प्रस्ताव भेजा है जिसमें सुझाया गया है कि उन लोगों पर भी चुनाव लड़ने से रोक लगा दी जाए जिनको ऊपर किसी गंभीर अपराध के लिए चार्ज शीत दाखिल कर दी गयी है . अभी तक नियम यह है कि है जिन लोगों को दो साल या उस से ज़्यादा की सज़ा सुना दी गयी हो वे चुनाव नहीं लड़ सकते. इस नियम से अपराधियों को रोक पाना बहुत ही मुश्किल हो रहा है .मौजूद समाज की जो हालत है उसमें इलाके के दबंग को सज़ा दिला पाना बिलकुल असंभव होता है . लगभग सभी मामलों में गवाह नहीं मिलते . उनको डरा धमकाकर गवाही देने से हटा दिया जाता है . अगर किसी मामले में निचली अदालत से सज़ा हो भी गयी तो हाई कोर्ट में अपील होते है और वहां कई कई साल तक मुक़दमा लंबित रहता है . अपने देश के हाई कोर्टों में बयालीस हज़ार से ज्यादा मुक़दमें विचाराधीन हैं . ऐसी हालत में अपराधी इस बिना पर चुनाव लड़ता रहता है कि उसका केस अभी अपील में है. लुब्बो लुबाब यह है कि संसद और विधान सभाओं में अपराधी लोग बहुत ही आराम से पंहुचते रहते हैं . सब को मालूम रहता है कि चुनाव अपराधी व्यक्ति लड़ रहा है लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता क्योंकि कानून उसे अपील के तय होने तक निर्दोष मानने की सलाह देता है . यह भी देखा गया है कि चुनाव में बहुत सारे दबंग लोग आतंक के सहारे चुनाव जीत लेते हैं .

कानून मंत्रालय का नया प्रस्ताव अपराधियों को संसद और विधान सभाओं में पंहुचने से रोकने का कारगर उपाय साबित होने की क्षमता रखता है . प्रस्ताव यह है कि गंभीर अपराधों के अभियुक्त उन लोगों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाए जिनके खिलाफ ट्रायल कोर्ट में चार्जशीट दाखिल हो चुकी हो. प्रस्ताव में गंभीर अपराधों की लिस्ट भी दी गयी है जिसमें आतंक ,हत्या,अपहरण, नक़ली स्टैम्प पेपर या जाली नोटों से जुड़े हुए अपराध , बलात्कार के मामले , मादक द्रव्यों से सम्बंधित अपराध और देशद्रोह के मामले शामिल हैं . अगर प्रस्ताव को मंत्रिमंडल की मंजूरी मिली तो इसे संसद में विचार करने के लिए लाया जाएगा .वहां पास हो जाने के बाद इन अपराधों में पकडे गए लोगों को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा. पिछले कई वर्षों से अपराधियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की कोशिश होती रही है लेकिन बात को यह कह कर रोक दिया जाता है कि अगर अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोकने की बात को कानून बना दिया गया तो पुलिस के पास अकूत पावर आ जाएगा और वह किसी को भी पकड़ कर अभियुक्त बनाकर उसे चुनाव लड़ने से रोक देगी. अपने देश में पुलिस की यही ख्याति है , हर इलाके में ऐसे कुछ न कुछ ऐसे मामले मिल जायेगें जहां पुलिस ने लोगों को फर्जी तरीके से फंसाया हो. ज़ाहिर है जब भी इस तरह का मामला आया तो लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधर जमातों ने विरोध किया . नतीजा यह हुआ कि राजनीति में अपराधियों की संख्या बढ़ती गयी. पुलिस को किसी को राजनीति के दायरे से बाहर रख सकने की ताक़त देना लोकतंत्र के खिलाफ होगा लेकिन लोकतंत्र को अपराधियों के कब्जे से बचाने की कोशिश भी करना होगा. इसी सोच का नतीजा है कानून मंत्रालय का नया सुझाव . नए सुझाव में यह प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति पुलिस की मनमानी का शिकार नहीं होगा . गंभीर अपराधों के आरोप में पुलिस जिसको भी गिरफ्तार करेगी वह तब तक चुनाव लड़ने के लिए योग्य माना जाता रहेगा जब तक कि पुलिस की अर्जी पर अदालत अभियुक्त के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने का हुक्म न सेना दे. यानी नए प्रावधान में पुलिस की मनमानी की संभावना पर पूरी तरह से नकेल लगाने की व्यवस्था कर दी गयी है .नए सुझावों में यह भी इंतज़ाम किया गया है कि उन लोगों को भी चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा जिनको निचली अदालत से सज़ा मिल चुकी है और उनका केस ऊपरी अदालतों में अपील के तहत विचाराधीन है . अभी तक अपील के नाम पर चुनाव लड़ने वाले अपराधियों को भी इस नए सुझाव से रोका जा सकेगा.

करीब तीस वर्षों से अपराधी छवि के लोग चुनाव मैदान में उतरने लगे है.इसके पहले बड़े नेताओं की सेवा में ही अपराधी तत्व पाए जाते थे.लेकिन अस्सी के लोकसभा चुनाव में बहुत सारे शातिर अपराधियों को टिकट मिल गया था. उसके बाद तो यह सिलसिला ही शुरू हो गया .हर पार्टी में अपराधी छवि के लोग शामिल हुए और चुनाव जीतने लगे . बाद के वर्षों में जब टिकट दिया जाता था तो इंटरव्यू के वक़्त टिकटार्थी यह दावा करता था कि वह ज्यादा से ज्यादा बूथों पर क़ब्ज़ा कर सकता है .बूथ पर क़ब्ज़ा कर सकने की क्षमता के बल पर राजनीति में अपराधियों की जो आवाजाही शुरू हुई,उसी का नतीजा है कि आज राजनीति में अपराधियों का चौतरफा बोलबाला है . कई बार अपराधियों को रोकने की पहल हुई लेकिन लगभग सभी पार्टियां उसमें अडंगा लगा देती थीं क्योंकि उनकी पार्टियों के बहुत सारे नेताओं पर आर्थिक अपराध की धाराएं लगी हुई होती थी. देश भर में बहस शुरू हो जाती थी कि निजी दुश्मनी निकालने के लिए पुलिस वाले किसी को भी फंसा सकते हैं और इस तरह से मुक़दमों के चलते कोई भी चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो सकता है यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है . वैसे भी देश के बहुत सारे बड़े नेता आर्थिक अपराधों में फंसे हुए हैं.ज़ाहिर है वे ऐसा कोई भी कानून नहीं बनने देंगें जो उनकी राजनीतिक सफलता की यात्रा में बाधक होगा . कानून मंत्रालय से जो नए सुझाव आये हैं उनकी खासियत यह है कि आर्थिक अपराध वालों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की बात नहीं की गयी है . इसका नतीजा यह होगा कि राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता इस कानून के दायरे के बाहर हो जायेगें.गंभीर अपराधों की श्रेणी से आर्थिक अपराधों को बाहर रखकर सरकार ने बड़े नेताओं को बचाने की कोशिश की है लेकिन इसका फायदा यह होगा कि यह सुझाव संसद में पास हो जायेगें.हत्या,बलात्कार,देशद्रोह जैसे अपराधों में देश का कोई भी बड़ा नेता शामिल नहीं है . अपनी राजनीतिक बिरादरी को जानने वालों को विश्वास है कि अगर बड़े नेता खुद नहीं फंस रहे हैं तो वे शातिर अपराधियों को दरकिनार करने में संकोच नहीं करेगें. वैसे भी नए प्रस्तावों में पुलिस पर लगाम लगाने की पूरी व्यवस्था है. पुलिस के आरोप लगाने मात्र से कोई चुनाव लड़ने से वंचित नहीं हो जाएगा . पुलिस अगर किसी को गंभीर अपराध के आरोप में पकड़ती है तो उसे तफ्तीश करने के बाद ट्रायल कोर्ट में जाना होगा . अगर अदालत से चार्ज फ्रेम करने की अनुमति मिलेगी तभी कोई नेता चुनाव लड़ने से वंचित हो सकेगा . ज़ाहिर है कि नए कानून में राजनीतिक व्यवस्था को अपराधियों से मुक्त करनी की दिशा में क़दम उठाने की क्षमता है .हालांकि अभी बहुत ही शुरुआती क़दम है लेकिन आज देश के एक बड़े अखबार में खबर छप जाने के बाद इस विषय पर पूरे देश में बहस तो शुरू हो ही जायेगी और उम्मीद की जानी चाहिए कि बहस के बाद जो भी सुधार चुनाव प्रक्रिया में होगा , उससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को फायदा होगा.

Wednesday, August 3, 2011

गीता को पढने के बाद इंसान धीर गंभीर हो जाता है,गाली गलौज नहीं करता .

शेष नारायण सिंह

पिछले दिनों गीता को कर्नाटक के स्कूलों में ज़बरदस्ती पढाये जाने की एक खबर पर मैंने टिप्पणी की थी. उस टिप्पणी को कुछ मित्रों ने छाप दिया . उसके बाद गाली देने वालों की फौज उस पर टूट पड़ी . मुझे लगता है कि किसी ने यह देखने की तकलीफ नहीं उठायी थी कि उसमें लिखा क्या है. कर्नाटक के एक मंत्री ने कहा था कि जो लोग गीता को नहीं मानते वे देश छोड़कर चले जाएँ. दूसरी बात उसने कही थी कि गीता एक महाकाव्य है . मैंने बस यह कहा था कि यह दोनों ही बातें गलत हैं. वास्तव में महाभारत महाकाव्य है और गीता महाभारत का एक अंश है. मैंने गीता को पढ़ा है और मैं जानता हूँ कि योगेश्वर कृष्ण ने गाली गलौज को कभी सही बात नहीं माना . उन्होंने दुर्योधन को हमेशा घटिया आदमी माना क्योंकि वह गाली गलौज करता रहता था .उसी बात को मैंने रेखांकित कर दिया था . गाली देने वालों ने ऐसा माहौल बनाया कि मैं गीता के अध्ययन का ही विरोध कर रहा था. मैं यह मानता हूँ कि गीता को बार बार पढने के बाद इंसान धीर गंभीर हो जाता है,गाली गलौज नहीं करता .

धन्ना सेठों की चाकरी का एक और हथियार है केंद्र की प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण नीति

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार का प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून अगर पास हो गया तो देश में लगभग पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लागू हो जायेगी. और आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सरकारों की भूमिका बहुत ही कम हो जायेगी.मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता, सीताराम येचुरी का कहना है कि यह बिल , भूमि अधिग्रहण जैसे संवेदनशील विषय पर जो विज़न पेश कर रहा है वह देश के औद्योगिक विकास को पूंजीपतियों के हवाले करके उस प्रक्रिया को अंजाम तक पंहुचाने का साधन है जिसे वित्तमंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने १९९१ में शुरू किया था. आर्थिक उदारीकरण की जो प्रक्रिया देश के आर्थिक विकास के माडल के रूप में उस वक़्त अपनाई गयी थी उसका सबसे बड़ा नुकसान आम आदमी को हो रहा है. आर्थिक उदारीकरण की वजह से ही देश में चारों तरह आज महंगाई का हाहाकार है .इसकी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से प्रधानमंत्री की पूंजीवादी आर्थिक सोच पर ही है.संसद के मौजूदा सत्र में यह बिल पेश होने वाला है हालांकि इसका इसी रूप में पास हो पाना बहुत मुश्किल है .
केंद्र सरकार के प्रस्तावित कानून की तुलना में उत्तर प्रदेश सरकार की नई भूमि अधिग्रहण नीति कई गुना बेहतर है .सिंगुर ,नंदीग्राम भट्टा पारसौल आदि कांडों के बाद केंद्र सरकार ने १८९४ के भूमि अधिग्रहण क़ानून को हटाकर एक नया कानून लाने की प्रक्रिया शुरू कर दिया है .इस कानून का मसौदा भी ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने जारी कर दिया है . बिल की भूमिका में जयराम रमेश ने दावा किया है कि प्रत्येक मामले में भूमि का अधिग्रहण इस तरह से किया जाए कि इससे भूस्वामियों के हितों की पूरी तरह से सुरक्षा हो और साथ ही उनके हित भी सुरक्षित रहें जिनकी आजीविका अधिग्रहीत की जाने वाली ज़मीन से जुडी है . अजीब बात है कि केंद्र सरकार उन पूंजीपतियों की आजीविका को सुरक्षित करने की जल्दी में उनको किसान के समकक्ष खड़ा कर देना चाहती है जबकि इस देश में असली किसान आमतौर पर गरीब है और उसकी आर्थिक ताक़त पूंजीपतियों की आर्थिक ताक़त से बहुत कम है .जयराम रमेश ने बताया कि प्रस्तावित कानून में निजी कंपनियों को किसानों से ज़मीन खरीदने की पूरी छूट दी गयी है यानी अब राज्य और केंद्र सरकारों को निजी पूंजी की ताकत का सामना भी करना पडेगा.हालांकि प्रस्तावित बिल में किसानों को अधिक मुआवजा देने की बात की गयी है लेकिन यह दुधारी तलवार है . इसके लागू होने के बाद पिछड़े क्षेत्रों में विकास के बारे में सरकार की पहल करने की क्षमता पूरी तरह से ख़त्म हो जायेगी जबकि पूंजीपतियों के अलावा नए उद्यमियों को उद्योग लगाने का मौक़ा ही नहीं मिल पायेगा.
इस बिल की तुलना में उत्तर प्रदेश सरकार की नीति किसान के पक्ष में भी है और उद्योगों और नगरों के विकास को सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं जाने देती .उत्तर प्रदेश की नई नीति में किसान को उसकी अधिग्रहीन ज़मीन का ७ प्रतिशत आबादी का हिस्सा तो दिया ही गया है जबकि उसकी ज़मीन का १६ प्रतिशत विकसित ज़मीन बिना किसी भुगतान के देने का प्रावधान है .उस १६ प्रतिशत को वह बाज़ार के हिसाब से जैसा चाहे इस्तेमाल कर सकता है. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस महासचिव ,राहुल गांधी अपने भाषणों में हरियाणा के भूमि अधिग्रहण कानून की तारीफ़ करते रहते हैं और बीजेपी वाले गुजरात के कानून की तारीफ़ करते पाए जाते हैं .राज्य में ज़मीन अधिग्रहण के मुक़दमों में व्यस्त उत्तर प्रदेश सरकार के एक अधिकारी ने बताया कि सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश की ज़मीन अधिग्रहण की नई नीति हरियाणा और गुजरात की नीतियों से बेहतर है . यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश से चुन कर आये संसद सदस्य अपनी बेहतर नीति को मीडिया और संसद में ठीक से रख नहीं पाते.

Monday, August 1, 2011

भारतीय नागरिक नाम के टिप्पणीकार की मनोदशा

शेष नारायण सिंह
कोई भारतीय नागरिक नाम के टिप्पणीकार आज कल मुझ पर बहुत ही कृपालु हैं. प्रश्न कर रहे हैं कि गुलाम नबी फाई की गिरफ्तारी के खिलाफ लिखी गयी पोस्ट क्यों हटा दी? मुझे याद नहीं है कि मैंने कभी भी गुलाम नबी फाई की गिरफ्तारी के बाद कुछ लिखा हो. उसकी कारस्तानियों के बारे में मैंने कुछ लिखा था और यह बताया था कि वह आई सी आई का आदमी है . यह पोस्ट मेरे ब्लॉग पर है .उसके दो तीन दिन बाद उसकी गिरफ्तारी की खबर आई थी. इन भारतीय नागरिक जी की मनोदशा का रहस्य समझ में नहीं आ रहा है.ईश्वर से प्रार्थना की जानी चाहिए कि वह इन श्रीमान जी को उनकी समस्या से जूझने की ताक़त दे.

पाकिस्तानी परमाणु ज़खीरों पर अंतरराष्ट्रीय निगरानी ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

अमरीका में संसद की मदद के लिए एक थिंक टैंक है जिसका काम दुनिया भर के मामलों से अमरीकी संसद के सदस्यों को आगाह रखना है . समय समय पर यह संगठन अपनी रिपोर्ट देता रहता है जिसका इस्तेमाल अमरीकी सरकार की नीति निर्धारण में अहम भूमिका निभाता है . कंग्रेशनल रिसर्च सर्विस नाम के इस थिंक टैंक की ताज़ा रिपोर्ट अमरीकी विदेश नीति के नियामकों के लिए भारी उलझन का विषय बना हुआ है . भारत में भी विदेश और रक्षा मंत्रालयों के आला अधिकारी चिंतित हैं . इतनी खतरनाक खबर से भरी हुई इस रिपोर्ट के आने के बाद चिंता होना स्वाभाविक है. रिपोर्ट कहती है कि पाकिस्तान में इस बात पर चर्चा चल रही है कि वह उन हालात की फिर से समीक्षा करेगा जिनमें वह अपने परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है . आशंका यह है कि वह मामूली झगड़े की हालात में भी परमाणु बम चला चला सकता है . अगर ऐसा हुआ तो यह मानवता के लिए बहुत बड़ा ख़तरा होगा . रिपोर्ट में साफ़ लिखा है कि पाकिस्तान कम क्षमता वाले अपने परमाणु हथियारों को भारत की पारंपरिक युद्ध क्षमता को नाकाम करने के लिए इस्तेमाल कर सकता है . यह बहुत बड़ा ख़तरा है क्योंकि अमरीकी अनुमान के अनुसार पाकिस्तान के पास के पास ९० और ११० के बीच परमाणु हथियार हैं जबकि भारत के पास परमाणु हथियारों की संख्या ६० और १०० के बीच हो सकती है.बताया गया है कि पाकिस्तान अपने हाथियारों की क्षमता में सुधार भी कर रहा है और उनकी संख्या भी बढ़ा रहा है . यह भी आशंका है कि पाकिस्तान के पास अमरीकी अनुमान से ज्यादा परमाणु हथियार हों .पाकिस्तान के परमाणु हथियारों के बारे में कुछ भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह बाकी दुनिया की नज़र से दूर, चोरी छुपे चलाया जाता है.

जिन देशों के पास भी परमाणु हथियार हैं उन्होंने यह ऐलान कर रखा है कि वे किन हालात में अपने हथियार इस्तेमाल कर सकते हैं . आम तौर पर सभी परमाणु देशों ने यह घोषणा कर रखी है कि जब कभी ऐसी हालत पैदा होगी कि उनके देश के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा तभी उनके परमाणु हथियारों का इस्तेमाल होगा . लेकिन पाकिस्तान ने ऐसी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं बनायी है . उसके बारे में आम तौर पर माना जाता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम भारत को केंद्र में रख कर चलाया जा रहा है . रक्षा मामलों के जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान ने ऐसा इसलिए कर रखा है जिस से भारत और दुनिया के बाकी देश गाफिल बने रहे और पाकिस्तान अपने न्यूक्लियर ब्लैकमेल के खेल में कामयाब होता रहे. कोई नहीं जानता कि पाकिस्तान परमाणु असलहों का ज़खीरा कब इस्तेमाल होगा . कोई कहता है कि जब पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व पर सवाल खड़े हो जायेगें तब इस्तेमाल किया जाएगा. यह एक पेचीदा बात है . पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कई बार यह कहा है कि पाकिस्तान के सामने अस्तित्व का संकट है . क्या यह माना जाए कि पाकिस्तानी अपने उन बयानों के ज़रिये परमाणु हथियारों की धमकी दे रहे थे . सवाल उठता है कि पाकिस्तान के सामने अस्तित्व के जो भी खतरे पैदा हुए हैं वे उसके अंदर के आतंकवाद से हैं . क्या पाकिस्तानी प्रधान मंत्री अपने ही लोगों के खिलाफ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं . ज़ाहिर है कि ऐसा करना संभव नहीं है .पाकिस्तानी सत्ता में ऐसे भी बहुत लोग है जो संकेत देते रहते हैं कि अगर भारत ने पाकिस्तान पर ज़बरदस्त हमला कर दिया तो पाकिस्तान परमाणु ज़खीरा खोल देगा. दुनिया के सभ्य समाजों में पाकिस्तानी फौज के इस संभावित दुस्साहस को खतरे की घंटी माना जा रहा है . पाकिस्तान में इस तरह की मानसिकता वाले लोगों पर काबू करने की ज़रुरत है . यह पाकिस्तान के दुर्भाग्य की बात है कि वहां इस तरह की मानसिकता वालों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है .लेकिन इस मानसिकता वालों की वजह से परमाणु तबाही का ख़तरा भी बढ़ गया है . भारत समेत दुनिय भर के लोगों को कोशिश करनी चाहिए कि पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादी मानसिकता के लोग काबू में लाये जाएँ. हालांकि यह काम बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि भारत के खिलाफ आतंक को हथियार बनाने की पाकिस्तानी नीति के बाद वहां का सत्ता के बहुत सारे केन्द्रों पर उन लोगों का क़ब्ज़ा है जो भारत को कभी भी ख़त्म करने के चक्कर में रहते हैं . पाकिस्तानी फौज के मौजूदा प्रमुख भी उसी वर्ग में आते हैं . जब १९७१ में भारत की सैनिक क्षमता के सामने पाकिस्तानी फौज ने घुटने टेके थे ,उसी साल जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी. उन्होंने बार बार यह स्वीकार किया है कि वे १९७१ का बदला लेना चाहते हैं लेकिन उनकी इस जिद का नतीजा दुनिया के लिए जो भी हो, उनके अपने देश को भी तबाह कर सकता है . क्योंकि अगर उन्होंने परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की गलती कर दी तो अगले कुछ घंटों में भारत उनकी सारी सैनिक क्षमता को तबाह कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो वह विश्व शान्ति के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत होगा .


पाकिस्तानी परमाणु हथियारों की सुरक्षा हमेशा से ही सवालों के घेरे में रही है . जिस तरह से पाकिस्तानी फौज ने आई एस आई के नेतृव में आतंक का तामझाम खड़ा किया है उस से तो लगता है कि एक दिन पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों के सरगना उसके परमाणु ज़खीरे की चौकीदारी करने लगेगें. अगर ऐसा न हुआ तो वहां के सामान में जिस तरह से अपनी कौम को सबसे ताक़तवर बताने और भारतीयों को बहुत कमज़ोर बताने का माहौल है ,उसके चलते कोई भी फौजी जनरल बेवकूफी कर सकता है .इस तरह की गलती १९६५ में जनरल अयूब कर चुके हैं . उन्होंने भारतीयों को कमज़ोर समझकर हमला कर दिया था और जब अमरीका से मिले भारी असलहे की मालिक पाकिस्तानी सेना बुरी तरह से हार गयी तब अयूब की समझ में आया कि वे कितनी बड़ी गलती कर बैठे थे . बाद में लाल बहादुर शास्त्री से हाथ पाँव जोड़कर उन्हें कुछ ज़मीन वापस मिली .पाकिस्तान को महान मानने वालों की आज भी वहां कमी नहीं है .ज़ाहिर है जनरल अयूब वाला दुस्साहस कोई भी पाकिस्तानी जनरल कर सकता है .अमरीकी संसद में जमा किया गया कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस का दस्तावेज़ ऐसे लोगों लो लगाम लगाने के काम में इस्तेमाल किया जाना चाहिये और पाकिस्तानी परमाणु ज़खीरों पर अंतर राष्ट्रीय निगरानी रखने का माकूल बंदोबस्त किया जाना चाहिए

Tuesday, July 26, 2011

ग्रेटर नोयडा एक्सटेंशन में फ़्लैट खरीदने वाले सुप्रीम कोर्ट पर नज़र लगाए बैठे हैं

शेष नारायण सिंह

ग्रेटर नोयडा एक्सटेंशन में बिल्डरों से ज़मीन वापस लेकर कोर्ट ने उस ज़मीन के असली मालिक किसानों को न्याय दिलवाने की कोशिश की है . कोर्ट ने तकनीकी आधार पर फैसला दिया है . माननीय हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि इस इलाके में ज़मीन का अधिग्रहण उद्योगों के लिए किया गया था लेकिन उसे आवासीय इस्तेमाल के लिए दे दिया गया . यह काम गैरकानूनी था क्योंकि जब अथारिटी ने ज़मीन बिल्डरों को अलाट किया , उस वक़्त तक उत्तरप्रदेश सरकार से लैंड यूज़ बदलने की मंजूरी नहीं आई थी . इसका मतलब यह हुआ कि अगर लैंड यूज़ बदलने की मंजूरी आ गयी होती तो शायद कोर्ट ने किसानों की अर्जी को खारिज कर दिया होता . अगर ऐसा हुआ होता तो किसानों के साथ अन्याय हो जाता क्योंकि जो ज़मीन किसानों से ७११ रूपये प्रति वर्ग मीटर के रेट से मुआवजा देकर ली गयी थी. उसे अथारिटी ने ग्यारह हज़ार या उस से भी ज़्यादा रूपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से बेचा . यह सही है कि उस ज़मीन के विकास में बहुत खर्च आया. सड़कें और पार्क बनाए गए जिसके लिए सरकार को कोई पैसा नहीं मिला. विकास के और भी काम हुए . ज़ाहिर है कि ज़मीन की कीमत बेचते वक़्त बढ़ जायेगी . लेकिन खरीद और बिक्री की कीमत में इतना बड़ा फ़र्क़ विश्वसनीय नहीं है. आरोप लग रहे हैं कि ज़मीन की वास्तविक कीमत अथारिटी के अलाटमेंट वाले दाम से कहीं ज्यादा है . ज़ाहिर है अन्याय हुआ है , किसानों के साथ भी और सरकारी खजाने के साथ भी . लेकिन सबसे बड़ा अन्याय जिस वर्ग के साथ हुआ है वह पिछले दिनों बिलकुल नज़रंदाज़ होता रहा. और वह वर्ग है फ़्लैट बुक कराने वालों का .इस सारे खेल में सबसे ज्यादा अन्याय उस मध्यवर्गीय भारतीय के साथ हुआ है जिसने बिल्डरों के सब्ज़बाग़ दिखाने के बाद नोयडा एक्सटेंशन में घर पाने का सपना पाल रखा था. उसने पाई पाई जोड़कर बिल्डर को पैसा दिया और अब वह खाली हाथ खड़ा है . जहां तक बिल्डर का सवाल है, उसने जितना खर्च किया है उस से कई गुना ज्यादा मकान खरीदने वालों से वसूल चुका है . बिल्डर से उसने जो एग्रीमेंट किया है उसकी भाषा ऐसी है कि फ़्लैट बुक कराने वाला ज़िन्दगी भर अदालतों के चक्कर काटता रहे, उसे न्याय नहीं मिलेगा. तुर्रा यह कि अब बिल्डर जी पीड़ित बन कर सरकार से फायदा लेने के चक्कर में हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि कोर्ट इस स्थिति पर भी विचार करे और किसान को न्याय देने के साथ साथ उस मध्यवर्गीय भारतीय का भी ध्यान रखे जिसने सरकार और बिल्डर पर भरोसा करके अपनी गाढ़ी कमाई को एक आशियाने का सपना पूरा करने के लिए लगा दिया है . उसके साथ भी न्याय होना चाहिये . ज़ाहिर है सुप्रीम कोर्ट के अलावा यह न्याय कोई और नहीं दिला सकता . अन्याय को ख़त्म करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पास इतनी ताक़त है जिसकी कोई सीमा नहीं बनायी जा सकती. २३ जुलाई के दिन आंध्रप्रदेश हाई कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान माननीय सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि संविधान के अनुच्छेद १३६ के तहत सर्वोच्च न्यायालय के पास यह पावर है कि वह उस मामले में अपने आप हस्तक्षेप करे जहां साफ़ नज़र आ रहा हो कि अन्याय हुआ है . यह हो सकता है कि किसी ने उस अन्याय को खत्म करने के लिए प्रेयर न की हो लेकिन संविधान की तरफ से सुप्रीम को अपने आप हस्तक्षेप करने का पूरा अधिकार है . सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जे एम पांचाल और न्यायमूर्ति एच एल गोखले की बेंच ने आदेश दिया कि सुप्रीम कोर्ट को अपील सुनने का जो अधिकार अनुच्छेद १३६ के आधार पर मिला हुआ है , वह अन्य अदालतों के अपील सुनने के अधिकार से अलग है . फैसले में लिखा है कि अगर कहीं घोर अन्याय नज़र आये तो सुप्रीम कोर्ट की ड्यूटी है कि वह अपने आप मामले को विचार के लिए स्वीकार करे और उस पर न्याय करे. माननीय न्यायमूर्तियों ने कहा कि अगर किसी हाई कोर्ट से कोई अन्याय हो गया है और कोई गैर कानूनी फैसला दे दिया गया है तो सुप्रीम कोर्ट का फ़र्ज़ है कि उसे ठीक करे. सब को मालूम है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस देश में अन्याय के खिलाफ माहौल बनाने में जो योगदान किया है ,वह अद्भुत है .अन्याय चाहे जहां हो, सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में आने के बाद उस पर न्याय की नज़र पड़ती है और हर हाल में न्याय होता है.आज सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक हस्तक्षेप की वजह से भारत सरकार और देश के भाग्य विधाता राजनेता जेलों की हवा खा रहे हैं .अपने देश में कार्यपालिका ने जिस तरह से मनमानी शुरू कर दी थी वह गैरमामूली थी . लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद भारत की सरकार को भी अंदाज़ लग गया है कि इस देश में इंसाफ़ का सबसे बड़ा दरबार सरकार से भी ज्यादा ताक़तवर है और वह दरबार दिल्ली के तिलक मार्ग पर लगता है . सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीश जिस तरह से संविधान की रक्षा का दायित्व निभा रहे हैं , आने वाली नस्लें उस पर गर्व करेगीं.
आज सुप्रीम कोर्ट की वजह से ही कामनवेल्थ खेलों में हुई लूट पर सही जांच हो रही है. केंद्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि उस घोटाले में शामिल छोटे छोटे अफसरों को पकड़ कर उन्हें बलि का बकरा बना दिया जाए लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में जांच करने का आदेश देकर न्याय को पटरी से उतरने से बचा लिया .नतीजा यह है कि कामनवेल्थ खेलों के सबसे बड़े अधिकारी जेल में हैं . टू जी स्पेक्ट्रम के घोटाले में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री करूणानिधि को भरोसा था कि केंद्र के कांग्रेसी नेता उनकी पार्टी और परिवार वालों की घूसखोरी का बुरा नहीं मानेगें . उनकी उम्मीद भी सही थी . प्रधान मंत्री ने बुरा नहीं माना लेकिन अदालत के आदेश के बाद सब कुछ बदल गया और तमिलनाडु के कई नेता जेलों में हैं. कई आई ए एस अफसर भी जेलों में हैं . कांग्रेस के नेताओं की समझ में आ गया है कि मनमानी करना अब आसान नहीं होगा. गुजरात के मुख्य मंत्री ने सपने में नहीं सोचा होगा कि उनके अधिकारियों की मनमानी पर कभी लगाम लगेगी लेकिन उनके बहुत करीबी एक मंत्री जेल में हैं और पुलिस के कई अफसर गिरफ्तार हैं . सुप्रीम कोर्ट के इंसाफ़ का इकबाल इतना बुलंद है कि अपराधी अधिकारियो और नेताओं का बच पाना बहुत मुश्किल है. जिन लोगों ने संसद में कैश फार वोट का शर्मनाक खेल खेला था वे भी पछता रहे हैं . सब को मालूम है कि कैश फार वोट के असली ज़िम्मेदार कौन लोग हैं लेकिन दिल्ली पुलिस ने पिछले तीन वर्षों में कुछ नहीं किया. अब जब सुप्रीम कोर्ट का हुक्म हुआ तो गिरफ्तारी शुरू हो गयी. हालांकि अभी बलि के बकरे ही पकडे जा रहे हैं लेकिन उम्मीद की जानी चाहिये कि असली गुनाहगार भी इंसाफ़ के सामने झुकने के लिए मजबूर किये जा सकेगें. उसी सुप्रीम कोर्ट पर अब उन मध्यवर्गीय भारतीयों की मजबूरी की निगाहें लगी हुई हैं जिन्होंने ग्रेटर नोयडा एक्सटेंशन में घर बनाने का सपना संजोया था . उम्मीद ही नहीं पक्का भरोसा है कि इंसाफ़ होगा और वह इंसाफ़ देश की सबसे बड़ी अदालत ही करेगी.

Friday, July 22, 2011

गीता के नाम पर शिक्षा को साम्प्रदायिक रंग दे रहे हैं बेल्लारी के नवाब

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक के एक मंत्री का बयान आया है कि कर्नाटक के स्कूलों में हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ गीता को जो नहीं स्वीकार करेगा उसे यह देश छोड़ देना चाहिए.कर्नाटक के सरकारी स्कूलों में गीता के अध्ययन को लगभग अनिवार्य कर दिया गया है . इसके बारे में जब शिक्षा विभाग के मंत्री ने बात की गयी तो उसने कहा कि गीता इस देश का महाकाव्य है और उसे भारत में रहने वाले हर व्यक्ति को सम्मान देना चाहिए . इस मंत्री को शायद पता नहीं है कि गीता महाकाव्य नहीं है , वह महाभारत महाकाव्य का एक अंश मात्र है .थोडा और घिरने पर मंत्री महोदय और बिखर गए. कहने लगे कि स्कूलों में चल रहा गीता वाला कार्यक्रम कोई सरकारी योजना नहीं है . उन्होंने जानकारी दी कि उत्तर कन्नडा जिले के सोंध स्वर्णावली मठ के ओर से वह कार्यक्रम चलाया जा रहा है . यानी राज्य के सरकारी स्कूलों में एक गैर सरकारी संस्था अपना कार्यक्रम चला रही है और राज्य सरकार का एक मंत्री उसकी पक्षधरता इस तरह से कर रहा है जिससे देश की बहुत बड़ी आबादी अपमानित महसूस कर सकती है . करनाटक के शिक्षा मंत्री के इस बयान से वह बात तो साफ़ हो ही जाती है जो वह कहना चाह रहा है लेकिन एक बात और साफ़ हो जाती है .वह यह कि कर्नाटक में जो समाज और स्कूली शिक्षा के साम्प्रदायीकरण का आभियान चल रहा है उसमें सरकार ऐसे लोगों को इस्तेमाल कर रही है जिन का सरकार से कोई लेना देना नहीं है .जब कभी सवाल उठेगा तो सरकार साफ़ मुकर जायेगी कि इस तरह का कोई अभियान कभी चला था. इस तरह की कारस्तानी का कोई आडिट आबजक्शन भी नहीं होता . इस मंत्री का बयान किसी ऐसे आदमी का बयान भी है जो गीता में दिए गये उपदेशों को बिलकुल नहीं समझता . गीता के अठारहों अध्यायों में कहीं भी ऐसा ज़िक्र नहीं है कि कहीं किसी ने ज़बरदस्ती की हो .सच्चाई यह है कि गीता का उपदेश ही दुर्योधन की ज़बरदस्ती के खिलाफ संघर्ष करने के लिए दिया गया था . गीताकार कृष्ण ने हमेशा किसी भी जोर ज़बरदस्ती का विरोध किया है . पूरी गीता में आपको कहीं कोई ऐसा सन्दर्भ नहीं मिलेगा जहां कृष्ण ने अर्जुन को कुछ भी करने का आदेश दिया हो . पूरी गीता में कृष्ण अर्जुन को समझा बुझाकर ही उन्हें युद्ध करने की प्रेरणा देना चाहते हैं .जबकि इस मंत्री के बयान से साफ़ है कि वह अगर ज़रुरत पड़ी तो जोर ज़बरदस्ती की बात भी कर सकता है . उसकी इस बयान बाज़ी की निंदा की जानी चाहिए . वैसे अगर ध्यान से देखा जाय तो वह मंत्री वही बातें कह रहा है जो आर एस एस की शाखाओं में सिखाया जाता है .यह भी सच है कि जो बातें शाखाओं में कही जाती हैं वे सार्वजनिक रूप से नहीं कही जातीं . हो सकता है उस मंत्री के आका लोग उसके इस बयान की वजह से उस पर कुछ अंकुश लगाने के बारे में भी सोचें . हर फासिस्ट संगठन यह सुनिश्चित करता है कि उसके अंदरखाने हुई बातों को सार्वजनिक न किया जाए. ऐसा ही आर एस एस में भी होता होगा. ज़ाहिर है संविधान की शपथ लेने वाले किसी मंत्री को संविधान के खिलाफ बयान देने का हक नहीं है . अगर वह ऐसा करता है तो उसे संविधान का अपमान करने का दोषी माना जाएगा .उस हालत में उसे मंत्री पद छोड़ना भी पड़ सकता है. बीजेपी ऐसा कोई रिस्क नहीं लेना चाहेगी. इसका मतलब यह हुआ कि उस मंत्री का बयान उसकी मूर्खता को रेखांकित भर करता है और कुछ नहीं .लेकिन उसके बयान से एक बात बहुत ही ज्यादा साफ़ हो गयी है कि कर्नाटक सरकार भी शिक्षा के साम्प्रदायीकरण की पूरी योजना बना चुकी है. बीजेपी या आर यस एस का हिन्दू धर्म के प्रचार प्रसार से कुछ भी लेना देना नहीं है . वे हिन्दू धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करने के अलावा और कुछ नहीं सोचते . लेकिन हिन्दू धर्म के जो ग्रन्थ हैं या जो महापुरुष हैं उनका राजनीतिक अभियान में इस्तेमाल करने की रणनीति पर काम करते हैं . इस काम को वे उत्तर प्रदेश में बखूबी कर चुके हैं . अयोध्या की बाबरी मस्जिद को आर एस एस ने बहुत ही योजनाबंद्ध तरीके से राम मंदिर घोषित कर दिया . उसके बाद भगवान् राम के व्यक्तित्व के इर्द गिर्द एक राजनीतिक तामझाम खड़ा किया . अपने सभी कार्यकर्ताओं को रामभक्त बना दिया और जब देश के बहुसंख्यक हिन्दू भगवान राम के नाम पर आर एस एस द्वारा शुरू किये गए संगठनों के प्रभाव में आ गए तो उनके वोट को बीजेपी की सत्ता हासिल करने की कोशिश के हवाले कर दिया .नतीजा सामने है . जहां बीजेपी दो सीटों में सिमट कर रह गयी थे उसी उत्तर प्रदेश के बल पर बीजेपी ने अपने आदमी को देश का प्रधान मंत्री बनवा दिया .कर्नाटक में गीता के साथ जोड़कर शुरू होने वाला अभियान भी इसी तरह की राजनीति को कार्यरूप देने की एक कोशिश मात्र है .

शिक्षा को साम्प्रदायिक करना आर एस एस की राजनीतिक का एक प्रमुख एजेंडा है . जानकार बताते हैं कि कर्नाटक में गीता के सहारे हिन्दुओं को एकमुश्त करने की योजना बन चुकी है . स्कूलों में यह अभियान चलाया जा रहा है . उत्तर प्रदेश में शिक्षा में ज़हर घोलने के लिए दूसरा तरीका अपनाया गया था. वहां के प्राइमरी स्कूलों को पहले ध्वस्त किया गया. १९६७ में जब सरकार में बीजेपी के पूर्व अवतार जनसंघ की भागीदारी हुई तो सबसे पहले योजनाबद्ध तरीके से राज्य के प्रैंरों स्कूलों को बेकार करने की रण नीति पर काम शुरू हुआ. इस योजना को १९७७ में आर एस एस वालों ने और आगे बढ़ाया . आर एस एस के एक विभाग का ज़िम्मा है कि वह दूर देहातों और क़स्बों में सरस्वती शिशु मंदिर नाम से प्राइमरी और मिडिल स्कूल खोलता है . ज्यों ज्यों प्राइमरी स्कूलों के दुर्दशा होती रही, उन इलाकों में सरस्वती शिशु मंदिर खुलते रहे. सरस्वती शिशु मंदिर वास्तव में निजी क्षेत्र के स्कूल होते हैं .इनमें सरकारी नियम कानून या पाठ्यक्रम नहीं चलते. इसलिए आर एस एस की शाखाओं में चलने वाली शिक्षा छोटे छोटे बच्चों को दी जाने लगी . छोटी उम्र में दी गयी शिक्षा कभी नहीं भूलती. जब कल्याण सिंह मुख्य मंत्री बने तो बहुत बड़े पैमाने पर सरस्वती शिशु मंदिर खोल दिए गए . आज उत्तर प्रदेश में जो चारों तरफ साम्प्रदायिक माहौल नज़र आता है उसके पीछे इन्हीं सरस्वती शिशु मंदिरों की शिक्षा का हाथ है . लगता है कि शिक्षा के साम्प्रदायीकरण के लिए कर्नाटक में गीता जैसे धर्मग्रन्थ चुना गया है . जो भी हो सभ्य समाज के लोगों को चाहिए कि करनाटक सरकार की इस कोशिश को बेनकाब करने का अभियान चलायें .

Wednesday, July 20, 2011

क्या भारतीय जांच अधिकारी हर बार गाफ़िल रहेगें ?

शेष नारायण सिंह

अमरीकी जांच एजेंसी, एफ बी आई ने कश्मीरी अलगाववादी आन्दोलन के एक नेता को गिरफ्तार किया है जिसके ऊपर आरोप है कि वह अमरीकी नागरिक होते हुए पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी,आई एस आई के लिए काम करता था . उसने अमरीका में एक संगठन बना रखा था तो प्रकट रूप से तो कश्मीर के अवाम के हित में काम करने का दावा करता था लेकिन वास्तव में वह आई एस आई के कंट्रोल वाली एक संस्था चलाता था जो पूरी तरह से पाकिस्तान की सरकार के पैसे से चलती थी. उसने अमरीकी संसद के दोनों सदनों के सदस्यों को प्रभावित करने के लिए आई एस आई के पैसे से लाबी ग्रुप भी तैनात किया था. वर्जीनिया में रहने वाले डॉ गुलाम नबी नाम के इस आदमी के खिलाफ जांच के बाद एफ बी आई ने अपने हलफनामे में कहा है कि वह आई एस आई का एजेंट है और इसके काम से अमरीकी कानून का उन्ल्लंघन होता है .एफ बी आई के हलफनामे में लिखा है कि डॉ गुलाम नबी ने पाकिस्तानी सरकार के एजेंट के रूप में एक ऐसी साज़िश का हिसा बन कर काम किया जिसके नतीजे अमरीकी हितों की अनदेखी करते थे. उन्होंने अमरीकी नागरिक होते हुए पाकिस्तान सरकार के लिए काम किया और सरकार को अपने काम के बारे में जानकारी नहीं दी. ऐसा करना अमरीकी कानून के हिसाब से ज़रूरी है .डॉ गुलाम नबी के साथ इस साज़िश में एक और अमरीकी नागरिक शामिल है जिसकी तलाश की जा रही है . पता चला है कि वह आजकल पाकिस्तान में कहीं छुपा हुआ है .ज़हीर अहमद नाम का यह आदमी भी अमरीकी नागरिक है और उसके ऊपर भी वही आरोप हैं जो डॉ गुलाम नबी के ऊपर लगे हुए हैं .आई एस आई के कश्मीर एजेंडा पर काम करने वाले डॉ गुलाम नबी ने पाकिस्तानी सरकार के मातहत काम करने की बात को कभी किसी से नहीं बताया.हालांकि वे करीब २० साल से कश्मीर में पाकिस्तान की दखलंदाजी के खेल में शामिल हैं . अमरीका में वे कश्मीर की तथाकथित " आज़ादी " के लिए संघर्षशील व्यक्ति के रूप में सक्रिय थे. अब जाकर अमरीकी जांच अधिकारियों को पता चला है कि वे वास्तव में आई एस आई के फ्रंटमैन थे. उन्होंने अमरीका की राजधानी , वाशिंगटन डी सी में कश्मीरी-अमेरिकन कौंसिल (के ए सी ) बना रखा है और उसी के बैनर के नीचे अमरीकी राजनेताओं के बीच में घूमते थे. अब अमरीकी अधिकारियों ने भरोसे के साथ यह सिद्ध कर दिया है कि के ए सी पूरी तरह से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी का एक विभाग है . के ए सी वास्तव में आई एस आई का कश्मीर सेंटर है . आई एस आई ने इसी तरह के दो और सेंटर बना रखें हैं . एक ब्रसेल्स में है जबकि दूसरा लन्दन में .
अमरीका में सक्रिय इस पाकिस्तानी संगठन की जांच अमरीका केवल इसलिए कर रहा है कि इसमें पाकिस्तानी मूल के उसके दो नागरिक शामिल हैं और पाकिस्तान सरकार के लिए काम करके उन्होंने अमरीका के कानून को तोडा है . लेकिन भारत के लिए यह जांच बहुत ही अहम साबित हो सकती है . पाकिस्तान की सरकार और वहां के नेता कहते रहते हैं कि कश्मीर में उनकी कोई दखलंदाजी नहीं है ,वहां तो कश्मीरी लोग खुद ही आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं और पाकिस्तान उन्हें केवल नैतिक समर्थन देता है . सवाल है कि क्या नैतिक समर्थन देने के लिए अमरीका में ही अमरीकी नागरिकों को साजिशन पैसा देकर उनसे अपराध करवाना उचित है .जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वह तो अब बाकी दुनिया में आतंकवाद की प्रायोजक सरकार के रूप में देखा जाता है लेकिन क्या भारत के सरकारी अधिकारियों और नेताओं को नहीं चाहिए कि वे भारत के हितों के लिए पूरी दुनिया में चौकन्ना रहें और जहां भी भारत के दुश्मन सक्रिय हों उनके बारे में जानकारी हासिल करें. अफ़सोस की बात यह है कि भारत की सरकार इस मोर्चे पर पूरी तरह से फेल है . मुंबई पर २६ नवम्बर २००८ को हुए हमलों में भी पाकिस्तानी आई एस आई की पूरी हिस्सेदारी को साबित कर पाने में नाकाम रही भारत की जांच एजेंसियों को सारी बात तब पता चला था जब अमरीकी जांच एजेंसियों ने हेडली को पकड़ लिया था.गौर करने की बात यह है कि अमरीकी जांच का मकसद २६/११ के हमले की पूरी जांच करना नहीं था. वे तो केवल इसलिए जांच कर रहे थे कि २६/११ के हमले में कुछ अमरीकी नागरिक भी मारे गए थे. वर्जीनिया में डॉ गुलाम नबी के पकडे जाने के बाद एक बार फिर साबित हो गया है कि भारतीय सुरक्षा और जांच एजेंसियां भारत के हितों के प्रति गाफिल रहती हैं .

क्या कैश फार वोट केस में अमर सिंह और लाल कृष्ण आडवाणी की भी जांच होगी ?

शेष नारायण सिंह

लोक सभा में पिछली लोकसभा में जो दृश्य देखा गया वह उसके पहले कभी नहीं देखा गया था. कुछ संसद सदस्य हज़ार हज़ार के नोटों के बण्डल उपाध्यक्ष जी के सामने लहरा रहे थे . बाद में पता चला कि वह रूपये उनका समर्थन खरीदने के लिए उनके पास समाजवादी पार्टी के तत्कालीन नेता अमर सिंह ने भेजे थे.पिछली लोकसभा में अमरीका के साथ परमाणु समझौते वाला बिल पास कराने के लिए उस वक़्त की यू पी ए सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगाया था.आरोप है कि उस काम के लिए कि सरकार ने सांसदों की खरीद फरोख्त की थी. बीजेपी वाले खुद लोक सभा में हज़ार हज़ार के नोटों की गड्डियाँ लेकर आ गए थे और दावा किया था कि यूपीए के सहयोगी और समाजवादी पार्टी के नेता ,अमर सिंह ने वह नोट उनके पास भिजवाये थे, बाद में एक टी वी चैनल ने सारे मामले को स्टिंग का नाम देकर दिखाया भी था. बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने स्वीकार भी किया था कि उनके कहने पर ही उनकी पार्टी के सांसद वह भारी रक़म लेकर लोकसभा में आये थे . सारे मामले की जे पी सी जांच भी हुई थी और जे पी से ने सुझाव दिया था कि मामला गंभीर है लेकिन जे पी सी के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि आपराधिक मामलों की जांच कर सके . इसलिए किसी उपयुक्त संस्था से इसकी जांच करवाई जानी चाहिए . जिन लोगों की गहन जांच होनी थी , उसमें बीजेपी के नेता, लाल कृष्ण आडवाणी के विशेष सहायक सुधीन्द्र कुलकर्णी का भी नाम था . कमेटी की जांच के नतीजों के मद्दे नज़र लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने आदेश भी दे दिया था कि गृह मंत्रालय को चाहिए कि सारे मामले की जांच करे .लोक सभा के महासचिव ने दिल्ली पुलिस को एक चिट्ठी लिख कर जानकारी दी थी जिसे प्राथामिकी के रूप में रिकार्ड कर लिया गया था . लेकिन कहीं कोई जांच नहीं हुई .जब पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को हडकाया तो जाकर मामला ढर्रे पर आया. अमर सिंह के तत्कालीन सहायक संजीव सक्सेना से पुलिस हिरासत में पूछ ताछ चल रही है .अमर सिंह के ड्राइवर की तलाश की जा रही है लेकिन आडवाणी के सहायक और एक अन्य व्यक्ति जिसके लिए लोक सभा की कमेटी ने जांच का आदेश दिया था , अभी गिरफ्तार नहीं हुए हैं . दिल्ली में सत्ता के गलियारों में जो सवाल पूछे जा रहे हैं ,वे बहुत ही मुखर हैं . सवाल यह है कि क्या सक्सेना और कुलकर्णी टाइप प्यादों की जांच करके ही न्याय हो जाएगा या अमर सिंह और आडवाणी की भी जांच होगी. इसके अलावा कैश फार वोट की राजनीति का लाभ सबसे ज्यादा तो कांग्रेस को मिला था .क्या उनके भी कुछ नेताओं को जांच के दायरे में लिया जायेगा.क्योंकि यह मानना तो बहुत ही मुश्किल है कि कुलकर्णी, सक्सेना या हिन्दुस्तानी अपने मन से संसद सदस्यों को करोड़ों रूपये दे रहे थे. मार्च में जब विकीलीक्स के दस्तावेजों में बात एक बार फिर सामने आई तो बीजेपी वालों को फिर गद्दी नज़र आने लगी थी . आर एस एस के मित्र टेलीविज़न एंकरों ने जिस हाहाकार के साथ मामले को गरमाने की कोशिश की वह बहुत ही अजीब था. बीजेपी ने भी अपने बहुत तल्ख़-ज़बान प्रवक्ताओं को मैदान में उतारा था और मामला बहुत ही मनोरंजक हो गया था . लेकिन बाद में सब कुछ शांत हो गया .यह चुप्पी हैरान करने वाली थी . जानकार बताते हैं कि उस वक़्त बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों को अंदाज़ हो गया था कि अगर सही जांच होगी तो अमर सिंह के सहायक और आडवानी के सहायक तक ही मामला सीमित नहीं रहेगा .सब को मालूम है कि लोकसभा में नोटों की गड्डियाँ लहराए जाने के बाद ही लाल कृष्ण आडवाणी ने संसद भवन परिसर में ही टी वी चैनलों को बताया था कि बहुत सोच विचार के बाद उन्होंने अपनी पार्टी के सांसदों को नोटों के बण्डल लोकसभा में लाने की अनुमति दी थी. इस इक़बालिया बयान के बाद लोकसभा में नोटों के बण्डल लहराए जाने के मामले में की गयी साजिश में सक्सेना, कुलकर्णी और अमर सिंह के अलावा आडवानी की भूमिका की भी जांच होना जरूरी है .अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद एक बार फिर उम्मीद बनी है कि सही जांच होगी . लेकिन जांच का उद्देश्य असली ज़िम्मेदार लोगों को भी पकड़ना होना चाहिए , प्यादों की जांच करके मामले की लीपा पोती की दिल्ली पुलिस और सरकार की हर कोशिश को खारिज किया जाना चाहिए .

Friday, July 15, 2011

आतंक फैलाने वाले मौत के सौदागरों को बेनकाब करने की ज़रुरत

शेष नारायण सिंह

मुंबई में एक बार फिर आतंक का हमला हुआ. तीन भीड़ भरे मुकामों को निशाना बनाया गया . मकसद फिर वही था, आम आदमी के अंदर दहशत भर देना . मुंबई फिर अपने काम काज में लग गयी. आतंकवादी अपने मकसद में कामयाब नहीं हुए . उनके हिसाब में कुछ लोगों का क़त्ल और लिख दिया गया. सरकार ने अपना काम शुरू कर दिया और आम आदमी ने इस तरह से अपना काम करने का फैसला किया जैसे कुछ हुआ ही नहीं है. जिन लोगों की जान गयी है उनके परिवार वाले ज़िंदगी भर का दर्द अपने सीने में लेकर जिंदा रहेगें. जो घायल हुए हैं उनकी ज़िंदगी बिलकुल बदल जायेगी. वे आतंक को कभी भी माफ़ नहीं करेगें. पाकिस्तान की फौज और आई एस आई की तरफ से दावा किया जाता है कि भारत में जो लोग भी आतंक फैला रहे हैं, वे किसी अन्याय का बदला ले रहे होते हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान की एक बड़ी आबादी को भी यह बता दिया गया है कि भारत ने कभी कुछ नाइंसाफी की थी ,उसी को दुरुस्त करने के लिए जिया उल हक और परवेज़ मुशर्रफ जैसे फौजी तानाशाहों ने पाकिस्तान की गरीब जनता को आतंकवादी बना कर भारत में भेज दिया था . लेकिन हर आतंकी हमले के बाद यह साफ़ हो जाता है कि मौत के यह सौदागर किसी भी अन्याय के खिलाफ नहीं हैं .यह तो अन्याय का निजाम कायम करने के अभियान को चलाने वाले के हाथ की कठपुतली हैं .
मुंबई के दादर, झवेरी बाज़ार और ओपेरा हाउस में हुए धमाकों के पीछे छुपे इरादों की निंदा पूरी दुनिया में हो रही है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने इस हमले को अपराधी कारनामा बताया है और कहा है कि इसको किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता . इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस आदि देशों के नेताओं ने भी मुंबई पर हुए आतंक के हमले की निंदा की है . भारत में भी इस हमले के बाद संतुलन दिख रहा है . आमतौर पर किसी भी आतंकी हमले को पाकिस्तान की साज़िश बता देने वाले मीडिया के उस वर्ग में भी संतुलन नज़र आ रहा है . मीडिया ने मुंबई के ताज़ा आतंक की विस्तार से रिपोर्ट की है लेकिन अभी तक आमतौर पर यही कहा जा रहा है कि हर उस संगठन और मंशा की जांच की जा रही है जो भारत को नुकसान पंहुचा सकते हों . महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री ने साफ़ कह दिया है कि शक़ करने का कोई मतलब नहीं है . मामले की गहराई से जांच की जा रही है . अक्सर ऐसा होता है कि दक्षिण एशिया के इलाके में शान्ति बनाए रखने की कोशिशों को पटरी से उतारने के लिए इस तरह के हमले किये जाते हैं . अगर हमला करने वालों का यह उद्देश्य था तो वे पूरी तरह से नाकाम हो गए हैं . भारत और पाकिस्तान की सरकारों की तरफ से बयान आ गए हैं कि दोनों देशों के विदेश मंत्रालय के बीच जुलाई के अंत में होने वाली बातचीत पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. अमरीकी विदेश मंत्री , हिलेरी क्लिंटन की प्रस्तावित भारत यात्रा भी कार्यक्रम के अनुसार ही होगी. यानी कुछ निरीह लोगों की जान लेने के अलावा इस हमले ने कोई भी राजनीतिक मकसद नहीं हासिल किया है. उलटे ऐसा लगता है कि जब भी इस हमले के लिए ज़िम्मेदार लोगों की पहचान हो जायेगी , उनके समर्थकों के बीच भी उनकी निंदा होगी .

मुंबई पर बुधवार को हुए हमले का एक अहम पक्ष यह भी है कि पाकिस्तान को तुरंत ही ज़िम्मेदार बता देने वाले नेता भी इस बार शांत हैं और आतंक के खिलाफ माहौल बनाने की बात कर रहे हैं . इस बार ऐसा लग रहा है कि भारत और पाकिस्तान के सभ्य समाज के लोगों की तरह वहां की सरकारें भी एक ही तरीके से आतंक की कार्रवाई की निंदा कर रही हैं . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमले में पाकिस्तानी फौज , आई एस आई या कुछ पाकिस्तानी जनरल शामिल हों . लेकिन लगता है कि पाकिस्तानी फौज के गुनाहों को इस बार पाकिस्तान की सरकार अपने सिर लेने को तैयार नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो इसे बहुत ही बड़ी बात के रूप में याद रखा जाएगा .ज़रुरत इस बात की है कि पाकिस्तानी फौज और उसके आतंक के निजाम को अलग थलग किया जाए . यह अजीब लग सकता है लेकिन सच यही है कि पाकिस्तान में हुकूमत सेना की ही चलती है .पहली बार ऐसा हो रहा है कि पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन सरकार अपनी ही फौज के किसी कारनामे को अपनाने को तैयार नहीं है. ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज में भी तूफ़ान आया हुआ है . लगता है कि अपनी बेचारगी को दुनिया के सामने रख कर पाकिस्तानी सरकार ने अपनी ही फौज़ को घेरने में शुरुआती सफलता हासिल की है . आगे के राजनीतिक घटनाक्रम में दुनिया का आतंक के प्रति रुख बदलने की क्षमता है . कोशिश की जानी चाहिए कि आतंक के सौदागर जहां भी हों उन्हें पकड़ा जाए और सज़ा दी जाए.