शेष नारायण सिंह
ओसामा बिन लादेन के मर जाने के बाद पूरी दुनिया से तरह तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं .अमरीका में वहां के राष्ट्रपति की लोकप्रियता में ११ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है,यूरोप वाले पाकिस्तान को घेरने की कोशिश कर रहे हैं . पाकिस्तानी फौज और आई एस आई के चेहरे खिसियाहट में तरह तरह के रंग बदल रहे हैं , पाकिस्तानी हुकूमत की बेचारगी छुपाये नहीं छुप रही है , पाकिस्तानी अवाम को साफ लगने लगा है कि भारत से पाकिस्तानी शासकों ने जिस तरह की दुश्मनी कर रखी है ,उसके नतीजे बहुत भयानक हो सकते हैं.आग में घी डालते हुए भारत के सेना प्रमुख ने बयान दे दिया है कि भारतीय सेना अमरीकी कार्रवाई जैसे आपरेशन को अंजाम दे सकती है .आतंक के कारोबार में लगे पाकिस्तानी नेता सडकों पर रो रहे हैं और अपने लोगों को समझा नहीं पा रहे हैं कि उनके तरीके को लोग क्यों सही मानें . जब उनके सबसे बड़े आका को ही उसके घर में घुसकर अमरीकी मार सकते हैं तो यह बेचारे किस खेल की मूली हैं .पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों ने कोशिश शुरू कर दिया है कि ओसामा बिन लादेन की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़कर एकजुटता की कोशिश की जाए . पता नहीं किस तरह यह लोग ओसामा बिन लादेन को मुसलमानों की अस्मिता से जोड़ेगें जबकि उसकी आतंक की राजनीति से मरने वालों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . ओसामा के सहयोगी संगठनों ने बेनजीर भुट्टो सहित जितने भी पाकिस्तानियों को मारा है वे सब मुसलमान थे . पाकिस्तान में उनके सहयोगी मुल्ला उमर और उनकी संस्था तालिबान ने जितने लोगों को मारा वे सब मुसलमान थे . भारत में भी उनके सहयोगी संगठनों की हिंसा के शिकार हुए लोगों में बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की है . लेकिन एक और अजीब बात सामने आ रही है . भारत में भी भावनाओं को उभारने के लिए कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं . इसमें दो तरह के लोग हैं . एक तो वे धार्मिक नेता हैं जो चाहते हैं कि मुसलमान हमेशा पिछड़ा ही रहे. मुसलमानों के पिछड़े रहने में राजनेताओं का भी स्वार्थ रहता है . शायद इसीलिए वोट याचकों का एक वर्ग भी ओसामा की मौत को मुसलमानों की भावनाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहा है . जबकि आम मुसलमान के सामने जिस तरह की समस्याएं हैं, उनकी तरफ इन में से किसी का ध्यान नहीं जा रहा है . या अगर जा रहा है तो उस समस्याओं को टाल देने की रणनीति के तहत ओसामा जैसे नान इशू को हवा देने की कोशिश की जा रही है . मुसलमानों की असली समस्याएं गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असुरक्षा ,हमेशा साम्प्रदायिक दंगों का ख़तरा आदि हैं . इन मुद्दों को बहस की मुख्य धारा में लाने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है . या शायद करना नहीं चाह रहा है . सब को मालूम हैकि इन समस्याओं का हल तालीम से निकलेगा . दुर्भाग्य की बात है कि उत्तर भारत में मुसलमाओं की तालीम को वह इज्ज़त नहीं मिल रही है जो मिलनी चाहिए. चारों तरफ नज़र डाल कर देखें तो समझ में आ जाएगा कि जो अच्छी शिक्षा पा चुका है वह न गरीब है , न बेरोजगार है और उसे किसी तरह की सामाजिक असुरक्षा नहीं है. सवाल उठता है कि मुसलमानों के खैरख्वाह नेता लोग तालीम की बात को क्यों नहीं अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाते ? सच्चाई यह है कि इस्लाम में तालीम को बहुत ज्यादा मह्त्व दिया गया है . रसूले खुदा, हज़रत मुहम्मद ने कहा है कि इल्म के लिए अगर ज़रुरत पड़े तो चीन तक भी जाया जा सकता है. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि कौम के नेता शिक्षा को उतना मह्त्व नहीं देते जितना देना चाहिए . दिल्ली में पिछले पैंतीस साल के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मुसलमानों के ज़्यादातर धार्मिक और राजनीतिक नेता शिक्षा की कमी के लिए सरकार को दोषी ठहराते पाए जाते हैं .उससे भी ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि जो सरकारी सुविधाएं मिल भी रही हैं ,उनसे भी मुसलमानों को वह फायदा नहीं मिल रहा है जो मिलना चाहिए . इस तरह की बहानेबाज़ी उत्तर भारत में ही हो रही है . दक्षिण भारत में सरकारी सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है .एक उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. हैदराबाद से प्रकाशित होने वाले अखबार, सियासत के मालिकों ने एक स्कीम शुरू की . उन्होंने देखा कि उनके अखबार के दफ्तर में सुबह कोई काम नहीं होता . उन्होंने गरीब मुसलमानों के बच्चो के लिए मुफ्त कोचिंग शुरू करने का फैसला किया . कुछ ही वर्षों में नतीजे साफ़ नज़र आने लगे . एक बातचीत में पता चला कि शहर के एक गरीब ऑटोरिक्शा चालक की तीन बेटियाँ देश के सबसे अच्छे इंजीनियरिंग कालेज, आई आई टी में पढ़ रही हैं . हैदराबाद में ऐसे हज़ारों उदाहरण हैं . इसी अखबार की पहल पर ही केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से शुरू की गयी छात्रवृत्ति की योजना का भी मुसलमानों के बच्चे बहुत बड़े पैमाने पार लाभ उठा रहे हैं और शिक्षा पा रहे हैं . हालांकि यह स्कीम अभी नई है और इसके नतीजे कुछ वर्षों में मिसाल बन सकेंगें लेकिन उत्तर भारत में तो सरकार के वजीफों के अधिक से अधिक इस्तेमाल की कोई गंभीर कोशिश ही नहीं हो रही है . दिलचस्प बात यह है कि इन वजीफों की कोई सीमा नहीं है .जो भी मुस्लिम बच्चा स्कूल जाता हो वह इसका हक़दार है और सभी बच्चे इस सुविधा का का इस्तेमाल कर सकते हैं . ज़रुरत सिर्फ इस बात की है कि समाज के नेता इस दिशा में कोई पहल करें. इसी तरह से शिक्षा के केन्द्रों के बारे में भी सोच है . राज्यसभा के उपाध्यक्ष ,के रहमान खान ने एक दिन बताया कि पिछले अठारह साल से वे दिल्ली में हैं ,लेकिन इधर कहीं भी अल्पसंख्यकों के किसी इंजीनियरिंग कालेज के खुलने की चर्चा नहीं सुनी . हाँ यह खूब सुना गया कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की सियासत में क्या उठा पटक हो रही है. जबकि दक्षिण भारत में हर बड़े शहर में पूरी तरह से मुसलमानों की शिक्षा के लिए कोशिश चल रही है . उन्होंने अपने खुद के उदाहरण से बात को साफ़ किया . बताने लगे कि १९६४ में बंगलोर शहर में मुसलमानों का को कालेज नहीं था. कुछ हाई स्कूल ज़रूर थे. उन्होंने अल अमीन नाम के एक संगठन के तत्वावधान में १९६७ में एक कालेज शुरू कर दिया . एक टिन शेड में शुरू हुआ यह कालेज आज एक नामी शिक्षा संस्था है .शुरू में सरकार की बात तो छोड़ दीजिये , मुसलमानों को ही भरोसा नहीं हुआ . लेकिन जब कुछ बच्चे अच्छी तालीम लेकर यूनिवर्सिटी में नाम पैदा करने में सफल हो गए तो लोग आगे आये और आर्थिक मदद शुरू की. सरकार से कोई मदद नहीं ली गई. केवल मान्यता वगैरह के जो ज़रूरी कानूनी काम थे वह सरकार ने दिया . आर्थिक मदद पूरी तरह से मुसलमानों ने किया और कालेज चल निकला . आज वह एक बहुत बड़ा कालेज है . पूरे कर्नाटक में अल अमीन संस्थाओं की संख्या अब बहुत जयादा है . . बीजापुर के अल अमीन मेडिकल कालेज की स्थापना की कहानी भी गैर मामूली है . के रहमान खान ने अपने सात दोस्तों के साथ मिल कर एक ट्रस्ट बनाया . कुल सात सौ सात रूपये जमा हुए . गरीब लोगों के लिए एक अस्पताल बनाने की योजना बना कर काम करना शुरू कर दिया . सात दोस्तों में एक डाक्टर भी था. किराए का एक मकान लेकर क्लिनिक शुरू कर दिया . डाक्टर दोस्त बहुत ऊंची डाक्टरी तालीम लेकर विदेश से आया था , उसका नाम मशहूर हो गया जिसकी वजह से पैसे वाले भी इलाज़ के लिए आने लगे. ऐसे ही एक संपन्न मरीज़ का मुफ्त में गरीब आदमियों के साथ इलाज़ किया गया . उसने खुश होकर एक लाख रूपये का दान देने का वादा किया . उस एक लाख रूपये के वादे ने इन दोस्तों के सपनों को पंख लगा दिया . १०० बिस्तरों वाले अस्पताल का खाका बना कर कौम से अपील की. इन लोगों को अब तक आम आदमी का भरोसा मिल चुका था. अस्पताल बन गया . फिर एक मेडिकल कालेज बनाने के सपने देखे . सरकार से केवल मदद मिली. करनाटक के उस वक़्त के मुख्य मंत्री , राम कृष्ण हेगड़े ने बीजापुर में ज़मीन अलाट कर दी. आज बीजापुर का अल अमीन मेडिकल देश के बेहतरीन मेडिकल कालेजों में गिना जाता है . कहने का तात्पर्य यह है कि अगर मुसलमान या कोई भी अपने लिए संस्थाएं बनाने का मन बना ले तो कहीं कोई रोकने वाला नहीं है और सरकार की मर्जी के खिलाफ भी शिक्षा के क्षेत्र में तरक्की की जा सकती. . हाँ यह बात बिलकुल सही है कि शिक्षा में तरक्की के बिना किसी भी कौम की तरक्की नहीं हो सकती.
Friday, May 13, 2011
सुप्रीम कोर्ट के इंसाफ़ के बाद मुल्क मज़बूत होगा
शेष नारायण सिंह
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में ३० सितम्बर २०१० के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद संघी बिरादरी के लोग बहुत खुश हुए थे. . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली थी.वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी उसी फैसले में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा और अयोध्या की ज़मीन के मालिकाना हक का मुक़दमा अलग अलग विषय हैं तो आर एस एस वाले लाल पीले होने लगे और उसकी राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और उल जलूल बयान देने लगे. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बकने लगे जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा था . आर एस एस वालों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात करना शुरू कर दिया . लेकिन सच्चाई यह है कि उन तीनों जजों के एक फैसले ने भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया . इस फैसले के बाद इंसाफ़ पसंद लोगों में चारों तरफ निराशा का माहौल था और लगता था कि आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह थी कि उस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही थी . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही थी . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही थी कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए थे कि उस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होता . यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं था . यह एक हाई कोर्ट का फैसला था जिसको बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था . ख़तरा यह था कि उसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगते .
संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उस फैसले को खारिज कर दिया है और उसे अजीब कहा है . सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उल जलूल फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया और ताज्जुब व्यक्त किया . सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान की लाज रख ली वरना हाई कोर्ट का फैसला तो पूरी तरह से मध्यकालीन न्यायपद्धति का उदाहरण था. उसमें कानून कहीं नहीं था, बस आस्था के मुद्दे को केन्द्र में रख कर एक पंचायती फैसला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट का ९ मई २०११ का फैसला देश में न्याय बहाल करने की दिशा में बहुत दूर तलक जाएगा .इस फैसले में यह सन्देश है कि इंसाफ हमेशा कानून की सही व्याख्या कर के ही किया जा सकता है , आस्था को केंद्र में रख कर नहीं. .बाबरी मस्जिद के मामले से अब लोग ऊब चुके हैं लेकिन यह ठीक बात नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो देश को तोड़ने की कोशिश कर रही ताक़तें कुछ भी कहर बरपा कर सकती हैं .अब उम्मीद की जानी चाहिये कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन के बारे में सुप्रीम कोर्ट सारे तथ्यों पर गौर करके एक सही फैसला करेगी . सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आर एस एस और उसके मातहत संगठनों में हडकंप है . बीजेपी के प्रवक्ता गण कहने लगे हैं कि मुसलमानों को दरियादिली दिखानी चाहिए और उन्हें सारी ज़मीन राम मंदिर के लिए दे देनी चाहिए . अगर यह मान भी लिया जाए कि मुसलमानों में आम राय बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा जीतने के बाद ज़मीन राममंदिर के लिए दे दी जाए तो वे आर एस एस वालों को तो कभी नहीं देगें . जिस आर एस एस ने बाबरी मस्जिद का विरोध करते हुए पूरे देश के मुसलमानों और ९८ प्रतिशत हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पंहुचाया है . लेकिन अभी इन बातों का वक़्त बिलकुल नहीं है . अभी तो देश की एकता के रास्ते में आर एस एस और ३० सितम्बर के फैसलें ने जो रुकावटें पैदा कीथीं उसे दुरुस्त करने का वक़्त है . खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके पहला क़दम उठा लिया है .
बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के बारे में ३० सितम्बर २०१० के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले के बाद संघी बिरादरी के लोग बहुत खुश हुए थे. . उन्हें उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली थी.वे बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के आपराधिक मुक़दमे को भी उसी फैसले में लपेट कर पेश करने की कोशिश कर रहे थे. जब गृहमंत्री ने कहा कि आपराधिक मुक़दमा और अयोध्या की ज़मीन के मालिकाना हक का मुक़दमा अलग अलग विषय हैं तो आर एस एस वाले लाल पीले होने लगे और उसकी राजनीतिक शाखा के लोग गुस्से में आ गए और उल जलूल बयान देने लगे. आर एस एस के संगठनों के लोग हर उस लेखक के लिए गालियाँ बकने लगे जो फैसले पर किसी तरह का सवाल उठा रहा था . आर एस एस वालों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उन तीनों जजों को भारत रत्न देने की बात करना शुरू कर दिया . लेकिन सच्चाई यह है कि उन तीनों जजों के एक फैसले ने भारत के आम मुसलमान को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया . इस फैसले के बाद इंसाफ़ पसंद लोगों में चारों तरफ निराशा का माहौल था और लगता था कि आम आदमी को कहीं से भी न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. सबसे अजीब बात यह थी कि उस फैसले को कानून की कसौटी पर कसने की कोई कोशिश ही नहीं की जा रही थी . शान्ति की बात को फोकस में रख कर सारी चर्चा की जा रही थी . इस बात पर कहीं चर्चा नहीं की जा रही थी कि आस्था को नापने का कोई वैज्ञानिक तरीका है क्या? या ज्यूरिसप्रूडेंस की बारीकियां अगर आस्था के आधार पर तय की जायेगीं तो हमारे संविधान का क्या होगा? यह सवाल भी उठाये जाने चाहिए थे कि उस फैसले के बाद संविधान के धर्म निरपेक्ष चरित्र का क्या होता . यह फैसला कोई मामूली फैसला नहीं था . यह एक हाई कोर्ट का फैसला था जिसको बाकी अदालतों में नज़ीर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था . ख़तरा यह था कि उसके बाद निचली अदालतों से इस तरह के फैसले थोक में आने लगते .
संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच के उस फैसले को खारिज कर दिया है और उसे अजीब कहा है . सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उल जलूल फैसले पर कड़ा एतराज़ जताया और ताज्जुब व्यक्त किया . सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान की लाज रख ली वरना हाई कोर्ट का फैसला तो पूरी तरह से मध्यकालीन न्यायपद्धति का उदाहरण था. उसमें कानून कहीं नहीं था, बस आस्था के मुद्दे को केन्द्र में रख कर एक पंचायती फैसला कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट का ९ मई २०११ का फैसला देश में न्याय बहाल करने की दिशा में बहुत दूर तलक जाएगा .इस फैसले में यह सन्देश है कि इंसाफ हमेशा कानून की सही व्याख्या कर के ही किया जा सकता है , आस्था को केंद्र में रख कर नहीं. .बाबरी मस्जिद के मामले से अब लोग ऊब चुके हैं लेकिन यह ठीक बात नहीं है . अगर ऐसा हुआ तो देश को तोड़ने की कोशिश कर रही ताक़तें कुछ भी कहर बरपा कर सकती हैं .अब उम्मीद की जानी चाहिये कि बाबरी मस्जिद की ज़मीन के बारे में सुप्रीम कोर्ट सारे तथ्यों पर गौर करके एक सही फैसला करेगी . सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आर एस एस और उसके मातहत संगठनों में हडकंप है . बीजेपी के प्रवक्ता गण कहने लगे हैं कि मुसलमानों को दरियादिली दिखानी चाहिए और उन्हें सारी ज़मीन राम मंदिर के लिए दे देनी चाहिए . अगर यह मान भी लिया जाए कि मुसलमानों में आम राय बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में मुक़दमा जीतने के बाद ज़मीन राममंदिर के लिए दे दी जाए तो वे आर एस एस वालों को तो कभी नहीं देगें . जिस आर एस एस ने बाबरी मस्जिद का विरोध करते हुए पूरे देश के मुसलमानों और ९८ प्रतिशत हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पंहुचाया है . लेकिन अभी इन बातों का वक़्त बिलकुल नहीं है . अभी तो देश की एकता के रास्ते में आर एस एस और ३० सितम्बर के फैसलें ने जो रुकावटें पैदा कीथीं उसे दुरुस्त करने का वक़्त है . खुशी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले को फटकार करके पहला क़दम उठा लिया है .
Labels:
इंसाफ़,
बाबरी मस्जिद,
शेष नारायण सिंह,
सुप्रीम कोर्ट
Friday, May 6, 2011
उत्तर प्रदेश की आख़िरी लड़ाई बीजेपी और मायावती के बीच होगी
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए शुरू हो चुके घमासान में प्रधानमंत्री ने भी अपनी हाजिरी लगवा दी है . राहुल गांधी के प्रिय क्षेत्र , बुंदेलखंड में उन्होंने ३० अप्रैल को जो भाषण दिया,उसे हर तरह से चुनावी भाषण ही माना जाएगा. राहुल गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जिनका सीधा लाभ चुनावों में मिलता है . हालांकि विधान सभा का कार्यकाल २०१२ के प्रारंभ में पूरा होगा लेकिन जानकर बता रहे हैं कि चुनाव इस साल के अंत में ही हो जायेगें . सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है . उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है . बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि मई के अंत तक उनके टिकट भी तय हो जायेगें. २००७ के चुनावों के ठीक पहले जो राजनीतिक हालात थे अब वे नहीं हैं . उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ गँवा चुकी कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपने आपको मायावती और मुलायम सिंह यादव की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश की है . लोकसभा २००९ में उसे मिली सीटें इस बात को साफ़ कर देती हैं.मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनावी राजनीति में सफलता की ताकत को बहुत ज्यादा गंवाया है . उनकी हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में जहां वे अपनी पुत्रवधू की जीत पक्की नहीं कर सके ,वहीं पंचायत चुनावोंमें उनेक परिवार के कई सदस्य चुनाव हार गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी नाराज़गी बहुत है . उनके बहुत करीबी रिश्तेदार तक उनके क्षेत्र में उनके खिलाफ काम कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उनके कई विधायक अजित सिंह और बहुजन समाज पार्टी की टिकटों की जुगत भिड़ा रहे हैं . आम तौर पर मुसलमान पिछले २० वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था . उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता,आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे. दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे ,जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे .नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए .इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी . लोकसभा २००९ में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया . नतीजा सामने है . बीजेपी के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली. इसलिए आगामी विधान सभा चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है . वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो बीजेपी को कमज़ोर करता हो. राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए. लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा . इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं . उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में बीजेपी के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए. अब उन्हें किसी पार्टी की तलाश है . मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है . मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है . इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए . कांग्रेस की रण नीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले पांच साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगें और मायावती से नाराज़ मतदाता कांग्रेस को सत्ता देकर मायावती से बदला लेने की कोशिश करेगें . २००७ के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था जब मुलायम सिंह ने नाराज़ सभी वर्गों ने मायावती को जितवाकर अपना बदला चुकाया था .
जहां तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं .उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर ज़रूरी बहुमत सुनिश्चित कर सकते हैं . इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के अगले चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की लड़ाई है . जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मायावती से नाराज़ वोटर अपने आप आ जाएगा . फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं . कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ऐलानियाँ राजपूतों की राजनीति कर रहे हैं . इस मुहिम में उन्होंने अमर सिंह को भी साथ ले लिया है . यह अलग बात है कि अमर सिंह राजपूतों के नेता नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों का सघन दौरा किया और राजपूतों के प्रभाव वाले कुछ क्षेत्रों में उनके प्रति सहानुभूति है . दिग्विजय सिंह की कोशिश है कि उन लोगों को भी साथ लिया जाए . अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा . कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मायावाती से नाराज़ लोग कांग्रेस को प्राथमिकता देगें और राहुल गाँधी का उत्तर प्रदेश को कांग्रेस के लिए मज़बूत करने के सपने को ताक़त मिलेगी . लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बीजेपी इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी. उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले . राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह की सभाएं हो रही हैं. लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाकर उन्हें पूरे देश में घुमाकर दिल्ली वाले नेता उनको लगभग निपटा ही चुके हैं . आडवाणी ने ही राजनाथ सिंह का सबसे ज्यादा नुकसान किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के कमज़ोर हो जाने की वजह से आडवाणी के उस वक़्त के साथियों ने राजनाथ सिंह के खिलाफ माहौल बना दिया था लेकिन अब वही साथी आडवानी को बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर ला चुके हैं .लाल कृष्ण आडवानी बीजेपी के संस्थापक और बड़े नेता थे . हर हाल में राजनाथ सिंह का क़द उनके और वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में बीजेपी की राजनीति के भाग्य विधाता हैं , उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं . ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दुबारा अपना ले. अगर ऐसा हुआ तो मायावती की मुख्य विरोधी पार्टी का रुतबा बीजेपी को ही मिल जाएगा . बीजेपी की कोशिश अभी से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की चल रही है . वरुण गाँधी की राजनीति के पैरोकार लोग उस काम में लग गए हैं . अगर मुसलमानों को लगा कि बीजेपी को कमज़ोर करने में कांग्रेस से ज्यादा मायावती कारगर होंगीं तो वह एकमुश्त बहुजन समाज पार्टी के साथ ही चला जाएगा .ज़ाहिर है कि अभी तस्वीर बहुत धुंधली है . लेकिन बिसात बिछ चुकी है और उत्तर प्रदेश के बहुत ही दिलचस्प होने की संभावना है. हाँ इस बात में दो राय नहीं है कि खेल किसी भी शतरंज के मुकाबले से बेहतर होगा .इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश में आख़िरी लड़ाई बीजेपी और बहुजन समाज पारते के बीच ही होगी. ऐसी हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव का दल बैकग्राउंड में चले जायेगें .
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए शुरू हो चुके घमासान में प्रधानमंत्री ने भी अपनी हाजिरी लगवा दी है . राहुल गांधी के प्रिय क्षेत्र , बुंदेलखंड में उन्होंने ३० अप्रैल को जो भाषण दिया,उसे हर तरह से चुनावी भाषण ही माना जाएगा. राहुल गांधी और डॉ मनमोहन सिंह ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पर ऐसे आरोप लगाए जिनका सीधा लाभ चुनावों में मिलता है . हालांकि विधान सभा का कार्यकाल २०१२ के प्रारंभ में पूरा होगा लेकिन जानकर बता रहे हैं कि चुनाव इस साल के अंत में ही हो जायेगें . सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है . उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है . बीजेपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि मई के अंत तक उनके टिकट भी तय हो जायेगें. २००७ के चुनावों के ठीक पहले जो राजनीतिक हालात थे अब वे नहीं हैं . उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ गँवा चुकी कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपने आपको मायावती और मुलायम सिंह यादव की बराबरी में खड़ा करने की कोशिश की है . लोकसभा २००९ में उसे मिली सीटें इस बात को साफ़ कर देती हैं.मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनावी राजनीति में सफलता की ताकत को बहुत ज्यादा गंवाया है . उनकी हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में जहां वे अपनी पुत्रवधू की जीत पक्की नहीं कर सके ,वहीं पंचायत चुनावोंमें उनेक परिवार के कई सदस्य चुनाव हार गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी नाराज़गी बहुत है . उनके बहुत करीबी रिश्तेदार तक उनके क्षेत्र में उनके खिलाफ काम कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उनके कई विधायक अजित सिंह और बहुजन समाज पार्टी की टिकटों की जुगत भिड़ा रहे हैं . आम तौर पर मुसलमान पिछले २० वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था . उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता,आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे. दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे ,जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे .नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए .इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी . लोकसभा २००९ में मुसलमानों ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया . नतीजा सामने है . बीजेपी के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली. इसलिए आगामी विधान सभा चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है . वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो बीजेपी को कमज़ोर करता हो. राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए. लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा . इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं . उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में बीजेपी के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए. अब उन्हें किसी पार्टी की तलाश है . मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है . मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है . इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए . कांग्रेस की रण नीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले पांच साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगें और मायावती से नाराज़ मतदाता कांग्रेस को सत्ता देकर मायावती से बदला लेने की कोशिश करेगें . २००७ के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ था जब मुलायम सिंह ने नाराज़ सभी वर्गों ने मायावती को जितवाकर अपना बदला चुकाया था .
जहां तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं .उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर ज़रूरी बहुमत सुनिश्चित कर सकते हैं . इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के अगले चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की लड़ाई है . जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मायावती से नाराज़ वोटर अपने आप आ जाएगा . फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं . कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ऐलानियाँ राजपूतों की राजनीति कर रहे हैं . इस मुहिम में उन्होंने अमर सिंह को भी साथ ले लिया है . यह अलग बात है कि अमर सिंह राजपूतों के नेता नहीं हैं लेकिन समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों का सघन दौरा किया और राजपूतों के प्रभाव वाले कुछ क्षेत्रों में उनके प्रति सहानुभूति है . दिग्विजय सिंह की कोशिश है कि उन लोगों को भी साथ लिया जाए . अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो इसका फायदा निश्चित रूप से होगा . कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं . अगर ऐसा हुआ तो मायावाती से नाराज़ लोग कांग्रेस को प्राथमिकता देगें और राहुल गाँधी का उत्तर प्रदेश को कांग्रेस के लिए मज़बूत करने के सपने को ताक़त मिलेगी . लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि बीजेपी इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी. उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले . राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह की सभाएं हो रही हैं. लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाकर उन्हें पूरे देश में घुमाकर दिल्ली वाले नेता उनको लगभग निपटा ही चुके हैं . आडवाणी ने ही राजनाथ सिंह का सबसे ज्यादा नुकसान किया था. अटल बिहारी वाजपेयी के कमज़ोर हो जाने की वजह से आडवाणी के उस वक़्त के साथियों ने राजनाथ सिंह के खिलाफ माहौल बना दिया था लेकिन अब वही साथी आडवानी को बीजेपी की राजनीति के हाशिये पर ला चुके हैं .लाल कृष्ण आडवानी बीजेपी के संस्थापक और बड़े नेता थे . हर हाल में राजनाथ सिंह का क़द उनके और वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में बीजेपी की राजनीति के भाग्य विधाता हैं , उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं . ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दुबारा अपना ले. अगर ऐसा हुआ तो मायावती की मुख्य विरोधी पार्टी का रुतबा बीजेपी को ही मिल जाएगा . बीजेपी की कोशिश अभी से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की चल रही है . वरुण गाँधी की राजनीति के पैरोकार लोग उस काम में लग गए हैं . अगर मुसलमानों को लगा कि बीजेपी को कमज़ोर करने में कांग्रेस से ज्यादा मायावती कारगर होंगीं तो वह एकमुश्त बहुजन समाज पार्टी के साथ ही चला जाएगा .ज़ाहिर है कि अभी तस्वीर बहुत धुंधली है . लेकिन बिसात बिछ चुकी है और उत्तर प्रदेश के बहुत ही दिलचस्प होने की संभावना है. हाँ इस बात में दो राय नहीं है कि खेल किसी भी शतरंज के मुकाबले से बेहतर होगा .इस बात की पूरी संभावना है कि उत्तर प्रदेश में आख़िरी लड़ाई बीजेपी और बहुजन समाज पारते के बीच ही होगी. ऐसी हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव का दल बैकग्राउंड में चले जायेगें .
Labels:
बुंदेलखंड,
मायावती,
राजनाथ सिंह,
शेष नारायण सिंह
Tuesday, May 3, 2011
जीता कोई भी हो हारा पाकिस्तान ही है
शेष नारायण सिंह
करीब १० साल की कोशिश के बाद अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला. पूरी दुनिया में आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने ही बन्दूक के रास्ते पर डाला था और उसका इस्तेमाल किया था. जब पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था तो अमरीका ने अफगानिस्तान में घुस आये सोवियत फौजियों को भगाने के लिए जो योद्धा तैयार किये थे , ओसामा बिन लादेन उसके मुखिया थे. अमरीका ने उनकी खूब मदद की . खूब हथियार दिया , आर्थिक सहायता भी खूब किया और अपने काम के लिए इस्तेमाल किया . इस दौर में जनरल जिया उल हक ने भी अमरीका से खूब माल खींचा . लेकिन जब सोवियत रूस टूट गया और रूसी फौजें अफगानिस्तान से भाग गयीं तो वहां अमरीका की रूचि ख़त्म हो गयी. अमरीका ने पाकिस्तान को भी फ्रीज़र में लगा दिया और ओसामा बिन लादेन को भुला दिया . दाना पानी बंद हो गया . ओसामा ने गुस्से में अमरीका के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . इस बीच अफगानिस्तान में रूसियों के खिलाफ युद्ध में उसके साथ रहे तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया . इस तरह ओसामा को रहने का ठिकाना तो मिल गया लेकिन अफगानिस्तान खुद एक गरीब मुल्क था. आर्थिक गुज़र नहीं हो सकता था . ओसामा ने अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया . इस तरह का पहला बड़ा हमला १९९३ में उसी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया जिसे सितम्बर २००१ में ज़मींदोज़ किया गया .सितम्बर २००१ के पहले और बाद में भी अल कायदा ने अमरीकी हितों को बहुत नुकसान पंहुचाया . इस तरह से अमरीका की कृपा से ही आतंक की दुनिया में प्रवेश करने वाले ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया . पिछले दस साल से अमरीका ने ओसामा को मार डालने या जिंदा पकड़ लेने के लिए खरबों डालर खर्च किया है . ओसामा को पकड़ने और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान ने ही अमरीका से करीब बीस अरब डालर की रक़म दस्तयाब की है . लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली थी . पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को तलाशने के लिए वजीराबाद के कबायली इलाके में अपनी फौज लगा रखा है , वहां उसकी फौज को बहुत सारी मुश्किलात पेश आ रही हैं लेकिन ओसामा को तलाशने का अभियान चल रहा है . बहर हाल अमरीकी खुफिया एजेंसी , सी आई ए ने स्वतंत्र रूप से पता लगाने की कोशिश की और ओसामा मिल गया . वह पाकिस्तान के एक हिल स्टेशन पर आराम की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था. जब अमरीका को पता चला कि पाकिस्तानी फौज के इतने महत्वपूर्ण शहर में ओसामा रह रहा है और पाकिस्तानी सेना के मुखिया अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के बदले उसकी तलाश देश के उत्तरी दुर्गम इलाकों में करवा रहे हैं , तो अमरीकी हुकूमत की समझ में फ़ौरन खेल आ गया. उनको पूरी तरह से पता लग गया कि पाकिस्तान के असली हुक्मरान वहां के फौजी अफसर हैं और वे ओसामा बिन लादेन को किसी भी सूरत में अमरीका के हवाले नहीं करने वाले हैं . शायद उसी के बाद सी आई ए ने तय किया कि ओसामा प्रोजेक्ट पर बिना पाकिस्तानी सहयोग के काम किया जाएगा . ओसामा को ख़त्म करने में अमरीका को सफलता केवल इसी रणनीतिक सोच की वजह से मिली है .
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग असर पड़ेगा . मसलन अमरीका में तो राष्ट्रपति ओबामा को दुबारा राष्ट्रपति बनने में आसानी होगी .जहां तक अमरीका के खिलाफ अल कायदा के आतंकवाद का सवाल है उस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . पिछले दस साल से वैसे भी ओसामा बिन लादेन का सीधे तौर पर अलकायदा के काम में दखल नहीं था लेकिन अल कायदा की गतिविधियों में कहीं कोई कमी नहीं आई थी . इस घटना का सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान में महसूस किया जाएगा . इस बात की पूरी संभावना है कि अब अमरीका पाकिस्तान को वह रक़म देना भी बंद कर देगा जो अब तक प्रोजेक्ट ओसामा के नाम पर बंधी हुई थी. यह कोई मामूली दौलत नहीं थी . इस से एक बार फिर पाकिस्तान के सामने आर्थिक संकट के हालात पैदा हो सकते हैं . लेकिन पाकिस्तान के लिए इस से भी बुरा होने वाला है. पिछले दस साल से मुशर्रफ से लेकर ज़रदारी तक पूरी दुनिया में बताते रहे हैं कि ओसामा पाकिस्तान में नहीं है . अगर होगा भी तो कहीं उत्तर के वजीरिस्तान इलाके में होगा . अब जब ओसामा को एबटाबाद जैसे अहम शहर में पकड़कर मार दिया गया है तो पाकिस्तानी हुकूमत के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है . उसकी विश्वसनीयता पर संकट पैदा हो चुका है . हालांकि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़रदारी, गीलानी और रहमान मलिक जैसे राजनीतिक नेताओं को पाकिस्तानी फौज ने बताया ही न हो कि ओसामा उनकी हिफाज़त में है लेकिन यह तो और भी बुरा है . दुनिया के सामने तो फौज भी सिविलियन सरकार को ही सामने करके बात करती है . हाँ इस बात में कोई दम नहीं कि पाकिस्तानी फौज़ को भी नहीं मालूम था कि ओसामा पाकिस्तान की मिलटरी अकेडमी वाले शहर में ही रह रहा है . वह लगभग पूरी तरह से सेना की कृपा से ही रह रहा था .इसके कई कारण हैं . ओसामा के नाम पर ही पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलती थी . इतने कीमती आदमी को सहेज कर रखना किसी के लिए भी ज़रूरी होता है . हालांकि यह बात भी भरोसे लायक नहीं लगती कि बिना पाकिस्तानी मदद के इतना बड़ा कारनामा किया जा सकता है . हाँ यह हो सकता हो कि आपरेशन शुरू होने के ठीक पहले अमरीकी फौज के कुछ बड़े अफसर पाकिस्तानी सेना प्रमुख के पास चले गए हों और उन्हें कहा हो कि वे लोग एबटाबाद में कुछ बड़ा काम करने वाले हैं ,उसमें पूरी मदद करें . ज़ाहिर है कि जनरल परवेज़ कयानी को मौक़ा ही नहीं मिला होगा को वे ओसामा बिन ल्लादें को कहीं और शिफ्ट कर सकें . बिना पाकिस्तानी फौज़ को भरोसे में लिए यह काम किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता था. इसे पूरी तरह से अमरीकी आपरेशन बता कर पाकिस्तान आने वाले दिनों में ओसामा के समर्थकों से आ रहे खतरों से बचने की सोच रहा होगा . जो भी हो एक राष्ट्रके रूप में पाकिस्तान के सामने भविष्य में बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है .
करीब १० साल की कोशिश के बाद अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को मार डाला. पूरी दुनिया में आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने ही बन्दूक के रास्ते पर डाला था और उसका इस्तेमाल किया था. जब पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक का राज था तो अमरीका ने अफगानिस्तान में घुस आये सोवियत फौजियों को भगाने के लिए जो योद्धा तैयार किये थे , ओसामा बिन लादेन उसके मुखिया थे. अमरीका ने उनकी खूब मदद की . खूब हथियार दिया , आर्थिक सहायता भी खूब किया और अपने काम के लिए इस्तेमाल किया . इस दौर में जनरल जिया उल हक ने भी अमरीका से खूब माल खींचा . लेकिन जब सोवियत रूस टूट गया और रूसी फौजें अफगानिस्तान से भाग गयीं तो वहां अमरीका की रूचि ख़त्म हो गयी. अमरीका ने पाकिस्तान को भी फ्रीज़र में लगा दिया और ओसामा बिन लादेन को भुला दिया . दाना पानी बंद हो गया . ओसामा ने गुस्से में अमरीका के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . इस बीच अफगानिस्तान में रूसियों के खिलाफ युद्ध में उसके साथ रहे तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया . इस तरह ओसामा को रहने का ठिकाना तो मिल गया लेकिन अफगानिस्तान खुद एक गरीब मुल्क था. आर्थिक गुज़र नहीं हो सकता था . ओसामा ने अमरीकी हितों को नुकसान पंहुचाने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया . इस तरह का पहला बड़ा हमला १९९३ में उसी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर किया जिसे सितम्बर २००१ में ज़मींदोज़ किया गया .सितम्बर २००१ के पहले और बाद में भी अल कायदा ने अमरीकी हितों को बहुत नुकसान पंहुचाया . इस तरह से अमरीका की कृपा से ही आतंक की दुनिया में प्रवेश करने वाले ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया . पिछले दस साल से अमरीका ने ओसामा को मार डालने या जिंदा पकड़ लेने के लिए खरबों डालर खर्च किया है . ओसामा को पकड़ने और आतंकवाद से लड़ने के नाम पर पाकिस्तान ने ही अमरीका से करीब बीस अरब डालर की रक़म दस्तयाब की है . लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली थी . पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को तलाशने के लिए वजीराबाद के कबायली इलाके में अपनी फौज लगा रखा है , वहां उसकी फौज को बहुत सारी मुश्किलात पेश आ रही हैं लेकिन ओसामा को तलाशने का अभियान चल रहा है . बहर हाल अमरीकी खुफिया एजेंसी , सी आई ए ने स्वतंत्र रूप से पता लगाने की कोशिश की और ओसामा मिल गया . वह पाकिस्तान के एक हिल स्टेशन पर आराम की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था. जब अमरीका को पता चला कि पाकिस्तानी फौज के इतने महत्वपूर्ण शहर में ओसामा रह रहा है और पाकिस्तानी सेना के मुखिया अमरीका से मिलने वाली आर्थिक सहायता के बदले उसकी तलाश देश के उत्तरी दुर्गम इलाकों में करवा रहे हैं , तो अमरीकी हुकूमत की समझ में फ़ौरन खेल आ गया. उनको पूरी तरह से पता लग गया कि पाकिस्तान के असली हुक्मरान वहां के फौजी अफसर हैं और वे ओसामा बिन लादेन को किसी भी सूरत में अमरीका के हवाले नहीं करने वाले हैं . शायद उसी के बाद सी आई ए ने तय किया कि ओसामा प्रोजेक्ट पर बिना पाकिस्तानी सहयोग के काम किया जाएगा . ओसामा को ख़त्म करने में अमरीका को सफलता केवल इसी रणनीतिक सोच की वजह से मिली है .
ओसामा बिन लादेन के मारे जाने का दुनिया के अलग अलग देशों में अलग अलग असर पड़ेगा . मसलन अमरीका में तो राष्ट्रपति ओबामा को दुबारा राष्ट्रपति बनने में आसानी होगी .जहां तक अमरीका के खिलाफ अल कायदा के आतंकवाद का सवाल है उस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . पिछले दस साल से वैसे भी ओसामा बिन लादेन का सीधे तौर पर अलकायदा के काम में दखल नहीं था लेकिन अल कायदा की गतिविधियों में कहीं कोई कमी नहीं आई थी . इस घटना का सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान में महसूस किया जाएगा . इस बात की पूरी संभावना है कि अब अमरीका पाकिस्तान को वह रक़म देना भी बंद कर देगा जो अब तक प्रोजेक्ट ओसामा के नाम पर बंधी हुई थी. यह कोई मामूली दौलत नहीं थी . इस से एक बार फिर पाकिस्तान के सामने आर्थिक संकट के हालात पैदा हो सकते हैं . लेकिन पाकिस्तान के लिए इस से भी बुरा होने वाला है. पिछले दस साल से मुशर्रफ से लेकर ज़रदारी तक पूरी दुनिया में बताते रहे हैं कि ओसामा पाकिस्तान में नहीं है . अगर होगा भी तो कहीं उत्तर के वजीरिस्तान इलाके में होगा . अब जब ओसामा को एबटाबाद जैसे अहम शहर में पकड़कर मार दिया गया है तो पाकिस्तानी हुकूमत के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है . उसकी विश्वसनीयता पर संकट पैदा हो चुका है . हालांकि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ज़रदारी, गीलानी और रहमान मलिक जैसे राजनीतिक नेताओं को पाकिस्तानी फौज ने बताया ही न हो कि ओसामा उनकी हिफाज़त में है लेकिन यह तो और भी बुरा है . दुनिया के सामने तो फौज भी सिविलियन सरकार को ही सामने करके बात करती है . हाँ इस बात में कोई दम नहीं कि पाकिस्तानी फौज़ को भी नहीं मालूम था कि ओसामा पाकिस्तान की मिलटरी अकेडमी वाले शहर में ही रह रहा है . वह लगभग पूरी तरह से सेना की कृपा से ही रह रहा था .इसके कई कारण हैं . ओसामा के नाम पर ही पाकिस्तान को अमरीकी मदद मिलती थी . इतने कीमती आदमी को सहेज कर रखना किसी के लिए भी ज़रूरी होता है . हालांकि यह बात भी भरोसे लायक नहीं लगती कि बिना पाकिस्तानी मदद के इतना बड़ा कारनामा किया जा सकता है . हाँ यह हो सकता हो कि आपरेशन शुरू होने के ठीक पहले अमरीकी फौज के कुछ बड़े अफसर पाकिस्तानी सेना प्रमुख के पास चले गए हों और उन्हें कहा हो कि वे लोग एबटाबाद में कुछ बड़ा काम करने वाले हैं ,उसमें पूरी मदद करें . ज़ाहिर है कि जनरल परवेज़ कयानी को मौक़ा ही नहीं मिला होगा को वे ओसामा बिन ल्लादें को कहीं और शिफ्ट कर सकें . बिना पाकिस्तानी फौज़ को भरोसे में लिए यह काम किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता था. इसे पूरी तरह से अमरीकी आपरेशन बता कर पाकिस्तान आने वाले दिनों में ओसामा के समर्थकों से आ रहे खतरों से बचने की सोच रहा होगा . जो भी हो एक राष्ट्रके रूप में पाकिस्तान के सामने भविष्य में बहुत ही मुश्किल पेश आने वाली है .
Labels:
ओसामा बिन लादेन,
पाकिस्तान,
शेष नारायण सिंह
Saturday, April 30, 2011
अमरीकी गैरजिम्मेदारी का एक और नमूना
शेष नारायण सिंह
अमरीका में एक संगठन है ,यू एस कमीशन फार इंटर्नेशनल रिलिजस फ्रीडम . वह दुनिया भर में उन देशों की लिस्ट जारी करता है जहां धार्मिक स्वतंत्रता की कमी है .उसकी ताज़ा लिस्ट देखने से पता चलता है कि वह मंद बुद्धि लोगों के प्रभाव वाला संगठन है . उसकी नई लिस्ट में भारत का नाम अफगानिस्तान के साथ रखा गया है.इस श्रेणी में कुछ और भी देश हैं लेकिन जब सबसे ज्यादा अजीब अफगानिस्तान से भारत की बराबरी लगती है . भला बताइये जसी अफगानिस्तान में बामियान बुद्ध की मूर्तियों को तहस नहस कर दिया गया हो , जहां ज़रा सी भी धार्मिक विभिन्नता के कारण लोगों को मार डाला जाता हो उसकी तुलना भारत से करके यह संगठन भारत का तो क्या बिगाड़ेगा ,लेकिन अपनी मूर्खता का परिचय ज़रूर दे दिया है. हालांकि इस बात में दो राय नहीं है कि भारत में हर धर्ममें कुछ ऐसे लोग हैं जो दूसरे धर्म को मानने वाले की धार्मिक आज़ादी में दखल देते रहते हैं लेकिन वे हाशिये पर हैं . उनकी हैसियत केवल लुम्पन की है . मसलन कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यकों को जब पाकिस्तानी भाड़े के आतंकवादियों ने अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर किया तो पूरे देश की कानून व्यवस्था, सरकार और जनता उनेक साथ खडी हो गयी. धार्मिक कारणों से घर छोड़ने वाले कश्मीरी पंडितों को देश के हर भाग में सम्मान पूर्वक काम करने के अवसर दिए गए. सिख के खिलाफ कांग्रेस के दिल्ली के नेताओं की ओर से आयोजित दंगों में बहुत सारे सिखों की जान माल का नुकसान हुआ था लेकिन धार्मिक कारणों से उनकी हत्या करने वालों के खिलाफ पूरा देश और समाज खड़ा है और जिन कांग्रेसियों ने उनके ऊपर हमले करवाए थे उनको कांग्रेसी सरकारों ने भले ही साथ रखा हो लेकिन दंगों के अपराधी नेताओं को एक समाज के रूप में इस देश ने कभी सम्मान नहीं दिया. देश में हिन्दू मुस्लिम दंगों का सिलसिला १९२७ से ही चल रहा है लेकिन दंगाई को कभी भी समाज ने माफ़ नहीं किया . दंगों में जिन सिरफिरे लोगों ने भी हिस्सा लिया वे समाज की नज़रों में हमेशा ही गिर गए. मुसलमानों को अपमानित करने के उद्देश्य से जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया तो उन अपराध को करने वालों के खिलाफ पूरा देश एक जुट हो गया . यहाँ तक कि देश का पूर्व उप प्रधान मंत्री बाबरी मस्जिद विध्वस केस में अभियुक्त है और उनकी अपनी पार्टी में भी एक बड़ा वर्ग उनके इस काम को गलत मानता है . उनकी पार्टी के ही एक मुख्यमंत्री के ऊपर गुजरात नरसंहार२००२ की साज़िश में शामिल होने का आरोप है . पूरे देश में उनके खिलाफ धरने प्रदर्शन होते रहते हैं , बहुसंख्यक हिन्दू समाज के लोग उनके खिलाफ हर मंच पर अभियान चला रहे हैं . पूरे देश के हिन्दू की नज़र में वे अपराधी हैं .जिला स्तर की अदालतों से लेकर देश की सर्वोच्च अदालत तक उनके खिलाफ मुक़दमा चल रहा है . ऐसी हालत में अगर कोई भी नासमझ व्यक्ति या संगठन भारत को धार्मिक असहिष्णु देश के रूप में प्रस्तुत करता है तो उस भारत की स्थिति में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा लेकिन उस संगठन की औकात का पता चल जाता है . ज़ाहिर है कि इस तरह के एगैर ज़िम्मेदार रिपोर्ट को पूरी दुनिया में तिरस्कार की नज़र से देखा जाएगा लेकिन कुछ भारत विरोधी ताक़तें इसको भी भारत के खिलाफ एक तर्क के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगीं. हालांकि यह भी सच है कि इस रिपोर्ट को तैयार कने में कमीशन के अध्यक्ष की मनमानी की ज्यादा भूमिका है क्योंकि इस रिपोर्ट का कमीशन के दो सदस्यों ने विरोध किया उअर रिपोर्ट में ही अपनी मुखैल्फत को दर्ज कराया . फेलिस गाएर और विलियम शा नाम के सदस्यों ने जोर देकर कहा कि भारत के संविधान में ही धार्मिक स्वतंत्रता का प्रावधान है , वहां की न्याय व्यवस्था पूरे इतरह से संविधान के अनुसार काम करती है और धार्मिक कारणों से विभेद करने वाले लोगों को सख्त सज़ा का प्रावधान है . ऐसे देश को उसी स्तर पर रखना जिस पार अफगानिस्तान को रखा गया है बिलकुल गलत है . उन लोगों ने अपने नोट में लिखा है कि इस से भारत का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन कमीशन की विश्वसनीयता के परखचे उड़ जायेंगें . ऐसा नहीं है कि कमीशन को सारी बातों का पता नहीं था . उनको बाकायदा बताया गया था कि अल्पसंख्यकों को जितनी संवैधानिक गारंटियां भारत में उपलब्ध हैं, उतनी तो अमरीका में भी नहीं हैं . बहरत में धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा है . जब अमरीका में काले लोगों को वोट देने तक के बुनियादी अधिकार नहीं थे तो भारत में अल्पसंख्यकों के लिए उनके धार्मिक अधिकारों के अनुसार परिवार के पर्सनल कानून बन चुके थे अल्पसंख्यकों को भारत में हर स्तर पर सब्सिडी की व्यवस्था है .धार्मिक स्थानों पर सरकार का कोई दखल नहीं है .अल्पसंख्यकों के लिए बनी शिक्षा संस्थाओं को विशेष दर्ज़ा दिया गया है . ऐसी हालत में भारत को अफगानिस्तान के बराबर करने की कोशिश परले दर्जे का पागलपन है
अमरीका में एक संगठन है ,यू एस कमीशन फार इंटर्नेशनल रिलिजस फ्रीडम . वह दुनिया भर में उन देशों की लिस्ट जारी करता है जहां धार्मिक स्वतंत्रता की कमी है .उसकी ताज़ा लिस्ट देखने से पता चलता है कि वह मंद बुद्धि लोगों के प्रभाव वाला संगठन है . उसकी नई लिस्ट में भारत का नाम अफगानिस्तान के साथ रखा गया है.इस श्रेणी में कुछ और भी देश हैं लेकिन जब सबसे ज्यादा अजीब अफगानिस्तान से भारत की बराबरी लगती है . भला बताइये जसी अफगानिस्तान में बामियान बुद्ध की मूर्तियों को तहस नहस कर दिया गया हो , जहां ज़रा सी भी धार्मिक विभिन्नता के कारण लोगों को मार डाला जाता हो उसकी तुलना भारत से करके यह संगठन भारत का तो क्या बिगाड़ेगा ,लेकिन अपनी मूर्खता का परिचय ज़रूर दे दिया है. हालांकि इस बात में दो राय नहीं है कि भारत में हर धर्ममें कुछ ऐसे लोग हैं जो दूसरे धर्म को मानने वाले की धार्मिक आज़ादी में दखल देते रहते हैं लेकिन वे हाशिये पर हैं . उनकी हैसियत केवल लुम्पन की है . मसलन कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यकों को जब पाकिस्तानी भाड़े के आतंकवादियों ने अपना घर बार छोड़ने के लिए मजबूर किया तो पूरे देश की कानून व्यवस्था, सरकार और जनता उनेक साथ खडी हो गयी. धार्मिक कारणों से घर छोड़ने वाले कश्मीरी पंडितों को देश के हर भाग में सम्मान पूर्वक काम करने के अवसर दिए गए. सिख के खिलाफ कांग्रेस के दिल्ली के नेताओं की ओर से आयोजित दंगों में बहुत सारे सिखों की जान माल का नुकसान हुआ था लेकिन धार्मिक कारणों से उनकी हत्या करने वालों के खिलाफ पूरा देश और समाज खड़ा है और जिन कांग्रेसियों ने उनके ऊपर हमले करवाए थे उनको कांग्रेसी सरकारों ने भले ही साथ रखा हो लेकिन दंगों के अपराधी नेताओं को एक समाज के रूप में इस देश ने कभी सम्मान नहीं दिया. देश में हिन्दू मुस्लिम दंगों का सिलसिला १९२७ से ही चल रहा है लेकिन दंगाई को कभी भी समाज ने माफ़ नहीं किया . दंगों में जिन सिरफिरे लोगों ने भी हिस्सा लिया वे समाज की नज़रों में हमेशा ही गिर गए. मुसलमानों को अपमानित करने के उद्देश्य से जब बाबरी मस्जिद को ढहाया गया तो उन अपराध को करने वालों के खिलाफ पूरा देश एक जुट हो गया . यहाँ तक कि देश का पूर्व उप प्रधान मंत्री बाबरी मस्जिद विध्वस केस में अभियुक्त है और उनकी अपनी पार्टी में भी एक बड़ा वर्ग उनके इस काम को गलत मानता है . उनकी पार्टी के ही एक मुख्यमंत्री के ऊपर गुजरात नरसंहार२००२ की साज़िश में शामिल होने का आरोप है . पूरे देश में उनके खिलाफ धरने प्रदर्शन होते रहते हैं , बहुसंख्यक हिन्दू समाज के लोग उनके खिलाफ हर मंच पर अभियान चला रहे हैं . पूरे देश के हिन्दू की नज़र में वे अपराधी हैं .जिला स्तर की अदालतों से लेकर देश की सर्वोच्च अदालत तक उनके खिलाफ मुक़दमा चल रहा है . ऐसी हालत में अगर कोई भी नासमझ व्यक्ति या संगठन भारत को धार्मिक असहिष्णु देश के रूप में प्रस्तुत करता है तो उस भारत की स्थिति में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा लेकिन उस संगठन की औकात का पता चल जाता है . ज़ाहिर है कि इस तरह के एगैर ज़िम्मेदार रिपोर्ट को पूरी दुनिया में तिरस्कार की नज़र से देखा जाएगा लेकिन कुछ भारत विरोधी ताक़तें इसको भी भारत के खिलाफ एक तर्क के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगीं. हालांकि यह भी सच है कि इस रिपोर्ट को तैयार कने में कमीशन के अध्यक्ष की मनमानी की ज्यादा भूमिका है क्योंकि इस रिपोर्ट का कमीशन के दो सदस्यों ने विरोध किया उअर रिपोर्ट में ही अपनी मुखैल्फत को दर्ज कराया . फेलिस गाएर और विलियम शा नाम के सदस्यों ने जोर देकर कहा कि भारत के संविधान में ही धार्मिक स्वतंत्रता का प्रावधान है , वहां की न्याय व्यवस्था पूरे इतरह से संविधान के अनुसार काम करती है और धार्मिक कारणों से विभेद करने वाले लोगों को सख्त सज़ा का प्रावधान है . ऐसे देश को उसी स्तर पर रखना जिस पार अफगानिस्तान को रखा गया है बिलकुल गलत है . उन लोगों ने अपने नोट में लिखा है कि इस से भारत का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन कमीशन की विश्वसनीयता के परखचे उड़ जायेंगें . ऐसा नहीं है कि कमीशन को सारी बातों का पता नहीं था . उनको बाकायदा बताया गया था कि अल्पसंख्यकों को जितनी संवैधानिक गारंटियां भारत में उपलब्ध हैं, उतनी तो अमरीका में भी नहीं हैं . बहरत में धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा है . जब अमरीका में काले लोगों को वोट देने तक के बुनियादी अधिकार नहीं थे तो भारत में अल्पसंख्यकों के लिए उनके धार्मिक अधिकारों के अनुसार परिवार के पर्सनल कानून बन चुके थे अल्पसंख्यकों को भारत में हर स्तर पर सब्सिडी की व्यवस्था है .धार्मिक स्थानों पर सरकार का कोई दखल नहीं है .अल्पसंख्यकों के लिए बनी शिक्षा संस्थाओं को विशेष दर्ज़ा दिया गया है . ऐसी हालत में भारत को अफगानिस्तान के बराबर करने की कोशिश परले दर्जे का पागलपन है
Thursday, April 28, 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ वैसा ही माहौल है जैसा सन बयालीस में अंग्रेजों के खिलाफ था .
शेष नारायण सिंह
भ्रष्टाचार की चर्चाओं से घिरे देश में विकीलीक्स के संपादक जुलियन असांज ने एक और आयाम जोड़ दिया है . फरमाते हैं कि स्विस बैंकों में जमा काले धन के खातेदारों में बहुत सारे नाम भारतीयों के हैं . इस देश का मध्य वर्ग लगातार भ्रष्टाचार की कहानियां सुन रहा है. टू जी ,कामनवेल्थ ,और येदुरप्पा के घोटालों के माहौल में जब अन्ना हजारे का आन्दोलन आया तो वे सारे लोग मैंदान में आ गए जिनका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है . ज़ाहिर है यह किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत बड़ी खतरे की घंटी है . भ्रष्टाचार के खिलाफ इस सारे मामले में जो सबसे दिलचस्प बात रही, वह यह कि राजनीतिक पार्टियों के सदस्य अपने हिसाब से भ्रष्टाचार की व्याख्या करते रहे , अपने विरोधी को ज्यादा भ्रष्ट बताते रहे लेकिन अखबार पढने वाले देश के उस जागरूक वर्ग ने नेताओं की बातों को गंभीरता से नहीं लिया .ऐसे ही हालात थे जब वजह से १९४२ और १९७७ में परिवर्तन आया था. भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए इस आन्दोलन में आम आदमी नेताओं को आवश्यक तिरस्कार की नज़र से ही देखता रहा . जुलियन असांज का नया खुलासा तस्वीर को बिलकुल नया रंग दे देता है. उसने साफ़ कहा है कि जिन दस्तावेजों को वे लीक कर रहे हैं वे सबूत नहीं हैं लेकिन उनमें बहुत अहम सूचनाएं हैं जिनका इस्तेमाल आगे की जांच में किया जा सकता है . एक निजी टी वी चैनल से बात करते हुए जुलियन असांज ने कहा कि भारत सरकार का यह कहना कि कुछ देशों के साथ दोहरा टैक्स समझौता न होने की वजह से काले धन को निकालना मुश्किल हो रहा है . असांज ने कहा कि यह तर्क बिलकुल बेतुका है . उन्होंने कहा कि काले धन को निकालना टैक्स से सम्बंधित मामला नहीं है . वह वास्तव में बिलकुल अलग, काले धन का मामला है . उसने एक और बात कही जो अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी जानता है . उसने कहा कि देश के अंदर की रिश्वत खोरी हालांकि राष्ट्रीय संसाधनों पर डाका डालती है लेकिन वह विदेशी बैंकों में धन रखने से कम खतरनाक है . उसमें पैसा देश में रहता है और उस रक़म को खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा ज़ाया नहीं होती . जबकि किसी ने किसी रूप में वह पैसा देश के अंदर की इस्तेमाल होता है . यहाँ रिश्वतखोरी को सही ठहराने का कोई इरादा नहीं है . विदेशी बैंकों में पैसा जमा करने वालों के देशद्रोह को रेखांकित करने के उद्देश्य से यह तर्क दिया जा रहा है . चोरी से देश के बाहर पैसा जमा करने वाले देश की अर्थव्यवस्था पर दोहरा वार करते हैं .एक तो देश का पैसा रिश्वत के रास्ते चुराते हैं और दूसरा यह कि दुर्लभ विदेशी मुद्रा खर्च करके भारतीय रूपयों को स्विस बैंकों में जमा करने लायक बनाते हैं . इस तरह अर्थ व्यवस्था पर दोहरी मार करते हैं . देश में बन रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल में जुलियन असांज का यह खुलासा बहुत बड़ी उम्मीद लेकर आया है . यहाँ यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी इस कोशिश में लगे हुए हैं कि कांग्रेस को ही स्विस बैंको में जमा काले धन के खलनायक के रूप में पेश किया जाय. आम तौर पर माना भी यही जाता है कि कांग्रेसियों ने सबसे ज्यादा खेल किया है . ऐसा शायद इसलिए कि यह काम १९७० के दशक से ही चल रहा है . लेकिन इस बात में भी कोई शक़ नहीं है कि बीजेपी के बड़े नेता भी इस लपेट में आयेगें .दुनिया जानती है कि बीजेपी के कई मंत्रियों और टाप नेताओं के बच्चों ने वाजपेयी सरकार के दौरान खुलकर घूस बटोरा था. कर्नाटक में मौजूदा सरकार भी घूस के खेल में किसी कांग्रेसी से कम नहीं है . बाकी पार्टियों के नेता भी विदेशी बैंकों की शरण में जाते रहे हैं .ज़ाहिर है जब खुलासा होगा तो सबका नाम आयेगा और अगर बीजेपी वाले यह सोचते हैं कि वाजपेयी जी की सरकार के दौरान जो लाखों करोड़ के वारे न्यारे हुए थे , वह रक़म भारतीय बैंकों में जमा कर दी गयी होगी ,तो इसे मुगालता ही कहा जाएगा . यानी अगर स्विस बैंकों में जमा रक़म के बारे में पूरी जानकारी मिलती है तो हालात बहुत बदल जायेगें. यह देशहित में है . खुशी इस बात की है कि अब भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय जनमत तैयार हो रहा है और जनता किसी भी भरोसेमंद सूचना पर भरोसा करने को तैयार है . वह किसी भी भ्रष्ट नेता, अफसर या पत्रकार को माफ़ करने को तैयार नहीं है . कोर्ट जाते हुए सुरेश कलमाड़ी के ऊपर चप्पल फेंकने वाला नौजवान दश के सामूहिक गुस्से को ही व्यक्त कर रहा था. राडिया टेप के पहले की एक बहुत ही नामी पत्रकार जब इण्डिया गेट से विशेष कार्यक्रम पंहुची तो जनता ने उन्हें दौड़ा लिया क्योंकि राडिया टेप के बाद की उनकी सच्चाई पत्रकारिता के लिए शुभ लक्षण नहीं है . इसी तरह से लोग बड़े से बड़े लोगों को लोग भ्रष्टाचारी मानने के लिए तैयार बैठे हैं . ऐसी हालत में देश में भ्रष्टाचार के विरोध करने का व्याकरण बदल रहा है . दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक नेताओं को अभी भनक तक नहीं है . वे अभी इसी मुगालते में हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व किसी पार्टी के हाथ आ जाएगा . पूरी संभावना है कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है . अन्ना हजारे के आन्दोलन को जनता ने पूरी तरह नेताओं से मुक्त रखा . आने वाले वक़्त में भी ऐसा ही होने वाला है क्योंकि पूरे देश के जागरूक वर्ग में यह अवधारणा घर कर चुकी है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ राजनीतिक नेता ही हैं . इस बात में भी दो राय नहीं है कि बहुत सारे नेता ऐसे भी हैं जो भ्रष्ट नहीं हैं . लेकिन उनकी अधिसंख्य भ्रष्ट बिरादरी की कारस्तानियों का नतीजा उन्हें भोगना पड़ सकता है .आम आदमी को अभी तक मीडिया पर भरोसा है और यह खुशी की बात है .जो भी हो भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में वैसा ही माहौल बन रहा है जैसा अंग्रेजों के खिलाफ १९४२ में माहौल बना था. उम्मीद की जानी चाहिए कि हालात हर हाल में बेहतर होंगें
भ्रष्टाचार की चर्चाओं से घिरे देश में विकीलीक्स के संपादक जुलियन असांज ने एक और आयाम जोड़ दिया है . फरमाते हैं कि स्विस बैंकों में जमा काले धन के खातेदारों में बहुत सारे नाम भारतीयों के हैं . इस देश का मध्य वर्ग लगातार भ्रष्टाचार की कहानियां सुन रहा है. टू जी ,कामनवेल्थ ,और येदुरप्पा के घोटालों के माहौल में जब अन्ना हजारे का आन्दोलन आया तो वे सारे लोग मैंदान में आ गए जिनका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है . ज़ाहिर है यह किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत बड़ी खतरे की घंटी है . भ्रष्टाचार के खिलाफ इस सारे मामले में जो सबसे दिलचस्प बात रही, वह यह कि राजनीतिक पार्टियों के सदस्य अपने हिसाब से भ्रष्टाचार की व्याख्या करते रहे , अपने विरोधी को ज्यादा भ्रष्ट बताते रहे लेकिन अखबार पढने वाले देश के उस जागरूक वर्ग ने नेताओं की बातों को गंभीरता से नहीं लिया .ऐसे ही हालात थे जब वजह से १९४२ और १९७७ में परिवर्तन आया था. भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए इस आन्दोलन में आम आदमी नेताओं को आवश्यक तिरस्कार की नज़र से ही देखता रहा . जुलियन असांज का नया खुलासा तस्वीर को बिलकुल नया रंग दे देता है. उसने साफ़ कहा है कि जिन दस्तावेजों को वे लीक कर रहे हैं वे सबूत नहीं हैं लेकिन उनमें बहुत अहम सूचनाएं हैं जिनका इस्तेमाल आगे की जांच में किया जा सकता है . एक निजी टी वी चैनल से बात करते हुए जुलियन असांज ने कहा कि भारत सरकार का यह कहना कि कुछ देशों के साथ दोहरा टैक्स समझौता न होने की वजह से काले धन को निकालना मुश्किल हो रहा है . असांज ने कहा कि यह तर्क बिलकुल बेतुका है . उन्होंने कहा कि काले धन को निकालना टैक्स से सम्बंधित मामला नहीं है . वह वास्तव में बिलकुल अलग, काले धन का मामला है . उसने एक और बात कही जो अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी जानता है . उसने कहा कि देश के अंदर की रिश्वत खोरी हालांकि राष्ट्रीय संसाधनों पर डाका डालती है लेकिन वह विदेशी बैंकों में धन रखने से कम खतरनाक है . उसमें पैसा देश में रहता है और उस रक़म को खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा ज़ाया नहीं होती . जबकि किसी ने किसी रूप में वह पैसा देश के अंदर की इस्तेमाल होता है . यहाँ रिश्वतखोरी को सही ठहराने का कोई इरादा नहीं है . विदेशी बैंकों में पैसा जमा करने वालों के देशद्रोह को रेखांकित करने के उद्देश्य से यह तर्क दिया जा रहा है . चोरी से देश के बाहर पैसा जमा करने वाले देश की अर्थव्यवस्था पर दोहरा वार करते हैं .एक तो देश का पैसा रिश्वत के रास्ते चुराते हैं और दूसरा यह कि दुर्लभ विदेशी मुद्रा खर्च करके भारतीय रूपयों को स्विस बैंकों में जमा करने लायक बनाते हैं . इस तरह अर्थ व्यवस्था पर दोहरी मार करते हैं . देश में बन रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल में जुलियन असांज का यह खुलासा बहुत बड़ी उम्मीद लेकर आया है . यहाँ यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि पिछले कुछ वर्षों से बीजेपी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी इस कोशिश में लगे हुए हैं कि कांग्रेस को ही स्विस बैंको में जमा काले धन के खलनायक के रूप में पेश किया जाय. आम तौर पर माना भी यही जाता है कि कांग्रेसियों ने सबसे ज्यादा खेल किया है . ऐसा शायद इसलिए कि यह काम १९७० के दशक से ही चल रहा है . लेकिन इस बात में भी कोई शक़ नहीं है कि बीजेपी के बड़े नेता भी इस लपेट में आयेगें .दुनिया जानती है कि बीजेपी के कई मंत्रियों और टाप नेताओं के बच्चों ने वाजपेयी सरकार के दौरान खुलकर घूस बटोरा था. कर्नाटक में मौजूदा सरकार भी घूस के खेल में किसी कांग्रेसी से कम नहीं है . बाकी पार्टियों के नेता भी विदेशी बैंकों की शरण में जाते रहे हैं .ज़ाहिर है जब खुलासा होगा तो सबका नाम आयेगा और अगर बीजेपी वाले यह सोचते हैं कि वाजपेयी जी की सरकार के दौरान जो लाखों करोड़ के वारे न्यारे हुए थे , वह रक़म भारतीय बैंकों में जमा कर दी गयी होगी ,तो इसे मुगालता ही कहा जाएगा . यानी अगर स्विस बैंकों में जमा रक़म के बारे में पूरी जानकारी मिलती है तो हालात बहुत बदल जायेगें. यह देशहित में है . खुशी इस बात की है कि अब भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय जनमत तैयार हो रहा है और जनता किसी भी भरोसेमंद सूचना पर भरोसा करने को तैयार है . वह किसी भी भ्रष्ट नेता, अफसर या पत्रकार को माफ़ करने को तैयार नहीं है . कोर्ट जाते हुए सुरेश कलमाड़ी के ऊपर चप्पल फेंकने वाला नौजवान दश के सामूहिक गुस्से को ही व्यक्त कर रहा था. राडिया टेप के पहले की एक बहुत ही नामी पत्रकार जब इण्डिया गेट से विशेष कार्यक्रम पंहुची तो जनता ने उन्हें दौड़ा लिया क्योंकि राडिया टेप के बाद की उनकी सच्चाई पत्रकारिता के लिए शुभ लक्षण नहीं है . इसी तरह से लोग बड़े से बड़े लोगों को लोग भ्रष्टाचारी मानने के लिए तैयार बैठे हैं . ऐसी हालत में देश में भ्रष्टाचार के विरोध करने का व्याकरण बदल रहा है . दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक नेताओं को अभी भनक तक नहीं है . वे अभी इसी मुगालते में हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व किसी पार्टी के हाथ आ जाएगा . पूरी संभावना है कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है . अन्ना हजारे के आन्दोलन को जनता ने पूरी तरह नेताओं से मुक्त रखा . आने वाले वक़्त में भी ऐसा ही होने वाला है क्योंकि पूरे देश के जागरूक वर्ग में यह अवधारणा घर कर चुकी है कि सारे भ्रष्टाचार की जड़ राजनीतिक नेता ही हैं . इस बात में भी दो राय नहीं है कि बहुत सारे नेता ऐसे भी हैं जो भ्रष्ट नहीं हैं . लेकिन उनकी अधिसंख्य भ्रष्ट बिरादरी की कारस्तानियों का नतीजा उन्हें भोगना पड़ सकता है .आम आदमी को अभी तक मीडिया पर भरोसा है और यह खुशी की बात है .जो भी हो भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में वैसा ही माहौल बन रहा है जैसा अंग्रेजों के खिलाफ १९४२ में माहौल बना था. उम्मीद की जानी चाहिए कि हालात हर हाल में बेहतर होंगें
Labels:
जुलियन असांज,
भ्रष्टाचार के खिलाफ,
विकीलीक्स,
शेष नारायण सिंह,
सन बयालीस
Tuesday, April 26, 2011
भ्रष्टाचार के अभियान में नेताओं का कोई रोल नहीं है.
शेष नारायण सिंह
भ्रष्टाचार के कुछ मामलों में सुरेश कलमाड़ी की गिरफ्तारी देश में चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को ज़बरदस्त ताक़त देगा. आम तौर पर होता यह रहा है कि किसी भी केस में सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी अपने सदस्यों या सहयोगियों को गिरफ्तार नहीं करती . कहीं से बलि के बकरे तलाशे जाते हैं और उन्हें ही शील्ड की तरह इस्तेमाल करके नेता को बचा लिया जाता है . ऐसे सैकड़ों मामले हैं . १९७४ में पांडिचेरी लाइसेंस घोटाले में एक एम पी , तुलमोहन राम को पकड़ लिया गया था . जबकि सबको मालूम था जबकि सबको मालूम था कि खेल उस वक़्त के युवराज संजय गाँधी और उनकी प्रधानमंत्री माँ के फायदे के लिए हुआ था. उस वक़्त देश की लोक सभा में विपक्ष की बेंचों पर बहुत ही बेहतरीन लोग होते थे. मधु लिमये , ज्योतिर्मय बसु, इन्द्रजीत गुप्ता, हरि विष्णु कामथ,अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता विपक्ष की शोभा थे. इंदिरा गाँधी के पास १९७१ वाला दो तिहाई बहुमत था लेकिन मामला उजागर हुआ और पूरी दुनिया को मालूम हुआ कि भ्रष्टाचार की जड़ें कहाँ तक थीं . लेकिन असली अपराधियों का सज़ा नहीं मिली. उसके बाद तो अरुण नेहरू का दबदबा बना और भ्रष्टाचार को एक संस्थागत रूप दे दिया गया. बाद की सभी सरकारों ने भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने में ही भलाई समझी . राजीव गाँधी, वी पी सिंह ,पी वी नरसिम्हा राव , एच डी देवेगौडा , इन्दर कुमार गुजराल , अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के दौरान सत्ता पक्ष के नेताओं ने तबियत से भ्रष्टाचार किया और देश में ऐसा माहौल बना कि बे ईमानी का बुरा मानने का रिवाज़ की ख़त्म हो गया . लेकिन अब देख जा रहा है कि भ्रष्ट आदमियों को पकड़कर जेल भेजा जा रहा है . राजनेता कैसा भी हो जेलों की हवा खाने को मजबूर हो रहा है . दर असल जैन हवाला काण्ड के बाद नेता बेख़ौफ़ हो गए थे . उस रिश्वत काण्ड में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल थे , बीजेपी के आडवाणी थे तो कांग्रेस के सतीश शर्मा . शरद यादव थे तो सीताराम केसरी. आरोप भी बिकुल सही पाए गए थे लेकिन सभी नेताओंने मिलकर ऐसी खिचडी पकाई कि कोई बता ही नहीं सकता कि मामला दफ़न किस रसातल में कर दिया गया . उसके बाद के भी भ्रष्टाचारों को दबाया ही गया . एक से एक भ्रष्ट नेता और मंत्री आते रहे और जाते रहे ,किसी के भ्रष्टाचार का ज़िक्र तक नहीं हुआ . जांच की बात तो सोचने का कोई मतलब ही नहीं है . सब नेताओं को मालूम था कि लूटो और खाओ किसी कानून से डरने की ज़रुरत नहीं है. लेकिन अब देखने में आ रहा है कि बड़े बड़े नेताओं के करीबी लोग जेलों की सैर कर रहे हैं . ऐसा शायद इस लिए हो रहा है कि मीडिया अलर्ट है और सूचना का अधिकार कानून प्रभावी तरीके से चल रहा है . वेब मीडिया के चलते मीडिया को मैनेज करने की नेताओं की कोशिशें भी बेकार साबित हो रही हैं . आज कोई नेता एक चोरी करता है और अगर किसी ब्लॉगर के हाथ सूचना लग गयी तो लगभग उसी क्षण वह सूचना दुनिया भर के लिए उपलब्ध हो जाती है .जिस लोकपाल बिल को पिछले ४० साल से सरकारें ठंडे बस्ते में डाले हुए थीं वह अब देश की जनता की अदालत में है . यानी भ्रष्टाचार से लड़ने की एक देशव्यापी
लड़ाई चल रही है और केंद्र सरकार किसी भी सूचना को छुपा नहीं पा रही है और उसे एक्शन लेना पड़ रहा है . जनमत और मीडिया का दबाव इतना है कि राजनीतिक पार्टियों को कुछ करना पड़ रहा है .यह अलग बात है कि बीजेपी वालों को लग रहा है कि यह अभी कम है . बीजेपी के एक दिल्ली दरबारी प्रवक्ता को आज टेलिविज़न पर कहते सुना गया कि सुरेश कलमाड़ी तो ठीक है लेकिन उनके सारे फैसले प्रधान मंत्री कार्यालय में लिए गए थे इसलिए उसके खिलाफ फ़ौरन गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई होनी चाहिए . भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे जनता के युद्ध में बीजेपी को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. उनके मौजूदा दो मुख्य मंत्री आपराधिक मामलों के आरोपी हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री को जब हटाने की बात आई तो उसने धमका दिया . और दिल्ली वाले बीजेपी के नेता दुबक गए . एक बड़े नेता का बयान आया कि उस मुख्यमंत्री को इसलिए नहीं हटाया जा रहा है उस के बाद दक्षिण में उनकी पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. वाजपेयी सरकार के दौरान सैकड़ों ऐसे घोटाले हैं जिन पर बीजेपी के प्रवक्ताओं की नज़र नहीं जाती . उनका अध्यक्ष पूरी दुनिया के सामने नोटों की गड्डियाँ संभालते देखा गया था. और भी बहुत सारे अपराधी हैं उनकी पार्टी में लेकिन उन्हें कुछ नहीं दिखता . नरेंद्र मोदी के कृत्यों की पोल रोज़ ही खुल रही है लेकिन पूरी पार्टी उनके साथ खडी है . ऐसी हालत में कम से कम बीजेपी की औकात तो नहीं है कि वह अपने आपको भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रूसेडर के रूप में पेश कर सके.इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस वाले पाकसाफ़ है . उनके भ्रष्टाचार तो बीजेपी वालों से भी ज्यादा हैं . और भ्रष्टाचार के खिलाफ मौजूदा अभियान और उसको मिल रही सफलता कांग्रेस की कृपा का नतीजा नहीं है . सही बात यह है कि यह सारी सफलता मीडिया की वजह से मिल रही है .एक खबर आती है और पूरी दुनिया से लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं . अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने इसलिए कांग्रेस सरकार को काम करना पड़ता है . इसलिए मौजूदा लड़ाई में राजनीतिक पार्टियां बिलकुल हाशिये पर हैं और जनता की लड़ाई में मीडिया क्षण क्षण का भागीदार है . इस बात में भी दो राय नहीं है कि मीडिया में बहुत सारे अपराधी हैं . राडिया टेप्स वाले पत्रकारों को कौन नहीं जानता .सच्ची बात यह है कि प्रिंट और टेलिविज़न के बड़े बड़े सूरमा पत्रकार भी भ्रष्ट आचरण के गुनाहगार हैं . लेकिन जो वेब मीडिया है वह सही काम कर रहा है . देखा यह जा रहा है कि टी वी और अखबार वाले भी वेब मीडिया के दबाव में आकर ही मुद्दों को उठा रहे हैं .नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार से ऊब चुकी जनता को अपनी बात कहने के अवसर मिल रहे हैं और भ्रष्ट लोगों की मुसीबत आई हुई है .ज़ाहिर है आने वाला वक़्त देश के आम आदमी के लिए खुश नुमा हो सकता है क्योंकि अगर सार्वजनिक सुविधाओं के लिए निर्धारित पैसा घूस खोरों से बच गया तो वह देश के की काम आयेगा
भ्रष्टाचार के कुछ मामलों में सुरेश कलमाड़ी की गिरफ्तारी देश में चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को ज़बरदस्त ताक़त देगा. आम तौर पर होता यह रहा है कि किसी भी केस में सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी अपने सदस्यों या सहयोगियों को गिरफ्तार नहीं करती . कहीं से बलि के बकरे तलाशे जाते हैं और उन्हें ही शील्ड की तरह इस्तेमाल करके नेता को बचा लिया जाता है . ऐसे सैकड़ों मामले हैं . १९७४ में पांडिचेरी लाइसेंस घोटाले में एक एम पी , तुलमोहन राम को पकड़ लिया गया था . जबकि सबको मालूम था जबकि सबको मालूम था कि खेल उस वक़्त के युवराज संजय गाँधी और उनकी प्रधानमंत्री माँ के फायदे के लिए हुआ था. उस वक़्त देश की लोक सभा में विपक्ष की बेंचों पर बहुत ही बेहतरीन लोग होते थे. मधु लिमये , ज्योतिर्मय बसु, इन्द्रजीत गुप्ता, हरि विष्णु कामथ,अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता विपक्ष की शोभा थे. इंदिरा गाँधी के पास १९७१ वाला दो तिहाई बहुमत था लेकिन मामला उजागर हुआ और पूरी दुनिया को मालूम हुआ कि भ्रष्टाचार की जड़ें कहाँ तक थीं . लेकिन असली अपराधियों का सज़ा नहीं मिली. उसके बाद तो अरुण नेहरू का दबदबा बना और भ्रष्टाचार को एक संस्थागत रूप दे दिया गया. बाद की सभी सरकारों ने भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने में ही भलाई समझी . राजीव गाँधी, वी पी सिंह ,पी वी नरसिम्हा राव , एच डी देवेगौडा , इन्दर कुमार गुजराल , अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों के दौरान सत्ता पक्ष के नेताओं ने तबियत से भ्रष्टाचार किया और देश में ऐसा माहौल बना कि बे ईमानी का बुरा मानने का रिवाज़ की ख़त्म हो गया . लेकिन अब देख जा रहा है कि भ्रष्ट आदमियों को पकड़कर जेल भेजा जा रहा है . राजनेता कैसा भी हो जेलों की हवा खाने को मजबूर हो रहा है . दर असल जैन हवाला काण्ड के बाद नेता बेख़ौफ़ हो गए थे . उस रिश्वत काण्ड में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल थे , बीजेपी के आडवाणी थे तो कांग्रेस के सतीश शर्मा . शरद यादव थे तो सीताराम केसरी. आरोप भी बिकुल सही पाए गए थे लेकिन सभी नेताओंने मिलकर ऐसी खिचडी पकाई कि कोई बता ही नहीं सकता कि मामला दफ़न किस रसातल में कर दिया गया . उसके बाद के भी भ्रष्टाचारों को दबाया ही गया . एक से एक भ्रष्ट नेता और मंत्री आते रहे और जाते रहे ,किसी के भ्रष्टाचार का ज़िक्र तक नहीं हुआ . जांच की बात तो सोचने का कोई मतलब ही नहीं है . सब नेताओं को मालूम था कि लूटो और खाओ किसी कानून से डरने की ज़रुरत नहीं है. लेकिन अब देखने में आ रहा है कि बड़े बड़े नेताओं के करीबी लोग जेलों की सैर कर रहे हैं . ऐसा शायद इस लिए हो रहा है कि मीडिया अलर्ट है और सूचना का अधिकार कानून प्रभावी तरीके से चल रहा है . वेब मीडिया के चलते मीडिया को मैनेज करने की नेताओं की कोशिशें भी बेकार साबित हो रही हैं . आज कोई नेता एक चोरी करता है और अगर किसी ब्लॉगर के हाथ सूचना लग गयी तो लगभग उसी क्षण वह सूचना दुनिया भर के लिए उपलब्ध हो जाती है .जिस लोकपाल बिल को पिछले ४० साल से सरकारें ठंडे बस्ते में डाले हुए थीं वह अब देश की जनता की अदालत में है . यानी भ्रष्टाचार से लड़ने की एक देशव्यापी
लड़ाई चल रही है और केंद्र सरकार किसी भी सूचना को छुपा नहीं पा रही है और उसे एक्शन लेना पड़ रहा है . जनमत और मीडिया का दबाव इतना है कि राजनीतिक पार्टियों को कुछ करना पड़ रहा है .यह अलग बात है कि बीजेपी वालों को लग रहा है कि यह अभी कम है . बीजेपी के एक दिल्ली दरबारी प्रवक्ता को आज टेलिविज़न पर कहते सुना गया कि सुरेश कलमाड़ी तो ठीक है लेकिन उनके सारे फैसले प्रधान मंत्री कार्यालय में लिए गए थे इसलिए उसके खिलाफ फ़ौरन गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई होनी चाहिए . भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे जनता के युद्ध में बीजेपी को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है. उनके मौजूदा दो मुख्य मंत्री आपराधिक मामलों के आरोपी हैं. कर्नाटक के मुख्यमंत्री को जब हटाने की बात आई तो उसने धमका दिया . और दिल्ली वाले बीजेपी के नेता दुबक गए . एक बड़े नेता का बयान आया कि उस मुख्यमंत्री को इसलिए नहीं हटाया जा रहा है उस के बाद दक्षिण में उनकी पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. वाजपेयी सरकार के दौरान सैकड़ों ऐसे घोटाले हैं जिन पर बीजेपी के प्रवक्ताओं की नज़र नहीं जाती . उनका अध्यक्ष पूरी दुनिया के सामने नोटों की गड्डियाँ संभालते देखा गया था. और भी बहुत सारे अपराधी हैं उनकी पार्टी में लेकिन उन्हें कुछ नहीं दिखता . नरेंद्र मोदी के कृत्यों की पोल रोज़ ही खुल रही है लेकिन पूरी पार्टी उनके साथ खडी है . ऐसी हालत में कम से कम बीजेपी की औकात तो नहीं है कि वह अपने आपको भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रूसेडर के रूप में पेश कर सके.इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस वाले पाकसाफ़ है . उनके भ्रष्टाचार तो बीजेपी वालों से भी ज्यादा हैं . और भ्रष्टाचार के खिलाफ मौजूदा अभियान और उसको मिल रही सफलता कांग्रेस की कृपा का नतीजा नहीं है . सही बात यह है कि यह सारी सफलता मीडिया की वजह से मिल रही है .एक खबर आती है और पूरी दुनिया से लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं . अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने इसलिए कांग्रेस सरकार को काम करना पड़ता है . इसलिए मौजूदा लड़ाई में राजनीतिक पार्टियां बिलकुल हाशिये पर हैं और जनता की लड़ाई में मीडिया क्षण क्षण का भागीदार है . इस बात में भी दो राय नहीं है कि मीडिया में बहुत सारे अपराधी हैं . राडिया टेप्स वाले पत्रकारों को कौन नहीं जानता .सच्ची बात यह है कि प्रिंट और टेलिविज़न के बड़े बड़े सूरमा पत्रकार भी भ्रष्ट आचरण के गुनाहगार हैं . लेकिन जो वेब मीडिया है वह सही काम कर रहा है . देखा यह जा रहा है कि टी वी और अखबार वाले भी वेब मीडिया के दबाव में आकर ही मुद्दों को उठा रहे हैं .नतीजा यह है कि भ्रष्टाचार से ऊब चुकी जनता को अपनी बात कहने के अवसर मिल रहे हैं और भ्रष्ट लोगों की मुसीबत आई हुई है .ज़ाहिर है आने वाला वक़्त देश के आम आदमी के लिए खुश नुमा हो सकता है क्योंकि अगर सार्वजनिक सुविधाओं के लिए निर्धारित पैसा घूस खोरों से बच गया तो वह देश के की काम आयेगा
Sunday, April 24, 2011
अन्ना हजारे के आन्दोलन को उत्तर प्रदेश की पिच पर तौल रहे हैं कांग्रेस और बीजेपी वाले
शेष नारायण सिंह
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने अलग अलग राजनीतिक खेमों में अलग अलग असर डाला है . जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसने पक्के तौर पर इस आन्दोलन को बीजेपी की गोद से छीनकर अपनी अध्यक्ष सोनिया गाँधी की छवि को दुरुस्त करने की कोशिश में शुरुआती सफलता हासिल कर ली है . जब अन्ना हजारे ने सरकारी दखल वाली ड्राफ्टिंग कमेटी में आपने बन्दों के साथ शामिल होने का फैसला किया तो बीजेपी के हाथ बड़ी निराशा लगी. नागपुर जिले के बीजेपी नेता और मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी खासे नाराज़ हुए और उन्होंने इस आन्दोलन में सबसे अहम भूमिका निभा रहे बाबा रामदेव से आपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर कर दी. दिल्ली में मौजूद उनके प्रवक्ताओं ने उसी राग में अपनी बात कहनी शुरू कर दी .शायद इसलिए कि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर बीजेपी नेताओं का राजनीतिक ज्ञान अखबारों को पढ़कर ही आता है . इस बीच कांग्रेस ने अपनी सर्वोच्च नेता सोनिया गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय महान नेता साबित करने के चक्कर में अन्ना हजारे के साथियों के खिलाफ उल जलूल बयान देना शुरू कर दिया .दिग्विजय सिंह ने शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया . एक फर्जी सी डी को बाज़ार में डालकर अन्ना के साथियों को भ्रष्ट साबित करने की मुहिम को तेज़ कर दिया गया .ज़ाहिर है कि देश में कांग्रेस की इस दोहरी चाल के खिलाफ माहौल बनने लगा . वेब मीडिया की कृपा से सबको मालूम पड़ गया कि कांग्रेस का खेल क्या है . बीजेपी को इस आन्दोलन की समर्थक बता कर कांग्रेस की तरफ से किया गया हमला अब बेअसर हो चुका है .उधर बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पटना से आये बयान ने नए राजनीतिक समीकरणों का संकेत दे दिया है .उनके बयान से लगता है कि अब बीजेपी अन्ना के आन्दोलन का जितना भी इस्तेमाल कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए कर पायेगी ,करेगी. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की कोशिश है कि जन लोक पाल बिल को बेमतलब कर दिया जाए . लोकपाल बिल की मसौदा समिति के सदस्यों के खिलाफ शुरू हुए कांग्रेस के अभियान को वे इस सांचे में फिट करके अन्ना के अभियान से ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक लाभ लेने की बात करते नज़र आते हैं . हालांकि उन्होंने किसी को भी क्लीन चिट देने से इनकार किया लेकिन बिल का मसौदा तैयार होने के पहले ही उसमें तरह तरह के पेंच फंसाने के कांग्रेस के अभियान को आड़े हाथों लिया . राजनाथ सिंह का बयान कोई निजी बयान नहीं है .यह इस बात का संकेत है कि बीजेपी में अन्ना के आन्दोलन को लेकर जो दुविधा बनी हुई थी , वह अब दूर हो रही है . लगता है कि दिल्ली में बसने वाले बीजेपी के जड़ विहीन नेताओं की ज़द से अब रणनीति बाहर आ चुकी है और अब उसमें ज़मीनी राजनीति के दिग्गज भी शामिल किये जा रहे हैं . राजनाथ सिंह की पहचान देश के उन बीजेपी नेताओं के रूप में होती है जिन्होंने ज़मीनी राजनीति के बल पर मौजूदा ऊंचाइयां तय की हैं . भागते भूत की लंगोटी पर क़ब्ज़ा करने की उनकी रणनीति से बीजेपी को शायद बहुत वोटों का फायदा न हो लेकिन बीजेपी वालों को एक मौक़ा और मिल गया है जब वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार की पोषक पार्टी के रूप में पेश कर सकते हैं . राजनीति की ज़बान में कहा जाए तो यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
बीजेपी की बदली हुई सोच का अंदाज़ कांगेस को भी लग चुका है .शायद इसीलिये हर मंच से अब कांग्रेसी नेता संतोष हेगड़े की तारीफ़ कर रहे हैं . यहाँ तक कि दिग्विजय सिंह भी पिछले एकाध दिन से बदले बदले नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी संतोष हेगड़े की तारीफ़ की और आजकल शान्ति भूषण और उनके बेटे के खिलाफ बयान नहीं दे रहे हैं . अमर सिंह भी थोडा ढीले पड़े हैं . हालांकि 'भूषण गरियाओ अभियान' के दौरान तो वे दिग्विजय सिंह के भाई ही बन गए थे .दोनों भाइयों ने फर्रुखाबाद जाकर एक ही मंच से भाषण दिया और एक माला साथ साथ पहनी . लेकिन लगता है कि दिग्विजय सिंह ने इतनी बार अन्ना के आन्दोलन के खिलाफ बयान दे दिया है कि वे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा चुके हैं . ऐसे माहौल में राजनाथ सिंह का बयान दिग्विजय सिंह को बहुत नुकसान पंहुचाएगा. इस खेल के अंदर का खेल समझने की कोशिश की जाए तो तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी सामने आता है. आजकल उत्तर प्रदेश में मायावाती से नाराज़ ठाकुरों को अपनी तरफ करने का अभियान चल रहा है . कांग्रेस की कोशिश है कि अगर ठाकुर जाति के लोग एक वोट बैंक के रूप में उसके साथ जुड़ जाएँ तो मुसलमानों को समझाया जा सकता है कि ठाकुर उनके साथ हैं और अगर मुसलमान भी साथ आ जाएँ तो बीजेपी को कमज़ोर किया जा सकता है .उत्तर प्रदेश में दिग्विजय सिंह का यह एक प्रमुख एजेंडा है . लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश के आम ठाकुरों की बात तो जाने दीजिये ,वहां के कांग्रेसी राजपूत भी उनको अपना नेता नहीं मानते . वे अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . बीजेपी की भी यही कोशिश है . अगर राजपूत थोक में उसके पास आ गए तो मुसलमान कांग्रेस का चक्कर छोड़कर सीधे बी एस पी में जाएगा. ऐसी हालत में बीजेपी को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बी एस पी के खिलाफ खडी सबसे मज़बूत पार्टी के रूप में अपने आपको पेश करने का मौक़ा लगेगा.यानी बीजेपी की भी मजबूरी है कि वह अब राजनाथ सिंह को ज्यादा गंभीरता से ले क्योंकि उत्तर प्रदेश में जो भी मज़बूत होगा ,दिल्ली में उसकी सत्ता स्थापित होने की संभावना बहुत बढ़ जायेगी.
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने अलग अलग राजनीतिक खेमों में अलग अलग असर डाला है . जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसने पक्के तौर पर इस आन्दोलन को बीजेपी की गोद से छीनकर अपनी अध्यक्ष सोनिया गाँधी की छवि को दुरुस्त करने की कोशिश में शुरुआती सफलता हासिल कर ली है . जब अन्ना हजारे ने सरकारी दखल वाली ड्राफ्टिंग कमेटी में आपने बन्दों के साथ शामिल होने का फैसला किया तो बीजेपी के हाथ बड़ी निराशा लगी. नागपुर जिले के बीजेपी नेता और मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी खासे नाराज़ हुए और उन्होंने इस आन्दोलन में सबसे अहम भूमिका निभा रहे बाबा रामदेव से आपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर कर दी. दिल्ली में मौजूद उनके प्रवक्ताओं ने उसी राग में अपनी बात कहनी शुरू कर दी .शायद इसलिए कि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर बीजेपी नेताओं का राजनीतिक ज्ञान अखबारों को पढ़कर ही आता है . इस बीच कांग्रेस ने अपनी सर्वोच्च नेता सोनिया गाँधी को भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय महान नेता साबित करने के चक्कर में अन्ना हजारे के साथियों के खिलाफ उल जलूल बयान देना शुरू कर दिया .दिग्विजय सिंह ने शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण और संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया . एक फर्जी सी डी को बाज़ार में डालकर अन्ना के साथियों को भ्रष्ट साबित करने की मुहिम को तेज़ कर दिया गया .ज़ाहिर है कि देश में कांग्रेस की इस दोहरी चाल के खिलाफ माहौल बनने लगा . वेब मीडिया की कृपा से सबको मालूम पड़ गया कि कांग्रेस का खेल क्या है . बीजेपी को इस आन्दोलन की समर्थक बता कर कांग्रेस की तरफ से किया गया हमला अब बेअसर हो चुका है .उधर बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पटना से आये बयान ने नए राजनीतिक समीकरणों का संकेत दे दिया है .उनके बयान से लगता है कि अब बीजेपी अन्ना के आन्दोलन का जितना भी इस्तेमाल कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए कर पायेगी ,करेगी. उन्होंने कहा है कि कांग्रेस की कोशिश है कि जन लोक पाल बिल को बेमतलब कर दिया जाए . लोकपाल बिल की मसौदा समिति के सदस्यों के खिलाफ शुरू हुए कांग्रेस के अभियान को वे इस सांचे में फिट करके अन्ना के अभियान से ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक लाभ लेने की बात करते नज़र आते हैं . हालांकि उन्होंने किसी को भी क्लीन चिट देने से इनकार किया लेकिन बिल का मसौदा तैयार होने के पहले ही उसमें तरह तरह के पेंच फंसाने के कांग्रेस के अभियान को आड़े हाथों लिया . राजनाथ सिंह का बयान कोई निजी बयान नहीं है .यह इस बात का संकेत है कि बीजेपी में अन्ना के आन्दोलन को लेकर जो दुविधा बनी हुई थी , वह अब दूर हो रही है . लगता है कि दिल्ली में बसने वाले बीजेपी के जड़ विहीन नेताओं की ज़द से अब रणनीति बाहर आ चुकी है और अब उसमें ज़मीनी राजनीति के दिग्गज भी शामिल किये जा रहे हैं . राजनाथ सिंह की पहचान देश के उन बीजेपी नेताओं के रूप में होती है जिन्होंने ज़मीनी राजनीति के बल पर मौजूदा ऊंचाइयां तय की हैं . भागते भूत की लंगोटी पर क़ब्ज़ा करने की उनकी रणनीति से बीजेपी को शायद बहुत वोटों का फायदा न हो लेकिन बीजेपी वालों को एक मौक़ा और मिल गया है जब वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार की पोषक पार्टी के रूप में पेश कर सकते हैं . राजनीति की ज़बान में कहा जाए तो यह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
बीजेपी की बदली हुई सोच का अंदाज़ कांगेस को भी लग चुका है .शायद इसीलिये हर मंच से अब कांग्रेसी नेता संतोष हेगड़े की तारीफ़ कर रहे हैं . यहाँ तक कि दिग्विजय सिंह भी पिछले एकाध दिन से बदले बदले नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी संतोष हेगड़े की तारीफ़ की और आजकल शान्ति भूषण और उनके बेटे के खिलाफ बयान नहीं दे रहे हैं . अमर सिंह भी थोडा ढीले पड़े हैं . हालांकि 'भूषण गरियाओ अभियान' के दौरान तो वे दिग्विजय सिंह के भाई ही बन गए थे .दोनों भाइयों ने फर्रुखाबाद जाकर एक ही मंच से भाषण दिया और एक माला साथ साथ पहनी . लेकिन लगता है कि दिग्विजय सिंह ने इतनी बार अन्ना के आन्दोलन के खिलाफ बयान दे दिया है कि वे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा चुके हैं . ऐसे माहौल में राजनाथ सिंह का बयान दिग्विजय सिंह को बहुत नुकसान पंहुचाएगा. इस खेल के अंदर का खेल समझने की कोशिश की जाए तो तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी सामने आता है. आजकल उत्तर प्रदेश में मायावाती से नाराज़ ठाकुरों को अपनी तरफ करने का अभियान चल रहा है . कांग्रेस की कोशिश है कि अगर ठाकुर जाति के लोग एक वोट बैंक के रूप में उसके साथ जुड़ जाएँ तो मुसलमानों को समझाया जा सकता है कि ठाकुर उनके साथ हैं और अगर मुसलमान भी साथ आ जाएँ तो बीजेपी को कमज़ोर किया जा सकता है .उत्तर प्रदेश में दिग्विजय सिंह का यह एक प्रमुख एजेंडा है . लेकिन उनका दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश के आम ठाकुरों की बात तो जाने दीजिये ,वहां के कांग्रेसी राजपूत भी उनको अपना नेता नहीं मानते . वे अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . बीजेपी की भी यही कोशिश है . अगर राजपूत थोक में उसके पास आ गए तो मुसलमान कांग्रेस का चक्कर छोड़कर सीधे बी एस पी में जाएगा. ऐसी हालत में बीजेपी को उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बी एस पी के खिलाफ खडी सबसे मज़बूत पार्टी के रूप में अपने आपको पेश करने का मौक़ा लगेगा.यानी बीजेपी की भी मजबूरी है कि वह अब राजनाथ सिंह को ज्यादा गंभीरता से ले क्योंकि उत्तर प्रदेश में जो भी मज़बूत होगा ,दिल्ली में उसकी सत्ता स्थापित होने की संभावना बहुत बढ़ जायेगी.
Labels:
अन्ना हजारे,
दिग्विजय सिंह,
राजनाथ सिंह,
शेष नारायण सिंह
Saturday, April 23, 2011
अमरीका की पालतू पाकिस्तानी बिल्ली ने गरज कर म्याऊँ कहा
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान की मदद करके अब अमरीका पछता रहा है .अब अमरीकी अधिकारी वे बातें सार्वजनिक रूप से कहने लगे हैं जो आम तौर पर दोनों देशों के बड़े नेता बंद कमरों में कहा करते थे. मसलन अब अमरीकी फौज के मुखिया ऐलानियाँ कह रहे हैं कि पाकिस्तानी सेना और उसकी संस्था आई एस आई आतंकवाद की प्रायोजक है अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी वित्त सचिव हफीज शेख ने कह दिया कि यह सच नहीं है कि उनका देश अमरीकी मदद से फायदा उठा रहा है . अमरीकी अधिकारियों ने फ़ौरन फटकार लगाई कि वित्त सचिव महोदय गलत बयानी कर रहे हैं . अमरीकी सरकार की तरफ से बताया गया कि पिछले दस वर्षों में अमरीका पाकिस्तान को बीस अरब डालर की मदद कर चुका है . और जब से पाकिस्तान बना है अमरीका उसे करीब पचास अरब डालर का दान दे चुका है . यह भी साफ़ कर दिया गया कि यह शुद्ध रूप से खैरात है , इसके अलावा अमरीका समय समय पर पाकिस्तान को अंतर राष्ट्रीय संस्थाओं से सस्ते रेट पर क़र्ज़ वगैरह भी दिलवाता रहा है .पाकिस्तान को अमरीका ने बहुत बड़े पैमाने पर विकास के लिए भी सहायता की है . पाकिस्तानी सेना तो लगभग पूरी तरह अमरीकी मदद की वजह से चल पा रही है . अमरीका ने आरोप लगाया कि अमरीका से मिली हुई मदद के अस्तित्व को इनकार करके पाकिस्तान अहसान फरामोशी कर रहा है .इस बातचीत के बाद दोनों देशों के बीच के संबंधों में बहुत तल्खी आ गयी है . इस तल्खी को दुरुस्त करने के उद्देश्य से पाकिस्तान के विदेश सचिव , सलमान बशीर गुरुवार को अमरीका पंहुचे . लेकिन बात और बिगड़ गयी. वहां अमरीकी सेना की संयुक्त कमान के मुखिया एडमिरल माइक मुलेन ने बयान दे दिया कि पाकिस्तानी सेना आतंकवाद की प्रायोजक है और उसी ने हक्कानी गिरोह और लश्कर-ए-तय्यबा को हर तरह की मदद की है . यह दोनों ही गिरोह अफगानिस्तान और भारत में तो आतंक फैला ही रहे हैं , यह अफ्गान्स्सितान में अमरीकी और अन्य सहयोगी देशों के लोगों की ह्त्या कर रहे हैं . उनके इस बयान के बाद पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी भड़क उठे और उन्होंने अमरीका अपर गलत बात करने का आरोप लगा डाला .उन्होंने कहा कि अमरीका पाकिस्तान के बारे में नकारात्मक प्रचार कर रहा है और वे उस प्रचार को व्यक्तिगत रूप से खारिज करते हैं .उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खात्मे के लिए जो कुछ भी कर रही है , वह पाकिस्तानी राष्ट्र के दृढ़ निश्चय का बहुत बड़ा सबूत है .
अब अमरीकी शासकों को साफ़ नज़र आने लगा है कि पाकिस्तानी फौज की संस्था आई एस आई सही मायनों में आतंकवाद की ठेकेदार है . पिछले ३० वर्षों से भारत आई एस आई प्रायोजित आतंकवाद को झेला है . पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आई एस आई के आतंक का सामना किया है . लेकिन जब भी अमरीका से कहा गया कि जो भी मदद पाकिस्तान को अमरीका तरफ से मिलती है ,उसका बड़ा हिस्सा भारत के खिलाफ इस्तेमाल होता है तो अमरीका ने उसे हंस कर टाल दिया . अब जब अमरीकी हितों पर हमला हो रहा है तो पाकिस्तान में अमरीका को कमी नज़र आने लगी है .
पाकिस्तान में अमरीका विरोध में भारी जनमत है . जो भी पाकिस्तानी नेता या फौजी अमरीका के खिलाफ बयान देता है ,उसकी अपने देश में इज्ज़त बढ़ जाती है . ज़ाहिर है जनरल कयानी के अमरीका के खिलाफ दिए गए बयान की बहुत तारीफ़ की जा रही है . लेकिन सच्चाई यह है कि अगर अमरीका पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देना बंद कर दे पाकिस्तान में रोटी पानी का संकट भी आ सकता है . अब तक पाकिस्तान को सउदी अरब से खासी मदद मिलती रही है लेकिन अब पश्चिम एशिया में तानाशाही के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों के चलते लगभग सभी अरब देश अपनी ही मुसीबतों में घिरे हुए हैं . उनके लिए किसी बाहरी देश की मदद कर पाना अब थोडा मुश्किल होगा. पाकिस्तान का मददगार चीन भी है लेकिन वह उसे नक़द कोई मदद नहीं देता . वह पाकिस्तान में बहुत सारी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना कर रहा है ,जिससे आने वाले वक़्त में पाकिस्तानी राष्ट्र को लाभ मिल सकता है .लेकिन पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि मुहम्मद अली जिन्नाह के बाद पाकिस्तान को कोई ऐसा नेता नसीब नहीं हुआ जो दूर की बात सोचे ,पाकिस्तानी अवाम के भविष्य की चिंता करे.वहां पर तो जो भी सत्ता में आता है वह देश के संसाधनों को अपनी जेब में भरने के चक्कर में ही रहता है . कई पाकिस्तानी तानाशाह तो ऐसे भी गुज़रे हैं जो देश की कीमत पर अपनी संपत्ति को बढाते रहे हैं . पाकिस्तानी फौज का भी यही इतिहास रहा है . उसके बड़े अफसर भी अमरीका से हर तरह का लाभ लेते रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में दक्षिण एशिया में सोवियत रूस का प्रभाव काबू में करने के लिए पाकिस्तानी फौज की खूब मदद की गयी . अफगानिस्तान से रूसी सेना को भगाने में पाकिस्तान की फौज और आई एस आई ने अहम भूमिका निभाई थी . लेकिन सोवियत रूस के तबाह हो जाने के बाद अमरीका ने उस दौर में जिस आतंकवाद को उकसाया था वह उसी के गले पड़ गया . अब उसी आतंकवाद से लड़ने के लिए अमरीका को पाकिस्तानी मदद की ज़रुरत है . जार्ज बुश की मूर्खतापूर्ण कूटनीति के चलते अमरीका पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान में उलझ गया है . कई बार तो ऐसा लगता है कि अमरीका के लिए अफगानिस्तान की लड़ाई , वियतनाम से भी महंगी पड़ सकती है . ऐसी हालत में उसे पाकिस्तान को नाराज़ करना बाहुत भारी पड़ सकता है . यह बात सारी दुनिया के साथ साथ पाकिस्तानी जनरल कयानी को भी पता है और वे उसी की कीमत वसूल रहे हैं और अपनी जनता की वाहवाही लेने के लिए अमरीका के खिलाफ उलटे सीधे बयान भी देते रहते हैं .लेकिन अमरीका के सब्र का बाँध अगर टूट गया तो इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अमरीका पाकिस्तान को भविष्य में आर्थिक सहायता देने से मना कर दे. अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान को तबाह होने से कोई नहीं बचा सकेगा .
पाकिस्तान की मदद करके अब अमरीका पछता रहा है .अब अमरीकी अधिकारी वे बातें सार्वजनिक रूप से कहने लगे हैं जो आम तौर पर दोनों देशों के बड़े नेता बंद कमरों में कहा करते थे. मसलन अब अमरीकी फौज के मुखिया ऐलानियाँ कह रहे हैं कि पाकिस्तानी सेना और उसकी संस्था आई एस आई आतंकवाद की प्रायोजक है अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी वित्त सचिव हफीज शेख ने कह दिया कि यह सच नहीं है कि उनका देश अमरीकी मदद से फायदा उठा रहा है . अमरीकी अधिकारियों ने फ़ौरन फटकार लगाई कि वित्त सचिव महोदय गलत बयानी कर रहे हैं . अमरीकी सरकार की तरफ से बताया गया कि पिछले दस वर्षों में अमरीका पाकिस्तान को बीस अरब डालर की मदद कर चुका है . और जब से पाकिस्तान बना है अमरीका उसे करीब पचास अरब डालर का दान दे चुका है . यह भी साफ़ कर दिया गया कि यह शुद्ध रूप से खैरात है , इसके अलावा अमरीका समय समय पर पाकिस्तान को अंतर राष्ट्रीय संस्थाओं से सस्ते रेट पर क़र्ज़ वगैरह भी दिलवाता रहा है .पाकिस्तान को अमरीका ने बहुत बड़े पैमाने पर विकास के लिए भी सहायता की है . पाकिस्तानी सेना तो लगभग पूरी तरह अमरीकी मदद की वजह से चल पा रही है . अमरीका ने आरोप लगाया कि अमरीका से मिली हुई मदद के अस्तित्व को इनकार करके पाकिस्तान अहसान फरामोशी कर रहा है .इस बातचीत के बाद दोनों देशों के बीच के संबंधों में बहुत तल्खी आ गयी है . इस तल्खी को दुरुस्त करने के उद्देश्य से पाकिस्तान के विदेश सचिव , सलमान बशीर गुरुवार को अमरीका पंहुचे . लेकिन बात और बिगड़ गयी. वहां अमरीकी सेना की संयुक्त कमान के मुखिया एडमिरल माइक मुलेन ने बयान दे दिया कि पाकिस्तानी सेना आतंकवाद की प्रायोजक है और उसी ने हक्कानी गिरोह और लश्कर-ए-तय्यबा को हर तरह की मदद की है . यह दोनों ही गिरोह अफगानिस्तान और भारत में तो आतंक फैला ही रहे हैं , यह अफ्गान्स्सितान में अमरीकी और अन्य सहयोगी देशों के लोगों की ह्त्या कर रहे हैं . उनके इस बयान के बाद पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी भड़क उठे और उन्होंने अमरीका अपर गलत बात करने का आरोप लगा डाला .उन्होंने कहा कि अमरीका पाकिस्तान के बारे में नकारात्मक प्रचार कर रहा है और वे उस प्रचार को व्यक्तिगत रूप से खारिज करते हैं .उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खात्मे के लिए जो कुछ भी कर रही है , वह पाकिस्तानी राष्ट्र के दृढ़ निश्चय का बहुत बड़ा सबूत है .
अब अमरीकी शासकों को साफ़ नज़र आने लगा है कि पाकिस्तानी फौज की संस्था आई एस आई सही मायनों में आतंकवाद की ठेकेदार है . पिछले ३० वर्षों से भारत आई एस आई प्रायोजित आतंकवाद को झेला है . पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आई एस आई के आतंक का सामना किया है . लेकिन जब भी अमरीका से कहा गया कि जो भी मदद पाकिस्तान को अमरीका तरफ से मिलती है ,उसका बड़ा हिस्सा भारत के खिलाफ इस्तेमाल होता है तो अमरीका ने उसे हंस कर टाल दिया . अब जब अमरीकी हितों पर हमला हो रहा है तो पाकिस्तान में अमरीका को कमी नज़र आने लगी है .
पाकिस्तान में अमरीका विरोध में भारी जनमत है . जो भी पाकिस्तानी नेता या फौजी अमरीका के खिलाफ बयान देता है ,उसकी अपने देश में इज्ज़त बढ़ जाती है . ज़ाहिर है जनरल कयानी के अमरीका के खिलाफ दिए गए बयान की बहुत तारीफ़ की जा रही है . लेकिन सच्चाई यह है कि अगर अमरीका पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देना बंद कर दे पाकिस्तान में रोटी पानी का संकट भी आ सकता है . अब तक पाकिस्तान को सउदी अरब से खासी मदद मिलती रही है लेकिन अब पश्चिम एशिया में तानाशाही के खिलाफ चल रहे आन्दोलनों के चलते लगभग सभी अरब देश अपनी ही मुसीबतों में घिरे हुए हैं . उनके लिए किसी बाहरी देश की मदद कर पाना अब थोडा मुश्किल होगा. पाकिस्तान का मददगार चीन भी है लेकिन वह उसे नक़द कोई मदद नहीं देता . वह पाकिस्तान में बहुत सारी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना कर रहा है ,जिससे आने वाले वक़्त में पाकिस्तानी राष्ट्र को लाभ मिल सकता है .लेकिन पाकिस्तान का दुर्भाग्य है कि मुहम्मद अली जिन्नाह के बाद पाकिस्तान को कोई ऐसा नेता नसीब नहीं हुआ जो दूर की बात सोचे ,पाकिस्तानी अवाम के भविष्य की चिंता करे.वहां पर तो जो भी सत्ता में आता है वह देश के संसाधनों को अपनी जेब में भरने के चक्कर में ही रहता है . कई पाकिस्तानी तानाशाह तो ऐसे भी गुज़रे हैं जो देश की कीमत पर अपनी संपत्ति को बढाते रहे हैं . पाकिस्तानी फौज का भी यही इतिहास रहा है . उसके बड़े अफसर भी अमरीका से हर तरह का लाभ लेते रहे हैं . शीतयुद्ध के दिनों में दक्षिण एशिया में सोवियत रूस का प्रभाव काबू में करने के लिए पाकिस्तानी फौज की खूब मदद की गयी . अफगानिस्तान से रूसी सेना को भगाने में पाकिस्तान की फौज और आई एस आई ने अहम भूमिका निभाई थी . लेकिन सोवियत रूस के तबाह हो जाने के बाद अमरीका ने उस दौर में जिस आतंकवाद को उकसाया था वह उसी के गले पड़ गया . अब उसी आतंकवाद से लड़ने के लिए अमरीका को पाकिस्तानी मदद की ज़रुरत है . जार्ज बुश की मूर्खतापूर्ण कूटनीति के चलते अमरीका पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान में उलझ गया है . कई बार तो ऐसा लगता है कि अमरीका के लिए अफगानिस्तान की लड़ाई , वियतनाम से भी महंगी पड़ सकती है . ऐसी हालत में उसे पाकिस्तान को नाराज़ करना बाहुत भारी पड़ सकता है . यह बात सारी दुनिया के साथ साथ पाकिस्तानी जनरल कयानी को भी पता है और वे उसी की कीमत वसूल रहे हैं और अपनी जनता की वाहवाही लेने के लिए अमरीका के खिलाफ उलटे सीधे बयान भी देते रहते हैं .लेकिन अमरीका के सब्र का बाँध अगर टूट गया तो इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अमरीका पाकिस्तान को भविष्य में आर्थिक सहायता देने से मना कर दे. अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान को तबाह होने से कोई नहीं बचा सकेगा .
Labels:
अमरीका,
पाकिस्तानी बिल्ली,
शेष नारायण सिंह
Thursday, April 21, 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ा लठैत कौन ?
शेष नारायण सिंह
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से बहुत चिंतित हैं . उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में बिताया है . फौज की नौकरी ख़त्म करने के बाद उन्होंने सही गांधीवादी तरीके से अभियान चलाया और अपने गाँव को बाकी गावों से बेहतर बनाया . उनके गाँव में कुछ ऐसे परिवार भी हैं जो ऊब कर बड़े शहरों में चले गए थे लेकिन फिर वापस आ गए हैं. अन्ना को उनके समाज में बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . ज़ाहिर है धीरे धीरे ईमानदारी से काम करते हुए वे आज देश में एक आन्दोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं .डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने उन्हें सुझाव दिया था जब राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चलायें तो कुछ साफ़ छवि वाले राजनेताओं को भी साथ लें लें क्योंकि अंत में तय सब कुछ राजनीति के मैदान में ही होता है और वहां एक से एक घाघ बैठे हैं .उनको संभाल पाना अन्ना हजारे जैसे सीधे आदमी के लिए बहुत मुश्किल होगा. डॉ स्वामी की बात बिलकुल सच निकली. सत्ता पक्ष और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टियों ने अन्ना हजारे के अभियान को अपना बनाने की कोशिश की . शुरुआती सफलता तो मुख्य विपक्षी पार्टी को मिली लेकिन जब मामला राजनीतिक लाभ लेने का आया तो कांग्रेस की अध्यक्ष ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे को विपक्ष के खेल से बाहर करके अपने साथ ले लिया . मुख्य विपक्षी पार्टी को निराशा हुई और उन्होंने अन्ना हजारे के खिलाफ तरह तरह की बातें करना शुरू कर दिया . अब पता चला है कि अपने ख़ास बन्दे बाबा रामदेव का इस्तेमाल करके एक नया अभियान शुरू करने की योजना बन रही है . बाबा का बयान आया है कि अब इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम के संगठन के बैनर तले एक नया आन्दोलन चलाया जाएगा. यानी अन्ना हजारे का अपनी राजनीति में इस्तेमाल करने में नाकाम रहने के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी के लोग हताश नहीं हैं . वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार का समानार्थक शब्द बनाने की अपनी मुहिम को अन्ना हजारे के बिना भी चलाने की कोशिश करेगें . लेकिन लगता है कि कांग्रेस ने भी अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ हीरो न बनने देने का फैसला कर लिया है .कांग्रेस का लगभग हर महत्वपूर्ण नेता , अन्ना हजारे पर छींटाकशी कर चुका है . जब अन्ना हजारे ने इस पर एतराज़ किया तो कांग्रेसियों ने कहना शुरू कर दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगाई जा सकती.यह भी कहा गया कि जब तक हर पक्ष के बारे में सारी बातें सामने न आ जाएँ तब तक सही बहस नहीं हो सकेगी .अन्ना की टीम के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के बारे में कांग्रेस के संकटमोचक अमर सिंह भी सक्रिय हो गए.उन्होंने ऐसा अभियान चलाया कि शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण की ईमानदारी की छवि ही सवालों के घेरे में आ गयी .अब अन्ना के आन्दोलन को कांग्रेसी लोग बिलकुल बेचारा बना देने की कोशिश में पूरी ताक़त से जुट गए हैं . बात बहुत अजीब लगती थी लेकिन सोनिया गाँधी ने जब अन्ना हजारे की शिकायती चिट्ठी का जवाब भेजा तो बात समझ में आ गयी . सच्चाई यह है कि सोनिया गाँधी अपने आपको सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बहुत बड़ी अलंबरदार मानती हैं और जब अन्ना हजारे ने उनके उस रोल को कमज़ोर करने की कोशिश की तो सोनिया गाँधी को अच्छा नहीं लगा .उन्होंने अन्ना की चिट्ठी का जो जवाब दिया है उस से उनका यह दर्द साफ़ नज़र आता है . उन्होंने अन्ना को भरोसा दिलाया है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाने के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर अन्ना को विश्वास करना चाहिए .यानी जब मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ खुद काम कर रही हूँ तो आप क्यों बीच में कूद पड़े . ज़ाहिर है सोनिया गाँधी ने अन्ना के आन्दोलन से हो रहे नुकसान को तो काबू में कर लिया लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन की नेता वे खुद ही बनी रहना चाहती हैं . सूचना का अधिकार कानून बनवाकर और अपनी सरकारों के कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद उनको दंडित करके उन्होंने अपनी यह छवि निखारने की पूरी कोशिश की है. अन्ना हजारे को लिखा गया उनका जवाब भी इसी कोशिश की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए . उस चिट्ठी में उन्होंने लगभग कह दिया है कि सर्वोच्च स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लोकपाल बिल पर वे पूरी तल्लीनता से काम कर रही थीं लेकिन अन्ना के अनिश्चित कालीन अनशन से सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी लिखती हैं कि उनकी अध्यक्षता वाली नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल अन्ना हजारे के साथ लोकपाल बिल के ड्राफ्ट पर सलाह मशविरा कर रही थी लेकिन इस बीच अन्ना के समर्थकों ने अनशन शुरू करवा दिया जिस से कि माहौल बदल गया और बात बिगड़ गयी . उसी चिट्ठी में सोनिया गाँधी ने लिखा है कि अरुणा राय की अध्यक्षता में बनायी गयी एन ए सी की एक उप समिति इस मामले पर गौर कर रही थी और उसने सिविल सोसाइटी के बहुत सारे प्रतिनिधियों से बातचीत की थी . जिन लोगों से बात चीत हुई थी उसमें अन्ना हजारे के बहुत करीबी लोगों , शांति भूषण , संतोष हेगड़े , प्रशांत भूषण , स्वामी अग्निवेश और अरविन्द केजरीवाल शामिल हैं . यानी सोनिया गाँधी यह कहना चाहती हैं कि आप और हम तो एक ही रास्ते पर चल रहे थे लेकिन बीच में कुछ लोगों ने कूद कर सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी ने साफ़ कहा कि कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में उनकी पार्टी ने लोकपाल बिल को पास करने का फैसला कर लिया था और एन ए सी की कार्यसूची में भी था और २८ अप्रैल की बैठक में अहम फैसले लिए जाने थे लेकिन आपके अनशन ने सब गड़बड़ कर दिया .
ज़ाहिर है सोनिया गाँधी नाराज़ हैं . उन्हें यह बात नागवार गुज़री है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी नेता बनने की उनकी कोशिश को किसी ने ब्रेक लगाने की कोशिश की . शायद इसीलिये उनकी पार्टी के लोग अन्ना हजारे या उनके बाकी साथियों को घेरने में जुट गए हैं . हालांकि यह भी सच है कि अगर अन्ना हजारे ने देशव्यापी हस्तक्षेप न किया होता तो कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन वाला लोकपाल बिल सब्जी का टोकरा ही साबित होता . जो भी हो उम्मीद की जानी चाहिए निहित स्वार्थों के चौतरफा हमलों से बचकर एक मज़बूत लोकपाल बिल बनाया जाएगा . उसमें अगर शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण या किसी और की पोल खुलती है तो खुले, जनता को इस से कोई मतलाब नहीं है .लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कारगर कानून की जितनी आज ज़रूरत है उतनी कभी नहीं थी.
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार से बहुत चिंतित हैं . उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में बिताया है . फौज की नौकरी ख़त्म करने के बाद उन्होंने सही गांधीवादी तरीके से अभियान चलाया और अपने गाँव को बाकी गावों से बेहतर बनाया . उनके गाँव में कुछ ऐसे परिवार भी हैं जो ऊब कर बड़े शहरों में चले गए थे लेकिन फिर वापस आ गए हैं. अन्ना को उनके समाज में बहुत ही सम्मान से देखा जाता है . ज़ाहिर है धीरे धीरे ईमानदारी से काम करते हुए वे आज देश में एक आन्दोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं .डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने उन्हें सुझाव दिया था जब राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन चलायें तो कुछ साफ़ छवि वाले राजनेताओं को भी साथ लें लें क्योंकि अंत में तय सब कुछ राजनीति के मैदान में ही होता है और वहां एक से एक घाघ बैठे हैं .उनको संभाल पाना अन्ना हजारे जैसे सीधे आदमी के लिए बहुत मुश्किल होगा. डॉ स्वामी की बात बिलकुल सच निकली. सत्ता पक्ष और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टियों ने अन्ना हजारे के अभियान को अपना बनाने की कोशिश की . शुरुआती सफलता तो मुख्य विपक्षी पार्टी को मिली लेकिन जब मामला राजनीतिक लाभ लेने का आया तो कांग्रेस की अध्यक्ष ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे को विपक्ष के खेल से बाहर करके अपने साथ ले लिया . मुख्य विपक्षी पार्टी को निराशा हुई और उन्होंने अन्ना हजारे के खिलाफ तरह तरह की बातें करना शुरू कर दिया . अब पता चला है कि अपने ख़ास बन्दे बाबा रामदेव का इस्तेमाल करके एक नया अभियान शुरू करने की योजना बन रही है . बाबा का बयान आया है कि अब इंडिया अगेंस्ट करप्शन नाम के संगठन के बैनर तले एक नया आन्दोलन चलाया जाएगा. यानी अन्ना हजारे का अपनी राजनीति में इस्तेमाल करने में नाकाम रहने के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी के लोग हताश नहीं हैं . वे कांग्रेस को भ्रष्टाचार का समानार्थक शब्द बनाने की अपनी मुहिम को अन्ना हजारे के बिना भी चलाने की कोशिश करेगें . लेकिन लगता है कि कांग्रेस ने भी अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ हीरो न बनने देने का फैसला कर लिया है .कांग्रेस का लगभग हर महत्वपूर्ण नेता , अन्ना हजारे पर छींटाकशी कर चुका है . जब अन्ना हजारे ने इस पर एतराज़ किया तो कांग्रेसियों ने कहना शुरू कर दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगाई जा सकती.यह भी कहा गया कि जब तक हर पक्ष के बारे में सारी बातें सामने न आ जाएँ तब तक सही बहस नहीं हो सकेगी .अन्ना की टीम के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के बारे में कांग्रेस के संकटमोचक अमर सिंह भी सक्रिय हो गए.उन्होंने ऐसा अभियान चलाया कि शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण की ईमानदारी की छवि ही सवालों के घेरे में आ गयी .अब अन्ना के आन्दोलन को कांग्रेसी लोग बिलकुल बेचारा बना देने की कोशिश में पूरी ताक़त से जुट गए हैं . बात बहुत अजीब लगती थी लेकिन सोनिया गाँधी ने जब अन्ना हजारे की शिकायती चिट्ठी का जवाब भेजा तो बात समझ में आ गयी . सच्चाई यह है कि सोनिया गाँधी अपने आपको सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बहुत बड़ी अलंबरदार मानती हैं और जब अन्ना हजारे ने उनके उस रोल को कमज़ोर करने की कोशिश की तो सोनिया गाँधी को अच्छा नहीं लगा .उन्होंने अन्ना की चिट्ठी का जो जवाब दिया है उस से उनका यह दर्द साफ़ नज़र आता है . उन्होंने अन्ना को भरोसा दिलाया है कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाने के लिए उनकी प्रतिबद्धता पर अन्ना को विश्वास करना चाहिए .यानी जब मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ खुद काम कर रही हूँ तो आप क्यों बीच में कूद पड़े . ज़ाहिर है सोनिया गाँधी ने अन्ना के आन्दोलन से हो रहे नुकसान को तो काबू में कर लिया लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आन्दोलन की नेता वे खुद ही बनी रहना चाहती हैं . सूचना का अधिकार कानून बनवाकर और अपनी सरकारों के कई मंत्रियों के भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद उनको दंडित करके उन्होंने अपनी यह छवि निखारने की पूरी कोशिश की है. अन्ना हजारे को लिखा गया उनका जवाब भी इसी कोशिश की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए . उस चिट्ठी में उन्होंने लगभग कह दिया है कि सर्वोच्च स्तर के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रस्तावित लोकपाल बिल पर वे पूरी तल्लीनता से काम कर रही थीं लेकिन अन्ना के अनिश्चित कालीन अनशन से सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी लिखती हैं कि उनकी अध्यक्षता वाली नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल अन्ना हजारे के साथ लोकपाल बिल के ड्राफ्ट पर सलाह मशविरा कर रही थी लेकिन इस बीच अन्ना के समर्थकों ने अनशन शुरू करवा दिया जिस से कि माहौल बदल गया और बात बिगड़ गयी . उसी चिट्ठी में सोनिया गाँधी ने लिखा है कि अरुणा राय की अध्यक्षता में बनायी गयी एन ए सी की एक उप समिति इस मामले पर गौर कर रही थी और उसने सिविल सोसाइटी के बहुत सारे प्रतिनिधियों से बातचीत की थी . जिन लोगों से बात चीत हुई थी उसमें अन्ना हजारे के बहुत करीबी लोगों , शांति भूषण , संतोष हेगड़े , प्रशांत भूषण , स्वामी अग्निवेश और अरविन्द केजरीवाल शामिल हैं . यानी सोनिया गाँधी यह कहना चाहती हैं कि आप और हम तो एक ही रास्ते पर चल रहे थे लेकिन बीच में कुछ लोगों ने कूद कर सब गड़बड़ कर दिया . सोनिया गाँधी ने साफ़ कहा कि कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में उनकी पार्टी ने लोकपाल बिल को पास करने का फैसला कर लिया था और एन ए सी की कार्यसूची में भी था और २८ अप्रैल की बैठक में अहम फैसले लिए जाने थे लेकिन आपके अनशन ने सब गड़बड़ कर दिया .
ज़ाहिर है सोनिया गाँधी नाराज़ हैं . उन्हें यह बात नागवार गुज़री है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी नेता बनने की उनकी कोशिश को किसी ने ब्रेक लगाने की कोशिश की . शायद इसीलिये उनकी पार्टी के लोग अन्ना हजारे या उनके बाकी साथियों को घेरने में जुट गए हैं . हालांकि यह भी सच है कि अगर अन्ना हजारे ने देशव्यापी हस्तक्षेप न किया होता तो कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन वाला लोकपाल बिल सब्जी का टोकरा ही साबित होता . जो भी हो उम्मीद की जानी चाहिए निहित स्वार्थों के चौतरफा हमलों से बचकर एक मज़बूत लोकपाल बिल बनाया जाएगा . उसमें अगर शान्ति भूषण ,प्रशांत भूषण या किसी और की पोल खुलती है तो खुले, जनता को इस से कोई मतलाब नहीं है .लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कारगर कानून की जितनी आज ज़रूरत है उतनी कभी नहीं थी.
Labels:
अन्ना हजारे,
भ्रष्टाचार,
लठैत,
शेष नारायण सिंह,
सोनिया गाँधी
Wednesday, April 20, 2011
भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीता
शेष नारायण सिंह
अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन के दौरान मैं अस्पताल में पड़ा था. मुझे तो पीड़ा थी लेकिन डाक्टरों ने कहा कि बहुत ही मामूली बीमारी है . जो भी हो उस दौर में कुछ लिख नहीं पाया . कई मित्रों ने कहा कि इतनी बड़ी घटना घट रही है और आप कुछ लिख नहीं रहे हैं . लगा कि अवसर चूक रहा था लेकिन आज करीब दो हफ्ते बाद जब फिर लिखने बैठा हूँ तो लगता है कि अच्छा हुआ कुछ नहीं लिखा. क्योंकि चीज़ें इतनी तेज़ी से बदल रही थीं कि अगर कुछ लिख मारता तो ख़तरा पूरा था कि बेवकूफी भरा ज्ञान ही बघारता. अब ठीक है . अन्ना हजारे के मौजूं पर रवीश कुमार का बेहतरीन आलेख पढ़ चुका हूँ. अंग्रेज़ी अख़बारों में सर्वज्ञ विश्लेषकों की शेखी पढ़ चुका हूँ और अब अन्ना हजारे के आन्दोलन को रास्ते से धकेल देने की कोशिशों के बारे में शुरुआती कोशिशों का जायजा ले चुका हूँ .लगता है आज जो कुछ लिखा जाएगा वह थोडा बहुत सन्दर्भ में होगा. सबसे बड़ी बात अब यह समझ में आ रही है कि जिन राजनेताओं ने लोकपाल बिल को ४२ वर्षों से लटकाए रखा वे आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं . वे इस बिल को लगभग उसी क्वालिटी की सब्जी बनाने की कोशिश करेगें जैसी प्रसार भारती के साथ इन लोगों ने किया था . करीब बीस साल पहले जब प्रसार भारती की बात होती थी तो लगता था कि ऐसी संस्था बन जायेगी जो नेताओं की खूब जमकर पोल खोलेगी लेकिन प्रसार भारती का जो स्वरुप बन कर आया वह ऐसा है जैसे लाखों वर्षों से पाली गयी किसी बिल्ली ने म्याऊँ की आवाज़ निकाली हो . जैसा कि ज़्यादातर फालतू किस्म की संस्थाओं के साथ होता है ,प्रसार भारती भी सत्ता पक्ष के मित्रों को नौकरी देने का मंच बन कर रह गयी है . नेता लोग कोशिश करेगें कि लोकपाल बिल भी कुछ उसी डिजाइन का एक मंच बन जाए. लेकिन सूचना के अधिकार कानून और वेब पत्रकारिता की पूंजी से लैस इस देश का शिक्षित समाज नेताओं की मनमानी को शायद अब कारगर नहीं होने देगा.आजकल कांग्रेस की तरफ से कुछ नेता अन्ना हजारे को बेचारा साबित करने के चक्कर में जुटे हैं. उनकी टीम के खिलाफ सड़क छाप टिप्पणियाँ कर रहे हैं . उनकी कोशिश है कि लोकपाल बिल को या तो ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया जाए और अगर नहीं तो इतना बवाल खड़ा कर दिया जाए कि मामला विवादित हो जाए . लेकिन सूचना की क्रान्ति, और विकीलीक्स की परंपरा से वाकिफ लोगों को उन तरीकों से बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता जिस से पहले बनाया जाता था . आगे क्या होगा वह तो अभी अंदाज़ लगाना भी ठीक नहीं है लेकिन ३० जनवरी और आज के बीच जो कुछ भी हुआ है उस पर अब अपनी बात कहने का अवसर आ गया है . इतनी सूचना पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है कि विश्लेषण करने में रिस्क बिलकुल नहीं है .
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन उच्चकोटि की राजनीति का उदाहरण है . अन्ना के कैम्प में अपने लोगों को अहम रोल दिलवाकर आर एस एस/बीजेपी ने कोशिश की थी कि इस आन्दोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बिलकुल सही राजनीति थी और हर राजनीतिक पार्टी को अपने लाभ के लिए काम करना चाहिए . आर एस एस/बीजेपी की कोशिश थी कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बनाकर पेश कर दिया जाए और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बहुत ही सही राजनीतिक रणनीति थी. लेकिन सच्ची बात यह है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था . वह भ्रष्टाचार मूल रूप से तो कांग्रेस में ही है लेकिन आर एस एस/बीजेपी की सरकारें भी कम भ्रष्ट नहीं है . ज़ाहिर है अन्ना का आन्दोलन आर एस एस/बीजेपी की सरकारों के खिलाफ भी है . उन्होंने इस बात को बार बार कहा भी है .आर एस एस/बीजेपी ने किसी बहुत ही पाक साफ़ आदमी के आन्दोलन को अपने हित में इस्तेमाल करने की पहली कोशिश जेपी आन्दोलन के साथ की थी. जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने १९७४ में इंदिरा गाँधी की कांग्रेस के खिलाफ आन्दोलन की शुरुआत की तो उनके साथ कुछ आदर्शवादी समाजवादी लोग ही थे. लेकिन देश में इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय के खिलाफ माहौल बन रहा था .आर एस एस ने राजनीति के इस रुख को पहचान लिया . इस बीच बी एच यू से अपनी पढाई पूरी करके के एन गोविन्दाचार्य पटना में आर एस एस के प्रचारक के रूप में गये. उन्होंने ही जेपी से बात की और उनके आन्दोलन को आर एस एस के समर्थन की पेशकश की. जेपी को बताया गया कि आपके साथ जो समाजवादी लोग लगे हैं वे सब नेता है और नेताओं के बल पर कोई भी आन्दोलन नहीं चलता . आर एस एस में सभी कार्यकर्ता होते हैं और वे आन्दोलन को ताक़त देगें . उसके बाद तो जेपी की बड़ी सभाएं होने लगीं . शुरू में जेपी का आन्दोलन भी इंदिरा गाँधी के खिलाफ नहीं था. वे कहते थे कि राजनीति में जो गड़बड़ियां आ गयीं है उन्हें ठीक करने की ज़रूरत है और उसमें इंदिरा गांधी को भी योगदान करना चाहिए . वे कई बार जवाहरलाल नेहरू से अपने संबंधों का हवाला भी देते थे लेकिन इंदिरा गाँधी की मानसिकता दूसरी थी . उन्होंने सोचा कि सत्ता का दमन चक्र चला कर उस आन्दोलन को निपटाया जा सकता था . वैसे महात्मा गाँधी के बाद इस देश में यह पहला आन्दोलन भी था जिसमें आम आदमी शामिल हुआ था .उन्होंने जेपी के कांग्रेस में मौजूद समर्थकों को कसना शुरू कर दिया . हेमवती नंदन बहुगुणा और चन्द्र शेखर उनकी इस नीति के शिकार हो गए . और आर एस एस ने अपने समर्थकों को पूरी तरह से आन्दोलन को ताक़त देने में लगा दिया . इंदिरा गाँधी ने जेपी को नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया और उनको 'कुछ लोग ' कहने लगीं . इस बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया और इंदिरा गाँधी के अंदर का तानाशाह भड़क उठा . नतीजा यह हुआ कि जो आन्दोलन राजनीति से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए शुरू हुआ था वह कांग्रेस के खिलाफ एक तूफ़ान की शक्ल में खड़ा हो गया . बाद में १९७७ आया और आर एस एस को एक बार केंद्र की सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला.
अन्ना हजारे का आन्दोलन भी उसी तर्ज़ पर चल निकला था . ३० जनवरी २०११ के दिन जो देश भर में लोग उठ खड़े हुए थे ,उसमें बड़ी संख्या आर एस एस के कार्यकर्ताओं की थी. इस आन्दोलन में बहुत बड़े पैमाने पर सक्रिय बाबा रामदेव के ठिकाने पर जाकर बीजेपी के अध्यक्ष ने मुलाक़ात कर ली थी . अगर तीन चार दिन और यही हाल रहता तो आर एस एस/बीजेपी की कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय बना देने में सफलता मिल जाती . और फिर १९७४ के आन्दोलन से भी ताक़त वर आन्दोलन तैयार हो जाता . कांग्रेसी नेताओं ने भी ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया था कि अन्ना हजारे न चाहते हुए भी आर एस एस/बीजेपी के हित में काम करते नज़र आने लगते . लेकिन ठीक इसी वक़्त पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे के आन्दोलन से आर एस एस/बीजेपी को अलग कर दिया . उनकी पार्टी और सरकार के खिलाफ जो तूफ़ान चल पड़ा था उसे रास्ते में ही रोक कर अपनी राजनीतिक दक्षता का परिचय दिया . ज़ाहिर है कि आर एस एस/बीजेपी को इस खेल ने निराशा हुई और एक बड़ा राजनीतिक मौक़ा हाथ से निकल गया . बीजेपी के प्रवक्ताओं और उनकी तरफ से मीडिया में काम करने वालों का जो अन्ना के प्रति गुस्सा है वह इसी राजनीतिक घटना क्रम का नतीजा है .जिस सोनिया गाँधी को आर एस एस/बीजेपी वाले राजनेता ही मानने को तैयार नहीं थे ,उसने एक बार उन्हें फिर परेशानी में डाल दिया है . अब तो आर एस एस/बीजेपी वाले यह कहते पाए जा रहे हैं कि अन्ना हजारे वास्तव में कांग्रेस के बन्दे हैं . जो भी हो देश का राजनीतिक घटना क्रम एक बहुत ही दिलचस्प दौर से गुज़र रहा है और इस युद्ध का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीत लिया है . आने वाला वक़्त दिलचस्प होगा और दुनिया भर के राजनीतिक विशेषकों की उस पर नज़र रहेगी.
अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन के दौरान मैं अस्पताल में पड़ा था. मुझे तो पीड़ा थी लेकिन डाक्टरों ने कहा कि बहुत ही मामूली बीमारी है . जो भी हो उस दौर में कुछ लिख नहीं पाया . कई मित्रों ने कहा कि इतनी बड़ी घटना घट रही है और आप कुछ लिख नहीं रहे हैं . लगा कि अवसर चूक रहा था लेकिन आज करीब दो हफ्ते बाद जब फिर लिखने बैठा हूँ तो लगता है कि अच्छा हुआ कुछ नहीं लिखा. क्योंकि चीज़ें इतनी तेज़ी से बदल रही थीं कि अगर कुछ लिख मारता तो ख़तरा पूरा था कि बेवकूफी भरा ज्ञान ही बघारता. अब ठीक है . अन्ना हजारे के मौजूं पर रवीश कुमार का बेहतरीन आलेख पढ़ चुका हूँ. अंग्रेज़ी अख़बारों में सर्वज्ञ विश्लेषकों की शेखी पढ़ चुका हूँ और अब अन्ना हजारे के आन्दोलन को रास्ते से धकेल देने की कोशिशों के बारे में शुरुआती कोशिशों का जायजा ले चुका हूँ .लगता है आज जो कुछ लिखा जाएगा वह थोडा बहुत सन्दर्भ में होगा. सबसे बड़ी बात अब यह समझ में आ रही है कि जिन राजनेताओं ने लोकपाल बिल को ४२ वर्षों से लटकाए रखा वे आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं . वे इस बिल को लगभग उसी क्वालिटी की सब्जी बनाने की कोशिश करेगें जैसी प्रसार भारती के साथ इन लोगों ने किया था . करीब बीस साल पहले जब प्रसार भारती की बात होती थी तो लगता था कि ऐसी संस्था बन जायेगी जो नेताओं की खूब जमकर पोल खोलेगी लेकिन प्रसार भारती का जो स्वरुप बन कर आया वह ऐसा है जैसे लाखों वर्षों से पाली गयी किसी बिल्ली ने म्याऊँ की आवाज़ निकाली हो . जैसा कि ज़्यादातर फालतू किस्म की संस्थाओं के साथ होता है ,प्रसार भारती भी सत्ता पक्ष के मित्रों को नौकरी देने का मंच बन कर रह गयी है . नेता लोग कोशिश करेगें कि लोकपाल बिल भी कुछ उसी डिजाइन का एक मंच बन जाए. लेकिन सूचना के अधिकार कानून और वेब पत्रकारिता की पूंजी से लैस इस देश का शिक्षित समाज नेताओं की मनमानी को शायद अब कारगर नहीं होने देगा.आजकल कांग्रेस की तरफ से कुछ नेता अन्ना हजारे को बेचारा साबित करने के चक्कर में जुटे हैं. उनकी टीम के खिलाफ सड़क छाप टिप्पणियाँ कर रहे हैं . उनकी कोशिश है कि लोकपाल बिल को या तो ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया जाए और अगर नहीं तो इतना बवाल खड़ा कर दिया जाए कि मामला विवादित हो जाए . लेकिन सूचना की क्रान्ति, और विकीलीक्स की परंपरा से वाकिफ लोगों को उन तरीकों से बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता जिस से पहले बनाया जाता था . आगे क्या होगा वह तो अभी अंदाज़ लगाना भी ठीक नहीं है लेकिन ३० जनवरी और आज के बीच जो कुछ भी हुआ है उस पर अब अपनी बात कहने का अवसर आ गया है . इतनी सूचना पब्लिक डोमेन में उपलब्ध है कि विश्लेषण करने में रिस्क बिलकुल नहीं है .
इस बात में दो राय नहीं है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन उच्चकोटि की राजनीति का उदाहरण है . अन्ना के कैम्प में अपने लोगों को अहम रोल दिलवाकर आर एस एस/बीजेपी ने कोशिश की थी कि इस आन्दोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बिलकुल सही राजनीति थी और हर राजनीतिक पार्टी को अपने लाभ के लिए काम करना चाहिए . आर एस एस/बीजेपी की कोशिश थी कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बनाकर पेश कर दिया जाए और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बहुत ही सही राजनीतिक रणनीति थी. लेकिन सच्ची बात यह है कि अन्ना हजारे का आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था . वह भ्रष्टाचार मूल रूप से तो कांग्रेस में ही है लेकिन आर एस एस/बीजेपी की सरकारें भी कम भ्रष्ट नहीं है . ज़ाहिर है अन्ना का आन्दोलन आर एस एस/बीजेपी की सरकारों के खिलाफ भी है . उन्होंने इस बात को बार बार कहा भी है .आर एस एस/बीजेपी ने किसी बहुत ही पाक साफ़ आदमी के आन्दोलन को अपने हित में इस्तेमाल करने की पहली कोशिश जेपी आन्दोलन के साथ की थी. जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने १९७४ में इंदिरा गाँधी की कांग्रेस के खिलाफ आन्दोलन की शुरुआत की तो उनके साथ कुछ आदर्शवादी समाजवादी लोग ही थे. लेकिन देश में इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय के खिलाफ माहौल बन रहा था .आर एस एस ने राजनीति के इस रुख को पहचान लिया . इस बीच बी एच यू से अपनी पढाई पूरी करके के एन गोविन्दाचार्य पटना में आर एस एस के प्रचारक के रूप में गये. उन्होंने ही जेपी से बात की और उनके आन्दोलन को आर एस एस के समर्थन की पेशकश की. जेपी को बताया गया कि आपके साथ जो समाजवादी लोग लगे हैं वे सब नेता है और नेताओं के बल पर कोई भी आन्दोलन नहीं चलता . आर एस एस में सभी कार्यकर्ता होते हैं और वे आन्दोलन को ताक़त देगें . उसके बाद तो जेपी की बड़ी सभाएं होने लगीं . शुरू में जेपी का आन्दोलन भी इंदिरा गाँधी के खिलाफ नहीं था. वे कहते थे कि राजनीति में जो गड़बड़ियां आ गयीं है उन्हें ठीक करने की ज़रूरत है और उसमें इंदिरा गांधी को भी योगदान करना चाहिए . वे कई बार जवाहरलाल नेहरू से अपने संबंधों का हवाला भी देते थे लेकिन इंदिरा गाँधी की मानसिकता दूसरी थी . उन्होंने सोचा कि सत्ता का दमन चक्र चला कर उस आन्दोलन को निपटाया जा सकता था . वैसे महात्मा गाँधी के बाद इस देश में यह पहला आन्दोलन भी था जिसमें आम आदमी शामिल हुआ था .उन्होंने जेपी के कांग्रेस में मौजूद समर्थकों को कसना शुरू कर दिया . हेमवती नंदन बहुगुणा और चन्द्र शेखर उनकी इस नीति के शिकार हो गए . और आर एस एस ने अपने समर्थकों को पूरी तरह से आन्दोलन को ताक़त देने में लगा दिया . इंदिरा गाँधी ने जेपी को नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया और उनको 'कुछ लोग ' कहने लगीं . इस बीच इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया और इंदिरा गाँधी के अंदर का तानाशाह भड़क उठा . नतीजा यह हुआ कि जो आन्दोलन राजनीति से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए शुरू हुआ था वह कांग्रेस के खिलाफ एक तूफ़ान की शक्ल में खड़ा हो गया . बाद में १९७७ आया और आर एस एस को एक बार केंद्र की सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला.
अन्ना हजारे का आन्दोलन भी उसी तर्ज़ पर चल निकला था . ३० जनवरी २०११ के दिन जो देश भर में लोग उठ खड़े हुए थे ,उसमें बड़ी संख्या आर एस एस के कार्यकर्ताओं की थी. इस आन्दोलन में बहुत बड़े पैमाने पर सक्रिय बाबा रामदेव के ठिकाने पर जाकर बीजेपी के अध्यक्ष ने मुलाक़ात कर ली थी . अगर तीन चार दिन और यही हाल रहता तो आर एस एस/बीजेपी की कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय बना देने में सफलता मिल जाती . और फिर १९७४ के आन्दोलन से भी ताक़त वर आन्दोलन तैयार हो जाता . कांग्रेसी नेताओं ने भी ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया था कि अन्ना हजारे न चाहते हुए भी आर एस एस/बीजेपी के हित में काम करते नज़र आने लगते . लेकिन ठीक इसी वक़्त पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने हस्तक्षेप किया और अन्ना हजारे के आन्दोलन से आर एस एस/बीजेपी को अलग कर दिया . उनकी पार्टी और सरकार के खिलाफ जो तूफ़ान चल पड़ा था उसे रास्ते में ही रोक कर अपनी राजनीतिक दक्षता का परिचय दिया . ज़ाहिर है कि आर एस एस/बीजेपी को इस खेल ने निराशा हुई और एक बड़ा राजनीतिक मौक़ा हाथ से निकल गया . बीजेपी के प्रवक्ताओं और उनकी तरफ से मीडिया में काम करने वालों का जो अन्ना के प्रति गुस्सा है वह इसी राजनीतिक घटना क्रम का नतीजा है .जिस सोनिया गाँधी को आर एस एस/बीजेपी वाले राजनेता ही मानने को तैयार नहीं थे ,उसने एक बार उन्हें फिर परेशानी में डाल दिया है . अब तो आर एस एस/बीजेपी वाले यह कहते पाए जा रहे हैं कि अन्ना हजारे वास्तव में कांग्रेस के बन्दे हैं . जो भी हो देश का राजनीतिक घटना क्रम एक बहुत ही दिलचस्प दौर से गुज़र रहा है और इस युद्ध का पहला राउंड सोनिया गाँधी ने जीत लिया है . आने वाला वक़्त दिलचस्प होगा और दुनिया भर के राजनीतिक विशेषकों की उस पर नज़र रहेगी.
Labels:
पहला राउंड,
भ्रष्टाचार,
शेष नारायण सिंह,
सोनिया गाँधी
Monday, April 4, 2011
जगजीवन राम-लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी राजनेता
शेष नारायण सिंह
पांच अप्रैल जगजीवन राम की जयंती है. उनकी शख्सियत के कई आयाम हैं . लेकिन सबसे बड़ी बात जो उनके व्यक्तित्व से निकल कर आती है वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने की उनकी प्रवृत्ति है. अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने हमेशा ही अन्याय का विरोध किया . खुद दलित परिवार में पैदा हुए थे . हालांकि उनके पिता उस वक़्त के समाज के नेता थे. शिवनारायणी सम्प्रदाय के महंत थे, कांग्रेस की राजनीति में शामिल रह चुके थे और दलितों के बीच बहुत ही सम्मान की नज़र से देखे जाते थे . लेकिन तत्कालीन सामंती समाज ने उन्हें बरबरी का अवसर कभी नहीं दिया . और जब जगजीवन राम के बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गयी तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन कुशाग्रबुद्धि जगजीवन राम की माँ ने शिक्षा के मह्त्व को पहचानते हुए पढाई नहीं बंद करवाई. बचपन में ही उन्होंने स्कूल में अछूत बच्चों के खिलाफ हो रहे भेद भाव के खिलाफ आवाज़ उठायी जो बाद में उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया . उन्होंने १९७७ में भी अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायी जब इंदिरा गाँधी ने अपने लफंगा टाइप बेटे को सत्ता की बागडोर थमाने की योजना बनायी . जगजीवन राम का अन्याय का विरोध करने के तरीका औरों से अलग था . वे कभी भी सब कुछ दांव पर नहीं लगाते थे. मसलन जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया तो उन्होंने उसका समर्थन किया . यहाँ तक कि इमरजेंसी को मंज़ूर करवाने के लिए जो प्रस्ताव लोक सभा में सरकार की तरफ से पेश किया गया था ,उसको बाबू जगजीवन राम ने ही पाइलट किया था. हालांकि इमरजेंसी इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ अवाम की जुबान बंद करने के लिए लगाई गयी थी लेकिन शायद बाबू जी को उसमें कुछ अच्छाइयां नज़र आ रही होंगीं. लेकिन बहुत शुरुआती स्टेज में ही यह साफ़ हो गया कि इमरजेंसी को इंदिरा जी के छोटे बेटे को सत्ता के दावेदार के रूप में स्थापित करने के लिए लगाया गया था. उसके आस पास एक चौकड़ी जमा हो गयी,जिसमें कुछ पुलिस वाले, कुछ आई ए एस अफसर, कुछ नेता,दिल्ली शहर के कुछ लफंगे ,कुछ स्मगलर , कुछ दलाल और कुछ ब्लैक मार्केटियर शामिल थे. उन दिनों जो लोग बाबू जगजीवन राम से मिले थे उन्होंने इस बात की बार बार ताईद की थी कि इमरजेंसी का समर्थन करके जगजीवन राम बहुत दुखी थे . लेकिन तब तक देश का हर बड़ा कांग्रेसी नेता इंदिरा जी के बेटे की चौकड़ी के जाल में फंस चुका था . बाबू जगजीवन राम की राजनीतिक कुशलता और विद्वत्ता की परीक्षा हो रही थी. उनके पास पूरे देश से कांग्रेस कार्यकर्ता आते थे और उन्हें मालूम था कि इमरजेंसी में दलितों और अल्पसंख्यकों को खूब परेशान किया जा रहा है. उस ज़माने में केंद्र के साथ साथ हर राज्य में भी कांग्रेस की सरकारें होती थी. उनके सभी मुख्य मंत्री इंदिरा गाँधी के बेटे संजय के सामने नतमस्तक थे. उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा ने संविधान की बात कने की कोशिश की तो उन्हें पैदल कर दिया गया . उनकी जगह पर आये नारायण दत्त तिवारी तो सीधे ही संजय गाँधी की मंडली के हुक्म के गुलाम थे . लगभग हर राज्य में यही आलम था .बाबू जगजीवन राम को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इंदिरा गाँधी के इस पुत्र मोह की बलि चढ़ रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के खात्मे से वे बहुत दुखी थे . लेकिन उन्हें यह भी मालूम था कि अगर खुले आम बगावत कर दी तो उनका भी वही हाल होगा जो बाकी विपक्षी नेताओं का हो रहा था. विपक्ष का हर नेता, यहाँ तक कि मामूली कार्यकर्ता भी जेलों में था. ज़ाहिर है उस माहौल में जगजीवन राम अगर कोई समझदारी की बात करते तो उन्हें भी राजनीतिक रूप से ख़त्म कर दिया जाता . वे चुप चाप सही वक़्त का इंतज़ार करते रहे और जब इंदिरा जी के खुफिया तंत्र ने उन्हें भरोसा दिला दिया कि विपक्ष पूरी तरह से पस्त पड़ा था .अगर उस वक़्त चुनाव करा दिए जाएँ तो कांग्रेस की दुबारा वापसी हो सकती थी और उसके ठीक बाद संजय गाँधी कि ताजपोशी कर दी जाती. चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद अपने विश्वस्त साथियों हेमवती नंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और के आर गणेश के साथ बाबू जगजीवन राम ने लोकशाही की बिसात पर अपनी धमाकेदार मौजूदगी का ऐलान कर दिया . उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया, सरकार से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी के गठन का ऐलान कर दिया. निराश हताश विपक्ष के नेताओं में जान आ गयी . बाबू जगजीवन राम के पास पहले से ही पूरे देश से आये कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इनपुट था ही और देश में तूफ़ान आ गया. इस तरह १९७७ में देश की जनता ने इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता का विरोध करके एक ऐसी पार्टी को सत्ता सौंप दी जिसका तब तक गठन ही नहीं हुआ था. जनता पार्टी का गठन मोरारजी देसाई कि सरकार बन जाने के बाद हुआ . लोकतंत्र के अध्येता बताते हैं कि यहीं पर जनता पार्टी के नेताओं का वर्ग चरित्र सामने आ गया . उनमें से ज़्यादातर सामन्ती मानसिकता के थे और उन्होंने प्रधान मंत्री पद के असली हक़दार बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया . लेकिन बाबूजी खुश थे .देश में एक बार फिर जनता की ताक़त की सत्ता स्थापित हो चुकी थी .
१९७७ में इंदिरा गाँधी के पुत्र मोह के चक्कर में देश को कुछ गैर ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में जाने से उन्होंने बचा लिया था . यह उनके बगावती तेवर की वजह से ही हुआ था. अपने पूरे राजनीतिक जीवन में वे हमेशा सही मूल्यों की राजनीति का समर्थन करते रहे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इस बात का विरोध किया था कि दलित छात्रों को बाकी छात्रों के साथ बैठकर खाना खाने की अनुमति नहीं थी. .बनारस की सामन्ती मानसिकता से ऊब कर ही वे कलकत्ता गए थे जहां उन्होंने अपने आपको मजदूरों के एक शुभचिन्तक के रूप में स्थापित किया . वहीं पर वे महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस की नज़र में आये और बाद में तो उन्होंने अंग्रेजों की उस कोशिश को धता बता दिया जिसमें उन्हने लालच देकर महात्मा गाँधी के खिलाफ करने की कोशिश की जा रही थी. महत्मा जी ने कहा था कि जगजीवन राम खरा सोना हैं .उस दौर के बहुत सारे गैर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के भक्त हो गए थे लेकिन बाबू जगजीवन राम ने ऐसा नहीं होने दिया .१९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में वे एक बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे . बाद में जब शिमला में दलितो के हित की बात करने वे कैबिनेट mishan से मिलने गए तो उन्होंने भारत और यहाँ के लोगों के हित को सर्वोपरि रखा . १९३० के दशक में तो एक अवसर ऐसा भी आया जब अँगरेज़ अनुसूचित जातियों के नेताओं को जिन्ना के बराबर खड़े कर देने की साज़िश पर काम कर रहे थे लेकिन बाद में जगजीवन राम ने उसे नाकाम कर दिया . अजीब बात है कि सामंती सोच के इतिहासकारों ने बाबू जगजीवन राम को किसी और कांग्रेसी नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की और सफल रहे . सच्चाई यह है वे सही मायनों में लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे
पांच अप्रैल जगजीवन राम की जयंती है. उनकी शख्सियत के कई आयाम हैं . लेकिन सबसे बड़ी बात जो उनके व्यक्तित्व से निकल कर आती है वह अन्याय के खिलाफ खड़े होने की उनकी प्रवृत्ति है. अपने पूरे जीवन काल में उन्होंने हमेशा ही अन्याय का विरोध किया . खुद दलित परिवार में पैदा हुए थे . हालांकि उनके पिता उस वक़्त के समाज के नेता थे. शिवनारायणी सम्प्रदाय के महंत थे, कांग्रेस की राजनीति में शामिल रह चुके थे और दलितों के बीच बहुत ही सम्मान की नज़र से देखे जाते थे . लेकिन तत्कालीन सामंती समाज ने उन्हें बरबरी का अवसर कभी नहीं दिया . और जब जगजीवन राम के बचपन में ही पिता की मृत्यु हो गयी तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा लेकिन कुशाग्रबुद्धि जगजीवन राम की माँ ने शिक्षा के मह्त्व को पहचानते हुए पढाई नहीं बंद करवाई. बचपन में ही उन्होंने स्कूल में अछूत बच्चों के खिलाफ हो रहे भेद भाव के खिलाफ आवाज़ उठायी जो बाद में उनकी प्रकृति का हिस्सा बन गया . उन्होंने १९७७ में भी अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठायी जब इंदिरा गाँधी ने अपने लफंगा टाइप बेटे को सत्ता की बागडोर थमाने की योजना बनायी . जगजीवन राम का अन्याय का विरोध करने के तरीका औरों से अलग था . वे कभी भी सब कुछ दांव पर नहीं लगाते थे. मसलन जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाने का फैसला किया तो उन्होंने उसका समर्थन किया . यहाँ तक कि इमरजेंसी को मंज़ूर करवाने के लिए जो प्रस्ताव लोक सभा में सरकार की तरफ से पेश किया गया था ,उसको बाबू जगजीवन राम ने ही पाइलट किया था. हालांकि इमरजेंसी इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ अवाम की जुबान बंद करने के लिए लगाई गयी थी लेकिन शायद बाबू जी को उसमें कुछ अच्छाइयां नज़र आ रही होंगीं. लेकिन बहुत शुरुआती स्टेज में ही यह साफ़ हो गया कि इमरजेंसी को इंदिरा जी के छोटे बेटे को सत्ता के दावेदार के रूप में स्थापित करने के लिए लगाया गया था. उसके आस पास एक चौकड़ी जमा हो गयी,जिसमें कुछ पुलिस वाले, कुछ आई ए एस अफसर, कुछ नेता,दिल्ली शहर के कुछ लफंगे ,कुछ स्मगलर , कुछ दलाल और कुछ ब्लैक मार्केटियर शामिल थे. उन दिनों जो लोग बाबू जगजीवन राम से मिले थे उन्होंने इस बात की बार बार ताईद की थी कि इमरजेंसी का समर्थन करके जगजीवन राम बहुत दुखी थे . लेकिन तब तक देश का हर बड़ा कांग्रेसी नेता इंदिरा जी के बेटे की चौकड़ी के जाल में फंस चुका था . बाबू जगजीवन राम की राजनीतिक कुशलता और विद्वत्ता की परीक्षा हो रही थी. उनके पास पूरे देश से कांग्रेस कार्यकर्ता आते थे और उन्हें मालूम था कि इमरजेंसी में दलितों और अल्पसंख्यकों को खूब परेशान किया जा रहा है. उस ज़माने में केंद्र के साथ साथ हर राज्य में भी कांग्रेस की सरकारें होती थी. उनके सभी मुख्य मंत्री इंदिरा गाँधी के बेटे संजय के सामने नतमस्तक थे. उत्तर प्रदेश में हेमवती नंदन बहुगुणा ने संविधान की बात कने की कोशिश की तो उन्हें पैदल कर दिया गया . उनकी जगह पर आये नारायण दत्त तिवारी तो सीधे ही संजय गाँधी की मंडली के हुक्म के गुलाम थे . लगभग हर राज्य में यही आलम था .बाबू जगजीवन राम को करीब से जानने वाले बताते हैं कि इंदिरा गाँधी के इस पुत्र मोह की बलि चढ़ रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के खात्मे से वे बहुत दुखी थे . लेकिन उन्हें यह भी मालूम था कि अगर खुले आम बगावत कर दी तो उनका भी वही हाल होगा जो बाकी विपक्षी नेताओं का हो रहा था. विपक्ष का हर नेता, यहाँ तक कि मामूली कार्यकर्ता भी जेलों में था. ज़ाहिर है उस माहौल में जगजीवन राम अगर कोई समझदारी की बात करते तो उन्हें भी राजनीतिक रूप से ख़त्म कर दिया जाता . वे चुप चाप सही वक़्त का इंतज़ार करते रहे और जब इंदिरा जी के खुफिया तंत्र ने उन्हें भरोसा दिला दिया कि विपक्ष पूरी तरह से पस्त पड़ा था .अगर उस वक़्त चुनाव करा दिए जाएँ तो कांग्रेस की दुबारा वापसी हो सकती थी और उसके ठीक बाद संजय गाँधी कि ताजपोशी कर दी जाती. चुनाव की घोषणा हो जाने के बाद अपने विश्वस्त साथियों हेमवती नंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और के आर गणेश के साथ बाबू जगजीवन राम ने लोकशाही की बिसात पर अपनी धमाकेदार मौजूदगी का ऐलान कर दिया . उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दिया, सरकार से इस्तीफ़ा दिया और कांग्रेस फोर डेमोक्रेसी के गठन का ऐलान कर दिया. निराश हताश विपक्ष के नेताओं में जान आ गयी . बाबू जगजीवन राम के पास पहले से ही पूरे देश से आये कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इनपुट था ही और देश में तूफ़ान आ गया. इस तरह १९७७ में देश की जनता ने इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता का विरोध करके एक ऐसी पार्टी को सत्ता सौंप दी जिसका तब तक गठन ही नहीं हुआ था. जनता पार्टी का गठन मोरारजी देसाई कि सरकार बन जाने के बाद हुआ . लोकतंत्र के अध्येता बताते हैं कि यहीं पर जनता पार्टी के नेताओं का वर्ग चरित्र सामने आ गया . उनमें से ज़्यादातर सामन्ती मानसिकता के थे और उन्होंने प्रधान मंत्री पद के असली हक़दार बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया . लेकिन बाबूजी खुश थे .देश में एक बार फिर जनता की ताक़त की सत्ता स्थापित हो चुकी थी .
१९७७ में इंदिरा गाँधी के पुत्र मोह के चक्कर में देश को कुछ गैर ज़िम्मेदार लोगों के हाथ में जाने से उन्होंने बचा लिया था . यह उनके बगावती तेवर की वजह से ही हुआ था. अपने पूरे राजनीतिक जीवन में वे हमेशा सही मूल्यों की राजनीति का समर्थन करते रहे. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इस बात का विरोध किया था कि दलित छात्रों को बाकी छात्रों के साथ बैठकर खाना खाने की अनुमति नहीं थी. .बनारस की सामन्ती मानसिकता से ऊब कर ही वे कलकत्ता गए थे जहां उन्होंने अपने आपको मजदूरों के एक शुभचिन्तक के रूप में स्थापित किया . वहीं पर वे महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस की नज़र में आये और बाद में तो उन्होंने अंग्रेजों की उस कोशिश को धता बता दिया जिसमें उन्हने लालच देकर महात्मा गाँधी के खिलाफ करने की कोशिश की जा रही थी. महत्मा जी ने कहा था कि जगजीवन राम खरा सोना हैं .उस दौर के बहुत सारे गैर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के भक्त हो गए थे लेकिन बाबू जगजीवन राम ने ऐसा नहीं होने दिया .१९४२ के भारत छोडो आन्दोलन में वे एक बहुत बड़े नेता के रूप में उभरे . बाद में जब शिमला में दलितो के हित की बात करने वे कैबिनेट mishan से मिलने गए तो उन्होंने भारत और यहाँ के लोगों के हित को सर्वोपरि रखा . १९३० के दशक में तो एक अवसर ऐसा भी आया जब अँगरेज़ अनुसूचित जातियों के नेताओं को जिन्ना के बराबर खड़े कर देने की साज़िश पर काम कर रहे थे लेकिन बाद में जगजीवन राम ने उसे नाकाम कर दिया . अजीब बात है कि सामंती सोच के इतिहासकारों ने बाबू जगजीवन राम को किसी और कांग्रेसी नेता के रूप में पेश करने की कोशिश की और सफल रहे . सच्चाई यह है वे सही मायनों में लोकतंत्र और सामाजिक बराबरी के अग्रणी दार्शनिक और राजनीतिज्ञ थे
Subscribe to:
Posts (Atom)