Friday, September 3, 2010
Thursday, September 2, 2010
मीडिया दंगे न भड़काने की कसम खाए
अनिल चमड़िया
(भड़ास4मीडिया )
: वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने की अपील : अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जमीन पर राम मंदिर बनाने के विवाद ने हजारों जानें अब तक ले ली हैं। इस विवाद ने सामाजिक ताने बाने को क्षति पहुंचाने में भी बड़ी भूमिका अदा की है।
साम्प्रदायिक सदभाव को नष्ट किया है। राजनीति के सामाजिक कल्याण के बुनियादी उद्देश्यों से भटकाने में कारगर मदद की है। 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के फैसलें में इस मुद्दे ने मदद इस रूप में की कि समाज धार्मिक कट्टरता के आधार पर बंट गया और उसने इस साम्राज्यवादी साजिश को एकताबद्ध होकर विफल करने की जिम्मेदारी से चूक गया। 17 सितंबर को अयोध्या –बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संभावित है। ऐसे में साम्प्रदायिक और साम्राज्यवादी समर्थक शक्तियां फिर से 1992 जैसे हालात पैदा करना चाहती है।
हम चाहते हैं कि मीडिया की उस समय जैसी भूमिका थी हम उस पर अंकुश ऱखने के लिए पहले से निगरानी रखें। हमें पता है कि साम्प्रदायिक तनाव बढाने और समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। कई सरकारी और गैर सरकारी जांच समितियों ने भी इसकी पुष्टि की है कि किस तरह से मीडिया ने साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में अहम भूमिका अदा की। हम चाहते हैं कि मीडिया का कोई हिस्सा अब इस साजिश को अंजाम नहीं दे सकें।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) ने इस मायने में एक सार्थक पहल की है कि मीडिया में अयोध्या से संबंधी खबरें और टिप्पणियों पर नजर रखेंगी। वह उनके साम्प्रदायिक मंसूबों को उसका असर दिखाने से पहले ही धवस्त करेंगी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने इस पहल का स्वागत किया है। उसने देश भर में अपने सदस्यों और लोकतंत्र समर्थक पत्रकार बिरादरी के सदस्यों के नाम अपील जारी की है कि वह इस मुहिम में शामिल हो। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू या किसी भी भारतीय भाषा में प्रकाशित और प्रसारित खबरों पर वे नजर रखें। उन खबरों या टिप्पणियों का तत्काल विश्लेषण प्रस्तुत करें कि वे कैसे साम्प्रदायिक उन्माद में शामिल हो रही है। वैसी खबरों और टिप्पणियों के प्रति हम लोगों को सचेत करें।
ब्लाग्स, वेबसाईट के अलावा समाचार पत्रों में वैसी खबरों और टिप्पणियों पर अपना विश्लेषण हम प्रस्तुत करेंगे। हम अपने सदस्यों और दूसरे जागरूक लोगों से अपील करते हैं कि वे ऐसी खबरों और टिप्पणियों के बारे में हमें तत्काल सूचित करें और उन पर अपना विश्लेषण भी भेंजे।
मीडिया स्टडीज ग्रुप की तरफ से अनिल चमड़िया द्वारा जारी
(भड़ास4मीडिया )
: वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने की अपील : अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जमीन पर राम मंदिर बनाने के विवाद ने हजारों जानें अब तक ले ली हैं। इस विवाद ने सामाजिक ताने बाने को क्षति पहुंचाने में भी बड़ी भूमिका अदा की है।
साम्प्रदायिक सदभाव को नष्ट किया है। राजनीति के सामाजिक कल्याण के बुनियादी उद्देश्यों से भटकाने में कारगर मदद की है। 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के फैसलें में इस मुद्दे ने मदद इस रूप में की कि समाज धार्मिक कट्टरता के आधार पर बंट गया और उसने इस साम्राज्यवादी साजिश को एकताबद्ध होकर विफल करने की जिम्मेदारी से चूक गया। 17 सितंबर को अयोध्या –बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संभावित है। ऐसे में साम्प्रदायिक और साम्राज्यवादी समर्थक शक्तियां फिर से 1992 जैसे हालात पैदा करना चाहती है।
हम चाहते हैं कि मीडिया की उस समय जैसी भूमिका थी हम उस पर अंकुश ऱखने के लिए पहले से निगरानी रखें। हमें पता है कि साम्प्रदायिक तनाव बढाने और समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। कई सरकारी और गैर सरकारी जांच समितियों ने भी इसकी पुष्टि की है कि किस तरह से मीडिया ने साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में अहम भूमिका अदा की। हम चाहते हैं कि मीडिया का कोई हिस्सा अब इस साजिश को अंजाम नहीं दे सकें।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) ने इस मायने में एक सार्थक पहल की है कि मीडिया में अयोध्या से संबंधी खबरें और टिप्पणियों पर नजर रखेंगी। वह उनके साम्प्रदायिक मंसूबों को उसका असर दिखाने से पहले ही धवस्त करेंगी। मीडिया स्टडीज ग्रुप ने इस पहल का स्वागत किया है। उसने देश भर में अपने सदस्यों और लोकतंत्र समर्थक पत्रकार बिरादरी के सदस्यों के नाम अपील जारी की है कि वह इस मुहिम में शामिल हो। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू या किसी भी भारतीय भाषा में प्रकाशित और प्रसारित खबरों पर वे नजर रखें। उन खबरों या टिप्पणियों का तत्काल विश्लेषण प्रस्तुत करें कि वे कैसे साम्प्रदायिक उन्माद में शामिल हो रही है। वैसी खबरों और टिप्पणियों के प्रति हम लोगों को सचेत करें।
ब्लाग्स, वेबसाईट के अलावा समाचार पत्रों में वैसी खबरों और टिप्पणियों पर अपना विश्लेषण हम प्रस्तुत करेंगे। हम अपने सदस्यों और दूसरे जागरूक लोगों से अपील करते हैं कि वे ऐसी खबरों और टिप्पणियों के बारे में हमें तत्काल सूचित करें और उन पर अपना विश्लेषण भी भेंजे।
मीडिया स्टडीज ग्रुप की तरफ से अनिल चमड़िया द्वारा जारी
हिन्दुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है ,हिन्दू धर्म एक महान धर्म
शेष नारायण सिंह
हिन्दुओं का ठेकेदार बनने की आर एस एस और उसके मातहत संगठनों की कोशिश को चुनौती मिल रही है. भगवान् राम के नाम पर राजनीति खेल कर सत्ता तक पंहुचने वाली बी जे पी के लिए और कोई तरकीब तलाशनी पड़ सकती है क्योंकि कांग्रेस की नयी लीडरशिप हिन्दू धर्म के प्रतीकों पर बी जे पी के एकाधिकार को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने साफ़ कहा है कि हिन्दू धर्म पर किसी राजनीतिक पार्टी के एकाधिकार के सिद्धांत को वे बिलकुल नहीं स्वीकार करते. दिग्विजय सिंह एक मंजे हुए राजनीतिक नेता हैं , इसलिए यह उम्मीद करना कि वे अपनी निजी राय बता रहे थे, ठीक नहीं होगा. यह उनकी पार्टी की ही राय है .दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से भी कहा और मुझे जोर देकर बताया कि भगवा रंग बहुत हे एपवित्र रंग है और उसे किसी के पार्टी की संपत्ति मानने की बात का मैं विरोध करता हूँ . उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्था के बल पर मैं राजनीतिक फसल काटने के पक्ष में नहीं हूँ और न ही किसी पार्टी को यह अवसर देना चाहता हूँ . उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म पर हर हिन्दू का बराबर का अधिकार है और उसके नाम पर आर एस एस और बी जे पी वालों को राजनीति नहीं करने दी जायेगी . दिग्विजय सिंह ने कहा कि हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष , वी डी सावरकर ने हिन्दुत्व नाम की राजनीतिक विचारधारा की स्थापना की थी . जिसके बल पर वे राजनीतिक सपने देखते थे, अगर आर एस एस वाले चाहें तो उसको अपना सकते हैं , उन्होंने साफ़ कहा कि वे हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म और हिंदुत्व में फर्क है.
कांग्रेस पार्टी में इस ताज़ा सोच पर काम होना शुरू हो गया है . मुंबई में एक गैर राजनीतिक सभा में दिग्विजय सिंह दिन भर बैठे रहे जिसमें वे खुद केसरिया साफा बंधे हुए थे . अखिल भारतीय क्षत्रिय फेडरेशन के दूसरे सम्मलेन में उन्होंने छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप की वीरता का गुणगान किया और दावा किया कि वे खुद क्षत्रिय हैं और अपने महान पूर्वज क्षत्रियों का सम्मान काना उनका बहुत ही पवित्र कर्त्तव्य है . दिग्विजय सिंह का यह पैंतरा संघ की राजनीति की चूल ढीली करने की हैसियत रखता है .मुंबई में अगर कांग्रेस का एक बड़ा नेता डंके की चोट पर शिवाजी के सम्मान में भाषण दे रहा है कि तो शिवाजी का वारिस बनकर राजनीतिक दुकानदारी करने वालों के लिए मुश्किल खडी हो सकती है . संघी राजनीति की अजीब मुश्किल है . उनके पास बीसवीं सदी में तो कोई ऐसा हीरो था नहीं जो आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुआ हो . या उनके किसी नेता को आज़ादी के लिए लड़ते हुए एक दिन के लिए भी जेल जाना पड़ा हो . इसलिए यह लोग ऐतिहासिक महापुरुषों से अपने आपको जोड़ कर उनका वारिस बनने की बात करते रहते हैं . महाराणा प्रताप और शिवाजी की वंदना संघी राजनीति की इसी मजबूरी के चलते की जाती है . यह कोशिश इन लोगों ने 1986 के बाद जोर शोर से शुरू कर दी थी .हिन्दुत्व वादियों को अस्सी के दशक में सफलता इसलिए मिली कि उस वक़्त की बड़ी पार्टियों ने राम जन्मभूमि की इनकी राजनीति का विरोध बहुत ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया . उत्तर प्रदेश और केंद्र में बहुत मजबूती के साथ राजनीति के शिखर पर बैठी कांग्रेस ने भी संघ परिवार , ख़ास कर विश्व हिन्दू परिषद् को राम के नाम पर एकाधिकार के खेल में वाक ओवर दे दिया. शायद ऐसा इसलिए हुआ कि उस वक़्त के कांग्रेस के मुखिया राजीव गांधी के पास योग्य सलाहकारों की कमी थी. अरुण नेहरू, अरुण सिंह टाइप लोग उनके सलाहकार थे , जिन बेचारों को राजनीति की बारीकियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. नतीजा यह हुआ कि तीन चौथाई बहुमत वाली कांग्रेस चुनाव हार गयी और दो सीट जीतकर आई बी जे पी ने दिल्ली में विश्वनाथ प्रताप सिंह की कठपुतली सरकार बनवा दी. फिर तो आर एस एस की हिंदुत्व का ठेकेदार बनने की कोशिश शुरू हो गयी और कांग्रेस और बाकी राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता, राम का नाम आते ही बी जे पी का ज़िक्र करने लगे. और बी जे पी को भगवान राम की पार्टी बनने का मौक़ा मिल गया . यह काम बी जे पी और उसके मालिक आर एस एस की मर्जी के हिसाब से हो रहा था यही उनकी योजना थी .जिसका फायदा बी जे पी को हुआ . लेकिन अब सोनिया गांधी के राज में कांग्रेस में ज़्यादातर फैसले सोच विचार कर लिए जा रहे हैं . राजीव गांधी की तरह दोस्तों की बात को राष्टीय राजनीति पर नहीं थोपा जा रहा है. जिसका नतीजा यह है कि एक सोची समझी रण नीति के तहत बी जे पी ,शिव सेना और बाकी साम्प्रदायिक पार्टियों को उनके साम्प्रदायिक रंग में रंगे मुहावरों से खारिज किया जा रहा है . और अगर कांग्रेस अपनी इस योजना में सफल हो गयी तो और बी जे पी की उस कोशिश को जिसके तहत वह हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में अपने को स्लाट कर रही थी , नाकाम कर दिया तो इस देश की राजनीति का भला तो होगा ही, आर एस एस को नए सिरे से महापुरुषों की खोज करनी पड़ेगी
हिन्दुओं का ठेकेदार बनने की आर एस एस और उसके मातहत संगठनों की कोशिश को चुनौती मिल रही है. भगवान् राम के नाम पर राजनीति खेल कर सत्ता तक पंहुचने वाली बी जे पी के लिए और कोई तरकीब तलाशनी पड़ सकती है क्योंकि कांग्रेस की नयी लीडरशिप हिन्दू धर्म के प्रतीकों पर बी जे पी के एकाधिकार को मंज़ूर करने को तैयार नहीं है . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने साफ़ कहा है कि हिन्दू धर्म पर किसी राजनीतिक पार्टी के एकाधिकार के सिद्धांत को वे बिलकुल नहीं स्वीकार करते. दिग्विजय सिंह एक मंजे हुए राजनीतिक नेता हैं , इसलिए यह उम्मीद करना कि वे अपनी निजी राय बता रहे थे, ठीक नहीं होगा. यह उनकी पार्टी की ही राय है .दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से भी कहा और मुझे जोर देकर बताया कि भगवा रंग बहुत हे एपवित्र रंग है और उसे किसी के पार्टी की संपत्ति मानने की बात का मैं विरोध करता हूँ . उन्होंने कहा कि धार्मिक आस्था के बल पर मैं राजनीतिक फसल काटने के पक्ष में नहीं हूँ और न ही किसी पार्टी को यह अवसर देना चाहता हूँ . उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म पर हर हिन्दू का बराबर का अधिकार है और उसके नाम पर आर एस एस और बी जे पी वालों को राजनीति नहीं करने दी जायेगी . दिग्विजय सिंह ने कहा कि हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष , वी डी सावरकर ने हिन्दुत्व नाम की राजनीतिक विचारधारा की स्थापना की थी . जिसके बल पर वे राजनीतिक सपने देखते थे, अगर आर एस एस वाले चाहें तो उसको अपना सकते हैं , उन्होंने साफ़ कहा कि वे हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म और हिंदुत्व में फर्क है.
कांग्रेस पार्टी में इस ताज़ा सोच पर काम होना शुरू हो गया है . मुंबई में एक गैर राजनीतिक सभा में दिग्विजय सिंह दिन भर बैठे रहे जिसमें वे खुद केसरिया साफा बंधे हुए थे . अखिल भारतीय क्षत्रिय फेडरेशन के दूसरे सम्मलेन में उन्होंने छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप की वीरता का गुणगान किया और दावा किया कि वे खुद क्षत्रिय हैं और अपने महान पूर्वज क्षत्रियों का सम्मान काना उनका बहुत ही पवित्र कर्त्तव्य है . दिग्विजय सिंह का यह पैंतरा संघ की राजनीति की चूल ढीली करने की हैसियत रखता है .मुंबई में अगर कांग्रेस का एक बड़ा नेता डंके की चोट पर शिवाजी के सम्मान में भाषण दे रहा है कि तो शिवाजी का वारिस बनकर राजनीतिक दुकानदारी करने वालों के लिए मुश्किल खडी हो सकती है . संघी राजनीति की अजीब मुश्किल है . उनके पास बीसवीं सदी में तो कोई ऐसा हीरो था नहीं जो आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुआ हो . या उनके किसी नेता को आज़ादी के लिए लड़ते हुए एक दिन के लिए भी जेल जाना पड़ा हो . इसलिए यह लोग ऐतिहासिक महापुरुषों से अपने आपको जोड़ कर उनका वारिस बनने की बात करते रहते हैं . महाराणा प्रताप और शिवाजी की वंदना संघी राजनीति की इसी मजबूरी के चलते की जाती है . यह कोशिश इन लोगों ने 1986 के बाद जोर शोर से शुरू कर दी थी .हिन्दुत्व वादियों को अस्सी के दशक में सफलता इसलिए मिली कि उस वक़्त की बड़ी पार्टियों ने राम जन्मभूमि की इनकी राजनीति का विरोध बहुत ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से किया . उत्तर प्रदेश और केंद्र में बहुत मजबूती के साथ राजनीति के शिखर पर बैठी कांग्रेस ने भी संघ परिवार , ख़ास कर विश्व हिन्दू परिषद् को राम के नाम पर एकाधिकार के खेल में वाक ओवर दे दिया. शायद ऐसा इसलिए हुआ कि उस वक़्त के कांग्रेस के मुखिया राजीव गांधी के पास योग्य सलाहकारों की कमी थी. अरुण नेहरू, अरुण सिंह टाइप लोग उनके सलाहकार थे , जिन बेचारों को राजनीति की बारीकियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. नतीजा यह हुआ कि तीन चौथाई बहुमत वाली कांग्रेस चुनाव हार गयी और दो सीट जीतकर आई बी जे पी ने दिल्ली में विश्वनाथ प्रताप सिंह की कठपुतली सरकार बनवा दी. फिर तो आर एस एस की हिंदुत्व का ठेकेदार बनने की कोशिश शुरू हो गयी और कांग्रेस और बाकी राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता, राम का नाम आते ही बी जे पी का ज़िक्र करने लगे. और बी जे पी को भगवान राम की पार्टी बनने का मौक़ा मिल गया . यह काम बी जे पी और उसके मालिक आर एस एस की मर्जी के हिसाब से हो रहा था यही उनकी योजना थी .जिसका फायदा बी जे पी को हुआ . लेकिन अब सोनिया गांधी के राज में कांग्रेस में ज़्यादातर फैसले सोच विचार कर लिए जा रहे हैं . राजीव गांधी की तरह दोस्तों की बात को राष्टीय राजनीति पर नहीं थोपा जा रहा है. जिसका नतीजा यह है कि एक सोची समझी रण नीति के तहत बी जे पी ,शिव सेना और बाकी साम्प्रदायिक पार्टियों को उनके साम्प्रदायिक रंग में रंगे मुहावरों से खारिज किया जा रहा है . और अगर कांग्रेस अपनी इस योजना में सफल हो गयी तो और बी जे पी की उस कोशिश को जिसके तहत वह हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में अपने को स्लाट कर रही थी , नाकाम कर दिया तो इस देश की राजनीति का भला तो होगा ही, आर एस एस को नए सिरे से महापुरुषों की खोज करनी पड़ेगी
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Saturday, August 28, 2010
जोर ज़बरदस्ती के खिलाफ खडी है एक मुस्लिम लड़की
शेष नारायण सिंह
सामाजिक कार्यकर्ता, शबनम हाशमी ने मांग की है कि केरल के कासरगोड जिले की महिला रायना खासी की हिफाज़त का ज़िम्मा केरल की सरकार ले. शबनम हाशमी के संगठन , अनहद के एक बयान में कहा गया है कि पुरातन पंथियों के एक संगठन की ओर से रायना को पिछले एक साल से धमकी मिल रही है और उन्हें आगाह किया जा रहा है कि वे हिजाब में रहें . अनहद ने ज़बरदस्ती परदे में रहने के इस पुरातनपंथी संगठन के महिला विरोधी और असंवैधानिक काम की निंदा की है .उन्होंने कहा कि यह बहुत चिंता की बात है केरल जैसे प्रगतिशील समाज में साम्प्रदायिक ताक़ते सिर उठा रही हैं और संविधान के खिलाफ काम करने की हिम्मत जुटा पा रही हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि पिछले बीस वर्षों में इस तरह की साम्प्रदायिक ताक़तें अपने प्रभाव के क्षेत्र में विस्तार कर रही हैं और उस से भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उन्हने धर्मनिरपेक्ष ताक़तें चुनौती नहीं दे रही हैं . यह बहुत ज़रूरी है कि साम्प्रदायिक सोच की बुनियाद पर औरतों के खिलाफ इस तरह का काम करने वाले इन साम्प्रदायिक ताक़तों को ठिकाने लगाया जाए. रायना खासी को मुस्लिम पुरातनपंथी नेता पिछले साल भर से परेशान कर रहे हैं लेकिन सरकार ने उसकी सुरक्षा के लिए कोई क़दम नहीं उठाया . अनहद ने कहा है कि उन्हें भरोसा है कि रायना के अलावा भी बहुत सारी इअसी लडकियां होगीं जिन्हें ज़बरदस्ती परदे में रहने को कहा जा रहा होगा. वह एक बहादुर लडकी है और उसने कथ्मुला व्यवस्था को जवाब दिया है रयान के जनतांत्रिक देश की नागरिक है और उसे इस बात की आज़ादी है कि वह जो कपडे चाहे पहन सकती है . केरल सरकार को चाहिए कि उसे पूरी सुरक्षा दे और धर्म निरपेक्षता पर हो रहे हमले को फ़ौरन लगाम दे.
सामाजिक कार्यकर्ता, शबनम हाशमी ने मांग की है कि केरल के कासरगोड जिले की महिला रायना खासी की हिफाज़त का ज़िम्मा केरल की सरकार ले. शबनम हाशमी के संगठन , अनहद के एक बयान में कहा गया है कि पुरातन पंथियों के एक संगठन की ओर से रायना को पिछले एक साल से धमकी मिल रही है और उन्हें आगाह किया जा रहा है कि वे हिजाब में रहें . अनहद ने ज़बरदस्ती परदे में रहने के इस पुरातनपंथी संगठन के महिला विरोधी और असंवैधानिक काम की निंदा की है .उन्होंने कहा कि यह बहुत चिंता की बात है केरल जैसे प्रगतिशील समाज में साम्प्रदायिक ताक़ते सिर उठा रही हैं और संविधान के खिलाफ काम करने की हिम्मत जुटा पा रही हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि पिछले बीस वर्षों में इस तरह की साम्प्रदायिक ताक़तें अपने प्रभाव के क्षेत्र में विस्तार कर रही हैं और उस से भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि उन्हने धर्मनिरपेक्ष ताक़तें चुनौती नहीं दे रही हैं . यह बहुत ज़रूरी है कि साम्प्रदायिक सोच की बुनियाद पर औरतों के खिलाफ इस तरह का काम करने वाले इन साम्प्रदायिक ताक़तों को ठिकाने लगाया जाए. रायना खासी को मुस्लिम पुरातनपंथी नेता पिछले साल भर से परेशान कर रहे हैं लेकिन सरकार ने उसकी सुरक्षा के लिए कोई क़दम नहीं उठाया . अनहद ने कहा है कि उन्हें भरोसा है कि रायना के अलावा भी बहुत सारी इअसी लडकियां होगीं जिन्हें ज़बरदस्ती परदे में रहने को कहा जा रहा होगा. वह एक बहादुर लडकी है और उसने कथ्मुला व्यवस्था को जवाब दिया है रयान के जनतांत्रिक देश की नागरिक है और उसे इस बात की आज़ादी है कि वह जो कपडे चाहे पहन सकती है . केरल सरकार को चाहिए कि उसे पूरी सुरक्षा दे और धर्म निरपेक्षता पर हो रहे हमले को फ़ौरन लगाम दे.
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Thursday, August 26, 2010
अगर एक मंत्री भी ईमानदार हो तो बदल सकते हैं हालात
शेष नारायण सिंह
अगर दिल्ली दरबार में एक मंत्री भी अपना काम इमानदारी से करने का फैसला कर ले तो बहुत कुछ बदल सकता है . आज के ६३ साल पहले व्यवस्था बदल देने के लिए सत्ता में आई कांग्रेस के शुरुआती मंत्री तो बहुत ही इमानदार थे ,शायद इसीलिये बहुत सारी चीज़ें ऐसी हुईं जिनकी उम्मीद आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले वीरों ने देखी थी . लेकिन वक़्त के साथ बेईमानों की संख्या बढ़ने लगी और बहुत सारे फैसले पैसे के बल पर होने लगे. पिछले २० वर्षों से तो दिल्ली दरबार में ऐसा माहौल है कि पूंजीपति वर्ग जो चाहे करवा सकता है . सरकार के मंत्रियों की हालत यह है कि किसी भी फैसले को बदल देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता . घूस पात देकर खरबपति बनने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि इसी वजह से हो रही है . ऐसा ही मामला उस आदमी का है जो मुंबई में कबाड़े का काम करता था लेकिन आज देश के सबसे समृद्ध भारतीयों में उसकी गिनती होने लगी है . इस तरह के उद्यमियों की खास बात यह है कि ये लोग सभी पार्टियों में बराबर की पैठ रखते हैं . ताज़ा मामला स्टरलाईट और वेदान्त अल्युमिनियम का है जिनकी अपने आपको को छः गुना करने की योजनाओं को इमानदारी का झटका लग गया है क्योंकि केंद्र सरकार के एक मंत्री ने तय कर लिया कि नियम कानून में हेराफेरी करके किसी को लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती. वेदान्त अल्युमिनियम के मालिक अनिल अग्रवाल की कंपनी में कभी गृहमंत्री पी चिदंबरम निदेशक रह चुके हैं और एन डी ए की सरकार के एक मंत्री या कई मंत्रियों ने उन्हें माटी के मोल भारत की सबसे पुरानी सरकारी अल्युमिनियम कंपनी बेच दी थी. दरअसल उसी बालको( भारत अल्युमिनियम कंपनी ) को सस्ते खरीद कर ही उन्होंने सम्पन्नता की अपनी दौड़ को ताक़त दी थी. उस दौर में कांग्रेस ने उनके काम का कोई विरोध नहीं किया था क्योंकि उनकी कंपनी में कांग्रेस के ताक़तवर नेता, पी चिदंबरम एक निदेशक के रूप में काम कर रहे थे. उडीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक से भी उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे . ज़ाहिर है उनकी मनमानी की गाड़ी अपनी मर्जी से बेख़ौफ़ चल रही थी . लेकिन अब सब कुछ गड़बड़ हो चुका है . पर्यावरण मंत्री ने वेदान्त कंपनी और उसके मालिक को कानून की इज्ज़त करने का ककहरा पढ़ा दिया है . उडीसा में औने पौने दामों में मिले बाक्साईट की खुदाई के लाइसेंसों को सरकार ने गैरकानूनी करार दे दिया है और अब उनकी रफ़्तार लगभग शून्य पर आ गयी है . अजीब बात यह है कि उनकी लक्ष्मी की साधना में सरकारी क्षेत्र की कंपनी ओडीसा माइनिंग कारपोरेशन ने भी कारिन्दा बनने का फैसला कर लिया था . यह भी माना जाता है कि दिल्ली दरबार से उन्हें बिना किसी रोक टोक के चलते रहने का आशीर्वाद मिला हुआ था . लेकिन अब बात बिगड़ चुकी है . पर्यावरण मंत्री, जयराम रमेश ने ओडीसा माइनिंग कारपोरेशन का वह लाइसेंस रद्द कर दिया है जो नियमगिरि पहाड़ियों से बाक्साईट की खुदाई करके अनिल अग्रवाल की वेदान्त अल्युमिनियम की लान्जीगढ़ रिफाइनरी को बाक्साईट सप्लाई करने के लिए दिया गया था. मंत्री ने नए लाइसेंस को तो रद्द कर ही दिया है एक लाख टन की क्षमता वाले प्लांट को मिले पुराने लाइसेंस को रद्द करने के लिए भी कार्रवाई शुरू कर दिया है .तीन जिलों में फ़ैली बाक्साईट की इन खदानों में डोंगरिया और खूँटिया जाति के आदिवासी रहते हैं और उनकी जीविका इन्हीं जंगलों की वजह से चलती है . वैसे भी पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि कि अंधाधुंध खुदाई से इस इलाके के वातावरण को जो नुकसान होगा उका कोई हिसाब ही नहीं लगाया जा सकता.
इस सारे मामले में मीडिया के एक हिस्से का रोल बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण रहा है , खासकर टेलिविज़न न्यूज़ के एक वर्ग के लोग इस तरह बात कर रहे हैं मानों अगर वेदान्त का आर्थिक नुकसान हो गया तो सर्व नाश हो जाएगा. उनकी तरफ से अनिल अग्रवाल की कंपनियों के शेयर में हो रही गिरावट को इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे दुनिया पर कोई भारी संकट आ गया है . ज़ाहिर है कि सरकार ,राजनीतिक दल और मीडिया सब की मदद से आम आदमी, खासकर आदिवासी भारतीयों की संपत्ति को हड़प कर यह कम्पनियां सम्पन्नता के इस मुकाम तक पंहुची हैं . ज़रुरत इस बात की है कि जयराम रमेश की तरह के कुछ और लोग सार्वजनिक जीवन में आयें और न्याय पर आधारित राज काज के निजाम की स्थापना को .
अगर दिल्ली दरबार में एक मंत्री भी अपना काम इमानदारी से करने का फैसला कर ले तो बहुत कुछ बदल सकता है . आज के ६३ साल पहले व्यवस्था बदल देने के लिए सत्ता में आई कांग्रेस के शुरुआती मंत्री तो बहुत ही इमानदार थे ,शायद इसीलिये बहुत सारी चीज़ें ऐसी हुईं जिनकी उम्मीद आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले वीरों ने देखी थी . लेकिन वक़्त के साथ बेईमानों की संख्या बढ़ने लगी और बहुत सारे फैसले पैसे के बल पर होने लगे. पिछले २० वर्षों से तो दिल्ली दरबार में ऐसा माहौल है कि पूंजीपति वर्ग जो चाहे करवा सकता है . सरकार के मंत्रियों की हालत यह है कि किसी भी फैसले को बदल देने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता . घूस पात देकर खरबपति बनने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि इसी वजह से हो रही है . ऐसा ही मामला उस आदमी का है जो मुंबई में कबाड़े का काम करता था लेकिन आज देश के सबसे समृद्ध भारतीयों में उसकी गिनती होने लगी है . इस तरह के उद्यमियों की खास बात यह है कि ये लोग सभी पार्टियों में बराबर की पैठ रखते हैं . ताज़ा मामला स्टरलाईट और वेदान्त अल्युमिनियम का है जिनकी अपने आपको को छः गुना करने की योजनाओं को इमानदारी का झटका लग गया है क्योंकि केंद्र सरकार के एक मंत्री ने तय कर लिया कि नियम कानून में हेराफेरी करके किसी को लाभ लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती. वेदान्त अल्युमिनियम के मालिक अनिल अग्रवाल की कंपनी में कभी गृहमंत्री पी चिदंबरम निदेशक रह चुके हैं और एन डी ए की सरकार के एक मंत्री या कई मंत्रियों ने उन्हें माटी के मोल भारत की सबसे पुरानी सरकारी अल्युमिनियम कंपनी बेच दी थी. दरअसल उसी बालको( भारत अल्युमिनियम कंपनी ) को सस्ते खरीद कर ही उन्होंने सम्पन्नता की अपनी दौड़ को ताक़त दी थी. उस दौर में कांग्रेस ने उनके काम का कोई विरोध नहीं किया था क्योंकि उनकी कंपनी में कांग्रेस के ताक़तवर नेता, पी चिदंबरम एक निदेशक के रूप में काम कर रहे थे. उडीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक से भी उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे . ज़ाहिर है उनकी मनमानी की गाड़ी अपनी मर्जी से बेख़ौफ़ चल रही थी . लेकिन अब सब कुछ गड़बड़ हो चुका है . पर्यावरण मंत्री ने वेदान्त कंपनी और उसके मालिक को कानून की इज्ज़त करने का ककहरा पढ़ा दिया है . उडीसा में औने पौने दामों में मिले बाक्साईट की खुदाई के लाइसेंसों को सरकार ने गैरकानूनी करार दे दिया है और अब उनकी रफ़्तार लगभग शून्य पर आ गयी है . अजीब बात यह है कि उनकी लक्ष्मी की साधना में सरकारी क्षेत्र की कंपनी ओडीसा माइनिंग कारपोरेशन ने भी कारिन्दा बनने का फैसला कर लिया था . यह भी माना जाता है कि दिल्ली दरबार से उन्हें बिना किसी रोक टोक के चलते रहने का आशीर्वाद मिला हुआ था . लेकिन अब बात बिगड़ चुकी है . पर्यावरण मंत्री, जयराम रमेश ने ओडीसा माइनिंग कारपोरेशन का वह लाइसेंस रद्द कर दिया है जो नियमगिरि पहाड़ियों से बाक्साईट की खुदाई करके अनिल अग्रवाल की वेदान्त अल्युमिनियम की लान्जीगढ़ रिफाइनरी को बाक्साईट सप्लाई करने के लिए दिया गया था. मंत्री ने नए लाइसेंस को तो रद्द कर ही दिया है एक लाख टन की क्षमता वाले प्लांट को मिले पुराने लाइसेंस को रद्द करने के लिए भी कार्रवाई शुरू कर दिया है .तीन जिलों में फ़ैली बाक्साईट की इन खदानों में डोंगरिया और खूँटिया जाति के आदिवासी रहते हैं और उनकी जीविका इन्हीं जंगलों की वजह से चलती है . वैसे भी पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि कि अंधाधुंध खुदाई से इस इलाके के वातावरण को जो नुकसान होगा उका कोई हिसाब ही नहीं लगाया जा सकता.
इस सारे मामले में मीडिया के एक हिस्से का रोल बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण रहा है , खासकर टेलिविज़न न्यूज़ के एक वर्ग के लोग इस तरह बात कर रहे हैं मानों अगर वेदान्त का आर्थिक नुकसान हो गया तो सर्व नाश हो जाएगा. उनकी तरफ से अनिल अग्रवाल की कंपनियों के शेयर में हो रही गिरावट को इस तरह पेश किया जा रहा है जैसे दुनिया पर कोई भारी संकट आ गया है . ज़ाहिर है कि सरकार ,राजनीतिक दल और मीडिया सब की मदद से आम आदमी, खासकर आदिवासी भारतीयों की संपत्ति को हड़प कर यह कम्पनियां सम्पन्नता के इस मुकाम तक पंहुची हैं . ज़रुरत इस बात की है कि जयराम रमेश की तरह के कुछ और लोग सार्वजनिक जीवन में आयें और न्याय पर आधारित राज काज के निजाम की स्थापना को .
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Sunday, August 22, 2010
बाढ़ की विपदा, पाकिस्तानी जनता और गैर-ज़िम्मेदार पाकिस्तानी हुकूमत
शेष नारायण सिंह
बाढ़ के करण पकिस्तान में भारी तबाही आ गयी है . एक करोड़ घर तबाह हो गए हैं और करीब ५ करोड़ लोग बेघर हो गए हैं . इन लोगों को फ़ौरन मदद की ज़रुरत है .क्योंकि वे आसमान के नीचे रातें बिता रहे हैं . उनका सब कुछ लुट गया है . पंजाब और सिंध के सूबे भारी तबाही की चपेट में हैं . सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं ,उसके पास इतना धन नहीं है कि इन परेशान लोगों की मदद की जा सके. इनको किसी तरह की नार्मल ज़िंदगी मुहैया कराने के लिए कम से कम पांच हज़ार करोड़ रूपये की फौरी ज़रुरत है लेकिन अभी विदेशों और संयुक्त राष्ट्र की ओर से इसकी आधी रक़म का भी इंतज़ाम नहीं हो सका है . दुनिया के बाकी देश पाकिस्तान में सरकारों को गैर ज़िम्मेदार मानते रहे हैं इसलिए बहुत सारे दानदाता मदद के लिए नहीं आ रहे हैं . सुनामी के लिए अमरीका सहित पश्चिमी देशों ने भारी मदद की थी लेकिन अब वे भी हाथ खींचते नज़र आ रहे हैं . भारत ने आर्थिक सहायता का प्रस्ताव किया था लेकिन पाकिस्तान सरकार के लिए भारत से मदद लेने में राजनीतिक परेशानी है ,इसलिए उसने संयुक्त राष्ट्र के ज़रिये मदद भेजने की बात की है . पाकिस्तान सरकार में शीर्ष स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से पश्चिम के देश कोई भी मदद करने में संकोच कर रहे हैं . सरकार इतनी बड़ी तबाही को संभाल पाने के लिए बिलकुल सक्षम नहीं है . पाकिस्तान के बहुत सारे शहरों से नौजवान लड़के लडकियां निकल पड़े हैं अपने देश के खस्ताहाल लोगों की मदद करने लेकिन उन्हें गावों के बारे में कोई जानकारी नहीं है और उनकी मुसीबत यह है कि सरकार की ओर से देहाती इलाकों में तैनात मुकामी कर्मचारी कहीं नज़र ही नहीं आ रहे हैं जिसके वजह से मदद के काम में किसी तरह का कोई सामंजस्य नहीं है. पाकिस्तान के अपने राजनेताओं का व्यवहार बहुत ही गैरजिम्मेदाराना है . वे एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाते फिर रहे हैं . आपदा के शुरुआती दिनों में पाकिस्तानी राष्ट्रपति,आसिफ अली ज़रदारी की विदेश यात्रा के औचित्य पर रोज़ ही चर्चा हो रही है जो कि पूरी तरह से बेमतलब है . इस वक़्त तो पाकिस्तान की लगभग एक तिहाई आबादी बहुत बड़ी मुसीबत से गुज़र रही है और पाकिस्तानी राजनेता अपनी सियासत को चमक देने में लगा हुआ है . पाकिस्तानी राजनेताओं के इसी गैरजिम्मेदार आचरण के कारण संपन्न देशों के लोग बेमतलब सवाल पूछ रहे हैं . बी बी सी और सी एन एन टेलिविज़न ने पाकिस्तानी अवाम की मुसीबत को बहुत ही गंभीरता से लिया है .वे लगातार अपनी बुलेटिनों में पाकिस्तानी तबाही की तस्वीरें दिखा रहे हैं और बाकी दुनिया से अपील कर रहे हैं कि पाकिस्तानी सरकार के भ्रष्टाचार को कुछ वक़्त के लिएय नज़र अंदाज़ करके संयुक्त राष्ट्र और अन्य स्वयंसेवी संगठनों के ज़रिये पाकिस्तान की मुसीबत में पड़ी जनता को बचाने की कोशिश करें . इस सारे मामले में अमरीकी सरकार का रुख बहुत ही अमानवीय है . हालांकि वह अब तक सबसे बड़ा दानदाता देश है लेकिन जो अमरीका पाकिस्तान की फौज़ को तालिबान और अल कायदा के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए अरबों डालर की मदद कर रहा है उसकी तरफ से कुछ सौ करोड़ रूपये की मदद इतनी बड़ी मुसीबत के दौर में बहुत ही गलत बात लगती है . अमरीका को यह मालूम होना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना के जो जवान उसके हित में काम कर रहे हैं और अफगानिस्तान, वजीरिस्तान, बलोचिस्तान और सूबा-ए-सरहद में अपनी जान हथेली पर लेकर अपने ही मुल्क के लोगों को मार रहे हैं , वे पाकिस्तान के ग्रामीण इलाकों से आते हैं . पाकिस्तानी फौज़ का एक बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी पंजाब के उन गावों से भर्ती किया जाता है जहां इस वक़्त बाढ़ की तबाही फैली हुई है. अमरीका उनकी भी कोई मदद नहीं कर रहा है .
बी बी सी टेलिविज़न पर एक बहस में पश्चिम के कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह कहते पाए गए कि पाकिस्तान की सरकारें हमेशा से ही गैर ज़िम्मेदार रही हैं और वे परमाणु बम बना रही हैं . इसलिए उनको सहायता देने का कोई मतलब नहीं है . पश्चिमी देशों के इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की यह सोच बिलकुल वहशियाना है . क्या इस बात को सही ठहराया जा सकता है कि कि पाकिस्तानी सरकार और फौज बहुत ही भ्रष्ट संगठन हैं ,इसलिए वहां के लोगों को प्राक्रतिक आपदा की हालात में मरने के लिए छोड़ दिया जाए. पूरी दुनिया के देशों से अपील की जानी चाहिए कि इस वक़्त मुसीबत पाकिस्तानी सरकार पर नहीं आई है , मुसीबत पाकिस्तानी अवाम पर आई है. सब को चाहिए कि पाकिस्तानी सरकार की बे-ईमान नीतियों, भ्रष्टाचार और नाकाबिलियत को कुछ देर के लिए भुला दें और वहां की अवाम को मुसीबत के वक़्त अकेला न छोड़ दें . पाकिस्तान में जो करीब पांच करोड़ लोग मुसीबत ही हद से गुज़र रहे हैं वे सब इंसान हैं और अच्छे इंसान हैं . मान लिया कि पाकिस्तान सरकार बे-ईमान है लेकिन बाढ़ के शिकार लोग इस सरकार में शामिल नहीं हैं , वे इस सरकार की गलत नीतियों के शिकार हैं और पूरी दुनिया को इनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए . हालांकि यह भी सच है कि इस मुसीबत की घड़ी में भी पाकिस्तानी अवाम को बरगलाने की हुक्मरान की कोशिश जारी है . आज ही खबर है कि पाकिस्तानी सेना सीमा पर भारतीय चौकियों पर रह रह कर गोलियां चला रही है जिस से वहां के अखबारों में ख़बरों का स्पेस फौज की इन ख़बरों से घिर जाए . इसके बावजूद भी पाकिस्तानी जनता के प्रति सब को सहानुभूति रखना चाहिए क्योंकि पाकिस्तान की सरकार और जनता में ज़मीन आसमान का फर्क है
बाढ़ के करण पकिस्तान में भारी तबाही आ गयी है . एक करोड़ घर तबाह हो गए हैं और करीब ५ करोड़ लोग बेघर हो गए हैं . इन लोगों को फ़ौरन मदद की ज़रुरत है .क्योंकि वे आसमान के नीचे रातें बिता रहे हैं . उनका सब कुछ लुट गया है . पंजाब और सिंध के सूबे भारी तबाही की चपेट में हैं . सरकार ने हाथ खड़े कर दिए हैं ,उसके पास इतना धन नहीं है कि इन परेशान लोगों की मदद की जा सके. इनको किसी तरह की नार्मल ज़िंदगी मुहैया कराने के लिए कम से कम पांच हज़ार करोड़ रूपये की फौरी ज़रुरत है लेकिन अभी विदेशों और संयुक्त राष्ट्र की ओर से इसकी आधी रक़म का भी इंतज़ाम नहीं हो सका है . दुनिया के बाकी देश पाकिस्तान में सरकारों को गैर ज़िम्मेदार मानते रहे हैं इसलिए बहुत सारे दानदाता मदद के लिए नहीं आ रहे हैं . सुनामी के लिए अमरीका सहित पश्चिमी देशों ने भारी मदद की थी लेकिन अब वे भी हाथ खींचते नज़र आ रहे हैं . भारत ने आर्थिक सहायता का प्रस्ताव किया था लेकिन पाकिस्तान सरकार के लिए भारत से मदद लेने में राजनीतिक परेशानी है ,इसलिए उसने संयुक्त राष्ट्र के ज़रिये मदद भेजने की बात की है . पाकिस्तान सरकार में शीर्ष स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से पश्चिम के देश कोई भी मदद करने में संकोच कर रहे हैं . सरकार इतनी बड़ी तबाही को संभाल पाने के लिए बिलकुल सक्षम नहीं है . पाकिस्तान के बहुत सारे शहरों से नौजवान लड़के लडकियां निकल पड़े हैं अपने देश के खस्ताहाल लोगों की मदद करने लेकिन उन्हें गावों के बारे में कोई जानकारी नहीं है और उनकी मुसीबत यह है कि सरकार की ओर से देहाती इलाकों में तैनात मुकामी कर्मचारी कहीं नज़र ही नहीं आ रहे हैं जिसके वजह से मदद के काम में किसी तरह का कोई सामंजस्य नहीं है. पाकिस्तान के अपने राजनेताओं का व्यवहार बहुत ही गैरजिम्मेदाराना है . वे एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाते फिर रहे हैं . आपदा के शुरुआती दिनों में पाकिस्तानी राष्ट्रपति,आसिफ अली ज़रदारी की विदेश यात्रा के औचित्य पर रोज़ ही चर्चा हो रही है जो कि पूरी तरह से बेमतलब है . इस वक़्त तो पाकिस्तान की लगभग एक तिहाई आबादी बहुत बड़ी मुसीबत से गुज़र रही है और पाकिस्तानी राजनेता अपनी सियासत को चमक देने में लगा हुआ है . पाकिस्तानी राजनेताओं के इसी गैरजिम्मेदार आचरण के कारण संपन्न देशों के लोग बेमतलब सवाल पूछ रहे हैं . बी बी सी और सी एन एन टेलिविज़न ने पाकिस्तानी अवाम की मुसीबत को बहुत ही गंभीरता से लिया है .वे लगातार अपनी बुलेटिनों में पाकिस्तानी तबाही की तस्वीरें दिखा रहे हैं और बाकी दुनिया से अपील कर रहे हैं कि पाकिस्तानी सरकार के भ्रष्टाचार को कुछ वक़्त के लिएय नज़र अंदाज़ करके संयुक्त राष्ट्र और अन्य स्वयंसेवी संगठनों के ज़रिये पाकिस्तान की मुसीबत में पड़ी जनता को बचाने की कोशिश करें . इस सारे मामले में अमरीकी सरकार का रुख बहुत ही अमानवीय है . हालांकि वह अब तक सबसे बड़ा दानदाता देश है लेकिन जो अमरीका पाकिस्तान की फौज़ को तालिबान और अल कायदा के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए अरबों डालर की मदद कर रहा है उसकी तरफ से कुछ सौ करोड़ रूपये की मदद इतनी बड़ी मुसीबत के दौर में बहुत ही गलत बात लगती है . अमरीका को यह मालूम होना चाहिए कि पाकिस्तानी सेना के जो जवान उसके हित में काम कर रहे हैं और अफगानिस्तान, वजीरिस्तान, बलोचिस्तान और सूबा-ए-सरहद में अपनी जान हथेली पर लेकर अपने ही मुल्क के लोगों को मार रहे हैं , वे पाकिस्तान के ग्रामीण इलाकों से आते हैं . पाकिस्तानी फौज़ का एक बहुत बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी पंजाब के उन गावों से भर्ती किया जाता है जहां इस वक़्त बाढ़ की तबाही फैली हुई है. अमरीका उनकी भी कोई मदद नहीं कर रहा है .
बी बी सी टेलिविज़न पर एक बहस में पश्चिम के कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह कहते पाए गए कि पाकिस्तान की सरकारें हमेशा से ही गैर ज़िम्मेदार रही हैं और वे परमाणु बम बना रही हैं . इसलिए उनको सहायता देने का कोई मतलब नहीं है . पश्चिमी देशों के इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की यह सोच बिलकुल वहशियाना है . क्या इस बात को सही ठहराया जा सकता है कि कि पाकिस्तानी सरकार और फौज बहुत ही भ्रष्ट संगठन हैं ,इसलिए वहां के लोगों को प्राक्रतिक आपदा की हालात में मरने के लिए छोड़ दिया जाए. पूरी दुनिया के देशों से अपील की जानी चाहिए कि इस वक़्त मुसीबत पाकिस्तानी सरकार पर नहीं आई है , मुसीबत पाकिस्तानी अवाम पर आई है. सब को चाहिए कि पाकिस्तानी सरकार की बे-ईमान नीतियों, भ्रष्टाचार और नाकाबिलियत को कुछ देर के लिए भुला दें और वहां की अवाम को मुसीबत के वक़्त अकेला न छोड़ दें . पाकिस्तान में जो करीब पांच करोड़ लोग मुसीबत ही हद से गुज़र रहे हैं वे सब इंसान हैं और अच्छे इंसान हैं . मान लिया कि पाकिस्तान सरकार बे-ईमान है लेकिन बाढ़ के शिकार लोग इस सरकार में शामिल नहीं हैं , वे इस सरकार की गलत नीतियों के शिकार हैं और पूरी दुनिया को इनकी मदद के लिए आगे आना चाहिए . हालांकि यह भी सच है कि इस मुसीबत की घड़ी में भी पाकिस्तानी अवाम को बरगलाने की हुक्मरान की कोशिश जारी है . आज ही खबर है कि पाकिस्तानी सेना सीमा पर भारतीय चौकियों पर रह रह कर गोलियां चला रही है जिस से वहां के अखबारों में ख़बरों का स्पेस फौज की इन ख़बरों से घिर जाए . इसके बावजूद भी पाकिस्तानी जनता के प्रति सब को सहानुभूति रखना चाहिए क्योंकि पाकिस्तान की सरकार और जनता में ज़मीन आसमान का फर्क है
Saturday, August 21, 2010
दिल्ली के रोहिणी इलाके में मुसलमानों को धार्मिक आज़ादी नहीं
शेष नारायण सिंह
आज़ादी की लड़ाई की एक और विरासत को दिल्ली के रोहिणी इलाके में दफ़न किया जा रहा है . जंगे-आज़ादी के दौरान हमारे नेताओं ने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि वे हिन्दुओं की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे . अंगेजों की पूरी कोशिश थी के भारत को हन्दू और मुसलमान के बीच खाई के ज़रिये अलग कर दिया जाए लेकिन वे कामयाब नहीं हुए. कोशिश पूरी की लेकिन सफलता हाथ नहीं आई. उस काम के लिए उन्होंने दो संगठन खड़े किये . कभी कांगेस का ही हिस्सा रही मुस्लिम लीग को जिन्ना और लियाक़त अली के नेतृत्व में झाड़ पोछ कर भारत की आज़ादी के खिलाफ मैदान में उतारा और अंग्रेजों से माफी मांग चुके वी डी सावरकर का इस्तेमाल करके हिन्दू धर्म से अलग एक नयी विचारधारा को जन्म दिया जिसे हिंदुत्व कहा गया . सावरकर ने खुद बार बार कहा है कि हिंदुत्व वास्तव में एक राजनीतिक विचारधारा है . बहरहाल १९२४ में सावरकर की किताब , हिंदुत्व छप कर आई और १९२५ में अंग्रेजों ने नागपुर के एक डाक्टर को आगे करके आर एस एस की स्थापना करवा दी. . मुस्लिम लीग तो अपने मकसद में कामयाब हो गयी . जब वह भारत की आज़ादी को नहीं रोक पाई तो उसने भारत का बँटवारा ही करवा दिया और पाकिस्तान की स्थपाना हो गयी. आज जब पाकिस्तान की दुर्दशा देखते हैं तो समझ में आता है कि कितनी बड़ी गलती मुहम्मद अली जिन्ना ने की थी. लगता है कि मुसलमानों को नुकसान पंहुचाने वाला यह सबसे बड़ा राजनीतिक फैसला था. आर एस एस वाले कोशिश करते रहे लेकिन अँगरेज़ उन्हें कुछ नहीं दे सका . बाद में उनके साथियों ने की महात्मा गांधी को मारा लेकिन उसके बाद वे पूरी तरह से राजनीतिक हाशिये पर आ गए. आज़ादी के आन्दोलन के नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों में आबाद हो गए लेकिन वे आज़ादी की लड़ाई वाले कांग्रेसियों जैसे मज़बूत नहीं थे लिहाजा बाद के वक़्त में आर एस एस और उस से जुड़े संगठन ताक़तवर होते गए और अब उनकी ताक़त का खामियाजा हर जगह राष्ट्र को ही झेलना पड़ रहा है .कहीं आर एस एस लोग वाले महिलाओं को पीट रहे हैं तो कहीं और कुछ कारस्तानी कर रहे हैं .
आर एस एस की ताज़ा दादागीरी का मामला दिल्ली का है . उत्तरी दिल्ली के छोर पर बसे उप नगर रोहिणी में कोई मस्जिद नहीं थी . वहां रहने वालों ने डी डी ए में दरखास्त देकर करीब ३६० वर्ग मीटर का एक प्लाट ले लिया .जून २००९ में डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को प्लाट पर क़ब्ज़ा दे दिया . सरकारी चिट्ठी में साफ़ लिखा था कि ज़मीन मस्जिद के निर्माण के लिए दी जा रही है लेकिन जब २६ जून २००९ को मस्जिद के निर्माण का काम शुरू हुआ तो भगवा ब्रिगेड के लोग वहां पंहुच गए और मार पीट शुरू कर दी. वे माइक लेकर आये थे और पूरे जोर शोर से मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे . शुक्रवार का दिन था और वहां नमाज़ पढ़ कर काम शुरू होना था लेकिन हिन्दुत्ववादी गुंडों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया. एक मजदूर का गला काट दिया . बाद में उसे अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी जान बचा ली गयी . दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को आर एस एस के इरादों की भनक लग गयी थी इसलिए उन्होंने पहले ही पुलिस वालों को चौकन्ना कर दिया था लेकिन मामूली संख्या में मौजूद पुलिस वालों को भी भीड़ ने मारा पीटा और काम रुक गया. तुर्रा यह कि पुलिस ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी की ओर से एफ आई आर तक नहीं लिखा . जब इन लोगों ने कहा तो साफ़ मना कर दिया और कहा कि पुलिस ने अपनी तरफ से ही रिपोर्ट लिख ली है . वह रिपोर्ट हल्की थी , उसमें मजदूर के गले पर धारदार हथिआर से वार करने की बात का ज़िक्र तक नहीं किया गया था. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह बहुत ही शर्मनाक है. डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को सूचित किया कि मुकामी रेज़ीडेंट वेलफेयर अशोसिशन के विरोध के कारण मस्जिद निर्माण के लिए किया गया अलाटमेंट रद्द किया जाता है . यह नौकरशाही में भगवा ब्रिगेड की घुसपैठ का एक मामूली उदाहरण है . बहर हाल मामला माइनारिटी कमीशन में ले जाया गया और उनके आदेश पर एक बार फिर प्लाट तो मिल गया है लेकिन आगे क्या होगा कोई नहीं जानता . अब बात अखबारों में छप गयी है तो मुसलमानों के वोट के चक्कर में राजनीतिक पार्टियों के नेता लोग हल्ला गुला तो ज़रूर करेगें लेकिन नतीजा क्या होगा कोई नहीं जानता . आर एस एस के लोगों की कोशिश है कि ऐसे मुद्दे उठाये जाएँ जिस से साम्प्रदायिकता का ज़हर फैले और हिन्दू उनकी तरफ एकजुट हों .
यह देश का दुर्भाग्य है कि आज देश में धर्म निरपेक्षता की लड़ाई लड़ने वाला कोई संगठन नहीं है . आर एस एस की रणनीति है कि इस तरह के मुद्दों को उठाकर वे अपने आपको हिन्दुओं का नेता साबित कर दें . ठीक उसी तरह जैसे जिन्ना ने १९४६ में किया था. हुआ यह था कि जिन्ना ने मांग की कि देश की आज़ादी के बारे में फैसला लेने के लिए जो कमेटी बन रही है ,उसमें मुसलमानों का नामांकन करने का अधिकार केवल जिन्ना को होना चाहिए . महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू ने साफ़ मना कर दिया . नतीजा यह हुआ कि अपने कोटे के चार मुसलमानों को जिन्ना ने नामांकित किया जबकि कांग्रेस ने अपने कोटे से ३ मुसलमानों को नामांकित कर दिया . और जिन्ना का मुसलमानों का खैरख्वाह बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बहरहाल जिस तरह से संघी ताक़तें लामबंद हो रही हैं वह बहुत ही खतरनाक है और देश की एकता को उस से ख़तरा है . कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को चाहिए उसे फ़ौरन लगाम देने के लिए जागरूकता अभियान चलायें. भारत के संविधान में भी लिखा है कि इस देश में हर आदमी को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है. और अगर रोहिणी के मुसलमान अपने धर्म का पालन न कर सके तो संविधान के अनुच्छेद २५ का सीधे तौर पर उन्लंघन होगा . अनुच्छेद २५ में साफ़ लिखा है कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के पालन की पूरी आज़ादी है . इसलिए देश की आबादी के बीस फीसदी को हम उनके अधिकारों से वंचित नहीं रख सकते.
आज़ादी की लड़ाई की एक और विरासत को दिल्ली के रोहिणी इलाके में दफ़न किया जा रहा है . जंगे-आज़ादी के दौरान हमारे नेताओं ने कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि वे हिन्दुओं की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे . अंगेजों की पूरी कोशिश थी के भारत को हन्दू और मुसलमान के बीच खाई के ज़रिये अलग कर दिया जाए लेकिन वे कामयाब नहीं हुए. कोशिश पूरी की लेकिन सफलता हाथ नहीं आई. उस काम के लिए उन्होंने दो संगठन खड़े किये . कभी कांगेस का ही हिस्सा रही मुस्लिम लीग को जिन्ना और लियाक़त अली के नेतृत्व में झाड़ पोछ कर भारत की आज़ादी के खिलाफ मैदान में उतारा और अंग्रेजों से माफी मांग चुके वी डी सावरकर का इस्तेमाल करके हिन्दू धर्म से अलग एक नयी विचारधारा को जन्म दिया जिसे हिंदुत्व कहा गया . सावरकर ने खुद बार बार कहा है कि हिंदुत्व वास्तव में एक राजनीतिक विचारधारा है . बहरहाल १९२४ में सावरकर की किताब , हिंदुत्व छप कर आई और १९२५ में अंग्रेजों ने नागपुर के एक डाक्टर को आगे करके आर एस एस की स्थापना करवा दी. . मुस्लिम लीग तो अपने मकसद में कामयाब हो गयी . जब वह भारत की आज़ादी को नहीं रोक पाई तो उसने भारत का बँटवारा ही करवा दिया और पाकिस्तान की स्थपाना हो गयी. आज जब पाकिस्तान की दुर्दशा देखते हैं तो समझ में आता है कि कितनी बड़ी गलती मुहम्मद अली जिन्ना ने की थी. लगता है कि मुसलमानों को नुकसान पंहुचाने वाला यह सबसे बड़ा राजनीतिक फैसला था. आर एस एस वाले कोशिश करते रहे लेकिन अँगरेज़ उन्हें कुछ नहीं दे सका . बाद में उनके साथियों ने की महात्मा गांधी को मारा लेकिन उसके बाद वे पूरी तरह से राजनीतिक हाशिये पर आ गए. आज़ादी के आन्दोलन के नेताओं के उत्तराधिकारी कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों में आबाद हो गए लेकिन वे आज़ादी की लड़ाई वाले कांग्रेसियों जैसे मज़बूत नहीं थे लिहाजा बाद के वक़्त में आर एस एस और उस से जुड़े संगठन ताक़तवर होते गए और अब उनकी ताक़त का खामियाजा हर जगह राष्ट्र को ही झेलना पड़ रहा है .कहीं आर एस एस लोग वाले महिलाओं को पीट रहे हैं तो कहीं और कुछ कारस्तानी कर रहे हैं .
आर एस एस की ताज़ा दादागीरी का मामला दिल्ली का है . उत्तरी दिल्ली के छोर पर बसे उप नगर रोहिणी में कोई मस्जिद नहीं थी . वहां रहने वालों ने डी डी ए में दरखास्त देकर करीब ३६० वर्ग मीटर का एक प्लाट ले लिया .जून २००९ में डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को प्लाट पर क़ब्ज़ा दे दिया . सरकारी चिट्ठी में साफ़ लिखा था कि ज़मीन मस्जिद के निर्माण के लिए दी जा रही है लेकिन जब २६ जून २००९ को मस्जिद के निर्माण का काम शुरू हुआ तो भगवा ब्रिगेड के लोग वहां पंहुच गए और मार पीट शुरू कर दी. वे माइक लेकर आये थे और पूरे जोर शोर से मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे . शुक्रवार का दिन था और वहां नमाज़ पढ़ कर काम शुरू होना था लेकिन हिन्दुत्ववादी गुंडों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया. एक मजदूर का गला काट दिया . बाद में उसे अस्पताल ले जाया गया जहां उसकी जान बचा ली गयी . दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को आर एस एस के इरादों की भनक लग गयी थी इसलिए उन्होंने पहले ही पुलिस वालों को चौकन्ना कर दिया था लेकिन मामूली संख्या में मौजूद पुलिस वालों को भी भीड़ ने मारा पीटा और काम रुक गया. तुर्रा यह कि पुलिस ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी की ओर से एफ आई आर तक नहीं लिखा . जब इन लोगों ने कहा तो साफ़ मना कर दिया और कहा कि पुलिस ने अपनी तरफ से ही रिपोर्ट लिख ली है . वह रिपोर्ट हल्की थी , उसमें मजदूर के गले पर धारदार हथिआर से वार करने की बात का ज़िक्र तक नहीं किया गया था. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह बहुत ही शर्मनाक है. डी डी ए ने दर्सगाहे-इस्लामिया इंतजामिया कमेटी को सूचित किया कि मुकामी रेज़ीडेंट वेलफेयर अशोसिशन के विरोध के कारण मस्जिद निर्माण के लिए किया गया अलाटमेंट रद्द किया जाता है . यह नौकरशाही में भगवा ब्रिगेड की घुसपैठ का एक मामूली उदाहरण है . बहर हाल मामला माइनारिटी कमीशन में ले जाया गया और उनके आदेश पर एक बार फिर प्लाट तो मिल गया है लेकिन आगे क्या होगा कोई नहीं जानता . अब बात अखबारों में छप गयी है तो मुसलमानों के वोट के चक्कर में राजनीतिक पार्टियों के नेता लोग हल्ला गुला तो ज़रूर करेगें लेकिन नतीजा क्या होगा कोई नहीं जानता . आर एस एस के लोगों की कोशिश है कि ऐसे मुद्दे उठाये जाएँ जिस से साम्प्रदायिकता का ज़हर फैले और हिन्दू उनकी तरफ एकजुट हों .
यह देश का दुर्भाग्य है कि आज देश में धर्म निरपेक्षता की लड़ाई लड़ने वाला कोई संगठन नहीं है . आर एस एस की रणनीति है कि इस तरह के मुद्दों को उठाकर वे अपने आपको हिन्दुओं का नेता साबित कर दें . ठीक उसी तरह जैसे जिन्ना ने १९४६ में किया था. हुआ यह था कि जिन्ना ने मांग की कि देश की आज़ादी के बारे में फैसला लेने के लिए जो कमेटी बन रही है ,उसमें मुसलमानों का नामांकन करने का अधिकार केवल जिन्ना को होना चाहिए . महात्मा गाँधी, सरदार पटेल और नेहरू ने साफ़ मना कर दिया . नतीजा यह हुआ कि अपने कोटे के चार मुसलमानों को जिन्ना ने नामांकित किया जबकि कांग्रेस ने अपने कोटे से ३ मुसलमानों को नामांकित कर दिया . और जिन्ना का मुसलमानों का खैरख्वाह बनने का सपना धरा का धरा रह गया. बहरहाल जिस तरह से संघी ताक़तें लामबंद हो रही हैं वह बहुत ही खतरनाक है और देश की एकता को उस से ख़तरा है . कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को चाहिए उसे फ़ौरन लगाम देने के लिए जागरूकता अभियान चलायें. भारत के संविधान में भी लिखा है कि इस देश में हर आदमी को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी है. और अगर रोहिणी के मुसलमान अपने धर्म का पालन न कर सके तो संविधान के अनुच्छेद २५ का सीधे तौर पर उन्लंघन होगा . अनुच्छेद २५ में साफ़ लिखा है कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के पालन की पूरी आज़ादी है . इसलिए देश की आबादी के बीस फीसदी को हम उनके अधिकारों से वंचित नहीं रख सकते.
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Thursday, August 19, 2010
फिल्म शोले का जश्न और सरकारी आतंक को जनता का जवाब
शेष नारायण सिंह
35 साल पहले १९७५ के स्वतंत्रता दिवस पर फिल्म शोले रिलीज़ हुई थी. इस शुरुआत तो बहुत मामूली थी लेकिन कुछ ही दिनों में यह फिल्म पूरे देश में चर्चा का विषय बन गयी. उस फिल्म में आनंद और ज़ंजीर जैसी फिल्मों से थोडा नाम कमा चुके अमिताभ बच्चन थे तो उस वक़्त के ही-मैन धर्मेन्द्र भी थे .लेकिन फिल्म सबसे ज्यादा चर्चा में अमजद खां की वजह से आई . व्यापारिक लिहाज़ से फिल्म बहुत ही सफल रही. बहुत सारी व्याख्याएं हैं यह बताने के लिए कि क्यों यह फिल्म इतनी सफल रही लेकिन जो सबसे बड़ी बात है वह उसकी कहानी और उसकी भाषा है. आज के सबसे बेहतरीन फिल्म लेखक जावेद अख्तर के इम्तिहान की फिल्म थी यह. यक़ीन जैसी फ्लॉप फिल्मों से शुरू करके उन्होंने सलीम खां के साथ जोड़ी बनायी थी. जी पी सिप्पी के बैनर के मुकामी लेखक थे. अंदाज़, सीता और गीता जैसी फिल्मों के लिए यह जोड़ी कहानी लिख चुकी थी . और जब शोले बनी तो कम दाम देकर इन्हीं लेखकों से कहानी और संवाद लिखवा लिए गए. और उसके बाद तो जिधर जाओ वहीं इस फिल्म के डायलाग सुनने को मिल जाते थे. वीडियो का चलन तो नहीं था लेकिन शोले के डायलाग बोलते हुए लोग कहीं भी मिल जाते थे. किसी बेवक़ूफ़ अफसर को अंग्रेजों के ज़माने का जेलर कह दिया जाता था . क्योंकि अपने इस डायलाग की वजह से असरानी सरकारी नाकारापन के सिम्बल बन गए थे. अमजद खां के डायलाग पूरी तरह से हिट हुए . इतने खूंखार डाकू का रोल किया था अमजद खां ने लेकिन वह सबका प्यारा हो गया. मीडिया का इतना विस्तार नहीं था ,कुछ फ़िल्मी पत्रिकाएं थीं, लेकिन धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के ज़रिये आबादी की मुख्यधारा में ल्मों का ज़िक्र पंहुचता था . ऐसे माहौल में शोले का एक कल्ट फिल्म बनना एक पहेली थी जो शुरूमें समझ में नहीं आती थी. ऐसा लगता है कि इस फिल्म की सफलता में इसकी रिलीज़ के करीब दो महीन पहले लगी इमरजेंसी का सबसे ज्यादा योगदान था . सरकारी दमनतंत्र पूरे उफान पर था. हर पुलिस वाला किसी भी राह चलते को हड़का लेता था . बड़े शहरों में तो नेता लोग ही पकडे जा रहे थे लेकिन कस्बों में पुलिस ने हर उस आदमी को दुरुस्त करने का फैसला कर रखा था जो उसकी बात नहीं मानता था. दरोगा लोग उन व्यापारियों को बंद कर दे रहे थे जिन्होंने कभी उनका हुक्म नहीं माना था. हर कस्बे से जो व्यापारी पकडे गए, उन्हें डी आई आर में बंद किया गया. बहाने भी अजीब थे . मसलन अगर किसी ने अपनी दुकान पर रेट सही नहीं लिखा या बोर्ड पर स्टोर की सही जानकारी नहीं दी, उसे बंद कर दिया जाता. चार छेह दिन बंद रहने के बाद घूस-पात देकर लोग छूट जाते लेकिन नौकरशाही के आतंक का लोहा मान कर आते . आस पास भी ऐसा ही माहौल था. अखबार अब जैसे तो नहीं थे लेकिन जो भी अखबार थे उनमें यह खबरें बिलकुल नहीं छप सकती थीं क्योंकि सेंसर लागू था. बड़े नेताओं या राजनीति की वे खबरें जो कांग्रेस के खिलाफ होतीं वे भी नहीं छप सकती थी. आम तौर पर अखबारों में विकास की खबरें रहती थीं या कांग्रेसियों के वे भाषण जिसमें कहा गया रहता था कि इमरजेंसी की १०० नयी उपलब्धियां हैं , आइये इन्हें स्थायी बनाएं. या संजय गाँधी के वचन ,बातें कम ,काम ज्यादा को अखबारों में तरह तरह से प्रमुखता दी जाती थी . हर वह आदमी जो किसी रूप में सरकार का प्रतिनिधित्व करता था ,उसे देख कर लोग चिढ़ते थे लेकिन इमरजेंसी का आतंक था और कोई भी सरकारी अफसर के विरोध में एक शब्द नहीं बोल सकता था .
इस माहौल में शोले रिलीज़ हुई . इस फिल्म के पहले बहुत सारी फ़िल्में डाकुओं पर आधारित बनी थीं और बहुत सारे डाकू पसंद भी किये गए थे लेकिन उन डाकुओं में राबिनहुड का व्यक्तित्व मिलाया जाता था जिस से लोग उन्हें पसंद करें. मसलन कहीं डाकू किसी गरीब की मदद कर रहा होता था तो कहीं किसी लड़की को बचा रहा होता था और हीरो साहेब वह रोल कर रहे होते थे . डाकू का मानवीय चेहरा सामने आता था और वह सहानुभूति का पात्र बन जाता था लेकिन शोले का डाकू ऐसे किसी काम में नहीं शामिल था. वह खतरनाक था, खूंखार था और गरीब आदमियों के खिलाफ था. किसी के हाथ काट लेता था, तो किसी गरीब आदमी के बच्चे की लाश उसके घर वालों के पास भेज देता था या किसी लडकी को मजबूर करता था . इसके बावजूद उसको १९७५-७६ की जनता ने कल्ट फिगर बनाया .किसी को पता भी नहीं था कि ऐसा क्यों हो रहा है लेकिन बाद में समझ में आया कि वह फिल्म इसलिए सफल हुई थी कि उसमें सरकार के दो प्रमुख संस्थान , पुलिस और जेल के खिलाफ माहौल बनाया गया था . बगावत करने वाले खूंखार डाकू को जनता अपनाने को तैयार थी लेकिन दोनों हाथ गंवा चुके पुलिस वाले से उसकी हमदर्दी नहीं थी. वास्तव में आम आदमी को राज्य के खिलाफ कुछ होता देखकर मज़ा आने लगा था. इसके अलावा अमजद खां, जावेद अख्तर और अमिताभ बच्चन की बुलंदी का दौर इसी फिल्म से शुरू होता है .अखबारों में विकास की ख़बरों के खिलाफ इस फिल्म को एक स्टेटमेंट के रूप में भी देखा गया था और शोले ने व्यापारिक सफलता के सारे रिकार्ड कायम किये . इसलिए आज ३५ साल बाद जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो लगता है कि किस तरह से सरकारी आतंक से दबी हुई जनता एक फिल्म को ही उत्सव का साधन बना लेती है.
35 साल पहले १९७५ के स्वतंत्रता दिवस पर फिल्म शोले रिलीज़ हुई थी. इस शुरुआत तो बहुत मामूली थी लेकिन कुछ ही दिनों में यह फिल्म पूरे देश में चर्चा का विषय बन गयी. उस फिल्म में आनंद और ज़ंजीर जैसी फिल्मों से थोडा नाम कमा चुके अमिताभ बच्चन थे तो उस वक़्त के ही-मैन धर्मेन्द्र भी थे .लेकिन फिल्म सबसे ज्यादा चर्चा में अमजद खां की वजह से आई . व्यापारिक लिहाज़ से फिल्म बहुत ही सफल रही. बहुत सारी व्याख्याएं हैं यह बताने के लिए कि क्यों यह फिल्म इतनी सफल रही लेकिन जो सबसे बड़ी बात है वह उसकी कहानी और उसकी भाषा है. आज के सबसे बेहतरीन फिल्म लेखक जावेद अख्तर के इम्तिहान की फिल्म थी यह. यक़ीन जैसी फ्लॉप फिल्मों से शुरू करके उन्होंने सलीम खां के साथ जोड़ी बनायी थी. जी पी सिप्पी के बैनर के मुकामी लेखक थे. अंदाज़, सीता और गीता जैसी फिल्मों के लिए यह जोड़ी कहानी लिख चुकी थी . और जब शोले बनी तो कम दाम देकर इन्हीं लेखकों से कहानी और संवाद लिखवा लिए गए. और उसके बाद तो जिधर जाओ वहीं इस फिल्म के डायलाग सुनने को मिल जाते थे. वीडियो का चलन तो नहीं था लेकिन शोले के डायलाग बोलते हुए लोग कहीं भी मिल जाते थे. किसी बेवक़ूफ़ अफसर को अंग्रेजों के ज़माने का जेलर कह दिया जाता था . क्योंकि अपने इस डायलाग की वजह से असरानी सरकारी नाकारापन के सिम्बल बन गए थे. अमजद खां के डायलाग पूरी तरह से हिट हुए . इतने खूंखार डाकू का रोल किया था अमजद खां ने लेकिन वह सबका प्यारा हो गया. मीडिया का इतना विस्तार नहीं था ,कुछ फ़िल्मी पत्रिकाएं थीं, लेकिन धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान के ज़रिये आबादी की मुख्यधारा में ल्मों का ज़िक्र पंहुचता था . ऐसे माहौल में शोले का एक कल्ट फिल्म बनना एक पहेली थी जो शुरूमें समझ में नहीं आती थी. ऐसा लगता है कि इस फिल्म की सफलता में इसकी रिलीज़ के करीब दो महीन पहले लगी इमरजेंसी का सबसे ज्यादा योगदान था . सरकारी दमनतंत्र पूरे उफान पर था. हर पुलिस वाला किसी भी राह चलते को हड़का लेता था . बड़े शहरों में तो नेता लोग ही पकडे जा रहे थे लेकिन कस्बों में पुलिस ने हर उस आदमी को दुरुस्त करने का फैसला कर रखा था जो उसकी बात नहीं मानता था. दरोगा लोग उन व्यापारियों को बंद कर दे रहे थे जिन्होंने कभी उनका हुक्म नहीं माना था. हर कस्बे से जो व्यापारी पकडे गए, उन्हें डी आई आर में बंद किया गया. बहाने भी अजीब थे . मसलन अगर किसी ने अपनी दुकान पर रेट सही नहीं लिखा या बोर्ड पर स्टोर की सही जानकारी नहीं दी, उसे बंद कर दिया जाता. चार छेह दिन बंद रहने के बाद घूस-पात देकर लोग छूट जाते लेकिन नौकरशाही के आतंक का लोहा मान कर आते . आस पास भी ऐसा ही माहौल था. अखबार अब जैसे तो नहीं थे लेकिन जो भी अखबार थे उनमें यह खबरें बिलकुल नहीं छप सकती थीं क्योंकि सेंसर लागू था. बड़े नेताओं या राजनीति की वे खबरें जो कांग्रेस के खिलाफ होतीं वे भी नहीं छप सकती थी. आम तौर पर अखबारों में विकास की खबरें रहती थीं या कांग्रेसियों के वे भाषण जिसमें कहा गया रहता था कि इमरजेंसी की १०० नयी उपलब्धियां हैं , आइये इन्हें स्थायी बनाएं. या संजय गाँधी के वचन ,बातें कम ,काम ज्यादा को अखबारों में तरह तरह से प्रमुखता दी जाती थी . हर वह आदमी जो किसी रूप में सरकार का प्रतिनिधित्व करता था ,उसे देख कर लोग चिढ़ते थे लेकिन इमरजेंसी का आतंक था और कोई भी सरकारी अफसर के विरोध में एक शब्द नहीं बोल सकता था .
इस माहौल में शोले रिलीज़ हुई . इस फिल्म के पहले बहुत सारी फ़िल्में डाकुओं पर आधारित बनी थीं और बहुत सारे डाकू पसंद भी किये गए थे लेकिन उन डाकुओं में राबिनहुड का व्यक्तित्व मिलाया जाता था जिस से लोग उन्हें पसंद करें. मसलन कहीं डाकू किसी गरीब की मदद कर रहा होता था तो कहीं किसी लड़की को बचा रहा होता था और हीरो साहेब वह रोल कर रहे होते थे . डाकू का मानवीय चेहरा सामने आता था और वह सहानुभूति का पात्र बन जाता था लेकिन शोले का डाकू ऐसे किसी काम में नहीं शामिल था. वह खतरनाक था, खूंखार था और गरीब आदमियों के खिलाफ था. किसी के हाथ काट लेता था, तो किसी गरीब आदमी के बच्चे की लाश उसके घर वालों के पास भेज देता था या किसी लडकी को मजबूर करता था . इसके बावजूद उसको १९७५-७६ की जनता ने कल्ट फिगर बनाया .किसी को पता भी नहीं था कि ऐसा क्यों हो रहा है लेकिन बाद में समझ में आया कि वह फिल्म इसलिए सफल हुई थी कि उसमें सरकार के दो प्रमुख संस्थान , पुलिस और जेल के खिलाफ माहौल बनाया गया था . बगावत करने वाले खूंखार डाकू को जनता अपनाने को तैयार थी लेकिन दोनों हाथ गंवा चुके पुलिस वाले से उसकी हमदर्दी नहीं थी. वास्तव में आम आदमी को राज्य के खिलाफ कुछ होता देखकर मज़ा आने लगा था. इसके अलावा अमजद खां, जावेद अख्तर और अमिताभ बच्चन की बुलंदी का दौर इसी फिल्म से शुरू होता है .अखबारों में विकास की ख़बरों के खिलाफ इस फिल्म को एक स्टेटमेंट के रूप में भी देखा गया था और शोले ने व्यापारिक सफलता के सारे रिकार्ड कायम किये . इसलिए आज ३५ साल बाद जब पीछे मुड़ कर देखते हैं तो लगता है कि किस तरह से सरकारी आतंक से दबी हुई जनता एक फिल्म को ही उत्सव का साधन बना लेती है.
Wednesday, August 18, 2010
जे एन यू में एक कवि को बेईज्ज़त कर रही है सत्ता और उसके एजेंट
शेष नारायण सिंह
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बार बार तनाशाही प्रवृत्तियाँ जन्म लेती रही हैं ,हालांकि उसका मूल चरित्र जनवादी ही रहा है .लगता है कि उसकी डिजाइन में ही तानाशाही को रोक देने का प्रोग्राम फिट है . यह अलग बात है कि अपनी स्थापना के पहले दशक में ही इस विश्वविद्यालय ने इमरजेंसी का आतंक देखा था. उसी इमरजेंसी में इस विश्वविद्यालय की जनता ने अपने साथियों को बेमतलब गिरफ्तार होते देखा था, एक प्रधानमंत्री की पुत्रवधू का आतंक देखा था.उस वक़्त जे एन यू का इलाका हौज़ ख़ास थाने में पड़ता था . वहां का दरोगा आतंक का पर्याय था ,उसी ने उस वक़्त के बड़े नेताओं , डी पी त्रिपाठी ,प्रबीर पुरकायस्थ आदि को गिरफ्तार किया था, उन दिनों सब को मालूम था कि मुखबिरी का काम प्रधानमंत्री के घर से ही हो रहा था. उसी दौर में इस विश्वविद्यालय ने बी डी नागचौधरी जैसे वाइस चांसलर को भी झेला था जो इमरजेंसी की कृपा से विश्वविद्यालय पर नाजिल कर दिया गया था . उसको हटाने के लिए बाद में आन्दोलन भी चला ,उसके तुगलक रोड स्थित घर पर नाईट विजिल भी की गयी. लेकिन जे एन यू के कैम्पस का स्थायी भाव हमेशा से ही जनवादी रहा . बीच बीच में क्षेपक आते रहे लेकिन उन्हें अपने अन्दर की ताक़त से यह यूनिवर्सिटी संभालती रही .लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कैम्पस में कुछ ऐसे तत्व भी प्रभावशाली होने लगे हैं जिनकी सोच और पोलिटिक्स का स्थायी भाव फासिज्म और दादागीरी है . उनकी वाणी बहुत ही संतुलित होगी, शिष्ट होगी और वे चुपचाप फासिज्म को लागू कर रहे होंगें . देखा गया है कि ऐसी प्रवृत्तियों के कारण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अब तानाशाही की बुनियादी बातें संस्थागत रूप ले रही हैं . अब उस विश्वविद्यालय से सहनशीलता गायब हो रही है . खबर आई है कि पिछले ३० वर्षों से कैम्पस में ही रह रहे एक कवि, रमाशंकर विद्रोही को वहां से बहाने की कोशिश चल रही है. हिन्दी विभाग के एक शोध छात्र ने मोहल्ला पोर्टल पर लिखा है कि विद्रोही को भगाया जा रहा है .छात्र ने लिखा है कि जे एन यू प्रशासन ने जनकवि विद्रोही को कैंपस निकाला दे दिया है। इस छात्र ने सूचना दी है कि यह कुछ दक्षिणपंथी छात्र संगठनों की कारस्तानी है। विद्रोही जी हमेशा से प्रगतिशील आंदोलन के पक्षधर रहे हैं। ये बात इन संगठनों और प्रशासन को रास नहीं आ रही .सब लोग जानते हैं कि विद्रोही जी कभी कभार सन्निपात के शिकार हो जाते हैं लेकिन आज तक होश में कभी भी उन्होंने किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा। उनके खिलाफ षड्यंत्र करने वाले वही लोग हैं, जो किसी पुलिसिया कुलपति द्वारा पूरे हिंदी और गैर हिंदी लेखिकाओं को दी गयी गालियों पर खुश होते हैं। प्रशासन या शासन उनका कभी कुछ नहीं बिगाड़ता। इस छात्र ने सभी साथियों से अपील किया है कि वे प्रशासन के इस कदम का पुरजोर विरोध करें और प्रशासन को माफ़ी मांगने पर बाध्य किया जाए. कुछ छात्र कैम्पस में इस सरकारी फरमान के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं ताकि अपने आप को हिटलर और इदी अमीन समझने वाले प्रशासन को तानाशाही वाले इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर किया जा सके. यह सच है कि विद्रोही न तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं और न ही वहां वे नौकरी करते हैं .लेकिन यह भी सच है कि अब वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक अभिन्न अंग हैं . जिस पीढी के साथ उन्होंने कैम्पस में अपना छात्र जीवन शुरू किया था , उनके बच्चे भी अब विश्वविद्यालय में आ चुके हैं . जो जानते हैं उन्हें पता है कि वे कितनी मुसीबतों के दौर से गुज़रे हैं और यह भी कि जे एन यू की नयी पीढियां विद्रोही की उपस्थिति को पसंद करती हैं . पिछले ३० वर्षों में उन्होंने हिन्दी साहित्य को कुछ न कुछ दिया ही है . कैम्पस में उनके चाहने वाले विद्वानों की एक परंपरा है . उनकी कविताओं का एक पोर्टल भी छात्रों ने बना रखा है. इसलिए उन्हें भगाने का कोई कारण समझ में नहीं आता. वे विश्वविद्यालय के किसी काम में कोई अडंगा नहीं डालते तो उन्हें भगा देने की क्या ज़रुरत है . यहाँ यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रमाशंकर विद्रोही बहुत ही कुशाग्र्बुद्धि छात्र रहे हैं . सुल्तानपुर जिले के कादीपुर जैसे छोटे क़स्बे में वे १९७४ में छात्र थे लेकिन कविता की दुनिया में उनकी प्रतिभा का लोहा माना जाता था . वे उच्च शिक्षा के लिए जे एन यू आये और जहां आकर शहरी सपनों के जंगल में कहीं खो गए. बाद में जब उन्होंने होश संभाला तो उनके पास वही बचा था जो उनका अपना था, और वह थी उनकी कविता. आज वह कविता भविष्य के साहित्य की थाती है लेकिन सत्ता और उसके एजेंट उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं . ज़रुरत इस बात की है कि विद्रोही को जानने वाले जो लोग संसद से सडक तक मौजूद हैं , उनके आशियाने को उजड़ने से बचाएं क्योकि अब जे एन यू ही उनका आशियाना है .
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बार बार तनाशाही प्रवृत्तियाँ जन्म लेती रही हैं ,हालांकि उसका मूल चरित्र जनवादी ही रहा है .लगता है कि उसकी डिजाइन में ही तानाशाही को रोक देने का प्रोग्राम फिट है . यह अलग बात है कि अपनी स्थापना के पहले दशक में ही इस विश्वविद्यालय ने इमरजेंसी का आतंक देखा था. उसी इमरजेंसी में इस विश्वविद्यालय की जनता ने अपने साथियों को बेमतलब गिरफ्तार होते देखा था, एक प्रधानमंत्री की पुत्रवधू का आतंक देखा था.उस वक़्त जे एन यू का इलाका हौज़ ख़ास थाने में पड़ता था . वहां का दरोगा आतंक का पर्याय था ,उसी ने उस वक़्त के बड़े नेताओं , डी पी त्रिपाठी ,प्रबीर पुरकायस्थ आदि को गिरफ्तार किया था, उन दिनों सब को मालूम था कि मुखबिरी का काम प्रधानमंत्री के घर से ही हो रहा था. उसी दौर में इस विश्वविद्यालय ने बी डी नागचौधरी जैसे वाइस चांसलर को भी झेला था जो इमरजेंसी की कृपा से विश्वविद्यालय पर नाजिल कर दिया गया था . उसको हटाने के लिए बाद में आन्दोलन भी चला ,उसके तुगलक रोड स्थित घर पर नाईट विजिल भी की गयी. लेकिन जे एन यू के कैम्पस का स्थायी भाव हमेशा से ही जनवादी रहा . बीच बीच में क्षेपक आते रहे लेकिन उन्हें अपने अन्दर की ताक़त से यह यूनिवर्सिटी संभालती रही .लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कैम्पस में कुछ ऐसे तत्व भी प्रभावशाली होने लगे हैं जिनकी सोच और पोलिटिक्स का स्थायी भाव फासिज्म और दादागीरी है . उनकी वाणी बहुत ही संतुलित होगी, शिष्ट होगी और वे चुपचाप फासिज्म को लागू कर रहे होंगें . देखा गया है कि ऐसी प्रवृत्तियों के कारण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अब तानाशाही की बुनियादी बातें संस्थागत रूप ले रही हैं . अब उस विश्वविद्यालय से सहनशीलता गायब हो रही है . खबर आई है कि पिछले ३० वर्षों से कैम्पस में ही रह रहे एक कवि, रमाशंकर विद्रोही को वहां से बहाने की कोशिश चल रही है. हिन्दी विभाग के एक शोध छात्र ने मोहल्ला पोर्टल पर लिखा है कि विद्रोही को भगाया जा रहा है .छात्र ने लिखा है कि जे एन यू प्रशासन ने जनकवि विद्रोही को कैंपस निकाला दे दिया है। इस छात्र ने सूचना दी है कि यह कुछ दक्षिणपंथी छात्र संगठनों की कारस्तानी है। विद्रोही जी हमेशा से प्रगतिशील आंदोलन के पक्षधर रहे हैं। ये बात इन संगठनों और प्रशासन को रास नहीं आ रही .सब लोग जानते हैं कि विद्रोही जी कभी कभार सन्निपात के शिकार हो जाते हैं लेकिन आज तक होश में कभी भी उन्होंने किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा। उनके खिलाफ षड्यंत्र करने वाले वही लोग हैं, जो किसी पुलिसिया कुलपति द्वारा पूरे हिंदी और गैर हिंदी लेखिकाओं को दी गयी गालियों पर खुश होते हैं। प्रशासन या शासन उनका कभी कुछ नहीं बिगाड़ता। इस छात्र ने सभी साथियों से अपील किया है कि वे प्रशासन के इस कदम का पुरजोर विरोध करें और प्रशासन को माफ़ी मांगने पर बाध्य किया जाए. कुछ छात्र कैम्पस में इस सरकारी फरमान के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं ताकि अपने आप को हिटलर और इदी अमीन समझने वाले प्रशासन को तानाशाही वाले इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर किया जा सके. यह सच है कि विद्रोही न तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं और न ही वहां वे नौकरी करते हैं .लेकिन यह भी सच है कि अब वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक अभिन्न अंग हैं . जिस पीढी के साथ उन्होंने कैम्पस में अपना छात्र जीवन शुरू किया था , उनके बच्चे भी अब विश्वविद्यालय में आ चुके हैं . जो जानते हैं उन्हें पता है कि वे कितनी मुसीबतों के दौर से गुज़रे हैं और यह भी कि जे एन यू की नयी पीढियां विद्रोही की उपस्थिति को पसंद करती हैं . पिछले ३० वर्षों में उन्होंने हिन्दी साहित्य को कुछ न कुछ दिया ही है . कैम्पस में उनके चाहने वाले विद्वानों की एक परंपरा है . उनकी कविताओं का एक पोर्टल भी छात्रों ने बना रखा है. इसलिए उन्हें भगाने का कोई कारण समझ में नहीं आता. वे विश्वविद्यालय के किसी काम में कोई अडंगा नहीं डालते तो उन्हें भगा देने की क्या ज़रुरत है . यहाँ यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रमाशंकर विद्रोही बहुत ही कुशाग्र्बुद्धि छात्र रहे हैं . सुल्तानपुर जिले के कादीपुर जैसे छोटे क़स्बे में वे १९७४ में छात्र थे लेकिन कविता की दुनिया में उनकी प्रतिभा का लोहा माना जाता था . वे उच्च शिक्षा के लिए जे एन यू आये और जहां आकर शहरी सपनों के जंगल में कहीं खो गए. बाद में जब उन्होंने होश संभाला तो उनके पास वही बचा था जो उनका अपना था, और वह थी उनकी कविता. आज वह कविता भविष्य के साहित्य की थाती है लेकिन सत्ता और उसके एजेंट उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं . ज़रुरत इस बात की है कि विद्रोही को जानने वाले जो लोग संसद से सडक तक मौजूद हैं , उनके आशियाने को उजड़ने से बचाएं क्योकि अब जे एन यू ही उनका आशियाना है .
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शेष नारायण सिंह
Monday, August 16, 2010
कश्मीर में सकारात्मक पहल का सही मौक़ा
शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण ( १५-८-२०१०) में छप चुका है .)
कश्मीर का आन्दोलन पाकिस्तान के समर्थन से चलने वाले अलगाववादी आन्दोलन के नेताओं के काबू से बाहर हो गया है . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी ने अपने ताज़ा आलेख में लिखा है कि घाटी में जो नौजवान पत्थर फेंक रहे हैं , वे पाकिस्तान की शह पर चल रहे अलगाववाद के नेताओं पर अब विश्वास नहीं करते. सही बात यह है कि उन कम उम्र बच्चों का हर तरह के नेताओं से विश्वास उठ गया है . वे आज़ादी की बात करते हैं लेकिन उनकी आज़ादी भारत से अलग होने की आज़ादी नहीं है . सच्चाई यह है जब वहां के राजा ने १९४७ में भारत में विलय के कागजों पर दस्तखत कर दिया था तो १९४७ में कश्मीरी अवाम ने अपने आप को आज़ाद माना था . यह आज़ादी उन्हें ३६१ साल बाद हासिल हुई थी. कश्मीरी अवाम , मुसलमान और हिन्दू सभी अपने को तब से गुलाम मानते चले आ रहे थे जब १५८६ में मुग़ल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने राज में मिला लिया था. उसके बाद वहां बहुत सारे हिन्दू और मुसलमान राजा हुए लेकिन कश्मीरियों ने अपने आपको तब तक गुलाम माना जब १९४७ में भारत के साथ विलय नहीं हो गया. इसलिए कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब बिलकुल अलग है और उसको पब्लिक ओपीनियन के नेताओं को समझना चाहिए. इसी आज़ादी की भावना को केंद्र में रख कर पाकिस्तान ने नौजवानों को भटकाया और घाटी के ही कुछ तथाकथित नेताओं का इस्तेमाल करता रहा. यह गीलानी , यह मीरवाइज़ सब पाकिस्तान के हाथों में खेलते रहे और पैसा लेते रहे . लेकिन अब जब यह साफ़ हो चुका है कि इन नेताओं की घाटी के नौजवानों को दिशा देने की औकात नहीं है तो भारत सरकार को फ़ौरन हस्तक्षेप करना चाहिए और इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर बात करनी चाहिए . कश्मीर के तथाकथित नेताओं या अलगाववादियों से बात करने का कोई मतलब नहीं है .इन नेताओं से समझौता हो भी गया तो कम उम्र के पत्थर फेंक रहे बच्चे इनकी बात नहीं मानेगें . पिछले २० वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि पाकिस्तान से खर्चा पानी ले रहे नेताओं को कश्मीरी अवाम टालने के चक्कर में है .
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को अंदाज़ है कि अगर सही तरीके से कश्मीरी नौजवानों को संभाला जाए तो पहल को सार्थक नाम दिया जा सकता है और पाकिस्तानी तिकड़म को फेल किया जा सकता है . शायद इसी लिए सी रंगराजन की अध्यक्षता में जो कमेटी बनायी गयी है उसका फोकस केवल कश्मीरी नौजवानों को रोजगार के अवसर मुहैया करवाना है . पत्थर फेंकने वाले लड़कों के आन्दोलन को पाकिस्तानी शह पर घोषित करने में पता नहीं क्यों सरकारी बाबू वर्ग ज़रुरत से ज्यादा उतावली दिखा रहा है . . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी कहते हैं कि कश्मीरी लड़कों के मौजूदा पत्थर फेंक आन्दोलन को पाकिस्तानी या आलगाव वादी लोगों की बात कह कर भारत अपनी सबसे महत्वपूर्ण पहल से हाथ धो बैठेगा. बताया गया है कि पत्थर फेंक आन्दोलन आधुनिक टेक्नालोजी की उपज है . बच्चे ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल करके संवाद कायम कर रहे हैं और स्वतः स्फूर्त तरीके से सडकों पर आ रहे हैं . सही बात यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान भी नए हालात से परेशान हैं और घाटी में सक्रिय अपने गुमाश्तों को डांट फटकार रहे हैं .अगर भारत ने इस वक़्त सही पहल कर दी तो हालात बदलने में देर नहीं लगेगी. कश्मीर में जो सबसे ज़रूरी बात है ,वह यह कि १९४७ में जो कश्मीर के राजा की सोच थी उसे फ़ौरन खारिज किया जाना चाहिए . वह तो जिन्नाह के साथ जाने के चक्कर में थे. और उनकी पिछलग्गू राजनीतिक जमात उन्हें समर्थन दे रही थी. कश्मीर में भारत का इकबाल बुलंद करने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ है १९५२ का नेहरू-अब्दुल्ला समझौता . उसी के आधार पर कश्मीर को उसकी नौजवान आबादी को साथ लेकर भारत का अभिन्न अंग बनाने की कोशिश की जानी चाहिए . ध्यान रहे , पत्थर फेंक रहे नौजवान वे हैं जिनका पाकिस्तानी और भारतीय नेताओं से मोहभंग हो चुका है . उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती कोई भी पहल नहीं कर सकते . यह सत्ताभोगी हैं . जो सडकों पर पत्थर फेंक रहे २० साल से भी कम उम्र के लडके हैं उन्हें मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये . १९५२ का समझौता पाकिस्तान को भी धता बताता है और राजा की मानसिकता को भी . . इसके अलावा कश्मीर में कुछ काम फ़ौरन किये जाने चाहिए . जैसे अभी वहां पंचायती राज एक्ट नहीं लगा है ., उसे लगाया जाना चाहिए . आर टी आई ने पूरे भारत में राजकाज के तरीके में भारी बदलाव ला दिया है . लेकिन अभी कश्मीर में वह ठीक से चल ही नही रहा है . उसे भी कारगर तरीके से लागू किया जाना चाहिये . मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र भी कश्मीर तक बढ़ा देना चाहिये .कश्मीर में मौजूद राजनीतिक पार्टियां भी अगर अपना घर तुरंत ठीक नहीं करतीं तो मुश्किल बढ़ जायेगी.. इस लिए केंद्र सरकार में मौजूद समझदार लोगों को चाहिए कि फ़ौरन पहल करें और कश्मीर में सामान्य हालात लाने में मदद करें
( मूल लेख दैनिक जागरण ( १५-८-२०१०) में छप चुका है .)
कश्मीर का आन्दोलन पाकिस्तान के समर्थन से चलने वाले अलगाववादी आन्दोलन के नेताओं के काबू से बाहर हो गया है . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी ने अपने ताज़ा आलेख में लिखा है कि घाटी में जो नौजवान पत्थर फेंक रहे हैं , वे पाकिस्तान की शह पर चल रहे अलगाववाद के नेताओं पर अब विश्वास नहीं करते. सही बात यह है कि उन कम उम्र बच्चों का हर तरह के नेताओं से विश्वास उठ गया है . वे आज़ादी की बात करते हैं लेकिन उनकी आज़ादी भारत से अलग होने की आज़ादी नहीं है . सच्चाई यह है जब वहां के राजा ने १९४७ में भारत में विलय के कागजों पर दस्तखत कर दिया था तो १९४७ में कश्मीरी अवाम ने अपने आप को आज़ाद माना था . यह आज़ादी उन्हें ३६१ साल बाद हासिल हुई थी. कश्मीरी अवाम , मुसलमान और हिन्दू सभी अपने को तब से गुलाम मानते चले आ रहे थे जब १५८६ में मुग़ल सम्राट अकबर ने कश्मीर को अपने राज में मिला लिया था. उसके बाद वहां बहुत सारे हिन्दू और मुसलमान राजा हुए लेकिन कश्मीरियों ने अपने आपको तब तक गुलाम माना जब १९४७ में भारत के साथ विलय नहीं हो गया. इसलिए कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब बिलकुल अलग है और उसको पब्लिक ओपीनियन के नेताओं को समझना चाहिए. इसी आज़ादी की भावना को केंद्र में रख कर पाकिस्तान ने नौजवानों को भटकाया और घाटी के ही कुछ तथाकथित नेताओं का इस्तेमाल करता रहा. यह गीलानी , यह मीरवाइज़ सब पाकिस्तान के हाथों में खेलते रहे और पैसा लेते रहे . लेकिन अब जब यह साफ़ हो चुका है कि इन नेताओं की घाटी के नौजवानों को दिशा देने की औकात नहीं है तो भारत सरकार को फ़ौरन हस्तक्षेप करना चाहिए और इन नौजवानों के नेताओं को तलाश कर बात करनी चाहिए . कश्मीर के तथाकथित नेताओं या अलगाववादियों से बात करने का कोई मतलब नहीं है .इन नेताओं से समझौता हो भी गया तो कम उम्र के पत्थर फेंक रहे बच्चे इनकी बात नहीं मानेगें . पिछले २० वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि पाकिस्तान से खर्चा पानी ले रहे नेताओं को कश्मीरी अवाम टालने के चक्कर में है .
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को अंदाज़ है कि अगर सही तरीके से कश्मीरी नौजवानों को संभाला जाए तो पहल को सार्थक नाम दिया जा सकता है और पाकिस्तानी तिकड़म को फेल किया जा सकता है . शायद इसी लिए सी रंगराजन की अध्यक्षता में जो कमेटी बनायी गयी है उसका फोकस केवल कश्मीरी नौजवानों को रोजगार के अवसर मुहैया करवाना है . पत्थर फेंकने वाले लड़कों के आन्दोलन को पाकिस्तानी शह पर घोषित करने में पता नहीं क्यों सरकारी बाबू वर्ग ज़रुरत से ज्यादा उतावली दिखा रहा है . . कश्मीर मामलों के जानकार बलराज पुरी कहते हैं कि कश्मीरी लड़कों के मौजूदा पत्थर फेंक आन्दोलन को पाकिस्तानी या आलगाव वादी लोगों की बात कह कर भारत अपनी सबसे महत्वपूर्ण पहल से हाथ धो बैठेगा. बताया गया है कि पत्थर फेंक आन्दोलन आधुनिक टेक्नालोजी की उपज है . बच्चे ट्विटर और फेसबुक का इस्तेमाल करके संवाद कायम कर रहे हैं और स्वतः स्फूर्त तरीके से सडकों पर आ रहे हैं . सही बात यह है कि पाकिस्तानी हुक्मरान भी नए हालात से परेशान हैं और घाटी में सक्रिय अपने गुमाश्तों को डांट फटकार रहे हैं .अगर भारत ने इस वक़्त सही पहल कर दी तो हालात बदलने में देर नहीं लगेगी. कश्मीर में जो सबसे ज़रूरी बात है ,वह यह कि १९४७ में जो कश्मीर के राजा की सोच थी उसे फ़ौरन खारिज किया जाना चाहिए . वह तो जिन्नाह के साथ जाने के चक्कर में थे. और उनकी पिछलग्गू राजनीतिक जमात उन्हें समर्थन दे रही थी. कश्मीर में भारत का इकबाल बुलंद करने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ है १९५२ का नेहरू-अब्दुल्ला समझौता . उसी के आधार पर कश्मीर को उसकी नौजवान आबादी को साथ लेकर भारत का अभिन्न अंग बनाने की कोशिश की जानी चाहिए . ध्यान रहे , पत्थर फेंक रहे नौजवान वे हैं जिनका पाकिस्तानी और भारतीय नेताओं से मोहभंग हो चुका है . उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती कोई भी पहल नहीं कर सकते . यह सत्ताभोगी हैं . जो सडकों पर पत्थर फेंक रहे २० साल से भी कम उम्र के लडके हैं उन्हें मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये . १९५२ का समझौता पाकिस्तान को भी धता बताता है और राजा की मानसिकता को भी . . इसके अलावा कश्मीर में कुछ काम फ़ौरन किये जाने चाहिए . जैसे अभी वहां पंचायती राज एक्ट नहीं लगा है ., उसे लगाया जाना चाहिए . आर टी आई ने पूरे भारत में राजकाज के तरीके में भारी बदलाव ला दिया है . लेकिन अभी कश्मीर में वह ठीक से चल ही नही रहा है . उसे भी कारगर तरीके से लागू किया जाना चाहिये . मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र भी कश्मीर तक बढ़ा देना चाहिये .कश्मीर में मौजूद राजनीतिक पार्टियां भी अगर अपना घर तुरंत ठीक नहीं करतीं तो मुश्किल बढ़ जायेगी.. इस लिए केंद्र सरकार में मौजूद समझदार लोगों को चाहिए कि फ़ौरन पहल करें और कश्मीर में सामान्य हालात लाने में मदद करें
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Sunday, August 15, 2010
आधी आबादी की इन्साफ की लड़ाई और शबाना आजमी
शेष नारायण सिंह
( यह आलेख १५ अगस्त २०१० को राष्ट्रीय सहारा ( हिंदी ) में छप चुका है )
आज़ादी के 63 साल बाद भी देश में आज़ादी पूरी तरह से नहीं आई है . शायद इसीलिये आज़ादी का जो सपना हमारे महानायकों ने देखा था वह पूरा नहीं हो रहा है ..सबसे मुश्किल बात यह है कि राज-काज के फैसलों से देश की आधी आबादी को बाहर रखा जा रहा है ..अपने देश में आज भी महिलायें मुख्य धारा से बाहर हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश की गयी . लेकिन हल्ला गुल्ला होने के बाद शायद यह मसला तो दब गया लेकिन महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने में अभी तक मर्दवादी राजनीति के पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद और विधान मंडलों में बराबर का हक नहीं दे रहे हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .
शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो.
ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता हैं जिन्हें पुरुषों से बेपनाह प्यार मिला है . उनका आन्दोलन पुरुष विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत करते थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो कैफ़ी अपनी बेटी को आम बहुत मुश्किल से दे पाते थे . लेकिन जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने का मौक़ा मिला तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन में शामिल होना न तो इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई लड़ रही हैं .
लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक मुकाम तक पंहुच चुकी है . इस संघर्ष की एक अच्छाई यह भी है कि इसमें अगुवाई उन महिलाओं के हाथ में है जो अपने क्षेत्र में बुलंदियां हासिल कर चुकी हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी सत्र में लोकसभा महिला आरक्षण को मंजूरी दे देगी और हम एक देश के रूप में गर्व से सिर ऊंचा कर सकेगें
( यह आलेख १५ अगस्त २०१० को राष्ट्रीय सहारा ( हिंदी ) में छप चुका है )
आज़ादी के 63 साल बाद भी देश में आज़ादी पूरी तरह से नहीं आई है . शायद इसीलिये आज़ादी का जो सपना हमारे महानायकों ने देखा था वह पूरा नहीं हो रहा है ..सबसे मुश्किल बात यह है कि राज-काज के फैसलों से देश की आधी आबादी को बाहर रखा जा रहा है ..अपने देश में आज भी महिलायें मुख्य धारा से बाहर हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश की गयी . लेकिन हल्ला गुल्ला होने के बाद शायद यह मसला तो दब गया लेकिन महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने में अभी तक मर्दवादी राजनीति के पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद और विधान मंडलों में बराबर का हक नहीं दे रहे हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .
शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो.
ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता हैं जिन्हें पुरुषों से बेपनाह प्यार मिला है . उनका आन्दोलन पुरुष विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत करते थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो कैफ़ी अपनी बेटी को आम बहुत मुश्किल से दे पाते थे . लेकिन जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने का मौक़ा मिला तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन में शामिल होना न तो इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई लड़ रही हैं .
लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक मुकाम तक पंहुच चुकी है . इस संघर्ष की एक अच्छाई यह भी है कि इसमें अगुवाई उन महिलाओं के हाथ में है जो अपने क्षेत्र में बुलंदियां हासिल कर चुकी हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी सत्र में लोकसभा महिला आरक्षण को मंजूरी दे देगी और हम एक देश के रूप में गर्व से सिर ऊंचा कर सकेगें
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राहुल सिंह का दिलचस्प ब्लॉग
रायपुर में राहुल सिंह रहते हैं . छत्तीस गढ़ और नया थियेटर के बारे में बहुत सारी जानकारी है उनके पास . उनका ब्लॉग "सिंहावलोकन" बहुत सारी दिलचस्प जानकारियों का खज़ाना है . ब्लॉग का पता है .
http://akaltara.blogspot.com
मैंने पीपली लाइव के बारे में बहुत सारी सूचना वहां से ली है . उसके अलावा भी बहुत कुछ है वहां. किसी अखबार के साथ बातचीत में अनुषा रिज़वी ने कहा है कि पीपली लाइव के बाद टी वी पत्रकारिता में कुछ नहीं बदलेगा.. लेकिन सच्चाई यह है कि बदलना तो है ही, जैसे चल रहा है,वैसे नहीं चलेगा. पूरी उम्मीद है कि पीपली लाइव ही उसका निमित्त बन जाए
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मैंने पीपली लाइव के बारे में बहुत सारी सूचना वहां से ली है . उसके अलावा भी बहुत कुछ है वहां. किसी अखबार के साथ बातचीत में अनुषा रिज़वी ने कहा है कि पीपली लाइव के बाद टी वी पत्रकारिता में कुछ नहीं बदलेगा.. लेकिन सच्चाई यह है कि बदलना तो है ही, जैसे चल रहा है,वैसे नहीं चलेगा. पूरी उम्मीद है कि पीपली लाइव ही उसका निमित्त बन जाए
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