शेष नारायण सिंह
फेसबुक पर एक बहुत ही दिलचस्प बहस चल रही है.जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उनके छात्र जीवन के साथी असरार खां ने जनवादी कवि रमाशंकर यादव विद्रोही के बारे में कुछ ऐसे बयान दे दिए हैं जिन पर विवाद है. जे एन यू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर से उनकी तुलना कर देने के बाद कुछ लोगों को नागवार गुज़रा और उन्होंने विद्रोही की कविता पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में १९८३ में हुए संघर्ष की कथा में नायकों और खलनायकों का ज़िक्र चल पड़ा और बात विद्रोही की कविता से हट कर छात्र राजनीति की बारीकियों पर केन्द्रित हो गयी. मुझे लगता है कि चंद्रशेखर और विद्रोही दोनों उस महान विश्वविद्यालय के छात्र हैं और दोनों की अपनी अपनी विशिष्टता है . दोनों ने ही अवाम के संघर्ष की गाथा में योगदान किया है .चन्द्रशेखर का हमला सीधा था तो शासक वर्गों के एक मुष्टंडे ने उनकी जान ही ले ली और विद्रोही ने कविता के ज़रिये आम आदमी की तकलीफ को आवाज़ देने की कोशिश की ,तो अभी तक उनकी सांस चल रही है. इसलिए तुलना की बात यहीं ख़त्म की जानी चाहिए .लेकिन कविता के मैदान में विद्रोही का जवाब नहीं है. उनकी अवधी कविता , 'जगीर मांगता ,जगीर मांगता ,कलजुगहा मजूर पूरी सीर मांगता ' खेतिहर मजदूरों की उस संघर्ष गाथा की अभिव्यक्ति है जिसमें मजूर के दर्द की जो परते हैं वे उसकी उस हिम्मत की बात को रेखांकित करती हैं . विद्रोही ने इसी दर्द और हिम्मत को बा-आवाज़े बुलंद ऐलान किया है . इसी कविता में विद्रोही बताते हैं अब मजूर अपने पसीने का रेट मांग रहा है . वह इनाम से संतुष्ट नहीं होने वाला ,वह हक की बात करता है . मैं साहित्य का आलोचाक नहीं हूँ ,इस अवधी कविता की साहित्यिक व्याख्या के झेमेले में नहीं पड़ना चाहता लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अवधी क्षेत्र में किसी भी संघर्ष के अगले दस्ते का गीत बन सकने की ताक़त वाला यह गीत आलोचकों की नज़र से या तो गुज़रा ही नहीं है और या उन लोगों का वर्गचरित्र आड़े आ गया होगा और इसे मामूली कविता मानकर भुला दिया गया होगा. जिस दौर में विद्रोही जे एन यू आये थे, उस दौर के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों और प्राध्यापकों ने हिन्दी साहित्य में बहुत ज्यादा योगदान किया है . कविता,आलोचना,कहानी,उपन्यास सभी क्षेत्रों के चोटी के आज के अधिकतर रचनाकार उस दौर में उसी विश्वविद्यालय में रहते थे . विद्रोही की कविताओं के बारे में उस तरह का जिक्र नहीं हुआ जैसा बाकी लोगों का हुआ. जब विद्रोही अपनी एक कविता में चेतावनी देते हैं कि 'नाच नाचेगी ऐसे कडाही में पूड़ी, खायेगा वही जो हवन से बचेगा ' तो अपने गाँव में बैठे उस शोषण की बारीकी को बात कर रहे होते हैं जो काफी हाउस वाले आलोचकों और बुद्धिजीवियों की समझ में नहीं आयेगा. इस कविता में सामंती मानसिकता की बखिया भी उधेड़ी गयी है . इस कविता में अवध के ग्रामीण समाज के उस इतिहास को रेखांकित करते हैं जो त्रिलोचन की समझ में तो आती थी लेकिन बाकी लोगों के लिए वह बरास्ता अनुवाद ही अपनी मंजिल तय करती है .
सर्वहारा के नाम पर साहित्य की खेती करने वालों के उस विशिष्ट वर्ग में विद्रोही की पंहुच नहीं है, जो किसी को भी महान साहित्यकार के रूप में पहचान दिलाती है . उनकी कविता को जे एन यू कैम्पस के बाहर पंहुचाने में विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने प्रमुख भूमिका निभाई है, जनवादी कवियों के बीच उनकी कविता की इज़्ज़त भी है . इन छात्रों ने उनकी कुछ कविताओं को यू ट्यूब पर डाल दिया है जिसके ज़रिये विद्रोही को सुना ,देखा जा सकता है लेकिन गरीब आदमी की पक्षधरता का दावा करने वाली राजनीतिक जमातों और उनके साहित्यिक ढपलीबाजों ने कुछ नहीं किया . मैं विद्र्ही को १९७४ से जानता हूँ जब वे मेरे छात्र के रूप में बी ए में दाखिल हुए थे. वामपंथी थे ,कवि थे और बहुत ही भले आदमी थे. जिस कालेज में विद्रोही पढने गए थे ,वह बांयें बाजू के साहित्यकार और कवि स्व मान बादुर सिंह के गाँव में था. मान बहादुर बहुत पहले से कवितायें करते थे लेकिन उसे उन्होंने कहीं भी छपने के लिए नहीं भेजा था . बाद में उनकी शोहरत देख कर लगा कि वे अच्छे कवि रह एहोगें . लेकिन विद्रोही की १९७४ की कवितायें जब उनको दिखाई गयीं तो वे बहुत प्रभावित हुए थे और कहा कि विद्रोही की सोच बिलकुल मौलिक है और भाषा बहुत ही दमदार . कादीपुर में मई दिवस के एक जुलूस में विद्रोही की कवितायें पढी और सराही गई थीं . १९७९ में वे, जे एन यू आ गए और यहाँ सामंती सोच के हर अलंबरदार ने उनका शोषण किया ,उनके परिवार को तहस नहस किया और उनको विश्वविद्यालय से बाहर निकाल कर सड़क पर खदेड़ दिया लेकिन विद्रोही के जीवट का उन्हें अंदाज़ नहीं था .बगावत का यह कवि तब से वहीं सड़क पर डटा हुआ है और आपनी बात को अपनी शर्तों पर कह रहा है . इस काम के लिए उसे अपने शरीर पर अथाह कष्ट झेलने पड़ रहे हैं लेकिन कमज़ोर लोगों की तरह वह आत्महत्या नहीं करेगा , वह जिंदा रहेगा .
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Thursday, January 13, 2011
Wednesday, August 18, 2010
जे एन यू में एक कवि को बेईज्ज़त कर रही है सत्ता और उसके एजेंट
शेष नारायण सिंह
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बार बार तनाशाही प्रवृत्तियाँ जन्म लेती रही हैं ,हालांकि उसका मूल चरित्र जनवादी ही रहा है .लगता है कि उसकी डिजाइन में ही तानाशाही को रोक देने का प्रोग्राम फिट है . यह अलग बात है कि अपनी स्थापना के पहले दशक में ही इस विश्वविद्यालय ने इमरजेंसी का आतंक देखा था. उसी इमरजेंसी में इस विश्वविद्यालय की जनता ने अपने साथियों को बेमतलब गिरफ्तार होते देखा था, एक प्रधानमंत्री की पुत्रवधू का आतंक देखा था.उस वक़्त जे एन यू का इलाका हौज़ ख़ास थाने में पड़ता था . वहां का दरोगा आतंक का पर्याय था ,उसी ने उस वक़्त के बड़े नेताओं , डी पी त्रिपाठी ,प्रबीर पुरकायस्थ आदि को गिरफ्तार किया था, उन दिनों सब को मालूम था कि मुखबिरी का काम प्रधानमंत्री के घर से ही हो रहा था. उसी दौर में इस विश्वविद्यालय ने बी डी नागचौधरी जैसे वाइस चांसलर को भी झेला था जो इमरजेंसी की कृपा से विश्वविद्यालय पर नाजिल कर दिया गया था . उसको हटाने के लिए बाद में आन्दोलन भी चला ,उसके तुगलक रोड स्थित घर पर नाईट विजिल भी की गयी. लेकिन जे एन यू के कैम्पस का स्थायी भाव हमेशा से ही जनवादी रहा . बीच बीच में क्षेपक आते रहे लेकिन उन्हें अपने अन्दर की ताक़त से यह यूनिवर्सिटी संभालती रही .लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कैम्पस में कुछ ऐसे तत्व भी प्रभावशाली होने लगे हैं जिनकी सोच और पोलिटिक्स का स्थायी भाव फासिज्म और दादागीरी है . उनकी वाणी बहुत ही संतुलित होगी, शिष्ट होगी और वे चुपचाप फासिज्म को लागू कर रहे होंगें . देखा गया है कि ऐसी प्रवृत्तियों के कारण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अब तानाशाही की बुनियादी बातें संस्थागत रूप ले रही हैं . अब उस विश्वविद्यालय से सहनशीलता गायब हो रही है . खबर आई है कि पिछले ३० वर्षों से कैम्पस में ही रह रहे एक कवि, रमाशंकर विद्रोही को वहां से बहाने की कोशिश चल रही है. हिन्दी विभाग के एक शोध छात्र ने मोहल्ला पोर्टल पर लिखा है कि विद्रोही को भगाया जा रहा है .छात्र ने लिखा है कि जे एन यू प्रशासन ने जनकवि विद्रोही को कैंपस निकाला दे दिया है। इस छात्र ने सूचना दी है कि यह कुछ दक्षिणपंथी छात्र संगठनों की कारस्तानी है। विद्रोही जी हमेशा से प्रगतिशील आंदोलन के पक्षधर रहे हैं। ये बात इन संगठनों और प्रशासन को रास नहीं आ रही .सब लोग जानते हैं कि विद्रोही जी कभी कभार सन्निपात के शिकार हो जाते हैं लेकिन आज तक होश में कभी भी उन्होंने किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा। उनके खिलाफ षड्यंत्र करने वाले वही लोग हैं, जो किसी पुलिसिया कुलपति द्वारा पूरे हिंदी और गैर हिंदी लेखिकाओं को दी गयी गालियों पर खुश होते हैं। प्रशासन या शासन उनका कभी कुछ नहीं बिगाड़ता। इस छात्र ने सभी साथियों से अपील किया है कि वे प्रशासन के इस कदम का पुरजोर विरोध करें और प्रशासन को माफ़ी मांगने पर बाध्य किया जाए. कुछ छात्र कैम्पस में इस सरकारी फरमान के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं ताकि अपने आप को हिटलर और इदी अमीन समझने वाले प्रशासन को तानाशाही वाले इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर किया जा सके. यह सच है कि विद्रोही न तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं और न ही वहां वे नौकरी करते हैं .लेकिन यह भी सच है कि अब वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक अभिन्न अंग हैं . जिस पीढी के साथ उन्होंने कैम्पस में अपना छात्र जीवन शुरू किया था , उनके बच्चे भी अब विश्वविद्यालय में आ चुके हैं . जो जानते हैं उन्हें पता है कि वे कितनी मुसीबतों के दौर से गुज़रे हैं और यह भी कि जे एन यू की नयी पीढियां विद्रोही की उपस्थिति को पसंद करती हैं . पिछले ३० वर्षों में उन्होंने हिन्दी साहित्य को कुछ न कुछ दिया ही है . कैम्पस में उनके चाहने वाले विद्वानों की एक परंपरा है . उनकी कविताओं का एक पोर्टल भी छात्रों ने बना रखा है. इसलिए उन्हें भगाने का कोई कारण समझ में नहीं आता. वे विश्वविद्यालय के किसी काम में कोई अडंगा नहीं डालते तो उन्हें भगा देने की क्या ज़रुरत है . यहाँ यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रमाशंकर विद्रोही बहुत ही कुशाग्र्बुद्धि छात्र रहे हैं . सुल्तानपुर जिले के कादीपुर जैसे छोटे क़स्बे में वे १९७४ में छात्र थे लेकिन कविता की दुनिया में उनकी प्रतिभा का लोहा माना जाता था . वे उच्च शिक्षा के लिए जे एन यू आये और जहां आकर शहरी सपनों के जंगल में कहीं खो गए. बाद में जब उन्होंने होश संभाला तो उनके पास वही बचा था जो उनका अपना था, और वह थी उनकी कविता. आज वह कविता भविष्य के साहित्य की थाती है लेकिन सत्ता और उसके एजेंट उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं . ज़रुरत इस बात की है कि विद्रोही को जानने वाले जो लोग संसद से सडक तक मौजूद हैं , उनके आशियाने को उजड़ने से बचाएं क्योकि अब जे एन यू ही उनका आशियाना है .
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बार बार तनाशाही प्रवृत्तियाँ जन्म लेती रही हैं ,हालांकि उसका मूल चरित्र जनवादी ही रहा है .लगता है कि उसकी डिजाइन में ही तानाशाही को रोक देने का प्रोग्राम फिट है . यह अलग बात है कि अपनी स्थापना के पहले दशक में ही इस विश्वविद्यालय ने इमरजेंसी का आतंक देखा था. उसी इमरजेंसी में इस विश्वविद्यालय की जनता ने अपने साथियों को बेमतलब गिरफ्तार होते देखा था, एक प्रधानमंत्री की पुत्रवधू का आतंक देखा था.उस वक़्त जे एन यू का इलाका हौज़ ख़ास थाने में पड़ता था . वहां का दरोगा आतंक का पर्याय था ,उसी ने उस वक़्त के बड़े नेताओं , डी पी त्रिपाठी ,प्रबीर पुरकायस्थ आदि को गिरफ्तार किया था, उन दिनों सब को मालूम था कि मुखबिरी का काम प्रधानमंत्री के घर से ही हो रहा था. उसी दौर में इस विश्वविद्यालय ने बी डी नागचौधरी जैसे वाइस चांसलर को भी झेला था जो इमरजेंसी की कृपा से विश्वविद्यालय पर नाजिल कर दिया गया था . उसको हटाने के लिए बाद में आन्दोलन भी चला ,उसके तुगलक रोड स्थित घर पर नाईट विजिल भी की गयी. लेकिन जे एन यू के कैम्पस का स्थायी भाव हमेशा से ही जनवादी रहा . बीच बीच में क्षेपक आते रहे लेकिन उन्हें अपने अन्दर की ताक़त से यह यूनिवर्सिटी संभालती रही .लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कैम्पस में कुछ ऐसे तत्व भी प्रभावशाली होने लगे हैं जिनकी सोच और पोलिटिक्स का स्थायी भाव फासिज्म और दादागीरी है . उनकी वाणी बहुत ही संतुलित होगी, शिष्ट होगी और वे चुपचाप फासिज्म को लागू कर रहे होंगें . देखा गया है कि ऐसी प्रवृत्तियों के कारण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अब तानाशाही की बुनियादी बातें संस्थागत रूप ले रही हैं . अब उस विश्वविद्यालय से सहनशीलता गायब हो रही है . खबर आई है कि पिछले ३० वर्षों से कैम्पस में ही रह रहे एक कवि, रमाशंकर विद्रोही को वहां से बहाने की कोशिश चल रही है. हिन्दी विभाग के एक शोध छात्र ने मोहल्ला पोर्टल पर लिखा है कि विद्रोही को भगाया जा रहा है .छात्र ने लिखा है कि जे एन यू प्रशासन ने जनकवि विद्रोही को कैंपस निकाला दे दिया है। इस छात्र ने सूचना दी है कि यह कुछ दक्षिणपंथी छात्र संगठनों की कारस्तानी है। विद्रोही जी हमेशा से प्रगतिशील आंदोलन के पक्षधर रहे हैं। ये बात इन संगठनों और प्रशासन को रास नहीं आ रही .सब लोग जानते हैं कि विद्रोही जी कभी कभार सन्निपात के शिकार हो जाते हैं लेकिन आज तक होश में कभी भी उन्होंने किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा। उनके खिलाफ षड्यंत्र करने वाले वही लोग हैं, जो किसी पुलिसिया कुलपति द्वारा पूरे हिंदी और गैर हिंदी लेखिकाओं को दी गयी गालियों पर खुश होते हैं। प्रशासन या शासन उनका कभी कुछ नहीं बिगाड़ता। इस छात्र ने सभी साथियों से अपील किया है कि वे प्रशासन के इस कदम का पुरजोर विरोध करें और प्रशासन को माफ़ी मांगने पर बाध्य किया जाए. कुछ छात्र कैम्पस में इस सरकारी फरमान के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं ताकि अपने आप को हिटलर और इदी अमीन समझने वाले प्रशासन को तानाशाही वाले इस फैसले को वापस लेने पर मजबूर किया जा सके. यह सच है कि विद्रोही न तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हैं और न ही वहां वे नौकरी करते हैं .लेकिन यह भी सच है कि अब वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का एक अभिन्न अंग हैं . जिस पीढी के साथ उन्होंने कैम्पस में अपना छात्र जीवन शुरू किया था , उनके बच्चे भी अब विश्वविद्यालय में आ चुके हैं . जो जानते हैं उन्हें पता है कि वे कितनी मुसीबतों के दौर से गुज़रे हैं और यह भी कि जे एन यू की नयी पीढियां विद्रोही की उपस्थिति को पसंद करती हैं . पिछले ३० वर्षों में उन्होंने हिन्दी साहित्य को कुछ न कुछ दिया ही है . कैम्पस में उनके चाहने वाले विद्वानों की एक परंपरा है . उनकी कविताओं का एक पोर्टल भी छात्रों ने बना रखा है. इसलिए उन्हें भगाने का कोई कारण समझ में नहीं आता. वे विश्वविद्यालय के किसी काम में कोई अडंगा नहीं डालते तो उन्हें भगा देने की क्या ज़रुरत है . यहाँ यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रमाशंकर विद्रोही बहुत ही कुशाग्र्बुद्धि छात्र रहे हैं . सुल्तानपुर जिले के कादीपुर जैसे छोटे क़स्बे में वे १९७४ में छात्र थे लेकिन कविता की दुनिया में उनकी प्रतिभा का लोहा माना जाता था . वे उच्च शिक्षा के लिए जे एन यू आये और जहां आकर शहरी सपनों के जंगल में कहीं खो गए. बाद में जब उन्होंने होश संभाला तो उनके पास वही बचा था जो उनका अपना था, और वह थी उनकी कविता. आज वह कविता भविष्य के साहित्य की थाती है लेकिन सत्ता और उसके एजेंट उनके खिलाफ लामबंद हो चुके हैं . ज़रुरत इस बात की है कि विद्रोही को जानने वाले जो लोग संसद से सडक तक मौजूद हैं , उनके आशियाने को उजड़ने से बचाएं क्योकि अब जे एन यू ही उनका आशियाना है .
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