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Saturday, March 8, 2014

मर्दवादी सोच से शिकंजे से बाहर निकलकर ही पूरी होगी आधी आबादी के अधिकार की लड़ाई




शेष नारायण सिंह

लखनऊ में रहने वाली साथी ताहिरा हसन ने सूचित किया है कि ,'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के ठीक पहले लखनऊ के घनी आबादी वाले खदरा मोहल्ले में एक महिला को दौड़ा दौड़ा कर चाकुओ से गोद कर मार डाला गया महिला चीखती चिल्लाती रही लेकिन लोगो ने मदद करने की बजाए अपने घर के खिड़की दरवाज़े बंद कर लिए .... शाम को पता चला है कि कुछ मोमबत्तिया और प्लेकार्ड बनाने के लिए दफ्तिया खरीदी गयी है जल्दी ही पुलिस प्रशासन के विरुद्ध प्रदर्शन की सम्भावना है दिल्ली में काम करने वाली एक बेहतरीन पत्रकार से आई एन एस बिल्डिंग के सामने मुलाक़ात हो गयी .उनको दिल्ली की राजनीति के गलियारों में ,खासकर सत्ता की राजनीति की बारीक समझ है.कांग्रेस बीट की  इस कुशाग्रबुद्धि रिपोर्टर से बात करके मेरे पाँव के नीचे की ज़मीन खिसक गयी.  जहां खड़े होकर हम बात कर रहे थे वहां से भारत की संसद की दूरी करीब २०० मीटर होगी ,और जिस महिला से हम बात कर रहे थे वह इलाहाबाद के पथ पर पत्थर नहीं तोडती, वह देश की राजनीति की चोटी पर बैठे राजनेताओं की कारस्तानी को रिपोर्ट करती है और यह उसका कैरियर है . मैंने कहा कि तुमको भी टी वी की बहसों में जाना चाहिए क्योंकि मैं जानता हूँ उस लडकी की राजनीतिक समझ बहुत अच्छी है  . लेकिन उसने  मुझसे बताया  कि इस दिशा  में वह सोच भी नहीं सकती . बिलकुल संभव नहीं है . वह टेलिविज़न की बहसों में इस लिए नहीं जाना चाहती की उसके दफ्तर में काम करने  वाले अन्य पत्रकारों को यह काम पसंद नहीं  आयेगा क्योंकि वे नहीं चाहते कि कोई महिला उनसे बेहतर नाम पैदा करे . उसने यह भी बताया की अपने करियर में वह कई बार ऐसे शुभचिंतकों से दो चार हुयी है जब उसको बताया गया है कि राजनीतिक रिपोर्टिंग के चक्कर में वह न पड़े और सौंदर्य या रसोई टाइप कोई बीट ले ले . इस रिपोर्टर ने साफ़ मना कर दिया और अपने शुभचिंतकों को बार बार याद दिलाया कि वह अपने अन्य साथियों से बिलकुल ही कम नहीं है .

अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस पर इस मानसिकता से लड़ना पडेगा . संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों और अन्य संस्थाओं से मिली जानकारी के आधार पर बहुत ही भरोसे से कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया में महिलाओं की हालत बहुत खराब है . गर्भ में ही कन्या भ्रूण की हत्या हो रही है . लेकिन असली समस्या यह है कि आज भी हमारा पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को समाप्ति मानता है , बड़े से बड़े पद पर बैठी हुयी महिला को उसका चपरासी कमज़ोर मानता  है , केवल नौकरी बचाने के लिए उसका हुक्म मानता है ,सम्मान नहीं करता. विश्वविद्यालयों में लड़कियों को सुरक्षित नहीं माना जा सकता . दिल्ली के पास बसे हुए उत्तर प्रदेश के मेरे उपनगर में बहुत सारे शिक्षा संस्थान हैं , दूर दराज़ के इलाकों में रहने वाले दोस्तों के बच्चे यहाँ पढने आये हैं . वे बच्चे जब हमारे घर कभी आते हैं तो लड़कों की उतनी चिंता नहीं रहती लेकिन अगर लडकियां शाम का खाना खाकर अपने होस्टल जानी की सोचती हैं तो उन्हें उनके ठिकाने तक पंहुचा कर आना सही माना जाता है क्योंकि कई बार दिन ढले सड़क पर जा रही लड़कियों के साथ बदतमीजी की गयी है . १९९० में जब मेरी स्वर्गीया माँ को पता चला कि मेरी बेटी दिल्ली के उस दौर के एक ऐसे स्कूल में पढ़ती है जहां की फीस बहुत ज्यादा है तो उन्हें अजीब लगा था और उन्होंने कहा कि लड़के के लिए तो इतनी फीस देना समझ में आता हिया ,लडकी के लिए क्यों पैसा बर्बाद कर रहे हो . इन सारी घटनाओं में ज़रिये कोशिश की गयी है  कि यह बताया जाए कि हम किस तरह के समाज में रहते हैं और हमको कितना चौकन्ना रहना चाहिए . जब तक औरतों के बारे में पुरुष समाज की बुनियादी सोच नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला है . असली लड़ाई पुरुषों की मानसिकता  बदलने की है और जब तक वह नहीं बदलता कुछ भी नहीं बदलने वाला  है .
जब यह मानसिकता  बदलेगी उसके बाद ही देश की आधी आबादी के खिलाफ निजी तौर पर की जाने वाली ज़हरीली बयानबाजी से बचा  जा सकता है . दुनिया जानती है कि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिये कानून बनाने के लिए देश की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों में आम राय है लेकिन कानून संसद में पास नहीं हो रहा  है . इसके पीछे भी वही तर्क है कि पुरुष प्रधान समाज से आने वाले नेता महिलाओं के बराबरी के हक को स्वीकार नहीं करते .इसीलिये सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और नैतिक  विकास को बहुत तेज़ गति दे सकने वाला यह कानून अभी पास नहीं हो रहा है .हालांकि अब वह दिन दूर नहीं जब यह कानून पास होकर रहेगा क्योंकि संसद और विधान मंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए औरतों ने मैदान ले लिया है . उनको मालूम है कि महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १५ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं .अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . बात तो ठीक है लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है .

महिला अधिकारों की लड़ाई कोई नई नहीं है  भारत की आज़ादी  की लड़ाई के सास्स्थ साथ महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई का आन्दोलन भी चलता रहा है .१८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं हैवे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमानसिखईसाईबूढ़े ,बच्चे नौजवान औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये और देशवासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की . लेकिन आज़ादी हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चकनाचूर कर दिया . इनकी पुरातनपंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की. हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. बहरहाल नेहरू बहुत बड़े नेता थे उनका विरोध कर पाना पुरातन पंथियों के लिए संभव नहीं था और बिल पास हो गया .
महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी. संसद ने पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीं लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . धीरे धीरे सब सुधर रहा है .लेकिन जब संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात आई तो अड़ंगेबाजी का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया. किसी न किसी बहाने से पिछले पंद्रह वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे,. . देश का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पिछले २० वर्षों से देश में ऐसी सरकारें हैं जो गठबंधन की राजनीति की शिकार हैं . लिहाज़ा कांग्रेस बी जे पी या लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक मंशा होने के बावजूद भी कुछ नहीं हो पा रहा है . मर्दवादी सोच चौतरफा हावी है . इस बार भी राज्यसभा में बिल को पास करा लिया गया था लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता. असली काम तो लोकसभा में होना था लेकिन अब लोकसभा का कार्यकाल ख़त्म हो गया है और मामला हर बार की तरह एक बार फिर लटक गया है .. अब तो कांग्रेस और बी जे पी जैसी पार्टियां भी इस बिल से बच कर निकल जाना चाहती हैं .
महिलाओं के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए इस बिल का पास होना बहुत ज़रूरी है लेकिन सच्चाई  यह  है कि इस बिल को पास  उन लोगों के ही करना है जिनमें से अधिकतर मर्दवादी  सोच की बीमारी  के मरीज़ हैं .हस्तक्षेप नाम के एक समाचार पोर्टल ने लिखा है कि अहमदाबाद वीमेंस एक्शन ग्रुप और इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि अहमदाबाद की 58 फीसदी औरतें गंभीर रूप से मानसिक तनाव की शिकार हैं. उनका अध्ययन बताता है कि 65 फीसद औरतें सरेआम पड़ोसियों के सामने बेइज्जत की जाती है. 35 फीसदी औरतों की बेटियां अपने पिता की हिंसा की शिकार हैं. यही नहीं 70 फीसदी औरतें गाली गलौच और धमकी झेलती हैं. 68 फीसदी औरतों ने थप्पड़ों से पिटाई की जाती है. ठोकर और धक्कामुक्की की शिकार 62 फीसदी औरतें हैं तो 53फीसदी लात-घूंसों से पीटी जाती हैं. यही नहीं 49 फीसदी को किसी ठोस या सख्त चीज से प्रहार किया गया जाता है. वहीं 37 फीसदी के जिस्मों पे दांत काटे के निशान पाए गए. 29 फीसद गला दबाकर पीटी गई हैं तो 22 फीसदी औरतों को सिगरेट से जलाया गया है. "
कुल मिलाकर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि एक महिला दिवस और  मना लिया गया लेकिन महिलाओं के अधिकार और सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है .इस लक्ष्य को हासिल करने का सबसे कारगर तरीका संसद और विधान मंडलों में महिलाओं के लिए ३३ प्रतिशत सीटों का आरक्षण है . सभी राजनीतिक जमातों को चाहिए कि उस दिशा में आगे बढ़ने के लिये राजनीतिक माहौल बनाएं .

Sunday, August 15, 2010

आधी आबादी की इन्साफ की लड़ाई और शबाना आजमी

शेष नारायण सिंह
( यह आलेख १५ अगस्त २०१० को राष्ट्रीय सहारा ( हिंदी ) में छप चुका है )

आज़ादी के 63 साल बाद भी देश में आज़ादी पूरी तरह से नहीं आई है . शायद इसीलिये आज़ादी का जो सपना हमारे महानायकों ने देखा था वह पूरा नहीं हो रहा है ..सबसे मुश्किल बात यह है कि राज-काज के फैसलों से देश की आधी आबादी को बाहर रखा जा रहा है ..अपने देश में आज भी महिलायें मुख्य धारा से बाहर हैं . असंवेदनशीलता की हद तो यह है कि जनगणना में गृहिणी को अनुत्पादक काम में शामिल माना गया है और उन्हें भिखारियों की श्रेणी में रखने की कोशिश की गयी . लेकिन हल्ला गुल्ला होने के बाद शायद यह मसला तो दब गया लेकिन महिलाओं को सत्ता से बाहर रखने में अभी तक मर्दवादी राजनीति के पैरोकार सफल हैं और उन्हें संसद और विधान मंडलों में बराबर का हक नहीं दे रहे हैं . महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी बड़ी है जो मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . अजीब बात है कि मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जिन डॉ राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानते हैं , वही डॉ लोहिया महिलाओं को आरक्षण के पक्षधर थे.इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं .शबाना इस रैली की मुख्य आकर्षण थीं . उन्होंने कहा कि यह लड़ाई केवल औरतों के बारे में नहीं है , यह इन्साफ की लड़ाई है .लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि ३३ फीसदी आरक्षण कोई जादू की छडी नहीं है कि यह हो जाने के बाद सारी समस्याओं का हल मिल जाएगा. यह तो औरतों का वह हक है जो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था. यह सच है कि जब महात्मा गांधी ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी तो आवाहन किया था कि महिलाओं को उनका अधिकार दिया जाना चाहिए . लेकिन हुआ ठीक उसका उल्टा. आज आज़ादी के ६३ साल बाद भी संसद में केवल ८ फीसदी महिलायें हैं ज़रुरत इस बात की है कि महिलाओं को उनका वाजिब हक दिया जाए .अगर ऐसा हुआ तो हमारा समाज एक बेहतर समाज होगा क्योंकि महिलायें समाज की बेहतरी के लिए हमेशा काम करती हैं..उनको मालूम है कि यह लड़ाई मामूली नहीं है और तब तक चलती रहेगी जब तक कि लोकसभा में ३३ फीसदी आरक्षण के लिए बिल पास नहीं हो जाता .

शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . लोगों ने सोचा कि उनके अब्बा से कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी से बेपनाह मुहब्बत करते थे और शबाना के सबसे अच्छे दोस्त थे. लेकिन कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट भी थे और उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके अति प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है . हालांकि शबाना का दावा है कि उन्हें बचपन में राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, वे अखबार भी नहीं पढ़ती थी. लेकिन सच्चाई यह है कि वे राजनीति में रहती थी. उनका बचपन मुंबई के रेड फ्लैग हाल में बीता था. रेड फ्लैग हाल किसी एक इमारत का नाम नहीं है . वह गरीब आदमी के लिए लड़ी गयी बाएं बाजू की लड़ाई का एक अहम मरकज़ है . आठ कमरों और एक बाथरूम वाले इस मकान में आठ परिवार रहते थे . हर परिवार के पास एक एक कमरा था . और परिवार भी क्या थे . इतिहास की दिशा को तय किया है इन कमरों में रहने वाले परिवारों ने. शौकत कैफ़ी ने अपनी उस दौर की ज़िन्दगी को अपनी किताब में याद किया है . लिखती हैं ,' रेड फ्लैग हाल एक गुलदस्ते की तरह था जिसमें गुजरात से आये मणिबेन और अम्बू भाई , मराठवाडा से सावंत और शशि ,यू पी से कैफ़ी,सुल्ताना आपा ,सरदार भाई ,उनकी दो बहनें रबाब और सितारा ,मध्य प्रदेश से सुधीर जोशी , शोभा भाभी और हैदराबाद से मैं . रेड फ्लैग हाल में सब एक एक कमरे के घर में रहते थे. सबका बावर्चीखाना बालकनी में होता था . वहां सिर्फ एक बाथरूम था और एक ही लैट्रीन लेकिन मैंने कभी किसी को बाथ रूम के लिए झगड़ते नहीं देखा."
इस तरह के माहौल से शबाना आजमी आई हैं . उनके बचपन की भी अजीब यादें हैं . संघर्ष करने में उनको मज़ा आता है . शायद ऐसा इसलिए कि रेड फ्लैग हाल के उनके बचपन में जब मजदूर संघर्ष करते थे तो शबाना के माता पिता भी जुलूस में शामिल होते थे. बेटी साथ जाती थी. इसलिए बचपन से ही वे नारे लगा रहे मजदूरों के कन्धों पर बैठी होती थी. चारों तरफ लाल झंडे और उसके बीच में एक अबोध बच्ची. यह बच्ची जब बड़ी हुई तो उसे इन्साफ के खिलाफ खड़े होने की ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी. क्योंकि वह तो उन्हें घुट्टी में ही पिलाया गया था. शबाना आजमी ने एक बार मुझे बताया था कि लाला झंडे देख कर उनको लगता था कि उन्हें उसी के बीच होना चाहिए था क्योंकि वे तो बचपन से ही वहीं होती थीं .उन्हने दूर दूर तक फहर रहे लाल झंडों को देख कर लगता था ,जैसे कोई जश्न का माहौल हो.

ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक आबादी के बहुत सारे लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं. शबाना आज़मी एक ऐसी महिला कार्यकर्ता हैं जिन्हें पुरुषों से बेपनाह प्यार मिला है . उनका आन्दोलन पुरुष विरोधी नहीं है. उनके अब्बा, कैफ़ी आजमी उन्हें जान से बढ़ कर मुहब्बत करते थे. शबाना को आम बहुत पसंद हैं .उनके बचपन में जब बहुत गरीबी थी तो कैफ़ी अपनी बेटी को आम बहुत मुश्किल से दे पाते थे . लेकिन जब उन्हें अपने गाँव में फिर से रहने का मौक़ा मिला तो उन्होंने शबाना के लिए आम का पूरा एक बाग़ लगवा दिया . इसलिए शबाना का महिला अआरक्षण आन्दोलन में शामिल होना न तो इत्तिफाक है और नहीं किसी तरह की पुरुष विरोधी मानसिकता . वे इन्साफ की लड़ाई लड़ रही हैं .

लगता है कि अब लड़ाई एक निर्णायक मुकाम तक पंहुच चुकी है . इस संघर्ष की एक अच्छाई यह भी है कि इसमें अगुवाई उन महिलाओं के हाथ में है जो अपने क्षेत्र में बुलंदियां हासिल कर चुकी हैं , किसी नेता की बेटी या बहू नहीं हैं . उम्मीद है कि इसी सत्र में लोकसभा महिला आरक्षण को मंजूरी दे देगी और हम एक देश के रूप में गर्व से सिर ऊंचा कर सकेगें