Monday, August 31, 2009

नागपुर के चश्मा बाबा

शुक्रवार को आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत की प्रेस कांफ्रेंस को सुनते हुए, मुझे चश्मा बाबा की बहुत याद आई। लगा कि हिंदुत्व कर राजनीति की झंडाबरदार पार्टी में लगी आग को बुझाने के लिए नागपुर का बुजुर्ग अपना लोटा लेकर दौड़ पड़ा है। आग लगने से न तो खलिहान में कुछ बचता है और न ही राजनीतिक पार्टी में लेकिन संघ की कोशिश है कि अपनी राजनीतिक शाखा को बचा लिया जाय, ठीक वैसे ही जैसे मेरे गांव के बुजुर्ग बचाने की कोशिश करते थे।

मेरे गांव में एक चश्मा बाबा थे। नाम कुछ और था लेकिन चश्मा लगाते थे इसलिए उनका नाम यही हो गया था। सन् 1968 में जब उनकी मृत्यु हुई तो उम्र निश्चित रूप से 90 साल के पार रही होगी। बहुत कमजोर हो गए थे, चलना फिरना भी मुश्किल हो गया था। उनके अपने नाती पोते खुशहाल थे, गांव में सबसे संपन्न परिवार था उनका। सारे गांव को अपना परिवार मानते थे, सबकी शादी गमी में मौजूद रहते थे। आमतौर पर गांव की राजनीति में दखल नहीं देते थे। लेकिन अगर कभी ऐसी नौबत आती कि गांव में लाठी चल जायेगी या और किसी कारण से लोग अपने आप को तबाह करने के रास्ते पर चल पड़े हैं तो वे दखल देते थे, और शांत करने की कोशिश करते थे।

अगर किसी के घर या खलिहान में आग लग जाती तो अपना पीतल का लोटा लेकर चल पड़ते थे, आग बुझाने। धीरे-धीरे चलते थे, बुढ़ापे की वजह से चलने में दिक्कत होने लगी थी लेकिन आग बुझाने का उनका इरादा दुनिया को जाहिर हो जाता था।

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Sunday, August 30, 2009

आडवाणी और झूठ का राजनीति शास्त्र

बीजेपी के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को आज कल अखबारों, टीवी चैनलों में और खबरिया पोर्टलों में खूब कवरेज मिल रही है उनका एक झूठ चर्चा का विषय बना हुआ है। उन पर आरोप है कि उन्होंने मुल्क को गुमराह किया कि जैशे मुहम्मद के मुखिया मसूद अज़हर की रिहाई में उनका हाथ नहीं था और अपने फैसलों को अपना कह पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।

यह आडवाणी के लिए बड़ा झटका है। पिछले दो-तीन साल से प्रधानमंत्री पद की उम्मीद लगाए बैठे थे और अपने को मजबूत नेता बता रहे थे। उनकी पार्टी में ऐसे लोगों की बड़ी जमात है जो आडवाणी की हर बात को सही ठहराते हैं। इस समूह में कुछ स्वनाम धन्य पत्रकार भी हैं और कुछ ऐसे नेता हैं जो आडवाणी के प्रभाव से ओहदा पद पाते रहते हैं। ये लोग भी आस लगाए बैठे थे कि अगर मजबूत नेता, निर्णायक सरकार कायम हुई तो कुछ न कुछ हाथ आ जाएगा। बहरहाल सरकार बनने की संभावना तो कभी नहीं थी सो नहीं बनी लेकिन आज कल आडवाणी अपनी झूठ बोलने की आदत के चलते मुसीबत में हैं।

झूठ बोलने के कारण यह संकट लालकृष्ण आडवाणी पर पहली बार आया है ऐसा शायद इसलिए हुआ कि कंधार विमान अपहरण कांड के मामले में उन्होंने गलत बयानी की जो कि राष्ट्रीय महत्व का मामला था। देश की गरिमा से समझौता करने वाली उस वक्त की राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति के सबसे शर्मनाक फैसले से वे अपने को अलग करने अपने बाकी साथियों को नाकारा साबित करने के चक्कर में बेचारे बुरे फंस गए। ऐसा नहीं है कि आडवाणी ने पहली बार झूठ बोला हो, वे बोलते ही रहते हैं उनकी इस आदत से परिचित लोग, बात को टाल देते हैं या कभी कभार उनका मजाक बनाते हैं।

एक बार अपनी शिक्षा को लेकर उन्होंने कोई बयान दिया था। बिहार के नेता लालू प्रसाद ने सिद्घ कर दिया कि जिस कोई की बात आडवाणी कर रहे थे, वह उस कॉलेज में था ही नहीं। आडवाणी ने लालू यादव की बात का कभी खंडन नहीं किया। ऐसे बहुत सारे मामले हैं लेकिन कंधार विमान अपहरण कांड जैसा मामला कोई नहीं इसलिए पूरे मुल्क में इस बात की चिंता है कि अगर किसी वजह से भी बीजेपी जीत गई होती तो यह आदमी देश का नेता होता तो हमारा क्या होता। शुक्र है कि हम बच गए।

लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ अरसा पहले एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि कंधार कांड में जो राष्ट्रीय अपमान हुआ था, उससे उनका कोई लेना देना नहीं था, उन्हें मालूम ही नहीं था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को लेकर कंधार जा रहे हैं। प्रधानमंत्री पद के लालच में उन्होंने अपने आपको राष्ट्रीय शर्म की इस घटना से अलग कर लिया था। जबकि यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा की मंत्रिमंडलीय समिति में लिया गया। यह समिति सरकार की सबसे ताकतवर संस्था है।

इसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष होते हैं और गृहमंत्री, रक्षामंत्री व वित्तमंत्री और विदेशमंत्री सदस्य होते हैं। इसे एक तरह से सुपर कैबिनेट भी कहा जा सकता है। कंधार में फंसे आईसी 814 को वापस लगाने के लिए तीन आतंकवादियों को छोडऩे का फैसला इसी कमेटी में लिया गया था। अब पता लग रहा है कि फैसला एकमत से लिया गया था यानी अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नाडीस, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह सब की राय थी कि आतंकवादियों को छोड़ देना चाहिए। आडवाणी इस मसले से अपने को अलग कर रहे थे और यह माहौल बना रहे थे कि उनकी जानकारी के बिना ही यह महत्वपूर्ण फैसला ले लिया गया था।

जाहिर है उनके बाकी साथी आडवाणी की इस चालाकी से नाराज थे और अब जार्ज फर्नांडीज यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ने आडवाणी के ब्लाक को उजागर कर दिया है। अटल बिहारी वाजपेयी की तबीयत ठीक नहीं है वरना वह भी अपनी बात कहते। सवाल यह उठता है कि जब पिछले दो साल से आडवाणी इतने महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक मामले पर गलत बयानी कर रहे थे। तो इन तीन महत्वपुरुषों ने सच्ची बात पर परदा डाले रखना क्यों जरूरी समझा? यह जानते हुए कि इतनी बड़ी बात पर खुले आम झूठ बोलने वाला एक व्यक्ति प्रधानमंत्री पद हथियाने के चक्कर में है उसे इन लोगों ने नहीं रोका।

रोकना तो खैऱ दूर की बात है आडवाणी को प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में ऐसे लोग शामिल रहे, उनकी जय-जय कार करते रहे। इस पहेली को समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। यह लोग भी लालच में रहे होंगे कि सरकार बनने पर इन्हें भी कुछ मिल जाएगा। जो भी हो अब कंधार जैसे महत्वपूर्ण मामले पर उस वक्त की एन.डी.ए. सरकार के गैर जि़म्मेदाराना रुख़ से जाल साजी की परतें वरक-दर-वरक हट रही है।

सवाल यह उठता है कि जिस पार्टी की टॉप लीडरशिप सच्चाई को छुपाने के इतने बड़े खेल में शामिल रही हो उसको क्या सजा मिलनी चाहिए। देश को जागरुक जनता का इन लोगों की जवाब देही सुनिश्चित करने की कोशिश करनी चाहिए।

टॉप के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार की जांच करने वाले सरकारी विभागों को हिदायत दी है कि ऊंचे पदों पर बैठे भ्रष्ट अधिकारियों और जिम्मेदार लोगों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करें और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने में मदद करें। प्रधानमंत्री ने सरकारी अधिकारियों को फटकार लगाई कि छोटे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के कारनामों को पकड़कर कोई वाहवाही नहीं लूटी जा सकती, उससे समाज और राष्ट्र का कोई भला नहीं होगा। प्रधानमंत्री ने जो बात कही है वह बावन तोले पाव रत्ती सही है और ऐसा ही होना चाहिए।

लेकिन भ्रष्टाचार के इस राज में यह कर पाना संभव नहीं है। अगर यह मान भी लिया जाय कि इस देश में भ्रष्टाचार की जांच करने वाले सभी अधिकारी ईमानदार हैं तो क्या बेईमान अफसरों की जांच करने के मामले में उन्हें पूरी छूट दी जायेगी। क्या मनमोहन सिंह की सरकार, भ्रष्ट और बेईमान अफसरों और नेताओं को दंडित करने के लिए जरूरी राजनीतिक समर्थन का बंदोबस्त करेगी।

भारतीय राष्ट्र और समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के सपने को पूरा करने के लिए जरूरी है कि राजनेता ईमानदार हों। जहां तक डा. मनमोहन सिंह का प्रश्न है, व्यक्तिगत रूप से उनकी और उनकी बेटियों की ईमानदारी बिलकुल दुरुस्त है, उनके परिवार के बारे में भ्रष्टाचार की कोई कहानी कभी नहीं सुनी गई। लेकिन क्या यही बात उनकी पार्टी और सरकार के अन्य नेताओं और मंत्रियों के बारे में कही जा सकती है।

राजनीति में आने के पहले जो लोग मांग जांच कर अपना खर्च चलते थे, वे जब अपनी नंबर एक संपत्ति का ब्यौरा देते हैं तो वह करोड़ों में होती है। उनकी सारी अधिकारिक कमाई जोड़ डाली जाय फिर भी उनकी संपत्ति के एक पासंग के बराबर नहीं होगी। इसके लिए जरूरी है सर्वोच्च स्तर पर ईमानदारी की बात की जाय। प्रधानमंत्री से एक सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर सीबीआई का कोई जांच अधिकारी किसी भ्रष्टï मंत्री से पूछताछ करने जाएगा तो उस गरीब अफसर की नौकरी बच पाएगी। जिस दिल्ली में भ्रष्टाचार और घूस की कमाई को आमदनी मानने की परंपरा शुरू हो चुकी है, वहां भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या कोई अभियान चलाया जा सकेगा?

इस बात में कोई शक नहीं है कि पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था पर आधारित लोकतांत्रिक देश में अगर भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से नकेल न लगाई जाये तो देश तबाह हो जाते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक खुशहाली की पहली शर्त है कि देश में एक मजबूत उपभोक्ता आंदोलन हो और भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से नियंत्रण हो। मीडिया की विश्वसनीयता पर कोई सवालिया निशान न लगा हो। अमरीकी और विकसित यूरोपीय देशों के समाज इसके प्रमुख उदाहरण हैं। यह मान लेना कि अमरीकी पूंजीपति वर्ग बहुत ईमानदार होते हैं, बिलकुल गलत होगा।

लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां मौजूद तंत्र ऐसा है कि बड़े-बड़े सूरमा कानून के इ$कबाल के सामने बौने हो जाते हैं। और इसलिए पूंजीवादी निजाम चलता है। प्रधानमंत्री पूंजीवादी अर्थशास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं, उनसे ज्यादा कोई नहीं समझता कि भ्रष्टाचार का विनाश राष्ट्र के अस्तित्व की सबसे बड़ी शर्त है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने कहा कि ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए हमलावर तेवर अपनाने की जरूरत है। जनता में यह धारणा बन चुकी है कि सरकार की भ्रष्टाचार से लडऩे की कोशिश एक दिखावा मात्र है। इसको खत्म किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री को इस बात की तकलीफ थी कि गरीबों के लिए शुरू की गई योजनाएं भी भ्रष्टाचार की बलि चढ़ रही है।

उन्होंने कहा कि इसके जरूरी ढांचा गत व्यवस्था बना दी गई है, अब इस पर हमला किया जाना चाहिए। डा. मनमोहन सिंह को ईमानदारी पर जोर देने का पूरा अधिकार है क्योंकि जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई के बाद वे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन पर व्यक्तिगत बेईमानी का आरोप उनके दुश्मन भी नहीं लगा पाए। लेकिन क्या उनके पास वह राजनीतिक ताकत है कि वे अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर लगाम लगा सकें। मंत्रिमंडल के गठन के वक्त उनको अपनी इस लाचारी का अनुमान हो गया था। क्या उन्होंने कभी सोचा कि इस जमाने में नेताओं के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सकती है। जिस देश में नेता लोग सवाल पूछने के लिए पैसे लेते हों, जन्मदिन मनाने के लिए बंगारू लक्ष्मण बनते हों, कोटा परमिट लाइसेंस में घूस लेते हों, अपनी सबसे बड़ी नेता को लाखों रुपए देकर टिकट लेते हों, हर शहर में मकान बनवाते हों उनके ऊपर भ्रष्टाचार विरोधी कोई तरकीब काम कर सकती है।

सबको मालूम है कि इस तरह के सवालों के जवाब न में दिए जाएंगे। अगर भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना करनी है कि प्रधानमंत्री को चाहिए कि एक पायेदार जन जागरण अभियान चलाएं और समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त करने में अपना योगदान करें। हमें मालूम है कि किसी एक व्यक्ति की कोशिश से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा लेकिन क्या प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के राक्षस को तबाह करने के लिए पहला पत्थर मारने को तैयार हैं। अगर उन्होंने ऐसा करने की राजनीतिक हिम्मत जुटाई तो भ्रष्टाचार के खत्म होने की संभावना बढ़ जाएगी लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी सरकार के पांच भ्रष्टतम मंत्रियों को पकड़वाना होगा।

Friday, August 28, 2009

सुधरिए, वरना बाबू लोग मीडिया चलाएंगे

यह पब्लिक है, सब जानती है : समाज के हर वर्ग की तरह मीडिया में भी गैर-जिम्मेदार लोगों का बड़े पैमाने पर प्रवेश हो चुका है। भड़ास4मीडिया से जानकारी मिली कि एक किताब आई है जिसमें जिक्र है कि किस तरह से हर पेशे से जुड़े लोग अपने आपको किसी मीडिया संगठन के सहयोगी के रूप में पेश करके अपना धंधा चला रहे हैं। कोई कार मैकेनिक है तो कोई काल गर्ल का धंधा करता है, कोई प्रापर्टी डीलर है तो कोई शुद्ध दलाली करता है। गरज़ यह कि मीडिया पर बेईमानों और चोर बाजारियों की नजर लग गई है। इस किताब के मुताबिक ऐसी हजारों पत्र-पत्रिकाओं का नाम है जो कभी छपती नहीं लेकिन उनकी टाइटिल के मालिक गाड़ी पर प्रेस लिखाकर घूम रहे हैं।
इस वर्ग से पत्रकारिता के पेशे को बहुत नुकसान हो रहा है लेकिन एक दूसरा वर्ग है जो इससे भी ज्यादा नुकसान कर रहा है। यह वर्ग ब्लैकमेलरों के मीडिया में घुस आने से पैदा हुआ है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से ख़बर है कि एक न्यूज चैनल ने कुछ ठेकेदारों के साथ मिलकर एक सरकारी अफसर और उसकी पत्नी के अंतरंग संबंधों की एक फिल्म बना ली और उसे अपने न्यूज चैनल पर दिखा दिया। अफसर का आरोप है कि चैनल वालों ने उससे बात की थी और मोटी रकम मांगी थी। पैसा न देने की सूरत में फिल्म को दिखा देने की धमकी दी थी। चैनल वाले कहते हैं कि वह अफसर का वर्जन लेने गए थे, पैसे की मांग नहीं की थी। चैनल वालों के इस बयान से लगता है कि अगर पति-पत्नी के अंतरंग संबंधों की फिल्म हाथ लग जाय तो उनके पास उसे चैनल पर दिखाने का अधिकार मिल जाता है। यह बिलकुल गलत बात है और इसकी निंदा की जानी चाहिए। चैनल की यह कारस्तानी रायपुर से छपने वाले प्रतिष्ठित अखाबारों में छपी है और भड़ास4मीडिया के लोग भी इस चैनल की गैर-ज़िम्मेदार कोशिश को सामने ला रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि मीडिया संस्थान के नाम पर ब्लैकमेलर बिरादरी पर लगाम लगाने की कोशिश इसी मामले से शुरू हो जायेगी। मौजूदा मामले में संबंधित अफसर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परिजयोजना के नए मुख्य अधिकारी के रूप में तैनात हुआ था। अफसर का आरोप है कि वे ठेकेदारों की आपसी राजनीति का शिकार बने हैं और उनको फंसाने के लिए साजिश रची गई थी। आरोप यह भी है कि तथाकथित न्यूज चैनल वाले भी अफसर को सबक सिखाने के लिए साजिश में शामिल हो गए थे। इस मामले से अफसर की पत्नी भी बहुत दुखी हैं कि उसके अपने पति के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों को सार्वजनिक करके चैनल ने उसका और उसके नारीत्व के गौरव का अपमान किया है।
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का बरसा...जब कृषि सुखानी

अब सरकारी तौर पर भी मान लिया गया है कि देश में सूखे की स्थिति है। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन में केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने स्वीकार किया कि आधा देश भयानक सूखे की चपेट में है। कृषि मंत्री ने बताया कि करीब दस राज्यों में सूखे की हालत गंभीर है। करीब ढाई सौ जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। जरूरत पड़ी तो यह संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। जिले को सूखाग्रस्त घोषित करने के बाद वहां सरकार के विशेष अभियान शुरू किए जाते हैं। लगान वसूली, कर्ज वगैरह में ढील दी जाती है। कई बार उसे माफ भी कर दिया जाता है।

जहां तक सरकार की बात है, सूखे से मुकाबला करने की पूरी तैयारी हो चुकी है। केंद्र सरकार ने सूखे पर मंत्रियों की एक समिति का गठन किया है, जिसके अध्यक्ष वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी हैं। सभी अहम विभागों के मंत्रियों को इसमें शामिल किया गया है। अब तक के अनुमान के अनुसार, इस बार धान की पैदावार में करीब 170 लाख टन की कमी आएगी। इसका मतलब यह हुआ कि चावल की भारी कमी होने वाली है। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन में प्रणब मुखर्जी ने बताया कि अगर अनाज की कमी हुई तो विदेशों से भी अनाज मंगाया जा सकता है।

आवश्यक वस्तुओं के निर्यात पर पहले से ही प्रतिबंध लगा हुआ है, जो जारी रहेगा। प्रणब मुखर्जी ने सम्मेलन में बताया कि इस बात का फैसला लिया जा चुका है कि जिस चीज की भी कमी होगी, उसे तुरंत आयात कर लिया जाएगा। यह भी एहतियात रखी जाएगी कि भारत में मांग बढ़ने की चर्चा से अंतरराष्ट्रीय बाजार में अनाज की कीमत बढ़ने न दी जाए यानी सरकार अपनी योजना का प्रचार नहीं करेगी। सरकार ने यह भी दावा किया कि 60 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी खर्च करके मंहगाई पर काबू पा लिया जाएगा। इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां बड़ी से बड़ी मुसीबत को आंकड़ों की भाषा में बदल दिया जाता है और वही मीडिया के जरिए सूचना बन जाती है।

सरकारी फैसले इन्हीं आंकड़ों के आधार पर होते हैं। बहरहाल, भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इंतहा है, लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं। भूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है। इन आंकड़ेबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेरकर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करें। इसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता है, तभी इस देश का नेता जागता है।

गांव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता। कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा, जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा, क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांगकर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीब मानसून खराब होने पर सरकारी लापरवाही के चलते भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषि व्यवस्था नए शासकों को मिली थी, वह लगभग आदिमकाल की थी।

जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा, लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गई थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल अयूब खान ने भी हमला कर दिया। युद्घ का दौर और खाने की कमी। बहरहाल, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।


अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आह्वान किया कि सभी लोग हफ्ते में एक दिन का उपवास रखें यानी मुसीबत से लड़ने के लिए हौसलों की जरूरत पर बल दिया, लेकिन भूख की लड़ाई केवल हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे, उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है और अमेरिका से पीएल 480 योजना के तहत मंगाए गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती हैं, लेकिन भूख सब कुछ करवाती है।

केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम कि गांव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहां अनाज खरीदने या मांगने जाता है तो कितनी बार मरता है। अपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। गांवों में रहने वाले किसान के लिए खरीदकर खाना शर्म की बात मानी जाती है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक नेता ने समझा था। 1967 में कृषि मंत्री रहे सी सुब्रमण्यम ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सच्चाई समझाई थी।

उनके प्रयासों से ही खेती को आधुनिक बनाने की कोशिश शुरू हुई। इस प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन यानी हरित क्रांति का नाम दिया गया। लीक से हटकर सोच सकने की सुब्रमण्यम की क्षमता और उस वक्त की प्रधानमंत्री की राजनीतिक इच्छाशक्ति ने अन्न की पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दिया। खेती से संबंधित हर चीज में सब्सिडी का प्रावधान किया गया। बीज, खाद, कृषि उपकरण, निजी ट्यूबवेल, डीजल, बिजली सबकुछ सरकारी मदद के लायक मान लिया गया। भारत के ज्यादातर किसानों के पास मामूली क्षेत्रफल की जमीनें हैं।

भूमि की चकबंदी योजनाएं शुरू हुई और किसान खुशहाल होने लगा। ग्रीन रिवोल्यूशन की भावना और मिशन को आगे जारी नहीं रखा गया। यथास्थितिवादी राजनीतिक सोच के चलते सुब्रमण्यम की पहल में किसी ने भी कोई योगदान नहीं किया। जनता पार्टी की 1977 में आई सरकार में आपसी झगड़े इतने थे कि वे कुछ नहीं कर पाए और जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आई तब तक देश में लुंपन राज आ चुका था और राजनीतिक बिरादरी, खासकर सरकारी पक्ष में गांव के गरीब की खैरियत जानने वाला कोई नहीं था।

आज आलम यह है कि पिछले 35 वर्षो में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि दिल्ली में बैठा राजनीतिक और नौकरशाह ग्रीन रिवोल्यूशन की परंपरा के बारे में नहीं सोचता। सुना तो यहां तक गया है कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को राजनीतिक आकाओं की कृपा से फैक्टरी मालिक सीधे हड़प कर जा रहे हैं, किसानों को उसमें से कुछ नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में जरूरत इस बात की है कि सूचना क्रांति के हथियारों का इस्तेमाल करके राजनीतिक महाप्रभुओं को सच्चाई का आईना दिखाया जाए और यह काम मीडिया को करना है।

भूख से मरने वालों की खबरें पब्लिक डोमेन में लाना बहुत ही महत्वपूर्ण है, उसे आना चाहिए, लेकिन सूखा पड़ने पर ग्रामीण इलाकों में और भी बहुत-सी मुसीबतें आती हैं। इन मुसीबतों से लड़ने के लिए सरकारी मशीनरी की कोई तैयारी नहीं होती। सूखा पड़ जाने पर सबकुछ युद्ध स्तर पर शुरू होता है, और फिर इस में निहित स्वार्थ के प्रतिनिधि घुस जाते हैं। राहत की योजनाओं में इनका शेयर बनने लगता है। सूखा पड़ जाने पर सबसे बड़ी परेशानी जानवरों के चारे का इंतजाम करने में होती है। पशु मरने लगते हैं। कई-कई गांवों के लोग तो अपने जानवरों को छोड़ देते हैं। उनके अपने भोजन की व्यवस्था नहीं होती तो पशुओं को क्या खिलाएं।

जाहिर है कि सूखे की हालत के अकाल बनने के पहले गांव में रहने वाला आदमी बहुत ही ज्यादा मुसीबतों से गुजर चुका होता है। दिल्ली में बैठे राजनेताओं और अफसरों के आंकड़ों में यह कहीं नहीं आता। उसमें तो सारा ध्यान शहरी मध्यवर्ग की खुशहाली की योजनाओं पर फोकस रहता है। गांव के आदमी की परत दर परत मुसीबतें उसकी समझ में नहीं आतीं। ऐतिहासिक रूप से पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों में आम आदमी की पक्षधरता को बहुत ही महत्व दिया गया है। आज भी यह सिद्धांत उतना ही महत्वपूर्ण है।

खासकर सूखा और अकाल की स्थिति में अगर हम आम आदमी की मुसीबतों को सरकार और नीति निर्धारकों का एजेंडा बना सकें तो हालात निश्चित रूप से बदल जाएंगे। यह काम मुश्किल है, क्योंकि इसके लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं होते। बहुत मेहनत के बाद ही कोई जानकारी मिल पाती है, लेकिन असंभव नहीं है। प्रसिद्ध पत्रकार पी साईनाथ ने 80 के दशक में कालाहांडी के अकाल की खबरें सरकारी आंकड़ों से हटकर दी थीं। उन खबरों की वजह से ही अकाल की सच्चाई जनता के सामने आई।

बाकी दुनिया को भी सही जानकारी मिली। मीडिया की जिम्मेदारी है कि इस भयानक सूखे पर नजर रखे और सरकारी आंकड़ों के जाल में फंसने का खतरा झेल रही सूखा राहत योजनाओं को ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीबों तक पहुंचाने में मदद करें।

लेख

Wednesday, August 26, 2009

यह पब्लिक है, सब जानती है

समाज के हर वर्ग की तरह मीडिया में भी गैर जिम्मेदार लोगों का बड़े पैमाने पर प्रवेश हो चुका है। एक किताब आई है जिसमें जिक्र है कि किस तरह से हर पेशे से जुड़े लोग अपने आपको किसी मीडिया संगठन के सहयोगी के रूप में पेश करके अपना धंधा चला रहे हैं। काई कार मैकेनिक है तो कोई काल गर्ल का धंधा करता है, कोई प्रापर्टी डीलर है तो कोई शुद्घ दलाली करता है।

गरज़ यह कि मीडिया पर बेईमानों और चोर बाजारियों की नजर लग गई है। इस किताब के मुताबिक ऐसी हजारों पत्र पत्रिकाओं का नाम है जो कभी छपती नहीं लेकिन उनकी टाइटिल के मालिक गाड़ी पर प्रेस लिखकर घूम रहे हैं। इस वर्ग से पत्रकारिता के पेशे को बहुत नुकसान हो रहा है लेकिन एक दूसरा वर्ग है जो इससे भी ज्यादा नुकसान कर रहा है। यह वर्ग ब्लैकमेलरों के मीडिया में घुस आने से पैदा हुआ है।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से खबर है कि एक न्यूज चैनल ने कुछ ठेकेदारों के साथ मिलकर एक सरकारी अफसर और उसकी पत्नी के अंतरंग संबंधों की एक फिल्म बना ली और उसे अपने न्यूज चैनल पर दिखा दिया। अफसर का आरोप है कि चैनल वालों ने उससे बात की थी और मोटी रकम मांगी थी। पैसा न देने की सूरत में फिल्म को दिखा देने की धमकी दी थी। चैनल वाले कहते हैं कि वह अफसर का वर्जन लेने गए थे, पैसे की मांग नहीं की थी।

चैनल वालों के इस बयान से लगता है कि अगर पति-पत्नी के अंतरंग संबंधों की फिल्म हाथ लग जाय तो उनके पास उसे चैनल पर दिखाने का अधिकार मिल जाता है। यह बिलकुल गलत बात है और इसकी निंदा की जानी चाहिए। चैनल की यह कारस्तानी रायपुर से छपने वाले प्रतिष्ठित अखबारों में छपी है और देश के कई महत्वपूर्ण वेबसाइट भी इस चैनल की गैर जि़म्मेदार कोशिश को सामने ला रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि मीडिया संस्थान के नाम पर ब्लैकमेलर बिरादरी पर लगाम लगाने की कोशिश इसी मामले से शुरू हो जायेगी।

मौजूदा मामले में संबंधित अफसर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क परिजयोजना के नए मुख्य अधिकारी के रूप में तैनात हुआ था। अफसर का आरोप है कि वे ठेकेदारों की आपसी राजनीति का शिकार बने हैं और उनको फंसाने के लिए साजिश रची गई थी। आरोप यह भी है कि तथाकथित न्यूज चैनल वाले भी अफसर को सबक सिखाने के लिए साजिश में शामिल हो गए थे। इस मामले से अफसर की पत्नी भी बहुत दुखी है कि उसके अपने पति के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों को सार्वजनिक करके चैनल ने उसका और उसके नारीत्व के गौरव का अपमान किया है।

सूचना क्रांति के आने के बाद मीडिया की पहुंच का दायरा बहुत बढ़ गया है। अगर कहीं भी कोई गैर जिम्मेदार और नासमझ व्यक्ति बैठ जाता है तो पूरी पत्रकारिता के पेशे की बदनामी होती है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि मीडिया संगठनों से जुड़े लोग अपनी आचार संहिता बनाए और उसका सख्ती से पालन किया जाए। यह जरूरत बहुत वक्त से महसूस की जा रही है लेकिन अब यह मामला बहुत ही अर्जेंट हो गया है । इस पर फौरन काम किए जाने की जरूरत है और अगर ऐसा न हुआ तो सरकार इस मामले में दखल देगी और वह बहुत ही बुरा होगा क्योंकि सरकारी बाबू हमेशा इस चक्कर में रहता है कि अपने से सुपीरियर काम करने वालों को नीचा दिखाए।

इसमें दो राय नहीं है कि पत्रकारिता का पेशा सरकारी बाबू के पेशे से ऊंचा है। सरकारी बाबू के पास पत्रकारों को अपमानित करने की अकूत क्षमता होती है। 1975 में इमरजेंसी लगने पर इस बिरादरी ने करीब 19 महीने तक इसका इस्तेमाल किया था और लगने लगा था कि प्रेस की स्वतंत्रता नाम की चीज अब इस देश में बचने वाली नहीं है। बहरहाल इमरजेंसी की अंधेरी रात के खत्म होने के बाद गाड़ी फिर से चल पढ़ी। लेकिन जहां भी सरकारी बाबू वर्ग की दखल है उन मीडिया संस्थानों की दुर्दशा दुनिया को मालूम है।

इसलिए मीडिया क्षेत्र के मानिंद लोगों को चाहिए कि पत्रकारिता के नाम पर अन्य धंधा करने वालों पर लगाम लगाने के लिए फौरन से पेशतर कोशिश शुरू कर दें। वरना बहुत देर हो जायेगी।
यहां इस बात को ध्यान में रखना होगा कि मीडिया में दलालों का प्रवेश बहुत बड़े पैमाने पर हो चुका है। इसलिए यह काम बहुत ही मुश्किल है, निहित स्वार्थ के लोग अडंग़ा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसलिए इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्रांतिनुमा कोई कोशिश की जानी चाहिए और मीडिया के काम से प्रभावित होने वाले हर वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

मीडिया के काम से सबसे ज्यादा प्रभावित तो आम जनता ही होती है जनता को मालूम रहता है कि कौन पत्रकार कहां हेराफेरी कर रहा है, और मीडिया संगठन कहां बेईमानी कर रहा है लेकिन जनता बोलती नहीं। इस स्थिति को समाप्त किए जाने की जरूरत है। और अगर जनता की भागीदारी हो गई तो मामूली तनख्वाह पाने वाले पत्रकारों के महलनुमा मकानों, बैंकों में जमा करोड़ों रुपयों और बच्चों की शिक्षा पर खर्च किए जा रहे लाखों रुपयों पर भी नजर जायेगी जिसके बाद चोरी और हेराफेरी करने वाले पत्रकार और मीडिया संगठन अलग-थलग पडऩे लगेंगे। इसलिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुहिम में शामिल हों।

अगर जनता शामिल होगी तो मुकामी पत्रकार और मीडिया संगठन मजबूरन सच्ची रिपोर्ट देंगे। वैसे भी पत्रकार की आत्मरक्षा का सबसे बड़ा हथियार सच ही है। जब तक वह सच के सहारे रहेगा कोई भी उसका बाल बांका नहीं कर सकता लेकिन जहां उसने गलतबयानी की, मीडिया को दुरुस्त करने के आंदोलन में शामिल पब्लिक उसके लिए मुश्किल कर देगी क्योंकि उसे तो सच्चाई मालूम ही रहेगी।

रायपुर के मुकामी लोगों को आज भी मालूम होगा कि अफसर और उसकी पत्नी के निजी क्षणों को सार्वजनिक करने का अपराधी कौन है लेकिन वह रूचि नहीं लेते। लेकिन अगर उनको भी मीडिया की सफाई के मिशन में शामिल कर लिया जाय तो वे रूचि लेंगे और इससे पत्रकारों और प्रेस की प्रतिष्ठा में वृद्घि होगी।

न्यायपालिका की पवित्रता में इज़ाफा

जजों की संपत्ति का मामला बहस के दायरे में आ गया है। न्यायपालिका को एक पवित्र संस्था माना जाता है। आजादी के बाद संविधान सभा की बहसों में उस वक्त के महान नेताओं को भरोसा था कि न्यायपालिका के रखवाले अपना काम ईमानदारी से करेंगे और उनकी आर्थिक स्थिति कभी भी विवाद का विषय नहीं बनेगी। इसलिए यह परंपरा बनी कि जजों की संपत्ति को मुकदमे बाजी का विषय नहीं बनने दिया जायेगा।

जब राजनीतिक नेताओं और बेईमान अफसरों ने घूस के जरिए अकूत संपत्ति बनाना शुरू किया तो जनमत के दबाव के चलते ऐसे कानून बने कि उनको ईमानदार बनाए रखने के लिए कानून का डंडा चलाया गया। नेताओं को तो हलफ नामा देकर अपनी संपत्ति घेषित करने का कानून बन गया और वह सूचना सार्वजनिक भी कर दी जाती है। लेकिन ऐसी जरूरत नहीं पड़ी थी कि जजों के बारे में ऐसा कानून बनाया जाय। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जजों के भ्रष्टïाचार के बहुत सारे मामले अखबार में छपे हैं। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक जज साहब के ऊपर तो महाभियोग की तैयारी भी हो गई थी, उसी हाईकोर्ट की एक जज पिछले साल नकद रिश्वत लेने के मामले में भी चर्चा में आ गई थीं।

कलकत्ता हाईकोर्ट के जज साहब भी विवादों के घेरे में हैं लेकिन कानून ऐसे हैं कि बहुत कुछ किया नहीं जा सकता बहुत सारे फैसले भी विवाद का विषय बन गए हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बना कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों पर भी मीडिया या अन्य मंचो पर भ्रष्टाचार से संबंधित बहसों का सिलसिला शुरू हो गया। मांग उठने लगी कि जजों की संपत्ति सार्वजनिक की जाय और उसे सार्वजनिक डोमेन में डाला जाय। इस बात के लागू होने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि ईमानदार जजों के सामने परेशानी खड़ी हो सकती है लेकिन उससे भी बड़ा खतरा न्यायपालिका के भ्रष्टाचार का है। पिछले कुछ वर्षों से तो कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भी उंगली उठाने लगे हैं।

और जाने अनजाने जजों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं। यह हमारे देश के जनतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इस विवाद पर विराम देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केजी गोपालकृष्णन ने स्थिति को स्पष्टï करते हुए कहा कि अवांछित विवादों से बचाने के लिए जजों की संपत्ति की घोषणा तो हो सकती है लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए। माना जहा रहा था कि बहस यहीं खत्म हो जायेगी लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति डीवी शैलेंद्र कुमार ने एक अखबार में लेख लिखकर मामले को गंभीर बहस के दायरे में ला दिया।

जस्टिस कुमार ने भारत के मुख्य न्यायधीश की अधिकार सीमा पर ही सवाल उठा दिया। उन्होंने कहा कि सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं है कि वे जजों की संपत्ति की घोषणा और उसको सार्वजनिक करने के बारे में बात करें। उन्होंने यह भी कहा कि यह अवधारणा गलत है कि ऊंची अदालतों के जज अपनी संपत्ति को सार्वजनिक नहीं करना चाहते। उन्होंने कहा कि वे तो चाहते हैं कि उनकी सारी संपत्ति का ब्यौरा हाईकोर्ट की वेबसाइट पर डाल दिया जाय। जस्टिस कुमार की बात को न्यायविदों के बीच बहुत गंभीरता से लिया जा रहा है और उसकी तारीफ भी हो रही है। लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति के जी गोपालकृष्णन ने न्यायपालिका के आंतरिक मामलों की इस बहस को सार्वजनिक करने के न्यायमूर्ति कुमार के तरीके को ठीक नहीं माना और कहा कि इस तरह का आचरण एक जज के लिए ठीक नहीं है।

न्यायमूर्ति गोपालकृष्णन ने कहा लगता है कि कर्नाटक हाईकोर्ट के जज जस्टिस डीवी शैलेंद्र कुमार प्रचार के भूखे हैं। उन्होंने अपने बयान के बारे में बताया कि अगर कोई जज अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करना चाहता है तो उसे मैं नहीं रोकूंगा लेकिन जहां तक सभी जजों के बारे में बोलने के अधिकार की बात है, उसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत के मुख्य न्यायाधीश होने के नाते उन्हें यह अधिकार उपलब्ध है।

बाकी दुनिया की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी ऐसे ही होता है। जजों की संपत्ति के बारे में दबी जबान से चर्चा तो बहुत दिनों से चल रही थी लेकिन इस पर बहस नहीं होती थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले पर अपनी बात को मीडिया के माध्यम से बहस के दायरे में लाकर एक बहुत ही प्रशंसनीय काम किया है। कर्नाटक हाईकोर्ट के जज, जस्टिस कुमार ने बहस को अखबारी बहस का विषय बनाया तो कुछ अन्य जज अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर संपत्ति के इस विवाद में शामिल हो रहे हैं।

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति के कन्नन ने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर दी है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर सारी जानकारी डाल दी है। और सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को चिट्ठी लिखकर अपनी पत्नी और अपने नाम अर्जित की गई सारी संपत्ति का ब्यौरा दे दिया है। प्रशांत भूषण ही जजों के भ्रष्टाचार के बारे में आंदोलन चला रहे हैं। उधर चेन्नई से खबर है कि मद्रास हाईकोर्ट के एक जज भी अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं। इस सारे घटनाक्रम का स्वागत किया जाना चाहिए और देश को भारत के मुख्य न्यायाधीश का आभार व्यक्त करना चाहिए जिन्होंने इतने नाजुक मसले पर बहस का माहौल बनाया। इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता को बहुत ताकत मिलेगी।

Monday, August 24, 2009

बीजेपी के झूठ का भंडाफोड़

बीजेपी से निकाले जाने के बाद जसवंत सिंह ने बहुत सारी ऐतिहासिक सच्चाइयों से परदा उठाया है इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी की शिमला चिंतन बैठक में लिए गए फैसलों से जसवंत सिंह और बीजेपी का चाहे जो नुकसान हो, आम जनता का बहुत फायदा हुआ है। जसवंत सिंह वह सब कुछ बता रहे हैं जो अब तक बीजेपी के बड़े नेताओं को ही मालूम था। जसवंत सिंह ने बताया है कि 2002 में जब गुजरात में नरसंहार हुआ था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री, नरेंद्र मोदी को दंडित करने का फैसला किया था।

पूरी दुनिया की तरह गुजरात में हुई मुसलमानों की तबाही के लिए वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को ही जि़म्मेदार माना था लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी ने मोदी को बचाने के लिए अपनी सारी ताक़त लगा दी थी। उन्होंने वाजपेयी को चेतावनी दी थी कि अगर नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई कार्रवाई की तो बवाल हो जायेगा। अब तक बीजेपी के लोग यही बताते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ कार्रवाई न करने का फैसला सर्वसम्मति से हुआ था। जसवंत सिंह के कंधार विमान अपहरण कांड संबंधी बयान ने तो लालकृष्ण आडवाणी को कहीं का नहीं छोड़ा।

आडवाणी बार-बार कहते रहे थे कि कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान आतंकवादियों को सरकारी विमान से ले जाकर वहां पहुंचाने के फैसले की जानकारी उन्हें नहीं थी। उनके चेलों की टोली भी इसी बात को बार-बार दोहरा रही थी, प्रेस कांफ्रेंस, इंटरव्यू हर माध्यम का इस्तेमाल करके यही बात कही जा रही थी। इस बात में कोई शक नहीं कि लोग इस बात का विश्वास नहीं कर रहे थे। संसदीय लोकतंत्र में मंत्रिपरिषद की संयुक्त जि़म्मेदारी का सिद्घांत लागू होता है। इस लिहाज़ से भी यह बात गले नहीं उतर रही थी कि राष्ट्रहित या अहित से जुड़ा इतना बड़ा फैसला और उपप्रधानमंत्री को जानकारी तक नहीं। अगर यह सच होता तो उस वक्त की केंद्र सरकार अपनी सबसे बड़ी संवैधानिक जि़म्मेदारी का उल्लंघन करने का जुर्म कर रही होती।

लेकिन शुक्र है कि आडवाणी झूठ बोल रहे थे और उन्हें मालूम था कि जसवंत सिंह आतंकवादियों को छोडऩे कंधार जा रहे थे। एक राष्ट्र के रूप में हमें इस बात पर तो परेशानी होती कि आडवाणी को अंधेरे में रखकर अटल बिहारी वाजपेयी ने हमारे उप प्रधानमंत्री का अपमान किया लेकिन आडवाणी के झूठा साबित होने का हमें कोई ग़म नहीं है। झूठ बोलना कुछ लोगों की फितरत का हिस्सा होता है। जसवंत सिंह ने पार्टी से निकाले जाने के बाद आडवाणी के झूठ का भंडाफोड़ करके राष्टï्रीय मंडल महत्व का काम किया है। जसवंत सिंह ने एक और महत्वपूर्ण विषय पर बात करना शुरू कर दिया है।

उन्होंने आर एस एस वालों से कहा है कि उन्हें इस बात पर अपनी पोजीशन साफ कर देनी चाहिए कि उनका संगठन राजनीति में है कि नहीं। उन्होंने कहा कि आर.एस.एस. वाले आमतौर पर दावा करते रहते हैं कि वे राजनीति में नहीं हैं लेकिन बीजेपी का कोई भी फैसला उनके इशारे पर ही लिया जाता है। बीजेपी उनके मातहत काम करने वाली पार्टी है और अगर कभी आरएसएस की नापसंद वाला कोई फैसला बीजेपी के नेता ले लेते हैं तो उसे तुरंत वीटो कर दिया जाता है। ज़ाहिर है कि वीटो पावरफुल होता है। आरएसएस की सर्वोच्चता और बीजेपी की हीनता समकालीन राजनीतिक इतिहास में कई बार चर्चा का विषय बन चुकी है। 1978 में यह बहस समाजवादी विचारक मधु लिमये ने शुरू की थी। जनता पार्टी में जनसंघ के विलय के बाद जनसंघ के सारे नेता पार्टी में शामिल हो गए थे।

वाजपेयी आडवाणी और बृजलाल वर्मा मंत्री थे। ये लोग रोजमर्रा के प्रशासनिक फैसलों के लिए भी नागपुर से हुक्म लेते थे। इस बात को जनता पार्टी के नेता पसंद नहीं करते थे। मधु लिमये ने कहा कि जनता पार्टी का नियम है कि उसके सदस्य किसी और घटक के मंत्रियों को आरएसएस से रिश्ते खत्म करने पड़ेंगे क्योंकि आरएसएस एक राजनीतिक संगठन है। इन बेचारों की हिम्मत नहीं पड़ी और यह लोग साल भर की कशमकश के बाद जनता पार्टी से अलग हो गए। जसवंत सिंह ने भी उसी बहस को शुरू करने की कोशिश की है लेकिन अब इस बात में कोई दम नहीं है क्योंकि अब सबको मालूम है कि असली राजनीति तो नागपुर में होती है, यह राजनाथ सिंह, आडवाणी वग़ैरह तो हुक्म का पालन करने के लिए हैं।

जसवंत सिंह ने बीजेपी में भरती हुए संजय गांधी के पुत्र वरुण गांधी के गैऱ जि़म्मेदार नफरत भरे भाषण पर भी बीजेपी की सहमति का जि़क्र किया है। वरुण गांधी के नफरत आंदोलन के दौरान आडवाणी समेत सभी भाजपाई ऐसी बानी बोलते थे जिसका मनपसंद अर्थ निकाला जा सके। अब हम जसवंत के हवाले से जानते हैं कि वह उनकी रणनीति का हिस्सा था। यानी वरुण गांधी कोई मनमानी नहीं कर रहे थे बल्कि बीजेपी की नफरत की राजनीति में एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल हो रहे थे। जसवंत सिंह की इन बातों में कोई नयापन नहीं है।

सबको ठीक यही सच्चाई मालूम है लेकिन बीजेपी की तरफ से कोई अधिकारिक बात नहीं आ रही थी। अब उनकी गवाही के बाद बात बिल्कुल पक्की हो गई है लेकिन जसवंत सिंह का इससे कोई फायदा नहीं होने वाला है क्योंकि उनका खिसियाहट में दिया गया यह बयान इतिहास की यात्रा में एक क्षत्रिय की औकात भी नहीं रखता।

Friday, August 21, 2009

जसवंत बर्खास्त! आडवाणी क्यों नहीं?

बीजेपी ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने एक किताब लिखी है जिसमें पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह की तारीफ की है और उन्हें सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू की तुलना में ज्याद ऊंचा दर्जा दिया है। जहां तक जसवंत सिंह की किताब का प्रश्न है उसे कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा है, किताब में लिखी गई बहुत सी बातें ऐसी हैं, जिन्हें पढ़कर लगता है कि जसवंत सिंह बेचारे बहुत ही मामूली बौद्घिक स्तर के इंसान हैं। लगता है पढ़ाई लिखाई भी उनकी मामूली ही है क्योंकि पांच साल तक रिसर्च करके उन्होंने जो किताब लिखी है, वह बहुत ही मामूली है।

तथ्यों की तो बहुत सारी गलतियां हैं, और जो निष्कर्ष निकाले गए हैं वे बहुत ही ऊलजलूल है। ऐसा लगता है कि जसवंत सिंह भी इसी क्लास में पढ़ते थे जिसमें मुंगेरी लाल, तीस मार खां, शेख चिल्ली वगैरह ने नाम लिखा रखा था। बहरहाल उनकी किताब को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। इस बात में कोई शक नहीं है कि जसवंत सिंह की जिनाह वाले निष्कर्ष का मुकाम डस्टबिन है और रिलीज होने के साथ वह अपनी मंजिल हासिल कर चुका है लेकिन उनकी पार्टी में इस किताब ने एक तूफान खड़ा कर दिया है। शिमला में शुरू हुई बीजेपी की चिंतन बैठक में शुरू में ही जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया।

मामले को नागपुर मठाधीशों ने भी बहुत गंभीरता से लिया और राजनाथ सिंह को आदेश हो गया कि जसवंत सिंह को पार्टी से निकाल बाहर करो। राजनाथ सिंह वैसे तो पार्टी के अध्यक्ष हैं लेकिन उनकी छवि एक हुक्म के गुलाम की ही है और जसवंत सिंह बहुत ही बे आबरू होकर हिंदुत्व वादी पार्टी से निकल चुके हैं। जसवंत सिंह का बीजेपी से निष्कासन पार्टी के आंतरिक जनतंत्र पर भी सवाल पैदा करता है अपराध के कारण उन्हें बीजेपी से बाहर किया गया। तो क्या पाकिस्तान के संस्थापक की तारीफ करने वालों को बीजेपी से निकाल दिया जाता है। जाहिर है यह सच नहीं है। अगर ऐसा होता तो लालकृष्ण आडवाणी कभी के बाहर कर दिए गए होते।

जसवंत सिंह पर तो आरोप है कि उन्होंने अपनी किताब में जिनाह की तारीफ की है, आडवाणी तो उनकी कब्र पर गए थे और बाकायदा माथा टेक कर वहां खड़े होकर मुहम्मद अली जिनाह की शान में कसीदे पढ़े थे और पाकिस्तान के संस्थापक को बहुत ज्यादा सेकुलर इंसान बताकर आए थे। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन दिनों आरएसएस की ताकत इतनी कमजोर थी कि वह अपने मातहत काम करने वाली बीजेपी पर लगाम नहीं लगा सकता था। इस हालत में लगता है कि जसवंत के निकाले जाने में जिनाह प्रेम का योगदान उतना नहीं है, जितना माना जा रहा है। अगर ऐसा होता तो आडवाणी का भी वही हश्र होता जो जसवंत सिंह का हुआ।

लगता है कि पेंच कहीं और है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी में आडवाणी गुट की ताकत की धमक ऐसी थी कि आर एस एस वालों की हिम्मत नहीं पड़ी कि उन्हें पार्टी से निकालने की कोशिश करें। डर यह था कि अगर आडवाणी को बाहर किया तो उनके गुट के लोग बाहर चले जाएंगे। जसवंत सिंह को दिल्ली की राजनीतिक गलियों में अटल बिहारी वाजपेयी के आखाड़े का पहलवान माना जाता है। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जसवंत सिंह को महत्व भी खूब दिया था। मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण विभाग भी मिला था उन्हें जब कंधार जाकर आतंकवादियों को छोडऩे की बात आई तो वही भेजे गए थे। वे वाजपेयी गुट के भरोसेमंद माने जाते हैं।

आजकल वाजपेयी गुट के नेता लोग परेशानी में हैं। कहीं ऐसा नही कि वाजपेयी की बीमारी के कारण उनके गुट के कमजोर पड़ जाने की वजह से आडवाणी के चेलों ने आरएसएस के कंधे पर बंदूक चला दी हो और राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में आडवाणी को सबसे ऊंचा बनाने की कोशिश हो। जसवंत सिंह की किताब में नेहरू की निंदा की गई है। इसे संघी राजनीति की गिजा माना जाता है। लेकिन जसवंत बाबू ने साथ में सरदार पटेल को भी लपेट लिया, उनको भी जिनाह से छोटा करार दे दिया। यह बात बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति के खिलाफ जाती है। भगवा ब्रिगेड की पूरी कोशिश है कि सरदार पटेल को अपना नेता बनाकर पेश करें। ऐसा इसलिए कि आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस और उसके मातहत संगठनों के किसी नेता ने हिस्सा नहीं लिया था।

उनकी पूरी कोशिश रहती है कि ऐसे किसी भी आदमी को अपनी विचार धारा का बनाकर पेश कर दें जो नेहरू परिवार के मुखालिफ रहा हो। सरदार पटेल की यह छवि बनाने की नेहरू विरोधियों की हमेशा से कोशिश रही है। हालांकि यह बिलकुल गलत कोशिश है लेकिन संघी बिरादरी इसमें लगी हुई है। इसी तरह एक बार आरएसएस वालों ने कोशिश की थी कि सरदार भगत सिंह को अपना लिया जाय। साल-दो साल कोशिश भी चली लेकिन जब पता चला कि भगत सिंह तो कम्युनिस्ट पार्टी में थे तबसे यह कोशिश है कि सरदार पटेल को अपनाया जाय लिहाजा उनके खिलाफ अभी कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।

इस बीच खबर है कि उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेता कलराज मिश्र ने जसवंत सिंह की बर्खास्तगी का विरोध किया है। उनका कहना है कि जसवंत सिंह ने जो भी कहा है वह तथ्यों पर आधारित है इसलिए उनको हटाने की बात करना ठीक है। अगर इस बात में जरा भी दम है तो इस बात में शक नहीं कि बीजेपी के दो टुकड़े होने वाले हैं।

अकाल का खतरा और मीडिया की ज़िम्मेदारी

देश में सूखा पड़ गया है, खेती चौपट हो चुकी है। खरीफ की फसल के लेट होने वाली बारिश से संभलने की उम्मीद दम तोड़ चुकी है। जिसके पास कुछ पैसे नौकरी या व्यापार का सहारा होगा उनको तो भरपेट खाना मिलेगा वरना रबी की फसल तैयार होने तक भारत के गांवों में रहने वालों का वक्त बहुत ही मुश्किल बीतने वाला है।

नई दिल्ली में सभी राज्यों के कृषि मंत्रियों का सम्मेलन बुलाया गया था जिसमें केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने बताया कि 10 राज्यों के 246 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया जा चुका है। अभी और भी जिलों के इस सूची में शामिल किये जाने की बात भी सरकारी स्तर पर की जा रही है। इसका मतलब यह हुआ कि धान की पैदावार में करीब 170 लाख टन की कमी आ सकती है। इस सम्मेलन में बहुत सारे आंकड़े प्रस्तुत किए गए और सरकारी तौर पर दावा किया गया कि खाने के अनाज की कुल मात्रा में जितनी कमी आएगी उसे पूरा कर लिया जायेगा।

सारा लेखा जोखा बता दिया गया और यह बता दिया गया कि सरकार 60 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी खर्च करके मंहगाई को काबू में कर लेगी। कृषि मंत्रियों के सम्मेलन की खबर ज्यादातर अखबारों में छपी है। लगभग सभी खबरों में तोता रटन्त स्टाइल में वही लिख दिया गया है जो सरकारी तौर पर बताया गया। सारी खबरें सरकारी पक्ष को उजागर करने के लिए लिखी गई हैं, जो बिलकुल सच है। लेकिन एक सच और है जो आजकल अखबारों के पन्नों तक आना बंद हो चुका है।

वह सच है कि भूख के तरह-तरह के रूप अब सूखा ग्रस्त गांवों में देखे जायेंगे लेकिन वे खबर नहीं बन पाएंगे। खबर तब बनेगी जब कोई भूख से तड़प तड़प कर मर जायेगा। या कोई अपने बच्चे बेच देगा या खुद को गिरवी रख देगा। भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इंतहा है। लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं, भूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है।

इन आंकड़ाबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत है कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेर कर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करें, इसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता है, तभी इस देश का नेता और पत्रकार जगता है। गांव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता।

कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांग कर नहीं खाता। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि गांव का गरीब, सरकारी लापरवाही के चलते मानसून खराब होने पर भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषिव्यवस्था नए शासकों को मिली थी, वह लगभग आदिम काल की थी।

जवाहरलाल नेहरू को उम्मीद थी कि औद्योगिक विकास के साथ-साथ खेती का विकास भी चलता रहेगा। लेकिन 1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा। उस साल उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गईं थी। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल, अयूब ने भी हमला कर दिया। युद्घ का समय और खाने की कमी। बहरहाल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।

अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आवाहन किया कि सभी लोग एक दिन का उपवास रखें। यानी मुसीबत से लडऩे के लिए हौसलों की ज़रूरत पर बल दिया। लेकिन भूख की लड़ाई हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है। लेकिन भूख सब कुछ करवाती है। अमरीका से पी एल 480 योजना के तहत मंगाये गए गेहूं की रोटियां किस रबड़ की तरह होती हैं।

केंद्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम है कि गांव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहां अनाज खरीदने या मांगने जाता है, तो कितनी बार मरता है, अपमान के कितने कड़वे घूंट पीता है। इन्हें कुछ नहीं मालूम और न ही आज के तोता रटंत पत्रकारों को जरूरी लगता है कि गांव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन कोल्हू के बैल नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएं। गांव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक महापुरुष ने समझा था।

1967 में कृषि मंत्री रहे सी सुब्रमण्यम ने अपनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को यह सच्चाई समझाई थी। उनके प्रयासों से ही खेती को आधुनिक बनाने की कोशिश शुरू हुई, इस प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन का नाम दिया गया। लीक से हटकर सोच सकने की सुब्रमण्यम की क्षमता और उस वक्त की प्रधानमंत्री की राजनीतिक इच्छा शक्ति ने अन्न की पैदावार के क्षेत्र में क्रांति ला दिया। खेती से संबंधित हर चीज में सब्सिडी का प्रावधान किया गया। बीज, खाद, कृषि उपकरण, निजी ट्यूबवेल, डीजल, बिजली सब कुछ सरकारी मदद के लायक मान लिया गया। भारत के ज्यादातर किसानों के पास मामूली क्षेत्रफल की जमीनें हैं। भूमि की चकबंदी योजनाएं शुरू हुईं और किसान खुशहाल होने लगा।

लेकिन जब इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आईं तब तक देश में लुंपन राज आ चुका था और गांव के गरीब की खैरियत जानने वाला कोई नहीं था। पिछले 35 वर्षों में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि दिल्ली में बैठा राजनीतिक और नौकरशाह भाग्यविधाता, ग्रीन रिवोल्यूशन की परंपरा के बारे में नहीं सोचता। सुना तो यहां तक गया है कि खाद पर मिलने वाली सब्सिडी को राजनीतिक आकाओं की कृपा से फैक्टरी मालिक सीधे हड़प कर जा रहे हैं, किसानों को उसमें से कुछ नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में ज़रूरत इस बात की है कि सूचना क्रांति के हथियारों का इस्तेमाल करके राजनीतिक महाप्रभुओं को सच्चाई का आईना दिखाया जाय और यह काम मीडिया को करना है।

भूख से तड़प तड़प कर मरते आदमी को खबर का विषय बनाना तो ठीक है लेकिन उस स्थिति में आने से पहले आदमी बहुत सारी मुसीबतों से गुजरता है और आम आदमी की मुसीबत की खबर लिखकर या न्यूज चैनल पर चलाकर पत्रकारिता के बुनियादी धर्म का पालन हो सकेगा क्योंकि हमेशा की तरह आज भी आम आदमी की पक्षधरता पत्रकारिता के पेशे का स्थायी भाव है।

Thursday, August 20, 2009

विदेश मंत्रालय की फिल्म- कोई देख नहीं सका


कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।


वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।


आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।


वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।


सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।


अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।


इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।


अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।


उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।


इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।


सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।


गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।


1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।




वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।


शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।


उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।


बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।


1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।


कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।


आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में

उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

गंगा जमुना के दो आब में जन्मी और विकसित हुई इस जबान की ऐतिहासिक यात्रा के बारे में विदेश मंत्रालय की ओर से एक बहुत अच्छी फिल्म बनाई गई है। इस फिल्म का नाम है, ''उर्दू है जिसका नाम'। इसके निर्देशक हैं सुभाष कपूर। फिल्म की अवधारणा, शोध और कहानी सुहैल हाशमी की है। इस फिल्म में संगीत का इस्तेमाल बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया गया है जिसे प्रसिद्घ गायिका शुभा मुदगल और डा. अनीस प्रधान ने संजोया है। शुभा की आवाज में मीर और ग़ालिब की गज़लों को बिलकुल नए अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।


फिल्म पर काम 2003 में शुरू हो गया था और 2007 में बनकर तैयार हो गई थी। अभी तक दूरदर्शन पर नहीं दिखाई गई है। इस फिल्म के बनने में सुहैल हाशमी का सबसे ज्य़ादा योगदान था और आजकल वे ही इसे प्राइवेट तौर पर दिखाते हैं। पिछले दिनों प्रेस क्लब दिल्ली में कुछ पत्रकारों को यह फिल्म दिखाई गई। मैंने भी फिल्म देखी और लगा कि उर्दू के विकास की हर गली से गुजर गया।

Wednesday, August 19, 2009

जंतर-मंतर मरने पहुंचे हैं गोपाल राय

यशवंत सिंह
गोपाल राय पिछले 9 दिन से बिना खाये-पिये जंतर-मंतर पर लेटे हैं। आमरण अनशन कर रहे हैं वे। मित्र हैं। इलाहाबाद में बीए के दिन से। छात्र राजनीति में साथ-साथ सक्रिय हुए थे हम दोनों। बाद में मैं बीएचयू चला गया था और वो लखनऊ विवि। संगठन के होलटाइमर भी साथ-साथ ही बने थे। करीब-करीब साथ-साथ ही संगठन से मोह भी टूटा था। किसी भी तरह का गलत होते न देख पाने वाले गोपाल राय लखनऊ विश्वविद्यालय में गुंडों से हर वक्त टकराया करते थे। उनके व्यक्तित्व में अदम्य साहस और आत्मविश्वास है। भय से तो भाई को तनिक भी भय नहीं लगता। चट्टान की तरह अड़ जाता है।

अब गोपाल राय को कौन समझाए कि दिल्ली में रहने वाले 99 फीसदी लोग सिर्फ पेट के लिए जीते-मरते हैं। इनका किसी से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। संवेदना शब्द अब गरीबों व गांववालों के लिए आरक्षित कर दिया गया है। बाजार का नशा महानगरों पर इस कदर चढ़ा है कि अगर कोई थोड़ा भी सिद्धांत की बात करता मिल जाए तो लोग उसे फालतू मानकर दाएं-बाएं निकल लेते हैं। ऐसे में गोपाल का किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर आमरण अनशन करना, थोड़ा चौंकाता है, लेकिन यह भरोसा भी दिलाता है कि कुछ पगले किस्म के लोग अब भी विचारों को जीते हैं और देश-समाज की चिंता करते हुए जान न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं।

गोपाल राय से मिलने इसलिए नहीं गया था कि वे किसी महान काम में लगे हैं, इसलिए भी नहीं गया था कि आमरण अनशन के 9वें दिन में प्रवेश करने से उनके स्वास्थ्य को लेकर मुझे विशेष चिंता हो रही थी। सही कहूं तो मैं भी धीरे-धीरे दिल्ली वाला हो रहा हूं, इसलिए बहुत देर तक इमोशन में न फंस पाने की प्रवृत्ति डेवलप हो रही है। गोपाल राय के यहां सिर्फ इसलिए गया था कि इस दिल्ली में जिन दो-चार बहादुर लोगों को देखा है, उसमें पुराने मित्र गोपाल राय भी हैं। गोली लगने के कारण अस्वस्थ रहने वाले शरीर की वजह से ठीक से चल भी नहीं पाते लेकिन गोपाल राय न तो पहले और न अब, कभी छिछले नहीं हुए, कभी औसत नहीं बने, कभी बेचारे बनकर पेश नहीं हुए, कभी किसी तरह की याचना नहीं की। कितने भी दर्द-दुख में रहें, कभी मुस्कराहट नहीं खत्म की।

दोस्ती की वजह से उनसे मिलने जंतर-मंतर गया।
जंतर-मंतर पहुंचा तो टीवी न्यूज चैनलों की ओवी वैन देख माथा ठनका, माजरा क्या है? पता चला कि महंगाई पर भाजपा का कोई कार्यक्रम है जिसमें राजनाथ सिंह आने वाले हैं। संतोष हुआ। चैनल वाले कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, सही रास्ते पर हैं। वरना जंतर-मंतर को अब पूछता कौन है। गोपाल राय सरीखे दर्जनों आंदोलनकारी जंतर-मंतर पर अपने जिनुइन मुद्दों को लेकर बैठे रहते हैं हैं, उधर किसी को देखने की फुर्सत नहीं है। लेकिन अगर राजनाथ सिंह जंतर-मंतर टहलने भी पहुंच जाएं तो उन्हें कवर करने मीडिया का मेला पहुंच जाएगा।


इतिहास का जो चारण-भाट दौर था, उसमें भी लेखक-बुद्धिजीवी सिर्फ बड़े राजाओं-महाराजाओं-राजकुमारों-महारानियों-राजकुमारियों-मंत्रियों मतलब कुलीन लोगों के बारे में ही लिखते-पढ़ाते थे। आम जन की स्थिति के बारे में कलम चलाने वाला कोई नहीं था। पूंजीवाद और विज्ञान के विकास ने इतिहास को जड़ों से जोड़ा लेकिन अबका जो चरम पूंजीवाद, बोले तो, बाजारवाद है, वह फिर से इतिहास को पलट रहा है।

देश में अकाल पड़ा हुआ है, लोग भूखों मर रहे हैं, इस पर टीवी वालों को प्राइम टाइम में स्पेशल स्टोरीज चलानी चाहिए, अपनी विशेष टीमें अकालग्रस्त इलाकों की ओर रवाना करनी चाहिए पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। डाउन मार्केट कहकर आंदोलन, सूखा, अकाल, मंहगाई सबको खारिज किया जा रहा है। अगर इन्हें पकड़ा भी जा रहा है तो सिर्फ बड़े नेताओं के बयानों के जरिए। पीएम ने बयान दे दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया। राजनाथ ने विरोध कर दिया। उसे छाप दिया। दिखा दिया। बस हो गया।

यही है मीडिया?
गोपाल भाई से अनुरोध किया- अंधों की नगरी में हरियाली लाने के लिए काहे जान दे रहे हैं, ये अनशन-वनशन खत्म करिए। जान है तो जहान है। आजकल यही फंडा है।
इतना सुनकर गोपाल सिर्फ मुस्कराए और बोले- आप बस इतना करा दीजिए कि यह मसला सौ-पचास नए लोगों तक पहुंच जाए, तो समझिए आपकी सफलता है, बाकी मेरी जान की चिंता छोड़िए। मेरे रहने न रहने से क्या फरक पड़ता है।

मैं चुप रह गया।

सोचा, आज जितना भी बिजी रहूं, लेकिन गोपाल भाई पर जरूर कुछ न कुछ लिखूंगा। सो, लिख रहा हूं।
लेकिन मन में कष्ट भी है। गोपाल भाई टाइप लोग कितने हैं इस देश में। ज्यादातर तो मुखौटाधारी हैं, हिप्पोक्रेट हैं, पाखंडी हैं, जो आंदोलन व विचारधारा को पैसा कमाने और बेहतर जीवन जीने का जरिया बनाए हुए हैं या बनाने की फिराक में हैं। कई आंदोलनों को करीब से देख चुका हूं। किस तरह अपने निजी इगो की भेंट आंदोलनों को चढ़ा दिया जाता है, इसका गवाह रहा हूं। किस तरह उन्हीं जोड़-तोड़ व समीकरणों को आंदोलनों में आजमाया जाने लगता है जिनके खिलाफ आंदोलन शुरू किया जाता है, इसे सुन-समझ चुका हूं।

लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि संगठन व आंदोलन गैर-जरूरी हैं। दरअसल, सही कहूं तो मुझे भी लगता है कि इस देश व दुनिया को अगर बचा पाएंगे तो ये जनांदोलन ही। ये जनांदोलन कब, किससे व किसलिए शुरू होंगे या हो रहे हैं, कहा नहीं जा सकता। वरना देश-दुनिया का कबाड़ा करने की पूरी तैयारी इस देश-दुनिया के कुलीन व अभिजात्य लोग कर चुके हैं।


अगर आपको भी लगे कि गोपाल भाई के आंदोलन को सपोर्ट करना है तो आप जंतर-मंतर पर जाकर
उनसे मिल सकते हैं, गोपाल के आंदोलन को अपने अखबार या टीवी में जगह दे सकते हैं, गोपाल भाई को फोन या मेल कर अपना नैतिक समर्थन व्यक्त कर सकते हैं। शायद, संभव है, हम कुछ लोगों के ऐसा करने से ही गोपाल जैसे जिद्दी और धुन के धनी लोग इस बुरे समय में भी अपने जन की बेहतरी के लिए लड़ने का हौसला कायम रख सकें।

एक बार फिर, गोपाल भाई के हौसले को सलाम।