Wednesday, October 16, 2013

अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान की अरदब में ,कांग्रेसियों को जिताने के लिए काम करेगें

शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१५ अक्टूबर . छत्तीसगढ़ की चुनावी राजनीति में भारी परिवर्तन हुआ है . अब तक कांग्रेस के हर नेता को दरकिनार करके खुद और अपने परिवार को सुर्ख़ियों में रखने की कोशिश कर रहे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अब आलाकमान के सुझाव मान गए हैं . खबर है कि कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें भरोसा दिला दिया है कि अगर कांग्रेस की जीत हुई तो मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी को प्राथमिकता दी जायेगी .  बताया गया है कि अजीत जोगी भी अब इस बात पर राजी हो  गए हैं कि वे राज्य में मुख्यमंत्री रमन सिंह को सत्ता से बाहर करने के लिए पूरा प्रयास करेगें. जोगी को अब कांग्रेस आलाकमान ने काबू में कर लिया है और  उन्होंने भी वचन दिया है कि अब वे कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने के लिए कोई काम नहीं करेगें . भरोसेमंद सूत्रों ने बताया है कि राहुल गांधी के बहुत ही विश्वासपात्र कांग्रेस नेताओं की सलाह पर अजीत जोगी को साथ रख कर चलने की रणनीति बनायी गयी है . अजीत जोगी को कांग्रेस के सर्वोच्च स्तर से बता दिया गया है कि अगर पार्टी जीतेगी तो उनकी संभावना अच्छी रहेगी लेकिन अगर पार्टी की हालत ही खराब हो जायेगी तो उनके सपनों को भी भारी झटका लगेगा.
जब से अजीत जोगी ने सार्वजनिक रूप से छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के इंचार्ज महासचिव बी के हरिप्रसाद को हडकाया था तब से ही यह चर्चा  चल पडी थी कि अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान की उन नीतियों और योजनाओं को नहीं चलने देगें जो उनकी रजामंदी से नहीं चलाई जायेंगीं . उन्होंने कांग्रेस पार्टी के औपचारिक कार्यक्रमों से अलग अपने दफ्तर से तरह तरह के राजनीतिक बयान देना शुरू कर दिया था . उन्होंने दिग्विजय सिंह सहित हर उस कांग्रेसी नेता के खिलाफ खुसुर फुसर अभियान चला दिया था जो उनकी बात नहीं मान रहा था. कांग्रेस के अंदर यह चर्चा  भी चल निकली थी कि अजीत जोगी को पार्टी से अलग कर दिया जायेगा .लेकिन अब उन सब बातों पर विराम लग गया है . राहुल गांधी और सी पी जोशी ने अजीत जोगी को बता दिया है कि अगर पार्टी के साथ रहोगे तो आगे चल कर फायदा होगा लेकिन अगर कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने की कोशिश करेगें तो कहीं के नहीं रह जायेगें . अजीत  जोगी को यह भी साफ़ बता दिया गया है कि टिकट वितरण में उनका कोई दखल नहीं स्वीकार किया जायेगा . हाँ ,उनके बेटे और पत्नी के टिकट के बारे में सकारात्मक तरीके से विचार किया जा सकता है . लेकिन उनके या किसी और के कहने पर किसी को टिकट नहीं दिया जाएगा . हालांकि वे अपने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि टिकट वितरण में उनसे सलाह ली जायेगी लेकिन जब वे छत्तीसगढ़ मामलों के कांग्रेस के सबसे महत्वपूर्ण नेता से  मिले तब उनको अंदाज़  हो गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है . टिकट वितरण शुद्ध रूप से कम्प्युटर में  फीड किये गए आंकड़ों के आधार पर किया जा रहा  है . पहली खेप में जो १८ टिकट घोषित किये गए हैं उनमें ९ विधायकों को टिकट देने की बात राज्य के नेताओं और अन्य लोगों की तरफ से की गयी थी लेकिन अंत में केवल तीन मौजूदा विधायकों की टिकट ही बच सकी ,बाकी सबके टिकट काट दिए गए.
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Tuesday, September 17, 2013

नार्वे में फोकस इंडिया-----ओस्लो विश्वविद्यालय में दलित राजनीति पर सेमीनार



शेष नारायण सिंह


ओस्लो विश्वविद्यालय में फोकस इंडिया  के तहत आयोजित ‘ भारत में जाति ‘ विषय पर आयोजित सेमीनार सितम्बर के दूसरे हफ्ते में संपन्न हो गया. एकेडमिक आयोजन था . ज़ाहिर है इससे उम्मीद की जानी चाहिए कि यह भविष्य की राजनीति के लिए मैटर उपलब्ध कराएगा . लेकिन सेमीनार का स्तर ऐसा नहीं था जिस से ऐसी कोई उम्मीद की जा सके. कहने को सेमीनार जाति पर आयोजित किया गया था लेकिन सारी बात मूल रूप से दलित राजनीति के आस पास ही मंडराती रही. जो दूसरा अजूबा था वह यह कि कुल १० पर्चे पढ़े गए जिसमें से  ६ पर्चे बंगाल के दलितों के इतिहास  भूगोल पर  आधारित थे.  २ उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति की बात कर रहे थे , एक पर्चा जे एन यू के दलित छात्रों की राजनीति पर केंद्रित था और एक परचा ऐसा था जिसको अखिल भारतीय रंग दिया जा सकता है . डॉ अम्बेडकर को दलित राजनीति के सिम्बल के रूप में  स्थापित होने की प्रक्रिया का  विश्लेषण किया गया था ,यह पर्चा नार्वे के बर्गेन विश्वविद्यालय के प्रो.दाग एरिक बर्ग था और प्रो. बर्ग की वार्ता से साफ़ नज़र आया कि उन्होने अपने विषय की गंभीरता के साथ न्याय किया  है .

इस सेमीनार का पहला पर्चा न्यूजीलैंड के विक्टोरिया विश्वविद्यालय के डॉ शेखर बंद्योपाध्याय ने प्रस्तुत किया. देश के बँटवारे के साथ साथ बंगाल की राजनीति में अनुसूचित जातियों की राजनीति और उससे जुडी समस्याओं का विषद विवेचन किया गया . उन्होंने अपनी तर्कपद्धति से साफ़ कर दिया कि यह धारणा गलत  है कि बंगाल में वर्ग की अवधारणा इतनी ज़बरदस्त जड़ें जमा चुकी है कि  जाति पार अब राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श होना बेमतलब हो गया है . उन्होने २००४ के मिड डे मील विवाद के हवाले से बताया कि कई जिलों में ऊंची जाति के लोगों ने अपने बच्चों को वह खाना खाने से रोक दिया था जिसे दलित जातियों के लोगों ने पकाया था.  उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि देश के विभाजन के बाद अनुसूचित जातियों के संगठित आंदोलन पर ब्रेक लग गयी थी और इसीलिये यह मिथ पैदा किया जा सका कि बंगाल में जाति का कोई मतलब नहीं होता . अविभाजित बंगाल में संगठित दलित आंदोलन में दो वर्गों की प्रमुखता थी . नामशूद्र और राजबंशी नाम से दलितों की पहचान होती थी . नामशूद्रों का इलाका पाकिस्तान में चला गया और जब वे १९५० के बाद भारत आने लगे तो उनके नेताओं का ध्यान मुख्य रूप से उनके पुनर्वास पर केंद्रित हो गया और जाति का सवाल दूसरे नंबर पर चला गया . वे पश्चिम बंगाल में शरणार्थी के रूप में पहचाने जाने लगे . उनको फिर से बसाने की समस्या मूल हो गयी , बाकी बातें बहुत पीछे छूट गयीं .जब उनकी आबादी ही तितर बितर हो गयी तो संगठित होने की बात बहुत दूर की कौड़ी हो गयी .  शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में दलितों  और मुसलमानों के जिस सहयोग को पूर्वी बंगाल की राजनीति का आधार माना जाता था ,उसके तहस नहस होने की बात को भी समझाने की कोशिश की गई है . उनका निषकर्ष यह है कि आज भी दलितों की जाति आधारित पहचान का मुद्दा जिंदा है और तृणमूल कांग्रेस ने दलितों के मूल नेता , पी आर ठाकुर के एक बेटे को साथ लेकर चुनावी राजनीतिक सफलता हासिल की है .

सेमीनार का दूसरा पर्चा एमहर्स्ट कालेज के द्वैपायन सेन का था. उन्होंने पश्चिम बंगाल की राजनीति से जाति के सवाल के गायब होने की बौद्धिक व्याख्या करने की कोशिश की और दावा किया कि  विभाजन पूर्व बंगाल की दलित राजनीति का बड़े नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के हवाले से पश्चिम बंगाल में दलित राजनीति के विभिन्न आयामों की पड़ताल की गयी है लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि उनके ठीक पहले  प्रो. शेखर बंद्योपाध्याय का  विद्वत्तापूर्ण पर्चा पढ़ा जा चुका था .इसलिए उनके पूरे भाषण  के दौरान ऐसा लगता रहा कि डॉ द्वैपायन सेन या तो पहले पर्चे की बातों को दोहरा रहे हैं और या तो पूरी तरह से रास्ता भटक गए हैं . दलित जातियों की राजनीति को बैकबर्नर  पर रखने के लिए उन्होने कभी कांग्रेस तो कभी कम्युनिस्टों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए निर्धारित  बीस मिनट का समय पार कर लिया . यही उनके पर्चे की सबसे बड़ी उपलब्धि नज़र आयी .

नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की राजनीति में दलितों की भूमिका पर केंद्रित लिथुआनिया के एक विश्वविद्यालय की विद्वान  क्रिस्टीना गार्लाइते ने पर्चा पढ़ा . उन्होने  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पहचान की राजनीति के विभिन्न स्वरूपों की  चर्चा की .कुछ समय  तक  यूनिवर्सिटी के अंदर चली दलित राजनीति की गतिविधियों का बहुत ही अच्छा वर्णन क्रिस्टीना ने प्रस्तुत किया . जे एन यू के दलित प्राध्यापकों की राजनीति की परतों का भी बिलकुल सटीक विश्लेषण किया और यह भी लगभग साबित कर दिया कि कैम्पस में मौजूद दलित छात्र तो बहुत कम समय के लिए आते हैं लेकिन यहाँ जमे हुए प्राध्यापक उनको अपनी मुकामी राजनीति को चमकाने के लिए कैसे इस्तेमाल करते हैं . बिना नाम लिए हुए उन्होंने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों , कांग्रेस , बीजेपी, बी एस पी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सी पी आई ( एम एल ) के जे एन यू कैम्पस में मौजूद एजेंटों की भी अच्छी तरह से निशानदेही की .हालांकि क्रिस्टीना ने अपने पर्चे में यह बातें शिष्टाचार की सीमा में रहकर ही की थीं लेकिन जब श्रोताओं में मौजूद जे एन यू की कुछ पूर्व छात्राओं ने बात को आगे  बढ़ाया  तो कई परतें  खुल गयीं . साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों की जो पोल जे एन यू की बीफ एंड पोर्क फेस्टिवल ने खोली थी वह भी एक बार सेमीनार के कक्ष में जिंदा  हो उठा और यह भी सामने आ गया कि किस तरह से कोर्ट के दखल के बाद ही  इस फेस्टिवल को रोका जा सका था.उस्मानिया विश्वविद्यालय में हुए उपद्रव का भी ज़िक्र हुआ और दलित राजनीतिक अस्मिता की एक अहम पहचान के रूप में किस तरह से इस कार्यक्रम को जे एन यू कैम्पस में पहचाना  गया .इस फेस्टिवल ने किस तरह से विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से वफादारी रखने वाले लोगों को  एक्स्पोज़ किया ,यह भी चर्चा के दौरान  सामने आया .

अमरीका के विश्वविख्यात शोध केन्द्र एम आई टी से आये अक्षय मंगला ने सर्वशिक्षा अभियान को उत्तर प्रदेश में शिक्षा और  जाति की राजनीति से जोड़ने की कोशिश की और लगा कि उन्होने अपने पर्चे को बिना  तैयारी के ही पेश कर दिया है . उन्होंने सर्वशिक्षा अभियान जैसे केन्द्र सरकार के आयोजन  को इस तरह से पेश किया जैसे वह उत्तर प्रदेश सरकार का ही कार्यक्रम हो . एक बार भी उन्होंने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि यह  केन्द्र सरकार की योजना है . सर्व शिक्षा अभियान बहुत बड़े पैमाने पर हेराफेरी का कार्यक्रम भी है इसका भी ज़िक्र नहीं हुआ.  उन्होंने सहारनपुर जिले के एक गाँव और उसके आस पास के कुछ गाँवों के आंकड़ों के सहारे कुछ साबित करने की कोशिश की लेकिन अंत तक समझ में  नहीं आया कि  बहुत बड़े पैमाने पर सामान्यीकरण करने की उनको क्या जरूरत  थी .  उन्होने दावा  किया कि शिक्षा के क्षेत्र में जो नौकरशाही सक्रिय है उसमें  ब्राह्मणों का एकाधिकार है . इस नौकरशाही में  उन्होने ग्राम प्रधान से लेकर शिक्षामंत्री तक को शामिल बताया .  जब उनसे पूछा गया कि  पंचायत चुनावों में और सरकारी नौकरियों में जो ५० प्रतिशत का रिज़र्वेशन है उसके बाद भी ब्राह्मणों का एकाधिकार कैसे बना हुआ है , तो वे बात को टालने की कोशिश करते नज़र आए. हालांकि इसके पहले ही उनकी बुनियादी अवधारणा  चकनाचूर हो चुकी थी. यह बात उनको भी मालूम है कि इतने जागरूक श्रोता वर्ग के बीच कोई असंगत बात कहकर पार पाना कितना मुश्किल होता है . वे  यह भी नहीं स्पष्ट कर पाए कि केवल सहारनपुर के एक  उदाहरण से वे पूरे उतर प्रदेश के बारे में कोई भी बात इतने अधिकारपूर्वक कैसे कह  सकते हैं ,

अगला पर्चा नार्वेजियन  इंस्टीट्यूट आफ इंटरनैशनल अफेयर्स की  डॉ. फ्रांसेस्का येंसीनियस का था. उनके पर्चे का टापिक था, ‘ अनुसूचित जाति के नेताओं के  बारे में धारणा, : उत्तर प्रदेश से सर्वे साक्ष्य ‘ . कानपुर देहात के जिले के रसूलाबाद और औरैया जिले के औरैया विधानसभा क्षेत्रों के कुछ आंकड़ों के आधार पर उन्होने अपनी बात समझाने की कोशिश की .. दोनों क्षेत्र बिलकुल आसपास हैं और पूरे उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जातियों के नेताओं के बारे में  आम आदमी की राय को समझने के लिए एक ही इलाके के दो विधानसभा क्षेत्रों  को क्यों चुना गया यह बात श्रोताओं  में मौजूद बहुत लोगों की समझ में नहीं आयी. दोनों विधानसभा क्षेत्रों  के बीच की दूरी करीब ५० किलोमीटर से भी कम है .  सर्वे के लिए सैम्पल चुनने में इस पर्चे में भी वही विसंगति थी जो सर्वशिक्षा अभियान वाले पर्चे में केवल सहारनपुर को चुनकर की गयी थी. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के बारे में कोई भी अनुमान निकालने के पहले यह देखना ज़रूरी होता है उसके पूर्वी , मध्य और पश्चिमी भाग की राजनीतिक भौगोलिक हालात बिलकुल अलग अलग हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया , गोरखपुर आदि जिलों , मध्य उत्तर प्रदेश के कानपुर इटावा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ,मेरठ जिलों की राजनीतिक सामाजिक सच्चाई कई बार एक द्दूसरे के बिलकुल खिलाफ होती है . लेकिन जब उन्होंने बताया कि कानपुर के किसी कालेज के एक प्रोफ़ेसर साहेब ने उनके लिए  आंकड़ों का संकलन करवाया था ,तब बात समझ में आ गयी कि अपनी सुविधा के हिसाब से अपने आसपास के इलाकों का सर्वे करवा कर इन प्रोफ़ेसर  साहेब ने काम निपटा दिया था. फ्रान्सेसका की शोध पद्धति और आंकड़ों की तुलना का तरीका बहुत ही अच्छा था लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सच्चाई से वाकिफ कोई भी व्यक्ति बता देगा कि दलित राजनेताओं के बारे में उन्होंने जो भी निष्कर्ष निकाले , वे किसी भी हालात में विश्वसनीय नहीं हैं .

सेमीनार को बंगाल और उत्तर प्रदेश से कुछ हद तक बाहर ले जाने का काम बर्गेन विश्वविद्यालय के डॉ दाग एरिक बर्ग ने किया  . उन्होंने  दलितों की  पहचान के रूप में डॉ अम्बेडकर की आवधारणा पर चर्चा की  .हालांकि उनका भी फोकस उत्तर प्रदेश ही था लेकिन डॉ आम्बेडकर के व्यक्तित्व के अखिल भारतीय स्वरूप के कारण उनके चर्चा का दायरा बढ़ गया. पर्चे में डॉ बर्ग ने तर्क दिया कि दलितों के सामाजिक राजनीतिक बदलाव में डॉ अम्बेडकर की अन्य भूमिकाओं के अलावा कानून को प्रभावित कर सकने वाली भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है.

 इसके बाद फिर बंगाल हावी हो गया . बाद के चारों पर्चे बंगाल में दलितों के इतिहास भूगोल से संबंधित थे . मृतशिल्पियों  के बारे में ओस्लो विश्वविद्यालय की  मौमिता सेन का परचा बहुत सारी सूचनाओं से भरा हुआ था. कृष्णानगर और कुमारटोली के के कुम्हारों के  काम में हुए बदलाव को उन्होंने बहुत ही कुशलता से स्पष्ट किया . इन क्षेत्रों के कुम्भकारों ने दैवी प्रतिमा से शुरू करके महान विभूतियों की मूर्तियां बनाने के लिए जो यात्रा की है , मौमिता ने उसको राजनीतिक संदर्भों के हवाले से समझाने की सफलता पूर्वक कोशिश की. उन्होंने इस विषय पर कला इतिहासकार ,गीता कपूर की किताब का भी हवाला लिया और यह साबित करने की कोशिश की कि किसी खास किस्म के फोटो के सहारे इन मृतशिल्पियों ने कैसे बहुत सारे नेताओं की मूर्तिनुमा पहचान को स्थापित किया है . कैसे पूरी दुनिया में लगभग एक ही तरह के गांधी,  टैगोर और सुभाष बोस देखे जा सकते हैं . बहुत ही  दिलचस्प विषय  को बहुत ही रुचि पूर्वक प्रस्तुत करने के लिए मौमिता के प्रस्तुतीकरण को सबने पसंद किया लेकिन संचालक महोदय ने  बार बार इशारा करके वार्ता को बीस मिनट में खतम करने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा .
कोलकाता के सेंट जेवियर्स कालेज की शरबनी बंद्योपाध्याय ने बंगाल में  दलित राजनीतिक अधिकारों की राजनीतिक व्याख्या करने की  कोशिश की . उनकी खोज का दायरा भी ख़ासा बड़ा था और उन्होंने बहुत ही कुशलतापूर्वक अपने विषय का निर्वाह किया . १९वीं और २०वीं शताब्दी के उपलब्ध दस्तावेजों के सहारे उन्होने साबित करने की कोशिश की कि उस दौर में बंगाल में जाति एक प्रमुख संस्था हुआ करती थी लेकिन आज़ादी के बाद जाति हाइबरनेशन में चली गयी लगती है .उन्होंने १९२२ में बंगीय जन संघ के गठन को  केन्द्र बनाकर अपने तर्क को अकादमिक शक्ल देने का प्रयास किया . १९२३ में भारत सेवाश्रम संघ का गठन भी एक  महत्वपूर्ण घटना है  जिसे दलित राजनीति पर एक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है . इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो गया .कम्युनिस्ट पार्टी कुछ दलित संगठनों के करीब तो आयी लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी मूल रूप से अपनी भद्रलोक पहचान से बाहर नहीं आ सकी .इस पर्चे में कम्युनिस्ट पार्टी की किसान सभा और भारत सेवाश्रम संघ के के हवाले से दलित राजनीति को मिलने वाली भद्रलोक की प्रतिक्रिया  को समझने की कोशिश की गयी . यह पर्चा विद्वत्ता से परिपूर्ण था और पिछले दो वर्षों में दलितों की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होकर शरबनी ने बहुत ही वास्तविक धरातल पर बात  को समझाया . श्रोताओं  ने इसे बहुत पसंद किया .

इसके बाद हैम्पशायर कालेज की उदिति सेन ने नामशूद्रों के हवाले  से पश्चिम बंगाल में शरणार्थियों के गवर्नेंस के बारे में के परचा प्रस्तुत किया . बंगाल की दलित राजनीति पर उन्होंने अपनी बात कहने की कोशिश की लेकिन बात फीकी इसलिए पड गयी  कि नामशूद्रों और राजबंशियो के बारे में सेमीनार के पहले ही सत्र में डॉ शेखर बंद्योपाध्याय का गंभीर परचा पढ़ा जा चुका था . इसके अलावा उदिति सेन  ने कुछ तथ्यों को  उलट दिया था. उदाहरण के लिए उन्होने कह दिया कि जोगेन मंडल को सरकार ने  अंडमान भेजा था जबकि अंडमान पी आर ठाकुर गए थे  .  यह बात सुबह के सत्र में शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में आ भी चुकी थी. बाद में उनको यह बताया भी गया तो उन्होंने यह कहकर अपनी रक्षा करने की कोशिश की उन्होंने तो सुनी सुनायी बात को पर्चे में लिख दिया था . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाद में वे तथ्यों को ठीक कर लेगीं

अंतिम पर्चा मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फार द स्टडी आफ रिलीजस एंड एथनिक डाइवरसिटी के उदय चंद्रा का था . उन्होंने औपनिवेशिक बंगाल में कोल आदिवासियों के कुली बनने की प्रक्रिया का ऐतिहासिक विश्लेषण किया . दिलचस्प जानकारी से भरपूर उनका पर्चा दलित राजनीति के शोधार्थियों के लिए इतिहास के संदर्भ बिंदु के रूप में उपयोगी साबित होगा

Saturday, September 14, 2013

नार्वे में सत्ता परिवर्तन, दक्षिणपंथी अर्ना सोलबर्ग प्रधानमंत्री बनेगीं



शेष नारायण सिंह
ओस्लो,१० सितम्बर . नार्वे में दक्षिणपंथी कंज़रवेटिव पार्टी ,होयरे की सरकार बनेगी. रात भर चली मतगणना में  नार्वे की आयरन लेडी अर्ना सोलबर्ग की अगुवाई वाले गठबंधन ने इतनी सीटें जीत ली हैं कि अब प्रधानमंत्री  येंस स्तूलतेंबर्ग के आठ साल की सरकार की विदाई हो गयी है . अति दक्षिणपंथी एफ आर पी यानी प्रोग्रेस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने की अर्ना सोलबर्ग की  राह में अब कोई अड़चन  नहीं है . खासकर जब उनके साथ चुनाव अभियान के दौरान शामिल हुई वेंस्तरे पार्टी और क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी ने साफ़ कर दिया है कि  उन्होंने सत्ता बदलने की बात की थी और वे उसमें आड़े नहीं आयेगें .अर्ना सोलबर्ग का रास्ता बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि प्रोग्रेस पार्टी ने पूरे चुनाव में यह बात बार बार कही है कि वे  प्रवासियों के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं करेगें . वे अश्वेत प्रवासियों को नहीं आने देगें और जो लोग भी सोमालिया ,इथियोपिया और पाकिस्तान से आकर गैर कानूनी तरीकों से लोग रह  रहे हैं उनको देश छोड़ने को मजबूर करेगें .

गठबंधन सरकार की अपनी शर्तें होती हैं और सरकार उनके हिसाब से बनती है . नार्वे में सरकार बनाना राजनीतिक पार्टियों के लिए ज़रूरी इसलिए भी होता है कि यहाँ भारत की तरह संसद को भंग करने का विकल्प नहीं होता . कानून इस बारे में इतना सख्त है कि अब चुनाव २०१७ के पहले नहीं हो सकता .अपने चुनावी वायदों में ५२ साल की राजनेता ,अर्ना सोलबर्ग ने  दावा किया था कि अगर उनकी सरकार आ गयी तो वे टैक्स के रेट में भारी कमी करेगीं,पेट्रोलियम पर केंद्रित अर्थव्यवस्था को अन्य क्षेत्रों में भी ले जाया जाएगा ,कुछ सरकारी कंपनियों का निजीकरण करेगीं और डॉ मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की किताब से कुछ  सबक निकालेगीं और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को और ताक़तवर बनायेगीं  और इस तरह से नार्वे के कल्याणकारी राज्य के स्वरूप में भारी बदलाव करेगीं .अर्ना सोलबर्ग की सरकार बनने के साथ साथ प्रवासी  समुदाय में चिंता साफ़ नज़र आने लगी है क्योंकि जब २००१ से २००५ तक अर्ना सोलबर्ग मंत्री  थीं तो उन्होने  प्रवासी नियम कानून बहुत सख्त कर दिया था . अब तो उनको प्रोग्रेस पार्टी का सहयोग भी लेना है इसलिए एशिया और अफ्रीका से आने वाले प्रवासियों के लिए अब मुश्किल  पेश आयेगी .
अर्ना सोलबर्ग नार्वे की दूसरी महिला प्रधानमंत्री बनेगीं .इसके पहले १९८० में बरु हार्लेम ग्रुन्तलैंड प्रधानमंत्री रह चुकी हैं जो बाद में संयुक्त राष्ट्र में भी बड़े पद पर गयी थीं .यहाँ महिलाओं को सबसे पहले वोट देने का अधिकार मिला था इसलिए नार्वेजी समाज में  महिलाओं की बहुत इज्ज़त है . ऐसा लग रहा है कि अर्ना सोलबर्ग के मंत्रिमंडल में  चोटी के तीन पदों पर महिलायें ही होंगीं . प्रोग्रेस पार्टी और वेस्न्तरे पार्टी की नेता महिलायें ही  हैं और  उनका सरकार में शामिल होना निश्चित माना जा रहा है .
नार्वे की अर्थव्यवस्था यूरोप में बहुत अच्छी मानी जाती है क्योंकि फालतू खर्च न करके देश ने पिछले दशक में यूरोप में चल रही आर्थिक संकट की स्थिति से अपने आपको बचाकर रखा हुआ है .नार्वे के कब्जे में नार्थ सी में जो पेट्रोलियम का भण्डार है उसके चलते नार्वे बहुत ही संपन्न देश है . इस बात का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि नार्वे की प्रति व्यक्ति आय एक लाख अमरीकी डालर मानी जाती है जो दुनिया में सबसे ज्यादा है ,शायद तेल की संपदा के कारण बहरीन में भी इस से ज़्यादा पर कैपिटा आमदनी है लेकिन मानवाधिकार के बारे में वे बहुत पीछे हैं .
अब सरकार बनने का कठिन काम शुरू होगा और नई सरकार ९ अक्टूबर को काम शुरू कर देगी लेकिन अर्ना सोल्बर्ग की कठिनाई अब शुरू हो रही है . सबसे पहले तो प्रोग्रेस पार्टी की नेता ,सीव येन्सन को अपनी राजनीति के करीब लाना होगा क्योंकि वे और उनकी पार्टी बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से विदेशों से आकर बसने वालों पर अभियान चला रही थीं. . हालांकि उन्होने  चुनाव के बाद साफ़ नज़र आ रहे परिवर्तन के मद्दे नज़र कल ही कह दिया था कि सरकार चलाने के लिए एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया जाएगा . प्रोग्रेस पार्टी पहली बार सरकार में  शामिल हो रही है और वह बहुत मुश्किल सहयोगी साबित हो सकती है . प्रोग्रेस पार्टी को साधना बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि उसका इतिहास एक असहिष्णु राजनीतिक जमात का रहा है .इस पार्टी के सदस्य ऐन्डर्स बेहरिंग ब्रीविक ने २०११ में बम से हमला करके ७७ राजनीतिक विरोधियों की हत्या कर दी थी . इन दोनों पार्टियों की सरकार को क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक या  वेंस्तरे पार्टी का सहयोग लिए बिना बहुमत नसीब नहीं होगा लेकिन वे प्रोग्रेस पार्टी के प्रवासी मामलों के रुख से बहुत नाराज़ हैं . अगर यह दोनों छोटी पार्टियां सरकार में शामिल न हुईं तो अर्ना सोलबर्ग को एक अल्पसंख्यक सरकार चलानी पद सकती है जो कि ख़ासा मुश्किल काम हो सकता है .

Tuesday, September 10, 2013

लिबरल पार्टी की नेता ने नार्वे में दक्षिणपंथी सरकार का रास्ता साफ़ किया


 

शेष नारायण सिंह


ओस्लो,३ सितम्बर .नार्वे की संसद के लिए नया चुनाव ९ सितम्बर को हो जाएगा. इस चुनाव के बाद बनने वाली सरकार के बारे में रोज ही नए नए राजनीतिक गठबंधन सामने आ रहे  हैं . आज खबर है कि वेंस्तरे पार्टी ( लिबरल पार्टी ) की नेता त्रीन स्की ग्रैंड ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वे सरकार बनाने के लिए कंज़रवेटिव पार्टी ( होयरे ) के साथ भी जा सकती हैं . नार्वे में माना जाता  कि वेंस्तरे वाले क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी ( के आर एफ ) का साथ कभी नहीं छोड़ते लेकिन ग्रैंड ने एक चुनावी सभा में  कहा कि अगर के आर एफ को सीटें नहीं मिलतीं तो उनका राजनीतिक प्रभाव नार्वे के हित में प्रयोग नहीं हो पायेगा. और नार्वे के हित की रक्षा के लिए वे कंज़रवेटिव सरकार को समर्थन दे सकती हैं .
 नार्वे में संसद के चुनाव में आनुपातिक प्रतिनिधित्व का नियम लागू है .जो पार्टी आवश्यक संख्या में वोट हासिल कर लेती है उसका प्रतिनिधि आनुपातिक रूप से संसद में चुन लिया जाता है .इसके लिए पहले से ही एक  लिस्ट जारी कर दी जाती है जो चुनाव आयोग की मंजूरी से प्रचार के दौरान सर्कुलेशन में रहती है . लिबरल पार्टी  के बारे में माना जा रहा था कि वह लेबर पार्टी की अगुवाई वाली  प्रधानमंत्री येंस स्तोल्तेंबर्ग की सरकार को बनाने में मदद करेगीं . इसी जानकारी के मद्दे नज़र यह कहा जा रहा था  कि इस बार फिर लेबर पार्टी की वापसी हो रही थी. पिछले दिनों हुए चुनावपूर्व सर्वे में भी लेबर और उनकी सहयोगी सोशलिस्ट लेफ्ट की बढ़त थी .हालांकि बहुत मामूली थी लेकिन यह माना जा रहा था कि कंज़रवेटिव पार्टी के साथ आने के लिए क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी कभी तैयार नहीं होगी इसलिए उनको वेंस्तरे का समर्थन नहीं मिलेगा . लेकिन अब तस्वीर बदल गयी है . वेंस्तरे की नेता ग्रैंड ने ऐलान कर दिया है कि वे समाजवादियों को सत्ता से बाहर रखने के लिए कंज़रवेटिव पार्टी और प्रोग्रेस पार्टी के साथ गठ्बंधन  बना सकती हैं . नार्वे की राजनीति के जानकार बताते हैं कि अगर वेंस्तरे के वोट भी कंज़रवेटिव ( होयरे) और प्रोग्रेस ( एफ आर पी ) पार्टियों के साथ मिल गए तो यह गठबंधन लेबर और उसकी साथी पार्टियों  को बहुत पीछे छोड़ देगा .और नार्वे में एक दक्षिणपंथी सरकार कायम हो जायेगी .वेंस्तरे नार्वेजी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ होता है ,वामपंथी लेकिन पार्टी की नेता के सरकार में शामिल होने की महत्वाकांक्षा के मद्दे नज़र अब सबकी समझ में आने लगा  है कि नार्वे में अगली सरकार दक्षिणपंथी सरकार होगी जो प्रवासियों ,खासकर इस्लाम को मानने  वालों के खिलाफ सख्ती का रुख अपनायेगी . एफ आर पी का  कहना है  कि जो लोग नार्वे के नागरिक हो गए हैं  वे तो ठीक हैं लेकिन आगे से अश्वेत प्रवासियों को नार्वे की नागरिकता नहीं दी जायेगी.प्रोग्रेस पार्टी का गुस्सा खास तौर से इस्लामी देशों से आने वाले प्रवासियों को लेकर है .
पिछले दिनों वेंस्तरे की नेता ,ग्रैंड ने घोषणा की थी कि उनकी पार्टी कंज़रवेटिव पार्टी के साथ सरकार में किसी भी सूरत में नहीं शामिल होगी . के आर एफ ( क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी ) से अलग होकर तो वे किसी भा हाल में नहीं जायेगें . उन्होंने बार बार कहा है कि उनकी पार्टियां किसी भी ऐसी सरकार में  नहीं शामिल होंगीं जिसका हिस्सा एफ आर पी यानी प्रोग्रेस पार्टी वाले बन रहे  होंगें . उनका विरोध एफ आर पी से विदेशियों के  नार्वे आकर बसने को लेकर है . हालांकि वे भी खुली छूट देने के पक्ष में नहीं है लेकिन  मुस्लिम प्रवासियों का जो विरोध एफ आर पी  ( प्रोग्रेस पार्टी ) कर रही है उसका समर्थन नहीं किया जा सकता .
अगर ऐसा हुआ तो अपने पूरे राजनीतिक जीवन में ग्रैंड पहली बार ऐसे लोगों से हाथ मिला रही होंगीं जिनका उन्होने जीवन भर विरोध किया  है .ऐसा करने के चक्कर में वे अपनी हमेशा की राजनीतिक दोस्त पार्टी , क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक को अलग थलग छोड़ देंगीं . हालांकि उनके पास  केवल पांच प्रतिशत वोट आने की संभावना है लेकिन नार्वे की राजनीति ऐसी है जिसमें छोटी पार्टियों को महत्वपूर्ण सरकारी पद मिल जाते हैं .पिछले आठ वर्षों में इसी कारण से लाब्र पार्टी की सहयोगी छोटी पार्टियां, सोशलिस्ट लेफ्ट और सेंटर पार्टी को सरकारी पदों का लाभ मिलता रहा है है .

ऐसा लगता है कि इस बार वेंस्तरे पार्टी भी सरकार में शामिल होने के मौके को छोड़ना नहीं चाहती . जहां तक कंज़रवेटिव नेता अर्ना सोलबर्ग की बात है उन्होंने बहुत ही साफ़ कह दिया है कि वे चाहती हैं कि सभी गैर सोशालिस्ट पार्टियां मिलकर राज करें लेकिन आखरे एफैसल अचुनाव के बाद ही होगा क्योंकि प्रधानमंत्री येंस स्तोतेल्बर्ग की तरह वे अपने भावी गठबंधन को स्पष्ट रूप से बता  नहीं रही  हैं . ज़ाहिर  है कि अर्ना सोलबर्ग की हर बात को बहुत ही गंभीरता से लिया जा रहा है क्योंकि अगर कंज़रवेटिव पार्टी की सरकार बनती है तो वे ही प्रधानमंत्री बनेगीं .

महान कलाकार मुंक के शहर में उनकी कला का मेला


शेष नारायण सिंह
ओस्लो, १ सितम्बर. नार्वे में अपने महान नायकों की बहुत इज्ज़त की जाती है . यहाँ साहित्यकार हेनरिक इब्सेन के नाम पर शहर का सबसे प्रमुख इलाका  है और महान पेंटर एडवर्ड मुंक के १५० साल पूरा होने पर उनकी याद में बहुत ही बेहतरीन प्रदर्शनी लगी हुई है जिसमें मुंक का काम प्रदर्शित किया गया है जो पूरे शहर में फैला हुआ  है .यह मुंक म्यूज़ियम में है नार्वेजी भाषा में म्यूज़ियम को मुसीत कहते हैं .मेट्रो ट्रेन के प्रमुख स्टेशन तोइयन के पास यह प्रदर्शनी है और स्टेशन पर जहां स्टेशन के नाम का निशान है उसके साथ ही यह भी सूचना है कि  यह मुंक मुसीत भी साथ ही है.  साथ साथ में कैफे हैं जहां दर्शकों के अलावा कुछ नामी कलाकार भी कभी कभी मिल जाते हैं . इसके ओस्लो विश्विद्यालय के हाल में मुंक ने जो म्यूराल पेंट किया था वह भी खूब शान से दिखाया जा रहा है . समकालीन कला के राष्ट्रीय म्यूज़ियम में भी मुंक का काम बहुत ही प्रमुखता से दिखाया गया है .. दरअसल करीब एक हज़ार रूपये का  जो टिकट मुंक मुसीत के अंदर जाने के लिए के लिए लिया जाता है वही टिकट राष्ट्रीय म्यूज़ियम के लिए भी चल जाता है .नार्वे में अपने महान लोगों की कितनी इज्ज़त की जाती है इस बात का दाज़ इसी से लगाया  जा सकता है कि ओस्लो हवाई अड्डे पर उतरते ही उनके काम के रिप्रिंट नज़र आने लगते हैं .पूरे रास्ते यही लगता है कि आप मुंक की सरज़मीं पर आ गए हैं .
उनके १५० साल पूरा होने पर मुंक की याद में जो  प्रदर्शनी लगी हुई है ,उसमें उनके काम को एक जगह पर जितनी बड़ी संख्या में लगाया गया है इसके पहले कभी भी इतना बड़ा रेट्रोस्पेकटिव एक जगह पर नहीं लगा .मुंक ने जीवन भर काम किया उनके काम की सभी शैलियों को इस प्रदर्शनी में देखा जा सकता है . इस प्रदर्शनी का मकसद साफ़ तौर पर लगता है कि कि यूरोप में ललित कला की दुनिया में  एडवर्ड मुंक का वह स्थान मुकम्मल तौर पर  सुनिश्चित किया जा सके  जिसके कि वे वास्ताव में हक़दार हैं .मुंक ने १८८० के दशक में कला की दुनिया में प्रवेश किया था और करीब साठ साल तक काम करते रहे .ओस्लो पर नाजी कब्ज़े एक दौरान उनकी मृत्यु हुई.  मुंक १५० प्रदर्शनी में उनकी २५० से ज्यादा पेंटिंग लगी हुई हैं .उनकी सबसे चर्चित कलाकृतियाँ भी इस प्रदर्शनी में हैं . इस प्रदर्शनी में वे काम भी शामिल किये गए हैं जो न तो मुंक म्यूज़ियम की संपत्ति हैं और  न ही नार्वे में हैं . दुनिया भर से इन कला कृतियों को लाया गया है . १८९२ से १९०३ तक का काम नैशनल गैलरी में है जबकि मुंक मुसीत में १९०४ से १९४४ तक का काम है .
 कला के जानकारों की बात अलग है वरना कला के बारे में मामूली रूचि रखने वालों के लिए मुंक का नाम लेते ही उनकी अति प्रसिद्ध कृति चीख (स्क्रीम ) का नाम दिमाग में आ जाता है. उनकी यह कला समकालीन इतिहास में बहुत चर्चित भी है इसको कला के जानकारों के बाहर दुनिया में वही हैसियत हासिल है जो पिकासो की गुएर्निका को दी जाती है .,लेकिन मुंक की १५० साल वाली प्रदर्शनी देखने के बाद ही एक साधारण आदमी को अंदाज़ लगता है कि मुंक की कला की दुनिया कितनी विस्तृत है . मुंक ने अपनी स्क्रीम के कई संस्करण बनाए ,पहला तो शायद १८९३ में बनाया था और आखिरी १९१० में.  जिन लोगों क नहीं मालूम  है उनके लिए यह जानना ज़रूरी है कि उनकी स्क्रीम को पिछले साल न्यूयार्क में कला की एक नीलामी में १२ करोड डालर में बेचा गया था . आज के हिसाब से अगर देखा जाये तो उसकी कीमत करीब ७०० करोड  रूपये की होगी. स्क्रीम के बारे में कला की दुनिया में तरह तरह की व्याख्याएं हैं . पता नहीं क्यों कुछ हलकों में माना जाता  है कि यह एक पागल की चीख का विजुअल रिकार्ड है जबकि मुंक ने खुद ही अपनी डायरी में लिखा है कि जब वे एक दिन ओस्लो में किसी पहाड़ी के ऊपर से गुजर रहे थे तो उनको लगा था कि प्रकृति पता नहीं क्यों चीख रही है और उसी अनुभव को मुंक ने एक पेंटिंग की शक्ल दे दिया था.
मुंक ने अपनी ज़िंदगी में बहुत तकलीफ देखा था . उन्होंने लिखा है कि बीमारी,पागलपन और मौत को मैंने बहुत करीब से देखा है .जब वे पांच साल के थे तो माँ मर गयी , जब १४ साल के हुए तो उस बहन का देहांत हो गया जो इनकी देखभाल कर रही थी,उनके पिता जी की भी कुछ वर्षों बाद मृत्यु हो गयी . वैसे भी उनके ऊपर  इतने बड़े परिवार का पालन कारने का जिम्मा था कि वे मुंक का कोई ध्यान नहीं रख पा रहे थे .मुंक खुद बार बार अस्पताल जाते रहे और कई बार नशे की आदत के शिकार हुए . कहते हैं कि  उनकी प्रेमिका ने भी उन्हें बहुत निराश किया था . और उनकी पेंटिंग ‘ वेम्पायर ‘ उसी मनोदशा में पेंट की गयी थी . उनके काम के दायरे में उनका अपना जीवन बार बार आता  है .उनका मुसीबत से भरा बचपन, समाज से उनकी परेशानी  और निजी संबंधों में निराशा , सब उनके काम में  दिखता है . उनका अपना दर्द और उससे पैदा हो रहे बिम्ब सारे जहां का दर्द बनकर मुंक के  काम में नज़र आते रहते हैं .उनकी पेंटिंग “ डेथ इन अ सिक रूम “ उनकी बहन की  मौत के बाद हुए दर्द की जो अमिट छाप  मुंक के दिमाग में रिकार्ड हो गयी थी ,उसी का प्रतिनिधि काम है .  किस ( चुम्बन ) न्यूड मडोना, और वेम्पायर, सभी कृतियाँ ,महिलाओं के साथ मुंक के अनुभवों के प्रतिनधि हैं . लेकिन यह निजी होते हुए भी ऐसी बन गयी हैं कि सभी के दर्द को अनुभव कराने की क्षमता रखते  हैं .
मुंक ने लिखा है कि मेरी सारी कला  दर्द का एक इतिहास है , अगर दर्द न होता अतो शायद मेरा काम कुछ अलग तरह का रहा होता . अपने समकालीन इब्सेन की वे बाहुत इज्ज़त करते थे और उनकी पेंटिंग ‘ ग्रैंड कैफे में इब्सेन” को भी बहुत हे एम्ह्त्वपूर्ण माना जाता अहै . अपनी यूनिवर्सिटी में जो  उनका काम है उसमें भी इब्सेन हैं , उसमें नीत्शे भी हैं , वहाँ उनका सेल्फ़ पोर्ट्रेट भी है  क्योंकि बताते हैं कि जब १९४४ में न्यूमोनिया से उनकी मौत हुई तो उनकी जो मनोदशा थी वह ‘ बिटवीन द क्लाक एंड द बेड ‘ में नज़र आता है .

Sunday, September 1, 2013

सीरिया पर निश्चित अमरीकी हमले को ब्रिटेन की जनता ने रोका


शेष नारायण सिंह

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जिस तरह का माहौल बनाया था कि लगता था की सीरिया पर अमरीकी हमला किसी भी वक़्त हो सकता है . इस हमले के बाद बराक ओबामा भी उन अमरीकी राष्ट्रपतियों की श्रेणी में खड़े हो जाते जिन्होंने अपनी गलतियों को छुपाने या अमरीकी अहंकार की धौंस कायम करने के लिए दूसरे देशों पर हमला किया . लेकिन ब्रिटेन की पब्लिक ने अमरीका के सबसे बड़े भक्त देश ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरून पर लगाम कस दी और हमला फिलहाल रुक गया है।  ब्रिटेन में ऐसा माहौल बन गया कि  प्रधानमंत्री कैमरून को लगने लगा कि  अगर अमरीका का हुक्का भरने से बाज़ न आये और अमरीकी हितों के लिए ब्रिटिश जनमत को गिरवी रखते रहे तो अपनी ही गद्दी खिसक जायेगी। जब भी बराक ओबामा सीरिया पर हमला करेगें वे एक नए वियतनाम को जन्म देने की राजनीतिक मजबूरी के शिकार हो जायेगें . इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी हुकूमत अपनी ताक़त देख चुकी है और सही बात है कि इन दो लड़ाइयों के कारण अमरीकी अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है और वह आर्थिक संकट की तरफ बढ़ चुका है . सीरिया की मौजूदा सरकार या उसका विरोध कर रही ताक़तें, दोनों ही युद्ध की सौदागर हैं और युद्ध का किसी भी हाल में समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन लगता  है कि अमरीका तेल के पश्चिम एशियाई साम्राज्य में  अपनी  धाक बनाए रखने के लिए कुछ भी करने के लिए आमादा है . अमरीकी मनमानी का इससे बड़ा क्या नमूना होगा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों की मर्जी के खिलाफ उसने सीरिया पर हमले की तैयारी कर ली है .इस मुहिम में उसके साथ ब्रिटेन है ,ठीक उसी तरह जैसे  इराक पर अमरीकी हमले के समय ब्रिटिश  प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर लगे रहते थे .ब्रिटेन में आज के प्रधानमंत्री की राजनीतिक कमजोरी इतनी ज़्यादा है कि उनकी पार्टी के ही बहुत सारे नेता सीरिया के मुद्दे पर उनके खिलाफ हैं . अमरीकी हमले की संभावना के मद्देनज़र सीरिया के पड़ोसी देशों में भी अफरातफरी का आलम है . खबर है कि अमरीका के मुख्य शिष्य इजरायल में भी हुकूमत अपने  नागरिकों को गैस के मास्क सप्लाई कर रही है . यह खबर इस बात को लगभग सुनिश्चित कर देती है कि सीरिया पर अमरीका हमला परम्परागत  बमबारी की शक्ल में नहीं होगा , यह हमला रासायानिक युद्ध के रूप में होने वाला है .
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ़ कह दिया है कि सीरिया की सरकार ने २१ अगस्त को जब सुन्नी विरोधियों के ऊपर रासायनिक हथियारों से बमबारी की थी तो उसे मालूम होना चाहिए था कि उसके नतीजे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी कोई कार्रवाई कर  सकता है . किसी भी देश में अमरीकी मनमानी के लिए तैयारी कर रहे राष्ट्रपतियों ने अपनी मंशा को परंपरागत रूप से अंतर्राष्ट्रीय रंग देने की हमेशा से ही कोशिश की है . ओबामा भी वही कोशिश कर रहे हैं. हालांकि उन्होने कई  बार कहा है कि सीरिया पर वे लंबी लड़ाई के पक्ष में नहीं हैं लेकिन सभी देशों को जानना चाहिए कि जब रासायनिक हथियारों के मामले में कानून को तोडा जाएगा तो उसके नतीजे भी भुगतने पड़ेगें. यहाँ यह कहना है कि अगर ओबामा समझते हैं कि उनकी मंशा  बहुत पवित्र है तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने  साथियों , रूस और चीन को भी साथ साथ लेकर चलें. लेकिन अमरीकी मनमानी और पश्चिम एशिया में अमरीकी कठपुतलियों की सरकार कायम करने की अमरीका की उतावली के चलते संयुक्त राष्ट्र को भी मनमानी का हथियार बनाने से अमरीका बाज़ नहीं आ रहा है .ओबामा ने ब्रिटेन को आगे कर दिया है और ब्रिटेन की तरफ से सुरक्षा परिषद में वह प्रस्ताव लाया  गया है जिसमें संयुक्त राष्ट्र से कहा गया है कि सीरिया में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को रोकने के लिए एक सीमित सैनिक कार्रवाई की अनुमति दी जाए . इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए सुरक्षा परिषद के पाँचों स्थायी सदस्यों की एक बैठक भी की गयी लेकिन रूस और चीन ने साफ़ मना कर दिया कि इस तरह की कारवाई को अधिकृत नहीं किया जा सकता .   बैठक में शामिल अमरीकी प्रतिनिधियों ने साफ़ कर दिया कि अगर सुरक्षा परिषद अधिकृत नहीं भी करती तो ओबामा अपना काम जारी रखेगें , यानी संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी करके भी हमला किया जाएगा . इस वक़्त सीरिया में निरीक्षकों का एक दल मौजूद है जो यह देख रहा है कि के वास्तव में सीरिया के पास रासायनिक हथियार हैं और क्या वह उनको इस्तेमाल कर रहा है . बताया गया  है कि अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र की तरफ से भेजे गए निरीक्षकों को बता दिया  है कि वे लोग शनिवार तक सीरिया से वापस आ जाएँ . जानकार बताते हैं कि बस उसके बाद किसी भी वक़्त अमरीका सीरिया की शिया हुकूमत को तबाह करने के लिए दमिश्क और उसके आस पास के इलाकों पर बमबारी शुरू कर देगा .जबकि संयुक्त राष्ट्र ने शायद सीरिया की वह अपील मान लिया है कि  अभी सीरिया में गया हुआ संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों का दल  वहीं रहे और अपना काम पूरा करके वापस जाय। 
 अमरीकी अधिकारियों के रुख से साफ़ समझ में आने लगा है कि उनको संयुक्त राष्ट्र महसचिव बान की मून की कोई परवाह नहीं है क्योंकि बान की मून ने कहा है अभी सीरिया में संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षक मौजूद हैं और वे सच्चाई का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं .उसके बाद ही कोई फैसला किया जायेगा. संयुक्त राष्ट्र ने इराक की तरह सीरिया में भी एक विशेष दूत की तैनाती की है . इस बार भी वही लखदर ब्राहिमी विशेष दूत हैं जो इराक में अमरीका कि सेवा कर चुके हैं . लेकिन उनकी बात को ओबामा प्रशासन नज़र अंदाज़ करता लग रहा है .अमरीकी अधिकारियों का कहना है कि तैयारी पूरी हो चुकी है. भूमध्य सागर में अमरीकी विमानवाही जहाज़ तैनात हैं और वे क्रूज मिसाइल दाग सकते हैं . अमरीका के रक्षा सचिव चक हेगेल ने कहा है कि  सेना की तैयारी पूरी है. जब भी राष्ट्रपति ओबामा आगे बढ़ने को कहेगें , हमला कर दिया जाएगा . हालांकि अमरीकी अधिकारी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हमला बहुत ही सीमित होगा और सीरिया के सैनिक केन्द्रों को ही निशाना बनाया जाएगा लेकिन जानकार बताते हैं कि सीमित एक्शन की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि लड़ाई शुरू करने वाले के पास उसको रोकने का विकल्प नहीं रहता . युद्ध का एक  गतिशास्त्र होता है ,वही किसी भी संघर्ष के नतीजों को तय करता है .
अमरीका का दावा है कि वह हमला इसलिए कर रहा  है कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने बागियों के ऊपर रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर दिया है लकिन उसकी इस बात को मानने के लिए कोई निष्पक्ष सबूत नहीं है , संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों ने ऐसी कोई बात नहीं बताई है ,क्योंकि अभी निरीक्षण का काम चल ही रहा है. पता नहीं कहाँ से बराक  ओबामा को मालूम हो गया कि रासायनिक हमला हो चुका है . कुल मिलाकर इस बात में अभी शक है कि रासायनिक हथियारों का हमला हुआ  है लेकिन दूसरी बात बिलकुल तय है और वह यह कि अगर अमरीका ने सीरिया पर बमबारी शुरू की तो यह युद्ध  मुकम्मल तौर पर रासायनिक हथियारों का युद्ध हो जाएगा क्योंकि सीरिया के राष्ट्रपति ,बशर अल असद ने पिछले साल ही स्पष्ट कर दिया था कि अगर उनके ऊपर कोई विदेशी ताक़त हमला करती है तो वे निश्चित रूप से रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर देगें . उसी तरह से दो दिन में रासायनिक हथियारों को बर्बाद करके वापस आने की बात का भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि जब १९९८ में संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना अमरीका और ब्रिटेन ने इराक पर बमबारी शुरू की थी और सामूहिक नर संहार के हथियारों  को तहस नहस करके कार्रवाई खत्म करने की बात की थी ,तब भी लड़ाई लंबी चली थी  और कहीं कोई सामूहिक नरसंहार के हथियार नहीं मिले थे . बल्कि बाद में पता चला कि और अब सारी दुनिया जानती है कि इराक में सामूहिक नरसंहार के हथियार थे ही नहीं .१९९९ में अमरीकी अगुवाई में नैटो ने जब तत्कालीन यूगोस्लाविया पर हमला किया  तब भी यही बताया गया था कि स्लोबोदान  मिलासोविच की सत्ता को खत्म करने के लिए हमला किया गया था लेकिन लड़ाई बहुत दिन तक चली थी. यह भी गौर करने की बात  है कि उस बार भी आज की तरह संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध को अधिकृत नहीं किया था और उस हमले में अमरीकी बम , अस्पतालों और दूतावासों पर भी गिराए गए थे . २०११ में जब नैटो ने लीबिया पर सीमित हमला किया था तो मीडिया के संस्थानों पर हमला हुआ था . इस बार भी डर है कि कहीं सीरियन अरब एजेंसी समेत अन्य मीडिया संस्थानों को भी न हमले का निशाना न बनाया जाये.
आज की स्थिति यह है कि ओबामा हर हाल में सीरिया पर डायरेक्ट सैनिक कार्रवाई के लिए दीवाने हो रहे है .वे बाकी दुनिया को यह बताने के कोशिश कर रहे हैं कि वे तो वास्ताव में वह काम करने जा रहे हैं जो संयुक्त राष्ट्र को करना चाहिए था . ओबामा के लोग पूरी कोशिश कर रहे हैं कि रासायनिक हथियारों के बारे में सच्चाई सामने न आने पाए इसीलिए वे बार बार कह रहे हैं कि शनिवार तक संयुक्त राष्ट्र की तरफ से वहाँ काम कर रहे निरीक्षक वापस आ जाएँ . इसके पहले भी यह हुआ है . जब २००३ में संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों को इराक में वे हथियार नहीं मिले जिसकी बात अमरीकी अखबार और उसके साथी हर मंच से कर रहे थे तो अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र के उन कर्माचारियों की ईमानदारी और उनकी काबिलियत पर सवाल उठाना शुरू कर दिया था .  इस बार भी अगर फ़ौरन से पेशतर संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षक वहाँ से वापस नहीं आये तो उनका भी वही हश्र हो  सकता है .
सीरिया में हो रही लड़ाई से पश्चिमी देशों का एक और चेहरा  सामने आ रहा  है . अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों में  मुसलमान अल्पसंख्यक सभी देशों में हैं . उनको वहाँ  अधिकार भी मिले हुए हैं लेकिन जब से अल कायदा और उसके सहयोगी इस्लाम के सबसे बड़े प्रचारक के रूप में सामने आने की कोशिश कर रहे हैं , तब से कुछ स्वार्थी लोगों ने इस्लाम के नाम पर अल कायदा का प्रचार शुरू कर दिया है . पश्चिम के देशों में यह प्रवृत्ति बढ़ रही है . यह लोग अक्सर हिंसा की वकालत करते पाए जाते हैं . इस्लाम की बुनियादी मान्यताओं से यह दूर हैं और हिंसा को  समर्थन देते हैं . अल्पसंख्यकों की असुरक्षा की भावना को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करते हैं . नतीजा यह हुआ है कि पश्चिमी यूरोप के शांतिप्रिय देशों में इस्लाम के प्रति अजीब सा  कन्फ्यूज़न फ़ैल रहा है और वे इस्लाम के असली शांतिप्रिय रूप से अपरिचित होने लगे हैं . जानकार बता रहे हैं कि इस्लाम को मानने वालों के अलग अलग संप्रदायों को आपस में लड़ाकर इस्लाम को कमज़ोर करने की अमरीका और ब्रिटेन की इस साज़िश को पश्चिमी यूरोप के अन्य देशों में इसीलिये समर्थन मिल रहा  है . सीरिया में शिया और सुन्नी मत मानने वालों के बीच चल रही लड़ाई इस नीति का सबसे ज्वलंत उदाहरण है . ज़रूरत इस बात की है कि दुनिया के सभी लोग साम्राज्यवादी साज़िश को समझें और इंसानों के बीच नफरत को सर्वनाश का जरिया न बनने से रोकें 

Friday, August 30, 2013

नार्वे के चुनाव में यूरोपियन यूनियन और प्रवासी अल्पसंख्यक भी मुद्दा हैं




शेष नारायण सिंह

ओस्लो, २८ अगस्त. नार्वे के चुनाव में नेता भी आम आदमी की तरह रहते हैं . भारत से आये किसी रिपोर्टर के लिए यह सुखद तो है ही लेकिन एक पछतावा भी है कि काश हमारे नेता भी ऐसे होते. शहर के पूर्वी इलाके में आयोजित एक चुनावी सभा में सत्ताधारी लेबर पार्टी का नेता हाफ पैंट पहनकर अपनी साइकिल से आया और हाथ में एक चाकलेट का बार भी था क्योंकि खाने का मौक़ा नहीं मिला था. सत्ताधारी गठ्बंधन की पार्टी सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी की ओस्लो नगर की सबसे महत्वपूर्ण नेता , इन्गुन येरास्ता , मीटिंग शुरू होने के पहले गेट पर खड़े होकर आने वालों से गप्प मार रही थी, .आज की मीटिंग इस इलाके में पर्यावरण की निगरानी रखने वाले एन जी ने किया था और सभी पार्टियों के नेताओं को बुलाया गया था .सभी पार्टियों के नेता समय से पहले हाज़िर थे और एन जी ओ ने शुरुआती वक्तव्य के लिए सबके लिए तीन मिनट का समय तय कर दिया था और समय पूरा होने पर घंटी बजती थी और नेता लोग चुप हो जाते थे .
मीटिंग शुरू होने के पहले आयोजकों  की तरफ से तैनात माडरेटर ने साफ़ बता दिया था कि सारी चर्चा पर्यावरण और सार्वजनिक यातायात की सुविधाओं पर केंद्रित रहेगी. शुरुआती वक्तव्य के बाद लोगों को सवाल पूछने की अनुमति दी जायेगी लेकिन सवाल पूछने वाले केवल सवाल पूछेगें अपनी राय नहीं देगें . सवाल सीधे और डायरेक्ट होने चाहिए . यह भी बताया गया कि मीटिंग के दौरान अगर  कोई आग वगैरह लग जाए तो बाहर जाने का रास्ता किधर से है. इस मीटिंग में लेबर पार्टी के यान ब्योलर और सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी की इन्गुन येरास्ता भी उपस्थित थे . यह अपनी पार्टियों के बड़े नेता हैं . मुख्य विपक्षी दल होयरे की तरफ से निकोलाई आस्त्रुप आये थे जो मामूली स्तर के नेता हैं . होयरे यानी कंज़रवेटिव पार्टी को इस इलाके से किसी खास समर्थन की उम्मीद नहीं है शायद इसलिए उन्होने किसी बड़े नेता को नहीं भेजा था  . नार्वे के चुनाव में शामिल सभी पार्टियों के प्रतिनिधि आये थे और अगर किसी मुद्दे पर सवाल को टालने की कोशिश करते थे तो माडरेटर तुरंत टोक देता था. एक भारतीय के रूप में हमारे लिए यह अहम नहीं है कि लोकल मुद्दों पर किसने क्या कहा लेकिन यह अहम है कि चुनाव के पहले  होने वाली  बैठकों में भी  हर स्तर पर लोकतंत्र का ध्यान रखा जाता है .
सत्ताधारी गठबंधन को शुरुआती सर्वेक्षणों में बहुत कम समर्थन मिलता बताया जा रहा था लेकिन अब हालात सुधर रहे हैं और सोशलिस्ट लेफ्ट और लेबर पार्टी ,दोनों की स्वीकार्यता बढ़ रही है. इसलिए  यहाँ के राजनीतिक पर्यवेक्षकों को अब लगने लगा है कि शायद मौजूदा गठबंधन ही सत्ता पर बना रहे. इसलिए गठबंधन की प्रमुख नेता और ओस्लो इलाके से स्तूर्तिंग ( संसद ) पंहुचने की प्रबल दावेदार  इन्गुन येरास्ता से अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बात करने की कोशिश की गयी . ओस्लो इलाके से उनकी पार्टी ने चार उम्मीदवार उतारे हैं . आनुपातिक प्रतिनिधित्व के नियम के अनुसार २००५ के चुनाव में सोशलिस्ट लेफ्ट को ओस्लो से ३ सीटें मिली थीं जबकि २००९ में २ सीटें मिलीं थीं . इस बार भी पार्टी कम से कम दो सीटों की उम्मीद कर रही है . पार्टी के लिस्ट में इन्गुन येरास्ता  का नाम दूसरी जगह पर है इसलिए उनकी संसद पंहुचने की संभावना बहुत ज्यादा है. जब उनको बताया गया कि चुनावी सर्वे में तो उनकी पार्टी को पिछडता हुआ  दिखाया गया है तो उन्होंने कहा कि इन सर्वेक्षणों का विश्वास मत कीजिये . यह सारे सर्वे टेलीफोन से बात करके किये जाते हैं और उनकी पार्टी का समर्थन मूल रूप से  प्रवासी समुदाय में है . दक्षिण अमरीका और अफ्रीका से आये लोगों में उनकी पार्टी की मज़बूत ताक़त है और कोई भी सर्वे वाला इन लोगों  को फोन पर संपर्क ही नहीं करता . इसलिए किसी भी चुनाव में चुनाव पूर्व सर्वे करने वाले नतीजों के आसपास भी नहीं पंहुचते . उनकी इस बात से अपने देश के चुनावी पंडितों की याद आ गयी . वे भी तो टी वी स्टूडियो में बैठे ज्ञान देते रहते हैं और नतीजा  उनके ज्ञान से  बिलकुल अलग होता है .उन्होंने बताया कि अल्पसंख्यकों और प्रवासियों में उनकी पार्टी की ताक़त ज्यादा है .सोशालिस्ट लेफ्ट पार्टी ने ओस्लो क्षेत्र से तीसरे नंबर पर ब्राजील मूल की ओलिविया सेलेस  और चौथे नंबर पर मोरक्को के यासीन एजारी को टिकट दिया है . इन दोनों के जीतने की उम्मीद नहीं है क्योंकि पार्टी दो सीटों से ज्यादा की उम्मीद नहीं रख रही  है  . लेकिन लिस्ट में इन दो समुदायों के उम्मीदवार होने का फायदा यह है कि इन की कम्युनिटी के लोग  पार्टी को वोट देगें . मुझे लगा कि जातिवाद की राजनीति के दूसरे रूप में यहाँ भी मौजूद है .
इन्गुन येरास्ता ने बताया कि नार्वे में बजट का एक प्रतिशत विदेशी सहायता के लिए  दिया जाता है . जिस से अफ्रीका और एशिया के देशों में  गरीबी और स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहे लोगों को ताक़त मिलती है लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी ,होयरे ,उसको खत्म कर देना  चाहती है . उसके सहयोगी एफ आर पी वाले तो अश्वेत लोगों के प्रति सौतेला व्यवहार अपनाने की राजनीति कर रहे हैं . उन्होंने कहा कि इतने पुरातनपंथी और पिछड़े हुए लोग हैं फिर भी यह पता नहीं क्यों एफ आर पी वाले अपने आप को प्रोग्रेसिव पार्टी कहते हैं . उन्होंने कहा कि नार्वे की सम्पन्नता से इंसानी बिरादरी को लाभ मिलना चाहिए और इसके लिए सबको तरक्की में शामिल करके ही रास्ता निकलेगा.
अपने देश में भी ट्रेड यूनियन अधिकारों को मज़बूत करने की उनकी राजनीति  उनकी पार्टी को देश के शहरी इलाकों  तक ही सीमित रखती है. उनकी पार्टी को डर है कि कंज़रवेटिव पार्टी के नेता यूरोपियन यूनियन  में बढ़ रहे बेरोजगार लोगों की संख्या से चिंतित है लेकिन उसके बाद भी ट्रेड यूनियन अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए .उनकी पार्टी यूरोपियन यूनियन की नार्वे की सदस्यता का विरोध करती रही है . उनका मानना है कि नार्वे अगर यूरोपियन यूनियन का सदस्य होता तो यह परेशानी नहीं होती . लेकिन फिर भी वर्कर को सम्मान मिलना चाहिए . अगर एफ आर पी की चली तो नार्वे के जो नागरिक अश्वेत हैं तो वेह तबाह हो जायेगें और स्वीडन आदि जैसे देशों से श्वेत लोग आकर नार्वे के रोजगारों पर कब्जा कर  लेगें .जहां तक बाकी दुनिया के देशों से संबंध की बात है नार्वे को अपना स्वतंन्त्र अस्तित्व बनाए रखना चाहिए . इन्गुन येरास्ता से बातचीत के बाद लगा कि वे  बाकी यूरोप की गरीबी इम्पोर्ट करने के खिलाफ हैं लेकिन अपने देश के मजदूरों की ताकत से मज़बूत बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं .

अकादामिक घेरे में फंसने के बाद एक रिपोर्टर का बयान तहरीरी


शेष नारायण सिंह


कल दोपहर बाद जोस्टाइन से मुलाक़ात हुई .उससे मिलकर बहुत अच्छा लगा . ओस्लो विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में शोध छात्र जोस्टाइन की इच्छा है कि वे भारत की राजनीति के विशेषज्ञ बनें.  अमरीका की तरह ही रिसर्च को इन विश्वविद्यालयों में बहुत ही गंभीरता से लिया जाता है .यूरोप के इन हिस्सों में रिसर्च कोई टाइम पास नहीं होता . अपनी जे एन यू में रिसर्च कर रहे लोगों का काम देख कर थोडा बहुत अंदाज़ तो लग जाता है कि उच्च शोध की दिशा कैसे होती है. लेकिन जिन लोगों ने मेरे पुराने विश्वविद्यालयों में शोध छात्रों की दिनचर्या देखी है  और प्रोफ़ेसर के परिवार के लोगों, उनकी गाय भैंसों में रिसर्च स्कालर को ध्यानमग्न होते देखा है , उनको रिसर्च की गंभीरता समझ में आनी थोड़ी मुश्किल है . यह रिसर्च स्कालर मेरे मुख्य सम्पादाक श्री ललित सुरजन के संपर्क में है और उनकी सलाह पर ही इसने मुझसे मुलाकात की  .  मिलने के पहले जोस्टाइन ने मेरे लिखे के तत्व को समझ रखा था , टेलिविज़न में जो कुछ मैंने अंग्रेज़ी में कहा है, उसके बारे में उसे मालूम था . मैं थोडा सकते में आ गया कि भाई यह और क्या क्या जानता है . बहरहाल मुझसे प्रभावित नज़र आया इसलिए लगा कि अच्छी बातें ही जानता है . अपने प्रोफ़ेसर से भी मिलाएगा और दक्षिण भारतीय राजनीति के छात्रों से भी . मैंने जब बताया कि मैं तो एक मामूली रिपोर्टर हूँ ,  बुद्धिजीवी नहीं हूँ . तो उसने भरोसा दिलाया कि चिंता न करें , आप जो बातें मुझसे इम्पिरिकल अनुभव के आधार पर कर रहे हैं , वह यहाँ दूर देश में बैठे हुए  छात्रों के लिए बहुत उपयोगी होंगी. अब हाँ तो कर दिया है आगे जो होगा देखा जाएगा.

Thursday, August 29, 2013

ओस्लो का नैशनल थियेटर साहित्यिक इतिहास का केन्द्र भी है


शेष नारायण सिंह

ओस्लो,२७ अगस्त . किसी भी शहर के सामाजिक जीवन में किसी थियेटर का कितना महत्व हो सकता है , वह ओस्लो के  नैशनल थियेटर के आसपास की ज़िन्दगी को देखकर समझा जा सकता है . यहाँ पार्लियामेंट बिल्डिंग , ग्रैंड होटल, ओस्लो विश्वविद्यालय का पुराना हाल सबकुछ इसी के आस पास है . नया ओस्लो विश्वविद्यालय तो थोड़ी दूर पर है जैसे मुंबई विश्वविद्यालय की पुरानी बिल्डिंग दक्षिण मुंबई वाली इमारत मानते हैं लेकिन पढाई लिखाई से सम्बंधित अधिकतर काम अब कलीना कैम्पस में होते है .हम दिल्ली में पार्लियामेंट के आसपास की  दो किलोमीटर तक की इमारतों का पता भी संसद भवन के हवाले से बताते हैं लेकिन यहाँ जब मैंने पूछा कि  पार्लियामेंट बिल्डिंग कहाँ है तो बताया गया कि नैशनल थियेटर के बिलकुल करीब है . इसके पास ही राजा का महल है और थोड़ी दूर पर ही  इब्सेन म्यूज़ियम , नोबेल शान्ति पुरस्कार का मुख्यालय ,समुद्रतट आदि हैं लेकिन ओस्लो के रहने वाले सभी इमारतों पता नैशनल थियेटर  के सन्दर्भ से ही बताते हैं .
शेक्सपीयर के किंग लियर का यहाँ आजकल मंचन चल रहा है . लेकिन कई दिनों तक की टिकट बिक चुकी है . अजीब लगा क्योंकि अपने दिल्ली में तो ज़्यादातर नाटक देखने वाले मुफ्त पास के इंतज़ार में रहते  हैं और अगर कोई टिकट लेने पंहुचता है तो आयोजक खुश हो जाते हैं . इसके बाद नार्वेजी समाज से नाटक के सम्बन्ध और नैशनल थियेटर के महत्व जानने की उत्सुकता हुई .उसी उत्सुकता का नतीजा है यह छोटी सी रिपोर्ट .
नैशनल थियेटर के रूप में इस  संस्था  का उदघाटन करीब ११४ साल  पहले १ सितंबर  १८९९ के दिन हुआ था . उसके बाद तीन दिन लगातार यहाँ तीन महान साहित्यकारों के नाटकों का मंचन हुआ .सबसे पहले लुडविग होल्डबर्ग की कुछ चुनिन्दा कृतियों का नाट्य रूपांतर , उसके बाद हेनरिक इब्सेन के ‘ इंसान के दुश्मन ‘ और तीसरे दिन ब्योर्नसन के नाटक का मंचन हुआ . इन तीनों ही महापुरुषों की मूर्तियां नैशनल थियेटर के कैम्पस में लगी हुई हैं . थियेटर की मौजूदा बिल्डिंग की डिजाइन हेनरिक बुल नाम के एक आर्किटेक्ट ने तैयार किया था .
हेनरिक इब्सेन के नाटकों का तो नैशनल थियेटर को नैहर ही माना जाता है . वे रोज ही इसके आस पास देखे जाते थे .आधुनिक थियेटर के संस्थापकों में से एक इब्सेन को वस्तुवादी नाटकों की परंपरा का जनक कहा जाता  है . उनके नाटकों ब्रैंड, एन इनमी आफ द पीपुल, ए डॉल्स हाउस , घोस्ट, और मास्टर बिल्डर का दुनिया भर में बार बार मंचन हुआ है .बीसवी सदी में ‘ए डॉल्स हाउस ‘ नाटक दुनिया के बहुत सारे शहरों में कई कई बार मंचन हुआ है और वह एक तरह से विश्व रिकार्ड है .
इब्सेन को यूरोपीय साहित्य में एक मूर्तिभंजक रचनाकार के रूप में जाना जाता है . अपने समकालीन साहित्यकारों की साँचाबद्ध सोच को उन्होंने चुनौती दी. शालीनता और पारिवारिक जीवन की भद्र्जनोचित व्याख्या को उन्होंने सिर के बल खड़ा कर दिया और आपने समकालीन समाज को ललकारा कि वह वास्तविकता की ज़मीन पर आये और आभिजात्य के फसाड  को अलविदा कहे.  नैतिकता को लागू करने की आदर्शोन्मुखी अवधारणा को इब्सेन ने कहीं का नहीं  छोड़ा और नार्वे में सामाजिक परिवर्तन के लिए चल रही सामूहिक इच्छा को हवा दी. इसी काल में आस्ता हंसतीन भी मानवीय संबंधों की मर्द्वादी व्याख्या को झकझोर रही थीं और महिलाओं के अधिकारों को आदर्श के ढर्रे पर डालने के पुरातनपंथी समुदाय की मान्यताओं को दफन करने की तैयारी कर रही थीं . उन्होंने स्त्री को  सामान मानने की  विचारधारा को इतनी बार झकझोरा की नार्वेजी समाज में लोग इब्सेन के नाटकों से अपने को जोड़कर देखने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुके थे . इस दौर में नैशनल थियेटर में बीसवीं सदी की शुरुआत में खेले गए इब्सेन के नाटकों ने आग में घी का काम किया . १९१३ में जब नार्वे में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला तो आस्ता हंसतीन और इब्सेन इस दुनिया में नहीं थे , कुछ ही साल पहले उनकी मृत्यु हो चुकी थी लेकिन उसका जश्न इसी नैशनल थियेटर के कैम्पस में ही मनाया गया था और इब्सेन और आस्ता हंसतीन को याद किया गया था . कृतज्ञ समाज ने इब्सेन के किराए के घर से नैशनल थियेटर और उसके आसपास तक के जिन रास्तों को इब्सेन अपनाया करते तह, वहाँ  उनके नाटकों की कुछ लाइनें पत्थर में जड़कर लगा दी हैं . हालांकि यह कहने वालों की भी कमी नहीं थी कि हेनरिक इब्सेन को बाद के नार्वेजी समाज और राज्य ने इतना महत्व इसलिए दिया कि उनका बेटा देश का प्रधानमंत्री बन गया था. लेकिन यह बात उसी समय खारिज कर दी गयी थी. हेनरिक इब्सेन का प्रभाव बाद के महान नाटककारों , जार्ज बर्नार्ड शा , ओस्कर वाइल्ड, आर्थर मिलर और यूजीन ‘ओ नील पर साफ़ देखा गया है .
नैशनल थियेटर के उद्घाटन के समय ब्योर्नसन के काम को भी नाटक के रूप में पेश किया गया था . उन्होने १९०३ का साहित्य का नोबेल जीता था . वे नार्वे के चार महान लेखकों में शुमार हैं . बाकी तीन हैं हेनरिक इब्सेन,जोनल लाइ और अलेक्जेंडर कीलैंड . यह नार्वेजी राष्ट्रगान के रचाकार भी हैं.
नैशनल थियेटर के कैम्पस में तीसरे महान नार्वेजी साहित्यकार की मूर्ति लुडविग होलबर्ग की है . उन्हें लेखक ,दार्शनिक, इतिहासकार और नाटककार के रूप में जाना जाता है .. उनको आधुनिक नार्वेजी और डैनिश साहित्य का संस्थापक  माना जाता है

Tuesday, August 27, 2013

अमरीकी साम्राज्यवाद का डर दिखाकर इस्लामी देशों में औरतों के प्रति हो रही ज्यादती को सही ठहराने की कोशिश



शेष नारायण सिंह 
ओस्लो,२६ अगस्त. ओस्लो विश्वविद्यालय के धार्मिक अध्ययन विभाग में आज आस्ता हँसतीन  स्मारक व्याख्यान का आयोजन किया  गया . २०११ में शुरू हुए इस लेक्चर का महत्व इसलिए है कि वह आस्ता हँसतीन के नाम पर है . आस्ता हँसतीन नार्वे और यूरोप में महिला अधिकारों  की क्रांतिकारी नेता के रूप में जानी  जाती हैं . नार्वे में महिलाओं को वोट देने का अधिकार सबसे पहले मिला था . १९१३ में मिले इस अधिकार की सौंवी वर्षगाँठ पूरे नार्वे में मनाई जा रही है.हालांकि वे खुद १९०८ में ही मर गयी थीं इसलिए अपनी मेहनत के नतीजों को देख नहीं पाईं .इस साल का लेक्चर दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन विश्वविद्याला की सहायक प्रोफ़ेसर सादिया शेख ने दिया . समझ में नहीं आया कि इतने बड़े लेक्चर के लिए सादिया शेख को क्यों  बुलाया गया था क्योंकि उनका अकादमिक स्तर बहुत ही मामूली था और उन्होंने इस्लामोफोबिया के हवाले से ऐसी बहुत सी बातें स्थापित करने की कोशिश की जो इस्लाम में महिलाओं के साथ हो रहे आचरण को बिलकुल सही ठहराने की कोशिश थी और इस्लामी मुल्कों  में जो महिलायें अपनी तकलीफों  को आत्मकथा के रूप में लिख रही हैं उस सारे को अमरीकी साम्राज्यवाद की ओर से प्रायिजित बताकर यह साबित करने की कोशिश की कि इस्लाम में माहिलाओं को जो अधिकार मिले हुए हैं वे बहुत ही काफी हैं .
ओस्लो विश्वविद्यालय में अकादमिक धर्मशास्त्र  विभाग की स्थापना के दो  सौ साल पूरे होने पर २०११ में आस्ता हँसतीन स्मारक व्याख्यान माला की शुरुआत की गयी थी.  इस साल का भाषण भारतीय मूल की सादिया शेख ने दिया . सादिया दक्षिण अफ्रीका में उन लोगों की वंशज हैं जो महात्मा  गांधी के साथ दक्षिण अफ्रीका में आज के सौ साल पहले लाठी गोली खा रहे थे . सादिया ने अपना भाषण एलिजाबेथ कैस्टेली और इब्न अरबी के हवाले से शुरू किया और इतने प्रतिष्ठित भाषण को आधे घंटे में निपटा दिया . उन्होंने इब्न अरबी के अलफुतूहात अलमक्किया का कई बार उल्लेख किया और श्रोताओं  को आठ सौ साल पुराने ज्ञान को आधुनिक सन्दर्भ में इस्तेमाल करने के उपदेश दिया . इबन अरबी १२४० इस्स्वी में इंतकाल फर्मा गए तह .बाद में जब सेमीनार हुआ तो हर मुद्दे की पूरी तरह से ढुलाई हो गयी . लेकिन चर्चा में शामिल  लोगों को यह समझ में आ गया कि अमरीकी साम्राज्यवाद के नाम पर किस तरह अल कायदा और उसकी तरह के इस्लाम का प्रचार किया जा रहा  है और उस काम के  लिए बुद्धिजीवी भी तलाश कर लिए गए हैं .

सादिया शेख ने कहा जब से अमरीका ने इस्लाम पर हमला करने की विदेशनीति का पालन शुरू किया है , बाज़ार में बहुत सारी ऐसी आत्मकथाएँ आ गयी हैं जो इस्लामी देशों में महिलाओं की  दुर्दशा का ज़िक्र करती हैं और अपने अमरीकी मालिकों को इस्लामोफोबिया का माहौल बनाने में मदद करती हैं .अमरीका के आतंक पर जारी युद्ध में इन आत्मकथा लिखने वाली मुखबिरों की आपबीती को बहुत बड़े बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है .उन्होने आरोप लगाया कि कई बार यह काम पी आर कंपनियों के ज़रिये भी किया जा रहा है ,उन्होंने लगभग सिरे से यह कह दिया कि अमरीका की तरफ से इराक ,अफगानिस्तान या अन्य इस्लामी देशों में युद्ध को सही साबित करने के लिए इन आत्मकथाओं  का इस्तेमाल किया जा  रहा है .अमरीकी मीडिया में इन किताबों में लिखी जानकारी को खूब प्रचारित किया जाता है लेकिन इस्लामी देशों में अमरीका की तरफ से थोपे गए युद्ध  के कारण मरने वाली महिलाओं  का ज़िक्र नहीं होता . मैंने जब उनसे पूछा कि अमरीकी साम्राज्यवाद का तो हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए लेकिन  क्या उसका डर दिखाकर इस्लामी  व्यवस्थाओं में औरतों के प्रति हो रही ज्यादती को सही ठहराया जा सकता है . उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था . बाद में ज़्यादातर विद्वानों ने उनकी बातों को कट्टरपंथी इस्लाम को सही साबित  करने की एक योजना के रूप में स्थापित करने की कोशिश की सादिया शेख की हर मान्यता की धज्जियां उड़ा दी गयीं .

जिस देश में कैबिनेट मंत्री साइकिल पर चलता है और सड़क पर खड़े होकर चुनावी पर्चे बांटता है


शेष नारायण सिंह

ओस्लो,२५ अगस्तनार्वे की संसद के चुनाव के लिए मतदान में अभी दो हफ्ते से ज़्यादा समय बाकी है .अब तक के संकेतों से साफ़ है कि चुनाव में दोनों ही गठबंधनों के बीच कांटे  का मुकाबला होगा, हालांकि शुरुआती संकेत यही था कि  प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेंबर्ग की सरकार की विदाई होने वाली थी लेकिन अब कंज़रवेटिव पार्टी पिछड़ रही है क्योंकि उनकी अति पूंजीवादी राजनीति उनको जनकल्याण की योजनाओं से दूर भगा देती है . नार्वे की राजनीति में जनकल्याण और इंसानियत स्थायी भाव के रूप में स्थापित है . जो उसके खिलाफ जाता है वह यहां के आम आदमी से दूर हो जाता है . यह भी सच है कि आठ साल से चली आ रही लेबर गठबंधन की सरकार से लोग परेशान हैं . कंज़रवेटिव पार्टी और उनके साथी प्रोग्रेस पार्टी वालों को शुरू में जनता का समर्थन इसी कारण से मिला था लेकिन अब वह रोज ही कम हो रहा है . यहाँ चुनाव पूरी तरह से लोकतंत्रीय तरीके से ही लड़ा जाता है . अपने देश के बाहुबली और माफिया टाइप नेता कहीं नहीं दीखते .इसलिए जनमत में बदलाव साफ़ नज़र आने लगता है .
नार्वे के  संसद भवन और नैशनल थियेटर के बीच में जो जगह है वहाँ सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार के लिए बूथ बना रखा है . नौजवान कार्यकर्ता वहाँ चुनावी पर्चे बाँट रहे होते  है . लेबर पार्टी वालों ने गुलाब के फूल में अपना पर्चा लगा रखा है और हर आते जाते को दे रहे है .अपनी बात कहते देखे जा रहे हैं . सोशलिस्ट-लेफ्ट पार्टी के बूथ के सामने जब मैं कार्यकर्ताओं से बात कर रहा था तो  थोड़े सीनियर एक कार्यकर्ता ने समझाना शुरू कर दिया , उन्होंने अपना परिचय दिया तो पता लगा कि वे मौजूदा सरकार के विदेश मंत्रालय में अंतरराष्ट्रीय डेवेलपमेंट के मंत्री हैं .उनका नाम हायिकी होल्मोस है और वे साइकिल से चलते हैं . यह बात भारतीय रिपोर्टर को अजीब लग सकती है क्योंकि यहान तो मंत्री का चमचा अभी चमचमाती  हुई कीमती  कार में चलता है .जब मुझसे बात शुरू की तो सिर पर हेलमेट थी लेकिन जब उनको बताया गया कि मैं भारतीय रिपोर्टर हूँ तो हेलमेट उतारकर मेरे साथ फोटो खिंचाया. सड़क पर खड़े मंत्री को अपनी पार्टी के चुनाव के पर्चे बाँटते मैंने कभी नहीं देखा था इसलिए उनसे प्र्भावित हुआ और बातों बातों  में उनका इंटरव्यू कर डाला.
सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी यानी एस वी की ओर से मौजूदा संसद में ११ सदस्य है . जब उनसे पूछा गया कि क्या इस बार वे २० सीटें जीतने की उम्मीद कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि अभी तो ११ हैं , इस संख्या को बरकरार रखने की कोशिश की जायेगी लेकिन अगर बहुत अच्छा नतीजा आया तो भी १५ से ज़्यादा की उम्मीद बिलकुल नहीं है . सरकार के वरिष्ठ मंत्री के इस बयान के बाद अपने देश के मंत्री बहुत याद आये जो रिज़ल्ट आते वक़्त जब हार रहे होते हैं तो कहते पाए जाते हैं कि अभी शुरुआती रुझान है , अभी थोड़ी देर तक गिनती चलने दीजिए , सरकार तो उनकी पार्टी की ही बनेगी. हायिकी होल्मोस ने बताया कि उनकी सरकार दक्षिणपंथी पार्टियों की राजनीति का विरोध करती है. उनकी सरकार महिलाओं के स्वास्थ्य और उनके अधिकारों के लिए अपने देश में और दुनिया भर में लीडरशिप की भूमिका में रहना चाहती है  . ९ सितमबर के बाद भी लेबर पार्टी की अगुवाई वाले गठबंधन को बहुमत मिलेगा और यह काम सारी दुनिया में जारी रखेगें . लेबर पार्टी के गठबंधन में सेंटर पार्टी भी है जो नार्वे के देहातों में रहने वाले किसानों और मछली पालन करने वालों की लोकप्रिय पार्टी के रूप में जानी जाती है , उस पार्टी ने भी नार्वेजी जीवन मूल्यों की रक्षा की बात की है जबकि विपक्षी पार्टियां ,होयरे यानी  कंज़रवेटिव और एफ आर पी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को मदद करने के लिए मानवता के आदर्शों की परवाह  नहीं कर रहे हैं .

सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के इस नेता ने कहा कि उनकी पार्टी गरीबी के खिलाफ है और पूरी दुनिया में गरीबी के कारण हो रहे मानवाधिकारों के हनन का विरोध किया जाएगा .उन्होंने कहा कि दुनिया में ऐसे भी देश हैं , जहां माता पिता अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते बल्कि कूड़ा बीनने के लिए भेज देते हैं  और वे बच्चे अधजली सिगरेट बीनकर उसमें बची हुई तम्बाकू को रिसाइकिल करके बेचते हैं जिससे उनको कुछ खाने को मिल सके . उनकी पार्टी इस अमानवीय काम का हर स्तर पर विरोध करेगी. और गरीबी के खिलाफ पूरी दुनिया में लड़ाई लड़ी जायेगी . गरीबी से ही मानवाधिकारों का हनन होता है. गरीबी बहुत बड़ी बेइंसाफी है .इस बेइंसाफी के लिए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ज़िम्मेदार है . उन्होंने कहा कि विश्व की अर्थव्यवस्था आज के पचास साल पहले जिस मुकाम पर थी आज उससे पांच गुनी ज़्यादा संपन्न है और आबादी में दुगुनी वृद्धि हुई है . इस तरह हम देखते हैं  कि दुनिया की पूरी आबादी के लिए धन की कमी  नहीं है . ज़रूरत इस बात की है कि उस संपत्ति को ईमानदारी से लोगों तक पंहुचाया जाए. एक राष्ट्र के रूप में नार्वे का यह कर्तव्य है और विपक्ष उसको खत्म करने पर आमादा है . उन्होंने कहा कि नार्वे के लोग मानवाधिकारों की रक्षा का ज़िम्मा अपनी खुशी से अपने ऊपर लेते हैं कोई उन्हें मजबूर नहीं कर सकता . हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम पूरी दुनिया में  मुसीबतज़दा लोगों की मदद कर सकें . जबकि प्रोग्रेस पार्टी वाले विदेशी सहायता की राशि में ७ अरब क्रोनर की कटौती करना चाहते  हैं .इसका नार्वे के लोगों  को विरोध करना चाहिए . प्रोग्रेस पार्टी की मांग है कि अफ्रीका में जाने वाली सहायता में एक अरब क्रोनर की कटौती की जाए . अगर ऐसा हुआ तो वहाँ की एन जी ओ को मिलने वाली रकम बंद हो जायेगी. अफ्रीका के ज्यादातर देशों में एन जी ओ की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उसी के ज़रिये आम आदमी की जायज़ मांगे सरकार तक पंहुचती हैं .प्रोग्रेस पार्टी वाले चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड को  दिया जाने वाला १२० मिलियन क्रोनर भी न दिया जाए . इस धन का इस्तेमाल महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए इस्तेमाल होता है . अगर यह बंद हो गया तो सीधे सीधे अफ्रीका में महिलाओं के मानवाधिकारों को हमला माना जायेगा .जाहिर है कि नार्वे के लोग इस को पसंद नहीं करेगें और अंत में प्रोग्रेस पार्टी और उनके गठ्बंधन की बड़ी पार्टी कंज़रवेटिव पार्टी को सत्ता से बाहर रखेगी
.

Monday, August 26, 2013

सुरेशचंद्र शुक्ल के साथ नार्वे में घूमना हज़रतगंज जैसा लगता है




शेष नारायण सिंह


नार्वे में पंहुचने के साथ ही काम में जुट गया इसलिए एक मिनट के लिए नहीं लगा कि कुछ बदला है. हालांकि यहाँ भी घर से बाहर निकलने पर तो सब कुछ बिलकुल अलग लगता है ,अजनबी शहर बेगाना लगता है लेकिन जो तीन चार रिपोर्टें अब तक लिखी हैं उनको अपने वतन में लोग पसंद कर रहे हैं . खासकर जब आप नार्वेजियन  भाषा न जानते हों .यहाँ का जुगराफिया न जानते  हों और नार्वे के बारे में कुछ भी न जानते हों . लेकिन रिपोर्ट पढकर शक होता है कि किसी जानकार की रिपोर्ट है . यह इसलिए संभव हुआ कि यहाँ रहने वाले मेरे एक मित्र ने बहुत मदद की .उनके कारण ही यह संभव हुआ . मुझ पर लाजिम है कि मैं ओस्लो के अपने दोस्त सुरेश चन्द्र शुक्ल के व्यक्तित्व के बारे में  कुछ बताऊँ .

२० अगस्त को मैं ओस्लो  पंहुचा था और २१ अगस्त को सुरेश चन्द्र शुक्ल ने मुझे काम पर लगा दिया . मेरे घर के पास के मेट्रो स्टेशन पर मिल गए और मुझे साथ लेकर एक चुनावी सभा में चले गए . उसके पहले अपने घर ले गए थे . वाइतवेत के उनके घर में एक मिनट के लिए भी नहीं लगा कि किसी पराये देश में हैं . हालांकि मैं खाना खाकर गया था लेकिन जब उन्होंने  बिना मुझसे पूछे और बिना किसी पूर्व सूचना के भोजन पर आमंत्रित कर दिया तो मुझे लगा कि अपनी अवधी तहजीब के किसी धाकड़ नमूने के घर आ गया हूँ और किसी भराधी बैठकबाज़ से मुलाक़ात हो गयी है .उनकी पत्नी , माया जी ने सामने लाकर खाना रख दिया ,लगाकि सुल्तानपुर के अपने घर में बैठा हूँ .अपनैती की हद देखने को मिली. पेट में जगह नहीं थी लेकिन आग्रह ऐसा कि मना नहीं कर सका. गले तक भोजन के बाद सुरेश जी के साथ निकल पड़े, ओस्लो के किसी उपनगर में एक चुनावी प्रचार  का जायज़ा लेने . वहाँ  बोली गयी कोई बात समझ में नहीं आई लेकिन  सुरेश शुक्ल के बताने के आधार पर रिपोर्ट लिखी ,साथ घूमते रहे और शाम तक वापस आया गए . आजकल ओस्लो  का मौसम ऐसा है जिसमें करीब आठ बजे सूर्यास्त हो रहा है , रात नौ बजे तक गोधूलि वेला जैसा उजाला रहता है.
सुरेश चन्द्र शुक्ल का एक और नाम शरद आलोक है लेकिन ओस्लो की सडकों पर जो भी उन्हें जानता है वह उन्हें शुक्ला जी ही कहता है . हिंदी और नार्वेजी भाषा के पत्रकार और साहित्यकार होने के अलावा सुरेश शुक्ल नार्वे की राजनीति में भी दखल रखते हैं .ओस्लो की नगर पार्लियामेंट में सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी ( एस वी ) की ओर से सदस्य रह चुके हैं . २००७ में ओस्लो टैक्स समिति के सदस्य थे  और २००५ में हुए पार्लियामेंट के चुनाव में  सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रीय चुनाव में शामिल हो चुके हैं . नार्वेजियन जर्नलिस्ट यूनियन और इंटरनैशनल  फेडरेशन और जर्नलिस्ट्स के सदस्य हैं . इसके  अलावा बहुत सारे भारतीय और नार्वेजी संगठनों के भी सदस्य हैं . डेनमार्क और कनाडा के कई साहित्यिक संगठनों से जुड़े हुए हैं.अपनी ही कहानियों पर आधारित टेलीफिल्म ,तलाश , नार्वे और कनाडा की संयुक्त  फिल्म ‘कनाडा की सैर’ ,आतंकवाद पर आधारित हिंदी लघुफिल्म ‘ गुमराह ‘ बना चुके  हैं . एक शिक्षाविद के रूप में भी उनकी पहचान है . ओस्लो विश्वविद्यालय  ,कोपेनहेगन विश्वविद्यालय,अमरीका का कोलंबिया विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी संस्थान, मारीशस में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में आमंत्रित किये जा चुके हैं . नार्वे की कई साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर हैं.
साहित्यकार के रूप में भी सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘ शरद आलोक ‘ जाने माने नाम हैं. भारत में भी बहुत सारी पत्रिकाओं और अखबारों  में इनके साहित्यिक काम को छापा और सराहा  गया है .इनका पहला काव्य संग्रह १९७६ में ही भारत में छप गया था तब शायद इंटर में पढते थे . उसके बाद हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में उनके दस और काव्य प्रकाशित  हुए. १९९६ में उनका पहला कहानी संग्रह छपा था ,अब तक कहानियों के  कई संकलन वे संपादित कर चुके हैं ., नार्वे के सबसे नामवर साहित्यकार हेनरिक इब्सेन के १९४५ के बाद के साहित्य का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया है . ओस्लो विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इसी विषय पर विशेष अध्ययन किया था . नार्वे के साहित्य खासकर इब्सेन के  लेखन का सुरेश शुक्ल ने अनुवाद भी खूब किया है .उन्हें बहुत सारे पुरस्कार भी मिल चुके हैं ,भारत में भी और नार्वे में भी .
एक साहित्यकार और राजनीतिक नेता के रूप में ऐसे बहुत से लोग मिल जायेगें जो सुरेश चन्द्र शुक्ल से बड़े होंगें और केवल इस विशेषता के कारण मैं उनसे प्रभावित  नहीं हुआ. यह सारी बातें तो बहुत सारे लोगों में हो सकती हैं , मैं दिल्ली में रहता हूँ और इस तरह के बहुत लोग मिलते हैं जो साहित्यकार भी हैं और राजनेता भी .  लेकिन सुरेश चन्द्र शुक्ल में जो खास बात है वह बिलकुल अलग है और वह है उनका बेबाकपन, अदम्य साहस और किसी भी हाल में मस्त  रहने की क्षमता . मैंने इस बारीकी को समझने  के लिए उनको कुरदने का फैसला किया और सारा रहस्य परत दर परत खुलता चला गया और साफ़ हो गया कि यह आदमी जो मुझे लेकर ओस्लो की सड़कों और ऐतिहासिक स्थलों पर घूमता हुआ गप्प मार रहा है वह कोई मामूली आदमी नहीं है और उसके गैरमामूलीपन की शुरुआत बचपन में ही हो चुकी थी . आपने १९७२ में लखनऊ से हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी. दसवीं का तीन साल का कोर्स शुरू तो १९६९ में  ही हो गया था जब आप कक्षा ९ पास करके दसवीं में भरती हुए थे . लेकिन १९७० में फेल हो गए . इनके साथ दो साथी और थे जो इनकी  तरह की बाकायदा फेल हुए थे . बहरहाल तीनों मित्रों ने १९७१ में पास होने के लिए खूब मेह्नत से पढाई शुरू की लेकिन भाग्य  को कुछ और ही मंज़ूर था , सुरेश शुक्ल बीमार हो गए . उनके घनिष्ठ मित्रों ने कहा कि जब हमेशा का साथ  है तो एक साथी को छोड़कर अगली क्लास में  नहीं जायेगें . लिहाजा उन दोनों ने भी इम्तिहान छोड़ दिया और साथ साथ फेल हुए . जब दोस्ती की यह कथा परवान चढ़ रही थी तो इन दोस्तों के माता पिता बहुत दुखी हो रहे थे . सुरेश के पिता ने चेतावनी दे दी कि अब पढाई खत्म करो और नौकरी शुरू करो. सुरेश शुक्ल ने लखनऊ के सवारी डिब्बे के कारखाने में काम शुरू कर दिया और खलासी हो गए. जब १९७२ में दसवीं की परीक्षा हुई तो तीनों ही मित्र पास हो गए थे . तीनों को नौकरी मिल चुकी थी . तो इन लोगों ने तय किया कि अब जो बच्चे तीन साल फेल होने के बाद दसवीं  की परीक्षा  पास करने की कोशिश करेगें उसको यह आर्थिक मदद करेगें . इस काम के लिए इन लोगों ने अपने वेतन से पैसा जोड़कर एक फंड बनाया जिस से तीन बार फेल होने वाले धुरंधरों की मदद की जायेगी . दो एक लोगों को वायदा भी किया . मदद भी की . इस बीच इनके किसी दोस्त की बहन भी तीन बार फेल  हो गयी . फंड के संचालक तीनों मित्र उसके घर पंहुच गए और मित्र की माँ के पास पंहुच गए . और चाची को प्रणाम करके बैठ गए. चाची ने चाय पिलाने के लिए जैसे ही रसोई में प्रवेश किया हमारे शुक्ल की ने उनसे बच्ची के फेल होने पर सहानुभूति जताई और कहा कि आप चिंता मत कीजियेगा . हमने एक फंड बनाया है जिसका उद्देश्य उन बच्चों की पढाई का खर्च उठाना है जो दसवीं में तीन साल फेल हो चुके हों. चाची आगबबूला हो गयीं और चाय भूलकर झाडू हाथ में लेकर  इन तीनों धर्मात्माओं को दौड़ा लिया और जब बाकी लोगों ने इनको समझाया कि महराज आपके इस फंड की कृपा से बच्चों में फेल होने के लिए उत्साह बढ़ेगा तो इनकी समझ में आया कि कहीं कोई गलती हो रही थी और वह फंड अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ . कहने का मतलब  यह है कि लीक से हटकर काम करने की प्रवृत्ति सुरेश चन्द्र शुक्ल के अंदर शुरू से ही थी.
रेलवे में नौकरी करते हुए सुरेश चन्द्र शुक्ल ने लखनऊ के कान्यकुब्ज वोकेशनल कालेज से बी ए पास किया , १९७८ में रेलवे ने इनको कानपुर भेजकर वर्कर-टीचर की ट्रेनिंग करवाया .हालांकि रेलवे में यह तरक्की कर रहे थे ,खलासी से शुरू करके छः साल में फिटर हो गए थे  लेकिन मन नहीं लग रहा था , कोल्हू के बैल की तरह की ज़िंदगी शुक्ल जी को कभी पसंद नहीं थी.और फिर इनकी ज़िंदगी में एक नया अध्याय शुरू होने वाला था . शुक्ल जी ने नौकरी पर अचानक जाना बंद कर दिया और २६ जनवरी १९८० के दिन हवाई जहाज़ से उड़कर ओस्लो पंहुच गए . हवाई जहाज़ इसलिए लिख रहा हूँ कि इनके बड़े भाई साहेब कुछ वर्ष पहले साइकिल से ओस्लो की यात्रा कर चुके थे और यहीं रह रहे थे. नार्वे जाने का इनका कारण केवल यह था उन दिनों भारत से नार्वे आकर कोई भी बिना वीजा के तीन महीने के लिए रह सकता था . इनको कुछ नहीं मालूम था कि यहाँ की ज़िंदगी की शर्तें क्या हैं , भाई से मदद की कोई खास उम्मीद नहीं थी.लेकिन ओस्लो पंहुच कर बिना कोई वक़्त गंवाए आप भारतीय दूतावास पंहुच गए और वहाँ आयोजित गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में दर्शक के रूप में शामिल हो गए. यहाँ आकर सुरेश शुक्ल फ़ौरन काम से लग गए . सबसे पहले नार्वेजी भाषा सीखने के लिए नाम लिखा लिया , दो साल के अंदर यहाँ की भाषा सीख गए. भाषा के सभी पहलू सीखे ,ग्रामर , टाइपोग्राफी,फोनेटिक्स सब सीखा . उसके बाद नार्वेजी साहित्य की पढाई के  लिए ओस्लो विश्वविद्यालय में नाम लिखा लिया . सुरेश चन्द्र शुक्ल १९४५ के बाद के नार्वेजी साहित्य के मास्टरपीस रचनाओं के विशेषज्ञ हैं और नार्वे में उनकी पहचान इसी रूप में है .

ज़िंदगी के हर मोड पर संघर्ष को गले लगाते हुए सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘ शरद आलोक ‘ आगे बढते जा रहे थे लेकिन इस आदमी ने अपने सेन्स आफ ह्यूमर को हमेशा साथ रखा . पढाई के साथ साथ ओस्लो से प्रकाशित होने वाली हिंदी की पत्रिका ‘परिचय’ मे  काम करते हुए उनको कुछ आमदनी भी होने लगी थी . शुक्ल जी ने २००० क्रोनर में एक पुरानी कार खरीदी,. इस कार के कारण उन्होंने  कुछ दोस्तों को हमेशा साथ रखने का फैसला किया क्योंकि कार कहीं भी रुक जाती थी तो उसे धकेलने के लिए कुछ वालिंटियर चाहिए होते थे . उसी ज़रूरत के तहत ओस्लो में शुक्ल जी कुछ साथियों के साथ हमेशा ही  घूमते पाए जाते थे. पत्रकार के रूप में ज़िंदगी शुरू हो चुकी थी. २ हज़ार क्रोनर में कार खरीदने वाले शुक्ल जी को वीडियो देखने का शौक़ था और आप ९ हज़ार क्रोनर का वीडियो प्लेयर खरीद लाये  लेकिन टी वी  नहीं था . इस्तेमालशुदा चीज़ों के बाज़ार में जाकर इन्होने एक टी वी खरीदा लेकिन उसमें पिक्चर तो दिखती थी , आवाज़ नहीं आती थी . पुराना सामान इस शहर में वापस नहीं किया जा सकता उसकी कोई गारंटी भी नहीं होती . इसलिए इन्होने तय किया कि अब एक और टी वी खरीदेगें जिसमें आवाज़ सुनायी पड़े. इस तरह से एक वीडियो प्लेयर , और २ टी वी मिलकर नार्वे के राजधानी में गोमती के किनारे से ओलमा नदी के शहर ओस्लो में पंहुचा  पंहुचा यह नौजवान ज़िंदगी की परेशानियों को मुंह चिढा रहा था. बाद में अपनी पत्रिका भी शुरू कर दी .१९८८ में शुरू की गयी उनकी हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में छपने वाली पत्रिका स्पाइल दर्पण में आज भी नए लेखकों को महत्व दिया जाता है . हिंदी में लिखने वाले यूरोप में बहुत से साहित्यकार मिल जायेगें जिनकी कृतियाँ इस पत्रिका में सबसे पहले छपी थीं.
ऐसी बहुत सारी कहानियाँ हैं जो सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक को बाकी दुनिया से अलग कर देती हैं .इस सारी लड़ाई में उनकी पत्नी माया जी उनके साथ जमी रहीं और अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने की अपने मकसद में कामयाबी के झंडे फहरते रहे . आज उनके सभी बच्चों में भारत और  नार्वे के संयुक्त संस्कारों के कारण शिष्टाचार की सभी अच्छाइयां हैं . वाइतवेत के उनके घर में हिंदी और उर्दू के बहुत से साहित्यकार आ चुके हैं , कुछ ने तो यहीं पर अपना ओस्लो प्रवास भी  बिताया .हिंदू उर्दू के बड़े साहित्यकारों में शुक्ल जी सबसे ज़्यादा कादम्बिनी के तत्कालीन संपादक राजेन्द्र अवस्थी क एहसान मानते हैं क्योंकि अवस्थी जी ने कादम्बिनी में इनकी रचनाएं छापकर इन्हें प्रोत्साहन दिया था . कमलेश्वर , इन्द्रनाथ चौधरी ,रामलाल ( लखनऊ के उर्दू के अदीब ),कुर्रतुल एन हैदर ,श्याम सिंह शशि,गोपीचंद नारंग ,सत्य नारायण रेड्डी ,भीष्म नारायण सिंह , सरोजिनी प्रीतम बाल्सौरी रेड्डी इनके मेहमान रह चुके हैं . नोबेल शान्ति पुरस्कार का संस्थान ओस्लो में ही है . आपकी मुलाक़ात यहाँ पर नेल्सन मंडेला , दलाई लामा, अमर्त्य सेन, आर्च बिशप डेसमंड टूटू से कई बार हुई है और जब नोबेल शान्ति पुरस्कार के एक सौ साल पूरे होने पर जश्न मनाया गया था तो जिन विभूतोयों को बुलाया गया था उनमें सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक भी शामिल थे .
यह है अपना दोस्त जो आज भी जब किसी से मिलता है को उसकी मस्ती और उसका बांकपन लोगों को उसका बना देता है. बातचीत करते हुए लगता ही नहीं कि जिस व्यक्ति से बात कर रहे हैं वह उन्नाव के एक कस्बे अचल गंज से चलकर ओल्मा नदी के तीरे  बसे इस शहर में बहुत लोगों का दोस्त है और यूरोप और अमरीका सहित विश्व हिंदी सम्मलेन में शामिल होने वाले प्रतिष्ठिति लोगों के बीच भी सम्मान से जाना जाता है. लेकिन अपना रिश्ता थोडा अलग है . नार्वे के ऐतिहासिक स्थलों पर उनके साथ गूमकर लगता था  कि जैसे लखनऊ के हजरतगंज में घूम रहे हों .