शेष नारायण सिंह
ओस्लो,२६ अगस्त. ओस्लो विश्वविद्यालय के धार्मिक अध्ययन विभाग में आज आस्ता हँसतीन स्मारक व्याख्यान का आयोजन किया गया . २०११ में शुरू हुए इस लेक्चर का महत्व इसलिए है कि वह आस्ता हँसतीन के नाम पर है . आस्ता हँसतीन नार्वे और यूरोप में महिला अधिकारों की क्रांतिकारी नेता के रूप में जानी जाती हैं . नार्वे में महिलाओं को वोट देने का अधिकार सबसे पहले मिला था . १९१३ में मिले इस अधिकार की सौंवी वर्षगाँठ पूरे नार्वे में मनाई जा रही है.हालांकि वे खुद १९०८ में ही मर गयी थीं इसलिए अपनी मेहनत के नतीजों को देख नहीं पाईं .इस साल का लेक्चर दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन विश्वविद्याला की सहायक प्रोफ़ेसर सादिया शेख ने दिया . समझ में नहीं आया कि इतने बड़े लेक्चर के लिए सादिया शेख को क्यों बुलाया गया था क्योंकि उनका अकादमिक स्तर बहुत ही मामूली था और उन्होंने इस्लामोफोबिया के हवाले से ऐसी बहुत सी बातें स्थापित करने की कोशिश की जो इस्लाम में महिलाओं के साथ हो रहे आचरण को बिलकुल सही ठहराने की कोशिश थी और इस्लामी मुल्कों में जो महिलायें अपनी तकलीफों को आत्मकथा के रूप में लिख रही हैं उस सारे को अमरीकी साम्राज्यवाद की ओर से प्रायिजित बताकर यह साबित करने की कोशिश की कि इस्लाम में माहिलाओं को जो अधिकार मिले हुए हैं वे बहुत ही काफी हैं .
ओस्लो विश्वविद्यालय में अकादमिक धर्मशास्त्र विभाग की स्थापना के दो सौ साल पूरे होने पर २०११ में आस्ता हँसतीन स्मारक व्याख्यान माला की शुरुआत की गयी थी. इस साल का भाषण भारतीय मूल की सादिया शेख ने दिया . सादिया दक्षिण अफ्रीका में उन लोगों की वंशज हैं जो महात्मा गांधी के साथ दक्षिण अफ्रीका में आज के सौ साल पहले लाठी गोली खा रहे थे . सादिया ने अपना भाषण एलिजाबेथ कैस्टेली और इब्न अरबी के हवाले से शुरू किया और इतने प्रतिष्ठित भाषण को आधे घंटे में निपटा दिया . उन्होंने इब्न अरबी के अलफुतूहात अलमक्किया का कई बार उल्लेख किया और श्रोताओं को आठ सौ साल पुराने ज्ञान को आधुनिक सन्दर्भ में इस्तेमाल करने के उपदेश दिया . इबन अरबी १२४० इस्स्वी में इंतकाल फर्मा गए तह .बाद में जब सेमीनार हुआ तो हर मुद्दे की पूरी तरह से ढुलाई हो गयी . लेकिन चर्चा में शामिल लोगों को यह समझ में आ गया कि अमरीकी साम्राज्यवाद के नाम पर किस तरह अल कायदा और उसकी तरह के इस्लाम का प्रचार किया जा रहा है और उस काम के लिए बुद्धिजीवी भी तलाश कर लिए गए हैं .
सादिया शेख ने कहा जब से अमरीका ने इस्लाम पर हमला करने की विदेशनीति का पालन शुरू किया है , बाज़ार में बहुत सारी ऐसी आत्मकथाएँ आ गयी हैं जो इस्लामी देशों में महिलाओं की दुर्दशा का ज़िक्र करती हैं और अपने अमरीकी मालिकों को इस्लामोफोबिया का माहौल बनाने में मदद करती हैं .अमरीका के आतंक पर जारी युद्ध में इन आत्मकथा लिखने वाली मुखबिरों की आपबीती को बहुत बड़े बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है .उन्होने आरोप लगाया कि कई बार यह काम पी आर कंपनियों के ज़रिये भी किया जा रहा है ,उन्होंने लगभग सिरे से यह कह दिया कि अमरीका की तरफ से इराक ,अफगानिस्तान या अन्य इस्लामी देशों में युद्ध को सही साबित करने के लिए इन आत्मकथाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है .अमरीकी मीडिया में इन किताबों में लिखी जानकारी को खूब प्रचारित किया जाता है लेकिन इस्लामी देशों में अमरीका की तरफ से थोपे गए युद्ध के कारण मरने वाली महिलाओं का ज़िक्र नहीं होता . मैंने जब उनसे पूछा कि अमरीकी साम्राज्यवाद का तो हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए लेकिन क्या उसका डर दिखाकर इस्लामी व्यवस्थाओं में औरतों के प्रति हो रही ज्यादती को सही ठहराया जा सकता है . उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था . बाद में ज़्यादातर विद्वानों ने उनकी बातों को कट्टरपंथी इस्लाम को सही साबित करने की एक योजना के रूप में स्थापित करने की कोशिश की सादिया शेख की हर मान्यता की धज्जियां उड़ा दी गयीं .