Friday, August 26, 2011

संसद की स्टैंडिंग कमेटी के पास अकूत पावर होता है


शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, २५ अगस्त .लोकपाल बिल पर चर्चा के दौरान संसद की स्थायी समिति यानी स्टैंडिंग कमेटी का बार बार उल्लेख हुआ. किसी ने कहा कि स्थायी समिति के पास कोई पावर नहीं होता . इसलिए बिल पर चर्चा लोक सभा में ही होनी चाहिए. अजीब बात है कि सरकार की तरफ से भी इस बात को बहुत ही साफ़ तरीके से लोगों को नहीं बताया गया कि स्थायी समिति के पास किसी भी बिल के बारे में चर्चा करने के असीमित पावर होते हैं . यहाँ तक कि अगर स्थायी समिति चाहे तो सरकार की तरफ से भेजे गए बिल के हर शब्द को बदल सकती है और बिलकुल नया बिल सदन के विचार के लिए पेश कर सकती है . वह बिल को सम्बंधित मंत्रालय के पास यह कह कर लौटा भी सकती है कि बिल में कोई दम नहीं है इसलिए उसे संसद के विचार के लिए नहीं पेश किया जा सकता. सत्ताधारी पार्टी का एक बहुत ही प्रिय बिल सूचना के अधिकार के सम्बन्ध में था. नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल वालों ने बहुत ही मेहनत करके बिल बनाया था . कांग्रेस उस बिल का श्रेय लेते नहीं अघाती लेकिन जो बात बहुत कम लोगों को मालूम है वह यह कि सरकार ने जिस बिल का मसौदा संसद की स्थायी समिति के पास भेजा था उसमें १५० संशोधन किये गए थे और जो बिल संसद में विचार के लिए स्थायी समिति ने भेजा वह मूल मौसदे से बहुत ही अलग और अच्छा था. इसी तरह के और भी बहुत सारे उदाहरण हैं . इसलिए अन्ना की टीम के सदस्यों ने कानून मंत्रालय की स्थायी समिति के बारे में जो पावर न होने की बात कही थी उस बात में कोई दम नहीं है . दुर्भाग्य की बात है कि सरकार और कांग्रेस पार्टी की तरफ से भी सही बात जोर देकर नहीं कही गयी और जनता को इस बारे में कई भ्रांतियों के शिकार होने के लिए मजबूर होना पड़ा.

संसद की स्थायी समितियों का इतिहास बहुत पुराना नहीं है . १९८० के दशक में यह अनुभव किया गया कि संसद के प्रति सरकार की जवाबदेही के बुनियादी सिद्धांत को मुकम्मल तरीके से नहीं लागू किया जा रहा था . संसद के प्रति सरकार की ज्यादा जवाबदेही सुनिश्चित करने के उद्देश्य से संसद में कमेटी सिस्टम की व्यवस्था लागू की गयी. १९८९ में पहली बार तीन कमेटियां बनायी गयीं. मकसद यह था कि किसी भी बिल के संसद में पेश होने से पहले उसकी विधिवत विवेचना की जाये और जब सभी पार्टियों की सदस्यता वाली समिति उसे मंजूरी दे तब संसद के सामने मामले को विचार के लिए प्रस्तुत किया जाए. १९८९ में केवल तीन कमेटियां बनायी गयी थी, एक कृषि के लिए, दूसरी `विज्ञान और टेक्नालोजी के लिए और तीसरी पर्यावरण और वन विभाग के लिए थी. इन कमेटियों की सफलता के बाद ही भारतीय संसद में कमेटी सिस्टम को विधायी कार्य के लिए एक प्रभावी संस्था के रूप में स्वीकार किया गया. १९९३ में १७ मंत्रालयों और विभागों की स्थायी समितियां बनायी गयीं . इन में ६ कमेटियां राज्यसभा के अध्यक्ष की निगरानी में थीं जबकि ११ कमेटियां लोकसभा के अध्यक्ष की निगरानी में काम कर रही थीं .२००४ में कमेटियों की संख्या बढ़ाकर २४ कर दी गयी.
इन कमेटियों का मुख्य काम सरकार के कामकाज की गंभीर विवेचना करना और संसद के प्रति सम्बंधित मंत्रालय कोपूरी तरह से जवाबदेह बनाना है . ,सम्बंधित मंत्रालय या विभाग की बजट मांगों पर पहले स्थायी समिति में चर्चा होती है और वहां पर जानकारों की राय तक ली जा सकती है .उस विभाग से सम्बंधित बिल भी सबसे पहले उस मंत्रालय की स्थायी समिति के पास जाता है . लोक पाल बिल कानून मंत्रालय की स्थायी समिति के पास भेजा गया है .इस कमेटियों में जब चर्चा के लिए को बिल लाया जाता है तो उसकी बाकायदा जांच करके उसे संसद में प्रस्तुत किया जाता hai. कमेटी का लाभ यह है कि सदन में पेश होने के पहले बिल का नीर क्षीर विवेक हो चुका होता है और हर पार्टी उसमें अपना राजनीतिक योगदान कर चुकी होती है . ऐसा नहीं हो सकता कि सरकार वहां मनमानी कर ले क्योंकि कमेटी का गठन ही सरकार को ज्यादा ज़िम्मेदार ठहराने के लिए किया जाता है .सभी पार्टियों के सदस्य इन कमेटियों के सदस्य होते हैं इसलिए सरकार के काम काज की इनकी बैठकों में बाकायदा जांच की जाती है . आम तौर पर यहाँ पर फैसले आम सहमति से होते हैं लेकिन अगर कोई सदस्य चाहे तो नोट आफ डिसेंट लगा सकता है .
इन कमेटियों के गठन के भी संसद ने नियम बना रखे हैं. हर स्थायी समित के पास कई बार एक से ज्यादा मंत्रालय भी हो सकते हैं . हर स्थायी समिति में ३१ सदस्य होते हैं . २१ लोक सभा के सदस्य होते हैं जबकि १० राज्यसभा के . कोई भी मंत्री इन समितियों का सदस्य नहीं बन सकता.क्योंकि सरकार के काम काज की जांच के लिए ही तो कमेटी का गठन होता है . कमेटी की सदस्यता केवल एक साल के लिए होती है . अपने नियंत्रण वाली कमेटियों के अध्यक्षों की नियुक्ति राज्य सभा और लोक सभा के अध्यक्ष खुद करते हैं . जन लोक पाल बिल जिस कमेटी के हवाले किया गया है उसके अध्यक्ष कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी हैं . अलग अलग कमेटियों की अध्यक्षत अलग अलग पार्टी के सदस्यों के पास होती है . इसलिए संसद की स्थायी समिति को कम पावर वाली कहना बिलकुल भ्रामक है

Monday, August 22, 2011

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की टिकटों के संकेत



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, २२ अगस्त . कांग्रेस ने फर्रुखाबाद विधानसभा सीट से सलमान खुर्शीद की पत्नी को टिकट देकर जहां एक बार केंद्रीय कानून मंत्री की ज़मीनी राजनीतिक हैसियत नापने का काम किया है वहीं समाजवादी पार्टी को भी सन्देश दे दिया है कि उनके अपने प्रभाव वाले इलाके में भी कांग्रेस चुनावों को बहुत ही गंभीर तरीके से लड़ने के मूड में है. हालांकि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को पिछली बार भी यहाँ बसपा ने हरा दिया था लेकिन यह इलाका मुलायम सिंह के व्यक्तिगत प्रभाव वाला माना जाता है . अपनी पहली सूची जारी करके उत्तरप्रदेश में कांग्रेस अपनी राजनीतिक मंशा का ऐलान कर दिया है . पहली सूची के संकेत साफ़ हैं . कांग्रेस अपने सांसदों को सीट की हारजीत के लिए ज़िम्मेदार ठहराना चाहती है.शायद इसीलिये पार्टी के सांसदों के परिवार वालों को विधानसभा का टिकट देकर यह बता दिया है कि अगर अपने परिवार के लोगों को नहीं जितवा सकते तो २०१४ में अपने टिकट की भी बहुत पक्की उम्मीद मत कीजिये. मसलन राहुल गाँधी की सीट के पांच टिकटों में आज उन्हीं लोगों के नाम हैं जिनका जीतना आम तौर पर पक्का माना जाता है . सलमान खुर्शीद की पत्नी और बरेली के प्रवीण ऐरन की पत्नी का टिकट भी इसलिए दिया गया है कि जहां से आप जीत कर आये हैं वहां अपने घर वालों को जिताइये.
हालांकि अगर ध्रुवीकरण हुआ तो लड़ाई में बीजेपी के शामिल होने की भी पूरी संभावना है .इसके लिए मुरादाबाद में कोशिश भी की जा चुकी है . लेकिन अगर मामला हर बार की तरह जातिगत आंकड़ों के इर्द गिर्द ही रहा तो समाजवादी पार्टी की बहुजन समाज पार्टी को हर क्षेत्र में घेरने के चक्कर में है. दिल्ली समाजवादी पार्टी के अंदर तक की हाल जानने वाले एक भरोसेमंद सूत्र का दावा है कि अभी भी अजीत सिंह संपर्क में हैं और पश्चिम में मुलायम सिंह के साथ मिलने की सोच रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय लोकदल के कई नेताओं से बात चीत हुई तो पता चला कि ऐसा कुछ नहीं है . समाजवादी पार्टी ने पश्चिमी जिलों से जिन उम्मीदवारों को उतारा है उनमें से कई अजीत सिंह की टिकट के लिए प्रयास कर रहे हैं . उनके एक बहुत ही करीबी सूत्र ने बताया कि मुलायम सिंह को भी पश्चिम से बहुत उम्मीद नहीं है इसलिए वे अपना ध्यान मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश पर लगा रहे हैं . इसके लिए उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों की राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं पर लगाम देने की कोशिश भी की है.रामपुर के आज़म खां को भी लाये हैं लेकिन आज़म खां के आने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा है. इसका कारण शायद यह है कि पिछले लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने आज़म खां की ताकत को इतना कम कर दिया था कि उनके फिर से किसी काम का होने में वक़्त लगेगा. समाजवादी पार्टी की ताक़त इटावा के आस पास के जिलों में ही सबसे ज्यादा है , वहां भे एहर सीट पर उसे बहुजन समाज पार्टी की चुनौती मिल रही है. . जहां तक पूरब का सवाल है वहां बहुजन समाज पार्टी तो ताक़तवर है ही , पीस पार्टी नाम का एक संगठन भी समाजवादी पार्टी के बुनियादी वोटों को हर क्षेत्र में काट रहा है . इस बीच मुलायम सिंह यादव ने अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित करने की अपनी योजना को भी थोडा ढील दी है . बताया गया है कि उन्होंने कई लोगों से कहा कि जब उत्तराधिकार में कुछ होगा तभी तो देने का सवाल पैदा होगा . इस बीच खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे खुद ही रोज़ की राजनीतिक गतिविधियों पर नज़र रख रहे हैं और इलाके के ताक़तवर लोगों को साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं .साथ ही मुसलमान वोटों के मुख्य दावेदार के रूप में भी उनकी छवि ध्वस्त हो चुकी है . उस वोट पर कांग्रेस ने अपनी मज़बूत पकड़ बना ली है हालांकि पश्चिम का प्रभावशाली मुस्लिम वोट अभी भी बसपा के पास ही है .

Saturday, August 13, 2011

सरकार अन्ना हजारे को अनशन स्थल से उठा भी सकती है .




शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,११ अगस्त. अन्ना हजारे के १६ अगस्त को प्रस्तावित अनशन से केंद्र सरकार में अंदर तक घबडाहट है लेकिन इस बार सरकार उनसे दो दो हाथ करने के मूड में है.हालांकि सरकार में यह भी बातें चर्चा में हैं कि राम देव वाले रामलीला मैदान वाले आन्दोलन के तरह कोई गलती न हो . मीडिया के लिए बनाए गए मंत्रियों के ग्रुप की ब्रीफिंग में आज गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि अगर अनशन के दौरान अन्ना हजारे की तबियत बिगड़ी तो उन्हें अनशन की जगह से उठा कर उनकी जान बचाने की कोशिश की जायेगी. जब गृह मंत्री इस तरह की बात करता है तो उसका मतलब अन्ना के एटीम के हर सदस्य की समझा में ज़रूर आ गया होगा.सरकार ने आज अन्ना हज़ारे के प्रस्ताविर अनशन को बेतुका बताया और कहा कि जब लोकपाल बिल संसद की स्थायी समिति के विचार के लिए पेश किया जा चुका है ,तो उस पर रचनात्मक सुझाव दिए जाने चाहिए , दबाव की राजनीति से बचना चाहिए . गृह मंत्री ने कहा कि लोकतंत्र में सब को अपना विरोध व्यक्त करने की आज़ादी है लेकिन वक़्त ही बताएगा कि विरोध सही था कि नहीं . हालांकि सरकार अब अन्ना को हीरो बनने से रोकने के लिए पूरी तैयारी कर चुकी है . आज दिल्ली के एक अखबार में खबर लीक की गयी है कि अन्ना हजारे की टीम के कुछ सदस्यों के एन जी ओ को कई विदेशी दूतावासों से धन मिलता है . उनेक साथियों के कुछ संगठनों को दुनिया के बहुत बड़े बैंकों से भी पैसा मिलता है .लीमैन ब्रदर्स नाम के बैंक का नाम भी अखबार में छपा है . उनके साथियों के एन जी ओ को दान देने वालों में दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनी वाल मार्ट का नाम भी अखबार में छपा है . सूत्रों ने बताया कि सरकार ने खुसफुस अभियान के ज़रिये यह भी दिल्ली के सत्ता के गलियारों में फैला रखा है कि अन्ना हजारे की टीम के सदस्य जजों को तो लोकपाल के जांच के दायरे में लेने की बात करते हैं लेकिन वे एन जी ओ के भ्रष्टाचार की जांच को लोकपाल से बाहर रखना चाहते हैं . जब यह लोग बुधवार को संसद के एसमिति में हाज़िर हुए थे तो उन्होंने आग्रह किया था कि एन जी ओ को उस जांच से बाहर रखा जाए. गौर करने की बात यह है कि अन्ना हजारे और रामदेव के खिलाफ कांग्रेस की तरफ से शुरुआती मोर्चा संभालने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी मांग की थी कि रामदेव को धन देने वालों की जांच भी की जानी चाहिये .

अन्ना हजारे के खिलाफ तो सरकार के पास कुछ नहीं है लेकिन उनके साथियों की तरकीबों को मजाक का विषय बनाने के एकापिल सिब्बल की कोशिश आज भी जारी रही. जब गृह मंत्री से पूछा गया कि राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र अमेठी में ९५ प्रतिशत लोग अन्ना को सही मानते हैं तो उन्होंने कहा कि चांदनी चौक के सर्वे के बाद जो बात कपिल सिबल ने कही थी मैं भी वही कहता हूँ . मुझे ताज्जुब है कि यह रिज़ल्ट १०० प्रतिशत क्यों नहीं है .गृह मंत्री ने यह भी आभास देने की कोशिश की कि सरकार अन्ना हजारे के प्रस्तावित अनशन से परेशान नहीं है . वह दिल्ली पुलिस के स्तर का मामला है और उसे उसी स्तर पर हल कर लिया जाएगा. सरकार के अंदर के सूत्र बताते हैं कि आन्दोलन को हल्का करके पेश करने का काम पब्लिक के लिए है . वैसे सरकार पूरी तरह से मन बना चुकी है कि इस बार अन्ना हजारे के साथियों की कमजोरियों को पब्लिक करके उनके आन्दोलन की हवा निकालने की पूरी कोशिश की जायेगी . दिल्ली के एक बड़े अखबार में उनके साथियों के एन जी ओ को मिलने वाली रक़म का संकेत देकर सरकार ने अपने इरादों की एक झलक दिखा दी है . ज़ाहिर है जब अखबारों और टी वी चैनलों में विदेशी दान की बातें आयेंगीं तो टीम अन्ना रक्षात्मक मुद्रा में तो हो ही जायेगी.

Friday, August 12, 2011

काश हर मोहल्ले में ऐकू लाल होते



शेष नारायण सिंह

सुप्रीम कोर्ट के विचार के लिए एक अजीब मामला पेश किया गया है .अकबर नाम के एक बच्चे की कस्टडी का केस है . बच्चा मुसलमान माँ बाप का है . करीब सात साल पहले जब अकबर छः साल का था ,अपने पिता के साथ इलाहाबाद के एक शराबखाने पर गया था . बाप ने शराब पी और नशे में धुत्त हो गया . बच्चा भटक गया लेकिन बाप को पता ही नहीं चला कि बच्चा कहाँ गया . गुमशुदगी की कोई रिपोर्ट नहीं लिखाई गयी. लखनऊ के कैसर बाग़ में बच्चा चाय की एक दुकान के सामने गुमसुम हालत में पाया गया. चाय की दुकान के मालिक ऐकू लाल ने बच्चे को देखा और साथ रख लिया . बहुत कोशिश की कि बच्चे के माता पिता मिल जाएँ. मुकामी टी वी चैनलों पर इश्तिहार भी दिया लेकिन कहीं कोई नहीं मिला. जब कोई नहीं मिला जो बच्चे को अपना कह सके तो उसने बच्चे को स्कूल में दाखिल करवा दिया . बच्चे का नाम वही रखा , धर्म नहीं बदला, स्कूल में बच्चे के माता पिता का वही नाम लिखवाया जो बच्चे ने बताया था. लेकिन ऐकू ने इस बच्चे को अपने जीवन का मकसद समझ कर तय किया कि वह शादी नहीं करेगा . उसे शक़ था कि उसकी होने वाली पत्नी कहीं बच्चे का अपमान न करे . तीन साल बाद अकबर के माँ बाप को पता चला कि वह ऐकू लाल के साथ है.उन्होंने बच्चे की कस्टडी की मांग की लेकिन ऐकू लाल ने मना कर दिया क्योंकि बच्चा ही उसे छोड़कर जाने को तैयार नहीं था .बच्चे के माँ बाप ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुक़दमा कर दिया और बच्चे की कस्टडी की फ़रियाद की .उन्होंने ऐकू लाल पर आरोप लगाया कि उसने बच्चे को बंधुआ मजदूर की तरह रखा हुआ था . मामला २००७ में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जस्टिस बरकत अली जैदी की अदालत में सुनवाई के लिए आया . माननीय न्यायमूर्ति ने आदेश दिया कि बच्चे की इच्छा और केस की अजीबो गरीब हालत के मद्दे नज़र बच्चे को ऐकू लाल की कस्टडी में रखना ही ठीक होगा. बच्चे की माँ का वह तर्क भी हाई कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया कि ऐकू लाल ने बच्चे को बंधुआ मजदूर की तरह रखा था. . बच्चे के स्कूल की मार्कशीट अच्छी थी और स्कूल में उसकी पढाई अव्वल दर्जे की थी.हालात पर गौर करने के बाद जस्टिस जैदी ने कहा कि अपना देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है . जाति बिरादरी की बातों को न्याय के रास्ते में नहीं आने देना चाहिए . जब अंतर जातीय विवाह हो सकते हैं तो अंतर जातीय या अंतर-धर्म के बाप बेटे भी हो सकते हैं . बच्चा ऐकू लाल के पास ही रहेगा ,इसमें बच्चे की इच्छा के मद्दे नज़र उसके जैविक माता पिता की प्रार्थना को नकार कर बच्चे को ऐकू लाल के पास ही रहने दिया गया .
अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है. जहां जस्टिस डी के जैन और एच एल दत्तु की बेंच में बुधवार को इस पर विचार हुआ .अदालत ने सवाल पूछा कि जब अकबर का बाप शराब की दुकान पर बच्चे को भूलकर घर चला आया था तो बच्चे की माँ ने उसके गायब होने की रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई थी. बेंच ने कहा कि सबको मालूम् है कि कानून के हिसाब से इतनी कम उम्र के बच्चे की स्वाभाविक गार्जियन उसकी माँ होती है . हम तो तुरंत आदेश देकर मामले को निपटा सकते हैं.लेकिन बच्चे की मर्ज़ी महत्वपूर्ण है . वह उस आदमी को छोड़कर नहीं जाना चाहता जिसने अब तक उसका पालन पोषण किया है . सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे की माँ शहनाज़ के वकील से कहा कि उसकी आमदनी के बारे में एक हलफनामा दाखिल करें .लेकिन इसके पहले बेंच ने शहनाज़ के वकील से जानना चाहा कि वे क्यों ऐसा आदेश करें जिससे बच्चा उस आदमी से दूर हो जाए जिसने उसकी सात साल तक अच्छी तरह से देखभाल की है . ऐकू लाल की भावनाओं को बेंच ने नोटिस किया और कहा कि उसने बच्चे का नाम तक नहीं बदला , उसके माँ बाप का नाम वही रखा , बच्चे के माँ बाप को तलाशने के लिए विज्ञापन तक दिया.यह वही मान बाप हैं जिन्होंने अकबर के गायब होने के बाद रिपोर्ट तक नहीं लिखाया था. बहर हाल मामला देश की सर्वोच्च अदालत की नज़र में है और इस पर अगली सुनवाई के वक़्त फैसला हो पायेगा.लेकिन ऐकू लाल की तरह के लोग हे एवाह लोग हैं जिन पर हिंद को नाज़ है

वामपंथी पार्टियों का दावा,बीजेपी और कांग्रेस धन्नासेठों के हितसाधक हैं



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, ११ अगस्त. लोक सभा में कम सदस्य संख्या वाली पार्टियों ने आज बीजेपी पर सीधा हमला बोला और दावा किया कि बीजेपी और कांग्रेस की मिलीभगत है . दोनों ही पार्टियों की कोशिश है कि संसद में बिना किसी चर्चा कि वे बिल पास करा लिए जाएँ जिनसे देश के आम आदमी का बहुत नुकसान होगा लेकिन बहुत बड़ी कंपनियों का फायदा होगा . राज्य सभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी उनकी पार्टी बीजेपी द्वारा संसद की कार्यवाही में बार बार बाधा डालने के खिलाफ है और उनकी पार्टी सहित अन्य विपक्षी दलों ने इस बात का बहुत बुरा माना है . लोकसभा में वामपंथी उअर अन्य धर्म निरपेक्ष पार्टियों के नेताओं ने एक प्रेस कानफरेंस करके विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के उस बयान पर सख्त एतराज़ ज़ाहिर किया जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी रोज़ सुबह तय करेगी कि उस दिन की संसद की कार्यवाही को चलने देना है कि नहीं . कम्युनिस्ट पार्टी के संसद सदस्य गुरुदास दासगुप्ता ने कहा कि यह बयान दंभ से भरा हुआ है . उन्होंने कहा कि अपने पूरे राजनीतिक जीवन में उन्होंने इतना अहंकार पूर्ण बयान कभी नहीं सुना है . गुरुदास दासगुप्ता ने दावा किया कि विपक्ष की नेता के इस बयान से उनके साथ के एन डी ए के नेता अभी आहत हैं . उन्होंने कहा कि समता पार्टी के नेता, शरद यादव ने ख़ास तौर से आग्रह किया कि प्रेस कानफरेंस में उनके दृष्टिकोण को भी रखा जाए और यह सब को बता दिया जाए कि वे सुषमा स्वराज के उस बयान को गलत मानते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि बीजेपी तय करेगी कि सदन कब चले और कब न चले. श्री दासगुप्त ने दावा किया कि इस मुहिम में उनके साथ बीजू जनता दल, तेलुगु देशम पार्टी , ए आई ए डी एम के, जे डी ( एस )आदि भी शामिल हैं . बीजेपी का वोट प्रतिशत २० के आस पास है लिहाजा बीजेपी को कोई हक नहीं है कि वह पूरे देश पर अपनी मर्ज़ी की बात लादे. वामपंथी पार्टियों ने दावा किया कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही कार्पोरेट कंपनियों के हितसाधन के लिए काम कर रही हैं . दोनों ही पार्टियां नहीं चाहतीं कि सही तरीके से बहस हो और सरकार को मंहगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर संसद में घेर जा सके. अलबता जब मामला बैंकिंग बिल और इंश्योरेंस बिल पास कराने का होगा तो दोनों ही पार्टियों की कोशिश होगी कि उसे बिना बहस के पास करा लिया जाए . उनका आरोप था कि इस मामले पर दोनों ही एक हो जायेगें .

लोकसभा में सरकार का दावा -मनरेगा लागू होने के बाद खेती की ज़मीन में वृद्धि हुई है


शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,११ अगस्त. ग्रामीण विकास मंत्री ,जयराम रमेश ने दावा किया है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा ) के लागू होने के बाद पूरे देश में ज्यादा ज़मीन में खेती हो रही है .छोटे और मझोले किसानों की आर्थिक हालत में सुधार हुआ है . उन्होंने आज लोकसभा को बताया कि मनरेगा के अंतर्गत और भी कुछ काम लिए जाने का प्रस्ताव है . मसलन पूर्वे एराज्यों में कुछ इलाकों में कम गहराई तक बोरिंग वाले ट्यूब वेल लगाने का काम भी मनरेगा के तहत शुरू किया अजा सकता है . कांग्रेस की सांसद श्रुति चौधरी ने सरकार से मांग की कि फसल काटने के काम को भी मनरेगा के स्कोप में लिया जाया. उन्होंने बताया कि इस योजना के लागू होने के बाद पंजाब और हरयाणा में फसल काटने के लिए मजदूरों की भारी समस्या पैदा हो गयी है . अगर इस स्कीम में फसल काटने के काम को भी जोड़ दिया जाए तो किसानों को बहुत सहूलियत होगी. यह बात सच है क्योंकि पंजाब का संपन्न किसान अब कम पैसे के लिए शारीरिक श्रम नहीं करता . पंजाब में फसल काटने के लिए पिछले ३० वर्ष से यू पी और बिहार से मजदूर आते रहे हैं लेकिन जब से मनरेगा लागू हुई है तब से पूरब के मजदूर पंजाब नहीं आते . उनको अपने गाँव में ही मजदूरी का काम मिल रहा है . मंत्री ने सदन में कहा कि इस बात पर विचार किया जाएगा.बात में जनसन्देश टाइम्स से बात करते हुए जयराम रमेश ने बताया कि यह तो मनरेगा की सफलता की कसौटी है . उन्होंने बताया कि ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना मूल रूप से गाँव के लोगों को उनके घर के पास काम देने के उद्देश्य से बनाई गयी थी . और अगर यू पी और बिहार का मजदूर हज़ारों किलोमीटर जाकर कर मजदूरी नहीं कर रहा है तो मनरेगा को सफल माना जाना चाहिए

चर्चा के दौरान विपक्ष की नेता और बीजेपी सांसद सुषमा स्वराज ने मनरेगा पर राजनीतिक हमला बोला . उन्होंने कहा कि मनरेगा की स्कीम बहुत ही अव्यावहारिक है और पूरी तरह से असफल है . इसे ठीक से बनाया ही नहीं गया था . उन्होंने सुझाव दिया कि सभी राज्यों के संसद सदस्यों की राज्यवार बैठक बुलाकर इस पर चर्चा की जा सकती है उन्होंने दावा किया कि तीन जिलों की मनरेगा समितियों की वे अध्यक्ष हैं और उनका अनुभव है कि कहीं कुछ नहीं हो रहा है . सरकार की तरफ बताया गया कि नेता विपक्ष के राज्य ,मध्यप्रदेश में मनरेगा में बहुत सारी गड़बड़ियां हैं लेकिन उन गड़बड़ियों को ठीक करने का काम उसी कमेटी है जिसकी सुषमा जी अध्यक्ष हैं , उन्हें चाहिए कि हर तीन महीने में बैठक लें और योजना को सुचारू रूप से चलाने में सहयोग करें. बाद में लोकसभा की अध्यक्ष मीरा कुमार ने कहा कि यह मामला बहुत ही गंभीर है और अगर कोई सदस्य नोटिस दे तो इस पर आधे घंटे की चर्चा की जा सकती है .

जनगणना जाति के आधार पर की जायेगी.


शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,११ अगस्त . लोकसभा में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने कहा कि जातिवार जनगणना उसी तरीके से होगी जैसा कि सभी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की सहमति से तय किया गया था. बीजेपी की नेता सुषमा स्वराज के उस बयान के बाद कि आज सदन की कार्यवाही चलने दी जायेगी ,सबको मालूम था कि लोक सभा में आज हल्लागुल्ला नहीं होगा. लोकसभा की कार्यवाही शुरू होते ही समता पार्टी के संसद सदस्य शरद यादव ने जातिवार जनगणना का मुद्दा उठाया . उन्होंने सरकार से जानना चाहा कि जब लोकसभा में यह तय हो चुका था कि २००१ की जनगणना जाति के आधार पर की जायगी तो सरकार उसमें परिवर्तन क्यों कर रही है . उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार की कोशिश है कि वह इस गंभीर मुद्दे को हल्का कर दे. श्री यादव ने इस बात पर भी ताज्जुब जताया कि केंद्र सरकार ने आदेश दिया है कि कुछ इलाकों में राज्य सरकारें जातिवार जनगणना करेंगी. जब कि कुछ विषय नगरपालिकाओं को दे दिए गए हैं . इस मुद्दे पर बहुजन समाज पार्टी के दारा सिंह चौहान ने कहा कि अपने देश में जाति एक सच्चाई है , देश उसे जानना चाहता है , सरकार को चाहिए कि उसे सामने लाये. इस विषय पर समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे और डी एम के के टी आर बालू ने अपने विचार रखे . वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि सरकार ने विपक्षी पार्टियों के साथ जो फार्मूला बनाया था उसे लागू करने में कुछ दिक्क़तें आ रही हैं . लेकिन उन्होंने भरोसा जताया कि उसे ठीक कर लिया जायेगा और जनगणना बाकायदा जाति के आधार पर की जायेगी

Wednesday, August 10, 2011

सुप्रीम कोर्ट का फरमान-फर्जी मुठभेड़ के गुनहगार पुलिस वालों को फांसी



शेष नारायण सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी मुठभेड़ के मामलों में बहुत ही सख्त रुख अपनाया है . राजस्थान के फर्जी मुठभेड़ के अक्टूबर २००६ के एक मामले की सुनवाई के दौरान माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में शामिल पुलिस वालों को फांसी दी जानी चाहिए . माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि अगर साधारण लोग कोई अपराध करते हैं तो उन्हें साधारण सज़ा दी जानी चाहिए लेकिन अगर वे लोग अपराध करते हैं जिन्हें अपराध रोकने की ज़िम्मेदारी दी गयी है तो उसे दुर्लभ से दुर्लभ अपराध मान कर उन्हें उसी हिसाब से सज़ा दी जानी चाहिए .राजस्थान के इस मामले में पुलिस के बहुत बड़े अधिकारी भी शामिल हैं .दारा सिंह नाम के एक व्यक्ति को पुलिस ने यह कह कर मार डाला था कि वह हिरासत से भाग रहा था . जबकि उस व्यक्ति की पत्नी ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने सोचे समझे षड्यंत्र के तहत उसकी हत्या की थी. बात सुप्रीम कोर्ट तक पंहुच गयी और देश की सर्वोच्च अदालत ने सख्ती का रुख अपनाया और सी बी आई को आदेश दिया कि मामले की फ़ौरन जांच की जाए. अदालत ने आदेश दिया कि राज्य के अतिरिक्त पुलिस निदेशक ए के जैन और अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक अरशद अली को भी गिरफ्तार करके उनसे पूछताछ की जाए. अभी सरकारी रिकार्ड में यह दोनों ही अफसर अपने को फरार दिखा रहे हैं .सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी के बाद देश में फर्जी इनकाउंटर के मसले पर एक दिलचस्प बहस शुरू हो जायेगी . इन सवालों पर भी गौर करने की ज़रुरत है कि फर्जी मुठभेड़ के मामलों में फौरी इंसाफ़ के चक्कर में कीं निर्दोष न मारे जाएँ. आने वालो दिनों में इस बात पर भी बहस होगी कि न्याय प्रशासन में मौजूद कमजोरियों का लाभ उठा कर असली अपराधी निर्दोष लोगों को फंसाने में कामयाब न हो जाएँ.

इस बात में दो राय नहीं है कि आम आदमी को इंसाफ़ दिलवाने की कोशिश में पुलिस अपने अधिकारों का दरुपयोग करती रहती है.लेकिन फर्जी मुठभेड़ों के कुछ ऐसे मामले भी प्रकाश में आये हैं जो सभ्य समाज के माथे पर कलंक से कम नहीं हैं.इस सिलसिले में एक संगमील मामला मुंबई की एक लडकी इशरत जहां का था जिसे गुजरात पुलिस के बड़े अधिकारी डी जी वंजारा ने तथाकथित आतंकियों के साथ अहमदाबाद में जून २००५ में फर्जी मुठभेड़ में मार डाला था. इशरत जहां के घर वाले पुलिस की इस बात को मानने को तैयार नहीं थे कि उनकी लड़की आतंकवादी है . मामला अदालतों में गया और सिविल सोसाइटी के कुछ लोगों ने उनकी मदद की और जब सुप्रीम कोर्ट की नज़र पड़ी तब जाकर असली अपराधियों को पकड़ने की कोशिश शुरू हुई . न्याय के उनके युद्ध के दौरान इशरत जहां की मां , शमीमा कौसर को कुछ राहत मिली जब गुजरात सरकार के न्यायिक अधिकारी, एस पी तमांग की रिपोर्ट आई जिसमें उन्होंने साफ़ कह दिया कि इशरत जहां को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया था और उसमें उसी पुलिस अधिकारी, वंजारा का हाथ था जो कि इसी तरह के अन्य मामलों में शामिल पाया गया था. एस पी तमांग की रिपोर्ट ने कोई नयी जांच नहीं की थी, उन्होंने तो बस उपलब्ध सामग्री और पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट के आधार पर सच्चाई को सामने ला दिया था. इशरत जहां के मामले में मीडिया के एक वर्ग की गैर जिम्मेदाराना सोच भी सामने आ गयी थी. अपनी बेटी की याद को बेदाग़ बनाने की उसकी मां की मुहिम को फिर भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में विश्वास हो गया. हालांकि एस पी तमांग की रिपोर्ट आने के बाद इशरत जहां की माना शमीमा कौसर ने बहुत कोशिश की . निचली अदालतों से उसे कोई राहत नहीं मिली शमीमा कौसर ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार की और देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला आया तब जाकर इशरत जहांइशरत जहां केस के फर्जी मुठभेड़ से सम्बंधित सारे मामले रोक दिए गए...इस स्टे के साथ ही मामले को जल्दी निपटाने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी गयी है . एस पी तमांग की रिपोर्ट में तार्किक तरीके से उसी सामग्री की जांच की गयी थी जिसके आधार पर इशरत जहां के फर्जी मुठभेड़ के मामले को पुलिस अफसरों की बहादुरी के तौर पर पेश किया जा रहा था. तमांग की रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि जिन अधिकारियों ने इशरत जहां को मार गिराया था उनको उम्मीद थी कि उनके उस कारनामे से मुख्य मंत्री बहुत खुश हो जायेंगें और उन्हें कुछ इनाम -अकराम देंगें . अफसरों की यह सोच ही देश की लोकशाही पर सबसे बड़ा खतरा है . जिस राज में अधिकारी यह सोचने लगे कि किसी बेक़सूर को मार डालने से मुख्य मंत्री खुश होगा , वहां आदिम राज्य की व्यवस्था कायम मानी जायेगी. यह ऐसी हालत है जिस पर सभ्य समाज के हर वर्ग को गौर करना पड़ेगा वरना देश की आज़ादी पर मंडरा रहा खतरा बहुत ही बढ़ जाएगा और एक मुकाम ऐसा भी आ सकता है जब सही और न्यायप्रिय लोग कमज़ोर पड़ जायेंगें . ज़ाहिर है ऐसी किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सभी लोकतांत्रिक लोगों को तैयार रहना पड़ेगा. अगर ऐसा न हुआ तो सत्ता का बेजा इस्तेमाल करने वाले हमारी आज़ादी को तानाशाही में बदल देंगें . ऐसा न हो सके इसके लिए जनमत को तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा , लोकतंत्र के चारों स्तंभों , न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया को भी हमेशा सतर्क रहना पडेगा .

राजस्थान के मौजूदा मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस सी के प्रसाद की बेंच ने ने निचली अदालत के ११ अप्रैल के उस आदेश पर सख्त एतराज़ किया जिसमें नए सिरे से एफ आई आर लिखने का फैसला सुनाया गया था . सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब सी बी आई मामले की जांच कर रही थी तो नए एफ आई आर का कोई मतलब नहीं है.जबकि सी बी आई की जांच सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही शुरू की गयी थी. लेकिन यह उम्मीद करना भी असंभव है कि सुप्रीम कोर्ट हर मामले संज्ञान में लेगी. ज़रुरत इस बात की है कि देश का हर नागरिक अन्याय के खिलाफ हमेशा चौकन्ना रहे औअर अगर ज़रुरत पड़े तो आम आदमी लामबंद होकर न्याय के लिए आन्दोलन तक करने के लिए तैयार रहे.

Saturday, August 6, 2011

काश अन्ना हजारे अपने मकसद में कामयाब हो गए होते

शेष नारायण सिंह

लोकसभा में सरकार ने लोक पाल बिल पेश कर दिया.सरकारी कोशिश से लागता है कि एक ऐसा कानून बनने वाला है जो बिलकुल दन्त विहीन होगा . भ्रष्टाचार को खत्म करना तो दूर उसे बढ़ावा देगा.इस तरह के अपने मुल्क में बहुत सारे कानून हैं . एक सरकारी विभाग बनेगा,कुछ नौकरशाहों को दिल्ली में पार्किंग स्पेस मिलेगा. लेकिन भ्रष्टाचार का बाल नहीं बांका होगा. देश में आज लगभग हर इंसान भ्रष्टाचार का शिकार है ,त्राहि त्राहि कर रहा है. उसकी भावनाओं को एक दिशा देने की दिशा में अन्ना हजारे ने एक सराहनीय क़दम उठाया था जो तूफ़ान बन सकता था,जन अभियान बन सकता था लेकिन जनता की इन भावनाओं को जनांदोलन बनने से निहित स्वार्थों ने रोक दिया . कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जननायक बन रहे अन्ना हजारे को अपने साथ ले लिया, दिल्ली के सत्ता के गलियारों की सैर करा दी . उनके आगे पीछे कुछ ऐसे लोग घूम रहे थे जिन्होंने कभी जाना ही नहीं कि भ्रष्टाचार आदमी को कितनी गहरी चोट करता है . उनके साथ लगे हुए पुलिस , इनकम टैक्स और न्यायव्यस्था से जुड़े लोग अपनी विभाग में इतने ताक़तवर लोग हैं कि कभी किसी ने उनसे घूस माँगा ही नहीं होगा, उन्हें घूस की मार का अंदाज़ नहीं है . उन्होंने अपने साथ काम करने वाले बड़े अफसरों को घूस लेते देखा ज़रूर होगा लेकिन यह लगभग पक्का है कि कभी भी उनके सामने रिश्वत देने की मजबूरी नहीं पड़ी होगी .घूस के खिलाफ लड़ाई आम आदमी की है. इसलिए जब अन्ना ने नारा दिया तो वह उनके साथ हो गया. देश के लाखों पत्रकारों ने अन्ना की राह पकड़ ली. लगने लगा कि १९२० के महात्मा गांधी या १९७५ के जयप्रकाश नारायण के आन्दोलनों की तरह का कोई आन्दोलन शुरू हो चुका था. देश के कोने कोने में अन्ना हजारे की डुगडुगी बज चुकी थी, जो जहां था वहीं से भ्रष्टाचार के खिलाफ जुझारू राग में नारे लगा रहा था . शासक वर्गों को यह बात जंची नहीं , वे नाराज़ हुए और भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए तूफ़ान के नायक की ताक़त को ही बेकार करने की योजना पर काम शुरू कर दिया. अन्ना हजारे को सरकारी कमेटी में शामिल होने की दावत दे दी. यह एक जाल था जिसे सत्ता ने फेंका था. उस जाल के साथ नत्थी वायदों को देख कर अन्ना हजारे फंस गए. नतीजा यह हुआ कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जन आन्द्दोलन बन रहा था वह आज कहीं नज़र नहीं आता. अब भ्रष्टाचार के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराने की बीजेपी की योजना ही चारों तरफ नज़र आ रही है . इस बात में कोई शक़ नहीं है कि कांग्रेस के राज में भ्रष्टाचार की नई ऊंचाइयां तय की गयी हैं लेकिन बीजेपी वाले भी कम भ्रष्ट नहीं हैं .उनके मंत्री और नेता भी भ्रष्टाचार की कथाओं में बहुत ही आदर से उद्धृत किये जाते हैं . इसलिए भ्रष्टाचार को जनांदोलन बनने से रोकने के लिए दोनों ही शासक पार्टियों ने मेहनत की और आम आदमी का दुर्भाग्य है कि समकालीन इतिहास में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाला सबसे बड़ा नायक सत्ता के गलियारों में भटक गया .आज बीजेपी वाले इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दे रहे हैं कि प्रधान मंत्री को लोकपाल के घेरे में लिया जाए लेकिन जन लोकपाल बिल में जो सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं वे पता नहीं कहाँ खो गयी हैं. बीजेपी समेत सारे देश को मालूम है कि अगर कांग्रेस ने तय कर लिया है कि वह प्रधान मंत्री को दायरे में नहीं आने देगी तो वही होगा . इसलिए उस बात को राष्ट्रीय बहस के दायरे में नहीं लाना चाहिए था. इसलिए ज़रूरी यह था कि जन लोक पाल बिल में जो अच्छी बातें हैं उसे सरकारी बिल में लाने की कोशिश की जाती. जहां तक इस देश के आम आदमी की बात है उसे भ्रष्टाचार से फौरी राहत चाहिए . प्रधान मंत्री के भ्रष्टाचार की बात को वह बाद में अगले आन्दोलन के बाद देख सकता है . भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को प्रभावी बनाने के लिए जन लोक पाल बिल में कुछ बहुत अच्छे प्रावधान हैं . मसलन उसकी धारा २० में लिखा है कि जो व्यक्ति भ्रष्टाचार की पोल खोलेगा उसे पूरी सुरक्षा दी जायेगी . लिखा है कि भ्रष्टाचार की जानकारी देने वाले के जीवन को ख़तरा रहता है इसलिए उसकी सुरक्षा की गारंटी के साथ साथ जांच के काम को बहुत तेज़ी से निपटाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. उसके बाद धारा २१ महत्वपूर्ण है . इसमें न्याय मिलने में होने वाली देरी को निशाने पर लिया गया है .न्याय मिलने में देरी की परिस्थिति के लिए अधिकारी को ज़िम्मेदार ठहराने का सुझाव है . यह दो बातें भ्रष्टाचार के निजाम पर ज़बरदस्त हमला कर सकती थीं . लेकिन इन पर कहीं कोई बात नहीं हो रही है . नतीजा यह है कि कांग्रेस ने जिन नेताओं को भ्रष्टाचार के खिलाफ बन रहे तूफ़ान को रोकने का ज़िम्मा दिया था वे बहुत ही खुश हैं . अन्ना की ओर से प्रस्तावित जन लोक पाल बिल में धारा २० और २१ ऐसे प्रावधान हैं जो भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे अभियान को ताक़तवर बना सकते थे. अभी देर नहीं हुई है . भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक तेवर दिखाने वाली बीजेपी को चाहिए कि वह लोकपाल बिल की चर्चा के दौरान ऐसी हालत पैदा करे कि जन लोकपाल बिल की वे बातें जो आम आदमी को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने की ताक़त रखती है, कानून की शक्ल ले सकें. भ्रष्टाचार के खिलाफ उठे जन ज्वार को शांत करने की शासक पार्टियों की सफलता के बाद भी अगर जन लोक पाल की अहम बातें सरकारी बिल में शामिल करवाई जा सकें तो जनता और देश का बहुत भला होगा.

Friday, August 5, 2011

शातिर अपराधियों को संसद और विधानसभा में नहीं घुसने देगें

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार ने ऐसी पहल की है कि आने वाले दिनों में अपराधियों के लिए चुनाव लड़ पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. कानून मंत्रालय ने केंद्रीय मंत्रिपरिषद के विचार के लिए एक प्रस्ताव भेजा है जिसमें सुझाया गया है कि उन लोगों पर भी चुनाव लड़ने से रोक लगा दी जाए जिनको ऊपर किसी गंभीर अपराध के लिए चार्ज शीत दाखिल कर दी गयी है . अभी तक नियम यह है कि है जिन लोगों को दो साल या उस से ज़्यादा की सज़ा सुना दी गयी हो वे चुनाव नहीं लड़ सकते. इस नियम से अपराधियों को रोक पाना बहुत ही मुश्किल हो रहा है .मौजूद समाज की जो हालत है उसमें इलाके के दबंग को सज़ा दिला पाना बिलकुल असंभव होता है . लगभग सभी मामलों में गवाह नहीं मिलते . उनको डरा धमकाकर गवाही देने से हटा दिया जाता है . अगर किसी मामले में निचली अदालत से सज़ा हो भी गयी तो हाई कोर्ट में अपील होते है और वहां कई कई साल तक मुक़दमा लंबित रहता है . अपने देश के हाई कोर्टों में बयालीस हज़ार से ज्यादा मुक़दमें विचाराधीन हैं . ऐसी हालत में अपराधी इस बिना पर चुनाव लड़ता रहता है कि उसका केस अभी अपील में है. लुब्बो लुबाब यह है कि संसद और विधान सभाओं में अपराधी लोग बहुत ही आराम से पंहुचते रहते हैं . सब को मालूम रहता है कि चुनाव अपराधी व्यक्ति लड़ रहा है लेकिन कोई कुछ कर नहीं सकता क्योंकि कानून उसे अपील के तय होने तक निर्दोष मानने की सलाह देता है . यह भी देखा गया है कि चुनाव में बहुत सारे दबंग लोग आतंक के सहारे चुनाव जीत लेते हैं .

कानून मंत्रालय का नया प्रस्ताव अपराधियों को संसद और विधान सभाओं में पंहुचने से रोकने का कारगर उपाय साबित होने की क्षमता रखता है . प्रस्ताव यह है कि गंभीर अपराधों के अभियुक्त उन लोगों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाए जिनके खिलाफ ट्रायल कोर्ट में चार्जशीट दाखिल हो चुकी हो. प्रस्ताव में गंभीर अपराधों की लिस्ट भी दी गयी है जिसमें आतंक ,हत्या,अपहरण, नक़ली स्टैम्प पेपर या जाली नोटों से जुड़े हुए अपराध , बलात्कार के मामले , मादक द्रव्यों से सम्बंधित अपराध और देशद्रोह के मामले शामिल हैं . अगर प्रस्ताव को मंत्रिमंडल की मंजूरी मिली तो इसे संसद में विचार करने के लिए लाया जाएगा .वहां पास हो जाने के बाद इन अपराधों में पकडे गए लोगों को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा. पिछले कई वर्षों से अपराधियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की कोशिश होती रही है लेकिन बात को यह कह कर रोक दिया जाता है कि अगर अभियुक्त को चुनाव लड़ने से रोकने की बात को कानून बना दिया गया तो पुलिस के पास अकूत पावर आ जाएगा और वह किसी को भी पकड़ कर अभियुक्त बनाकर उसे चुनाव लड़ने से रोक देगी. अपने देश में पुलिस की यही ख्याति है , हर इलाके में ऐसे कुछ न कुछ ऐसे मामले मिल जायेगें जहां पुलिस ने लोगों को फर्जी तरीके से फंसाया हो. ज़ाहिर है जब भी इस तरह का मामला आया तो लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधर जमातों ने विरोध किया . नतीजा यह हुआ कि राजनीति में अपराधियों की संख्या बढ़ती गयी. पुलिस को किसी को राजनीति के दायरे से बाहर रख सकने की ताक़त देना लोकतंत्र के खिलाफ होगा लेकिन लोकतंत्र को अपराधियों के कब्जे से बचाने की कोशिश भी करना होगा. इसी सोच का नतीजा है कानून मंत्रालय का नया सुझाव . नए सुझाव में यह प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति पुलिस की मनमानी का शिकार नहीं होगा . गंभीर अपराधों के आरोप में पुलिस जिसको भी गिरफ्तार करेगी वह तब तक चुनाव लड़ने के लिए योग्य माना जाता रहेगा जब तक कि पुलिस की अर्जी पर अदालत अभियुक्त के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने का हुक्म न सेना दे. यानी नए प्रावधान में पुलिस की मनमानी की संभावना पर पूरी तरह से नकेल लगाने की व्यवस्था कर दी गयी है .नए सुझावों में यह भी इंतज़ाम किया गया है कि उन लोगों को भी चुनाव लड़ने से रोक दिया जाएगा जिनको निचली अदालत से सज़ा मिल चुकी है और उनका केस ऊपरी अदालतों में अपील के तहत विचाराधीन है . अभी तक अपील के नाम पर चुनाव लड़ने वाले अपराधियों को भी इस नए सुझाव से रोका जा सकेगा.

करीब तीस वर्षों से अपराधी छवि के लोग चुनाव मैदान में उतरने लगे है.इसके पहले बड़े नेताओं की सेवा में ही अपराधी तत्व पाए जाते थे.लेकिन अस्सी के लोकसभा चुनाव में बहुत सारे शातिर अपराधियों को टिकट मिल गया था. उसके बाद तो यह सिलसिला ही शुरू हो गया .हर पार्टी में अपराधी छवि के लोग शामिल हुए और चुनाव जीतने लगे . बाद के वर्षों में जब टिकट दिया जाता था तो इंटरव्यू के वक़्त टिकटार्थी यह दावा करता था कि वह ज्यादा से ज्यादा बूथों पर क़ब्ज़ा कर सकता है .बूथ पर क़ब्ज़ा कर सकने की क्षमता के बल पर राजनीति में अपराधियों की जो आवाजाही शुरू हुई,उसी का नतीजा है कि आज राजनीति में अपराधियों का चौतरफा बोलबाला है . कई बार अपराधियों को रोकने की पहल हुई लेकिन लगभग सभी पार्टियां उसमें अडंगा लगा देती थीं क्योंकि उनकी पार्टियों के बहुत सारे नेताओं पर आर्थिक अपराध की धाराएं लगी हुई होती थी. देश भर में बहस शुरू हो जाती थी कि निजी दुश्मनी निकालने के लिए पुलिस वाले किसी को भी फंसा सकते हैं और इस तरह से मुक़दमों के चलते कोई भी चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो सकता है यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है . वैसे भी देश के बहुत सारे बड़े नेता आर्थिक अपराधों में फंसे हुए हैं.ज़ाहिर है वे ऐसा कोई भी कानून नहीं बनने देंगें जो उनकी राजनीतिक सफलता की यात्रा में बाधक होगा . कानून मंत्रालय से जो नए सुझाव आये हैं उनकी खासियत यह है कि आर्थिक अपराध वालों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने की बात नहीं की गयी है . इसका नतीजा यह होगा कि राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेता इस कानून के दायरे के बाहर हो जायेगें.गंभीर अपराधों की श्रेणी से आर्थिक अपराधों को बाहर रखकर सरकार ने बड़े नेताओं को बचाने की कोशिश की है लेकिन इसका फायदा यह होगा कि यह सुझाव संसद में पास हो जायेगें.हत्या,बलात्कार,देशद्रोह जैसे अपराधों में देश का कोई भी बड़ा नेता शामिल नहीं है . अपनी राजनीतिक बिरादरी को जानने वालों को विश्वास है कि अगर बड़े नेता खुद नहीं फंस रहे हैं तो वे शातिर अपराधियों को दरकिनार करने में संकोच नहीं करेगें. वैसे भी नए प्रस्तावों में पुलिस पर लगाम लगाने की पूरी व्यवस्था है. पुलिस के आरोप लगाने मात्र से कोई चुनाव लड़ने से वंचित नहीं हो जाएगा . पुलिस अगर किसी को गंभीर अपराध के आरोप में पकड़ती है तो उसे तफ्तीश करने के बाद ट्रायल कोर्ट में जाना होगा . अगर अदालत से चार्ज फ्रेम करने की अनुमति मिलेगी तभी कोई नेता चुनाव लड़ने से वंचित हो सकेगा . ज़ाहिर है कि नए कानून में राजनीतिक व्यवस्था को अपराधियों से मुक्त करनी की दिशा में क़दम उठाने की क्षमता है .हालांकि अभी बहुत ही शुरुआती क़दम है लेकिन आज देश के एक बड़े अखबार में खबर छप जाने के बाद इस विषय पर पूरे देश में बहस तो शुरू हो ही जायेगी और उम्मीद की जानी चाहिए कि बहस के बाद जो भी सुधार चुनाव प्रक्रिया में होगा , उससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को फायदा होगा.

Wednesday, August 3, 2011

गीता को पढने के बाद इंसान धीर गंभीर हो जाता है,गाली गलौज नहीं करता .

शेष नारायण सिंह

पिछले दिनों गीता को कर्नाटक के स्कूलों में ज़बरदस्ती पढाये जाने की एक खबर पर मैंने टिप्पणी की थी. उस टिप्पणी को कुछ मित्रों ने छाप दिया . उसके बाद गाली देने वालों की फौज उस पर टूट पड़ी . मुझे लगता है कि किसी ने यह देखने की तकलीफ नहीं उठायी थी कि उसमें लिखा क्या है. कर्नाटक के एक मंत्री ने कहा था कि जो लोग गीता को नहीं मानते वे देश छोड़कर चले जाएँ. दूसरी बात उसने कही थी कि गीता एक महाकाव्य है . मैंने बस यह कहा था कि यह दोनों ही बातें गलत हैं. वास्तव में महाभारत महाकाव्य है और गीता महाभारत का एक अंश है. मैंने गीता को पढ़ा है और मैं जानता हूँ कि योगेश्वर कृष्ण ने गाली गलौज को कभी सही बात नहीं माना . उन्होंने दुर्योधन को हमेशा घटिया आदमी माना क्योंकि वह गाली गलौज करता रहता था .उसी बात को मैंने रेखांकित कर दिया था . गाली देने वालों ने ऐसा माहौल बनाया कि मैं गीता के अध्ययन का ही विरोध कर रहा था. मैं यह मानता हूँ कि गीता को बार बार पढने के बाद इंसान धीर गंभीर हो जाता है,गाली गलौज नहीं करता .

धन्ना सेठों की चाकरी का एक और हथियार है केंद्र की प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण नीति

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार का प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून अगर पास हो गया तो देश में लगभग पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था लागू हो जायेगी. और आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सरकारों की भूमिका बहुत ही कम हो जायेगी.मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेता, सीताराम येचुरी का कहना है कि यह बिल , भूमि अधिग्रहण जैसे संवेदनशील विषय पर जो विज़न पेश कर रहा है वह देश के औद्योगिक विकास को पूंजीपतियों के हवाले करके उस प्रक्रिया को अंजाम तक पंहुचाने का साधन है जिसे वित्तमंत्री के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने १९९१ में शुरू किया था. आर्थिक उदारीकरण की जो प्रक्रिया देश के आर्थिक विकास के माडल के रूप में उस वक़्त अपनाई गयी थी उसका सबसे बड़ा नुकसान आम आदमी को हो रहा है. आर्थिक उदारीकरण की वजह से ही देश में चारों तरह आज महंगाई का हाहाकार है .इसकी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से प्रधानमंत्री की पूंजीवादी आर्थिक सोच पर ही है.संसद के मौजूदा सत्र में यह बिल पेश होने वाला है हालांकि इसका इसी रूप में पास हो पाना बहुत मुश्किल है .
केंद्र सरकार के प्रस्तावित कानून की तुलना में उत्तर प्रदेश सरकार की नई भूमि अधिग्रहण नीति कई गुना बेहतर है .सिंगुर ,नंदीग्राम भट्टा पारसौल आदि कांडों के बाद केंद्र सरकार ने १८९४ के भूमि अधिग्रहण क़ानून को हटाकर एक नया कानून लाने की प्रक्रिया शुरू कर दिया है .इस कानून का मसौदा भी ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने जारी कर दिया है . बिल की भूमिका में जयराम रमेश ने दावा किया है कि प्रत्येक मामले में भूमि का अधिग्रहण इस तरह से किया जाए कि इससे भूस्वामियों के हितों की पूरी तरह से सुरक्षा हो और साथ ही उनके हित भी सुरक्षित रहें जिनकी आजीविका अधिग्रहीत की जाने वाली ज़मीन से जुडी है . अजीब बात है कि केंद्र सरकार उन पूंजीपतियों की आजीविका को सुरक्षित करने की जल्दी में उनको किसान के समकक्ष खड़ा कर देना चाहती है जबकि इस देश में असली किसान आमतौर पर गरीब है और उसकी आर्थिक ताक़त पूंजीपतियों की आर्थिक ताक़त से बहुत कम है .जयराम रमेश ने बताया कि प्रस्तावित कानून में निजी कंपनियों को किसानों से ज़मीन खरीदने की पूरी छूट दी गयी है यानी अब राज्य और केंद्र सरकारों को निजी पूंजी की ताकत का सामना भी करना पडेगा.हालांकि प्रस्तावित बिल में किसानों को अधिक मुआवजा देने की बात की गयी है लेकिन यह दुधारी तलवार है . इसके लागू होने के बाद पिछड़े क्षेत्रों में विकास के बारे में सरकार की पहल करने की क्षमता पूरी तरह से ख़त्म हो जायेगी जबकि पूंजीपतियों के अलावा नए उद्यमियों को उद्योग लगाने का मौक़ा ही नहीं मिल पायेगा.
इस बिल की तुलना में उत्तर प्रदेश सरकार की नीति किसान के पक्ष में भी है और उद्योगों और नगरों के विकास को सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं जाने देती .उत्तर प्रदेश की नई नीति में किसान को उसकी अधिग्रहीन ज़मीन का ७ प्रतिशत आबादी का हिस्सा तो दिया ही गया है जबकि उसकी ज़मीन का १६ प्रतिशत विकसित ज़मीन बिना किसी भुगतान के देने का प्रावधान है .उस १६ प्रतिशत को वह बाज़ार के हिसाब से जैसा चाहे इस्तेमाल कर सकता है. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस महासचिव ,राहुल गांधी अपने भाषणों में हरियाणा के भूमि अधिग्रहण कानून की तारीफ़ करते रहते हैं और बीजेपी वाले गुजरात के कानून की तारीफ़ करते पाए जाते हैं .राज्य में ज़मीन अधिग्रहण के मुक़दमों में व्यस्त उत्तर प्रदेश सरकार के एक अधिकारी ने बताया कि सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश की ज़मीन अधिग्रहण की नई नीति हरियाणा और गुजरात की नीतियों से बेहतर है . यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश से चुन कर आये संसद सदस्य अपनी बेहतर नीति को मीडिया और संसद में ठीक से रख नहीं पाते.