शेष नारायण सिंह
मुंबई में शाहिद अनवर के नाटक ,सारा शगुफ्ता का मंचन होना था . थोडा विवाद भी हो गया तो लगा कि अब ज़रूर देख लेना चाहिए .बान्द्रा के किसी हाल में था. हाल में बैठ गए. सम्पादक साथ थे तो थोडा शेखी भी बनाकर रखनी थी कि गोया नाटक की विधा के खासे जानकार हैं. सारा को मैंने दिल्ली के हौज़ ख़ास में २५ साल से भी पहले अमृता प्रीतम के घर में देखा था . बाजू में स . प्रीतम सिंह का मकान था, वहीं पता लगा कि पाकिस्तानी शायरा ,सारा शगुफ्ता आई हुई हैं तो स्व. प्यारा सिंह सहराई की अचकन पकड़ कर चले गए . इस हवाले से सारा शगुफ्ता से मैं अपने को बहुत करीब मानता था . लेकिन एक बार की, एक घंटे की मुलाकात में जितने करीब आ सकते थे , थे उतने ही क़रीब . बहरहाल सारा की शख्सियत ऐसी थी कि उस एक बार की मुलाक़ात या दर्शन के बाद भी उनकी बहुत सारी बातें याद रह गयी हैं .तो मुंबई में जब सारा की ज़िंदगी के सन्दर्भ में एक नाटक की बात सुनी तो लगा कि देखना चाहिए . नाटक देखने गए . कम लोग आये थे. मंच पर जब अभिनेत्री आई तो लगा कि अगले दो घंटे बर्बाद हो गए .लेकिन कुछ मिनट बाद जब उसने शाहिद अनवर की स्क्रिप्ट को बोलना शुरू किया तो लगा कि अरे यह तो सारा शगुफ्ता की तरह ही बोल रही है और जब उसने कहा कि
मैदान मेरा हौसला है ,
अंगारा मेरी ख्वाहिश
हम सर पर कफ़न बाँध कर पैदा हुए हैं
अंगूठी पहन कर नहीं
जिसे तुम चोरी कर लोगे.
लगा जैसे करेंट छू गया हो और मैं अपनी कुर्सी के छोर पर आ गया . समझ में आ गया कि मैं किसी बहुत बड़ी अभिनेत्री से मुखातिब हूँ .नाटक आगे बढ़ा और जब मंच पर मौजूद अभिनेत्री ने कहा कि
मेरा बाप जिंदा था और हम यतीम हो गए .
तो मैं सन्न रह गया . याद आया कि ठीक इसी तरह से सारा ने शायद बहुत साल पहले यही बात कही थी . उसके बाद तो नाटक से वह अभिनेत्री गायब हो गयी अब मेरी सारा शगुफ्ता ही वहां मौजूद थी और मैं सब कुछ सुन रहा था.. कुछ देर बाद मुंबई के उस मंच पर मौजूद सारा ने कहा कि
चार बार मेरी शादी हुई, चार बार मैं पागलखाने गयी और चार बार मैंने खुदकुशी की कोशिश की
तो मुझे लगा कि यह सारा तो पाकिस्तानी समाज में औरत का जो मुकाम है उसको ही बयान कर रही है . नाटक आगे बढ़ा . सारा की शायद दो शादियाँ हो चुकी थीं. यह दूसरी शादी का ज़िक्र है उसके नए शौहर के घर में बुद्धिजीवियों की महफ़िल जमने लगी . संवाद आया कि
घर में महफ़िल जमती. लोग इलियट की तरह बोलते और सुकरात की तरह सोचते .
मैं चटाई पर लेटी दीवारें गिना करती और अपनी जहालत पर जलती भुनती रहती.
मेरे लिए यह भी जाना पहचाना मंज़र था ,यह तो अपनी दिल्ली है जहां सत्तर और अस्सी के दशक में अधेड़ लोग मंडी हाउस के आस पास पढने वाली २०-२२ साल की लड़कियों को ऐसी ही भाषा बोलकर बेवक़ूफ़ बनाया करते थे. और फिर शादी कर लेते थे . बाद में लगभग सबका तलाक़ हो जाता था ...अब मुझे साफ़ लग गया कि मुंबई के थियेटर के मंच पर जो सारा मौजूद है वह पूरी दुनिया की उन औरतों की बात कर रही है जो बड़े शहरों में रहने के लिए अभिशप्त हैं.
नाटक देखने के बाद आकर इसका रिव्यू लिख दिया , अपने अखबार में छप गया . कुछ पोर्टलों पर छपा और मैं भूल गया . शुरू में सोच था कि अगर सारा का रोल करने वाली अभिनेत्री, सीमा आज़मी कहीं मिल गयी तो उसका इंटरव्यू ज़रूर करूंगा . लेकिन नहीं मिली . किसी दोस्त से ज़िक्र किया तो उन्होंने मिला दिया और जब सीमा आजमी से बात की तो निराश नहीं हुआ. सीमा का संघर्ष भी गाँव से शहर आकर अपनी ज़िन्दगी अपनी, शर्तों पर जीने का फैसला करने वाली लड़कियों के गाइड का काम कर सकता है. सीमा की अब तक ज़िंदगी भी बहुत असाधारण है .
सीमा के पिताजी रेलवे में कर्मचारी थे ,दिल्ली में पोस्टिंग थी .सरकारी मकान था सरोजिनी नगर में .लेकिन उनकी माँ कुछ भाई बहनों के साथ गाँव में रहती थीं जबकि पिता जी सीमा और उनके दो भाइयों के साथ दिल्ली में रहते थे. सोचा था कि बच्चे पढ़-लिख जायेगें तो ठीक रहेगा. कोई सरकारी नौकरी मिल जायेगी ..बस इतने से सपने थे लेकिन सीमा के सपने अलग थे. उसने एन एस डी का नाम नहीं सुना था . लेकिन वहां से उसने तालीम पायी और एन एस डी की रिपर्टरी कंपनी में करीब ढाई साल काम किया . माता जी तो बेटी की हर बात को सही मानती थीं लेकिन पिता जी नाराज़ ही रहे . नाटक में काम करने वाली बेटी पर, आज़मगढ़ से आये एक मध्यवर्गीय आदमी को जितना गर्व होना था , बस उतना ही था. किसी से बताते तक नहीं थे . हाँ , जब फिल्म चक दे इण्डिया में काम मिला तो वे अपने दोस्तों से बेटी की तारीफ़ करने लगे और अब उन्हें भी अपनी बेटी पर नाज़ है . कई सीरियलों और कुछ फिल्मों में काम कर चुकी हैं , सीमा आजमी लेकिन अभी तो शुरुआत है . सीमा को अभिनय करते देख कर लगता है कि शबाना आजमी या स्मिता पाटिल की प्रतिभा वाली कोई लडकी भारतीय सिनेमा को नसीब हो गयी है .
Monday, August 9, 2010
Sunday, August 8, 2010
९ अगस्त सन बयालीस को जिन्ना और सावरकर गाँधी के खिलाफ थे
शेष नारायण सिंह
ठीक ६८ साल पहले महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के कह दिया था कि बहुत हुआ अब आप लोगों की किसी बात का विश्वास नहीं है . आप लोग अपना झोला झंडी उठाइये और भारत का पिंड छोडिये. पूरे देश में आजादी का बिगुल बज गया था. एक ख़ास वर्ग के लोगों के बीच आज जिन नेताओं का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है उनमें से बहुत सारे लोग उन दिनों अंग्रेजों के झंडाबरदार थे लेकिन महात्मा गाँधी की समझ में बात आ गयी थी कि अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए अब किसी मुरव्वत की गुंजाइश नहीं थी, उन्हें भगाने के लिए साफ़ साफ़ कहना पड़ेगा. और उन्होंने ८ अगस्त १९४२ के दिन बम्बई में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में फैसल ले लिया. उसी रात कांग्रेस कमेटी के सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए. भारत छोडो आन्दोलन की याद में उन महान नेताओं को याद कर लेना ज़रूरी है जो आज़ादी के इस महायज्ञ में महात्मा जी के साथ खड़े थे. अंग्रेजों ने आज़ादी के लिए कर रही पार्टी के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था. . आज ६८ साल बाद की बात अलग है लेकिन १९४२ में अंग्रेजों ने हर उस आदमी को सबक सिखाने का फैसला कर लिया था जो भारत की आज़ादी के पक्ष में था. ब्रिटेन की वार कैबिनेट ने जून में ही वायसरॉय को अधिकार दे दिया था कि वह जैसा भी चाहे , कांग्रेसी नेताओं के साथ वैसा व्यवहार कर सकते हैं .. वायसरॉय इस चक्कर में था कि वह भारत छोडो आन्दोलन के प्रस्ताव के पास होते ही महात्मा जी और पूरी कांग्रेस कार्यसमिति को गिरफ्तार कर ले. लेकिन तय यह हुआ कि जब आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी इस प्रातव को मंजूरी दे तब सभी नेताओं को पकड़ा जाए . उनकी मूल योजना थी कि गाँधी जी को देश से बाहर ले जाकर को अदन में नज़रबंद किया जाए और बाकी नेताओं को न्यासालैंड में रखा जाए . लेकिन बाद में मन बदल दिया गया और महात्मा गाँधी को पुणे के आगा खां पैलेस में और कांग्रेस के बाकी नेताओं को अहमदनगर जेल में रखा गया. ९ अगस्त की सुबह पांच बजे सभी नेताओं को सोते से जगाकर पकड़ लिया गया. एक विशेष ट्रेन से सबको पूना ले जाया गया ,जहां महात्मा जी और उनके साथियों को उतार दिया गया. बाकी नेता अहमदनगर जेल ले जाए गए. सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, पट्टाभि सीतारामैय्या और हरेकृष्ण महताब को अलग कमरे मिले थे. जवाहरलाल नेहरू के कमरे में डॉ सैयाद महमूद थे. शंकर राव देव और प्रफुल्ल चन्द्र घोष एक कमरे में थे. आचार्य कृपलानी , गोविन्द बल्लभ पन्त, आचार्य नरेंद्र देव और आसफ अली को एक साथ रखा गया था. डॉ राजेन्द्र प्रसाद बीमार थे इसलिए आ नहीं सके थे . उन्हें गिरफ्तार करके बिहार में ही रखा गया था. भूलाभाई देसाई और चितरंजन दस को गिरफ्तार नहीं किया गया था क्योंकि इन लोगों ने अपने आपको भारत छोडो आन्दोलन से अलग कर लिया था. तो यह है फेहरिस्त उन महानायकों की जिन्होंने हमें आज़ादी दिलवाई. और अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया.
यह सब हुआ इसलिए कि कांग्रेस ने १४ जुलाई १९४२ के दिन एक प्रस्ताव पास किया था कि अगर अँगरेज़ भारत नहीं छोड़ते तो पूरे देश में आन्दोलन चलेगा . कांग्रेस के इस प्रस्ताव से अंग्रेजों के वफादार लोगों के बीच हडकंप मच गया. मुहम्मद अली जिन्ना ने बयान दिया कि आन्दोलन शुरू करने का कांग्रेस का ताज़ा फैसला सही नहीं है . यह मुसलमानों के हितों की अनदेखी करता है . हिन्दू महासभा के नेता, वी डी सावरकर ने अपने समर्थकों से कहा कि कांग्रेस के आन्दोलन का विरोध करें. उधर अँगरेज़ सरकार ने भी पूरी तैयारी कर ली थी . ८ अगस्त को सभी सरकारी विभागों के नाम आदेश जारी कर दिया कि कांग्रेस का आन्दोलन गैरकानूनी है . सरकारी विभागों को चाहिए कि आन्दोलन को हर हाल में कुचल दें. आल इण्डिया कांगेस कमेटी की बैठक ७ अगस्त को मुंबई में हुई जहां तय किया गया कि अहिंसक तरीके से पूरे देश में आन्दोलन चलाया जाएगा. आन्दोलन के नेतृत्व का ज़िम्मा गाँधी जी को सौंपा गया. लेकिन यह भी अनुमान था कि गाँधी जी तो गिरफ्तार हो जायेगें ,. ऐसी सूरत में यह तय किया गया कि हो सकता है कि सभी नेता गिरफ्तार हो जाएँ तो हर व्यक्ति जो इस आन्दोलन के साथ है , वह अहिंसक तरीके से अपना काम करता रहेगा. महत्मा गाँधी ने अपील की कि हिन्दू और मुसलमान के बीच जो नफरत पैदा करने की कोशिश की गयी है उसे भूल जाओ और सभी लोग भारतीय बन कर संघर्ष करो. हमारा झगडा अँगरेज़ जनता से नहीं है . हम तो अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का विरोध कर रहे हैं.. सत्याग्रह में किसी तरह की धोखेबाजी या असत्य के लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने सब को बताया कि आज से अपने आप को आज़ाद समझो. आबादी के एक हिस्से को अँगरेज़ भरमाने में सफल हो गए थे लेकिन गाँधी की आंधी के सामने कोई नहीं टिक सका और देश आज़ाद हो गया
ठीक ६८ साल पहले महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के कह दिया था कि बहुत हुआ अब आप लोगों की किसी बात का विश्वास नहीं है . आप लोग अपना झोला झंडी उठाइये और भारत का पिंड छोडिये. पूरे देश में आजादी का बिगुल बज गया था. एक ख़ास वर्ग के लोगों के बीच आज जिन नेताओं का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है उनमें से बहुत सारे लोग उन दिनों अंग्रेजों के झंडाबरदार थे लेकिन महात्मा गाँधी की समझ में बात आ गयी थी कि अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए अब किसी मुरव्वत की गुंजाइश नहीं थी, उन्हें भगाने के लिए साफ़ साफ़ कहना पड़ेगा. और उन्होंने ८ अगस्त १९४२ के दिन बम्बई में हुई कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में फैसल ले लिया. उसी रात कांग्रेस कमेटी के सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए. भारत छोडो आन्दोलन की याद में उन महान नेताओं को याद कर लेना ज़रूरी है जो आज़ादी के इस महायज्ञ में महात्मा जी के साथ खड़े थे. अंग्रेजों ने आज़ादी के लिए कर रही पार्टी के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था. . आज ६८ साल बाद की बात अलग है लेकिन १९४२ में अंग्रेजों ने हर उस आदमी को सबक सिखाने का फैसला कर लिया था जो भारत की आज़ादी के पक्ष में था. ब्रिटेन की वार कैबिनेट ने जून में ही वायसरॉय को अधिकार दे दिया था कि वह जैसा भी चाहे , कांग्रेसी नेताओं के साथ वैसा व्यवहार कर सकते हैं .. वायसरॉय इस चक्कर में था कि वह भारत छोडो आन्दोलन के प्रस्ताव के पास होते ही महात्मा जी और पूरी कांग्रेस कार्यसमिति को गिरफ्तार कर ले. लेकिन तय यह हुआ कि जब आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी इस प्रातव को मंजूरी दे तब सभी नेताओं को पकड़ा जाए . उनकी मूल योजना थी कि गाँधी जी को देश से बाहर ले जाकर को अदन में नज़रबंद किया जाए और बाकी नेताओं को न्यासालैंड में रखा जाए . लेकिन बाद में मन बदल दिया गया और महात्मा गाँधी को पुणे के आगा खां पैलेस में और कांग्रेस के बाकी नेताओं को अहमदनगर जेल में रखा गया. ९ अगस्त की सुबह पांच बजे सभी नेताओं को सोते से जगाकर पकड़ लिया गया. एक विशेष ट्रेन से सबको पूना ले जाया गया ,जहां महात्मा जी और उनके साथियों को उतार दिया गया. बाकी नेता अहमदनगर जेल ले जाए गए. सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, पट्टाभि सीतारामैय्या और हरेकृष्ण महताब को अलग कमरे मिले थे. जवाहरलाल नेहरू के कमरे में डॉ सैयाद महमूद थे. शंकर राव देव और प्रफुल्ल चन्द्र घोष एक कमरे में थे. आचार्य कृपलानी , गोविन्द बल्लभ पन्त, आचार्य नरेंद्र देव और आसफ अली को एक साथ रखा गया था. डॉ राजेन्द्र प्रसाद बीमार थे इसलिए आ नहीं सके थे . उन्हें गिरफ्तार करके बिहार में ही रखा गया था. भूलाभाई देसाई और चितरंजन दस को गिरफ्तार नहीं किया गया था क्योंकि इन लोगों ने अपने आपको भारत छोडो आन्दोलन से अलग कर लिया था. तो यह है फेहरिस्त उन महानायकों की जिन्होंने हमें आज़ादी दिलवाई. और अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया.
यह सब हुआ इसलिए कि कांग्रेस ने १४ जुलाई १९४२ के दिन एक प्रस्ताव पास किया था कि अगर अँगरेज़ भारत नहीं छोड़ते तो पूरे देश में आन्दोलन चलेगा . कांग्रेस के इस प्रस्ताव से अंग्रेजों के वफादार लोगों के बीच हडकंप मच गया. मुहम्मद अली जिन्ना ने बयान दिया कि आन्दोलन शुरू करने का कांग्रेस का ताज़ा फैसला सही नहीं है . यह मुसलमानों के हितों की अनदेखी करता है . हिन्दू महासभा के नेता, वी डी सावरकर ने अपने समर्थकों से कहा कि कांग्रेस के आन्दोलन का विरोध करें. उधर अँगरेज़ सरकार ने भी पूरी तैयारी कर ली थी . ८ अगस्त को सभी सरकारी विभागों के नाम आदेश जारी कर दिया कि कांग्रेस का आन्दोलन गैरकानूनी है . सरकारी विभागों को चाहिए कि आन्दोलन को हर हाल में कुचल दें. आल इण्डिया कांगेस कमेटी की बैठक ७ अगस्त को मुंबई में हुई जहां तय किया गया कि अहिंसक तरीके से पूरे देश में आन्दोलन चलाया जाएगा. आन्दोलन के नेतृत्व का ज़िम्मा गाँधी जी को सौंपा गया. लेकिन यह भी अनुमान था कि गाँधी जी तो गिरफ्तार हो जायेगें ,. ऐसी सूरत में यह तय किया गया कि हो सकता है कि सभी नेता गिरफ्तार हो जाएँ तो हर व्यक्ति जो इस आन्दोलन के साथ है , वह अहिंसक तरीके से अपना काम करता रहेगा. महत्मा गाँधी ने अपील की कि हिन्दू और मुसलमान के बीच जो नफरत पैदा करने की कोशिश की गयी है उसे भूल जाओ और सभी लोग भारतीय बन कर संघर्ष करो. हमारा झगडा अँगरेज़ जनता से नहीं है . हम तो अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद का विरोध कर रहे हैं.. सत्याग्रह में किसी तरह की धोखेबाजी या असत्य के लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने सब को बताया कि आज से अपने आप को आज़ाद समझो. आबादी के एक हिस्से को अँगरेज़ भरमाने में सफल हो गए थे लेकिन गाँधी की आंधी के सामने कोई नहीं टिक सका और देश आज़ाद हो गया
Saturday, August 7, 2010
परमाणु सुरक्षा पर बात करते वक़्त नागासाकी और हिरोशिमा का ध्यान रखना चाहिए
शेष नारायण सिंह
६५ साल पहले,६ अगस्त १९४५ के दिन एक अमरीकी हवाई जहाज़ ने जापान के हिरोशिमा शहर पर पहला परमाणु बम गिराया था . उसके बाद से ही दुनिया परमाणु बम की दहशत में जिंदा है . परमाणु बम गिराने के बाद अमरीका ने बाकी दुनिया से अपने आप को सुपीरियर साबित कर लिया था.जब अमरीका ने तबाही का यह बम जापानी शहर पर गिराया था तो उस वक़्त के अमरीका के राष्ट्रपति हैरी. एस. ट्रूमैन अटलांतिक महासागर में "आगस्ता" जहाज़ी बेड़े पर मौजूद थे और उन्होंने शेखी मारी थी कि इस एक बम के गिर जाने के बाद युद्ध के मानदंड बदल जायेगें..हिरोशिमा शहर को निशाना इसलिए बनाया गया था कि वहां जापानी सेना का सप्लाई डिपो था. शहर की 60 प्रतिशत से भी अधिक इमारतें नष्ट हो गईं थीं. हिरोशिमा की कुल 3 लाख 50 हज़ार की आबादी में से 1 लाख 40 हज़ार लोग इसमें मारे गए थे .इस बम के कारण 13 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में तबाही फैल गई थी.इनमें सैनिक और वह लोग भी शामिल थे जो बाद में परमाणु विकिरण की वजह से मारे गए. बहुत से लोग लंबी बीमारी और अपंगता के भी शिकार हुए...तीन दिनों बाद अमरीका ने नागासाकी शहर पर पहले से भी बड़ा हमला किया.अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने कहा था कि परमाणु बम ने दुनिया की मूलभूत शक्तियों को इकट्ठा करने का काम किया है, उन्होंने दावा किया था कि उस बम ने परमाणु हथियार बनाने की दौड़ में जर्मनी पिछड़ गया है .यह बम अमरीका की एक सोची समझी चाल के तहत चलाया गया था . इसके १० दिन पहले अमरीकी राष्ट्रपति ने चेतावनी दी थी जिसमें जापान को बिना शर्त आत्मसमर्पण करने को कहा गया था. हालांकि पिछले ६५ वर्षों में अमरीका ने हर मंच से यह साबित करने की कोशिश की है कि उसने युद्ध की नीति शास्त्र का पूरी तरह से पालन किया है लेकिन सही बात यह है कि अंतर राष्ट्रीय संबंधों के मामले में यह अमरीकी दादागीरी की शुरुआत का पहला अध्याय है और आज भी उसी परमाणु ताक़त और हथियारों के ज़खीरे के बल पर वह देशों को धमकाता फिरता है.केंद्र सरकार की परमाणु ज़िम्मेदारी बिल को पास करवाने की कोशिश को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के बाद हुई तबाही को नज़र में रखा जाए. अमरीकी बमबारी के ६५ साल बाद भी आज हिरोशीमा और नागासाकी में लोग परमाणु खतरों से जूझ रहे हैं , बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं और वहां के लोगों की भावी पीढियां तबाह हो गयी हैं. . हैरानी की बात यह है कि परमाणु दुर्घटना के मामले में केंद्र सरकार का सुझाव है कि सम्बंधित पक्ष की ज़िम्मेदारी केवल १० साल रखी जाए. अखबारों के माध्यम से सरकार ने खबरें लीक कर के यह कोशिश की कि इसे बढ़ाकर २० साल करने पर विचार किया जा रहा है . बिल के लोक सभा में पेश होने के पहले उस पर संसद की एक समिति विचार कर रही है .ज़्यादातर सदस्यों का कहना है कि इस मामले में समय सीमा तय करने की ज़रुरत नहीं है . उनक अतार्क है कि भोपाल में जो औद्योगिक हादसा हुआ था उसमें तो कहीं कोई परमाणु ज़हर नहीं था लेकिन वहां के लोगआज २५ साल बाद भी उस ज़हर के शिकार हो रहे हैं . इसलिए जब परमाणु ज़हर माहौल में फैलेगा तो २० साल का समय तो कुछ भी नहीं है . वास्तव में इसे हमेशा के लिए लागू किया जाना चाहिए २० या ५० साल की समय सीमा बाँधने का कोई मतलब नहीं है . सरकार की तरफ से लाये मूल बिल में प्रस्ताव था कि हादसे की सूरत में ज़िम्मेदार पक्ष को पांच सौ करोड़ रूपये के लिए ज़िम्मेदार माना जाए . अब मीडिया के माध्यम से यह सुझाया जा रहा है कि इसे दुगुना या तिगुना किया जा जा सकता है लेकिन बड़ी संख्या में सांसदों के एरे है कि इसे कम सेकम पांच हज़ार करोड़ रूपये पर फिक्स किया जा सकता है . टी सुबीरामी रेड्डी की अध्यक्षता में बनी कमेटी को तय करना है कि सरकार इस बिल में अभे यौर क्या क्या संशोधन करे. सम्बंधित विभागों के अफसरों को तलब कर के उनसे जानकारी ली जा रही है . उसके बाद की तय होगा कि इस बिल का भविष्य क्या होगा लेकिन ज़रूरी है कि टी सुबीरामी रेडी सहित कमेटी के बाकी सदस्य बहुत ही ज़िम्मेदारी से फैलसा लें क्योंकि जो कुछ वह तय करेगें ,हमारी भविष्य की पीढ़ियों की सुरक्षा उसी पर निर्भर करेगी.
६५ साल पहले,६ अगस्त १९४५ के दिन एक अमरीकी हवाई जहाज़ ने जापान के हिरोशिमा शहर पर पहला परमाणु बम गिराया था . उसके बाद से ही दुनिया परमाणु बम की दहशत में जिंदा है . परमाणु बम गिराने के बाद अमरीका ने बाकी दुनिया से अपने आप को सुपीरियर साबित कर लिया था.जब अमरीका ने तबाही का यह बम जापानी शहर पर गिराया था तो उस वक़्त के अमरीका के राष्ट्रपति हैरी. एस. ट्रूमैन अटलांतिक महासागर में "आगस्ता" जहाज़ी बेड़े पर मौजूद थे और उन्होंने शेखी मारी थी कि इस एक बम के गिर जाने के बाद युद्ध के मानदंड बदल जायेगें..हिरोशिमा शहर को निशाना इसलिए बनाया गया था कि वहां जापानी सेना का सप्लाई डिपो था. शहर की 60 प्रतिशत से भी अधिक इमारतें नष्ट हो गईं थीं. हिरोशिमा की कुल 3 लाख 50 हज़ार की आबादी में से 1 लाख 40 हज़ार लोग इसमें मारे गए थे .इस बम के कारण 13 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में तबाही फैल गई थी.इनमें सैनिक और वह लोग भी शामिल थे जो बाद में परमाणु विकिरण की वजह से मारे गए. बहुत से लोग लंबी बीमारी और अपंगता के भी शिकार हुए...तीन दिनों बाद अमरीका ने नागासाकी शहर पर पहले से भी बड़ा हमला किया.अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने कहा था कि परमाणु बम ने दुनिया की मूलभूत शक्तियों को इकट्ठा करने का काम किया है, उन्होंने दावा किया था कि उस बम ने परमाणु हथियार बनाने की दौड़ में जर्मनी पिछड़ गया है .यह बम अमरीका की एक सोची समझी चाल के तहत चलाया गया था . इसके १० दिन पहले अमरीकी राष्ट्रपति ने चेतावनी दी थी जिसमें जापान को बिना शर्त आत्मसमर्पण करने को कहा गया था. हालांकि पिछले ६५ वर्षों में अमरीका ने हर मंच से यह साबित करने की कोशिश की है कि उसने युद्ध की नीति शास्त्र का पूरी तरह से पालन किया है लेकिन सही बात यह है कि अंतर राष्ट्रीय संबंधों के मामले में यह अमरीकी दादागीरी की शुरुआत का पहला अध्याय है और आज भी उसी परमाणु ताक़त और हथियारों के ज़खीरे के बल पर वह देशों को धमकाता फिरता है.केंद्र सरकार की परमाणु ज़िम्मेदारी बिल को पास करवाने की कोशिश को समझने के लिए यह ज़रूरी है कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के बाद हुई तबाही को नज़र में रखा जाए. अमरीकी बमबारी के ६५ साल बाद भी आज हिरोशीमा और नागासाकी में लोग परमाणु खतरों से जूझ रहे हैं , बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं और वहां के लोगों की भावी पीढियां तबाह हो गयी हैं. . हैरानी की बात यह है कि परमाणु दुर्घटना के मामले में केंद्र सरकार का सुझाव है कि सम्बंधित पक्ष की ज़िम्मेदारी केवल १० साल रखी जाए. अखबारों के माध्यम से सरकार ने खबरें लीक कर के यह कोशिश की कि इसे बढ़ाकर २० साल करने पर विचार किया जा रहा है . बिल के लोक सभा में पेश होने के पहले उस पर संसद की एक समिति विचार कर रही है .ज़्यादातर सदस्यों का कहना है कि इस मामले में समय सीमा तय करने की ज़रुरत नहीं है . उनक अतार्क है कि भोपाल में जो औद्योगिक हादसा हुआ था उसमें तो कहीं कोई परमाणु ज़हर नहीं था लेकिन वहां के लोगआज २५ साल बाद भी उस ज़हर के शिकार हो रहे हैं . इसलिए जब परमाणु ज़हर माहौल में फैलेगा तो २० साल का समय तो कुछ भी नहीं है . वास्तव में इसे हमेशा के लिए लागू किया जाना चाहिए २० या ५० साल की समय सीमा बाँधने का कोई मतलब नहीं है . सरकार की तरफ से लाये मूल बिल में प्रस्ताव था कि हादसे की सूरत में ज़िम्मेदार पक्ष को पांच सौ करोड़ रूपये के लिए ज़िम्मेदार माना जाए . अब मीडिया के माध्यम से यह सुझाया जा रहा है कि इसे दुगुना या तिगुना किया जा जा सकता है लेकिन बड़ी संख्या में सांसदों के एरे है कि इसे कम सेकम पांच हज़ार करोड़ रूपये पर फिक्स किया जा सकता है . टी सुबीरामी रेड्डी की अध्यक्षता में बनी कमेटी को तय करना है कि सरकार इस बिल में अभे यौर क्या क्या संशोधन करे. सम्बंधित विभागों के अफसरों को तलब कर के उनसे जानकारी ली जा रही है . उसके बाद की तय होगा कि इस बिल का भविष्य क्या होगा लेकिन ज़रूरी है कि टी सुबीरामी रेडी सहित कमेटी के बाकी सदस्य बहुत ही ज़िम्मेदारी से फैलसा लें क्योंकि जो कुछ वह तय करेगें ,हमारी भविष्य की पीढ़ियों की सुरक्षा उसी पर निर्भर करेगी.
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Thursday, August 5, 2010
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
शेष नारायण सिंह
लोक सभा में उर्दू आज सबकी प्रिय भाषा बन गयी. मुलायम सिंह यादव ने जीरो आवर में उर्दू अखबारों के साथ हो रही ज्यादती की बात को उठाया . फिर क्या था . हर पार्टी के नेता टूट पड़ा और उर्दू के पक्ष में भाषण देने लगा .उन लोगों ने भी उर्दू के पक्ष में बात की जिन्हें उर्दू वाले अपना नहीं मानते . बी जे पी के उप नेता अगोपी नाथ मुंडे और शत्रुघ्न सिन्हा ने भी उर्दू की शान में खूब कसीदे पढ़े. हालांकि चाचा जीरो आवर में शुरू हुए इथे एलेकिन बड़ी देर तक चलती रही. लगभग हर ओआर्ती के नेता उर्दू के पक्ष में खड़े दिखे. फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आज़ाद, और ममता बनर्जी ने भी बात की और लोक सभा अध्यक्ष ,मीरा कुमार ने सरकार से जवाब देने को कहा. सरकार की ओर से प्रणब मुखर्जी ने लोक सभा को भरोसा दिलाया कि सरकार उर्दू के लिए वह सब कुछ करेगी जो संभव है. उर्दू के बारे में इतनी अहम चर्चा के बाद मुझे अपना एक पुराना लेख याद आ गया . जिसे फिर से प्रस्तुत करना ठीक रहेगा.
कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।
वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी। सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।
अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी। इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे। अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।
उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था। सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं। गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।
1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे। वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।
उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।
1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।
कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।
आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में
उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
लोक सभा में उर्दू आज सबकी प्रिय भाषा बन गयी. मुलायम सिंह यादव ने जीरो आवर में उर्दू अखबारों के साथ हो रही ज्यादती की बात को उठाया . फिर क्या था . हर पार्टी के नेता टूट पड़ा और उर्दू के पक्ष में भाषण देने लगा .उन लोगों ने भी उर्दू के पक्ष में बात की जिन्हें उर्दू वाले अपना नहीं मानते . बी जे पी के उप नेता अगोपी नाथ मुंडे और शत्रुघ्न सिन्हा ने भी उर्दू की शान में खूब कसीदे पढ़े. हालांकि चाचा जीरो आवर में शुरू हुए इथे एलेकिन बड़ी देर तक चलती रही. लगभग हर ओआर्ती के नेता उर्दू के पक्ष में खड़े दिखे. फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आज़ाद, और ममता बनर्जी ने भी बात की और लोक सभा अध्यक्ष ,मीरा कुमार ने सरकार से जवाब देने को कहा. सरकार की ओर से प्रणब मुखर्जी ने लोक सभा को भरोसा दिलाया कि सरकार उर्दू के लिए वह सब कुछ करेगी जो संभव है. उर्दू के बारे में इतनी अहम चर्चा के बाद मुझे अपना एक पुराना लेख याद आ गया . जिसे फिर से प्रस्तुत करना ठीक रहेगा.
कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।
वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी। सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।
अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी। इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे। अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।
उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था। सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं। गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।
1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे। वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।
उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।
1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।
कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।
आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में
उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
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राहुल गांधी को गुस्सा क्यों आता है ?
शेष नारायण सिंह
( डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में छप चुका है )
कांग्रेस के आला नेता, राहुल गाँधी आजकल बहुत गुस्से में हैं . पता चला है कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की विरोधी सरकारें हैं ,वहां मुसलमानों के लिए केंद्र सरकार की ओर से चलाई गयी योजनाओं को ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है . उनके प्रिय राज्य उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों की भलाई के लिए केंद्र से मंज़ूर रक़म का इस्तेमाल नहीं हो रहा है . और अब खबर है कि केंद्र सरकार अपने अफसरों की मदद से प्रधान मंत्री की पन्द्रह सूत्री योजना को लागू करने की बात पर विचार कर रही है . अल्पसंख्यकों की भलाई के लिए घोषित, प्रधान मंत्री के १५ सूत्रीय कार्यक्रम के लिए केंद्र सरकार ने कई योजनाओं की शुरुआत की है. इनमें से एक है 'अल्पसंख्यकों के लिए बहु आयामी विकास कार्यक्रम.' इस मद में केंद्र सरकार की तरफ से अल्पसंख्यकों के विकास के लिए आर्थिक पैकेज की व्यवस्था की गयी है . यह कार्यक्रम केंद्र सरकार की तरफ से चुने गए ९० जिलों में शुरू किया गया है . इसे लागू करने के लिए ज़रूरी है कि सम्बंधित जिले में कम से कम २५ प्रतिशत अल्पसंख्यक आबादी हो. जिन जिलों का चुनाव किया गया है उनमें मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश,असम ,पश्चिम बंगाल और बिहार का नाम है . लेकिन अजीब बात है कि राज्य सरकारें इस फंड का इस्तेमाल ही नहीं कर रही हैं. करीब पचीस हज़ार करोड़ रूपये से ज़्यादा की सहायता राशि की व्यवस्था हुई है लेकिन अब तक केवल २० प्रतिशत का इस्तेमाल हुआ है . प्रधान मंत्री कार्यालय को इस बात की चिंता है कि कार्यक्रम को सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है . इसका राजनीतिक भावार्थ यह हो सकता है कि जिन ९० जिलों को चुना गया है उनमेंसे ज़्यादातर जिले, ऐसे राज्यों में पड़ते हैं जहां की राज्य सरकारें प्रधान मंत्री की पार्टी को अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों में लोकप्रिय नहीं होने देना चाहतीं. इसी लिए प्रधान मंत्री के नाम पर चल रहे कार्यक्रम को प्रचारित नहीं होने देना चाहतीं. लगता है कि प्रधान मंत्री कार्यालय को इस मंशा की भनक लग गयी है और अब केंद्र सरकार की ओर से दो जिलों में कार्यक्रम लागू करने के लिए काम शुरू कर दिया गया है . उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में तो केंद्रीय पर्यवेक्षक पंहुंच भी गए हैं.उत्तर प्रदेश में इस कार्यक्रम को लागू करने केलिए २१ जिलों का चुनाव किया गया है . बाकी २० जिलों को केंद्र सरकार ने भी भगवान् भरोसे छोड़ रखा है . जहां तक राज्य सरकार की बात है वह तो कभी नहीं चाहेगी कि मुसलमानों के बीच प्रधान मंत्री और उनकी पार्टी की वाह-वाही हो .वैसे भी अगर मुकामी अफसरों को किसी भी विकास योजना से सही मात्रा में रिश्वत की मलाई नहीं मिलती तो वे उसमें रूचि लेना बंद कर देते हैं . उत्तर प्रदेश में रोजगार गारंटी योजना अब तक खूब धडल्ले से चल रही थी क्योंकि उसकी रक़म को गाँव पंचायत का प्रधान और बी डी ओ मिलकर हज़मकर रहे थे . बी डी ओ को ही ऊपर के अधिकारियों का घूस इकठ्ठा करके पंहुचाने का ज़िम्मा था . सब ठीक ठाक चल रहा था. सारे अफसर खुश थे. कुछ पंचायतों में तो थोडा बहुत विकास भी हो रहा था लेकिन केंद्र सरकार की प्रेरणा से सोशल आडिट करने वाले कुछ लोग सक्रिय हो गए. जब से यह सोशल आडिट वाले सक्रिय हुए हैं , ग्रामीण रोज़गार योजना में पैसों के वितरण में कमी आई है क्योंकि घूसजीवी समाज के लिए किसी ऐसे काम में हाथ डालना ठीक नहीं माना जाता जिसमें रिश्वत की गिज़ा कम हो . बहर हाल अल्पसंख्यकों के हित के लिए शुरू की गयी योजनाओं के प्रति राज्य सरकारों की इस अनदेखी का फ़ौरन कोई न कोई हल निकाला जाना चाहिए . केंद्र सरकार इस बात पर भी गौर कर सकती है कि इन योजनाओं को लागू करने के लिए केंद्र के अधिकारियों को ही तैनात कर दिया जाए या कोई ऐसी एजेंसी बना दी जाए जो काम संभाल ले . क्योंकि इस बात में दो राय नहीं है कि देश में अल्प संख्यकों , ख़ास कर मुसलमानों की आर्थिक हालात बहुत ही खराब है . उनके आर्थिक पिछड़े पन का कारण मूल रूप से शिक्षा के क्षेत्र में उनका पिछड़ापन है . केंद्र की मौजूदा सरकार इस सच्चाई से वाकिफ है . इसी लिए मनमोहन सिंह की सरकार ने सच्चर कमेटी का गठन किया था और उसकी सिफारिशों को ध्यान में रख कर ही प्रधानमंत्री के १५ सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की गयी थी . शिक्षा के मह्त्व को निजी तौर पर समझने वाले प्रधान मंत्री ने मुसलमानों की तरक्की के लिए सबसे ज़रूरी महत्व शिक्षा को दिया . लेकिन मुसलमानों की शिक्षा में सबसे बड़ी अड़चन तो उन स्वार्थी लोगों की तरफ से आ रही है जो मुस्लिम शिक्षा के नाम पर सरकारी फायदा उठा रहे हैं .कोशिश की जानी चाहिए कि इन स्वार्थी लोगों को मुसलमानों की तरक्की में बाधा डालने से रोका जा सके. सबसे पहले तो इस तरह के लोगों की पहचान होना ज़रूरी है . सबसे बड़ा वर्ग तो घूसखोर अफसरों का है जिनको काबू में करने के लिए मीडिया का सहयोग लिया जा सकता है . दूसरा वर्ग हैं आर एस एस की मानसिकता वाले नेताओं और सरकारों का . उनके ऊपर निगरानी के लिए सेकुलर लोगों की एक जमात तैयार की जानी चाहिए जो धार्मिक कारणों से मुसलमानों का विरोध करने वालों को रोक सकें . और तीसरी बात यह है कि मुसलमानों में भी एक बड़ा वर्ग है जो मुस्लिम आबादी को आधुनिक शिक्षा देने का विरोध करता है .इन लोगों को सरकाकी बात है ,लगता है कि मौजूदा केंद्र सरकार मुस्लिम समाज की तरक्की के लिए पैसा ढीला करने को तैयार है .ज़रुरत इस बात की है कि उसका सही इस्तेमाल किया जाए .
( डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में छप चुका है )
कांग्रेस के आला नेता, राहुल गाँधी आजकल बहुत गुस्से में हैं . पता चला है कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की विरोधी सरकारें हैं ,वहां मुसलमानों के लिए केंद्र सरकार की ओर से चलाई गयी योजनाओं को ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है . उनके प्रिय राज्य उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों की भलाई के लिए केंद्र से मंज़ूर रक़म का इस्तेमाल नहीं हो रहा है . और अब खबर है कि केंद्र सरकार अपने अफसरों की मदद से प्रधान मंत्री की पन्द्रह सूत्री योजना को लागू करने की बात पर विचार कर रही है . अल्पसंख्यकों की भलाई के लिए घोषित, प्रधान मंत्री के १५ सूत्रीय कार्यक्रम के लिए केंद्र सरकार ने कई योजनाओं की शुरुआत की है. इनमें से एक है 'अल्पसंख्यकों के लिए बहु आयामी विकास कार्यक्रम.' इस मद में केंद्र सरकार की तरफ से अल्पसंख्यकों के विकास के लिए आर्थिक पैकेज की व्यवस्था की गयी है . यह कार्यक्रम केंद्र सरकार की तरफ से चुने गए ९० जिलों में शुरू किया गया है . इसे लागू करने के लिए ज़रूरी है कि सम्बंधित जिले में कम से कम २५ प्रतिशत अल्पसंख्यक आबादी हो. जिन जिलों का चुनाव किया गया है उनमें मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश,असम ,पश्चिम बंगाल और बिहार का नाम है . लेकिन अजीब बात है कि राज्य सरकारें इस फंड का इस्तेमाल ही नहीं कर रही हैं. करीब पचीस हज़ार करोड़ रूपये से ज़्यादा की सहायता राशि की व्यवस्था हुई है लेकिन अब तक केवल २० प्रतिशत का इस्तेमाल हुआ है . प्रधान मंत्री कार्यालय को इस बात की चिंता है कि कार्यक्रम को सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है . इसका राजनीतिक भावार्थ यह हो सकता है कि जिन ९० जिलों को चुना गया है उनमेंसे ज़्यादातर जिले, ऐसे राज्यों में पड़ते हैं जहां की राज्य सरकारें प्रधान मंत्री की पार्टी को अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों में लोकप्रिय नहीं होने देना चाहतीं. इसी लिए प्रधान मंत्री के नाम पर चल रहे कार्यक्रम को प्रचारित नहीं होने देना चाहतीं. लगता है कि प्रधान मंत्री कार्यालय को इस मंशा की भनक लग गयी है और अब केंद्र सरकार की ओर से दो जिलों में कार्यक्रम लागू करने के लिए काम शुरू कर दिया गया है . उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में तो केंद्रीय पर्यवेक्षक पंहुंच भी गए हैं.उत्तर प्रदेश में इस कार्यक्रम को लागू करने केलिए २१ जिलों का चुनाव किया गया है . बाकी २० जिलों को केंद्र सरकार ने भी भगवान् भरोसे छोड़ रखा है . जहां तक राज्य सरकार की बात है वह तो कभी नहीं चाहेगी कि मुसलमानों के बीच प्रधान मंत्री और उनकी पार्टी की वाह-वाही हो .वैसे भी अगर मुकामी अफसरों को किसी भी विकास योजना से सही मात्रा में रिश्वत की मलाई नहीं मिलती तो वे उसमें रूचि लेना बंद कर देते हैं . उत्तर प्रदेश में रोजगार गारंटी योजना अब तक खूब धडल्ले से चल रही थी क्योंकि उसकी रक़म को गाँव पंचायत का प्रधान और बी डी ओ मिलकर हज़मकर रहे थे . बी डी ओ को ही ऊपर के अधिकारियों का घूस इकठ्ठा करके पंहुचाने का ज़िम्मा था . सब ठीक ठाक चल रहा था. सारे अफसर खुश थे. कुछ पंचायतों में तो थोडा बहुत विकास भी हो रहा था लेकिन केंद्र सरकार की प्रेरणा से सोशल आडिट करने वाले कुछ लोग सक्रिय हो गए. जब से यह सोशल आडिट वाले सक्रिय हुए हैं , ग्रामीण रोज़गार योजना में पैसों के वितरण में कमी आई है क्योंकि घूसजीवी समाज के लिए किसी ऐसे काम में हाथ डालना ठीक नहीं माना जाता जिसमें रिश्वत की गिज़ा कम हो . बहर हाल अल्पसंख्यकों के हित के लिए शुरू की गयी योजनाओं के प्रति राज्य सरकारों की इस अनदेखी का फ़ौरन कोई न कोई हल निकाला जाना चाहिए . केंद्र सरकार इस बात पर भी गौर कर सकती है कि इन योजनाओं को लागू करने के लिए केंद्र के अधिकारियों को ही तैनात कर दिया जाए या कोई ऐसी एजेंसी बना दी जाए जो काम संभाल ले . क्योंकि इस बात में दो राय नहीं है कि देश में अल्प संख्यकों , ख़ास कर मुसलमानों की आर्थिक हालात बहुत ही खराब है . उनके आर्थिक पिछड़े पन का कारण मूल रूप से शिक्षा के क्षेत्र में उनका पिछड़ापन है . केंद्र की मौजूदा सरकार इस सच्चाई से वाकिफ है . इसी लिए मनमोहन सिंह की सरकार ने सच्चर कमेटी का गठन किया था और उसकी सिफारिशों को ध्यान में रख कर ही प्रधानमंत्री के १५ सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की गयी थी . शिक्षा के मह्त्व को निजी तौर पर समझने वाले प्रधान मंत्री ने मुसलमानों की तरक्की के लिए सबसे ज़रूरी महत्व शिक्षा को दिया . लेकिन मुसलमानों की शिक्षा में सबसे बड़ी अड़चन तो उन स्वार्थी लोगों की तरफ से आ रही है जो मुस्लिम शिक्षा के नाम पर सरकारी फायदा उठा रहे हैं .कोशिश की जानी चाहिए कि इन स्वार्थी लोगों को मुसलमानों की तरक्की में बाधा डालने से रोका जा सके. सबसे पहले तो इस तरह के लोगों की पहचान होना ज़रूरी है . सबसे बड़ा वर्ग तो घूसखोर अफसरों का है जिनको काबू में करने के लिए मीडिया का सहयोग लिया जा सकता है . दूसरा वर्ग हैं आर एस एस की मानसिकता वाले नेताओं और सरकारों का . उनके ऊपर निगरानी के लिए सेकुलर लोगों की एक जमात तैयार की जानी चाहिए जो धार्मिक कारणों से मुसलमानों का विरोध करने वालों को रोक सकें . और तीसरी बात यह है कि मुसलमानों में भी एक बड़ा वर्ग है जो मुस्लिम आबादी को आधुनिक शिक्षा देने का विरोध करता है .इन लोगों को सरकाकी बात है ,लगता है कि मौजूदा केंद्र सरकार मुस्लिम समाज की तरक्की के लिए पैसा ढीला करने को तैयार है .ज़रुरत इस बात की है कि उसका सही इस्तेमाल किया जाए .
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शेष नारायण सिंह
Wednesday, August 4, 2010
लोहिया महिलाओं को आरक्षण देने के पक्ष में थे
शेष नारायण सिंह
महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी है जो मुलायम सिंह और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा अजब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं.
शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. ऐसे बहुत सारे केस हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक जमात के बहुत बड़ी संख्या में लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं . लेकिन महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १२ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं. अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं. लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है. महिला आरक्षण की ज़बरदस्त वकील, महिलाओं का कहना है कि एक बार महिलाओं के रिज़र्वेशन का कानून बन जाए तो शोषित वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के लिए फिर आन्दोलन किया जा सकता है. लेकिन राजनीतिक पार्टियों के दादा लोग किसी भी वायदे पर ऐतबार नहीं करना चाहते .ऐतबार तो महिलाओं को भी इन नेताओं का नहीं है. महिला आरक्षण का विरोध करने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया के समर्थक हैं. लोहिया ने बहुत जोर दे कर कहा था कि महिला किसी भी जाति की हो, वह भी पिछड़े वर्गों की श्रेणी में ही आयेगी क्योंकि समाज के सभी वर्गों में महिलाओं को अपमानित किया जाता था और उन्हें दोयम दर्जे का इंसान समझा जाता था . इस लिए उन्होंने इन लोगों के प्रति सकारात्मक दखल यानी आरक्षण की बात की थी . उनकी कोशिश थी कि यह वर्ग समाज के शोषक वर्गों के बराबर हो जाएँ. अपने इसी सोच को अमली जामा पहनाने के लिए उन्होंने कांग्रेस से अलग हो कर सोशलिस्ट पार्टी के गठन की प्रक्रिया में शामिल होने का फैसला किया था.अजीब बात है कि लोहिया के अनुयायी ही इस मामले में डॉ लोहिया के खिलाफ खड़े पाए जा रहे हैं क्योंकि लोहिया ने तो साफ़ कहा था कि सभी जातियों की महिलायें पिछड़ी हुई हैं और उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए
महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिए जो बिल राज्य सभा में पास किया गया था ,उसे मानसून सत्र में पेश करने की मंशा सरकारी तौर पर जतायी गयी है . यानी इस सत्र में जो काम होना है उसमें महिला आरक्षण बिल भी है .. लेकिन राज्य सभा में बिल को पास करवाने के लिए कांग्रेस ने जो उत्साह दिखाया था वह ढीला पड़ चुका है .कांग्रेस और बी जे पी में ऐसे सांसदों की संख्या खासी है जो मुलायम सिंह और लालू प्रसाद की तरह सोचते हैं . इसलिए बिल को पास करवाना आसान नहीं है लेकिन उसे इतिहास के डस्ट बिन में भी नहीं डाला जा सकता है क्योंकि देश में जागरूक नागरिकों का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को एक तिहाई सीटें दे दी जाएँ. इसके फायदे बहुत हैं लेकिन उन फायदों का यहाँ ज़िक्र करना बार बार कही गयी बातों को फिर से दोहराना माना जाएगा. यहाँ तो बस दीवाल पर लिखी इबारत को एक बार फिर से दोहरा देना है कि अब महिलाओं के लिए विधान मंडलों और संसद में आरक्षण को रोक पाना राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत मुश्किल होगा . इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि लोक सभा और राज्य सभा में ऐसी पार्टियां बहुमत में हैं जो घोषित रूप से महिलाओं के आरक्षण के पक्ष में हैं . उनको उनकी बात पूरी करने के लिए मजबूर करने के लिए बड़े पैमाने पर आन्दोलन चल रहा है . इसी आन्दोलन की एक कड़ी के रूप में मानसून सत्र शुरू होने के बाद नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं का हुजूम आया और उसने साफ़ कह दिया कि सरकार और विपक्षी दलों को अब महिला आरक्षण बिल पास कर देना चाहिए वरना बहुत देर हो जायेगी. मानवधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे संगठन ,अनहद की ओर से आयोजित जंतर मंतर की रैली से जो सन्देश निकला वह दूर तक जाएगा . इसी रैली में सिने कलाकार और सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली नेता, शबाना आजमी भी मौजूद थीं . उन्होंने ऐलान किया कि अब इस लड़ाई को तब तक जारी रखा जाएगा अजब तक कि महिलायें बराबरी के अपने मकसद को हासिल नहीं कर लेतीं.
शबाना आज़मी का यह बयान कोरा भाषण नहीं है क्योंकि अब तक का उनका रिकार्ड ऐसा रहा है कि वे जो कहती हैं वही करती भी हैं . कान फिल्म समारोह में जाने के पहले जब उन्हें पता लगा कि मुंबई के एक इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान को टाल दिया और मुंबई में जाकर भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. ऐसे बहुत सारे केस हैं जहां शबाना ने अपनी बात को मनवाया है . तो इस बार तो उनके साथ महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या है और देश की राजनीतिक जमात के बहुत बड़ी संख्या में लोग महिला आरक्षण के पक्ष में हैं . लेकिन महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और वे पिछले १२ वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं. अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं. लेकिन महिलाओं को शक़ है कि यह टालने का तरीका है. महिला आरक्षण की ज़बरदस्त वकील, महिलाओं का कहना है कि एक बार महिलाओं के रिज़र्वेशन का कानून बन जाए तो शोषित वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षण के लिए फिर आन्दोलन किया जा सकता है. लेकिन राजनीतिक पार्टियों के दादा लोग किसी भी वायदे पर ऐतबार नहीं करना चाहते .ऐतबार तो महिलाओं को भी इन नेताओं का नहीं है. महिला आरक्षण का विरोध करने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया के समर्थक हैं. लोहिया ने बहुत जोर दे कर कहा था कि महिला किसी भी जाति की हो, वह भी पिछड़े वर्गों की श्रेणी में ही आयेगी क्योंकि समाज के सभी वर्गों में महिलाओं को अपमानित किया जाता था और उन्हें दोयम दर्जे का इंसान समझा जाता था . इस लिए उन्होंने इन लोगों के प्रति सकारात्मक दखल यानी आरक्षण की बात की थी . उनकी कोशिश थी कि यह वर्ग समाज के शोषक वर्गों के बराबर हो जाएँ. अपने इसी सोच को अमली जामा पहनाने के लिए उन्होंने कांग्रेस से अलग हो कर सोशलिस्ट पार्टी के गठन की प्रक्रिया में शामिल होने का फैसला किया था.अजीब बात है कि लोहिया के अनुयायी ही इस मामले में डॉ लोहिया के खिलाफ खड़े पाए जा रहे हैं क्योंकि लोहिया ने तो साफ़ कहा था कि सभी जातियों की महिलायें पिछड़ी हुई हैं और उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए
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शेष नारायण सिंह
Monday, August 2, 2010
वाचिक बलात्कार के अपराधी को सज़ा दो
शेष नारायण सिंह
बी एस एफ के पूर्व अधिकारी और वर्धा के महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय के कुलपति, विभूति नारायण राय ने महिला लेखकों के बारे में जिस तरह की बात कही है , वह असंभव लगती है . लेकिन बात उनके बहुत करीबी साहित्यकार की निगरानी में छपी पत्रिका में कही गयी है ,इसलिए गलत होने का कोई सवाल ही नहीं है . दो बातें हैं . पहली तो यह कि विभूति नारायण राय पागल हो गए हैं . अगर यह है तो सरकार को चाहिए कि उनका अच्छा से अच्छा इलाज करवाए.या दूसरी बात यह हो सकती है कि उनका बौद्धिक स्तर ही यही है. अगर यह सच है तो केंद्र सरकार , कांग्रेस पार्टी और केंद्रीय लोक सेवा आरोग को चाहिए कि पूरे देश से माफी मांगे. लोक सेवा आयोग इसलिए कि इतनी घटिया सोच वाले अफसर को आई पी एस जैसी नौकरी में चुना क्यों ? सरकार इसलिए कि इतनी नीच मानसिकता के अधिकारी को इतने वर्षों तक ज़िम्मेदारी के पद दिए जाते रहे. और कांग्रेस इस लिए कि उसी पार्टी ने इस घटिया और नीच मानसिकता वाले इंसान को प्रमोट किया. यह बात थोड़ी अजीब लग सकती है लेकिन यह सच है कि जब सुल्तानपुर जिले की अमेठी संसदीय क्षेत्र से राजीव गाँधी एम पी थे, उन्हीं दिनों यह आदमी वहां पुलिस कप्तान बन कर आया और राजीव गाँधी और वीर बहादुर सिंह का चेला बनने का अभिनय करने लगा. उसके बाद तो जब तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही, विभूति नारायण राय अच्छे पदों पर रहे . सत्ता का सारा सुख भोगा . १९८७ के मेरठ के दंगों के दौरान वी एन राय , गाज़ियाबाद के पुलिस कप्तान थे. उन दिनों गाज़ियाबाद ख़ासा मलाईदार जिला माना जाता था. वी एन राय ने भी इस तैनाती का फायदा उठा लिया था . जिले में कारोबार शुरू करवा दिया था. गाँव घर के लड़कों के नाम सब काम जमा रहे थे.और अपना और अपने परिवार का भविष्य संवार रहे थे. इसी बीच मलियाना और हाशिम पुरा में मुसलमानों को पी ए सी वालों ने पकड़ कर मार दिया. खबर थी कि बहुत सारे शव नहर में फेंक दिए गए. वह नहर गाज़ियाबाद जिले से होकर भी गुज़रती है . कुछ लाशें गाज़ियाबाद के इलाके में भी मिल गयी. बस फिर क्या था. करीबी प्रेस वालों को बुलाया और मुसलमानों के रक्षक की मुद्रा में अपने आपको पेश कर दिया. इस मुस्लिम परस्त इमेज का फायदा इनको बाद में बहुत मिला. कुछ किताबें वगैरह लिखीं . और जब भी सेकुलर टाइप लोग नज़र आये और अगर वे पावरफुल हुए तो उनके चरणों में दंडवत की और इसी रास्ते अर्जुन सिंह के दरबार ,में दरबारी पद पर भर्ती हो गए. उसी से प्रमोशन हुआ और सीधे वर्धा में महात्मा गाँधी के नाम पर बने एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति बनाकर भेज दिए गए. आजकल वहीं हैं और हिन्दी के कुछ बड़े लोगों को प्रलोभन देने की स्थिति में हैं . वहीं बैठकर अपने साहित्य के सपनों को रंग भर रहे हैं
सच्ची बात यह है कि जब इन्होने वर्धा में जाति और चापलूसी के आधार पर लोगों को इनाम देना शुरू किया तो नहीं लगता था कि इनकी नीचता का स्तर वह है जिसका प्रदर्शन उन्होंने नया ज्ञानोदय के नए संस्करण में किया है . . लगता था कि इनके तरह के लोग जितने नीच होते हैं , उतने ही होंगे. लेकिन मेरी सोच गलत थी. वी एन राय को अति निकृष्ट श्रेणी में रखना चाहिए क्योंकि नीच और अति नीच श्रेणी वालों के साथ अगर इतने बड़े पापी को डाल दिया गया तो वे लोग बुरा मान सकते सकते हैं . इस आदमी ने महिला लेखिकाओं को छिनाल कहा है. कहता है कि " लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने की कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है " . इस तरह की बात करने वाले आदमी को क्या कहा जाए. सबसे पहले तो यह कि इसका सभ्य समाज में उठना बैठना बंद करवाया जाए . उसके लिए ज़रूरी है कि जिस विश्वविद्यालय की कुलपति की कुर्सी पर यह बैठा है , वह तुरंत खाली करवाई जाए. इसके खिलाफ महिलाओं के सामूहिक उत्पीडन का मुक़दमा दर्ज करवाया जा सकता है.सरकार को फ़ौरन इस गैरज़िम्मेदार अफसर के खिलाफ कार्रवाई करना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग धृतराष्ट्र की श्रेणी में शामिल हो जायेगें और वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति की गद्दी पर बैठा दु:शासन अट्टहास करता रहेगा. एक अन्य लेखिका के लिए भी उनकी आत्म कथा के हवाले से वी एन राय ने बहुत गलत बात की है किसी बड़ी लेखिका के लिए इनके मुंह से निकले हुए घटिया शब्द क्या किसी वाचिक बलात्कार से कम हैं.इसलिए इस अफसर के खिलाफ फ़ौरन कारवाई होनी चाहिए वरना इस देश का सभ्य इंसान महाभारत के लिए तैयार हो जाएगा.
बी एस एफ के पूर्व अधिकारी और वर्धा के महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय के कुलपति, विभूति नारायण राय ने महिला लेखकों के बारे में जिस तरह की बात कही है , वह असंभव लगती है . लेकिन बात उनके बहुत करीबी साहित्यकार की निगरानी में छपी पत्रिका में कही गयी है ,इसलिए गलत होने का कोई सवाल ही नहीं है . दो बातें हैं . पहली तो यह कि विभूति नारायण राय पागल हो गए हैं . अगर यह है तो सरकार को चाहिए कि उनका अच्छा से अच्छा इलाज करवाए.या दूसरी बात यह हो सकती है कि उनका बौद्धिक स्तर ही यही है. अगर यह सच है तो केंद्र सरकार , कांग्रेस पार्टी और केंद्रीय लोक सेवा आरोग को चाहिए कि पूरे देश से माफी मांगे. लोक सेवा आयोग इसलिए कि इतनी घटिया सोच वाले अफसर को आई पी एस जैसी नौकरी में चुना क्यों ? सरकार इसलिए कि इतनी नीच मानसिकता के अधिकारी को इतने वर्षों तक ज़िम्मेदारी के पद दिए जाते रहे. और कांग्रेस इस लिए कि उसी पार्टी ने इस घटिया और नीच मानसिकता वाले इंसान को प्रमोट किया. यह बात थोड़ी अजीब लग सकती है लेकिन यह सच है कि जब सुल्तानपुर जिले की अमेठी संसदीय क्षेत्र से राजीव गाँधी एम पी थे, उन्हीं दिनों यह आदमी वहां पुलिस कप्तान बन कर आया और राजीव गाँधी और वीर बहादुर सिंह का चेला बनने का अभिनय करने लगा. उसके बाद तो जब तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही, विभूति नारायण राय अच्छे पदों पर रहे . सत्ता का सारा सुख भोगा . १९८७ के मेरठ के दंगों के दौरान वी एन राय , गाज़ियाबाद के पुलिस कप्तान थे. उन दिनों गाज़ियाबाद ख़ासा मलाईदार जिला माना जाता था. वी एन राय ने भी इस तैनाती का फायदा उठा लिया था . जिले में कारोबार शुरू करवा दिया था. गाँव घर के लड़कों के नाम सब काम जमा रहे थे.और अपना और अपने परिवार का भविष्य संवार रहे थे. इसी बीच मलियाना और हाशिम पुरा में मुसलमानों को पी ए सी वालों ने पकड़ कर मार दिया. खबर थी कि बहुत सारे शव नहर में फेंक दिए गए. वह नहर गाज़ियाबाद जिले से होकर भी गुज़रती है . कुछ लाशें गाज़ियाबाद के इलाके में भी मिल गयी. बस फिर क्या था. करीबी प्रेस वालों को बुलाया और मुसलमानों के रक्षक की मुद्रा में अपने आपको पेश कर दिया. इस मुस्लिम परस्त इमेज का फायदा इनको बाद में बहुत मिला. कुछ किताबें वगैरह लिखीं . और जब भी सेकुलर टाइप लोग नज़र आये और अगर वे पावरफुल हुए तो उनके चरणों में दंडवत की और इसी रास्ते अर्जुन सिंह के दरबार ,में दरबारी पद पर भर्ती हो गए. उसी से प्रमोशन हुआ और सीधे वर्धा में महात्मा गाँधी के नाम पर बने एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में कुलपति बनाकर भेज दिए गए. आजकल वहीं हैं और हिन्दी के कुछ बड़े लोगों को प्रलोभन देने की स्थिति में हैं . वहीं बैठकर अपने साहित्य के सपनों को रंग भर रहे हैं
सच्ची बात यह है कि जब इन्होने वर्धा में जाति और चापलूसी के आधार पर लोगों को इनाम देना शुरू किया तो नहीं लगता था कि इनकी नीचता का स्तर वह है जिसका प्रदर्शन उन्होंने नया ज्ञानोदय के नए संस्करण में किया है . . लगता था कि इनके तरह के लोग जितने नीच होते हैं , उतने ही होंगे. लेकिन मेरी सोच गलत थी. वी एन राय को अति निकृष्ट श्रेणी में रखना चाहिए क्योंकि नीच और अति नीच श्रेणी वालों के साथ अगर इतने बड़े पापी को डाल दिया गया तो वे लोग बुरा मान सकते सकते हैं . इस आदमी ने महिला लेखिकाओं को छिनाल कहा है. कहता है कि " लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने की कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है " . इस तरह की बात करने वाले आदमी को क्या कहा जाए. सबसे पहले तो यह कि इसका सभ्य समाज में उठना बैठना बंद करवाया जाए . उसके लिए ज़रूरी है कि जिस विश्वविद्यालय की कुलपति की कुर्सी पर यह बैठा है , वह तुरंत खाली करवाई जाए. इसके खिलाफ महिलाओं के सामूहिक उत्पीडन का मुक़दमा दर्ज करवाया जा सकता है.सरकार को फ़ौरन इस गैरज़िम्मेदार अफसर के खिलाफ कार्रवाई करना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग धृतराष्ट्र की श्रेणी में शामिल हो जायेगें और वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति की गद्दी पर बैठा दु:शासन अट्टहास करता रहेगा. एक अन्य लेखिका के लिए भी उनकी आत्म कथा के हवाले से वी एन राय ने बहुत गलत बात की है किसी बड़ी लेखिका के लिए इनके मुंह से निकले हुए घटिया शब्द क्या किसी वाचिक बलात्कार से कम हैं.इसलिए इस अफसर के खिलाफ फ़ौरन कारवाई होनी चाहिए वरना इस देश का सभ्य इंसान महाभारत के लिए तैयार हो जाएगा.
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शेष नारायण सिंह
Sunday, August 1, 2010
ब्रिटेन की चेतावनी ----- पाकिस्तान के आतंकवाद से दुनिया को ख़तरा
शेष नारायण सिंह
भारत की यात्रा पर आये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली में जो कुछ कहा उस से साफ़ है कि ब्रिटेन अब भारत और पाकिस्तान को एक तराजू में रखने की मानसिकता से बाहर आ चुका है . अब तक ब्रिटेन सहित अन्य पूजीवादी ,साम्राज्यवादी देश भारत और पाकिस्तान को बराबर मानने की ग्रंथि के शिकार थे. अब हालात बदल चुके हैं . यह कोई अहसान नहीं है . दुनिया के विकसित देशों को मालूम है कि भारत एक विकासमान देश है जबकि पाकिस्तान एक ऐसा देश है जिसने पिछले साठ वर्षों की गलत आर्थिक,राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय नीतियों का पालन करके अपने आपको ऐसे मुकाम पर पंहुचा दिया है जहां से उसके एक राष्ट्र के रूप में बचे रहने की संभावना बहुत कम है . इसलिए अब भारत और पाकिस्तान के बारे में बात करते हुए पश्चिम के बड़े देश हाइफन इस्तेमाल करना बंद कर चुके हैं . ब्रिटिश प्रधान मंत्री डेविड केमरून की भारत यात्रा इस मामले में भी ऐतिहासिक है कि वह अब अपने देश को भारत के मित्र के रूप में पेश करके खुश हैं . प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के साथ उनकी पत्रकार वार्ता को देख कर लगता है कि ब्रिटेन अब पाकिस्तान से दूरी बनाकार रखना चाहता है . ब्रिटेन भी पहले जैसा ताक़तवर देश नहीं रहा . उनकी अर्थ व्यवस्था में विदेशों से आने वाले छात्रों के पैसों का ख़ासा योगदान रहता है . भारत में शिक्षा को जो मह्त्व दिया जा रहा है ,उसके मद्देनज़र दोनों देशों के बीच हुए शिक्षा के समझौते में ब्रिटेन का ज्यादा हित है . व्यापार और रक्षा के समझौतों में भी ब्रिटेन का ही फायदा होगा और उसकी अर्थ व्यवस्था को बल मिलेगा . इस तरह अब साफ़ नज़र आने लगा है कि साठ वर्षों में हालात यहाँ तक बदल गए हैं कि कभी भारत पर राज करने वाला ब्रिटेन अब अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए भारत की ओर देखता है . लेकिन पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं है . पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में कुछ भी मज़बूत नहीं है . आजकल तो उनका खर्च तक विदेशी सहायता से चल रहा है . अगर अमरीका और सउदी अरब से दान मिलना बंद हो जाये तो पाकिस्तानी आबादी का बड़ा हिस्सा भूखों मरने को मजबूर हो जाएगा. भारत से मिल रहे सहयोग के बदले ब्रिटेन के प्रधान मंत्री ने भारत की पक्षधरता की बात की . उन्होने भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल करने की बात की और पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद को भारत , अफगानिस्तान और लन्दन के लिए ख़तरा बताया और पाकिस्तानी मदद से चलाये जा रहे आतंकवाद के खिलाफ भारत की मुहिम में अपने आप को शामिल कर लिया . उन्होंने साफ़ कहा कि इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान के अन्दर इस तरह के आतंकवादी संगठन मौजूद हों जो पाकिस्तान के अन्दर भी आतंक फैलाएं और भारत और अफगानिस्तान को आतंक का निशाना बनाएं. उन्होंने कहा कि ब्रिटेन की कोशिश है कि वह पाकिस्तान को इस बात के लिए उत्साहित करे कि वह लश्कर-ए-तय्यबा और तालिबान से मुकाबला कर सके.उन्होंने कहा कि अगले हफ्ते वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति से इन विषयों पर बातचीत करेगें.भारत के प्रधानमंत्री ने भी इस बात से सहमति जताई और कहा कि उन्हें उम्मीद है पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी भारत की यात्रा पर आने का निमंत्रण स्वीकार करेगें.जिस से देर सबेर बातचीत का सिलसिला शुरू किया जा सके.उन्होंने शाह महमूद कुरेशी की आचरण पर भी टिप्पणी की .
पाकिस्तान को आतंकवाद का केंद्र बताने की ब्रिटिश प्रधानमंत्री की बात को पाकिस्तान ने पसंद नहीं किया है . उनके हुक्मरान की समस्या यह है कि वे अभी भी अपनी जनता को बताते रहते हैं कि भारत और पाकिस्तान बाकी दुनिया की नज़र में बराबर की हैसियत वाले मुल्क हैं लेकिन अब सच्चाई सब के सामने आ चुकी है . अमरीका के ख़ास रह चुके पाकिस्तान को अमरीकी रुख में बदलाव भी नागवार गुज़र रहा है . लेकिन अब कोई भी देश पाकिस्तान को इज्ज़त से देखने की हिम्मत नहीं जुटा सकता. पाकिस्तान एक ऐसा देश हैं जहां सबसे ज्यादा खेती आतंकवाद की होती है और पिछले तीस वर्षों से वह आतंकवाद को सरकारी नीति के रूप में चला रहा है. अगर पाकिस्तान की इस बात को मान भी लिया जाए कि ब्रिटेन उसे भारत के बराबर माने तो उसके बाद क्या होगा . पाकिस्तान की अर्थ व्यवस्था इतनी जर्जर है कि जो देश भी उस से सम्बन्ध बनाएगा उसे पाकिस्तान की आर्थिक सहायता करनी पड़ेगी . अगर शिक्षा या संस्कृति के क्षेत्र में सहयोग हुआ तो पाकिस्तान से छात्रों के रूप में कितने आतंकवादी ब्रिटेन पंहुच जायेगें, इसका अंदाज़ कोई नहीं लगा सकता .इस लिए पाकिस्तान के शासकों को चाहिए कि वे वास्तविकता को स्वीकार करें और भारत समेत बाकी दुनिया से सहायता मांगें और अपने देश में मौजूद आतंकवाद को ख़त्म करें . बाकी दुनिया को यह मुगालता भी नहीं रखना चाहिए पाकिस्तान में लोकतंत्र कायम हो चुका है . वास्तव में वहां सत्ता फौज के हाथ में ही है . हालांकि विदेशों से सहायता झटकने के लिए फौज ने सिविलियन सरकार को बैठा रखा है लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि फौज के आला अफसर ,शाह महमूद कुरैशी जैसे गैर ज़िम्मेदार नेताओं को लगाम दें. जहां तक भारत से बराबरी की बात है ,उसे हमेशा के लिए भूल जाएँ क्योंकि भारत ने विकास की जो मंजिलें तय की हैं वह पाकिस्तान के लिए सपने जैसा है . पाकिस्तान को सच्चाई को स्वीकार करने की शक्ति विकसित करनी चाहिए
भारत की यात्रा पर आये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने नई दिल्ली में जो कुछ कहा उस से साफ़ है कि ब्रिटेन अब भारत और पाकिस्तान को एक तराजू में रखने की मानसिकता से बाहर आ चुका है . अब तक ब्रिटेन सहित अन्य पूजीवादी ,साम्राज्यवादी देश भारत और पाकिस्तान को बराबर मानने की ग्रंथि के शिकार थे. अब हालात बदल चुके हैं . यह कोई अहसान नहीं है . दुनिया के विकसित देशों को मालूम है कि भारत एक विकासमान देश है जबकि पाकिस्तान एक ऐसा देश है जिसने पिछले साठ वर्षों की गलत आर्थिक,राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय नीतियों का पालन करके अपने आपको ऐसे मुकाम पर पंहुचा दिया है जहां से उसके एक राष्ट्र के रूप में बचे रहने की संभावना बहुत कम है . इसलिए अब भारत और पाकिस्तान के बारे में बात करते हुए पश्चिम के बड़े देश हाइफन इस्तेमाल करना बंद कर चुके हैं . ब्रिटिश प्रधान मंत्री डेविड केमरून की भारत यात्रा इस मामले में भी ऐतिहासिक है कि वह अब अपने देश को भारत के मित्र के रूप में पेश करके खुश हैं . प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के साथ उनकी पत्रकार वार्ता को देख कर लगता है कि ब्रिटेन अब पाकिस्तान से दूरी बनाकार रखना चाहता है . ब्रिटेन भी पहले जैसा ताक़तवर देश नहीं रहा . उनकी अर्थ व्यवस्था में विदेशों से आने वाले छात्रों के पैसों का ख़ासा योगदान रहता है . भारत में शिक्षा को जो मह्त्व दिया जा रहा है ,उसके मद्देनज़र दोनों देशों के बीच हुए शिक्षा के समझौते में ब्रिटेन का ज्यादा हित है . व्यापार और रक्षा के समझौतों में भी ब्रिटेन का ही फायदा होगा और उसकी अर्थ व्यवस्था को बल मिलेगा . इस तरह अब साफ़ नज़र आने लगा है कि साठ वर्षों में हालात यहाँ तक बदल गए हैं कि कभी भारत पर राज करने वाला ब्रिटेन अब अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए भारत की ओर देखता है . लेकिन पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं है . पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में कुछ भी मज़बूत नहीं है . आजकल तो उनका खर्च तक विदेशी सहायता से चल रहा है . अगर अमरीका और सउदी अरब से दान मिलना बंद हो जाये तो पाकिस्तानी आबादी का बड़ा हिस्सा भूखों मरने को मजबूर हो जाएगा. भारत से मिल रहे सहयोग के बदले ब्रिटेन के प्रधान मंत्री ने भारत की पक्षधरता की बात की . उन्होने भारत को सुरक्षा परिषद् में शामिल करने की बात की और पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद को भारत , अफगानिस्तान और लन्दन के लिए ख़तरा बताया और पाकिस्तानी मदद से चलाये जा रहे आतंकवाद के खिलाफ भारत की मुहिम में अपने आप को शामिल कर लिया . उन्होंने साफ़ कहा कि इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान के अन्दर इस तरह के आतंकवादी संगठन मौजूद हों जो पाकिस्तान के अन्दर भी आतंक फैलाएं और भारत और अफगानिस्तान को आतंक का निशाना बनाएं. उन्होंने कहा कि ब्रिटेन की कोशिश है कि वह पाकिस्तान को इस बात के लिए उत्साहित करे कि वह लश्कर-ए-तय्यबा और तालिबान से मुकाबला कर सके.उन्होंने कहा कि अगले हफ्ते वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति से इन विषयों पर बातचीत करेगें.भारत के प्रधानमंत्री ने भी इस बात से सहमति जताई और कहा कि उन्हें उम्मीद है पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरेशी भारत की यात्रा पर आने का निमंत्रण स्वीकार करेगें.जिस से देर सबेर बातचीत का सिलसिला शुरू किया जा सके.उन्होंने शाह महमूद कुरेशी की आचरण पर भी टिप्पणी की .
पाकिस्तान को आतंकवाद का केंद्र बताने की ब्रिटिश प्रधानमंत्री की बात को पाकिस्तान ने पसंद नहीं किया है . उनके हुक्मरान की समस्या यह है कि वे अभी भी अपनी जनता को बताते रहते हैं कि भारत और पाकिस्तान बाकी दुनिया की नज़र में बराबर की हैसियत वाले मुल्क हैं लेकिन अब सच्चाई सब के सामने आ चुकी है . अमरीका के ख़ास रह चुके पाकिस्तान को अमरीकी रुख में बदलाव भी नागवार गुज़र रहा है . लेकिन अब कोई भी देश पाकिस्तान को इज्ज़त से देखने की हिम्मत नहीं जुटा सकता. पाकिस्तान एक ऐसा देश हैं जहां सबसे ज्यादा खेती आतंकवाद की होती है और पिछले तीस वर्षों से वह आतंकवाद को सरकारी नीति के रूप में चला रहा है. अगर पाकिस्तान की इस बात को मान भी लिया जाए कि ब्रिटेन उसे भारत के बराबर माने तो उसके बाद क्या होगा . पाकिस्तान की अर्थ व्यवस्था इतनी जर्जर है कि जो देश भी उस से सम्बन्ध बनाएगा उसे पाकिस्तान की आर्थिक सहायता करनी पड़ेगी . अगर शिक्षा या संस्कृति के क्षेत्र में सहयोग हुआ तो पाकिस्तान से छात्रों के रूप में कितने आतंकवादी ब्रिटेन पंहुच जायेगें, इसका अंदाज़ कोई नहीं लगा सकता .इस लिए पाकिस्तान के शासकों को चाहिए कि वे वास्तविकता को स्वीकार करें और भारत समेत बाकी दुनिया से सहायता मांगें और अपने देश में मौजूद आतंकवाद को ख़त्म करें . बाकी दुनिया को यह मुगालता भी नहीं रखना चाहिए पाकिस्तान में लोकतंत्र कायम हो चुका है . वास्तव में वहां सत्ता फौज के हाथ में ही है . हालांकि विदेशों से सहायता झटकने के लिए फौज ने सिविलियन सरकार को बैठा रखा है लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि फौज के आला अफसर ,शाह महमूद कुरैशी जैसे गैर ज़िम्मेदार नेताओं को लगाम दें. जहां तक भारत से बराबरी की बात है ,उसे हमेशा के लिए भूल जाएँ क्योंकि भारत ने विकास की जो मंजिलें तय की हैं वह पाकिस्तान के लिए सपने जैसा है . पाकिस्तान को सच्चाई को स्वीकार करने की शक्ति विकसित करनी चाहिए
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Thursday, July 29, 2010
मैं पंडित के बी परसाई का एक नास्तिक अनुयायी हूँ
शेष नारायण सिंह
पिछले साल जुलाई में पंडित के बी परसाई का देहांत हो गया था. एक साल से कुछ ज्यादा हो गए. मैंने उनके बारे में कुछ लिखने की कोशिश की लेकिन नहीं लिख पाया. मेरे लिए बाबा के बारे में कुछ भी लिखना बहुत मुश्किल है . . उन्हें दुनिया तरह तरह से जानती थी. घोषित रूप से वे संस्कृत, धर्मशास्त्र और ज्योतिष के विद्वान् थे. अंग्रेज़ी और संस्कृत के विद्वान् थे .इन दोनों ही विषयों में उन्होंने एम ए पास किया था. वे भारत सरकार में काम करते थे और निदेशक पद से रिटायर हुए थे . लेकिन इसके अलावा वे बहुत कुछ थे. पूरी दुनिया में ज्योतिष और धर्मशास्त्र के विद्वान् उन्हें जानते थे. लेकिन उन्होंने संबंधों का ढिंढोरा कभी नहीं पीटा. मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के एक गाँव में जन्मे बाबा , बहुत बड़े इंसान थे. भाग्यशाली भी माने जायेगें क्योंकि ४२ साल की उम्र रही होगी उनकी जब जवाहर लाल नेहरू का स्वर्गवास हुआ था. उस अवसर पर इंदिरा जी ने उनसे कहा कि जब तक नेहरू जी का पार्थिव शरीर तीन मूर्ति में है, गीता का अखंड पाठ होना चाहिए . बाबा ने ही वह पाठ किया था. इंदिरा जी उन्हें जानती थीं लेकिन इस घटना के बाद सब को पता चल गया कि वे इंदिरा जी के करीबी थे. और कोई होता तो इस सम्बन्ध का लाभ उठाता लेकिन बाबा ने ऐसा नहीं किया . अपनी साधना में लगे रहे और पूरा जीवन मध्यवर्गीय जीवन जीते रहे..
मेरी उनसे मुलाक़ात बहुत ही अजीबो गरीब परिस्थितियों में हुई थी. १९७८ में मैं किसी काम से ऋषिकेश गया था . हमारे शुभ चिन्तक डॉ इंदु प्रकाश सिंह ने चिट्ठी लिख दी थी तो वहां के शिवानन्द आश्रम में स्वामी कृष्णानंद जी महराज ने मेरे ठहरने का इंतज़ाम वहीं आश्रम में , द्वारका अतिथि गृह में करवा दिया था. बगल के कमरे में एक अन्य व्यक्ति थे , जो मूल रूप से अँगरेज़ थे लेकिन उन दिनों वहीं गढ़वाल में कहीं दूर दराज़ के गाँव में रहते थे. स्वामी जी के यूं पर ख़ास कृपा थी. उन्होंने मुझसे कुछ देर बात की और कुछ भविष्यवाणी कर दीं . मुझे ज्योतिष पर विश्वास नहीं है इसलिए मैं शिष्टाचार बस हाँ में हाँ मिलाता रहा . उन्होंने कागज़ उठाया और भविष्य में घटने वाली घटनाओं की कुछ तारीखें लिख कर मेरे हाथ में पकड़ा दीं .मैंने कागज़ संभाल कर रख लिया . उनको लगा कि मैं उनका विश्वास नहीं कर रहा हूँ . थोडा नाराज़ हुए और कहा कि अगर किसी बात पर विश्वास न हो तो बहस करो लेकिन मुझे मालूम था कि ज्योतिष पर बहस करने से क्या फायदा . आखिर में उन्होंने कहा कि दिल्ली में जाकर पंडित कन्हैया लाल परसाई से मिलो. बाबा का यही वास्तविक नाम था. दिल्ली आकर मैं पंडित के बी परसाई से मिला. और उन्हें बताया कि मैं क्यों मिल रहा हूँ . पंडित जी ने कहा कि बड़े भाग्यशाली हो जो उन्होंने तुम्हे यह सब बताया , वे किसी को कुछ बताते नहीं . कुछ दिन बाद ऋषिकेश वाले महराज की एकाध बातें उन्हीं तारीखों पर सही साबित हुईं जो उन्होंने लिख कर दिया था. मैं फिर बाबा से मिलने गया और सारी बात बतायी. . उन्होंने कहा कि अब उस संत पर शक मत करो . बाबा ने भी कुछ तारीखें लिख दीं . जो बाद में सही उतरीं. मुझे लगा कि ज्योतिष में मेरा विश्वास बढ़ रहा है . लेकिन बाबा ने कहा कि तुम बहुत बड़े संत से मिलकर आये हो , उनकी टक्कर का कोई नहीं . हर ज्योतिषी की बात सच नहीं होती. बहुत ज्ञान के ज़रुरत होती है . बाद मेंमें सैकड़ों ज्योतिषियों से मिला कभी किसी को किसी नया ज्योतिषी की तारीफ़ करते मैंने नहीं सुना है . लेकिन बाबा करते थे. मैंने एक दिन उनसे पूछा कि बाबा क्या मेरे जीवन में कभी आराम नहीं लिखा है . उन्होंने कहा जिस उम्र में लोग रिटायर होते हैं ,उस में तुम्हें कुछ चैन मिलेगा . अभी तो लगे रहो.अब लगता है कि शायद कुछ चैन की ज़िंदगी नसीब हुई है लेकिन किससे बताऊँ क्योंकि बाबा ही नहीं हैं .
उनकी भविष्यवाणी बहुत ही सटीक होती थी . हालांकि मैं कभी विश्वा नहीं करता था लेकिन जब घटना उनके बताये के अनुसार हो जाए मैं सन्न रह जाता था . बहुत सारी ऐसी भविष्यवाणियाँ हैं जिन्हें उन्होंने पहले ही लिख दिया था . उन्होंने बहुत पहले कह दिया था कि संजय गाँधी की मृत्यु किसी दुर्घटना में होगी.उन्होंने इंदिरा जी को नेहरू की मृत्यु के बारे में पहले ही बता दिया था और चेतावनी दी थी कि १९८४ में उन्हें संभल कर रहना चाहिए क्योंकि बाबा ने देख लिया था कि इंदिरा जी के जीवन को १९८४ में बहुत बड़े खतरे से दो चार होना पडेगा.
उनको यह लोक छोड़े एक साल हो गए . १९८६ और १९९६ के बारे में जो भी मुझे बताया था सच निकला . आखिर में मुझे उन्होंने बताया कि बेटा जब तुम्हें ज्योतिष में विश्वास नहीं है तो अपने आप पर जोर मत दो . बस यह मान कर चलो कि हो सकता है कि ज्योतिष के बारे में पूरी बात जानने के लिए अभी तुम्हारा मानसिक विकास नहीं हुआ है. लेकिन बाबा का विकास हुआ था क्योंकि उन्होंने ११ साल की उम्र में ही ज्योतिष का गहन अध्ययन शुरू कर दिया था और उम्र के ८७ साल तक उस में लगे रहे उनके पूर्वज भी ज्योतिष के विद्वान् थे और बाबा उस परंपरा की पचीसवीं पीढी के सदस्य थे. यह मेरे निहायत ही निजी ख्यालात हैं . यहाँ लिखी गयी किसी भी बात को मैं तर्क से नहीं साबित कर सकता लेकिन यह मेरे अनुभव हैं , एक नास्तिक के अनुभव . .
पिछले साल जुलाई में पंडित के बी परसाई का देहांत हो गया था. एक साल से कुछ ज्यादा हो गए. मैंने उनके बारे में कुछ लिखने की कोशिश की लेकिन नहीं लिख पाया. मेरे लिए बाबा के बारे में कुछ भी लिखना बहुत मुश्किल है . . उन्हें दुनिया तरह तरह से जानती थी. घोषित रूप से वे संस्कृत, धर्मशास्त्र और ज्योतिष के विद्वान् थे. अंग्रेज़ी और संस्कृत के विद्वान् थे .इन दोनों ही विषयों में उन्होंने एम ए पास किया था. वे भारत सरकार में काम करते थे और निदेशक पद से रिटायर हुए थे . लेकिन इसके अलावा वे बहुत कुछ थे. पूरी दुनिया में ज्योतिष और धर्मशास्त्र के विद्वान् उन्हें जानते थे. लेकिन उन्होंने संबंधों का ढिंढोरा कभी नहीं पीटा. मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के एक गाँव में जन्मे बाबा , बहुत बड़े इंसान थे. भाग्यशाली भी माने जायेगें क्योंकि ४२ साल की उम्र रही होगी उनकी जब जवाहर लाल नेहरू का स्वर्गवास हुआ था. उस अवसर पर इंदिरा जी ने उनसे कहा कि जब तक नेहरू जी का पार्थिव शरीर तीन मूर्ति में है, गीता का अखंड पाठ होना चाहिए . बाबा ने ही वह पाठ किया था. इंदिरा जी उन्हें जानती थीं लेकिन इस घटना के बाद सब को पता चल गया कि वे इंदिरा जी के करीबी थे. और कोई होता तो इस सम्बन्ध का लाभ उठाता लेकिन बाबा ने ऐसा नहीं किया . अपनी साधना में लगे रहे और पूरा जीवन मध्यवर्गीय जीवन जीते रहे..
मेरी उनसे मुलाक़ात बहुत ही अजीबो गरीब परिस्थितियों में हुई थी. १९७८ में मैं किसी काम से ऋषिकेश गया था . हमारे शुभ चिन्तक डॉ इंदु प्रकाश सिंह ने चिट्ठी लिख दी थी तो वहां के शिवानन्द आश्रम में स्वामी कृष्णानंद जी महराज ने मेरे ठहरने का इंतज़ाम वहीं आश्रम में , द्वारका अतिथि गृह में करवा दिया था. बगल के कमरे में एक अन्य व्यक्ति थे , जो मूल रूप से अँगरेज़ थे लेकिन उन दिनों वहीं गढ़वाल में कहीं दूर दराज़ के गाँव में रहते थे. स्वामी जी के यूं पर ख़ास कृपा थी. उन्होंने मुझसे कुछ देर बात की और कुछ भविष्यवाणी कर दीं . मुझे ज्योतिष पर विश्वास नहीं है इसलिए मैं शिष्टाचार बस हाँ में हाँ मिलाता रहा . उन्होंने कागज़ उठाया और भविष्य में घटने वाली घटनाओं की कुछ तारीखें लिख कर मेरे हाथ में पकड़ा दीं .मैंने कागज़ संभाल कर रख लिया . उनको लगा कि मैं उनका विश्वास नहीं कर रहा हूँ . थोडा नाराज़ हुए और कहा कि अगर किसी बात पर विश्वास न हो तो बहस करो लेकिन मुझे मालूम था कि ज्योतिष पर बहस करने से क्या फायदा . आखिर में उन्होंने कहा कि दिल्ली में जाकर पंडित कन्हैया लाल परसाई से मिलो. बाबा का यही वास्तविक नाम था. दिल्ली आकर मैं पंडित के बी परसाई से मिला. और उन्हें बताया कि मैं क्यों मिल रहा हूँ . पंडित जी ने कहा कि बड़े भाग्यशाली हो जो उन्होंने तुम्हे यह सब बताया , वे किसी को कुछ बताते नहीं . कुछ दिन बाद ऋषिकेश वाले महराज की एकाध बातें उन्हीं तारीखों पर सही साबित हुईं जो उन्होंने लिख कर दिया था. मैं फिर बाबा से मिलने गया और सारी बात बतायी. . उन्होंने कहा कि अब उस संत पर शक मत करो . बाबा ने भी कुछ तारीखें लिख दीं . जो बाद में सही उतरीं. मुझे लगा कि ज्योतिष में मेरा विश्वास बढ़ रहा है . लेकिन बाबा ने कहा कि तुम बहुत बड़े संत से मिलकर आये हो , उनकी टक्कर का कोई नहीं . हर ज्योतिषी की बात सच नहीं होती. बहुत ज्ञान के ज़रुरत होती है . बाद मेंमें सैकड़ों ज्योतिषियों से मिला कभी किसी को किसी नया ज्योतिषी की तारीफ़ करते मैंने नहीं सुना है . लेकिन बाबा करते थे. मैंने एक दिन उनसे पूछा कि बाबा क्या मेरे जीवन में कभी आराम नहीं लिखा है . उन्होंने कहा जिस उम्र में लोग रिटायर होते हैं ,उस में तुम्हें कुछ चैन मिलेगा . अभी तो लगे रहो.अब लगता है कि शायद कुछ चैन की ज़िंदगी नसीब हुई है लेकिन किससे बताऊँ क्योंकि बाबा ही नहीं हैं .
उनकी भविष्यवाणी बहुत ही सटीक होती थी . हालांकि मैं कभी विश्वा नहीं करता था लेकिन जब घटना उनके बताये के अनुसार हो जाए मैं सन्न रह जाता था . बहुत सारी ऐसी भविष्यवाणियाँ हैं जिन्हें उन्होंने पहले ही लिख दिया था . उन्होंने बहुत पहले कह दिया था कि संजय गाँधी की मृत्यु किसी दुर्घटना में होगी.उन्होंने इंदिरा जी को नेहरू की मृत्यु के बारे में पहले ही बता दिया था और चेतावनी दी थी कि १९८४ में उन्हें संभल कर रहना चाहिए क्योंकि बाबा ने देख लिया था कि इंदिरा जी के जीवन को १९८४ में बहुत बड़े खतरे से दो चार होना पडेगा.
उनको यह लोक छोड़े एक साल हो गए . १९८६ और १९९६ के बारे में जो भी मुझे बताया था सच निकला . आखिर में मुझे उन्होंने बताया कि बेटा जब तुम्हें ज्योतिष में विश्वास नहीं है तो अपने आप पर जोर मत दो . बस यह मान कर चलो कि हो सकता है कि ज्योतिष के बारे में पूरी बात जानने के लिए अभी तुम्हारा मानसिक विकास नहीं हुआ है. लेकिन बाबा का विकास हुआ था क्योंकि उन्होंने ११ साल की उम्र में ही ज्योतिष का गहन अध्ययन शुरू कर दिया था और उम्र के ८७ साल तक उस में लगे रहे उनके पूर्वज भी ज्योतिष के विद्वान् थे और बाबा उस परंपरा की पचीसवीं पीढी के सदस्य थे. यह मेरे निहायत ही निजी ख्यालात हैं . यहाँ लिखी गयी किसी भी बात को मैं तर्क से नहीं साबित कर सकता लेकिन यह मेरे अनुभव हैं , एक नास्तिक के अनुभव . .
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शेष नारायण सिंह
Tuesday, July 27, 2010
महिलाओं का हुजूम देगा संसद पर दस्तक
शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली में महिला संगठनों की नेताओं ने आज ऐलान किया कि अब संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने से सरकार बच नहीं सकती. अपनी बात को और जोरदार तरीके से कहने के लिए महिलाओं का एक बड़ा हुजूम २९ जुलाई को नयी दिल्ली के जंतर मंतर के पास इकठ्ठा होगा और संसद के तरफ कूच करेगा . महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में पास हो चुका है . अब उसे लोक सभा को पास करना है . लोक सभा में पास होने के बाद कम से कम १५ राज्यों की विधान सभाओं में उसे मंज़ूर लेनी पड़ेगी . जिसके बाद राष्ट्रपति के दस्तख़त के बाद वह कानून बन जाएगा. यह आसान नहीं होगा और दिल्ली में जुटी महिला नेताओं को यह मालूम भी है . इसी लिए महिलाओं ने ऐलान किया है कि अब लड़ाई आर पार की होगी . और राजनीतिक दल महिलाओं को उनका हक देने में आनाकानी नहीं कर सकते . प्रेस कांफेरेंस को अनहद की शबनम हाशमी, जनवादी महिला समिति की सुधा सुन्दरम, सेंटर फोर सोशल रिसर्च की रंजना कुमारी और नेशल फेडरेशन ऑफ़ इन्डियन वीमेन की एनी राजा ने संबोधित किया . एनी राजा ने कहा कि यू पी ए सरकार ने बार बार कहा है कि वह बिल को पास करवाना चाहते हैं लेकिन लगता है कि उनके पास राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है .. जो दल महिला आरक्षण का विरोध कर रहे हैं वे महिलाओं की पुरुषों से बराबरी की बात को नहीं मानते . यह बात महिला अधिकार नेता, ज्योत्सना चटर्जी ने भी दोहराया . उन्होंने कहा कि पिछले १५ वर्षों से वे सभी पार्टियों के नेताओं से समर्थन के मांग करती रही हैं . जो लोग विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि उनके लिए महिलाओं के लिए १८० सीट छोड़ देने का फैसला करना बड़ा ही मुश्किल काम है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सुधा सुन्दरम ने कहा कि बिल का विरोध करने वाले पितृसत्तात्मक समाज को समर्थन करते हैं और आम सहमति के राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल करके महिला आरक्षण बिल को रोक रहे हैं .डॉ रंजना कुमारी ने कहा कि जब राज्य सभा में बिल पास कराया गया तो तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने तय कर रखा था . हालांकि बी जे पी, कांग्रेस और वाम मोर्चे में कहीं कोई भी राजनीतिक समझ का रिश्ता नहीं है सब एक दूसरे की मुखालिफ जमाते हैं लेकिन बिला पास हुआ क्योंकि यह आज के दौर की ऐतिहासिक आवश्यकता है . हम पूरी कोशिश करेगें कि बिल इस मानसून त्र में ही हर हाल में पास कर लिया जाए.. .
अनहद की संयोजक शबनम हाशमी ने कहा कि समाज के पुरातन पंथी लोग धर्म का इस्तेमाल करके बिल को रोकना चाहते हैं उन्होंने मांग की कि यू पी ए के नेताओं को चाहिए कि सामंती सोच के लोगों के मशविरे को दरकिनार करके महिला आरक्षण बिल्ल्के समर्थन में सामने आयें और सामाजिक बराबरी की दिशा में यह महान क़दम उठायें
नयी दिल्ली में महिला संगठनों की नेताओं ने आज ऐलान किया कि अब संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण देने से सरकार बच नहीं सकती. अपनी बात को और जोरदार तरीके से कहने के लिए महिलाओं का एक बड़ा हुजूम २९ जुलाई को नयी दिल्ली के जंतर मंतर के पास इकठ्ठा होगा और संसद के तरफ कूच करेगा . महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में पास हो चुका है . अब उसे लोक सभा को पास करना है . लोक सभा में पास होने के बाद कम से कम १५ राज्यों की विधान सभाओं में उसे मंज़ूर लेनी पड़ेगी . जिसके बाद राष्ट्रपति के दस्तख़त के बाद वह कानून बन जाएगा. यह आसान नहीं होगा और दिल्ली में जुटी महिला नेताओं को यह मालूम भी है . इसी लिए महिलाओं ने ऐलान किया है कि अब लड़ाई आर पार की होगी . और राजनीतिक दल महिलाओं को उनका हक देने में आनाकानी नहीं कर सकते . प्रेस कांफेरेंस को अनहद की शबनम हाशमी, जनवादी महिला समिति की सुधा सुन्दरम, सेंटर फोर सोशल रिसर्च की रंजना कुमारी और नेशल फेडरेशन ऑफ़ इन्डियन वीमेन की एनी राजा ने संबोधित किया . एनी राजा ने कहा कि यू पी ए सरकार ने बार बार कहा है कि वह बिल को पास करवाना चाहते हैं लेकिन लगता है कि उनके पास राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है .. जो दल महिला आरक्षण का विरोध कर रहे हैं वे महिलाओं की पुरुषों से बराबरी की बात को नहीं मानते . यह बात महिला अधिकार नेता, ज्योत्सना चटर्जी ने भी दोहराया . उन्होंने कहा कि पिछले १५ वर्षों से वे सभी पार्टियों के नेताओं से समर्थन के मांग करती रही हैं . जो लोग विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि उनके लिए महिलाओं के लिए १८० सीट छोड़ देने का फैसला करना बड़ा ही मुश्किल काम है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सुधा सुन्दरम ने कहा कि बिल का विरोध करने वाले पितृसत्तात्मक समाज को समर्थन करते हैं और आम सहमति के राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल करके महिला आरक्षण बिल को रोक रहे हैं .डॉ रंजना कुमारी ने कहा कि जब राज्य सभा में बिल पास कराया गया तो तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने तय कर रखा था . हालांकि बी जे पी, कांग्रेस और वाम मोर्चे में कहीं कोई भी राजनीतिक समझ का रिश्ता नहीं है सब एक दूसरे की मुखालिफ जमाते हैं लेकिन बिला पास हुआ क्योंकि यह आज के दौर की ऐतिहासिक आवश्यकता है . हम पूरी कोशिश करेगें कि बिल इस मानसून त्र में ही हर हाल में पास कर लिया जाए.. .
अनहद की संयोजक शबनम हाशमी ने कहा कि समाज के पुरातन पंथी लोग धर्म का इस्तेमाल करके बिल को रोकना चाहते हैं उन्होंने मांग की कि यू पी ए के नेताओं को चाहिए कि सामंती सोच के लोगों के मशविरे को दरकिनार करके महिला आरक्षण बिल्ल्के समर्थन में सामने आयें और सामाजिक बराबरी की दिशा में यह महान क़दम उठायें
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घुघूती बासूती जिंदाबाद ,मेरी बेटी जिंदाबाद
यह पोस्ट मैंने घुघूती घोघूती बासूती के ब्लॉग से उठाया है . लगता है कि मेरी ही बेटियों का ज़िक्र है . आप दोनों को ज़िंदगी का हर दिन मुबारक
शेष नारायण सिंह
सोमवार, जुलाई 26, 2010
जब तुम होगे साठ साल के............. घुघूती बासूती
७० के दशक का एक गीत होता था... 'जब हम होंगे साठ साल के और तुम होगी पचपन की!' उस ही गीत की कुछ आगे की पंक्तियाँ थीं.. 'जब तुम होगे साठ साल के और मैं होंगी पचपन की।' कल का सारा दिन यह गीत गुनगुनाते बीता। कल मैं पचपन की हो गई। घुघूत तो कुछ महीने पहले ही साठ के हो चुके हैं। ३७ साल पहले मैंने अपना अठारहवाँ जन्मदिन उनके साथ मनाया था। कल पचपनवाँ मनाया। इस बीच ३७ जन्मदिन बहुधा साथ तो कभी कभार अकेले मनाए। बचपन से तो नहीं, हाँ, मेरी किशोरावस्था से हमारा साथ है।
कल का दिन बहुत बढ़िया था। मौसम तो गजब का था ही। परसों रात बारह बजे से ही बेटियाँ जन्मदिन की शुभकामनाएँ दे रहीं थीं। कल दिन भर बीच बीच में उनसे बात होती रही। बड़ी बिटिया कुछ दिन के लिए विदेश में है फिर भी बहुत लम्बी नहीं तो भी बातें तो हुईं ही। छोटी बेटी और मैं तो बार बार बातें कर ही रहे थे। जँवाइयों ने भी बात की।
कल कितने ही मित्रों व सहेलियों ने याद किया। भान्जी व भतीजी ने फोन किया। भाई भाभी ने याद किया। माँ से बात करवाई। माँ को अब याद नहीं रहता। भाई को उन्हें बताना पड़ा कि जन्मदिन है। मैं भी तो अभी से भूलने लगी हूँ। क्या कभी मैं भी अपनी जन्मी बेटियों का जन्मदिन भूल जाऊँगी?
बेटियों ने सरप्राइज की योजना बनाई थी। जब मेरे हाथ में तरह तरह के ऑर्किड्स के दो गुलदस्ते आए तो लगा जैसे दोनों बेटियाँ ही मेरे गले लग रही होएँ। छोटी बिटिया ने कहा कि उसे पता है कि मुझे ऑर्किड्स कितने पसन्द हैं। साथ में मेरी पसन्द का डार्क चॉकलेट केक व मेवों का डब्बा था।
मैं गुलदस्तों से दूर नहीं हो पाती हूँ। तरह तरह से उनके फोटो लेती हूँ। यह काम मेरे लिए बहुत कठिन है क्योंकि हाथ हिल जाता है। अभी जब कम्प्यूटर वाले कमरे में हूँ तो इन्हें भी अपने साथ ले आई हूँ।
लगता है कि वे दोनों मेरे आस पास हैं। याद आता है अपना पैंतिसवाँ जन्मदिन, जब निश्चय किया कि कुछ नहीं बनाऊँगी। बेटियों ने कहा कि नहीं, वे केक बनाएँगी। नन्हें हाथों ने मुझसे पूछ पूछकर बहुत बड़ा सा केक बनाया। परन्तु शाम को जब पूरी की पूरी मित्र मंडली परिवार सहित अपने उस वनवास वाली बस्ती में जहाँ झट से कुछ भी खरीदा नहीं जा सकता था, जन्मदिन की बधाई देने पहुँची तो केक खिलाते हुए मन बेटियों की सूझबूझ, समझदारी व जिद के आगे नतमस्तक हो गया।
सोचती हूँ कि बिटिया को मेरी पसन्द का कितना ध्यान रहता है। कब बेटी 'दी' हो जाती है, कब माँ! सहेली व सलाहकार तो वह सदा ही होती है।
दोनों गुलदस्ते बहुत सुन्दर हैं। एक में तीन तरह के ऑर्किड्स हैं व एक में एक ही किस्म के। तीन तरह वाले में एक प्रकार का तो लाल रंग का एन्थुरियम है। तीन बत्तख की चोंच जैसे हैं, हाँ उनके कलगी और लगी हुई है।
मन विह्वल हो रहा है। कभी 'दी' यूँ ही मेरी पसन्द का ध्यान रखती थी। ३७ साल पहले वाले अठारहवें जन्मदिन पर भी तो उसने अपनी रिसर्च के लिए किए लखनऊ प्रवास से मेरे लिए लाई साड़ी पर फॉल लगाया था, ब्लाउज, पेटीकोट सिला था ! उसे भी सदा मेरे लिए चॉकलेट व मेवों की याद रहती थी। 'दी' होती तो वह भी तो एक सप्ताह पहले ही साठ की हुई होती। २५ साल बीत गए हैं 'दी' किन्तु हर सुख व दुख में तुम साथ रहती हो। साथ तो ४२ साल पहले साथ छोड़ने वाली 'बड़ी दी' भी रहती हैं। परन्तु मेरी प्रेम कथा में 'दी' तुम भी तो किस तरह से गुँथी हुई हो!
ये तीनों बत्तख जैसे(हैलिकोनिया का कोई प्रकार? नहीं, नहीं, ये तो बर्ड्स औफ़ पैरेडाइज़ हैं! परन्तु हैं शायद हैलिकोनिया परिवार के ही! ) ऑर्किड्स जो हैं न वे हम तीनों हैं। जो पहले मुरझा जाएगा वह 'बड़ी दी' जो उसके बाद वह 'दी' तुम और जो सबसे अन्त में वह मैं!
प्रेम के कितने ही तो रूप हैं। सब सुन्दर हैं। प्रेमियों का प्रणय, पति पत्नी का उससे भी कुछ आगे निकला हुआ प्रेम जिसमें प्रणय भी है, मित्रों का स्नेह भी, माँ की ममता भी, वात्सल्य भी, करुणा भी है, पिता का वरद हस्त भी। माता पिता का अपने बच्चों के लिए प्रेम, वात्सल्य, ममता तो हर माता पिता जानता है। बच्चा जन्मा नहीं कि औसीटॉसिन इस भावना की बाढ़ भी अपने साथ ले आता है। माता पिता के लिए प्रेम किन्हीं हॉर्मोन्स के कारण नहीं अपने बचपन की मधुर यादों के कारण होता है। बहनों का स्नेह तो बेजोड़ होता ही है, एकदम अलग, अद्वितीय। भाई बहन का एक अलग किस्म का अदृष्य पतली डोरियों से खींचता स्नेह। भाभी में बहन ढूँढता स्नेह। सहेलियों का स्नेह तो कोई सहेली ही समझ सकती हैं। मित्र से अपनत्व की बँधी वह डोर जिसका कौनसा सिरा कब किसके हाथ में होता हैं समझ ही नहीं आता। डोर है यह भी तभी महसूस होता है जब जरा सा दूर जाएँ और डोर खिंचने लगती है। वह ऑल्टर ईगो वाला आभास!
यह प्रेम है तो जीवन है, जन्म है, ऐसी मृत्यु है जिसे कोई बार बार फिर से जीता है। अन्यथा क्या जिए और क्या मरे? यह न हो तो क्या है? (यह सब तब हैं जब प्रेम के बीच कोई लालच, स्वार्थ ना आ जाएँ।)
ऐसे में जब भी प्रेमी शब्द सुन कोई अभागा भड़क उठता है तो सोचती हूँ कि उन्होंने प्रेम का ऐसा कौन सा विभत्स रूप देख लिया होगा कि किसी के भी ब्लॉग में प्रेम विवाह, प्रेमी शब्द सुन उन जैसा प्रायः नरम दिल मनुष्य यूँ क्यों भड़कता है कि हर प्रेमी के गाल पर उनके थप्पड़ का अहसास ही नहीं होता अपितु लगता है कि प्रेम शब्द ही गाली हो। हृदय में कुछ चटख जाता है। एक बार विषाक्त भोजन खाने पर हम भोजन करना नहीं छोड़ देते, हाथ जलने पर पका खाना नहीं खाना छोड़ देते तो प्रेम जैसे भाव को उससे लुटने पिटने पर भी क्या यूँ ही छोड़ा जा सकता है? यदि हमने किसी हत्यारे प्रेमी को भी देखा हो तो प्रेम करना क्यों छोड़ेंगे या प्रेमियों से घृणा क्यों करेंगे? क्या किसी हत्यारे डॉक्टर, वकील, चित्रकार, ड्राइवर, अध्यापक को देखने के बाद इलाज, वकालत, कार, अध्ययन से तौबा कर लेते हैं? फिर प्रेम से ऐसी घृणा क्यों?
यह सब तो पचपन वर्ष का सार है। जीवन के अन्तिम जन्मदिन पर क्या सोच रही होऊँगी पता नहीं। बस, प्रेम से घृणा न कर रही होऊँ तो भी धन्य हो जाऊँगी। अभी तो प्रेम, तुझे सलाम।
घुघूती बासूती
शेष नारायण सिंह
सोमवार, जुलाई 26, 2010
जब तुम होगे साठ साल के............. घुघूती बासूती
७० के दशक का एक गीत होता था... 'जब हम होंगे साठ साल के और तुम होगी पचपन की!' उस ही गीत की कुछ आगे की पंक्तियाँ थीं.. 'जब तुम होगे साठ साल के और मैं होंगी पचपन की।' कल का सारा दिन यह गीत गुनगुनाते बीता। कल मैं पचपन की हो गई। घुघूत तो कुछ महीने पहले ही साठ के हो चुके हैं। ३७ साल पहले मैंने अपना अठारहवाँ जन्मदिन उनके साथ मनाया था। कल पचपनवाँ मनाया। इस बीच ३७ जन्मदिन बहुधा साथ तो कभी कभार अकेले मनाए। बचपन से तो नहीं, हाँ, मेरी किशोरावस्था से हमारा साथ है।
कल का दिन बहुत बढ़िया था। मौसम तो गजब का था ही। परसों रात बारह बजे से ही बेटियाँ जन्मदिन की शुभकामनाएँ दे रहीं थीं। कल दिन भर बीच बीच में उनसे बात होती रही। बड़ी बिटिया कुछ दिन के लिए विदेश में है फिर भी बहुत लम्बी नहीं तो भी बातें तो हुईं ही। छोटी बेटी और मैं तो बार बार बातें कर ही रहे थे। जँवाइयों ने भी बात की।
कल कितने ही मित्रों व सहेलियों ने याद किया। भान्जी व भतीजी ने फोन किया। भाई भाभी ने याद किया। माँ से बात करवाई। माँ को अब याद नहीं रहता। भाई को उन्हें बताना पड़ा कि जन्मदिन है। मैं भी तो अभी से भूलने लगी हूँ। क्या कभी मैं भी अपनी जन्मी बेटियों का जन्मदिन भूल जाऊँगी?
बेटियों ने सरप्राइज की योजना बनाई थी। जब मेरे हाथ में तरह तरह के ऑर्किड्स के दो गुलदस्ते आए तो लगा जैसे दोनों बेटियाँ ही मेरे गले लग रही होएँ। छोटी बिटिया ने कहा कि उसे पता है कि मुझे ऑर्किड्स कितने पसन्द हैं। साथ में मेरी पसन्द का डार्क चॉकलेट केक व मेवों का डब्बा था।
मैं गुलदस्तों से दूर नहीं हो पाती हूँ। तरह तरह से उनके फोटो लेती हूँ। यह काम मेरे लिए बहुत कठिन है क्योंकि हाथ हिल जाता है। अभी जब कम्प्यूटर वाले कमरे में हूँ तो इन्हें भी अपने साथ ले आई हूँ।
लगता है कि वे दोनों मेरे आस पास हैं। याद आता है अपना पैंतिसवाँ जन्मदिन, जब निश्चय किया कि कुछ नहीं बनाऊँगी। बेटियों ने कहा कि नहीं, वे केक बनाएँगी। नन्हें हाथों ने मुझसे पूछ पूछकर बहुत बड़ा सा केक बनाया। परन्तु शाम को जब पूरी की पूरी मित्र मंडली परिवार सहित अपने उस वनवास वाली बस्ती में जहाँ झट से कुछ भी खरीदा नहीं जा सकता था, जन्मदिन की बधाई देने पहुँची तो केक खिलाते हुए मन बेटियों की सूझबूझ, समझदारी व जिद के आगे नतमस्तक हो गया।
सोचती हूँ कि बिटिया को मेरी पसन्द का कितना ध्यान रहता है। कब बेटी 'दी' हो जाती है, कब माँ! सहेली व सलाहकार तो वह सदा ही होती है।
दोनों गुलदस्ते बहुत सुन्दर हैं। एक में तीन तरह के ऑर्किड्स हैं व एक में एक ही किस्म के। तीन तरह वाले में एक प्रकार का तो लाल रंग का एन्थुरियम है। तीन बत्तख की चोंच जैसे हैं, हाँ उनके कलगी और लगी हुई है।
मन विह्वल हो रहा है। कभी 'दी' यूँ ही मेरी पसन्द का ध्यान रखती थी। ३७ साल पहले वाले अठारहवें जन्मदिन पर भी तो उसने अपनी रिसर्च के लिए किए लखनऊ प्रवास से मेरे लिए लाई साड़ी पर फॉल लगाया था, ब्लाउज, पेटीकोट सिला था ! उसे भी सदा मेरे लिए चॉकलेट व मेवों की याद रहती थी। 'दी' होती तो वह भी तो एक सप्ताह पहले ही साठ की हुई होती। २५ साल बीत गए हैं 'दी' किन्तु हर सुख व दुख में तुम साथ रहती हो। साथ तो ४२ साल पहले साथ छोड़ने वाली 'बड़ी दी' भी रहती हैं। परन्तु मेरी प्रेम कथा में 'दी' तुम भी तो किस तरह से गुँथी हुई हो!
ये तीनों बत्तख जैसे(हैलिकोनिया का कोई प्रकार? नहीं, नहीं, ये तो बर्ड्स औफ़ पैरेडाइज़ हैं! परन्तु हैं शायद हैलिकोनिया परिवार के ही! ) ऑर्किड्स जो हैं न वे हम तीनों हैं। जो पहले मुरझा जाएगा वह 'बड़ी दी' जो उसके बाद वह 'दी' तुम और जो सबसे अन्त में वह मैं!
प्रेम के कितने ही तो रूप हैं। सब सुन्दर हैं। प्रेमियों का प्रणय, पति पत्नी का उससे भी कुछ आगे निकला हुआ प्रेम जिसमें प्रणय भी है, मित्रों का स्नेह भी, माँ की ममता भी, वात्सल्य भी, करुणा भी है, पिता का वरद हस्त भी। माता पिता का अपने बच्चों के लिए प्रेम, वात्सल्य, ममता तो हर माता पिता जानता है। बच्चा जन्मा नहीं कि औसीटॉसिन इस भावना की बाढ़ भी अपने साथ ले आता है। माता पिता के लिए प्रेम किन्हीं हॉर्मोन्स के कारण नहीं अपने बचपन की मधुर यादों के कारण होता है। बहनों का स्नेह तो बेजोड़ होता ही है, एकदम अलग, अद्वितीय। भाई बहन का एक अलग किस्म का अदृष्य पतली डोरियों से खींचता स्नेह। भाभी में बहन ढूँढता स्नेह। सहेलियों का स्नेह तो कोई सहेली ही समझ सकती हैं। मित्र से अपनत्व की बँधी वह डोर जिसका कौनसा सिरा कब किसके हाथ में होता हैं समझ ही नहीं आता। डोर है यह भी तभी महसूस होता है जब जरा सा दूर जाएँ और डोर खिंचने लगती है। वह ऑल्टर ईगो वाला आभास!
यह प्रेम है तो जीवन है, जन्म है, ऐसी मृत्यु है जिसे कोई बार बार फिर से जीता है। अन्यथा क्या जिए और क्या मरे? यह न हो तो क्या है? (यह सब तब हैं जब प्रेम के बीच कोई लालच, स्वार्थ ना आ जाएँ।)
ऐसे में जब भी प्रेमी शब्द सुन कोई अभागा भड़क उठता है तो सोचती हूँ कि उन्होंने प्रेम का ऐसा कौन सा विभत्स रूप देख लिया होगा कि किसी के भी ब्लॉग में प्रेम विवाह, प्रेमी शब्द सुन उन जैसा प्रायः नरम दिल मनुष्य यूँ क्यों भड़कता है कि हर प्रेमी के गाल पर उनके थप्पड़ का अहसास ही नहीं होता अपितु लगता है कि प्रेम शब्द ही गाली हो। हृदय में कुछ चटख जाता है। एक बार विषाक्त भोजन खाने पर हम भोजन करना नहीं छोड़ देते, हाथ जलने पर पका खाना नहीं खाना छोड़ देते तो प्रेम जैसे भाव को उससे लुटने पिटने पर भी क्या यूँ ही छोड़ा जा सकता है? यदि हमने किसी हत्यारे प्रेमी को भी देखा हो तो प्रेम करना क्यों छोड़ेंगे या प्रेमियों से घृणा क्यों करेंगे? क्या किसी हत्यारे डॉक्टर, वकील, चित्रकार, ड्राइवर, अध्यापक को देखने के बाद इलाज, वकालत, कार, अध्ययन से तौबा कर लेते हैं? फिर प्रेम से ऐसी घृणा क्यों?
यह सब तो पचपन वर्ष का सार है। जीवन के अन्तिम जन्मदिन पर क्या सोच रही होऊँगी पता नहीं। बस, प्रेम से घृणा न कर रही होऊँ तो भी धन्य हो जाऊँगी। अभी तो प्रेम, तुझे सलाम।
घुघूती बासूती
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