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Monday, December 20, 2010

कांग्रेस ने बीजेपी को भ्रष्ट और साम्प्रदायिक साबित करने का मंसूबा बनाया

शेष नारायण सिंह

भारतीय राजनीति बहुत बड़े पैमाने पर करवट लेने वाली है. कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में सोनिया गाँधी ने जिस तरह से भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता पर हमला बोला है वह अगले कुछ दिनों में राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल देगा. भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका पांच सूत्रीय कार्यक्रम कांग्रेसियों को ईमानदार तो नहीं बना देगा लेकिन आलोचना का डर ज़रूर पैदा कर देगा. सोनिया गाँधी के भ्रष्टाचार विरोधी भाषण के केंद्र में बीजेपी की कर्नाटक इकाई है . बीजेपी के बड़े नेताओं को मालूम है कि अगर वे भ्रष्टाचार के आरोपों में बुरी तरह से घिरे हुए बी एस येदुरप्पा को पैदल करेगें तो उनकी कर्नाटक इकाई भंग हो जायेगी क्योंकि येदुरप्पा बगावत कर देगें और अपनी नयी पार्टी बना लेगें . पिछली बार जब दिल्ली वालों ने उन्हें हटाने की कोशिश की थी तो यदुरप्पा ने साफ़ बता दिया था कि वे बीजेपी को ख़त्म कर देगें. बीजेपी के एक बहुत बड़े नेता ने उन दिनों बयान दिया था कि कर्नाटक में कथित रूप से भ्रष्ट येदुरप्पा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी क्योंकि उसके बाद उनकी पार्टी की औकात वहां शून्य हो जायेगी. यह बात बाकी लोगों के साथ साथ सोनिया गाँधी को भी मालूम है . इसीलिये उनका भ्रष्टाचार वाला भाषण पूरी तरह से कर्नाटक केन्द्रित था. अगर कर्नाटक में बीजेपी ख़त्म होती है तो उसका सीधा फायदा वहां कांग्रेस को होगा . वैसे भी सोनिया गाँधी का भ्रष्टाचार के खिलाफ रुख हमेशा डायरेक्ट रहता है . उन्हें मालूम है कि वे खुद ,मनमोहन सिंह और राहुल गाँधी को किसी भी भ्रष्टाचार के मामले में कोई नहीं पकड़ सकता .बाकी कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसको हटा देने से कांग्रेस का कुछ बिगड़ने वाला है . इसलिए जिसके खिलाफ भी भ्रष्टाचार की चर्चा हो रही है उसको वे बाहर कर दे रही हैं . यह सुख बीजेपी वालों के पास नहीं है . उनके कई ऐसे नेता भ्रष्टाचार के जाल में हैं जिनको अगर निकाल दिया जाय तो पार्टी ही ख़त्म हो जायेगी. बड़ी मुश्किल से बीजेपी के हाथ २जी स्पेक्ट्रम वाला मामला आया था लेकिन हालात ऐसे बने कि अब उसकी जांच २००१ से शुरू हो रही है . इसका भावार्थ यह हुआ कि अगले दो वर्षों तक बीजेपी के राज में संचार मंत्री रहे पार्टी के नेताओं अरुण शोरी और स्व प्रमोद महाजन के कार्यकाल के भ्रष्टाचार मीडिया को लीक किये जायेगें और बीजेपी के प्रवक्ता लोग कोई जवाब नहीं दे पायेगें. तब तक तो बीजेपी को कांग्रेस और मीडिया में उसके साथी महाभ्रष्ट के रूप में पेश कर चुके होंगें. लुब्बो लुबाब यह है कि राजनीति के मैदान में सोनिया गाँधी का बुराड़ी भाषण जो धमक पैदा करने जा रहा है, उसका असर दूर तलक महसूस किया जाएगा.

लेकिन बुराड़ी का असल सन्देश यह नहीं है . भ्रष्टाचार के खेल में बीजे पी ने कांग्रेस को घेरने की रणनीति के सहारे विपक्षी एकता को पुख्ता करने की कोशिश की थी, बुराड़ी लाइन ने उसे तहस नहस कर दिया है . अब अगर बीजेपी येदुरप्पा को नहीं हटाती तो शरद यादव जैसे वफादार के लिए भी बीजेपी के साथ खड़े रह पाना बहुत मुश्किल होगा . इस भाषण ने भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बना सकने की बीजेपी की ताक़त को ख़त्म कर दिया है क्योंकि जिस तरह से राजनीतिक शतरंज की गोटें बिछ रही हैं ,उसके बाद बीजेपी को दुनिया कांग्रेस से ज्यादा भ्रष्ट मानना शुरू कर देगी.बुराड़ी का असल सन्देश यह है कि सोनिया गाँधी ने साम्प्रदायिकता के मैदान में बीजेपी को चुनौती दी है . राहुल गाँधी के विकीलीक्स रहस्योद्घाटन के बाद जिस तरह से बीजेपी वाले टूट पड़े थे , उस खेल को बुराड़ी ने बिलकुल नाकाम कर दिया है . सोनिया गाँधी ने बिना नाम लिए आर एस एस की साम्प्रदायिकता और उस से जुड़े आतंकवाद को बेनकाब करने के अभियान की शुरुआत कर दी है . इस राजनीतिक सन्देश की बात दूर तलक जायेगी. जो बात सोनिया गाँधी ने नहीं कही उसे दिग्विजय सिंह ने पूरा कर दिया . उन्होंने साफ़ कह दिया कि आर एस एस की विचारधारा हिटलर वाली है . जैसे हिटलर ने यहूदियों को ख़त्म करने की राजनीति की थी ,ठीक उसी तरह आर एस एस भी मुसलमानों को ख़त्म करने की योजना पर काम कर रहा है . बुराड़ी का यह सन्देश बीजेपी के लिए भारी मुश्किल पैदा कर देगा . इसमें दो राय नहीं है कि आर एस एस की विचारधारा पूरी तरह से हिटलर की लाइन पर आधारित है . १९३७ में आर एस एस के दूसरे सर संघचालक , गोलवलकर ने एक किताब लिखकर हिटलर की तारीफ़ की थी .गोलवलकर की किताब ,वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड , में हिटलर और उसकी राजनीति को महान बताया गया है . बीजेपी और आर एस एस के मौजूदा नेता कहते हैं कि बीजेपी ने वह किताब वापस ले ली है लेकिन इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता . वैसे भी जिस हिंदुत्व की बात आर एस एस करता है ,वह हिन्दू धर्म नहीं है . हिंदुत्व वास्तव में सावरकर की राजनीतिक विचारधारा है जिसके आधार पर नागपुर में १९२५ में आर एस एस की स्थापना की गयी थी . यह विचारधारा इटली के चिन्तक माज़िनी की सोच पर आधारित है जिसके आधार पर इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने राजनीतिक अभियान चलाया था . उसी विचारधारा को संघी विचारधारा बताकर दिग्विजय सिंह ने बीजेपी और संघी राजनीति के अन्य समर्थकों को आइना दिखाया है . बुराड़ी में सोनिया गाँधी के भाषण का नतीजा यह होगा कि अब साम्प्रदायिकता के मसले पर दिग्विजय सिंह की लाइन को कांग्रेस की आफिशियल लाइन बना दिया गया जाएगा .

एक बात और ऐतिहासिक रूप से सत्य है . वह यह कि जब भी कांग्रेस आर एस एस के खिलाफ हमलावर होती है उसे राजनीतिक सफलता मिलती है . महात्मा गाँधी की हत्या और उसमें आर एस एस के नेताओं की गिरफ्तारी के बाद नेहरू-पटेल की कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया था .नतीजा यह हुआ कि १९६२ तक कांग्रेस की ताक़त मज़बूत बनी रही. नेहरू की मृत्यु के बाद साम्प्रदायिकता के खिलाफ अभियान कुछ ढीला पड़ गया था .नतीजा यह हुआ कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस १९६७ का चुनाव हार गयी थी . जब १९६९ में कांग्रेस के तो टुकड़े हुए तो दक्षिण पंथी और साम्प्रदायिक ताक़तों के खिलाफ इंदिरा गांधी ने ज़बरदस्त हमला बोला और १९७१ में भारी बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुईं . १९७४ में जब उनका बिगडैल बेटा संजय गाँधी राजनीति में आया तो उसने भी साफ्ट हिंदुत्व की लाइन शुरू कर दी और १९७७ में कांग्रेस बुरी तरह से हार गयी. इंदिरा गाँधी ने १९७७ से लेकर १९७९ तक साम्प्रद्यिकता के खिलाफ अभियान चलाया और १९८० में दुबारा सत्ता में आ गयीं . लगता है कि इस बार भी सोनिया गांधी को सही सलाह मिल रही है और वे आर एस एस -बीजेपी को राजनीतिक रूप से ख़त्म करने की रणनीति पर काम कर रही हैं . ज़ाहिर है आने वाला वक़्त राजनीतिक विश्लेषकों के लिए बहुत ही दिलचस्प होने वाला है

Friday, October 1, 2010

क्या कांग्रेस महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्ष राजनीति को संभाल पा रही है .

( गाँधी जयंती पर विशेष )
शेष नारायण सिंह

महात्मा गाँधी होते तो १४१ साल के हो गए होते . इस बार महात्मा गाँधी का जन्म दिन बाबरी मस्जिद की ज़मीन के मालिकाना हक के मुक़दमे के आस पास ही पड़ रहा है . बाबरी मस्जिद के मामले में संघी राजनीति के चलते जो उबाल आ गया था, वह तो शांत हो गया था लेकिन धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति करने की बी जे पी की योजना के तहत देश का बहुत नुकसान हुआ है . इस बार भी उनकी कोशिश थी कि फैसला कुछ भी वे झगडा झंझट का माहौल पैदा करेगें .लेकिन लगता है कि अब भारत का हिन्दू आर एस एस की राजनीति का मोहरा बनने को तैयार नहीं है . वह देश की एकता में ज्यादा रूचि रखता है . बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के दिन तो लगने लगा था कि संघी राजनीति सफल हो जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . आज भारत एक है और रहेगा भी . अब लगने लगा है कि आर एस एस के बूते की बात नहीं है कि वह देश को तोड़ सके. .ऐसा इसलिए है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था .आज महात्मा गांधी के जन्म दिन के मौके पर धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।

कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।

कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।

कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। लेकिन आज एक बार फिर आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है . कांग्रेस पार्टी और सरकार को धर्म निरपेक्षता की राजनीति को सबसे ऊपर रखने के लिए एकजुट होना पडेगा

Saturday, September 4, 2010

दिल्ली विश्वविद्यालय में कांग्रेस की हार उसके लिए खतरे की घंटी है

शेष नारायण सिंह


दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव आम तौर पर दिल्ली राज्य की नब्ज़ माने जाते हैं . पिछले ४३ साल से यही होता रहा है , जिस पार्टी के छात्र संगठन को छात्र संघ चुनाव में जीत मिलती है उसकी हवा अच्छी मानी जाती है और अगर उसी साल दिल्ली की विधान सभा, या नगर निगम के चुनाव हों तो नतीजों पर छात्र संघ नतीजों की छाप देखी जा सकती है . इस बार भी छात्र संघ के चुनावों में बी जे पी की छात्र शाखा,अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में प्रतिद्वंद्वी एनएसयूआई को झटका दिया है और छात्रसंघ के तीन पदों पर जीत रिकार्ड की है . इसका मतलब यह हुआ कि अगर अगले एकाध साल में दिल्ली विधान सभा या लोकसभा के चुनाव होते तो वहां भी कांग्रेस को झटका लग सकता था . लेकिन अभी यह चुनाव दूर हैं इसलिए कांग्रेसी नेता कुछ सुकून महसूस कर सकते हैं . लेकिन यह तय है कि बहुत ही अच्छे मतों से जीतकर आई शीला दीक्षित के लिए यह एक बेहतरीन मौक़ा है जब वे सोचें कि उनकी पार्टी की सरकार दिल्ली में थोक में गलतियाँ कर रही है .सबसे बड़ा घपला तो कामनवेल्थ खेलों की तैयारी में ही है . कामनवेल्थ खेलों में हर तरह का कांग्रेसी लूट मचाये हुए है . सुरेश कलमाडी की अपनी हेराफेरी की दुकान चल रही है, केंद्र के शहरी विकास मंत्रालय और सी पी डब्ल्यू डी के अधिकारी अलग लूट पाट में लगे हुए हैं .खेलों की तैयारी के काम का एक बड़ा हिस्सा दिल्ली सरकार और एन डी एम सी के पास है .शीला दीक्षित ने इन महक़मों का काम अपनी सरकार के उन चुनिन्दा घूसखोर अफसरों के हवाले कर दिया है जिनका नाम घूस की विधा में पूरे देश में जाना जाता है . इस तरह के राष्ट्रीय मह्त्व के जो भी काम होते हैं उनमें इमरजेंसी में काम कराने की व्यवस्था घूसजीवी अफसर अपने हिसाब से कर लेता है . होता यह है कि कुछ काम पूरा नहीं किया जाता और जब समय सीमा का दबाव पड़ता है तो अफसर मनमाने रेट पर पहले से सेट ठेकेदार को काम दे देता है और जो भी लूट होती है उसमें अफसर और ठेकेदार मिल बाँट कर खा लेते हैं . यह काम बार बार किया जा चुका है और यह आजमाया हुआ नुस्खा है . घूस के बड़े बड़े ज्ञाता इस काम को जानते हैं .इसका कोई मैनुअल तो तैयार नहीं किया गया है लेकिन ज़्यादातर सरकारी महक़मों के कर्मचारी इसको अच्छी तरह जानते हैं . जिन लोगों ने १९८२ के एशियाई खेलों की तैयारी का काम देखा है, उन्हें मालूम है कि इमरजेंसी खरीद के नाम पर किस तरह से अफसरों ने खेल किया था . तत्कालीन प्रधान मंत्री के पुत्र , राजीव गाँधी खुद सारे काम पर नज़र रखे हुए थे लेकिन दाल में नमक के बराबर घूस का काम हुआ और खेलों के पहले सब कुछ तैयार हो गया. आडिटोरियम में कुछ काम रह गया था तो अरुण नेहरू और राजीव गाँधी खुद खड़े रहकर काम करवाते रहे और समय से काम पूरा हो गया. उस बार भी लगभग हर प्रोजेक्ट में इमरजेंसी खरीद हुई थी लेकिन वह कुल काम का एक मामूली हिस्सा थी . इस बार खेल दूसरा था . हर प्रोजेक्ट का बड़ा हिस्सा अभी पेंडिंग पड़ा है और अफसरों और नेताओं की भ्रष्टाचार टीम को उम्मीद थी कि इमरजेंसी खरीद के सहारे खूब माल काटा जायेगा . लेकिन सब काम गड़बड़ हो गया. कामनवेल्थ खेलों के उदघाटन में अब कुछ दिन रह गए हैं ,जबकि खेलों से सम्बंधित किसी भी काम को पूरा नहीं किया जा सका है . और हर केस में कारण भ्रष्टाचार ही है . दूसरी बात यह है कि खेलों की तैयारी के लिए काम शुरू करने के पहले इतने फालतू के काम ले लिए गए जिसको पूरा कर पाना अब असंभव लगता है . ज़ाहिर है कि गलत अफसरों और सलाहकारों की वजह से कांग्रेस और उसकी सरकार मुसीबत में है . मीडिया भी अपनी भूमिका सही तरीके से निभा रहा है . जहां गलती हुई है उसे पब्लिक डोमेन में ईमानदारी से डाला जा रहा है . जिसकी वजह से दिल्ली और केंद्र की कांग्रेस की सरकारों की छवि बहुत ही खराब हो गयी है . इस बात की पूरी संभावना है कि कामनवेल्थ खेलों में सरकार की असफलता का नतीजा ही है जिसकी वजह से कांग्रेसी दिल्ली विश्वविद्यालय में कहीं के नहीं रहे. यह एक खतरे की घंटी है जिसे सोनिया गाँधी और शीला दीक्षित को गंभीरता से लेना होगा वरना एक बार फिर कांग्रेस विपक्ष में होगी और ऐसे लोग राज कर रहे होंगें जिन्होंने देश को तोड़ने की बार बार कोशिश की है .

Thursday, November 12, 2009

भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ जनता का लामबंद होना ज़रूरी

शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में सत्ता का संघर्ष चल रहा है. हो सकता है कि आज सब कुछ ठीक ठाक हो जाए.मुख्य मंत्री बने रहें और उनके विरोधी भी खुश हो जाएँ. एक सत्ता का संघर्ष पिछले १५ दिनों से महाराष्ट्र में चल रहा था , वहां भी सब कुछ निपट गया . अब सब शान्ति शान्ति है. हरियाणा में भी सत्ताधारी पार्टी के खातेमें बहुमत से कुछ कम सीटें आ गयी थीं तो वहां भी सत्ता में कुछ चिंता के बादल घिर आये थे ,वहां भी सब कुछ संभाल लिया गया. सभी निर्दलियों को मंत्री बना दिया गया. सब अमन चैन है. उत्तर परदेश में सत्ता की शीर्ष पर बैठी दलित अस्मिता की पहचान बन चुकी नेता भी कुछ कष्ट में चल रही हैं . उनके दुश्मनों ने कहीं से ढूंढ निकाला है कि उनके पास जो धन दौलत है , वह उनके घोषित आमदनी के साधनों से बहुत ज्यादा है.. झारखण्ड के एक पूर्व मुख्यमंत्री आजकल बीमार हैं जहां से वे सीधे जेल जायेंगें क्योंकि सत्ता में बिताये गए कीब २ वर्षों में उन्होंने इतनी दौलत इकठ्ठा कर ली कि उनके दुश्मनों को गुस्सा आ गया और उनकी सारी पोल खुल गयी. उनके साथ उनके गिरोह के कुछ और लोग भी पकडे जा सकते हैं . झारखण्ड वाले बाबूजी का खेल तो कुछ इतना दिलचस्प है कि उनकी संपत्ति की हनक पूरी दुनिया में महसूस की जा रही है. अबू धाबी के एम के माल से लाकर लाइबेरिया और थाईलैंड तक उनके रूपयों की खनक महसूस की जा रही है . लेकिन उनकी दौलत की कृपा से मुंबई में भी एक घर में उदासी छा गयी है. झारखण्ड के एक मधु कोडा मार्गी मंत्री के मुंबई वाले रिश्तेदार मंत्री बनते बनते रह गए क्योंकि दुश्मनों ने जनपथ में विराजमान सत्ता की अधिष्ठात्री को बता दिया था कि झारखण्ड से निकला रूपया मुंबई में भी काम कर रहा है. पश्चिम बंगाल में भी सत्ता का एक खतरनाक खेल खेला जा रहा है . वहां तो पिछले ३३ साल से गद्दी पर विराजमान वामपंथियों को खदेड़ने के लिए आतंकवादियों तक की मदद ली जा रही है ..

मुराद यह है सत्ता के खेल में हर जगह उठा पटक मची है . यहाँ गौर करने की बात यह है कि इस खेल में हर पार्टी के बन्दे शामिल हैं और सत्ता हासिल करने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं. सत्ता के प्रति इस दीवानगी की उम्मीद संविधान निर्माताओं को नहीं थी वरना शायद इसका भी कुछ इंतज़ाम कर दिया गया होता. आज़ादी के बाद जब सरदार पटेल अपने गाव गए ,तो कुछ महीनों तक वहीं रह कर आराम करना चाहते थे लेकिन नहीं रह सके क्योंकि जवाहरलाल नेहरु को मालूम था कि देश की एकता का काम सरदार के बिना पूरा नहीं हो सकता. इस तरह के बहुत सारे नेता थे जो सत्ता के निकट भी नहीं जाना चाहते थे. १९५२ के चुनाव में ऐसे बहुत सारे मामले हैं जहां कांग्रेस ने लोगों को टिकट दे दिया और वे लोग भाग खड़े हुए , कहीं रिश्तेदारी में जा कर छुप गए और टिकट किसी और को देना पड़ा लेकिन वह सब अब सपना है . अब वैसा नहीं होता . ६० के दशक तक चुनाव लड़ने के लिए टिकट मांगना अपमान समझा जाता था . पार्टी जिसको ठीक समझती थी , टिकट दे देती थी . ७० के दशक में उस वक़्त की प्रतिष्ठित पत्रिका दिनमान ने जब टिकट याचकों को टिकटार्थी नाम दिया तो बहुत सारे लोग इस संबोधन से अपमानित महसूस करते थे. लेकिन ८० के दशक तक तो टिकटार्थी सर्व स्वीकार्य विशेषण हो गया. लोग खुले आम टिकट माँगने लगे, जुगाड़बाजी का तंत्र शुरू हो गया. इन हालात को जनतंत्र के लिए बहुत ही खराब माना जाता था लेकिन अब हालात बहुत बिगड़ गए हैं . जुगाड़ करके टिकट माँगने वालों की तुलना आज के टिकट याचकों से की जाए तो लगेगा कि वे लोग तो महात्मा थे क्योंकि आजकल टिकट की कीमत लाखों रूपये होती है. दिल्ली के कई पडोसी राज्यों में तो एक पार्टी ने नियम ही बना रखा है कि करीब १० लाख जमा करने के बाद कोई भी व्यक्ति टिकट के लिए पार्टी के नेताओं के पास हाज़िर हो सकता है . उसके बाद इंटरव्यू होता है जिसके बाद टिकट दिया जाता है यानी टिकट की नीलामी होती है. ज़ाहिर है इन तरीकों से टिकट ले कर विधायक बने लोग लूट पाट करते हैं और अपना खर्च निकालते हैं . इसी खर्च निकालने के लिए सत्ता के इस संघर्ष में सभी पार्टियों के नेता तरह तरह के रूप में शामिल होते हैं .सरकारी पैसे को लूट कर अपने तिजोरियां भरते हैं और जनता मुंह ताकती रहती है . अजीब बात यह है कि दिल्ली में बैठे बड़े नेताओं को इन लोगों की चोरी बे-ईमानी की ख़बरों का पता नहीं लगता जबकि सारी दुनिया को मालूम रहता है.

इसी लूट की वजह से सत्ता का संघर्ष चलता रहता है .सत्ता के केंद्र में बैठा व्यक्ति हजारों करोड़ रूपये सरकारी खजाने से निकाल कर अपने कब्जे में करता रहता है. और जब बाकी मंत्रियों को वह ईमानदारी का पाठ पढाने लगता है तो लोग नाराज़ हो जाते हैं और मुख्यमंत्री को हटाने की बात करने लगते हैं . कर्णाटक की लड़ाई की यही तर्ज है.. झारखण्ड की कहानी में एक अनुभवहीन नेता का चरित्र उभर कर सामने आता है जिसने चोरी की कला में महारत नहीं हासिल की थी . जबकि महाराष्ट्र और हरियाणा में सत्ता के संघर्ष में सरकारी पैसा झटकने के गुणी लोगों की बारीक चालों का जो बांकपन देखने को मिला वह झारखण्ड जैसे राज्यों में बहुत समय बाद देखा जाएगा.
सवाल पैदा होता है कि यह नेता लोग जनता के पैसे को जब इतने खुले आम लूट रहे होते हैं तो क्या सोनिया गाँधी, लाल कृष्ण आडवाणी. प्रकाश करात, लालू यादव , मुलायम सिंह यादव , मायावती , करूणानिधि , चन्द्रबाबू नायडू , फारूक अब्दुल्ला जैसे नेताओं को पता नहीं लगता कि वे अपनी अपनी पार्टी के चोरों को समझा दें कि जनता का पैसा लूटने वालों को पार्टी से निकाल दिया जाएगा. लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि इन सारे नेताओं को सब कुछ पता रहता है और यह लोग भ्रष्ट लोगों को सज़ा देने की बात तो खैर सोचते ही नहीं, उनको बचाने की पूरी कोशिश करते हैं . हाँ अगर बात खुल गयी और पब्लिक ओपीनियन के खराब होने का डर लगा तो उसे पद से हटा देते हैं . सजा देने की तो यह लोग सोचते ही नहीं, अपने लोगों को बचाने की ही कोशिश में जुट जाते हैं . यह अपने देश के लिए बहुत ही अशुभ संकेत हैं . जब राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भ्रष्टाचार को उत्साहित करने लगें तो देश के लिए बहुत ही बुरी बात है. लेकिन अगर भारत को एक रहना है तो इस प्रथा को ख़त्म करना होगा . हम जानते हैं कि यह बड़े नेता अपने लोगों को तभी हटाते हैं जब कि पब्लिक ओपीनियन इनके खिलाफ हो जाए. यानी अभी आशा की एक किरण बची हुई है और वह है बड़े नेताओं के बीच पब्लिक ओपीनियन का डर . इसलिए सभ्य समाज और देशप्रेमी लोगों की जमात का फ़र्ज़ है कि वह पब्लिक ओपीनियन को सच्चाई के साथ खड़े होने की तमीज सिखाएं और उसकी प्रेरणा दें. लेकिन पब्लिक ओपीनियन तो तब बनेगे जब राजनीति और राजनेताओं के आचरण के बारे में देश की जनता को जानकारी मिले. जानकारी के चलते ही १९२० के बाद महात्मा गाँधी ने ताक़तवर ब्रितानी साम्राज्यवाद को चुनौती दी और अंग्रेजों का बोरिया बिस्तर बंध गया. . एक कम्युनिकेटर के रूप में महात्मा गाँधी की यह बहुत बड़ी सफलता थी . आज कोई गाँधी नहीं है लेकिन देश के गली कूचों तक इन सत्ताधारी बे-ईमानों के कारनामों को पहुचाना ज़रूरी है . क्योंकि अगर हर आदमी चौकन्ना न हुआ तो देश और जनता का सारा पैसा यह नेता लूट ले जायेंगें .

इस माहौल में यह बहुत ज़रूरी है कि जनता तक सबकी खबर पहुचाने का काम मीडिया के लोग करें. यह वास्तव में मीडिया के लिए एक अवसर है कि वह अपने कर्त्तव्य का पालन करके देश को इन भ्रष्ट और बे-ईमान नेताओं के चंगुल से बचाए रखने में मदद करें. अब कोई महात्मा गाँधी तो पैदा होंगें नहीं, उनका जो सबसे बड़ा हथियार कम्युनिकेशन का था , उसी को इस्तेमाल करके देश में जवाबदेह लोकशाही की स्थापना की जा सकती है . गाँधी युग में भी कहा गया था कि जब 'तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो '. अखबार निकाले गए और ब्रितानी साम्राज्य की तोपें हमेशा के लिए शांत कर दी गयी. इस लिए मीडिया पर लाजिम है कि वह जन जागरण का काम पूरी शिद्दत से शुरू कर दे और जनता अपनी सत्ता को लूट रहे इन भ्रष्ट नेताओं-अफसरों से अपना देश बचाने के लिए आगे आये.

Wednesday, September 23, 2009

क्या कांग्रेस वास्तव में धर्मनिरपेक्ष है?

जसवंत सिंह की किताब ऐसा कोई ऐतिहासिक दस्तावेज तो नहीं है, लेकिन जिन्ना की तारीफ जिस अंदाज से की गई है उसके बाद भारत और पाकिस्तान में उस किताब के हवाले से एक दिलचस्प बहस शुरू हो गई है। इसके पहले जसवंत सिंह की पुरानी पार्टी के नेता, लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना के 11 अगस्त 1947 को कराची में दिए गए भाषण में धर्मनिरपेक्षता के विचार की तारीफ की थी और पार्टी में खलबली मच गई थी।

जसवंत सिंह ने नेहरू और पटेल की तुलना में जिन्ना के ज्यादा जिम्मेदार होने का संकेत देकर माहौल को बहुत गर्मा दिया था। इस बीच गुजरात पुलिस के कुछ बड़े अधिकारियों द्वारा मुंबई की एक लड़की इशरत जहां को फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की बात भी बहस के दायरे में आ गई। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर उंगली उठने लगी। उनके शुभचिंतक कहने लगे कि मोदी फिर एक बार अनावश्यक विवाद के घेरे में फंस गए और उनके विरोधी कहने लगे कि इशरत जहां कि हत्या नरेंद्र मोदी के सांप्रदायिक एजेंडे को पूरा करने की बड़ी योजना का एक मामूली टुकड़ा है।

बहस एक बार सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के विषय पर पहुंच गई और मोदी के समर्थकों ने उनके हर विरोधी को छदम धर्मनिरपेक्ष और उनके विरोधियों ने उन्हें फासिस्ट और सांप्रदायिक कहना शुरू कर दिया। इस पूरी बहस में कांग्रेस पार्टी के नेता आमतौर पर तमाशबीन बनकर आनंद ले रहे हैं और आमतौर पर धर्मनिरपेक्षता के अलम्बरदार के रूप में अपने आपको पेश कर रहे हैं। इस तरह सरदार पटेल, नेहरू, जिन्ना, आडवाणी, जसवंत सिंह, कांग्रेस पार्टी और नरेंद्र मोदी के हवाले से बहस एक बार धर्मनिरपेक्षता के इतिहास और राजनीति पर केंद्रित हो गई है।

ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। संविधान की शुरूआत ही इसी बात से होती है कि भारत के लोगों ने एक सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक गणतंत्र के रूप में अपने आपको गठित कर लिया है।

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। यह अलग बात है कि किसी की कमीज दूसरे व्यक्ति की कमीज से ज्यादा उजली हो सकती है। इसकी बहस में आमतौर पर कांग्रेस को बहुत ही धर्मनिरपेक्ष माना जाता है। ऐसा लगता है कि यह मान लेना साधारणीकरण होगा। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।

60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गंाधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।
लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।

कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।

सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।

मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।


कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।

कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।

बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।

राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। यहां एक लोच है।

धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था।

Thursday, September 17, 2009

कांग्रेस की शिकस्त और बड़प्पन के मुग़ालते

लोकसभा चुनाव 2009 के बाद धर्मनिरपेक्ष सोच वाले लोगों के घरों में जो नगाड़े बजना शुरू हुए थे, उनकी आवाज कुछ सहम सी गई है। बीजेपी और संघ से संबंधित अन्य दक्षिणपंथी ताकतों की सरकार बना लेने की योजना को नाकाम करने के बात को कांग्रेस पार्टी ने अपनी जीत बताना शुरू कर दिया था और उसी रौ में बह रही थी।

उत्तर प्रदेश में उम्मीद से कुछ सीटें ज्यादा पाने के बाद कांग्रेसी नेताओं की चाल में कुछ अलग किस्म की धमक आ गई थी, महाराष्ट्र में भी अपने पुराने साथी एनसीपी के नेता, शरद पवार को औकातबोध का ककहरा बताया जाने लगा था। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के प्रतिनिधि अमर सिंह की शिकायत टेलीविजन पर सुनाई पड़ी कि सोनिया गांधी उनको मिलने का टाइम तक नहीं दे रही हैं। यानी कांगे्रस में वही सारे लक्षण दिखने लगे थे, जो एक विजेता में पाए जाते हैं। सच्ची बात यह है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत नहीं हुई थी।

वास्तव में जिसे कांग्रेस की जीत कहा जा रहा है, वह बीजेपी की हार थी। कांग्रेस ने तो सबसे बड़ी पार्टी की हैसियत हासिल करके कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जुटाकर दिल्ली में एक सरकार बना दी थी। जिससे केंद्र में स्थिरता आ गई थी। केंद्र सरकार बन जाने के बाद कांग्रेस के ज्यादातर नेता इसे धर्मनिरपेक्षता की जीत बताने लगे और यहीं गलती हो गई क्योंकि खींच खांचकर कांग्रेस को तो सेक्युलर माना जा सकता है लेकिन यूपीए में शामिल सभी घटक दल ऐसे नहीं हैं।

उसमें ममता बनर्जी, फारूक अब्दुल्लाह और करूणानिधि भी हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी की ताजपोशी में भूमिका अदा कर चुके हैं। ममता बनर्जी तो बीजेपी के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में चुनाव भी लड़ चुकी हैं। इसलिए केंद्र सरकार की धर्मनिरपेक्षता स्वंयसिद्घ नही हैं। हां अगर कांग्रेस की नीयत साफ हो तो इस सरकार से सेक्युलर एजेंडे पर काम करवाया जा सकता है। एक बात जो बहुत ज्यादा सच है, वह यह कि किसी भी सरकार के जरिए राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती खासकर अगर सरकार में शामिल मंत्री आराम तलबी की लत के शिकार हो चुके हैं।

पिछले दिनों जिस तरह से हवाई जहाज़ में मंहगी टिकट लेकर यात्रा करने के मामले में नेताओं का व्यक्तित्व उभरा है, वह बहुत ही दु:खद है। इन लोगों से किसी राजनीतिक लड़ाई के संचालन की उम्मीद करना बेमतलब है। बहरहाल मई से अब तक के बीच में जो हुआ है, उसका लुब्बो-लुबाब यह है कि सांप्रदायिक ताकतें फिर से लामबंद हो रही हैं और विधान सभा के कुछ उपचुनावों के जो नतीजे आए हैं, वे निश्चित रूप से इस बात का संकेत करते हैं कि बीजेपी कहीं से कमजोर नहीं है और कांग्रेस के लोग फौरन न चेते तो उनकी राजनीतिक हैसियत ढलान पर चल रही मानी जाएगी और ढलान पर चलने वाली हर सवारी सबसे निचले स्तर पर पहुंच कर ही रूकती हैं।

अब जिन 12 उपचुनावों के नतीजे आए हैं उनमें सात सीटें बीजेपी को मिली हैं। इसमें 6 सीटें वे हैं जो पहले कांग्रेस के पास थीं और इन उपचुनावों में वे बीजेपी के पास आ गई हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस इन इलाकों में कमजोर हुई है। कांग्रेस को जहां सफलता मिली है, उनमें से ज्यादातर सीटें आंध्र प्रदेश से आई हैं जहां सांप्रदायिक ताकतें बहुत ही कमज़ोर हैं। यानी अगर कांग्रेस को सांप्रदायिकता के खिलाफ ईमानदारी से लड़ाई का नेतृत्व करना है तो उसे पूरे देश में मौजूद बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्ष लोगों की लामबंद करना पड़ेगा। यह काम कोई आसान नहीं है। उसके लिए सबसे पहले तो कांग्रेसी नेताओं को दंभ की बीमारी छोडऩी पड़ेगी।

अभी कल की बात है कि समाजवादी पार्टी ने परमाणु समझौते वाले मसले पर कांग्रेस की आबरू बचाई थी और आज थोड़ी ज्यादा सीटें आ गईं तो उस पार्टी के महामंत्री को सोनिया गांधी के निजी सहायक तक ने समय नहीं दिया। यही हाल महाराष्ट्र में भी है। संयुक्त मोर्चा सरकारों के बारे में पश्चिम बंगाल के लेफ्ट फ्रंट का तजुरबा बहुत ही महत्वपूर्ण है। 1977 में राज्य की वामपंथी पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार बनाई। उसके बाद कई बार ऐसे मौके आए कि सबसे बड़ी पार्टी को अपने बलबूते पर स्पष्टï बहुमत मिल गया लेकिन पार्टी के सबसे बड़े नेता ज्योति बसु अहंकार से वशीभूत नहीं हुए और सभी पार्टियों को साथ लेकर चलते रहे।

केंद्रीय नेतृत्व का सबसे बड़ा अधिकारी जिद्दी और दंभी है जिसकी वजह से कांग्रेस और ममता बनर्जी की संयुक्त ताकत वामपंथियों को दुरूस्त कर रही है। बहरहाल ज्योतिबसु और हरिकिशन सिंह सुरजीत के नेतृत्व में गठबंधन राजनीति का जो बंगाल मॉडल विकसित हुआ है, केंद्र की पार्टियों को भी उसको अपनाना चाहिए। खासतौर से अगर फासिस्ट ताकतों से मुकाबला है तो जनवादी ताकतों और उनके साथियों को लामबंद होना पड़ेगा। कांग्रेसी नेताओं में घुस चुके अहंकार के भाव को अगर फौरन रोका न गया तो भारत सांप्रदायिकता के खिलाफ शुरू की गई लड़ाई हार जाएगा। जो देश के लिए बिलकुल ठीक नहीं होगा।

Friday, September 11, 2009

हैदराबाद के तख्त की लड़ाई

हैदराबाद के तख्त की लड़ाई निर्णायक मुकाम पर पहुंचने वाली है। राजशेखर रेड्डी की दु:खद मृत्यु के बाद उनके वफादरों का एक वर्ग उनके अनुभवहीन बेटे को गद्दी पर बैठाने की जुगत में है। इन लोगों का कहना है कि वाई.एस.आर. के बेटे, जगनमोहन को मुख्यमंत्री बना देने से पार्टी का बहुत फायदा होगा। दावा किया जा रहा है कि आंध्रप्रदेश के लगभग सभी विधायक और अधिसंख्य सांसद, जगनमोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनवाना चाहते हैं।

इसी तरह के और भी बहुत सारे तर्क दिए जा रहे हैं। यह सारे ही तर्क बेमतलब हैं। कोई वंशवाद की जय जयकार कर रहे इन कांग्रेसियों से पूछे कि अगर जगनमोहन रेड्डी के अलावा दिल्ली दरबार में किसी और व्यक्ति को आंध्र प्रदेश की गद्दी सौंप दी जाएगी तो क्या यह जगन ब्रिगेड नए मुख्यमंत्री का समर्थन नहीं करेगा। यह प्रश्न है जो सभी सवालों के जवाब दे देगा। आम तौर पर माना जाता है कि जयकारा लगाने वाले ए नेता सिंहासन से प्रतिबद्घ होते हैं। जो ही राजा बन जाएगा, उसी का चालीसा पढऩे लगेगे।

कांग्रेस आलाकमान के अब तक के संकेत से तो साफ है कि आंध्रप्रदेश में वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया जायेगा। एक तो जगन मोहन रेड्डी बिलकुल अनुभवहीन हैं, दूसरे उनकी ख्याति भी बहुत सकारात्मक नहीं है। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीति में रिटेक नहीं होता यानी दुबारा मौका नहीं मिलता। अगर एक राजनीतिक गलती कर दी तो आंध्रप्रदेश में कांग्रेस का वह हाल भी हो सकता है जो एन.टी. रामाराव ने किया था।

इसलिए सोनिया गांधी कोई भी लूज बाल नहीं फेंकना चाहतीं क्योंकि क्रिकेट में लूज बाल फेंकने पर एक छक्का लगता है लेकिन राजनीतिक में लूज बाल पर छक्का भी लगता है और विकेट भी जाती है। इसलिए कांग्रेस को आंध्रप्रदेश में ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो उस मजबूती को संभाल सके जो राजशेखर रेड्डी की मेहनत से राज्य में मौजूद है। एक और भी तल्ख सच्चाई है जिस पर है कि कांग्रेस आलाकमान की नजर ज़रूर होगी। वह यह कि राज्य में स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के कद का कोई नेता नहीं है।

सोनिया गांधी के सामने विकल्प बहुत कम हैं और फैसला कठिन। शायद आंध्रप्रदेश के कांग्रेस सांसद और राजशेखर रेड्डी के निजी मित्र के.वी.पी. राव को विकल्पों की कमी का एहसास सबसे ज्यादा है इसीलिए जगनमोहन की ताजपोशी न होने की हालत में वे केंद्र में अपने या जगन मोहन के लिए कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं।

वंशवाद के खिलाफ जाने के मामले पर कांगे्रेस की कोर भी थोड़ी दबी हुई है। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने अपने अनुभवहीन बेटे को उत्तराधिकारी बनाने की योजना बनाई तो एक तरह से कांग्रेस के अंदर रहकर वंशवाद के खिलाफ आवाज उठाने वालों की बोलती सदा के लिए बंद कर दी गई थी। यह परंपरा आज तक कायम है इसलिए जगनमोहन की दावेदारी, वंशवाद का तर्क देकर तो नहीं खारिज की जा सकती। इसके बावजूद भी सोनिया गांधी का अब तक का रुख ऐसा है कि वह राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देकर किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता सौंपना चाहती हैं जो राजनीतिक रूप से सब को स्वीकार्य हो।

यहां यह भी स्पष्ट रूप से समझ लेने की जरुरत है कि सत्तर के दशक में जो कांग्रेस पार्टी ने राज्यों के कद्दावर नेताओं को बौना बनाने का सिलसिला शुरू किया था अब वह पूरी तरह से लागू है और फल फूल रहा है अगर भूला बिसरा कोई नेता किसी राज्य में ताकतवर होता भी है तो वह आलाकमान के आशीर्वाद का मोहताज रहता है। इसलिए यह सोचना ही बेमतलब है कि कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसे दिल्ली से नामजद कर दिया जाएगा, उसे विधायक अस्वीकार कर देंगे।

इसलिए जगनमोहन रेड्डी का सारा समर्थन काफूर हो जायेगा जब आलाकमान किसी और को मुख्यमंत्री बना देगा। सारे विधायक उसी के समर्थक हो जाएंगे। इस मामले ने एक बार फिर हमारे लोकतंत्र की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। साठ के दशक तक ज्यादातर राज्यों में कांग्रेसी शासन होता था लेकिन आम तौर पर मुख्यमंत्री के बारे में राज्य की राजधानी में ही फैसला होता था। राज्यों के मुख्यमंत्री आम तौर पर आलाकमान का हिस्सा होते थे। उनका चुनाव आम सहमति से होता था लेकिन वह आम सहमति सोच विचार और बहस के बाद हासिल की जाती थी, हड़काकर नहीं।

बहरहाल, सोनिया गांधी के सामने इस वक्त वह अवसर है कि सच्ची आम सहमति की संस्कृति को फिर से महत्व दे सकती हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने देश की राजनीतिक व्यवस्था में कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं जो देश को सही ढर्रे पर ले जा सकते हैं। देखना यह है कि आंध्रप्रदेश में उनका फैसला राजनीतिक परिपक्वता का संदेश देता है या राजनीतिक गुटबाजी और वंशवाद को बढ़ावा देता है।
आंध्रप्रदेश में राजशेखर रेड्डी के बाद किसी को भी मुश्किल पेश आएगी। 2004 में जब राजशेखर रेड्डी ने तेलगुदेशम पार्टी को हराकर कांग्रेस को फिर से सत्ता दिलवाई थी, तो कांग्रेस की हैसियत बहुत कम थी।

पिछले पांच वर्षों में उन्होंने पार्टी को मजबूती दी और दुबारा जीतकर आए लेकिन यह कोई अटल सत्य नहीं है कि कांग्रेस हमेशा के लिए आ गई है। अगर एक फैसला गड़बड़ हुआ कि कांग्रेस फिर वहीं पहुंच जाएगी। जहां एन.टी.आर. ने पहुंचाया था इसलिए यह लोकतंत्र के हित में है कि कांग्रेस आलाकमान सही फैसला ले।

Saturday, August 1, 2009

बलराज मधोक से एलके आडवाणी तक

आज की भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व अवतार में भारतीय जनसंघ नाम से जानी जाती थी। 60 के दशक में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद जब कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई तो जनसंघ एक महत्वपूर्ण पार्टी के रूप में उभरी। जनसंघ के बड़े नेता थे, प्रो. बलराज मधोक। 1967 में इनके नेतृत्व में ही जनसंघ ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और उत्तर भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में आगे बढ़ रही थी लेकिन 1971 के लोकसभा चुनावों में पार्टी बुरी तरह से हार गई।

बलराज मधोक भी चुनाव हार गए, उनकी पार्टी में घमासान शुरू हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी नए नेता के रूप में उभरे और बलराज मधोक को जनसंघ से निकाल दिया। पार्टी से निकाले जाने के पहले बलराज मधोक ने 1971 के चुनावों की ऐसी व्याख्या की थी जिसे समकालीन राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी बहुत ही कुतूहल से याद करते है। 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और उनकी पार्टी भारी बहुमत से विजयी रही। भारतीय जनसंघ को भारी नुकसान हुआ लेकिन मधोक हार मानने को तैयार नहीं थे।

उन्होंने एक आरोप लगाया कि चुनाव में प्रयोग हुए मतपत्रों में ऐसा केमिकल लगा दिया गया था जिसकी वजह से, वोट देते समय मतदाता चाहे जिस निशान पर मुहर लगाता था, मुहर की स्याही खिंचकर इंदिरा गांधी के चुनाव निशान गाय बछड़ा पर ही पहुंच जाती थी। इस तरह का काम कांग्रेस और चुनाव आयोग ने पूरे देश में करवा रखा था। बलराज मधोक ने कहा कि वास्तव में कांग्रेस चुनाव जीती नहीं है, केमिकल लगे मतपत्रों की हेराफेरी की वजह से कांग्रेस को बहुमत मिला है। मधोक के इस सिद्घांत को आम तौर पर हास्यास्पद माना गया।

इसके कुछ समय बाद ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। बैलट पेपर पर केमिकल की बात अब तक भारतीय राजनीति में चुटकुले के रूप में इस्तेमाल होती रही है। लोकसभा चुनाव 2009 के बाद भी कांग्रेस को सीटें उसकी उम्मीद से ज्यादा ही मिली हैं। बीजेपी के नेताओं की उम्मीद से तो दुगुनी ज्यादा सीटें कांग्रेस को मिली हैं। बीजेपी वाले चुनाव नतीजों के आने के बाद दंग रह गए। कुछ दिन तो शांत रहे लेकिन थोड़ा संभल जाने के बाद पार्टी के सर्वोच्च नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आरोप लगाया कि चुनाव में जो इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन इस्तेमाल की गई उसकी चिप के साथ बड़े पैमाने पर हेराफेरी की गई थी लिहाजा कांग्रेस को आराम से सरकार चलाने लायक बहुमत मिल गया और आडवाणी जी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। उसके बाद तेलुगू देशम और राष्ट्रीय जनता दल ने भी यही बात कहना शुरू कर दिया।

ताजा खबर यह है कि दक्षिण मुंबई से शिवसेना के पराजित उम्मीदवार मोहन रावले ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है और प्रार्थना की है कि पंद्रहवीं लोकसभा का चुनाव रद्द कर दिया जाय। उनका कहना है कि ईवीएम से चुनाव करवाने में पूरी तरह से हेराफेरी की गई है। अपने चुनाव क्षेत्र के बारे में तो उन्होंने लगभग पूरी तरह से ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी पर भरोसा जताया है और वहां के चुनाव को रद्द करने की मांग की है। मानवीय व्यक्तित्व बहुत ही पेचीदा होता है। आम तौर पर सबको जीत की खुशी होती है और पराजय सबको तकलीफ पहुंचाती है। इंसान के व्यक्तित्व की ताकत की परीक्षा पराजय के बाद ही होती है।

मजबूत आदमी अपनी हार से खुश तो नहीं होता लेकिन हारने के बाद अपना संतुलन नहीं खोता। हार के बाद खंभा नोचने वालों को इंसानी बिरादरी में शामिल करना भी बहुत मुश्किल होता है। हार के बाद संतुलन खो बैठना कमजोर आदमी की निशानी है। ईवीएम के अभियान चलाने वाले नेताओं को पता होना चाहिए कि इन मशीनों का आविष्कार लोकतंत्र के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। ईवीएम के खिलाफ आने के बाद बाहुबलियों और बदमाशों की बूथ कैप्चर करने की क्षमता लगभग पूरी तरह से काबू में आ गई है। बैलट पेपर के जमाने में इनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। बंडल के बंडल बैलट पेपर लेकर बदमाशों के कारिंदे बैठ जाते थे और मनपसंद उम्मीदवार को वोट देकर विजयी बना देते थे।

ईवीएम के लागू होने के बाद यह संभव नहीं है। मशीन को डिजाइन इस तरह से किया गया है कि एक वोट पूरी तरह से पड़ जाने के बाद ही अगला वोट डाला जा सकता है। ऐसी हालत में अगर पूरी व्यवस्था ही बूथ कैप्चर करना चाहे और किसी भी उम्मीदवार का एजेंट विरोध न करे तभी उन्हें सफलता मिलेगी। सबको मालूम है कि अस्सी के दशक में गुडों ने जब राजनीति में प्रवेश करना शुरू किया तब से जनता के वोट को लूटकर लोकतंत्र का मखौल उड़ाने का सिलसिला शुरू हुआ था, क्योंकि बूथ कैप्चर करने की क्षमता को राजनीतिक सद्गुण माना जाने लगा था। इसके चलते हर पार्टी ने गुंडों को टिकट देना शुरू कर दिया था।

इस बार बहुत कम बाहुबली चुनाव जीतने में सफल हो सके। जानकार कहते हैं कि बदमाशों के चुनाव हारने में ईवीएम मशीन का भी बड़ा योगदान है। इसलिए इसको बंद करने की मांग करना ठीक नहीं है। अगर फिर बैलट पेपर के जरिए वोट पडऩे लगे तो देश अस्सी के उसी रक्त रंजित दशक की तरह अराजकता की तरफ बढ़ जाएगा। ई.वी.एम. के खिलाफ शुरू किए गए अभियान पर चुनाव आयोग को भी खासी नाराजगी है। चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने एक सेमिनार में कहा कि ई.वी.एम. लगभग फूल-प्रूफ है। इसकी किसी भी गड़बड़ी को कभी भी जांचा परखा जा सकता है। उन्होंने केन्या का उदाहरण दिया जहां चुनाव व्यवस्था बिल्कुल तबाह हो चुकी है, लोकतंत्र रसातल में पहुंचने वाला है।

श्री कुरैशी ने कहा कि केन्या के प्रबुद्घ लोगों ने यह सुझाव दिया कि भारत की तर्ज पर वहां भी ईवीएम का इस्तेमाल किया जाय और चुनाव प्रक्रिया में काम करने वाले अधिकारियों को भारत की मदद से टे्रनिंग दी जाय। इसके अलावा दुनिया के और कई देशों में भी भारतीय ई.वी.एम. मशीनों की तारीफ हो रही है। ज़ाहिर है प्रयोग सफल है और उसके आगे बढ़ते रहने की जरूरत है। ई.वी.एम. मशीनों का विरोध कर रही पराजित पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि चुनाव होता ही इसीलिए है कि कोई हारे और कोई जीते। जो लोग एक बार लोकसभा या विधानसभा चुनाव जीत जाते हैं उन्हें पता चल जाता है कि चुनाव जीतने के बाद सुख सुविधा और ताकत का अंबार लग जाता है। चुनाव हारने के बाद वह सब कुछ काफूर हो जाता है।

ज़ाहिर है कि पराजित व्यक्ति को पछतावा बहुत ज्यादा होता है लेकिन लोकतंत्र के हित में आदमी को धीरज से काम लेना चाहिए। अगर लोकतंत्र रहेगा तो सब कुछ रहेगा और मोहन रावले सहित बाकी लोगों को दुबारा चुनाव जीतने का मौका मिलेगा और अगर बैलट पेपर युग की फिर वापसी हो गई तो पूरी आशंका है कि अपराधियों और बाहुबलियों का लोकतंत्र पर कब्जा हो जाएगा और चुनाव प्रक्रिया पर भी खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। इसलिए राजनीतिक नेताओं को चाहिए कि लोकतंत्र के विकास के रास्ते में कांटे न बिछाएं।

Sunday, July 26, 2009

सेकुलर सरकार या गैर कांग्रेसी सरकार

लोकसभा चुनावों के पहले दौर में 124 सीटों पर मतदान संपन्न हो गया। अब तक के राजनीतिक और चुनावी संकेत ऐसे हैं, कि केंद्र में इस बार भी ऐसी सरकार बनेगी जिसमें बीजेपी का कोई योगदान नहीं होगा। ऐसा ही संकेत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिया जब उन्होंने कहा कि चुनावों के बाद की परिस्थितियां तय करेगी कि सरकार बनाने में किन पार्टियों का सहयोग लिया जाए।

प्रधानमंत्री ने लेफ्ट फ्रंट की तारीफ की और स्वीकार किया कि कुम्युनिस्टों के सहयोग से सरकार चलाना एक अच्छा अनुभव था। अपने इस बयान से मनमोहन सिंह वामपंथी पार्टियों के सहयोग के संवाद को फिर से जिंदा कर दिया है।प्रधानमंत्री के इस बयान में जो न्यौता है उसमें राजनीतिक आचरण की कई परते हैं जिसे राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी प्रकाश करात ने तुरंत भांप लिया। गठबंधन राजनीति की स्थिति पर पहुंचने से पहले सभी पार्टियां चुनावी राजनीति के समुद्र में गोते लगा रहीं है। पूरे देश में राजनीतिक हार जीत की चर्चा चल रही है और कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों आमने सामने है।

पश्चिम बंगाल और केरल, जहां से अधिकतर कम्युनिस्ट सदस्य लोकसभा में पहुंचते है, वहां दोनों की पक्षों के गंठबंधन एक दूसरे के खिलाफ कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। बंगाल में कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन की ओर से वामपंथियों को कड़ी चुनौती मिल रहीं है, ऐसे माहौल में प्रधानमंत्री का यह संदेश कि अभी की लड़ाई तो ठीक है लेकिन चुनाव के बाद हम फिर एक होने की कोशिश करेंगे चुनाव में कार्यकर्ताओं के हौंसले को प्रभावित कर सकता है। ज़ाहिर है कि इससे वामपंथी चुनावी अभियान की धार कुंद हो सकती है।

शायद इसी संभावना की काट के लिए माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने तुरंत बयान दे दिया कि चुनाव के बाद भी कांग्रेस से कोई समझौता नहीं होगा।जानकार मानते है कि अपने अभियान की हवा निकालने वाले किसी भी बयान को बेमतलब साबित करने के उद्देश्य से ही माक्र्सवादी नेता ने यह बयान दिया है। वरना यह सभी जानते है कि लेफ्ट फ्रंट के नेता दिल्ली में एक सेकुलर सरकार बनाना चाहते हैं।

अभी उनकी पोजीशन है कि केंद्र में गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार बनानी है। यह उनकी इच्छा है और इस आदर्श स्थिति को हासिल करने के लिए वामपंथी नेता सारी कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि उन्हें मालूम है कि मौजूदा स्थिति में जो पार्टियां वामपंथी मोर्चा में शामिल है अगर उनके सभी उम्मीदवार जीत जायं तो भी 272 सीटों का लक्ष्य नहीं हासिल कर सकेंगे। जाहिर है ऐसी हालत में तीसरे मोर्चे को अपनी वैकल्पिक योजना को फौरन प्रस्तुत करना पड़ेगा क्योंकि अगर इसमें ज्यादा वक्त लगा तो तीसरा मोर्चा बिखरना शुरू हो जायेगा।

तीसरे मोर्चे में शामिल सभी गैर कम्युनिस्ट पार्टियां कभी न कभी भाजपा के साथ काम कर चुकी हैं और अगर बीजेपी की सरकार बनने की संभावना बनी तो इन पार्टियों को विचारधारा का कोई संकट पेश नहीं आयेगा क्योंकि सभी पार्टियां एनडीए या अन्य गठबंधनों में बीजेपी के साथ रही चुकी हैं। कभी किसी को अपना लक्ष्य मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता। यहां सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि अगर गैर कांग्रेस सेकुलर सरकार का लक्ष्य हासिल करने में तीसरे मोर्चे को सफलता न मिली तो क्या बीजेपी की सरकार बनने की स्थितियां उन्हें स्वीकार होगी अगर बीजेपी के सहयोग से बनने वाली सरकार में वामपंथी पार्टियों को कोई दिक्कत नहीं है, तब तो कोई बात नहीं।

लेकिन अगर बीजेपी को सत्ता में अपने से रोकने के अपने घोषित उद्देश्य को माक्र्सवादी नेता पूरी करना चाहते हैं तो उन्हें कांग्रेस का सहयोग जरुरी होगा। और प्रधानमंत्री का संवाद शुरु करने वाला बयान ऐसी परिस्थिति में सार्थक होगा। सरकार किसकी बनती है, यह उस वक्त की राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करेगा। वामपंथियों के सामने विकल्प दो ही हैं या तो सरकार कांग्रेस की हो और धर्मनिरपेक्ष ताकतें उसका समर्थन करें और या तीसरे मोर्चे का कोई नेता प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस उसे समर्थन दे।