Sunday, June 2, 2013

छत्तीसगढ़ में सरकारी दमनतंत्र को राजनीतिक हथियार बनाना खतरनाक होगा



शेष नारायण सिंह



सुकमा के जंगलों में कांग्रेसी नेताओं की हत्या के मामले में देश की राजनीति में तरह तरह के सवाल उठना शुरू हो गए हैं .केन्द्र सरकार के एक खेमे में तो इस हत्याकांड को इस बात का सबसे बड़ा बहाना माना जा रहा है कि अब मौक़ा है कि माओवादियों को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाए. माओवादी इलाकों में सरकारी दमनतंत्र के ज़रिये कब्जा करने वालों को इस बात की परवाह नहीं है कि माओवादियों का सफाया करने के चक्कर में पूरे इलाके में रहने वाले आदिवासियों का सर्वनाश हो जाएगा . लगता है  कि सरकारी दमनतंत्र को इस्तेमाल करने वालों को इस बात का भी अंदाज़ नहीं है कि इसी नीति का पालन करके सलवा जुडूम ने सब कुछ बर्बाद कर दिया था . जल जंगल और ज़मीन के लिए आदिवासियों की जो लड़ाई शुरू हुई थी ,उसको माओवादी विचारधारा वालों ने नेतृत्व प्रदान किया और आज वही आदिवासी उन योजनाओं को भी एक शिकंजा मानते हैं जो उनके कल्याण के लिए सरकार की तरफ से चलाई जाती हैं . छत्तीसगढ़ , बिहार और उड़ीसा में ऐसी सरकारें हैं जो किसी भी वामपंथी आंदोलन को कम्युनिस्ट कहकर उनपर हमला बोलने के लिए आमादा रहती हैं. दरअसल बीजेपी या उसकी विचारधारा से सहानुभूति रखने वाले नेता और उनकी पार्टियां उस तैयारी में जुटी हुई हैं जिस तैयारी में १९३३ में जर्मनी की सत्ताधारी पार्टी जुट गयी थी. उस वक़्त की सरकार ने  हर उस व्यक्ति को जो उनसे अलग राय रखता था ,कम्युनिस्ट नाम दे दिया था और उसे मार डाला था. दिल्ली के सत्ता के गलियारों में मौजूद वे नेता भी उसी मानसिक सोच के हैं जो सरकारी सत्ता का इस्तेमाल करके विरोधी को तबाह कर देने की बात के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकते.  केन्द्र सरकार ने यह तय किया था कि माओवादी आतंक से प्रभावित इलाकों में आदिवासियों के विकास को मुख्य एजेंडा में लाया जाएगा. सोनिया गांधी के दो सिपहसालार इस काम पर लगा भी दिए गए थे और काम ढर्रे पर चल भी रहा था . जयराम रमेश को ग्रामीण विकास और किशोर चन्द्र देव को आदिवासी  कल्याण का मंत्रिमंडल देकर यह मान लिया गया था कि सब ठीक हो जाएगा लेकिन जब २६ मई को रविवार होने के बावजूद जयराम रमेश ने अपने दफ्तर में कुछ पत्रकारों को बुलवाकर बात की तो साफ़ लग रहा था कि इस आदमी के हाथ के तोते उड़ गए हों , जयराम रमेश की बात से उस मजबूर आदमी की आवाज़ निकल रही थी जिसका घर  अभी अभी आग के हवाले कर दिया  गया  हो . जब उनसे पूछा गया कि बातचीत का रास्ता क्या अभी भी खुला है तो उन्होंने साफ़ कहा कि हालांकि बातचीत की संभावना को नकारा नहीं जा सकता लेकिन अभी तो बातचीत का माहौल नहीं है . उन्होंने इस बात पर ताज्जुब जताया कि नन्द कुमार पटेल को क्यों मार डाला गया जबकि उन्होंने हमेशा आदिवासियों के दमन के खिलाफ आवाज़ उठायी थी. इसी तरह का पछतावा आदिवासी कल्याण के मंत्री किशोर चन्द्र देव की आवाज़ में भी था जब वे किसी टी वी चैनल से बात कर  रहे थे . उन्होंने कहा कि सलवा जुडूम को बढ़ावा देना बिलकुल गलत नीति थी . उन्होंने कहा कि इस नीति के चलते आदिवासी समाज में जो दरारें पडी हैं उनको  ठीक कर पाना बहुत मुश्किल होगा .उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेसी नेताओं की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले में कुछ नेताओं और कारपोरेट घरानों की साज़िश भी  हो सकती है .उन्होंने कहा कि सलवा जुडूम क्या था . इस योजना में कुछ आदिवासियों को उनके घरों से निकाल कर रिफ्यूजी कैम्प में रख दिया गया . बाकी लोगों को माओवादियों ने अपने साथ ले लिया उसके बाद आदिवासी नौजवानों को  अपने ही भाई बन्दों के खिलाफ इस्तेमाल करके हत्याएं की गयीं इस से बुरा क्या हो सकता था . उन्होंने कहा कि माओवादियों को कुछ नेता अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करते हैं .इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि आतंकवादियों और कारपोरेट घरानों के बीच किस तरह के सम्बन्ध हैं . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने आरोप लगाया है कि इस  २५ मई के हमले के टारगेट नन्द कुमार पटेल ही थे . दिग्विजय सिंह ने सवाल किया है  कि नन्द कुमार पटेल को क्यों  तलाश किया जा रहा था जबकि उन्होंने सलवा जुडूम का विरोध किया था और बस्तर में आदिवासियों पर हो रहे हमलों की हमेशा ही निंदा करते थे और यह बात माओवादियों को अच्छी तरह से मालूम थी . ज़ाहिर है कि आदिवासियों के दमन से जुड़े बहुत सारे सवाल २५ मई की घटना के बाद पूछे जायेगें लेकिन आदिवासियों को पूंजीवादी विकास के माडल से पूरी तरह से अलग थलग करने वाले कारकों की भी पड़ताल की जानी चाहिए .

प्रधानमंत्री ने बार बार अपने  भाषणों में कहा है कि बन्दूक की दहशत की मौजूदगी में आदिवासियों का विकास नहीं हो सकता .आदिवासियों और माओवादियों के ऊपर ज़रूरत से ज्यादा सरकारी दमनतंत्र का इस्तेमाल करने की वकालत करने वाले दिल्ली के सत्ता के ठेकेदार भी प्रधानमंत्री के इसी तर्क को इस्तेमाल करने जा रहे हैं और जानकार बताते हैं कि आने वाले वक़्त में माओवादियों को नेस्तनाबूद करने के बहाने आदिवासियों पर भारी मुसीबतों का पहाड टूटने वाला है .  मार्क्सवादी लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी को भी यही डर है .  सवाल उठता है कि क्या आदिवासी इलाकों के लोग शुरू से ही बंदूक लेकर घूमते रहते थे। आजादी के बाद उन्होंने 50 से भी अधिक वर्षों तक इंतजार किया। इस बीच उनका घर-बार तथाकथित विकास योजनाओं की भेंट चढ़ता रहा। आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा की लालच में सरकारें जंगलों में ऊल जलूल परियोजनाएं चलाती रही। यह परियोजनाएं आदिवासियों के शोषण का सबसे बड़ा साधन बनीं। कहीं भी किसी स्तर पर उनको भागीदारी के अवसर नहीं दिए गए। जहां भी आदिवासी इलाकों में विकास का स्वांग रचा गया वहां आदिवासियों की तबाही की इबारत मोटे अक्षरों में लिख दी गई।
वन संपदा पर उनका अधिकार पूरी तरह से खारिज कर दिया गया और उनकी जीवन शैली पर हमला बोला गया। नई परियोजनाओं के लिए बाहर से गए लोगों ने वहां पर सस्ती मजदूरी पर लोगों को काम पर लगाया। कुछ जगहों से तो लड़कियों के शारीरिक शोषण की ख़बरें भी आती थीं। उनके रीति रिवाजों पर हमला हुआ। ईसाई मिशनरियों ने उनके विकास के नाम पर बडे़ पैमाने पर धर्म परिवर्तन करवाकर आस्था के संकट को इतना गहरा कर दिया कि उन इलाकों में पहचान का संकट पैदा हो गया। ग्रामदेवता और कुलदेवता जैसे प्राकृतिक रूप से विकसित आस्था के आदर्शों के स्थान पर एक नए देवता की पूजा की परंपरा शुरू की। इस संकट का हल सरकारी स्तर पर कहीं नहीं किया गया। आस्था बदलवाने के काम में हिंदुत्ववादी राजनीतिक  भी घुसे लेकिन उन्होंने भी आदिवासी जीवनशैली को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन लोगों ने स्थानीय देवताओं के बजाय हनुमान जी की पूजा करवाने पर जोर दिया। स्थानीय भावनाओं पर अपने पूर्वाग्रहों को लादने के इस खेल के लिए सभी पार्टियां बराबर की जिम्मेदार हैं।
संविधान में व्यवस्था है कि सरकारी नौकरियों में आदिवासी लोगों के लिए आरक्षण रहेगा लेकिन जब उनके पास बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं है तो वे सरकारी नौकरियों तक पहुंचेगे कैसे। इन लोगों की शिक्षादीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई इसलिए इनके लिए रिजर्व नौकरियों में वे लोग घुस गए जो अपेक्षाकृत विकसित थेशिक्षित थे लेकिन आदिवासी श्रेणी में आते थे। राजस्थान की एक ऐसी ही बिरादरी का आजकल सरकारी नौकरियों में दबदबा है। लेकिन बिहारउड़ीसापश्चिम बंगालआंध्रप्रदेश 
और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों के लोगों को केंद्रीय नौकरियों में ठिकाना नहीं मिला क्योंकि उनके पास पढ़ने लिखने का साधन नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनका शोषण और बढ़ गया। 
इन आदिवासी इलाकों का दुर्भाग्य यह भी था कि इनके अपने बीच से जो नेता भी निकले उनकी ईमानदारी संदिग्ध रही। शिबू सोरेन और उनके परिवार की गाथाएं जगजाहिर हैं। इसी तरह के और भी बहुत से नेता देखे और सुने गए हैं। तथाकथित मुख्यधारा में लाने की कोशिश में भी इनके ऊपर चौतरफा हमला हुआ। जहां भी प्रोजेक्ट लगाए गए वहां के सारे जीवन मूल्य बदल दिए गए। आदिवासी इलाकों के शोषण के रोज ही नए तरीके निकाले गए। एक मुकाम पर तो लगता था कि आदिवासियों के शोषण की सारी सीमाएं पार कर ली गई हैं। लेकिन ऐसा नहीं थाजब बालको का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अधिग्रहण किया तब लगा कि आने वाला वक्त इन इलाकों के शोषण की नई ऊंचाइयां देगा। बहरहाल अब साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और पूंजी की ताकत इन आदिवासियों के सर्वनाश के लिए झोंक दिया है। और इस मामले में बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है। दोनों ही सलवा जुडूम के रास्ते चल रहे थे इस संगठन को अपना मानते थे .आजादी की बाद की राजनीतिक पार्टियों ने आदिवासी इलाकों में मूल निवासियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भी नज़र अंदाज किया। जबकि आज़ादी की लड़ाई में सबसे अधिक कुर्बानी इस इलाके के आदिवासियों के नाम दर्ज है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ और झारखंड से आए नेताओं पर एक नजर डालिए। वही भाई लोग जो वहां की खनिज संपदा से लाभ लेने पहुंचे थेवही आज वहां के नेता बने बैठे हैं। और जो नेता वहां से निकले भी वे इन्हीं पूंजीवादी शोषक नेताओं के पिछलग्गू बन गए जिसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति की संसदीय जनतंत्र की धारा में यह लोग नहीं आ सके। जब बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी हितों को लगा कि दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों की मदद से इन इलाकों पर कब्जा नहीं जमाया जा सकता तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद के इन पोषकों ने कुछ ट्रास्टकीवादियों को पकड़ लिया। आदिवासी इलाकों में माओवाद के नाम जो आतंक का राज कायम किया जा रहा हैवह इन्हीं दिग्भ्रमित अति वामपंथियों की कृपा से हो रहा है। मार्क्सवादी लफ्फाजी की मदद से इन्हें हथियार उठाने के लिए तैयार किया गया है। इनकी राजनीतिक शिक्षा शून्य है। ध्यान से देखें तो समझ में आ जाएगा कि इन इलाकों में आदिवासियों के गुस्से का निशाना उन्हीं लोगों को बनाया जा रहा है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिनिधि है। निजी या बहुराष्ट्रीय हितों को कहीं भी निशाने पर नहीं लिया जा रहा है।
इस पृष्ठभूमि में ज़रूरी यह है कि आदिवासी इलाकों में ऐसे विकास कार्यक्रम चलाएं जिनका फायदा केवल आदिवासियों को हो। हालांकि यह बहुत बड़ी बात है लेकिन इससे कम पर बात बनने की संभावना नहीं है। मुद्दा यह है कि आदिवासियों के दमन की जो साजिशें शासक वर्गों की सोच का स्थायी भाव बन चुकी हैं उसको रोका  जाना चाहिए और २५ मई की घटना के बहाने सरकारी दमन को राजनीतिक हथियार बनाए जाने का विरोध किया जाना चाहिए .

Thursday, May 30, 2013

सीरिया का गृहयुद्ध लेबनान के रास्ते एक क्षेत्रीय युद्ध में बदल सकता है


शेष नारायण सिंह 
अमरीका सहित अन्य यूरोपीय देशों की सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश एक नए और खतरनाक दौर में पंहुच गयी है . २५ मई को हेज़बोल्ला संगठन के मुखिया हसन नसरुल्ला ने ऐलान किया कि बशर अल-असद को राष्ट्रपति पद से हटाने की कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा . टेलिविज़न पर दिया गया हसन नसरुल्ला का यह भाषण पूरे लेबनान में देखा गया जिसमें उन्होंने कहा कि ,” यह हमारी लड़ाई है और हम इसमें फतेह्याब  होगें .उन्होंने कहा कि अब युद्ध एक नए दौर में पंहुच गया है .”  उधर यूरोपीय यूनियन ने सीरिया पर लागू हथियारों की पाबंदी को हटा लिया है . हालांकि सीरिया के ऊपर लगी हथियारों की पाबंदी को हटाने का यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों नें विरोध किया लेकिन ब्रिटेन और नीदरलैंड्स जैसे देशों ने पाबंदी को हटाने की जोरदार मांग की . इसका मतलब यह हुआ कि अब अमरीका के मित्र देश सीरिया के राष्ट्रपति को हटाने की मुहिम में लगी अधिकांशतः सुन्नी  लड़ाकुओं की जमात को जमकर हथियार  देगें . यूरोपीय यूनियन  के मेंबर कई देशों ने तो कहा कि इस बात की पूरी संभावना है कि अगर सीरियाई विद्रोहियों को हथियार दिए गए तो वे अल-कायदा के  हाथों में पंहुच जायगें और उनका इस्तेमाल यूरोप और अमरीका के हितों के खिलाफ होगा लेकिन दमिश्क में अफगानिस्तान या इराक जैसी वफादार हुकूमत करने की जल्दी में अमरीका कुछ भी करने को तैयार नज़र आ रहा है .ब्रसेल्स में हुई यूरोपीय यूनियन की बैठक में एक मुकाम पर तो यह तर्क दिया गया कि अगर पाबंदी हटा ली गयी तो रूस और इरान सीरिया के राष्ट्रपति  को खुले आम हथियार  मुहैया करवाने लगेगें लेकिन बात आई गई हो गयी क्योंकि स्वीडन के विदेशमंत्री ने  कहा कि यह दोनों देशों बशर अल असद को खूब हथियार दे चुके हैं .अब और अधिक हथियार देकर उनकी लड़ाई की ताक़त को नहीं बढ़ाया जा सकता ,उससे उनका हथियारों का ज़खीरा ही मज़बूत होगा .हालैंड के विदेशमंत्री फ़्रांस टिमरमैंस ने कहा कि हथियारों के निर्यात पर लगी पाबंदी हटा ली गयी है उन्होंने इस बात पर खुशी ज़ाहिर की कि बाकी आर्थिक पाबंदियां बरकारार हैं .इसका मतलब यह नहीं कि यूरोपीय यूनियन के सदस्य देश तुरंत ही सीरिया के बागियों के लिए हथियार भेजना शुरू कर देगें लेकिन यह बात मुकम्मल तौर पर सही है कि अब  सीरिया पर कब्जे की लड़ाई में हथियारों की कमी नहीं रह जायेगी. आस्ट्रिया ,चेक रिपब्लिक और स्वीडन ने सीरिया को हथियार भेजने का ज़बरदस्त विरोध किया .उनका कहना था कि सीरिया में जो विरोधी ताक़तें हैं उनके अलकायदा वालों से अच्छे सम्बन्ध हैं और जो हथियार बशर अल-असद के  खिलाफ इस्तेमाल होने के लिए भेजे जायेगे, वे धार्मिक आतंकवादियों के हाथों भी लग सकते हैं .

 हेज़बोल्ला का सीधे तौर पर युद्ध में शामिल होना और यूरोपीय यूनियन की हथियारों की सप्लाई के मद्दे नज़र यह बात तय है कि यह लड़ाई अब बढ़ जायेगी. हेज़बोल्ला के शामिल होने के मतलब यह है कि लेबनान तो अब लड़ाई में शामिल ही  हो गया है क्योंकि हेज़बोल्ला का मुख्यालय लेबनान में ही है .और उस पर अभी इसी हफ्ते राकेट से हमला हो चुका है . हेज़बोल्ला और इरान में जो सम्बन्ध हैं उसके चलते इरान पूरी तरह से  सीरिया की लड़ाई में शामिल है ही. क्योंकि अल्वी सम्प्रदाय के शिया बशर अल-असद को सीरिया के बहुमत वाले सुन्नी अवाम पर हुकूमत का अवसर उपलब्ध कराते रहना इरान की नीति का एक प्रमुख हिस्सा है . हेज़बोल्ला का खुले आम  सीरिया की सरकार की मददमें  जाना इस लड़ाई के लिए बहुत ही खतरनाक  संकेत हैं .हालांकि अभी भी  हेज़बोल्ला के लड़ाके सीरिया की फौज के साथ बागियों के खिलाफ लड़ाई मेंशामिल हैं लेकिन औपचारिक रूप से इसका ऐलान नहीं किया जा रहा थाअब हसन नसरुल्ला के ऐलान के ाद तस्वीर बदल जायेगी .हसन नसरुल्ला के लिएबशर अल-असद  की सत्ता को कायम रखना उनके अपने अस्तित्व से भी जुड़ा हुआ है .  लेबनान में रहकर अपना अभियान चलाने वाले हेज़बोल्ला  लिएइरान के साथ सड़क मार्ग से संपर्क रखने का रास्ता सीरिया  अंदर से ही है . अगर सीरिया  किसी ऐसी सत्ता का कब्ज़ा हो या जो अमरीका या अन्ययूरोपीय यूनियन सदस्यों के प्रति वफादार ुई तो हेज़बोल्ला के लिए बहुत मुश्किल पेश आयेगी  ,उसका अपने सबसे बड़े समर्थक से संपर्क खत्म हो जाएगा.ऐस हालत में असद के लिए तो दमिश् की सत्ता पर काबिज रहना बहुत ही अहम है ही , हेज़बोल्ला के लि भी कम महत्वपूर्ण नहीं है .
उधर अमरीका अपनी तिकडम की विदेशनीति को लागू करने की योजना पर भी लगातार काम कर रहा है .पेरिस में अमरीकी विदेशमंत्री जान केरी और रूस के विदेशमंत्री सर्जेई लेवरोव के बीच एक मुलाक़ात हुई है जिसमें अगले महीने जिनेवा में प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय शान्ति सम्मलेन के लिए समर्थन जुटाने की योजना पर बात हुई है . इस सम्मलेन का एजेंडा ही यह  है कि बशर अल-असद को हटाकर किसी कठपुतली हुकूमत को सीरिया में कैसे बैठाया जाए. इस बातचीत में शामिल होने के लिए असद की सरकार तैयार है लेकिन सुन्नी प्रमुखता वाले विपक्ष के नेता अभी सलाह मशविरा कर रहे हैं .
सीरिया की आतंरिक  लड़ाई मार्च २०११ में शुरू हुई थी और अब तक सत्तर हज़ार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं लेकिन अभी ऐसा कोई संकेत नहीं है कि लड़ाई खत्म होने वाली है . कोई भी पक्ष अपनी पोजीशन से पीछे हटने को तैयार नहीं है .ताज़ा स्थिति यह है कि दमिश्क से समुद्र की तरफ जाने वाली सड़क के शहर कुसैर पर कब्जे के लिए घमासान युद्ध चल रहा है .सरकारी फौजों ने हेज़बोल्ला के लड़ाकों की मदद से हमीदिया कस्बे पर कब्जा कर लिया है और कुसैर की घेराबंदी को मज़बूत कर लिया है. ऐसे माहौल में सीरिया की सरकारी फौजों के साथ हेज़बोल्ला का ऐलानियाँ शामिल होना इस युद्ध को एक क्षेत्रीय युद्ध बना सकता है .अभी सीरिया की लड़ाई मूल रूप से देश के बहुसंख्य सुन्नी और शासक शिया के बीच हक की  लड़ाई है .दोनों पक्ष खिलाफ पार्टी की ताक़तों को बेझिझक क़त्ल कर रहे हैं .हेज़बोल्ला के शामिल होने के बाद सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का पलड़ा बहुत भारी हो जाएगा. लगता है कि इसी समर्थन के असर को कमज़ोर करने के उद्देश्य से यूरोपीय देशों ने अब सीरियाई बागियों को हथियार देने का फैसला किया है .
सीरिया के  गृहयुद्ध का असर बाकी दुनिया पर तो कूटनीति के स्तर पर पडेगा लेकिन लेबनान में इस लड़ाई का सीधा असर पड़ने वाला है .लेबनान १९७५ के बाद से अपने ही गृह युद्ध की आग में झुलस चुका है . १९९० के बाद से वहाँ थोड़ी शान्ति हुई है . वहाँ की शिया,सुन्नी और ईसाई आबादी के बीच मौजूद बहुत ही नाज़ुक रिश्तों की बुनियाद पर टिकी लेबनान की शान्ति में हेज़बोल्ला के शिया शासक के पक्ष में ऐलानियाँ उतर जाने के बाद निश्चित रूप से बदलाव आएगा . डर  यह है कि यह  बदलाव लेबनान में ही शिया-सुन्नी संघर्ष में न तब्दील हो जाए. वहाँ हेज़बोल्ला कहने को तो एक राजनीतिक जमात है लेकिन उसके पास फौज भी है और वह फौज लेबनान की सेना से भी भारी है .इसलिए हेज़बोल्ला का खुले आम सीरिया में शिया शासक के साथ शामिल होना लेबनान के अंदर के शिया सुन्नी रिश्तों को प्रभावित करने की क्षमता  रखता है . पश्चिम एशिया की राजनीति के जानकारों को मालूम है कि हेज़बोल्ला को लेबनान में  कोई भी नहीं धमका सकता है . इसलिए जानकार आशंका जता रहे हैंकि अभी तक जो सीरिया के युद्धस्थल है वह आगे चल कर सीरिया और लेबनान का संयुक्त मैदान न बन जाए. लेबनान के सुन्नी लोग भी गुपचुप तरीके से सीरिया में बागियों की मदद में जाते रहे हैं . सीरिया के बागियों ने भी बार बार हेज़बोल्ला को चेताया है कि अगर वह सीरिया में सुन्नियों के खिलाफ मोर्चे में शामिल होता है तो लड़ाई से फारिग  होकर हेज़बोल्ला को भी निशाना बनाया जाएगा. इस सारी स्थिति का मतलब यह है कि इस क्षेत्र में जारी खूंखार युद्ध के भौगोलिक दायरे में वृद्धि के संकेत साफ नज़र आ रहे हैं .अभी मार्च में लेबनान के सुन्नी राजनेता और प्रधानमंत्री नजीब मिकाती ने इस्तीफा दे दिया था .सबको मालूम है कि हेज़बोल्ला की मर्जी के खिलाफ जाकर लेबनान में किसी भी प्रधानमंत्री का सत्ता में बने रहना असंभव होता है .खासकर जबकि सीमा के उस पार हेज़बोल्ला के लड़ाके सुन्नियों को चुन चुन कर मार  रहे हों .
सीरिया में बगावत शुरू हुए दो साल हो गए हैं . अमरीका का दावा है कि उसने बागियों को हथियार नहीं दिया है . लेकिन अमरीकी नीति निर्धारक भी स्वीकार करते हैं उन्होंने सीरियाई बागियों को अन्य तरह से मदद दी है . इसका मतलब यह हुआ कि सीरिया के बागियों के पास जो हथियार हैं उसमें अमरीकी धन की भूमिका है . वैसे भी पूरे पश्चिम एशिया में अमरीका के मदद से बहुत सारे हथियार फैले पड़े हैं और वे हथियार सीरियाई बागियों के पास पंहुच रहे हैं.. राष्ट्रपति ओबामा प्रकट रूप से अपने आपको अभी सीरिया के मामले से अलग रखा हुआ है .वे कहते हैं कि सरिया की लड़ाई में बहुत सारी पेचीदगियां  हैं और उनमें फंसना खतरे से खाली नहीं . ओबामा का यह तर्क अब तक तो चल रहा था लेकिन अब खेल बदल चुका है . हेज़बोल्ला के ऐलानियाँ शामिल हो जाने के बाद बाद सीरिया की लड़ाई को पश्चिम एशिया के अन्य देशों में जाने से कोई रोक नहीं सकता . ऐसी हालात में अमरीका का इस से बिलकुल बाहर रह पाना संभव नहीं रह जाएगा और अमरीका के शामिल होने के मतलब  अलग अलग इलाकों में अलग अलग संदर्भों में देखा जाएगा लेकिन एक बात तय है कि अमरीकी राजनीति और विदेशनीति को एक बार फिर बहुत ही भयानक परीक्षा के दौर से गुज़रना पडेगा .

Tuesday, May 28, 2013

नेहरू के बाद भारतीय नेतृत्व ने कश्मीर मुद्दे के हल के बजाय इसे बिगाड़ने की कोशिश की है

शेष नारायण सिंह 

49 साल पहले आज के ही दिन जवाहरलाल नेहरू ने अंतिम सांस ली थी. उनके जीवनकाल में और उनके बाद उनको बेकार साबित करने की बार बार कोशिश होती रही है लेकिन उनकी दूरदर्शिता के आलोचकों के नाम का उल्लेख करना भी उनको महत्व देना होगा क्योंकि वे लोग जवाहरलाल नेहरू के साथ अपने नाम को जोड़कर अपने को महान साबित करने की कोशिश करते रहते हैं . कश्मीर के मसले पर भारत में एक खास विचारधारा के लोग पानी पीकर भारत की आज़ादी के महान नायक को कोसते रहे हैं . उस विचारधारा वालों का नाम लेकर मैं उन लोगों को महत्त्व तो नहीं दे सकता लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि जवाहरलाल नेहरू की निंदा करने वाले इन राजनेताओं के पूर्वज आज़ादी की लड़ाई में भारत की जनता के साथ नहीं खड़े थे और इनका एक भी नेता 1920 से 1947 के बीच भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल नहीं गया था .कश्मीर के मामले में 1947 में जो सफलता मिली थी वह भारत की कूटनीतिक और राजनीतिक सफलता की एक ज़ोरदार मिसाल है .मैंने इस विषय पर बार बार लिखा है . आज जवाहरलाल की पुण्यतिथि पर उनकी याद में मेरी विनम्र श्रद्धांजलि
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था. ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . 15 अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया.”पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की .” नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा
हरि सिंह- साभार कश्मीरी लाइफ डॉट नेट
हरि सिंह- साभार कश्मीरी लाइफ डॉट नेट
और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे .
बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाले कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर 1946 में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
कश्मीर का असल हीरो- शेख अब्दुल्ला
ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर 21 अक्टूबर1947 के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ,ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने फरमाया था कि , ” कश्मीर मेरी जेब में है.”
कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है , पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है. इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत , वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा . कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरब, इरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे , वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं.उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है. और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता.
अकबर के दौर का कश्मीर
कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने 1568 में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब 361 साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर 1947 में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे.
शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोड़ो का नारा दिया.इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैर ख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोड़ो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे.
लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू.1 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देश द्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अद्बुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . उन्होंने इन् बातों की कोई परवाह नहीं की. कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके. कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली. शेख ने अपनी आत्म कथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गये .
क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन 26 अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा ‘” गेट आउट ” बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया. इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे 27 अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा
कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर 1947 वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे , शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन1953 के बाद यह हालात भी बदल गए. बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा .
इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयी, और शेख अब्दुल्ला को 9 अगस्त 1953 के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता था, ने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दी थी.6 अप्रैल 1964 को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले 8 अगस्त 1953 तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और 27 मई 1964 के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थे, जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे.
नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,वहां संविधान की धारा 356 और357 लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई.
कश्मीर के सन्दर्भ में आज़ादी का मतलब भी भारत में विलय ही था . यह देश का दुर्भाग्य है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे नेता आये जिन्होंने मामले को खराब करने में योगदान किया लेकिन हालात इतने भी खराब नहीं हैं कि अरुंधती राय जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी अपने को नेहरू के स्तर का चिन्तक बताने का दुस्साहस करें.

Monday, May 27, 2013

सामंती समाज के परिवर्तन के संक्रमण के दौर में हुई थी मेरी शादी




शेष नारायण सिंह

३९ साल पहले मेरे पिताजी एक बारात लेकर जौनपुर जिले के टिकरी कलां गाँव के ठाकुर फ़तेह बहादुर सिंह के दरवाज़े गए थे और मेरी शादी हो गयी थी. जब मेरी शादी हुई तो  मैं कादीपुर के डिग्री कालेज में लेक्चरर था. अगले दिन हम अपने गाँव चले आये थे. मेरी माँ ने बताया था कि दुलहिन बहुत खूबसूरत है , बहुत गुनी है इसलिए मुझे उसको मानना जानना चाहिए . और साहेब हमने मानना जानना  शुरू  कर दिया . आज उनतालीस साल बाद लगता है कि माँ ने ठीक कहा था. क्योंकि बाद में गाँव वालों ने भी बताया कि कोटे की दुलहिन सबसे नीक है , या कि इतनी खूबसूरत दुलहिन साढ़े चारौ में कभी नहीं आयी . कोट का मतलब अवध में मामूली ज़मीन्दार का घर होता था यह कोर्ट का बिगड़ा हुआ रूप है . ज़मींदारी के ज़माने में इसी  दरवाज़े पर शायद गाँव या आस पास के गाँवों के लोगों के फैसले होते रहे होंगे . साढ़े चारौ का  मतलब यह है १८५८ में जिन दुनियापति सिंह को मकसूदन की जमीन्दारी अंग्रेजों की कृपा से मिली थी ,उनके चार बेटे थे. उनके जाने के बाद उनके तीन बेटों को ज़मीन में जो हिस्सा मिला होगा उन तीनों के बड़े भाई को हरेक भाई के हिस्से का डेढ़ गुना मिला होगा . इस तरह से साढ़े चार हिस्से  हो गए.
शादी के पहले मेरे गुरु डॉ अरुण कुमार सिंह ने कहा था कि फालिंग इन लव शादी के बाद भी हो सकता है जो जब मैंने अपने पिता जी से शादी के लिए हाँ कहा था तो मैंने फैसला कर लिया था कि शादी के बाद अपनी पत्नी से मुहब्बत तो करना ही है . आज मैं उनसे जो तीन बच्चों की माँ, चार बच्चों की  बड़ी अम्मा, सात बच्चों की मामी,एक बच्चे की नानी और एक बच्चे की दादी हैं , फुल मुहब्बत करता हूँ .
मुराद यह है कि कि सामंती सोच के हर पैमाने पर मेरी शादी सही बैठती है . मैं अपनी पत्नी की शकल देखने में शादी के अगले दिन कामयाब हुआ क्योंकि जब दुलहिन घर आयी तो मेरी छोटी बहिन ने  घूंघट उठा कर दिखा दिया था. मैंने अपनी माँ की आज्ञा मानकर अपनी पत्नी को मानना जानना शुरू कर दिया था .यानी माताजी के हुक्म से प्यार करना शुरू किया था . इस सामंती सोच से निकल कर हम दोनों आज बहुत ही आधुनिक बच्चों के माता पिता कहे जाते हैं . मेरी पत्नी ने बहुत शुरू में मुझे बता दिया था कि हम जो हैं वह तो हैं ही अब हमें अपने सपनों को बच्चों की  बुलंदी में देखना चाहिए . यह बात उन्होंने शादी के दिन नहीं कही थी , जब  हमारा बेटा पैदा हो गया था  तब यह बात  हुई थी. १९८० के बाद से हम दिल्ली में रहने लगे थे , उसके बाद हमें अपनी शादी की सालगिरह याद दिलाई जाती  रही. जहां तक मुझे याद है कि  तब से आज तक शादी की हर वर्ष गाँठ पर मैंने अपनी पत्नी को कोई न कोई उपहार ज़रूर दिया है . किसी साल बड़ी बेटी के लिए उसकी पसंद का फ्राक , किसी साल छोटी बेटी के लिए  उसके पसंद का पेन्सिल बाक्स , और किसी साल इन दोनों लड़कियों के बड़े भाई के लिए साइकिल . किसी साल घर के  लिए कोई बर्तनों का सेट तो किसी साल घर के लिए इन्वर्टर . किसी साल घर के लिए एसी . ज़रूरी नहीं कि यह सारे सामान शादी की सालगिरह के दिन ही  खरीद लिए जाएँ , २७ मई को तो बस वादा किया जाता था . बाद में किसी दिन जब पैसा होता था, सामान खरीद लिया जाता था.
बाद  के वर्षों में बातें आसान  होती गयीं और अब जब सारे बच्चे  अपने घरों में हैं अपनी गृहस्थी चला रहे हैं तो समस्या होने लगी है . अब मुझे २७ मई को अपनी पत्नी के लिए ऐसा गिफ्ट खरीदना है जो केवल उनके इस्तेमाल के लिए हो . हमारे सबसे प्रिय मित्रों ने ऐसी सलाह दी है लेकिन अजीब लग रहा है क्योंकि हमने कभी अपने लिए कुछ किया ही नहीं है . हमारी दुनिया बच्चों की खुशी के बाहर देखी ही नहीं गयी है . इस साल से मैं कोशिश शुरू कर रहा हूँ कि अपनी पत्नी को अपनी प्रेमिका मानना शुरू करूं. लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि गिफ्ट क्या  दूं. एक मित्र ने कहा है कि फूल दे दूं . इंदु को लगता है कि इस गर्मी में फूल खरीदना बेवकूफी की बात है .इसलिए अभी आइडियाज़ पर काम चल रहा है . हो सकता है कि शाम तक फिर कोई घर गृहस्थी के सामान पर ही जाकर रुक जाय क्योंकि  हमारे घर में जितनी भी शहरी जीवन में इस्तेमाल होने वाली चीज़ें हैं वे हमारी शादी की साल गिरह के दिन  ही खरीदी गयी हैं . मेरी बड़ी बेटी ने २७ मई शुरू होते ही रात १२ बजकर एक मिनट पर हमें बधाई दे दी है. हम लोगों की इच्छा है कि जब हमारी शादी के चालीस साल पूरे हों तो हमारे तीनों बच्चे और उनके बच्चे  इकठ्ठा हों और हमें वे ही बताएं कि मेरी माता जी ने १९७४ में मुझे जो बताया था वह कितना सही था यानी  उनकी अम्मा ,दादी या नानी कितनी अच्छी हैं . लेकिन लगता है कि यह सपना पूरा नहीं हो पायेगा क्योंकि कोई मुंबई में है , कोई नार्वे में और कोई दिल्ली में .सब का इकठ्ठा होना बहुत आसान नहीं है .लेकिन सपने देखने में क्या बुराई है . आज हमारे बच्चे जो भी हासिल कर सके हैं उसमें उनकी माँ और मेरी प्रियतमा के वे सपने हैं जो उन्होंने तब देखे थे जब यह भी नहीं पक्का रहता था कि अगले दिन भोजन कहाँ से आएगा.
मेरी माँ की इच्छा थी कि उनकी बड़ी पुत्रवधू उनका सारा चार्ज ले ले . सो उनकी दुलहिन ने चार्ज ले लिया . और मैं पूरी ज़िंदगी के लिए उनकी बहू की खिदमत में तैनात कर दिया गया .उनके चार्ज लेने के बाद से मेरी तबियत हमेशा झन्न रही .मेरी बहनें ,मेरे भाई ,मेरे भांजे , भांजियां सब उनको ही जानते हैं . मेरी भूमिका केवल उस आदमी की है जो कोटे की दुलहिन का पति है  राजन. लालन ,निशा ,प्रतिमा ,डब्बू की मामी का फरमाबरदार है, बिट्टू, राहुल, पिंकी और उज्जवल की बड़ी अम्मा से डरता है , पप्पू, गुड्डी और टीनी की अम्मा का पति है और जिसके ऊपर सूबेदार सिंह अपनी भौजी के मार्फत दबाव डलवाकर कुछ भी करवा सकते हैं . बहरहाल  आज हमारी शादी की साल गिरह है इस अवसर पर अपने खानदान वालों की सामंती सोच पर ज्यादा चर्चा करना ठीक नहीं होगा. बस मैं खुश हूँ कि मेरी पत्नी आज बहुत खुश हैं


छत्तीसगढ़ का माओवादी हमला लोकतंत्र पर हमला है

शेष नारायण सिंह
बस्तर में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के काफिले पर हुए माओवादी हमले की चारों तराफ से निंदा हो रही है . कांग्रेस तो इस हमले का पीड़ित पक्ष है और बीजेपी पहली बार किसी बर्बरतापूर्ण हमले को राजनीतिक रंग देने की कोशिश न करने की अपील करती नज़र आ रही है .बीजेपी में हडकंप है और घबडाहट का आलम यह है कि उनकी महत्वाकांक्षी जेलभरो योजना स्थगित कर दी गयी . बीजेपी के गंभीर नेता माओवादी हमले को आतंकवादी कार्रवाई बता रहे हैं और उस से राजनीतिक स्तर पर निपटने की चर्चा हो रही है . बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने माओवादी आतंकवाद का राजनीतिक हल तलाशने की कोशिश शुरू कर दिया है .
जहां तक माओवादियों को कम्युनिस्ट कहने की बात है उसका हर स्तर पर खंडन हो चुका है और सबको मालूम है कि कि माओवादी केवल आतंकवादी हैं , और कुछ नहीं . देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी छत्तीसगढ़ में हुए माओवादी हमले की निन्दा की है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक बयान जारी किया है जिसमें कहा गया है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए बर्बरतापूर्ण हमले की निंदा की है .पार्टी ने कहा है कि इस हमले के बाद छत्तीसगढ़ के कांग्रेस अध्यक्ष सहित  और भी कई नेता और कार्यकर्ता मारे गए हैं . इस बर्बरतापूर्ण घटना ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ माओवादी किस तरह से आतंक से परिपूर्ण हिंसक आचरण करते हैं.पार्टी ने छत्तीसगढ़  सरकार के गैरजिम्मेदार रुख का ज़िक्र किया है और कहा है सरकार ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में सुरक्षा के ज़रूरी क़दम नहीं उठाये . छत्तीसगढ़ सरकार ने माओवादियों से लड़ने के नाम पर निर्दोष आदिवासियों की हत्या करवाई और जब माओवादियों का मुकाबला कारने की बात आयी तो अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया .
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( एम-एल ) ने भी माओवादियों के हमले की निंदा की है और उनके काम को एक दिग्भ्रमित राजनीति का नतीजा बताया है . लेफ्ट फ्रंट की अन्य पार्टियों ने भी इस हमले की निंदा की है . ज़ाहिर है छत्तीसगढ़ सहित कई अन्य राज्यों में आतंक के ज़रिये राजनीति कर रहे माओवादी किसी भी तरह से कम्युनिस्ट नहीं हैं और उनकी सभी राजनीतिक पार्टियों की तरफ से निंदा की जा रही है . ऐसी स्थिति में अति दक्षिणपंथी ताक़तों की उस कोशिश को भी  नाकाम किया जाना चाहिए इसमें नरेंद्र मोदी जैसे लोग माओवादियों को  कम्युनिस्ट बताकर देश के लोकतांत्रिक वामपंथी आंदोलन को तबाह करने की योजना पर काम शुरू कर चुके हैं . देश में सही राजनीतिक परंपरा को विकसित करने के उद्देश्य से इन लोगों की अराजकतावादी राजनीति को रोका जाना चाहिए .
कांग्रेस के युवा संगठनों के नेता बीजेपी की छत्तीसगढ़ सरकार को बरखास्त कारने की मांग शुरू कर चुके हैं . छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अजीत जोगी भी रमण सिंह सरकार क बर्खास्त करने की मांग कर चुके हैं . लेकिन सबको मालूम है कि किसी राज्य सरकार को बर्खास्त करके इतनी खतरनाक और बराबर समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता .रायपुर की शोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन  सिंह ने भी राजनीतिक अडवेंचर की भावना को कोई महत्व नहीं दिया . प्रधानमंत्री के साथ रायपुर से लौटकर केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश  ने पत्रकारों से बताया कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों का हमला लोकतंत्र को कमज़ोर करने की साजिश का नतीजा है .उन्होंने कहा कि आतंक का सहारा लेकर माओवादी लोकतंत्र को कमज़ोर करना चाहते हैं क्योंकि अगर खुले आम चुनाव प्रचार करने पर आतंक का साया पड़ जाएगा तो किसी भी हालत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं चल सकती. इस बीच छत्तीसगढ़ एक मुख्यमंत्री रमन सिंह ने आत्नकवादी हमले की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग के गठन की घोषणा कर दी है .

Saturday, May 25, 2013

इस्लामी देशों में धार्मिक असहिष्णुता सबसे ज्यादा




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली , 2४ मई .अमरीका ने २०१२ की इंटरनैशनल रिलीजस फ्रीडम रिपोर्ट जारी कर दिया है . पूरी दुनिया में धार्मिक स्वतन्त्रता  पर होने वाले हमलों के रिकार्ड के रूप में अपनी पहचान बना चुकी यह रिपोर्ट सभी देशों के नीति नियामकों के बीच चर्चा का विषय हर साल बनती है , इस साल भी बन रही है . इसी हफ्ते अमरीकी विदेश मंत्री  जान केरी ने रिपोर्ट को जारी किया और उन्होंने जो बातें कहीं उनमें प्रमुख यह है की पश्चिमी देशों में इस्लाम के खिलाफ माहौल बन रहा है . अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुए हमलों  के बाद पश्चिम में मुसलमानों के प्रति व्यवहार में भारी बदलाव आया है . अल कायदा ने मुसलमानों को सर्वोच्च साबित करने के चक्कर में आतंक का सहारा लिया और इस्लामी देशों सहित बाकी दुनिया में आतंक का  माहौल बनाया . माना जाता है कि  मुसलमानों के खिलाफ पूरी दुनिया में बन रहे माहौल का  सबसे बड़ा कारण निर्दोष लोगों पर अल कायदा और उसके सहयोगियों द्वारा किये जा रहे आतंकी हमले ही हैं .रिपोर्ट में बताया गया है की ज़्यादातर पश्चिमी देशों में  मुसलमानों के प्रति सहानुभूति  बहुत तेज़ी से घट रही है .यह भी प्रमुखता से बताया गया है कि  इस्लामी देशों  में धामिक नफरत बहुत ज़्यादा है . वहां धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ तरह तरह के अन्याय हो रहे हैं और सरकारें उन अत्याचारों में या तो शामिल हैं और अगर नहीं शामिल हैं तो बढ़ावा दे रही हैं . 
रिपोर्ट में पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमानों के ऊपर हो रहे अत्याचार का भी विस्तार से उल्लेख किया गया है .अहमदिया मुसलमान अपने को इस्लाम का अनुयायी मानते हैं लेकिन कई इस्लामी देशों में उन्हें अपने धर्म  का पालन करने की अनुमति नहीं है .साउदी  अरब ,पाकिस्तान और इंडोनेशिया में अहमदिया सम्प्रदाय के लोगों को परेशान किया जाता है , उन्हें गिरफ्तार किया जाता है और उनके साथ भेदभाव किया जाता है .साउदी अरब में जो  मुसलमान सरकार की तरफ से दी जाने वाली सुन्नी मुसलमान के परिभाषा से सहमत नहीं होते उनके साथ हर तरह का भेदभाव किया जाता है . जिन देशों में सुन्नी मत मानने वालों के हाथ में सत्ता है वहां शिया मुसलामानों की हालत बहुत खराब है . रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान में शिया मुसलमानों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है . एक जानकार का कहना है कि अगर ईरान और इराक में शिया राज न  होता तो शायद पाकिस्तानी शियाओं  को भी उन्हीं परेशानियों का सामना करना पड़ता जो अहमदियों को झेलना पड़  रहा है . बहरीन में शिया मुसलमानों  के खिलाफ भेदभाव की नीति लागू है . उन्हें प्रताड़ना दी जाती है . बहरीन सरकार ने ३१ शियाओं और उनके तीन धर्मगुरुओं की  नागरिकता समाप्त कर दी और उन्हें तरह तरह से परेशान  किया . पाकिस्तान में एक ऐसा कानून बना दिया गया है जिसके अनुसार अगर किसी अहमदिया मुसलमान ने अपने आपको मुसलमान कहकर परिचय दे दिया तो उसे तीन साल की सज़ा हो सकती है .इस पाकिस्तानी क़ानून के अनुसार वोट देने के लिए वहां लोगों को राष्ट्रीय पहचानपत्र बनवाना पड़ता है .मुसलामानों को  इस पहचान पत्र को बनवाने के लिए एक हलफनामा देना पड़ता है जिसमें लिखा होता है कि  वह व्यक्ति हज़रत मुहम्मद को आखिरी पैगम्बर मानता है  और वह अहमदी मुसलमानों के आन्दोलन के संस्थापक को फर्जी पैगम्बर मानता है .इस प्रावधान के कारण अहमदिया मुसलमानों को पाकिस्तान में वोट देने का अधिकार नहीं मिला हुआ है क्योंकि वे अपने संस्थापक को फर्जी बताने वाले हलफनामे पर दस्तखत करने को तैयार नहीं होते .
शिया बहुमत वाले इरान में सुन्नी मत को मानने वालों के साथ वही व्यव्हार किया जाता है जो सुन्नी बहुमत वाले देशों में शिया मुसलमानों के साथ होता है .ईरान में बहाई, सुन्नी,जिसमें सूफी भी शामिल हैं , ईसाई ,यहूदी यहाँ तक कि वे शिया जो शिया मत  की सरकारी व्याख्या से नहीं सहमत होते ,धार्मिक उत्पीडन के शिकार होते हैं .ईसाई धर्मगुरु, बेह्नाम इरानी और फर्शीद फतही  को अपनी धार्मिक विचारधारा के कारण कई साल जेलों में रहना पडा था.  पाकिस्तान में ईशनिंदा क़ानून का इस्तेमाल सरकारी अधिकारी निजी दुश्मनियाँ निकालने के लिए भी करते  हैं .पाकिस्तान में सरकार भी बहुत बड़े पैमाने पर धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा देती है . वहां ईशनिंदा कानून और अहमदिया विरोधी क़ानून सरकार के हाथ में ऐसे हथियार हैं जिनके कारण पाकिस्तान में सूफी,हिन्दू, ईसाई,अहमदिया मुसलमान और शिया मुसलामानों को परेशान किया जाता है .

रिलायंस को लाभ पंहुचाने के लिए वीरप्पा मोइली गैस की कीमत बढ़ाएगें




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, २४ मई . पेट्रोलियम  और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने प्राकृतिक  गैस की कीमत बढाने का मन बना लिया है . मंत्रालय के सेक्रेटरी सहित सभी अधिकारी इस वृद्धि के पक्ष में नहीं है लेकिन पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली सारे विरोध को नज़रंदाज़ करके गैस का दाम बढाने के बारे में  कटिबद्ध हैं . कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और  संसद सदस्य गुरुदास दासगुप्ता ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर हस्तक्षेप की मांग की है और कहा है कि देश को इस संभावित घोटाले से बचा लिया जाये. गुरुदास दासगुप्ता ने आरोप लगाया है की गैस की कीमतों में प्रस्तावित इस वृद्धि से मुकेश  अम्बानी के रिलायंस ग्रुप को ही लाभ होगा . गुरुदास दासगुप्ता ने इसे देश की संपत्ति की लूट बताया है और कहा कि अगर वीरप्पा मोइली अपनी जनविरोधी  नीतियों  को लागू करने पर आमादा रहते हैं तो उन्हें हटा दिया जाना चाहिए . वीरप्पा मोइली भी रिलायंस के आतंक से दहशत में बताये जा रहे हैं क्योंकि रिलायंस के फायदे के लिए काम न करने की जिद पर अड़ चुके जयपाल रेड्डी पिछले दिनों पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाये जा चुके हैं . 


अभी प्राकृतिक गैस की कीमत 4.२ डालर प्रति एम बी टी यू की फिक्स  का गयी है जो  ३१ मार्च २०१४ तक जारी रहेगी। पेट्रोलियम मंत्रालय ने एक कैबिनेट नोट के ज़रिये संशोधित मूल्य ६.७ डालर प्रति एम बी टी यू तय करने की सिफारिश की है .एम बी टी यू गैस के माप की यूनिट है और एक हज़ार  क्यूबिक फीट की ऊर्जा वाली गैस को एक एम बी टी यू  के बराबर माना जाता है . अगर यह कीमतें लागू हो जाती हैं तो सरकारी कंपनियों को यो तुरंत लाभ होगा लेकिन रिलायंस को इंतज़ार करना पडेगा क्योंकि उसे यह लाभ अप्रैल २०१४ से मिलना शुरू होगा. वित्त , उर्वरक और विद्युत् मंत्रालय के अफसर इस वृद्धि का विरोध कर रहे हैं क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो मंहगाई के मार झेल रही देश की जनता के सामने मंहगाई का  पहाड़ खड़ा हो जाएगा क्योंकि उसके बाद  रासायनिक  खाद, बिजली और बिजली से पैदा होने वाली हर चीज़ की कीमत बढ़ जायेगी  जो आम आदमी के ऊपर तो भारी बोझ होगा ही लेकिन सरकार के लिए भी इसे राजनीतिक रूप से संभाल पाना बहुत ही मुश्किल हो जाएगा .


गुरुदास दासगुप्ता ने आरोप लगाया है कि हर मंत्रालय से आ रहे विरोध के बावजूद वीरप्पा मोइली इस बढ़ोतरी को लागू करने पर आमादा  हैं . कैबिनेट नोट से भी आगे जाकर वे गैस की कीमतों में वृद्धि इस तरह से करना चाहते हैं कि रिलायंस को लगातार लाभ मिलता रहे . उन्होंने सुझाव दिया है कि गैस की कीमतें मौजूदा ४.२ डालर प्रति एम बी टी यू  से बढ़ाकर  ८ डालर प्रति एम बी टी यू  कर दिया जाए,  लेकिन यह कीमत  केवल एक साल तक वैध रहेगी , दूसरे  साल मोइली साहब यह कीमतें १० डालर प्रति एम बी टी यू  , तीसरे साल १२ डालर प्रति एम बी टी यू  और चौथे और पांचवें साल १४ डालर प्रति एम बी टी यू  करना चाहते हैं .पेट्रोलियम सचिव और अन्य अधिकारियों ने मंत्री  की मनमानी और तर्कहीन वृद्धि के प्रस्ताव का विरोध किया है . वीरपा मोइली  उन अफसरों  पर दबाव डाल रहे हैं कि वे उस फ़ाइल पर दस्तखत कर दें  जिसमें उनकी मूल्यवृद्धि की सिफारिशें लिखी हुयी हैं . अगर वीरप्पा मोइली की बात मान ली गयी तो ७६००० हज़ार करोड़ रूपये की फालतू सब्सिडी सरकारी खजाने पर पड़ेगी और उसका लाभ  सबसे ज़्यादा रिलायंस को ही मिलेगा .

दिग्विजय सिंह के नाम से कुछ लोगों को गुस्सा क्यों आता है .?



शेष नारायण सिंह

 कर्नाटक में बीजेपी की हार के बाद उस हार के कारणों का विश्लेषण अब एक
कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है . एक नए विश्लेषक भी मैदान में हैं .
शिवसेना के सांसद संजय राउत ने हार के कारणों में हिंदुत्व से दूरी को
बताया है .अपनी पार्टी के अखबार सामना के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा है
कि अगर बीजेपी ने हिंदुत्व को फोकस में रखा होता तो कर्नाटक में इतनी
बड़ी हार न होती. संजय राउत ने मोदी को भी हिंदुत्व से अलग होने पर खरी
खोटी सुनायी है और कहते हैं अगर मोदी ने हिंदुत्व का सम्मान नहीं किया तो
उनमें और दिग्विजय सिंह कोई फर्क नहीं रहेगा . बीजेपी के नेता भी
दिग्विजय सिंह का नाम आते ही इस तरह से बिफर पड़ते हों जैसे उन्हें लाल
अंगोछा दिखा दिया गया हो .किसी भी विषय पर दिग्विजय सिंह की राय को
बीजेपी वाले खारिज करने में एक मिनट नहीं लगाते . मीडिया में भी एक बड़ा
वर्ग ऐसे पत्रकारों का है जो दिग्विजय सिंह को बहुत ही अछूत टाइप मानते
हैं .  अन्ना हजारे, रामदेव और अरविन्द केजरीवाल के समर्थकों  में ऐसे
लोगों की बड़ी संख्या है जो दिग्विजय सिंह का नाम आते ही गुस्से में आ
जाते हैं और कुछ तो यह  कहते सुने गए हैं वे दिग्विजय सिंह की बातों को
गंभीरता से नहीं लेते . कांग्रेस में बड़े नेताओं का एक ताक़तवर वर्ग
दिग्विजय सिंह के किसी बयान के बाद उस बयान से अपनी दूरी बनाने के लिए
व्याकुल हो जाता है . सोशल मीडिया में भी दिग्विजय सिंह को गाली देने
वालो का एक बहुत बड़ा वर्ग है . जानकार बताते हैं वह वर्ग भी हिंदुत्ववादी
ताक़तों ने ही बनाया है .कुल मिलाकर ऐसा माहौल बन गया है कि हिंदुत्ववादी
साम्प्रदायिक पार्टियों में किसी को दिग्विजय कह देना बहुत अपमान जनक
माना जा रहा है .

सवाल यह उठता  है कि दिग्विजय सिंह के खिलाफ इस तरह का माहौल क्यों है ?
इस सवाल का जवाब उनसे ही लेने की कोशिश की गयी लेकिन उन्होंने कोई जवाब
देने से साफ़ मना कर दिया और कहा कि उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही है
जिसके कारण उनके खिलाफ इस तरह का माहौल बनाया जाए . वे अपनी पार्टी की
बात करते हैं उसके सिद्धांतों की बात करते हैं और पार्टी में उनका कोई
विरोध नहीं है . उनकी पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों में सभी धर्मों
संप्रदायों और जातियों को साथ लेकर चलने की बात कही गयी है इसलिए अगर कोई
भी व्यक्ति किसी भी भारतीय को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश
करेगा तो उसका विरोध किया जाएगा और उसकी राजनीतिक सोच को बेनकाब किया
जाएगा .

 मीडिया के बड़े वर्ग और दक्षिणपंथी पार्टियों के  तीखे रुख के बावजूद
दिग्विजय सिंह की पार्टी में उनकी ताक़त किसी से कम नहीं .पार्टी के
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का उन्हें पूरा संरक्षण मिला हुआ है .इसलिए यह बात
साफ़ है कि बीजेपी , शिवसेना और उनके मुरीद चाहे जो कहें कांग्रेस पार्टी
दिग्विजय सिंह को एक महत्वपूर्ण नेता मानती है और उनकी बातों का सम्मान
किया जाता है . ज़ाहिर है कांग्रेस को उनके बयानों और राजनीति से कोई
नुक्सान नहीं हो रहा है और पार्टी उनकी राजनीतिक सोच को आगे बढाने को
तैयार है . दिग्विजय सिंह के विरोधी भी मानते हैं  कि वे धर्मनिरपेक्षता
की राजनीति को आगे बढाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं . और जब उस
राजनीति से पार्टी का कोई नुक्सान नहीं हो रहा हो तो उनकी पार्टी को क्या
एतराज़ हो सकता है . इस बारीकी को समझने के लिए कांग्रेस के समकालीन
इतिहास पर नज़र डालनी पड़ेगी. महात्मा गांधी, सरदार पटेल , मौलाना आज़ाद और
जवाहरलाल नेहरू आज़ादी के पहले और उसके बाद के  सबसे बड़े नेता थे .
उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में बता दिया था कि धर्मनिरपेक्षता इस
राष्ट्र की स्थापना और संचालन का बुनियादी आधार रहेगा . देखा गया है कि
जवाहरलाल नेहरू के जाने के  बाद कांग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की
राजनीति को  कमज़ोर किया उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा .

सबसे पहले इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह को छोड़ने
की कोशिश की . विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में बंद थे और ऐसा लगता था
कि बाहर  निकलना असंभव था . आर एस एस वाले भी बंद थे . उस वक़्त के आर एस
एस के मुखिया बालासाहेब  देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को
कई पत्र लिखे और कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का भरोसा दिया . १०
नवंबर 1975 को येरवदा जेल से लिखे एक पत्र में बालासाहेब देवरस ने इंदिरा
गांधी को बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय बेंच ने उनके
रायबरेली वाले चुनाव को वैध ठहराया है.  इसके पहले 22 अगस्त 1975 को लिखे
एक अन्य पत्र में आर एस एस प्रमुख ने लिखा कि ''मैंने आपके 15 अगस्त के
भाषण को काफी ध्यान से सुना। आपका भाषण आजकल के हालात के उपयुक्त था और
संतुलित था।'' इसी पत्र में उन्होने इंदिरा गांधी को भरोसा दिलाया था कि
संघ के कार्यकर्ता पूरे देश में फैले हुए हैं जो निस्वार्थ रूप से काम
करते हैं। वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेगें
. इस सब के बावजूद भी इंदिरा गांधी के रुख में तो कोई बदलाव नहीं हुआ
लेकिन उनके बेटे संजय गांधी ने मुसलमानों के विरोध का रवैया अपनाया .
अपने खास अफसरों को लगाकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की और कोशिश
की कि देश के बहुसंख्यक हिंदू  उनको मुस्लिमविरोधी के रूप में स्वीकार कर
लें . यह वह कालखंड है जब कांग्रेस ने पहली बार साफ्ट हिंदुत्व को अपनी
राजनीति का आधार बनाने की कोशिश की थी. कांग्रेस की १९७७ की हार में अन्य
कारणों के अलावा इस बात का महत्त्व सबसे ज्यादा था .हार के बाद  इंदिरा
गांधी ने फिर धर्मनिरपेक्षता की बात शुरू कर दी और उनको हराने वाली जनता
पार्टी में  फूट डाल दी . उन्होंने देश को बताना शुरू कर दिया कि जनता
पार्टी वास्तव में आर एस एस की पार्टी है उसमें समाजवादी तो बहुत कम
संख्या में हैं . जनता पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी विचारक मधु लिमये
ने भी साफ़ ऐलान कर दिया कि आर एस एस वास्तव में एक राजनीतिक पार्टी है और
उसके सदस्य जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते . कई महीने चली बहस के बाद
जनता पार्टी टूट गयी और १९८० में कांग्रेस पार्टी दुबारा सत्ता में आ गयी
.

दोहरी सदस्यता के बारे में लाल कृष्ण आडवानी ने अपने ब्लॉग में लिखा है
कि ” मुख्य रूप से 'दोहरी सदस्यता' का विचार मधु लिमये की मानसिक उपज था,
जिसका लक्ष्य था जनता पार्टी के उन सदस्यों को कमजोर करना, जो पहले जनसंघ
का हिस्सा थे और लगातार संघ से जुड़े हुए थे। जब जनता पार्टी को बने एक
वर्ष भी नहीं हुआ था तब लिमये, जो पार्टी के महासचिव थे, ने इस बात पर
जोर दिया कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य साथ-ही-साथ संघ का भी सदस्य
नहीं हो सकता” उन्होंने कांग्रेस की जीत का भी अपने तरीके से ज़िक्र किया
है .लिखते हैं कि “ वर्ष 1980 के संसदीय चुनावों में जनता पार्टी की हार
का अनुमान मुझे पहले से ही था। यह हार अत्यंत गंभीर थी। इसने दर्शाया कि
मतदाता 1977 के जनादेश के साथ विश्वासघात करने के लिए पार्टी को दंड देना
चाहते थे। 1977 में 298 सीटों की तुलना में पार्टी को मात्र 31 सीटें
प्राप्त हुईं। इसमें जनसंघ की सीटें 1977 में 93 की तुलना में मात्र 16
थीं। दूसरी ओर इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस (आई) शानदार तरीके
से वापस लौटी और 1977 के 153 सांसदों की तुलना में 1980 में उसके 351
सांसद विजयी रहे, जो कि 542 सदस्यीय सदन में लगभग दो-तिहाई बहुमत था।“

दूसरी बार कांग्रेस ने साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को अपनाने का कार्य
बाबरी मसजिद के लिए चलाये गए आर एस एस के आंदोलन के दौरान किया जब राजीव
गांधी मंत्रिमंडल में गृहमंत्री , सरदार बूटा सिंह  ने जाकर अयोध्या में
बाबरी मसजिद के पास एक मंदिर का शिलान्यास करवा दिया . काँग्रेस पार्टी
उसके बाद हुए १९८९ के चुनावों में हार गयी . १९९१ में पी वी नरसिम्हाराव
ने जुगाड करके एक सरकार बनायी .कांग्रेस की इसी सरकार के काल में बाबरी
मसजिद का विध्वंस हुआ और उसके बाद हुए चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी.
उसके बाद कांग्रेस पार्टी इतिहास का विषय बनने की तरफ बढ़ रही थी लेकिन
१९९७ के कोलकता कांग्रेस में सोनिया गांधी ने पार्टी की सदस्यता ली और
१९९८ में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं. उस वक़्त कांग्रेस की हालत बहुत खराब थी
. लेकिन सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्षता की राह
से भटक गयी थी अब वे हमेशा उसी धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलती रहेगीं
.सिद्धांतों को फिर से संभाल लेने का ही नतीजा है कि कांग्रेस ने अपनी
पुरानी हैसियत को पाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया और २००४ में
केन्द्र सरकार पर कांग्रेस का दुबारा कब्ज़ा हो गया . मुख्य विपक्षी दल तब
से लगातार सिमट रहा है .बीजेपी की सरकारें कई राज्यों में बन गयी थीं जो
अब धीरे धीरे विदा हो रही हैं . राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इसका कारण
कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष नीतियां हैं .



दिग्विजय सिंह कांग्रेस की इसी आक्रामक धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ा रहे
हैं .ज़ाहिर है धर्मनिरपेक्ष राजनीति से बीजेपी को चुनावी नुक्सान हो रहा
है और उसके नेता जब भी मौक़ा मिलता है ,दिग्विजय सिंह के खिलाफ अभियान
चलाने का अवसर नहीं चूकते . बीजेपी के समर्थक भी दिग्विजय सिंह को बहुत
ही घटिया इंसान के रूप में पेश करने में संकोच नहीं करते .रामदेव जैसे
लोगों के अलावा मीडिया में मौजूद बीजेपी के सहयोगी भी दिग्विजय सिंह के
हर बयान  को अपनी सुविधानुसार  पेश करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आज
दिग्विजय सिंह साम्प्रदायिक ताक़तों को चुनौती देने की राजनीति के विशेषण
बन चुके हैं और उनकी पार्टी में उनको पूरा सम्मान मिल रहा है ..