Tuesday, July 6, 2010

छत्रपति साहूजी और ज्योतिबा फुले से बड़ा कोई कांग्रेसी नहीं है.

शेष नारायण सिंह

अमेठी संसदीय क्षेत्र के इलाके को एक जिले में तब्दील कर दिया गया है. वास्तव में रायबरेली और सुलतानपुर जिले के कुछ इलाकों को मिला कर इस चुनावक्षेत्र का गठन किया गया था. आजादी के बाद यह इलाका बहुत ही उपेक्षित रहा. जब कि वी आई पी लोगों के चुनाव क्षेत्रों से घिरा हुआ था . इस इलाके में विकास नाम की कोई चीज़ नहीं थी इसलिए लोग इसे कोई मह्त्व नहीं देते थे. पड़ोसी संसदीय क्षेत्रों सुलतान पुर से डॉ केसकर और गोविन्द मालवीय चुने जाते थे, जबकि रायबरेली, फ़िरोज़ गाँधी और इंदिरा गाँधी का क्षेत्र था प्रतापगढ़ से दिनेश सिंह जीतते थे . लेकिन अमेठी से कोई मामूली नेता ही लड़ता रहा. लेकिन १९७५ में इमरजेंसी लगने के बाद जब संजय गाँधी ने रायबरेली के पड़ोसी इस उपेक्षित इलाके को अपना क्षेत्र बनाने का फैसला किया तो इस इलाके के दिन बदल गए. १९७७ के चुनाव में तो संजय गाँधी हार गए लेकिन १९८० से आज तक यह इंदिरा जी के बच्चों का ही क्षेत्र बना हुआ है . बीच में बड़े बड़े सूरमा यहाँ से चुनाव लड़ने गए लेकिन हारकर लौटे . राजमोहन गाँधी और शरद यादव भी यहाँ चुनाव हार चुके हैं . आमतौर पर माना जाता है कि अमेठी में कांग्रेस को हरा पाना मुश्किल ही नहीं ,नामुमकिन है .. ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए कांग्रेस ने अमेठी में बहुत पैसा लगाया है . १९८० से लेकर अब तक अमेठी में सरकारी खजाने से हज़ारों करोड़ रूपया लग चुका है . पिछले ३० वर्षों में यहाँ कारोबार करने आये उद्योगपति , हज़ारों करोड़ का गबन कर चुके हैं . सम्राट साइकिल और मालविका स्टील वालों ने बड़ी रक़म सरकारी बैंकों और सरकारी वित्तीय संस्थाओं से ली और लेकर चम्पत हो गए. केंद्र सरकार में बैठे लोगों को खिलाते पिलाते रहे और सब डकार गए. राजीव गाँधी , सोनिया गाँधी ,सतीश शर्मा और राहुल गाँधी के कार्यकर्ताओं में ऐसे हज़ारों लोग मिल जायेगें जिन्होंने अपने नेताओं के आशीर्वाद से करोड़ों की संपत्ति जमा कर ली है .अमेठी संसदीय क्षेत्र में राजनीतिक लोगों की एक फौज तैयार हो गयी है जो लखनऊ, मुंबई और दिल्ली में घूमते रहते हैं और लोगों का काम करवा कर पैसा झटकते रहते हैं . एक और अजीब बात हुई है . राय बरेली और अमेठी को तो सरकारी अमला महत्व देता रहा है लेकिन पड़ोस के सुलतानपुर जिले को सौत के बच्चे की तरह ट्रीट करता है . सुलतान पुर जिले में आठ विधान सभा क्षेत्र हैं . इनमें से तीन अमेठी में पड़ते हैं और बाकी पांच सुलतानपुर संसदीय क्षेत्र में . लेकिन जब सुलतानपुर जिले के लिए केंद्र या राज्य सरकारों से कोई मदद मिलती है तो वह सारी की सारी अमेठी का हक मानी जातीहै . इस तरह सुलतान पुर का दो तिहाई हिस्सा विकास की गति में बहुत पिछड़ गया है .अमेठी को सुलतानपुर से अलग करके मायावती ने सुलतानपुर संसदीय क्षेत्र के लोगों का सम्मान अर्जित किया है . अब उनके जिले के लिए मिलने वाली मदद पर उनका ही हक होगा. जहां तक अमेठी को जिला बनाने की बात है इसका प्रस्ताव एक बार राजीव गाँधी के जीवन काल में भी गंभीरता से उठा था लेकिन उस वक़्त के मुख्य मंत्री वीर बहादुर सिंह ने समझा दिया था कि उस से राजनीतिक नुकसान होगा. बात आई गयी हो गयी थी . अपने पिछले कार्यकाल में मायवती ने जिले के गठन की घोषणा कर दी थी लेकिन मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद उस फैसले को बदल दिया गया. अब हाई कोर्ट के आदेश पर फिर से जिला बना है और उस पर विवाद खड़ा करने की कोशिश की जा रही है .सच्ची बात यह है कि नए जिले के गठन से सबको खुशी है . लेकिन कांग्रेस में सोनिया गाँधी और राहुल गांधी के प्रति अपनी वफादारी का स्वांग करने वाले लोग जुट गए हैं कि जिले के नामकरण को मुद्दा बनाकर विरोध किया जाए. हालांकि उस विषय पर सोनिया गाँधी या राहुल गाँधी से बात करने का मौक़ा नहीं मिला है लेकिन साधारण तरीके से सोचने वाला कोई भी व्यक्ति इस मामले को मुद्दा नहीं बनाना चाहेगा. भक्त कांग्रेसियों की इच्छा है कि इस जिले का नाम राजीव गाँधी के नाम पर रखा जाना चाहिए क्योंकि यह उनकी कर्मस्थली रही है. जहां जिला बना है उसकी हर सड़क पर राजीव गाँधी जा चुके हैं , यहाँ के हज़ारों परिवारों की मदद कर चुके हैं जब कि छत्रपति साहूजी महराज के बारे में इस इलाके में बड़ी संख्या में लोग जानते ही नहीं होंगें. लेकिन इस मामले में कांग्रेस के गंभीर नेताओं ने चुप रहना ही ठीक समझा . वैसे भी अगर एक जिले का नाम राजीव गाँधी के नाम पर नहीं पड़ा तो क्या फर्क पड़ने वाला है .जिस देश में लगभग हर इलाके में राजीव गाँधी के नाम पर कुछ न कुछ बन चुका हो , वहां एक जिले के नामकरण को मुद्दा बनाना ठीक नहीं है . वैसे भी जो पार्टी सरकार में रहती है वह अपने महान लोगों के नाम पर संस्थाएं तो बनाती है . कांग्रेस इस खेलमें सबसे आगे है. जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी , राजीव गाँधी यहाँ तक कि संजय गाँधी के नाम पर भी संस्थाओं के नाम रखे गए हैं . इसलिए कांग्रेस को शिकायत नहीं होनी चाहिए .जहां भी बी जे पी की सरकार है वे लोग भी अपने नेताओं के नाम पर संस्थाओं के नाम रखते हैं . यह अलग बात है कि उनके पास ऐसे बहुत कम हीरो हैं जिन्होंने जीवन में या राष्ट्र निर्माण में बुलंदियां हासिल की हों लेकिन जो भी हैं , उनके नाम पर संस्थाएं बन रही हैं . बी जे पी वाले तो महापुरुषों को अपनाने के मामले में थोडा ज़्यादा ही उत्साही हैं . उनके यहाँ कांग्रेस पार्टी के सदस्य महात्मा गाँधी और सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश हो चुकी है . एक बार तो वे सरदार भगत सिंह को भी अपना बताने लगे थे . जब मालूम पड़ा कि सरदार भगत सिंह तो कम्युनिस्ट थे , तब जाकर उनको बख्शा गया .बी जे पी ने तो खैर वी डी सावरकर को भारत रत्न देने की कोशिश की थी . सही बात यह है कि कांग्रेस के अलावा बाकी पार्टियों में महान नेताओं और आज़ादी की लड़ाई के सेनानियों की किल्लत है . यह संकट मायावती का भी है . वे डॉ अंबेडकर के अलावा किसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को नेता ही नहीं मानतीं . इसलिए ऐतिहासिक महापुरुषों के नाम पर संस्थाओं का नामकरण करती हैं . हालांकि यह भी सच है कि जिन लोगों के नाम पर वे संस्थाएं बना रही हैं वे सही अर्थों में आज के भारत के संस्थापक थे. मायावती ने ज्योति राव फुले के नाम पर कई संस्थाओं का नामकरण किया है , वे बहुत क्रांतिकारी समाज सुधारक थे. आज़ादी की लड़ाई में जिन मूल्यों की स्थापना करने की कोशिश की जा रही थी , महात्मा फुले उसके आदि पुरुष हैं . उन्होंने सवर्ण सत्ता के खिलाफ १८४८ में पूना में दलित लड़कियों के लिए स्कूल शुरू कर दिया था और सज़ा भोगी थी. उनके अपने पिता ने उन्हें इस जुर्म में घर से निकाल दिया था . ज़ाहिर है कांग्रेस में इतना बड़ा त्याग करने वाला कोई नहीं है . छत्रपति साहूजी भी अपने समय के क्रांतिकारी महापुरुष हैं . उनके नाम से किसी भी भारतवासी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए

Monday, July 5, 2010

अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा

शेष नारायण सिंह

मौजूदा सरकार महंगाई को गंभीरता से नहीं ले रही है. जो सरकारें गरीब आदमी की मजबूरियों को दरकिनार करती हैं ,वे चुक जाती हैं . यह गलती पिछले ज़माने में कई सरकारें कर चुकी हैं और नतीजा भोग चुकी हैं . जनता पार्टी १९७७ में सत्ता में आई थी . पार्टी क्या थी ,पूरी शंकर जी की बारात थी. भांति भांति के नेता शामिल हुए थे उसमें. इसमें दो राय नहीं कि इंदिरा गाँधी के कुशासन के खिलाफ जनता पार्टी को जीता कर आम आदमी ने अपना जवाब दिया था . लेकिन सरकार से और भी बहुत सारी उम्मीदें की जाती हैं . जनता पार्टी के मंत्री लोग यह मान कर चल रहे थे कि अब इंदिरा गाँधी की दुबारा वापसी नहीं होने वाली है इसलिए वे आपसी झगड़ों में तल्लीन हो गए. समाजवादियों ने सोचा कि जनता पार्टी में भर्ती हुए जनसंघ के नेताओं को मजबूर किया जाए कि वे आर एस एस से अलग हो जाएँ जबकि जनसंघ वाले सोच रहे थे कि गाँधी हत्या में फंस जाने के कारण लगे कलंक को साफ़ कर लिया जाए .जनता पार्टी की स्वीकार्यता के सहारे अपने को फिर से मुख्यधारा में लाया जाए. उस वक़्त के प्रधानमंत्री , मोरारजी देसाई ने ऐलान कर दिया था कि इंदिरा राज के कूड़े को साफ़ करने के लिए उन्हें १० साल चाहिए और समाजवादी नेता लोग अपनी स्टाइल में लड़ने झगड़ने लगे थे . व्यापारी वर्ग बेलगाम हो गया . दिल्ली में तो सारे व्यापारी जनसंघ की वजह से सरकार बन गए थे और लूट मचा दी . महंगाई आसमान पर पंहुच गयी . इंदिरा गाँधी के सलाहकारों ने माहौल को ताड़ लिया और १९७९ में जब जनता पार्टी टूटी तो महंगाई को ही मुद्दा बना दिया . उस साल प्याज की कीमतें बहुत बढ़ गयी थीं और इंदिरा गांधी के चुनाव प्रबंधकों ने १९७७ के फरवरी माह और १९७९ के नवम्बर माह के प्याज के दामों को एक चार्ट में डालकर पोस्टर बनाया और चुनाव में झोंक दिया . महंगाई जनता की दुखती रग थी और उसने नौकर बदल दिया . जनता पार्टी वाले निकाल बाहर किये गए और इंदिरा गाँधी की बहाली हो गयी. १९८० में चुनाव हार कर लौटे जनता पार्टी के नेता कहते पाए जाते थे कि नयी कांग्रेसी सरकार प्याज के छिलकों के सहारे बनी है और प्याज के छिलकों जैसे ही ख़त्म हो जायेगी. ऐसा कुछ नहीं हुआ और सरकार चलती रही जबकि जनता पार्टी के नेता लोग तरह तरह की पार्टियां बनाते रहे और सब जीरो होने के कगार पर पंहुच गए.

यू पी ए-२ भी महंगाई को काबू करने में नाकाम रही है .लेकिन एक फर्क है . जनता पार्टी के वक़्त में महंगाई इसलिए बढ़ी थी कि सरकार में आला दर्जे पर बैठे नेता लोग गैरजिम्मेदार थे.उनकी बेवकूफी की नीतियों की वजह से महंगाई बढ़ी थी लेकिन यू पी ए-२ में मामला बहुत गंभीर है . इस सरकार में बहुत सारे ऐसे मंत्री हैं जिनपर महंगाई बढाने वाले औद्योगिक घरानों के लिए काम करने का आरोप लगता रहता है . मौजूदा महंगाई के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार ईंधन की कीमतों में हो रही वृद्धि है . आम आदमी के लिए सबसे दुखद बात यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से जिस पूंजीपति घराने को सबसे ज्यादा लाभ होता है उसके खिलाफ बोलने की हिम्मत न तो कांग्रेस के किसी मंत्री में है और न ही मुख्य विपक्ष के किसी नेता में . जो भी हो ,महंगाई कमरतोड़ है और उस से निजात दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी है . अगर ऐसा तुरंत न किया गया तो मौजूदा सरकार का भी वही हाल होगा जो १९७९ में जनता पार्टी की सरकार का हुआ था.देश का दुर्भाग्य यह भी है कि निजी लाभ के चक्कर में रहने वाले नेताओं से ठुंसे हुए राजनीतिक स्पेस में जनता की पक्षधर कोई जमात नहीं है . महंगाई के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलन की अगुवाई कर रही बी जे पी के लगभग सभी बड़े नेता अभी छः साल पहले केंद्र सरकार से फारिग हुए हैं . उनमें से किसी के बारे में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे उन्हीं पूंजीपतियों की हित साधना नहीं करेगें जिसकी हित साधना में कांग्रेसी लगे हुए हैं. तीसरे मोर्चे के नाम पर गाहे ब गाहे संगठित होने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के नेता तो शुद्ध रूप से लूट मचाने की नीयत से ही दिल्ली आते हैं . वे कभी कांग्रेस के साथ होते हैं तो कभी बी जे पी के साथ लेकिन एजेंडा वही लूट खसोट का ही होता है . स्पेक्ट्रम वाली लूट जिस पार्टी के नेता ने की है उसकी पार्टी आज कांग्रेस के साथ है लेकिन कभी यही लोग बी जे पी के ख़ासम ख़ास हुआ करते थे. अभी दस साल पहले जिन नेताओं के पास रोटी के पैसे नहीं होते थे वे आज करोड़ों के मालिक हैं . अफ़सोस की बात यह है कि इन बे-ईमान नेताओं के बारे में कोई निजी बातचीत में भी दुःख नहीं जताता .
महंगाई के विरोध के नाम पर दिल्ली में एक बड़ा प्रदर्शन हो रहा है . उसमें वे सारी जमाते शामिल हैं जिनके नेताओं पर भ्रष्टाचार के नाना प्रकार के केस दर्ज हैं . कुछ ऐसे हैं जिनपर केस नहीं दर्ज हैं लेकिन उनकी संपत्ति में बे-ईमानी और घूसखोरी के दृष्टांत साफ़ नज़र आते हैं . ऐसी सूरत में इस बात की उम्मीद तो कम की जानी चाहिए कि आने वाले वक़्त में जनता को कुछ राहत मिलेगी लेकिन सत्ता गंवा देने के डर से अगर मौजूदा सरकार ही कुछ ठीक काम कर जाय तो हालात अभी सुधरने लायक हैं . अब तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस देश की बाएं बाजू की राजनीतिक ताक़तें आम आदमी को जगा देगीं और वह शोषित वर्गों के रहबर के रूप में सडकों पर आ जाएगा. लेकिन हालात तो सुधरने ही चाहिये और अगर मौजूदा राजनीतिक पार्टियां अपना राग नहीं बदलतीं तो फिर कहीं कोई नेता उठेगा और सत्ता के मद में पागल सरकारी और विपक्ष दोनों को ही उनकी औकात बता देगा.

Sunday, July 4, 2010

११ जुलाई को उदयन शर्मा की याद

अगले रविवार को उदयन शर्मा के जन्म के ६२ साल पूरे हो जांएगे.अस्सी के दशक में उनकी वही पहचान थी जो आज के ज़माने में राजदीप सरदेसाई और अरनब गोस्वामी की है. उदयन जी रविवार के संवाददाता और संपादक रहे . आगरा के उदयन एक बेहतरीन इंसान थे. छात्र जीवन में समाजवादी रहे और टाइम्स ऑफ़ इण्डिया का "ट्रेनी जर्नलिस्ट" इम्तिहान पास करके धर्मयुग से जुड़े. डॉ धर्मवीर भारती से पत्रकारिता का ककहरा सीखा और बहुत बड़े पत्रकार बने. फिर एक दिन चले गए.

हर साल ११ जुलाई को उनकी पत्नी ,नीलिमा शर्मा उदयन के जन्म दिन के मौके पर नए पुराने लोगों को एक जगह पर इकठ्ठा करती हैं . इस साल भी यह कार्यक्रम है . उन्होंने एस एम एस भेज दिया है . नयी दिल्ली के मावलंकर हाल के बगल वाली इमारत में जो स्पीकर हाल है .उसमें ही कार्यक्रम होगा .साथ में एक सेमिनार भी आयोजित किया गया है . लोग आयेंगे . अगर मौक़ा हो तो आप भी आइयेगा. क्योंकि पंडित बहुत बड़ा इंसान था .

अमरीकी अवाम से सीख सकते हैं वंशवाद का विरोध

शेष नारायण सिंह

( मूल लेख आज ,४ जुलाई ,के दैनिक जागरण में छपा है )

आज अमरीका का स्वतंत्रता दिवस है.४ जुलाई १७७६ को ही अमरीकी अवाम ने इकठ्ठा होकर अपने आप को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने की घोषणा की थी . किसी भी राष्ट्र की स्थापना के कई तरीके होते हैं . सैनिक बगावत, नागरिक संघर्ष , बहादुरी, धोखेबाजी , आपसी लड़ाई झगड़े सब के बाद राष्ट्र की स्थापना की घटनाएं इतिहास को मालूम हैं . लेकिन अमरीकी राष्ट्र की स्थापना में इन सब चीज़ों का योगदान है . अपने करीब सवा दो सौ साल के इतिहास में अमरीकियों ने अपनी आज़ादी की हिफाज़त के लिए बहुत तकलीफें उठाईं, बहुत परेशानियां झेलीं लेकिन आज़ादी की शान से कभी भी समझौता नहीं होने दिया . अमरीका को आजादी बहुत मुश्किल से मिली है और उसे हासिल करने में अठारहवीं सदी में उस इलाके में रहने वाले ज्यादातर लोग शामिल हुए थे , शायद इसीलिए उन्होंने उसकी हिफाज़त के लिए कभी कोई कसर नहीं छोडी. आजादी का घोषणापत्र भी अमरीकी अवाम का एक अहम दस्तावेज़ है और उसकी सुरक्षा के लिए भी सर्वोच्च स्तर पर प्रबंध किये जाते हैं . दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब जापन की सेना ने पर्ल हार्बर पर हमला कर दिया था, अमरीकी हुक्मरान डर गए थे . अमरीकी स्वतंत्रता का घोषणापत्र लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस में रखा जाता है . लेकिन जब यह ख़तरा पैदा हो गया कि यूरोप में चल रही लड़ाई अमरीका में भी न पंहुच जाए तो १९४१ में इस दस्तावेज़ को कहीं और शिफ्ट कर दिया गया था .

इतिहास में इस तरह के बहुत सारे सन्दर्भ मिल जायेगें जब अमरीकियों ने अपनी आज़ादी से जुडी हर याद को संजोने में बहुत मेहनत की . ऐसा शायद इस लिए हुआ कि अपनी आज़ादी को हासिल करने में लगभग पूरी आबादी शामिल हुई थी. अपनी आज़ादी को सबसे ऊपर रखने के लिए अमरीकी नीतियाँ इस तरह से डिजाइन की गयीं कि वह आज दुनिया का चौकी दार बना हुआ है , किसी पर भी धौंस पट्टी मारता रहता है लेकिन अपने राष्ट्रहित को सबसे ऊपर रखता है . अमरीकी आज़ादी के घोषणापत्र में लिखी गयी हर चीज़ को वहां की सरकार और जनता पवित्र मानती है . इस के बरक्स जब हम अपनी आज़ादी के करीब ६३ वर्षों पर नज़र डालते हैं , तो एक अलग तस्वीर नज़र आती है . यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज की हमारी हालत ऐसी है जिस से हमारी आज़ादी और संविधान को बार बार ख़तरा पैदा होता रहता है .

अमरीकी समाज को उनकी आज़ादी बहुत मुश्किल से मिली थी. शायद इसीलिये वे उसको सबसे ज्यादा महत्व देते हैं . इस बात की पड़ताल करने की ज़रुरत है कि कुछ मुल्कों के लोग अपनी राजनीतिक आज़ादी को अपने जीवन से बढ़ कर मानते हैं लेकिन बहुत सारे ऐसे मुल्क हैं आज़ादी को कुछ भी नहीं समझते . साउथ अफ्रीका के उदाहरण से बात को समझने में आसानी होगी. वहां पूरा मुल्क श्वेत अल्पसंख्यकों के आतंक को झेलता रहा . अमरीका और ब्रिटेन की साम्राज्यवादी सत्ता की मदद से आतंक का राज कायम हुआ और चलता रहा . पूरा देश आज़ादी की मांग को लेकर मैदान में आ गया . उनके सर्वोच्च नेता , नेल्सन मंडेला को २७ साल तक जेल में रखा गया और जब आज़ादी मिली तो पूरा मुल्क खुशी में झूम उठा . जब राजनीतिक आज़ादी को मुक़म्मल करने के लिए सामाजिक और आर्थिक सख्ती बरती गयी तो पूरा देश राजनीतिक नेतृत्व के साथ था. आज १५ साल बाद ही साउथ अफ्रीका दुनिया में एक बड़े और ताक़तवर मुल्क के रूप में पहचाना जाता है . तीसरी दुनिया के मुल्कों में सबसे ऊपर उसका नाम है क्योंकि पूरी आबादी उस आज़ादी में अपना हिस्सा मानती है . बिना किसी कोशिश के आज़ादी हासिल करने वालों में पाकिस्तान का नाम सबसे ऊपर है . पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना शुरू में तो कांग्रेस के साथ रहे लेकिन बाद में वे पूरी तरह से अंग्रेजों के साथ थे और महात्मा गाँधी की आज़ादी हासिल करने की कोशिश में अडंगा डाल रहे थे. बाद में जब आज़ादी मिल गयी तो अंग्रेजों ने उन्हें पाकिस्तान की जागीर इनाम के तौर पर सौंप दी. नतीजा सामने है . कुछ ही वर्षों में पाकिस्तान आन्दोलन में जिन्ना के बाद सबसे बड़े नेता और पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री ,लियाक़त अली को मौत के घाट उतार दिया गया. बाद में राष्ट्र की सरकार को ऐशो आराम का साधन मानने वाली जमातों का क़ब्ज़ा हो गया और आज पाकिस्तान के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है . लेकिन यह अमरीका के साथ कभी नहीं होगा क्योंकि आज़ादी की लड़ाई के लिए संघर्ष करने वाली जमातों के वंशज ही आज अमरीका में सत्ता के केंद्र में हैं . अपनी आज़ादी का स्वरुप अजीब है . सवतंत्रता संग्राम में जो लोग शामिल थे ,आज़ादी के बाद राष्ट्र निर्माण का काम उनके कन्धों पर ही आन पडा. जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल को इन लोगों ने नेता माना और देश की प्रगति का काम ढर्रे पर चल पडा. जवाहर लाल नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि देश में विकास का इतना मज़बूत ढांचा तैयार हो गया कि आज भारत उसी दिन आज़ाद हुए पाकिस्तान से बहुत ही बड़ा देश है . लेकिन जब राजनीतिक वंशवाद की शुरुआत हो गयी तो हमारी आज़ादी के लिए भी मुश्किलें बढ़ गयी हैं . आज देश के कई हिस्सों से भारत विरोधी आवाज़ उठने लगी है . कहीं कश्मीर है तो कहीं पूर्वोत्तर भारत के राज्य . कभी कभी तो विदेशी मदद से पंजाब में भी यह आवाजें उठ जाती हैं .इसका कारण यह है कि आज़ादी के रणबांकुरों के चले जाने के बाद देश की जनता को यक़ीन हो चला है कि उनका काम केवल वोट देना है .आज़ादी के बाद मिली सत्ता का इस्तेमाल कुछ परिवारों के लिए रिज़र्व है . अब तक तो इसमें एक ही परिवार का नाम लिया जाता था लेकिन अब नेताओं के बच्चे सत्ता पर काबिज़ होना अपना अधिकार मानते हैं . केंद्र सरकार में बहुत सारे ऐसे मंत्री हैं जो वहां इसलिए हैं कि उनके पिता स्वर्गवासी हो गए और उन लोगों ने उत्तराधिकारी के रूप में गद्दी संभाली. यह लोकशाही के साथ मजाक है . लोक तंत्र में सत्ता देने का अधिकार बहुमत के अलावा किसी के पास नहीं है. इन दूसरी और तीसरी पीढी के नेताओं का तर्क यह है कि उन्हें जनता ने चुन कर भेजा है . सब को मालूम है कि इस बात की हकीकत क्या है . लोक शाही तभी मज़बूत होगी जब पूरा देश अपने आपको उसमें शामिल माने. अमरीका में ऐसा ही होता है .आज अमरीकी स्वतंत्रता दिवस के हवाले से इस बात को याद किया जाना चाहिए . लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं कि अमरीका का सब कुछ अनुकरण करने लायक है . अमरीकी सरकारों ने वियतनाम, इराक , पश्चिम एशिया आदि इलाकों में इंसानी खून बहाया है , जिसको कि कभी भी सही नहीं ठहराया जा सकता . लेकिन अपने देश की आज़ादी में सबको शामिल करने के लिए यह ज़रूरी है कि देश का हर नागरिक अपने को आज़ादी में हिस्सेदार माने और वंशवाद का हर स्तर पर विरोध करे. अमरीकी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपनी आजादी करने के लिए भारतीयों को अपनी आज़ादी की हिफाज़त करने का संकल्प लेना चाहिये .

Friday, July 2, 2010

२ जुलाई १९७२ को हुआ था शिमला समझौता

शेष नारायण सिंह



२ जुलाई १९७२ के दिन भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति , ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने शिमला समझौते पर दस्तखत किया था. भारतीय कूटनीति के लिए वह एक बुलंदी का दिन था . बंगलादेश की धरती पर बलूचिस्तान के बूचर , टिक्का खां की रहनुमाई में बलात्कार लूट और क़त्ल कर रही पाकिस्तानी सेना को भारतीय सेना के सहयोग से मुक्ति बाहिनी ने पराजित किया था. अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और हेनरी कीसिंजर की विदेश नीति की कमियाँ पूरी दुनिया के सामने उजागर हो चुकी थीं . पाकिस्तानी राष्ट्रपति ,याहया खां को हटाकर उनके विदेश मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सत्ता हथिया चुके थे. अपने देश वासियों को उन्होंने मुगालते में रखा था कि उनकी सेना भारत और बंगलादेश की साझी ताक़त पर भारी पड़ेगी और बार बार डींग मारते रहते थे कि वे भारत से एक हज़ार साल तक युद्ध कर सकते थे लेकिन पाकिस्तानी फौज के करीब १ लाख सैनिकों ने भारत के पूर्वी कमान के सामने आत्म समर्पण कर दिया था. आल इण्डिया रेडियो पर रोज़ पकडे गए पाकिस्तानी सैनिकों की आवाज़ में " हम खैरियत से हैं " कार्यक्रम के तहत प्रसारण किया जाता था . किसी भी सेना के लिए इस से बड़ा अपमान क्या हो सकता था कि उसके सिपाही युद्धबंदी हों और रोज़ पूरे पाकिस्तान में लोग जाने कि उनके देश के १ लाख सैनिक भारत के कब्जे में हैं . बहरहाल इस पृष्ठभूमि में भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हुआ था. पाकिस्तान सरकार के प्रतिनिधि ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो थे , उनके साथ उनकी बेटी , बेनजीर भुट्टो भी आई थीं और अखबारों में उन पर खासी चर्चा होती थी. उन दिनों वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में सक्रिय थीं. पाकिस्तान एक हारा हुआ मुल्क था लेकिन फिर भी भारत ने बिना किसी दबाव के उसके नेताओं को मुंह छुपाने से बचने भर के मौके दिए थे, उम्मीद बस यह की गयी थी कि पाकिस्तानी हुक्मरान आगे से तमीज से व्यवहार करेंगें लेकिन किसी ने नहीं किया और शिमला समझौते की धाराओं का बार बार उन्ल्लंघन हुआ. फिर भी आज ३८ साल बाद उस समझौते के मुख्य बिन्दुओं को याद कर लेना ज़रूरी है जिस से कि आने वाली पीढियां बाखबर रहें .


समझौते के बिंदु
१. भारत और पाकिस्तान की सरकारें इस बात पर सहमत हैं कि दोनों देश संघर्ष और झगड़े को समाप्त कर दें जिसकी वजह से अब तक दोनों देशों के बीच में रिश्ते खराब रहे हैं . दोनों देश आगे से ऐसा काम करेगें जिस से दोस्ताना और भाईचारे के रिश्ते कायम हो सकें और उप महाद्वीप में स्थायी शान्ति की स्थापना की जा सके.इसके बाद दोनों देश अपनी ऊर्जा और अपने संसाधनों का इस्तेमाल अपनी जनता के कल्याण के लिए कर सकेगें . इस मकसद को हासिल करने के लिए भारत और पाकिस्तान की सरकारों के बीच एक समझौता हुआ जिसकी शर्तें निम्न लिखित हैं .
क . यह कि दोनों देशों के बीच को संबंधों को संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के हिसाब से चलाया जाएगा.

ख ..यह कि दोनों देशों ने तय किया है कि अपने मतभेदों को शान्ति पूर्ण तरीकों से आपसी बातचीत के ज़रिये ही हल करेगें या ऐसे तरीकों से हल करेगें जिन पर दोनों देश सहमत हों.दोनों देशों के बीच में जो ऐसी समस्याएं हैं जिनका अभे एहल नहीं निकला है , उनके अंतिम समाधान के पहले दोनों देश ऐसा कुछ नहीं करेगें जिस से कि आपसी रिश्तों में और खराबी आये और शान्ति पूर्ण माहौल बनाए रखने में दिक्क़त हो.

ग़ . यह कि दोनों देशों के बीच सुलह,अच्छे पड़ोसी कीतरह आचरण और टिकाऊ शान्ति के लिए ज़रूरी है कि दोनों देश शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, एक दूसरे की क्षेत्रीय एकता और संप्रभुता का सम्मान और एक दूसरे के आतंरिक मामलों में दखलंदाजी न की जाए और रिश्तों की बुनियाद बराबरी और आपसी लाभ की समझ पर आधारित हो .

घ यह कि पिछले २५ वर्षों से दोनों देशों के बीच जिन कारणों से रिश्ते खराब रहे हैं , उनके बुनियादी सिद्धातों और कारणों को शान्तिपूर्ण तरीकों से हल किया जाए.

च यह कि दोनों एक दूसरे की राष्ट्रीय एकता,क्षेत्रीय अखंडता ,राजनीतिक स्वतंत्रता संप्रभुता का बराबरी के आधार पर सम्मान करेगें.

छ यह कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के आधार पर दोनों एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ न तो बल का प्रयोग करेगें और न ही धमकी देगें


२. दोनों देशों की सरकारे अपनी शक्ति का प्रयोग करके एक दूसरे के खिलाफ कुप्रचार पर रोक लगाएगी .दोनों देश ऐसी सूचना के प्रचार प्रसार को बढ़ावा देगें जिस से दोनों देशों के बीच दोस्ती के रिश्ते बनने में मदद मिले

३.दोनों देशों के बीच क़दम बा क़दम रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए निम्न लिखित बातों पर सहमति हुई.

क. ऐसे कदम उठाये जायेगें जिस से संचार , डाक,तार समुद्र ज़मीन के रास्ते संपर्क बहाल हो सके. इसमें एक दूसरे की सीमा के ऊपर से विमानों की आवाजाही भी शामिल है .
ख. एक दूसरे के नागरिकों की यात्रा सुविधा को बढाने के लिए क़दम उठाये जायेगें.
ग़.जहां तक संभव हो उन क्षेत्रों में व्यापार शुरू किया जायेगा जिसके बारे में सहमति हो चुकी है .
घ..विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में आदान प्रादान को प्रोत्साहित किया जाएगा. . इस सन्दर्भ में दोनों देशों के प्रतिनिधि मंडल समय समय पर मिला करेगें और ज़रूरी तफसील पर काम होगा.

४.टिकाऊ शान्ति स्थापित करने की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए दोनों सरकारें निम्नलिखित बातों पर सहमत हुईं.

क..भारतीय और पाकिस्तानी सेनायें अंतर राष्ट्रीय सीमा में अपनी तरफ तक वापस चली जायेगीं.
ख..जम्मू और कश्मीर में जहां १७ दिसंबर १९७१ के दिन सीज फायर हुआ था , दोनों देश उसी को लाइन ऑफ़ कंट्रोल के रूप में स्वीकार करेगें . लेकिन इस से कोई भी देश अपने अधिकार को तर्क नहीं कर रहा है . कोई भी देश इस सीमा को आपसी मतभेद या कानूनी व्याख्या के मद्दे-नज़र बदलने की कोशिश नहीं करेगा. . लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर किसी तरह की ताक़त का न तो इस्तेमाल होगा और न ही धमकी दी जायेगी.
ग़ ..सेनाओं की वापसी का काम इस समझौते के लागू होने पर शुरू होगा और ३० दिन में पूरा कर लिया जाएगा.

५.यह समझौता दोनों देशों के संविधान के अनुसार उनके देशों में लागू संविधान के अनुसार मंज़ूर किया जाएगा . उसके बाद ही इसे लागू माना जाएगा.

६. दोनों सरकारें इस बात पर सहमत हैं दोनों ही सरकारों के मुखिया फिर मिलेगें . इस बीच दोनों सरकारों के प्रतिनिधि मिलकर यह सुनिश्चित करेगें कि टिकाऊ शान्ति स्थापित करने और रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए क्या तरीके अपनाए जाएँ . इसमें युद्ध बंदियों सम्बन्धी मुद्ददे, जम्मू-कश्मीर के स्थायी समझौते की बात और फिर से कूट नीतिक समबन्धों की बहाली शामिल है .

इस समझौते पर भारत की ओर से प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी और पाकिस्तान की ओर से उनके प्रेसीडेंट ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने दस्तख़त किये. समझौते पर २ जुलाई को दस्तखत किये गए ,२८ जुलाई १९७२ को इसे मंजूरी मिल गयी और ४ अगस्त १९७२ को लागू हो गया. अपनी कापी अपर ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने यह नोट लिखा .
"हमने जिस समझौते पर बीती रात दस्तखत किया है वह हमारे रिश्तों में एक महत्व पूर्ण और नयी शुरुआत होगा. मैं पक्के भरोसे के साथ घर वापस जा रहा हूँ कि अब हम शान्ति के एक नए युग में प्रवेश कर रहे हैं . "

इस समझौते का मुख्य उद्देश्य इलाके में शान्ति स्थापित करना था लेकिन १९७१ की लड़ाई से उपजे मामलों को हल करने के अलावा इस से कुछ ख़ास हासिल नहीं किया जा जा सका . भुट्टो को भी फौज़ ने सत्ता से हटा दिया और इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा कर देश की जनता के सामने अपना सब कुछ गंवा दिया और १९७७ का चुनाव हार गयीं.
बाद में बहुत दिनों तक भारत की ओर से यह शिकायत की जाती रही कि पाकिस्तान शिमला समझौते को नहीं मान रहा है लेकिन पाक्सितान ने कभी परवाह नहीं की. शीतयुद्ध का ज़माना था और पाकिस्तान अमरीका का ख़ास कृपा पात्र था . . लेकिन दुनिया के राजनयिक इतिहास में शिमला समझौते का एक महत्व है . इस लिए आज के दिन उसे याद कर लिया

Thursday, July 1, 2010

एक बहुत ही महत्वपूर्ण बहस

महाराष्ट्र सरकार में एक बहुत ही उच्च पद पर तैनात अफसर, लीना जी ने चुनाव सुधार के मामले पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण बहस शुरू की है .क्या यह संभव होगा कि इस विषय पर अन्य मंचों पर भी बड़ी बहस शुरू की जा सके.. उनकी बहस का लिंक है

http://www.linkedin.com/groupAnswers?viewQuestionAndAnswers=&gid=3169490&discussionID=23543924&commentID=18781092&goback=.anh_3169490&report.success=8ULbKyXO6NDvmoK7o030UNOYGZKrvdhBhypZ_w8EpQrrQI-BBjkmxwkEOwBjLE28YyDIxcyEO7_TA_giuRN#commentID_18781092

वापस आ गया हूँ

मैं मुंबई,वाराणसी,सुल्तानपुर और लखनऊ होते हुए वापस आ गया हूँ . इसे "लौट के बुद्धू घर को आये" या "पुनर्मूसिको भव" की तर्ज पर समझा जा सकता है .

Friday, June 25, 2010

मुसलमानों के वोट के चक्कर में बिहार के नेता क्या कर रहे हैं

शेष नारायण सिंह



गुजरात के मुख्य मंत्री , नरेंद्र मोदी को फटकार कर देश में कहीं भी धर्म निरपेक्ष जमातों की सहानुभूति बटोरी जा सकती है . गुजरात २००२ नर संहार के खलनायक को दुनिया में कहीं भी इज्ज़त की नज़र से नहीं देखा जता. अमरीका और यूरोप के ज़्यादातर देशों ने उनकी वीजा की दरखास्त को यह कह कर ठुकरा दिया है कि वे इतने खूंखार आदमी को अपने देश में आने की इजाज़त नहीं दे सकते. मुसलमान तो पूरे भारत में नरेंद्र मोदी को कातिल मानता है . जिन लोगों को २००२ में नरेंद्र मोदी की निगरानी में क़त्ल किया गया था ,उनमें बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के उन मूल निवासियों की थी जो रोजी रोटी की तलाश में गुजरात के शहरों में जाकर बस गए थे. शायद इसीलिये नरेंद्र मोदी की मुखालिफात करना उत्तर प्रदेश और बिहार में जीत का नुस्खा माना जाता है . अगर किसी के ऊपर यह आरोप साबित हो गया कि वह नरेंद्र मोदी का दोस्त है तो उसके वोटों की संख्या में भारी कमी हो जाती है . जानकार बताते हैं कि नरेंद्र मोदी के साथ अपनी फोटो के प्रचारित होने पर, बिहार के मुख्यमंत्री, नीतीश कुमार का गुस्सा इस पृष्ठभूमि में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है . दुनिया जानती है कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्य मंत्री बी जे पी की कृपा से बने हैं और आज भी अगर बी जे पी उनकी सरकार से समर्थन वापस ले ले तो पैदल हो जायेंगें . राजनीति की मामूली समझ वाला भी जानता है कि बी जे पी का सबसे मज़बूत नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी ही है . इसलिए नरेंद्र मोदी के विरोध के बाद किसी के लिए भी बी जे पी की मदद से हुकूमत करना असंभव है लेकिन नीतीश कुमार बने हुए हैं और राज कर रहे हैं . ज़ाहिर है बी जे पी और जे डी ( यू) के नेता एक ऐसी कुश्ती लड़ रहे हैं जिसमें शुरू में ही समझौता हो गया है कि वास्तव में कुश्ती नहीं लड़ना है , केवल अभिनय करना है . यह अभिनय सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है . इसके दो उद्देश्य हैं . एक तो यह कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जो लोग भी हैं उनके घावों पर मरहम लगाकर उनके वोट को बटोर जाए और दूसरा यह कि हिंद्दुत्ववादी सोच के लोगों को नरेंद्र मोदी के हवाले से बी जे पी के साथ लामबंद किया जाए. यहाँ यह गौरतलब है कि नीतीश कुमार की पार्टी और नरेंद्र मोदी की पार्टी किसी पक्ष का कोई असली नुकसान नहीं कर रही है. केवल विधान सभा चुनावों के वोटों के लिए सभी पक्ष काम कर रहे हैं .



इस तरह नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के वोट अभियान में ताज़ा एपिसोड भी जुड़ गया है . बिहार पुलिस के कुछ पुलिस वाले गुजरात गए थे जहां वे कथित रूप से यह जांच करने वाले थे कि नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार की फोटो जारी करने वाली एजेंसी ने किसके हुक्म से यह काम किया था लेकिन अभियुक्तों या सम्बंधित पुलिस अधिकारियों के पास तो खबर बाद में पंहुची, मीडिया को पहले पता चल गया . जिसके बाद बी जे पी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू सीधे शरद यादव के पास पंहुच गए और इस से पहले कि सम्बंधित एजेंसी वाले के ऊपर कोई केस बन जाए, मामले को दबा दिया गया लेकिन इसका राजनीतिक फायदा जितना मिल सकता था, मिल गया . मुसलमानों और धर्म निरपेक्ष जमातों को पता चल गया कि नीतीश कुमार पूरे मन से मोदी की मुखालफत कर रहे हैं .जबकि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों का कहीं कोई नुकसान भी नहीं हुआ . इस बात का भी खूब जोर शोर से अखबारों में प्रचार किया जा रहा है कि बी जी पी वाले नीतीश कुमार से बहुत नाराज़ हैं और सरकार से समर्थन वापस भी लेना चाहते हैं . . समर्थन वापसी का कोई मतलब नहीण है उस से बिहार सरकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्यों कि अब तो चुनाव की ही तैयारी चल रही है .४ महीने मेंचुनाव है .



कुल मिला कर बिहार की ताज़ा राजनीतिक हालात पर गौर करें तो साफ़ लगता है कि मामला शुद्ध रूप से मुसलमानों के वोट को अपने पक्ष में मोड़ने से सम्बंधित है . नीतीश ने बिहार में व्याप्त अराजकता को कंट्रोल किया है इस लिए मध्य वर्ग का एक बड़ा तबका उनको समर्थन देना चाहता है . अति पिछड़ों यानी यादव विरोधी पिछड़ों में भी नीतीश ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक पैठ बनायी है . जे डी यू के वर्गचरित्र के हिसाब से सवर्णों का एक वर्ग भी उनके साथ है . इस में अगर मुसलमानों के वोट भी जुड़ जाएँ तो बिहार की राजनीति में यह एक अजेय फार्मूला है . आखिर लालू प्रसाद ने वहां एम वाई यानी मुस्लिम -यादव दोस्ती की राजनीति करके कई साल तक राज किया है . इस लिए बिहार की राजनीति के किसी खिलाड़ी को मुसलमानों के वोट का महत्व समझाना वैसे ही है जैसे चिड़िया के बच्चे को उड़ना सिखाना .बिहार में लालू यादव मुसलमानों के वोट के मुख्य दावेदार माने जाते हैं . लेकिन अपने शासन के दौरान उन्होंने मुसलमानों के कल्याण के लिए कोई ख़ास काम नहीं किया .पिछले ३ -४ वर्षों से कांग्रेस नेता , राहुल गाँधी मुसलमानों से संपर्क में हैं .शायद इसी वजह से उत्तर भारत में मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस की लोक प्रियता भी बढ़ रही है . बिहार में मुस्लिम वोटों की दावेदारी में कांगेस का भी नाम आने लगा है . हालांकि कांग्रेस के पास अपना कोई बुनियादी वोट बैंक नहीं है लेकिन उसके लिए पूरी कोशिश चल रही है . बिहार प्रदेश की इन्चार्जी से हटाये जाने के पहले जगदीश टाइटलर ने भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी से घंटों बात की थी और उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिश की थी . ज़ाहिर है कि मनोज तिवारी आज के सूचना क्रान्ति के ज़माने के बड़े नाम हैं और उनके साथ आने से कांग्रेस को उनकी बिरादरी के वोट तो मिलेगें ही, राज्य के बड़ी संख्या में नौजवान भी साथ आयेंगें .अगर इस वोट बैंक में मुसलमान जोड़ दिए जाएँ तो यह भी एक जिताऊ गठजोड़ बन सकता है . बताते हैं कि मनोज तिवारी ने इस लिए मना कर दिया कि वे अमर सिंह के बिना किसी पार्टी में नहीं जाना चाहते .अभी तक फिलहाल कांग्रेस में अमर सिंह के खिलाफ माहौल है लेकिन कल किसने देखा है. वैसे भी अमर सिंह अपने राज्य में अपनी राजनीतिक मौजूदगी का एहसास प्रभाव शाली तरीके करवा रहे हैं . समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद हाशिये पर आ गए अमर सिंह ने डुमरिया गंज उपचुनाव में अपनी पुरानी पार्टी के उम्मीदवार को पीस पार्टी नाम की एक नयी पार्टी को समर्थन दे कर शिकस्त दी है. डुमरिया गंज उपचुनाव में मुलायम सिंह के इस पूर्व सहयोगी ने दो बातें साबित की हैं . एक तो यह कि अमर सिंह अभी हार मानने को तैयार नहीं हैं और दूसरा कि वह मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में किसी से कमज़ोर नहीं हैं. अगर कांग्रेस पार्टी बिहार के समीकरणों को दुरुस्त करने के लिए अमर सिंह के साथ उनके भीड़ जुटाऊ साथियों को साथ लेने का फैसला कर लेगी तो खेल बदल सकता है.

इस बात में कोई शक़ नहीं कि बिहार की राजनीति में बी जे पी के साथ की वजह से मुसलमानों में अछूत बन चुके नीतीश कुमार की मस्लिम वोट बैंक की दावेदारी के खेल में धमाकेदार वापसी हुई है . जिसके बाद बाकी दावेदार हतप्रभ हैं . क्योंकि आम तौर पार ज़ज्बाती मानसिकता के मुसलमानों के लिए मोदी की मुखालिफत को सम्मान की नज़र से देखा जाता है . लेकिन इस वापसी की वजह से बाकी दावेदारों में खलबली मच गयी है . हालांकि इस बात की पूरी संभावना है कि धर्म निरपेक्ष वोटों के स्पेस में सेंध लगाने के लिए ही नीतीश और बी जे पी ने यह नूरा कुश्ती लड़ी है लेकिन मामला बहस के दायरे में तो आ ही गया है . इसका फायदा नीतीश के अब तक के साथी नरेंद्र मोदी की पार्टी वालों को भी होगा क्योंकि मुसलमानों के पारंपरिक विरोधी वोटों के स्पेस में उनका कंट्रोल मज़बूत होगा . वैसे भी उन्हें मुसलमान न तो वोट देते हैं और न ही वे उसकी उम्मीद करते हैं . मुस्लिम वोटों की इस दौड़ में एक और महत्व पूर्ण राजनेता , राम विलास पासवान भी पिछड़ते नज़र आ रहे हैं . उन्होंने भी मुसलमानों के लिए बहुत काम किया है. बहुत सारे मुसलमानों को उन्होंने इज्ज़त दी है और उनके फायदे के लिए काम किया है. यहाँ तक की अमरीका तक में दलित-मुस्लिम सम्मलेन कर चुके हैं लेकिन आजकल वे हाशिये पर हैं. इस देश का मुसलमान राजनीतिक रूप से इतना सजग है कि वह उसी को वोट देना पसंद करता हैजो नरेंद्र मोदी की पार्टी को हराए . इस मामले में राम विलास पासवान खरे नहीं उतरते. वैसे भी वे बी जे पी के साथ सरकार में रह चुके हैं . ज़ाहिर है कि अगले ४ महीने में पटना की गद्दी के लिए लड़ाई तेज़ होगी और उसमें वे सारे गड़े मुर्दे उखाड़े जायेंगें जिसमें बिहार के राजनेताओं के बी जे पी प्रेम की कहानियां मुख्य रूप से बतायी जायेंगीं. इस किस्सागोई में नीतीश तो मुस्लिम विरोधी साबित हो ही जायेगें , राम विलास भी फंस सकते हैं क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी के किसी पूर्व मातहत को अपना शुभ चिन्तक मानने में मुसलमान को दिक्क़त होगी . कुल मिला कर अभी तस्वीर साफ़ नहीं है लेकिन मुस्लिम समर्थन के प्रमुख दावेदार लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस के बीच फैसला होने की उम्मीद है. जो भी अपनी रणनीति सही तरीके से बनाएगा, जीत उसी की होगी. जहां तक नीतीश का प्रश्न है अगर उन्हें साफ़ अंदाज़ लग गया कि मोदी का विरोध करने से कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा है तो वे फिर शरद यादव को आगे करके बी जे पी के दरवाज़े पंहुच जायेंगें ..

नीतीश के नए दांव से कांग्रेस में घबडाहट

शेष नारायण सिंह


नीतीश कुमार ने सत्ता का सुख भोग लेने के बाद जिस तरह से बी जे पी के सबसे ताक़तवर नेता , नरेंद्र मोदी को फटकारा है , उसकी धमक दिल्ली में सत्ता के गलियारों में महसूस की जा रही है . पिछले चार वर्षों से राहुल गांधी के नेतृत्व में मुसलमानों को रिझाने की कांग्रेस की कोशिशों को एक ज़बरदस्त झटका लगा है और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के रणनीतिकार सत्ता के नए मुहावरे की तलाश में लग गए हैं . क्योंकि अब यह बात सभी स्वीकार कर रहे हैं कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी के खेल में नीतीश ने पहला डाव ज़बरदस्त खेला है और अब वे भी मुस्लिम वोटों की लाइन में लग गए हैं . बिहार में राजनीति एक नयी करवट ले रही है . विधान सभा के लिए चुनाव होने वाले हैं और राजनीतिक जोड़ गाँठ के विशेषज्ञ अपने काम में लग गए हैं. बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने पहला पांसा फेंक दिया है और लगता है बिहार में जो प्रयोग शुरू हुआ है वह आने वाले वर्षों की भारत की राजनीति की दिशा तय करेगा. बिहार ने कई बार भारतीय राजनीति की दिशा तय की है . १९७४ में तो अगर कदम कुआं के फ़कीर ने मोर्चा न संभाला होता तो शायद भारत में भी लोक तंत्र इतिहास की किताबों का विषय बन चुका होता. जय प्रकाश जी की हिम्मत का ही जलवा था कि १९७७ में भारत की जनता ने बता दिया कि इस देश में स्थापित सत्ता के ज़रिये तानाशाही का राज नहीं कायम किया जा सकता. जेपी ने इंदिरा गाँधी और उनके छोटे पुत्र को बता दिया था कि इमरजेंसी के बावजूद भी इस देश की जनता अंग्रेजों से लड़कर जीती हुई अपनी आज़ादी को किसी गुमराह नौजवान के हाथों में खेलने के लिए नहीं थमा देगी और देश की सरकार किसी की मनमर्जी से नहीं चलने देगी. . जे पी के लिए शायद इंदिरा गाँधी को हटाना संभव लगा हो लेकिन उस दौर के ज़्यादातर गुणी जनों को विश्वास था कि इंदिरा गाँधी और संजय की सरकार को वैधानिकता देने के लिए ही १९७७ का चुनाव करवाया गया था लेकिन देश की राजनीति बदल गयी. ७७ के चुनाव की एक खासियत और थी . १९४८ में महात्मा गाँधी की ह्त्या के बाद उठे तूफ़ान में घिर गए आर एस एस वाले आम तौर राउर भारतीय राजनीति में हाशिये पर ही रहते थे लेकिन जे पी का साथ मिल जाने की वजह से उनकी पार्टी भारतीय जनसंघ सम्मानित पार्टियों में गिनी जाने लगी. बी जे पी का गठन तो जनता पार्टी को तोड़ कर किया गया था . ७७ के जे पी के आन्दोलन से मिली इज्ज़त के चलते बी जे पी का खूब विकास हुआ . यहाँ तक कि १९९८ और ९९ में देश भर की अन्य पार्टियों ने उनके नेतृत्व में सरकार में शामिल होना कुबूल कर लिया. बी जे पी के नेतृत्व में बनी सरकार को सबसे ज्यादा मजबूती जार्ज फर्नांडीज़ ने दी . उनके साथ रहे बहुत सारे लोगों ने न चाहते हुए भी बी जे पी को नेता मान लिया . जार्ज के साथियों में नीतीश कुमार प्रमुख थे . जार्ज ब्रांड के समाजवादियों की कृपा से स्वीकार्यता हासिल कर चुकी बी जे पी ने कभी भी जार्ज के साथियों को कम करके नहीं आँका. . नीतीश कुमार और उनके साथियों को भी पता था कि अगर बी जे पी का साथ छूट गया तो वहीं संसोपा वाली राजनीति ही हाथ आयेगी . सत्ता से दूर रहकर ही सामाजिक परिवर्तन का हल्ला गुल्ला चलता रहेगा. इसलिए वे लोग भी चुप चाप पिछले १० साल से मौज कर रहे हैं. लेकिन अब अब हालात बदल गए हैं. और लगता है कि जिस बिहार आन्दोलन ने आर एस एस की राजनीतिक शाखा को इज्ज़त दी थी , वही बिहार अब उसे फिर अनाथ छोड़ने के एतैयारी कर रहा है. वैसे भी बिहार सबसे ज़्यादा राजनीतिक रूप से जागरूक राज्य है लेकिन सूचना क्रान्ति के बाद हालात बहुत तेज़ी से बदल गए हैं . पूरे देश के नेताओं की राजनीतिक सोच का पता अवाम को चलता रहता है . बिहार में तो और भी ज्यादा है . अब भारत की हर राजनीतिक पार्टी को मालूम है कि मुसलमानों को अलग करके देश के कई इलाकों में चुनाव नहीं जीता जा सकता . गुजरात में भी मुस्लिम विरोध के नाम पार नरेंद्र मोदी नहीं जीतते , वहां भी वे विकास की बोगी चलाते हैं और चुनाव जीत कर आते हैं . जीतने के बाद वे अपना हिन्दुत्व वादी एजेंडा चलाते हैं लेकिन साथ साथ विकास पुरुष भी बने रहते हैं .आर एस एस या बी जे पी को इस देश में मुसलमानों ने केवल एक बार स्वीकार किया . १९७७ के चुनाव में उत्तर भारत में जो भी इंदिरा -संजय टीम के खिलाफ था, उसे मुसलमान ने अपना लिया लेकिन २००२ के बाद तो मुसलमान किसी भी कीमत पर आर एस एस की मातहत पार्टी को वोट नहीं देगा. नीतेश कुमार की मोदी के विरोध की राजनीति इस पृष्ठभूमि में देखी जाए तो तस्वीर ज्यादा साफ हो जायेगी. पूरे देश में गुजरात २००२ के नरसंहार के लिए मोदी को ज़िम्मेदार माना जाता है और कोई भी सभ्य आदमी अपने को मोदी से सम्बंधित बताने में संकोच करता है . ज़ाहिर है कि अगर नरेंद्र मोदी के साथ देखे गए तो मुसलमान नीतीश से परहेज करेगा . इसलिए मोदी के विरोध का मामला बहुत बड़े पैमाने पर उठाकर नीतीश कुमार ने वह स्पेस हथिया लिया है जिसके लिए कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव पिछले ४ साल से कोशिश कर रहे हैं . आम तौर पर मोदी के खिलाफ दिए गए हर बयान पर तालियाँ बजाने वाले कांग्रेसी नेता गुजरात से मिली बाढ़ सहायता राशि को लौटाने के काम को नौटंकी बता रहे हैं.. सब को मालूम है कि अगर अपने मुख्य समर्थकों के साथ मुसलमानों का वोट भी मिल गया तो पटना की गद्दी मिलने में आसानी होगी . लेकिन सच यह है कि नीतीश कुमार ने मुस्लिम वोट को रिझाने वाले स्पेस में अपनी दुकान सज़ा दी है और बाकी उम्मीद वार फिलहाल हक्के बक्के खड़े हैं . अभी चार महीने बाकी हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि मुस्लिम वोटों के लिए राजनीतिक पार्टियां अभी क्या क्या हथकंडे अपनाती हैं

प्रतिष्ठित अखबार द हिन्दू और जन पक्षधरता की पत्रकारिता

शेष नारायण सिंह

अंग्रेज़ी के अखबार द हिन्दू ने खोजी और जन पक्षधरता की पत्रकारिता का एक नया कारनामा अंजाम दिया है . अखबार ने छाप दिया है कि भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ जो अन्याय हुआ है उसके लिए कांग्रेस और भी जे पी के नेता बराबर के ज़िम्मेदार हैं .भोपाल काण्ड के वक़्त यूनियन कार्बाइड कंपनी के अध्यक्ष , वारेन एंडरसन के मामले में एक नया आयाम सामने आ गया है . बी जे पी वाले भोपाल के बहाने एक और बोफोर्स की तलाश में हैं. सारी ज़िम्मेदारी राजीव गाँधी के मत्थे मढ़ देने के चक्कर में हैं जिस से सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को रक्षात्मक मुद्रा में लाया जा सके . लेकिन अब खेल बदल गया है . अब पता चाल है कि पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता, अरुण जेटली जब कानून मंत्री थे तो उन्होंने भी एंडरसन के बारे में वही कहा था जो कहने के आरोप में बी जे पी वाले कांग्रेस को कटघरे में खड़ा करना चाहते हैं . आज देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार में छप गया है कि २५ सितम्बर को २००१ को कानून मंत्री के रूप में अरुण जेटली ने फ़ाइल में लिखा था कि एंडरसन को वापस बुला कर उन पर मुक़दमा चलाने का केस बहुत कमज़ोर है . जब यह नोट अरुण जेटली ने लिखा उस वक़्त उनके ऊपर कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री पद की ज़िम्मेदारी थी . यही नहीं उस वक़्त देश के अटार्नी जनरल के पद पर देश के सर्वोच्च योग्यता वाले एक वकील, सोली सोराबजी विद्यमान थे. सोराबजी ने अपनी राय में लिखा था कि अब तक जुटाया गया साक्ष्य ऐसा नहीं है जिसके बल पर अमरीकी अदालतों में मामला जीता जा सके. अरुण जेटली के नोट में जो लिखा है उससे एंडरसन बिलकुल पाक साफ़ इंसान के रूप में सामने आता है . ज़ाहिर है आज बी जे पी राजीव गांधी के खिलाफ जो केस बना रही है , उसकी वह राय तब नहीं थी जब वह सरकार में थी. अरुण जेटली ने सरकारी फ़ाइल में लिखा है कि यह कोई मामला ही नहीं है कि मिस्टर एंडरसन ने कोई ऐसा काम किया जिस से गैस लीक हुई और जान माल की भारी क्षति हुई . श्री जेटली ने लिखा है कि कहीं भी कोई सबूत नहीं है कि मिस्टर एंडरसन को मालूम था कि प्लांट की डिजाइन में कहीं कोई दोष है या कहीं भी सुरक्षा की बुनियादी ज़रूरतों से समझौता किया गया है. कानून मंत्री, अरुण जेटली कहते हैं कि सारा मामला इस अवधारणा पर आधारित है कि कंपनी के अध्यक्ष होने के नाते एंडरसन को मालूम होना चाहिए कि उनकी भोपाल यूनिट में क्या गड़बड़ियां हैं . श्री जेटली के नोट में साफ़ लिखा है कि इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि अमरीका में मौजूद मुख्य कंपनी के अध्यक्ष ने भोपाल की फैक्टरी के रोज़ के काम काज में दखल दिया. उन्होंने कहा कि हालांकि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन अगर मामले को आगे तक ले जाने की पालिसी बनायी जाती है तो केस दायर किया जा सकता है . ज़ाहिर हैं उस वक़्त की सरकार ने कानून के विद्वान् अपने मंत्री, अरुण जेटली की राय को जान लेने के बाद मामले को आगे नहीं बढ़ाया .

मौजूदा सरकार की भी यही राय है . उन्हें भी मालूम है कि केस बहुत कमज़ोर है लेकिन बी जे पी की ओर से मीडिया के ज़रिये शुरू किये गए अभियान से संभावित राजनीतिक नुकसान के डर से यू पी ए सरकार भी मामले चलाने का स्वांग करने के पक्ष में लगते हैं .वैसे भी बी जे पी ने इस मामले को अपनी टाप प्रायरिटी पर डाल दिया है . पता चला है कि संसद के मानसून सत्र में वे इस मामले पर भारी ताक़त के साथ जुटने वाले हैं . अब यह देखना दिलचस्प होगा कि एंडरसन के केस में राजीव गाँधी, अर्जुन सिंह वगैरह के साथ क्या अरुण जेटली को भी कटघरे में रखने की कोशिश की जायेगी क्योंकि अगर कांग्रेस ज़िम्मेदार है तो ठीक वही ज़िम्मेदारी अरुण जेटली पर भी बनती है .सरकार में मंत्री के रूप में तो अरुण जेटली ने बयान दिया ही था, निजी हैसियत में भी उन्होंने यूनियन कार्बाइड खरीदने वाली वाली कंपनी डाव केमिकल्स को कानूनी सलाह दी थी कि डाव को भोपाल गैस लीक मामले के किसी भी सिविल या क्रिमनल मुक़दमे में ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता..यह सलाह अरुण जेटली ने २००६ में दी थी जाब वे डाव केमिकल्स के एडवोकेट थे.

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीतिक फायदे के लिए बी जे पी वाले भोपाल के पीड़ितों को राहत देने के काम में हाथ डालते हैं कि नहीं . इस में दो राय नहीं है कि १९८४ से लेकर अब तक जितनी भी सरकारें दिल्ली और भोपाल में आई हैं वे सब भोपाल के गैस पीड़ितों के गुनहगार हैं . लेकिन सबसे ज्यादा ज़िम्मेदारी कांगेस की है . अब यह साफ़ हो गया है कि बी जेपी का सबसे मज़बूत नेता भी उसमें शामिल था. अब यह भी पता है कि अमरीका परस्ती की अपनी नीति के कारण न तो , बी जे पी और न ही कांग्रेस भोपाल के पीड़ितों का पक्ष लेगी . ऐसी हालत में मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि वह दोषियों को सामने लाये और सार्वजनिक रूप से कायल करे. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने बिगुल बजा दिया है , बाकी मीडिया संगठनों को भी कांग्रेस और बी जे पी के दोषी नेताओं के एकार्तूतों को सार्वजनिक डोमेन में लाने में मदद करनी चाहिये .

Wednesday, June 23, 2010

बात बिगड़ गयी है, जातिवादी नरक से निकालने के लिए महात्मा फुले की ज़रुरत है

शेष नारायण सिंह

दिल्ली में पापी लोग अपनी ही बहनों को मार डाल रहे हैं . इन दुष्टों से अपनी ही सगी बहनों की खुशियाँ नहीं देखी जा रही हैं.अभी मोनिका और कुलदीप की निर्मम हत्या की खबर आई थी . .अब उसी परिवार की एक और लड़की को भाई ने ही मार डाला. वह इसलिए नाराज़ था कि उसकी बहन ने अपनी खुशी के लिए शादी कर ली थी. उसने शादी किसी दूसरी जाति के लडके से की थी. अजीब बात है कि कहीं बच्चे इसलिए मार डाले जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी जाति के बाहर शादी कार ली है और वहीं दिल्ली के आस पास बहुत सारे लड़के लडकियां इस लिए मौत के घाट उतार दिए जा रहे हैं कि उन्होंने अपनी ही जाति और गोत्र में शादी कर ली है .इक्कीसवीं सदी चल रही है , मुल्क को आज़ाद हुए ६० साल से ऊपर हो चुके हैं ,जिन इलाकों से इस तरह की तंगदिली की खबरें आ रही हैं उन इलाकों में शिक्षा का भी प्रचार प्रसार ख़ासा है . सूचना माध्यमों का प्रभाव है जिसके चलते दुनिया भर के रीति रिवाजों की जानकारी है लेकिन फिर भी निहायत ही जंगली तरीके से अपने सगे सम्बन्धियों को मौत की सज़ा दे रहे हैं यहाँ के लोग. समझ में नहीं आता कि एकाएक जाति और उस से जुड़े मुद्दे इतने अहम क्यों हो गए हैं . सबसे अजीब बात यह है कि इन मामलों में यह जानते हुए कि भयानक अपराध के काम किये जा रहे हैं , नेता लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं. हरियाणा के मुख्य मंत्री ने तो एक तरह से जाति के बाहर शादी करने की बात को परम्परा विरुद्ध कह कर इन अपराधियों का समर्थन ही कर दिया है . बाकी नेता भी मीडिया द्वारा घेरे जाने पर गोल मोल जवाब देकर अपना पिंड छुड़ा रहे हैं. जबकि आज़ादी की लड़ाई में यह समाया हुआ है कि देश में बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना की जायेगी. हरियाणा के मुख्य मंत्री की बात बहुत अजीब इसलिए लगती है कि उनके पिता आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे और उस संविधान सभा के सदस्य थे जिसने जीवन के मौलिक अधिकार देने वाले संविधान की स्थापना की थी. इसी लिए इस वहशत के निजाम को समर्थन देने वाले भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की बात समझ मेंआने वाली नहीं है . महात्मा गाँधी खुद जाति की कट्टरता के खिलाफ थे. उन्होंने इंदिरा गाँधी की दूसरी जाति में हुई शादी को समर्थन दिया था जबकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी भी जाति और धर्म के आधार पर गैर बराबरी का समर्थन नहीं किया था. कांग्रेस को चाहिए कि जो लोग भी उनकी पार्टी में जाति और धर्म की कट्टरता का समर्थन कर रहे हों उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दें . डॉ भीम राव अंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया के नाम पर भी आज़ादी के लड़ाई के दौरान बहुत सारे लोग लामबंद हुए थे . इनकी विचार धारा को लागू करने के लिए अब कई राजनीतिक पार्टियां हैं. लेकिन वे पार्टियां भी जाति के शिकंजे को तोड़ने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं . उलटे जाति की संस्था को वोट दिलाऊ दुधारू गाय की तरह जिंदा रखना चाहती हैं .एक और अजीब बात है कि आजकल जिन इलाकों में जाति के बाहर शादी करने या अपने गोत्र में शादी करने पर हिंसक वारदातें हो रही हैं वह आर्य समाज के प्रभाव वाले क्षेत्र भी है . जो रूढ़िवाद का विरोध करने के लिए शुरू किया गया था . और तो और इस्लाम धर्म को माने वाले भी इस जाति के चक्र व्यूह में फंस गए हैं .जहां जाति के आधार पर गैर बराबरी की अनुमति ही नहीं है . लगता हैकि इस सारे जाति वादी गोरख धंधे के पीछे राजनीतिक लालच काम कर रही है और जाति को वोट बैंक के रूप में जिंदा रखने वालों का एक वर्ग देश का नेता बना हुआ है . लगता है कि अपने समाज को इस जातिवादी नरक से निकालने के लिए किसी ज्योति बा फुले की ज़रुरत पड़ेगी वरना सत्ता के लोभी नेता बिरादरी के लोग आज़ादी की विरासत को चट कर जायेंगें.हालांकि पिछले ४० वर्षों से जाति की राजनीति को हवा दे रही राजनीतिक बिरादरी के लिए जाति के मोह को छोड़ना मुश्किल होगा.लेकिन यह तय है कि किसी न किसी को आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना पडेगा और उसे कुर्बानी भी देनी पड़ेगी. जब १८४८ में ज्योति बा फुले ने दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोला था तो उन्हें उनके पिता ने ही घर से निकाल दिया था. और लगता है कि मौजूदा जातिवादी नरक का इलाज़ महात्मा फुले ही कर सकते हैं . क्योंकि बात बहुत बिगड़ गयी है

Tuesday, June 22, 2010

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अमर सिंह ने कांशीराम का रास्ता अपनाया

शेष नारायण सिंह

बिहार के साथ साथ उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम वोटों के लिए जुगाड़ शुरू हो गया है . बिहार में तो मुसलमानों को रिझाने के पारंपरिक तरीके इस्तेमाल किये जा रहे हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ नए प्रयोग हो रहे हैं . आम तौर पर चुनाव में कुछ पैसों की लालच में छोटी राजनीतिक पार्टियां बना ली जाती हैं लेकिन इस बार जो छोटी राजनीतिक पार्टियां बन रही हैं, उन्हें जनता ने गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है . डुमरिया गंज विधान सभा चुनाव में इस बात पर बहस नहीं थी कि कौन जीतेगा . सब को मालूम था कि सत्ताधारी पार्टी की उम्मीदवार ही जीतेगी लेकिन दूसरी जगह पर कौन आएगा ,इस पर चर्चा थी क्योंकि उस को ही सबसे लोकप्रिय पार्टी माना जाएगा. दूसरी जगह पर बी जे पी आ गयी जबकि राहुल गाँधी और जगदम्बिका पाल की कोशिश के बावजूद कांग्रेस बहुत पीछे छूट गयी . उत्तर प्रदेश में आम तौर पर मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी, समाजवादी पार्टी भी बहुत पिछड़ गयी. और गैर मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट देकर घोषित रूप से पिछड़े मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए बनायी गयी , पीस पार्टी का उम्मीदवार बाकायदा लड़ाई में बना रहा. पीस पार्टी के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का नंबर आया. पीस पार्टी के बारे में कहा जाता है कि उसे हिंदुत्व वादी ताक़तों ने बनवाया है ताकि मुसलमानों का वोट कांग्रेस या समाजवादी पार्टी को न मिल सके. इस बात के कोई सबूत नहीं है लेकिन ऐसा कहने वाले बहुत सारे लोग मिल जायेगें . पीस पार्टी के अलावा भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के नाम पर कई पार्टियां बन चुकी हैं. अभी उनकी राजनीतिक हैसियत कुछ ख़ास नहीं है लेकिन चुनाव के मैदान में उनकी मौजूदगी निश्चित रूप से नतीजों को प्रभावित कर रही है और करेगी भी .

उत्तर प्रदेश में डुमरिया गंज के उपचुनाव ने बहुत सारे राजनीतिक विमर्श के सूत्र छोड़े हैं . डुमरिया गंज जिस लोक सभा क्षेत्र में पड़ता है , वहां से पिछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार जगदम्बिका पाल विजयी रहे थे. डुमरिया गंज सेगमेंट में भी वे आगे थे . यानी वहां माहौल कांग्रेस के पक्ष में था लेकिन विधान सभा उपचुनाव में पांचवें स्थान पर आकर कांग्रेस ने साबित कर दिया कि लोक सभा चुनाव का नतीजा एक इत्तेफाक था .इस से ज्यादा कुछ नहीं .लेकिन इसमें कांग्रेस की प्रतिष्टा दांव पर लगी थी और वह धूमिल हुई है ..इस उपचुनाव में और भी बहुत कुछ दांव पर लगा था. कल्याण सिंह को साथ लेने के बाद समाजवादी पार्टी और मुसलमानों के सम्बन्ध भी मुस्लिम जनमत के बीच बहस का विषय हैं . हालांकि कल्याणसिंह को अब समाजवादी पार्टी ने निकाल दिया है लेकिन अभी विश्वसनीयता का संकट बना हुआ है . कुछ मुसलमान नेता भी कल्याण सिंह मामले को मुद्दा बनाने के चक्कर में थे लेकिन सफल नहीं हुए . इनमें से एक तो पार्टी से निकाले भी गए. पूरे देश के मुसलमानों का प्रतिनिधि बनने का दावा करने वाले यह नेता जी अपने विधान सभा क्षेत्र में भी समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार जयाप्रदा को हरा नहीं पाए . उनके घर के सामने , जयाप्रदा के समर्थकों ने सभा की और उनके समर्थन वाली कांग्रेसी उम्मीदवार को हराया .इसलिए मुस्लिम जनमत में उन नेता जी की तो कोई ख़ास इज्ज़त नहीं है लेकिन लोक सभा चुनावों में बड़े पैमाने पर मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से जोड़ने वाले पार्टी के पूर्व महासचिव ,अमर सिंह की राजनीति का खामियाजा समाजवादी पार्टी को भोगना पड़ रहा है. डुमरिया गंज में भी अमर सिंह ने पूरी ताक़त से पीस पार्टी के उम्मीदवार की मदद की थी. भोजपुरी फिल्मों के नायक , मनोज तिवारी और हिन्दी फिल्मों की नायिका और संसद सदस्य , जयाप्रदा के साथ डुमरिया गंज में सभा भी की थी. और भी कारण रहे होंगें जिसकी वजह से मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दिया लेकिन इस चुनाव ने साबित कर दिया कि समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह चुक जाने को तैयार नहीं हैं.. कांग्रेस की तरह समाजवादी पार्टी में भी नेता की कृपा से सत्ता का सुख भोगने का फैशन है . कांगेस में इंदिरा गाँधी के नाम पर चुनाव जीते जाते थे और जिसको भी वे पार्टी से निकाल देती थीं उसकी राजनीति का अंत हो जाता था. अब सोनिया गाँधी की लोकप्रियता की छाया में कांग्रेस के नेता लोग सत्ता का आनंद ले रहे हैं . समाजवादी पार्टी में भी यही होता था. मुलायम सिंह यादव के नाम पर ही सारी जमात राज कर रही थी . माना जा रहा था कि अमर सिंह भी उसी भीड़ का हिसा हैं जो नेता जी के नाम पर मौज कर रहे हैं. जिसको भी नेता जी ने निकाल दिया उनकी हालत खस्ता हो जाती थी और पार्टी का कोई नुकसान नहीं होता था . बेनी प्रसाद वर्मा, रघु ठाकुर,राज बब्बर, आज़म खां आदि कुछ ऐसे नाम हैं जो समाजवादी पार्टी के आलाकमान हुआ करते थे लेकिन आज कहीं नहीं हैं . अमर सिंह भी इसी दशा को प्राप्त होगें ऐसा माना जा रहा था लेकिन उन्होंने डुमरिया गंज चुनाव में हस्तक्षेप करके बता दिया है कि वे राज्य की राजनीति में मजबूती के साथ मौजूद हैं और आने वाले महीनों में अपनी पुरानी पार्टी के लिए तो मुश्किल पैदा करेगें ही, छोटी पार्टियों को जोड़कर एक ऐसा गठबंधन तैयार कर देगें जो उत्तर प्रदेश की पारंपरिक पार्टियों को सत्ता के गलियारों से बाहर भी खदेड़ सकता है. १९८७ के बाद कांशी राम ने भी यही प्रयोग किया था और आज देश के हर कोने में उनकी पार्टी की ताक़त से लोग डरते हैं. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़े पैमाने पर परिवर्तन का डंका बज चुका है . भविष्य में क्या होगा , उसके बारे में अभी कुछ कहना इसलिए ठीक नहीं होगा कि अपनी राजनीतिक समझदारी की समझ दांव पर लग सकती है .