शेष नारायण सिंह
अपने देश में चारों तरफ मंहगाई का हाहाकार है . खाने के सामान की मंहगाई को केंद्र सरकार वाले नेता गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. यह उनका मुगालता है . जो प्याज कभी ९० रूपये की एक किलो बिक चुकी थी, पंद्रह दिन के अन्दर वही प्याज नाशिक मंडी में घटकर चार रूपये किलो तक पंहुच गयी.मंडी में नीलामी रोकनी पड़ी जिस से कि किसानों को बहुत ज्यादा नुकसान न हो .हालांकि जानकार बताते हैं कि इस सरकार को किसानों के हित से कोई लेना देना नहीं है , मंडी में कारोबार इसलिए रोका गया था कि जमाखोरों को बहुत बड़ा घाटा न हो जाए . आखिर जमाखोर ही तो राजनीतिक दलों की झोली में धन डालता है जिसकी वजह से चुनावों में बेहिसाब खर्च होता है. प्याज के अलावा भी खाने की हर चीज़ की कीमत बेतहाशा बढ़ गयी है और सरकार अलगर्ज़ है . दिल्ली दरबार में सबसे ऊपर बैठे लोगों को अफ्रीकी देश ,मिस्र में चल रहे जन आन्दोलन पर नज़र डाल लेनी चाहिए . वहां की जनता सडकों पर है और तीस साल से अमरीका की मदद से तानाशाही हुकूमत चला रहे राष्ट्रपति, होस्नी मुबारक की हालात खस्ता है . फौज के सहारे राज करने की कोशिश कर रहे मुबारक को अब कोई नहीं बचा सकता . यह जान लेना ज़रूरी है कि उनका पतन किन कारणों से हुआ है . ब्रिटिश अखबार फाइनेशियल टाइम्स लिखता है कि खाने की चीज़ों की आसमान छूती कीमतें ,बेरोजगारी और गरीब-अमीर के बीच बहुत तेज़ी से बढ़ रही खाईं के कारण मिस्र में जनता ने सरकार के खिलाफ मैदान लिया है.. अगर इन कारणों से जनता सड़क पर आ सकती है तो हमारे हुक्मरान को क्या कान में तेल डाल कर सोते रहने का मौका है ? क्या यही हालात भारत के हर गली कूचे में नहीं हैं . सच्ची बात यह है कि यह चेतावनी है कि दुनिया में जहां भी मंहगाई हो, बेरोजगारी हो और अमीर गरीब के बीच खाईं बहुत ज़्यादा हो ,वहां की सरकारों को संभल जाना चाहिए क्योंकि भूख से तड़प रहे आदमी की बर्दाश्त की कोई हद नहीं होती है .जब वह झूम के उठता है तो फौज - फाटे के तिनकों की औकात नहीं कि वह उस तूफान को रोक सके. मिस्र में आजकल वही तूफ़ान है . राजधानी काहिरा में फौज की एक नहीं चल रही हाई . पिरामिडों के शहर गिज़ा में थाने जलाए गए हैं . देश के दूसरे सबसे बड़े शहर अलेक्सांद्रिया में चारों तरफ जनता ही जनता है .होस्नी मुबारक की सत्ताधारी पार्टी ,नैशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के काहिरा के मुख्यालय को लोगों ने आग के हवाले कर दिया है . यहाँ यह भी समझ लेने की ज़रुरत है कि इस आन्दोलन की अगली कतार में मुस्लिम ब्रदरहुड है जिसको आम तौर पर दक्षिण पंथी ताक़त के रूप में जाना जाता है . उस की कोई साख नहीं है लेकिन देश का हर आमो-ख़ास उसके साथ है . होस्नी मुबारक की सरकार को उखाड़ फेंकना चाहता है . आम आदमी को इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि आन्दोलन की अगुवाई कौन कर रहा है , वह तो महगाई की सरकार के खिलाफ लामबंद है . हमारे हुक्मरान को भी इस बात पर गौर करना चाहिए कि अगर जनता की पक्षधर पार्टियां सरकार के खिलाफ आन्दोलन में कमज़ोर पायी गयीं तो यहाँ की जनता भी दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ उसके खिलाफ सडकों पर आने में संकोच नहीं करेगी. .
पूरी अरब दुनिया में मंहगाई के खिलाफ जनता मैदान ले रही है . अभी कुछ दिन पहले ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति, ज़ैनुल आबिदीन बेन अली की सरकार को जनता ने ज़मींदोज़ किया है . और अब अरब देश मिस्र का वही हाल होने वाला है . ट्यूनीशिया में भी जनता की बगावत का कारण वही था जो मिस्र सहित बाकी अरब देशों में है . ट्यूनीशिया में जनता सडकों पर महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त करने आई थी . आन्दोलन पूरी तरह से खाद्य सामग्री की बढ़ी हुई कीमतों और बेरोजगारी के खिलाफ था लेकिन सरकार की शह पर देश के साहूकार वर्ग ने फलों और सब्जियों की कीमत भी बढ़ा दी . समझ लेने की ज़रुरत है कि वहां खेती लगभग पूरी तरह से कारपोरेट सेक्टर के कब्जे में है . जैसे आजकल अपने यहाँ केंद्र सरकार ऐसी नीतियाँ बना रही है जिस से बड़े पूंजीपति घराने खेती पर क़ब्ज़ा कर लें . उसी तरह ट्यूनीशिया में भी आज से करीब १५ साल पहले हुआ था . यानी खाने पीने की चीजोंकी कीमत पर काबू करने के आम आदमी के आन्दोलन ने वह शक्ल अख्तियार कर लिया जिसकी वजह से सरकार को ही जाना पड़ा . मिस्र में भी ट्यूनीशिया की कार्बन कापी जैसा ही आन्दोलन चल रहा है . जानकार बताते हैं कि होस्नी मुबारक की सरकार का बच पाना भी लगभग नामुमकिन है . ट्यूनीशिया और मिस्र की तरह ही अल्जीरिया में भी महंगाई के खिलाफ आन्दोलन शुरू हो रहा है . हालांकि खबर है कि अल्जीयर्स की सरकार ने ब्रेड की कीमतों में भारी कटौती की है . ध्यान रहे कि यह कटौती किसी सूझबूझ की वजह से नहीं ,अपनी सरकार बचाने के लिए की गयी है . इस बीच अरब देश मारीतानिया में भी महंगाई के खिलाफ ज्वालामुखी धधकना शुरू हो गया है . वहां भी कुछ लोगों ने मिस्र,ट्यूनीशिया और अल्जीरिया की तरह आत्मदाह कर लिया है . वहां भी आन्दोलन कभी भी भड़क सकता है . इस बीच खबर है कि मोरक्को, लीबिया और जार्डन के शासकों ने तूफ़ान की आहट को भांप लिया है .और खाने के सामान पर सब्सिडी का भारी प्रावधान किया है . गरीब देशों के अलावा खाने की चीज़ों की महंगाई यूरोप के देशों में भी खतरे की घंटी बज रही है . फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी ने विश्व बैंक से आग्रह किया है कि इस बात की जांच की जाए कि खाने की चीजों में महंगाई का जो मामला है वह क्यों इतना खतरनाक होता जा रहा है .
खाने के सामान की मंहगाई हमेशा से ही सत्ताधारी जमातों के लिए खतरे की घंटी हुआ करती थी लेकिन अब यह तेज़ रफ़्तार से चलती है और सरकारें बदल देती है . ट्यूनीशिया और मिस्र की घटनाएं इसका ताज़ा उदाहरण हैं . साठ के दशक में भी अफ्रीकी देशों में खाद्य दंगे हो चुके हैं लेकिन इस बार की तरह इतनी तेज़ी से फैले नहीं थे . उन दिनों सूचना की आवाजाही की व्यवस्था इतनी ज्यादा नहीं थी . अब जो कुछ भी एक जगह होता है उसे पूरी दुनिया देखती है . जिसकी वजह से जागरूकता बढ़ती है और सरकारें गिरती हैं . ज़ाहिर है कि हमारी सरकार को भी पूंजीपतियों के हित से थोडा सा ध्यान हटाकर जनता की परेशानियों की तरफ नज़र डालनी चाहिए वरना जब जनता झूम के उठेगी तो हुकूमत के तिनके कुछ नहीं कर पायेगें.
Showing posts with label प्याज. Show all posts
Showing posts with label प्याज. Show all posts
Sunday, January 30, 2011
Monday, July 5, 2010
अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा
शेष नारायण सिंह
मौजूदा सरकार महंगाई को गंभीरता से नहीं ले रही है. जो सरकारें गरीब आदमी की मजबूरियों को दरकिनार करती हैं ,वे चुक जाती हैं . यह गलती पिछले ज़माने में कई सरकारें कर चुकी हैं और नतीजा भोग चुकी हैं . जनता पार्टी १९७७ में सत्ता में आई थी . पार्टी क्या थी ,पूरी शंकर जी की बारात थी. भांति भांति के नेता शामिल हुए थे उसमें. इसमें दो राय नहीं कि इंदिरा गाँधी के कुशासन के खिलाफ जनता पार्टी को जीता कर आम आदमी ने अपना जवाब दिया था . लेकिन सरकार से और भी बहुत सारी उम्मीदें की जाती हैं . जनता पार्टी के मंत्री लोग यह मान कर चल रहे थे कि अब इंदिरा गाँधी की दुबारा वापसी नहीं होने वाली है इसलिए वे आपसी झगड़ों में तल्लीन हो गए. समाजवादियों ने सोचा कि जनता पार्टी में भर्ती हुए जनसंघ के नेताओं को मजबूर किया जाए कि वे आर एस एस से अलग हो जाएँ जबकि जनसंघ वाले सोच रहे थे कि गाँधी हत्या में फंस जाने के कारण लगे कलंक को साफ़ कर लिया जाए .जनता पार्टी की स्वीकार्यता के सहारे अपने को फिर से मुख्यधारा में लाया जाए. उस वक़्त के प्रधानमंत्री , मोरारजी देसाई ने ऐलान कर दिया था कि इंदिरा राज के कूड़े को साफ़ करने के लिए उन्हें १० साल चाहिए और समाजवादी नेता लोग अपनी स्टाइल में लड़ने झगड़ने लगे थे . व्यापारी वर्ग बेलगाम हो गया . दिल्ली में तो सारे व्यापारी जनसंघ की वजह से सरकार बन गए थे और लूट मचा दी . महंगाई आसमान पर पंहुच गयी . इंदिरा गाँधी के सलाहकारों ने माहौल को ताड़ लिया और १९७९ में जब जनता पार्टी टूटी तो महंगाई को ही मुद्दा बना दिया . उस साल प्याज की कीमतें बहुत बढ़ गयी थीं और इंदिरा गांधी के चुनाव प्रबंधकों ने १९७७ के फरवरी माह और १९७९ के नवम्बर माह के प्याज के दामों को एक चार्ट में डालकर पोस्टर बनाया और चुनाव में झोंक दिया . महंगाई जनता की दुखती रग थी और उसने नौकर बदल दिया . जनता पार्टी वाले निकाल बाहर किये गए और इंदिरा गाँधी की बहाली हो गयी. १९८० में चुनाव हार कर लौटे जनता पार्टी के नेता कहते पाए जाते थे कि नयी कांग्रेसी सरकार प्याज के छिलकों के सहारे बनी है और प्याज के छिलकों जैसे ही ख़त्म हो जायेगी. ऐसा कुछ नहीं हुआ और सरकार चलती रही जबकि जनता पार्टी के नेता लोग तरह तरह की पार्टियां बनाते रहे और सब जीरो होने के कगार पर पंहुच गए.
यू पी ए-२ भी महंगाई को काबू करने में नाकाम रही है .लेकिन एक फर्क है . जनता पार्टी के वक़्त में महंगाई इसलिए बढ़ी थी कि सरकार में आला दर्जे पर बैठे नेता लोग गैरजिम्मेदार थे.उनकी बेवकूफी की नीतियों की वजह से महंगाई बढ़ी थी लेकिन यू पी ए-२ में मामला बहुत गंभीर है . इस सरकार में बहुत सारे ऐसे मंत्री हैं जिनपर महंगाई बढाने वाले औद्योगिक घरानों के लिए काम करने का आरोप लगता रहता है . मौजूदा महंगाई के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार ईंधन की कीमतों में हो रही वृद्धि है . आम आदमी के लिए सबसे दुखद बात यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से जिस पूंजीपति घराने को सबसे ज्यादा लाभ होता है उसके खिलाफ बोलने की हिम्मत न तो कांग्रेस के किसी मंत्री में है और न ही मुख्य विपक्ष के किसी नेता में . जो भी हो ,महंगाई कमरतोड़ है और उस से निजात दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी है . अगर ऐसा तुरंत न किया गया तो मौजूदा सरकार का भी वही हाल होगा जो १९७९ में जनता पार्टी की सरकार का हुआ था.देश का दुर्भाग्य यह भी है कि निजी लाभ के चक्कर में रहने वाले नेताओं से ठुंसे हुए राजनीतिक स्पेस में जनता की पक्षधर कोई जमात नहीं है . महंगाई के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलन की अगुवाई कर रही बी जे पी के लगभग सभी बड़े नेता अभी छः साल पहले केंद्र सरकार से फारिग हुए हैं . उनमें से किसी के बारे में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे उन्हीं पूंजीपतियों की हित साधना नहीं करेगें जिसकी हित साधना में कांग्रेसी लगे हुए हैं. तीसरे मोर्चे के नाम पर गाहे ब गाहे संगठित होने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के नेता तो शुद्ध रूप से लूट मचाने की नीयत से ही दिल्ली आते हैं . वे कभी कांग्रेस के साथ होते हैं तो कभी बी जे पी के साथ लेकिन एजेंडा वही लूट खसोट का ही होता है . स्पेक्ट्रम वाली लूट जिस पार्टी के नेता ने की है उसकी पार्टी आज कांग्रेस के साथ है लेकिन कभी यही लोग बी जे पी के ख़ासम ख़ास हुआ करते थे. अभी दस साल पहले जिन नेताओं के पास रोटी के पैसे नहीं होते थे वे आज करोड़ों के मालिक हैं . अफ़सोस की बात यह है कि इन बे-ईमान नेताओं के बारे में कोई निजी बातचीत में भी दुःख नहीं जताता .
महंगाई के विरोध के नाम पर दिल्ली में एक बड़ा प्रदर्शन हो रहा है . उसमें वे सारी जमाते शामिल हैं जिनके नेताओं पर भ्रष्टाचार के नाना प्रकार के केस दर्ज हैं . कुछ ऐसे हैं जिनपर केस नहीं दर्ज हैं लेकिन उनकी संपत्ति में बे-ईमानी और घूसखोरी के दृष्टांत साफ़ नज़र आते हैं . ऐसी सूरत में इस बात की उम्मीद तो कम की जानी चाहिए कि आने वाले वक़्त में जनता को कुछ राहत मिलेगी लेकिन सत्ता गंवा देने के डर से अगर मौजूदा सरकार ही कुछ ठीक काम कर जाय तो हालात अभी सुधरने लायक हैं . अब तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस देश की बाएं बाजू की राजनीतिक ताक़तें आम आदमी को जगा देगीं और वह शोषित वर्गों के रहबर के रूप में सडकों पर आ जाएगा. लेकिन हालात तो सुधरने ही चाहिये और अगर मौजूदा राजनीतिक पार्टियां अपना राग नहीं बदलतीं तो फिर कहीं कोई नेता उठेगा और सत्ता के मद में पागल सरकारी और विपक्ष दोनों को ही उनकी औकात बता देगा.
मौजूदा सरकार महंगाई को गंभीरता से नहीं ले रही है. जो सरकारें गरीब आदमी की मजबूरियों को दरकिनार करती हैं ,वे चुक जाती हैं . यह गलती पिछले ज़माने में कई सरकारें कर चुकी हैं और नतीजा भोग चुकी हैं . जनता पार्टी १९७७ में सत्ता में आई थी . पार्टी क्या थी ,पूरी शंकर जी की बारात थी. भांति भांति के नेता शामिल हुए थे उसमें. इसमें दो राय नहीं कि इंदिरा गाँधी के कुशासन के खिलाफ जनता पार्टी को जीता कर आम आदमी ने अपना जवाब दिया था . लेकिन सरकार से और भी बहुत सारी उम्मीदें की जाती हैं . जनता पार्टी के मंत्री लोग यह मान कर चल रहे थे कि अब इंदिरा गाँधी की दुबारा वापसी नहीं होने वाली है इसलिए वे आपसी झगड़ों में तल्लीन हो गए. समाजवादियों ने सोचा कि जनता पार्टी में भर्ती हुए जनसंघ के नेताओं को मजबूर किया जाए कि वे आर एस एस से अलग हो जाएँ जबकि जनसंघ वाले सोच रहे थे कि गाँधी हत्या में फंस जाने के कारण लगे कलंक को साफ़ कर लिया जाए .जनता पार्टी की स्वीकार्यता के सहारे अपने को फिर से मुख्यधारा में लाया जाए. उस वक़्त के प्रधानमंत्री , मोरारजी देसाई ने ऐलान कर दिया था कि इंदिरा राज के कूड़े को साफ़ करने के लिए उन्हें १० साल चाहिए और समाजवादी नेता लोग अपनी स्टाइल में लड़ने झगड़ने लगे थे . व्यापारी वर्ग बेलगाम हो गया . दिल्ली में तो सारे व्यापारी जनसंघ की वजह से सरकार बन गए थे और लूट मचा दी . महंगाई आसमान पर पंहुच गयी . इंदिरा गाँधी के सलाहकारों ने माहौल को ताड़ लिया और १९७९ में जब जनता पार्टी टूटी तो महंगाई को ही मुद्दा बना दिया . उस साल प्याज की कीमतें बहुत बढ़ गयी थीं और इंदिरा गांधी के चुनाव प्रबंधकों ने १९७७ के फरवरी माह और १९७९ के नवम्बर माह के प्याज के दामों को एक चार्ट में डालकर पोस्टर बनाया और चुनाव में झोंक दिया . महंगाई जनता की दुखती रग थी और उसने नौकर बदल दिया . जनता पार्टी वाले निकाल बाहर किये गए और इंदिरा गाँधी की बहाली हो गयी. १९८० में चुनाव हार कर लौटे जनता पार्टी के नेता कहते पाए जाते थे कि नयी कांग्रेसी सरकार प्याज के छिलकों के सहारे बनी है और प्याज के छिलकों जैसे ही ख़त्म हो जायेगी. ऐसा कुछ नहीं हुआ और सरकार चलती रही जबकि जनता पार्टी के नेता लोग तरह तरह की पार्टियां बनाते रहे और सब जीरो होने के कगार पर पंहुच गए.
यू पी ए-२ भी महंगाई को काबू करने में नाकाम रही है .लेकिन एक फर्क है . जनता पार्टी के वक़्त में महंगाई इसलिए बढ़ी थी कि सरकार में आला दर्जे पर बैठे नेता लोग गैरजिम्मेदार थे.उनकी बेवकूफी की नीतियों की वजह से महंगाई बढ़ी थी लेकिन यू पी ए-२ में मामला बहुत गंभीर है . इस सरकार में बहुत सारे ऐसे मंत्री हैं जिनपर महंगाई बढाने वाले औद्योगिक घरानों के लिए काम करने का आरोप लगता रहता है . मौजूदा महंगाई के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार ईंधन की कीमतों में हो रही वृद्धि है . आम आदमी के लिए सबसे दुखद बात यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से जिस पूंजीपति घराने को सबसे ज्यादा लाभ होता है उसके खिलाफ बोलने की हिम्मत न तो कांग्रेस के किसी मंत्री में है और न ही मुख्य विपक्ष के किसी नेता में . जो भी हो ,महंगाई कमरतोड़ है और उस से निजात दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी है . अगर ऐसा तुरंत न किया गया तो मौजूदा सरकार का भी वही हाल होगा जो १९७९ में जनता पार्टी की सरकार का हुआ था.देश का दुर्भाग्य यह भी है कि निजी लाभ के चक्कर में रहने वाले नेताओं से ठुंसे हुए राजनीतिक स्पेस में जनता की पक्षधर कोई जमात नहीं है . महंगाई के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलन की अगुवाई कर रही बी जे पी के लगभग सभी बड़े नेता अभी छः साल पहले केंद्र सरकार से फारिग हुए हैं . उनमें से किसी के बारे में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे उन्हीं पूंजीपतियों की हित साधना नहीं करेगें जिसकी हित साधना में कांग्रेसी लगे हुए हैं. तीसरे मोर्चे के नाम पर गाहे ब गाहे संगठित होने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के नेता तो शुद्ध रूप से लूट मचाने की नीयत से ही दिल्ली आते हैं . वे कभी कांग्रेस के साथ होते हैं तो कभी बी जे पी के साथ लेकिन एजेंडा वही लूट खसोट का ही होता है . स्पेक्ट्रम वाली लूट जिस पार्टी के नेता ने की है उसकी पार्टी आज कांग्रेस के साथ है लेकिन कभी यही लोग बी जे पी के ख़ासम ख़ास हुआ करते थे. अभी दस साल पहले जिन नेताओं के पास रोटी के पैसे नहीं होते थे वे आज करोड़ों के मालिक हैं . अफ़सोस की बात यह है कि इन बे-ईमान नेताओं के बारे में कोई निजी बातचीत में भी दुःख नहीं जताता .
महंगाई के विरोध के नाम पर दिल्ली में एक बड़ा प्रदर्शन हो रहा है . उसमें वे सारी जमाते शामिल हैं जिनके नेताओं पर भ्रष्टाचार के नाना प्रकार के केस दर्ज हैं . कुछ ऐसे हैं जिनपर केस नहीं दर्ज हैं लेकिन उनकी संपत्ति में बे-ईमानी और घूसखोरी के दृष्टांत साफ़ नज़र आते हैं . ऐसी सूरत में इस बात की उम्मीद तो कम की जानी चाहिए कि आने वाले वक़्त में जनता को कुछ राहत मिलेगी लेकिन सत्ता गंवा देने के डर से अगर मौजूदा सरकार ही कुछ ठीक काम कर जाय तो हालात अभी सुधरने लायक हैं . अब तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस देश की बाएं बाजू की राजनीतिक ताक़तें आम आदमी को जगा देगीं और वह शोषित वर्गों के रहबर के रूप में सडकों पर आ जाएगा. लेकिन हालात तो सुधरने ही चाहिये और अगर मौजूदा राजनीतिक पार्टियां अपना राग नहीं बदलतीं तो फिर कहीं कोई नेता उठेगा और सत्ता के मद में पागल सरकारी और विपक्ष दोनों को ही उनकी औकात बता देगा.
Labels:
प्याज,
महंगाई,
मोरारजी देसाई,
शेष नारायण सिंह
Subscribe to:
Posts (Atom)