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Friday, June 26, 2009

पाकिस्तान तबाही की ओर

पाकिस्तान में हालात सुधरने के बजाय बिगड़ रहे हैं, इसका एक और प्रमाण है लाहौर में पुलिस प्रशिक्षण केंद्र पर आतंकियों का हमला। इस हमले के जरिये पाकिस्तान में फल-फूल रहे आतंकियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे कहीं अधिक दुस्साहसी हो गए हैं और कभी भी कहीं पर भी हमला करने में समर्थ हैं।

इस स्थिति के लिए यदि कोई जिम्मेदार है तो पाकिस्तान का सत्ता तंत्र। जब कभी पाकिस्तान पर उंगलियां उठती हैं तो सरकार के स्तर पर इस तरह के बहादुरी भरे बयान देने की होड़ मच जाती है कि हम एक जिम्मेदार देश हैं, हमारे यहां कानून का शासन है और किसी को हमारे आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन जब आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई का सवाल उठता है तो यह प्रतीति कराई जाती है कि उन पर किसी का जोर नहीं-यहां तक कि उस तथाकथित शक्तिशाली सेना का भी नहीं जो खुद को आदर्श सैन्य बल के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करती रहती है।

स्पष्ट है कि या तो पाकिस्तान में आतंकवाद से लडऩे का इरादा नहीं या फिर वह आतंकी संगठनों को नियंत्रित करने के नाम पर दुनिया की आंखों में धूल झोंक रहा है। यदि ऐसा नहीं होता तो सरकारी स्तर पर आतंकी संगठनों का बचाव नहीं किया जाता और न ही उन्हें नाम बदलकर सक्रिय होने की सुविधा प्रदान की जाती। क्या यह एक तथ्य नहीं कि पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तान ने हर उस आतंकी संगठन पर लगाम लगाने के बजाय उसे नए नाम से सक्रिय होने की छूट दी जिस पर विश्व समुदाय और विशेष रूप से अमेरिका ने नजर टेढ़ी की?

वैसे तो इस तथ्य से अमेरिका भी परिचित है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसे पाकिस्तान के बहाने सुनने में विशेष सुख मिलता है। अभी तक बुश प्रशासन पाकिस्तान के बहाने सुन रहा था। अब यही काम ओबामा प्रशासन कर रहा है और वह भी तब जब एक के बाद एक अमेरिकी अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई अभी भी अलकायदा, तालिबान आदि आतंकी संगठनों के साथ है। यदि पाकिस्तान तबाही के रास्ते पर जा रहा है तो इसमें जितना हाथ उसके अपने नेताओं का है उतना ही अमेरिकी नेताओं का भी है।

जिस तरह मुशर्रफ अमेरिका को धोखा देने में समर्थ थे उसी तरह आसिफ अली जरदारी भी हैं। जरदारी पर भरोसा करने का मतलब है, खुद को धोखा देना। वह अपनी कुर्सी मजबूत करने के लिए उन आतंकियों को भी गले लगा सकते हैं जिन पर बेनजीर भुंट्टो की हत्या का संदेह है। यह संभव है कि अमेरिका को पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता तंत्र की असलियत समझने में देर लगे, लेकिन आखिर भारत को अब क्या समझना शेष है? जब इसके कहीं कोई संकेत भी नहीं हैं कि पाकिस्तान अपने यहां के आतंकी संगठनों के खिलाफ कोई कदम उठाएगा तब फिर उसे ऐसा करने की नसीहत देते रहने और हाथ पर हाथ रखकर बैठने का क्या मतलब?

समझदारी का तकाजा यह है कि भारत एक ऐसे पाकिस्तान का सामना करने के लिए तैयार रहे जो विफल होने की कगार पर है। भारत को और अधिक सतर्कता इसलिए भी दिखानी चाहिए, क्योंकि उसकी सीमा के निकट आतंकियों की गतिविधियां कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं।

पद की गरिमा

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपाल स्वामी ने जाते जाते एक और कारनामा कर दिखाया है जिससे उनके बारे में जो शक शुरू था, उसके सच्चाई में बदलने के आसार बढ़ गए हैं इसके पहले भी चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश करके श्री गोपाल स्वामी, विवादों में घिर चुके हैं। बीजेपी के नेताओं की शिकायत पर उन्होंने नवीन चावला के खिलाफ कार्रवाई की शुरूआत कर दी थी।

उस वक्त आम धारणा यह बनी थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त ने फैसला करने के लिए कुछ ऐसे तथ्यों पर भी विचार किया था जो फाइल में नहीं थे। इस बार भी उन्होंने कांगेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ कार्रवाई करने की इच्छा जता कर, एक खास राजनीतिक दल के लिए अपनी मुहब्बत का खुलासा कर दिया है।

वर्तमान मामला ऐसा नहीं था जिसमें बहुत कुछ किया जा सके। मामला 2006 का है जब बेल्जियम की सरकार ने सोनिया गांधी को एक नागरिक सम्मान देकर उनका अभिनंदन किया था। यह वह दौरा था जब बीजेपी वाले यह मानते थे कि सोनिया गांधी बहुत मामूली राजनीतिक नेता हैं उसके दो साल पहले ही बीजेपी नेता सुषमा स्वराज ने धमकी दे रखी थी कि अगर सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री बनीं तो सुषमा जी सिर मुंडवा लेंगी। 2006-07 तक भी बीजेपी के सोनिया गांधी के प्रति रूख में यही हल्कापन नजर आता था।

इसी सोच के तहत सोनिया गांधी को फूंक कर उड़ा देने की मंशा के तहत यह कदम उठाया गया था शायद दिमाग में कहीं यह विचार भी रहा हो कि गोपाल स्वामी साहब से अच्छे रसूखा के चलते सोनिया गांधी को अपमानित करने का एक मौका हाथ आ जाएगा। चुनाव आयोग में इस तरह की बहुत सारी शिकायतें आती रहती हैं और उनका निपटारा होता रहता है, लेकिन गोपाल स्वामी ने न केवल मामले को महत्व दिया बल्कि इस पर कार्रवाई करने के अपने मंसूबे का भी इजहार किया। यह अलग बात है कि अपने रिटायर होने के ठीक एक दिन पहले इस तरह का आचरण करके उन्होंने अपनी प्रतिबद्घता का साफ संकेत दिया है।

और निर्वाचन आयोग की गरिमा पर ठेस पहुंचाने की कोशिश की है। माना जाता है कि संवैधानिक मर्यादा सुनिश्चित करने वाले संगठनों के खिलाफ आम तौर पर बयान नहीं दिया जाना चाहिए ऐसा करना लोकतंत्र के हित में नहीं हैं। यहां यह बात दिलचस्प है कि चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संगठनों की मार्यादा को सर्वोच्च रखने का जिम्मा उन लोगों पर भी तो है जो वहां बड़े पदों पर बैठे हुए हैं अगर सर्वोच्च पद पर बैठे हैं। व्यक्ति के कार्यकलाप से ही यह संकेत मिलने लगे कि वह अपने पद की गरिमा को नहीं संभाल पा रहा है तो यह देश का दुर्भाग्य है।

यहां यह कहने की बिल्कुल मंशा नहीं है कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त का किसी खास राजनीतिक पार्टी से संबंध है लेकिन इस बात पर हैरत जरूर है कि उनके ज्यादातर फैसलों से देश की राजनीति में एक खास सोच के लोगों का फायदा होता था। बहरहाल अब तो वे रिटायर हो गए लेकिन अपने पद की गरिमा के साथ उन्होंने जो ज्यादती की है उसे दुरूस्त होने में बहुत समय लगेगा।

अब ठोस मुद्दों पर वोट

लोकसभा पहले चरण के चुनाव के बाद चुनाव प्रचार के तरी$के में कुछ बदलाव नज़र आ रहा है। जातियों में बंटे समाज में कुछ परिवरर्तन के संकेत नजर आ रहे हैं। बिहार में नेता और केंद्र में रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव के भाषणों का रूख बदला हुआ है। पिछले 20 वर्षो से मुसलमानों के समर्थन के बल पर राजनीति में सफल रहे लालू प्रसाद यादव की चिंता का रंग बदल गया है।

अब तक लालू यह मान बैठे थे कि मुसलमानों के वोट पर उनका एकाधिकार है लेकिन 16 अप्रैल को जब पहले दौर के वोट पड़े और जो संकेत मिले, उससे लालू यादव यादव परेशान हो गए। केंद्र में अपनी साथी पार्टी, कांग्रेस को बिहार में तीन सीटें देकर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को उसकी औक़ात बताने की कोशिश की थी लेकिन कांग्रेस ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर लालू-राम विकास की राजनीति को ज़बरदस्त झटका दिया है। पहले दौर में मुसलमानों ने कई क्षेत्रों में कांग्रेस को वोट दिया, उनका तर्क है कि लालू यादव अब तक केवल भावनत्तमक अपील के सहारे मुसलमानों का समर्थन लेते रहे हैं, मुसलिम समाज के विकास के लिए कुछ नहीं किया।

ज़ाहिर है कि विकास की दिशा में कोई ठोस काम न किया जाए तो बहुत दिन तक किसी को भी साथ नहीं रखा जा सकता। उत्तर प्रदेश में भी मुसलमानों का वोट महत्तवपूर्ण है और अधिकतर सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। यहां मुसलमानों का वोट आमतौर पर पिछले बीस वर्षो से मुलायम सिंह यादव को मिलता रहा है। इसके ठोस कारण हैं। भावनातमक स्तर पर भी मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह की इज़्ज़त है। आज भी 1990 मेें बाबरी मस्जिद की हिफाज़त की मुलायम सिंह सरकार की कोशिश को न केवल मुसलमान बल्कि पूरी दुनिया के सही सोच वाले लोग सम्मान से याद करते हैं। लेकिन उसके बाद भी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में सरकार चलाने का मौ$का मिला तो उन्होंने मुसलमानों के हित में काम दिया।

आर्थिक क्षेत्र में विकास की कोशिश मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में बेहतर अवसर की कोशिश कुछ ऐसे काम हैं, जिन की वजह से मुसलमान आज मुलायम सिंह के साथ हैं। वर्तमान लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को मदद करने से धर्मनिरपेक्ष ता$कतों को मज़बूती मिलने के आसार हैं मुसलमान वहां कांग्रेस के साथ हैं। मुलायम सिंह यादव ने ऐसी परिस्थितियां भी पैदा कीं हैं जहां उनका उम्मीदवार कमज़ोर है, वहां कांग्रेस को मज़बूत करने का संकेत साफ नज़र आता है। उत्तर प्रदेश की गाजि़याबाद सीट पर तो लगता है कि मुलायम सिंह की कोशिश के नतीजे में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह चुनाव हार जाएंगे।

मुसलमानों में मुलायम सिंह की लोकप्रियता को कमज़ोर करने की कोशिश चल रही है। मायावती ने राज्य में मुसलमानों को उम्मीदवार बनाकर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की है। मुलायम सिंह के पुराने साथी और रामपुर के विधायक आज़म ख़ान भी आजकल रामपुर के कांग्रेस उम्मीदवार की मदद में लगे हैं। मुलायम सिंह इससे बहुत नाराज़ हैं। समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश स्तर के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया है कि आज़म खान अभी तक कांग्रेस की सेवा में थे अब बीजेपी से भी संपर्क में हैं। बहर हाल सचाई यह है कि मुसलमानों में भावनात्मक अपीलों के अलावा ठोस मुद्दों पर राजनीतिक $फैसले लेने की बात ज़ोर पकड़ चुकी है और बीजेपी के साथियों को हराने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

भाजपा से भागते नेता

झारखंड के पूर्व मुख्य मंत्री और कभी बीजेपी के नेता रहे बाबू लाल मरांडी ने कहा है कि वह भाजपा में वापस कभी नहीं जाएंगे। उन्होंने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा बना ली है। आजकल झाडखंड में हर सीट पर खड़े हुए अपने प्रत्याशियों के लिए वे चुनाव प्रचार कर रहे हैं। झारखंड के इलाके में बीजेपी के काम को आगे बढ़ाने में बाबू लाल मरांडी का योगदान सबसे ज्यादा है।

इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि बाबूलाल मरांडी जैसा आदमी उस पार्टी से इतना नाराज क्यों है कि वह मर जाना बेहतर समझते हैं लेकिन पार्टी में वापस जाने को राजी नहीं है। बीजेपी के वर्ग चरित्र को समझे बिना इस गुत्थी को समझ पाना मुमकिन नहीं है। बीजेपी एक ऐसी पार्टी है जो पूरी तरह से आर एस एस के नियंत्रण में है और राजनीतिक क्षेत्र में आरएसएस के लक्ष्य को हासिल करना ही बीजेपी या उसके पहले वाली भारतीय जन संघ का उद्देश्य है। इस तरह हम देखते हैं कि बीजेपी कहने को तो राजनीतिक पार्टी है लेकिन असल में वह एक ऐसा संगठन है जिसकी प्रोप्राइटर आरएसएस है।

बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार स्वीकार किया कि राजनीतिक में वो जो कुछ भी करते हैं, आरएसएस के मकसद को हासिल करने के लिए करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि बीजेपी में जो भी रहेगा उसे हिंदुत्व का लक्ष्य हासिल करने के लिए काम करना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि बाबू लाल मरांडी को बीजेपी की राजनीति का यह पहलू साफ तौर पर समझ में आ गया है और वे अब वापस बीजेपी में किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं। बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीतिक का उद्देश्य हिंदू समाज के अभिजात वर्ग को सत्ता दिलाना है और उसमें बाबू लाल मरांडी के समाज के आदिवासी लोग तो सेवक की भूमिका में ही रहेंगे।

यह समझना बहुत जरूरी है कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व में बहुत फर्क है। हिंदू धर्म को मोटे तौर पर सनातन धर्म से जोड़कर जाना जाता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई सख्त नियम कानून नहीं हैं पूजा करने की आज़ादी है, कोई पूजा पाठ न भी करे तो हिंदू बना रह सकता है। आमतौर पर हिंदू धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय होता है और उसका प्रदर्शन सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं किया जाता। अगर हिंदू परिवार में जन्म हुआ हो और आदमी पूजा पाठ न भी करे तो वह हिंदू बना रह सकता है। कहा जा सकता है कि असली हिंदू धर्म एक लिबरल धर्म है।

इसके पलट हिंदुत्व वह सिद्घांत है जो हिंदुओं की एकता करके और उस एकता के सहारे राजनीतिक सत्ता हासिल करने की बात करता है। हिंदूत्व की विचारधारा की शुरूआत 1924 में सावरकर ने की थी। और आरएसएस के संस्थापक, हेडगेवार से अपील की थी कि हिंदू समाज को हिंदुत्व की विचारधारा की घुट्टी पिलाकर एक राजनीतिक ताकत में बदल दें। पिछले 85 वर्षो से आरएसएस यही कोशिश कर रहा है। जितने भी दंगे हुए हैं उनमें आरएसएस के वे लोग शामिल होते हैं जो हिन्दुत्वादी विचारधारा के शिकंजे में फंस चुके होते हैं। बाद में हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए आरएसएस भारतीय जनसंघ, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठनों की स्थापना की ओर हिंदूत्व को पूरी तरह आक्रामक बना दिया है।

बाबरी मस्जिद की शहादत भी इन्हीं हिंदुत्ववादियों की राजनीतिक सोच का नतीजा है। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने 2002 में जिस तरह से चुन-चुन कर मरवाया वह भी हिंदूत्व की राजनीति का ही नतीजा है। जाहिर है कि कोई भी हिंदू खासकर आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग या उदारवादी सोच के स्वर्ण, हिन्दुत्व की विचारधरा का पक्षधर नहीं हो सकता और इन्हीं कारणों से बाबू लाल मरांडी वापस बीजेपी में जाने को तैयार नहीं हैं।