Sunday, August 5, 2012

अमरीकी विदेशनीति ने हक्कानी नेटवर्क के सामने घुटने टेके


शेष नारायण सिंह 
पाकिस्तान से अब अमरीकी  हुकूमत को खासी परेशानी होने लगी है .लेकिन अमरीका की मुसीबत यह है  कि वह सिविलियन सरकार से बातचीत जारी रखने के चक्कर में पाकिस्तानी फौज से सीधे संवाद नहीं कायम कर रही है . पाकिस्तान के ६५ साल के इतिहास में अमरीका ने लगभग हमेशा ही फौज  से ही रिश्ता रखा. हालांकि शुरू के कुछ साल तक वह लोकतान्त्रिक सरकार से भी मिलकर काम करते थे  लेकिन पहले प्रधान मंत्री लियाक़त अली के क़त्ल के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ. शुरू से ही भारत पर नकेल कसने की गरज  से  अमरीका पाकिस्तान को अपने साथ रखता रहा है लेकिन हमेशा ही उसका संवाद पाकिस्तानी फौज से ही रहा . लेकिन इस बार अमरीका की कोशिश है कि वह सिविलियन हुकूमत से बात करे क्योंकि उसकी लड़ाई अब आतंक से है . ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए शुरू किया गया अमरीकी अभियान लगभग पूरी तरह से पाकिस्तान की  मदद से ही चला . यह अलग बात है कि पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को अपने यह पनाह दे रखी थी. और अमरीका को लगातार बेवकूफ बना अरह था. ओसामा बिन लादेन के नाम पर रक़म भी एंटी जा रही थी लेकिन सबसे बड़े आतंकी को अपने यहाँ हिफाज़त भी दे रखी थी.   आतंक के मुकाबले के लिए अमरीकी प्रशासन ने पाकिस्तान को अरबों डालर की मदद की. 
अब खबर आ रही है  कि अब अमरीकी कांग्रेस पूरी तरह से 
पाकिस्तान से खीझ चुकी है और पाकिस्तान की सरकार से गुजारिश की है कि वह आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तानी फौज की दोस्ती को तोड़ दे. 
    
   अमरीकी प्रशासन में ताज़ा परेशानी हक्कानी नेटवर्क को लेकर है आरोप लगते रहे हैं कि हक्कानी नेटवर्क  बम बनाने का सामान अफगानिस्तान में भेजता रहा है. आरोप यह भी है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ,आई एस आई ने ही हक्कानी  नेटवर्क का सारा ताम झाम बनवाया है और वही उसकी मदद कर रहा है .आजकल हक्कानी नेटवर्क  अमरीका का ख़ासा सिरदर्द बना हुआ  है.यह अफगानिस्तान में काम कर रही पाकिस्तानी सेना को चैन से काम नहीं करने दे रहा है , पाकिस्तान में नैटो की गतिविधियों पर  हक्कानी ग्रुप वाले हर मुकाम पर अड़चन खडी कर रहे हैं .सच्चाई यह  है कि ओसामा बिन लादेन के अलकायदा और  तालिबान  जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ साथ अमरीकी सी आई ए ने पाकिस्तान की आई एस आई की मदद से अस्सी के दशक में हक्कानी नेटवर्क को भी शुरू करवाया था. यह  तालिबान का ही एक अन्य रूप था   . उन दिनों  इसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ने के लिए किया गया . अब  इसी  हक्कानी नेटवर्क ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा के दोनों तरफ अमरीका की नाक में दम कर रखा है .अमरीकी फौज का कहना है कि इस इलाके  में हक्कानी नेटवर्क उसका  सबसे बड़ा दुश्मन है और नैटो की सेना और उसके साजो सामान को सबसे  बडा ख़तरा इसी  ग्रुप से है . अभी २०११ तक अमरीकी हुकूमत को उम्मीद थी कि हक्कानी ग्रुप के मौलवी जलालुद्दीन और इनके बेटे सिराजुद्दीन की कृपा से चल रहे आतंक के राज को सीधी बात चीत के ज़रिये ख़त्म किया जा सकता है लेकिन अब अमरीका को भरोसा हो गया  है  कि बिना पाकिस्तान की सरकार को शामिल किये हक्कानी नेटवर्क पर हाथ डालना बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है .

 पाकिस्तान सरकार ने ओसामा बिन लादेन को ख़त्म करने में भी अमरीका की कोई मदद नहीं की थी लेकिन कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए अमरीकी विदेश विभाग 
   
  ओसामा बिन लादेन के केस में पाकिस्तान की तारीफ़ करता  है . विदेश विभाग के ताज़ा बयान में  कहा गया है कि पाकिस्तान  हक्कानी नेटवर्क और लश्करे तैय्यबा के मामले  में सही काम नहीं कर रहा है .अमरीका की तरफ से पाकिस्तान  में राजदूत बनकर जाने को  तैयार रिचर्ड ओस्लोन ने सेनेट के सामने अपनी  पेशी में बताया  कि  हक्कानी नेटवर्क को काबू में करना उनकी मुख्य प्राथमिकता  होगी.  हालांकि पाकिस्तानी हुकूमत ने अंतर राष्ट्रीय दुनिया में अपने आत्मसम्मान को  बहुत नीचे गिरा  लिया है लेकिन  पाकिस्तान में तैनात होने वाले किसी भी राजदूत के लिए पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी निश्चित रूप से गलत बात है . पाकिस्तान का दावा है कि वह हक्कानी नेटवर्क को काबू में करने के लिए पूरी तरह से कोशिश कर रहा है लेकिन अमरीकी विदेश विभाग उनकी बात को सुनने के लिए तैयार नहीं है.




अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धरता लोगों  को पाकिस्तानी बयानों पर विश्वास  नहीं है क्योंकि पाकिस्तान ने हर बार अमरीकी हितों के खिलाफ काम किया है . लेकिन अमरीका भी ईमानदारी ने अपनी आतंकवाद  विरोधी नीति का संचालन नहीं करता है .उनकी नीति में बुनियादी खोट है . वह पाकिस्तान की  ज़मीन से अफगानिस्तान में हो  रही आतंकवादी गतिविधियों की तो मुखालफत करते हैं लेकिन  वही आतंकवादी जब पाकिस्तानी ज़मीन से भारत के खिलाफ आतंक फैलाते हैं तो अमरीका आँख बंद कर लेता है . अमरीका के वर्ड ट्रेड सेंटर  पर आतंकवादी हमले के पहले अमरीकी  विदेश नीति के मालिक लोग   दक्षिण एशिया के आंतंकवाद के बारे में बिलकुल बात नहीं करते थे लेकिन जब उनके ऊपर ही  हमला हो गया तो उन्हें अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चल रहे आतंक के तालिबानी साम्राज्य को गंभीरता से लेने की ज़रुरत महसूस हुई . पाकिस्तान की ज़मीन से उठ रहे आतंकवाद के तूफ़ान को रोकने का तरीका यह है कि हर  तरह के आतंकवाद पर काबू किया जाए. अमरीका को चाहिए कि वह पाकिस्तानी सरकार ,फौज और आई एस आई को बता दे कि वह हर तरह के आतंक के खिलाफ है . अगर हर तरह के आतंकवाद पर लगाम न लगाई  गयी तो अमरीका से मिलने वाली खैरात बंद कर दी जायेगी. अगर पाकिस्तान यह रुख अपनाता है तो उसे भारत का भी पूरा  सहयोग मिलेगा क्योंकि भारत भी अपनी आतंरिक सुरक्षा के लिए  कोशिश कर रहा है और उसके ऊपर आतंकवादी हमले आई एस आई की कृपा से ही हो रहे हैं .



अमरीकी सरकार की तरफ से इस हीला हवाली के चलते ही सारी गड़बड़  है  क्योंकि अमरीकी  संसद ने तो अभी पिछले हफ्ते सरकार से आग्रह किया था कि हक्कानी नेटवर्क  विदेशी  आतंकवादी संगठन के रूप में नामजद किया जाए . जब सरकार ने ना नुकुर की तो एक प्रस्ताव पास करके अमरीकी विदेशी विदेश विभाग से जवाब तलब किया गया कि  वह हक्कानी नेटवर्क को क्यों नहीं आतंकवादी संगठन घोषित कर रहा है .विदेश विभाग से रिपोर्ट आ जाने के बाद इस प्रस्ताव पर आगे विचार होगा और अमरीकी संसद का दबाव अमरीकी सरकार पर और भारी पड़ना शुरू हो जाएगा 

जो बात समझ में नहीं आती है वह यह  है कि जब अमरीकी सरकार हक्कानी नेटवर्क से परेशान है और आतंक के क्षेत्र में उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है  तो उसे आतंकवादी संगठन क्यों नहीं घोषित कर देता. अमरीकी  सरकार का कहना है कि उन्होंने हक्कानी  नेटवर्क के सभी बड़े पदाधिकारियों के खिलाफ पाबंदी लगा दी गयी है लेकिन अभी उसे एक संगठन के रूप में प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव विचाराधीन है .कांग्रेस के सदस्य जल्द से जल्द कोई कार्रवाई चाहते हैं लेकिन ओबामा प्रशासन को उम्मीद है कि अभी तालिबान से जो बातचीत की जा रही है उसके बाद शायद 
   
  हक्कानी नेटवर्क 
    
    भी अमरीका से अपने रिश्तों को दोबारा जांचना चाहेगा. अमरीकी विदेश नीति के ज़्यादातर विद्वान् यह मानते हैं कि यह दुविधा ही अमरीकी विदेश नीति की सबसे बड़ी कमजोरी है और इसी कमजोरी के कारण उन्हें बार बार परेशानी का सामना करना पड़ता है. पिछले दो साल में आई अमरीकी विदेश विभाग की हर रिपोर्ट में लिखा है कि अफगानिस्तान में आतंक का राज कायम करने की कोशिश कर रहे  संगठनों को पाकिस्तान में शरण मिलती है लेकिन फिर भी उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं कर रहे हैं 

ऐसा लगता है कि अमरीका दुनिया को दिखाने एक लिए तो अमरीकी फौज को लोकतंत्र के लिए ज़हर मानता है  लेकिन अभी वह फौज को ही पाकिस्तान का शासक मानने की अपने पुरानी नीति से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . उन्होंने साफ़ देखा है कि उनका दुश्मन नंबर एक ओसामा बिन लादेन कई साल तक अमरीकी फौज की शरण में रहा और परवेज़ मुशर्रफ समेत सभी  फौज़ी आला हाकिम अमरीका से झूठ बोलते रहे फिर भी फौज पर विश्वास करने की अपनी नीति से अमरीका पता नहीं क्यों बाज़ नहीं आ रहा है . यह देखना  दिलचस्प होगा कि अमरीकी कांग्रेस के दबाव के बाद भी क्या ओबामा प्रशासन सबसे खतरनाक हक्कानी नेटवर्क के अंदर अपने दोस्त तलाशने की कोशिश से बाज़ आता है या अब वह वक़्त करीब आ गया है जब हक्कानियों के तख़्त को उछाल दिया जाए..

Saturday, August 4, 2012

अब सरकारी ज़मीन निजी उद्योगपतियों को देना बहुत आसान हो जाएगा


शेष नारायण सिंह 

 सरकारी ज़मीन का मालिकाना हक निजी हाथों में सौंपने की दिशा में केंद्र सरकार ने एक  बहुत ही महत्वपूर्ण बाधा को पार कर लिया है. पी पी पी के नाम पर सरकारी ज़मीन को बहुत आसानी से निजी उद्योगों के  विकास के लिए  दिया जा सकेगा. अब तक सरकार के एक विभाग से दूसरे विभाग को तो ज़मीन आसानी से दी जा सकती थी लेकिन अगर सरकारी ज़मीन को किसी निजी कंपनी या व्यक्ति को देना होता था तो उसके लिए कैबिनेट की मंजूरी लेने की ज़रुरत होती थी. ज़मीन की मिलकियत में बदलाव के लिए पी पी पी के नाम पर विकसित की जा रही  योजनाओं को भी निजी क्षेत्र की तरह माना जाता था. इसलिए जब कोई भी ज़मीन किसी भी निजी भागीदारी वाली कम्पनी को  देनी  होती थी तो उसकी विधिवत जांच होती थी और उसके बाद ज़मीन दी जा सकती थी. प्रधान मंत्री ने आज वह बाधा भी दूर कर दी . अब अगर कोई भी मंत्री चाहता है तो वह अपने  विभाग  की सरकारी ज़मीन , बुनियादी  ढांचागत विकास के किसी प्रोजेक्ट  को बिना कैबिनेट की  मंजूरी के किसी पी पी पी परियोजना को बड़ी आसानी से दे सकेगा.

पिछले साल की शुरुआत में सरकारी ज़मीन को किसी भी गैरसरकारी संस्था या कंपनी को देने पर पूरी तरह से रोक लगा दी गयी थी.  केवल एक सरकारी विभाग से दूसरे सरकारी विभाग को ज़मीन देने की अनुमति थी. उसके बाद वित्त मंत्रालय के आर्थिक कार्य विभाग ने सरकारी ज़मीन के हस्तांतरण के लिए एक विस्तृत योजना तैयार की इसके  पहले अगर कोई मंत्रालय अपने अधीन किसी विभाग की मिलकियत वाली ज़मीन को किसी भी पी पी पी  प्रोजेक्ट को देना चाहता  था तो उसे बाकायदा एक प्रस्ताव बनाकर कैबिनेट के पास भेजना पड़ता था. इस काम में समय भी लगता था और सरकार के साथी   उद्योगपतियों  को परेशानी भी  होती  थी. प्रधान मंत्री ने आज आर्थिक कार्य विभाग की तरफ से तैयार पालिसी को मंजूरी देकर सरकारी ज़मीन को  पी पी पी माडल के ज़रिये निजी हाथों में सौंपने की दिशा में आने वाली हर बाधा को दूर कर दिया है .सरकार का दावा है कि इसके बाद  बुनियादी ढांचे वाली किसी परियोजना में कोइ अड़चन नहीं आयेगी क्योंकि आजकल ज़्यादातर इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में   सरकार का काम केवल ज़मीन देने तक ही सीमित रह गया है बाकी  सब कुछ तो निजी कंपनी करती है . यह भी सच है कि उसका लाभ भी निजी कंपनी ही लेती है और आम जनता उसमें आर्थिक बोझ के नीचे दबती जाती  है लेकिन पूंजीवादी माडल  के आर्थिक विकास को अपना चुकी यू पी ए सरकार के लिए जनता का हित आर्थिक विकास में कोई ख़ास प्राथमिकता नहीं रखता .

अभी तक ज़्यादातर बुनियादी ढाँचे वाले  पी पी पी प्रोजेक्ट  निजी  कंट्रोल में ही हैं . अब तो सड़कें ,रेल,बन्दरगाह ,हवाई अड्डे आदि भी निजी कंपनियों के हवाले कर दिए गए हैं .प्रधान मंत्री ने आज जो मंजूरी दी है उसके बाद अब अगर सरकारी नियम के अनुसार मंत्रालय के अधीन आने वाली ज़मीन  सार्वजनिक क्षेत्र की  कंपनियों को दी जा सकेगी. अगर कोई भी प्रस्ताव पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अप्रूवल कमेटी के ज़रिये आयेगा और उस प्रस्ताव को सम्बंधित मंत्री की मंजूरी होगी तो उसे पी पी पी कंपनी को देने में कोई दिक्क़त नहीं आयेगी. आज के बाद अब रेलवे के पास जो ज़मीन का बहुत भारी ज़खीरा है वह भी पी पी पी  वालों को देने  में कोई दिक्क़त नहीं आयेगी. इस काम की शुरुआत बहुत पहले कर ली गयी थी जब तत्कालीन रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल लैंड डेवलपमेंट अथारिटी बनाकर यह काम चालू कर दिया था अब  प्रधान मंत्री की मंजूरी के बाद पी पी पी के नाम पर रेलवे की कोई भी ज़मीने निजी कमपनियों को आसानी से दी जा सकेगी  . सरकार ने दावा किया है कि इसके बाद  पी पी पी माडल वाले ढांचागत उद्योगों में बहुत तेज़ी से प्रगति होगी. 

Sunday, July 29, 2012

दिल्ली हाई कोर्ट के हुक्म से टीम अन्ना के सी आई ए कनेक्शन की जांच चल रही है




शेष नारायण सिंह 

दिल्ली हाई कोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के वकील मनोहर लाल शर्मा ने एक रिट पेटीशन डाली जिसे नमबर मिला. डब्ल्यू पी ( सी) ३४१२/२०१२ .संविधान के अनुच्छेद २२६ के आधार पर यह पेटीशन दाखिल की गयी. है .इस पेटीशन में वादी ने बहुत सारे आरोप लगाए हैं जिनमें कुछ तो सहसा अविश्वसनीय लगते हैं . इसी पेटीशन में आरोप है कि टीम अन्ना के कुछ सदस्य सी आई ए से सम्बंधित हैं . इस केस में केंद्र सरकार को भी पार्टी बनाया गया है. माननीय हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि केंद्र सरकार तीन महीने के अंदर  सभी आरोपों की जांच पूरी कर ले . उसके बाद ही मनोहर लाल शर्मा के आरोपों पर माननीय हाई कोर्ट विचार करेगा . यह जांच का आदेश ३० मई  २०१२ को दिया  गया था यानी ३० अगस्त २०१२ तक जांच के नतीजे हाई कोर्ट में दाखिल किये जाने हैं . देखिये क्या होता है .
 दिल्ली हाई कोर्ट ने   ३० मई २०१२ के  दिन एक फैसला सुनाया था जिसमें आदेश दिया गया था कि केंद्र सरकार वादी मनोहर लाल शर्मा की  याचिका में पेश किये गए आरोपों की जांच करे . इस केस में केंद्र सरकार को प्रतिवादी नंबर  एक पर रखा गया है. केंद्र सरकार के अलावा जो अन्य लोग प्रतिवादी थे  उनके नाम हैं , फोर्ड  फाउंडेशन   ,अन्ना हजारे ,मनीष सिसोदिया, अरविंद केजरीवाल , प्रशांत भूषण , शान्ति भूषण और किरण बेदी . . माननीय हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि पेटीशन में जो भी प्रार्थना की गयी है ,उसकी जांच प्रतिवादी नंबर  एक , अधिक से अधिक तीन महीने में पूरी करके इस अदालत के सामने हाज़िर हों .उसके बाद कोई फैसला लिया जाएगा .इस केस में प्रतिवादी नंबर एक पर केंद्र सरकार का नाम दर्ज है . सरकार को जांच करने के लिए तीन महीने का समय दिया गया था.


संविधान के अनुच्छेद २२६ के तहत सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट मनोहर लाल शर्मा ने पी आई एल दाखिल किया था जिसमें भारत सरकार के अलावा टीम अन्ना के कुछ सदस्यों को पार्टी बनाया था.पेटीशन में आरोप लगाया गया है कि फोर्ड फाउंडेशन एक अमरीकन ट्रस्ट है  जो दुनिया भर में  सरकार विरोधी आन्दोलनों को समर्थन देता है , फंड देता है और उनके मारफत उन देशों पर अपना एजेंडा लागू करता है .फोर्ड फाउंडेशन  ने रूस, इजरायल, अफ्रीका आदि देशों में सिविल सोसाइटी नाम के ग्रुप बना रखे हैं . इन के ज़रिये वे बुद्धिजीवियों, पत्रकारों ,कलाकारों , उद्योगपतियों और नेताओं को अपनी तरफ खींचते हैं .तरह तरह के आकर्षक नारे देकर लोगों को आकर्षित करते हैं और सरकार के खिलाफ आन्दोलन करवाते हैं . पेटीशन में आरोप लगाया गया है कि फोर्ड फाउंडेशन  अमरीकी खुफिया एजेंसी सी आई ए का फ्रंट भी है . पेटीशन में लिखा है कि टीम अन्ना के लोग संयुक्त रूप से फोर्ड फाउंडेशन  से धन लेते रहे हैं,आरोप है कि  फोर्ड फाउंडेशन  के रीजनल डाइरेक्टर ने कुबूल किया है कि  उन्होंने अरविंद केजरीवाल की  कबीर नाम की एन जी  ओ को फंड दिया था. फोर्ड फाउंडेशन  के वेबसाईट से भी पता चलता है कि २०११ में ही फोर्ड फाउंडेशन  ने कबीर को दो लाख  अमरीकी डालर दिया था .साथ में सबूत भी पेटीशन के साथ नत्थी है .और भी बहुत सारे आरोप हैं जिनपर सहसा विशवास नहीं होता क्योंकि हमारा  मानना है कि  देश प्रेम से लबरेज़ टीम अन्ना वाले  और कुछ भी करें , वे सी आई ए से तो पैसा नहीं ले सकते . लेकिन जबा हाई कोर्ट ने आदेश दे दिया है तो सारी बातें जांच के बाद साफ़ हो  जायेगीं. उम्मीद की जानी चाहिए कि जाँच में ऐसा कुछ  न मिले  जिस से टीम अन्ना को कोई नुकसान हो .

Saturday, July 28, 2012

मोदी की छवि चमकाने वालों से समाजवादी पार्टी ने पल्ला झाड़ा



शेष नारायण सिंह 
नई दिल्ली, २७ जुलाई.  दिल्ली एक उर्दू  साप्ताहिक अखबार के संपादक के साथ गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू आज  यहाँ ज़बरदस्त चर्चा में है.  आमा तौर पर माना जा रहा है कि मुसलमानों में नरेंद्र मोदी को स्वीकार्य बनाने के लिए बीजेपी ने  एक उर्दू अखबार को इस्तेमाल किया . उर्दू अखबार के संपादक महोदय पत्रकारिता के साथ साथ समाजवादी पार्टी के नेता भी हैं . इसलिए समाजवादी पार्टी के लिए खासी मुश्किल पैदा हो गयी है . नरेंद्र मोदी की शख्सियत चमकाने के लिए किसी भी प्रोजेक्ट से अपनी पार्टी के किसी नेता क अनाम जुड़ने से पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को भारी चिंता हुई है . पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और मुलायम सिंह यादव के बाद सबसे महत्वपूर्ण नेता प्रो. रामगोपाल यादव ने एक बयान जारी करके साफ़ कर दिया है कि नरेंद्र मोदी की छवि को सुन्दर बनाने का काम जिसने भी किया  है उसका उनकी पार्टी से को लेना देना नहीं है .  उन्होंने अपने लिखित बयान में कहा है कि अखबारों, एलक्ट्रानिक मीडिया  में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव , राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रो राम गोपाल यादव , समाजवादी पार्टी ,उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष अखिलेश यादव और पार्टी के उत्तर प्रदेश के प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी के बयानों को ही पार्टी का अधिकृत बयान माना जाए. . बाकी लोग जो टी वी पर अपनी राय देते हैं वह उनकी निजी राय हो सकती है . समाजवादी पार्टी का उससे कोई लेना देना नहीं है .

प्रो राम गोपाल यादव के बयान के बाद  समाजवादी पार्टी के नाम पर धंधा चला  रहे लोगों के लिए खासी मुश्किल पैदा हो गयी है . लेकिन इसका असर टी वी चैनलों पर भी पडेगा .अब टी वी चैनलों पर समाजवादी पार्टी के  प्रवक्ता के रूप में  हाजिरी लगाने वाले नेताओं के लिए तो मुश्किल होगी ही , टी वी चैनलों  के लिए  भी बहुत मुश्किल  होगी. समाजवादी पार्टी किसी न किसी कारण लगभग रोज़ की अखबारों में बनी हुई है . ज़ाहिर है कि मीडिया को समाजवादी पार्टी  का पक्ष तो चाहिए ही होता है .  राम गोपाल यादव के बयान के बाद अब अधिकृत व्यक्तियों के अलावा किसी भी नेता को समाजवादी पार्टी के बारे में बात करने का अधिकार नहीं है  

अगर दंगों पर रोक न लगी तो यू पी के मुसलमान फिर से राजनीतिक विकल्प खोजेगें



शेष  नारायण सिंह 

अलीगढ़   मुस्लिम यूनिवर्सिटी   टीचर्स एशोसियेशन का एक बयान आया है जिसमें उतर प्रदेश, खासकर बरेली के ताज़ा हालात पर चिंता व्यक्त की गयी है . संगठन के सेक्रेटरी मुस्तफा जैदी ने एक बयान जारी करके कहा है कि  मौजूदा राज्य सरकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए कुछ नहीं कर रही है. बयान में बरेली के अलावा प्रतापगढ़ और मथुरा में हुए साम्प्रदायिक झगड़ों का ज़िक्र है और कहा गया है कि  हिंसा भड़काने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई न करके राज्य सरकार कई मामलों में शरारती तत्वों का साथ दे रही है . उनका आरोप है कि प्रतापगढ़ में तो सत्ताधारी  पार्टी  का एक नेता  ही अपराधी है और सरकार उसे बचाने की कोशिश कर  रही है .डॉ जैदी के बयान में लिखा है कि मुस्लिम समुदाय धर्म निरपेक्षता , राष्ट्रवाद और मानवतावाद के सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह से समर्पित है इसलिए उस वक़्त बहुत तकलीफ होती है कि जब हमारी राष्ट्रवादी भावनाओं पर सवाल उठाये जाते हैं जब कुछ लोग बेमतलब आतंक फैलाने की कोशिश करते हैं .
अलीगढ़ देश के मुसलमानों का एक अहम शिक्षा केंद्र है और वहां से उठने वाली आवाज़ को जो भी राजनीतिक पार्टी  या सरकार गंभीरता से नहीं लेगी  उसे  उसका खामियाजा भोगना पड़ेगा. उत्तर प्रदेश सरकार भी अगर इस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लेगी तो मुश्किल पेश आ सकती है .  आज बरेली में हालात बहुत ही चिंताजनक हैं . मामूली विवाद के बाद शुरू हुआ झगड़ा विकराल रूप ले चुका है . शहर के कई थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगा हुआ है. पुलिस के आला अधिकारी मौके पर मौजूद हैं और बरेली में होने वाली हर घटना  पर मीडिया की नज़र है . जो भी अलीगढ़ में हो रहा है वह पूरे देश को पता है . प्रतापगढ़  , मथुरा और बरेली में दंगों का आयोजन करने वालों की यही मंशा थी कि बड़े पैमाने पर मुसलमानों की मदद से जीतकर आई राज्य की समाजवादी सरकार के खिलाफ मुसलमानों के द्दिल में शंका पैदा की जाए . अलीगढ  मुस्लिम यूनिवर्सिटी   टीचर्स एशोसियेशन का बयान इस बात का सबूत है कि समाजवादी पार्टी की सरकार को कमज़ोर करने वाले अपने मकसद में सफल हो रहे हैं . उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास के जानकार जानते हैं कि जब भी राज्य में दंगा होता है तो किस पार्टी  को चुनावी फायदा होता है . ऐसा लगता है कि प्रत्पागढ़ ,मथुरा और अब अलीगढ में शुरू  हुए  साम्प्रदायिक झगड़े में उन्हीं लोगों का हाथ है . इस हालत में राज्य सरकार को अशांति फैलाने वालों से सख्ती से निपटना चाहिए लेकिन अब तक के संकेतों से साफ़ लगता है कि राज्य सरकार का रवैया पूरी तरह से ढुलमुल ही है . अगर मुख्य मंत्री के स्तर पर गंभीर कोशिश न की गयी तो अभी जो हालात प्रशासनिक स्तर पार खराब हुए हैं वह राजनीतिक स्तर पर भी बर्बाद हो जायेगें. अगर ऐसा हुआ तो राज्य में  साम्प्रदायिकता का पर्याय बन चुकी  राजनीतिक पार्टी को सबसे ज्यादा फायदा होगा .
उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक  लाइन  पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश का भी एक इतिहास है . १९८६ से राज्य में सांप्रदायिक शक्तियों ने अपनी ताक़त दिखाना शूरो किया और उसके बाद एक पार्टी विशेष को लगातार चुनावी फायदा होता रहा .  इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसी तरह के तत्व मौजूदा  विवाद के जड़ में भी हैं . लेकिन इस विश्लेषण से ज़मीन की सच्चाई बिलकुल नहीं बदलने वाली है. ज़मीनी हालात को सुधारने के लिए राज्य सरकार को फ़ौरन सक्रिय होना पडेगा और उसके बाद ही हालत सामान्य होंगें . यहान यह भी गौर करने की बात है कि बरेली में मामला अभी तक पूरी तरह से कानून व्यवस्था का है और उसे पुलिस के ज़रिये ही ठीक किया जाना चाहिए क्योंकि अगर किसी शरारती तत्व को राजनीतिक पहचान दी गयी तो गुंडों को उत्साह मिलेगा और आने वाले समय में वे फिर मुसीबत बनेगें. पिछले पचा ससाल में दंगोंमें सक्रिय गुंडे राजनीति में नेता बन जाते रहे हैं . हमने देखा है कि १९८९ में जब जनता दल की सरकार आई थी तो  नए मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव  को बदायूं का दंगा विरासत में मिला था  .१९८९ के चुनाव के दौरान दंगा शुरू हुआ था और जब  नई सरकार आई तो सबसे पहला काम बदायूं जिले के दंगों पर काबू पाना था. मुलायम सिंघज यादव ने वहां कि पुलिस कप्तान को सख्त आदेश दिया कि हर  हाल में दंगा बंद  होना चाहिए . पुलिस कप्तान ने हिन्दुओं और मुसलमानों के दंगाई नेताओं को पकडवा लिया और कोतवाली में उनकी सार्वजनिक धुनाई करवाई , शाम तक दंगा रुक गया . मीडिया  को बाद में पता चला कि उस दंगे में दोनों ही समुदायों के बदमाशों के अगुवाई कर रहे लोग राजनीतिक रूप से अपना महत्त्व बढ़ाना चाहते थे . सार्वजनिक पिटाई के बाद उनेक वह सपने हमेशा के लिए दफ़न हो  गए. आज उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को भी १९८९ के उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के फैसलों की फ़ाइल से कुछ सबक लेना चाहिए . क्योंकि हालात को काबू करने के अलावा उनके पास कोई और रास्ता नहीं है .
राजनीतिक लाभ के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिष्कार रहे  लोगों को इसलिए भी जल्दी होगी कि नए राजनीतिक हालत ऐसे बन रहे हैं कि लोकसभा के चुनाव जल्दी हो सकते हैं . केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई में चल रही  यू पी ए सरकार के  लिए अब आगे चल पाना बहुत ही भारी पड़ रहा है . कांग्रेस को उम्मीद थी कि राष्ट्रपति चुनाव में दिखाई गयी राजनीतिक पार्टियों की एकजुटता के बाद सत्ताधारी गठबंधन को मजबूती दी जा   सकेगी लेकिन नए राष्ट्रपति के शपथ लेने के पहले ही  उनको जिताने में शामिल कई पार्टियों ने कांग्रेस से अपनी दूरी बनाना शुरू कर दिया  है .पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी तो  विधान सभा चुनावमें भारी बहुमत हासिल करने के बाद से ही जल्दी चुनाव के चक्कर में हैं .पता चला है कि   जल्दी चुनाव की इच्छा रखने  वालों में अब ममता बनर्जी के साथ साथ शरद पवार भी जुट गए हैं .शरद पवार की पार्टी ने ऐसे मुद्दे उठाना शुरू कर दिया है जिनका हल किया ही नहीं जा सकता. ममता बनर्जी भी अपनी विधान सभा की जीत के तितर वितर होने के  पहले  लोकसभा चुनाव के लिए कोशिश  कर रही हैं जबकि शरद पवार ने महाराष्ट्र में दिन ब दिन कमज़ोर पड़ती कांग्रेस को और कमज़ोर करने और अपने आपको उनसे बड़ा साबित करने  के लिए चुनाव की बात करना शुरू कर दिया है . जहां तक समाजवादी पार्टी की बात है वे अभी ५ महीने पहले विधान सभा चुनाव में जीतकर आये हैं और उन्हें उम्मीद है कि नौजवान मुख्यमंत्री की बात पर विश्वास  कर रही यू पी की जनता लोकसभा में भी उन्हें  जिता  देगी. समाजवादी पार्टी ने  उत्तर प्रदेश चुनाव में टिकटों के वितरण जैसे गंभीर मसले को हल करने की प्रक्रिया  शुरू कर दी  है . जहां से उनके सांसद हैं उनको तो वे टिकट देगें लेकिन जहां नहीं हैं वहां पार्टी एन आब्ज़र्वर भेजे थे . आब्ज़र्वर की रिपोर्ट इसी ३० जुलाई तक आ जायेगी और उसके बाद  टिकटों के बँटवारे का ऐलान  कभी हो सकता है . समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अपन कार्यकर्ताओं से बार बार आग्रह किया है  कि लोक सभा चुनाव के लिए तैयार रहें क्योंकि चुनाव कभी भी हो सकते हैं . 
अगर राज्य में जल्दी चुनाव होते हैं  हैं तो समाजवादी पार्टी को निश्चित रूप से फायदा होगा लेकिन उसे यह भी ध्यान रखन पड़ेगा कि राज्य में कानून व्यवस्था की हालत किसी कीमत पर न बिगड़ने पाए . अगर ऐसा हुआ तो समाजवादी पार्टी को अभी पांच महीने पहले   मिला राजनीतिक जनादेश खंडित हो जाएगा और साम्प्रदायिक ताक़तों  की स्थिति मज़बूत होगी . लेकिन कानून व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए मौजूदा मुख्यमंत्री को पुलिस की लीडरशिप ऐसे लोगों को देनी होगी जिनकी अपने विभाग में इज्ज़त हो . लगता है कि अभी बरेली, प्रतापगढ़ और मठुरामें पुलिस की अगुवाई ऐसे लोग कर रहे हिं जीनेक मातहत उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते . हालांकि यह बहुत माऊली बात है लेकिन  मौके के हाकिम  की हैसियत से हे एमुकामी तौर पार हुकूमत का इकबाल बनता है . उम्मीद की जानी चाहिए  कि दंगे की राजनीति वालों से राजनीतिक रूप से मुकाबला करते हुए मुकामी स्तर पर सक्रिय उनके एजेंट बदमाशों को भी सरकार काबू में करेगी . अगर ऐसा न हुआ तो अल्पसंख्यकों के सामने फिर से राजनीतिक विकल्प तलाशने की मजबूरी आ जायेगी .

मेरा दोस्त जिसने हर क़दम पर जीत के निशान छोड़े हैं



शेष नारायण सिंह 
आज एक दोस्त के बारे में लिख रहा हूँ . २८ जुलाई उसका जन्मदिन है .सुल्तानपुर  जिले के एक गाँव से मुंबई जाकर इस लड़के ने उद्यमिता की जो बुलंदियां तय की हैं वह निश्चित रूप से गैरमामूली हैं . हालांकि हम एक ही जिले एक रहने वाले हैं लेकिन हमारी मुलाक़ात १९६७ में  हुई जब हमने ग्यारहवीं और बारहवीं की पढाई के लिए जौनपुर के टी डी कालेज में  नाम लिखाया. बाद में वह इलाहाबाद चला गया . जहां से वह अपनी रिसर्च के सिलसिले में बम्बई ( अब मुंबई ) गया  और वहीं का होकर रह गया. 
आजकल मेरा यह दोस्त ३-डी लेंटीकुलर प्रिंटिंग का सबसे बड़ा जानकार है . कुछ नौकरियों के बाद उसने मुंबई में अपनी प्रिंटिंग प्रेस लगा ली है और छपाई की दुनिया में उसका  खुद का बहुत बड़ा नाम है.  है . सुलतानपुर जिले में  गोमती नदी के किनारे  पर  स्थित धोपाप 
महातीर्थ के उत्तर तरफ उसका गाँव है और दक्षिण तरफ मेरा .जब यह मुंबई गए थे तो किसी  
फ़िल्मी पत्रिका में नौकरी की ,बाद में उस दौर की सबसे मशहूर पत्रिका स्टारडस्ट में चले 
गए. विख्यात  पत्रकार शोभा डे   उनकी संपादक थीं.उन दिनों हेमा मालिनी और रेखा जैसी 
अभिनेत्रियों का ज़माना था .हमारे दोस्त आदरणीय  टी पी पाण्डेय ने भी उन्हीं हवाओं में सांस 
ली जहां इन देवियों की हुकूमत थी . बाद में इन अभिनेत्रियों से ज्यादा खूबसूरत एक लडकी को 
दिल दे बैठे  .आजकल वही लडकी इनकी थानेदार है .  शादी के बाद पाण्डेय जी इसी  लडकी के 
सामने अपनी दुम हिलाया करते थे  . लेकिन पिछले कुछ वर्षों से लगता है कि दुम भी गायब हो 
गयी है क्योंकि वह कभी नज़र  नहीं आती  . 
 पाण्डेय को यह तरक्की किसी इनाम में नहीं मिली है  हर क़दम पर शमशीरें चली हैं लेकिन हर 
क़दम पर उसने फतह हासिल की है . आज उसका जन्मदिन है . मेरी इच्छा थी कि उसके 
जन्मदिन पर उसको वहीं उसकी मांद में घुसकर  मुबारकवादी पेश करता लेकिन मुंबई जा नहीं 
पाया. बहरहाल  मेरे बिना भी उम्मीद करता हूँ कि उनका सोलहवां जन्मदिन हंसी खुशी बीत 
जाएगा.

 मुझे अक्सर अपने वे दिन याद आते रहते हैं जो हमने टी पी पाण्डेय के साथ टी डी  कालेज 
जौनपुर के राजपूत हास्टल में बिताये थे. वे सपने जो  हमने साथ साथ  देखे थे . उनका अब 
कोई पता नहीं है लेकिन हम दोनों ने ही जो कुछ हासिल किया उसी को मुक़द्दर समझ कर  खुश 
हैं .अपना टी पी पाण्डेय शिर्डी के फकीर का भक्त है. हर साल वहां के मशहूर कैलेण्डर को 
छापता है जिसे शिर्डी संस्थान की ओर से पूरी दुनिया में बांटा जाता है . पांडे जो भी करता है  
उसी फ़कीर के नाम को समर्पित करता है . जो कुछ अपने लिए रखता है उसे  साईं बाबा का 
प्रसाद मानता है . अब वह सफल है . टैको विज़न नाम की अपनी कंपनी का वह प्रबंध निदेशक 
है .  मुंबई के धीरू भाई अम्बानी अस्पताल में एक बहुत बड़ी होर्डिंग भी इसी ने छापी है 
जिसकी वजह से उसका नाम लिम्का बुक आफ रिकार्ड्स में दर्ज है .मेरे दोस्त, मेरी दुआ है कि 
तुम अभी पचास साल और जन्मदिन मनाते रहो लेकिन यह भी दुआ है कि तुम हमेशा सोलह 
साल के ही बने रहो.

Wednesday, July 25, 2012

पाकिस्तानी फौज की अफगान गाँवों पर गोलीबारी से शान्ति को ख़तरा



शेष नारायण सिंह 
नई दिल्ली, २४ जुलाई. भारत और पाकिस्तान के बीच शान्ति की तलाश कर रहे लोगों को पाकिस्तानी हुकूमत से और निराशा हुई है . खबर है कि पाकिस्तान की ओर से पश्चिमी अफगानिस्तान के इलाकों में लगातार आर्टिलरी की गोलीबारी चल रही है. अभी एक दिन पहले अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने काबुल स्थिति पाकिस्तानी राजदूत को बुलाकर समझाया था कि इस तरह की घटनाओं से  दोनों देशों के बीच रिश्ते और भी खराब होंगें . नई दिल्ली में मौजूद भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती का अभियान चलाने वाले कार्यकर्ताओं को इस बात की चिंता है कि अगर पाकिस्तानी फौज देश में  युद्ध का माहौल बनाने में सफल हो जाती है तो आस पास के सभी देशों के बीच तनाव बढेगा.
बीती रात पाकिस्तानी सीमा से अफगान गाँवों पर तोप के गोले  दागे गए . सुकून की बात यह है कि जान माल का कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन अफगान राज्य कोनार के दंगम जिले के कुछ  गाँवों  में रात में  गोले गिरते रहे.कोनार  के गवर्नर वसीफुल्ला वसीफी ने बताया कि जहां गोलीबारी हुई है उन इलाकों में लोगों के बीच दहशत है .कोनार पुलिस के बड़े अफसर एवाज़ मुहम्मद नजीरी ने कहा है कि  पिछले एक महीने में  पाकिस्तान की तरफ से करीब  २००० गोले दागे गए  जिस से भारी नुकसान हुआ है लेकिन पाकिस्तान की ओर से कहा गया है कि ऐसी कोई बात नहीं है.
अभी कुछ दिन पहले पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री  राजा परवेज़ अशरफ ने काबुल में अफगान  राष्ट्रपति हामिद करज़ई को भरोसा दिलाया था  कि उनकी तरफ से शान्ति भंग की कोई भी घटना नहीं होगी . दोनों नेता तालिबान को यह समझाने के लिए मिले थे कि वे सीमा के दोनों ओर से गोलीबारी बंद कर दें .लेकिन  गोलीबारी जारी है . यह इस बात का संकेत है कि पाकिस्तान की सेना पर उनके सिविलियन शासकों का कोई असर नहीं है.इसी रविवार के दिन अफगानिस्तान के उप विदेश मंत्री  जावेद लुदिन ने पाकिस्तान के अफगानिस्तान में तैनात राजदूत, मुहम्मद सादिक को बुलाकर फटकार लगाई थी कि अगर गोलीबारी इसी तरह से जारी रही तो दोनों देशों के बीच के रिश्ते और भी खराब हो जायेगें. ऐसा लगता है अमरीका से नार्जा पाकिस्तानी फौज बड़े देश का तो कुछ नहीं बिगाड़  पा रही है लेकिन अमरीका के दोस्त अफ्गान्सितान को परेशान कर रही है. पाकिस्तानी मामलों के जानकारे बता रहे हैं कि यह पाकिस्तानी सेना और आई एस आई की पुरानी चाल  है .

Monday, July 23, 2012

महिलाओं की अस्मिता का निगहबान बन चुके मीडिया का सम्मान किया जाना चाहिए



शेष नारायण सिंह 

गुवाहाटी में एक लड़की के साथ जो हुआ वह बहुत बुरा  हुआ. आज सारी दुनिया को मालूम है कि किस तरह से अपने पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को अपमानित किया  जाता है .  टेलिविज़न और अखबारों में खबर के आ जाने के बाद ऐसा माहौल बना कि गुवाहाटी की घटना  के बारे में सबको मालूम  हो गया . लेकिन यह भी सच्चाई है कि इस तरह की घटनाएं देश के हर कोने में होती रहती हैं . ज्यादातर मामलों में किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती.  चर्चा तब होती है जब यह घटनाएं मीडिया में चर्चा का विषय बन जाती हैं . गुवाहाटी की घटना के साथ बिलकुल यही हुआ. देश के  लगभग सभी महत्वपूर्ण टेलिविज़न समाचार चैनलों ने  इस खबर को न केवल चलाया बल्कि कुछ प्रभावशाली चैनलों ने तो इस  विषय पर घंटों की चर्चा का कार्यक्रम भी प्रसारित किया . नतीजा सामने है . अब सबको मालूम है कि किस तरह से   एक समाज के रूप में हम असंवेदनशील हैं . घटना की जांच करने गयी महिला आयोग की एक प्रतिनधि और कभी दिल्ली विश्वविद्यालय की  नेता रही महिला ने तो वहां जाकर अपनी छवि मांजने की कोशिश की . इस चक्कर में पीड़ित लडकी का नाम भी उन्होंने  सार्वजनिक कर दिया . ऐसा नहीं करना चाहिए  था. महिलाओं के प्रति एक समाज के रूप में हमारा दृष्टिकोण आज पब्लिक डोमेन में है और इसके लिए सबसे ज्यादा  सम्मान का पात्र  मीडिया ही है .
आज मीडिया अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभा भी रहा है . उसकी वजह से ही देश में महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार को जनता के सामने लाया जा  रहा है और सरकार में भी किसी स्तर पर ज़िम्मेदारी का भाव जग रहा है  . लेकिन एक बात स्वीकार करने में मीडिया कर्मी के रूप में हमें संकोच नहीं होना चाहिए . अक्सर देखा जा रहा है कि जब एक बात किसी मीडिया कंपनी या किसी मेहनती पत्रकार की कोशिश से  खबरों की दुनिया में आ जाती है तो बहुत सारे पत्रकार उसी खबर को आधार बनाकर खबरें लिखना शुरू कर देते हैं . पत्रकारिता का पहला सिद्धांत है कि जब भी कोई खबर किसी भी रिपोर्टर की जानकारी में आती है तो वह उस व्यक्ति का पक्ष ज़रूर लेगा जिसके बारे में खबर है . कई बार ऐसा होता है कि जिस व्यक्ति के बारे में खबर है उस तक पंहुचना ही बहुत मुश्किल होता है .  उस हालत में उस व्यक्ति से सम्बंधित जो लोग या जो भी संगठन हों उनसे जानकारी ली  जा सकती है .लेकिन इस काम में एक दिक्कत है . अगर वह  व्यक्ति प्रभावशाली हुआ  और  खबर उसके खिलाफ जा रही हो तो वह खबर को रोकने की कोशिश करवा सकता है . ज़ाहिर है कि उस से बात करने पर खबर दब सकती है .इस हालत में रिपोर्टर के पास इतने सबूत होने चाहिए कि वह ज़रुरत पड़ने पर अपनी खबर की सत्यता को साबित कर सके . उसके पास कोई दस्तावेज़ होना चाहिए, कोई टेप या कोई वीडियो  भी बतौर सबूत हो तो काफी है . लेकिन अगर किसी के  बयान के आधार पर कोई खबर लिखी जा रही है  तो उसके बयान की लिखित प्रति, उसका टेप किया बयान  या कुछ अन्य लोगों की मौजूदगी में दिया गया उसका बयान होना ज़रूरी है . अगर ऐसा न किया गया तो पत्रकारिता के पेशे का अपमान होता है और आने वाले समय में पत्रकार की विश्वसनीयता पर सवाल  उठ खड़े होते हैं . पत्रकार को किसी भी हालत में सुनी सुनायी बातों को  आधार बनाकर खबर नहीं लिखना चाहिए . दुर्भाग्य की बात यह है कि गुवाहाटी की घटना के बारे में इस तरह की पत्रकारिता हो गयी है . 
अभी एक दिन पहले एक बड़े अखबार में खबर छपी कि राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष , ममता शर्मा ने लड़कियों को सलाह दी है कि वे अगर छेड़खानी जैसे अपराधों से बचना चाहती हैं तो उन्हें ठीक से कपडे पहनना  चाहिए .  बात बहुत ही अजीब थी . मैंने तय किया कि इन देवी जी के इस बयान के  आधार पर ही इस बार  अपने इस कालम में महिलाओं की दुर्दशा की चर्चा की जायेगी . बड़े अखबार की खबर के हवाले से जब उनसे बात करने की कोशिश की गयी तो वे गुवाहाटी में थीं लेकिन  थोड़ी कोशिश के बाद उनसे संपर्क हो गया . जब उनसे बताया कि आप के ठीक से कपडे पहनने वाले बयान के बारे में बात करना है तो उन्होंने जो कहा  वह बिलकुल उल्टी बात थी. उन्होंने कहा कि कभी भी उन्होंने वह बयान नहीं दिया है जो एक अंग्रेज़ी अखबार में छपा है. उन्होंने सूचित किया कि वे  दिल्ली के अपने  दफ्तर को हिदायत दे चुकी हैं कि वे  के बयान जारी करके यह कहें कि राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ने सम्बंधित अखबार या उसके रिपोर्टर से कोई बात नहीं की है और बयान पूरी तरह  से फर्जी है. उनके इस बयान के बाद भारत सरकार की एक  बड़ी अधिकारी को कटघरे में लेने की अपनी इच्छा पर घड़ों पानी पड़ गया लेकिन यह सुकून ज़रूर हुआ कि एक गलत खबर को आधार बनाकर अपनी बात कहने से बच गए . लेकिन आज सुबह के अखबारों को देखने से अपने पत्रकारिता पेशे में लगे हुए लोगों की कार्यप्रणाली से निराशा जरूर हुई . राष्ट्रीय महिला आयोग के दफतर ने शायद बयान जारी किया होगा क्योंकि उस बड़े अखबार में आज उस खबर का फालो अप नहीं है . लेकिन आज एक अन्य बड़े अखबार में उस खबर का फालो अप छपा है . जिसमें महिला आयोग की अध्यक्ष की लानत मलानत की गयी है.  दिल्ली में रहने वाली कुछ महिला नेताओं से बातचीत की गयी है और उनके बयान में महिला आयोग की कारस्तानी की निंदा की गयी है .जिन महिला नेताओं के बयान छपे हैं उनमें से कोई भी महिला आयोग की अध्यक्ष या उस से भी बड़े पद पर विराजने लायक हैं . इसलिए उनकी  बात समझ  में आती है .उन्हें चाहिए कि वे राष्टीय महिला आयोग की  मौजूदा  अध्यक्ष को बिलकुल बेकार की अधिकारी साबित करती रहें जिससे जब अगली बार उस पद पर नियुक्ति की बात  आये तो अन्य लोगों के साथ इनका नाम भी आये . लेकिन क्या  हमको भी यह शोभा देता है कि एक गलत खबर का फालो अप चलायें . पत्रकारिता की नैतिकता के पहले  अध्याय में ही लिखा  है कि खबर ऐसी हो जिसकी सत्यता की पूरी तरह से जांच की जा सके और जब सम्बंधित व्यक्ति या उसका दफ्तर ऐलानियाँ बयान दे रहा है कि वह बयान उनका नहीं है तो उस बयान के आधार पर खबरों का  पूरा  ताम झाम बनाना अनैतिक है .बहर हाल नतीजा यह हुआ कि यह कालम जो राष्ट्रीय माहिला आयोग की अध्यक्ष के खिलाफ एक सख्त टिप्पणी के रूप में सोचा गया था , औंधे मुंह गिर  पडा . अब उनके खिलाफ कभी फिर टिप्पणी  लिखी जायेगी लेकिन आज तो अपने पेशे की ज़िम्मेदारी पर ही कुछ बात करना ठीक रहेगा.
 गुवाहाटी की खबर के हवाले से मीडिया की भूमिका पर बात करना बहुत ही ज़रूरी है . धीरे धीरे खबर आ रही है कि उस घटना के लिए जो अपराधी छेड़खानी कर रहे थे , उनको सेट करने का काम एक टी वी पत्रकार ने ही  किया था.उस टी वी चैनल के मुख्य संपादक के खिलाफ कार्रवाई भी हो चुकी है. ज़ाहिर है  कि फर्जी तरीके से खबर बनाने के लिए  उस टी वी चैनल  ने इस तरह का आयोजन किया . इस प्रवृत्ति की निंदा की जानी चाहिए  लेकिन उस टी वी  चैनल की मिलीभगत साबित हो जाने के बाद गुवाहाटी की घटना की गंभीरता कम नहीं हो जाती .बल्कि यह ज़रूरी हो जाता है कि छेड़खानी कर रहे अपराधियों के साथ साथ उन पत्रकारों के खिलाफ भी आपराधिक कार्रवाई की जाए जिन्होंने इस तरह का आयोजन करके एक लडकी की अस्मिता की धज्जियां उड़ाईं.इस बात की पूरी संभावना है कि सत्ताधारी पार्टी गुवाहाटी के उस गैरजिम्मेदार  पत्रकार के हवाले से सभी खबरों की सत्यता को सवालों के घेरे में लेने  की कोशिश करेगें . लेकिन उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए .  महिलाओं सहित अपने सभी नागरिकों के सम्मान की  रक्षा करना  सरकार का कर्तव्य  है और सरकार को उसे करते ही रहना चाहिए . देखा यह गया है कि  सरकार में बैठे लोग खबर की सच्चाई पर सवाल उठाने का मामूली सा मौक़ा हाथ आते ही खबर के  विषय को भूल जाते हैं . सत्ताधारी पार्टी के नेता बयानों की झड़ी लगा देते हैं और मुद्दा कहीं दफ़न हो जाता है . मीडिया को कोशिश करना चाहिए कि गुवाहाटी की घटना के साथ महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के बारे में जो राष्ट्रीय बहस चल पड़ी है ,उसे उसके  अंजाम  तक पंहुचाएं.  

गुवाहाटी की घटना के साथ ही उत्तर प्रदेश के बागपत की बातें भी हो रही हैं . वहां के पुरुषों ने एक पंचायत करके अपने घरों की महिलाओं को सलाह दिया है कि वे दिन ढले घरों से बाहर न निकलें, सेल फोन का इस्तेमाल न करें और प्रेम  विवाह न करें . यानी उस पंचायत ने अब तक हुए विकास को उल्टी दिशा में दौडाने की कोशिश है . जहां की यह घटना है  वह देश की राजधानी से लगा हुआ इलाका है .  दिल्ली के इतने करीब हो कर भी महिलाओं के प्रति इतना आदिम रवैया बहुत ही अजीब  है . उस से भी अजीब है कि कई पार्टियों के राजनीतिक नेता महिलाओं के खिलाफ इस तरह का रुख रखने वालों के साथ खड़े पाए जा  रहे हैं . ज़ाहिर है एक समाज के रूप में हम कहीं फेल  हो रहे हैं . बागपत वाले मामले में मीडिया का रुख शानदार है और हर वह नेता तो मध्यकालीन सामंती सोच  के प्रभाव में आकर बयान दे रहा है  उसकी पोल लगातार खुल रही है .आज से करीब ३५ साल पहले भी इसी बागपत में माया त्यागी नाम की एक महिला के साथ पुरुष प्रधान मर्दवादी  सोच वालों ने अत्याचार किया था . उस वक़्त भी मीडिया के चलते ही वह मामला पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना था. इतने वर्षों बाद भी आज बागपत और दिल्ली के आस पास के अन्य इलाकों में महिलाओं के प्रति जो रवैया है वह क्यों नहीं बदल रहा है , यह चिंता की बात  है और इसकी भी पड़ताल की जानी चाहिए . लगता है कि राजनीतिक पार्टियों के नेता तो  इस बात पर तब तक ध्यान नहीं देगें जब तक कि उनकी असफलताओं को मीडिया के ज़रिये सार्वजनिक न किया  जाए.   पिछले कई वर्षों में यही हुआ है . जब १४ फरवरी के आस पास लड़कियों की अस्मिता पर बंगलोर में हमला हुआ था , उस वक़्त भी मीडिया के हस्तक्षेप से ही  अपराधी पकडे  गए थे . इसलिए साफ़ लगने लगा है कि इस देश में महिलाओं  के सम्मान की रक्षा  के काम में सबसे अहम भूमिका मीडिया की ही रहेगी .

Friday, July 20, 2012

क्या राहुल गांधी को उनकी असफलता के लिए पुरस्कृत किया जा रहा है ?





शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली, १९ जुलाई. राष्ट्रपति चुनाव के मतदान में वोट डालने आये राहुल गाँधी ने आज यह कह कर सत्ता के गलियारों में तूफ़ान खड़ा कर दिया कि वे सरकार या पार्टी में बड़ी ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हैं . इस से ज्यादा राहुल गांधी ने कुछ नहीं  कहा है . कांग्रेस पार्टी य यूं कहें के १० जनपथ के सबसे महत्वपूर्ण प्रवक्ता, जनार्दन  द्विवेदी  ने केवल यह कहा है कि हमें बहुत खुशी होगी अगर राहुल गांधी सरकार या पार्टी में और कोई  पद  स्वीकार करते हैं . लेकिन यह उनको तय करना है कि वे  कब और क्या पद स्वीकार करते हैं . आधिकारिक तौर पर इससे ज्यादा कुछ नहीं मालूम है  लेकिन सभी टी वी चैनलों और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में तरह तरह के अनुमान लगाए जा  रहे हैं . कुछ चैनलों पर बैठे राजनीतिक विश्लेषक मंत्रिपरिषद में राहुल गांधी के संभावित   विभागों की विवेचना भी कर रहे हैं . कोई उन्हें ग्रामीण विकास दे रहा है तो कोई शिक्षा मंत्रालय का चार्ज दे रहा  है . कांग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह भी अपनी पीठ ठोंक रहे हैं कि उन्होंने तो दो साल पहले ही कह दिया था.  

सही बात यह है कि किसी को नहीं मालूम है  कि अगले दो तीन दिनों में राष्ट्रीय राजनीति, खासकर कांग्रेस के राजनीति क्या शक्ल अख्तियार करेगी  लेकिन इतना पक्का है कि अब सत्ता के समीकरण निश्चित रूप से बदल जायेगें. हालांकि दिल्ली में अभी किसी ने खुलकर नहीं कहा है  लेकिन एक बहुत ही भरोसेमंद सूत्र ने बताया है कि  इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी सरकार में बहुत ऊंचे पद पर ही बैठा  दिए जाएँ. लेकिन यह सब केवल राहुल गांधी और उनके  परिवार के अलावा किसी को पता नहीं है . 

अब जब यह पक्का हो गया है कि राहुल गांधी को मौजूदा राजनीतिक जिम्मेदारियों से बड़ा काम मिलें वाला  है . यह देखना दिलचस्प होगा कि उन्होंने  अपने पिछले करीब १० साल के राजनीतिक जीवन में क्या ख़ास हासिल किया है .  उत्तर प्रदेश विधान सभा के  पिछले चुनाव में राहुल गांधी ने बहुत  मेहनत की लेकिन नतीजा सबके सामने है . उनके हवाले पूरी कांग्रेस पार्टी थी , सारे संसाधन थे, हेलीकाप्टर , और  विमान थे  लेकिन अपनी सीटों की संख्या में वे कोई वृद्धि नहीं कर पाए. उनकी  राजनीतिक सूझ बूझ  पर भी सवाल उठे जब उन्होंने बेनी प्रसाद वर्मा जैसे नेता के हवाले पार्टी के विधान सभा के टिकटों का एक बहुत  बड़ा हिस्सा कर दिया . बेनी प्रसाद वर्मा ने जितने लोगों को टिकट दिया था वे सभी हार गए . जबकि उनसे कम संसाधनों के सहारे काम कर रहे समाजवादी पार्टी के   नेता अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी को बहुमत दिला दिया . इसके पहले राहुल गांधी ने बिहार में अपनी  पार्टी के दुर्दशा  का  सुपरविजन  किया था.  हुछ साल पहले  उनकी राजनीति का लाभ नरेंद्र मोदी ने गुजरात में लिया था और कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष के भाषण  लेखक के उस वाक्य का पूरे देश में मजाक उड़ाया गया था जब उनके मुंह से  नरेंद्र  मोदी को मौत का सौदागर कहलवा दिया गया था .  
 इसके अलावा अभी राहुल गांधी और उनके साथियों के खाते में मुंबई सहित महाराष्ट्र  के नगर पालिका चुनावों में कांग्रेस की खस्ता हालत भी दर्ज है . आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदा हालत के लिए भी राष्ट्रीय नेतृत्व  ही ज़िम्मेदार  है . इस सबसे ऐसा लगता है कि राहुल इतिहास के इकलौते ऐसे नेता हैं जो हर मोर्चे पर फेल होने के बाद भी और बड़ी ज़िम्मेदारी के  हक़दार माने जा रहे हैं . बहर हाल  जो भी हो अब  यह पक्का है कि राहुल गांधी के हाथ में देश का भविष्य सुरक्षित करने की तैयारी कांग्रेस ने पूरी कर ली है .

Saturday, July 14, 2012

बराक ओबामा भारत में कैंसर की महंगी दवा बेचने के लिए सरकार पर दबाव डाल रहे हैं


  
शेष नारायण सिंह 
 अमरीका की कोशिश है कि वह भारत के कैंसर  के रोगियों से बहुत भारी मुनाफा कमाए और उसके लिए उसे भारत सरकार की मदद चाहिए . अमरीकी कम्पनियां कैंसर की जो दवा भारत में बेचती हैं उनकी  कीमत कैंसर के  रोगी को करीब ढाई लाख  रूपया प्रति महीना पड़ता है . जब कि वही दवा भारत की कंपनियों ने बना लिया है और उसकी कीमत केवल साढ़े सात हज़ार रूपये महीने है . अपने  पूंजीपतियों को बेजा लाभ पंहुचाने के लिए अमरीकी प्रशासन भारत पर दबाव डाल रहा है कि वह भारतीय कंपनी को दवा बेचने से रोक दे और अमरीकी दवा पर ही भारत के कैंसर के रोगी निर्भर बने रहें. अमरीकी सरकार की एक बड़ी अधिकारी ने दावा  किया है कि वह भारत सरकार में उच्च पदों पर बैठे कुछ लोगों से इस काम को करवाने के लिए संपर्क में है . ज़रुरत  इस बात की है  यह पता  लगाया जाए कि उच्च पदों पर बैठे यह कौन लोग हैं . पता लगने के बाद उन्हें कानून के  हिसाब से दण्डित किया  जाना चाहिए  . संतोष की बात यह  है अभी तो भारत सरकार ने अमरीका को  साफ़ मना कर दिया है  कि वह अपने देश के कैंसर के मरीजों के खून से अमरीकी व्यापार को फलने फूलने नहीं देगें लेकिन जिस तरह से केंद्र सरकार में अमरीका परस्त लोगों का बोलबाला है , लगता है कि देर सवेर भारत सरकार अमरीकी दबाव के सामने झुक जायेगी .
अमरीका और पाकिस्तानमें एक समानता है . दोनों ही देशों में राजनीतिक शमशीर चमकाने के लिए भारत के खिलाफ ज़हर उगलने का फैशन है . अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा वैसे तो भले आदमी माने जाती हैं  लेकिन अमरीकी कट्टरपंथियों को साथ लेने के  लिए वे भी भारत के खिलाफ गैरजिम्मेदार अभियान चलाने की पूरी कोशिश करते हैं .अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे कमज़ोर देशों में तो वे  गोली बारूद से सीधा हमला करते हैं , ड्रोन चलाते हैं और आतंकवादियों के साथ साथ निर्दोष लोगों की भी जान ले लेते हैं . लेकिन भारत की बढ़ती आर्थिक ताक़त और हैसियत के मद्दे नज़र भारत से कुछ आर्थिक लाभ झटक लेने के चक्कर में रहते हैं .
ताज़ा मामला कैंसर की दवा की मनमानी  कीमत वसूलने का है . जर्मनी की बड़ी दवा कम्पनी बायर कैंसर की दवा बनाती है . इस दवा से कैंसर का इलाज भारत में भी होता है .अभी तक इस दवा के सहारे इलाज कराने में करीब ढाई लाख रूपये प्रति महीने का खर्च आता है . एक भारतीय दवा कंपनी ने वहीं दवा अपने देश में बना दिया और उसकी मदद से कैंसर के इलाज की कीमत करीब साढ़े सात हज़ार रूपये  प्रति माह पड़ रही है . यह दवा बनाने वाली कंपनी ने भारत सरकार से बाकायदा अनुमति लेकर इस दवा को बेचना शुरू कर दिया  है, सारा काम अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के हिसाब से  कानूनी है और भारतीय कंपनी जर्मन/अमरीकी कंपनी को साढ़े छः प्रतिशत की रायल्टी दे रही है . लेकिन इस दवा के बन जाने से अमरीका में बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रही बायर को भारी घाटा हो रहा है और अब ओबामाअमरीकी /जर्मन कंपनी को लाभ पंहुचाने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं. 
अमरीकी पेटेंट और ट्रेडमार्क आफिस की एक  डिप्टी डाइरेक्टर  ने अमरीकी सेनेट से अपील की है कि वह भारत सरकार पर दबाव बनाए कि वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करके भारत सरकार को मजबूर कर दे कि वह भारतीय कम्पनी  को कम कीमत वाली लेकिन बहुत अच्छी दवा बेचने से रोकें. सेनेट से उन्होंने अपनी पेशी के दौरान अपील कि   कि वह भारत सरकार को फटकार लगाए कि उसने क्यों किसी भारतीय कंपनी को दवा बेचने की अनुमति दे दी. उन्होंने यह भी कुबूल किया कि वे निजी तौर पर भी भारत सरकार की एजेंसियों से  संपर्क  बनाए हुए हैं और पूरी कोशिश कर  रही  हैं कि अमरीकी /जर्मन दवा कम्पनी  को होने वाला मुनाफ़ा  कम न  होने पाए . ज़रुरत इस बात की है कि भारत सरकार की सी बी आई या अन्य  कोई सक्षम संस्था इस बात की  जांच करे कि अमरीकी पेटेंट और ट्रेड आफिस भारत सरकार में किन लोगों के साथ संपर्क बनाए हुए है और वे क्यों भारत के राष्ट्रीय  और सार्वजनिक  हित के खिलाफ काम कर रहे हैं .

Friday, July 13, 2012

मेरे गाँव की अपनैती , पता नहीं कहाँ गायब हो गयी है


 

शेष नारायण सिंह 


इस बार दस दिन अपने गाँव में रहा .मेरे बचपन के साथी ठाकुर बद्दू सिंह के साथ दस  दिन हंसी खुशी बीत गए. मेरी दोनों बहनें और भाई भी लगभग पूरे वक़्त साथ साथ ही रहे. मेरी माँ की  सबसे छोटी पौत्री की शादी पूरे सम्मान के साथ संपन्न हो गयी. हम अपनी माँ को माई कहते थे.अगर वे जीवित होतीं तो निश्चित रूप से खुश होतीं.  मेरी माँ का जीवन सपनों का जीवन था, अधूरे सपनों का जीवन.उनके सभी सपने अधूरे ही रह गए .अपनी दोनों ही बेटियों को वे पढ़ाना चाहती थीं. बड़ी बेटी तो  खैर स्कूल ही नहीं जा सकी, छोटी वाली बिटिया , मुन्नी ,जो पढने में बहुत अच्छी थी, भी प्राइमरी के बाद पढने नहीं जा सकी. सामंती सोच की दीवार मुन्नी की शिक्षा के बीच में खडी हो गयी थी. यह अलग बात है कि बाद में मुन्नी ने अपनी पढाई पूरी की.हमारे छोटे भाई ने उसमें बहुत मेहनत की. लेकिन माई के बच्चों ने अपने बच्चों की शिक्षा के लिए जो भी हो सका , क़दम उठाया .आज माई के सभी पोते पोतियों के पास उच्च शिक्षा का  हथियार है . शायद इसी वजह से लगता है कि मृत्यु के बाद ही सही माई के कुछ सपने तो पूरे हो ही गए.
लेकिन मेरे गाँव में लड़कियों की इज्ज़त नहीं है . उन्हें घर के किसी भी फैसले से दूर रखा जाता है. जबकि मेरे बचपन में  मेरी बड़ी बहन की सहेलियां घर के फैसलों में शामिल होती थीं. उनके माता पिता उनसे पूछते थे . हालांकि शादी ब्याह जल्दी हो जाते थे लेकिन लडकियां अपने घर के फैसलों में शामिल होती थीं. मेरी बड़ी बहन तो मेरी शिक्षा दीक्षा में भी माई के साथ हमारे पिता जी से लड़ाई करती थीं. अब तो  सब कुछ बदल गया है 
इस बार जो दस दिन मैंने अपने गाँव में बिताया उसमें मुझे अपने भाई बहनों और दोस्त बद्दू सिंह के अलावा सब कुछ विदेशी जैसा लग रहा था .  लगता था कि अपने  गाँव में नहीं ,कहीं और आ गया हूँ. मेरे आस्था के सारे केंद्र ढह गए हैं .  लोग शादी ब्याह में केवल कुछ रूपये देने के लिए शामिल होते हैं .कहीं कोई चाहत नहीं , कोई अपनापन नहीं . ज़्यादातर परिवारों के नौजवान किसी बड़े शहर में चले गए हैं . कुछ लड़कों ने पढ़ाई कर ली है लेकिन खेती में काम करना नहीं चाहते और बेरोजगार हैं . मेरे गाँव की तहसील पहले कादीपुर हुआ करती थी , नदी पार कर के जाना होता था . लेकिन अब तहसील ३ किलोमीटर दूर लम्भुआ बाज़ार में है.  मेरे गाँव के कुछ लडके अब तहसील में दलाली कारते हैं . कुछ नौजवानों का थाने की दलाली का अच्छा कारोबार चल रहा है  . वह गाँव  जिसमें मेरी माँ का रोल सबसे ज्यादा स्थायी है ,अब कहीं खो गया है . मेरी माँ ने गरीबी को खूब करीब से उलट पुलट कर देखा था, उसे झेला था . एक संपन्न किसान की बेटी थीं वह लेकिन ज़मींदारों के परिवार  में ब्याह दी  गयी थीं . ज़मींदार  भी ऐसे जो नाम के ही ज़मींदार  थे . घर में भोजन  की भी  तकलीफ  रहा करती थी.   मेरी माँ का मायका जौनपुर सिटी  रेलवे स्टेशन से लगे हुए एक गाँव में था .मेरे नाना वहां के  संपन्न किसान थे . मेरे पिता के परिवार में शिक्षा को कायथ कारिन्दा का काम माना जाता था और जब मेरे माता- पिता की शादी के १४ साल बाद ज़मींदारी का उन्मूलन हो गया तब ज़मींदारों को लगा कि सब कुछ लुट गया .
और इस बार जब मैं अपने गाँव में दस दिन तक बैठा रहा तो मुझे लगा कि छिट पुट सम्पन्नता तो आई है लेकिन मेरे गाँव की अपनैती पता नहीं कहाँ लुट गयी है .. 

Sunday, July 8, 2012

चन्द्रशेखर ने कहा था --जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.


शेष नारायण सिंह 


८ जुलाई को चन्द्रशेखर जी को गए पांच साल हो गए. अगर होते तो ८५ साल के हो गए होते. उनको लोग बहुत अच्छा संसदविद कहते हैं . वे संसद में थे इसलिए संसदविद भी थे लेकिन लेकिन सच्चाई यह है कि वे जहां भी रहे धमक के साथ रहे और कभी भी नक़ली ज़िंदगी नहीं जिया. मैं चन्द्रशेखर जी  को एक ऐसे इंसान के रूप में याद करता हूँ जो राजनेता भी थे नहीं , लेकिन वे सही  अर्थ में स्टेट्समैन थे . जो दूरद्रष्टा थे और राष्ट्र और समाज के हित को सर्वोपरि मानते थे. आज चन्द्रशेखर की विरासत को संभालने वाला कोई नहीं है क्योंकि उनकी राजनीति को आगे ले जाने वाली कोई पार्टी ही कहीं नहीं है . जिस पार्टी को उन्होंने अपनी बनाया था उसके वे आख़िरी कार्यकर्ता साबित हुए . पचास के दशक में आचार्य नरेंद्रदेव के सान्निध्य में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की राजनीति में हिस्सा लेना शुरू किया लेकिन १९६४ आते आते उनको लग गया कि उनकी और आचार्य जी की राजनीति की सबसे बड़ी वाहक जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस पार्टी ही रह गयी थी. शायद इसीलिये उन्होंने अपनी पार्टी के एक अन्य बड़े नेता, अशोक मेहता के साथ कांग्रेस की सदस्यता ले ली. लेकिन उनका और शायद देश के दुर्भाग्य था कि उसके बाद ही से कांग्रेस में जो राजनीतिक शक्तियां उभरने लगीं , वे पूंजीवादी राजनीति को समर्थन करने वाली थीं. कांग्रेसी सिंडिकेट ने कांग्रेस की राजनीति को पूरी तरह से काबू में कर लिया . सिंडिकेट से इंदिरा गाँधी ने बगावत तो किया लेकिन वह पुत्रमोह में फंस गयीं और उन्होंने ने भी तानाशाही का रास्ता अपना लिया . नतीजा यह हुआ  कि चन्द्र शेखर जी को जय प्रकाश नारायण के  नेतृत्व में चल रहे तानाशाही विरोधी आन्दोलन का साथ देना पड़ा. यह भी अजीब इत्तेफाक है कि जिस साम्प्रदायिक राजनीति का चन्द्रशेखर जी  ने हमेशा ही विरोध किया था , उसी राजनीति के पोषक लोग जेपी के आन्दोलन में चौधरी बने बैठे थे. हालांकि समाजवादी लोग सबसे आगे आगे  नज़र आते थे लेकिन सबको मालूम था कि गुजरात से लेकर बिहार तक आर एस एस वाले ही वहां हालत को कंट्रोल कर रहे थे . बाद में जो सरकार बनी उसमें भी आर एस एस की सहायक पार्टी जनसंघ वाले ही हावी थे. चन्द्रशेखर और मधु  लिमये ने आर एस एस को एक राजनीतिक पार्टी बताया और कोशिश की कि जनता पार्टी के सदस्य किसी और पार्टी के सदस्य न रहें . लेकिन आर एस एस ने जनता पार्टी ही तोड़ दी और अलग भारतीय जनता पार्टी बना ली. लेकिन चन्द्र शेखर ने अपने  उसूलों से कभी समझौता नहीं किया 

उनके जाने के पांच साल बाद यह साफ़ समझ में आता है  कि उनकी विरासत को जिंदा रखने के लिए किसी संस्था की ज़रुरत नहीं है . उनकी ज़िंदगी ही एक ऐसी संस्था का रूप ले चुकी थी जिसमें बहुत सारी सकारात्मक शक्तियां एकजुट हो गयी थीं.उनकी ज़िंदगी ने देश की राजनीति को हर मुकाम पर प्रभावित किया.  इंदिरा गाँधी ने जब सिंडिकेट के चंगुल से निकल कर राष्ट्र की संपत्ति को जनता की हिफाज़त में रखने के लिए बैंकों का  राष्ट्रीयकरण किया तो चन्द्रशेखर ने उनको पूरा समर्थन दिया और सिंडिकेट वालों के लिए राजनीतिक मुश्किल पैदा की. लेकिन वही इंदिरा गाँधी जब पुत्रमोह में तानाशाही और गैर ज़िम्मेदार राजनीतिक परंपरा की स्थापना करने लगीं तो चन्द्रशेखर ने उनको चेतावनी दी और  बाद में तानाशाही प्रवृत्तियों को ख़त्म करने के आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई. 
आज चन्द्रशेखर जी के जीवन की बहुत सारी घटनाएं याद आती हैं . लेकिन उनके जीवन की जिस घटना ने मुझे हमेशा ही प्रभावित किया है वह भारत की लोकसभा में ७ नवम्बर १९९० में घटी थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को हटाने के लिए  लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां एकजुट थीं. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने ग्यारह महीने के राज में बहुत सारे  गैरज़िम्मेदार फैसले किये थे और उनका प्रधान मंत्री पद  से हटना बहुत ज़रूरी माना जा रहा  रहा. जब चन्द्रशेखर जी  को अध्यक्ष ने भाषण करने के लिए बुलाया तो सदन में बिलकुल सन्नाटा छा गया था . और जब  चन्द्रशेखर ( बलिया ) ने कहा कि मुझे  अत्यंत दुःख के साथ इस बहस में हिस्सा  लेना पड़  रहा है तो सदन में बैठे लोगों ने उस स्टेट्समैन के दर्द  का अनुभव किया था. गैलरी  में बैठे लोगों ने भी सांस खींच कर उनके भाषण को सुना. उन्होंने कहा कि जब ग्यारह महीने पहले हमने देश को बचाने के लिए बीजेपी से समझौता किया था .उस समय सोचा था कि  देश संकट में है ,कठिनाई में है और उस कठिनाई से निकलने के लिए सबको साथ मिलकर चलना चाहिए .उन्होंने अफ़सोस जताया कि  ग्यारह महीने पहले देश की जो दुर्दशा  थी , ग्यारह महीने बाद उस से बदतर हो गयी थी. उन्होंने पूछा कि क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में आतंक  बढा है , क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में विषमता बढ़ी है , क्या यह सही नहीं है कि बेकारी , बेरोजगारी,मंहगाई बढ़ी है ,,क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में सामाजिक तनाव बढ़ा है .क्या यह सही नहीं है कि पंजाब पीड़ा से कराह रहा है ,क्या यह सही नहीं है कश्मीर में आज वेदना है.क्या यह सही नहीं है कि असम में आतंक बढ़ रहा है ,क्या यह सही नहीं है कि देश के गाँव गाँव में धर्म और जाति के नाम पर आदमी ही आदमी के खून का प्यासा हो रहा  है . उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री से कहा कि संसद और देश को चलाना कोई ड्रामा नहींहै इसलिए गंभीरता  हर राजनीतिक काम के बुनियाद में होनी  चाहिए . 

लोकसभा के उसी  सत्र के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को हटा दिया गया था .चन्द्रशेखर जी ने साफ़  कहा कि सिद्धांतों की बात करने वाले  विश्वनाथ प्रताप सिंह धर्मनिरपेक्षता का सवाल क्यों नहीं उठाते.चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है .  जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.इसी भाषण में चन्द्र शेखर जी ने बीजेपी की राजनीति को आड़े हाथों लिया था .  उन्होंने कहा कि मैं आडवाणी जी से ग्यारह महीनों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि   बाबरी मज्सिद के बारे में सुझाव देने  के लिए एक समिति बनायी गयी, उस समिति से भारत के गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को हटा दिया जाता है . बताते चलें  कि  उस वक़्त गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद थे और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव थे. चन्द्र शेखर जी ने आरोप लगाया कि इन लोगों को इस लिए हटाया गया क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद् के कुछ नेता उनकी सूरत नहीं देखना चाहते.क्या इस  तरह से देश को चलाना है . उन्होंने सरकार सहित बीजेपी -आर एस एस की राजनीति को भी घेरे में ले लिया और बुलंद आवाज़ में पूछा कि क्यों हटाये गए मुलायम सिंह , क्यों हटाये गए मुफ्ती मुहम्मद सईद ,उस दिन किसने समझौता किया था ? चाहे वह समझौता विश्व हिन्दू परिषद् से हो ,चाहे बाबरी मस्जिद के सवाल पर किसी इमाम से बैठकर समझौता करो ,यह समझौते देश की हालत को  रसातल में ले जाने के लिए ज़िम्मेदार हैं .उन्होंने प्रधान मंत्री को चेतावनी दी कि आपकी सरकार जा सकती है ,ज उस से कुछ नहीं बिगड़ेगा .लेकिन याद रखिये कि जो संस्थाएं बनी हुई हैं ,उनका अपमान आप मत कीजिये . क्या यही परंपरा है कि बातचीत को चलाने के लिए राष्ट्रपति के पद का इस्तेमाल किया  जाय .शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं भी नहीं हुआ होगा.कभी ऐसा नहीं हुआ कि अध्यादेश लगाए जाएँ और २४ घंटों के अंदर उसको वापस ले लिया  जाए..उन्होंने कहा  कि यह तुगलकी मिजाज़ इस  देश को रसातल  तक पंहुचाएगा और देश को बचाने के लिए मैं तुगलकी मिजाज़ का विरोध करना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानता हूँ.
इसी भाषण के  दौरान किस्मत के मारे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने  बीच में टिप्पणी कर दी और कहा कि सिद्धांत के चर्चे सरकारी पदों के गलियारों के नहीं गुज़रते हैं.चन्द्रशेखर जी ने कहा कि , चलिए मुझे मालूम है .सिद्धांत संघर्षों से पलते हैं और संघर्ष करना जिसका  इतिहास नहीं है वह सिद्धांतों की बात करता है . मैं उन लोगोंमें से  नहीं हूँ जो कि अपनी गलती को स्वीकार ही न करें . उन्होंने  प्रधान मंत्री से कहा कि जिस समय आप कुर्सियों से चिपके रहने के लिए हर प्रकार के घिनौने समझौते  कर रहे थे , उस समय संघर्ष के रास्ते चल कर मैं हर  मुसीबत  का मुकाबला कर रहा था. आप सिद्धांतों की चर्चा हमसे मत करें .

चन्द्रशेखर जी ने इस भाषण में और भी बहुत सारी बातें कहीं जो कि भारत के राजनीतिक  भविष्य के लिए दिशा निर्देश का प्रकाश स्तम्भ हो सकती  हैं . आज उन्हीं चन्द्र शेखर की पुण्य तिथि है जिन्होंने  स्वार्थ के सामने कभी भी सर नहीं झुकाया  . भारत के एक नागरिक के रूप में उन्हें आज सम्मान से याद करने में मुझे गर्व है .