शेष नारायण सिंह
इस बार दस दिन अपने गाँव में रहा .मेरे बचपन के साथी ठाकुर बद्दू सिंह के साथ दस दिन हंसी खुशी बीत गए. मेरी दोनों बहनें और भाई भी लगभग पूरे वक़्त साथ साथ ही रहे. मेरी माँ की सबसे छोटी पौत्री की शादी पूरे सम्मान के साथ संपन्न हो गयी. हम अपनी माँ को माई कहते थे.अगर वे जीवित होतीं तो निश्चित रूप से खुश होतीं. मेरी माँ का जीवन सपनों का जीवन था, अधूरे सपनों का जीवन.उनके सभी सपने अधूरे ही रह गए .अपनी दोनों ही बेटियों को वे पढ़ाना चाहती थीं. बड़ी बेटी तो खैर स्कूल ही नहीं जा सकी, छोटी वाली बिटिया , मुन्नी ,जो पढने में बहुत अच्छी थी, भी प्राइमरी के बाद पढने नहीं जा सकी. सामंती सोच की दीवार मुन्नी की शिक्षा के बीच में खडी हो गयी थी. यह अलग बात है कि बाद में मुन्नी ने अपनी पढाई पूरी की.हमारे छोटे भाई ने उसमें बहुत मेहनत की. लेकिन माई के बच्चों ने अपने बच्चों की शिक्षा के लिए जो भी हो सका , क़दम उठाया .आज माई के सभी पोते पोतियों के पास उच्च शिक्षा का हथियार है . शायद इसी वजह से लगता है कि मृत्यु के बाद ही सही माई के कुछ सपने तो पूरे हो ही गए.
लेकिन मेरे गाँव में लड़कियों की इज्ज़त नहीं है . उन्हें घर के किसी भी फैसले से दूर रखा जाता है. जबकि मेरे बचपन में मेरी बड़ी बहन की सहेलियां घर के फैसलों में शामिल होती थीं. उनके माता पिता उनसे पूछते थे . हालांकि शादी ब्याह जल्दी हो जाते थे लेकिन लडकियां अपने घर के फैसलों में शामिल होती थीं. मेरी बड़ी बहन तो मेरी शिक्षा दीक्षा में भी माई के साथ हमारे पिता जी से लड़ाई करती थीं. अब तो सब कुछ बदल गया है
इस बार जो दस दिन मैंने अपने गाँव में बिताया उसमें मुझे अपने भाई बहनों और दोस्त बद्दू सिंह के अलावा सब कुछ विदेशी जैसा लग रहा था . लगता था कि अपने गाँव में नहीं ,कहीं और आ गया हूँ. मेरे आस्था के सारे केंद्र ढह गए हैं . लोग शादी ब्याह में केवल कुछ रूपये देने के लिए शामिल होते हैं .कहीं कोई चाहत नहीं , कोई अपनापन नहीं . ज़्यादातर परिवारों के नौजवान किसी बड़े शहर में चले गए हैं . कुछ लड़कों ने पढ़ाई कर ली है लेकिन खेती में काम करना नहीं चाहते और बेरोजगार हैं . मेरे गाँव की तहसील पहले कादीपुर हुआ करती थी , नदी पार कर के जाना होता था . लेकिन अब तहसील ३ किलोमीटर दूर लम्भुआ बाज़ार में है. मेरे गाँव के कुछ लडके अब तहसील में दलाली कारते हैं . कुछ नौजवानों का थाने की दलाली का अच्छा कारोबार चल रहा है . वह गाँव जिसमें मेरी माँ का रोल सबसे ज्यादा स्थायी है ,अब कहीं खो गया है . मेरी माँ ने गरीबी को खूब करीब से उलट पुलट कर देखा था, उसे झेला था . एक संपन्न किसान की बेटी थीं वह लेकिन ज़मींदारों के परिवार में ब्याह दी गयी थीं . ज़मींदार भी ऐसे जो नाम के ही ज़मींदार थे . घर में भोजन की भी तकलीफ रहा करती थी. मेरी माँ का मायका जौनपुर सिटी रेलवे स्टेशन से लगे हुए एक गाँव में था .मेरे नाना वहां के संपन्न किसान थे . मेरे पिता के परिवार में शिक्षा को कायथ कारिन्दा का काम माना जाता था और जब मेरे माता- पिता की शादी के १४ साल बाद ज़मींदारी का उन्मूलन हो गया तब ज़मींदारों को लगा कि सब कुछ लुट गया .
और इस बार जब मैं अपने गाँव में दस दिन तक बैठा रहा तो मुझे लगा कि छिट पुट सम्पन्नता तो आई है लेकिन मेरे गाँव की अपनैती पता नहीं कहाँ लुट गयी है ..