Saturday, July 28, 2012

अगर दंगों पर रोक न लगी तो यू पी के मुसलमान फिर से राजनीतिक विकल्प खोजेगें



शेष  नारायण सिंह 

अलीगढ़   मुस्लिम यूनिवर्सिटी   टीचर्स एशोसियेशन का एक बयान आया है जिसमें उतर प्रदेश, खासकर बरेली के ताज़ा हालात पर चिंता व्यक्त की गयी है . संगठन के सेक्रेटरी मुस्तफा जैदी ने एक बयान जारी करके कहा है कि  मौजूदा राज्य सरकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए कुछ नहीं कर रही है. बयान में बरेली के अलावा प्रतापगढ़ और मथुरा में हुए साम्प्रदायिक झगड़ों का ज़िक्र है और कहा गया है कि  हिंसा भड़काने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई न करके राज्य सरकार कई मामलों में शरारती तत्वों का साथ दे रही है . उनका आरोप है कि प्रतापगढ़ में तो सत्ताधारी  पार्टी  का एक नेता  ही अपराधी है और सरकार उसे बचाने की कोशिश कर  रही है .डॉ जैदी के बयान में लिखा है कि मुस्लिम समुदाय धर्म निरपेक्षता , राष्ट्रवाद और मानवतावाद के सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह से समर्पित है इसलिए उस वक़्त बहुत तकलीफ होती है कि जब हमारी राष्ट्रवादी भावनाओं पर सवाल उठाये जाते हैं जब कुछ लोग बेमतलब आतंक फैलाने की कोशिश करते हैं .
अलीगढ़ देश के मुसलमानों का एक अहम शिक्षा केंद्र है और वहां से उठने वाली आवाज़ को जो भी राजनीतिक पार्टी  या सरकार गंभीरता से नहीं लेगी  उसे  उसका खामियाजा भोगना पड़ेगा. उत्तर प्रदेश सरकार भी अगर इस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लेगी तो मुश्किल पेश आ सकती है .  आज बरेली में हालात बहुत ही चिंताजनक हैं . मामूली विवाद के बाद शुरू हुआ झगड़ा विकराल रूप ले चुका है . शहर के कई थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगा हुआ है. पुलिस के आला अधिकारी मौके पर मौजूद हैं और बरेली में होने वाली हर घटना  पर मीडिया की नज़र है . जो भी अलीगढ़ में हो रहा है वह पूरे देश को पता है . प्रतापगढ़  , मथुरा और बरेली में दंगों का आयोजन करने वालों की यही मंशा थी कि बड़े पैमाने पर मुसलमानों की मदद से जीतकर आई राज्य की समाजवादी सरकार के खिलाफ मुसलमानों के द्दिल में शंका पैदा की जाए . अलीगढ  मुस्लिम यूनिवर्सिटी   टीचर्स एशोसियेशन का बयान इस बात का सबूत है कि समाजवादी पार्टी की सरकार को कमज़ोर करने वाले अपने मकसद में सफल हो रहे हैं . उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास के जानकार जानते हैं कि जब भी राज्य में दंगा होता है तो किस पार्टी  को चुनावी फायदा होता है . ऐसा लगता है कि प्रत्पागढ़ ,मथुरा और अब अलीगढ में शुरू  हुए  साम्प्रदायिक झगड़े में उन्हीं लोगों का हाथ है . इस हालत में राज्य सरकार को अशांति फैलाने वालों से सख्ती से निपटना चाहिए लेकिन अब तक के संकेतों से साफ़ लगता है कि राज्य सरकार का रवैया पूरी तरह से ढुलमुल ही है . अगर मुख्य मंत्री के स्तर पर गंभीर कोशिश न की गयी तो अभी जो हालात प्रशासनिक स्तर पार खराब हुए हैं वह राजनीतिक स्तर पर भी बर्बाद हो जायेगें. अगर ऐसा हुआ तो राज्य में  साम्प्रदायिकता का पर्याय बन चुकी  राजनीतिक पार्टी को सबसे ज्यादा फायदा होगा .
उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक  लाइन  पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश का भी एक इतिहास है . १९८६ से राज्य में सांप्रदायिक शक्तियों ने अपनी ताक़त दिखाना शूरो किया और उसके बाद एक पार्टी विशेष को लगातार चुनावी फायदा होता रहा .  इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसी तरह के तत्व मौजूदा  विवाद के जड़ में भी हैं . लेकिन इस विश्लेषण से ज़मीन की सच्चाई बिलकुल नहीं बदलने वाली है. ज़मीनी हालात को सुधारने के लिए राज्य सरकार को फ़ौरन सक्रिय होना पडेगा और उसके बाद ही हालत सामान्य होंगें . यहान यह भी गौर करने की बात है कि बरेली में मामला अभी तक पूरी तरह से कानून व्यवस्था का है और उसे पुलिस के ज़रिये ही ठीक किया जाना चाहिए क्योंकि अगर किसी शरारती तत्व को राजनीतिक पहचान दी गयी तो गुंडों को उत्साह मिलेगा और आने वाले समय में वे फिर मुसीबत बनेगें. पिछले पचा ससाल में दंगोंमें सक्रिय गुंडे राजनीति में नेता बन जाते रहे हैं . हमने देखा है कि १९८९ में जब जनता दल की सरकार आई थी तो  नए मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव  को बदायूं का दंगा विरासत में मिला था  .१९८९ के चुनाव के दौरान दंगा शुरू हुआ था और जब  नई सरकार आई तो सबसे पहला काम बदायूं जिले के दंगों पर काबू पाना था. मुलायम सिंघज यादव ने वहां कि पुलिस कप्तान को सख्त आदेश दिया कि हर  हाल में दंगा बंद  होना चाहिए . पुलिस कप्तान ने हिन्दुओं और मुसलमानों के दंगाई नेताओं को पकडवा लिया और कोतवाली में उनकी सार्वजनिक धुनाई करवाई , शाम तक दंगा रुक गया . मीडिया  को बाद में पता चला कि उस दंगे में दोनों ही समुदायों के बदमाशों के अगुवाई कर रहे लोग राजनीतिक रूप से अपना महत्त्व बढ़ाना चाहते थे . सार्वजनिक पिटाई के बाद उनेक वह सपने हमेशा के लिए दफ़न हो  गए. आज उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को भी १९८९ के उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के फैसलों की फ़ाइल से कुछ सबक लेना चाहिए . क्योंकि हालात को काबू करने के अलावा उनके पास कोई और रास्ता नहीं है .
राजनीतिक लाभ के लिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिष्कार रहे  लोगों को इसलिए भी जल्दी होगी कि नए राजनीतिक हालत ऐसे बन रहे हैं कि लोकसभा के चुनाव जल्दी हो सकते हैं . केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई में चल रही  यू पी ए सरकार के  लिए अब आगे चल पाना बहुत ही भारी पड़ रहा है . कांग्रेस को उम्मीद थी कि राष्ट्रपति चुनाव में दिखाई गयी राजनीतिक पार्टियों की एकजुटता के बाद सत्ताधारी गठबंधन को मजबूती दी जा   सकेगी लेकिन नए राष्ट्रपति के शपथ लेने के पहले ही  उनको जिताने में शामिल कई पार्टियों ने कांग्रेस से अपनी दूरी बनाना शुरू कर दिया  है .पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी तो  विधान सभा चुनावमें भारी बहुमत हासिल करने के बाद से ही जल्दी चुनाव के चक्कर में हैं .पता चला है कि   जल्दी चुनाव की इच्छा रखने  वालों में अब ममता बनर्जी के साथ साथ शरद पवार भी जुट गए हैं .शरद पवार की पार्टी ने ऐसे मुद्दे उठाना शुरू कर दिया है जिनका हल किया ही नहीं जा सकता. ममता बनर्जी भी अपनी विधान सभा की जीत के तितर वितर होने के  पहले  लोकसभा चुनाव के लिए कोशिश  कर रही हैं जबकि शरद पवार ने महाराष्ट्र में दिन ब दिन कमज़ोर पड़ती कांग्रेस को और कमज़ोर करने और अपने आपको उनसे बड़ा साबित करने  के लिए चुनाव की बात करना शुरू कर दिया है . जहां तक समाजवादी पार्टी की बात है वे अभी ५ महीने पहले विधान सभा चुनाव में जीतकर आये हैं और उन्हें उम्मीद है कि नौजवान मुख्यमंत्री की बात पर विश्वास  कर रही यू पी की जनता लोकसभा में भी उन्हें  जिता  देगी. समाजवादी पार्टी ने  उत्तर प्रदेश चुनाव में टिकटों के वितरण जैसे गंभीर मसले को हल करने की प्रक्रिया  शुरू कर दी  है . जहां से उनके सांसद हैं उनको तो वे टिकट देगें लेकिन जहां नहीं हैं वहां पार्टी एन आब्ज़र्वर भेजे थे . आब्ज़र्वर की रिपोर्ट इसी ३० जुलाई तक आ जायेगी और उसके बाद  टिकटों के बँटवारे का ऐलान  कभी हो सकता है . समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अपन कार्यकर्ताओं से बार बार आग्रह किया है  कि लोक सभा चुनाव के लिए तैयार रहें क्योंकि चुनाव कभी भी हो सकते हैं . 
अगर राज्य में जल्दी चुनाव होते हैं  हैं तो समाजवादी पार्टी को निश्चित रूप से फायदा होगा लेकिन उसे यह भी ध्यान रखन पड़ेगा कि राज्य में कानून व्यवस्था की हालत किसी कीमत पर न बिगड़ने पाए . अगर ऐसा हुआ तो समाजवादी पार्टी को अभी पांच महीने पहले   मिला राजनीतिक जनादेश खंडित हो जाएगा और साम्प्रदायिक ताक़तों  की स्थिति मज़बूत होगी . लेकिन कानून व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए मौजूदा मुख्यमंत्री को पुलिस की लीडरशिप ऐसे लोगों को देनी होगी जिनकी अपने विभाग में इज्ज़त हो . लगता है कि अभी बरेली, प्रतापगढ़ और मठुरामें पुलिस की अगुवाई ऐसे लोग कर रहे हिं जीनेक मातहत उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते . हालांकि यह बहुत माऊली बात है लेकिन  मौके के हाकिम  की हैसियत से हे एमुकामी तौर पार हुकूमत का इकबाल बनता है . उम्मीद की जानी चाहिए  कि दंगे की राजनीति वालों से राजनीतिक रूप से मुकाबला करते हुए मुकामी स्तर पर सक्रिय उनके एजेंट बदमाशों को भी सरकार काबू में करेगी . अगर ऐसा न हुआ तो अल्पसंख्यकों के सामने फिर से राजनीतिक विकल्प तलाशने की मजबूरी आ जायेगी .

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