शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, १४ अप्रैल. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कामकाज में किसी तरह का दखल नहीं देना चाहते. राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने के एक महीने बाद आज एक ख़ास मुलाक़ात में मुलायम सिंह यादव ने साफ़ कहा कि वे राज्य सरकार के काम काज में किसी तरह की दखलंदाज़ी नहीं करेगें.जब उन्हें याद दिलाया गया कि दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम के दबाव में फैसले लेकर उन्होंने राज्य सरकार के ऊपर दबाव डाला है तो उन्होंने कहा कि वे किसी के दबाव में फैसले नहीं लेते . जहां तक इमाम से बातचीत का सवाल है उनके दरवाज़े सब के लिए खुले हैं . किसी भी समुदाय के महत्वपूर्ण व्यक्ति से बात करना सरकारी नहीं राजनीतिक काम है और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रूप में वे काम करते रहेगें.जहां तक सरकारी काम का सवाल है उन्होंने पार्टी के कार्यकर्ताओं को बता दिया है कि राज्य सरकार के किसी काम को वे प्रभावित नहीं करेगें. किसी भी सरकारी काम के लिए उन्हें मुख्यमंत्री या राज्य सरकार के सम्बंधित मंत्रियों से ही संपर्क करना पडेगा. बात चीत से साफ़ लगा कि वे मुसलामानों के कल्याण के लिए खुद चिंतित हैं और उन्हें मालूम है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने उनकी बात पर विश्वास करके ही उनकी पार्टी को वोट दिया है. राज्य में व्यापक मुस्लिम समर्थन उनको इसलिए मिला है कि मुसलमान उनकी बातों पर भरोसा करते हैं .उसके लिए मुस्लिम समुदाय के किसी भी नेता से ज्यादा वे खुद ज़िम्मेदार हैं
मुसलमानों के साथ हुए पिछली सरकार के शासन काल के अन्याय के लेकर वे बहुत चिंतित नज़र आये. उन्होंने कहा कि इस समुदाय के साथ जो भी अन्याय हुआ है राज्य सरकार उसे ठीक करने के लिए काम कर रही है. सरकार को वे राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में राजनीतिक समर्थन पूरी तरह से देते रहेगें.उन्होंने कहा कि हालांकि कोई काम ऐसा नहीं किया जाएगा जिस से लगे कि पिछली सरकार के साथ बदले की भावना से काम किया जा रहा है लेकिन पिछली सरकार से जो गलतियाँ हुई हैं उनको सुधारने की पूरी कोशिश की जायेगी. उन्होंने कहा कि पिछली सरकार ने ठीक से काम नहीं किया . कहने लगे कि उत्तर प्रदेश की पिछ्ली सरकार ने केंद्र सरकार के योजना आयोग से एक मद में ५० करोड़ रूपये की मांग की थी जबकि उसी काम के लिए गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने अरबों रूपये की योजना बनाकर केंद्र सरकार के पास भेजा और मंज़ूर करा लिया . इस तरह से ठीक से प्रस्ताव तैयार करवा कर सही अफसरों को लगाकर जहां नरेंद्र मोदी करोड़ों रूपये ले जाने में सफल रहे . उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार ने केंद्र से अपना हक भी ठीक से नहीं लिया . उन्होंने कहा कि मुख्य मंत्री से उन्होंने कहा है कि केंद्र से सहायता लेने के लिए जो भी प्रस्ताव भेजा जाए उसे बिलकुल दुरुस्त होना चाहिए जिस से राज्य सरकार के हित में काम किय जाय .जहां तक मुसलमानों की बात है उनके घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि मुसलमानों के कल्याण को प्राथमिकता दी जायेगी और वचन को पूरा किया जाएगा. जब एक निर्दलीय संसद सदस्य को उनकी पार्टी में शामिल होने की बात की गयी तो उन्होंने साफ़ कहा कि वे हमारी पार्टी में नहीं हैं. उन्होंने वहां मौजूद लोक सभा सदस्य से भी कहा कि आपने अपने संसदीय इलाके में मुझसे जो भी वायदे करवाए थे उन्हें मुख्य मंत्रीसे मिल कर पूरा करवा लीजिये . और अगर ज़रूरी हो तो मैं भी बात कर सकता हूँ .
Sunday, April 15, 2012
Saturday, April 14, 2012
अंबेडकर के नाम पर धंधा करने वाले कभी भी जाति का विनाश नहीं होने देगें
शेष नारायण सिंह
पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था. उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। दर असल डॉ बी आर अंबेडकर उन पांच ऐसे लोगों में हैं जिन्होंने भारत के बीसवीं सदी, के इतिहास की दशा तय की. जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,The Annihilation of caste , ने हर तरह की राजनीतिक सोच को प्रभावित किया. है..आज सभी पार्टियां डॉ अंबेडकर के नाम की रट लगाती हैं लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं.सच्चाई यह है कि पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा योगदान है. यह काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था . उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा .. डॉ अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों में परिवर्तन का वाहक बनेगा. डॉ अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया.
The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जोअंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में जो सरकार पांच साल राज करके अभी एक महीने पहले विदा हुई है वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की ही थी. राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया था और सत्ता के केंद्र तक पंहुचे थे .इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली मायावती सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाया .
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री की पिछले बीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मायावती की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
एक अजीब बात यह भी है कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम था कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है . इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।
इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी. ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिनअंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है . जब कांशी राम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था तो अंबेडकर के दर्शन शास्त्र को समझने वालों को उम्मीद थी कि जब अंबेडकर वादियों को सत्ता में भागीदारी मिलेगी तो सब कुछ बदल जाएगा ,जताई प्रथा के विनाश के लिए ज़रूरी क़दम उठा लिए जायेगें लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पांच साल तक पूर्ण बहुमत वाली सत्ता का आनंद लेने वाली मायावती जाति संस्था को ख़त्म करना तो दूर उसको बनाए रखने और मज़बूत करने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया .लगता है कि अंबेडकर जयंती या उनके निर्वाण दिवस पर फूल चढाते हुए फोटो खिंचाने वाले लोगों के सहारे जाति प्रथा का विनाश नहीं किया जा सकता. वे चाहे नेता हों या अंबेडकर के नाम पर दलित लेखन का धंधा करने वाले लोग. जाति का विनाश करने के लिए उन्हीं लोगों को आगे आना होगा जो जातिप्रथा के सबसे बड़े शिकार हैं .
पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था. उनको विश्वास था कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। दर असल डॉ बी आर अंबेडकर उन पांच ऐसे लोगों में हैं जिन्होंने भारत के बीसवीं सदी, के इतिहास की दशा तय की. जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,The Annihilation of caste , ने हर तरह की राजनीतिक सोच को प्रभावित किया. है..आज सभी पार्टियां डॉ अंबेडकर के नाम की रट लगाती हैं लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं.सच्चाई यह है कि पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा योगदान है. यह काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था . उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा .. डॉ अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों में परिवर्तन का वाहक बनेगा. डॉ अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया.
The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जोअंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन उत्तर प्रदेश में जो सरकार पांच साल राज करके अभी एक महीने पहले विदा हुई है वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की ही थी. राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया था और सत्ता के केंद्र तक पंहुचे थे .इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली मायावती सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाया .
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री की पिछले बीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मायावती की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
एक अजीब बात यह भी है कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम था कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है . इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।
इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी. ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिनअंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है . जब कांशी राम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था तो अंबेडकर के दर्शन शास्त्र को समझने वालों को उम्मीद थी कि जब अंबेडकर वादियों को सत्ता में भागीदारी मिलेगी तो सब कुछ बदल जाएगा ,जताई प्रथा के विनाश के लिए ज़रूरी क़दम उठा लिए जायेगें लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पांच साल तक पूर्ण बहुमत वाली सत्ता का आनंद लेने वाली मायावती जाति संस्था को ख़त्म करना तो दूर उसको बनाए रखने और मज़बूत करने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया .लगता है कि अंबेडकर जयंती या उनके निर्वाण दिवस पर फूल चढाते हुए फोटो खिंचाने वाले लोगों के सहारे जाति प्रथा का विनाश नहीं किया जा सकता. वे चाहे नेता हों या अंबेडकर के नाम पर दलित लेखन का धंधा करने वाले लोग. जाति का विनाश करने के लिए उन्हीं लोगों को आगे आना होगा जो जातिप्रथा के सबसे बड़े शिकार हैं .
Friday, April 13, 2012
क्या साहित्य,संगीत और कला की केंद्रीय अकादमियां किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं ?
शेष नारायण सिंह
एक सवाल हर दौर में उठता रहा है कि क्या अपने देश में रहने वालों की बेहतर ज़िंदगी के लिए शिक्षा और संस्कृति का विकास बहुत ज़रूरी शर्त है . क्योंकि चौतरफा विकास के लिए और एक अच्छे समाज की स्थापना के लिए शिक्षा और संस्कृति की बेहतरी बहुत ज़रूरी है . १९८८ में बनी हक्सर कमेटी ने भी यह सवाल बहुत ही संजीदगी से उठाया था. हक्सर कमेटी एक ताक़तवर कमेटी थी जिसे केंद्र सरकार ने बनाया था और उसे ज़िम्मा दिया गया था कि वह साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज पर नज़र डाले और यह देखे कि क्या यह संस्थाएं अपना काम ठीक से कर रही हैं. क्या उन्हें जो ज़िम्मा दिया गया था उसे वे ज़िम्मेदारी से निभा रही हैं . हक्सर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करना सरकार की ज़िम्मेदारी थी लेकिन जब बीस साल बाद संसद की एक कमेटी ने उस रिपोर्ट के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो पता चला कि केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाले संस्कृति मंत्रालय ने उस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं . और जब सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने फ़ाइल तलब की तो जवाब आया कि मंत्रालय पूरी गंभीरता से फ़ाइल की तलाश कर रहा है . यानी हालात यह थे कि रिपोर्ट आने के बाद फ़ाइल ही गायब हो गयी थी और किसी को कहीं कुछ पता नहीं था. कहीं से तलाश कार जब रिपोर्ट हाथ आई तो संस्कृति मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति इतनी प्रभावित हुई कि उसने यह तय किया कि अब साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज के बारे में कोई जांच नहीं की जायेगी. हक्सर कमेटी की रिपोर्ट इतनी विस्तृत है कि अगर उसके ऊपर की गयी सरकारी कार्रवाई की समीक्षा कर ली जाए तो भी बहुत कल्याण हो जाएगा. लेकिन जाब कार्रवाई के बारे में सरकारी अफसरों से पूछा गया तो हालात और भी बदतर नज़र आये. पता चला कि सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है . रिपोर्ट के ऊपर जो भी टिप्पणी साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मिली थी उसी को अपनी तरफ से संसदीय कमेटी के पास भेज दिया गया है . उन टिप्पणियों पर सरकार की तरफ से कोई कमेन्ट नहीं किया गया.है हक्सर कमेटी की रिपोर्ट पर विधिवत काम करने के बाद संसद की स्थायी सामिति ने सुझाव दिया है कि सरकार को ऐसा उपाय करना चाहिए कि जिस से साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्वायत्तता तो सुरक्षित रहे लेकिन स्वायत्तता के नाम सरकारी धन का दुरुपयोग न हो और यह संस्थाएं वह काम ज़रूर करें जो करने के इए इनकी स्थापना की गयी थी .
आजादी के बाद स्वतंत्र भारत के निर्माताओं ने बहुत ही लगन से देश की संस्कृति की निगहबान संस्थाओं,साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना की थी. उन्होंने सोचा था कि स्वतंत्र भारत में संस्कृति और विकास की धारा साथ साथ चलेगी क्योंकि संस्कृति और विकास के दूसरे के पूरक होते हैं लेकिन लगता है कि ऐसा हो नहीं सका है . संस्कृति मंत्रालय के मामलों पर नज़र रखने के लिए बनायी गयी संसद की स्थायी समिति की ताज़ा रिपोर्ट में इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर किया गया है और संस्कृति मंत्रालय की नौकरशाही के कामकाज के तरीकों पर गंभीर सवाल उठाये गए हैं . रिपोर्ट पर नज़र डालने से साफ़ लगता है कि सरकार असहाय है और साहित्य संगीत और कला की राष्ट्रीय संस्थाओं में मनमानी का राज है .
यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कामकाज के तरीके पर चर्चा करने का काम अपने जिम्मे लिया . चारों तरफ से शिकायतें मिल रही थीं कि यह संस्थाएं अपना काम ठीक से नहीं कर रही थीं .शुरुआती दौर में ही पता लग गया कि इसी काम के लिए १९८८ में पी एन हक्सर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था . स्थायी समिति ने पाया कि हक्सर कमेटी की रिपोर्ट बहुत ही व्यापक थी और उस कमेटी ने जो सिफारिशें की थीं अगर वे लागू कर दी गयी होतीं तो इन संस्थाओं में बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुके होते.इसलिए फिर से सारी जांच दुबारा करने की ज़रूरत नहीं है . कमेटी की राय थी कि हक्सर कमेटी के बारे में सरकार ने जो भी कार्यवाही की हो , वह देखने से पता लग जाएगा कि असली हालात क्या हैं . संस्कृति मंत्रालय से यह रिपोर्ट तलब कर ली गयी लेकिन कमेटी के सदस्य दंग रह गए जब उन्हें सरकार की तरफ से बताया गया कि हक्सर कमेटी की सिफारिशों के बारे में जो कार्रवाई की गई है उसकी फ़ाइल कहीं गायब हो गयी है और संस्कृति मंत्रालय बहुत ही मेहनत से उस फ़ाइल को तलाशने की कोशिश कर रहा है . कमेटी का कहना है कि हक्सर कमेटी को लागू करने के लिए सरकार ने कोई गंभीर कोशिश नहीं की थी.
संस्कृति मंत्रालय का काम देखने वाली संसद की स्थायी समिति एक महत्वपूर्ण कमेटी है . इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इतनी अहम कमेटी की रिपोर्ट को लागू करना तो दूर की बात है सरकार ने अभी तक इस पर विचार भी नहीं किया है .लगता है कि सरकार ने हक्सर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के बारे में कोई गंभीरता नहीं दिखाई वरना इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट के गायब हो जाने का क्या मतलब है .मंत्रालय ने इस रिपोर्ट के बारे में जो कार्रवाई रिपोर्ट दाखिल किया है वह बहुत ही निराशाजनक है. अकादमियों से जो भी टिप्पणियां मिली थीं उसी को मंत्रालय ने अपनी कार्रवाई रिपोर्ट बताकर संसद की कमेटी के पास भेज दिया है .उस टिप्पणी पर अपनी तरफ से कुछ लिखने तक की जहमत नहीं उठायी है .इससे साफ़ लगता है कि मंत्रालय या तो असहाय है या संस्कृति के इन प्रमुख केन्दों में किसी तरह का सुधार करने की इच्छा ही नहीं रखता .यह सारी अकादमियां स्वायत्त हैं और लगता है कि इन संस्थाओं में बैठे हुए मठाधीश सत्ता के गलियारों में अपनी पंहुच का फायदा उठाकर संस्कृति मंत्रालय के अफसरों की परवाह ही नहीं करते. संसद की कमेटी ने साफ़ कहा है कि इन संस्थाओं की स्वायत्तता पर किसी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए लेकिन स्वायत्तता की आड़ में बैठ कर राष्ट्रीय संसाधनों को बरबाद होने से बचाने के लिए सब कुछ किया जाना चाहिये .जहां तक संस्कृति मंत्रालय और उसकी अकादमियों का सवाल है संसद की स्थायी समिति ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि उनके काम काज के तरीकों में जिम्मेदारी का तत्व बिलकुल नहीं है .कमेटी ने कहा है कि वह किसी भी हालत में साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर सरकारी कंट्रोल के खिलाफ है लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संसद ने किसी भी स्वायत्त संस्था के काम के लिए जो धन मंज़ूर किया है उसका हिसाब किताब तो देना ही पडेगा .
कमेटी ने सरकार को साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की मौजूदा दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार बताया है और कहा है कि सरकार को चाहिए था अकी वह अपने देश की सांकृतिक और साहित्यिक धरोहर को संभालने वाली संस्थाओं को ज्यादा ज़िम्मेदारी से चलाती .यह ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है जब कि जीवन मूल्यों में हर स्तर पर बदलाव हो रहे हैं .ऐसे दौर में हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की फिर से स्थापना की ज़रुरत है .संस्कृति और साहित्य की संस्थाओं को इस बदले युग में ज्यादा सक्रिय होना पड़ेगा क्योंकि आम आदमी ,ख़ास कार नौजवान अगर अपनी सांस्कृतिक धरोहर और मूल्यों के प्रति संवेदन शील होंगेब तो आर्थिक विकास और परिवर्तन की गति के साथ चल सकेगें और देश को भूख से बचाने वाले आर्थिक विकास के साथ साथ दिमाग और दिल की भूख को शांत करने वाले संस्कृति और साहित्य को भी विकास की गति मिल सकेगी.
एक सवाल हर दौर में उठता रहा है कि क्या अपने देश में रहने वालों की बेहतर ज़िंदगी के लिए शिक्षा और संस्कृति का विकास बहुत ज़रूरी शर्त है . क्योंकि चौतरफा विकास के लिए और एक अच्छे समाज की स्थापना के लिए शिक्षा और संस्कृति की बेहतरी बहुत ज़रूरी है . १९८८ में बनी हक्सर कमेटी ने भी यह सवाल बहुत ही संजीदगी से उठाया था. हक्सर कमेटी एक ताक़तवर कमेटी थी जिसे केंद्र सरकार ने बनाया था और उसे ज़िम्मा दिया गया था कि वह साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज पर नज़र डाले और यह देखे कि क्या यह संस्थाएं अपना काम ठीक से कर रही हैं. क्या उन्हें जो ज़िम्मा दिया गया था उसे वे ज़िम्मेदारी से निभा रही हैं . हक्सर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करना सरकार की ज़िम्मेदारी थी लेकिन जब बीस साल बाद संसद की एक कमेटी ने उस रिपोर्ट के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो पता चला कि केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाले संस्कृति मंत्रालय ने उस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं . और जब सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने फ़ाइल तलब की तो जवाब आया कि मंत्रालय पूरी गंभीरता से फ़ाइल की तलाश कर रहा है . यानी हालात यह थे कि रिपोर्ट आने के बाद फ़ाइल ही गायब हो गयी थी और किसी को कहीं कुछ पता नहीं था. कहीं से तलाश कार जब रिपोर्ट हाथ आई तो संस्कृति मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति इतनी प्रभावित हुई कि उसने यह तय किया कि अब साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज के बारे में कोई जांच नहीं की जायेगी. हक्सर कमेटी की रिपोर्ट इतनी विस्तृत है कि अगर उसके ऊपर की गयी सरकारी कार्रवाई की समीक्षा कर ली जाए तो भी बहुत कल्याण हो जाएगा. लेकिन जाब कार्रवाई के बारे में सरकारी अफसरों से पूछा गया तो हालात और भी बदतर नज़र आये. पता चला कि सरकार ने कोई काम ही नहीं किया है . रिपोर्ट के ऊपर जो भी टिप्पणी साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मिली थी उसी को अपनी तरफ से संसदीय कमेटी के पास भेज दिया गया है . उन टिप्पणियों पर सरकार की तरफ से कोई कमेन्ट नहीं किया गया.है हक्सर कमेटी की रिपोर्ट पर विधिवत काम करने के बाद संसद की स्थायी सामिति ने सुझाव दिया है कि सरकार को ऐसा उपाय करना चाहिए कि जिस से साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्वायत्तता तो सुरक्षित रहे लेकिन स्वायत्तता के नाम सरकारी धन का दुरुपयोग न हो और यह संस्थाएं वह काम ज़रूर करें जो करने के इए इनकी स्थापना की गयी थी .
आजादी के बाद स्वतंत्र भारत के निर्माताओं ने बहुत ही लगन से देश की संस्कृति की निगहबान संस्थाओं,साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना की थी. उन्होंने सोचा था कि स्वतंत्र भारत में संस्कृति और विकास की धारा साथ साथ चलेगी क्योंकि संस्कृति और विकास के दूसरे के पूरक होते हैं लेकिन लगता है कि ऐसा हो नहीं सका है . संस्कृति मंत्रालय के मामलों पर नज़र रखने के लिए बनायी गयी संसद की स्थायी समिति की ताज़ा रिपोर्ट में इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर किया गया है और संस्कृति मंत्रालय की नौकरशाही के कामकाज के तरीकों पर गंभीर सवाल उठाये गए हैं . रिपोर्ट पर नज़र डालने से साफ़ लगता है कि सरकार असहाय है और साहित्य संगीत और कला की राष्ट्रीय संस्थाओं में मनमानी का राज है .
यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से सम्बंधित संसद की स्थायी समिति ने साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कामकाज के तरीके पर चर्चा करने का काम अपने जिम्मे लिया . चारों तरफ से शिकायतें मिल रही थीं कि यह संस्थाएं अपना काम ठीक से नहीं कर रही थीं .शुरुआती दौर में ही पता लग गया कि इसी काम के लिए १९८८ में पी एन हक्सर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था . स्थायी समिति ने पाया कि हक्सर कमेटी की रिपोर्ट बहुत ही व्यापक थी और उस कमेटी ने जो सिफारिशें की थीं अगर वे लागू कर दी गयी होतीं तो इन संस्थाओं में बहुत ही महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुके होते.इसलिए फिर से सारी जांच दुबारा करने की ज़रूरत नहीं है . कमेटी की राय थी कि हक्सर कमेटी के बारे में सरकार ने जो भी कार्यवाही की हो , वह देखने से पता लग जाएगा कि असली हालात क्या हैं . संस्कृति मंत्रालय से यह रिपोर्ट तलब कर ली गयी लेकिन कमेटी के सदस्य दंग रह गए जब उन्हें सरकार की तरफ से बताया गया कि हक्सर कमेटी की सिफारिशों के बारे में जो कार्रवाई की गई है उसकी फ़ाइल कहीं गायब हो गयी है और संस्कृति मंत्रालय बहुत ही मेहनत से उस फ़ाइल को तलाशने की कोशिश कर रहा है . कमेटी का कहना है कि हक्सर कमेटी को लागू करने के लिए सरकार ने कोई गंभीर कोशिश नहीं की थी.
संस्कृति मंत्रालय का काम देखने वाली संसद की स्थायी समिति एक महत्वपूर्ण कमेटी है . इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इतनी अहम कमेटी की रिपोर्ट को लागू करना तो दूर की बात है सरकार ने अभी तक इस पर विचार भी नहीं किया है .लगता है कि सरकार ने हक्सर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के बारे में कोई गंभीरता नहीं दिखाई वरना इतनी महत्वपूर्ण रिपोर्ट के गायब हो जाने का क्या मतलब है .मंत्रालय ने इस रिपोर्ट के बारे में जो कार्रवाई रिपोर्ट दाखिल किया है वह बहुत ही निराशाजनक है. अकादमियों से जो भी टिप्पणियां मिली थीं उसी को मंत्रालय ने अपनी कार्रवाई रिपोर्ट बताकर संसद की कमेटी के पास भेज दिया है .उस टिप्पणी पर अपनी तरफ से कुछ लिखने तक की जहमत नहीं उठायी है .इससे साफ़ लगता है कि मंत्रालय या तो असहाय है या संस्कृति के इन प्रमुख केन्दों में किसी तरह का सुधार करने की इच्छा ही नहीं रखता .यह सारी अकादमियां स्वायत्त हैं और लगता है कि इन संस्थाओं में बैठे हुए मठाधीश सत्ता के गलियारों में अपनी पंहुच का फायदा उठाकर संस्कृति मंत्रालय के अफसरों की परवाह ही नहीं करते. संसद की कमेटी ने साफ़ कहा है कि इन संस्थाओं की स्वायत्तता पर किसी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए लेकिन स्वायत्तता की आड़ में बैठ कर राष्ट्रीय संसाधनों को बरबाद होने से बचाने के लिए सब कुछ किया जाना चाहिये .जहां तक संस्कृति मंत्रालय और उसकी अकादमियों का सवाल है संसद की स्थायी समिति ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि उनके काम काज के तरीकों में जिम्मेदारी का तत्व बिलकुल नहीं है .कमेटी ने कहा है कि वह किसी भी हालत में साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर सरकारी कंट्रोल के खिलाफ है लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संसद ने किसी भी स्वायत्त संस्था के काम के लिए जो धन मंज़ूर किया है उसका हिसाब किताब तो देना ही पडेगा .
कमेटी ने सरकार को साहित्य अकादमी ,ललित कला अकादमी,संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की मौजूदा दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार बताया है और कहा है कि सरकार को चाहिए था अकी वह अपने देश की सांकृतिक और साहित्यिक धरोहर को संभालने वाली संस्थाओं को ज्यादा ज़िम्मेदारी से चलाती .यह ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है जब कि जीवन मूल्यों में हर स्तर पर बदलाव हो रहे हैं .ऐसे दौर में हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की फिर से स्थापना की ज़रुरत है .संस्कृति और साहित्य की संस्थाओं को इस बदले युग में ज्यादा सक्रिय होना पड़ेगा क्योंकि आम आदमी ,ख़ास कार नौजवान अगर अपनी सांस्कृतिक धरोहर और मूल्यों के प्रति संवेदन शील होंगेब तो आर्थिक विकास और परिवर्तन की गति के साथ चल सकेगें और देश को भूख से बचाने वाले आर्थिक विकास के साथ साथ दिमाग और दिल की भूख को शांत करने वाले संस्कृति और साहित्य को भी विकास की गति मिल सकेगी.
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Thursday, April 12, 2012
ज्योतिबा फुले की गुलामगीरी कोई मामूली किताब नहीं , क्रान्तिकारी परिवर्तन का दस्तावेज़ है
महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हुई .उसी दौर में मैंने यह लेख लिखा था . आज महात्मा फुले के जन्मदिन के अवसर पर इसे फिर पोस्ट करके मुझे हार्दिक खुशी हो रही है.
शेष नारायण सिंह
दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्धांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।
शेष नारायण सिंह
दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्धांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।
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Tuesday, April 10, 2012
मायावती के वोट बैंक को कमज़ोर करेगी समाजवादी पार्टी की सरकार
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,९ अप्रैल .उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को राजनीतिक रूप से कमज़ोर करने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है . राज्य की पिछड़ी जातियों के एक वर्ग को अनुसूचित जातियों की सूची में डालने की योजना पर काम शुरू हो गया है . अगर ऐसा हो गया तो अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों, विधायिका और पंचायतों में रिज़र्व सीटों में हिस्सा बंटाने राज्य की अति पिछड़ी जातियों के सदस्य भी पंहुच जायेगें.राज्य सरकार ने अखिलेश यादव के उस वायदे को पूरा करने के लिए तैयारी शुरू कर दी है जिसमें उन्होंने कहा था कि पिछड़ी जातियो में अति पिछड़ी जातियों को दलितों जैसी सुविधाएं दी जायेगीं .योजना के मुताबिक मल्लाह, कहार और कुम्हार जाति को अब अनुसूचित जाति का सदस्य बना दिया जाएगा और इन जातियों के लोगों को अनुसूचित जातियों नके लिए रिज़र्व सीटों के लिए हक़दार माना जायेगा. समाजवादी पार्टी के सासद धर्मेन्द्र यादव का कहना है कि राज्य सरकार अपने चुनाव घोषणा पत्र में किये गए वायदों को बहुत ही गंभीरता से ले रही है . उसी राजनीतिक सोच के अनुसार सरकार बनने के बाद मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही बेरोज़गारी भत्ता देने का फैसला कर लिया गया था . अति पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में दलितों के सामान अधिकार देना भी समाजवादी पार्टी के चुनावी वायदों में शामिल है .
राज्य सरकार अपने उस प्रस्ताव को फिर से जिंदा करना चाहती है जिसके तहत मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य सरकार ने केंद्र सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें मांग की गयी थी कि मल्लाह , कहार और कुम्हार जाति की कुछ उपजातियों को अनुसूचित जाति माना जाए.उन दिनों अमर सिंह का ज़माना था और समाजवादी पार्टी की कांग्रेस से दूरी हुआ करती थी . मुलायम सिंह की सरकार के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया और मामला लटक गया. २००७ में जब मायावती की सरकार आ गयी तो उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया . मल्लाह जाति के लोगों को अपने साथ लेना समाजवादी पार्टी की करीब १५ साल पुरानी रणनीति का हिस्सा है. जब कांशीराम ने मुलायम सिंह के साथ गठबंधन तोड़कर मायावती को बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बना दिया था ,उसी वक़्त मुलायम सिंह यादव ने तय कर लिया था कि कांशी राम-मायावती के दलित वोट बैंक के बराबर का ही एक और वोट बैंक तैयार कर लेगें. उन्होंने उन दिनों इस संवाददाता को बताया था कि जाटवों की उत्तर प्रदेश में जितनी संख्या है , मल्लाहों की संख्या उसकी ७० प्रतिशत है . अगर मलाह पूरी तरह से समाजवादी पार्टी के साथ हो जायेगें तो दलितों के मायावती के साथ जाने से समाजवादी पार्टी को कोई नुकसान नहीं होगा. इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने मलाहों की अस्मिता की पहचान बन चुकी डाकू फूलन देवी को अपनी पार्टी में शामिल किया था और उन्हें लोकसभा की सदस्य बनवाया था. समाजवादी पार्टी का दावा है कि राज्य में मलाह, कहार और कुम्हार जातियों की संख्या जाटवों की कुल संख्या से ज़्यादा है . इसलिए इन जातियों को अगर अनुसूचित जाति में शामिल कर दिया जाए तो इन्हें राजनीतिक रूप से अपने साथ जोड़ा जा सकता है . इस योजना का दूसरा लाभ यह होगा कि मायवती के कोर समर्थकों को अपने आरक्षण में से उन जातियों को भी हिस्सा देना पड़ेगा जो कि चुनावों में मायावती के खिलाफ वोट कर रहे होगें.
उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियो में अति पिछड़ी जातियों के सहारे राजनीति करने की कोशिश बीजेपी ने भी की थी. जब राजनाथ सिंह मुख्य मंत्री थे तो उन्होने अति पिछड़ों के लिए अलग से रिज़र्वेशन की बात की थी. और उसी हिसाब से नियम कानून भी बना दिया था. लेकिन उनकी राजनीति की धार के निशाने पर मुलायम सिंह यादव और उनकी राजनीति को कमज़ोर करना था. वे ओबीसी के आरक्षण में से काट कर अति पिछड़ी जातियों को सीटें देना चाहते थे . लेकिन समाजवादी पार्टी ने अति पिछड़ों को आरक्षण भी दे दिया है और अपने ओबीसी वर्ग के समर्थन को और मज़बूत कर दिया है . क्योंकि अगर मलाह , कुम्हार और कहार जाति के लोग दलित कोटे से सीटें ले रहे हैं तो ओबीसी के लिए जो २७ प्रतिशत का आरक्षण है उसमें से यादव आदि जातियों को ज़्यादा सीटें मिलेगीं.
इन जातियों को अनुसूचित जाति घोषित करने की प्रक्रिया को सरकार ने शुरू भी कर दिया है . मुख्य सचिव जावेद उस्मानी ने सम्बंधित विभाग से आंकड़े तलब कर लिए हैं और जल्दी ही प्रक्रिया पूरी कर दी जायेगी.
नई दिल्ली,९ अप्रैल .उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को राजनीतिक रूप से कमज़ोर करने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है . राज्य की पिछड़ी जातियों के एक वर्ग को अनुसूचित जातियों की सूची में डालने की योजना पर काम शुरू हो गया है . अगर ऐसा हो गया तो अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों, विधायिका और पंचायतों में रिज़र्व सीटों में हिस्सा बंटाने राज्य की अति पिछड़ी जातियों के सदस्य भी पंहुच जायेगें.राज्य सरकार ने अखिलेश यादव के उस वायदे को पूरा करने के लिए तैयारी शुरू कर दी है जिसमें उन्होंने कहा था कि पिछड़ी जातियो में अति पिछड़ी जातियों को दलितों जैसी सुविधाएं दी जायेगीं .योजना के मुताबिक मल्लाह, कहार और कुम्हार जाति को अब अनुसूचित जाति का सदस्य बना दिया जाएगा और इन जातियों के लोगों को अनुसूचित जातियों नके लिए रिज़र्व सीटों के लिए हक़दार माना जायेगा. समाजवादी पार्टी के सासद धर्मेन्द्र यादव का कहना है कि राज्य सरकार अपने चुनाव घोषणा पत्र में किये गए वायदों को बहुत ही गंभीरता से ले रही है . उसी राजनीतिक सोच के अनुसार सरकार बनने के बाद मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही बेरोज़गारी भत्ता देने का फैसला कर लिया गया था . अति पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में दलितों के सामान अधिकार देना भी समाजवादी पार्टी के चुनावी वायदों में शामिल है .
राज्य सरकार अपने उस प्रस्ताव को फिर से जिंदा करना चाहती है जिसके तहत मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य सरकार ने केंद्र सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें मांग की गयी थी कि मल्लाह , कहार और कुम्हार जाति की कुछ उपजातियों को अनुसूचित जाति माना जाए.उन दिनों अमर सिंह का ज़माना था और समाजवादी पार्टी की कांग्रेस से दूरी हुआ करती थी . मुलायम सिंह की सरकार के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया और मामला लटक गया. २००७ में जब मायावती की सरकार आ गयी तो उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया . मल्लाह जाति के लोगों को अपने साथ लेना समाजवादी पार्टी की करीब १५ साल पुरानी रणनीति का हिस्सा है. जब कांशीराम ने मुलायम सिंह के साथ गठबंधन तोड़कर मायावती को बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बना दिया था ,उसी वक़्त मुलायम सिंह यादव ने तय कर लिया था कि कांशी राम-मायावती के दलित वोट बैंक के बराबर का ही एक और वोट बैंक तैयार कर लेगें. उन्होंने उन दिनों इस संवाददाता को बताया था कि जाटवों की उत्तर प्रदेश में जितनी संख्या है , मल्लाहों की संख्या उसकी ७० प्रतिशत है . अगर मलाह पूरी तरह से समाजवादी पार्टी के साथ हो जायेगें तो दलितों के मायावती के साथ जाने से समाजवादी पार्टी को कोई नुकसान नहीं होगा. इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने मलाहों की अस्मिता की पहचान बन चुकी डाकू फूलन देवी को अपनी पार्टी में शामिल किया था और उन्हें लोकसभा की सदस्य बनवाया था. समाजवादी पार्टी का दावा है कि राज्य में मलाह, कहार और कुम्हार जातियों की संख्या जाटवों की कुल संख्या से ज़्यादा है . इसलिए इन जातियों को अगर अनुसूचित जाति में शामिल कर दिया जाए तो इन्हें राजनीतिक रूप से अपने साथ जोड़ा जा सकता है . इस योजना का दूसरा लाभ यह होगा कि मायवती के कोर समर्थकों को अपने आरक्षण में से उन जातियों को भी हिस्सा देना पड़ेगा जो कि चुनावों में मायावती के खिलाफ वोट कर रहे होगें.
उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियो में अति पिछड़ी जातियों के सहारे राजनीति करने की कोशिश बीजेपी ने भी की थी. जब राजनाथ सिंह मुख्य मंत्री थे तो उन्होने अति पिछड़ों के लिए अलग से रिज़र्वेशन की बात की थी. और उसी हिसाब से नियम कानून भी बना दिया था. लेकिन उनकी राजनीति की धार के निशाने पर मुलायम सिंह यादव और उनकी राजनीति को कमज़ोर करना था. वे ओबीसी के आरक्षण में से काट कर अति पिछड़ी जातियों को सीटें देना चाहते थे . लेकिन समाजवादी पार्टी ने अति पिछड़ों को आरक्षण भी दे दिया है और अपने ओबीसी वर्ग के समर्थन को और मज़बूत कर दिया है . क्योंकि अगर मलाह , कुम्हार और कहार जाति के लोग दलित कोटे से सीटें ले रहे हैं तो ओबीसी के लिए जो २७ प्रतिशत का आरक्षण है उसमें से यादव आदि जातियों को ज़्यादा सीटें मिलेगीं.
इन जातियों को अनुसूचित जाति घोषित करने की प्रक्रिया को सरकार ने शुरू भी कर दिया है . मुख्य सचिव जावेद उस्मानी ने सम्बंधित विभाग से आंकड़े तलब कर लिए हैं और जल्दी ही प्रक्रिया पूरी कर दी जायेगी.
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Sunday, April 8, 2012
यमन के तानाशाह के लिए यमदूत हैं तवक्कुल कारमान
शेष नारायण सिंह
अरब देश यमन में परिवर्तन की आंधी चल रही है . और इस तूफ़ान के अगले दस्ते की अगुवाई ३२ साल की तवक्कुल कारमान कर रही हैं . तवक्कुल कारमान आजकल भारत की यात्रा पर आई हुई हैं . ५ अप्रैल को उन्होंने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में पांचवां जगजीवन राम स्मारक व्याख्यान दिया . तवक्कुल कारमान ने अपने भाषण के बाद भारत में बहुत सारे नए दोस्त बना लिए . महात्मा गांधी की अनुयायी तवक्कुल कारमान को २०११ का नोबेल शान्ति पुरस्कार भी मिल चुका है .तवक्कुल महिला हैं , पत्रकार हैं ,राजनेता हैं और अरब क्रान्ति की प्रेरणा हैं . उनके जैसे लोगों ने ही मिस्र में होस्नी मुबारक, ट्यूनिसिया में बेन अली और लीबिया में कर्नल गद्दाफी को सत्ता से बेदखल करने के आन्दोलन चलाये जिसे शुरू में गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन बाद में उन तानाशाहों को सत्ता से जाना पड़ा . जानकर बताते हैं कि अब यमनी तानाशाह अली अब्दुल्ला सालेह के जाने का वक़्त भी बहुत करीब आ पंहुचा है.
यमन में सत्ता पर क़ब्ज़ा अली अब्दुल्ला सालेह का है . वे राष्ट्रपति हैं.इसी पद पर १९७८ से जमे हुए हैं . अली अब्दुल्ला सालेह १९७८ में जब राष्ट्रपति बने थे तब यमन के दो हिस्से थे. उत्तरी यमन और दक्षिणी यमन .सालेह उत्तरी यमन के राष्ट्रपति बने थे. 1990 में दोनों हिस्सों का एकीकरण हुआ और इसे यमन गणराज्य का नाम दिया गया . उत्तरी यमन 1962 में गणराज्य बन गया था जबकि दक्षिण यमन में १९६७ तक ब्रिटिश राज रहा . यमन अरब प्रायद्वीप में एकमात्र गणराज्य है. इस क्षेत्र के बाक़ी देशों- सऊदी अरब, ओमान, बहरीन, कुवैत, क़तर, और संयुक्त अरब अमीरात- में राजशाही है. यमन हर तरह से विविधताओं का देश है. कबीलों, मजहबी फिरकों, राजनीतिक विचारधाराओं आदि की बहुलता और आपसी मतभेदों का लाभ उठाकर सालेह लगातार चुनाव जीतते रहे. पहले दक्षिणी यमन में कम्युनिस्टों, और बाद में सऊदी विरोधी हूथी कबीले और अल-क़ायदा की मौजूदगी ने सालेह के लिये सऊदी अरब और अमेरीका की मदद के दरवाज़े भी खुले रखे. इन तीन दशकों में सालेह और उनके साथियों के अत्याचार और भयानक भ्रष्टाचार ने बहुसंख्यक यमनियों का जीना-दूभर कर दिया है. आधी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है तो एक-तिहाई आबादी कुपोषण का शिकार है. युवाओं की तिहाई आबादी बेरोज़गार है. आधी से अधिक आबादी रोज़गार और भरण-पोषण के लिये खेती पर निर्भर है, लेकिन पानी की लगातार होती कमी कुछ ही समय में बड़े भू-भाग को बंजर कर सकती है. एक अध्ययन के अनुसार, राजधानी साना अगले बीस साल में जलहीन हो सकती है. ऐसी स्थिति में आम यमनी में सालेह और उनके शासन के विरुद्ध असंतोष होना स्वाभाविक ही है. इस असंतोष की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सालेह विरोधियों की ज़मात में वे सब शामिल हैं जो आमतौर से एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं- इस्लाह (मुस्लिम ब्रदरहूड से सम्बद्ध), हूथी, यज़ीदी, शिया, सुन्नी, सलाफी, नासिरवादी, दक्षिण के समाजवादी आदि. यमन के इतिहास में कट्टरपंथी मुसलमानों और मार्क्सवादियों में कभी एका नहीं रहा लेकिन अब वे यमन की राजधानी साना के ‘परिवर्तन चौक’ पर एक साथ नज़र आते हैं .
यमन में अली सालेह का आतंक बहुत ही भयानक है अब उनकी सत्ता को ख़त्म करने के लिए यमनी जनता सडकों पर है और इसी आन्दोलन की सबसे बड़ी नेता हैं तवक्कुल कारमान. अरब देशों में तानाशाहों से मुक्ति के लिए जारी लड़ाई के दौरान जब ट्यूनीशिया में 14 जनवरी को बेन अली का पतन हुआ,उसके बाद यमन में क्रांति की शुरुआत हो गयी. तवक्कुल कारमान ने अपने देश के लोगों से कहा कि ट्यूनीशिया विद्रोह का जश्न मनाने के लिये १६ जनवरी को इकठ्ठा हों.
अगले दिन यमन की राजधानी स’ना में ट्यूनीशियाई दूतावास के सामने प्रदर्शन हुआ .प्रदर्शन जबरदस्त था. हज़ारों लोग शरीक हुए. और स’ना में सत्ता के विरुद्ध यह पहला शांतिपूर्ण प्रदर्शन था. नारे लग रहे थे कि ‘चले जाओ, इससे पहले कि तुम्हें भगाया जाये’. इसके बाद पूरे यमन में परिवर्तन का तूफ़ान आ गया . हर शहर में आस पास के लोग इकठ्ठा होने लगे और हर शहर में परिवर्तन चौक बना दिए गए. एक-दूसरे से दशकों तक लड़ते रहने वाले हिंसक कबीले ‘परिवर्तन चौकों’ पर साथ खड़े हैं, आपसी ख़ूनी संघर्ष को लोग भुला चुके हैं .सरकारी पुलिस ने कई जगहों पर लोगों को मार भी दिया है लोगों के बीच क्रोध और आक्रोश है लेकिन कहीं भी पुलिस पर कोई भी हमला नहीं हुआ . यह क्रान्ति पूरी तरह से शांतिपूर्ण है .
नई दिल्ली के अपने भाषण में तवक्कुल कारमान ने अरब देशों में चल रही स्प्रिंग रिवोल्यूशन के बारे में विस्तार से जानकारी दी और यह भरोसा जताया कि बहुत जल्द ही यमन भी एक तानाशाह के कब्जे से मुक्त हो जाएगा . उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि होस्नी मुबारक, गद्दाफी, बेन अली, अब्दुल्ला अली सालेह और बशर अपने आपको लोकतंत्र का प्रतिनिधि बताते हैं जबकि इन सभी ने अपने अपने देशों में खानदानी तानाशाही कायम कर रखी है. मिस्र, लीबिया और ट्यूनीशिया के लोग तो अपने तानाशाहों से मुक्ति पा चुके हैं जबकि यमन और सीरिया में परिवर्तन बहुत दूर नहीं है. तवक्कुल ने कहा कि जो लोग अरब स्प्रिंग से डरते हैं, वे उनके आन्दोलन को बदनाम करते हैं . उन्होंने कहा कि इनके आन्दोलन को बदनाम करने के लिए उन्हने आतंकवादी संगठनों से जोड़ने की कोशिश की जा रही है. लेकिन सच्चाई यह है कि आतंकवादी लोकतंत्र में पनप ही नहीं सकते . हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी तानाशाह होता है .दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं .जब तक तानाशाह ख़त्म नहीं होंगें बराबरी नहीं आयेगी. शांतिपूर्ण क्रान्ति तानाशाही को ख़त्म करने का सबसे कारगर तरीका है .उन्होंने सभी देशों से अपील की कि आन्दोलन के खिलाफ जारी प्रचार को कभी भी बढ़ावा न दें क्योंकि हर तानाशाह यही चाहता है . उन्होंने कहा कि जिन मुस्लिम देशों में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी है वहां आतंकवाद नहीं है. टर्की, मलयेशिया, लेबनान और इंडोनेशिया में किसी एक परिवार या तानाशाह का राज नहीं है और वहां कहीं भी आतंकवाद नहीं है . लेकिन जिन देशों में तानाशाही है वहां तरह तरह के आतंकवादी पाए जाते हैं .
तवक्कुल कारमान का दावा है कि तानाशाह को हटाने के लिये उस देश की जनता को ही आगे आना पडेगा . किसी विदेशी सत्ता की मदद से परिवर्तन नहीं लाया जा सकता. इराक का उदाहरण सामने है . अमरीकी हस्तक्षेप के बाद वहां सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन सही अर्थों में कोई बदलाव नहीं आया. बदलाव वही सही है जहां हर बदलाव के बाद लोकतंत्र की स्थापना हो . तवक्कुल कारमान ने भरोसा जताया कि उम्मीद से पहले ही यमन में जनता की सत्ता कायम होने वाली है.
अरब देश यमन में परिवर्तन की आंधी चल रही है . और इस तूफ़ान के अगले दस्ते की अगुवाई ३२ साल की तवक्कुल कारमान कर रही हैं . तवक्कुल कारमान आजकल भारत की यात्रा पर आई हुई हैं . ५ अप्रैल को उन्होंने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में पांचवां जगजीवन राम स्मारक व्याख्यान दिया . तवक्कुल कारमान ने अपने भाषण के बाद भारत में बहुत सारे नए दोस्त बना लिए . महात्मा गांधी की अनुयायी तवक्कुल कारमान को २०११ का नोबेल शान्ति पुरस्कार भी मिल चुका है .तवक्कुल महिला हैं , पत्रकार हैं ,राजनेता हैं और अरब क्रान्ति की प्रेरणा हैं . उनके जैसे लोगों ने ही मिस्र में होस्नी मुबारक, ट्यूनिसिया में बेन अली और लीबिया में कर्नल गद्दाफी को सत्ता से बेदखल करने के आन्दोलन चलाये जिसे शुरू में गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन बाद में उन तानाशाहों को सत्ता से जाना पड़ा . जानकर बताते हैं कि अब यमनी तानाशाह अली अब्दुल्ला सालेह के जाने का वक़्त भी बहुत करीब आ पंहुचा है.
यमन में सत्ता पर क़ब्ज़ा अली अब्दुल्ला सालेह का है . वे राष्ट्रपति हैं.इसी पद पर १९७८ से जमे हुए हैं . अली अब्दुल्ला सालेह १९७८ में जब राष्ट्रपति बने थे तब यमन के दो हिस्से थे. उत्तरी यमन और दक्षिणी यमन .सालेह उत्तरी यमन के राष्ट्रपति बने थे. 1990 में दोनों हिस्सों का एकीकरण हुआ और इसे यमन गणराज्य का नाम दिया गया . उत्तरी यमन 1962 में गणराज्य बन गया था जबकि दक्षिण यमन में १९६७ तक ब्रिटिश राज रहा . यमन अरब प्रायद्वीप में एकमात्र गणराज्य है. इस क्षेत्र के बाक़ी देशों- सऊदी अरब, ओमान, बहरीन, कुवैत, क़तर, और संयुक्त अरब अमीरात- में राजशाही है. यमन हर तरह से विविधताओं का देश है. कबीलों, मजहबी फिरकों, राजनीतिक विचारधाराओं आदि की बहुलता और आपसी मतभेदों का लाभ उठाकर सालेह लगातार चुनाव जीतते रहे. पहले दक्षिणी यमन में कम्युनिस्टों, और बाद में सऊदी विरोधी हूथी कबीले और अल-क़ायदा की मौजूदगी ने सालेह के लिये सऊदी अरब और अमेरीका की मदद के दरवाज़े भी खुले रखे. इन तीन दशकों में सालेह और उनके साथियों के अत्याचार और भयानक भ्रष्टाचार ने बहुसंख्यक यमनियों का जीना-दूभर कर दिया है. आधी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है तो एक-तिहाई आबादी कुपोषण का शिकार है. युवाओं की तिहाई आबादी बेरोज़गार है. आधी से अधिक आबादी रोज़गार और भरण-पोषण के लिये खेती पर निर्भर है, लेकिन पानी की लगातार होती कमी कुछ ही समय में बड़े भू-भाग को बंजर कर सकती है. एक अध्ययन के अनुसार, राजधानी साना अगले बीस साल में जलहीन हो सकती है. ऐसी स्थिति में आम यमनी में सालेह और उनके शासन के विरुद्ध असंतोष होना स्वाभाविक ही है. इस असंतोष की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सालेह विरोधियों की ज़मात में वे सब शामिल हैं जो आमतौर से एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं- इस्लाह (मुस्लिम ब्रदरहूड से सम्बद्ध), हूथी, यज़ीदी, शिया, सुन्नी, सलाफी, नासिरवादी, दक्षिण के समाजवादी आदि. यमन के इतिहास में कट्टरपंथी मुसलमानों और मार्क्सवादियों में कभी एका नहीं रहा लेकिन अब वे यमन की राजधानी साना के ‘परिवर्तन चौक’ पर एक साथ नज़र आते हैं .
यमन में अली सालेह का आतंक बहुत ही भयानक है अब उनकी सत्ता को ख़त्म करने के लिए यमनी जनता सडकों पर है और इसी आन्दोलन की सबसे बड़ी नेता हैं तवक्कुल कारमान. अरब देशों में तानाशाहों से मुक्ति के लिए जारी लड़ाई के दौरान जब ट्यूनीशिया में 14 जनवरी को बेन अली का पतन हुआ,उसके बाद यमन में क्रांति की शुरुआत हो गयी. तवक्कुल कारमान ने अपने देश के लोगों से कहा कि ट्यूनीशिया विद्रोह का जश्न मनाने के लिये १६ जनवरी को इकठ्ठा हों.
अगले दिन यमन की राजधानी स’ना में ट्यूनीशियाई दूतावास के सामने प्रदर्शन हुआ .प्रदर्शन जबरदस्त था. हज़ारों लोग शरीक हुए. और स’ना में सत्ता के विरुद्ध यह पहला शांतिपूर्ण प्रदर्शन था. नारे लग रहे थे कि ‘चले जाओ, इससे पहले कि तुम्हें भगाया जाये’. इसके बाद पूरे यमन में परिवर्तन का तूफ़ान आ गया . हर शहर में आस पास के लोग इकठ्ठा होने लगे और हर शहर में परिवर्तन चौक बना दिए गए. एक-दूसरे से दशकों तक लड़ते रहने वाले हिंसक कबीले ‘परिवर्तन चौकों’ पर साथ खड़े हैं, आपसी ख़ूनी संघर्ष को लोग भुला चुके हैं .सरकारी पुलिस ने कई जगहों पर लोगों को मार भी दिया है लोगों के बीच क्रोध और आक्रोश है लेकिन कहीं भी पुलिस पर कोई भी हमला नहीं हुआ . यह क्रान्ति पूरी तरह से शांतिपूर्ण है .
नई दिल्ली के अपने भाषण में तवक्कुल कारमान ने अरब देशों में चल रही स्प्रिंग रिवोल्यूशन के बारे में विस्तार से जानकारी दी और यह भरोसा जताया कि बहुत जल्द ही यमन भी एक तानाशाह के कब्जे से मुक्त हो जाएगा . उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि होस्नी मुबारक, गद्दाफी, बेन अली, अब्दुल्ला अली सालेह और बशर अपने आपको लोकतंत्र का प्रतिनिधि बताते हैं जबकि इन सभी ने अपने अपने देशों में खानदानी तानाशाही कायम कर रखी है. मिस्र, लीबिया और ट्यूनीशिया के लोग तो अपने तानाशाहों से मुक्ति पा चुके हैं जबकि यमन और सीरिया में परिवर्तन बहुत दूर नहीं है. तवक्कुल ने कहा कि जो लोग अरब स्प्रिंग से डरते हैं, वे उनके आन्दोलन को बदनाम करते हैं . उन्होंने कहा कि इनके आन्दोलन को बदनाम करने के लिए उन्हने आतंकवादी संगठनों से जोड़ने की कोशिश की जा रही है. लेकिन सच्चाई यह है कि आतंकवादी लोकतंत्र में पनप ही नहीं सकते . हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी तानाशाह होता है .दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं .जब तक तानाशाह ख़त्म नहीं होंगें बराबरी नहीं आयेगी. शांतिपूर्ण क्रान्ति तानाशाही को ख़त्म करने का सबसे कारगर तरीका है .उन्होंने सभी देशों से अपील की कि आन्दोलन के खिलाफ जारी प्रचार को कभी भी बढ़ावा न दें क्योंकि हर तानाशाह यही चाहता है . उन्होंने कहा कि जिन मुस्लिम देशों में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी है वहां आतंकवाद नहीं है. टर्की, मलयेशिया, लेबनान और इंडोनेशिया में किसी एक परिवार या तानाशाह का राज नहीं है और वहां कहीं भी आतंकवाद नहीं है . लेकिन जिन देशों में तानाशाही है वहां तरह तरह के आतंकवादी पाए जाते हैं .
तवक्कुल कारमान का दावा है कि तानाशाह को हटाने के लिये उस देश की जनता को ही आगे आना पडेगा . किसी विदेशी सत्ता की मदद से परिवर्तन नहीं लाया जा सकता. इराक का उदाहरण सामने है . अमरीकी हस्तक्षेप के बाद वहां सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन सही अर्थों में कोई बदलाव नहीं आया. बदलाव वही सही है जहां हर बदलाव के बाद लोकतंत्र की स्थापना हो . तवक्कुल कारमान ने भरोसा जताया कि उम्मीद से पहले ही यमन में जनता की सत्ता कायम होने वाली है.
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Saturday, April 7, 2012
उदयन शर्मा ने मुझे एक मिनट के अंदर सम्पादकीय लिखना सिखाया था
शेष नारायण सिंह
११ साल हो गए ,जब उदयन शर्मा को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दाखिल कराया गया था. बाद में उन्हें जी बी पन्त अस्पताल में लाया गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली. हर साल यह महीना मेरे लिए बहुत मुश्किल बीतता है . उदयन शर्मा बहुत बड़े पत्रकार थे, बेहतरीन इंसान थे, बहुत अच्छे पिता थे , बेहतरीन दोस्त थे ,. उन्होंने बहुत लोगों से दोस्ती की और बहुत लोगों ने उन्हें नापसंद किया . इसी दिल्ली शहर में ऐसे सैकड़ों लोग मिल जायेगें जो उनको बहुत अच्छी तरह जानते होंगें.अगर इन लोगों के सामने कोई अन्य व्यक्ति कह दे कि वह भी उदयन शर्मा को जानता है तो वे बुरा मान जायेगें और दावा करेगें कि सबसे अच्छे दोस्त तो उदयन शर्मा उनके ही थे. मैं ऐसे बहुत सारे लोगों को जनता हूँ जो उदयन शर्मा को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, उनसे अच्छी तरह कोई नहीं जानता . मुझे हमेशा से लगता रहा है कि उदयन के व्यक्तित्व में वह खासियत थी कि जो भी उनसे मिलता था वह उनको अपना सबसे करीबी दोस्त मानने लगता था. उदयन शर्मा के जन्मदिन के मौके पर ११ जुलाई के दिन दिल्ली में एक कार्यक्रम होता है जिसमें उन्हें याद किया जाता है . उनकी पुण्यतिथि को याद नहीं किया जाता. सब कहते हैं कि पंडित जी की मृत्यु को याद करना ठीक नहीं है, उस से दर्द बढ़ जाता है . उनकी मृत्यु के महीने , अप्रैल में कहीं कोई कार्यक्रम नहीं होता, कहीं कोई आयोजन नहीं होता . लेकिन सच्ची बात है कि उनके चाहने वालों को वे सबसे ज्यादा अप्रैल में ही याद आते हैं . हाँ यह भी पक्का है कि कोई किसी से कहता नहीं ,कहीं उदयन का ज़िक्र नहीं होता. डर यह रहता है कि कहीं तकलीफ बढ़ न जाए. लेकिन अप्रैल के महीने में सभी लोग उदयन शर्मा को अप्रैल में बहुत मिस करते हैं. कोई किसी से कहता नहीं .सभी लोग उदयन शर्मा को अपने तरीके से याद करते रहते हैं .
मैं भी उदयन को हर साल पूरे अप्रैल निजी तौर पर याद करता हूँ . आज तक तो मैं अपने कुछ बहुत करीबी लोगों से बता दिया करता था कि मुझे उदयन की बहुत याद आती है लेकिन आज मैंने प्रतिज्ञा कर ली है अब कभी किसी से नहीं बताऊंगा कि मुझे भी उदयन शर्मा की याद आती है . पिछले ११ वर्षों में मैं ऐसे बहुत लोगों से मिला हूँ जिनको उदयन ने पत्रकारिता सिखाई है . मुझे भी उन्होंने बहुत बुरे वक़्त में नौकरी दी थी और मुझे सम्पादकीय लिखना सिखाया था. हुआ यह कि एक दिन अचानक उन्होंने मुझसे कह दिया कि अब तुम रोज़ एक सम्पादकीय लिखा करोगे. मुझे तो लगा कि सांप सूंघ गया . कभी लिखा ही नहीं था सम्पादकीय . लेकिन पंडित जी ने मुझे एक मिनट में सिखा दिया . कहने लगे कि मेरे भाई , आप जिस तरह से किसी भी टापिक पर बात करते रहते हैं , उसी को कलमबंद कर दो , बस वही सम्पादकीय हो जाएगा. मैंने लिख दिया और जनाब हम एक दिन के अंदर सम्पादकीय लेखक बन गए . यह मेरे निजी विचार हैं . किसी को तकलीफ देने के लिए नहीं लिखे गए है और मेरे ब्लॉग पर रहेगें .
११ साल हो गए ,जब उदयन शर्मा को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दाखिल कराया गया था. बाद में उन्हें जी बी पन्त अस्पताल में लाया गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली. हर साल यह महीना मेरे लिए बहुत मुश्किल बीतता है . उदयन शर्मा बहुत बड़े पत्रकार थे, बेहतरीन इंसान थे, बहुत अच्छे पिता थे , बेहतरीन दोस्त थे ,. उन्होंने बहुत लोगों से दोस्ती की और बहुत लोगों ने उन्हें नापसंद किया . इसी दिल्ली शहर में ऐसे सैकड़ों लोग मिल जायेगें जो उनको बहुत अच्छी तरह जानते होंगें.अगर इन लोगों के सामने कोई अन्य व्यक्ति कह दे कि वह भी उदयन शर्मा को जानता है तो वे बुरा मान जायेगें और दावा करेगें कि सबसे अच्छे दोस्त तो उदयन शर्मा उनके ही थे. मैं ऐसे बहुत सारे लोगों को जनता हूँ जो उदयन शर्मा को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, उनसे अच्छी तरह कोई नहीं जानता . मुझे हमेशा से लगता रहा है कि उदयन के व्यक्तित्व में वह खासियत थी कि जो भी उनसे मिलता था वह उनको अपना सबसे करीबी दोस्त मानने लगता था. उदयन शर्मा के जन्मदिन के मौके पर ११ जुलाई के दिन दिल्ली में एक कार्यक्रम होता है जिसमें उन्हें याद किया जाता है . उनकी पुण्यतिथि को याद नहीं किया जाता. सब कहते हैं कि पंडित जी की मृत्यु को याद करना ठीक नहीं है, उस से दर्द बढ़ जाता है . उनकी मृत्यु के महीने , अप्रैल में कहीं कोई कार्यक्रम नहीं होता, कहीं कोई आयोजन नहीं होता . लेकिन सच्ची बात है कि उनके चाहने वालों को वे सबसे ज्यादा अप्रैल में ही याद आते हैं . हाँ यह भी पक्का है कि कोई किसी से कहता नहीं ,कहीं उदयन का ज़िक्र नहीं होता. डर यह रहता है कि कहीं तकलीफ बढ़ न जाए. लेकिन अप्रैल के महीने में सभी लोग उदयन शर्मा को अप्रैल में बहुत मिस करते हैं. कोई किसी से कहता नहीं .सभी लोग उदयन शर्मा को अपने तरीके से याद करते रहते हैं .
मैं भी उदयन को हर साल पूरे अप्रैल निजी तौर पर याद करता हूँ . आज तक तो मैं अपने कुछ बहुत करीबी लोगों से बता दिया करता था कि मुझे उदयन की बहुत याद आती है लेकिन आज मैंने प्रतिज्ञा कर ली है अब कभी किसी से नहीं बताऊंगा कि मुझे भी उदयन शर्मा की याद आती है . पिछले ११ वर्षों में मैं ऐसे बहुत लोगों से मिला हूँ जिनको उदयन ने पत्रकारिता सिखाई है . मुझे भी उन्होंने बहुत बुरे वक़्त में नौकरी दी थी और मुझे सम्पादकीय लिखना सिखाया था. हुआ यह कि एक दिन अचानक उन्होंने मुझसे कह दिया कि अब तुम रोज़ एक सम्पादकीय लिखा करोगे. मुझे तो लगा कि सांप सूंघ गया . कभी लिखा ही नहीं था सम्पादकीय . लेकिन पंडित जी ने मुझे एक मिनट में सिखा दिया . कहने लगे कि मेरे भाई , आप जिस तरह से किसी भी टापिक पर बात करते रहते हैं , उसी को कलमबंद कर दो , बस वही सम्पादकीय हो जाएगा. मैंने लिख दिया और जनाब हम एक दिन के अंदर सम्पादकीय लेखक बन गए . यह मेरे निजी विचार हैं . किसी को तकलीफ देने के लिए नहीं लिखे गए है और मेरे ब्लॉग पर रहेगें .
Friday, April 6, 2012
" हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी होता है तानाशाह"
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,५ अप्रैल.अरब क्रान्ति की नेता और सबसे कम उम्र में नोबेल शान्ति पुरस्कार जीतने वाली यमन की पत्रकार तवक्कुल कारमान ने आज यहाँ कहा कि हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी निश्चित रूप से तानाशाह होता है. वे आज यहाँ बाबू जगजीवन राम राष्ट्रीय संस्थान के तत्वावधान में आयोजित पांचवें स्मारक व्यख्यान के आयोजन की मुख्य वक्ता थीं. अरब स्प्रिंग रिवोल्यूशन की नेता और वीमेन जर्नलिस्ट्स विदाउट चेन्स की संयोजक तवक्कुल कार्मान ने अरब दुनिय में परिवर्तन की आंधी ला दी है . जिन अरब देशों में महिलायें बाहर नहीं निकलती थीं वहीं आज तवक्कुल की प्रेरणा से हज़ारों महिलायें सडकों पर आ कर तानाशाही का विरोध कर रही हैं . वे खुद महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानती हैं और अरब दुनिया में परिवर्तन की बहुत बड़ी समर्थक हैं .वे खुद भी अहिसंक तरीकों से चलाये जा रहे अरब देशों के परिवर्तन के आन्दोलन का नेतृत्व कर रही हैं.
बहुत ही लचर तरीके से आयोजित सरकारी कार्यक्रम में कुछ भी ठीक नहीं था . समय से करीब ४५ मिनट बात तक आयोजक तैयारी में ही लग एराहे . हद तो तब हो गयी जब मुख्य अतिथि के आ जाने के बाद भी सीटों पर आरक्षण की पट्टियां लगाई जाती रहीं . आयोजक और उनका मंत्रालय बिलकुल गाफिल थे क्योंकि सम्बंधित मंत्री ने पंजाब विधानसभा के स्पीकर को पंजाब की लोकसभा का स्पीकर बताया और अपनी गलती को सुधारने तक की परवाह नहीं की..सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की खामियों को लोकसभा की स्पीकर और बाबू जगजीवन राम की बेटी ने अपने स्वागत भाषण में बखूबी लिया . उन्होंने कहा कि वे तवक्कुल कारमान की बेख़ौफ़ पत्रकारिता का सम्मान करती हैं . मीरा कुमार ने इस अवसर पर अपने महान पिता को याद किया और कहा कि वे कहा करते थे हमारे देश के लिए लिक्तंत्र बहुत ज़रूरी है क्योंकि वह हमें बराबरी का अवसर देती है . वे कहा करते थे कि बराबरी का लक्ष्य हासिल करने के लिए लोक तंत्र ज़रूरी है लेकिन जाति प्रथा इसमें सबसे बड़ी बाधा है . बाबू जगजीवन राम कहा करते तह कि या तो जाति प्रथा अरहेई आ लोकतंत्र . क्योंकि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं . मीरा कुमार ने बताया अपने देश में लोकतंत्र और जातिप्रथा , दोनों ही साथ साथ चल रहे हैं .उन्होंने उम्मीद जताई कि हमारा लोकतंत्र जाति प्रथा को ख़त्म कर डा और बराबरी उसी रास्ते से आयेगी.
जब तवक्कुल कारमान ने माइक संभाला तो दर्शकों में कोई बहुत उत्साह नहीं था लेकिन जब उन्होंने अपना भाषण ख़त्म किया तो सभी दर्शक खड़े हो कर तालियाँ बजा रहे थे.उन्होंने कहा कि अरब दुनिया में शासक वर्गों ने अजीब तरीके अपना रखे हैं .वे देश की संपत्ति को अपनी खेती समझते हैं और अपने परिवार वालों के साथ मिलकर सारी संपदा को लूट रहे हैं . अरब देशों में हर तरफ तानाशाही का बोलबाला है लेकिन अपने देशों के नाम सभी ने इस तरह के रख छोड़े हैं कि उसमें रिपबलिक कहीं ज़रूर आ जाता है . उनके अपने देश, यमन के तानाशाह ने पूरी कोशिश की कि उनके आन्दोलन को इस्लामी आतंकवादी आन्दोलन करार दे दिया जाए.. लेकिन अरब नौजवानों ने तानाशाहों की कोशिश को सफल नहीं होने दिया. नौजवानों ने कुर्बानियां दीं क्योंकि वे अपने भविष्य को तानशाही के हवाले नहीं करना चाहते . अपनी कुर्बानियों एक बल पर अरब नौजवानों ने साबित कर दिया कि वे आतंकवादी नहीं है क्योंकि वे महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलन को अपने संघर्ष का तरीका बना चुके हैं .इन नौजवानों की ताक़त संघर्ष कर सकने की क्षमता है .. अरब देशों के तानाशाह आम लोगों को उनका हक नहीं देना चाहते इसलिए वे उन्हें बदनाम करने के लिए उन पर आतंकवादी का लेबल लगाने की कोशिश करते हैं लेकिन अब पूरी दुनिया को मालूम है कि अरब दुनिया बहुत बड़े बदलाव के मुहाने पर खडी है और उम्मीद से पहले ही अरब देशों में लोकशाही के स्थापना हो जायेगी.
नई दिल्ली,५ अप्रैल.अरब क्रान्ति की नेता और सबसे कम उम्र में नोबेल शान्ति पुरस्कार जीतने वाली यमन की पत्रकार तवक्कुल कारमान ने आज यहाँ कहा कि हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी निश्चित रूप से तानाशाह होता है. वे आज यहाँ बाबू जगजीवन राम राष्ट्रीय संस्थान के तत्वावधान में आयोजित पांचवें स्मारक व्यख्यान के आयोजन की मुख्य वक्ता थीं. अरब स्प्रिंग रिवोल्यूशन की नेता और वीमेन जर्नलिस्ट्स विदाउट चेन्स की संयोजक तवक्कुल कार्मान ने अरब दुनिय में परिवर्तन की आंधी ला दी है . जिन अरब देशों में महिलायें बाहर नहीं निकलती थीं वहीं आज तवक्कुल की प्रेरणा से हज़ारों महिलायें सडकों पर आ कर तानाशाही का विरोध कर रही हैं . वे खुद महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानती हैं और अरब दुनिया में परिवर्तन की बहुत बड़ी समर्थक हैं .वे खुद भी अहिसंक तरीकों से चलाये जा रहे अरब देशों के परिवर्तन के आन्दोलन का नेतृत्व कर रही हैं.
बहुत ही लचर तरीके से आयोजित सरकारी कार्यक्रम में कुछ भी ठीक नहीं था . समय से करीब ४५ मिनट बात तक आयोजक तैयारी में ही लग एराहे . हद तो तब हो गयी जब मुख्य अतिथि के आ जाने के बाद भी सीटों पर आरक्षण की पट्टियां लगाई जाती रहीं . आयोजक और उनका मंत्रालय बिलकुल गाफिल थे क्योंकि सम्बंधित मंत्री ने पंजाब विधानसभा के स्पीकर को पंजाब की लोकसभा का स्पीकर बताया और अपनी गलती को सुधारने तक की परवाह नहीं की..सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की खामियों को लोकसभा की स्पीकर और बाबू जगजीवन राम की बेटी ने अपने स्वागत भाषण में बखूबी लिया . उन्होंने कहा कि वे तवक्कुल कारमान की बेख़ौफ़ पत्रकारिता का सम्मान करती हैं . मीरा कुमार ने इस अवसर पर अपने महान पिता को याद किया और कहा कि वे कहा करते थे हमारे देश के लिए लिक्तंत्र बहुत ज़रूरी है क्योंकि वह हमें बराबरी का अवसर देती है . वे कहा करते थे कि बराबरी का लक्ष्य हासिल करने के लिए लोक तंत्र ज़रूरी है लेकिन जाति प्रथा इसमें सबसे बड़ी बाधा है . बाबू जगजीवन राम कहा करते तह कि या तो जाति प्रथा अरहेई आ लोकतंत्र . क्योंकि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं . मीरा कुमार ने बताया अपने देश में लोकतंत्र और जातिप्रथा , दोनों ही साथ साथ चल रहे हैं .उन्होंने उम्मीद जताई कि हमारा लोकतंत्र जाति प्रथा को ख़त्म कर डा और बराबरी उसी रास्ते से आयेगी.
जब तवक्कुल कारमान ने माइक संभाला तो दर्शकों में कोई बहुत उत्साह नहीं था लेकिन जब उन्होंने अपना भाषण ख़त्म किया तो सभी दर्शक खड़े हो कर तालियाँ बजा रहे थे.उन्होंने कहा कि अरब दुनिया में शासक वर्गों ने अजीब तरीके अपना रखे हैं .वे देश की संपत्ति को अपनी खेती समझते हैं और अपने परिवार वालों के साथ मिलकर सारी संपदा को लूट रहे हैं . अरब देशों में हर तरफ तानाशाही का बोलबाला है लेकिन अपने देशों के नाम सभी ने इस तरह के रख छोड़े हैं कि उसमें रिपबलिक कहीं ज़रूर आ जाता है . उनके अपने देश, यमन के तानाशाह ने पूरी कोशिश की कि उनके आन्दोलन को इस्लामी आतंकवादी आन्दोलन करार दे दिया जाए.. लेकिन अरब नौजवानों ने तानाशाहों की कोशिश को सफल नहीं होने दिया. नौजवानों ने कुर्बानियां दीं क्योंकि वे अपने भविष्य को तानशाही के हवाले नहीं करना चाहते . अपनी कुर्बानियों एक बल पर अरब नौजवानों ने साबित कर दिया कि वे आतंकवादी नहीं है क्योंकि वे महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलन को अपने संघर्ष का तरीका बना चुके हैं .इन नौजवानों की ताक़त संघर्ष कर सकने की क्षमता है .. अरब देशों के तानाशाह आम लोगों को उनका हक नहीं देना चाहते इसलिए वे उन्हें बदनाम करने के लिए उन पर आतंकवादी का लेबल लगाने की कोशिश करते हैं लेकिन अब पूरी दुनिया को मालूम है कि अरब दुनिया बहुत बड़े बदलाव के मुहाने पर खडी है और उम्मीद से पहले ही अरब देशों में लोकशाही के स्थापना हो जायेगी.
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शेष नारायण सिंह
अमरीका के भारी दबाव के बाद भी पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को नहीं पकड़ेगा
शेष नारायण सिंह
मुंबई हमलों की साज़िश के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को अब अमरीका भी आतंकवादी मानने लगा है . इसके पहले जब भारत की तरफ से कहा जाता था कि हाफ़िज़ सईद को काबू में किये बिना आतंक के खिलाफ किसी तरह की लड़ाई, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं लड़ी जा सकती, तो अमरीका के नेता हीला हवाला करते थे. अब अमरीका की समझ में भी आ गया है कि हाफ़िज़ सईद को पकड़ना ज़रूरी है क्योंकि उसने पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान जाने वाली फौजी सप्लाई में अडंगा डालने की कोशिश शुरू कर दिया है .अब अमरीका को लगता है कि हाफ़िज़ सईद को काबू में कर लेना चाहिए . लेकिन उसे पकड़ने के लिए अमरीकी हुकूमत ने जो तरीका अपनाया है वह बहुत ही अजीब है . अमरीका ने ऐलान कर दिया है कि जो भी हाफ़िज़ सईद को अमरीका के हवाले कर देगा उसे पचास करोड़ से ज्यादा रूपये इनाम के रूप में दिए जायेगें. लगता है कि अमरीका की पाकिस्तान नीति के संचालकों को मालूम नहीं है कि हाफ़िज़ सईद की पाकिस्तान की फौज में क्या हैसियत है . आज ही पाकिस्तानी फौज के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल का बयान आ गया है कि अमरीका को कोई अख्तियार नहीं है कि वह हाफ़िज़ सईद की गिरफ्तारी की बात करे. यह वही हमीद गुल हैं जो कभी आई एस आई के डाइरेक्टर हुआ करते थे और पाकिस्तान में जितने भी बड़े आतंकवादी हैं यह उन सभी के संरक्षक रह चुके हैं . लेकिन हाफ़िज़ सईद इनका भी संरक्षक रह चुका है . हाफ़िज़ सईद के अहसानों का बदला चुकाने के लिए हमीद गुल ने तो भारत के खिलाफ भी बयान देना शुरू कर दिया है . कहते हैं कि भारत को अमरीका के उस बयान का स्वागत नहीं करना चाहिए था जिसमें कहा गया है कि हाफिज़ सईद को पकड़ने वाले को भारी रक़म बतौर इनाम दी जायेगी. वे तो यहाँ तक धमकी दे रहे हैं कि अगर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ८ अप्रैल को ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह पर हाजिरी लगाने अजमेर जाते हैं तो पाकिस्तान की सडकों और बाज़ारों में जुलूस निकाल कर उनका विरोध किया जायेगा.
यह देखना दिलचस्प होगा कि एक आतंकवादी के लिए पाकिस्तानी फौज़ और उसकी आई एस आई का निर्माता इस तरह की बात क्यों कर रहा है . यह हाफ़िज़ सईद आखिर है कौन. पाकिस्तान की सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आतंक का जो भी तंत्र है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . वह पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया . सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके हैं उसके अहसान के नीचे दबे हुए अफसर हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.
अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पल रहे पकिस्तान को अमरीकी सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है .इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं . ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी रक़म को इनाम के रूप में घोषित करके अमरीका ने एक असाधारण फैसला लिया है . लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को पकड़ कर अमरीका के हवाले कर देगा . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ सईद का कुछ नहीं बिगड़ेगा.
मुंबई हमलों की साज़िश के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को अब अमरीका भी आतंकवादी मानने लगा है . इसके पहले जब भारत की तरफ से कहा जाता था कि हाफ़िज़ सईद को काबू में किये बिना आतंक के खिलाफ किसी तरह की लड़ाई, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं लड़ी जा सकती, तो अमरीका के नेता हीला हवाला करते थे. अब अमरीका की समझ में भी आ गया है कि हाफ़िज़ सईद को पकड़ना ज़रूरी है क्योंकि उसने पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान जाने वाली फौजी सप्लाई में अडंगा डालने की कोशिश शुरू कर दिया है .अब अमरीका को लगता है कि हाफ़िज़ सईद को काबू में कर लेना चाहिए . लेकिन उसे पकड़ने के लिए अमरीकी हुकूमत ने जो तरीका अपनाया है वह बहुत ही अजीब है . अमरीका ने ऐलान कर दिया है कि जो भी हाफ़िज़ सईद को अमरीका के हवाले कर देगा उसे पचास करोड़ से ज्यादा रूपये इनाम के रूप में दिए जायेगें. लगता है कि अमरीका की पाकिस्तान नीति के संचालकों को मालूम नहीं है कि हाफ़िज़ सईद की पाकिस्तान की फौज में क्या हैसियत है . आज ही पाकिस्तानी फौज के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल का बयान आ गया है कि अमरीका को कोई अख्तियार नहीं है कि वह हाफ़िज़ सईद की गिरफ्तारी की बात करे. यह वही हमीद गुल हैं जो कभी आई एस आई के डाइरेक्टर हुआ करते थे और पाकिस्तान में जितने भी बड़े आतंकवादी हैं यह उन सभी के संरक्षक रह चुके हैं . लेकिन हाफ़िज़ सईद इनका भी संरक्षक रह चुका है . हाफ़िज़ सईद के अहसानों का बदला चुकाने के लिए हमीद गुल ने तो भारत के खिलाफ भी बयान देना शुरू कर दिया है . कहते हैं कि भारत को अमरीका के उस बयान का स्वागत नहीं करना चाहिए था जिसमें कहा गया है कि हाफिज़ सईद को पकड़ने वाले को भारी रक़म बतौर इनाम दी जायेगी. वे तो यहाँ तक धमकी दे रहे हैं कि अगर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ८ अप्रैल को ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह पर हाजिरी लगाने अजमेर जाते हैं तो पाकिस्तान की सडकों और बाज़ारों में जुलूस निकाल कर उनका विरोध किया जायेगा.
यह देखना दिलचस्प होगा कि एक आतंकवादी के लिए पाकिस्तानी फौज़ और उसकी आई एस आई का निर्माता इस तरह की बात क्यों कर रहा है . यह हाफ़िज़ सईद आखिर है कौन. पाकिस्तान की सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आतंक का जो भी तंत्र है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . वह पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया . सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके हैं उसके अहसान के नीचे दबे हुए अफसर हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.
अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पल रहे पकिस्तान को अमरीकी सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है .इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं . ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी रक़म को इनाम के रूप में घोषित करके अमरीका ने एक असाधारण फैसला लिया है . लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को पकड़ कर अमरीका के हवाले कर देगा . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ सईद का कुछ नहीं बिगड़ेगा.
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शेष नारायण सिंह,
हाफ़िज़ सईद
Thursday, April 5, 2012
भारत के न्यायप्रिय लोग बाबू जगजीवन राम को आदर्श मानते हैं
आज जगजीवन राम की जयंती है
शेष नारायण सिंह
जगजीवन राम इस देश के राष्ट्रीय हीरो हैं . अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने भारत को हमेशा सबसे ऊपर रखा . सामाजिक न्याय की उनकी सोच बहुत ही व्यावहारिक थी. महात्मा गाँधी की सामाजिक बराबरी की दार्शनिक सोच को उन्होंने अमली जामा पहनाया. १९३० के दशक में वे बाकायदा राजनीति में आये . यह एक महान राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के साथ हमेशा खड़े रहने वाले जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन का हमेशा नेतृत्व किया . आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए. सब जानते हैं कि ६ फरवरी १९७७ के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी के राज को ख़त्म किया. उसके बाद उन्हें इस देश ने प्रधानमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित थे . हालांकि उनको ही प्रधान मंत्री होना चाहिए था . केंद्र में वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों में रहे . कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में उन्होंने देश की खाद्य समस्या का ऐसा हल निकाला कि आज तक अनाज के लिए हमें किसी मुल्क के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ा . बंगलादेश की स्थापना के समय वे रक्षा मंत्री थे . सेना को जो नेतृत्व उन्होंने दिया वह अपने आप में एक मिसाल है . उन दिनों एक बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आदमी अमरीका का राष्ट्रपति था , उसने भारत को धमकाने के लिए हिंद महासागर में अमरीकी सेना का परमाणु हथियारों से लैस विमानवाहक पोत , 'इंटरप्राइज़' भेज दिया था. बाबू जगजीवन राम ने ऐलान कर दिया कि अगर ' इंटरप्राइज़' बंगाल की खाड़ी में ज़रा सा भी आगे बढा तो भारत के जांबाज़ सैनिक उसे वहीं डूबा देंगें.
बाबू जगजीवन राम के योग्य नेतृत्व का ही कमाल है कि बंगला देश को स्वतंत्र करवाने की लड़ाई को बहुत ही योजनाबंद्ध तरीके से पूरा कर लिया गया . कृषि मंत्री के रूप में उन्होंने हरित क्रान्ति की उपलब्धियों को देश की आर्थिक तरक्की के मिशन से जोड़ा . देश में मौजूद कृषि शोध संस्थानों की स्थापना में उनका बड़ा योगदान है . रेल मंत्री के रूप में बाबू जगजीवन राम ने बुनियादी ढांचागत सुविधाओं में क्रांतिकारी योगदान किया . एक राष्ट्र निर्माता के रूप में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा . आज अपने देश में जितने भी कानून मजदूरों के हित के लिए बनाए गए हैं उन सबको बाबू जगजीवन राम ने तब बनाया था जब वे नेहरू की कैबिनेट में मंत्री थे.लेकिन यह देश जगजीवन राम के प्रति वह सम्मान कभी नहीं व्यक्त कर पाया जिस पर उनका अधिकार है . उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे बहुत सारे दृष्टांत हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने हमेशा ही राष्ट्र प्रेम और सामाजिक समरसता को मह्त्व दिया . सामाजिक न्याय की अपनी लड़ाई में उन्होंने सारे समाज को साथ रखने की कोशिश की और महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू के विश्वास पात्र बने. सारी दुनिया जानती है कि १९६९ में कांग्रेस में बँटवारे के बाद जगजीवन राम कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और उम्मीद की जा रही थी कांग्रेस में उन्हें ही वैकल्पिक नेता के रूप में स्वीकार किया जाएगा. . १९६९ के बाद में बाबूजे एने ही इंदिरा गांधी की डूबती नैया को पार लगाया था . कांग्रेस की १९७१ की जीत में भी बाबू जगजीवन राम के कुशल नेतृत्व का भारी योगदान था . हरित क्रान्ति के ज़रिये उन्होंने देश के ग्रामीण इलाकों में सम्पन्नता को न्योता दिया था और जब कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेता इंदिरा गाँधी को सबक सिखाने के चक्कर में थे . बाबू जी के नेतृत्व का जलवा था कि पूरे देश का कांग्रेस कार्यकर्ता उनकी पार्टी के साथ लगा रहा . लेकिन जब १९७२ के बाद बंगलादेश की स्थापना हो गयी तो इंदिरा गाँधी ने समझा कि सब उनकी ही कृपा से हुआ था , सब उबका ही प्रताप था. इसी सोच के तहत उन्होंने अपने छोटे बेटे को अपने विकल्प के रूप मों पेश करने की योजना पर काम कारण शुरू कर दिया . उसके बाद तो कांग्रेस में मनमानी का युग शुरू हो गया. इंदिरा गाँधी के छोटे बेटे के संगी साथी देश की राजनीतिक व्यवस्था पर हावी हो गए.कांग्रेस में उन लोगों की जय जय कार होने लगी जो किसी रूप में इंदिरा गाँधी छोटे बेटे तक पंहुच बना सकते थे. नतीजा यह हुआ कि अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई. राज नारायण की चुनाव याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद इंदिरा गांधी के लिए प्रधान मंत्री पद पर बने रहना असंभव हो गया था . अगर उस वक़्त उन्होंने कांग्रेस के सबसे बड़े नेता, बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बना दिया होता तो कांग्रेस एक लोकतांत्रिक संगठन के रूप में बच जाती और देश को इमरजेंसी और संजय गाँधी का आतंक न झेलना पड़ता . लेकिन इन्दिरा गाँधी को अपने बेटे संजय के राजनीतिक भविष्य के सिवा कुछ भी नहीं दिखता था . नतीजा सब को मालूम है . कांग्रेस एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में वहीं खतम हो गयी.
इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता के विरोधी जयप्रकाश नारायण ने कई बार कहा था कि जगजीवन राम जैसे बड़े नेताओं को इंदिरा गाँधी और संजय गांधी के विरोध में खड़े हो जाना चाहिए . वह अवसर फरवरी १९७७ में आया जब जगजीवन राम ने अपने कुछ सताहियों के साथ मिलकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना ली.एक बार कांग्रेस फिर टूट गयी और देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई. सब को मालूम था अकी १९७७ की जीत कभी न मिलती अगर बाबू जगजीवन राम का साथ न होता . लेकिन जब प्रधान मंत्री चुनने की बात आई तो पुरातन पंथी ताक़तों ने मोरारजी देसाई को सत्ता सौंप दी. अपनी जिद और अजीबोगरीब आदतों की वजह से विख्यात मोरारजी देसाई ने देश को कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं दिया और एक बहुत बड़ा राजनीतिक प्रयोग ज़मींदोज़ हो गया . जनता पार्टी को एक बार मौक़ा मिला था कि उस वक़्त के सबसे बड़े राजनीतिक नेता को प्रधान मंत्री बनाते लेकिन जनता पार्टी नामक भानुमती के कुनबे में ऐसे लोग शामिल थे जो किसी भी हालत में आम राय से फैसले ले ही नहीं सकते थे. उनकी आपसी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए जनता ने दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी का हुक्म सुना दिया.
१९७७ में जगजीवन राम को उनके हक से दूर रखने के बहुत दूरगामी नतीजे हुए. सैकड़ों वर्षों से दोयम दर्जे की ज़िंदगी जी रहे दलित समाज ने आज़ादी के बाद पहली बार समझा कि कांग्रेस या अन्य कोई भी राजनीतिक जमात उनको केवल इस्तेमाल काना चाहती है. कोई भे एराजनीतिक पार्टी दलितों को उनका हक देने के लिए तैयार नहीं है . न्याय प्रिय लोगों का एक बहुत बड़ा समुदाय आज कांग्रेस से दूर जा चुका है और उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कनाग्रेस को कोई पूछने वाला नहीं है . १९७७ के बाद से ही दलितों ने कांग्रेस से किनारा करना शुरू कर दिया और जब कांशीराम ने ऐलानियाँ दलितों की पार्टी बनायी तो दलित समुदाय के लोगों ने उसी पार्टी को अपना लिया. सच्च्ची बात यह है कि जगजीवन राम ने कभी भी दलितों की राजनीति नहीं की लेकिन कांग्रेस और उसके बाद के नेतृत्व ने उन्हें हमेशा दलित ही माना .उनकी राजनीति के केंद्र में हमेशा से ही भारत रहा है और उसी भारत के न्याय प्रिय लोग आज भी बाबू जगजीवन राम को आदर्श मानते हैं .
शेष नारायण सिंह
जगजीवन राम इस देश के राष्ट्रीय हीरो हैं . अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने भारत को हमेशा सबसे ऊपर रखा . सामाजिक न्याय की उनकी सोच बहुत ही व्यावहारिक थी. महात्मा गाँधी की सामाजिक बराबरी की दार्शनिक सोच को उन्होंने अमली जामा पहनाया. १९३० के दशक में वे बाकायदा राजनीति में आये . यह एक महान राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के साथ हमेशा खड़े रहने वाले जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन का हमेशा नेतृत्व किया . आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए. सब जानते हैं कि ६ फरवरी १९७७ के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी के राज को ख़त्म किया. उसके बाद उन्हें इस देश ने प्रधानमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित थे . हालांकि उनको ही प्रधान मंत्री होना चाहिए था . केंद्र में वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों में रहे . कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में उन्होंने देश की खाद्य समस्या का ऐसा हल निकाला कि आज तक अनाज के लिए हमें किसी मुल्क के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ा . बंगलादेश की स्थापना के समय वे रक्षा मंत्री थे . सेना को जो नेतृत्व उन्होंने दिया वह अपने आप में एक मिसाल है . उन दिनों एक बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आदमी अमरीका का राष्ट्रपति था , उसने भारत को धमकाने के लिए हिंद महासागर में अमरीकी सेना का परमाणु हथियारों से लैस विमानवाहक पोत , 'इंटरप्राइज़' भेज दिया था. बाबू जगजीवन राम ने ऐलान कर दिया कि अगर ' इंटरप्राइज़' बंगाल की खाड़ी में ज़रा सा भी आगे बढा तो भारत के जांबाज़ सैनिक उसे वहीं डूबा देंगें.
बाबू जगजीवन राम के योग्य नेतृत्व का ही कमाल है कि बंगला देश को स्वतंत्र करवाने की लड़ाई को बहुत ही योजनाबंद्ध तरीके से पूरा कर लिया गया . कृषि मंत्री के रूप में उन्होंने हरित क्रान्ति की उपलब्धियों को देश की आर्थिक तरक्की के मिशन से जोड़ा . देश में मौजूद कृषि शोध संस्थानों की स्थापना में उनका बड़ा योगदान है . रेल मंत्री के रूप में बाबू जगजीवन राम ने बुनियादी ढांचागत सुविधाओं में क्रांतिकारी योगदान किया . एक राष्ट्र निर्माता के रूप में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा . आज अपने देश में जितने भी कानून मजदूरों के हित के लिए बनाए गए हैं उन सबको बाबू जगजीवन राम ने तब बनाया था जब वे नेहरू की कैबिनेट में मंत्री थे.लेकिन यह देश जगजीवन राम के प्रति वह सम्मान कभी नहीं व्यक्त कर पाया जिस पर उनका अधिकार है . उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे बहुत सारे दृष्टांत हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने हमेशा ही राष्ट्र प्रेम और सामाजिक समरसता को मह्त्व दिया . सामाजिक न्याय की अपनी लड़ाई में उन्होंने सारे समाज को साथ रखने की कोशिश की और महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू के विश्वास पात्र बने. सारी दुनिया जानती है कि १९६९ में कांग्रेस में बँटवारे के बाद जगजीवन राम कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और उम्मीद की जा रही थी कांग्रेस में उन्हें ही वैकल्पिक नेता के रूप में स्वीकार किया जाएगा. . १९६९ के बाद में बाबूजे एने ही इंदिरा गांधी की डूबती नैया को पार लगाया था . कांग्रेस की १९७१ की जीत में भी बाबू जगजीवन राम के कुशल नेतृत्व का भारी योगदान था . हरित क्रान्ति के ज़रिये उन्होंने देश के ग्रामीण इलाकों में सम्पन्नता को न्योता दिया था और जब कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेता इंदिरा गाँधी को सबक सिखाने के चक्कर में थे . बाबू जी के नेतृत्व का जलवा था कि पूरे देश का कांग्रेस कार्यकर्ता उनकी पार्टी के साथ लगा रहा . लेकिन जब १९७२ के बाद बंगलादेश की स्थापना हो गयी तो इंदिरा गाँधी ने समझा कि सब उनकी ही कृपा से हुआ था , सब उबका ही प्रताप था. इसी सोच के तहत उन्होंने अपने छोटे बेटे को अपने विकल्प के रूप मों पेश करने की योजना पर काम कारण शुरू कर दिया . उसके बाद तो कांग्रेस में मनमानी का युग शुरू हो गया. इंदिरा गाँधी के छोटे बेटे के संगी साथी देश की राजनीतिक व्यवस्था पर हावी हो गए.कांग्रेस में उन लोगों की जय जय कार होने लगी जो किसी रूप में इंदिरा गाँधी छोटे बेटे तक पंहुच बना सकते थे. नतीजा यह हुआ कि अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई. राज नारायण की चुनाव याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद इंदिरा गांधी के लिए प्रधान मंत्री पद पर बने रहना असंभव हो गया था . अगर उस वक़्त उन्होंने कांग्रेस के सबसे बड़े नेता, बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बना दिया होता तो कांग्रेस एक लोकतांत्रिक संगठन के रूप में बच जाती और देश को इमरजेंसी और संजय गाँधी का आतंक न झेलना पड़ता . लेकिन इन्दिरा गाँधी को अपने बेटे संजय के राजनीतिक भविष्य के सिवा कुछ भी नहीं दिखता था . नतीजा सब को मालूम है . कांग्रेस एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में वहीं खतम हो गयी.
इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता के विरोधी जयप्रकाश नारायण ने कई बार कहा था कि जगजीवन राम जैसे बड़े नेताओं को इंदिरा गाँधी और संजय गांधी के विरोध में खड़े हो जाना चाहिए . वह अवसर फरवरी १९७७ में आया जब जगजीवन राम ने अपने कुछ सताहियों के साथ मिलकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना ली.एक बार कांग्रेस फिर टूट गयी और देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई. सब को मालूम था अकी १९७७ की जीत कभी न मिलती अगर बाबू जगजीवन राम का साथ न होता . लेकिन जब प्रधान मंत्री चुनने की बात आई तो पुरातन पंथी ताक़तों ने मोरारजी देसाई को सत्ता सौंप दी. अपनी जिद और अजीबोगरीब आदतों की वजह से विख्यात मोरारजी देसाई ने देश को कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं दिया और एक बहुत बड़ा राजनीतिक प्रयोग ज़मींदोज़ हो गया . जनता पार्टी को एक बार मौक़ा मिला था कि उस वक़्त के सबसे बड़े राजनीतिक नेता को प्रधान मंत्री बनाते लेकिन जनता पार्टी नामक भानुमती के कुनबे में ऐसे लोग शामिल थे जो किसी भी हालत में आम राय से फैसले ले ही नहीं सकते थे. उनकी आपसी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए जनता ने दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी का हुक्म सुना दिया.
१९७७ में जगजीवन राम को उनके हक से दूर रखने के बहुत दूरगामी नतीजे हुए. सैकड़ों वर्षों से दोयम दर्जे की ज़िंदगी जी रहे दलित समाज ने आज़ादी के बाद पहली बार समझा कि कांग्रेस या अन्य कोई भी राजनीतिक जमात उनको केवल इस्तेमाल काना चाहती है. कोई भे एराजनीतिक पार्टी दलितों को उनका हक देने के लिए तैयार नहीं है . न्याय प्रिय लोगों का एक बहुत बड़ा समुदाय आज कांग्रेस से दूर जा चुका है और उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कनाग्रेस को कोई पूछने वाला नहीं है . १९७७ के बाद से ही दलितों ने कांग्रेस से किनारा करना शुरू कर दिया और जब कांशीराम ने ऐलानियाँ दलितों की पार्टी बनायी तो दलित समुदाय के लोगों ने उसी पार्टी को अपना लिया. सच्च्ची बात यह है कि जगजीवन राम ने कभी भी दलितों की राजनीति नहीं की लेकिन कांग्रेस और उसके बाद के नेतृत्व ने उन्हें हमेशा दलित ही माना .उनकी राजनीति के केंद्र में हमेशा से ही भारत रहा है और उसी भारत के न्याय प्रिय लोग आज भी बाबू जगजीवन राम को आदर्श मानते हैं .
Monday, April 2, 2012
हथियारों के दलाल और उनके कारिंदे जनरल के खिलाफ लामबंद हो गए हैं .
शेष नारायण सिंह
जनरल वी के सिंह के खिलाफ नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में बहुत सारे लोग लाठी भांज रहे थे. बाद में उनकी संख्या कुछ कम हुई. जनरल वी के सिंह को हटाने के लिए दिल्ली में सक्रिय हथियार दलालों की लाबी बहुत तेज़ काम कर रही थी. राजधानी में यही लाबी सबसे ताक़तवर मानी जाती है .नई दिल्ली के हथियार दलालों ने ही कुमार नारायण नाम के हथियारों के एक दलाल को जेल में डलवा दिया था क्योंकि वह विरोधी पार्टी का था और उसके दुश्मन उससे मज़बूत थे. इस हथियार लाबी की ताक़त इतनी है कि वह किसी को भी प्रभावित कर सकती है . ज़्यादातर मामलों में तो पता भी नहीं चलता और ईमानदार आदमी भी दलालों के इस गिरोह का शिकार हो जाता है . जब मीडिया पर एकाधिकार का ज़माना था और सरकारी रेडियो और टेलिविज़न ही हुआ करते थी तो अखबारों की खबरें किसी भी हालत में हथियारों के दलालों के खिलाफ नहीं जा सकती थीं . जब से प्राइवेट टेलिविज़न चैनल आये हैं , हथियारों के दलालों के गिरोह खबरों को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं . नतीजा यह है कि इनके कारनामे सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जा रहे हैं . जनरल वी के सिंह के खिलाफ भी जो अभियान चला , वह अब खंड खंड हो रहा है. जनरल ने १४ करोड़ रूपये के घूस वाले अपने इंटरव्यू में हिन्दू अखबार की संवाददाता, विद्या सुब्रमनियम को बताया था कि फौज के नाम पर दलाली करने वाले आदर्श घोटाले वाला गिरोह उनके पीछे पडा हुआ है और उसी गैंग के लोग उन्हें बदनाम करने पर आमादा है . सवाल यह उठता है कि अगर उस गिरोह वाले जनरल के पीछे पड़े हैं तो प्रेस क्लब में लोग उनके खिलाफ इतना क्यों हैं, मेरे वे पत्रकार मित्र जिनकी ईमानदारी पर कभी कोई सवाल नहीं उठाये गए, वे क्यों जनरल के खिलाफ हैं . वे अफसर जनरल को क्यों गरिया रहे हैं जिनकी ईमानदारी की कहानियां दिल्ली में उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं . वे नेता क्यों जनरल को बर्खास्त करने की बात कर रहे हैं जो आम तौर पर बहुत ही कड़क माने जाते हैं और जिनको कभी कोई भी दलाल बेवक़ूफ़ नहीं बना सकता .
इन सारे सवालों का एक ही जवाब है. वह जवाब यह है कि हथियारों के दलालों ने जनरल वी के सिंह को निपटाने की योजना बहुत ही ठीक से बना रखी थी. इन लोगों ने मीडिया में अपने कुछ ख़ास लोगों के बीच बहुत दिनों से जनरल वी के सिंह के खिलाफ खुसुर पुसुर चला रखा था . जनरल को कुछ नहीं मालूम था. नौकरशाही में भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो हथियारों के दलालों के लिए काम करते हैं . तो मीडिया में मौजूद हथियार दलाल लाबी के ख़ास लोगों ने ईमानदार पत्रकारों को संभाला और उन्हें जनरल की काल्पनिक कमियों की जानकारी दी. इन ईमानदार पत्रकारों ने नेताओं को अंदर की खबर देने के चक्कर में उन्हें बता दिया कि सेना प्रमुख बिलकुल बेकार आदमी है . इस बीच प्रधानमंत्री को लिखा गया एक रूटीन पत्र इन्हीं दलालों के एजेंटों ने लीक कर दिया . ब्रिक्स सम्मेलन की टाइमिंग भी दलालों ने ही मैनेज की . और भी बहुत सारी बातें हुईं और जनरल वी के सिंह एक जिद्दी इंसान के रूप में पेश कर दिए गए. आज तो हद ही हो गयी . अखबार में एक ऐसे आदमी का बयान छपा है जो कई पीढ़ियों से सत्ता के गलियारों में सक्रिय है . यह आदमी कहता है कि जनरल को ज़बस्दस्ती छुट्टी पर भेज दो .
जानकार बताते हैं कि अगर जनरल वी के सिंह ने सेना के कुछ बड़े अफसरों द्वारा किये गए फौज की सुखना वाली ज़मीन के घोटाले का पर्दाफाश न किया होता या आदर्श घोटाले को बेनकाब न किया होता , या हथियारों की दलाली में लगे लोगों को मनमानी करने दी होती तो नई दिल्ली के पावर ब्रोकर उन्हें घेरने की कोशिश न करते. इन पावर ब्रोकरों के हाथ बहुत लम्बे होते हैं और बहुत सारे लोगों को पता भी नहीं लगता कि यह उनको कब इस्तेमाल कर लेते हैं . बहरहाल संतोष इस बात का है कि जनरल वी के सिंह ने वह काम किया जो कभी टी एन शेषन ने किया था और अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना दिल्ली के स्वार्थी लोगों को उनकी औकात पर ला दिया . इस दिशा में आज का विद्या सुब्रमनियम का वह लेख बहुत काम आएगा जिसमें उन्होंने लिखा है कि जनरल बेदाग़ है
जनरल वी के सिंह के खिलाफ नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में बहुत सारे लोग लाठी भांज रहे थे. बाद में उनकी संख्या कुछ कम हुई. जनरल वी के सिंह को हटाने के लिए दिल्ली में सक्रिय हथियार दलालों की लाबी बहुत तेज़ काम कर रही थी. राजधानी में यही लाबी सबसे ताक़तवर मानी जाती है .नई दिल्ली के हथियार दलालों ने ही कुमार नारायण नाम के हथियारों के एक दलाल को जेल में डलवा दिया था क्योंकि वह विरोधी पार्टी का था और उसके दुश्मन उससे मज़बूत थे. इस हथियार लाबी की ताक़त इतनी है कि वह किसी को भी प्रभावित कर सकती है . ज़्यादातर मामलों में तो पता भी नहीं चलता और ईमानदार आदमी भी दलालों के इस गिरोह का शिकार हो जाता है . जब मीडिया पर एकाधिकार का ज़माना था और सरकारी रेडियो और टेलिविज़न ही हुआ करते थी तो अखबारों की खबरें किसी भी हालत में हथियारों के दलालों के खिलाफ नहीं जा सकती थीं . जब से प्राइवेट टेलिविज़न चैनल आये हैं , हथियारों के दलालों के गिरोह खबरों को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं . नतीजा यह है कि इनके कारनामे सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जा रहे हैं . जनरल वी के सिंह के खिलाफ भी जो अभियान चला , वह अब खंड खंड हो रहा है. जनरल ने १४ करोड़ रूपये के घूस वाले अपने इंटरव्यू में हिन्दू अखबार की संवाददाता, विद्या सुब्रमनियम को बताया था कि फौज के नाम पर दलाली करने वाले आदर्श घोटाले वाला गिरोह उनके पीछे पडा हुआ है और उसी गैंग के लोग उन्हें बदनाम करने पर आमादा है . सवाल यह उठता है कि अगर उस गिरोह वाले जनरल के पीछे पड़े हैं तो प्रेस क्लब में लोग उनके खिलाफ इतना क्यों हैं, मेरे वे पत्रकार मित्र जिनकी ईमानदारी पर कभी कोई सवाल नहीं उठाये गए, वे क्यों जनरल के खिलाफ हैं . वे अफसर जनरल को क्यों गरिया रहे हैं जिनकी ईमानदारी की कहानियां दिल्ली में उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं . वे नेता क्यों जनरल को बर्खास्त करने की बात कर रहे हैं जो आम तौर पर बहुत ही कड़क माने जाते हैं और जिनको कभी कोई भी दलाल बेवक़ूफ़ नहीं बना सकता .
इन सारे सवालों का एक ही जवाब है. वह जवाब यह है कि हथियारों के दलालों ने जनरल वी के सिंह को निपटाने की योजना बहुत ही ठीक से बना रखी थी. इन लोगों ने मीडिया में अपने कुछ ख़ास लोगों के बीच बहुत दिनों से जनरल वी के सिंह के खिलाफ खुसुर पुसुर चला रखा था . जनरल को कुछ नहीं मालूम था. नौकरशाही में भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो हथियारों के दलालों के लिए काम करते हैं . तो मीडिया में मौजूद हथियार दलाल लाबी के ख़ास लोगों ने ईमानदार पत्रकारों को संभाला और उन्हें जनरल की काल्पनिक कमियों की जानकारी दी. इन ईमानदार पत्रकारों ने नेताओं को अंदर की खबर देने के चक्कर में उन्हें बता दिया कि सेना प्रमुख बिलकुल बेकार आदमी है . इस बीच प्रधानमंत्री को लिखा गया एक रूटीन पत्र इन्हीं दलालों के एजेंटों ने लीक कर दिया . ब्रिक्स सम्मेलन की टाइमिंग भी दलालों ने ही मैनेज की . और भी बहुत सारी बातें हुईं और जनरल वी के सिंह एक जिद्दी इंसान के रूप में पेश कर दिए गए. आज तो हद ही हो गयी . अखबार में एक ऐसे आदमी का बयान छपा है जो कई पीढ़ियों से सत्ता के गलियारों में सक्रिय है . यह आदमी कहता है कि जनरल को ज़बस्दस्ती छुट्टी पर भेज दो .
जानकार बताते हैं कि अगर जनरल वी के सिंह ने सेना के कुछ बड़े अफसरों द्वारा किये गए फौज की सुखना वाली ज़मीन के घोटाले का पर्दाफाश न किया होता या आदर्श घोटाले को बेनकाब न किया होता , या हथियारों की दलाली में लगे लोगों को मनमानी करने दी होती तो नई दिल्ली के पावर ब्रोकर उन्हें घेरने की कोशिश न करते. इन पावर ब्रोकरों के हाथ बहुत लम्बे होते हैं और बहुत सारे लोगों को पता भी नहीं लगता कि यह उनको कब इस्तेमाल कर लेते हैं . बहरहाल संतोष इस बात का है कि जनरल वी के सिंह ने वह काम किया जो कभी टी एन शेषन ने किया था और अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना दिल्ली के स्वार्थी लोगों को उनकी औकात पर ला दिया . इस दिशा में आज का विद्या सुब्रमनियम का वह लेख बहुत काम आएगा जिसमें उन्होंने लिखा है कि जनरल बेदाग़ है
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Friday, March 30, 2012
अमरीकी दादागीरी के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं ब्रिक्स देश
शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली, २९ मार्च. ब्रिक्स देशों का चौथा शिखर सम्मलेन आज संपन्न हो गया. इस अवसर पर रूस के राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने ऐलान किया कि वे भारत , ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता देने की कोशिश का समर्थन करते हैं .. उन्होंने यह भी कहा कि किसी भी देश को दूसरे देश के आतंरिक मामलोंमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं दिया जा सकता है और सभी देशों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान करना चाहिए . उन्होंने सीरिया और अफगानिस्तान में बातचीत के ज़रिये शान्ति पूर्ण हल तलाशने की बात को भी बहुत ही जोर देकर कहा . साफ़ था कि उन्होंने ब्रिक्स देशों की उस मंशा को रेखांकित किया कि सीरिया के मामले में अमरीका को दखल नहीं देना चाहिए . भारत के प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने शिखर सम्मलेन के सार्वजनिक सत्र की शुरुआत करते हुए कहा था कि उदारीकरण के दौर में अर्थ व्यवस्था का विकास बहुत ही संतुलित होना चाहिए . इसके लिए ज़रूरी है कि आतंकवाद को हर कीमत पर रोका जाए. . उन्होंने कहा कि ब्रिक्स देशों के बीच आपसी समझदारी की बहुत ज़्यादा संभावनाएं हैं . उनको हर हाल में इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए. . उन्होंने कहा कि भारत में अगले दस साल तक प्रति वर्ष एक करोड़ रोज़गार उपलब्ध कराना है . और भारत इस दिशा में पूरी कोशिश कर रहा है .उन्होंने सदस्य देशों से अपील की कि इस दिशा में वे अपने अनुभवों से भारत की मदद करें .डॉ मनमोहन सिंह ने ब्रिक्स देशों के लिए एक दस सूत्री कार्यक्रम की रूपरेखा भी दी.
ब्राजील की राष्ट्रपति दिलमा रूसेव ने कहा कि उनका देश बिलकुल अलग है , और उसकी समस्याएं भी अलग हैं लेकिन ब्रिक्स के मंच से उन्हें बहुत उम्मीदें हैं . उन्होंने कहा कि वे अपने देश में आमदनी के न्याय पूर्ण वितरण की योजना पर काम कर रही हैं .लेकिन कुछ देशों के अनावश्यक दखल के कारण उनकी अर्थव्यवस्था पर उल्टा असर पड़ता है . उनका इशारा अमरीका की तरफ था. उन्होंने इस बार पर भी खुशी जताई कि ब्रिक्स बैंक की स्थापना के बाद आपसी कारोबार के लिए डालर के इस्तेमाल की पाबंदी ख़त्म हो जायेगी. क्योंकि यूरो और डालर मुद्रा बाज़ार में असंतुलन फैला रहे हैं और आर्थिक विस्तारवाद की नीति का पालन कर रहे हैं . . उन्होंने कहा कि ज़रूरी है ब्रिक्स देश अपने घरेलू बाज़ार का विकास करें और आर्थिक तानाशाही से बचने की दिशा में आगे बढ़ें. उन्होंने कहा कि निर्यात को कमज़ोर किये बिना अपने देशों के आतंरिक बाज़ार का विस्तार किया जाना चाहिए.. उन्होंने कहा कि इरान के परमाणु कार्यक्रम को ज़बरदस्ती नहीं रोका जाना चाहिए क्योंकि ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म निर्भरता सभी देशों का अधिकार है और उसकी रक्षा की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि ऊजा के क्षेत्र में आत्म निर्भरता भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी कि भूख के खिलाफ चल रही जंग को जीतना .
चीन के राष्ट्रपति हु जिंताओ ने बार बार लोकतांत्रिक तरीकों की बात की और आपसी भरोसे का माहौल विकसित करने की ज़रुरत को भी महत्व दिया . दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जैकब जुमा ने इस बात पर बाकी ब्रिक्स देशों का आभार जताया कि दक्षिण अफीका कोअपने संगठन का सदस्य बनाकर उन पर और अफ्रीका पर अहसान किया है . उन्होंने उम्मीद जताई कि नए आर्थिक कार्यक्रमों के लागू होने के बाद उनके देश और अन्य अफ्रीकी देशों के ढांचागत विकास को ताक़त मिलेगी.
नयी दिल्ली, २९ मार्च. ब्रिक्स देशों का चौथा शिखर सम्मलेन आज संपन्न हो गया. इस अवसर पर रूस के राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने ऐलान किया कि वे भारत , ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता देने की कोशिश का समर्थन करते हैं .. उन्होंने यह भी कहा कि किसी भी देश को दूसरे देश के आतंरिक मामलोंमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं दिया जा सकता है और सभी देशों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान करना चाहिए . उन्होंने सीरिया और अफगानिस्तान में बातचीत के ज़रिये शान्ति पूर्ण हल तलाशने की बात को भी बहुत ही जोर देकर कहा . साफ़ था कि उन्होंने ब्रिक्स देशों की उस मंशा को रेखांकित किया कि सीरिया के मामले में अमरीका को दखल नहीं देना चाहिए . भारत के प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने शिखर सम्मलेन के सार्वजनिक सत्र की शुरुआत करते हुए कहा था कि उदारीकरण के दौर में अर्थ व्यवस्था का विकास बहुत ही संतुलित होना चाहिए . इसके लिए ज़रूरी है कि आतंकवाद को हर कीमत पर रोका जाए. . उन्होंने कहा कि ब्रिक्स देशों के बीच आपसी समझदारी की बहुत ज़्यादा संभावनाएं हैं . उनको हर हाल में इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए. . उन्होंने कहा कि भारत में अगले दस साल तक प्रति वर्ष एक करोड़ रोज़गार उपलब्ध कराना है . और भारत इस दिशा में पूरी कोशिश कर रहा है .उन्होंने सदस्य देशों से अपील की कि इस दिशा में वे अपने अनुभवों से भारत की मदद करें .डॉ मनमोहन सिंह ने ब्रिक्स देशों के लिए एक दस सूत्री कार्यक्रम की रूपरेखा भी दी.
ब्राजील की राष्ट्रपति दिलमा रूसेव ने कहा कि उनका देश बिलकुल अलग है , और उसकी समस्याएं भी अलग हैं लेकिन ब्रिक्स के मंच से उन्हें बहुत उम्मीदें हैं . उन्होंने कहा कि वे अपने देश में आमदनी के न्याय पूर्ण वितरण की योजना पर काम कर रही हैं .लेकिन कुछ देशों के अनावश्यक दखल के कारण उनकी अर्थव्यवस्था पर उल्टा असर पड़ता है . उनका इशारा अमरीका की तरफ था. उन्होंने इस बार पर भी खुशी जताई कि ब्रिक्स बैंक की स्थापना के बाद आपसी कारोबार के लिए डालर के इस्तेमाल की पाबंदी ख़त्म हो जायेगी. क्योंकि यूरो और डालर मुद्रा बाज़ार में असंतुलन फैला रहे हैं और आर्थिक विस्तारवाद की नीति का पालन कर रहे हैं . . उन्होंने कहा कि ज़रूरी है ब्रिक्स देश अपने घरेलू बाज़ार का विकास करें और आर्थिक तानाशाही से बचने की दिशा में आगे बढ़ें. उन्होंने कहा कि निर्यात को कमज़ोर किये बिना अपने देशों के आतंरिक बाज़ार का विस्तार किया जाना चाहिए.. उन्होंने कहा कि इरान के परमाणु कार्यक्रम को ज़बरदस्ती नहीं रोका जाना चाहिए क्योंकि ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म निर्भरता सभी देशों का अधिकार है और उसकी रक्षा की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि ऊजा के क्षेत्र में आत्म निर्भरता भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी कि भूख के खिलाफ चल रही जंग को जीतना .
चीन के राष्ट्रपति हु जिंताओ ने बार बार लोकतांत्रिक तरीकों की बात की और आपसी भरोसे का माहौल विकसित करने की ज़रुरत को भी महत्व दिया . दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जैकब जुमा ने इस बात पर बाकी ब्रिक्स देशों का आभार जताया कि दक्षिण अफीका कोअपने संगठन का सदस्य बनाकर उन पर और अफ्रीका पर अहसान किया है . उन्होंने उम्मीद जताई कि नए आर्थिक कार्यक्रमों के लागू होने के बाद उनके देश और अन्य अफ्रीकी देशों के ढांचागत विकास को ताक़त मिलेगी.
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शेष नारायण सिंह
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