शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान में आजकल वह हो रहा है जो अब तक कभी नहीं हुआ.देश की संसद में यह तय हो रहा है कि देश में लोकतंत्र का निजाम रहना है कि एक बार फिर तानाशाही कायम होनी है . अब तक तो होता यह था कि कोई फौजी जनरल आकर सिविलियन सरकारों को बता देता था कि भाई बहुत हुआ अब चलो ,हम राजकाज संभालेगें . सिविलियन हुकूमत वाले जब ज्यादा लोकशाही की बात करते थे तो उन्हें दुरुस्त कर दिया जाता था. चाहे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो रहे हों या लियाकत अली खां और या नवाज़ शरीफ रहे हों सब को फौज ने अपमानित ही किया लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि पूरे देश में आजकल लोकतंत्र बनाम तानाशाही की बहस चल रही है . हालांकि मौजूदा सरकार की लोकप्रियता और भ्रष्टाचार के हवाले से उसे हटाने का राग चारों तरफ से सुनायी पड़ने लगा है लकिन लगता है कि अब पुरानी बातें नहीं चलने वाली हैं . संसद का विशेष सत्र चल रहा है और सोमवार को संसद तय करेगी कि आगे का रास्ता क्या हो . प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी ने संसद में कहा कि तय यह होना है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही .उन्होंने कहा कि अगर उनकी सरकार ने गलातियाँ की हैं तो ठीक है उन्हें सज़ा दी जाए लेकिन संसद या लोकतंत्र को सज़ा नहीं दी जानी चाहिए .पाकिस्तानी जनमत का दबाव ऐसा है कि अब तक फौज के बूटों पर ताल दे रहे पंजाबी राजनेता , नवाज़ शरीफ भी कहने लगे हैं कि सरकार को चाहिए कि वक़्त से पहले चुनाव करवाकर लोकतंत्र की बहाली को सुनिश्चित करें.
शुक्रवार को अवामी नेशनल पार्टी के नेता, अफसंदर वली खां ने कौमी असेम्बली में संसद,सरकार और लोकतंत्र के पक्ष में एक प्रस्ताव रखा. इसी प्रस्ताव पर सोमवार को वोट पडेगा. प्रस्ताव में राजनीतिक नेतृत्व की उस कोशिश का भी समर्थन किया गया है जिसमें वह लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रही है .पाकिस्तान में आजकल सरकार ही सवालों के घेरे में नहीं है .सही बात यह है कि पाकिस्तान के अस्तित्व पर एक बार फिर सवालिया निशान लग गया है .पाकिस्तान के लोकतंत्र को एक बार फिर अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया गया है .लेकिन यह एक दिन में नहीं हुआ. बहुत शुरू से ही पाकिस्तान की हर मुसीबत के लिए नेताओं को ज़िम्मेदार ठहराकर पाकिस्तानी फौज़ सत्ता हथियाती रही है . नेता भी आम तौर पर इतने बेईमान और भ्रष्ट हो जाते थे कि जनता दुआ करने लगती थी कि किसी तरह से फौज ही आ जाए . आम तौर पर फौज के सत्ता में आने पर लोग राहत की सांस लेते थे .लेकिन अब पहली बार ऐसा हो रहा है कि जनता इस बात पर बहस कर रही है कि देश में किस तरह का निजाम स्थापित किया जाए . हुकूमत के फैसलों में मनमानी करने की आदी पाकिस्तानी फौज़ के सामने भी विकल्प कम होते जा रहे हैं . हर बार होता यह था कि जब भी पाकिस्तान की सरकार पर फौज का क़ब्ज़ा होता था तो अमरीका फौजी तानाशाह को मदद करने लगता था . आर्थिक रूप से अमरीकी सरकार के शामिल हो जाने के बाद फौजी जनरल को कोई रोक नहीं सकता था . इस इलाके में रूस के प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से अमरीका ने शुरुआती दो जनरलों, अयूब और याहया खां को समर्थन दिया था. जिया उल हक को अफगानिस्तान में सोवियत दखल को कम करने के लिए समर्थन दिया गया था और परवेज़ मुशर्रफ को तालिबानी आतंकियों को काबू में करने के लिए धन दिया गया था . लेकिन इस बार यह बिलकुल तय है कि अमरीका किसी भी फौजी हुकूमत को समर्थन देने को तैयार नहीं है . उसके अपने हित में है कि पाकिस्तान में जैसी भी हो लोकतंत्र वाली सरकार ही रहे. ऐसे माहौल में लगता है कि पाकिस्तान की जनता को आज़ादी के साठ साल बाद ही सही अपने हक को हासिल करने का मौक़ा मिल रहा है .
हालांकि अभी यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि जिस तरह का माहौल है उसमें संसदीय लोकतंत्र सुरक्षित बच पायेगा .फौज ने एक पुराने क्रिकेट खिलाड़ी को आगे कर दिया है और लगता है कि वह उसी को आगे करके लोकतंत्र को कंट्रोल में रखने की कोशिश कर रही है .इस खिलाड़ी ने एक राजनीतिक पार्टी भी बना रखा है और अगर पहले जैसे हालात होते तो अब तक वह सत्ता पर काबिज़ भी हो चुका होता लेकिन पाकिस्तानी मीडिया और जनमत का दबाव ऐसा है कि फौज को चुप बैठने के लिए मजबूर कर दिया गया है .पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियां भी एक इम्तिहान के दौर से गुज़र रही है देखना यह है कि आने वाले वक़्त में पाकिस्तान में लोक तंत्र बचता है कि नहीं और अगर बचता है तो किस रूपमें .
Monday, January 16, 2012
Sunday, January 8, 2012
पाकिस्तान में लोकशाही भारत और पाकिस्तान , दोनों के हित में है .
शेष नारायण सिंह
मुंबई,५ दिसंबर . पाकिस्तान में पिछले ४ हफ़्तों में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले महीने तीन ऐसे बिल पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में जनमत के दबाव के तले परिवर्तन की बयार बह रही है. .पाकिस्तान के बड़े राजनीतिक कार्यकर्ता और पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ,बी एम कुट्टी ने आज मुंबई में कहा कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व गवर्नर , सलमान तासीर की हत्या के एक साल बाद उनकी याद में मुंबई प्रेस क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में आज बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान की जो तस्वीर आज यहाँ बी एम कुट्टी ने पेश की उस से लगता है कि वहां अब फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं . .
बी एम कुट्टी पाकिस्तान में बहुत ही सम्मान से देखे जाते हैं . उन्होंने बताया कि पिछले ४ हफ़्तों में जो कानून पास हुए हैं उस से इस बात का अंदाज़ लग जाता है कि पाकिस्तान में अब मुल्ला और मिलिटरी की मर्जी से हुकूमत नहीं चलेगी. पाक्सितान में एक कानून था कि लड़कियों की शादी कुरआन से कर दी जाती थी. ऐसा इसलिए किया जाता था कि ज़मींदारी प्रथा के बीच जी रहे पाकिस्तानी समाज को नहीं मंज़ूर था कि पुश्तैनी ज़मीन का बँटवारा हो . पिछले महीने संसद में सर्व सम्मति से बिल पास करके इस अमानवीय कानून को रद्द कर दिया गया..बी एम कुट्टी ने बताया कि पाकिस्तान में इस बात पर भी जनमत बन रहा है कि ईशनिंदा कानून को भी बदल दिया जाए. इसी कानून का विरोध करने के बाद ही सलमान तासीर की ह्त्या की गयी थी. उनके बेटे को पिछली अगस्त में किडनैप कर लिया गया था और उनकी बेटी को धमकियां मिल रही हैं . उसके हत्यारे के ऊपर इस्लामाबाद में कुछ वकीलों ने फूल भे बरसाए थे . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है . पिछले दिनों पाकिस्तानी हैदराबाद में एम क्यू एम नाम के राजनीतिक संगठन की एक सभा में कुछ लोग सलमान तासीर की तस्वीर लेकर आये थे उन्हें शहीद का दर्ज़ा देने की बात कर रहे थे . बी एम कुट्टी ने भारत के लोगों और मीडिया से अपील की कि वे पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को समर्थन दें ,मुल्ला और मिलिटरी के भड़काऊ बयानों को नज़र अन्दाज़करें क्योंकि वे वहां अल्पमत में हैं . पाकिस्तान में लोकशाही की मजबूती भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में है .
मुंबई,५ दिसंबर . पाकिस्तान में पिछले ४ हफ़्तों में प्रगतिशीलता की दिशा में जितने बदलाव हुए हैं ,उतने पाकिस्तान के इतिहास में कभी नहीं हुए . पाकिस्तान की संसद में पिछले महीने तीन ऐसे बिल पास किये गए हैं जिनको देख कर लगता है कि पाकिस्तान में जनमत के दबाव के तले परिवर्तन की बयार बह रही है. .पाकिस्तान के बड़े राजनीतिक कार्यकर्ता और पाकिस्तान में मानवाधिकारों के संघर्ष के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ,बी एम कुट्टी ने आज मुंबई में कहा कि बहुत दिन बाद पाकिस्तान में लोकशाही की जड़ें जमती दिख रही है . पाकिस्तानी पंजाब के पूर्व गवर्नर , सलमान तासीर की हत्या के एक साल बाद उनकी याद में मुंबई प्रेस क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में आज बी एम कुट्टी ने कहा कि यह बहुत संतोष की बात है कि पाकिस्तान के प्रधान मंत्री युसूफ रजा गीलानी आम पाकिस्तानी की उस भावना को आवाज़ दे रहे हैं जिसमें वह चाहता है कि पाकिस्तानी फौज़ को काबू में रखा जाए .
पाकिस्तान की जो तस्वीर आज यहाँ बी एम कुट्टी ने पेश की उस से लगता है कि वहां अब फौज की मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी. पाकिस्तान के चर्चित मेमोगेट काण्ड के बाद जिस तरह से फौज ने सिविलियन सरकार को अर्दब में लेने की कोशिश की थी उसके बाद पाकिस्तान में एक बार फिर फौजी हुकूमत की आशंका बन गयी थी . उसी दौर में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को इलाज़ के लिए दुबई जाना पड़ गया था. जिसके बाद यह अफवाहें बहुत ही गर्म हो गयी थीं कि पाकिस्तान एक बार फिर फौज के हवाले होने वाला है . लेकिन प्रधान मंत्री युसफ रज़ा गीलानी ने कमान संभाली और सिविलियन सरकार की हैसियत को स्थापित करने की कोशिश की. अब फौज रक्षात्मक मुद्रा में है. . जब मेमोगेट वाले कांड में फौज के जनरलों की मिली भगत की बात सामने आई तो प्रधान मंत्री ने फ़ौरन जांच का आदेश दिया .. पाकिस्तानी जनरलों की मर्जी के खिलाफ यह जांच चल रही है और इमकान है कि सिविलियन सरकार का इक़बाल भारी पडेगा और पाकिस्तान में एक बार लोकशाही की जड़ें जम सकेगीं . .
बी एम कुट्टी पाकिस्तान में बहुत ही सम्मान से देखे जाते हैं . उन्होंने बताया कि पिछले ४ हफ़्तों में जो कानून पास हुए हैं उस से इस बात का अंदाज़ लग जाता है कि पाकिस्तान में अब मुल्ला और मिलिटरी की मर्जी से हुकूमत नहीं चलेगी. पाक्सितान में एक कानून था कि लड़कियों की शादी कुरआन से कर दी जाती थी. ऐसा इसलिए किया जाता था कि ज़मींदारी प्रथा के बीच जी रहे पाकिस्तानी समाज को नहीं मंज़ूर था कि पुश्तैनी ज़मीन का बँटवारा हो . पिछले महीने संसद में सर्व सम्मति से बिल पास करके इस अमानवीय कानून को रद्द कर दिया गया..बी एम कुट्टी ने बताया कि पाकिस्तान में इस बात पर भी जनमत बन रहा है कि ईशनिंदा कानून को भी बदल दिया जाए. इसी कानून का विरोध करने के बाद ही सलमान तासीर की ह्त्या की गयी थी. उनके बेटे को पिछली अगस्त में किडनैप कर लिया गया था और उनकी बेटी को धमकियां मिल रही हैं . उसके हत्यारे के ऊपर इस्लामाबाद में कुछ वकीलों ने फूल भे बरसाए थे . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है . पिछले दिनों पाकिस्तानी हैदराबाद में एम क्यू एम नाम के राजनीतिक संगठन की एक सभा में कुछ लोग सलमान तासीर की तस्वीर लेकर आये थे उन्हें शहीद का दर्ज़ा देने की बात कर रहे थे . बी एम कुट्टी ने भारत के लोगों और मीडिया से अपील की कि वे पाकिस्तान की सिविलियन सरकार को समर्थन दें ,मुल्ला और मिलिटरी के भड़काऊ बयानों को नज़र अन्दाज़करें क्योंकि वे वहां अल्पमत में हैं . पाकिस्तान में लोकशाही की मजबूती भारत और पाकिस्तान दोनों के हित में है .
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शेष नारायण सिंह
Saturday, January 7, 2012
मुसलमान सरकारी नौकरियों से और दूर खदेड़े गए
शेष नारायण सिंह
मुसलमानों को एक बार फिर वोट देने की मशीन के रूप में मानकर सरकारी फैसले किये गए हैं . संसद की शीतकालीन सत्र में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद का एक बयान सदन में रखा गया. बयान में बताया गया है कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी के लिए रिज़र्वेशन का जो २७ प्रतिशत का कोटा उपलब्ध है ,उसमें से ४.५ प्रतिशत अल्पसंख्यक ओबीसी के लिए रिज़र्व कर दिया गया है . मंत्री के बयान में लिखा है कि इस सन्दर्भ में कार्मिक. लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के दिनांक २२ दिसंबर की अधिसूचना के अनुसार इसे सरकार की नौकरियों और केंद्र सरकार के शैक्षिक संस्थानों में लागू कर दिया गया है . इस खबर के आते ही अखबारों और टेलिविज़न संस्थाओं के रिपोर्टर टूट पड़े और सारी दुनिया में डुगडुगी बज गयी कि मुसलमानों को ओबीसी कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया है .नतीजा साफ़ था. विश्व हिन्दू परिषद् ने पूरे देश में मुस्लिम आरक्षण के खिलाफ जुलूस निकालने की बात शुरू कर दी . हिन्दू हित की राजनीति करने वाले और भी बहुत सारे लोग जुट गए ,मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगला जाने लगा और उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुसलमानों के आरक्षण के हवाले से कांग्रेस को वोट की लालची पार्टी के रूप में पेश किया जाने लगा.
इस बात पर किसी ने गौर नहीं किया कि इस रिज़र्वेशन से मुसलमानों को कोई फायदा नहीं होगा ,इस बात को बताने वाला कहीं कोई नहीं था. क्यंकि यह रिज़र्वेशन अल्पसंख्यकों के लिए लागू किया गया है जिसमें मुसलमानों के लिए कोई उप कोटा नहीं है .यानी यह आरक्षण सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि के लिए भी होगा . इन धर्मों के ओबीसी भी उसी साढ़े चार प्रतिशत के लिए मैदान में होंगें . दुनिया जानती है कि इन धर्मों में शैक्षिक और सामाजिक असमानता बहुत कम है. मौजूदा व्यवस्था में भी यह लोग अगड़ी जातियों के अति शिक्षित लोगों से मुकाबला करते हैं और किसी भी हालत में उनसे कम नहीं हैं . ज़ाहिर है कि इनको अगर आरक्षण की सुविधा मिल जाए तो यह अन्य लोगों से आगे निकल जायेगें . जहां तक मुसलमान की बात है सही अर्थों में वही पिछड़ा हुआ है लेकिन सरकार के इस ताज़ा आदेश से उसे आरक्षण में कोई लाभ नहीं मिलने वाला है .सरकारी फैसले की इस बारीकी को समझने के लिए ज़रूरी है कि उन आदेशों को देख लिया जाए जिनके हवाले से सरकार अल्पसंख्यकों के रिज़र्वेशन की बात कर रही है .२२ दिसंबर के कार्मिक लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के कार्यालय ज्ञापन संख्या ४१०१८ के अनुसार सरकारी नौकरियों में यह रिज़र्वेशन लागू किया गया है . इस आदेश के अनुसार जो रिज़र्वेशन लागू हुआ है वह १ जनवरी २०१२ से प्रभावी है .इसी आदेश में लिखा हुआ है कि सरकारी कंपनियों , सरकारी बैंकों आदि को भी आदेश दे दिया गया है कि वे भी अपने यहाँ इसे लागू कर लें. लेकिन इस सरकारी चिट्ठी की भाषा से यह कहीं नहीं लगता कि वह आरक्षण मुसलमानों के लिए है . उसमें केवल अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया गया है . चिट्ठी में लिखा है कि केंद्र सरकार ने भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए लोगों की पहचान के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की थी जिसने १० मई २००७ को अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी .इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि २७ प्रतिशत के ओबीसी कोटे में से अल्पसंख्यकों के लिए सब कोटा बना दिया जाए.चिट्ठी में आगे लिखा है कि कि सरकार ने बहुत ध्यान से विचार किया और यह तय किया गया कि अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत का सब कोटा बनाने की व्यवस्था की जाए.इस चिट्ठी में यह भी बताया गया है कि अल्पसंख्यक उसीको माना जाएगा जिसे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट की धारा २ ( सी ) के तहत अल्पसंख्यक माना गया हो .इस धारा में लिखा है कि अल्पसंख्यक वह है जिसे केंद्र सरकार ने बतौर अल्पसंख्यक नोटिफाई कर दिया है. इसके अंतर्गत मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी आते हैं .ज़ाहिर है कि रिज़र्वेशन के लिए मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी समुदाय के ओबीसी शामिल होंगें. बस यहीं पर कैच है . सरकार ने अल्पसंख्यक वर्ग के ओबीसी को तो रिज़र्वेशन दे दिया है . यह रिज़र्वेशन केवल मुसलमानों के लिए नहीं है . उलटे उनेक रास्ते में तो इस सरकारी आदेश ने और कांटे बो दिए हैं .
२२ दिसंबर की इस सरकारी चिट्ठी के सार्वजनिक होने के बाद मीडिया में तूफ़ान मच गया कि मुसलमानों को रिज़र्वेशन दे दिया गया है लेकिन सच्चाई यह है कि यह रिज़र्वेशन सिख,ईसाई,बौद्ध और पारसी समुदाय के तथाकथित ओबीसी को फायदा पंहुचाएगा क्योंकि उन समुदायों में शिक्षा की भी कमी नहीं है और अपेक्षाकृत संपन्न लोग भी उन समुदायों में हैं . दुनिया जानती है कि अब तक भी इन समुदायों के लोग मुसलमानों से ज्यादा संख्या में सरकारी नौकरियों में पाए जाते हैं .इसलिए बहुत ही भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि मुसलमानों को एक बार फिर बेवक़ूफ़ बना दिया गया है क्योंकि वे अल्पसंख्यक तो हैं लेकिन अन्य अल्पसंख्यकों से बहुत पिछड़े हुए हैं.
लेकिन कांग्रेस और सरकार की वह अदा बहुत ही दिलचस्प थी जिसके तहत संसद में वह सरकारी बयान रखा गया जिसने मुसलमानों की आरक्षण की बात को खबरों की दुनिया में डाल दिया था. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के उस बयान में बार बार रंगनाथ मिश्रा कमीशन और सच्चर कमेटी का ज़िक्र किया गया था . ऐसा लगता था कि सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन और सच्चर कमेटी को आधार बनाकर रिज़र्वेशन दिया है . रंगनाथ मिश्रा कमीशन से तो साफ़ कह दिया था कि सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यक का प्रतिनिधित्व बहुत कम है ,तथा कभी कभी पूर्णतः गैर -प्रतिनधित्व है ,इसलिए उन्होंने सिफारिश की थी कि उन्हें संविधान के अनुच्छेद १६ ( ४) के तहत पिछड़ा माना जाना चाहिए .ऐसा करते समय पिछड़ा शब्द को सामाजिक एवं शैक्षिक शब्दों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए तथा केंद्र और राज्य सरकारों के तहत सभी संवर्ग और ग्रेड में १५ प्रतिशत पद उनके लिए निर्धारित होने चाहिए . रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने कहा था कि इस १५ प्रतिशत में से १० प्रतिशत मुसलमानों के लिए तथा शेष ५ प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यकों के लिए होना चाहिए . अब कोई सरकार से पूछे कि भाई कहाँ है वह रंगनाथ मिश्रा कमीशन वाली बात . २२ दिसंबर को रिज़र्वेशन का आदेश देकर सरकार ने अल्पसंख्यकों को तो रिज़र्वेशन दे दिया लेकिन मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से और दूर कर दिया .क्योंकि रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने भी माना था और आम तौर पर यही सच है कि मुसलमान लगभग पूरी तरह से पिछड़े हैं और उन्हें वही सुरक्षा मिलने चाहिए जो हिन्दुओं के पिछड़ों को मिलती है . लेकिन मुसलमानों का दुर्भाग्य है कि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में हर पार्टी में कुछ ऐसे मुसलमान हमेशा ही नज़र आते रहते हैं जो आम तौर पर पिछड़े नहीं होते. और वे ही मुसलमानों के हितों के संरक्षक बन कर घूमते रहते हैं . दिल्ली की राजनीति को समझने वालों को भरोसा है कि यह राजनीतिक मुसलमान अक्सर अपने ही हित की बात करते रहते हैं और दूर दराज़ गाँवों और कस्बों में ज़िन्दगी की सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे मुसलमानों के हितों की उन्हें कोई चिंता नहीं होती. ज़ाहिर है सरकार में मौजूद कुछ ऐसे लोग ही मुसलमानों के सही शुभचिन्तक बन सकते हैं जिनके मन में मुसलमानों के वोट से किसी तरह का सौदा करने की इच्छा न हो . इस देश का पिछले साठ साल का इतिहास इस बात का गवाह है कि मुसलमानों के हित का साधन अक्सर उन्हीं लोगों ने किया है जो धर्म से मुसलमान नहीं थे लेकिन इंसाफ़ की लड़ाई के सबसे बड़े नेता थे.
मुसलमानों को एक बार फिर वोट देने की मशीन के रूप में मानकर सरकारी फैसले किये गए हैं . संसद की शीतकालीन सत्र में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद का एक बयान सदन में रखा गया. बयान में बताया गया है कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी के लिए रिज़र्वेशन का जो २७ प्रतिशत का कोटा उपलब्ध है ,उसमें से ४.५ प्रतिशत अल्पसंख्यक ओबीसी के लिए रिज़र्व कर दिया गया है . मंत्री के बयान में लिखा है कि इस सन्दर्भ में कार्मिक. लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के दिनांक २२ दिसंबर की अधिसूचना के अनुसार इसे सरकार की नौकरियों और केंद्र सरकार के शैक्षिक संस्थानों में लागू कर दिया गया है . इस खबर के आते ही अखबारों और टेलिविज़न संस्थाओं के रिपोर्टर टूट पड़े और सारी दुनिया में डुगडुगी बज गयी कि मुसलमानों को ओबीसी कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया है .नतीजा साफ़ था. विश्व हिन्दू परिषद् ने पूरे देश में मुस्लिम आरक्षण के खिलाफ जुलूस निकालने की बात शुरू कर दी . हिन्दू हित की राजनीति करने वाले और भी बहुत सारे लोग जुट गए ,मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगला जाने लगा और उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुसलमानों के आरक्षण के हवाले से कांग्रेस को वोट की लालची पार्टी के रूप में पेश किया जाने लगा.
इस बात पर किसी ने गौर नहीं किया कि इस रिज़र्वेशन से मुसलमानों को कोई फायदा नहीं होगा ,इस बात को बताने वाला कहीं कोई नहीं था. क्यंकि यह रिज़र्वेशन अल्पसंख्यकों के लिए लागू किया गया है जिसमें मुसलमानों के लिए कोई उप कोटा नहीं है .यानी यह आरक्षण सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि के लिए भी होगा . इन धर्मों के ओबीसी भी उसी साढ़े चार प्रतिशत के लिए मैदान में होंगें . दुनिया जानती है कि इन धर्मों में शैक्षिक और सामाजिक असमानता बहुत कम है. मौजूदा व्यवस्था में भी यह लोग अगड़ी जातियों के अति शिक्षित लोगों से मुकाबला करते हैं और किसी भी हालत में उनसे कम नहीं हैं . ज़ाहिर है कि इनको अगर आरक्षण की सुविधा मिल जाए तो यह अन्य लोगों से आगे निकल जायेगें . जहां तक मुसलमान की बात है सही अर्थों में वही पिछड़ा हुआ है लेकिन सरकार के इस ताज़ा आदेश से उसे आरक्षण में कोई लाभ नहीं मिलने वाला है .सरकारी फैसले की इस बारीकी को समझने के लिए ज़रूरी है कि उन आदेशों को देख लिया जाए जिनके हवाले से सरकार अल्पसंख्यकों के रिज़र्वेशन की बात कर रही है .२२ दिसंबर के कार्मिक लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के कार्यालय ज्ञापन संख्या ४१०१८ के अनुसार सरकारी नौकरियों में यह रिज़र्वेशन लागू किया गया है . इस आदेश के अनुसार जो रिज़र्वेशन लागू हुआ है वह १ जनवरी २०१२ से प्रभावी है .इसी आदेश में लिखा हुआ है कि सरकारी कंपनियों , सरकारी बैंकों आदि को भी आदेश दे दिया गया है कि वे भी अपने यहाँ इसे लागू कर लें. लेकिन इस सरकारी चिट्ठी की भाषा से यह कहीं नहीं लगता कि वह आरक्षण मुसलमानों के लिए है . उसमें केवल अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया गया है . चिट्ठी में लिखा है कि केंद्र सरकार ने भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए लोगों की पहचान के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की थी जिसने १० मई २००७ को अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी .इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि २७ प्रतिशत के ओबीसी कोटे में से अल्पसंख्यकों के लिए सब कोटा बना दिया जाए.चिट्ठी में आगे लिखा है कि कि सरकार ने बहुत ध्यान से विचार किया और यह तय किया गया कि अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत का सब कोटा बनाने की व्यवस्था की जाए.इस चिट्ठी में यह भी बताया गया है कि अल्पसंख्यक उसीको माना जाएगा जिसे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट की धारा २ ( सी ) के तहत अल्पसंख्यक माना गया हो .इस धारा में लिखा है कि अल्पसंख्यक वह है जिसे केंद्र सरकार ने बतौर अल्पसंख्यक नोटिफाई कर दिया है. इसके अंतर्गत मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी आते हैं .ज़ाहिर है कि रिज़र्वेशन के लिए मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी समुदाय के ओबीसी शामिल होंगें. बस यहीं पर कैच है . सरकार ने अल्पसंख्यक वर्ग के ओबीसी को तो रिज़र्वेशन दे दिया है . यह रिज़र्वेशन केवल मुसलमानों के लिए नहीं है . उलटे उनेक रास्ते में तो इस सरकारी आदेश ने और कांटे बो दिए हैं .
२२ दिसंबर की इस सरकारी चिट्ठी के सार्वजनिक होने के बाद मीडिया में तूफ़ान मच गया कि मुसलमानों को रिज़र्वेशन दे दिया गया है लेकिन सच्चाई यह है कि यह रिज़र्वेशन सिख,ईसाई,बौद्ध और पारसी समुदाय के तथाकथित ओबीसी को फायदा पंहुचाएगा क्योंकि उन समुदायों में शिक्षा की भी कमी नहीं है और अपेक्षाकृत संपन्न लोग भी उन समुदायों में हैं . दुनिया जानती है कि अब तक भी इन समुदायों के लोग मुसलमानों से ज्यादा संख्या में सरकारी नौकरियों में पाए जाते हैं .इसलिए बहुत ही भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि मुसलमानों को एक बार फिर बेवक़ूफ़ बना दिया गया है क्योंकि वे अल्पसंख्यक तो हैं लेकिन अन्य अल्पसंख्यकों से बहुत पिछड़े हुए हैं.
लेकिन कांग्रेस और सरकार की वह अदा बहुत ही दिलचस्प थी जिसके तहत संसद में वह सरकारी बयान रखा गया जिसने मुसलमानों की आरक्षण की बात को खबरों की दुनिया में डाल दिया था. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के उस बयान में बार बार रंगनाथ मिश्रा कमीशन और सच्चर कमेटी का ज़िक्र किया गया था . ऐसा लगता था कि सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन और सच्चर कमेटी को आधार बनाकर रिज़र्वेशन दिया है . रंगनाथ मिश्रा कमीशन से तो साफ़ कह दिया था कि सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यक का प्रतिनिधित्व बहुत कम है ,तथा कभी कभी पूर्णतः गैर -प्रतिनधित्व है ,इसलिए उन्होंने सिफारिश की थी कि उन्हें संविधान के अनुच्छेद १६ ( ४) के तहत पिछड़ा माना जाना चाहिए .ऐसा करते समय पिछड़ा शब्द को सामाजिक एवं शैक्षिक शब्दों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए तथा केंद्र और राज्य सरकारों के तहत सभी संवर्ग और ग्रेड में १५ प्रतिशत पद उनके लिए निर्धारित होने चाहिए . रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने कहा था कि इस १५ प्रतिशत में से १० प्रतिशत मुसलमानों के लिए तथा शेष ५ प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यकों के लिए होना चाहिए . अब कोई सरकार से पूछे कि भाई कहाँ है वह रंगनाथ मिश्रा कमीशन वाली बात . २२ दिसंबर को रिज़र्वेशन का आदेश देकर सरकार ने अल्पसंख्यकों को तो रिज़र्वेशन दे दिया लेकिन मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से और दूर कर दिया .क्योंकि रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने भी माना था और आम तौर पर यही सच है कि मुसलमान लगभग पूरी तरह से पिछड़े हैं और उन्हें वही सुरक्षा मिलने चाहिए जो हिन्दुओं के पिछड़ों को मिलती है . लेकिन मुसलमानों का दुर्भाग्य है कि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में हर पार्टी में कुछ ऐसे मुसलमान हमेशा ही नज़र आते रहते हैं जो आम तौर पर पिछड़े नहीं होते. और वे ही मुसलमानों के हितों के संरक्षक बन कर घूमते रहते हैं . दिल्ली की राजनीति को समझने वालों को भरोसा है कि यह राजनीतिक मुसलमान अक्सर अपने ही हित की बात करते रहते हैं और दूर दराज़ गाँवों और कस्बों में ज़िन्दगी की सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे मुसलमानों के हितों की उन्हें कोई चिंता नहीं होती. ज़ाहिर है सरकार में मौजूद कुछ ऐसे लोग ही मुसलमानों के सही शुभचिन्तक बन सकते हैं जिनके मन में मुसलमानों के वोट से किसी तरह का सौदा करने की इच्छा न हो . इस देश का पिछले साठ साल का इतिहास इस बात का गवाह है कि मुसलमानों के हित का साधन अक्सर उन्हीं लोगों ने किया है जो धर्म से मुसलमान नहीं थे लेकिन इंसाफ़ की लड़ाई के सबसे बड़े नेता थे.
मुलायम सिंह को मुसलमानों के दिल से निकाल देगी कांग्रेस
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,२८ दिसंबर.केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों के रिज़र्वेशन के २७ प्रतिशत के कोटे से साढ़े चार प्रतिशत निकाल कर पिछड़े मुसलमानों को रिजर्वेशन देने के अपने फैसले को बिलकुल पुख्ता कर दिया है . उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव घोषित होने के ठीक पहले सरकार की तरफ से आये इस आदेश को अब अमली जामा पहना दिया गया है.अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने आज लोक सभा में विस्तार से बताया कि इस तरह के आरक्षण का औचित्य क्या है .इस व्यवस्था को तुरंत से लागू कर दिया गया है . यह रिज़र्वेशन सरकारी नौकरियों में होगा और शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश लेने वाले पिछड़े मुसलमानों को मिलेगा. लोक सभा में बताया गया कि इस सन्दर्भ मानव संसाधन विकास मंत्रालय और कार्मिक , लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय की ओर से बाकायदा प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है . इस साढ़े चार प्रतिशत के आरक्षण के लिए मुस्लिम,सिख,ईसाई,बौद्ध और पारसी धर्मों की ओबीसी जातियों के लोग योग्य माने गए हैं .
केंद्र सरकार की ओर से आज बताया गया कि मंडल कमीशन की सिफारिशें १९९० में ही लागू कर दी गयी थीं लेकिन उसमें मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की पिछड़ी जातियों के लोगों को शामिल नहीं किया गया था. मुसलमानों के पिछड़ेपन के बारे में सही आकलन करने के लिए डॉ मनमोहन सिंह सरकार ने २००४ में ही रंग नाथ मिश्रा आयोग का गठन कर दिया था .इस कमीशन को धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को चिन्हित करने का काम सौंप दिया गया था इस आयोग ने मई २००७ में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी. इस रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में दिसंबर २००९ में रख दिया गया था . उन्होंने मुसलमानों के लिए १० प्रतिशत और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए ५ प्रतिशत आरक्षण की बात की थी . उन्होंने यह भी कहा था इस सिफारिश को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद १६ ( ४ ) में संशोधन करना पडेगा . मनमोहन सिंह की सरकार ने २००५ में सच्चर कमेटी का गठन किया था जिसका काम मुस्लिम समुदायों की सामाजिक ,आर्थिक,और शैक्षिक स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करना था . सच्चर कमेटी ने पाया था कि मुस्लिम समुदाय देश के सबसे पिछड़े वर्गों में से एक है . .इसलिए इस समुदाय पर ख़ास ध्यान दिया जाना चाहिए . मुसलमानों को रिज़र्वेशन देने के लिए केंद्र सरकार ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार वाले सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का भी हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि सरकार के पास कोटे के अंदर कोटा करके रिज़र्वेशन देने का अधिकार है .इसलिए यह रिज़र्वेशन कानून की कसौटी पर बिलकुल सही है .उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस आरक्षण से सबसे ज्यादा प्रभावित समाजवादी पार्टी होगी. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि मुसलमानों को उनकी आबादी के आधार पर रिज़र्वेशन देना चाहिए और उनको १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन मिलना चाहिए. मुलायम सिंह यादव के इस बयान का राजनीतिक अर्थ है . ज़ाहिर है वे मुसलमानों के प्रिय नेता का अपना मुकाम आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं हैं
नई दिल्ली ,२८ दिसंबर.केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों के रिज़र्वेशन के २७ प्रतिशत के कोटे से साढ़े चार प्रतिशत निकाल कर पिछड़े मुसलमानों को रिजर्वेशन देने के अपने फैसले को बिलकुल पुख्ता कर दिया है . उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव घोषित होने के ठीक पहले सरकार की तरफ से आये इस आदेश को अब अमली जामा पहना दिया गया है.अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद ने आज लोक सभा में विस्तार से बताया कि इस तरह के आरक्षण का औचित्य क्या है .इस व्यवस्था को तुरंत से लागू कर दिया गया है . यह रिज़र्वेशन सरकारी नौकरियों में होगा और शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश लेने वाले पिछड़े मुसलमानों को मिलेगा. लोक सभा में बताया गया कि इस सन्दर्भ मानव संसाधन विकास मंत्रालय और कार्मिक , लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय की ओर से बाकायदा प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है . इस साढ़े चार प्रतिशत के आरक्षण के लिए मुस्लिम,सिख,ईसाई,बौद्ध और पारसी धर्मों की ओबीसी जातियों के लोग योग्य माने गए हैं .
केंद्र सरकार की ओर से आज बताया गया कि मंडल कमीशन की सिफारिशें १९९० में ही लागू कर दी गयी थीं लेकिन उसमें मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की पिछड़ी जातियों के लोगों को शामिल नहीं किया गया था. मुसलमानों के पिछड़ेपन के बारे में सही आकलन करने के लिए डॉ मनमोहन सिंह सरकार ने २००४ में ही रंग नाथ मिश्रा आयोग का गठन कर दिया था .इस कमीशन को धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को चिन्हित करने का काम सौंप दिया गया था इस आयोग ने मई २००७ में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी. इस रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में दिसंबर २००९ में रख दिया गया था . उन्होंने मुसलमानों के लिए १० प्रतिशत और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए ५ प्रतिशत आरक्षण की बात की थी . उन्होंने यह भी कहा था इस सिफारिश को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद १६ ( ४ ) में संशोधन करना पडेगा . मनमोहन सिंह की सरकार ने २००५ में सच्चर कमेटी का गठन किया था जिसका काम मुस्लिम समुदायों की सामाजिक ,आर्थिक,और शैक्षिक स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करना था . सच्चर कमेटी ने पाया था कि मुस्लिम समुदाय देश के सबसे पिछड़े वर्गों में से एक है . .इसलिए इस समुदाय पर ख़ास ध्यान दिया जाना चाहिए . मुसलमानों को रिज़र्वेशन देने के लिए केंद्र सरकार ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार वाले सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का भी हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि सरकार के पास कोटे के अंदर कोटा करके रिज़र्वेशन देने का अधिकार है .इसलिए यह रिज़र्वेशन कानून की कसौटी पर बिलकुल सही है .उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस आरक्षण से सबसे ज्यादा प्रभावित समाजवादी पार्टी होगी. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि मुसलमानों को उनकी आबादी के आधार पर रिज़र्वेशन देना चाहिए और उनको १८ प्रतिशत रिज़र्वेशन मिलना चाहिए. मुलायम सिंह यादव के इस बयान का राजनीतिक अर्थ है . ज़ाहिर है वे मुसलमानों के प्रिय नेता का अपना मुकाम आसानी से छोड़ने को तैयार नहीं हैं
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Sunday, December 25, 2011
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की तारीखें घोषित
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२४ दिसंबर . पांच राज्यों की विधान सभाओं के लिए आम चुनाव का ऐलान कर दिया गया है . जनवरी और फरवरी में चुनाव कराये जायेगें और पांचो राज्यों में वोटों की गिनती ४ मार्च को होगी. उत्तर प्रदेश में चुनाव सात फेज़ में होंगें जबकि बाकी अन्य राज्यों में चुनाव केवल एक फेज़ में होगा. उत्तर प्रदेश में पहला फेज़ ४ फरवरी २०१२ को है जबकि आख़री फेज़ २८ फरवरी को पडेगा. पंजाब और उत्तराखंड में ३० जनवरी ,मणिपुर में २८ जनवरी और गोवा में तीन मार्च को होगा. आचार संहिता तुरंत से ही लागू हो गयी है . इन राज्यों के सभी सरकारी कर्मचारी अब केंद्रीय चुनाव आयोग के कंट्रोल में आ गए हैं . वे सभी चुनाव आयोग के पास डेपुटेशन पर माने जायेगें.इस बार पेड न्यूज़ के बारे में सरकार बहुत ही सख्त है . जिला ,राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया के लिए मानीटरिंग कमेटी बनेगी. हर कमेटी में ४ सदस्य होंगें जिसमें एक पत्रकार होगा. पत्रकार को प्रेस कौंसिल की ओर से नामित किया जाएगा . चुनाव खर्च के मामले में बहुत ही सख्त तरिके अपनाए जायेगें. सभी उम्मीदवारों को चुनाव खर्च के लिए एक नया खाता खोलना पडेगा और उसी खाते से निकाल कर पैसा खर्च करना पडेगा. खर्च पर नज़र रखने के लिए मानिटरिंग आब्ज़र्वर होंगें.जबकि चुनाव पर जनरल आब्ज़र्वर नज़र रख रहे होंगें.चुनाव खर्च पर नज़र रखने के लिए अभी से बस अड्डों , रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों पर नज़र रखी जायेगी . किसी भी तरह के कैश की आवाजाही पर इनकम टैक्स वालों की नज़र रहेगी और वे सीधे चुनाव आयोग को सूचना देते रहेगें.इस बार अपराधियों के लिए खासी मुश्किल आने वाली है क्योंकि अबकी बार फ़ार्म ऐसा बनाया गया है कि उसमें उम्मीदवारों के परिवार के भी किसी अपराधी की जानकारी भरनी पड़ी. इस बार यह भी इंतज़ाम किया गया है कि अगर कोई व्यक्ति जो एस सी या एस टी नहीं है और वह किसी एस सी या एस टी वोटर को धमकाता है कि तो उसे दलित एक्ट के तहत पकड़ा जाएगा.
चुनाव आयोग के खचाखच भरे हाल में आज मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने पांच राज्यों के चुनाव की घोषणा कर दी. इन सभी राज्यों में अगले छः महीने से भी कम समय में विधान सभाओं का कार्यकाल ख़त्म होने वाला है . गोवा का १४ जून ,मणिपुर का १५ मार्च, पंजाब का १४ मार्च,उत्तरखंड का १२ मार्च और उत्तर प्रदेश २० मई २०१२ को कार्यकाल ख़त्म हो जाये़या. चुनाव आयोग को अधिकार है वह संविधान के अनुच्छेद ३७१ और ३२४ के आधार पर वहां चुनाव करवाए जहां की विधान सभा का कार्यकाल ख़त्म होने वाला .है.गोवा में विधान सभा की ४०, मणिपुर में ६० पंजाब में ११७ ,उत्तरखंड में ७० और उत्तर प्रदेश में ४०३ सीटें हैं . इन सब के लिए चुनाव करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा वोटर हैं यू पी में करीब ११ करोड़ बीस लाख वोटर हैं जो सात फेज़ के चुनावों में मत डालेगें. राज्य में ९८ प्रतिशत लोगों को मतदाता पहचान पत्र दे दिए गए हैं . श्री कुरेशी ने कहा कि जिन लोगों के पास पहचान पत्र नहीं है वे फ़ौरन बनवा लें क्योंकि बिना पहचान पत्र के वोट नहीं ड़ालने दिए जायेगें. हर जगह इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन होगी. .विकालांगों के लिए ख़ास इंतज़ाम किया गया है . दृष्टि विकलांग लोगों के लिए ब्रेल लिपि वाली मशीनों का इंतज़ाम भी किया गया है .
चुनाव में सुरक्षा को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है . केंद्रीय सुरक्षा बलों को हर पोलिंग पार्टी के साथ लगाया जाएगा. केंदीय बल आम तौर पर बूथों की सुरक्षा में रहेगें . उनके जिम्मे ही ई वी एम मशीनों के स्ट्रांग रूम की सुरक्षा रहेगी. पोलिंग कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का काम भी केंदीय बल करेगें.कानून व्यवस्था का काम राज्य के अधिकारी और पुलिस वाले देखेंगें.इस बार वोटरों को पर्ची देने का काम चुनाव आयोग के अफसर करेगें यह काम बिहार में शुरू किया गया था और वहां सफल रहा था.किसी भी धार्मिक स्थल का इस्तेमाल चुनाव पचार के लिए नहीं किया जाएगा और चुनाव से सम्बंधित हर गतिविधि पर आब्ज़र्वर की नज़र होगी. स्थानीय स्तर पर भी आब्ज़र्वर होगा जो जिले के बज़र्वर को रिपोर्ट करेगा.
पंजाब से शिकायत आई थी कि वहां अफीम आदि का इस्तेमाल होने की आशंका है. मुख्य चुनाव आयुक्त ने बाया कि नारकोटिक्स विभाग एक महानिदेशक को कह दिया गया कि इस बात पर नज़र रखेगें और ज़रूरी कार्रवाई करेगें.
नई दिल्ली,२४ दिसंबर . पांच राज्यों की विधान सभाओं के लिए आम चुनाव का ऐलान कर दिया गया है . जनवरी और फरवरी में चुनाव कराये जायेगें और पांचो राज्यों में वोटों की गिनती ४ मार्च को होगी. उत्तर प्रदेश में चुनाव सात फेज़ में होंगें जबकि बाकी अन्य राज्यों में चुनाव केवल एक फेज़ में होगा. उत्तर प्रदेश में पहला फेज़ ४ फरवरी २०१२ को है जबकि आख़री फेज़ २८ फरवरी को पडेगा. पंजाब और उत्तराखंड में ३० जनवरी ,मणिपुर में २८ जनवरी और गोवा में तीन मार्च को होगा. आचार संहिता तुरंत से ही लागू हो गयी है . इन राज्यों के सभी सरकारी कर्मचारी अब केंद्रीय चुनाव आयोग के कंट्रोल में आ गए हैं . वे सभी चुनाव आयोग के पास डेपुटेशन पर माने जायेगें.इस बार पेड न्यूज़ के बारे में सरकार बहुत ही सख्त है . जिला ,राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया के लिए मानीटरिंग कमेटी बनेगी. हर कमेटी में ४ सदस्य होंगें जिसमें एक पत्रकार होगा. पत्रकार को प्रेस कौंसिल की ओर से नामित किया जाएगा . चुनाव खर्च के मामले में बहुत ही सख्त तरिके अपनाए जायेगें. सभी उम्मीदवारों को चुनाव खर्च के लिए एक नया खाता खोलना पडेगा और उसी खाते से निकाल कर पैसा खर्च करना पडेगा. खर्च पर नज़र रखने के लिए मानिटरिंग आब्ज़र्वर होंगें.जबकि चुनाव पर जनरल आब्ज़र्वर नज़र रख रहे होंगें.चुनाव खर्च पर नज़र रखने के लिए अभी से बस अड्डों , रेलवे स्टेशनों और हवाई अड्डों पर नज़र रखी जायेगी . किसी भी तरह के कैश की आवाजाही पर इनकम टैक्स वालों की नज़र रहेगी और वे सीधे चुनाव आयोग को सूचना देते रहेगें.इस बार अपराधियों के लिए खासी मुश्किल आने वाली है क्योंकि अबकी बार फ़ार्म ऐसा बनाया गया है कि उसमें उम्मीदवारों के परिवार के भी किसी अपराधी की जानकारी भरनी पड़ी. इस बार यह भी इंतज़ाम किया गया है कि अगर कोई व्यक्ति जो एस सी या एस टी नहीं है और वह किसी एस सी या एस टी वोटर को धमकाता है कि तो उसे दलित एक्ट के तहत पकड़ा जाएगा.
चुनाव आयोग के खचाखच भरे हाल में आज मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने पांच राज्यों के चुनाव की घोषणा कर दी. इन सभी राज्यों में अगले छः महीने से भी कम समय में विधान सभाओं का कार्यकाल ख़त्म होने वाला है . गोवा का १४ जून ,मणिपुर का १५ मार्च, पंजाब का १४ मार्च,उत्तरखंड का १२ मार्च और उत्तर प्रदेश २० मई २०१२ को कार्यकाल ख़त्म हो जाये़या. चुनाव आयोग को अधिकार है वह संविधान के अनुच्छेद ३७१ और ३२४ के आधार पर वहां चुनाव करवाए जहां की विधान सभा का कार्यकाल ख़त्म होने वाला .है.गोवा में विधान सभा की ४०, मणिपुर में ६० पंजाब में ११७ ,उत्तरखंड में ७० और उत्तर प्रदेश में ४०३ सीटें हैं . इन सब के लिए चुनाव करवाया जाएगा. उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा वोटर हैं यू पी में करीब ११ करोड़ बीस लाख वोटर हैं जो सात फेज़ के चुनावों में मत डालेगें. राज्य में ९८ प्रतिशत लोगों को मतदाता पहचान पत्र दे दिए गए हैं . श्री कुरेशी ने कहा कि जिन लोगों के पास पहचान पत्र नहीं है वे फ़ौरन बनवा लें क्योंकि बिना पहचान पत्र के वोट नहीं ड़ालने दिए जायेगें. हर जगह इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन होगी. .विकालांगों के लिए ख़ास इंतज़ाम किया गया है . दृष्टि विकलांग लोगों के लिए ब्रेल लिपि वाली मशीनों का इंतज़ाम भी किया गया है .
चुनाव में सुरक्षा को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है . केंद्रीय सुरक्षा बलों को हर पोलिंग पार्टी के साथ लगाया जाएगा. केंदीय बल आम तौर पर बूथों की सुरक्षा में रहेगें . उनके जिम्मे ही ई वी एम मशीनों के स्ट्रांग रूम की सुरक्षा रहेगी. पोलिंग कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का काम भी केंदीय बल करेगें.कानून व्यवस्था का काम राज्य के अधिकारी और पुलिस वाले देखेंगें.इस बार वोटरों को पर्ची देने का काम चुनाव आयोग के अफसर करेगें यह काम बिहार में शुरू किया गया था और वहां सफल रहा था.किसी भी धार्मिक स्थल का इस्तेमाल चुनाव पचार के लिए नहीं किया जाएगा और चुनाव से सम्बंधित हर गतिविधि पर आब्ज़र्वर की नज़र होगी. स्थानीय स्तर पर भी आब्ज़र्वर होगा जो जिले के बज़र्वर को रिपोर्ट करेगा.
पंजाब से शिकायत आई थी कि वहां अफीम आदि का इस्तेमाल होने की आशंका है. मुख्य चुनाव आयुक्त ने बाया कि नारकोटिक्स विभाग एक महानिदेशक को कह दिया गया कि इस बात पर नज़र रखेगें और ज़रूरी कार्रवाई करेगें.
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शेष नारायण सिंह
लोकपाल बिल लोकसभा में पेश करके कांग्रेस का जीत का दावा
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,२२ दिसंबर . आज लोकसभा में लोकपाल और लोकायुक्त बिल २०११ पेश कर दिया गया. सदन में ४ अगस्त को इसी विषय पर पेश किया गया बिल वापस ले लिया गया है. लोकपाल बिल को संसद में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने पाइलट किया. अध्यक्ष के आसन पर फ्रांसिस्को सरदिन्हा मौजूद थे. बिल को पेश करने में ही जो दिक्क़तें आयीं उनसे साफ लगता है कि लोकपाल बिल पास होने में खासी मुश्किल होगी. बहस की शुरुआत सदन की नेता, सुषमा स्वराज ने किया. उन्होंने कुछ कारणों से बिल को आज पेश किये जाने का विरोध किया . उन्होंने कहा कि यह बिल भारत के संघीय ढांचे पर हमला करता है . सुषमा स्वराज ने कहा कि संविधान में यह व्यवस्था है और सुप्रीम कोर्ट के कई आदेश हैं कि रिज़र्वेशन किसी भी हालत में ५० प्रतिशत से ज्यादा नहीं किया जा सकता है .लेकिन इस बिल में कहा गया है कि रिज़र्वेशन ५० प्रतिशत से कम नहीं होगा. यानी यह ९ सदस्यों के लोकपाल में कम से कम ५ सदस्यों को रिज़र्वेशन देने की बात कही गयी है . उनको इस बात पर भी एतराज़ था कि इसमें अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन दिया गया है .उनका कहना था कि जब संविधान में धार्मिक आधार पर रिज़र्वेशन नहीं दिया गया है तो संविधान का विरोध करके क्यों ऐसा कानून बनाया जा रहा है जो सुप्रीम कोर्ट में जाकर फेल हो जाए. बहस के आखिर में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है . और अगर ऐसा है भी तो उसे जब इस बिल पर २७ दिसम्बर से सिलसिलेवार बहस होगी तब ठीक कर लिया जाये़या.
आज दिन में सदन शुरू में स्थगित करना पड़ा लेकिन जब साढ़े तीन बजे सदन की बैठक दुबारा शुरू हुई तो बिल को पेश करने के स्तर पर ही खासी लम्बी बहस हो गयी. समाजवादी पार्टी के नेता, मुलायम सिंह यादव ने इस बात पर आपत्ति की लोकपाल की संस्था ऐसी बनने जा रही है जो किसी के प्रति ज़िम्मेदार नहीं होगा. उन्होंने कहा कि जो लोग अन्ना हजारे के साथ हैं वे दूध के धुले नहीं है . इस बात का डर है कि लोकपाल भी भ्रष्टाचार के एक नए केंद्र के रूप में स्थापित हो जाये़या . वह सब को ब्लैकमेल करेगा. इसके बाद राजद के नेता, लालू प्रसाद यादव ने बहुत ज़ोरदार तरीके से अपने बात रखी . उन्होंने इस बात पर सख्त एतराज़ किया किया कि कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयंभू नेता बन गए हैं और संसद सदस्यों को अपमानित कर रहे हैं .उन्होंने कहा कि किसी भी आन्दोलन की धमकी के बाद सरकार को कोई भी कानून नहीं बनाया जाना चाहिए. इसमें जल्दी मचाने के ज़रुरत नहीं है उन्होंने भी इस बात को जोर देकर कहा कि प्रधान मंत्री को इसके दायरे से बाहर रखा जाये .जनता दल यू के शरद यादव , आल इण्डिया अन्ना द्रमुक के थाम्बी दुराई , सी पी एम के बासुदेव आचार्य ने संघीय ढाँचे को तोड़ने के किसी भी कोशिश का विरोध किया . बीजेपी के यशवंत सिन्हा ने भी ज़ोरदार विरोध किया कि सरकार अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन देने की कोशिश कर रही हैं .
शिवसेना ने लोकपाल का ज़बरस्त विरोध किया और अन्ना हजारे और उनकी टीम को गैरज़िम्मेदार बताया. पार्टी के सदस्य ने कहा कि उनकी पार्टी के नेता, बाल ठाकरे को इस बात की आशंका है कि इस लोकपाल को इतना ताक़तवर बना कर कहीं देश तानाशाही की तरफ तो नहीं बढ़ रहा है .सी पी आई के गुरुदास दासगुप्ता ने कहा कि कुछ लोगों को इस बात का हक नहीं है कि वे संसद को धमकाएं लेकिन उनकी इस बात पर सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने उन्हें याद दिलाया कि वे अपने पार्टी के नेता को समझाएं कि वे जन्तर मंतर के धरनामंच पर न जाएँ. कानून बनाने का काम संसद को ही करने दें . बहरहाल बिल लोकसभा में पेश हो गया और कांग्रेस इस बात पर बहुत खुश है कि उसने २७ अगस्त को सदन में पास हुए प्रस्ताव की रोशनी में वह बिल पेश कर दिया जिसका उन्होंने वायदा किया था.
बिल को पास करने या न करने के लिए लोकसभा की बैठक २७ से २९ दिसंबर तक होगी . अभी बिल के पास होने के बारे में कोई बात नहीं कही जा सकती है क्योंकि जो पार्टियां पहले अन्ना हजारे के साथ थीं वे भी आज पेश किये गए बिल को कमज़ोर बताकर उस से बच निकलने के चक्कर में हैं .
नई दिल्ली ,२२ दिसंबर . आज लोकसभा में लोकपाल और लोकायुक्त बिल २०११ पेश कर दिया गया. सदन में ४ अगस्त को इसी विषय पर पेश किया गया बिल वापस ले लिया गया है. लोकपाल बिल को संसद में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायणसामी ने पाइलट किया. अध्यक्ष के आसन पर फ्रांसिस्को सरदिन्हा मौजूद थे. बिल को पेश करने में ही जो दिक्क़तें आयीं उनसे साफ लगता है कि लोकपाल बिल पास होने में खासी मुश्किल होगी. बहस की शुरुआत सदन की नेता, सुषमा स्वराज ने किया. उन्होंने कुछ कारणों से बिल को आज पेश किये जाने का विरोध किया . उन्होंने कहा कि यह बिल भारत के संघीय ढांचे पर हमला करता है . सुषमा स्वराज ने कहा कि संविधान में यह व्यवस्था है और सुप्रीम कोर्ट के कई आदेश हैं कि रिज़र्वेशन किसी भी हालत में ५० प्रतिशत से ज्यादा नहीं किया जा सकता है .लेकिन इस बिल में कहा गया है कि रिज़र्वेशन ५० प्रतिशत से कम नहीं होगा. यानी यह ९ सदस्यों के लोकपाल में कम से कम ५ सदस्यों को रिज़र्वेशन देने की बात कही गयी है . उनको इस बात पर भी एतराज़ था कि इसमें अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन दिया गया है .उनका कहना था कि जब संविधान में धार्मिक आधार पर रिज़र्वेशन नहीं दिया गया है तो संविधान का विरोध करके क्यों ऐसा कानून बनाया जा रहा है जो सुप्रीम कोर्ट में जाकर फेल हो जाए. बहस के आखिर में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है . और अगर ऐसा है भी तो उसे जब इस बिल पर २७ दिसम्बर से सिलसिलेवार बहस होगी तब ठीक कर लिया जाये़या.
आज दिन में सदन शुरू में स्थगित करना पड़ा लेकिन जब साढ़े तीन बजे सदन की बैठक दुबारा शुरू हुई तो बिल को पेश करने के स्तर पर ही खासी लम्बी बहस हो गयी. समाजवादी पार्टी के नेता, मुलायम सिंह यादव ने इस बात पर आपत्ति की लोकपाल की संस्था ऐसी बनने जा रही है जो किसी के प्रति ज़िम्मेदार नहीं होगा. उन्होंने कहा कि जो लोग अन्ना हजारे के साथ हैं वे दूध के धुले नहीं है . इस बात का डर है कि लोकपाल भी भ्रष्टाचार के एक नए केंद्र के रूप में स्थापित हो जाये़या . वह सब को ब्लैकमेल करेगा. इसके बाद राजद के नेता, लालू प्रसाद यादव ने बहुत ज़ोरदार तरीके से अपने बात रखी . उन्होंने इस बात पर सख्त एतराज़ किया किया कि कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयंभू नेता बन गए हैं और संसद सदस्यों को अपमानित कर रहे हैं .उन्होंने कहा कि किसी भी आन्दोलन की धमकी के बाद सरकार को कोई भी कानून नहीं बनाया जाना चाहिए. इसमें जल्दी मचाने के ज़रुरत नहीं है उन्होंने भी इस बात को जोर देकर कहा कि प्रधान मंत्री को इसके दायरे से बाहर रखा जाये .जनता दल यू के शरद यादव , आल इण्डिया अन्ना द्रमुक के थाम्बी दुराई , सी पी एम के बासुदेव आचार्य ने संघीय ढाँचे को तोड़ने के किसी भी कोशिश का विरोध किया . बीजेपी के यशवंत सिन्हा ने भी ज़ोरदार विरोध किया कि सरकार अल्पसंख्यकों को रिज़र्वेशन देने की कोशिश कर रही हैं .
शिवसेना ने लोकपाल का ज़बरस्त विरोध किया और अन्ना हजारे और उनकी टीम को गैरज़िम्मेदार बताया. पार्टी के सदस्य ने कहा कि उनकी पार्टी के नेता, बाल ठाकरे को इस बात की आशंका है कि इस लोकपाल को इतना ताक़तवर बना कर कहीं देश तानाशाही की तरफ तो नहीं बढ़ रहा है .सी पी आई के गुरुदास दासगुप्ता ने कहा कि कुछ लोगों को इस बात का हक नहीं है कि वे संसद को धमकाएं लेकिन उनकी इस बात पर सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने उन्हें याद दिलाया कि वे अपने पार्टी के नेता को समझाएं कि वे जन्तर मंतर के धरनामंच पर न जाएँ. कानून बनाने का काम संसद को ही करने दें . बहरहाल बिल लोकसभा में पेश हो गया और कांग्रेस इस बात पर बहुत खुश है कि उसने २७ अगस्त को सदन में पास हुए प्रस्ताव की रोशनी में वह बिल पेश कर दिया जिसका उन्होंने वायदा किया था.
बिल को पास करने या न करने के लिए लोकसभा की बैठक २७ से २९ दिसंबर तक होगी . अभी बिल के पास होने के बारे में कोई बात नहीं कही जा सकती है क्योंकि जो पार्टियां पहले अन्ना हजारे के साथ थीं वे भी आज पेश किये गए बिल को कमज़ोर बताकर उस से बच निकलने के चक्कर में हैं .
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शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश में बड़े नेताओं को हाशिये पर करके बीजेपी ने अपना नुकसान किया
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव अब कुछ हफ़्तों के अंदर हो जायेगें. विधान सभा चुनाव के पहले के समीकरण इतनी तेज़ी से बदल रहे हैं कि किसी भी राजनीतिक समीक्षक के लिए नतीजों के बारे में इशारा कर पाना भी असंभव है . इसके बावजूद कुछ बातें बिलकुल तय हैं . मसलन सत्ताधारी पार्टी से नाराज़ लोगों की संख्या के बारे में कोई भी आकलन नहीं लगाया जा सकता . छः महीने पहले तक यह माना जा रहा था कि मुख्यमंत्री मायावती की पार्टी सबसे मज़बूत पार्टी थी, आज इस बात को कहने वालों की संख्या में खासी कमी आई है . जब अन्ना हजारे का रामलीला मैदान वाला कार्यक्रम चल रहा था और कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह की उत्तर प्रदेश में यात्रायें चल रही थीं तो लगने लगा था कि बीजेपी का कार्यकर्ता भी चुनाव में सक्रिय रूप से तैयार है . उत्तर प्रदेश में राज नाथ सिंह और कलराज मिश्र की बिरादरी वाले चुनाव की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं . लेकिन जब से बीजेपी ने राज्य के दिग्गजों को चुनाव मैदान में उतार कर उनकी औकात नापने की योजना बनायी है , बीजेपी के लोग निराश हैं . उनका कहना है कि जिन लोगों के कारण आज उत्तर प्रदेश में पार्टी के दुर्दशा हुई है उनको जनता दुबारा झेलने को तैयार नहीं है . उधर कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह के जो समर्थक अपने नेताओं की हनक बनाने के लिए सक्रिय नज़र आ रहे थे , अब ठंडे पड़ गए हैं . लगता है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने ऐसी को योजना बना ली है कि बीजेपी के यू पी वाले नेताओं को जीरो कर के दोबारा पार्टी को मज़बूत बनाया जाये़गा. हो सकता है इसका आगे चल कर लाभ भी हो लेकिन फिलहाल तो आज बीजेपी बिलकुल पिछड़ी नज़र आ रही है . बीजेपी आलाकमान का एक और फैसला भी ख़ासा मनोरंजक माना जा रहा है . उमा भारती को यू पी में सक्रिय करके पता नहीं बीजेपी वाले क्या हासिल करना चाहते हैं . लेकिन उनकी इस रणनीति के कारण यू पी के बीजेपी नेता और कार्यकर्ता बहुत निराश हैं . सुना है कि उमा भारती राज्य की मुख्यमंत्री बनने की योजना भी बना रही है . जो भी हो ,कुल मिलाकर हालात ऐसे बन गए हैं कि लगता है कि बीजेपी लड़ाई से बाहर हो गयी है .
कांग्रेस ने अजित सिंह को साथ लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ सीटें जीतने के प्लान पर काम शुरू कर दिया है .हो सकता है कि इसका फायदा कांग्रेस को मिल जाए .केंद्र सरकार का बैकवर्ड मुसलमानों को दिया गया साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण भी एक मज़बूत चुनावी नुस्खा है .लोकसभा २००९ में भी देखा गया था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमान कांग्रेस की ओर खिंचे थे. अगर इस बार भी उन्हें लगा कि कांग्रेस बीजेपी को कमज़ोर करने में प्रभावी भूमिका निभाने जा रही है तो कांग्रेस के हाथ मुसलमानों के वोट आ सकते हैं . ऐसी हालत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह और कांग्रेस मिल कर बहुजन समाज पार्टी को असरदार चुनौती दे सकेंगें . राज्य के बँटवारे के बारे में विधानसभा में प्रस्ताव पास करवाकर मायावाती ने कोशिश की थी कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में अजित सिंह समेत सभी पार्टियों को कमज़ोर कर दें लेकिन केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने जिस सिलसिलेवार तरीके से मायावती के प्रस्ताव का जवाब भेजा है उसके बाद अखबार पढने वाले लोगों की समझ में आ गया है कि मायावाती का इरादा चुनावी समीकरण बदलने का ही था और कुछ नहीं . वे केवल चुनावी नारा दे रही थीं . उनके प्रस्ताव में कोई दम नहीं था. ऐसी हालत में लगता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनको अजित सिंह और कांग्रेस के गठबंधन से ज़बरदस्त चुनौती मिलेगी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक और दिलचस्प बात सामने आ रही है . वह यह कि मुलायम सिंह यादव भी इस इलाके में कुछ क्षेत्रों में बहुत ही प्रभावशाली नज़र आ रहे हैं ,हालांकि पहले उनको यहाँ जीरो माना जा रहा था . ऐसा लगने लगा है कि कुछ इलाकों में वे मायावाती से नाराज़ वोटरों को अपनी तरफ खींच लेने में कामयाब हो जायेगें. अगर ऐसा हुआ तो उनका कोर समर्थक मुसलमान उनका साथ देने से कोई परहेज़ नहीं करेगा . कुल मिलाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आज की जो राजनीतिक हालत है उसमें लगता है कि मुसलमानों की मदद की ताक़त के कारण कांग्रेस-अजित सिंह और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार मायावती की पार्टी के उम्मीदवारों को धकियाने में सफल हो जायेगें.
मध्य उत्तर प्रदेश में इस बार मुलायम सिंह यादव कोई भी चांस नहीं ले रहे हैं . उन्होंने यादव बहुल एटा में अपनी चुनावी सभाओं की शुरुआत की . उस चुनाव सभा के पहले और बाद में वहां आये लोगों से बात करने का मौक़ा मुझे मिला था . और ऐसी धारणा बनी थी कि हालांकि मुलायम सिंह की बहू फिरोजाबाद से चुनाव हार गयी थी लेकिन अब माहौल बदल गया है . पिछड़े और मुसलमान उनके साथ हैं जो उनकी पार्टी को उनके अपने इलाके में बढ़त दिलाने में सफल रहेगें.. यहाँ अजित सिंह का कोई प्रभाव नहीं है लेकिन कुछ इलाकों में कांग्रेस नज़र आ रही है लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अपने इलाके में मुलायम सिंह यादव मायावती की पार्टी को सीधी चुनौती देगें . और शायद बहुत सारी सीटों पर बढ़त भी दर्ज करें. ज़ाहिर है कि जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में हुए घाटे को वे यहाँ बराबर कर लेगें .
सरकार बनाने की असली शक्तिपरीक्षा अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में होने वाली है . इस इलाके में अमेठी और रायबरेली में तो कांग्रेस मज़बूत है हालांकि वहां भी हर सीट पर उनकी जीत पक्की नहीं है . बीजेपी बहुत कमज़ोर है लेकिन मायावती का पक्का वोट बैंक यहाँ ताक़तवर है .करीब तीन महीने पहले जब यह लगता था कि बीजेपी मजबूती से लडेगी तो जानकारों ने लगभग ऐलान कर दिया था कि बीजेपी को हराने के लिए मुसलमान पूरी तरह से बहुजन समाज पार्टी के साथ चला जाएगा लेकिन अब ऐसा नहीं है . बीजेपी के बहुत कमज़ोर हो जाने का नतीजा यह है कि अब मुसलमान के पास कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में से किसी के भी साथ जाने का विकल्प मौजूद है . ज़ाहिर है कि यहाँ भी लड़ाई दिलचस्प हो गयी है . मायावती से नाराज़ वोटर के सामने भी अब समाजवादी पार्टी का मज़बूत विकल्प उपलब्ध है . इसी क्षेत्र से मायावती ने बहुत सारे भ्रष्ट मंत्रियों और बाहुबली लोगों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है . जबकि उन्हीं लोगों की सीट के बल पर पिछली बार उन्हें स्पष्ट बहुमत मिला था . ज़ाहिर है कि वे लोग इस बार मायावती को हराने के लिए माहौल बनायेगें . हालांकि मायावाती को हरा पाना बहुत आसान नहीं है क्योंकि उनका कोर वोटर हर हाल में उनके साथ रहेगा . लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि उन्हें हराने के लिए मुलायम सिंह भी एडी चोटी का जोर लगा रहे हैं और पूरी संभावना है कि मायावती से नाराज़ वोटर उनके साथ चला जाए .
पूर्वी उत्तर प्रदेश की भी हालत सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत ठीक नहीं है . शुरू में कहा जा रहा था कि वहां बीजेपी मज़बूत पड़ेगी क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश कलराज मिश्र ,राजनाथ सिंह, सूर्य प्रताप शाही, रमापति राम त्रिपाठी ,मुरली मनोहर जोशी आदि बड़े नेताओं की कर्मभूमि है . लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी की नई योजना में यह सारे लोग हाशिये पर आ गए हैं और २०१२ विधान सभा चुनाव के पहले तो बीजेपी की हालत बहुत कमज़ोर दिख रही है . ऐसी हालत में मुलायम सिंह यादव फिर भारी पड़ सकते हैं. लगता है कि जिन कारणों से २००७ में मायावती ने मुलायम सिंह को बेदखल किया था ,उन्हीं कारणों से इस बार मुलायम सिंह यादव भी मायावती को कमज़ोर करने में सफल होगें .
दिसंबर के आख़री हफ्ते में जो राजनीतिक तस्वीर उभर रही है उससे तो यही लगता है कि राज्य की राजनीतिक स्थिति ऐसी है जहां नेगेटिव वोट की खासी भूमिका रहेगी और जो भी अपने आप को मायावती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल हो जाएगा वही लखनऊ की गद्दी पर बैठ जाएगा. राज्य में कुछ वोट काटने वाली पार्टियां भी मैदान में हैं लेकिन लगता है कि जनता की जागरूकता में वृद्धि के मद्दे नज़र वोट काटने वाली पार्टियों की भूमिका भी बहुत कम रह जायेगी . यह अलग बात है कि कुछ उपचुनावों में पीस पार्टी जैसी कुछ छोटी पार्टियों ने अपनी ताक़त दिखायी थी.
उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव अब कुछ हफ़्तों के अंदर हो जायेगें. विधान सभा चुनाव के पहले के समीकरण इतनी तेज़ी से बदल रहे हैं कि किसी भी राजनीतिक समीक्षक के लिए नतीजों के बारे में इशारा कर पाना भी असंभव है . इसके बावजूद कुछ बातें बिलकुल तय हैं . मसलन सत्ताधारी पार्टी से नाराज़ लोगों की संख्या के बारे में कोई भी आकलन नहीं लगाया जा सकता . छः महीने पहले तक यह माना जा रहा था कि मुख्यमंत्री मायावती की पार्टी सबसे मज़बूत पार्टी थी, आज इस बात को कहने वालों की संख्या में खासी कमी आई है . जब अन्ना हजारे का रामलीला मैदान वाला कार्यक्रम चल रहा था और कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह की उत्तर प्रदेश में यात्रायें चल रही थीं तो लगने लगा था कि बीजेपी का कार्यकर्ता भी चुनाव में सक्रिय रूप से तैयार है . उत्तर प्रदेश में राज नाथ सिंह और कलराज मिश्र की बिरादरी वाले चुनाव की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं . लेकिन जब से बीजेपी ने राज्य के दिग्गजों को चुनाव मैदान में उतार कर उनकी औकात नापने की योजना बनायी है , बीजेपी के लोग निराश हैं . उनका कहना है कि जिन लोगों के कारण आज उत्तर प्रदेश में पार्टी के दुर्दशा हुई है उनको जनता दुबारा झेलने को तैयार नहीं है . उधर कलराज मिश्र और राजनाथ सिंह के जो समर्थक अपने नेताओं की हनक बनाने के लिए सक्रिय नज़र आ रहे थे , अब ठंडे पड़ गए हैं . लगता है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने ऐसी को योजना बना ली है कि बीजेपी के यू पी वाले नेताओं को जीरो कर के दोबारा पार्टी को मज़बूत बनाया जाये़गा. हो सकता है इसका आगे चल कर लाभ भी हो लेकिन फिलहाल तो आज बीजेपी बिलकुल पिछड़ी नज़र आ रही है . बीजेपी आलाकमान का एक और फैसला भी ख़ासा मनोरंजक माना जा रहा है . उमा भारती को यू पी में सक्रिय करके पता नहीं बीजेपी वाले क्या हासिल करना चाहते हैं . लेकिन उनकी इस रणनीति के कारण यू पी के बीजेपी नेता और कार्यकर्ता बहुत निराश हैं . सुना है कि उमा भारती राज्य की मुख्यमंत्री बनने की योजना भी बना रही है . जो भी हो ,कुल मिलाकर हालात ऐसे बन गए हैं कि लगता है कि बीजेपी लड़ाई से बाहर हो गयी है .
कांग्रेस ने अजित सिंह को साथ लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ सीटें जीतने के प्लान पर काम शुरू कर दिया है .हो सकता है कि इसका फायदा कांग्रेस को मिल जाए .केंद्र सरकार का बैकवर्ड मुसलमानों को दिया गया साढ़े चार प्रतिशत का आरक्षण भी एक मज़बूत चुनावी नुस्खा है .लोकसभा २००९ में भी देखा गया था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमान कांग्रेस की ओर खिंचे थे. अगर इस बार भी उन्हें लगा कि कांग्रेस बीजेपी को कमज़ोर करने में प्रभावी भूमिका निभाने जा रही है तो कांग्रेस के हाथ मुसलमानों के वोट आ सकते हैं . ऐसी हालत में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह और कांग्रेस मिल कर बहुजन समाज पार्टी को असरदार चुनौती दे सकेंगें . राज्य के बँटवारे के बारे में विधानसभा में प्रस्ताव पास करवाकर मायावाती ने कोशिश की थी कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में अजित सिंह समेत सभी पार्टियों को कमज़ोर कर दें लेकिन केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने जिस सिलसिलेवार तरीके से मायावती के प्रस्ताव का जवाब भेजा है उसके बाद अखबार पढने वाले लोगों की समझ में आ गया है कि मायावाती का इरादा चुनावी समीकरण बदलने का ही था और कुछ नहीं . वे केवल चुनावी नारा दे रही थीं . उनके प्रस्ताव में कोई दम नहीं था. ऐसी हालत में लगता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनको अजित सिंह और कांग्रेस के गठबंधन से ज़बरदस्त चुनौती मिलेगी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक और दिलचस्प बात सामने आ रही है . वह यह कि मुलायम सिंह यादव भी इस इलाके में कुछ क्षेत्रों में बहुत ही प्रभावशाली नज़र आ रहे हैं ,हालांकि पहले उनको यहाँ जीरो माना जा रहा था . ऐसा लगने लगा है कि कुछ इलाकों में वे मायावाती से नाराज़ वोटरों को अपनी तरफ खींच लेने में कामयाब हो जायेगें. अगर ऐसा हुआ तो उनका कोर समर्थक मुसलमान उनका साथ देने से कोई परहेज़ नहीं करेगा . कुल मिलाकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आज की जो राजनीतिक हालत है उसमें लगता है कि मुसलमानों की मदद की ताक़त के कारण कांग्रेस-अजित सिंह और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार मायावती की पार्टी के उम्मीदवारों को धकियाने में सफल हो जायेगें.
मध्य उत्तर प्रदेश में इस बार मुलायम सिंह यादव कोई भी चांस नहीं ले रहे हैं . उन्होंने यादव बहुल एटा में अपनी चुनावी सभाओं की शुरुआत की . उस चुनाव सभा के पहले और बाद में वहां आये लोगों से बात करने का मौक़ा मुझे मिला था . और ऐसी धारणा बनी थी कि हालांकि मुलायम सिंह की बहू फिरोजाबाद से चुनाव हार गयी थी लेकिन अब माहौल बदल गया है . पिछड़े और मुसलमान उनके साथ हैं जो उनकी पार्टी को उनके अपने इलाके में बढ़त दिलाने में सफल रहेगें.. यहाँ अजित सिंह का कोई प्रभाव नहीं है लेकिन कुछ इलाकों में कांग्रेस नज़र आ रही है लेकिन राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अपने इलाके में मुलायम सिंह यादव मायावती की पार्टी को सीधी चुनौती देगें . और शायद बहुत सारी सीटों पर बढ़त भी दर्ज करें. ज़ाहिर है कि जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में हुए घाटे को वे यहाँ बराबर कर लेगें .
सरकार बनाने की असली शक्तिपरीक्षा अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में होने वाली है . इस इलाके में अमेठी और रायबरेली में तो कांग्रेस मज़बूत है हालांकि वहां भी हर सीट पर उनकी जीत पक्की नहीं है . बीजेपी बहुत कमज़ोर है लेकिन मायावती का पक्का वोट बैंक यहाँ ताक़तवर है .करीब तीन महीने पहले जब यह लगता था कि बीजेपी मजबूती से लडेगी तो जानकारों ने लगभग ऐलान कर दिया था कि बीजेपी को हराने के लिए मुसलमान पूरी तरह से बहुजन समाज पार्टी के साथ चला जाएगा लेकिन अब ऐसा नहीं है . बीजेपी के बहुत कमज़ोर हो जाने का नतीजा यह है कि अब मुसलमान के पास कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में से किसी के भी साथ जाने का विकल्प मौजूद है . ज़ाहिर है कि यहाँ भी लड़ाई दिलचस्प हो गयी है . मायावती से नाराज़ वोटर के सामने भी अब समाजवादी पार्टी का मज़बूत विकल्प उपलब्ध है . इसी क्षेत्र से मायावती ने बहुत सारे भ्रष्ट मंत्रियों और बाहुबली लोगों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है . जबकि उन्हीं लोगों की सीट के बल पर पिछली बार उन्हें स्पष्ट बहुमत मिला था . ज़ाहिर है कि वे लोग इस बार मायावती को हराने के लिए माहौल बनायेगें . हालांकि मायावाती को हरा पाना बहुत आसान नहीं है क्योंकि उनका कोर वोटर हर हाल में उनके साथ रहेगा . लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि उन्हें हराने के लिए मुलायम सिंह भी एडी चोटी का जोर लगा रहे हैं और पूरी संभावना है कि मायावती से नाराज़ वोटर उनके साथ चला जाए .
पूर्वी उत्तर प्रदेश की भी हालत सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत ठीक नहीं है . शुरू में कहा जा रहा था कि वहां बीजेपी मज़बूत पड़ेगी क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश कलराज मिश्र ,राजनाथ सिंह, सूर्य प्रताप शाही, रमापति राम त्रिपाठी ,मुरली मनोहर जोशी आदि बड़े नेताओं की कर्मभूमि है . लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी की नई योजना में यह सारे लोग हाशिये पर आ गए हैं और २०१२ विधान सभा चुनाव के पहले तो बीजेपी की हालत बहुत कमज़ोर दिख रही है . ऐसी हालत में मुलायम सिंह यादव फिर भारी पड़ सकते हैं. लगता है कि जिन कारणों से २००७ में मायावती ने मुलायम सिंह को बेदखल किया था ,उन्हीं कारणों से इस बार मुलायम सिंह यादव भी मायावती को कमज़ोर करने में सफल होगें .
दिसंबर के आख़री हफ्ते में जो राजनीतिक तस्वीर उभर रही है उससे तो यही लगता है कि राज्य की राजनीतिक स्थिति ऐसी है जहां नेगेटिव वोट की खासी भूमिका रहेगी और जो भी अपने आप को मायावती के विकल्प के रूप में पेश करने में सफल हो जाएगा वही लखनऊ की गद्दी पर बैठ जाएगा. राज्य में कुछ वोट काटने वाली पार्टियां भी मैदान में हैं लेकिन लगता है कि जनता की जागरूकता में वृद्धि के मद्दे नज़र वोट काटने वाली पार्टियों की भूमिका भी बहुत कम रह जायेगी . यह अलग बात है कि कुछ उपचुनावों में पीस पार्टी जैसी कुछ छोटी पार्टियों ने अपनी ताक़त दिखायी थी.
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शेष नारायण सिंह
उस देश का वासी हूँ जिसमें किसान आत्महत्या करते हैं
शेष नारायण सिंह
किसानों की आत्मह्त्या देश की राजनीतिक पार्टियों को हमेशा मुश्किल में डालती रहती है .हालांकि मीडिया आम तौर पर किसानों की आत्महत्या को इग्नोर ही करता है लेकिन कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो इस मामले पर समय समय बहस का माहौल बनाते रहते हैं. देश के कुछ इलाकों में तो हालात बहुत ही बिगड़ गए हैं और लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि समस्या का हल किस तरह से निकाला जाए.हो सकता है कि इन्हीं कारणों से संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा ने समय निकाला और किसानों की आत्महत्या से पैदा हुए सवाल पर दो दिन की बहस कर डाली . बीजेपी के वेंकैया नायडू की नोटिस पर नियम १७६ के तहत अल्पकालिक चर्चा में बहुत सारे ऐसे मुद्दे सामने आये जिसके बाद कि संसद ने इस विषय पर बात को आगे बढाने का मन बनाया. बहस के दौरान सदस्यों ने मांग की कि इसी विषय पर चर्चा के लिए सदन का एक विशेष सत्र बुलाया जाए .बहस के अंत में इस बात पर सहमति बन गयी कि सदन की एक कमेटी बनायी जाए जो किसानों की आत्महत्या के कारणों पर गंभीर विचार विमर्श करे और सदन को जल्द से जल्द रिपोर्ट पेश करे.बाद में लोकसभा में सी पी एम के नेता और कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति के अध्यक्ष, बासुदेव आचार्य ने लोक सभा की स्पीकर से मिल कर आग्रह किया कि राज्यसभा की जो कमेटी बनने वाली है है उसमें लोकसभा के सदस्य भी शामिल हो जाएँ तो कमेटी एक जे पी सी की शक्ल अख्तियार कर लेगी.
राज्यसभा में बहस की शुरुआत करते हुए बीजेपी के वेंकैया नायडू ने किसानों की आत्मह्त्या और खेती के सामने पेश आ रही बाकी दिक्क़तों का सिलसिलेवार ज़िक्र किया . उन्होंने कृषि लागत और मूल्य आयोग की आलोचना की और कहा कि उस संस्था का तरीका वैज्ञानिक नहीं है .वह पुराने लागत के आंकड़ों की मदद से आज की फसल की कीमत तय करते हैं जिसकी वजह से किसान ठगा रह जाता है .फसल बीमा के विषय पर भी उन्होंने सरकार को सीधे तौर पर कटघरे में खड़ा किया . खेती की लागत की चीज़ों की कीमत लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की बात को कोई भी सही तरीके से नहीं सोच रहा है जिसके कारण इस देश में किसान तबाह होता जा रहा है .उन्होंने कहा कि जी डी पी में तो सात से आठ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर केवल २ प्रतिशत के आस पास है . उन्होंने कहा कि किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह बहुत कम है . उन्होंने इसके लिए भी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया .बहस में कई पार्टियों के सदस्यों ने हिस्सा लिया लेकिन नामजद सदस्य,मणिशंकर अय्यर ने किसानों की समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में लाने की कोशिश की. उन्होंने साफ़ कहा कि आत्महत्या करने वाले किसान वे नहीं होते जो खाद्यान्न की खेती में लगे होते हैं और आमतौर पर सरकारी समर्थन मूल्य पर निर्भर करते हैं . किसानों की आत्मह्त्या के ज़्यादातर मामले उन इलाकों से सुनने में आ रहे हैं जहां कैश क्राप उगाई जा रही है .कैश क्राप के लिए किसानों को लागत बहुत ज्यादा लगानी पड़ती है . कैश क्राप के किसान पर देश के अंदर हो रही उथल पुथल का उतना ज्यादा असर नहीं पड़ता जितना कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अर्थव्यवस्था के उतार-चढाव का पड़ता है . जब उनके माल की कीमत दुनिया के बाजारों में कम हो जाती है तो उसके सामने संकट पैदा हो जाता है .वह अपनी फसल में बहुत ज़्यादा लागत लगा चुका होता है. लागत का बड़ा हिस्सा क़र्ज़ के रूप में लिया गया होता है . माल को रोकना उसके बूते की बात नहीं होती. सरकार की गैर ज़िम्मेदारी का आलम यह है कि खेती के लिए क़र्ज़ लेने वाले किसान को छोटे उद्योगों के लिए मिलने वाले क़र्ज़ से ज्यादा ब्याज देना पड़ता है.एक बार भी अगर फसल खराब हो गयी तो दोबारा पिछली फसल के घाटे को संभालने के लिए वह अगली फसल में ज्यादा पूंजी लगा देता है . अगर लगातार दो तीन साल तक फसल खराब हो गयी तो मुसीबत आ जाती है. किसान क़र्ज़ के भंवरजाल में फंस जाता है . जिसके बाद उसके लिए बाकी ज़िंदगी बंधुआ मजदूर के रूप में क़र्ज़ वापस करते रहने के लिए काम करने का विकल्प रह जाता है . किसानों की आत्म हत्या के कारणों की तह में जाने पर पता चलता है कि ज़्यादातर समस्या यही है . राज्यसभा में बहस के दौरान यह साफ़ समझ में आ गया कि ज़्यादातर सदस्य आपने इलाकों के किसानों की समस्याओं का उल्लेख करने के एक मंच के रूप में ही समय बिताते रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने समस्या के शास्त्रीय पक्ष पर बात की ,सदन में भी और सदन के बाहर भी . उन्होंने सरकार की नीयत पर ही सवाल उठाया और कहा कि अपने जवाब में कृषिमंत्री ने जिस तरह से आंकड़ों का खेल किया है वह किसानों की आत्महत्या जैसे सवाल को कमज़ोर रोशनी में पेश करने का काम करता है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि २००७ के एक जवाब में सरकार ने कहा था कि नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा किसानों की आत्महत्या के मामले में ही सही आंकड़ा है जबकि जब राज्यसभा में इस विषय पर हुई दो दिन की बहस का जवाब केन्द्रीय कृषि मंत्री महोदय दे रहे थे तो उन्होंने राज्य सरकारों से मिले आंकड़ों का हवाला दिया .सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि यह सरकार की गलती है . कोई भी मुख्यमंत्री या राज्य सरकार आमतौर पर यह स्वीकार करने में संकोच करती है कि उसके राज्य में किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं.. उन्होंने उन अर्थशास्त्रियों को भी आड़े हाथों लिया जो आर्थिक सुधारों के बल पर देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने की कोशिश कर रहे हैं .सीताराम ने साफ़ कहा कि जब तक इस देश के किसान खुशहाल नहीं होगा तह तह अर्थव्यवस्था में किसी तरह की तरक्की के सपने देखना बेमतलब है .उन्होंने साफ़ कहा कि जब तक खेती में सरकारी निवेश नहीं बढाया जाएगा, भण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का बंदोबस्त नहीं होगा तब तक इस देश में किसान को वही कुछ झेलना पड़ेगा जो अभी वह झेल रहा है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर खेती से जुडी हर लाभकारी स्कीम को एम एन सी के हवाले करने की जो योजना सरकारी चर्चाओं में सुनने में आ रही है वह बहुत ही चिंताकारक है.
एक दिन की बहस के बाद जब कृषिमंत्री शरद पवार ने जवाब दिया तो लगभग तस्वीर साफ़ हो गयी कि सरकार इतने अहम मसले पर भी लीपापोती का काम करने के चक्कर में है .सरकार की तरफ से कृषि मंत्री ने एक हैरत अंगेज़ बात भी कुबूल कर डाली . उन्होंने कहा कि इस देश में २७ प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो खेती को लाभदायक नहीं . बाद में जनता दल ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने कहा कि कृषिमंत्री के बयान से लगता है कि २७ प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं . उन्होंने कहा कि यह २७ प्रतिशत किसान का मतलब यह है कि देश के करीब १७ करोड़ किसान खेती से पिंड छुडाना चाहते हैं . यह बात बहुत ही चिंता का कारण है .भारत एक कृषिप्रधान देश है और यहाँ आबादी का एक बड़ा हिस्सा खेती से अलग होना चाहता है. कृषिमंत्री ने इस बात को भी स्वीकार किया कि रासायनिक खादों को भी किसानों को उपलब्ध कराने में सरकार असमर्थ है . उन्होंने कहा कि दुनिया के कई देशों में खाद उत्पादन करने वाली बड़ी कंपनियों ने गिरोह बना रखा है और वे भारत सरकार से मनमानी कीमतें वसूल कर रहे हैं . सरकार ऐसी हालत में मजबूर है . उन्होंने इस बात पार भी लाचारी दिखाई कि सरकार किसानों को सूदखोरों के जाल में जाने से नहीं बचा सकती . बहरहाल सरकार की लाचारी भरे जवाब के बाद यह साफ़ हो गया है कि इस देश में किसान को कोई भी राजनीतिक या सरकारी समर्थन मिलने वाला नहीं है. किसान को इस सरकार ने रामभरोसे छोड़ दिया है .
किसानों की आत्मह्त्या देश की राजनीतिक पार्टियों को हमेशा मुश्किल में डालती रहती है .हालांकि मीडिया आम तौर पर किसानों की आत्महत्या को इग्नोर ही करता है लेकिन कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो इस मामले पर समय समय बहस का माहौल बनाते रहते हैं. देश के कुछ इलाकों में तो हालात बहुत ही बिगड़ गए हैं और लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि समस्या का हल किस तरह से निकाला जाए.हो सकता है कि इन्हीं कारणों से संसद के शीतकालीन सत्र में राज्यसभा ने समय निकाला और किसानों की आत्महत्या से पैदा हुए सवाल पर दो दिन की बहस कर डाली . बीजेपी के वेंकैया नायडू की नोटिस पर नियम १७६ के तहत अल्पकालिक चर्चा में बहुत सारे ऐसे मुद्दे सामने आये जिसके बाद कि संसद ने इस विषय पर बात को आगे बढाने का मन बनाया. बहस के दौरान सदस्यों ने मांग की कि इसी विषय पर चर्चा के लिए सदन का एक विशेष सत्र बुलाया जाए .बहस के अंत में इस बात पर सहमति बन गयी कि सदन की एक कमेटी बनायी जाए जो किसानों की आत्महत्या के कारणों पर गंभीर विचार विमर्श करे और सदन को जल्द से जल्द रिपोर्ट पेश करे.बाद में लोकसभा में सी पी एम के नेता और कृषि मंत्रालय की स्थायी समिति के अध्यक्ष, बासुदेव आचार्य ने लोक सभा की स्पीकर से मिल कर आग्रह किया कि राज्यसभा की जो कमेटी बनने वाली है है उसमें लोकसभा के सदस्य भी शामिल हो जाएँ तो कमेटी एक जे पी सी की शक्ल अख्तियार कर लेगी.
राज्यसभा में बहस की शुरुआत करते हुए बीजेपी के वेंकैया नायडू ने किसानों की आत्मह्त्या और खेती के सामने पेश आ रही बाकी दिक्क़तों का सिलसिलेवार ज़िक्र किया . उन्होंने कृषि लागत और मूल्य आयोग की आलोचना की और कहा कि उस संस्था का तरीका वैज्ञानिक नहीं है .वह पुराने लागत के आंकड़ों की मदद से आज की फसल की कीमत तय करते हैं जिसकी वजह से किसान ठगा रह जाता है .फसल बीमा के विषय पर भी उन्होंने सरकार को सीधे तौर पर कटघरे में खड़ा किया . खेती की लागत की चीज़ों की कीमत लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की बात को कोई भी सही तरीके से नहीं सोच रहा है जिसके कारण इस देश में किसान तबाह होता जा रहा है .उन्होंने कहा कि जी डी पी में तो सात से आठ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर केवल २ प्रतिशत के आस पास है . उन्होंने कहा कि किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह बहुत कम है . उन्होंने इसके लिए भी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया .बहस में कई पार्टियों के सदस्यों ने हिस्सा लिया लेकिन नामजद सदस्य,मणिशंकर अय्यर ने किसानों की समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में लाने की कोशिश की. उन्होंने साफ़ कहा कि आत्महत्या करने वाले किसान वे नहीं होते जो खाद्यान्न की खेती में लगे होते हैं और आमतौर पर सरकारी समर्थन मूल्य पर निर्भर करते हैं . किसानों की आत्मह्त्या के ज़्यादातर मामले उन इलाकों से सुनने में आ रहे हैं जहां कैश क्राप उगाई जा रही है .कैश क्राप के लिए किसानों को लागत बहुत ज्यादा लगानी पड़ती है . कैश क्राप के किसान पर देश के अंदर हो रही उथल पुथल का उतना ज्यादा असर नहीं पड़ता जितना कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अर्थव्यवस्था के उतार-चढाव का पड़ता है . जब उनके माल की कीमत दुनिया के बाजारों में कम हो जाती है तो उसके सामने संकट पैदा हो जाता है .वह अपनी फसल में बहुत ज़्यादा लागत लगा चुका होता है. लागत का बड़ा हिस्सा क़र्ज़ के रूप में लिया गया होता है . माल को रोकना उसके बूते की बात नहीं होती. सरकार की गैर ज़िम्मेदारी का आलम यह है कि खेती के लिए क़र्ज़ लेने वाले किसान को छोटे उद्योगों के लिए मिलने वाले क़र्ज़ से ज्यादा ब्याज देना पड़ता है.एक बार भी अगर फसल खराब हो गयी तो दोबारा पिछली फसल के घाटे को संभालने के लिए वह अगली फसल में ज्यादा पूंजी लगा देता है . अगर लगातार दो तीन साल तक फसल खराब हो गयी तो मुसीबत आ जाती है. किसान क़र्ज़ के भंवरजाल में फंस जाता है . जिसके बाद उसके लिए बाकी ज़िंदगी बंधुआ मजदूर के रूप में क़र्ज़ वापस करते रहने के लिए काम करने का विकल्प रह जाता है . किसानों की आत्म हत्या के कारणों की तह में जाने पर पता चलता है कि ज़्यादातर समस्या यही है . राज्यसभा में बहस के दौरान यह साफ़ समझ में आ गया कि ज़्यादातर सदस्य आपने इलाकों के किसानों की समस्याओं का उल्लेख करने के एक मंच के रूप में ही समय बिताते रहे. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने समस्या के शास्त्रीय पक्ष पर बात की ,सदन में भी और सदन के बाहर भी . उन्होंने सरकार की नीयत पर ही सवाल उठाया और कहा कि अपने जवाब में कृषिमंत्री ने जिस तरह से आंकड़ों का खेल किया है वह किसानों की आत्महत्या जैसे सवाल को कमज़ोर रोशनी में पेश करने का काम करता है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि २००७ के एक जवाब में सरकार ने कहा था कि नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा किसानों की आत्महत्या के मामले में ही सही आंकड़ा है जबकि जब राज्यसभा में इस विषय पर हुई दो दिन की बहस का जवाब केन्द्रीय कृषि मंत्री महोदय दे रहे थे तो उन्होंने राज्य सरकारों से मिले आंकड़ों का हवाला दिया .सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि यह सरकार की गलती है . कोई भी मुख्यमंत्री या राज्य सरकार आमतौर पर यह स्वीकार करने में संकोच करती है कि उसके राज्य में किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं.. उन्होंने उन अर्थशास्त्रियों को भी आड़े हाथों लिया जो आर्थिक सुधारों के बल पर देश की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने की कोशिश कर रहे हैं .सीताराम ने साफ़ कहा कि जब तक इस देश के किसान खुशहाल नहीं होगा तह तह अर्थव्यवस्था में किसी तरह की तरक्की के सपने देखना बेमतलब है .उन्होंने साफ़ कहा कि जब तक खेती में सरकारी निवेश नहीं बढाया जाएगा, भण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का बंदोबस्त नहीं होगा तब तक इस देश में किसान को वही कुछ झेलना पड़ेगा जो अभी वह झेल रहा है . उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर खेती से जुडी हर लाभकारी स्कीम को एम एन सी के हवाले करने की जो योजना सरकारी चर्चाओं में सुनने में आ रही है वह बहुत ही चिंताकारक है.
एक दिन की बहस के बाद जब कृषिमंत्री शरद पवार ने जवाब दिया तो लगभग तस्वीर साफ़ हो गयी कि सरकार इतने अहम मसले पर भी लीपापोती का काम करने के चक्कर में है .सरकार की तरफ से कृषि मंत्री ने एक हैरत अंगेज़ बात भी कुबूल कर डाली . उन्होंने कहा कि इस देश में २७ प्रतिशत किसान ऐसे हैं जो खेती को लाभदायक नहीं . बाद में जनता दल ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने कहा कि कृषिमंत्री के बयान से लगता है कि २७ प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं . उन्होंने कहा कि यह २७ प्रतिशत किसान का मतलब यह है कि देश के करीब १७ करोड़ किसान खेती से पिंड छुडाना चाहते हैं . यह बात बहुत ही चिंता का कारण है .भारत एक कृषिप्रधान देश है और यहाँ आबादी का एक बड़ा हिस्सा खेती से अलग होना चाहता है. कृषिमंत्री ने इस बात को भी स्वीकार किया कि रासायनिक खादों को भी किसानों को उपलब्ध कराने में सरकार असमर्थ है . उन्होंने कहा कि दुनिया के कई देशों में खाद उत्पादन करने वाली बड़ी कंपनियों ने गिरोह बना रखा है और वे भारत सरकार से मनमानी कीमतें वसूल कर रहे हैं . सरकार ऐसी हालत में मजबूर है . उन्होंने इस बात पार भी लाचारी दिखाई कि सरकार किसानों को सूदखोरों के जाल में जाने से नहीं बचा सकती . बहरहाल सरकार की लाचारी भरे जवाब के बाद यह साफ़ हो गया है कि इस देश में किसान को कोई भी राजनीतिक या सरकारी समर्थन मिलने वाला नहीं है. किसान को इस सरकार ने रामभरोसे छोड़ दिया है .
Wednesday, December 21, 2011
किसानों की आत्म ह्त्या के मामले में सरकार आंकड़ों की बाज़ीगरी कर रही है.
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,२० दिसंबर. किसानों की आत्महत्या के मामले में राज्यसभा में दो दिन की बहस हुई लेकिन घूम फिर कर आमला सतही स्तर पर ही रह गा . कृषिमंत्री का जवाब ऐसा था जिस से जादा तर सदस्य निराश हुए और आखिर में वाक आउट तक किया . सदस्यों का आरोप था कि सरकार की ओर से आंकड़ों के ज़रिये बात को टालने की कोशिश की गयी. बहस की शुरुआत में ही यह तय हो गया था कि इस मामले को राष्ट्रीय मह्त्व का मानकर बात को आगे बढाया जाएगा लेकिन कृषिमंत्री शरद पवार बार बार अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल के आंकड़ों से आज के आंकड़ों की तुलना करके बात को टालने की कोशिश करते नज़र आये. सदस्यों की मांग थी कि इस विषय पर बहस के लिए एक विशेष सत्र बुलाया जाए लेकिन आखीर में यह तय पाया कि सदन की एक कमेटी बनाकर मुद्दे की जांच के जाए.
मूल प्रस्ताव भाजपा के वेंकैया नायडू का था लेकिन बहस में सबसे अहम हस्तक्षेप कांग्रेस के मणि शंकर अईय्यर , समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी का रहा . मणि शंकर अईय्यर ने कहा कि किसानों की आत्म ह्त्या का मामला ऐसा है जिसमें अधिकतम समर्थन मूल्य जैसे सरकारी तरीकों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है .अधिकतम समर्थन मूल्य का प्रावधान खाद्यान्न की समस्या को हल करने के लिए चलाया गया जबकि आत्म ह्त्या करने वाला किसान आम तौर पर कैश क्राप वाला किसान होता है .उसको जो बीज मिलता है वह बहुत ही महंगा होता है जबकि उसकी फसल की कीमत के बाए में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. नतीजा यह होता है कि किसान महंगे बीज लेता है और , कैश क्राप के लिए अन्य महंगे सामान का इस्तेमाल करता है लेकिन जब फसल फेल हो जाई है तो वह क़र्ज़ के जाल में फंस जाता है. अगले साल भी वह ज़्यादा कर्ज़ लेकर फसल उगाता है लेकिन एक मुकाम ऐसा आता है जब वह क़र्ज़ के भंवर से नहीं निकल सकता और अपना जीवन ही ख़त्म कर लेता है .
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीता राम येचुरी ने कहा कि अपने जवाब में कृषि मंत्री ने आंकड़ों का गलत इस्तेमाल किया है .उन्होंने कहा कि २००७ तक तो वे राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के आंकड़ों का प्रयोग करते थे लेकिन आज उन्होंने राज्यों से मिले हुए किसानों की आत्म ह्त्या के आंकड़ों का प्रयोग किया है . ज़ाहिर है कि कोई भी राज्य यह स्वीकार नहीं करता कि उसके राज्य में किसान आत्मह्त्या कर रहे हैं या भूख से मर रहे हैं . इस प्रकार उनके आंकड़े सही तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं . उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि अब संसद की एक कमेटी आत्म हत्या के कारणों का पता लगाएगी जिसके बाद संसद उस पर विचार करेगी.
समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव ने सुझाव दिया कि किसानों को मुफलिसी से बचाने के लिए ज़रूरी है कि उनको पशु पालन की तरफ जाने के लिए उत्साहित किया जाए. उनका कहना था कि इस से खेती में भी सुधार होगा और गामीण आबादी के लोग आत्म निर्भर भी बन सकेगें .जे डी ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह केवल आंकड़ों की बाज़ीगरी कर रही है . उन्होंने कृषि मंत्री से अनुरोध किया कि वे गद्दी छोड़ दें . बहरहाल किसानों की आत्महत्याओं का मामला अब संसद की नज़र में है . और जिन नेताओं से भी बात हुई सब इस बात की उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इस मामले पर सरकार और संसद कुछ गंभीर काम कर सकेगी .
नई दिल्ली ,२० दिसंबर. किसानों की आत्महत्या के मामले में राज्यसभा में दो दिन की बहस हुई लेकिन घूम फिर कर आमला सतही स्तर पर ही रह गा . कृषिमंत्री का जवाब ऐसा था जिस से जादा तर सदस्य निराश हुए और आखिर में वाक आउट तक किया . सदस्यों का आरोप था कि सरकार की ओर से आंकड़ों के ज़रिये बात को टालने की कोशिश की गयी. बहस की शुरुआत में ही यह तय हो गया था कि इस मामले को राष्ट्रीय मह्त्व का मानकर बात को आगे बढाया जाएगा लेकिन कृषिमंत्री शरद पवार बार बार अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल के आंकड़ों से आज के आंकड़ों की तुलना करके बात को टालने की कोशिश करते नज़र आये. सदस्यों की मांग थी कि इस विषय पर बहस के लिए एक विशेष सत्र बुलाया जाए लेकिन आखीर में यह तय पाया कि सदन की एक कमेटी बनाकर मुद्दे की जांच के जाए.
मूल प्रस्ताव भाजपा के वेंकैया नायडू का था लेकिन बहस में सबसे अहम हस्तक्षेप कांग्रेस के मणि शंकर अईय्यर , समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी का रहा . मणि शंकर अईय्यर ने कहा कि किसानों की आत्म ह्त्या का मामला ऐसा है जिसमें अधिकतम समर्थन मूल्य जैसे सरकारी तरीकों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है .अधिकतम समर्थन मूल्य का प्रावधान खाद्यान्न की समस्या को हल करने के लिए चलाया गया जबकि आत्म ह्त्या करने वाला किसान आम तौर पर कैश क्राप वाला किसान होता है .उसको जो बीज मिलता है वह बहुत ही महंगा होता है जबकि उसकी फसल की कीमत के बाए में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. नतीजा यह होता है कि किसान महंगे बीज लेता है और , कैश क्राप के लिए अन्य महंगे सामान का इस्तेमाल करता है लेकिन जब फसल फेल हो जाई है तो वह क़र्ज़ के जाल में फंस जाता है. अगले साल भी वह ज़्यादा कर्ज़ लेकर फसल उगाता है लेकिन एक मुकाम ऐसा आता है जब वह क़र्ज़ के भंवर से नहीं निकल सकता और अपना जीवन ही ख़त्म कर लेता है .
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीता राम येचुरी ने कहा कि अपने जवाब में कृषि मंत्री ने आंकड़ों का गलत इस्तेमाल किया है .उन्होंने कहा कि २००७ तक तो वे राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के आंकड़ों का प्रयोग करते थे लेकिन आज उन्होंने राज्यों से मिले हुए किसानों की आत्म ह्त्या के आंकड़ों का प्रयोग किया है . ज़ाहिर है कि कोई भी राज्य यह स्वीकार नहीं करता कि उसके राज्य में किसान आत्मह्त्या कर रहे हैं या भूख से मर रहे हैं . इस प्रकार उनके आंकड़े सही तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं . उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि अब संसद की एक कमेटी आत्म हत्या के कारणों का पता लगाएगी जिसके बाद संसद उस पर विचार करेगी.
समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव ने सुझाव दिया कि किसानों को मुफलिसी से बचाने के लिए ज़रूरी है कि उनको पशु पालन की तरफ जाने के लिए उत्साहित किया जाए. उनका कहना था कि इस से खेती में भी सुधार होगा और गामीण आबादी के लोग आत्म निर्भर भी बन सकेगें .जे डी ( यू ) के शिवानन्द तिवारी ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह केवल आंकड़ों की बाज़ीगरी कर रही है . उन्होंने कृषि मंत्री से अनुरोध किया कि वे गद्दी छोड़ दें . बहरहाल किसानों की आत्महत्याओं का मामला अब संसद की नज़र में है . और जिन नेताओं से भी बात हुई सब इस बात की उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इस मामले पर सरकार और संसद कुछ गंभीर काम कर सकेगी .
Sunday, December 18, 2011
अदम गोंडवी की एक कविता
काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय को एक जगह दफ्तर तक नसीब नहीं
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, १६ दिसंबर. भारत सरकार में उन विभागों की कोई औकात नहीं है जिनका किसी कारपोरेट जगत से कोई लेना देना न हो.हालांकि सरकार की नज़र में पंचायती राज मंत्रालय को बहुत महत्व दिया जाता है लेकिन लगता है कि वह सब कुछ ज़बानी जमा खर्च ही है . नई दिल्ली में जहां बाकी मंत्रालयों को बहुत ही अच्छी जगहों पर दफ्तर दिए गए हैं वहीं पंचायती राज मंत्रालय के पास सही तरीके का दफ्तर भी नहीं है . पंचायती राज मंत्री वी किशोर चन्द्र देव हैं जिनको शास्त्री भवन में दफ्तर मिला है लेकिन उनके मंत्रालय के सभी बड़े अफसर उनसे बहुत दूरी पर बैठाए गए हैं . कोई कृषि भवन में है तो कोई कनाट प्लेस की एक कमर्शियल बिल्डिंग में टाइम पास कर रहा है .पंचायती राज विभाग के कुछ अफसर पटेल चौक पर बने हुए सरदार पटेल भवन में भी बैठते हैं .
आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी ने देश के विकास में पंचायती राज को बहुत ही मह्त्व दिया था . उनके वारिस जवाहर लाल नेहरू ने तो पंचायती राज को महत्व दिया लेकिन उनके जाने के बाद ही हालात बहुत बिगड़ गए . जब राजीव गाँधी के प्रयास से संविधान में ७३ वां और ७४ वां संशोधन करके पंचायती राज को अहमियत दी गयी तो उम्मीद की जा रही थी कि शायद हालात कुछ सुधरेगें . लेकिन जिस तरह से इतने अहम मंत्रालय को केंद्र सरकार एक जगह दफ्तर देने में नाकाम रही है उस से लगता है कि मौजूदा सरकार ने पंचायती राज को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया है . आज भी मनरेगा जैसी मह्त्वप्पूर्ण योजनाओं को लागू करवाने होने में पंचायती राज की संस्थाएं बहुत ही अहम भूमिका निभा रही हैं. लेकिन उस मत्रालय को केंद्र सरकार के नज़र में एक फालतू महकमे से ज्यादा के हैसियत नहीं मिल रही है.
पंचायती राज मंत्रालय के मंत्री का दफ्तर शास्त्री भवन में है जबकि मंत्रालय की सबसे बड़ी अफसर ,मंत्रालय की सचिव , किरण धींगरा का दफ्तर कृषि भवन में है . उस दफ्तर को भी एक दिन सम्पदा निदेशालय का एक डाइरेक्टर खाली करवाने पंहुच गया था. उसने सचिव के स्टाफ में काम करने वाले अफसरों से कहा कि मैडम का सामान निकाल लो . अफसरों ने कहा कि भाई तुम ही सामान निकाल कर सड़क पर रख दो. बहरहाल वह अफसर चला तो गया है लेकिन अभी ख़तरा टला नहीं है . उस देश के एकया हालात कही जायेगी जहां सेक्रेटरी स्तर के अफसर को बिना कोई वैकल्पिक जगह दिए दफ्तर खाली करने को कहा जा रहा है .
किरण धींगरा के बाद का रैंक अतिरिक्त सचिव का है , .मंत्रालय के एक अतिरिक्त सचिव पटेल चौक पर सरदार पटेल भवन में बैठते हैं जबकि दूसरे कनाट प्लेस में जीवन प्रकाश बिल्डिंग में . जो लोग सरकारी दफ्तरों के काम काज के तरीके से वाकिफ हैं उन्हें मालूम है कि सरकार के टाप अधिकारी किसी भी फैसले पर पंहुचने के लिए आपस में सलाह करते रहते हैं . अब अगर किरण धींगरा को अपने मातहत अफसरों से बात करनी है तो एक अफसर कनाट प्लेस से आएगा तो दूसरा पटेल चौक से. ज़ाहिर है कि सरकार की प्राथमिकता सूची में पंचायती राज का जो मुकाम है , उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि इस मंत्रालय को दिल्ली में कोई सम्मान जनक दफतर मिल पायेगा.
नई दिल्ली, १६ दिसंबर. भारत सरकार में उन विभागों की कोई औकात नहीं है जिनका किसी कारपोरेट जगत से कोई लेना देना न हो.हालांकि सरकार की नज़र में पंचायती राज मंत्रालय को बहुत महत्व दिया जाता है लेकिन लगता है कि वह सब कुछ ज़बानी जमा खर्च ही है . नई दिल्ली में जहां बाकी मंत्रालयों को बहुत ही अच्छी जगहों पर दफ्तर दिए गए हैं वहीं पंचायती राज मंत्रालय के पास सही तरीके का दफ्तर भी नहीं है . पंचायती राज मंत्री वी किशोर चन्द्र देव हैं जिनको शास्त्री भवन में दफ्तर मिला है लेकिन उनके मंत्रालय के सभी बड़े अफसर उनसे बहुत दूरी पर बैठाए गए हैं . कोई कृषि भवन में है तो कोई कनाट प्लेस की एक कमर्शियल बिल्डिंग में टाइम पास कर रहा है .पंचायती राज विभाग के कुछ अफसर पटेल चौक पर बने हुए सरदार पटेल भवन में भी बैठते हैं .
आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी ने देश के विकास में पंचायती राज को बहुत ही मह्त्व दिया था . उनके वारिस जवाहर लाल नेहरू ने तो पंचायती राज को महत्व दिया लेकिन उनके जाने के बाद ही हालात बहुत बिगड़ गए . जब राजीव गाँधी के प्रयास से संविधान में ७३ वां और ७४ वां संशोधन करके पंचायती राज को अहमियत दी गयी तो उम्मीद की जा रही थी कि शायद हालात कुछ सुधरेगें . लेकिन जिस तरह से इतने अहम मंत्रालय को केंद्र सरकार एक जगह दफ्तर देने में नाकाम रही है उस से लगता है कि मौजूदा सरकार ने पंचायती राज को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया है . आज भी मनरेगा जैसी मह्त्वप्पूर्ण योजनाओं को लागू करवाने होने में पंचायती राज की संस्थाएं बहुत ही अहम भूमिका निभा रही हैं. लेकिन उस मत्रालय को केंद्र सरकार के नज़र में एक फालतू महकमे से ज्यादा के हैसियत नहीं मिल रही है.
पंचायती राज मंत्रालय के मंत्री का दफ्तर शास्त्री भवन में है जबकि मंत्रालय की सबसे बड़ी अफसर ,मंत्रालय की सचिव , किरण धींगरा का दफ्तर कृषि भवन में है . उस दफ्तर को भी एक दिन सम्पदा निदेशालय का एक डाइरेक्टर खाली करवाने पंहुच गया था. उसने सचिव के स्टाफ में काम करने वाले अफसरों से कहा कि मैडम का सामान निकाल लो . अफसरों ने कहा कि भाई तुम ही सामान निकाल कर सड़क पर रख दो. बहरहाल वह अफसर चला तो गया है लेकिन अभी ख़तरा टला नहीं है . उस देश के एकया हालात कही जायेगी जहां सेक्रेटरी स्तर के अफसर को बिना कोई वैकल्पिक जगह दिए दफ्तर खाली करने को कहा जा रहा है .
किरण धींगरा के बाद का रैंक अतिरिक्त सचिव का है , .मंत्रालय के एक अतिरिक्त सचिव पटेल चौक पर सरदार पटेल भवन में बैठते हैं जबकि दूसरे कनाट प्लेस में जीवन प्रकाश बिल्डिंग में . जो लोग सरकारी दफ्तरों के काम काज के तरीके से वाकिफ हैं उन्हें मालूम है कि सरकार के टाप अधिकारी किसी भी फैसले पर पंहुचने के लिए आपस में सलाह करते रहते हैं . अब अगर किरण धींगरा को अपने मातहत अफसरों से बात करनी है तो एक अफसर कनाट प्लेस से आएगा तो दूसरा पटेल चौक से. ज़ाहिर है कि सरकार की प्राथमिकता सूची में पंचायती राज का जो मुकाम है , उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि इस मंत्रालय को दिल्ली में कोई सम्मान जनक दफतर मिल पायेगा.
Friday, December 16, 2011
१९७१ की विजय के असली हीरो बाबू जगजीवनराम ही थे.
शेष नारायण सिंह
१६ दिसंबर १९७१ को दोपहर बाद भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने लोकसभा में घोषणा कर दी कि ढाका अब एक स्वतंत्र देश की राजधानी है और बंगलादेश एक स्वतंत्र देश है . इस ऐलान के साथ ही एक नए राष्ट्र का जन्म हो चुका था . पाकिस्तान को ज़बरदस्त शिकस्त मिली थी और हमेशा के लिए सिद्ध हो चुका था कि भारत की सेना के सामने पाकिस्तान की फौज की कोई औकात नहीं है . इंदिरा गाँधी की उस घोषणा के ठीक पहले ढाका में पाकिस्तानी सेना ने भारत के पूर्वी कमांड के मुख्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के सामने समर्पण कर दिया था . उनके साथ करीब एक लाख पाकिस्तानी सैनिक भी युद्ध बंदी के रूप में भारत के कब्जे में आ गए थे .तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में आतंक का राज कायम करने के लिए पाकिस्तानी फौज ने वहां कुछ ऐसे संगठन बना रखे थे जो फौज की मदद करते थे और बंगलादेश में मानवीय अत्याचार के मुख्य खलनायक थे. इस संगठनों में अल बदर ,रजाकार और अल शम्स प्रमुख थे . १४ दिन तक चली लड़ाई के बाद भारत की सेना ने दुनिया के सामने यह साबित कर दिया था कि एक महान राष्ट्र के रूप में भारत ने पहला बहुत बड़ा क़दम उठा लिया है . पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में स्थापित हुए बंगलादेश को एक स्वतंत्र देश के रूप में भारत पहले की मान्यता दे चुका था .
बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई तो तब से ही शुरू हो गयी थी जब याह्या खां और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की जोड़ी ने स्पष्ट बहुमत से आम चुनाव जीतने वाली शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया था . लेकिन युद्ध में भारत उस वक़्त शामिल हो गया जब ३ दिसंबर को पाकिसानी वायु सेना ने भारत के करीब १२ सैनिक हवाई अड्डों को तबाह कर देने के उद्देश्य से उनपर बमबारी की . आजकल की तरह ही संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था. . पाकिस्तानी हमले का जवाब तो तुरंत ही दे दिया गया लेकिन अगले दिन लोकसभा में तत्कालीन रक्षामंत्री , बाबू जगजीवन राम ने पाकिस्तानी हमले की जानकारी दी. उन दिनों राष्ट्र से सम्बंधित किसी भी बड़ी घटना को संसद में सबसे पहले बताने की परंपरा थी. आजकल की तरह नहीं था कि ज़्यादातर अहम फैसले संसद के सत्र में होने के बावजूद भी संसद के बाहर ही किये जाते हैं .
अब तक बंगलादेश के जन्म और भारत की पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तानी फौज के हमलों की चर्चा में ज़्यादातर सेना के बारे में ही उल्लेख होता रहा है . इस बात में दो राय नहीं है कि भारतीय या सेना के लिए १९७१ की लड़ाई एक बहुत बड़ा मील का पत्थर है लेकिन एक बात और भी सच है कि उस दौर के राजनीतिक नेतृत्व का सारी दुनिया ने लोहा माना था. भारत में दिसमबर १९७१ में विपक्ष नाम की कोई चीज़ नहीं थी. . लोकसभा में तत्कालीन जनसंघ के नेता ,अटल बिहारी वाजपेयी ने जब कहा कि अब भारत में एक ही पार्टी है और वह है भारत राष्ट्र और एक ही नेता है और वह है इंदिरा गाँधी तो कमोबेश वे भारत की एक बड़ी आबादी की भावनाओं को अभिव्यक्ति दे रहे थे . भारत में राजनीतिक विकास की एक अहम कड़ी के रूप में भी दिसंबर १९७१ की घटनाओं को देखा जाता है . महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के जाने के बाद पहली बार भारत के राजनीतिक नेताओं की परीक्षा हो रहे एथी. आम तौर पर माना जाता है कि १९७१ की लड़ाई में जीत के बाद भारत सही मायनों में दुनिया के कूटनीतिक मंच पर अपनी हैसियत स्थापित करने में कामयाब हुआ था. वरना कभी तो १९६२ होता था तो कभी रबात से भारतीय प्रतिनिधि मंडल भगाया जाता था. कभी पूरी दुनिया में खाद्य सहायता के लिए भारत के नेता घूमते देखे जाते थे. लेकिन १९७१ ने सब कुछ बदल दिया . आम तौर पर १९७१ का श्रेय लगभग पूरी तरह से इंदिरा गांधी की राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता को दिया जाता है लेकिन यह पूरा सच नहीं है . बँगलादेश की मुक्ति के संग्राम में सभी राजनीतिक पार्टियां इंदिरा गाँधी के साथ थीं . इसलिए १९७१ की राजनीतिक बुलंदी में सब का हिस्सा है . कांग्रेस और सरकार के अंदर भी उस दौर के रक्षा मंत्री जगजीवन राम का योगदान अद्भुत है लेकिन अजीब बात है कि जब भी बंगलादेश की आज़ादी का ज़िक्र होता है तो उसमें बाबू जगजीवन राम का वैसा उल्लेख नहीं होता , जैसा होना चाहिए . आज कोशिश करेगें कि लोक सभा में ४ दिसम्बर और १६ दिसंबर १९७१ के बीच हुई चर्चा के माध्यम से तत्कालीन रक्षा मंत्री के राजनीतिक कौशल को रेखांकित किया जाए .क्योंकि मेरा यह विश्वास है कि १९७१ की विजय के असली हीरो बाबू जगजीवनराम ही थे. .
बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई , पाकिस्तान अत्याचार और पाकिस्तानी सेना के गैर ज़िम्मेदार तरीकों का लोक सभा में पहला व्यवस्थित उल्लेख १५ नवम्बर १९७१ के दिन हुआ जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद , एस एम बनर्जी ने पाकिस्तान की सेना की ओर से भारतीय इलाकों में गोलीबारी और उसकी एयर फ़ोर्स के भारतीय आसमान में अनधिकृत प्रवेश के बारे में नियम १९७ के तहत एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाया गया.एस एम बनर्जी के ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए रक्षा मंत्री जगजीव राम ने कहा कि पाकिस्तान के साथ हमारी सीमा पर तनाव की स्थिति वहां के सैनिक शासन और बँगलादेश के लोगों के बीच संघर्ष के कारण है . इस जवाब में बाबू जगजीवन राम ने सदन को विस्तार से बताया कि उस वक़्त की दक्षिण एशिया के हालात क्या थे . उसके अन्तर राष्ट्रीय सन्दर्भ क्या थे और पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान भारत के लिए कितनी मुसीबत बन चुके थे. भारत के खिलाफ पाकिस्तानी राष्ट्रपति याहया खां बार बार युद्ध की धमकी देते रहते थे.. राजस्थान, गुजरात और पंजाब में हमारी सीमा के बहुत करीब उन्होंने अपने सैनिकों को जमा कर दिया था . रक्षा मंत्री ने साफ़ कहा कि उस वक़्त सीमाओं पर हालात बहुत ही गंभीर थे. लेकिन रक्षा मंत्री ने आश्वासन दिया कि हम अपनी सीमा पर किसी भी हमले का जवाब देने के लिए तैयार हैं. और अगर लाई की नौबत आयी तो लड़ाई का मैदान हमारी ज़मीन पर नहीं होगा . हमारे सैनिक युद्धक्षेत्र को शत्रु की ज़मीन पर ही कायम करने का हौसला रखते हैं . इसी बहस में जनसंघ के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ शंका जताई . जवाब में रक्षा मंत्री ने जो कहा उस पर किसी भी भारतीय को गर्व होना चाहिए . उन्होंने कहा कि यह सच है कि पाकिस्तान हमारे इलाके में लगातार अतिक्रमण कर रहा है लेकिन मैंने स्पष्ट आदेश दे रखा है कि अगर कोई पाकिस्तानी विमान हमारी सीमा में दुश्मनी के इरादे से आये तो उसे मार गिराया जाए. बाबू जगजीवन राम ने कहा कि बंगलादेश की मुक्ति का संघर्ष चल रहा है .मुझे इस बात में कोई शक़ नहीं है कि बांग्लादेश के जिन नौजवानों ने अपनी माताओं और अपनी बहनों को अपमानित होते देखा है,जिन्होंने अपने निकट सम्बन्धियों की ह्त्या होते देखा है वे जानते हैं कि बंगलादेश को पूर्ण स्वाधीन करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
३ दिसंबर १९७१ को पाकिस्तान ने हमला कर दिया . उसी दिन शाम को इंदिरा गाँधी ने आकाशवाणी से देश को संबोधित किया और कहा कि ," आक्रमण का जवाब देना होगा.भारत के लोग इसका बहुत ही सहनशीलता से जवाब देगें .' अगले दिन ४ दिसंबर को शाम ५ बजकर ४० मिनट पर बाबू जगजीवन राम ने लोकसभा में एक विस्तृत बयान दिया और बताया कि पाकिसान ने हम पर युद्ध थोपा है . हमारे १२ हवाई अड्डों पर हमला किया गया है . उन्होंने सभी हवाई अड्डों के नाम भी बताये. अमृतसर ,पठानकोट, फरीदकोट श्रीनगर ,हलवारा,अम्बाला ,आगरा,उत्तरलाई ,जोधपुर,जामनगर,सिरसा और सरवाला के हवाई अड्डों पर बमबारी हुई थी. कोशिश यह थी कि भारतीय वायुसेना को पंगु बना दिया जाए .लेकिन हमारे सभी हवाई अड्डे बिलकुल सही हैं . भारतीय वायु सेना ने जवाबी कार्रवाई में रात ११.५० बजे पाकिस्तान के चंदेरी , शेरकोट ,सरगोधा,मुरीद,मियांवाली ,मसरूर ( कराची ) रिसालवाला ( रावलपिंडी )और चंगा मंगा ( लाहौर ) के हवाई अड्डों पर बम बरसाए . इसका फायदा ज़मीनी फौज को खूब मिल रहा है .इस बयान में बाबू जगजीवन राम ने पूरी जानकारी दी और राष्ट्र को संसद के ज़रिये आश्वस्त किया.
दिसंबर १९७१ देश के इतिहास में वह समय था जब कि जगजीवन राम के हर बयान को देश सांस रोक कर सुनता था. उन दिनों आज की तरह टेलिविज़न नहीं था और बाबू जी कभी भी संसद के सत्र में रहने पर कोई भी बड़ी बात संसद के बाहर नहीं कहते थे . ७ दिसंबर को उन्होंने फिर लोक सभा को युद्ध में हो रही प्रगति के बारे में विस्तार से जानकारी दी. उन्होंने बताया कि , " अब तक हमने ५२ पाकिस्तानी युद्धक विमान नष्ट किया है . ४ पाकिस्तानी पाइलट हमारे कब्जे में हैं . थल सेना ,वायु सेना और नौसेना मिलकर संयुक्त योजना के साथ लड़ाई लड़ रही हैं " १४ दिसंबर को उन्होंने फिर संसद को भरोसे में लिया और बताया कि ," आज हमारे ऊपर पाकिस्तान द्वारा थोपे गए युद्ध का ग्यारहवां दिन है.अपने आक्रमण का उद्देश्य प्राप्त करने में शत्रु पूरी तरह से नाकाम रहा है .पाकिस्तानी सेना को गहरा नुकसान हुआ है ." इसी बयान में जगजीवन राम ने बताया कि चारों दिशाओं से हमारे सैनिक ढाका की तरफ बढ़ रहे हैं .और वहां के कमान्डर फरमान अली को समर्पण करने के लिए सन्देश भेज दिया गया है .
उसके बाद तो बस १६ दिसंबर हुआ . इंदिरा गांधी ने लोकसभा में युद्ध के खात्मे का ऐलान किया और बंगलादेश नाम के स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र की विधिवत स्थापना हो गयी . लेकिन इस युद्ध में राजनीतिक और सैनिक नेतृत्व का श्रेय सबसे ज्यादा बाबू जगजीवन राम को दिया जाना चाहिए .सही मायनों में १९७१ की जीत के हीरो जगजीवन राम ही हैं .
१६ दिसंबर १९७१ को दोपहर बाद भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी ने लोकसभा में घोषणा कर दी कि ढाका अब एक स्वतंत्र देश की राजधानी है और बंगलादेश एक स्वतंत्र देश है . इस ऐलान के साथ ही एक नए राष्ट्र का जन्म हो चुका था . पाकिस्तान को ज़बरदस्त शिकस्त मिली थी और हमेशा के लिए सिद्ध हो चुका था कि भारत की सेना के सामने पाकिस्तान की फौज की कोई औकात नहीं है . इंदिरा गाँधी की उस घोषणा के ठीक पहले ढाका में पाकिस्तानी सेना ने भारत के पूर्वी कमांड के मुख्य कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा के सामने समर्पण कर दिया था . उनके साथ करीब एक लाख पाकिस्तानी सैनिक भी युद्ध बंदी के रूप में भारत के कब्जे में आ गए थे .तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में आतंक का राज कायम करने के लिए पाकिस्तानी फौज ने वहां कुछ ऐसे संगठन बना रखे थे जो फौज की मदद करते थे और बंगलादेश में मानवीय अत्याचार के मुख्य खलनायक थे. इस संगठनों में अल बदर ,रजाकार और अल शम्स प्रमुख थे . १४ दिन तक चली लड़ाई के बाद भारत की सेना ने दुनिया के सामने यह साबित कर दिया था कि एक महान राष्ट्र के रूप में भारत ने पहला बहुत बड़ा क़दम उठा लिया है . पूर्वी पाकिस्तान के इलाके में स्थापित हुए बंगलादेश को एक स्वतंत्र देश के रूप में भारत पहले की मान्यता दे चुका था .
बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई तो तब से ही शुरू हो गयी थी जब याह्या खां और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की जोड़ी ने स्पष्ट बहुमत से आम चुनाव जीतने वाली शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया था . लेकिन युद्ध में भारत उस वक़्त शामिल हो गया जब ३ दिसंबर को पाकिसानी वायु सेना ने भारत के करीब १२ सैनिक हवाई अड्डों को तबाह कर देने के उद्देश्य से उनपर बमबारी की . आजकल की तरह ही संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था. . पाकिस्तानी हमले का जवाब तो तुरंत ही दे दिया गया लेकिन अगले दिन लोकसभा में तत्कालीन रक्षामंत्री , बाबू जगजीवन राम ने पाकिस्तानी हमले की जानकारी दी. उन दिनों राष्ट्र से सम्बंधित किसी भी बड़ी घटना को संसद में सबसे पहले बताने की परंपरा थी. आजकल की तरह नहीं था कि ज़्यादातर अहम फैसले संसद के सत्र में होने के बावजूद भी संसद के बाहर ही किये जाते हैं .
अब तक बंगलादेश के जन्म और भारत की पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तानी फौज के हमलों की चर्चा में ज़्यादातर सेना के बारे में ही उल्लेख होता रहा है . इस बात में दो राय नहीं है कि भारतीय या सेना के लिए १९७१ की लड़ाई एक बहुत बड़ा मील का पत्थर है लेकिन एक बात और भी सच है कि उस दौर के राजनीतिक नेतृत्व का सारी दुनिया ने लोहा माना था. भारत में दिसमबर १९७१ में विपक्ष नाम की कोई चीज़ नहीं थी. . लोकसभा में तत्कालीन जनसंघ के नेता ,अटल बिहारी वाजपेयी ने जब कहा कि अब भारत में एक ही पार्टी है और वह है भारत राष्ट्र और एक ही नेता है और वह है इंदिरा गाँधी तो कमोबेश वे भारत की एक बड़ी आबादी की भावनाओं को अभिव्यक्ति दे रहे थे . भारत में राजनीतिक विकास की एक अहम कड़ी के रूप में भी दिसंबर १९७१ की घटनाओं को देखा जाता है . महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के जाने के बाद पहली बार भारत के राजनीतिक नेताओं की परीक्षा हो रहे एथी. आम तौर पर माना जाता है कि १९७१ की लड़ाई में जीत के बाद भारत सही मायनों में दुनिया के कूटनीतिक मंच पर अपनी हैसियत स्थापित करने में कामयाब हुआ था. वरना कभी तो १९६२ होता था तो कभी रबात से भारतीय प्रतिनिधि मंडल भगाया जाता था. कभी पूरी दुनिया में खाद्य सहायता के लिए भारत के नेता घूमते देखे जाते थे. लेकिन १९७१ ने सब कुछ बदल दिया . आम तौर पर १९७१ का श्रेय लगभग पूरी तरह से इंदिरा गांधी की राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता को दिया जाता है लेकिन यह पूरा सच नहीं है . बँगलादेश की मुक्ति के संग्राम में सभी राजनीतिक पार्टियां इंदिरा गाँधी के साथ थीं . इसलिए १९७१ की राजनीतिक बुलंदी में सब का हिस्सा है . कांग्रेस और सरकार के अंदर भी उस दौर के रक्षा मंत्री जगजीवन राम का योगदान अद्भुत है लेकिन अजीब बात है कि जब भी बंगलादेश की आज़ादी का ज़िक्र होता है तो उसमें बाबू जगजीवन राम का वैसा उल्लेख नहीं होता , जैसा होना चाहिए . आज कोशिश करेगें कि लोक सभा में ४ दिसम्बर और १६ दिसंबर १९७१ के बीच हुई चर्चा के माध्यम से तत्कालीन रक्षा मंत्री के राजनीतिक कौशल को रेखांकित किया जाए .क्योंकि मेरा यह विश्वास है कि १९७१ की विजय के असली हीरो बाबू जगजीवनराम ही थे. .
बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई , पाकिस्तान अत्याचार और पाकिस्तानी सेना के गैर ज़िम्मेदार तरीकों का लोक सभा में पहला व्यवस्थित उल्लेख १५ नवम्बर १९७१ के दिन हुआ जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद , एस एम बनर्जी ने पाकिस्तान की सेना की ओर से भारतीय इलाकों में गोलीबारी और उसकी एयर फ़ोर्स के भारतीय आसमान में अनधिकृत प्रवेश के बारे में नियम १९७ के तहत एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाया गया.एस एम बनर्जी के ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए रक्षा मंत्री जगजीव राम ने कहा कि पाकिस्तान के साथ हमारी सीमा पर तनाव की स्थिति वहां के सैनिक शासन और बँगलादेश के लोगों के बीच संघर्ष के कारण है . इस जवाब में बाबू जगजीवन राम ने सदन को विस्तार से बताया कि उस वक़्त की दक्षिण एशिया के हालात क्या थे . उसके अन्तर राष्ट्रीय सन्दर्भ क्या थे और पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान भारत के लिए कितनी मुसीबत बन चुके थे. भारत के खिलाफ पाकिस्तानी राष्ट्रपति याहया खां बार बार युद्ध की धमकी देते रहते थे.. राजस्थान, गुजरात और पंजाब में हमारी सीमा के बहुत करीब उन्होंने अपने सैनिकों को जमा कर दिया था . रक्षा मंत्री ने साफ़ कहा कि उस वक़्त सीमाओं पर हालात बहुत ही गंभीर थे. लेकिन रक्षा मंत्री ने आश्वासन दिया कि हम अपनी सीमा पर किसी भी हमले का जवाब देने के लिए तैयार हैं. और अगर लाई की नौबत आयी तो लड़ाई का मैदान हमारी ज़मीन पर नहीं होगा . हमारे सैनिक युद्धक्षेत्र को शत्रु की ज़मीन पर ही कायम करने का हौसला रखते हैं . इसी बहस में जनसंघ के सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ शंका जताई . जवाब में रक्षा मंत्री ने जो कहा उस पर किसी भी भारतीय को गर्व होना चाहिए . उन्होंने कहा कि यह सच है कि पाकिस्तान हमारे इलाके में लगातार अतिक्रमण कर रहा है लेकिन मैंने स्पष्ट आदेश दे रखा है कि अगर कोई पाकिस्तानी विमान हमारी सीमा में दुश्मनी के इरादे से आये तो उसे मार गिराया जाए. बाबू जगजीवन राम ने कहा कि बंगलादेश की मुक्ति का संघर्ष चल रहा है .मुझे इस बात में कोई शक़ नहीं है कि बांग्लादेश के जिन नौजवानों ने अपनी माताओं और अपनी बहनों को अपमानित होते देखा है,जिन्होंने अपने निकट सम्बन्धियों की ह्त्या होते देखा है वे जानते हैं कि बंगलादेश को पूर्ण स्वाधीन करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
३ दिसंबर १९७१ को पाकिस्तान ने हमला कर दिया . उसी दिन शाम को इंदिरा गाँधी ने आकाशवाणी से देश को संबोधित किया और कहा कि ," आक्रमण का जवाब देना होगा.भारत के लोग इसका बहुत ही सहनशीलता से जवाब देगें .' अगले दिन ४ दिसंबर को शाम ५ बजकर ४० मिनट पर बाबू जगजीवन राम ने लोकसभा में एक विस्तृत बयान दिया और बताया कि पाकिसान ने हम पर युद्ध थोपा है . हमारे १२ हवाई अड्डों पर हमला किया गया है . उन्होंने सभी हवाई अड्डों के नाम भी बताये. अमृतसर ,पठानकोट, फरीदकोट श्रीनगर ,हलवारा,अम्बाला ,आगरा,उत्तरलाई ,जोधपुर,जामनगर,सिरसा और सरवाला के हवाई अड्डों पर बमबारी हुई थी. कोशिश यह थी कि भारतीय वायुसेना को पंगु बना दिया जाए .लेकिन हमारे सभी हवाई अड्डे बिलकुल सही हैं . भारतीय वायु सेना ने जवाबी कार्रवाई में रात ११.५० बजे पाकिस्तान के चंदेरी , शेरकोट ,सरगोधा,मुरीद,मियांवाली ,मसरूर ( कराची ) रिसालवाला ( रावलपिंडी )और चंगा मंगा ( लाहौर ) के हवाई अड्डों पर बम बरसाए . इसका फायदा ज़मीनी फौज को खूब मिल रहा है .इस बयान में बाबू जगजीवन राम ने पूरी जानकारी दी और राष्ट्र को संसद के ज़रिये आश्वस्त किया.
दिसंबर १९७१ देश के इतिहास में वह समय था जब कि जगजीवन राम के हर बयान को देश सांस रोक कर सुनता था. उन दिनों आज की तरह टेलिविज़न नहीं था और बाबू जी कभी भी संसद के सत्र में रहने पर कोई भी बड़ी बात संसद के बाहर नहीं कहते थे . ७ दिसंबर को उन्होंने फिर लोक सभा को युद्ध में हो रही प्रगति के बारे में विस्तार से जानकारी दी. उन्होंने बताया कि , " अब तक हमने ५२ पाकिस्तानी युद्धक विमान नष्ट किया है . ४ पाकिस्तानी पाइलट हमारे कब्जे में हैं . थल सेना ,वायु सेना और नौसेना मिलकर संयुक्त योजना के साथ लड़ाई लड़ रही हैं " १४ दिसंबर को उन्होंने फिर संसद को भरोसे में लिया और बताया कि ," आज हमारे ऊपर पाकिस्तान द्वारा थोपे गए युद्ध का ग्यारहवां दिन है.अपने आक्रमण का उद्देश्य प्राप्त करने में शत्रु पूरी तरह से नाकाम रहा है .पाकिस्तानी सेना को गहरा नुकसान हुआ है ." इसी बयान में जगजीवन राम ने बताया कि चारों दिशाओं से हमारे सैनिक ढाका की तरफ बढ़ रहे हैं .और वहां के कमान्डर फरमान अली को समर्पण करने के लिए सन्देश भेज दिया गया है .
उसके बाद तो बस १६ दिसंबर हुआ . इंदिरा गांधी ने लोकसभा में युद्ध के खात्मे का ऐलान किया और बंगलादेश नाम के स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र की विधिवत स्थापना हो गयी . लेकिन इस युद्ध में राजनीतिक और सैनिक नेतृत्व का श्रेय सबसे ज्यादा बाबू जगजीवन राम को दिया जाना चाहिए .सही मायनों में १९७१ की जीत के हीरो जगजीवन राम ही हैं .
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शेष नारायण सिंह
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