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Saturday, January 7, 2012

मुसलमान सरकारी नौकरियों से और दूर खदेड़े गए

शेष नारायण सिंह

मुसलमानों को एक बार फिर वोट देने की मशीन के रूप में मानकर सरकारी फैसले किये गए हैं . संसद की शीतकालीन सत्र में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद का एक बयान सदन में रखा गया. बयान में बताया गया है कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी के लिए रिज़र्वेशन का जो २७ प्रतिशत का कोटा उपलब्ध है ,उसमें से ४.५ प्रतिशत अल्पसंख्यक ओबीसी के लिए रिज़र्व कर दिया गया है . मंत्री के बयान में लिखा है कि इस सन्दर्भ में कार्मिक. लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के दिनांक २२ दिसंबर की अधिसूचना के अनुसार इसे सरकार की नौकरियों और केंद्र सरकार के शैक्षिक संस्थानों में लागू कर दिया गया है . इस खबर के आते ही अखबारों और टेलिविज़न संस्थाओं के रिपोर्टर टूट पड़े और सारी दुनिया में डुगडुगी बज गयी कि मुसलमानों को ओबीसी कोटे में से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया है .नतीजा साफ़ था. विश्व हिन्दू परिषद् ने पूरे देश में मुस्लिम आरक्षण के खिलाफ जुलूस निकालने की बात शुरू कर दी . हिन्दू हित की राजनीति करने वाले और भी बहुत सारे लोग जुट गए ,मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगला जाने लगा और उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुसलमानों के आरक्षण के हवाले से कांग्रेस को वोट की लालची पार्टी के रूप में पेश किया जाने लगा.

इस बात पर किसी ने गौर नहीं किया कि इस रिज़र्वेशन से मुसलमानों को कोई फायदा नहीं होगा ,इस बात को बताने वाला कहीं कोई नहीं था. क्यंकि यह रिज़र्वेशन अल्पसंख्यकों के लिए लागू किया गया है जिसमें मुसलमानों के लिए कोई उप कोटा नहीं है .यानी यह आरक्षण सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि के लिए भी होगा . इन धर्मों के ओबीसी भी उसी साढ़े चार प्रतिशत के लिए मैदान में होंगें . दुनिया जानती है कि इन धर्मों में शैक्षिक और सामाजिक असमानता बहुत कम है. मौजूदा व्यवस्था में भी यह लोग अगड़ी जातियों के अति शिक्षित लोगों से मुकाबला करते हैं और किसी भी हालत में उनसे कम नहीं हैं . ज़ाहिर है कि इनको अगर आरक्षण की सुविधा मिल जाए तो यह अन्य लोगों से आगे निकल जायेगें . जहां तक मुसलमान की बात है सही अर्थों में वही पिछड़ा हुआ है लेकिन सरकार के इस ताज़ा आदेश से उसे आरक्षण में कोई लाभ नहीं मिलने वाला है .सरकारी फैसले की इस बारीकी को समझने के लिए ज़रूरी है कि उन आदेशों को देख लिया जाए जिनके हवाले से सरकार अल्पसंख्यकों के रिज़र्वेशन की बात कर रही है .२२ दिसंबर के कार्मिक लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय के कार्यालय ज्ञापन संख्या ४१०१८ के अनुसार सरकारी नौकरियों में यह रिज़र्वेशन लागू किया गया है . इस आदेश के अनुसार जो रिज़र्वेशन लागू हुआ है वह १ जनवरी २०१२ से प्रभावी है .इसी आदेश में लिखा हुआ है कि सरकारी कंपनियों , सरकारी बैंकों आदि को भी आदेश दे दिया गया है कि वे भी अपने यहाँ इसे लागू कर लें. लेकिन इस सरकारी चिट्ठी की भाषा से यह कहीं नहीं लगता कि वह आरक्षण मुसलमानों के लिए है . उसमें केवल अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया गया है . चिट्ठी में लिखा है कि केंद्र सरकार ने भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए लोगों की पहचान के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की थी जिसने १० मई २००७ को अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी .इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि २७ प्रतिशत के ओबीसी कोटे में से अल्पसंख्यकों के लिए सब कोटा बना दिया जाए.चिट्ठी में आगे लिखा है कि कि सरकार ने बहुत ध्यान से विचार किया और यह तय किया गया कि अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत का सब कोटा बनाने की व्यवस्था की जाए.इस चिट्ठी में यह भी बताया गया है कि अल्पसंख्यक उसीको माना जाएगा जिसे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग एक्ट की धारा २ ( सी ) के तहत अल्पसंख्यक माना गया हो .इस धारा में लिखा है कि अल्पसंख्यक वह है जिसे केंद्र सरकार ने बतौर अल्पसंख्यक नोटिफाई कर दिया है. इसके अंतर्गत मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी आते हैं .ज़ाहिर है कि रिज़र्वेशन के लिए मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और पारसी समुदाय के ओबीसी शामिल होंगें. बस यहीं पर कैच है . सरकार ने अल्पसंख्यक वर्ग के ओबीसी को तो रिज़र्वेशन दे दिया है . यह रिज़र्वेशन केवल मुसलमानों के लिए नहीं है . उलटे उनेक रास्ते में तो इस सरकारी आदेश ने और कांटे बो दिए हैं .
२२ दिसंबर की इस सरकारी चिट्ठी के सार्वजनिक होने के बाद मीडिया में तूफ़ान मच गया कि मुसलमानों को रिज़र्वेशन दे दिया गया है लेकिन सच्चाई यह है कि यह रिज़र्वेशन सिख,ईसाई,बौद्ध और पारसी समुदाय के तथाकथित ओबीसी को फायदा पंहुचाएगा क्योंकि उन समुदायों में शिक्षा की भी कमी नहीं है और अपेक्षाकृत संपन्न लोग भी उन समुदायों में हैं . दुनिया जानती है कि अब तक भी इन समुदायों के लोग मुसलमानों से ज्यादा संख्या में सरकारी नौकरियों में पाए जाते हैं .इसलिए बहुत ही भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि मुसलमानों को एक बार फिर बेवक़ूफ़ बना दिया गया है क्योंकि वे अल्पसंख्यक तो हैं लेकिन अन्य अल्पसंख्यकों से बहुत पिछड़े हुए हैं.
लेकिन कांग्रेस और सरकार की वह अदा बहुत ही दिलचस्प थी जिसके तहत संसद में वह सरकारी बयान रखा गया जिसने मुसलमानों की आरक्षण की बात को खबरों की दुनिया में डाल दिया था. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के उस बयान में बार बार रंगनाथ मिश्रा कमीशन और सच्चर कमेटी का ज़िक्र किया गया था . ऐसा लगता था कि सरकार ने रंगनाथ मिश्रा कमीशन और सच्चर कमेटी को आधार बनाकर रिज़र्वेशन दिया है . रंगनाथ मिश्रा कमीशन से तो साफ़ कह दिया था कि सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यक का प्रतिनिधित्व बहुत कम है ,तथा कभी कभी पूर्णतः गैर -प्रतिनधित्व है ,इसलिए उन्होंने सिफारिश की थी कि उन्हें संविधान के अनुच्छेद १६ ( ४) के तहत पिछड़ा माना जाना चाहिए .ऐसा करते समय पिछड़ा शब्द को सामाजिक एवं शैक्षिक शब्दों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए तथा केंद्र और राज्य सरकारों के तहत सभी संवर्ग और ग्रेड में १५ प्रतिशत पद उनके लिए निर्धारित होने चाहिए . रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने कहा था कि इस १५ प्रतिशत में से १० प्रतिशत मुसलमानों के लिए तथा शेष ५ प्रतिशत अन्य अल्पसंख्यकों के लिए होना चाहिए . अब कोई सरकार से पूछे कि भाई कहाँ है वह रंगनाथ मिश्रा कमीशन वाली बात . २२ दिसंबर को रिज़र्वेशन का आदेश देकर सरकार ने अल्पसंख्यकों को तो रिज़र्वेशन दे दिया लेकिन मुसलमानों को सरकारी नौकरियों से और दूर कर दिया .क्योंकि रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने भी माना था और आम तौर पर यही सच है कि मुसलमान लगभग पूरी तरह से पिछड़े हैं और उन्हें वही सुरक्षा मिलने चाहिए जो हिन्दुओं के पिछड़ों को मिलती है . लेकिन मुसलमानों का दुर्भाग्य है कि दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में हर पार्टी में कुछ ऐसे मुसलमान हमेशा ही नज़र आते रहते हैं जो आम तौर पर पिछड़े नहीं होते. और वे ही मुसलमानों के हितों के संरक्षक बन कर घूमते रहते हैं . दिल्ली की राजनीति को समझने वालों को भरोसा है कि यह राजनीतिक मुसलमान अक्सर अपने ही हित की बात करते रहते हैं और दूर दराज़ गाँवों और कस्बों में ज़िन्दगी की सबसे कठिन लड़ाई लड़ रहे मुसलमानों के हितों की उन्हें कोई चिंता नहीं होती. ज़ाहिर है सरकार में मौजूद कुछ ऐसे लोग ही मुसलमानों के सही शुभचिन्तक बन सकते हैं जिनके मन में मुसलमानों के वोट से किसी तरह का सौदा करने की इच्छा न हो . इस देश का पिछले साठ साल का इतिहास इस बात का गवाह है कि मुसलमानों के हित का साधन अक्सर उन्हीं लोगों ने किया है जो धर्म से मुसलमान नहीं थे लेकिन इंसाफ़ की लड़ाई के सबसे बड़े नेता थे.