Wednesday, October 7, 2009
परवान चढ़ता सत्ता का खूनी संघर्ष
झारखंड के पुलिस अधिकारी फ्रांसिस इदवार को उनके अपहर्ताओं ने निर्ममता पूर्वक मार डाला। फ्रांसिस एक मामूली आदमी थे और सरकारी नौकरी के सहारे अपने बच्चों का लालन पालन कर रहे थे। अपनी ड्यूटी करते हुए वे अपहरण का शिकार हो गए और अपनी जान गंवा बैठे। सरकारी तंत्र ने छूटते ही कह दिया कि माओवादियों ने उन्हें मार डाला है। टी.वी. चैनलों और अखबारों की खबरें भी यही बताती हैं। हालांकि आज के जमाने में इस तरह के मामलों में सरकारों की विश्वसनीयता बहुत ही आदरणीय नहीं रह गयी है लेकिन सम्माननीय अखबारों ने भी इसे माओवादियों की करतूत बताया है इसलिए लगता है कि अति वामपंथी विचारधारा ने एक ऐसे आदमी की जान ले ली।
एक टी.वी. चैनल में बहस करने आए वामपंथी लेखक और कार्यकर्ता गौतम नवलखा मानने को तैयार नहीं थे कि फ्रांसिस की बर्बर हत्या माओवादियों ने की होगी। उनको लगता था कि बिना तथ्यों की पूरी जानकारी हासिल किए इस विषय में कुछ भी कहना ठीक नहीं है। यानी वे यह कहना चाह रहे थे कि हो सकता है कि माओवादियों को बदनाम करने के लिए किसी और ने फ्रांसिस को मार डाला हो। यह बात दूर की कौड़ी है हालांकि इस बात की संभावना से भी पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता। एक गौतम नवलखा की बात मानकर बाकी सारी दुनिया को झूठा ठहराना बहुत ही बेतुका राग है।
सच्ची बात यह है कि मीडिया के पास इस तरह की वारदात के कारणों की जांच करने के तरीके होते है जिससे सच्चाई का पता लगाया जा सकता है। यह जानकारी किसी भी अदालत में सबूत तो नहीं बनती लेकिन होती सही है। इस आधार पर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि फ्रांसिस की हत्या माओवादियों ने ही की।
फ्रांसिस की हत्या की गुत्थी सुलझाने के लिए पसरते माओवाद की जड़ों तक जाना जरूरी है. उन कारणों को समझना होगा जिनके परिणामस्वरूप माओवाद का हिंसक स्वरूप भयावह होता जा रहा है. जहां जहां नक्सलवाद और माओवाद मुखर हो रहा है, उन सारे इलाकों में कही भी भूमि सुधार नहीं हुआ है, राजनीतिक नेता सामंतों की तरह का आचरण करते हैं और गरीब आदमियों के लिए आने वाली सभी स्कीमों का पैसा हड़प लेते है। निराश हताश गरीब आदमी दिग्भ्रमित वामपंथियों के चंगुल में फंस जाता है और वह हथियार उठा लेता है। इस तरह सत्ता के दो दावेदारों के बीच में लड़ाई शुरू हो जाती है। सरकारी सत्ता पर काबिज भू-स्वामियों-पूंजीपतियों के सेवक राजनेता एक तरफ और मार्क्सवादी शब्दजाल इस्तेमाल करके अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे, कम्युनिस्ट विचारधारा से दिशाभ्रम की िस्थति में पहुंच चुके शातिर सत्ताकामी वामपंथी सरगनाओं की मंडली दूसरी तरफ।
अजीब बात है कि इस खेल में मरने वाला हर आदमी गरीब है। चाहे वह माओवादियों की तरफ से हो या सरकार की तरफ से। पुलिस का इंस्पेक्टर फ्रांसिस बहुत ही मामूली आदमी था, अगर उसे सरकारी नौकरी न मिली होती तो वह शायद कहीं मजदूरी कर रहा होता। लेकिन ज्यों ही सत्ता के प्रतिष्ठानों के संचालक पकडे़ जाते हैं तो तूफान मच जाता है। माओवादियों का यह नया खूंखार रूप उनके बड़े नेताओं कोबाद गांधी और छत्रधर महतो के पकड़े जाने के बाद ही समाने आया है। इसके बाद हुकूमतों को भी माओवादियों के बहाने आदिवासी इलाकों में आम आदमी को घेरकर मारने का मौका मिल जायेगा। यह बात सबको मालूम है कि इस खूनी खेल में कोई बड़ा आदमी नहीं मारा जायेगा।आदिवासी इलाकों में चल रहे नए खून खराबे में एक नया आयाम भी जुड़ रहा है।
बिहार, उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा अनमोल है और अब उस पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजर लगी हुई है। इस बात की पूरी संभावना है कि इन इलाकों में चल रहे ताजा खून खराबे में इस साम्राज्यवादी खेल का भी कुछ योगदान हो। जहां तक सरकारों का प्रश्न है, वे तो पूंजीपति वर्ग की भलाई के लिए ही सत्ता में हैं, उन्हें सत्ता पर स्थापित करने में थैलीशाहों की चमक के योगदान की भी चर्चाएं होती रहती हैं, इस बात की भी पूरी आशंका है कि माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व में भी कुछ ऐसे लोग हों जो पूंजीपति वर्ग का खेल जमाने में मदद कर रहे हों। इस तरह की बात हर उस इलाके में हो चुकी है। जहां खनिज संपदा होती है वहां पूंजीपतियों का नजरे इनायत हुए बिना नहीं रहती।
पेट्रोल के इस्तेमाल के पहले अरब का इलाका एक ऐसा क्षेत्र था जहां कभी किसी की नजर नहीं जाती थी। समुद्र के रास्ते संपन्न इलाकों की खोज में निकलने वाले यूरोपीय यात्री पश्चिम एशिया के इस इलाके पर नजर ही नहीं डालते थे, सीधे भारत की तरफ बढ़ते थे, जहां की संपन्नता का तिलिस्म उनको खींचता रहता था। लेकिन पेट्रोल और अन्य हाइड्रोकार्बन पदार्थों के ऊर्जा के मुख्य स्रोत के विकसित होने के बाद पश्चिम एशिया में साम्राज्यवादियों के हित साधन के रास्ते पैदा किए गए और आज पेट्रोलियम पदार्थों से संपन्न यह इलाका पूंजीपति साम्राज्यवादी शक्तियों की बर्बरता का केंद्र बना हुआ है। वहां रहने वाले लोगों को हर तरह के खूनी खेल का नतीजा झेलना पड़ रहा है।भारत में नये विकसित हो रहे लाल कॉरिडर के क्षेत्र भी खनिज संपदा से लैस हैं। वहां पर राज करनेवाली पार्टियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित साधन करने में कोई संकोच नहीं होगा। इस बात की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन क्षेत्रों की तबाही में माओवादी भी किन्हीं निहित स्वार्थों के कारिंदे हों। इसलिए सिविल सोसाइटी को चौकन्ना रहना पड़ेगा कि साम्राज्यवादियों के हितों की साधना के चक्कर में कहीं भारत का एक बड़ा हिस्सा विवादों के घेरे में न आ जाय और अवाम की पहले से ही मुश्किल जिंदगी और मुश्किल न हो जाय।
Saturday, October 3, 2009
आतंकवादी रुखसाना को मार डालेंगे
लेकिन उसे डर है कि इतनी बड़ी शिकस्त के बाद दहशतगर्द फिर वापस आएंगे और रुखसाना के परिवार को और खुद उसको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। उसने बताया कि गांव के बाहर पुलिस की एक पिकेट लगा दी गई है लेकिन उसको आशंका है कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उसको आतंकवादी मार डालेंगे। रुखसाना कौसर एक बहादुर लड़की है। उसने आत्मरक्षा में हथियार छीनकर दहशतगर्दों को बता दिया कि अगर औरत अपनी रक्षा का फैसला कर ले तो खतरनाक हथियारों से लैस आतंकवादी भी उसका कुछ बना बिगाड़ नहीं सकता। लेकिन रुखसाना के मन में जो डर है वह एक बहुत बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है।
पिछले 20 साल से कश्मीर में चल रहे आतंकवाद के खेल में आम आदमी की कोई हैसियत नहीं है। सरकार ने कभी भी आम आदमी को शामिल करने की कोशिश नहीं की। जिस मुस्तैदी से वहां सैनिक ताकत का इस्तेमाल करके समस्या को सुलझाने की कोशिश की गई वह हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। कश्मीरी अवाम को भरोसे में लेकर अगर कोशिश की गयी होती तो जम्मू-कश्मीर में हर इंसान अपने हित को सुरक्षित करने के लिए हुकूमत के साथ होता। यह प्रयोग वहां पर सफलतापूर्पक किया जा चुका है। 1947 में जब आजादी मिली तो पाकिस्तान ने कश्मीर पर दावा ठोका था। कश्मीर के राजा हरि सिंह भी दुविधा में थे, कभी स्वतंत्र कश्मीर की बात करते थे, कभी भारत के साथ आने की तो कभी पाकिस्तान के साथ जाने की सोचते थे। इस बीच पाकिस्तानी सेना के सहयोग से कबायलियों का हमला हो गया और हरिसिंह डर गये। उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। सरदार पटेल ने मदद तो दी लेकिन शर्त लगा दी कि आप अपनी मर्जी से भारत के साथ कश्मीर के विलय के कागजों पर दस्तखत कर दें तभी भारतीय सेना वहां जायेगी।
शेख अब्दुल्ला उन दिनों कश्मीरी जनता के हीरो थे। वे भारत के साथ रहना चाहते थे इसलिए पूरा कश्मीरी अवाम भारत के साथ रहना चाहता था। बहरहाल जनता को साथ लेकर चलने से कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। कश्मीर के राजा हरिसिंह की मरजी के खिलाफ भी शेख साहब ने जनता को अपने साथ रखा। 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद सब कुछ बिगड़ गया। उसके बाद तो दिल्ली की सरकारों ने गलतियों पर गलतियां कीं और कश्मीर में केंद्र सरकार के प्रति मुहब्बत खत्म होती गयी। उधर पाकिस्तान ने प्राक्सी वार के जरिए कश्मीर में खून खराबे को बढ़ावा दिया। रुखसाना कौसर का दूसरा डर यह है कि आतंकवादी फिर आएंगे और उसे मार डालेंगे। भारत सरकार के लिए यह मौका है कि वह साबित कर दे कि वह कश्मीरी अवाम की हिफाजत के लिए कुछ भी कर सकती है। रुखसाना की सुरक्षा के लिए वहीं पुलिस पिकेट बना देना कोई बहुत अच्छी योजना नहीं है। इस देश में हजारों लोग ऐसे हैं जिनको चौबीस घंटे की सरकारी सुरक्षा दी जाती है। बहुत सारे ऐसे लोग भी है जिन्हें राज्यों की राजधानियों में जगह दी जाती है जहां वे रह सकें। हजारों विधायकों को शहरों में सभी सुविधाओं से लैस मकान दिए जाते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि वे जनहित और राष्ट्रहित में काम कर रहे हैं। इसलिए उनको सारी सरकारी सुविधाएं दी जा रही हैं। वे सारी सुविधाएं रुखसाना और उसके परिवार को भी दी जा सकती हैं क्योंकि जो काम उसने कर दिखाया है वह बड़े बड़े सूरमा नहीं कर सकते है। उसका काम भी जनहित और राष्ट्रहित का है दरअसल रुखसाना की बहादुरी ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की सफलता के सवाल पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।
सच्चाई यह है कि आतंकवादी जमातों ने कश्मीर की जनता के दिमाग में यह दहशत पैदा कर दी थी कि उनको बचाने वाला कोई नहीं है और आम तौर पर लोग डर गए थे। वरना अगर आतंकवाद के शुरुआती दौर में ही लोगों ने मुकाबला किया होता तो दहशतगर्दी के सफल होने की सारी संभावना खत्म हो गई होती। दुनिया भर में आतंकवाद वहीं सफल होता है जहां हुकूमत आम आदमी से कट चुकी होती है और आम आदमी को भरोसा नहीं होता कि सरकार उनकी हिफाजत कर सकेगी। जम्मू कश्मीर में यही हालत थी और आतंकवाद लगभग सफल हो गया। लेकिन रुखसाना कौसर की बहादुरी ने सरकार को एक बेहतरीन मौका दिया है। रुखसाना ने वह कर दिखाया है जो सरकार के कई विभाग नहीं कर सके। सरकार को चाहिए कि वह रुखसाना के परिवार को इतनी सुविधा दे और इतनी इज्जत दे कि पूरे राज्य में यह माहौल बन जाय कि अगर आतंकवाद का सामना हिम्मत से किया जाय तो बाकी जिंदगी बहुत ही अच्छी हो सकती है। अगर इस तरह का माहौल बन गया तो इस बात की पूरी संभावना है कि हर गांव से बहादुर लड़के लड़कियां आगे आएंगे और आतंकवाद का मुकाबला हर मोड़ पर किया जायेगा। इसका फायदा यह होगा कि जनसमर्थन का मुगालता पालने वाले आतंकवादी संगठनों को औकातबोध हो जायेगा। वे आम आदमी को निशाना बनाने की हिम्मत नहीं करेंगे। जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की तैनाती के नाम पर होने वाले खर्च में भी कटौती होगी और कश्मीर में फिर से अमन चैन कायम हो जाएगा।
हिंद स्वराज के सौ साल
चालीस साल की उम्र में मोहनदास करमचंद गांधी ने 'हिंद स्वराज' की रचना की। 1909 में लिखे गए इस बीजक में भारत के भविष्य को संवारने के सारे मंत्र निहित हैं। अपनी रचना के सौ साल बाद भी यह उतना ही उपयोगी है जितना कि आजादी की लड़ाई के दौरान था। इसी किताब में महात्मा गांधी ने अपनी बाकी जिंदगी की योजना को सूत्र रूप में लिख दिया था। उनका उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का था। उन्होंने भूमिका में ही लिख दिया था कि अगर उनके विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ कर रखना जरूरी नहीं है। लेकिन अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक आचरण करें। उनकी भावना थी कि ऐसा करना देश के भले के लिए होगा।
अपने प्रकाशन के समय से ही हिंद स्वराज की देश निर्माण और सामाजिक उत्थान के कार्यकर्ताओं के लिए एक बीजक की तरह इस्तेमाल हो रही है। इसमें बताए गए सिद्घांतों को विकसित करके ही 1920 और 1930 के स्वतंत्रता के आंदोलनों का संचालन किया गया। 1921 में यह सिद्घांत सफल नहीं हुए थे लेकिन 1930 में पूरी तरह सफल रहे। हिंद स्वराज के आलोचक भी बहुत सारे थे। उनमें सबसे आदरणीय नाम गोपाल कृष्ण गोखले का है। गोखले जी 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गए तो उन्होंने मूल गुजराती किताब का अंग्रेजी अनुवाद देखा था। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि गांधी जी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही उस पुस्तक का नाश कर देंगे। महादेव भाई देसाई ने लिखा है कि गोखले जी की वह भविष्यवाणी सही नहीं निकली। 1921 में किताब फिर छपी और महात्मागांधी ने पुस्तक के बारे में लिखा कि "वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक शब्द रद्द किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। यह किताब 1909 में लिखी गई थी। इसमें जो मैंने मान्यता प्रकट की है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है।"
महादेव भाई देसाई ने किताब की 1938 की भूमिका में लिखा है कि '1938 में भी गांधी जी को कुछ जगहों पर भाषा बदलने के सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगाÓ। हिंद स्वराज एक ऐसे ईमानदार व्यक्ति की शुरुआती रचना है जिसे आगे चलकर भारत की आजादी को सुनिश्चित करना था और सत्य और अहिंसा जैसे दो औजार मानवता को देना था जो भविष्य की सभ्यताओं को संभाल सकेंगे। किताब की 1921 की प्रस्तावना में महात्मा गांधी ने साफ लिख दिया था कि 'ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करने के लिए मेरी कोशिशें चल रही हैं, मैं जानता हूं कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है।..... लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज की मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पालियामेंटरी ढंग का स्वराज्य पाना है।"
इसका मतलब यह हुआ कि 1921 तक महात्मागांधी इस बात के लिए मन बना चुके थे कि भारत को संसदीय ढंग का स्वराज्य हासिल करना है। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि आजकल देश में एक नई तरह की तानाशाही सोच के कुछ राजनेता यह साबित करने के चक्कर में हैं कि महात्मा गांधी तो संसदीय जनतंत्र की अवधारणा के खिलाफ थे। इसमें दो राय नहीं कि 1909 वाली किताब में महात्मा गांधी ने ब्रिटेन की पार्लियामेंट की बांझ और बेसवा कहा था (हिंद स्वराज पृष्ठ 13)। लेकिन यह संदर्भ ब्रिटेन की पार्लियामेंट के उस वक्त के नकारापन के हवाले से कहा गया था। बाद के पृष्ठों में पार्लियामेंट के असली कर्तव्य के बारे में बात करके महात्मा जी ने बात को सही परिप्रेक्ष्य में रख दिया था और 1921 में तो साफ कह दिया था कि उनका प्रयास संसदीय लोकतंत्र की तर्ज पर आजादी हासिल करने का है। यहां महात्मा गांधी के 30 अप्रैल 1933 के हरिजन बंधु के अंक में लिखे गए लेख का उल्लेख करना जरूरी है। लिखा है, ''सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातें सीखा भी हूं। उमर में भले ही मैं बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आतंरिक विकास होना बंद हो गया है।.... इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे हुए दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।" इसका मतलब यह हुआ कि महात्मा जी ने अपने विचार में किसी सांचाबद्घ सोच को स्थान देने की सारी संभावनाओं को शुरू में ही समाप्त कर दिया था।
उन्होंने सुनिश्चित कर लिया था कि उनका दर्शन एक सतत विकासमान विचार है और उसे हमेशा मानवता के हित में संदर्भ के साथ विकसित किया जाता रहेगा।
महात्मा गांधी के पूरे दर्शन में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा में पूर्ण विश्वास। चौरी चौरा की हिंसक घटनाओं के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर दिया था। इस फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ लेकिन गांधी जी किसी भी कीमत पर अपने आंदोलन को हिंसक नहीं होने देना चाहते थें। उनका कहना था कि अनुचित साधन का इस्तेमाल करके जो कुछ भी हासिल होगा, वह सही नहीं है। महात्मा गांधी के दर्शन में साधन की पवित्रता को बहुत महत्व दिया गया है और यहां हिंद स्वराज का स्थाई भाव है। लिखते हैं कि अगर कोई यह कहता है कि साध्य और साधन के बीच में कोई संबंध नहीं है तो यह बहुत बड़ी भूल है। यह तो धतूरे का पौधा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। हिंद स्वराज में लिखा है कि साधन बीज है और साध्य पेड़ है इसलिए जितना संबंध बीज और पेड़ के बीच में है, उतना ही साधन और साध्य के बीच में है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने साधन की पवित्रता को बहुत ही विस्तार से समझाया है। उनका हर काम जीवन भर इसी बुनियादी सोच पर चलता रहा है और बिना खडूग, बिना ढाल भारत की आजादी को सुनिश्चित करने में सफल रहे।
हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने भारत की भावी राजनीति की बुनियाद के रूप में हिंदू और मुसलमान की एकता को स्थापित कर दिया था। उन्होंने साफ कह दिया कि, ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना ही समझिए।.... मुझे झगड़ा न करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमान को झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूं? हवा में हाथ उठाने वाले का हाथ उखड़ जाता है। सब अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए काला रहेगा।ÓÓ (हिंद स्वराज, पृष्ठ 31 और 35) यानी अगर स्वार्थी तत्वों की बात न मानकर इस देश के हिंदू मुसलमान अपने धर्म की मूल भावनाओं को समझें और पालन करें तो आज भी देश में अमन चैन कायम रह सकता है और प्रगति का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
इस तरह हम देखते है कि आज से ठीक सौ वर्ष पहले राजनीतिक और सामाजिक आचरण का जो बीजक महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज के रूप में लिखा था, वह आने वाली सभ्यताओं को अमन चैन की जिंदगी जीने की प्रेरणा देता रहेगा।
Wednesday, September 30, 2009
भ्रष्ट अफ़सरों की बेनामी संपत्ति जब्त हो
केंद्र सरकार भ्रष्टाचार पर निर्णायक हमला करने की तैयारी में है। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का कहना है कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए बनाए गए कानून में संशोधन करके और धारदार बनाने की योजना पर काम चल रहा है। अगर मोइली अपने मिशन में सफल होते हैं तो सरकारी अफसरों को रिश्वत लेने के पहले बार-बार सोचना पड़ेगा हालांकि रिश्वत लेना और देना जुर्म है लेकिन इसके लिए सजा का प्रावधान बहुत मामूली हैँ अभी तो पांच साल तक की कारावास की सजा की व्यवस्था है। घूसखोर सरकारी अफसर सोचता है कि अगर 100-200 करोड़ रुपये इकट्ठा कर लिए जाएं तो कुछ साल जेल में रहकर फिर वापसे आने पर बेइमानी से इकट्ठा किए गए धन का उपयोग बाकी जिंदगी आराम से किया जा सकता है।
लेकिन अगर जेल की सजा के साथ-साथ चोरी बेईमानी से उगाहा गया धन भी ज़ब्त होने लगे तो घुसखोर अधिकारी में कानून की दहशत पैदा होगी और भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकेगा। मामला अभी बहस के दौर में है। मौजूदा भ्रष्टाचार निरोधक एक्ट में अपराध साबित होने पर 5 से 7 साल तक की सजा तो हो सकती है लेकिन सरकार के पास अपराधी अफसर की संपत्ति जब्त करने का अधिकार नहीं है। मंत्री के अनुसार सरकार भ्रष्टाचार निरोधी कानून में संशोधन करने पर गंभीरता से विचार कर रही है भ्रष्टï साधनों से अर्जित संपत्ति को भी ज़ब्त किया जा सके।
सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार के मामले में बिहार का नाम अब तक सर्वोपरि रहा है। बिहार सरकार में पिछले कई दशकों से व्याप्त भ्रष्टाचार से परेशान राज्य के मुख्य मंत्री नीतिश कुमार पिछले दिनों कानून मंत्री वीरप्पा मोइली से मिले थे। उन्होंने सुझाव दिया कि एक ऐसा कानून बनना चाहिए जिससे भ्रष्टाचार के मामले में जब जांच अधिकारी चार्जशीट दाखिल कर दे, उसी वक्त अभियुक्त सरकारी अधिकारी की भ्रष्टï साधनों से अर्जित की गई संपत्ति जब्त कर ली जाय। दरअसल राज्य सरकार इस तरह के एक कानून के बारे में विचार कर रही है। अफसर बिरादरी इस तरह के कानून की चर्चा मात्र से सकते में हैं।
अगर कहीं यह कानून बन गया तो सरकारी नौकरी के रास्ते अरबपति बनने के सपनों की तो अकाल मृत्यु हो जायेगी। नीतीश कुमार के इस सुझाव के बाद केंद्र सरकार में तैनात सरकारी अफसरों ने प्रस्तावित कानून में अड़ंगा लगाना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि इस कानून के सहारे नेता लोग अफसरों से बदला लेंगे और ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो जाएगा। सवाल यह है कि ईमानदारी से काम करते कितने लोग हैं। इस विषय पर सिविल सेवा के एक शीर्ष अधिकारी से बात करने पर तो तसवीर बिलकुल दूसरी नज़र आई। पिछले करीब 35 साल से सरकारी अधिकारियों के जीवन को बहुत करीब से देख रहे इस अधिकारी का जीवन बहुत ही पवित्र है।
राजनीतिक सत्ता के कई मठाधीशों ने इनको भ्रष्टाचार निरोधक कानून में फंसाने की कई बार कोशिश की लेकिन एक भी केस नहीं मिला। सरकारी तनख्वाह लेते हैं, सरकारी मान्यता प्राप्त सुविधाएं हैं और जीवन अपनी शर्तों पर जीते हैं। उनका कहना है कि वर्तमान भ्रष्टाचार निरोधी कानून में संपत्ति जब्ती की व्यवस्था करने से भ्रष्टाचार रोकने में कोई मदद नहीं मिलेगी लेकिन रिकार्ड के लिए तो इन अफसरों की संपत्ति उतनी ही होती है जितनी सिविल सर्विस रूल्स के तहत होनी चाहिए। इनकी घूसखोरी वाली सारी संपत्ति बेनामी होती है।
कानून ऐसा होना चाहिए कि उस बेनामी संपत्ति को सरकार जब्त कर सके। लेकिन बेनामी संपत्ति को जब्त करना आसान इसलिए नहीं होगा कि उसका पता कैसे चलेगा। इस ईमानदार अफसर का सुझाव है कि अभियुक्त अधिकारी का नार्को टेस्ट कराया जाय जिससे वह अपनी सारी बेनामी संपत्ति और जमीन का पता बता दे और उस संपत्ति के बारे में गहराई से जांच करवाकर उसको जब्त कर लिया जाय। बेनामी संपत्ति के मामलों में अकसर देखा गया है कि जिसके नाम पर संपत्ति खरीदी गई रहती है, वह व्यक्ति या संस्था कही होती ही नहीं और इस संपत्ति पर दावेदारी नहीं की जा सकती। ऐसी हालत में लावारिस संपत्ति को जब्त करना सरकार के अधिकार क्षेत्र में है।
कई बार यह बेईमान अफसर संपत्ति की रजिस्ट्री नौकरों या रिश्तेदारों के नाम करवाते हैं। उनकी भी विधिवत जांच की जा सकती है और संपत्ति जब्त की जा सकती है। बेनामी संपत्ति का पता लगाने का दूसरा तरीका यह है कि सरकारी अधिकारियों की संपत्ति की घोषणा को सार्वजनिक डॉमेन में डाल दिया जाय, किसी लोकप्रिय वेबसाइट पर डाल दिया जाय और जनता से सुझाव मांगे जायें कि जो सूचना अफसर ने दी है क्या वह सच है। जानकार बताते हैं कि देश के कोने कोने से ख़बर आ जायेगी कि अमुक अफसर की जमीन कहां है और उसका शापिंग मॉल कहां है, या उसका कारखाना कहां है। इस सूचना के आधार पर जांच को आगे बढ़ाया जा सकता है।
संपत्ति की जब्ती को राजनीतिक नेताओं की ओर से अफसरों पर नकेल कसने के औजार के रूप में इस्तेमाल होने की संभावना को ईमानदार अफसरों ने बिलकुल बोगस बताया। उनका कहना है कि राजनेताओं की घूसखोरी और बेईमानी की सारी व्यवस्था का जिम्मा भ्रष्ट अधिकारियों के मत्थे ही है। यही लोग नेताओं मंत्रियों के भ्रष्टाचार के कामिसार के रूप में काम करते हैं और राजनीतिक आकाओं के भ्रष्टाचार के जंगल मे अपनी बेईमानी की फुलवारी सजाते हैं।
अगर अफसरों में बेईमानी और घूसखोरी के प्रति खौफ पैदा हो गया तो राजनेताओं के भ्रष्टाचार पर अपने आप लगाम लग जाएगी क्योंकि भ्रष्टाचार में अफसर की रूचि कम हो जायेगी। सूचना की क्रांति और मीडिया के जनवादी करण के इस युग में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम में इंटरनेट भी बड़ी भूमिका बना सकती है और उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
Saturday, September 26, 2009
इस्लाम का आतंकवाद से कोई मतलब नहीं
दरअसल अमरीका के कई शहरों में 9 सितंबर 2001 को हुए आतंकवादी हमलों के बाद के मुख्य अभियुक्त के रूप में ओसामा बिन लादेन का नाम आया जिसने अपने संगठन अल-कायदा के माध्यम से आतंक के बहुत से काम अंजाम दिए है। अमरीका ने योजनाबद्घ तरीके से ओसामा बिन लादेन और उसके साथियों को अपने अभियान का निशाना बनाना शुरू किया। यह दुनिया और सभ्य समाज की बद किस्मती है कि उन दिनों अमरीका का राष्ट्रपति एक ऐसा व्यक्ति जिसके बौद्घिक विकास के स्तर को लेकर जानकारों में मतभेद है।
आम तौर पर माना जाता है कि तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश अव्वल दर्जे के मंद बुद्घि इंसान हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे शक है कि बुश जूनियर कभी कभी समझदारी की बात भी करने की क्षमता रखते हैं। बहर-हाल अपने आठ साल के राज में उन्होंने अमरीका का बहुत नुकसान किया। अमरीकी अर्थ व्यवस्था को भयानक तबाही के मुकाम पर पहुंचा दिया, इराक और अफगानिस्तान पर मूर्खता पूर्ण हमले किए।
पाकिस्तान के एक फौजी तानाशाह की ज़ेबें भरीं जिसने आतंक का इतना जबरदस्त ढांचा तैयार कर दिया कि अब पाकिस्तान का अस्तित्व ही खतरे में है। अपने गैर जिम्मेदार बयानों से बुश ने जितने दुश्मन बनाए शायद इतिहास में किसी ने न बनाया हो। बहरहाल बुश ने ही शायद जानबूझकर यह कोशिश की कि मुसलमानों से आतंकवाद को जोड़कर वह उन्हें अलग थलग कर लेंगे। यह उनकी मूर्खतापूर्ण गलती थी। उनको जानना चाहिए था कि इस्लाम मुहब्बत, भाईचारे और जीवन के उच्चतम आदर्श मूल्यों का धर्म है।
अगर कोई मुसलमान इस्लाम की मान्यताओं से हटकर आचरण करता है तो वह मुसलमान नहीं है। इसलाम में आतंक को कहीं भी सही नहीं ठहराया गया है। अगर यही बुनियादी बात बुश जूनियर की समझ में आ गई होती तो शायद वे उतनी गलतियां न करते जितनी उन्होंने कीं। उन्होंने योजनाबद्घ तरीके से इस्लाम को आतंक से जोडऩे का अभियान चलाया। उसी का नतीजा है कि अमरीकी हवाई अड्डों पर उन लोगों को अपमानित किया जाता है जिनका नाम फारसी या अरबी शब्दों से मिलता जुलता है। अपने बयान में शबाना आजमी इसी अमरीकी अभियान को फटकार रही थीं।
अमरीकी विदेश नीति की इस योजना को सफल होने से रोकना बहुत जरूरी है। संतोष की बात यह है कि वर्तमान अमरीकी राष्टï्रपति बराक ओबामा भी इस दिशा में काम कर रहे हैं। भारत में भी एक खास तरह की सोच के लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि सभी मुसलमान एक जैसे होते हैं। और अगर यह साबित करने में सफलता मिल गई तो संघी सोच वाले लोगों को मुसलमान को आतंकवादी घोषित करने में कोई वक्त नहीं लगेगा। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि संघी सोच के लोग आर.एस.एस. के बाहर भी होते हैं। सरकारी पदों पर बैठे मिल जाते हैं, पत्रकारिता में होते हैं और न्याय व्यवस्था में भी पाए जाते हैं।
एक उदाहरण से बात को स्पष्ट करने की कोशिश की जायेगी। सरकार की तरफ से सांप्रदायिक सदभाव के पोस्टर जारी किये जाते हैं जिसमें कुछ शक्लें बनाई जाती है। चंदन लगाए व्यक्ति को हिंदू, पगड़ी पहने व्यक्ति को सिख और एक खास किस्म की पोशाक वाले को पारसी बताया जाता है। मुसलमान का व्यक्तित्व दिखाने के लिए जालीदार बनियान, चारखाने का तहमद और एक स्कल कैप पहनाया जाता है। कोशिश की जाती है कि मुसलमान को इसी सांचे में पेश करके दिखाया जाय। सारे मुसलमान इसी पोशाक को नहीं पहनते लेकिन इस तरह से पेश करना एक साजिश है और इस पर फौरन रोक लगाई जानी चाहिए।
क्योंकि अगर ऐसा न हुआ और दुबारा बीजेपी का कोई आदमी प्रधानमंत्री बना तो भारत में भी वही हो सकता है जो बुश जूनियर ने पूरी दुनिया में कर दिखाया है। वैसे संघ बिरादरी ने यह कोशिश शुरू कर दी थी कि आतंकवाद की सारी घटनाओं को मुसलमानों से जोड़कर पेश किया जाय लेकिन जब मालेगांव के धमाकों में संघ के अपने खास लोग पकड़ लिए गए तो मुश्किल हो गई। वरना उसके पहले तो बीजेपी के सदस्य और शुभचिंतक पत्रकार मुसलमान और आतंकवादी को समानार्थक शब्द बताने की योजना पर काम करने लगे थे। शबाना आजमी जैसे और भी लोगों को सामने आना चाहिए और यह साफ करना चाहिए कि मुसलमान और इसलाम को आतंकवाद से जोडऩे की कोशिश को सफल नहीं होने दिया जाएगा। धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों को भी इस दिशा में होने वाली हर पहल का उल्लेख करना चाहिए क्योंकि एक वर्ग विशेष को आतंकवादी साबित करने की कोशिशों के नतीजे किसी के हित में नहीं होंगे।
लाल बुझक्कड़ी कूटनीति और गद्दाफी
संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में अपने 100 मिनट के भाषण में कर्नल गद्दाफी ने साबित कर दिया कि उनके दिमागी संतुलन के बारे में प्रचलित बहुत सारी कहानियों में सच्चाई भी हो सकती है क्योंकि यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उनको किसी ने मजबूर किया था कि वे वह भाषण दें जो उन्होंने वाशिंगटन में दिया। गौर करने की बात यह है कि उन्हें पहली बार इस विश्व संस्था में भाषण देने का मौका मिला। भाषण हस्तलिखित यानी गद्दाफी ने खुद ही अपने दिमाग का इस्तेमाल करके वहां वह प्रलाप किया, जिसके बाद उनके मानसिक असंतुलन के बारे में कोई शक नहंी रह जाता।
इस बात में दो राय नहीं है कि कर्नल गद्दाफी को अंतर्राष्टï्रीय संबंधों की बारीकियों की कोई जानकारी नहीं है।
क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी ऐसे देश के मसले को उठाना अपरिपक्वता की निशानी है लेकिन कूटनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ गद्दाफी के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी इसी सोच के चलते उन्होंने अपने भाषण में कश्मीर के मामले पर चर्चा की। सच्चाई यह है कि गद्दाफी या उनके देश लीबिया का कश्मीर समस्या से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनका कश्मीर मामले पर अपने आपको एक पार्टी बना देना परले दर्जे की राजनीतिक अपरिपक्तवता है। ऐसा करके उन्होंने भारत को तो नाराज किया ही, अपने प्रिय मित्र पाकिस्तान को भी बहुत खुश नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वह तो उसे अपने साथ मिलाना चाहता है। जहां तक भारत की बात है कश्मीर उसका एक राज्य है जो भारत के बंटवारे के बाद कश्मीर के राजा हरिसिंह की दस्तखत के बाद भारत का हिस्सा बना था।
कश्मीर के कुछ इलाके पर पाकिस्तान का कब्जा है जिसे वापस लेने के लिए भारत कूटनीतिक स्तर पर लगातार प्रयास कर रहा है। कश्मीर मसले पर मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर इंट्री लेकर गद्दाफी ने यही साबित किया है कि वे कूटनीति की बारीकियों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। मुअम्मर गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण के बाद अपने दुश्मनों की संख्या खूब बढ़ा ली है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अपमानित करते हुए उसे 'आतंकवादी परिषद' बताया और कहा कि अगर सुरक्षा परिषद का विस्तार हुआ तो दुनिया में गरीबी और नाइंसाफी बढ़ेगी और तनाव में इजाफा होगा। ऐसा लगता है कि जिस मनोदशा के वशीभूत होकर गद्दाफी भाषण कर रहे थे, उसमें कोई तार्किक बात ढूंढना ठीक नहीं होगा।
पता नहीं कैसे उन्होंने अनुमान लगा लिया कि आने वाले वक्त में इटली, जर्मनी, इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, फिलीपीन, जापान, अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच बहुत प्रतिस्पर्धा होगी। उनके दिमाग में कहीं से यह बात आ गई है कि अगर भारत को सुरक्षा परिषद में जगह दी गई तो पाकिस्तान भी जगह मांगेगा। बहुत पहले, भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलना अमरीकी विदेश नीति की एक प्रमुख धारा हुआ करती थी लेकिन भारत के चौतरफा विकास के बाद अब अमरीका इस नीति को छोड़ चुका है।
यहां तक कि पाकिस्तान भी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और वह भी अब अपने को भारत के बराबर नहीं मानता। पब्लिक में इस तरह की बात करनी पड़ती है क्योंकि वह पाकिस्तानी शासकों की आतंरिक राजनीति की मजबूरी है। इसलिए पाकिस्तान और भारत को बराबर करने की कोशिश करके गद्दाफी अपने कूटनीतिक अज्ञान का ही परिचय दे रहे थे। गद्दाफी की कल्पना शक्ति ने कुछ और भी कारनामे दिखाए। उन्होंने मांग की कि सदियों तक अफ्रीका को उपनिवेश बनाए रखने वाले मुल्क 70.77 खरब डॉलर का मुआवजा दें। पता नहीं कहां से उन्होंने यह आंकड़ा अर्जित किया था।
बहरहाल जिस रौ में वे बोल रहे थे, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि उनके मुंह से कुछ भी निकल सकता था और वे उन आंकड़ों के प्रति प्रतिबद्घ तो बिलकुल नहीं नजर आ रहे थे। लेकिन उनकी कल्पना शक्ति की उड़ान यहीं खत्म होने वाली नहीं थी। उन्होंने उन डाकुओं का भी समर्थन किया जो सोमालिया के समुद्री क्षेत्र और उसके बाहर के इलाकों में जहाजों केा लूटने का धंधा कर रखा है। उन्होंने कहा कि डाके का काम करने वाले लोग डाकू नहीं हैं। उन्होंने स्वीकार किया वास्तव में पुराने वक्तों में लीबिया ने वहां जाकर सोमालिया के लोगों की जलसंपदा का हरण किया था इसलिए उनका अपना देश भी डाकू है। लेकिन इसके बात गद्दाफी फिर बहक गए और उन्होंने भारत, जापान और अमरीका को भी जल डाकू घोषित कर दिया।
विश्व बिरादरी के लिए मुश्किल की बात यह है कि इस मानसिक दशा का व्यक्ति आजकल अफ्रीकी देशों के संगठन का भी अध्यक्ष है और अगर वह बहकी बहकी बातें करता रहेगा तो कूटनीति के मैदान में अफ्रीकी देशों का बहुत नुकसान होगा क्योंकि अंतर्राष्टï्रीय मंच पर उल जलूल बात करने वाले की बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता। हो सकता है कि संयुक्त राष्टï्र के मंच पर पहली बार अवसर मिलने के बाद गद्दाफी भाव विह्वïल हो गए हों और जो भी मन में आया बोलने लगे हों। यह भी हो सकता है कि उन्हें यह मुगालता हो कि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कुछ भी कह देने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए दिल खोलकर भड़ास निकाल लो।
ऐसा इसलिए कि अपने इसी भाषण में गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की तुलना लंदन के हाइड पार्क के 'स्पीकर्स कार्नर' से की जहां कोई भी आकर भाषण कर सकता है और अपनी भड़ास निकाल सकता है यानी उन्होंने खुद ही स्वीकार कर लिया कि वे एक प्रलाप कर रहे हैं जिसका कोई भी मतलब नहीं है। उनका यह विश्वास सच लगता है कि उनके लंबे भाषण को सुनने के लिए बहुत कम लोग बचे थे।
आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता
पाकिस्तान में 70 के दशक में जनरल जिया उल हक ने सत्ता संभाली तब से ही भारत में आतंक फैलाने के लिए राह भटके लोगों का इस्तेमाल होता रहा है। पंजाब में दस साल तक आतंक का जो राज चला उसके पीछे पाकिस्तानी जनरल और तानाशाह जिया उल हक का मुख्य हाथ था। लेकिन भारत के पंजाब में खून की होली खेल रहे लोग ज्यादातर सिख थे। दिल्ली में एक माओवादी नेता को बाद को पकड़ा गया है। आंध्र्रप्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में चल रहे आतंकवादी कारनामों को चलाने वाले संगठन कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (माओवादी) की सबसे महत्वपूर्ण नीति निर्धारक संस्था, पोलिट ब्यूरो के सदस्य कोबाद गांधी का धर्म पारसी है। माले गांव में विस्फोट करने वाले संगठन के लोग प्रज्ञा ठाकुर और रमेश पुरोहित हिंदू हैं।
अयोध्या की बाबरी मस्जिद को विध्वंस करने पर आमादा भीड़ में लगभग सभी हिंदू थे। प्रवीन तोगडिय़ा, अशोक सिंघल सभी हिंदू हैं और आतंक के जरिए अपनी बात मनवा लेने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। कश्मीर में आतंक फैलाने वाले और पाकिस्तान की आई.एस.आई की मदद से तबाही करने वाले लोग मुसलमान हैं। भारतीय संसद पर हमला करने वाले लोग ज्यादातर मुसलमान थे, बजरंग दल का हर सदस्य हिंदू है। गुजरात 2002 के नरसंहार को अंजाम देने वाले लोग भी हिंदू ही बताए गए हैं। इस तरह हम देखते हैं कि आतंकवाद के जरिए अपना लक्ष्य हासिल करने वाले व्यक्ति का उद्देश्य राजनीतिक होता है जिसको पूरा करने के लिए वह उन लोगों का इस्तेमाल करता है जो पूरी बात को समझ नहीं पाते।
पूरी दुनिया में आतंक के तरह तरह के रूप देखे गए है। जब अमरीका में नागरिक अधिकारों के लिए लड़ाई शुरू हुई तो शुरुआती काम अमरीका के दक्षिणी शहर, नेशविल में हुआ। तीन साल तक भारत में रहकर जब जेम्स लासन नाम के व्यक्ति ने काम शुरू किया तो उसका सबसे बड़ा हथियार महात्मा गांधी का सत्याग्रह था। इसके पहले अमरीका के अफ्रीकी मूल वाले नागरिक, मानवाधिकारों की लड़ाई के लिए हिंसक तरीके अपनाते थे लेकिन जेम्स लासन ने महत्मा गांधी की तरकीब अपनाई और लड़ाई सिविल नाफरमानी के सिद्घांत पर केंद्रित हो गई। वहां के क्लू, क्लास, क्लान के श्वेत गुंडों ने इन लोगों को बहुत मारा-पीटा, आतंक का सहारा लिया लेकिन लड़ाई चलती रही, शांति ही उस लड़ाई का स्थाई भाव था।
बाद में मार्टिन लूथर किंग भी इस संघर्ष में शामिल हुए और अमरीका में अश्वेत मताधिकार सेग्रेगेशन आदि समस्याएं हल कर ली गईं। अमरीकी मानवाधिकारों को दबा देने की कोशिश कर रहे सभी अश्वते गुंडे आतंक का सहारा ले रहे थे और ईसाई धर्म में विश्वास करते थे। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले व्यक्ति का उद्देश्य हमेशा राजनीतिक होता है और वह भोले भाले लोगों को अपने जाल में फंसाता है। इसलिए आतंकवाद की मुखालिफत करना तो सभ्य समाज का कर्तव्य है लेकिन आतंकवाद को किसी धर्म से जोडऩे की कोशिश करना जहालत की इंतहा है क्योंकि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। आतंकवाद अपने आप में एक राजनीतिक विचारधारा बनती जा रही है।
इसे हर हाल में रोकना होगा। जहां तक भारत का सवाल है, उसने आतंकवाद की राजनीति के चलते बहुत नुकसान उठाया है। महात्मा गांधी की हत्या करने वाले भी आतंकवादी थे और पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रशिक्षित थे। उनके मुख्य साजिश कर्ता वी.डी. सावरकर थे जो हिन्दुत्व के सबसे बड़े अलंबरदार थे। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि हिंदू धर्म का सावरकर के हिंदुत्व से कोई लेना देना नहीं है। इसके बाद भी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याएं भी आतंकवादी कारणों से हुईं। इंदिरा गांधी के हत्यारे सिख थे राजीव गांधी की हत्या हिन्दू आतंकवादियों ने की थी। मतलब यह हुआ कि आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले का कोई मजहब नहीं होता। वह सीधे सादे लोगों की भावनाओं को उभारता है और उसका इस्तेमाल अपने मकसद को हासिल करने के लिए करता है।
सवाल यह है कि आतंकवाद को खत्म करने के लिए क्या किया जाय। जवाब साफ है कि किसी भी आतंकवादी को ऐसे मौके न दिए जांय जिससे कि वह मामूली आदमी की भावनाओं को भड़का सके। सरकारों को सख्त होना पड़ेगा और न्यायपूर्ण तरीके से फैसले करना पड़ेगा। उदाहरण के लिए अगर उस वक्त की सरकारों ने 6 दिसंबर 1992 के दिन अपने कर्तव्य का पालन इंसाफ को ध्यान में रखकर किया होता तो मुस्लिम नवयुवकों का एक बड़ा वर्ग आतंकवादियों की बात को न मानता। लेकिन साफ दिख रहा था कि उत्तरप्रदेश की कल्याण सिंह सरकार और केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार आतंकवादियों के साथ मिली हुई हैं तो नौजवान भटका। इसमें से ही कुछ लोग आंतकवादियों के हत्थे चढ़ गये और इस्तेमाल हो गये।
1992-93 के मुंबई विस्फोट का सारा विस्फोटक मुंबई में तस्करी के चैनल से आया था और उसमें कस्टम अधिकारियों का हाथ था। स्वर्गीय मधु लिमये ने पता लगाया था कि वे सारे कस्टम वाले हिंदू थे। यह लोग पैसे की लालच में काम कर रहे थे। पटना में पकड़ा गया, आई.एस.आई. का कार्यकर्ता भी हिंदू है और पैसे की लालच में था। पंजाब में भी आतंकवाद शुरू तो हुआ पाकिस्तान की शह पर लेकिन अपने आखरी दिनों में पंजाब का आतंकवाद शुद्घ कारोबार बन गया था। इसलिए आतंकवाद को किसी भी मजहब से जोडऩा बहुत बड़ी गलती होगी।
Thursday, September 24, 2009
इस जिन्ना को भी तो देखिए...
पिछले कई वर्षों से भाजपा की कोशिश थी कि सरदार पटेल को अपने हीरो के रुप में पेश किया जाए। ये काम काफी सुनियोजित तरीके से चल रहा था और ये संभावना थी कि नेहरू गांधी परिवार के वंशजों में सरदार पटेल के प्रति जो लापरवाह रवैया है, उससे भाजपा की योजना सफल भी हो जाती और किसी दिन सरदार पटेल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के अध्यक्ष हो जाते। लेकिन जसवंत सिंह द्वारा अपनी किताब में सरदार पटेल जिन्ना की तुलना में कमतर करने की कोशिश ने राजनीति में तूफान खड़ा कर दिया और सरदार पटेल की मुखालफत के अपराध में भाजपा को जसवंत सिंह को पार्टी की आलोचना करके जसवंत सिंह ने पार्टी की मुख्य विचारधारा का विरोध किया है।
इस घटना ने बहुत सारे गड़े मुरदे उखाड़ दिए हैं और एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि सरदार पटेल का संघ की विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो संघ विरोधी थे और गृह मंत्री के रुप में संघ पर प्रतिबंध उनके आदेश से ही लगाया गया था। दुनिया को ये भी मालूम हो गया कि सरदार पटेल के ही आदेश पर उस वक्त के सरसंघ चालक एम एस गोलवलकर को गांधी जी की हत्या के मुकदमें वाले मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था और ये भी कि संघ से पाबंदी हटाने के लिए सरदार पटेल ने गोलवरकर ने अंडरटेकिंग लिखवाई थी। यानि अगर सरदार पटेल के मन में संघ के प्रति जरा भी मुहब्बत होती को वो मौका पाते ही उसके सरसंघ चालक को इतना जलील न करते। साफ है कि जसवंत सिंह ने ये किताब लिखकर भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है।
जसवंत सिंह की किताब में कुछ भी ऐसा नहीं है जो पहले से मालूम न हो, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर नए सिरे से समीक्षा का माहौल पैदा करने में इस किताब का बड़ा योगदान है। पाकिस्तान के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार डॉन में वहां के जाने-माने लेखक माहिर अली साहब ने एक नया तथ्य पेश किया है...उनका दावा है कि मुहम्मद अली जिन्ना देश का बंटवारा बिल्कुल नहीं चाहते थे, वो पाकिस्तान की बात इसलिए कर रहे थे कि कांग्रेसी डर जाएं और उनकी हर बात मान लें। उनकी इच्छा थी कि देश आजाद हो और एक ढीला-ढाला फेडरेशन बन जाए जिसमें मुस्लिम इलाकों की चैधराहट जिन्ना के पास रहे और वो जो चाहें करवा सकें। दुनिया जानती है कि बंटवारे के बाद जिन्ना को जो पाकिस्तान मिला वो उससे संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने कहा कि मुझे एक मॉथ ईटेन पाकिस्तान यानी कीड़ों से खाया हुआ पाकिस्तान मिला है। जिन्ना को उम्मीद थी कि कश्मीर, जूनागढ़, हैदराबाद वगैरह भी उनको पाकिस्तान के हिस्से के रूप में मिल जाएगा।
जाहिर है पाकिस्तान की मांग जिन्ना की अदूरदर्शिता का परिणाम थी। वो कभी किसी संघर्ष में शामिल नहीं हुए थे इसलिए उनको अंदाजा नहीं था कि आजादी कितनी मुश्किल से मिली थी। अंग्रेजों की मदद और प्रेरणा से मुल्क का बंटवारा तो हो गया लेकिन बाद में जिन्ना को बहुत पछतावा हुआ बंटवारे के तुरंत बाद पाकिस्तान टाइम्स ने जिन्ना को जहाज पर बैठाकर उन इलाकों के हवाई सर्वे कराए जहां शरणार्थी शिविर लगाए गए थे। लोगों की बदहाली देखकर जिन्ना सन्न रह गए और कहा, “या खुदा, ये मैंने क्या कर डाला?”
विख्याद इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने अपनी किताब, इंडिया समर- सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एम्पायर में लिखा है कि पाकिस्तान की स्थापना में जिन्ना से ज्यादा अंग्रेजों का योगदान है। टुंजेलमान ने लिखा है, “अगर जिन्ना पाकिस्तान के कायदे आजम हैं तो ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को पाकिस्तान का चाचा माना जाना चाहिए, क्योंकि इस्लामी राज्य गठित करके कांग्रेस को औकात बताने की साजिश उन्ही की थी।” टुंजेमान ने एक और दिलचस्प बात लिखी है अपनी किताब में। उनके मुताबिक अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफू है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें।
इतिहास किसी को माफ नहीं करता, वो जिन्ना को भी माफ नहीं करेगा क्योंकि आजादी के 6 दशक बाद भी जिन्ना की बात पर जिन लोगों ने विश्वास किया था वो चैन से नहीं हैं। फौजी तानाशाहों और अमेरिकी दादागीरी झेल रही पाकिस्तान की आवाम में बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी परेशानियों के लिए जिन्ना को जिम्मेदार मानते हैं। यानी जिन्ना का जिक्र सरहदों के दोने तरफ परेशानी पैदा करता है।
ये लेख अमर उजाला में 24 सितंबर को छपा है...
Wednesday, September 23, 2009
क्या कांग्रेस वास्तव में धर्मनिरपेक्ष है?
जसवंत सिंह ने नेहरू और पटेल की तुलना में जिन्ना के ज्यादा जिम्मेदार होने का संकेत देकर माहौल को बहुत गर्मा दिया था। इस बीच गुजरात पुलिस के कुछ बड़े अधिकारियों द्वारा मुंबई की एक लड़की इशरत जहां को फर्जी मुठभेड़ में मार डालने की बात भी बहस के दायरे में आ गई। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर उंगली उठने लगी। उनके शुभचिंतक कहने लगे कि मोदी फिर एक बार अनावश्यक विवाद के घेरे में फंस गए और उनके विरोधी कहने लगे कि इशरत जहां कि हत्या नरेंद्र मोदी के सांप्रदायिक एजेंडे को पूरा करने की बड़ी योजना का एक मामूली टुकड़ा है।
बहस एक बार सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के विषय पर पहुंच गई और मोदी के समर्थकों ने उनके हर विरोधी को छदम धर्मनिरपेक्ष और उनके विरोधियों ने उन्हें फासिस्ट और सांप्रदायिक कहना शुरू कर दिया। इस पूरी बहस में कांग्रेस पार्टी के नेता आमतौर पर तमाशबीन बनकर आनंद ले रहे हैं और आमतौर पर धर्मनिरपेक्षता के अलम्बरदार के रूप में अपने आपको पेश कर रहे हैं। इस तरह सरदार पटेल, नेहरू, जिन्ना, आडवाणी, जसवंत सिंह, कांग्रेस पार्टी और नरेंद्र मोदी के हवाले से बहस एक बार धर्मनिरपेक्षता के इतिहास और राजनीति पर केंद्रित हो गई है।
ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है और यह भी कि क्या कांग्रेस वास्तव में वैसी ही धर्मनिरपेक्ष है जैसी कि आजादी की लड़ाई के दौरान देश के महान नेताओं ने इसे बनाया था। जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है वह भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। संविधान की शुरूआत ही इसी बात से होती है कि भारत के लोगों ने एक सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक गणतंत्र के रूप में अपने आपको गठित कर लिया है।
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। यह अलग बात है कि किसी की कमीज दूसरे व्यक्ति की कमीज से ज्यादा उजली हो सकती है। इसकी बहस में आमतौर पर कांग्रेस को बहुत ही धर्मनिरपेक्ष माना जाता है। ऐसा लगता है कि यह मान लेना साधारणीकरण होगा। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। इसलिए उस दौर में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठते लेकिन आजादी की बाद की कांग्रेस के बारे में यह सौ फीसदी सही नहीं है।
60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आती है लेकिन शास्त्री जी के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्घांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब की प्रकाशन की आजकल शताब्दी भी चल रही है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गंाधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।
लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। लेकिन कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।
कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।
सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।
मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।
कांग्रेस के इंदिरा गांधी युग में धर्मनिरपेक्षता के विकल्प की तलाश शुरू हो गई थी। उनके बेटे और उस वक्त के उत्तराधिकारी संजय गांधी ने 1975 के बाद से सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ करने के संकेत देना शुरू कर दिया था। खासतौर पर मुस्लिम बहुल इलाकों में इमारतें ढहाना और नसबंदी अभियान में उनको घेरना ऐसे उदाहरण हैं जो सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ इशारा करते हैं। 1977 के चुनाव में कांग्रेस को मुसलमानों ने वोट नहीं दिया। उसके बाद से ही कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति की शुरुआत होने लगी। असम में छात्र असंतोष और पंजाब में जनरैल सिंह भिंडरावाला को कांग्रेसी शह इसी राजनीति का नतीजा है।
कांग्रेस का राजीव गांधी युग राजनीतिक समझदारी के लिए बहुत विख्यात नहीं है। वे खुद प्रबंधन की पृष्ठभूमि से आए थे और उनके संगी साथी देश को एक कारपोरेट संस्था की तरह चला रहे थे। इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी शक करते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी ठीक से जानकारी थी।
बहरहाल उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।
राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। पी.वी. नरसिंह राव जुगाड़ कला के माहिर थे और इतिहास उनकी पहचान उसी रूप में करेगा। पी.वी.नरसिंह राव के दौर में ही देश में विदेशी पूंजी की धूम शुरू हो गई थी और उसके साथ ही राज करने के तरीकों में भी परिवर्तन हुए हैं। कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व घोषित तौर पर आर.एस.एस. की नीतियों की मुखालिफत करता है। और उसी के बल पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहता है। यहां एक लोच है।
धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था।
Monday, September 21, 2009
मानवता का युद्ध अपराधी इजरायल
रिचर्ड गोल्डस्टोन नाम के इस जज ने कहा है कि इजरायल ने जो कुछ भी गाजा में उन तीन हफ्तों में किया है, उसे युद्ध अपराध माना जाएगा कुछ मामले तो ऐसे हैं जहां इजरायली सेना की कार्रवाई "मानवता के खिलाफ" अपराध की श्रेणी में आ जाएगी इजरायल कहता रहा है कि सैनिक कार्रवाई फिलिस्तानी इलाकों से होने वाले हमलों के जवाब में है लेकिन सच्चाई यह है कि इजरायली सेना ने कम से कम चौदह सौ लोगों को मार डाला जिसमें करीब 500 महिलाएं और बच्चे हैं। यह जांच एक निष्पक्ष जज ने की है जो मूलतः दक्षिण अफ्रीका के रहने वाले हैं।
उन्होंने पता लगाया है कि नागरिक ठिकानों को जानबूझकर निशाना बनाया गया। इजरायल ने आवश्यकता से अधिक सैनिक बल का इस्तेमाल करके सिविलियन संपत्ति और सार्वजनिक सुविधाओं की तबाही की जिसकी वजह से गाजा के सीधे सादे फिलिस्तीनियों को बहुत मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जांच से यह भी पता लगा कि इजरायली सेना ने संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी ठिकानों को भी नहीं बख्शा। 15 जनवरी की रात ऐसे ही एक ठिकाने पर हमला किया गया जहां करीब 700 सिविलयन रखे गए थे। इस हमले में फॉस्फोरस बम का इस्तेमाल किया गया जिसकी वजह से आग लग जाती है।
गाजा शहर के अल कुदस अस्पताल पर भी हमला किया गया इजरायल ने अस्पताल पर हमले के बाद बहाना बनाया था कि वहां फिलिस्तीनी आतंकवादी छुपे हुए थे। जांच से पता चला है कि इजरायल का यह बयान बिल्कुल गलत है, वहां कोई नहीं छुपा हुआ था। हमले में बेगुनाह लोग मारे गए थे। कई ऐसे भी मामलों से पर्दाफाश हुआ है जब इजरायली सेना ने निर्दोष बच्चों और औरतों को अगवा किया, उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और उनको आगे करके मानवीय शील्ड की तरह इस्तेमाल किया, फिलिस्तीनी ठिकानों पर हमला किया और तबाही मचाई।
ऐसे भी सबूत मिले हैं कि इजरायली सेना ने खेती को बर्बाद किया, पानी के कुओं में बमबारी की, पानी के टैंक बरबाद किए और जिंदगी को नामुमकिन बनाने की कोशिश की। उनका लक्ष्य स्पष्ट था कि फिलिस्तीनी अवाम के लिए इतनी मुश्किले पैदा कर दी जायं कि उनकी जिंदगी तबाह हो जाय। इजरायली सेना हमेशा से यही करती रही है, इसमें नया कुछ नहीं है। नया है तो बस उस उम्मीद का मर जाना, जो दुनिया के सभ्य समाजों ने अमरीका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा से लगा रखी थी।अपने चुनाव अभियान के शुरुआती दौर से ही बराक ओबामा यह संकेत देते रहे थे कि उनकी पश्चिम एशिया नीति उतनी अरब विरोधी नहीं होती जितनी अब तक के राष्ट्रपतियों की होती रही है लेकिन अब तक के संकेतों से तो यही लगता है कि कोई खास परिवर्तन नहीं होने वाला है।
अमरीका की नीति पश्चिम एशिया में वही रहेगी जिसके हिसाब से इजरायल को धौंस देने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। दरअसल रिचर्ड ग्लैडस्टोन की रिपोर्ट के बाद बराक ओबामा की परीक्षा की घड़ी भी आ पहुंची है। जैसी कि उम्मीद थी, इजरायल ने ग्लैडस्टोन की रिपोर्ट को पक्षपातपूर्ण कहकर टरकाने की कोशिश की लेकिन इस दक्षिण अफ्रीकी जज ने इजरायल को फटकार दिया है और कहा कि इजरायल का यह कहना ही गैर जिम्मेदार आचरण है कि रिपोर्ट तैयार करते समय उन पर कोई दबाव डाल रहा था। उन्होंने कहा कि जो कुछ भी रिपोर्ट में लिखा गया है, वह एक निष्पक्ष जांच का नतीजा है। और उन्हें इस बात का अफसोस रहेगा कि इस पूरी जांच प्रक्रिया में इजरायल का रुख सहयोग का नहीं रहा।
इस बीच इजरायली मीडिया के माध्यम से सरकार ने जज ग्लैडस्टोन पर व्यक्तिगत हमलों का अभियान शुरू कर दिया है लेकिन ग्लैडस्टोन के ऊपर इसका कुछ भी असर नहीं पड़ने वाला है। वे इस तरह की परिस्थितियों से कई बार गुजर चुके हैं। 1994 में जब रंगभेद के खात्मे के बाद दक्षिणी अफ्रीका में चुनाव हुए तो चुनावों के पहले बड़े पैमाने पर हिंसा और धौंस पट्टी की वारदातें हुई थीं। उनकी जांच का जिम्मा भी इन्हें दिया गया था और उसे उन्होंने बहुत ही सच्चाई के साथ पूरा किया था। वे अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में यूगोस्लाविया और वांडा जैसे मामलों में भी संयुक्त राष्ट्र की तरफ से काम कर चुके है। अब अमरीका के राष्ट्रपति को एक मौका मिला है कि वे फिलिस्तीन और अरब राजनीति में इंसाफ के पक्षधर के रूप में अपने आपको पेश करें क्योंकि अगर ऐसा न हुआ तो अन्य अमरीकी राष्ट्रपतियों की तरह इतिहास उनको भी नहीं माफ करेगा।
Friday, September 18, 2009
ऐतिहासिक भूलों का मार्क्सवादी मसीहा
पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों को एक और चुनावी नुकसान हुआ है। लोकसभा चुनाव में काफी सीटें गवां चुकी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य वामपंथी पार्टियों को सिलिगुड़ी नगर निगम के चुनावों में जोर का झटका बहुत ज़ोर से लगा है। पिछले 28 वर्षों से सिलीगुड़ी नगर निगम पर लाल झंडे वालों का कब्ज़ा था लेकिन इस बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी है।
अबकी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस गठबंधन ने 29 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया है। वामपंथी मोर्चे को केवल 17 सीटें मिली हैं। यह बड़ी हार है क्योंकि पिछले चुनावों में 36 सीटें जीतकर सिलीगुड़ी नगर पालिका पर लाल झंडा फहराया गया था। गौर करने की बात यह है कि सिलीगुड़ी किसी कस्बे की टाउन एरिया कमेटी नहीं है, यह कलकत्ता के बाद राज्य का सबसे बड़ा नगर निगम है। इसे उत्तर बंगाल में लेफ्ट का गढ़ माना जाता है।
दक्षिण बंगाल में मार्क्सवादी दलों की दुर्दशा लोकसभा चुनाव में ही हो चुकी थी अब उत्तर बंगाल में राग विदाई की भनक सुनाई पड़ने लगी है। सिलीगुड़ी नगर निगम के चुनाव का भावार्थ बहुत गहरा है। 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव होने वाला है और तृणमूल कांग्रेस की कोशिश है कि उस चुनाव में अपनी जीत के पक्की होने के संदेश के रूप में सिलीगुड़ी की लड़ाई को पेश किया जाय। दक्षिण बंगाल में वाम मोर्चा की जो खस्ता हालत हुई है, उसको ध्यान में रखा जाय तो इस बात में बहुत वज़न नज़र आने लगता है कि ममता बनर्जी राज्य की सबसे महत्वपूर्ण नेता के रूप में उभर रही है।
सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में पिछले 32 वर्षों से राज करने वाले वाम मोर्चे के नेताओं के सामने यह दुर्दिन क्यों मुंह बाए खड़ा है? 1977 में वाम मोर्चे ने कई साल से चल रहे कांग्रेसी कुशासन को समाप्त करने के लिए पश्चिम बंगाल की जनता के भारी समर्थन से कलकत्ता में सरकार बनाई थी। ज्योति बसु मुख्मंत्री बने थे और राज्य में बुनियादी परिवर्तन की शुरुआत की थी। गांवों में रहने वाले गरीब से गरीब आदमी के हित को राजकाज के फैसलों का केंद्र बिंदु बनाकर ज्योति बसु ने राज किया लेकिन जब हाथ पांव चलाने में भी दिक्कत होने लगी और उम्र अपना नज़ारा दिखाने लगी तो उन्होंने अगली पीढ़ी को काम संभलवाकर वानप्रस्थ ले लिया।
लगता है कि यहीं कोई चूक हो गई क्योंकि ज्योति बसु के जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल में वामपंथी राजनीति ढलान पर है। पार्टी का दुर्भाग्य ही है कि ज्योति बसु के लगभग साथ-साथ ही दिल्ली के सत्ता के गलियारों का ज्ञाता एक और कम्युनिस्ट रिटायर हो गया। हरिकिशन सिंह सुरजीत के बैठक ले लेने के बाद दिल्ली में भी सत्ता परिवर्तन हुआ और नए महासचिव, प्रकाश करात ने कमान संभाली। प्रकाश करात बहुत ही पढ़े लिखे और कुशाग्र बुद्धि के माहिर नेता हैं।
चुस्त दुरुस्त लेखन के ज्ञाता हैं और मार्क्सवाद के प्रकांड पंडित हैं। उनका व्यक्तित्व कुछ-कुछ मुहम्मद अली जिनाह वाला है। जिनाह की एक खासियत थी कि वे कभी भी किसी जन आंदोलन का हिस्सा नहीं रहे लेकिन अपनी बात को सबसे ऊपर रखने की कला के माहिर थे। जिन्ना की खासियत यह थी कि वे पूरी नहीं तो आधी ही सत्ता लेकर माने लेकिन प्रकाश करात आई हुई सत्ता को दुत्कार कर भगा देने में बहुत ही निपुण हैं।
1996 में जब पूरा देश ज्योति बसु को प्रधान मंत्री देखना चाहता था, प्रकाश करात ने ही उस खेल में गाड़ी के आगे काठ रखा था। बाद में उस गलती को ऐतिहासिक भूल कहा गया और पार्टी ने गलती स्वीकार की। उसके बाद प्रकाश करात को ऐतिहासिक भूलों का विशेषज्ञ मान लिया गया। 2004 में कांग्रेस को बाहर से समर्थन देना, अभी ऐतिहासिक भूल के रूप में औपचारिक रूप से दर्ज तो नहीं है लेकिन जानकार बताते हैं कि अंदरखाने यह चर्चा हुई थी कि अगर मनमोहन सिंह सरकार में करीब 10 कम्युनिस्ट मंत्री होते तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां मनमानी न कर पातीं और सरकार परमाणु समझौता न कर पाती।
बाद में सरकार से समर्थन वापसी और तथाकथित तीसरा मोर्चा बनाने की ऐतिहासिक भूलें भी न होतीं। दक्षिणपंथी राजनेताओं और पूंजीवादी मीडिया की कृपा से आमतौर पर माना जाता है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं होता। लेकिन यह सच नहीं हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों में हर प्रस्ताव गांव स्तर की कमेटी तक बहस के लिए लाया जाता है और अधिकतर संख्या के लोगों की राय को राष्ट्रीय प्रस्तावों में परिलक्षित होते देखा जा सकता है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में भी यही माहौल था। लेकिन ज्योति बसु-सुरजीत टीम के हटने के बाद लगता है, यह रिवाज खत्म हो गया। आम कार्यकर्ता अपने को अलग थलग महसूस करने लगा। जब लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाला गया तो पश्चिम बंगाल में चारों तरफ निराशा छा गई। लगता है कि भविष्य में सोमनाथ को हटाने का फैसला भी ऐतिहासिक भूल की हैसियत हासिल कर लेगा। बहरहाल भूलों के बाद भूल करती मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पश्चिम बंगाल में एक-एक करके सब कुछ गंवा रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि चुनावों में लगातार नुकसान उठा रही पार्टी अपने को संभाल पाती है या उसका भी वही हाल होता है, जो उत्तर भारत के कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी का हुआ है।
Thursday, September 17, 2009
कांग्रेस की शिकस्त और बड़प्पन के मुग़ालते
उत्तर प्रदेश में उम्मीद से कुछ सीटें ज्यादा पाने के बाद कांग्रेसी नेताओं की चाल में कुछ अलग किस्म की धमक आ गई थी, महाराष्ट्र में भी अपने पुराने साथी एनसीपी के नेता, शरद पवार को औकातबोध का ककहरा बताया जाने लगा था। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के प्रतिनिधि अमर सिंह की शिकायत टेलीविजन पर सुनाई पड़ी कि सोनिया गांधी उनको मिलने का टाइम तक नहीं दे रही हैं। यानी कांगे्रस में वही सारे लक्षण दिखने लगे थे, जो एक विजेता में पाए जाते हैं। सच्ची बात यह है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत नहीं हुई थी।
वास्तव में जिसे कांग्रेस की जीत कहा जा रहा है, वह बीजेपी की हार थी। कांग्रेस ने तो सबसे बड़ी पार्टी की हैसियत हासिल करके कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जुटाकर दिल्ली में एक सरकार बना दी थी। जिससे केंद्र में स्थिरता आ गई थी। केंद्र सरकार बन जाने के बाद कांग्रेस के ज्यादातर नेता इसे धर्मनिरपेक्षता की जीत बताने लगे और यहीं गलती हो गई क्योंकि खींच खांचकर कांग्रेस को तो सेक्युलर माना जा सकता है लेकिन यूपीए में शामिल सभी घटक दल ऐसे नहीं हैं।
उसमें ममता बनर्जी, फारूक अब्दुल्लाह और करूणानिधि भी हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी की ताजपोशी में भूमिका अदा कर चुके हैं। ममता बनर्जी तो बीजेपी के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में चुनाव भी लड़ चुकी हैं। इसलिए केंद्र सरकार की धर्मनिरपेक्षता स्वंयसिद्घ नही हैं। हां अगर कांग्रेस की नीयत साफ हो तो इस सरकार से सेक्युलर एजेंडे पर काम करवाया जा सकता है। एक बात जो बहुत ज्यादा सच है, वह यह कि किसी भी सरकार के जरिए राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती खासकर अगर सरकार में शामिल मंत्री आराम तलबी की लत के शिकार हो चुके हैं।
पिछले दिनों जिस तरह से हवाई जहाज़ में मंहगी टिकट लेकर यात्रा करने के मामले में नेताओं का व्यक्तित्व उभरा है, वह बहुत ही दु:खद है। इन लोगों से किसी राजनीतिक लड़ाई के संचालन की उम्मीद करना बेमतलब है। बहरहाल मई से अब तक के बीच में जो हुआ है, उसका लुब्बो-लुबाब यह है कि सांप्रदायिक ताकतें फिर से लामबंद हो रही हैं और विधान सभा के कुछ उपचुनावों के जो नतीजे आए हैं, वे निश्चित रूप से इस बात का संकेत करते हैं कि बीजेपी कहीं से कमजोर नहीं है और कांग्रेस के लोग फौरन न चेते तो उनकी राजनीतिक हैसियत ढलान पर चल रही मानी जाएगी और ढलान पर चलने वाली हर सवारी सबसे निचले स्तर पर पहुंच कर ही रूकती हैं।
अब जिन 12 उपचुनावों के नतीजे आए हैं उनमें सात सीटें बीजेपी को मिली हैं। इसमें 6 सीटें वे हैं जो पहले कांग्रेस के पास थीं और इन उपचुनावों में वे बीजेपी के पास आ गई हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस इन इलाकों में कमजोर हुई है। कांग्रेस को जहां सफलता मिली है, उनमें से ज्यादातर सीटें आंध्र प्रदेश से आई हैं जहां सांप्रदायिक ताकतें बहुत ही कमज़ोर हैं। यानी अगर कांग्रेस को सांप्रदायिकता के खिलाफ ईमानदारी से लड़ाई का नेतृत्व करना है तो उसे पूरे देश में मौजूद बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्ष लोगों की लामबंद करना पड़ेगा। यह काम कोई आसान नहीं है। उसके लिए सबसे पहले तो कांग्रेसी नेताओं को दंभ की बीमारी छोडऩी पड़ेगी।
अभी कल की बात है कि समाजवादी पार्टी ने परमाणु समझौते वाले मसले पर कांग्रेस की आबरू बचाई थी और आज थोड़ी ज्यादा सीटें आ गईं तो उस पार्टी के महामंत्री को सोनिया गांधी के निजी सहायक तक ने समय नहीं दिया। यही हाल महाराष्ट्र में भी है। संयुक्त मोर्चा सरकारों के बारे में पश्चिम बंगाल के लेफ्ट फ्रंट का तजुरबा बहुत ही महत्वपूर्ण है। 1977 में राज्य की वामपंथी पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार बनाई। उसके बाद कई बार ऐसे मौके आए कि सबसे बड़ी पार्टी को अपने बलबूते पर स्पष्टï बहुमत मिल गया लेकिन पार्टी के सबसे बड़े नेता ज्योति बसु अहंकार से वशीभूत नहीं हुए और सभी पार्टियों को साथ लेकर चलते रहे।
केंद्रीय नेतृत्व का सबसे बड़ा अधिकारी जिद्दी और दंभी है जिसकी वजह से कांग्रेस और ममता बनर्जी की संयुक्त ताकत वामपंथियों को दुरूस्त कर रही है। बहरहाल ज्योतिबसु और हरिकिशन सिंह सुरजीत के नेतृत्व में गठबंधन राजनीति का जो बंगाल मॉडल विकसित हुआ है, केंद्र की पार्टियों को भी उसको अपनाना चाहिए। खासतौर से अगर फासिस्ट ताकतों से मुकाबला है तो जनवादी ताकतों और उनके साथियों को लामबंद होना पड़ेगा। कांग्रेसी नेताओं में घुस चुके अहंकार के भाव को अगर फौरन रोका न गया तो भारत सांप्रदायिकता के खिलाफ शुरू की गई लड़ाई हार जाएगा। जो देश के लिए बिलकुल ठीक नहीं होगा।