Saturday, November 2, 2013

बस्तर संभाग में नरेंद्र मोदी को कोई नहीं जानता,यहाँ रमन सिंह बीजेपी के सबसे बड़े नेता हैं


शेष नारायण सिंह 

जगदलपुर, २७ अक्टूबर . छत्तीसगढ़ विधान सभा के चुनावो के बाद रायपुर में बनने वाली सरकार के गठन में बस्तर संभाग की १२ सीटों का महत्व सबसे ज़्यादा है . बाकी इलाके में तो कांग्रेस और बीजेपी की स्थिति लगभग बराबर ही रहती है . पिछली विधान सभा में बस्तर संभाग की बीजेपी की ११ सीटों के कारण ही रमन सिंह दुबारा मुख्यमंत्री बन सके थे  . लेकिन  बस्तर क्षेत्र में रहने वाला हर इंसान जानता है कि इस बार बीजेपी की ११ सीटें नहीं आ रही है . यहाँ तक कि बीजेपी के कार्यकर्ता भी जानते हैं कि उनकी पार्टी की हालत इस बार उतनी अच्छी नहीं है जितनी पिछली बार थी. पिछली बार बस्तर में लखमा कवासी इकलौते कांग्रेसी उम्मीदवार थे जो कोंटा से विजयी रहे थे. कांग्रेसी उम्मीद कर रहे थे कि जीरम घाटी में मारे गए महेंद्र कर्मा के परिवार के किसी उम्मीदवार को टिकट दे देने से उसे सहानुभूति का लाभ मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है .उसी तरह दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता समझ रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की आक्रामक हिंदू नेता की छवि का लाभ पार्टी को मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है .कई इलाकों में तो लोगों ने नरेंद्र मोदी का नाम भी नहीं सुन रखा है .इस इलाके में बीजेपी का एक ही नेता है और उसका नाम है रमन सिंह .

बस्तर संभाग में २००८ के चुनाव में  ११ सीटें जीतकर रमन सिंह ने सरकार बना ली थी. यहाँ के हर जानकार ने बताया कि इस इलाके में आदिवासियों और सतनामियों के बीच कांग्रेस नेता अजीत जोगी की पहचान  है और  बीजेपी की ११ सीटों  की जीत में अजीत जोगी की खासी भूमिका थी क्योंकि उन्होंने अपने आपको बड़ा नेता साबित करने के लिए अपने विरोधी गुट के कांग्रेसी उम्मीदवारों के खिलाफ काम किया था . लेकिन इस बार ऐसा नहीं है . इस बार अजीत जोगी कांग्रेस के उम्मीदवारों के खिलाफ काम नहीं कर रहे हैं . बस्तर संभाग की ११ सीटें रिज़र्व हैं जबकि जगदलपुर की सीट सामान्य है . यहाँ से कांग्रेस ने शामू कश्यप को उम्मीदवार बनाया है . कांग्रेस के एक बहुत ही ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह कांग्रेस आलाकमान की चूक है . शामू कश्यप महरा जाति के हैं .उनकी जाति के लोगों की बहुत वर्षों से मांग है कि उनको अनुसूचित जनजाति का दरजा दिया जाए लेकिन अनुसूचित जनजाति के लोग इस मांग का विरोध कर रहे हैं . उनको डर है कि अगर महरा जाति को  अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा मिल गया तो वे सारे लाभ हथिया लेगें क्योंकि महरा जाति के लोग अपेक्षाकृत चालाक बताए जाते हैं . गाँवों में जो भी छोटे मोटे कारोबार हैं सब इनके पास ही हैं . कांग्रेस को उम्मीद है कि महरा जाति के करीब दो लाख वोट उनको एकतरफा मिल जायेगें लेकिन इस गणित से बीस लाख के करीब मुरिया,गोंड,राउत और घसिया आदिवासी नाराज़ भी हो सकते हैं .बताते हैं कि  कांग्रेस की इस राजनीतिक अनुभवहीनता का लाभ उठाने के लिए बीजेपी ने अपने वनवासी कल्याण परिषद वालों के ज़रिये बहुसंख्यक आदिवासियों को सचेत करना शुरू कर दिया है . ऐसी हालत में जगदलपुर के मौजूदा विधायक संतोष बाफना को लाभ मिलने की स्थति पैदा हो गयी है .यहाँ कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही बागियों का सामना करना पड़  रहा है . बीजेपी के राजाराम तोडेम स्वाभिमान मंच से लड़ रहे हैं तो सेठिया समाज के राम केसरी कांग्रेस से नाराज़ होकर बागी हो गए हैं इस इलाके में सेठिया समाज के वोटों की खासी संख्या है .ज़ाहिर है कि यह बीजेपी को फायदा पंहुचा सकते हैं .

इस बार बस्तर सम्भाग की दो सीटों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार मजबूती से लड़ रहे हैं . कोंटा में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के अध्यक्ष ,मनीष  कुंजाम मज़बूत हैं जबकि उनकी पुरानी सीट दंतेवाड़ा में उनकी पार्टी के उम्मीदवार बोमड़ा राम कवासी की हालत बहुत अच्छी है . दंतेवाडा सीट इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहाँ से कांग्रेस ने महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को टिकट दिया है . कांग्रेस ने उम्मीद की थी कि महेंद्र कर्मा की जिस तरह से माओवादियों ने जीरम घाटी में ह्त्या की थी उससे सहानुभूति  मिलेगी लेकिन दंतेवाड़ा में ऐसा कुछ नहीं दिखता.  देवती कर्मा से किसी को सहानुभूति नहीं है . उनके दो बेटे इलाके में ऐसी ख्याति अर्जित कर चुके  हैं जिसके बाद किसी को भी सहानुभूति नहीं मिलती. उनका एक बेटा अभी भी नगर पंचायत का अध्यक्ष है जबकि दूसरा जिला पंचायत का भूतपूर्व अध्यक्ष है. दोनों ने ही इलाके के लोगों को बहुत परेशान कर रखा है . सलवा जुडूम के हीरो के रूप में भी महेंद्र कर्मा की  पहचान थी जिसके कारण आदिवासी इलाकों  में उन्हें बीजेपी के एजेंट के रूप में पहचाना जाता है . आम आदिवासी महेंद्र कर्मा को नापसंद करता है  हालांकि केन्द्र सरकार और उनेक सहयोगी उन्हें बस्तर का शेर बनाकर पेश करने की कोशिश करते हैं . दंतेवाड़ा से महेंद्र कर्मा २००८ में खुद कांग्रेस उम्मीदवार थे और तीसरे नंबर पर रहे थे . यहाँ कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे नंबर पर थी . उस बार यहाँ के उम्मीदवार मनीष कुंजाम थे . कम्युनिट पार्टी के प्रचार में दिन रात एक कर रहे पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य सी आर बख्शी ने बताया कि उनका उम्मीदवार गैर आर एस एस समुदाय में बहुत लोकप्रिय है .यहाँ की लड़ाई अभी शुद्ध रूप से सी पी आई और बीजेपी के बीच है . दिल्ली में कांग्रेस के एक बड़े नेता ने भी बताया कि दंतेवाड़ा में सी पी आई का उम्मीदवार बहुत मजबूत है .

कोंटा सीट पर  सी पी आई के मनीष कुंजाम खुद उम्मीदवार हैं . उनकी इज्ज़त सभी वर्गों में है . जब माओवादियों ने सुकमा के कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन का अपहरण कर लिया था  तो उनकी रिहाई के लिए जो कोशिशें हुई थीं उनमें मनीष कुंजाम ने जो भूमिका निभाई थी उसकी सभी सराहना करते हैं . माओवादियों के बीच भी उनकी इज्ज़त है . आदिवासी समुदाय उनके साथ है लेकिन एक शंका यह जतायी जा रही है कि रमन सिंह की सरकार कम्युनिस्ट उम्मीदवारों को नहीं जीतने देगी चाहे उसे कांग्रेस के पक्ष में ही बीजेपी के अपने वोट ट्रांसफर करना पड़े. बस्तर सम्भाग से इकलौते कांग्रेसी एम एल ए , कवासी लखमा भी कोंटा में उम्मीदवार हैं . लेकिन उनकी हालत खस्ता बतायी जा रही है . यह सीट सी पी आई को मिल सकती है .

बीजेपी के बस्तर क्षेत्र के विधायकों के खिलाफ जनरल माहौल है .चित्रकोट के बीजेपी उम्मीदवार बैदूराम कश्यप हैं जो विधायक भी हैं . यह कभी भी अपने क्षेत्र में नहीं गए. इनके क्षेत्र की सबसे बड़ी पंचायत कूकानार है , इसमें करीब आठ हज़ार वोट हैं . बस्तर के हिसाब से यह बहुत बड़ा वोट बैंक है .बीजेपी की जीत में इस इलाके का भारी योगदान रहता  है  लेकिन चुनाव जीतने के बार बैदूराम यहाँ एक बार भी नहीं गए. कूकानार में उनके खिलाफ सभी लोग हैं और उनको हराने के लिए वोट करने वाले हैं . उनका विरोध उनकी ही पार्टी के लच्छूराम कश्यप कर रहे हैं . लच्छूराम अभी जिला पंचायत के अध्यक्ष है और बीजेपी के टिकट के मज़बूत दावेद्दार थे . उन्होने बताया कि अगर इस बार भी बैदूराम जीत गए तो वह जड़ पकड़ लेगें और जिले में उनकी जो राजनीतिक हैसियत है वह खत्म हो जायेगी . हालांकि कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ भी बागी उम्मीदवार हैं लेकिन कांग्रेस का उम्मीदवार दीपक बैज नया खिलाड़ी है और बैदूराम पर भारी पड़ रहा है.

कांकेर विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी ने अपनी विधायक सुमित्रा मारकोले की जगह पर संजय कोडोपी को टिकट दिया है। बीजेपी  कार्यकर्ताओं में नाराज़गी है. संजय कोडोपी बहुत ही अलोकप्रिय है  और पार्टी में  बगावत के कारण उनके पाँव नहीं जम पा रहे हैं।  कांग्रेस के शंकर धुर्वा उम्मीदवार हैं और उनके परिवार की इज़ज़त है।  बीजेपी के कार्यकर्ता भी कहते देखे गए कि श्यामा धुर्वा की जो गुडविल है शंकर को उसका लाभ मिल सकता है। 

अंतागढ़ में बीजेपी के उम्मीदवार विक्रम उसेंडी हैं।  इंकमबेंसी की असली मार झेल  रहे हैं।  पिछले पांच साल के उनके काम से नाराज़ लोगों की बड़ी संख्या है। उनसे नाराज़ होकर उनकी पार्टी के ही प्रभावशाली नेता , भोजराज नाग निर्दलीय लड़ रहे हैं। लेकिन  विक्रम उसेंडी के पास भी साधनों की कोई कमी नहीं है।  उन्होंने भोजराज नाग नाम के एक और उम्मीदवार को खड़ा कर दिया है।  पिछले बार विक्रम उसेंडी १०९ वोट से जीते थे।  ज़ाहिर है कि उनका मुक़ाबला मुश्किल है।  कांग्रेस के उम्मीदवार मंतूराम पवार इलाक़े में सम्मानित व्यक्ति है और उसको मंत्री जी की दुर्दशा का लाभ मिल रहा है। इसी क्षेत्र में ढाका से १९५० के दशक में आये हुए शरणार्थियों की बस्ती भी है।  नामशूद्र जाति के यह लोग अविभाजित बंगाल में दलित वर्ग के माने जाते थे ।  लेकिन यहाँ उनको दलित नहीं माना जा रहा है। उनकी बहुत दिनों से मांग है कि उन्हें अनुसूचित वर्ग में रखा जाए।  लेकिन केंद्र की सरकार इस बात को हमेशा से टाल रही है।  इस बार विक्रम उसेंडी ने उनको भरोसा दिला दिया है कि उनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में वे करवा देगें। उनकी बात पर पंखाजोर के इस इलाक़े में सही माना जा रहा है।  इस बात की सम्भावना है कि विक्रम उसेंडी को यह सारे  वोट मिल जायेगें।  अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस उम्मीदवार की सारी अच्छाई का बावजूद भी यह सीट बीजेपी के हाथ लगेगी क्योंकि नामशूद्रों के यहाँ क़रीब आठ हज़ार वोट हैं।  और जहां १०९ वोट से हारजीत का फैसला हो रहा हो वहाँ आठ हज़ार वोटों का बहुत अधिक महत्व है।  

केशकाल बस्तर सम्भाग की एक अन्य महत्वपूर्ण सीट है।  जहां बीजेपी के विधायक सेवक राम नेताम फिर मैदान में हैं।  पांच साल का उनका कार्यकाल आलोचना का विषय है ।  उनके खिलाफ अजीत जोगी का बन्दा संतराम नेताम कांग्रेस की तरफ से उमीदवार है।  संतराम को बाहरी माना जा रहा है लेकिन सेवकराम निष्क्रिय रहे हैं इसलिए संतराम की स्थिति मज़बूत है।  यहाँ कांग्रेस की अगर हार हुयी तो उसमें स्वाभिमान मंच के उम्मीदवार  का भारी योगदान होगा क्योंकि वह यहाँ बीजेपी की मदद कर रहा है और कांग्रेस के वोट काट रहा है।  

बीजापुर में कांग्रेस ने विक्रम मंडावी को उतारा है लेकिन उनको टिकट मिलने से बहुत सारे कांग्रेसी नाराज़ हैं।  ज़िला पंचायत की अध्यक्ष और कांग्रेस की नेता , नीना रावतिया भी टिकटार्थी थीं और अब कांग्रेसी उम्मीदवार का विरोध कर रही हैं। इस टिकट से नाराज़ कुछ लोगों ने बीजेपी भी ज्वाइन कर लिया है। यहाँ बीजेपी के उमीदवार महेश गागड़ा हैं। ।  राजाराम तोड़ेम भी यहाँ से बीजेपी का टिकर मांग रहे थे।  लेकिन अब नाराज़ हैं और स्वाभिमान मंच में शामिल हो गए हैं।  वे जगदल पुर से पर्चा भर चुके हैं और वहाँ बीजेपी के संतोष बाफना की लड़ाई को कठिन बना रहे हैं। 

भानु प्रतापपुर में बीजेपी विधायक ब्रह्मानंद नेताम को टिकट काट दिया गया है।  उनकी जगह पर नौजवान सतीश लाठिया लड़ रहे हैं।  बीजेपी के कई नेता उनके खिलाफ हैं।  ब्रह्मानंद भी विरोध में काम कर रहे हैं लेकिन बीजेपी के रायपुर के नेताओं को उम्मीद है कि बात बन जायेगी  .  बीजेपी नेता रुक्मिणी ठाकुर तो लाठिया को हारने का मन बना चुकी हैं।  कांग्रेस के उम्मीदवार मनोज मंडावी हैं।  यहाँ कांग्रेस बहुत मज़बूत नहीं है इसलिए उनके खिलाफ भितरघात का ख़तरा नहीं है. बस्तर सम्भाग के जितने बीजेपी नेताओं से बात हुयी सबी इस  सीट पर कांग्रेस की जीत की बात करते पाये गए। 

कोंडागांव बीजेपी की मज़बूत सीट है।  वहाँ से पूर्व सांसद मनकूराम सोढ़ी के बेटे शंकर सोढ़ी  निर्दलीय उम्मीदवार हैं और कांग्रेसी उम्मीदवार मोहन मरकाम की लड़ाई को बहुत कठिन बना रहे हैं।  पिछली बार भी मोहन मरकाम अच्छा लड़े थे और बहुत मामूली अंतर से हारे थे।  लेकिन इस बार शंकर सोढ़ी के कारण वर्त्तमान विधायक लता उसेंडी की स्थिति मज़बूत है।  आज की हालत अगर  चुनाव के दिन तक बनी रही तो यह सीट बीजेपी की हो जायेगी लेकिन अगर शंकर सोढ़ी मान गए तो कांग्रेस के खाते में जा सकती है।  केंद्रीय कांग्रेस नेताओं ने बताया कि शंकर सोढ़ी  को लोकसभा लड़ने के लिए कहा जा रहा है।  अगर यह सम्भव हुआ तो यहाँ से कांग्रेस की जीत की सम्भावना बहुत अधिक हो जायेगी।  

नारायणपुर में मंत्री केदार कश्यप बहुत मज़बूत हैं।  रमन सिंह सरकार में मंत्री हैं।  आदिवासी विभाग के मंत्री हैं , बहुत संपन्न हैं और कांग्रेसी उम्मीदवार , चन्दन कश्यप पर बहुत भारी पड़ रहे हैं। जबकि बस्तर विधानसभा क्षेत्र दोनों पार्टियों में भितरघात है।  बीजेपी विधायक सुभाऊ कश्यप के खिलाफ कांग्रेस ने डॉ लखेश्वर  बघेल को टिकट दिया है  जो मज़बूत माने जा रहे हैं।  
बस्तर सम्भाग में राहुल गांधी या नरेन्द्र मोदी का कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है। सारा चुनाव आदिवासियों  के मुक़ामी मुद्दों पर लड़ा जा रहा है।  पूरे क्षेत्र में नरेद्र मोदी का कोई पोस्टर नहीं दिखा  जबकि कांग्रेसियों ने जगह राहुल गांधी, सोनिया गांधी और डॉ मनमोहन सिंह के पोस्टर लगा ऱखे हैं।  यहाँ रमन सिंह नरेंद्र मोदी से बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं। 

Thursday, October 31, 2013

मधु लिमये ने सरदार पटेल को धर्मनिरपेक्षता का महान प्रणेता बताया था

ek puraana lekha






शेष  नारायण सिंह 

मधु लिमये होते तो ९० साल के हो गए होते . मुझे मधु  जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली  आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने  बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया .  इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. 
 दिसंबर १९४९ में  फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन  देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि " मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए ." 

मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों  को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम कारण है . सरदार पटेल एन महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..

मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और  कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.

मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" 

सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में  इन चर्चाओं के दौरान हुई  बहुत  सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ," सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता " में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत  अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया था 

जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी.



शेष नारायण सिंह

३१ अक्टूबर १९८४ ,नई दिल्ली. सुबह साढ़े नौ बजे के आस पास मेरे मित्र राम चन्द्र सिंह का फोन आया कि इंदिरा गांधी को उनके घर में ही किसी ने गोली मार दी है . इलाज के लिए आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज में ले जाई गयी हैं . हम सफदरजंग इन्क्लेव में रहते थे. बाहर निकल कर उसी पैजामे कुर्ते में सामने खड़े एक आटोरिक्शा पर बैठ  गए . किराया दो रूपया होना चाहिए था लेकिन उसने पांच रूपये मांगे .हाँ कर दी और मेडिकल इंस्टीट्यूट पंहुच गए. कोई भीड़ नहीं थी इंदिरा गांधी के घर पर रहने वाले लोग ही रहे होंगें . कुछ पुलिस वाले , कुछ डाक्टर और कोई नहीं . पता चला कि आपरेशन थियेटर में  ले जाई गयी  हैं . कर्मचारी संगठन के मिश्र जी नज़र आये .मैंने पूछा कि  इंदिरा जी की कैसी हाल चाल है . उन्होंने बताया कि हाल चाल कैसी होगी . सैकड़ों  गोलियाँ लगी हैं . शरीर छलनी है . मैंने पूछा बच तो जायेगीं ? उन्होंने कहा कि यह सवाल मूर्खता भरा है . इंदिरा जी की बाडी ही अस्पताल लाई गयी थी. मैं इंदिरा गांधी का बहुत प्रशंसक कभी नहीं रहा लेकिन मुझे याद है किमैं बहुत तकलीफ से घिर गया .लगा कि अब तूफ़ान आ सकता है . वहीं बैठ गया . बहुत देर बैठा रहा . नेताओं का आना जाना शुरू हो चुका था .अरुण नेहरू पूरे कंट्रोल में थे ,कुछ देर बाद ऊपर जाकर देखा. अंदर कमरे में इंदिरा गांधी का मृत शरीर और बाहर उनकी सरकार के मंत्री खड़े बातचीत कर रहे थे. कुछ देर बाद पुलिस वालों ने फालतू लोगों को हटा दिया. लेकिन अभी किसी को बताया नहीं गया था कि इंदिरा गांधी की मृत्यु हो चुकी थी.
मैं बाहर आ गया .सड़क पर भीड़ इकट्ठा होने लगी थी. लेकिन चारों तरफ सन्नाटा था . लगता है कि सब को मालूम था कि अंदर क्या हो गया था. पुलिस अधिकारी गौतम कौल नज़र आये . उनके चेहरे पर बहुत तकलीफ थी जो आम तौर पर पुलिस वालों के चेहरे पर नहीं होती ,वीय तो ड्यूटी कर रहे होते हैं . लेकिन गौतम की आँखे बहुत भारी थीं. वे इंदिरा जी के रिश्तेदार भी हैं .मुझे याद है उन्होंने किसी थानेदार को बुलाया और कहा  कि एम्स और सफदरजंग अस्पताल के बीच वाली सड़क को खाली करवा लो. जो कारें खड़ी हैं , उनको क्रेन वगैरह से हटवा दो . अब तक भीड़ आना शुरू हो चुकी थी. पास में ही अर्जुन दास का दफ्तर था .उसके लोग बड़ी संख्या में मौजूद थे और धीरे धीरे शोरगुल का माहौल बन रहा था . मैं अपने घर चला आया और तैयार होकर काम पर चला गया .
शाम को बस में बैठे हुए मैंने आकाशवाणी की छ बजे की बुलेटिन सुनी कि राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी है. मैं सन्न रह गया . मुझे लगा कि राजीव गांधी को सरकार में रहने का एक दिन का भी अनुभव नहीं है ,अभी दो साल पहले राजनीति में सक्रिय हुए हैं,यह क्या हो गया .  सरकार के अंदर  मौजूद स्वार्थतंत्र तो उनसे बहुत सारे उलटे सीधे  काम करवा लेगा. बाद की घटनाएं बताती हैं को मेरा डर सही था.  बहरहाल अब तो हो चुका था . अपने दोस्त जनार्दन सिंह के यहाँ पंहुचा . वहाँ से घर आते हुए मैंने आर के पुरम और सफदरजंग इन्केल्व के बीच में कई जगह देखा  कि अर्जुन दास के लोग सिखों को मार रहे हैं . मेरे मोहल्ले के कोने में एक  घर था जिसपर बख्शी लिखा था , वह आग के हवाले हो गया था. किसी तरह घर पंहुचा . लेकिन मोहल्ले में ही सिखों के घरों की पहचान करके आग लगाई जा रही थी. मेरे मित्र आशुतोष वार्ष्णेय वहीं पड़ोस में अमिता और सतीश के घर पर रहते थे . उन्होएँ भी दिनमें शहर में तनाव देखा था. शहर से लौटकर उन्होंने जो वर्णन किया हो दिल दहला देने वाला था.

अगले दिन आशुतोष के स्कूटर पर बैठकर शहर में निकले .  लेडी श्रीराम कालेज के पीछे लाजपत भवन में रोमेश थापर ,कुलदीप नैयर और धर्मा कुमार की अगुवाई में लोग  जमा हो रहे थे . पता लगा कि अर्जुन दास ,एच के एल भगत, ललित माकन और सज्जन कुमार के इलाकों में खूब क़त्ल-ओ-गारद हुआ है . हम लोग त्रिलोकपुरी  की तरफ एक टेम्पो में बैठकर गए. वहाँ की तबाही दिल दहला देने वाली थी. बहुत सारे लोगों के घर जला दिए गए थे , लोगों के परिवार वालों को मार डाला गया था. सब कुछ बिलकुल संगठित रूप से हो रहा था.. कनिष्क होटल में हमारे दोस्त आर सी सिंह मैनेजर थे . उनके पास  गए और उन्होने  पूरी दिल्ली में हुई तबाही का हाल बताया . शाम को घर आया तो मेरे मोहल्ले में भारी तबाही नज़र आयी. अर्जुन दास का इलाका है ,सिखों के घरों को चुन चुन कर तबाह किया गया था .  आई आई टी के प्रोफ़ेसर दिनेश मोहन के साथ उनकी फिएट कार में मैं और आशू कई जगह गए और आजतक मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि इंदिरा जी की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था . दिल्ली में तो सारा खून खराबा प्रायोजित था . राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन चुके थे और दिल्ली के रिवाज़ के हिसाब से अपने आपको उनका वफादार साबित करने के लिए मुकामी कांग्रेसी नेताओं ने खूनखराबा करवाया था.         

Wednesday, October 16, 2013

रतनगढ़ हादसे में पुलिस ने दानव रूप अख्तियार किया



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, १५ अक्टूबर रतनगढ़ से जो ख़बरें आ रही हैं वे तो यह साबित कर दे रही हैं कि हैवानियत ने उस मंदिर के क्षेत्र में अपनी सारी कला का प्रदर्शन किया . देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार में खबर छपी है कि पुलिस वालों ने घायल बच्चों को नदी में फेंक दिया .जो बात हैरत अंगेज है वह यह कि  यह बच्चे जब  नदी में फेंके गए तो जिंदा थे . जो बच्चे नदी में फेंके गए थे उनमें से छः को तो दतिया की राजुश्री यादव ने बचा लिया और पांच बच्चों को उनके माता पिता के हवाले कर दिया . एक बच्ची अभी भी उनके पास है जो सारी रात  रोती रही .उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि इउस बच्ची को कहाँ ले जाएँ . एक अन्य चश्मदीद ने बताया है कि उसने ट्रकों में  भरकर पुलिस वालों को करीब पौने दो से लाशें ले जाते देखा ,उनको पता नहीं कि उन लाशों को कहाँ ले जाकर फेंक दिया गया . जब संवाददाता ने मध्य प्रदेश के पुलिस महानोदेशक ने पूछा कि यह वहशत क्यों की गयी तो उन्होने इन आरोपों को खारिज नहीं किया बल्कि कहा कि इन आरोपों की जांच हो रही है और अगर कुछ गलत पाया गया तो निश्चित रूप से कार्रवाई की जायेगी . नदी में बच्चों को फेंकने की और भी बहुत सारी ख़बरें आ रही हैं और सरकार की तरफ से पूरी कोशिश की जा रही है कि कि मामले को दबा दिया जाए .
यह शर्मनाक है .रतनगढ़ में हुए हादसे को किसी तरफ से देखें सरकार की अक्षमता सामने आती है . दतिया में २००६ में भी बीजेपी के शासन के दौरान रतनगढ़ में ही इसी जगह ५० से ज़्यादा लोग कुचले गये थे .लेकिन सरकार ने ऐसा कोई क़दम नहीं उठाया कि मंदिर की तरफ जाने वाले एक पुल के अलावा और कोई वैकल्पिक रास्ता बना दिया जाए . ज़रूरी यह था  कि धार्मिक लोगों  को सुरक्षित मंदिर तक पंहुचाने के लिए सरकार कोई और उपाय करती. लेकिन कुछ नहीं किया गया  .इस तरह सरकार का बहुत ही गैरजिम्मेदार चेहरा सामने आता  है .

राज्य के लोगों में तीर्थयात्रा की  भावनाओं को भी शिवराज सरकार ने खूब हवा दिया है. ग्रामीण भारत में सबकी इच्छा  होती है कि तीर्थदर्शन करे. मध्यप्रदेश की सरकार ने सरकारी खर्चे पर एक स्कीम चलाई है जिसमें ६० साल से अधिक के लोगों को तीर्थयात्रा के लिए सरकारी खजाने से मदद दी जाती है .मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना नाम की यह स्कीम गरीब आदमियों के ऊपर मुख्यमंत्री का एहसान लाद देने के उद्देश्य से चलाई गयी है . जब यह योजना शुरू हुई थी बीजेपी के कई नेताओं ने बताया था कि इस योजना के बाद ग्रामीण मध्यप्रदेश में कोई भी व्यक्ति शिवराज सिंह चौहान को हर बार मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहेगा . मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना  के कारण ग्रामीण इलाकों में तीर्थयात्रा के प्रति  जो माहौल बना है उसके बाद किसी भी तीर्थस्थान पर जाने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है .. मध्यप्रदेश सरकार ने लोगों को  तीर्थस्थानों तक जाने के लिए प्रेरित तो कर दिया लेकिन उसके लिए ज़रूरी सुविधाओं का विकास नहीं किया . यह बात बार बार उठायी जाती रही है लेकिन इस बार रतनगढ़ के हादसे के बाद यह और तेज़ी से रेखांकित हो गयी है . मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री को चाहिए कि इन हादसों की जिम्मेदारी लें और  नवंबर में अगर वे दुबारा मुख्यमंत्री बंटे हैं तो उनको चाहिए कि हर तीर्थस्थान पर बुनियादी सुविधाओं की स्थापना भी मुख्यमंत्री तीर्थदर्शन योजना के एक कार्यक्रम के रूप में शुरू करें .

अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान की अरदब में ,कांग्रेसियों को जिताने के लिए काम करेगें

शेष नारायण सिंह 

नई दिल्ली,१५ अक्टूबर . छत्तीसगढ़ की चुनावी राजनीति में भारी परिवर्तन हुआ है . अब तक कांग्रेस के हर नेता को दरकिनार करके खुद और अपने परिवार को सुर्ख़ियों में रखने की कोशिश कर रहे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अब आलाकमान के सुझाव मान गए हैं . खबर है कि कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें भरोसा दिला दिया है कि अगर कांग्रेस की जीत हुई तो मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी को प्राथमिकता दी जायेगी .  बताया गया है कि अजीत जोगी भी अब इस बात पर राजी हो  गए हैं कि वे राज्य में मुख्यमंत्री रमन सिंह को सत्ता से बाहर करने के लिए पूरा प्रयास करेगें. जोगी को अब कांग्रेस आलाकमान ने काबू में कर लिया है और  उन्होंने भी वचन दिया है कि अब वे कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने के लिए कोई काम नहीं करेगें . भरोसेमंद सूत्रों ने बताया है कि राहुल गांधी के बहुत ही विश्वासपात्र कांग्रेस नेताओं की सलाह पर अजीत जोगी को साथ रख कर चलने की रणनीति बनायी गयी है . अजीत जोगी को कांग्रेस के सर्वोच्च स्तर से बता दिया गया है कि अगर पार्टी जीतेगी तो उनकी संभावना अच्छी रहेगी लेकिन अगर पार्टी की हालत ही खराब हो जायेगी तो उनके सपनों को भी भारी झटका लगेगा.
जब से अजीत जोगी ने सार्वजनिक रूप से छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के इंचार्ज महासचिव बी के हरिप्रसाद को हडकाया था तब से ही यह चर्चा  चल पडी थी कि अजीत जोगी कांग्रेस आलाकमान की उन नीतियों और योजनाओं को नहीं चलने देगें जो उनकी रजामंदी से नहीं चलाई जायेंगीं . उन्होंने कांग्रेस पार्टी के औपचारिक कार्यक्रमों से अलग अपने दफ्तर से तरह तरह के राजनीतिक बयान देना शुरू कर दिया था . उन्होंने दिग्विजय सिंह सहित हर उस कांग्रेसी नेता के खिलाफ खुसुर फुसर अभियान चला दिया था जो उनकी बात नहीं मान रहा था. कांग्रेस के अंदर यह चर्चा  भी चल निकली थी कि अजीत जोगी को पार्टी से अलग कर दिया जायेगा .लेकिन अब उन सब बातों पर विराम लग गया है . राहुल गांधी और सी पी जोशी ने अजीत जोगी को बता दिया है कि अगर पार्टी के साथ रहोगे तो आगे चल कर फायदा होगा लेकिन अगर कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने की कोशिश करेगें तो कहीं के नहीं रह जायेगें . अजीत  जोगी को यह भी साफ़ बता दिया गया है कि टिकट वितरण में उनका कोई दखल नहीं स्वीकार किया जायेगा . हाँ ,उनके बेटे और पत्नी के टिकट के बारे में सकारात्मक तरीके से विचार किया जा सकता है . लेकिन उनके या किसी और के कहने पर किसी को टिकट नहीं दिया जाएगा . हालांकि वे अपने लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि टिकट वितरण में उनसे सलाह ली जायेगी लेकिन जब वे छत्तीसगढ़ मामलों के कांग्रेस के सबसे महत्वपूर्ण नेता से  मिले तब उनको अंदाज़  हो गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है . टिकट वितरण शुद्ध रूप से कम्प्युटर में  फीड किये गए आंकड़ों के आधार पर किया जा रहा  है . पहली खेप में जो १८ टिकट घोषित किये गए हैं उनमें ९ विधायकों को टिकट देने की बात राज्य के नेताओं और अन्य लोगों की तरफ से की गयी थी लेकिन अंत में केवल तीन मौजूदा विधायकों की टिकट ही बच सकी ,बाकी सबके टिकट काट दिए गए.
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Tuesday, September 17, 2013

नार्वे में फोकस इंडिया-----ओस्लो विश्वविद्यालय में दलित राजनीति पर सेमीनार



शेष नारायण सिंह


ओस्लो विश्वविद्यालय में फोकस इंडिया  के तहत आयोजित ‘ भारत में जाति ‘ विषय पर आयोजित सेमीनार सितम्बर के दूसरे हफ्ते में संपन्न हो गया. एकेडमिक आयोजन था . ज़ाहिर है इससे उम्मीद की जानी चाहिए कि यह भविष्य की राजनीति के लिए मैटर उपलब्ध कराएगा . लेकिन सेमीनार का स्तर ऐसा नहीं था जिस से ऐसी कोई उम्मीद की जा सके. कहने को सेमीनार जाति पर आयोजित किया गया था लेकिन सारी बात मूल रूप से दलित राजनीति के आस पास ही मंडराती रही. जो दूसरा अजूबा था वह यह कि कुल १० पर्चे पढ़े गए जिसमें से  ६ पर्चे बंगाल के दलितों के इतिहास  भूगोल पर  आधारित थे.  २ उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति की बात कर रहे थे , एक पर्चा जे एन यू के दलित छात्रों की राजनीति पर केंद्रित था और एक परचा ऐसा था जिसको अखिल भारतीय रंग दिया जा सकता है . डॉ अम्बेडकर को दलित राजनीति के सिम्बल के रूप में  स्थापित होने की प्रक्रिया का  विश्लेषण किया गया था ,यह पर्चा नार्वे के बर्गेन विश्वविद्यालय के प्रो.दाग एरिक बर्ग था और प्रो. बर्ग की वार्ता से साफ़ नज़र आया कि उन्होने अपने विषय की गंभीरता के साथ न्याय किया  है .

इस सेमीनार का पहला पर्चा न्यूजीलैंड के विक्टोरिया विश्वविद्यालय के डॉ शेखर बंद्योपाध्याय ने प्रस्तुत किया. देश के बँटवारे के साथ साथ बंगाल की राजनीति में अनुसूचित जातियों की राजनीति और उससे जुडी समस्याओं का विषद विवेचन किया गया . उन्होंने अपनी तर्कपद्धति से साफ़ कर दिया कि यह धारणा गलत  है कि बंगाल में वर्ग की अवधारणा इतनी ज़बरदस्त जड़ें जमा चुकी है कि  जाति पार अब राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श होना बेमतलब हो गया है . उन्होने २००४ के मिड डे मील विवाद के हवाले से बताया कि कई जिलों में ऊंची जाति के लोगों ने अपने बच्चों को वह खाना खाने से रोक दिया था जिसे दलित जातियों के लोगों ने पकाया था.  उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि देश के विभाजन के बाद अनुसूचित जातियों के संगठित आंदोलन पर ब्रेक लग गयी थी और इसीलिये यह मिथ पैदा किया जा सका कि बंगाल में जाति का कोई मतलब नहीं होता . अविभाजित बंगाल में संगठित दलित आंदोलन में दो वर्गों की प्रमुखता थी . नामशूद्र और राजबंशी नाम से दलितों की पहचान होती थी . नामशूद्रों का इलाका पाकिस्तान में चला गया और जब वे १९५० के बाद भारत आने लगे तो उनके नेताओं का ध्यान मुख्य रूप से उनके पुनर्वास पर केंद्रित हो गया और जाति का सवाल दूसरे नंबर पर चला गया . वे पश्चिम बंगाल में शरणार्थी के रूप में पहचाने जाने लगे . उनको फिर से बसाने की समस्या मूल हो गयी , बाकी बातें बहुत पीछे छूट गयीं .जब उनकी आबादी ही तितर बितर हो गयी तो संगठित होने की बात बहुत दूर की कौड़ी हो गयी .  शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में दलितों  और मुसलमानों के जिस सहयोग को पूर्वी बंगाल की राजनीति का आधार माना जाता था ,उसके तहस नहस होने की बात को भी समझाने की कोशिश की गई है . उनका निषकर्ष यह है कि आज भी दलितों की जाति आधारित पहचान का मुद्दा जिंदा है और तृणमूल कांग्रेस ने दलितों के मूल नेता , पी आर ठाकुर के एक बेटे को साथ लेकर चुनावी राजनीतिक सफलता हासिल की है .

सेमीनार का दूसरा पर्चा एमहर्स्ट कालेज के द्वैपायन सेन का था. उन्होंने पश्चिम बंगाल की राजनीति से जाति के सवाल के गायब होने की बौद्धिक व्याख्या करने की कोशिश की और दावा किया कि  विभाजन पूर्व बंगाल की दलित राजनीति का बड़े नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के हवाले से पश्चिम बंगाल में दलित राजनीति के विभिन्न आयामों की पड़ताल की गयी है लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि उनके ठीक पहले  प्रो. शेखर बंद्योपाध्याय का  विद्वत्तापूर्ण पर्चा पढ़ा जा चुका था .इसलिए उनके पूरे भाषण  के दौरान ऐसा लगता रहा कि डॉ द्वैपायन सेन या तो पहले पर्चे की बातों को दोहरा रहे हैं और या तो पूरी तरह से रास्ता भटक गए हैं . दलित जातियों की राजनीति को बैकबर्नर  पर रखने के लिए उन्होने कभी कांग्रेस तो कभी कम्युनिस्टों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए निर्धारित  बीस मिनट का समय पार कर लिया . यही उनके पर्चे की सबसे बड़ी उपलब्धि नज़र आयी .

नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की राजनीति में दलितों की भूमिका पर केंद्रित लिथुआनिया के एक विश्वविद्यालय की विद्वान  क्रिस्टीना गार्लाइते ने पर्चा पढ़ा . उन्होने  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पहचान की राजनीति के विभिन्न स्वरूपों की  चर्चा की .कुछ समय  तक  यूनिवर्सिटी के अंदर चली दलित राजनीति की गतिविधियों का बहुत ही अच्छा वर्णन क्रिस्टीना ने प्रस्तुत किया . जे एन यू के दलित प्राध्यापकों की राजनीति की परतों का भी बिलकुल सटीक विश्लेषण किया और यह भी लगभग साबित कर दिया कि कैम्पस में मौजूद दलित छात्र तो बहुत कम समय के लिए आते हैं लेकिन यहाँ जमे हुए प्राध्यापक उनको अपनी मुकामी राजनीति को चमकाने के लिए कैसे इस्तेमाल करते हैं . बिना नाम लिए हुए उन्होंने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों , कांग्रेस , बीजेपी, बी एस पी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सी पी आई ( एम एल ) के जे एन यू कैम्पस में मौजूद एजेंटों की भी अच्छी तरह से निशानदेही की .हालांकि क्रिस्टीना ने अपने पर्चे में यह बातें शिष्टाचार की सीमा में रहकर ही की थीं लेकिन जब श्रोताओं में मौजूद जे एन यू की कुछ पूर्व छात्राओं ने बात को आगे  बढ़ाया  तो कई परतें  खुल गयीं . साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों की जो पोल जे एन यू की बीफ एंड पोर्क फेस्टिवल ने खोली थी वह भी एक बार सेमीनार के कक्ष में जिंदा  हो उठा और यह भी सामने आ गया कि किस तरह से कोर्ट के दखल के बाद ही  इस फेस्टिवल को रोका जा सका था.उस्मानिया विश्वविद्यालय में हुए उपद्रव का भी ज़िक्र हुआ और दलित राजनीतिक अस्मिता की एक अहम पहचान के रूप में किस तरह से इस कार्यक्रम को जे एन यू कैम्पस में पहचाना  गया .इस फेस्टिवल ने किस तरह से विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से वफादारी रखने वाले लोगों को  एक्स्पोज़ किया ,यह भी चर्चा के दौरान  सामने आया .

अमरीका के विश्वविख्यात शोध केन्द्र एम आई टी से आये अक्षय मंगला ने सर्वशिक्षा अभियान को उत्तर प्रदेश में शिक्षा और  जाति की राजनीति से जोड़ने की कोशिश की और लगा कि उन्होने अपने पर्चे को बिना  तैयारी के ही पेश कर दिया है . उन्होंने सर्वशिक्षा अभियान जैसे केन्द्र सरकार के आयोजन  को इस तरह से पेश किया जैसे वह उत्तर प्रदेश सरकार का ही कार्यक्रम हो . एक बार भी उन्होंने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि यह  केन्द्र सरकार की योजना है . सर्व शिक्षा अभियान बहुत बड़े पैमाने पर हेराफेरी का कार्यक्रम भी है इसका भी ज़िक्र नहीं हुआ.  उन्होंने सहारनपुर जिले के एक गाँव और उसके आस पास के कुछ गाँवों के आंकड़ों के सहारे कुछ साबित करने की कोशिश की लेकिन अंत तक समझ में  नहीं आया कि  बहुत बड़े पैमाने पर सामान्यीकरण करने की उनको क्या जरूरत  थी .  उन्होने दावा  किया कि शिक्षा के क्षेत्र में जो नौकरशाही सक्रिय है उसमें  ब्राह्मणों का एकाधिकार है . इस नौकरशाही में  उन्होने ग्राम प्रधान से लेकर शिक्षामंत्री तक को शामिल बताया .  जब उनसे पूछा गया कि  पंचायत चुनावों में और सरकारी नौकरियों में जो ५० प्रतिशत का रिज़र्वेशन है उसके बाद भी ब्राह्मणों का एकाधिकार कैसे बना हुआ है , तो वे बात को टालने की कोशिश करते नज़र आए. हालांकि इसके पहले ही उनकी बुनियादी अवधारणा  चकनाचूर हो चुकी थी. यह बात उनको भी मालूम है कि इतने जागरूक श्रोता वर्ग के बीच कोई असंगत बात कहकर पार पाना कितना मुश्किल होता है . वे  यह भी नहीं स्पष्ट कर पाए कि केवल सहारनपुर के एक  उदाहरण से वे पूरे उतर प्रदेश के बारे में कोई भी बात इतने अधिकारपूर्वक कैसे कह  सकते हैं ,

अगला पर्चा नार्वेजियन  इंस्टीट्यूट आफ इंटरनैशनल अफेयर्स की  डॉ. फ्रांसेस्का येंसीनियस का था. उनके पर्चे का टापिक था, ‘ अनुसूचित जाति के नेताओं के  बारे में धारणा, : उत्तर प्रदेश से सर्वे साक्ष्य ‘ . कानपुर देहात के जिले के रसूलाबाद और औरैया जिले के औरैया विधानसभा क्षेत्रों के कुछ आंकड़ों के आधार पर उन्होने अपनी बात समझाने की कोशिश की .. दोनों क्षेत्र बिलकुल आसपास हैं और पूरे उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जातियों के नेताओं के बारे में  आम आदमी की राय को समझने के लिए एक ही इलाके के दो विधानसभा क्षेत्रों  को क्यों चुना गया यह बात श्रोताओं  में मौजूद बहुत लोगों की समझ में नहीं आयी. दोनों विधानसभा क्षेत्रों  के बीच की दूरी करीब ५० किलोमीटर से भी कम है .  सर्वे के लिए सैम्पल चुनने में इस पर्चे में भी वही विसंगति थी जो सर्वशिक्षा अभियान वाले पर्चे में केवल सहारनपुर को चुनकर की गयी थी. उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के बारे में कोई भी अनुमान निकालने के पहले यह देखना ज़रूरी होता है उसके पूर्वी , मध्य और पश्चिमी भाग की राजनीतिक भौगोलिक हालात बिलकुल अलग अलग हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया , गोरखपुर आदि जिलों , मध्य उत्तर प्रदेश के कानपुर इटावा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ,मेरठ जिलों की राजनीतिक सामाजिक सच्चाई कई बार एक द्दूसरे के बिलकुल खिलाफ होती है . लेकिन जब उन्होंने बताया कि कानपुर के किसी कालेज के एक प्रोफ़ेसर साहेब ने उनके लिए  आंकड़ों का संकलन करवाया था ,तब बात समझ में आ गयी कि अपनी सुविधा के हिसाब से अपने आसपास के इलाकों का सर्वे करवा कर इन प्रोफ़ेसर  साहेब ने काम निपटा दिया था. फ्रान्सेसका की शोध पद्धति और आंकड़ों की तुलना का तरीका बहुत ही अच्छा था लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सच्चाई से वाकिफ कोई भी व्यक्ति बता देगा कि दलित राजनेताओं के बारे में उन्होंने जो भी निष्कर्ष निकाले , वे किसी भी हालात में विश्वसनीय नहीं हैं .

सेमीनार को बंगाल और उत्तर प्रदेश से कुछ हद तक बाहर ले जाने का काम बर्गेन विश्वविद्यालय के डॉ दाग एरिक बर्ग ने किया  . उन्होंने  दलितों की  पहचान के रूप में डॉ अम्बेडकर की आवधारणा पर चर्चा की  .हालांकि उनका भी फोकस उत्तर प्रदेश ही था लेकिन डॉ आम्बेडकर के व्यक्तित्व के अखिल भारतीय स्वरूप के कारण उनके चर्चा का दायरा बढ़ गया. पर्चे में डॉ बर्ग ने तर्क दिया कि दलितों के सामाजिक राजनीतिक बदलाव में डॉ अम्बेडकर की अन्य भूमिकाओं के अलावा कानून को प्रभावित कर सकने वाली भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है.

 इसके बाद फिर बंगाल हावी हो गया . बाद के चारों पर्चे बंगाल में दलितों के इतिहास भूगोल से संबंधित थे . मृतशिल्पियों  के बारे में ओस्लो विश्वविद्यालय की  मौमिता सेन का परचा बहुत सारी सूचनाओं से भरा हुआ था. कृष्णानगर और कुमारटोली के के कुम्हारों के  काम में हुए बदलाव को उन्होंने बहुत ही कुशलता से स्पष्ट किया . इन क्षेत्रों के कुम्भकारों ने दैवी प्रतिमा से शुरू करके महान विभूतियों की मूर्तियां बनाने के लिए जो यात्रा की है , मौमिता ने उसको राजनीतिक संदर्भों के हवाले से समझाने की सफलता पूर्वक कोशिश की. उन्होंने इस विषय पर कला इतिहासकार ,गीता कपूर की किताब का भी हवाला लिया और यह साबित करने की कोशिश की कि किसी खास किस्म के फोटो के सहारे इन मृतशिल्पियों ने कैसे बहुत सारे नेताओं की मूर्तिनुमा पहचान को स्थापित किया है . कैसे पूरी दुनिया में लगभग एक ही तरह के गांधी,  टैगोर और सुभाष बोस देखे जा सकते हैं . बहुत ही  दिलचस्प विषय  को बहुत ही रुचि पूर्वक प्रस्तुत करने के लिए मौमिता के प्रस्तुतीकरण को सबने पसंद किया लेकिन संचालक महोदय ने  बार बार इशारा करके वार्ता को बीस मिनट में खतम करने के लिए लगातार दबाव बनाए रखा .
कोलकाता के सेंट जेवियर्स कालेज की शरबनी बंद्योपाध्याय ने बंगाल में  दलित राजनीतिक अधिकारों की राजनीतिक व्याख्या करने की  कोशिश की . उनकी खोज का दायरा भी ख़ासा बड़ा था और उन्होंने बहुत ही कुशलतापूर्वक अपने विषय का निर्वाह किया . १९वीं और २०वीं शताब्दी के उपलब्ध दस्तावेजों के सहारे उन्होने साबित करने की कोशिश की कि उस दौर में बंगाल में जाति एक प्रमुख संस्था हुआ करती थी लेकिन आज़ादी के बाद जाति हाइबरनेशन में चली गयी लगती है .उन्होंने १९२२ में बंगीय जन संघ के गठन को  केन्द्र बनाकर अपने तर्क को अकादमिक शक्ल देने का प्रयास किया . १९२३ में भारत सेवाश्रम संघ का गठन भी एक  महत्वपूर्ण घटना है  जिसे दलित राजनीति पर एक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है . इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो गया .कम्युनिस्ट पार्टी कुछ दलित संगठनों के करीब तो आयी लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी मूल रूप से अपनी भद्रलोक पहचान से बाहर नहीं आ सकी .इस पर्चे में कम्युनिस्ट पार्टी की किसान सभा और भारत सेवाश्रम संघ के के हवाले से दलित राजनीति को मिलने वाली भद्रलोक की प्रतिक्रिया  को समझने की कोशिश की गयी . यह पर्चा विद्वत्ता से परिपूर्ण था और पिछले दो वर्षों में दलितों की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होकर शरबनी ने बहुत ही वास्तविक धरातल पर बात  को समझाया . श्रोताओं  ने इसे बहुत पसंद किया .

इसके बाद हैम्पशायर कालेज की उदिति सेन ने नामशूद्रों के हवाले  से पश्चिम बंगाल में शरणार्थियों के गवर्नेंस के बारे में के परचा प्रस्तुत किया . बंगाल की दलित राजनीति पर उन्होंने अपनी बात कहने की कोशिश की लेकिन बात फीकी इसलिए पड गयी  कि नामशूद्रों और राजबंशियो के बारे में सेमीनार के पहले ही सत्र में डॉ शेखर बंद्योपाध्याय का गंभीर परचा पढ़ा जा चुका था . इसके अलावा उदिति सेन  ने कुछ तथ्यों को  उलट दिया था. उदाहरण के लिए उन्होने कह दिया कि जोगेन मंडल को सरकार ने  अंडमान भेजा था जबकि अंडमान पी आर ठाकुर गए थे  .  यह बात सुबह के सत्र में शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में आ भी चुकी थी. बाद में उनको यह बताया भी गया तो उन्होंने यह कहकर अपनी रक्षा करने की कोशिश की उन्होंने तो सुनी सुनायी बात को पर्चे में लिख दिया था . उम्मीद की जानी चाहिए कि बाद में वे तथ्यों को ठीक कर लेगीं

अंतिम पर्चा मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फार द स्टडी आफ रिलीजस एंड एथनिक डाइवरसिटी के उदय चंद्रा का था . उन्होंने औपनिवेशिक बंगाल में कोल आदिवासियों के कुली बनने की प्रक्रिया का ऐतिहासिक विश्लेषण किया . दिलचस्प जानकारी से भरपूर उनका पर्चा दलित राजनीति के शोधार्थियों के लिए इतिहास के संदर्भ बिंदु के रूप में उपयोगी साबित होगा

Saturday, September 14, 2013

नार्वे में सत्ता परिवर्तन, दक्षिणपंथी अर्ना सोलबर्ग प्रधानमंत्री बनेगीं



शेष नारायण सिंह
ओस्लो,१० सितम्बर . नार्वे में दक्षिणपंथी कंज़रवेटिव पार्टी ,होयरे की सरकार बनेगी. रात भर चली मतगणना में  नार्वे की आयरन लेडी अर्ना सोलबर्ग की अगुवाई वाले गठबंधन ने इतनी सीटें जीत ली हैं कि अब प्रधानमंत्री  येंस स्तूलतेंबर्ग के आठ साल की सरकार की विदाई हो गयी है . अति दक्षिणपंथी एफ आर पी यानी प्रोग्रेस पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने की अर्ना सोलबर्ग की  राह में अब कोई अड़चन  नहीं है . खासकर जब उनके साथ चुनाव अभियान के दौरान शामिल हुई वेंस्तरे पार्टी और क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी ने साफ़ कर दिया है कि  उन्होंने सत्ता बदलने की बात की थी और वे उसमें आड़े नहीं आयेगें .अर्ना सोलबर्ग का रास्ता बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि प्रोग्रेस पार्टी ने पूरे चुनाव में यह बात बार बार कही है कि वे  प्रवासियों के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं करेगें . वे अश्वेत प्रवासियों को नहीं आने देगें और जो लोग भी सोमालिया ,इथियोपिया और पाकिस्तान से आकर गैर कानूनी तरीकों से लोग रह  रहे हैं उनको देश छोड़ने को मजबूर करेगें .

गठबंधन सरकार की अपनी शर्तें होती हैं और सरकार उनके हिसाब से बनती है . नार्वे में सरकार बनाना राजनीतिक पार्टियों के लिए ज़रूरी इसलिए भी होता है कि यहाँ भारत की तरह संसद को भंग करने का विकल्प नहीं होता . कानून इस बारे में इतना सख्त है कि अब चुनाव २०१७ के पहले नहीं हो सकता .अपने चुनावी वायदों में ५२ साल की राजनेता ,अर्ना सोलबर्ग ने  दावा किया था कि अगर उनकी सरकार आ गयी तो वे टैक्स के रेट में भारी कमी करेगीं,पेट्रोलियम पर केंद्रित अर्थव्यवस्था को अन्य क्षेत्रों में भी ले जाया जाएगा ,कुछ सरकारी कंपनियों का निजीकरण करेगीं और डॉ मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की किताब से कुछ  सबक निकालेगीं और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को और ताक़तवर बनायेगीं  और इस तरह से नार्वे के कल्याणकारी राज्य के स्वरूप में भारी बदलाव करेगीं .अर्ना सोलबर्ग की सरकार बनने के साथ साथ प्रवासी  समुदाय में चिंता साफ़ नज़र आने लगी है क्योंकि जब २००१ से २००५ तक अर्ना सोलबर्ग मंत्री  थीं तो उन्होने  प्रवासी नियम कानून बहुत सख्त कर दिया था . अब तो उनको प्रोग्रेस पार्टी का सहयोग भी लेना है इसलिए एशिया और अफ्रीका से आने वाले प्रवासियों के लिए अब मुश्किल  पेश आयेगी .
अर्ना सोलबर्ग नार्वे की दूसरी महिला प्रधानमंत्री बनेगीं .इसके पहले १९८० में बरु हार्लेम ग्रुन्तलैंड प्रधानमंत्री रह चुकी हैं जो बाद में संयुक्त राष्ट्र में भी बड़े पद पर गयी थीं .यहाँ महिलाओं को सबसे पहले वोट देने का अधिकार मिला था इसलिए नार्वेजी समाज में  महिलाओं की बहुत इज्ज़त है . ऐसा लग रहा है कि अर्ना सोलबर्ग के मंत्रिमंडल में  चोटी के तीन पदों पर महिलायें ही होंगीं . प्रोग्रेस पार्टी और वेस्न्तरे पार्टी की नेता महिलायें ही  हैं और  उनका सरकार में शामिल होना निश्चित माना जा रहा है .
नार्वे की अर्थव्यवस्था यूरोप में बहुत अच्छी मानी जाती है क्योंकि फालतू खर्च न करके देश ने पिछले दशक में यूरोप में चल रही आर्थिक संकट की स्थिति से अपने आपको बचाकर रखा हुआ है .नार्वे के कब्जे में नार्थ सी में जो पेट्रोलियम का भण्डार है उसके चलते नार्वे बहुत ही संपन्न देश है . इस बात का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि नार्वे की प्रति व्यक्ति आय एक लाख अमरीकी डालर मानी जाती है जो दुनिया में सबसे ज्यादा है ,शायद तेल की संपदा के कारण बहरीन में भी इस से ज़्यादा पर कैपिटा आमदनी है लेकिन मानवाधिकार के बारे में वे बहुत पीछे हैं .
अब सरकार बनने का कठिन काम शुरू होगा और नई सरकार ९ अक्टूबर को काम शुरू कर देगी लेकिन अर्ना सोल्बर्ग की कठिनाई अब शुरू हो रही है . सबसे पहले तो प्रोग्रेस पार्टी की नेता ,सीव येन्सन को अपनी राजनीति के करीब लाना होगा क्योंकि वे और उनकी पार्टी बहुत ही ज़बरदस्त तरीके से विदेशों से आकर बसने वालों पर अभियान चला रही थीं. . हालांकि उन्होने  चुनाव के बाद साफ़ नज़र आ रहे परिवर्तन के मद्दे नज़र कल ही कह दिया था कि सरकार चलाने के लिए एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया जाएगा . प्रोग्रेस पार्टी पहली बार सरकार में  शामिल हो रही है और वह बहुत मुश्किल सहयोगी साबित हो सकती है . प्रोग्रेस पार्टी को साधना बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि उसका इतिहास एक असहिष्णु राजनीतिक जमात का रहा है .इस पार्टी के सदस्य ऐन्डर्स बेहरिंग ब्रीविक ने २०११ में बम से हमला करके ७७ राजनीतिक विरोधियों की हत्या कर दी थी . इन दोनों पार्टियों की सरकार को क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक या  वेंस्तरे पार्टी का सहयोग लिए बिना बहुमत नसीब नहीं होगा लेकिन वे प्रोग्रेस पार्टी के प्रवासी मामलों के रुख से बहुत नाराज़ हैं . अगर यह दोनों छोटी पार्टियां सरकार में शामिल न हुईं तो अर्ना सोलबर्ग को एक अल्पसंख्यक सरकार चलानी पद सकती है जो कि ख़ासा मुश्किल काम हो सकता है .

Tuesday, September 10, 2013

लिबरल पार्टी की नेता ने नार्वे में दक्षिणपंथी सरकार का रास्ता साफ़ किया


 

शेष नारायण सिंह


ओस्लो,३ सितम्बर .नार्वे की संसद के लिए नया चुनाव ९ सितम्बर को हो जाएगा. इस चुनाव के बाद बनने वाली सरकार के बारे में रोज ही नए नए राजनीतिक गठबंधन सामने आ रहे  हैं . आज खबर है कि वेंस्तरे पार्टी ( लिबरल पार्टी ) की नेता त्रीन स्की ग्रैंड ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वे सरकार बनाने के लिए कंज़रवेटिव पार्टी ( होयरे ) के साथ भी जा सकती हैं . नार्वे में माना जाता  कि वेंस्तरे वाले क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी ( के आर एफ ) का साथ कभी नहीं छोड़ते लेकिन ग्रैंड ने एक चुनावी सभा में  कहा कि अगर के आर एफ को सीटें नहीं मिलतीं तो उनका राजनीतिक प्रभाव नार्वे के हित में प्रयोग नहीं हो पायेगा. और नार्वे के हित की रक्षा के लिए वे कंज़रवेटिव सरकार को समर्थन दे सकती हैं .
 नार्वे में संसद के चुनाव में आनुपातिक प्रतिनिधित्व का नियम लागू है .जो पार्टी आवश्यक संख्या में वोट हासिल कर लेती है उसका प्रतिनिधि आनुपातिक रूप से संसद में चुन लिया जाता है .इसके लिए पहले से ही एक  लिस्ट जारी कर दी जाती है जो चुनाव आयोग की मंजूरी से प्रचार के दौरान सर्कुलेशन में रहती है . लिबरल पार्टी  के बारे में माना जा रहा था कि वह लेबर पार्टी की अगुवाई वाली  प्रधानमंत्री येंस स्तोल्तेंबर्ग की सरकार को बनाने में मदद करेगीं . इसी जानकारी के मद्दे नज़र यह कहा जा रहा था  कि इस बार फिर लेबर पार्टी की वापसी हो रही थी. पिछले दिनों हुए चुनावपूर्व सर्वे में भी लेबर और उनकी सहयोगी सोशलिस्ट लेफ्ट की बढ़त थी .हालांकि बहुत मामूली थी लेकिन यह माना जा रहा था कि कंज़रवेटिव पार्टी के साथ आने के लिए क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी कभी तैयार नहीं होगी इसलिए उनको वेंस्तरे का समर्थन नहीं मिलेगा . लेकिन अब तस्वीर बदल गयी है . वेंस्तरे की नेता ग्रैंड ने ऐलान कर दिया है कि वे समाजवादियों को सत्ता से बाहर रखने के लिए कंज़रवेटिव पार्टी और प्रोग्रेस पार्टी के साथ गठ्बंधन  बना सकती हैं . नार्वे की राजनीति के जानकार बताते हैं कि अगर वेंस्तरे के वोट भी कंज़रवेटिव ( होयरे) और प्रोग्रेस ( एफ आर पी ) पार्टियों के साथ मिल गए तो यह गठबंधन लेबर और उसकी साथी पार्टियों  को बहुत पीछे छोड़ देगा .और नार्वे में एक दक्षिणपंथी सरकार कायम हो जायेगी .वेंस्तरे नार्वेजी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ होता है ,वामपंथी लेकिन पार्टी की नेता के सरकार में शामिल होने की महत्वाकांक्षा के मद्दे नज़र अब सबकी समझ में आने लगा  है कि नार्वे में अगली सरकार दक्षिणपंथी सरकार होगी जो प्रवासियों ,खासकर इस्लाम को मानने  वालों के खिलाफ सख्ती का रुख अपनायेगी . एफ आर पी का  कहना है  कि जो लोग नार्वे के नागरिक हो गए हैं  वे तो ठीक हैं लेकिन आगे से अश्वेत प्रवासियों को नार्वे की नागरिकता नहीं दी जायेगी.प्रोग्रेस पार्टी का गुस्सा खास तौर से इस्लामी देशों से आने वाले प्रवासियों को लेकर है .
पिछले दिनों वेंस्तरे की नेता ,ग्रैंड ने घोषणा की थी कि उनकी पार्टी कंज़रवेटिव पार्टी के साथ सरकार में किसी भी सूरत में नहीं शामिल होगी . के आर एफ ( क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी ) से अलग होकर तो वे किसी भा हाल में नहीं जायेगें . उन्होंने बार बार कहा है कि उनकी पार्टियां किसी भी ऐसी सरकार में  नहीं शामिल होंगीं जिसका हिस्सा एफ आर पी यानी प्रोग्रेस पार्टी वाले बन रहे  होंगें . उनका विरोध एफ आर पी से विदेशियों के  नार्वे आकर बसने को लेकर है . हालांकि वे भी खुली छूट देने के पक्ष में नहीं है लेकिन  मुस्लिम प्रवासियों का जो विरोध एफ आर पी  ( प्रोग्रेस पार्टी ) कर रही है उसका समर्थन नहीं किया जा सकता .
अगर ऐसा हुआ तो अपने पूरे राजनीतिक जीवन में ग्रैंड पहली बार ऐसे लोगों से हाथ मिला रही होंगीं जिनका उन्होने जीवन भर विरोध किया  है .ऐसा करने के चक्कर में वे अपनी हमेशा की राजनीतिक दोस्त पार्टी , क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक को अलग थलग छोड़ देंगीं . हालांकि उनके पास  केवल पांच प्रतिशत वोट आने की संभावना है लेकिन नार्वे की राजनीति ऐसी है जिसमें छोटी पार्टियों को महत्वपूर्ण सरकारी पद मिल जाते हैं .पिछले आठ वर्षों में इसी कारण से लाब्र पार्टी की सहयोगी छोटी पार्टियां, सोशलिस्ट लेफ्ट और सेंटर पार्टी को सरकारी पदों का लाभ मिलता रहा है है .

ऐसा लगता है कि इस बार वेंस्तरे पार्टी भी सरकार में शामिल होने के मौके को छोड़ना नहीं चाहती . जहां तक कंज़रवेटिव नेता अर्ना सोलबर्ग की बात है उन्होंने बहुत ही साफ़ कह दिया है कि वे चाहती हैं कि सभी गैर सोशालिस्ट पार्टियां मिलकर राज करें लेकिन आखरे एफैसल अचुनाव के बाद ही होगा क्योंकि प्रधानमंत्री येंस स्तोतेल्बर्ग की तरह वे अपने भावी गठबंधन को स्पष्ट रूप से बता  नहीं रही  हैं . ज़ाहिर  है कि अर्ना सोलबर्ग की हर बात को बहुत ही गंभीरता से लिया जा रहा है क्योंकि अगर कंज़रवेटिव पार्टी की सरकार बनती है तो वे ही प्रधानमंत्री बनेगीं .

महान कलाकार मुंक के शहर में उनकी कला का मेला


शेष नारायण सिंह
ओस्लो, १ सितम्बर. नार्वे में अपने महान नायकों की बहुत इज्ज़त की जाती है . यहाँ साहित्यकार हेनरिक इब्सेन के नाम पर शहर का सबसे प्रमुख इलाका  है और महान पेंटर एडवर्ड मुंक के १५० साल पूरा होने पर उनकी याद में बहुत ही बेहतरीन प्रदर्शनी लगी हुई है जिसमें मुंक का काम प्रदर्शित किया गया है जो पूरे शहर में फैला हुआ  है .यह मुंक म्यूज़ियम में है नार्वेजी भाषा में म्यूज़ियम को मुसीत कहते हैं .मेट्रो ट्रेन के प्रमुख स्टेशन तोइयन के पास यह प्रदर्शनी है और स्टेशन पर जहां स्टेशन के नाम का निशान है उसके साथ ही यह भी सूचना है कि  यह मुंक मुसीत भी साथ ही है.  साथ साथ में कैफे हैं जहां दर्शकों के अलावा कुछ नामी कलाकार भी कभी कभी मिल जाते हैं . इसके ओस्लो विश्विद्यालय के हाल में मुंक ने जो म्यूराल पेंट किया था वह भी खूब शान से दिखाया जा रहा है . समकालीन कला के राष्ट्रीय म्यूज़ियम में भी मुंक का काम बहुत ही प्रमुखता से दिखाया गया है .. दरअसल करीब एक हज़ार रूपये का  जो टिकट मुंक मुसीत के अंदर जाने के लिए के लिए लिया जाता है वही टिकट राष्ट्रीय म्यूज़ियम के लिए भी चल जाता है .नार्वे में अपने महान लोगों की कितनी इज्ज़त की जाती है इस बात का दाज़ इसी से लगाया  जा सकता है कि ओस्लो हवाई अड्डे पर उतरते ही उनके काम के रिप्रिंट नज़र आने लगते हैं .पूरे रास्ते यही लगता है कि आप मुंक की सरज़मीं पर आ गए हैं .
उनके १५० साल पूरा होने पर मुंक की याद में जो  प्रदर्शनी लगी हुई है ,उसमें उनके काम को एक जगह पर जितनी बड़ी संख्या में लगाया गया है इसके पहले कभी भी इतना बड़ा रेट्रोस्पेकटिव एक जगह पर नहीं लगा .मुंक ने जीवन भर काम किया उनके काम की सभी शैलियों को इस प्रदर्शनी में देखा जा सकता है . इस प्रदर्शनी का मकसद साफ़ तौर पर लगता है कि कि यूरोप में ललित कला की दुनिया में  एडवर्ड मुंक का वह स्थान मुकम्मल तौर पर  सुनिश्चित किया जा सके  जिसके कि वे वास्ताव में हक़दार हैं .मुंक ने १८८० के दशक में कला की दुनिया में प्रवेश किया था और करीब साठ साल तक काम करते रहे .ओस्लो पर नाजी कब्ज़े एक दौरान उनकी मृत्यु हुई.  मुंक १५० प्रदर्शनी में उनकी २५० से ज्यादा पेंटिंग लगी हुई हैं .उनकी सबसे चर्चित कलाकृतियाँ भी इस प्रदर्शनी में हैं . इस प्रदर्शनी में वे काम भी शामिल किये गए हैं जो न तो मुंक म्यूज़ियम की संपत्ति हैं और  न ही नार्वे में हैं . दुनिया भर से इन कला कृतियों को लाया गया है . १८९२ से १९०३ तक का काम नैशनल गैलरी में है जबकि मुंक मुसीत में १९०४ से १९४४ तक का काम है .
 कला के जानकारों की बात अलग है वरना कला के बारे में मामूली रूचि रखने वालों के लिए मुंक का नाम लेते ही उनकी अति प्रसिद्ध कृति चीख (स्क्रीम ) का नाम दिमाग में आ जाता है. उनकी यह कला समकालीन इतिहास में बहुत चर्चित भी है इसको कला के जानकारों के बाहर दुनिया में वही हैसियत हासिल है जो पिकासो की गुएर्निका को दी जाती है .,लेकिन मुंक की १५० साल वाली प्रदर्शनी देखने के बाद ही एक साधारण आदमी को अंदाज़ लगता है कि मुंक की कला की दुनिया कितनी विस्तृत है . मुंक ने अपनी स्क्रीम के कई संस्करण बनाए ,पहला तो शायद १८९३ में बनाया था और आखिरी १९१० में.  जिन लोगों क नहीं मालूम  है उनके लिए यह जानना ज़रूरी है कि उनकी स्क्रीम को पिछले साल न्यूयार्क में कला की एक नीलामी में १२ करोड डालर में बेचा गया था . आज के हिसाब से अगर देखा जाये तो उसकी कीमत करीब ७०० करोड  रूपये की होगी. स्क्रीम के बारे में कला की दुनिया में तरह तरह की व्याख्याएं हैं . पता नहीं क्यों कुछ हलकों में माना जाता  है कि यह एक पागल की चीख का विजुअल रिकार्ड है जबकि मुंक ने खुद ही अपनी डायरी में लिखा है कि जब वे एक दिन ओस्लो में किसी पहाड़ी के ऊपर से गुजर रहे थे तो उनको लगा था कि प्रकृति पता नहीं क्यों चीख रही है और उसी अनुभव को मुंक ने एक पेंटिंग की शक्ल दे दिया था.
मुंक ने अपनी ज़िंदगी में बहुत तकलीफ देखा था . उन्होंने लिखा है कि बीमारी,पागलपन और मौत को मैंने बहुत करीब से देखा है .जब वे पांच साल के थे तो माँ मर गयी , जब १४ साल के हुए तो उस बहन का देहांत हो गया जो इनकी देखभाल कर रही थी,उनके पिता जी की भी कुछ वर्षों बाद मृत्यु हो गयी . वैसे भी उनके ऊपर  इतने बड़े परिवार का पालन कारने का जिम्मा था कि वे मुंक का कोई ध्यान नहीं रख पा रहे थे .मुंक खुद बार बार अस्पताल जाते रहे और कई बार नशे की आदत के शिकार हुए . कहते हैं कि  उनकी प्रेमिका ने भी उन्हें बहुत निराश किया था . और उनकी पेंटिंग ‘ वेम्पायर ‘ उसी मनोदशा में पेंट की गयी थी . उनके काम के दायरे में उनका अपना जीवन बार बार आता  है .उनका मुसीबत से भरा बचपन, समाज से उनकी परेशानी  और निजी संबंधों में निराशा , सब उनके काम में  दिखता है . उनका अपना दर्द और उससे पैदा हो रहे बिम्ब सारे जहां का दर्द बनकर मुंक के  काम में नज़र आते रहते हैं .उनकी पेंटिंग “ डेथ इन अ सिक रूम “ उनकी बहन की  मौत के बाद हुए दर्द की जो अमिट छाप  मुंक के दिमाग में रिकार्ड हो गयी थी ,उसी का प्रतिनिधि काम है .  किस ( चुम्बन ) न्यूड मडोना, और वेम्पायर, सभी कृतियाँ ,महिलाओं के साथ मुंक के अनुभवों के प्रतिनधि हैं . लेकिन यह निजी होते हुए भी ऐसी बन गयी हैं कि सभी के दर्द को अनुभव कराने की क्षमता रखते  हैं .
मुंक ने लिखा है कि मेरी सारी कला  दर्द का एक इतिहास है , अगर दर्द न होता अतो शायद मेरा काम कुछ अलग तरह का रहा होता . अपने समकालीन इब्सेन की वे बाहुत इज्ज़त करते थे और उनकी पेंटिंग ‘ ग्रैंड कैफे में इब्सेन” को भी बहुत हे एम्ह्त्वपूर्ण माना जाता अहै . अपनी यूनिवर्सिटी में जो  उनका काम है उसमें भी इब्सेन हैं , उसमें नीत्शे भी हैं , वहाँ उनका सेल्फ़ पोर्ट्रेट भी है  क्योंकि बताते हैं कि जब १९४४ में न्यूमोनिया से उनकी मौत हुई तो उनकी जो मनोदशा थी वह ‘ बिटवीन द क्लाक एंड द बेड ‘ में नज़र आता है .

Sunday, September 1, 2013

सीरिया पर निश्चित अमरीकी हमले को ब्रिटेन की जनता ने रोका


शेष नारायण सिंह

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जिस तरह का माहौल बनाया था कि लगता था की सीरिया पर अमरीकी हमला किसी भी वक़्त हो सकता है . इस हमले के बाद बराक ओबामा भी उन अमरीकी राष्ट्रपतियों की श्रेणी में खड़े हो जाते जिन्होंने अपनी गलतियों को छुपाने या अमरीकी अहंकार की धौंस कायम करने के लिए दूसरे देशों पर हमला किया . लेकिन ब्रिटेन की पब्लिक ने अमरीका के सबसे बड़े भक्त देश ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरून पर लगाम कस दी और हमला फिलहाल रुक गया है।  ब्रिटेन में ऐसा माहौल बन गया कि  प्रधानमंत्री कैमरून को लगने लगा कि  अगर अमरीका का हुक्का भरने से बाज़ न आये और अमरीकी हितों के लिए ब्रिटिश जनमत को गिरवी रखते रहे तो अपनी ही गद्दी खिसक जायेगी। जब भी बराक ओबामा सीरिया पर हमला करेगें वे एक नए वियतनाम को जन्म देने की राजनीतिक मजबूरी के शिकार हो जायेगें . इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी हुकूमत अपनी ताक़त देख चुकी है और सही बात है कि इन दो लड़ाइयों के कारण अमरीकी अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है और वह आर्थिक संकट की तरफ बढ़ चुका है . सीरिया की मौजूदा सरकार या उसका विरोध कर रही ताक़तें, दोनों ही युद्ध की सौदागर हैं और युद्ध का किसी भी हाल में समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन लगता  है कि अमरीका तेल के पश्चिम एशियाई साम्राज्य में  अपनी  धाक बनाए रखने के लिए कुछ भी करने के लिए आमादा है . अमरीकी मनमानी का इससे बड़ा क्या नमूना होगा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों की मर्जी के खिलाफ उसने सीरिया पर हमले की तैयारी कर ली है .इस मुहिम में उसके साथ ब्रिटेन है ,ठीक उसी तरह जैसे  इराक पर अमरीकी हमले के समय ब्रिटिश  प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर लगे रहते थे .ब्रिटेन में आज के प्रधानमंत्री की राजनीतिक कमजोरी इतनी ज़्यादा है कि उनकी पार्टी के ही बहुत सारे नेता सीरिया के मुद्दे पर उनके खिलाफ हैं . अमरीकी हमले की संभावना के मद्देनज़र सीरिया के पड़ोसी देशों में भी अफरातफरी का आलम है . खबर है कि अमरीका के मुख्य शिष्य इजरायल में भी हुकूमत अपने  नागरिकों को गैस के मास्क सप्लाई कर रही है . यह खबर इस बात को लगभग सुनिश्चित कर देती है कि सीरिया पर अमरीका हमला परम्परागत  बमबारी की शक्ल में नहीं होगा , यह हमला रासायानिक युद्ध के रूप में होने वाला है .
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ़ कह दिया है कि सीरिया की सरकार ने २१ अगस्त को जब सुन्नी विरोधियों के ऊपर रासायनिक हथियारों से बमबारी की थी तो उसे मालूम होना चाहिए था कि उसके नतीजे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी कोई कार्रवाई कर  सकता है . किसी भी देश में अमरीकी मनमानी के लिए तैयारी कर रहे राष्ट्रपतियों ने अपनी मंशा को परंपरागत रूप से अंतर्राष्ट्रीय रंग देने की हमेशा से ही कोशिश की है . ओबामा भी वही कोशिश कर रहे हैं. हालांकि उन्होने कई  बार कहा है कि सीरिया पर वे लंबी लड़ाई के पक्ष में नहीं हैं लेकिन सभी देशों को जानना चाहिए कि जब रासायनिक हथियारों के मामले में कानून को तोडा जाएगा तो उसके नतीजे भी भुगतने पड़ेगें. यहाँ यह कहना है कि अगर ओबामा समझते हैं कि उनकी मंशा  बहुत पवित्र है तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने  साथियों , रूस और चीन को भी साथ साथ लेकर चलें. लेकिन अमरीकी मनमानी और पश्चिम एशिया में अमरीकी कठपुतलियों की सरकार कायम करने की अमरीका की उतावली के चलते संयुक्त राष्ट्र को भी मनमानी का हथियार बनाने से अमरीका बाज़ नहीं आ रहा है .ओबामा ने ब्रिटेन को आगे कर दिया है और ब्रिटेन की तरफ से सुरक्षा परिषद में वह प्रस्ताव लाया  गया है जिसमें संयुक्त राष्ट्र से कहा गया है कि सीरिया में रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल को रोकने के लिए एक सीमित सैनिक कार्रवाई की अनुमति दी जाए . इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए सुरक्षा परिषद के पाँचों स्थायी सदस्यों की एक बैठक भी की गयी लेकिन रूस और चीन ने साफ़ मना कर दिया कि इस तरह की कारवाई को अधिकृत नहीं किया जा सकता .   बैठक में शामिल अमरीकी प्रतिनिधियों ने साफ़ कर दिया कि अगर सुरक्षा परिषद अधिकृत नहीं भी करती तो ओबामा अपना काम जारी रखेगें , यानी संयुक्त राष्ट्र की अनदेखी करके भी हमला किया जाएगा . इस वक़्त सीरिया में निरीक्षकों का एक दल मौजूद है जो यह देख रहा है कि के वास्तव में सीरिया के पास रासायनिक हथियार हैं और क्या वह उनको इस्तेमाल कर रहा है . बताया गया  है कि अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र की तरफ से भेजे गए निरीक्षकों को बता दिया  है कि वे लोग शनिवार तक सीरिया से वापस आ जाएँ . जानकार बताते हैं कि बस उसके बाद किसी भी वक़्त अमरीका सीरिया की शिया हुकूमत को तबाह करने के लिए दमिश्क और उसके आस पास के इलाकों पर बमबारी शुरू कर देगा .जबकि संयुक्त राष्ट्र ने शायद सीरिया की वह अपील मान लिया है कि  अभी सीरिया में गया हुआ संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों का दल  वहीं रहे और अपना काम पूरा करके वापस जाय। 
 अमरीकी अधिकारियों के रुख से साफ़ समझ में आने लगा है कि उनको संयुक्त राष्ट्र महसचिव बान की मून की कोई परवाह नहीं है क्योंकि बान की मून ने कहा है अभी सीरिया में संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षक मौजूद हैं और वे सच्चाई का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं .उसके बाद ही कोई फैसला किया जायेगा. संयुक्त राष्ट्र ने इराक की तरह सीरिया में भी एक विशेष दूत की तैनाती की है . इस बार भी वही लखदर ब्राहिमी विशेष दूत हैं जो इराक में अमरीका कि सेवा कर चुके हैं . लेकिन उनकी बात को ओबामा प्रशासन नज़र अंदाज़ करता लग रहा है .अमरीकी अधिकारियों का कहना है कि तैयारी पूरी हो चुकी है. भूमध्य सागर में अमरीकी विमानवाही जहाज़ तैनात हैं और वे क्रूज मिसाइल दाग सकते हैं . अमरीका के रक्षा सचिव चक हेगेल ने कहा है कि  सेना की तैयारी पूरी है. जब भी राष्ट्रपति ओबामा आगे बढ़ने को कहेगें , हमला कर दिया जाएगा . हालांकि अमरीकी अधिकारी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि हमला बहुत ही सीमित होगा और सीरिया के सैनिक केन्द्रों को ही निशाना बनाया जाएगा लेकिन जानकार बताते हैं कि सीमित एक्शन की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि लड़ाई शुरू करने वाले के पास उसको रोकने का विकल्प नहीं रहता . युद्ध का एक  गतिशास्त्र होता है ,वही किसी भी संघर्ष के नतीजों को तय करता है .
अमरीका का दावा है कि वह हमला इसलिए कर रहा  है कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने बागियों के ऊपर रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर दिया है लकिन उसकी इस बात को मानने के लिए कोई निष्पक्ष सबूत नहीं है , संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षकों ने ऐसी कोई बात नहीं बताई है ,क्योंकि अभी निरीक्षण का काम चल ही रहा है. पता नहीं कहाँ से बराक  ओबामा को मालूम हो गया कि रासायनिक हमला हो चुका है . कुल मिलाकर इस बात में अभी शक है कि रासायनिक हथियारों का हमला हुआ  है लेकिन दूसरी बात बिलकुल तय है और वह यह कि अगर अमरीका ने सीरिया पर बमबारी शुरू की तो यह युद्ध  मुकम्मल तौर पर रासायनिक हथियारों का युद्ध हो जाएगा क्योंकि सीरिया के राष्ट्रपति ,बशर अल असद ने पिछले साल ही स्पष्ट कर दिया था कि अगर उनके ऊपर कोई विदेशी ताक़त हमला करती है तो वे निश्चित रूप से रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर देगें . उसी तरह से दो दिन में रासायनिक हथियारों को बर्बाद करके वापस आने की बात का भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि जब १९९८ में संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना अमरीका और ब्रिटेन ने इराक पर बमबारी शुरू की थी और सामूहिक नर संहार के हथियारों  को तहस नहस करके कार्रवाई खत्म करने की बात की थी ,तब भी लड़ाई लंबी चली थी  और कहीं कोई सामूहिक नरसंहार के हथियार नहीं मिले थे . बल्कि बाद में पता चला कि और अब सारी दुनिया जानती है कि इराक में सामूहिक नरसंहार के हथियार थे ही नहीं .१९९९ में अमरीकी अगुवाई में नैटो ने जब तत्कालीन यूगोस्लाविया पर हमला किया  तब भी यही बताया गया था कि स्लोबोदान  मिलासोविच की सत्ता को खत्म करने के लिए हमला किया गया था लेकिन लड़ाई बहुत दिन तक चली थी. यह भी गौर करने की बात  है कि उस बार भी आज की तरह संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध को अधिकृत नहीं किया था और उस हमले में अमरीकी बम , अस्पतालों और दूतावासों पर भी गिराए गए थे . २०११ में जब नैटो ने लीबिया पर सीमित हमला किया था तो मीडिया के संस्थानों पर हमला हुआ था . इस बार भी डर है कि कहीं सीरियन अरब एजेंसी समेत अन्य मीडिया संस्थानों को भी न हमले का निशाना न बनाया जाये.
आज की स्थिति यह है कि ओबामा हर हाल में सीरिया पर डायरेक्ट सैनिक कार्रवाई के लिए दीवाने हो रहे है .वे बाकी दुनिया को यह बताने के कोशिश कर रहे हैं कि वे तो वास्ताव में वह काम करने जा रहे हैं जो संयुक्त राष्ट्र को करना चाहिए था . ओबामा के लोग पूरी कोशिश कर रहे हैं कि रासायनिक हथियारों के बारे में सच्चाई सामने न आने पाए इसीलिए वे बार बार कह रहे हैं कि शनिवार तक संयुक्त राष्ट्र की तरफ से वहाँ काम कर रहे निरीक्षक वापस आ जाएँ . इसके पहले भी यह हुआ है . जब २००३ में संयुक्त राष्ट्र के हथियार निरीक्षकों को इराक में वे हथियार नहीं मिले जिसकी बात अमरीकी अखबार और उसके साथी हर मंच से कर रहे थे तो अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र के उन कर्माचारियों की ईमानदारी और उनकी काबिलियत पर सवाल उठाना शुरू कर दिया था .  इस बार भी अगर फ़ौरन से पेशतर संयुक्त राष्ट्र के निरीक्षक वहाँ से वापस नहीं आये तो उनका भी वही हश्र हो  सकता है .
सीरिया में हो रही लड़ाई से पश्चिमी देशों का एक और चेहरा  सामने आ रहा  है . अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों में  मुसलमान अल्पसंख्यक सभी देशों में हैं . उनको वहाँ  अधिकार भी मिले हुए हैं लेकिन जब से अल कायदा और उसके सहयोगी इस्लाम के सबसे बड़े प्रचारक के रूप में सामने आने की कोशिश कर रहे हैं , तब से कुछ स्वार्थी लोगों ने इस्लाम के नाम पर अल कायदा का प्रचार शुरू कर दिया है . पश्चिम के देशों में यह प्रवृत्ति बढ़ रही है . यह लोग अक्सर हिंसा की वकालत करते पाए जाते हैं . इस्लाम की बुनियादी मान्यताओं से यह दूर हैं और हिंसा को  समर्थन देते हैं . अल्पसंख्यकों की असुरक्षा की भावना को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करते हैं . नतीजा यह हुआ है कि पश्चिमी यूरोप के शांतिप्रिय देशों में इस्लाम के प्रति अजीब सा  कन्फ्यूज़न फ़ैल रहा है और वे इस्लाम के असली शांतिप्रिय रूप से अपरिचित होने लगे हैं . जानकार बता रहे हैं कि इस्लाम को मानने वालों के अलग अलग संप्रदायों को आपस में लड़ाकर इस्लाम को कमज़ोर करने की अमरीका और ब्रिटेन की इस साज़िश को पश्चिमी यूरोप के अन्य देशों में इसीलिये समर्थन मिल रहा  है . सीरिया में शिया और सुन्नी मत मानने वालों के बीच चल रही लड़ाई इस नीति का सबसे ज्वलंत उदाहरण है . ज़रूरत इस बात की है कि दुनिया के सभी लोग साम्राज्यवादी साज़िश को समझें और इंसानों के बीच नफरत को सर्वनाश का जरिया न बनने से रोकें 

Friday, August 30, 2013

नार्वे के चुनाव में यूरोपियन यूनियन और प्रवासी अल्पसंख्यक भी मुद्दा हैं




शेष नारायण सिंह

ओस्लो, २८ अगस्त. नार्वे के चुनाव में नेता भी आम आदमी की तरह रहते हैं . भारत से आये किसी रिपोर्टर के लिए यह सुखद तो है ही लेकिन एक पछतावा भी है कि काश हमारे नेता भी ऐसे होते. शहर के पूर्वी इलाके में आयोजित एक चुनावी सभा में सत्ताधारी लेबर पार्टी का नेता हाफ पैंट पहनकर अपनी साइकिल से आया और हाथ में एक चाकलेट का बार भी था क्योंकि खाने का मौक़ा नहीं मिला था. सत्ताधारी गठ्बंधन की पार्टी सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी की ओस्लो नगर की सबसे महत्वपूर्ण नेता , इन्गुन येरास्ता , मीटिंग शुरू होने के पहले गेट पर खड़े होकर आने वालों से गप्प मार रही थी, .आज की मीटिंग इस इलाके में पर्यावरण की निगरानी रखने वाले एन जी ने किया था और सभी पार्टियों के नेताओं को बुलाया गया था .सभी पार्टियों के नेता समय से पहले हाज़िर थे और एन जी ओ ने शुरुआती वक्तव्य के लिए सबके लिए तीन मिनट का समय तय कर दिया था और समय पूरा होने पर घंटी बजती थी और नेता लोग चुप हो जाते थे .
मीटिंग शुरू होने के पहले आयोजकों  की तरफ से तैनात माडरेटर ने साफ़ बता दिया था कि सारी चर्चा पर्यावरण और सार्वजनिक यातायात की सुविधाओं पर केंद्रित रहेगी. शुरुआती वक्तव्य के बाद लोगों को सवाल पूछने की अनुमति दी जायेगी लेकिन सवाल पूछने वाले केवल सवाल पूछेगें अपनी राय नहीं देगें . सवाल सीधे और डायरेक्ट होने चाहिए . यह भी बताया गया कि मीटिंग के दौरान अगर  कोई आग वगैरह लग जाए तो बाहर जाने का रास्ता किधर से है. इस मीटिंग में लेबर पार्टी के यान ब्योलर और सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी की इन्गुन येरास्ता भी उपस्थित थे . यह अपनी पार्टियों के बड़े नेता हैं . मुख्य विपक्षी दल होयरे की तरफ से निकोलाई आस्त्रुप आये थे जो मामूली स्तर के नेता हैं . होयरे यानी कंज़रवेटिव पार्टी को इस इलाके से किसी खास समर्थन की उम्मीद नहीं है शायद इसलिए उन्होने किसी बड़े नेता को नहीं भेजा था  . नार्वे के चुनाव में शामिल सभी पार्टियों के प्रतिनिधि आये थे और अगर किसी मुद्दे पर सवाल को टालने की कोशिश करते थे तो माडरेटर तुरंत टोक देता था. एक भारतीय के रूप में हमारे लिए यह अहम नहीं है कि लोकल मुद्दों पर किसने क्या कहा लेकिन यह अहम है कि चुनाव के पहले  होने वाली  बैठकों में भी  हर स्तर पर लोकतंत्र का ध्यान रखा जाता है .
सत्ताधारी गठबंधन को शुरुआती सर्वेक्षणों में बहुत कम समर्थन मिलता बताया जा रहा था लेकिन अब हालात सुधर रहे हैं और सोशलिस्ट लेफ्ट और लेबर पार्टी ,दोनों की स्वीकार्यता बढ़ रही है. इसलिए  यहाँ के राजनीतिक पर्यवेक्षकों को अब लगने लगा है कि शायद मौजूदा गठबंधन ही सत्ता पर बना रहे. इसलिए गठबंधन की प्रमुख नेता और ओस्लो इलाके से स्तूर्तिंग ( संसद ) पंहुचने की प्रबल दावेदार  इन्गुन येरास्ता से अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बात करने की कोशिश की गयी . ओस्लो इलाके से उनकी पार्टी ने चार उम्मीदवार उतारे हैं . आनुपातिक प्रतिनिधित्व के नियम के अनुसार २००५ के चुनाव में सोशलिस्ट लेफ्ट को ओस्लो से ३ सीटें मिली थीं जबकि २००९ में २ सीटें मिलीं थीं . इस बार भी पार्टी कम से कम दो सीटों की उम्मीद कर रही है . पार्टी के लिस्ट में इन्गुन येरास्ता  का नाम दूसरी जगह पर है इसलिए उनकी संसद पंहुचने की संभावना बहुत ज्यादा है. जब उनको बताया गया कि चुनावी सर्वे में तो उनकी पार्टी को पिछडता हुआ  दिखाया गया है तो उन्होंने कहा कि इन सर्वेक्षणों का विश्वास मत कीजिये . यह सारे सर्वे टेलीफोन से बात करके किये जाते हैं और उनकी पार्टी का समर्थन मूल रूप से  प्रवासी समुदाय में है . दक्षिण अमरीका और अफ्रीका से आये लोगों में उनकी पार्टी की मज़बूत ताक़त है और कोई भी सर्वे वाला इन लोगों  को फोन पर संपर्क ही नहीं करता . इसलिए किसी भी चुनाव में चुनाव पूर्व सर्वे करने वाले नतीजों के आसपास भी नहीं पंहुचते . उनकी इस बात से अपने देश के चुनावी पंडितों की याद आ गयी . वे भी तो टी वी स्टूडियो में बैठे ज्ञान देते रहते हैं और नतीजा  उनके ज्ञान से  बिलकुल अलग होता है .उन्होंने बताया कि अल्पसंख्यकों और प्रवासियों में उनकी पार्टी की ताक़त ज्यादा है .सोशालिस्ट लेफ्ट पार्टी ने ओस्लो क्षेत्र से तीसरे नंबर पर ब्राजील मूल की ओलिविया सेलेस  और चौथे नंबर पर मोरक्को के यासीन एजारी को टिकट दिया है . इन दोनों के जीतने की उम्मीद नहीं है क्योंकि पार्टी दो सीटों से ज्यादा की उम्मीद नहीं रख रही  है  . लेकिन लिस्ट में इन दो समुदायों के उम्मीदवार होने का फायदा यह है कि इन की कम्युनिटी के लोग  पार्टी को वोट देगें . मुझे लगा कि जातिवाद की राजनीति के दूसरे रूप में यहाँ भी मौजूद है .
इन्गुन येरास्ता ने बताया कि नार्वे में बजट का एक प्रतिशत विदेशी सहायता के लिए  दिया जाता है . जिस से अफ्रीका और एशिया के देशों में  गरीबी और स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहे लोगों को ताक़त मिलती है लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी ,होयरे ,उसको खत्म कर देना  चाहती है . उसके सहयोगी एफ आर पी वाले तो अश्वेत लोगों के प्रति सौतेला व्यवहार अपनाने की राजनीति कर रहे हैं . उन्होंने कहा कि इतने पुरातनपंथी और पिछड़े हुए लोग हैं फिर भी यह पता नहीं क्यों एफ आर पी वाले अपने आप को प्रोग्रेसिव पार्टी कहते हैं . उन्होंने कहा कि नार्वे की सम्पन्नता से इंसानी बिरादरी को लाभ मिलना चाहिए और इसके लिए सबको तरक्की में शामिल करके ही रास्ता निकलेगा.
अपने देश में भी ट्रेड यूनियन अधिकारों को मज़बूत करने की उनकी राजनीति  उनकी पार्टी को देश के शहरी इलाकों  तक ही सीमित रखती है. उनकी पार्टी को डर है कि कंज़रवेटिव पार्टी के नेता यूरोपियन यूनियन  में बढ़ रहे बेरोजगार लोगों की संख्या से चिंतित है लेकिन उसके बाद भी ट्रेड यूनियन अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए .उनकी पार्टी यूरोपियन यूनियन की नार्वे की सदस्यता का विरोध करती रही है . उनका मानना है कि नार्वे अगर यूरोपियन यूनियन का सदस्य होता तो यह परेशानी नहीं होती . लेकिन फिर भी वर्कर को सम्मान मिलना चाहिए . अगर एफ आर पी की चली तो नार्वे के जो नागरिक अश्वेत हैं तो वेह तबाह हो जायेगें और स्वीडन आदि जैसे देशों से श्वेत लोग आकर नार्वे के रोजगारों पर कब्जा कर  लेगें .जहां तक बाकी दुनिया के देशों से संबंध की बात है नार्वे को अपना स्वतंन्त्र अस्तित्व बनाए रखना चाहिए . इन्गुन येरास्ता से बातचीत के बाद लगा कि वे  बाकी यूरोप की गरीबी इम्पोर्ट करने के खिलाफ हैं लेकिन अपने देश के मजदूरों की ताकत से मज़बूत बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं .