(नवभारत टाइम्स में छपा लेख)
शेष नारायण सिंह
नामी अमरीकी अखबार, वाशिंगटन पोस्ट में आज एक दिलचस्प खबर छपी है . लिखा है कि भारत सरकार के ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के कारण औद्योगिक सेक्टर को अब ज़रूरी मजदूर नहीं मिल रहे हैं . पंजाब और महाराष्ट्र में दूर गाँव से आकर मजदूरी करने वाले लोग नहीं पंहुच रहे हैं इसलिये औद्योगिक इस्तेमाल के लिए गन्ना भी मिलों तक नहीं पंहुच रहा है.बताया गया है कि अखबार के रिपोर्टरों ने देहातों में घूम घूम कर रोजगार गारंटी योजना ( नरेगा ) में काम करने वाले जिन मजदूरों से बात की, उन्होंने बताया कि यह काम उन्हें दो जून की रोटी तो देता ही है ,सम्मान के साथ अपनी ही ज़मीन पर रह कर जीने का अवसर भी देता है . अब ग्रामीण मजदूर भूखा नहीं सोता और बड़े किसानों के खेतों में कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर नहीं है . ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत १०० दिन का काम पाने वाले मजदूरों के परिवार अति दरिद्रता के जीवन से मुक्ति पा चुके हैं और अब उन्हें मिल मालिक या बड़े किसान के सामने काम के लिए गिडगिडाना नहीं पड़ता . वाशिंगटन पोस्ट को इस बात से खासी परेशानी है कि इण्डिया में अब सस्ते मजदूर मिलने कम हो गए हैं .
यहाँ यह ध्यान में रखने की बात है कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत भारतीय ग्रामीण गरीब को दिनभर की मजदूरी के मद में केवल दो अमरीकी डालर मिलते हैं .साथ में कुछ अनाज भी मिल जाता है .वह भी पूरे साल नहीं ,साल में केवल सौ दिन . यानी प्रतिदिन के केवल २७ रूपये और ४० पैसे पड़े. अब मानवीय गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सबसे बड़े समर्थक कहलाने के दावेदार अमरीका के एक बहुत बड़े अखबार को इस बात से भी परेशानी है कि भारत में अति गरीबी की ज़िंदगी बसर करने के लिए अभिशप्त एक आदमी २७ रूपये रोज़ क्यों कमा रहा है . अखबार का पूरा टोन यह है कि भारत सरकार ने ग्रामीण रोज़गार गारंटी जैसी योजना शुरू करके भारत के औद्योगिक उत्पादन के लिए मजदूरों की किल्लत पैदा कर दी है . उसे ऐसा नहीं करना चाहिए .
पूंजीवादी आर्थिक सोच के सरगना देश , अमरीका की इस सोच पर दुखी होने की ज़रूरत नहीं है . पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था का ट्रेड मार्क है कि उसमें गरीब इंसान का शोषण होता है .भारत में अमरीकी माडल के सपने देख रहे उद्योगपतियों को इस बात से बहुत परेशानी है कि इस योजना की वजह से मजदूरों को काम में कोई रूचि नहीं रह गयी है .भारतीय उद्योगपतियों के संगठन फिक्की में कृषि सेक्शन के मुखिया भास्कर रेड्डी कहते हैं कि यह योजना सबसे गरीब आदमी को कुछ राहत देने के लिए शुरू की गयी थी , लेकिन अब यह सबसे आसान रास्ता बन गयी है क्योंकि थोड़ी बहुत मिट्टी इधर उधर कर देने से लोगों को आसानी से पैसा मिल जाता है और वे अब कोई भी गंभीर काम नहीं करते. इस योजना का विरोध करने के लिए कुछ अर्थशास्त्रियों को भी आगे कर दिया गया है .वे कहते हैं कि करीब १०० अरब रूपयों के खर्च वाली यह योजना भारत सरकार की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ है . सरकार को इस योजना को फ़ौरन बंद कर देना चाहिए
अमरीका के सबसे प्रभावशाली अखबारों में से एक ,वाशिंगटन पोस्ट ने भारत के गरीबों के पक्षधर सबसे बड़े प्रोग्राम की निन्दा करने की जो योजना बनायी है वह हवा में नहीं है .लगता है कि भारत की पूंजीपति और औद्योगिक लाबी अब पूरी तरह से जुट गयी है कि इस योजना को गरीबों लायक न रहने दिया जाय . बहुत बड़े पैमाने पर कोशिश हो रही है कि ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत फैक्टरी और बड़े फार्मों के काम को भी ले लिया जाय . संसद में पिछले सत्र में कुछ सांसदों ने यह आवाज़ उठायी थी कि जब खेती में काम का समय हो तो नरेगा की योजना को बंद रखा जाए. यानी मजदूर को बड़े किसानों के यहाँ कम मजदूरी पर काम करने के लिए मज़बूर किया जा सके और इस काम में उनको सरकार की मदद मिले. यह अजीब बात है कि पूंजीपति लाबी गरीब आदमी का शोषण न कर पाने पर पछता रही है . फिक्की ने एक सर्वे करवाया है जिससे पता चलता है कि बहुत सारे कारखाने ऐसे हैं जो अपना टार्गेट नहीं पूरा कर पा रहे हैं . बिल्डरों ने भी शिकायत की है कि उनके प्रोजेक्टों की कीमतें बढ़ रही हैं क्योंकि अब औने पौने दाम पर मजदूर नहीं मिल रहे हैं. उद्योगपतियों को सरकार से शिकायत है कि वह इस तरह की योजना चलाकर उद्योगों का सर्वनाश कर रही है. पूंजीपति खेमे के पूरी गंभीरता से जुट जाने के खतरे बहुत हैं . जानकार बताते हैं कि इस बात की पूरी आशंका है कि आने वाले दिनों में यह वर्ग नरेगा में ऐसे प्रावधान डलवा देगा जिससे यह मजदूरों की संकटमोचक योजना न रहकर औद्योगिक लाबी के हाथ का खिलौना बन जायेगी.केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश को भी यही डर है . उन्होंने चिंता जताई है कि उद्योगों में मजदूरों की कमी की बात का कोई मतलब नहीं है . ग्रामीण रोजगार योजना में कोई भी मजदूर को बाँधकर काम नहीं करवाता . वे जहां चाहें, काम करने के लिए स्वतंत्र हैं .लेकिन दुर्भाग्य है कि बड़े उद्योगपति और बड़े किसान उन्हें सम्मानजनक मजदूरी नहीं देते जिसके कारण वे नरेगा की योजनाओं से जीवन यापन करना बेहतर समझते हैं .
नरेगा के खिलाफ अमरीकी औद्योगिक कंपनियों ने भी अभियान शुरू कर दिया है . तमिलनाडु में टी शर्ट के उत्पादन के काम में लगी हुई अमरीका की कई कंपनियों ने प्रस्ताव दिया है कि अगर जिन जिलों में उनका काम चल रहा है , वहां से सरकारी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना को हटा दिया जाय तो वे लोग खुद ही अपनी रोज़गार गारंटी योजना लागू कर देगें . केंद्र सरकार के आला अफसरों का कहना है कि यह बात बहुत ही शर्मनाक है कि खुले कम्पटीशन की वकालत करने वाले अमरीका के बड़े उद्योग , लोगों की मजबूरी से फायदा उठाने के लिए सरकार की मदद चाहते हैं . अमरीकी कंपनियों की इस सलाह पर ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना वाले अफसरों का कहना है कि उन्हें अपनी कोई योजना चलाने के लिए सरकारी मदद क्यों चाहिए . जब वे दुनिया भर में सबसे ज्यादा फायदा कमाते हैं तो उन्हें सरकार की २७ रूपये रोज़ वाली स्कीम को बंद करवाने की क्या ज़रुरत है . उन्हें तो चाहिए कि नरेगा के मुक़ाबिल अपनी योजना चलायें और अधिक से अधिक मजदूरों को नरेगा से ज्यादा मजदूरी दें. मजदूर अपने आप नरेगा को भूल जाएगा .
खुली अर्थव्यवस्था के पक्षधर अमरीका और उनके समर्थक अर्थशास्त्रियों को इसलिए परेशानी हो रही है कि देश के गरीब मजदूरों से वे अपनी शर्तों पर काम नहीं करवा पा रहे हैं .जब भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था की राजनीतिक सोच सरकारी कामकाज की नियंता होती थी तो उदारीकरण की अर्थव्यवस्था के वकील कहा करते थे कि सरकारी कंट्रोल से बाहर हो जाने के बाद पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के राजनीतिक अर्थशास्त्र के चल जाने के बाद खुला कम्पटीशन होगा लेकिन एक साधारण सी सरकारी योजना के चल जाने के बाद इन लोगों को सारा कम्पटीशन भूल गया . अब सरकारी अर्थशास्त्री, उद्योगपति, बड़े किसानों के संगठन सब उसी नरेगा को ख़त्म करने पर आमादा हैं . देखना यह है कि जयराम रमेश जैसे अर्थशास्त्री इस योजना को चला पाते हैं या बड़ी पूंजी के चाकर अर्थशास्त्री अपनी मनमानी करवाने में सफल होते हैं .
इस बात को समझने के लिए सरकारी सब्सिडी के निजाम को भी समझना पड़ेगा . कई औद्योगिक क्षेत्रों में भारी सरकारी सब्सिडी का इंतज़ाम होता है . लेकिन देखा यह गया है कि उद्योगपति सब्सिडी को अपनी आमदनी का हिस्सा मानते हैं . ज़्यादातर मामलों में सब्सिडी का लाभ उपभोक्ता तक नहीं पंहुचता है . नरेगा से हो रही बड़े उद्योगपतियों की असुविधा को सब्सिडी के बरक्स देखना चाहिए. खाद की कीमतें आज आसमान छू रही हैं . उस से किसानों को बहुत नुकसान हो रहा है रासायनिक खाद के कमरतोड़ दाम की वजह से किसान अपनी खेती को ठीक से नहीं कर पा रहे हैं . तुर्रा यह कि खाद बनाने वाली कंपनियों को बहुत बड़े पैमाने पर सरकारी सब्सिडी दी जाती है . लेकिन सब्सिडी को कम्पनियां किसान तक नहीं पंहुचाती . उसे वे अपने पास ही रख लेती हैं . आम आदमी दोनों तरफ से मारा जाता है . टैक्स देने वाली जनता के पैसे से ही सब्सिडी दी जाती है और जब वही जनता किसान के रूप में खाद खरीदती है तो उसे उनका हक नहीं मिलता. अक्सर खबर आती रहती है कि सरकार निजी कंपनियों क बेल आउट पैकेज देती है . यानी टैक्स देने वालों का पैसा निजी कंपनियों को दिवाला पिटने से बचाने के लिए दिया जाता है. यह दिवाला इसलिए निकल रहा होता है कि कंपनी कुप्रबंध की शिकार होती है. इस बात को किंगफिशर एयरलाइन के ताज़ा मामले से समझा जा सकता है. किंगफिशर पर करीब सात हज़ार करोड़ का घाटा है . कंपनी के मालिक कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें सरकारी मदद मिल जाए और वे कंपनी को फिर से चला सकें .उद्योगजगत में सबको मालूम है कि किंगफिशर के मालिक बहुत ही राजसी शैली में जीवन जीते हैं . कंपनी के घाटे में एक बड़ा हिस्सा उनके बेमतलब के खर्चों का भी है . उन्होंने बैंकों से भी बहुत ज्यादा रक़म बतौर क़र्ज़ ले रखी है . उनके बारे में कहा जाता है कि वह बहुत ही ज्यादा पैसे लेने वाली माडलों के साथ समुद्र में पानी के जहाज़ में महीनों घूमते रहते हैं और फोटो खिंचाते हैं जिसके बाद में कैलेण्डर बनता है . ज़ाहिर है यह खर्च भी कंपनी के खाते से होता है और अब उस खर्च को पूरा करने के लिए सरकार से मदद मांग रहे हैं. हो सकता है कि उनको मदद मिल भी जाए. इसी तरह से बहुत सारे और भी मामले हैं जहां सरकार की सब्सिडी पर ऐश करने वाले उद्योगपति मिल जायेगें . डीज़ल पर आज बहुत भारी सब्सिडी है और डीज़ल का इस्तेमाल सबसे ज्यादा बड़े उद्योगों में ही होता है . हालांकि एक बहुत मामूली प्रतिशत में डीज़ल की खपत करने वाला किसान डीज़ल की कीमतों के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित होता है.
इसलिए ज़रूरी यह है कि बड़े उद्योगपति, पूंजीपति और उनको समर्थन देने वाले देश और अखबार इन उद्योगपतियों को यह सलाह दें कि उद्योग चलाने के नाम पर बेमतलब खर्च करने से बाज़ आयें और उन मजदूरों को जिंदा रहने भर के लिए मजदूरी दें . नरेगा को हटाकर गरीब आदमी को मजबूर करके काम करवाने की मानसिकता से बचना आज के उद्योग जगत की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए .
Friday, November 18, 2011
Tuesday, November 15, 2011
गरीब सवर्णों को ओ बी सी के बराबर मानने की सिफारिश
शेष नारायण सिंह
सवर्ण जातियों के जो लोग इनकम टैक्स नहीं देते उन्हें ओ बी सी जातियों के बराबर माना जाना चाहिए और उन्हें भी वही सुविधा मिलनी चाहिए जो पिछड़ी जाति के लोगों के लिए उपलब्ध है . आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बनाए गए कमीशन ने अपने सुझाव में कहा है कि इन वर्गों को शिक्षा, आवास,स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्रोंमें वही सुविधाएं मिलनी चाहिए जो ओ बी सी को मिलती है .हालांकि इस कमीशन की सिफारिशों में नौकारियों में आरक्षण की बात नहीं कही गयी है लेकिन इसे सवर्ण आरक्षण के लिए कोशिश कर रही राजनीतिक पार्टियों के हाथ में एक महत्वपूर्ण हथियार के तौर पर देखा जा रहा है.
करीब चार साल पहले केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मानदंड तय करने के लिये एक आयोग का गठन किया था.इसे यह भी पता करना था कि इन वर्गों का कल्याण कैसे किया जाए . एजेंडा में यह भी था कि क्या इन वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण करना चाहिए कि नहीं . इस आयोग की रिपोर्ट तैयार हो गयी है . इसमें लिखा है कि करीब ६ करोड़ सवर्ण ऐसे हैं जिनको ओ बी सी के बराबर माना जाना चाहिए . कहा गया है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में सभी धर्मों के लोग शामिल किये जाने चाहिए .सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को शामिल किये जाने की वकालत बहुत सारी पार्टियां करती रही हैं . उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री तो हर मंच पर यह बात कहती रही हैं. इस रिपोर्ट के बाद उनका काम आसान हो जाएगा. कांग्रेस और बीजेपी वाले ओ बी सी में अति पिछड़े वर्ग के नाम पर आरक्षण की मांग पहले से ही कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि पिछड़ों के लिए उपलब्ध २७ प्रतिशत के आरक्षण में से मुलायम सिंह यादव की पार्टी के मुख्य समर्थक, यादवों को केवल ५ प्रतिशत ही आरक्षण दिया जाए . आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के आरक्षण के लिए भी राजनीतिक ज़मीन तैयार हो जाने के बाद बीजेपी वाले समाजवादी पार्टी को कमज़ोर करने की अपनी कोशिश तेज़ कर देगें . अभी कुछ दिन पहले ही केंद्र सरकार के योजना आयोग ने पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के नाम पर कोटा के अंदर कोटा की बहस शुरू की थी . अब आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों की बात को भी नौकरियों के रिज़र्वेशन की बहस में झोंक कर उत्तर प्रदेश की सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी पर ज़बरदस्त राजनीतिक हमला हो सकता है .
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कमीशन की रपोर्ट में यह तो लिखा है कि इन वर्गों के सवर्णों को सामाजिक रूप से तो वह अपमान नहीं झेलना पड़ता जो दलित जातियों के लोगों को झेलना पड़ता है. इस कमीशन ने देश के २८ राज्यों का दौरा करके अपनी रिपोर्ट तैयार की है और कहा है कि एक करोड़ परिवार इस श्रेणी में आते हैं . अगर प्रति परिवार छः लोगों की संख्या मान ली जाए तो यह आबादी छः करोड़ के आस पास पंहुच जाती है .अगर सरकार इन सिफारिशों को स्वीकार कर लेती है तो देश के राजनीतिक माहौल में कुछ उसी तरह का परिवर्तन आ जाएगा जैसा मंडल कमीशन के सुझावों को मान लेने के बाद १९९० में आ गया था .
सवर्ण जातियों के जो लोग इनकम टैक्स नहीं देते उन्हें ओ बी सी जातियों के बराबर माना जाना चाहिए और उन्हें भी वही सुविधा मिलनी चाहिए जो पिछड़ी जाति के लोगों के लिए उपलब्ध है . आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए बनाए गए कमीशन ने अपने सुझाव में कहा है कि इन वर्गों को शिक्षा, आवास,स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्रोंमें वही सुविधाएं मिलनी चाहिए जो ओ बी सी को मिलती है .हालांकि इस कमीशन की सिफारिशों में नौकारियों में आरक्षण की बात नहीं कही गयी है लेकिन इसे सवर्ण आरक्षण के लिए कोशिश कर रही राजनीतिक पार्टियों के हाथ में एक महत्वपूर्ण हथियार के तौर पर देखा जा रहा है.
करीब चार साल पहले केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मानदंड तय करने के लिये एक आयोग का गठन किया था.इसे यह भी पता करना था कि इन वर्गों का कल्याण कैसे किया जाए . एजेंडा में यह भी था कि क्या इन वर्गों के लिए नौकरियों में आरक्षण करना चाहिए कि नहीं . इस आयोग की रिपोर्ट तैयार हो गयी है . इसमें लिखा है कि करीब ६ करोड़ सवर्ण ऐसे हैं जिनको ओ बी सी के बराबर माना जाना चाहिए . कहा गया है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में सभी धर्मों के लोग शामिल किये जाने चाहिए .सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को शामिल किये जाने की वकालत बहुत सारी पार्टियां करती रही हैं . उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री तो हर मंच पर यह बात कहती रही हैं. इस रिपोर्ट के बाद उनका काम आसान हो जाएगा. कांग्रेस और बीजेपी वाले ओ बी सी में अति पिछड़े वर्ग के नाम पर आरक्षण की मांग पहले से ही कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि पिछड़ों के लिए उपलब्ध २७ प्रतिशत के आरक्षण में से मुलायम सिंह यादव की पार्टी के मुख्य समर्थक, यादवों को केवल ५ प्रतिशत ही आरक्षण दिया जाए . आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के आरक्षण के लिए भी राजनीतिक ज़मीन तैयार हो जाने के बाद बीजेपी वाले समाजवादी पार्टी को कमज़ोर करने की अपनी कोशिश तेज़ कर देगें . अभी कुछ दिन पहले ही केंद्र सरकार के योजना आयोग ने पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के नाम पर कोटा के अंदर कोटा की बहस शुरू की थी . अब आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों की बात को भी नौकरियों के रिज़र्वेशन की बहस में झोंक कर उत्तर प्रदेश की सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी पर ज़बरदस्त राजनीतिक हमला हो सकता है .
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कमीशन की रपोर्ट में यह तो लिखा है कि इन वर्गों के सवर्णों को सामाजिक रूप से तो वह अपमान नहीं झेलना पड़ता जो दलित जातियों के लोगों को झेलना पड़ता है. इस कमीशन ने देश के २८ राज्यों का दौरा करके अपनी रिपोर्ट तैयार की है और कहा है कि एक करोड़ परिवार इस श्रेणी में आते हैं . अगर प्रति परिवार छः लोगों की संख्या मान ली जाए तो यह आबादी छः करोड़ के आस पास पंहुच जाती है .अगर सरकार इन सिफारिशों को स्वीकार कर लेती है तो देश के राजनीतिक माहौल में कुछ उसी तरह का परिवर्तन आ जाएगा जैसा मंडल कमीशन के सुझावों को मान लेने के बाद १९९० में आ गया था .
क्या नेहरू के नाम पर यू पी में कांग्रेस की डूबती नैया पार होगी
शेष नारायण सिंह
कांग्रेस के सरताज राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू के चुनाव क्षेत्र ,फूलपुर से उत्तरप्रदेश विधान सभा के २०१२ के चुनाव अभियान की शुरुआत कर चुके हैं . अपने पिताजी के नाना से अपने नाम को जोड़ने के चक्कर में राहुल गांधी, जवाहरलाल नेहरू की विरासत को केवल अपने परिवार तक सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं . यह सच नहीं है. जवाहरलाल नेहरू को इंदिरा गाँधी के पिता के रूप में ही प्रस्तुत करना देश की आज़ादी की लड़ाई के संघर्ष के साथ मजाक है . यह भी वैसी ही कोशिश है जिसके तहत एक राजनीतिक पार्टी के लोग हर गलती के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते पाए जाए हैं . आजकल तो इस प्रजाति के लोग अखबारों में भी खासी संख्या में पंहुच गए हैं और वे कहते रहते हैं कि कश्मीर समस्या सहित देश की सभी बड़ी समस्याएं नेहरू की देन हैं . समकालीन इतिहास की इससे बड़ी अज्ञानतापूर्ण समझ हो ही नहीं सकती. सच्ची बात यह है कि अगर महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने राजनीतिक बुलंदी न दिखाई होती तो राजा हरि सिंह और मुहम्मद अली जिन्ना ने तो जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिला ही दिया था. लेकिन सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला की संयुक्त कोशिश का नतीजा था कि कश्मीर आज भारत का हिस्सा है .समकालीन इतिहास के इस सच को जनता तक पंहुचाने का काम किसी राजनीतिक विश्लेशक का नहीं है . यह काम तो कांग्रेस पार्टी का है लेकिन उसने सच्चाई को पब्लिक डोमेन में लाने का काम कभी नहीं किया . नतीजा यह है कि आज की पीढी के एक बहुत बड़े वर्ग को अब भी यही बताया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने देश को कमज़ोर किया . शायद इसका करण यह है कि कांग्रेस पार्टी वाले नेहरू के वंशजों की जय जय कार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें नेहरू की विरासत को याद करने का मौक़ा ही नहीं मिल रहा है .आज कांग्रेसी नेता यह कोशिश करते देखे जा रहे हैं कि राहुल गांधी भी उतने ही दूरदर्शी नेता हैं ,जितने कि जवाहरलाल नेहरू थे.. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू का वंशज होकर कोई उन जैसा नहीं बन जाता . कल्पना कीजिये कि अगर जवाहरलाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री की प्रधानमंत्री के रूप में असमय मृत्यु न हो गयी होती और उस दौर के कांग्रेसी चापलूस, जिसमें कामराज सर्वोपरि थे, ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री न बनवा दिया होता तो आज राहुल गांधी और वरुण गांधी जैसे अजूबे कहाँ होते. वास्तव में राहुल गांधी और वरुण गांधी टाइप नेताओं को अपने आप को जवाहरलाल नेहरू का वारिस कहना ही नहीं चाहिए . में यह सब तो इंदिरा गाँधी के वारिस हैं . वही इंदिरा गाँधी जिन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए लोकतंत्र का सर्वनाश करने की गरज से इमरजेंसी लगाई थी, विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया था, प्रेस का गला घोंट दिया था और इस देश के लगभग सभी नेताओं को यह प्रोत्साहन दिया था कि वे अपने वंशजों को राजनीति में बढ़ावा दें और जनता के धन की लूट के अभियान में शामिल हों. आज हर पार्टी का नेता अपने बच्चों को राजनीति में शामिल करवा रहा है और उनको भी वैसी ही चोरी करने की प्रेरणा दे रहा है जिसके चलते वह खुद करोडपति या अरबपति बन गया है.
बहरहाल अब कोई जवाहरलाल नेहरू का अभिनय करना चाहे तो उसे कोई रोक नहीं सकता है इसलिए आज फूलपुर में राहुल गांधी का भाषण उसी तर्ज़ पर हो गया जैसा फिल्म्स डिवीज़न के आर्काइव्ज़ में जवाहरलाल नेहरू का भाषण देखा जाता है . लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू इसलिए जीत जाते थे कि उनको कहीं से भी मज़बूत विरोध नहीं मिल रहा था. एक बार तो उनके खिलाफ स्वामी करपात्री जी लड़े थे और एकाध बार स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें चुनौती दी थी. जवाहरलाल नेहरू देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा रहे थे तो सभी चाहते थे कि उन्हें कोई चुनावी चुनौती न मिले . लेकिन जब उन्हें चुनौती मिली तो जीत बहुत आसान नहीं रह गयी थी. १९६२ के चुनाव में फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ सोशलिस्ट पार्टी से डॉ. राम मनोहर लोहिया उम्मीदवार थे . डॉ लोहिया भी आज़ादी के लड़ाई के महान नेता थे. कांग्रेस से अलग होने के पहले वे नेहरू के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक रह चुके थे. बाद में भी एक डेमोक्रेट के रूप में वे नेहरू जी की बहुत इज्ज़त करते थे . लेकिन जब आज़ादी के एक दशक बाद यह साफ़ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू भी समाजवादी कवर के अंदर देश में पूंजीवादी निजाम कायम कर रहे हैं तो डॉ लोहिया ने जवाहरलाल को आगाह किया था . तब तक जवाहरलाल पूरी तरह से नौकरशाही और पुरातनपंथी लोगों से घिर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि डॉ राम मनोहर लोहिया ने फूलपुर चुनाव में पर्चा दाखिल कर दिया . ऐसा लगता है कि डॉ लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू को हराना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने फूलपुर चुनाव क्षेत्र में केवल दो सभाएं कीं . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने बताया था कि जहां भी डॉ लोहिया गए और उन्होंने नेहरू की अगुवाई वाली सरकार की कमियाँ गिनाई तो जनता की समझ में बात आ गयी. जनेश्वर मिश्रा का कहना था कि जिन इलाकों में लोहिया ने सभाएं की थीं वहां नेहरू को बहुत कम वोट मिले थे. मसलन कोटवा नाम के पोलिंग स्टेशन पर डॉ लोहिया को ७५० वोट मिले थे तो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर केवल २ वोट पड़े थे. इसी तरह से हरिसेन गंज में लोहिया को ३७५ वोट मिले तो जवाहरलाल को ३ वोट मिले.राहुल गांधी और उनकी मंडली के लोगों को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि जवाहर लाल नेहरू की तरह चुनाव लड़ने का अभिनय करके बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है . उत्तर प्रदेश या देश के किसी भी हिस्से में जवाहरलाल नेहरू की तरह सफल होने के लिए राजनीतिक छुटपन से बाहर निकलना होगा और देश की समस्यायों को सही सन्दर्भ में समझना होगा . अगर ऐसा न हुआ तो जवाहरलाल नेहरू की बेटी का पौत्र बनकर राजनीतिक सफलता हासिल कर पाना आसान नहीं होगा .
कांग्रेस के सरताज राहुल गांधी जवाहरलाल नेहरू के चुनाव क्षेत्र ,फूलपुर से उत्तरप्रदेश विधान सभा के २०१२ के चुनाव अभियान की शुरुआत कर चुके हैं . अपने पिताजी के नाना से अपने नाम को जोड़ने के चक्कर में राहुल गांधी, जवाहरलाल नेहरू की विरासत को केवल अपने परिवार तक सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं . यह सच नहीं है. जवाहरलाल नेहरू को इंदिरा गाँधी के पिता के रूप में ही प्रस्तुत करना देश की आज़ादी की लड़ाई के संघर्ष के साथ मजाक है . यह भी वैसी ही कोशिश है जिसके तहत एक राजनीतिक पार्टी के लोग हर गलती के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते पाए जाए हैं . आजकल तो इस प्रजाति के लोग अखबारों में भी खासी संख्या में पंहुच गए हैं और वे कहते रहते हैं कि कश्मीर समस्या सहित देश की सभी बड़ी समस्याएं नेहरू की देन हैं . समकालीन इतिहास की इससे बड़ी अज्ञानतापूर्ण समझ हो ही नहीं सकती. सच्ची बात यह है कि अगर महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने राजनीतिक बुलंदी न दिखाई होती तो राजा हरि सिंह और मुहम्मद अली जिन्ना ने तो जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिला ही दिया था. लेकिन सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला की संयुक्त कोशिश का नतीजा था कि कश्मीर आज भारत का हिस्सा है .समकालीन इतिहास के इस सच को जनता तक पंहुचाने का काम किसी राजनीतिक विश्लेशक का नहीं है . यह काम तो कांग्रेस पार्टी का है लेकिन उसने सच्चाई को पब्लिक डोमेन में लाने का काम कभी नहीं किया . नतीजा यह है कि आज की पीढी के एक बहुत बड़े वर्ग को अब भी यही बताया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने देश को कमज़ोर किया . शायद इसका करण यह है कि कांग्रेस पार्टी वाले नेहरू के वंशजों की जय जय कार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें नेहरू की विरासत को याद करने का मौक़ा ही नहीं मिल रहा है .आज कांग्रेसी नेता यह कोशिश करते देखे जा रहे हैं कि राहुल गांधी भी उतने ही दूरदर्शी नेता हैं ,जितने कि जवाहरलाल नेहरू थे.. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू का वंशज होकर कोई उन जैसा नहीं बन जाता . कल्पना कीजिये कि अगर जवाहरलाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री की प्रधानमंत्री के रूप में असमय मृत्यु न हो गयी होती और उस दौर के कांग्रेसी चापलूस, जिसमें कामराज सर्वोपरि थे, ने इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री न बनवा दिया होता तो आज राहुल गांधी और वरुण गांधी जैसे अजूबे कहाँ होते. वास्तव में राहुल गांधी और वरुण गांधी टाइप नेताओं को अपने आप को जवाहरलाल नेहरू का वारिस कहना ही नहीं चाहिए . में यह सब तो इंदिरा गाँधी के वारिस हैं . वही इंदिरा गाँधी जिन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए लोकतंत्र का सर्वनाश करने की गरज से इमरजेंसी लगाई थी, विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया था, प्रेस का गला घोंट दिया था और इस देश के लगभग सभी नेताओं को यह प्रोत्साहन दिया था कि वे अपने वंशजों को राजनीति में बढ़ावा दें और जनता के धन की लूट के अभियान में शामिल हों. आज हर पार्टी का नेता अपने बच्चों को राजनीति में शामिल करवा रहा है और उनको भी वैसी ही चोरी करने की प्रेरणा दे रहा है जिसके चलते वह खुद करोडपति या अरबपति बन गया है.
बहरहाल अब कोई जवाहरलाल नेहरू का अभिनय करना चाहे तो उसे कोई रोक नहीं सकता है इसलिए आज फूलपुर में राहुल गांधी का भाषण उसी तर्ज़ पर हो गया जैसा फिल्म्स डिवीज़न के आर्काइव्ज़ में जवाहरलाल नेहरू का भाषण देखा जाता है . लेकिन यह समझ लेना ज़रूरी है कि फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू इसलिए जीत जाते थे कि उनको कहीं से भी मज़बूत विरोध नहीं मिल रहा था. एक बार तो उनके खिलाफ स्वामी करपात्री जी लड़े थे और एकाध बार स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें चुनौती दी थी. जवाहरलाल नेहरू देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा रहे थे तो सभी चाहते थे कि उन्हें कोई चुनावी चुनौती न मिले . लेकिन जब उन्हें चुनौती मिली तो जीत बहुत आसान नहीं रह गयी थी. १९६२ के चुनाव में फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ सोशलिस्ट पार्टी से डॉ. राम मनोहर लोहिया उम्मीदवार थे . डॉ लोहिया भी आज़ादी के लड़ाई के महान नेता थे. कांग्रेस से अलग होने के पहले वे नेहरू के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक रह चुके थे. बाद में भी एक डेमोक्रेट के रूप में वे नेहरू जी की बहुत इज्ज़त करते थे . लेकिन जब आज़ादी के एक दशक बाद यह साफ़ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू भी समाजवादी कवर के अंदर देश में पूंजीवादी निजाम कायम कर रहे हैं तो डॉ लोहिया ने जवाहरलाल को आगाह किया था . तब तक जवाहरलाल पूरी तरह से नौकरशाही और पुरातनपंथी लोगों से घिर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि डॉ राम मनोहर लोहिया ने फूलपुर चुनाव में पर्चा दाखिल कर दिया . ऐसा लगता है कि डॉ लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू को हराना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने फूलपुर चुनाव क्षेत्र में केवल दो सभाएं कीं . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने बताया था कि जहां भी डॉ लोहिया गए और उन्होंने नेहरू की अगुवाई वाली सरकार की कमियाँ गिनाई तो जनता की समझ में बात आ गयी. जनेश्वर मिश्रा का कहना था कि जिन इलाकों में लोहिया ने सभाएं की थीं वहां नेहरू को बहुत कम वोट मिले थे. मसलन कोटवा नाम के पोलिंग स्टेशन पर डॉ लोहिया को ७५० वोट मिले थे तो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर केवल २ वोट पड़े थे. इसी तरह से हरिसेन गंज में लोहिया को ३७५ वोट मिले तो जवाहरलाल को ३ वोट मिले.राहुल गांधी और उनकी मंडली के लोगों को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि जवाहर लाल नेहरू की तरह चुनाव लड़ने का अभिनय करके बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है . उत्तर प्रदेश या देश के किसी भी हिस्से में जवाहरलाल नेहरू की तरह सफल होने के लिए राजनीतिक छुटपन से बाहर निकलना होगा और देश की समस्यायों को सही सन्दर्भ में समझना होगा . अगर ऐसा न हुआ तो जवाहरलाल नेहरू की बेटी का पौत्र बनकर राजनीतिक सफलता हासिल कर पाना आसान नहीं होगा .
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शेष नारायण सिंह
Sunday, November 13, 2011
अब कांग्रेस और बीजेपी ओ बी सी राजनीति के चक्कर में है
शेष नारायण सिंह
कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों की दस्तक के साथ ही राजनीतिक मुद्दों की तलाश में भटक रही पार्टियां खासे हबड़ तबड में हैं . ताज़ा राजनीतिक संकेतों से साफ़ लगने लगा है कि कांग्रेस और बीजेपी वाले इस बार अपने लिए तो कुछ नया नहीं ढूंढ पायेगें लेकिन अपने विरोधियों की राजनीति को कमज़ोर करने की योजना को ज़रूर ताक़त देगें .मंडल कमीशन लागू होने के बाद देश की राजनीति में लगभग सभी समीकरण बदल गए थे. पिछले बीस वर्षों में यह साफ़ हो गया है कि पिछड़े वर्गों में दो तीन जातियों के लोग ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ ले रहे हैं . नतीजा यह हुआ है कि अपेक्षाकृत संपन्न पिछड़ी जातियों के लोग बहुत ही ताक़त र हो गए हैं . उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद की राजनीतिक ताक़त के पीछे इन्हीं जातियों के समर्थन को माना जा रहा है .लेकिन अब यह सब गडबडाने वाला है . योजना आयोग ने एक ऐसा प्रस्ताव तैयार किया है कि जिसके बाद पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण से मिलने वाले लाभ के हक़दार वे लोग भी होंगें जो अभी तक टुकटुकी लगाए बैठे हैं .
योजना आयोग की एक कमेटी ने केंद्र सरकार को सलाह दी है कि वह ऐसे कानून बनाए या कानून में ऐसा सुधार करे जिसके चलते अन्य पिछड़े वर्गों में शामिल सभी जातियों को सरकारी नौकरियों में फायदा मिल सके.योजना आयोग की सलाह है कि ओ बी सी को पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों में बाँट कर २७ प्रतिशत के कोटे में अति पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण का इंतज़ाम किया जाए. अभी यह केवल सुझाव मात्र है लेकिन यह राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा साधन बन सकने की क्षमता रखता है .योजना आयोग की यह धारणा अभी सरकारी नीति तो बनेगी नहीं लेकिन राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होने लगेगी .योजना आयोग के सुझाव को अगर केंद्र सरकार सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लेती है तो अगले कुछ वर्षों में ओ बी सी की राजनीति करने वालों को बैकफुट पर जाना पड़ सकता है . योजना आयोग के पहले ही नैशनल बैकवर्ड कास्ट कमीशन के अध्यक्ष एम एन राव भी इसी तरह की बात कर चुके हैं. कहते हैं कि ओ बी सी के मौजूदा आरक्षण के निजाम से सही मायनों में सामाजिक न्याय नहीं मिल पा रहा है . पिछड़ों की प्रभावशाली जातियां ही सारा फायदा उठा रही हैं . अति पिछड़े अभी भी अति पिछड़े रहने के लिए अभिशप्त हैं .
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को इसका सबसे ज्यादा नुकसान होगा. समाजवादी पार्टी के मुख्य प्रवक्ता , मोहन सिंह ने बताया कि यह ओ बी सी जातियों में फूट डालने के उद्देश्य से किया जा रहा है . जब उनको बताया गया कि अभी तो पिछड़ों के सारे आरक्षण पर एक ख़ास जाति के लोग क़ब्ज़ा करते पाए जा रहे हैं तो उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . यह शुद्ध रूप से पिछड़ी जातियों को कमज़ोर करने की साज़िश है . जहां तक अति पिछड़े वर्गों का सवाल है वह समय की गति के साथ ओ बी सी की मुख्य धारा में शामिल हो रहे हैं और कुछ समय बाद वह भी उतने की सक्षम हो जायेगें जितने सक्षम अन्य जातियों के लोग हैं . उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़े वर्गों की मुख्य पार्टी को केंद्र सरकार की यह योजना सही नहीं लग रही है . समाजवादी पार्टी की चिंता है कि इस तरह के राजनीतिक प्रस्तावों से पिछड़े वर्गों की एकता खंडित होगी .
केंद्र सरकार, योजना आयोग और नैशनल बैकवर्ड कास्ट कमीशन की बातें तो अभी फाइलों में हैं या नीति के स्तर पर बहस के दायरे में हैं . लेकिन उत्तर प्रदेश में तो पिछड़े वर्गों की राजनीति में एक तूफ़ान आने वाला है . बीजेपी ने २०१२ के विधान सभा चुनावों के दौरान इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में डालने का मन बना लिया है . कांग्रेस भी योजना आयोग के सुझाव को अपना बनाकर पेश करने से बाज़ नहीं आयेगी. इस तरह की बात से राजनीतिक समीकरण निश्चित रूप से बदलेगें.. बीजेपी वालों ने पिछड़ी और दलित जातियों को खंडित करने की योजना पर पहले भी काम किया है . राजनाथ सिंह के मुख्य मंत्री बनने के बाद पार्टी ने सरकारी तौर पर अति दलितों और अति पिछड़ों के नाम पर एस सी और ओ बी सी कोटे के अंदर कोटे की व्यवस्था कर दी थी. इस तरह का कानून भी बना दिया था, कुछ भर्तियाँ भी हो गयी थीं लेकिन जब बीजेपी के बाद मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने उस आदेश को रद्द कर दिया था. राजनाथ सिंह की सरकार ने अपनी सरकार के एक मंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाकर दलित और पिछड़ी जातियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन करवाया था. उन्होंने दलित और पिछड़ी जातियों में अति दलित और अति पिछड़ों को चिन्हित किया था .उस समिति की रिपोर्ट से कुछ दिलचस्प आंकड़े सामने आये. देखा गया कि ७९ पिछड़ी जातियों में कुछ जातियां लगभग सारा लाभ ले रही हैं . ऐसी जातियों में यादव, कुर्मी, जाट आदि शामिल हैं जबकि मल्लाह ,कुम्हार ,कहार , राजभर आदि जातियां नौकरियों में अपना सही हिस्सा नहीं पा रही थीं . राजनाथ सिंह की सरकार ने पिछड़ी जातियों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया . पिछड़ी जाति में केवल एक जाति ,यादव रखा और २८ प्रतिशत के कोटे में उनके लिए ५ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया. अति पिछड़ी जातियों में आठ जातियों को रखा और उन्हें ९ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया. बाकी सत्तर जातियों को अत्यधिक पिछड़ी जातियों की श्रेणी में रख दिया और उन्हें १४ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया . अगर यह व्यवस्था लागू हो जाती तो उत्तर प्रदेश में मूल रूप से यादवों के कल्याण में लगी हुई समाजवादी पार्टी को भारी नुकसान होता लेकिन मुलायम सिंह यादव का सौभाग्य ही था कि राजनाथ सिंह के बाद मायवाती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनीं और उन्होंने राजनाथ सिंह के मंसूबों पर पानी फेर दिया . अब विधान सभा चुनावों के मद्दे नज़र राजनाथ सिंह ने एक बार इस प्रस्ताव को फिर से ज़िन्दा करने की कोशिश शुरू कर दी है . ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वालों के सामने कुछ मुश्किलें ज़रूर पेश आयेगीं.हालांकि इसका एक नतीजा यह भी हो सकता है कि जो सवर्ण जातियां बीजेपी की तरफ खिंच रही हीब वे इस तरह की चर्चा से नाराज़ भी हो सकती हैं.
उतर प्रदेश में तो इसे नहीं लागू कर सके लेकिन बिहार में बीजेपी के सहयोगी दल के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों के आरक्षण की राजनीति के सहारे लालू यादव को एक जाति का नेता बनाने में पक्की सफलता हासिल कर ली और राज्य में अपनी राजनीतिक हैसियत को बढ़ा लिया .अब इस खेल में केंद्र सरकार के योजना आयोग के शामिल होने के बाद बहस राष्ट्रीय स्तर पर चलेगी . ज़ाहिर है सामाजिक न्याय का विमर्श आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बनने वाला है .
कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों की दस्तक के साथ ही राजनीतिक मुद्दों की तलाश में भटक रही पार्टियां खासे हबड़ तबड में हैं . ताज़ा राजनीतिक संकेतों से साफ़ लगने लगा है कि कांग्रेस और बीजेपी वाले इस बार अपने लिए तो कुछ नया नहीं ढूंढ पायेगें लेकिन अपने विरोधियों की राजनीति को कमज़ोर करने की योजना को ज़रूर ताक़त देगें .मंडल कमीशन लागू होने के बाद देश की राजनीति में लगभग सभी समीकरण बदल गए थे. पिछले बीस वर्षों में यह साफ़ हो गया है कि पिछड़े वर्गों में दो तीन जातियों के लोग ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ ले रहे हैं . नतीजा यह हुआ है कि अपेक्षाकृत संपन्न पिछड़ी जातियों के लोग बहुत ही ताक़त र हो गए हैं . उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद की राजनीतिक ताक़त के पीछे इन्हीं जातियों के समर्थन को माना जा रहा है .लेकिन अब यह सब गडबडाने वाला है . योजना आयोग ने एक ऐसा प्रस्ताव तैयार किया है कि जिसके बाद पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण से मिलने वाले लाभ के हक़दार वे लोग भी होंगें जो अभी तक टुकटुकी लगाए बैठे हैं .
योजना आयोग की एक कमेटी ने केंद्र सरकार को सलाह दी है कि वह ऐसे कानून बनाए या कानून में ऐसा सुधार करे जिसके चलते अन्य पिछड़े वर्गों में शामिल सभी जातियों को सरकारी नौकरियों में फायदा मिल सके.योजना आयोग की सलाह है कि ओ बी सी को पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों में बाँट कर २७ प्रतिशत के कोटे में अति पिछड़ों के लिए अलग से आरक्षण का इंतज़ाम किया जाए. अभी यह केवल सुझाव मात्र है लेकिन यह राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक बड़ा साधन बन सकने की क्षमता रखता है .योजना आयोग की यह धारणा अभी सरकारी नीति तो बनेगी नहीं लेकिन राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होने लगेगी .योजना आयोग के सुझाव को अगर केंद्र सरकार सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लेती है तो अगले कुछ वर्षों में ओ बी सी की राजनीति करने वालों को बैकफुट पर जाना पड़ सकता है . योजना आयोग के पहले ही नैशनल बैकवर्ड कास्ट कमीशन के अध्यक्ष एम एन राव भी इसी तरह की बात कर चुके हैं. कहते हैं कि ओ बी सी के मौजूदा आरक्षण के निजाम से सही मायनों में सामाजिक न्याय नहीं मिल पा रहा है . पिछड़ों की प्रभावशाली जातियां ही सारा फायदा उठा रही हैं . अति पिछड़े अभी भी अति पिछड़े रहने के लिए अभिशप्त हैं .
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को इसका सबसे ज्यादा नुकसान होगा. समाजवादी पार्टी के मुख्य प्रवक्ता , मोहन सिंह ने बताया कि यह ओ बी सी जातियों में फूट डालने के उद्देश्य से किया जा रहा है . जब उनको बताया गया कि अभी तो पिछड़ों के सारे आरक्षण पर एक ख़ास जाति के लोग क़ब्ज़ा करते पाए जा रहे हैं तो उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . यह शुद्ध रूप से पिछड़ी जातियों को कमज़ोर करने की साज़िश है . जहां तक अति पिछड़े वर्गों का सवाल है वह समय की गति के साथ ओ बी सी की मुख्य धारा में शामिल हो रहे हैं और कुछ समय बाद वह भी उतने की सक्षम हो जायेगें जितने सक्षम अन्य जातियों के लोग हैं . उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछड़े वर्गों की मुख्य पार्टी को केंद्र सरकार की यह योजना सही नहीं लग रही है . समाजवादी पार्टी की चिंता है कि इस तरह के राजनीतिक प्रस्तावों से पिछड़े वर्गों की एकता खंडित होगी .
केंद्र सरकार, योजना आयोग और नैशनल बैकवर्ड कास्ट कमीशन की बातें तो अभी फाइलों में हैं या नीति के स्तर पर बहस के दायरे में हैं . लेकिन उत्तर प्रदेश में तो पिछड़े वर्गों की राजनीति में एक तूफ़ान आने वाला है . बीजेपी ने २०१२ के विधान सभा चुनावों के दौरान इस मुद्दे को अपने घोषणा पत्र में डालने का मन बना लिया है . कांग्रेस भी योजना आयोग के सुझाव को अपना बनाकर पेश करने से बाज़ नहीं आयेगी. इस तरह की बात से राजनीतिक समीकरण निश्चित रूप से बदलेगें.. बीजेपी वालों ने पिछड़ी और दलित जातियों को खंडित करने की योजना पर पहले भी काम किया है . राजनाथ सिंह के मुख्य मंत्री बनने के बाद पार्टी ने सरकारी तौर पर अति दलितों और अति पिछड़ों के नाम पर एस सी और ओ बी सी कोटे के अंदर कोटे की व्यवस्था कर दी थी. इस तरह का कानून भी बना दिया था, कुछ भर्तियाँ भी हो गयी थीं लेकिन जब बीजेपी के बाद मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने उस आदेश को रद्द कर दिया था. राजनाथ सिंह की सरकार ने अपनी सरकार के एक मंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाकर दलित और पिछड़ी जातियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का आकलन करवाया था. उन्होंने दलित और पिछड़ी जातियों में अति दलित और अति पिछड़ों को चिन्हित किया था .उस समिति की रिपोर्ट से कुछ दिलचस्प आंकड़े सामने आये. देखा गया कि ७९ पिछड़ी जातियों में कुछ जातियां लगभग सारा लाभ ले रही हैं . ऐसी जातियों में यादव, कुर्मी, जाट आदि शामिल हैं जबकि मल्लाह ,कुम्हार ,कहार , राजभर आदि जातियां नौकरियों में अपना सही हिस्सा नहीं पा रही थीं . राजनाथ सिंह की सरकार ने पिछड़ी जातियों को तीन श्रेणियों में बाँट दिया . पिछड़ी जाति में केवल एक जाति ,यादव रखा और २८ प्रतिशत के कोटे में उनके लिए ५ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया. अति पिछड़ी जातियों में आठ जातियों को रखा और उन्हें ९ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया. बाकी सत्तर जातियों को अत्यधिक पिछड़ी जातियों की श्रेणी में रख दिया और उन्हें १४ प्रतिशत का रिज़र्वेशन दे दिया . अगर यह व्यवस्था लागू हो जाती तो उत्तर प्रदेश में मूल रूप से यादवों के कल्याण में लगी हुई समाजवादी पार्टी को भारी नुकसान होता लेकिन मुलायम सिंह यादव का सौभाग्य ही था कि राजनाथ सिंह के बाद मायवाती उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनीं और उन्होंने राजनाथ सिंह के मंसूबों पर पानी फेर दिया . अब विधान सभा चुनावों के मद्दे नज़र राजनाथ सिंह ने एक बार इस प्रस्ताव को फिर से ज़िन्दा करने की कोशिश शुरू कर दी है . ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वालों के सामने कुछ मुश्किलें ज़रूर पेश आयेगीं.हालांकि इसका एक नतीजा यह भी हो सकता है कि जो सवर्ण जातियां बीजेपी की तरफ खिंच रही हीब वे इस तरह की चर्चा से नाराज़ भी हो सकती हैं.
उतर प्रदेश में तो इसे नहीं लागू कर सके लेकिन बिहार में बीजेपी के सहयोगी दल के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों के आरक्षण की राजनीति के सहारे लालू यादव को एक जाति का नेता बनाने में पक्की सफलता हासिल कर ली और राज्य में अपनी राजनीतिक हैसियत को बढ़ा लिया .अब इस खेल में केंद्र सरकार के योजना आयोग के शामिल होने के बाद बहस राष्ट्रीय स्तर पर चलेगी . ज़ाहिर है सामाजिक न्याय का विमर्श आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बनने वाला है .
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शेष नारायण सिंह
ईरान को भी ईराक बनाने के फ़िराक़ में हैं अमरीका
शेष नारायण सिंह
अमरीका ने ईरान को घेरने की अपनी कोशिश तेज़ कर दी है . इस बार परमाणु हथियारों के नाम पर वह ईरान को कटघरे में खड़ा करना चाहता है .पश्चिम एशिया पर नज़र रखने वालों को भरोसा है कि अमरीका ने ईरान के खिलाफ इजरायल को इस्तेमाल करने का मन बना लिया है .हालांकि अमरीका, फ्रांस सहित कई अन्य पश्चिमी देश मानते हैं कि इजरायल के राष्ट्रीय नेता हमेशा सच नहीं बोलते लेकिन इजरायल की ओर से मिली इंटेलिजेंस के आधार पर अमरीका ने ईरान को अलग थलग करने की कोशिश तेज़ कर दी है . हर बार की तरह इस बार भी अमरीका संयुक्त राष्ट्र को अपने हित में इस्तेमाल करने की योजना बना चुका है .अमरीकी अखबारों में पिछले एक हफ्ते से सनसनीखेज़ बनाकर खबरें छापी जा रही हैं कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी के पास ऐसे दस्तावेजी सबूत हैं जिसके आधार पर साबित किया जा सके कि ईरान अब परमाणु हथियार विकसित कर सकता है . इस कथित इंटेलिजेंस में वही पुराने राग अलापे जा रहे हैं . मसलन यह कहा जा रहा है कि सोवियत संघ में हथियारों को बनाने वाले वैज्ञानिकों की सेवाएँ ली जा रही हैं , उत्तरी कोरिया वालों से मदद ली जा रही है और पाकिस्तानी परमाणु स्मगलर ए क्यू खां से भी इस प्रोजेक्ट में मदद ली गयी है .ज़ाहिर है कि यह सब बहाने हैं . लेकिन इन सबके हवाले से अमरीका छुप कर हमला करने की अपनी नीति को अंजाम तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है.
ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने अमरीका की संयुक्त राष्ट्र के ज़रिये ईरान को बदनाम करने के नाटक को अनुचित बताया है . अहमदीनेजाद ने संयुक्त राष्ट्र की कथित रिपोर्ट की चर्चा शुरू होने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा है कि अमरीका की कोशिश है कि वह ईरान सहित बाकी विकास शील देशों को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म निर्भर न बनने दे. अहमदीनेजाद ने कहा है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम से बिलकुल पीछे नहीं हटेगा. उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के बहाने अमरीका दुनिया को गुमराह कर रहा है.उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी की भी आलोचना की और कहा कि उसे अमरीका के बेहूदा आरोपों को अपनी तरफ से प्रचारित करने से बचना चाहिए .उन्होंने कहा कि ईरानी राष्ट्र शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास करने के रास्ते से ज़रा सा भी विचलित नहीं होगा. एक जनसभा को संबोधित करते हुए अहमदीनेजाद ने कहा कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी को अमरीका के चक्कर में पड़कर अपनी विश्वसनीयता से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र को आगाह किया है कि अमरीका के एजेंट के रूप में काम करने से वह बाकी दुनिया की नजर में बिलकुल नीचे गिर जाएगा .अमरीका ने दावा किया है कि ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम २००३ में अंतर राष्ट्रीय दबाव के चलते बंद कर दिया था लेकिन अब वह फिरसे चालू हो गया है.
ईरान ने संयुक्त राष्ट्र की ईरानी परमाणु कार्यक्रम को हथियारों का कार्यक्रम बताने की कोशिश को बहुत ही हलके से लिया है.ईरान के परमाणु कार्यक्रम से बहुत निकट से जुड़े अधिकारी और मौजूदा ईरानी विदेश मंत्री अली अकबर सालेही ने कहा कि अगर संयुक्त राष्ट्र का यही रुख है तो उन्हें रिपोर्ट को प्रकाशित कर लेने दीजिये . सालेही ने कहा कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर शुरू हुआ विवाद सौ फीसदी राजनीति से प्रेरित है .उन्होंने आरोप लगाया कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी ( आई ई ए ई ) पूरी तरह से विदेशी ताक़तों के दबाव में काम रही है .आई ई ए ई वाले कई साल से ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन इस बार उनका दावा है कि इस बार जो सूचना मिली है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि अब ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से विकसित हो चुका है और अब उसमें रिसर्च को बहुत ही मह्त्व दिया जा रहा है .
जिस तरह से इस बार आई ई ए ई ने दावा किया है और जिस तरह से भारत समेत पूरी दुनिया के अमरीका परस्त मीडिया संगठन इस खबर को ले उड़े हैं उस से लगता है कि अमरीका एक बार फिर वही करने के फ़िराक़ में है जो उसने ईराक में किया था. दुनिया भर में फैले हुए अपने हमदर्द देशों और अखबारों की मदद से पहले ईराक के खिलाफ माहौल बनाया गया उसके बाद यह साबित करने की कोशिश की गयी कि ईराक के पास सामूहिक संहार के हथियार हैं . फिर संयुक्त राष्ट्र का इस्तेमाल कारके इराक पर हमला कर दिया गया. आज ईराक में अमरीकी कठपुतली सरकार है और अमरीका उनके पेट्रोल को अपने हित में इस्तेमाल कर रहा है . अब यह बात भी सारी दुनिया को मालूम है कि इराक और उसेक राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को तबाह करने के बाद अमरीकी विदेश नीति के करता धरता मुंह छुपाते फिर रहे थे क्योंकि जब पूरे देश पर अमरीका का क़ब्ज़ा हो गया और उस से पूछा गया कि सामूहिक नरसंहार के हथियार कहाँ हैं तो अमरीकी राजनयिकों के पास कोई जवाब नहीं था.
ऐसा लगता है कि अमरीका अपनी उसी नीति पर चल रहा है जिसके तहत उसने तय कर रखा है कि जो देश उसकी बात नहीं मानेगा उसे किसी न किसी तरीके से सैनिक कार्रवाई का विषय बना देगा.दिलचस्प बात यह है कि इस बार के अमरीका के ईरान विरोधी अभियान में भी वही व्यक्ति इस्तेमाल हो रहा है जो ईराक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के अभियान में शामिल रह चुका है . डेविड अल्ब्राईट नाम का यह पूर्व हथियार इन्स्पेक्टर अमरीका की नीतियों को संयुक्त राष्ट्र का मुखौटा पहनाने में माहिर बताया जाता है . इसी अल्ब्राईट के हवाले से इस बार अमरीकी अखबारों में खबरें प्लांट की जा रही हैं . इसने दावा किया है कि जब बाकी दुनिया को बताया गया था कि ईरान ने २००३ में परमाणु कार्यक्रम रोक दिया था , उस वक़्त भी ईरान ने कोई काम रोका नहीं था. वास्तव में उसने परमाणु कार्यक्रम पर काम कर रहे अपने वैज्ञानिकों को अन्य क्षेत्रों में रिसर्च करने के काम में लगा दिया था. संयुक्त राष्ट्र से छुट्टी पाने के बाद डेविड अल्ब्राईट अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डी सी के एक संस्थान का अध्यक्ष है .वहां भी यह अमरीकी हितों के काम में ही लगा हुआ है . इंस्टीटयूट फार साइंस ऐंड इंटरनैशनल सिक्योरिटी नाम के इस संगठन का काम प्रकट में तो पूरी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों का विश्लेषण करना है लेकिन वास्तव यह अमरीकी विदेश नीति के हित साधन का एक फ्रंट मात्र है . इसी संस्थान में बैठकर अब डेविड अल्ब्राईट अमरीकी विदेश नीति का काम संभाल रहे हैं . बताया जाता है कि सी आई ए ने अपने बहुत सारे गुप्त संगठनों की तरफ से इस संस्थान को ग्रांट भी दिलवा रखी है .डेविड आल्ब्राईट के इस संस्थान को अमरीकी विदेश और रक्षा विभाग से भी पैसा मिलता है .इसी संस्थान के पास मौजूद तथाकथित दस्तावजों के आधार पर डेविड अल्ब्राईट ने अपने लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ में दावा किया है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को चलाने वाले वाले वैज्ञानिकों को पुराने सोवियत संघ के परमाणु वैज्ञानिकों ने पढ़ा लिखा कर हथियार बनाने की शिक्षा दी है .
यह सारा प्रचार अभियान अभी ऐसे संगठनों और व्यक्तियों की तरफ से चलाया जा रहा है जिनका अमरीकी सरकार से डायरेक्ट समबन्ध नहीं है . यह सब या तो एन जी ओ हैं ,या थिंक टैंक का लबादा ओढ़े हुए हैं. अमरीकी अधिकारियों ने प्रकट रूप से यही कहा है कि अभी ईरान के नेताओं ने हथियार बनाने का फैसला नहीं किया है लेकिन उनके पास अब पूरी तकनीकी जानकारी है . उनके पास सारा सामान भी उपलब्ध है . वे जब चाहें परमाणु हथियार बहुत कम समय में तैयार कर सकते हैं .अमरीकी अधिकारी यह भी कहते हैं कि ईरान का यह दावा कि वह परमाणु कार्यक्रम की मदद से बिजली पैदा करना चाहता है , भरोसे के काबिल नहीं है. ज़ाहिर है अमरीका की पूरी कोशिश है कि ईरान का भी वही हाल किया जाए जो उसने ईराक का किया था लेकिन लगता है कि ईरान से पंगा लेना इस बार अमरीका को मुश्किल में डाल सकता है .
अमरीका ने ईरान को घेरने की अपनी कोशिश तेज़ कर दी है . इस बार परमाणु हथियारों के नाम पर वह ईरान को कटघरे में खड़ा करना चाहता है .पश्चिम एशिया पर नज़र रखने वालों को भरोसा है कि अमरीका ने ईरान के खिलाफ इजरायल को इस्तेमाल करने का मन बना लिया है .हालांकि अमरीका, फ्रांस सहित कई अन्य पश्चिमी देश मानते हैं कि इजरायल के राष्ट्रीय नेता हमेशा सच नहीं बोलते लेकिन इजरायल की ओर से मिली इंटेलिजेंस के आधार पर अमरीका ने ईरान को अलग थलग करने की कोशिश तेज़ कर दी है . हर बार की तरह इस बार भी अमरीका संयुक्त राष्ट्र को अपने हित में इस्तेमाल करने की योजना बना चुका है .अमरीकी अखबारों में पिछले एक हफ्ते से सनसनीखेज़ बनाकर खबरें छापी जा रही हैं कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी के पास ऐसे दस्तावेजी सबूत हैं जिसके आधार पर साबित किया जा सके कि ईरान अब परमाणु हथियार विकसित कर सकता है . इस कथित इंटेलिजेंस में वही पुराने राग अलापे जा रहे हैं . मसलन यह कहा जा रहा है कि सोवियत संघ में हथियारों को बनाने वाले वैज्ञानिकों की सेवाएँ ली जा रही हैं , उत्तरी कोरिया वालों से मदद ली जा रही है और पाकिस्तानी परमाणु स्मगलर ए क्यू खां से भी इस प्रोजेक्ट में मदद ली गयी है .ज़ाहिर है कि यह सब बहाने हैं . लेकिन इन सबके हवाले से अमरीका छुप कर हमला करने की अपनी नीति को अंजाम तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है.
ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने अमरीका की संयुक्त राष्ट्र के ज़रिये ईरान को बदनाम करने के नाटक को अनुचित बताया है . अहमदीनेजाद ने संयुक्त राष्ट्र की कथित रिपोर्ट की चर्चा शुरू होने के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा है कि अमरीका की कोशिश है कि वह ईरान सहित बाकी विकास शील देशों को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म निर्भर न बनने दे. अहमदीनेजाद ने कहा है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम से बिलकुल पीछे नहीं हटेगा. उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के बहाने अमरीका दुनिया को गुमराह कर रहा है.उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी की भी आलोचना की और कहा कि उसे अमरीका के बेहूदा आरोपों को अपनी तरफ से प्रचारित करने से बचना चाहिए .उन्होंने कहा कि ईरानी राष्ट्र शान्तिपूर्ण कार्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के विकास करने के रास्ते से ज़रा सा भी विचलित नहीं होगा. एक जनसभा को संबोधित करते हुए अहमदीनेजाद ने कहा कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी को अमरीका के चक्कर में पड़कर अपनी विश्वसनीयता से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र को आगाह किया है कि अमरीका के एजेंट के रूप में काम करने से वह बाकी दुनिया की नजर में बिलकुल नीचे गिर जाएगा .अमरीका ने दावा किया है कि ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम २००३ में अंतर राष्ट्रीय दबाव के चलते बंद कर दिया था लेकिन अब वह फिरसे चालू हो गया है.
ईरान ने संयुक्त राष्ट्र की ईरानी परमाणु कार्यक्रम को हथियारों का कार्यक्रम बताने की कोशिश को बहुत ही हलके से लिया है.ईरान के परमाणु कार्यक्रम से बहुत निकट से जुड़े अधिकारी और मौजूदा ईरानी विदेश मंत्री अली अकबर सालेही ने कहा कि अगर संयुक्त राष्ट्र का यही रुख है तो उन्हें रिपोर्ट को प्रकाशित कर लेने दीजिये . सालेही ने कहा कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर शुरू हुआ विवाद सौ फीसदी राजनीति से प्रेरित है .उन्होंने आरोप लगाया कि अंतर राष्ट्रीय परमाणु एनर्जी एजेंसी ( आई ई ए ई ) पूरी तरह से विदेशी ताक़तों के दबाव में काम रही है .आई ई ए ई वाले कई साल से ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर सवाल उठाते रहे हैं लेकिन इस बार उनका दावा है कि इस बार जो सूचना मिली है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि अब ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से विकसित हो चुका है और अब उसमें रिसर्च को बहुत ही मह्त्व दिया जा रहा है .
जिस तरह से इस बार आई ई ए ई ने दावा किया है और जिस तरह से भारत समेत पूरी दुनिया के अमरीका परस्त मीडिया संगठन इस खबर को ले उड़े हैं उस से लगता है कि अमरीका एक बार फिर वही करने के फ़िराक़ में है जो उसने ईराक में किया था. दुनिया भर में फैले हुए अपने हमदर्द देशों और अखबारों की मदद से पहले ईराक के खिलाफ माहौल बनाया गया उसके बाद यह साबित करने की कोशिश की गयी कि ईराक के पास सामूहिक संहार के हथियार हैं . फिर संयुक्त राष्ट्र का इस्तेमाल कारके इराक पर हमला कर दिया गया. आज ईराक में अमरीकी कठपुतली सरकार है और अमरीका उनके पेट्रोल को अपने हित में इस्तेमाल कर रहा है . अब यह बात भी सारी दुनिया को मालूम है कि इराक और उसेक राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को तबाह करने के बाद अमरीकी विदेश नीति के करता धरता मुंह छुपाते फिर रहे थे क्योंकि जब पूरे देश पर अमरीका का क़ब्ज़ा हो गया और उस से पूछा गया कि सामूहिक नरसंहार के हथियार कहाँ हैं तो अमरीकी राजनयिकों के पास कोई जवाब नहीं था.
ऐसा लगता है कि अमरीका अपनी उसी नीति पर चल रहा है जिसके तहत उसने तय कर रखा है कि जो देश उसकी बात नहीं मानेगा उसे किसी न किसी तरीके से सैनिक कार्रवाई का विषय बना देगा.दिलचस्प बात यह है कि इस बार के अमरीका के ईरान विरोधी अभियान में भी वही व्यक्ति इस्तेमाल हो रहा है जो ईराक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के अभियान में शामिल रह चुका है . डेविड अल्ब्राईट नाम का यह पूर्व हथियार इन्स्पेक्टर अमरीका की नीतियों को संयुक्त राष्ट्र का मुखौटा पहनाने में माहिर बताया जाता है . इसी अल्ब्राईट के हवाले से इस बार अमरीकी अखबारों में खबरें प्लांट की जा रही हैं . इसने दावा किया है कि जब बाकी दुनिया को बताया गया था कि ईरान ने २००३ में परमाणु कार्यक्रम रोक दिया था , उस वक़्त भी ईरान ने कोई काम रोका नहीं था. वास्तव में उसने परमाणु कार्यक्रम पर काम कर रहे अपने वैज्ञानिकों को अन्य क्षेत्रों में रिसर्च करने के काम में लगा दिया था. संयुक्त राष्ट्र से छुट्टी पाने के बाद डेविड अल्ब्राईट अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डी सी के एक संस्थान का अध्यक्ष है .वहां भी यह अमरीकी हितों के काम में ही लगा हुआ है . इंस्टीटयूट फार साइंस ऐंड इंटरनैशनल सिक्योरिटी नाम के इस संगठन का काम प्रकट में तो पूरी दुनिया के परमाणु कार्यक्रमों का विश्लेषण करना है लेकिन वास्तव यह अमरीकी विदेश नीति के हित साधन का एक फ्रंट मात्र है . इसी संस्थान में बैठकर अब डेविड अल्ब्राईट अमरीकी विदेश नीति का काम संभाल रहे हैं . बताया जाता है कि सी आई ए ने अपने बहुत सारे गुप्त संगठनों की तरफ से इस संस्थान को ग्रांट भी दिलवा रखी है .डेविड आल्ब्राईट के इस संस्थान को अमरीकी विदेश और रक्षा विभाग से भी पैसा मिलता है .इसी संस्थान के पास मौजूद तथाकथित दस्तावजों के आधार पर डेविड अल्ब्राईट ने अपने लाल बुझक्कड़ी अंदाज़ में दावा किया है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को चलाने वाले वाले वैज्ञानिकों को पुराने सोवियत संघ के परमाणु वैज्ञानिकों ने पढ़ा लिखा कर हथियार बनाने की शिक्षा दी है .
यह सारा प्रचार अभियान अभी ऐसे संगठनों और व्यक्तियों की तरफ से चलाया जा रहा है जिनका अमरीकी सरकार से डायरेक्ट समबन्ध नहीं है . यह सब या तो एन जी ओ हैं ,या थिंक टैंक का लबादा ओढ़े हुए हैं. अमरीकी अधिकारियों ने प्रकट रूप से यही कहा है कि अभी ईरान के नेताओं ने हथियार बनाने का फैसला नहीं किया है लेकिन उनके पास अब पूरी तकनीकी जानकारी है . उनके पास सारा सामान भी उपलब्ध है . वे जब चाहें परमाणु हथियार बहुत कम समय में तैयार कर सकते हैं .अमरीकी अधिकारी यह भी कहते हैं कि ईरान का यह दावा कि वह परमाणु कार्यक्रम की मदद से बिजली पैदा करना चाहता है , भरोसे के काबिल नहीं है. ज़ाहिर है अमरीका की पूरी कोशिश है कि ईरान का भी वही हाल किया जाए जो उसने ईराक का किया था लेकिन लगता है कि ईरान से पंगा लेना इस बार अमरीका को मुश्किल में डाल सकता है .
Sunday, November 6, 2011
उसने गंगा के बहने पर भी सवाल उठाया था
शेष नारायण सिंह
ब्रह्मपुत्र के गायक भूपेन हजारिका नहीं रहे. अब दिल धूम धूम भी नहीं करेगा और गंगा के बहने पर जनवादी सवाल भी नहीं पूछे जायेगें . भूपेन ड़ा महान गायक तो थे ही, वे एक जनपक्ष धर कवि भी थे, संगीत के रचयिता थे और एक बहुत ही मज़बूत और बुलंद आवाज़ के मालिक थे.उनके जाने के बाद असम, कलकाता और ढाका में तो मातम है ही, बाकी दुनिया में भूपेन के चाहने वालों के चहेरों पर मायूसी की खबरें आ रही हैं .
भूपेन ने बहुत ही उच्च कोटि की शिक्षा पायी थी. शुरुआती पढाई गुवाहाटी में करने के बाद वे बी एच यू चले आये थे जहां से उन्होंने बी ए और एम ए पास किया . १९४६ में एम ए करने के बाद वे अमरीका के विख्यात कोलंबिया विश्वविद्यालय चले गए थे, जहां उन्होंने मास कम्युनिकेशन में पी एच डी किया .भूपेन हजारिका ने उस के बाद भी पढाई की .उन्होंने पी एच डी के बाद , शिकागो विश्वविद्यालय से सिनेमा के शिक्षा में इस्तेमाल पर पोस्ट डाक्टोरल अध्ययन किया . बताया जाता है कि मास कम्युनिकेशन में पी एच डी करने वाले भूपेन पहले एशियन थे..
अमरीका में भूपेन हजारिका की मुलाकात , पॉल राबसन से हुई थी . पॉल राबसन की हैसियत दुनिया के क्रांतिकारी गायकों में सबसे ऊंची है . यह अमरीका में वह दौर था जब काले लोगों को अमरीकी लोकतंत्र में वोट देने तक के अधिकार नहीं थे. उस दौर में पॉल का " ओल्ड मैन रिवर " मानवीय अधिकारों के संघर्ष का प्रतीक गीत बन चुका था. हर जुलूस में लाठी गोली खाने वाले दलित और अश्वेत अधिकारों के दीवाने उस गीत को ज़रूर गाते थे. उसी गीत की प्रेरणा से भूपेन ने " गंगा बहती हो क्यों " लिखा था और अधिकारों की लड़ाई के लिए जहां भी संघर्ष हुआ वहां गंगा वाला भूपेन का गीत ज़रूर सुना गया .१९३० से भूपेन ने गाना शुरू किया और पूरी सदी वे आम आदमी के गीत गाते रहे.बहुत सारी असमिया फिल्मों के लिए उन्होंने संगीत और गीत लिखा और गाया . अपनी जीवन भर की दोस्त कल्पना लाजमी के साथ मिलकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों ,रुदाली, एक पल ,दरमियान आदि का संगीत लिखा. एम एफ हुसैन की फिल्म गजगामिनी का संगीत भी भूपेन दा का ही था. भूपेन बाएं बाजू के महान बुद्धिजीवी थे .बलराज साहनी और अनिल चौधरी के दोस्त थे. उनको मिले हुए सम्मानों को गिनाने का कोई मतलब नहीं है . उनको हर वह सम्मान मिल था जो किसी भी संगीतकार को मिलना चाहिए . सरकारी पदों से बचने के चक्कर में रहने वाले भूपेन दा ने २००३ में प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य होना स्वीकार कर लिया था. हमें उनकी याद हमेशा रहेगी
ब्रह्मपुत्र के गायक भूपेन हजारिका नहीं रहे. अब दिल धूम धूम भी नहीं करेगा और गंगा के बहने पर जनवादी सवाल भी नहीं पूछे जायेगें . भूपेन ड़ा महान गायक तो थे ही, वे एक जनपक्ष धर कवि भी थे, संगीत के रचयिता थे और एक बहुत ही मज़बूत और बुलंद आवाज़ के मालिक थे.उनके जाने के बाद असम, कलकाता और ढाका में तो मातम है ही, बाकी दुनिया में भूपेन के चाहने वालों के चहेरों पर मायूसी की खबरें आ रही हैं .
भूपेन ने बहुत ही उच्च कोटि की शिक्षा पायी थी. शुरुआती पढाई गुवाहाटी में करने के बाद वे बी एच यू चले आये थे जहां से उन्होंने बी ए और एम ए पास किया . १९४६ में एम ए करने के बाद वे अमरीका के विख्यात कोलंबिया विश्वविद्यालय चले गए थे, जहां उन्होंने मास कम्युनिकेशन में पी एच डी किया .भूपेन हजारिका ने उस के बाद भी पढाई की .उन्होंने पी एच डी के बाद , शिकागो विश्वविद्यालय से सिनेमा के शिक्षा में इस्तेमाल पर पोस्ट डाक्टोरल अध्ययन किया . बताया जाता है कि मास कम्युनिकेशन में पी एच डी करने वाले भूपेन पहले एशियन थे..
अमरीका में भूपेन हजारिका की मुलाकात , पॉल राबसन से हुई थी . पॉल राबसन की हैसियत दुनिया के क्रांतिकारी गायकों में सबसे ऊंची है . यह अमरीका में वह दौर था जब काले लोगों को अमरीकी लोकतंत्र में वोट देने तक के अधिकार नहीं थे. उस दौर में पॉल का " ओल्ड मैन रिवर " मानवीय अधिकारों के संघर्ष का प्रतीक गीत बन चुका था. हर जुलूस में लाठी गोली खाने वाले दलित और अश्वेत अधिकारों के दीवाने उस गीत को ज़रूर गाते थे. उसी गीत की प्रेरणा से भूपेन ने " गंगा बहती हो क्यों " लिखा था और अधिकारों की लड़ाई के लिए जहां भी संघर्ष हुआ वहां गंगा वाला भूपेन का गीत ज़रूर सुना गया .१९३० से भूपेन ने गाना शुरू किया और पूरी सदी वे आम आदमी के गीत गाते रहे.बहुत सारी असमिया फिल्मों के लिए उन्होंने संगीत और गीत लिखा और गाया . अपनी जीवन भर की दोस्त कल्पना लाजमी के साथ मिलकर उन्होंने हिन्दी फिल्मों ,रुदाली, एक पल ,दरमियान आदि का संगीत लिखा. एम एफ हुसैन की फिल्म गजगामिनी का संगीत भी भूपेन दा का ही था. भूपेन बाएं बाजू के महान बुद्धिजीवी थे .बलराज साहनी और अनिल चौधरी के दोस्त थे. उनको मिले हुए सम्मानों को गिनाने का कोई मतलब नहीं है . उनको हर वह सम्मान मिल था जो किसी भी संगीतकार को मिलना चाहिए . सरकारी पदों से बचने के चक्कर में रहने वाले भूपेन दा ने २००३ में प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य होना स्वीकार कर लिया था. हमें उनकी याद हमेशा रहेगी
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अन्ना हजारे के आन्दोलन की किश्ती झूठ के भंवर में है
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, ५ नवम्बर.अन्ना हजारे उलझ गए हैं . अपने ब्लॉगर राजू परुलेकर से पल्ला झाड़ने के चक्कर में विरोधाभासी बयान दे रहे हैं . कल जब उनसे महारष्ट्र सदन की प्रेस कानफरेंस में पूछा गया कि आप अपनी टीम के कुछ लोगों को निकालना चाहते थे अब क्यों मना कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि उनका ब्लॉग लिखने वाले राजू परुलेकर ने बिना उनकी मंजूरी के यह बात ब्लॉग पर लिख दी थी. उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . लेकिन आज जब उनकी हैण्ड राइटिंग में वह सारी बाद पब्लिक डोमेन में आ गयी तो अन्ना हजारे कानूनी दांव पेंच की बात करते नज़र आये. उन्होंने आज मीडिया को बताया कि अगर कोई भी चीज़ उनकी हैण्ड राइटिंग में है लेकिन उस पर उनकी दस्तखत नहीं है, तो उसे सच न माना जाये.उधर राजू परुलेकर भी अन्ना की हर चाल का जवाब दे रहे हैं . उन्होंने अन्ना हजारे की वह चिट्ठी ब्लॉग पर डाल दी जिसमें उन्होंने लिखा था कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण को निकाल दिया जाएगा. इस चिट्ठी पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी हैं . पुणे की फ्लाईट पकड़ने दिल्ली दिल्ली हवाई अड्डे पर पंहुचे अन्ना हजारे से जब पूछा गया कि अब तो उनके दस्तखत वाली चिट्ठी भी सामने आ गयी है ,तो उनके पास कोई जवाब नहीं था .उन्होंने कहा कि अब वे पुणे जाकर ब्लॉग ही बंद कर देगें.
२३ अक्टूबर २०११ के अन्ना हजारे के ब्लॉग पर उनके विचार प्रकाशित होने के बाद सारा विवाद शुरू हुआ था. अन्ना खुद तो लिखते नहीं, वे राजू परुलेकर नाम के एक पत्रकार को अपनी बात बता देते थे और राजू अन्ना की तरफ से बातों को ब्लॉग पर लिख देते थे. लेकिन मौन व्रत के दौरान अन्ना ने दूसरा तरीका निकाला. उन्होंने कागज़ पर मराठी में लिख कर देना शुरू किया.२३ अक्टूबर वाला ब्लॉग उसी मौनव्रत वाले टाइम का है. उसमें अन्ना ने कहा था कि वे अपनी कोर टीम में कुछ बदलाव करना चाहते हैं . बात मीडिया में चल पड़ी लेकिन दिल्ली में ४ नवम्बर की प्रेस कानफरेंस में उन्होंने कह दिया कि राजू परुलेकर ने यह बात अपने मन से बनाकर लिख दी थी. मैंने कुछ नहीं कहा था. राजू परुलेकर मुंबई के एक सम्माननीय पत्रकार हैं . उनके ऊपर जब अन्ना हजारे ने विश्ववासघात का आरोप लगा दिया तो उन्हें गुस्सा आया और उन्होंने अन्ना हजारे के हाथ से लिखा हुआ वह मज़मून सार्वजनिक कर दिया जिसमें अन्ना से साफ़ लिखा है कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण और मनीष सिसोदिया को वे हटाने के बारे में सोच रहे हैं .अब अन्ना घिर चुके थे. इसी के बाद अन्ना हजारे ने कहा कि यह उनका फैसला नहीं था. उन्होंने केवल सोचा भर था. बात को मजबूती देने के उद्देश्य से अन्ना हजारे ने कहा कि जब तक किसी भी मज़मून पर उनके दस्तखत नहीं होगें, वे उसको सही नहीं मानेगें. लेकिन अन्ना हजारे के इस बयान के कुछ देर बाद ही राजू ने कुछ टी वी वालों को उस मज़मून पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी दिखा दिए . ज़ाहिर है कि अन्ना हजारे गलतबयानी के जाल में बुरी तरह से फंस गए हैं .
अपने ऊपर आरोप लगने के बाद राजू परुलेकर ने बहुत सारी ऐसी चीज़ीं पब्लिक करना शुरू कर दिया है जिसके अन्ना हजारे की सत्य के प्रति निष्ठा सवालों के घेरे में आ जायेगी . राजू परुलेकर ने बताया है कि जब अन्ना ने गुस्से में आकर मौन व्रत के दौरान लिखना शुरू किया तो अन्ना के करीबी सुरेशभाऊ पठारे ने उनको रोकने की कोशिश की लेकिन अन्ना नहीं रुके. उन्हें उस वक़्त रोकना संभव नहीं था . लेकिन बाद में सुरेश भाऊ ने राजू को सलाह दी कि इस ब्लॉग को अभी रोक लिया जाए . केवल उसका संकेत ही दे दिया जाए. परुलेकर ने वही किया लेकिन जब कल दिल्ली में अन्ना हजारे ने उनके ऊपर गंभीर आरोप लगा दिया तो राजू परुलेकर ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अन्ना का वह पत्र सार्वजनिक कर दिया जिसको सुरेश भाऊ की सलाह पर उन्होंने पूरी तरह से नहीं छापा था .राजू परुलेकर ने अपने बयान में कहा है कि उस वक़्त डाक्टर धर्माधिकारी भी मौजूद थे और उन्होंने कहा कि कोशिश की जानी चाहिए कि अन्ना प्रसन्न चित्त रहें और उनका ब्लड प्रेशर न बढ़ने पाए .
नई दिल्ली, ५ नवम्बर.अन्ना हजारे उलझ गए हैं . अपने ब्लॉगर राजू परुलेकर से पल्ला झाड़ने के चक्कर में विरोधाभासी बयान दे रहे हैं . कल जब उनसे महारष्ट्र सदन की प्रेस कानफरेंस में पूछा गया कि आप अपनी टीम के कुछ लोगों को निकालना चाहते थे अब क्यों मना कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि उनका ब्लॉग लिखने वाले राजू परुलेकर ने बिना उनकी मंजूरी के यह बात ब्लॉग पर लिख दी थी. उन्होंने कहा कि यह गलत बात है . लेकिन आज जब उनकी हैण्ड राइटिंग में वह सारी बाद पब्लिक डोमेन में आ गयी तो अन्ना हजारे कानूनी दांव पेंच की बात करते नज़र आये. उन्होंने आज मीडिया को बताया कि अगर कोई भी चीज़ उनकी हैण्ड राइटिंग में है लेकिन उस पर उनकी दस्तखत नहीं है, तो उसे सच न माना जाये.उधर राजू परुलेकर भी अन्ना की हर चाल का जवाब दे रहे हैं . उन्होंने अन्ना हजारे की वह चिट्ठी ब्लॉग पर डाल दी जिसमें उन्होंने लिखा था कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसोदिया और प्रशांत भूषण को निकाल दिया जाएगा. इस चिट्ठी पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी हैं . पुणे की फ्लाईट पकड़ने दिल्ली दिल्ली हवाई अड्डे पर पंहुचे अन्ना हजारे से जब पूछा गया कि अब तो उनके दस्तखत वाली चिट्ठी भी सामने आ गयी है ,तो उनके पास कोई जवाब नहीं था .उन्होंने कहा कि अब वे पुणे जाकर ब्लॉग ही बंद कर देगें.
२३ अक्टूबर २०११ के अन्ना हजारे के ब्लॉग पर उनके विचार प्रकाशित होने के बाद सारा विवाद शुरू हुआ था. अन्ना खुद तो लिखते नहीं, वे राजू परुलेकर नाम के एक पत्रकार को अपनी बात बता देते थे और राजू अन्ना की तरफ से बातों को ब्लॉग पर लिख देते थे. लेकिन मौन व्रत के दौरान अन्ना ने दूसरा तरीका निकाला. उन्होंने कागज़ पर मराठी में लिख कर देना शुरू किया.२३ अक्टूबर वाला ब्लॉग उसी मौनव्रत वाले टाइम का है. उसमें अन्ना ने कहा था कि वे अपनी कोर टीम में कुछ बदलाव करना चाहते हैं . बात मीडिया में चल पड़ी लेकिन दिल्ली में ४ नवम्बर की प्रेस कानफरेंस में उन्होंने कह दिया कि राजू परुलेकर ने यह बात अपने मन से बनाकर लिख दी थी. मैंने कुछ नहीं कहा था. राजू परुलेकर मुंबई के एक सम्माननीय पत्रकार हैं . उनके ऊपर जब अन्ना हजारे ने विश्ववासघात का आरोप लगा दिया तो उन्हें गुस्सा आया और उन्होंने अन्ना हजारे के हाथ से लिखा हुआ वह मज़मून सार्वजनिक कर दिया जिसमें अन्ना से साफ़ लिखा है कि अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण और मनीष सिसोदिया को वे हटाने के बारे में सोच रहे हैं .अब अन्ना घिर चुके थे. इसी के बाद अन्ना हजारे ने कहा कि यह उनका फैसला नहीं था. उन्होंने केवल सोचा भर था. बात को मजबूती देने के उद्देश्य से अन्ना हजारे ने कहा कि जब तक किसी भी मज़मून पर उनके दस्तखत नहीं होगें, वे उसको सही नहीं मानेगें. लेकिन अन्ना हजारे के इस बयान के कुछ देर बाद ही राजू ने कुछ टी वी वालों को उस मज़मून पर अन्ना हजारे के दस्तखत भी दिखा दिए . ज़ाहिर है कि अन्ना हजारे गलतबयानी के जाल में बुरी तरह से फंस गए हैं .
अपने ऊपर आरोप लगने के बाद राजू परुलेकर ने बहुत सारी ऐसी चीज़ीं पब्लिक करना शुरू कर दिया है जिसके अन्ना हजारे की सत्य के प्रति निष्ठा सवालों के घेरे में आ जायेगी . राजू परुलेकर ने बताया है कि जब अन्ना ने गुस्से में आकर मौन व्रत के दौरान लिखना शुरू किया तो अन्ना के करीबी सुरेशभाऊ पठारे ने उनको रोकने की कोशिश की लेकिन अन्ना नहीं रुके. उन्हें उस वक़्त रोकना संभव नहीं था . लेकिन बाद में सुरेश भाऊ ने राजू को सलाह दी कि इस ब्लॉग को अभी रोक लिया जाए . केवल उसका संकेत ही दे दिया जाए. परुलेकर ने वही किया लेकिन जब कल दिल्ली में अन्ना हजारे ने उनके ऊपर गंभीर आरोप लगा दिया तो राजू परुलेकर ने अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अन्ना का वह पत्र सार्वजनिक कर दिया जिसको सुरेश भाऊ की सलाह पर उन्होंने पूरी तरह से नहीं छापा था .राजू परुलेकर ने अपने बयान में कहा है कि उस वक़्त डाक्टर धर्माधिकारी भी मौजूद थे और उन्होंने कहा कि कोशिश की जानी चाहिए कि अन्ना प्रसन्न चित्त रहें और उनका ब्लड प्रेशर न बढ़ने पाए .
Friday, November 4, 2011
क्य भ्रष्टाचार से जूझ रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है .
शेष नारायण सिंह
( इस लेख का संपादित संस्करण नवभारत टाइम्स में २-११-२०११ को छप चुका है )
अन्ना हजारे के साथियों ने दिल्ली से सटे महानगर गाज़ियाबाद में एक बैठक करके कहा है कि उनके संगठन में को समस्या नहीं है .जिस तरह से अब तक काम चलता रहा है,वैसे ही चलता रहेगा .गाज़ियाबाद की बैठक में सरकार पर आरोप भी लगाए गए कि वह अन्ना के साथियों को चुन चुन कर परेशान कर रही है .टीम अन्ना ने सरकार की नीयत पर सवाल उठाने के साथ साथ यह भी साफ़ कर दिया है कि सरकार के आरोपों की परवाह किये बिना उनका काम चलता रहेगा . किसी भी संगठन के लिए अपने आपको ,अपनी नीतियों को और अपने साथियों को सही ठहराना बिलकुल जायज़ काम है . उस से संगठन को मजबूती मिलती है. लेकिन जब किसी संगठन की सारी पूंजी ही उसकी ईमानदारी और पारदर्शिता हो तो उस संगठन को अपनी छवि को पाक साफ़ रखना बहुत ज़रूरी होता है . अन्ना की टीम के लिए भी यह ज़रूरी है कि वह अपने को अन्ना जैसा तो नहीं,उनसे थोडा कम ही सही लेकिन ईमानदार बनाए रखे .गाज़ियाबाद की बैठक के बाद अन्ना के साथियों ने अपने लोगों के खिलाफ हो रही चर्चाओं पर बात को स्पष्ट करने की बजाय उसको इग्नोर करने की कोशिश की. यह किसी राजनीतिक पार्टी या किसी अन्य संगठन के लिए तो सही रणनीति हो सकती है लेकिन जो संगठन समाज से भ्रष्टाचार ख़त्म करने की लड़ाई लड़ रहा हो के सबसे ज्यादा नुकसानदेह रोग से लड़ रहा हो उसे सीज़र की पत्नी की तरह शक़ के घेरे से बाहर होना चाहिए .
यहाँ यह समझ लेने की ज़रुरत है कि अन्ना के साथियों पर जो आरोप लगे हैं उनमें से कई भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आते हैं . यह कहकर कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है ,टीम अन्ना के लोग अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते. उन्हें तो यह साबित करना पडेगा कि आरोप गलत हैं और सरकार वाले उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं . देश को यह भी समझाना पड़ेगा कि सरकार बदले की भावना से काम कर रही है .जब तक आरोपों को ही गलत न साबित कर दिया जाए तब तक उनसे बचना संभव नहीं होगा. पिछले कुछ दिनों से अन्ना की टीम वालों के बारे में तरह तरह की बातें अखबारों में छप रही हैं . स्वामी अग्निवेश बहुत शुरू में मीडिया के हत्थे चढ़ गए थे , बाद में अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी भ्रष्ट आचरण की बहस की ज़द में आ गए. बाद में खबर आयी कि रामलीला मैदान में जो दान का धन इकठ्ठा हुआ था उसमें भी पारदर्शिता नहीं है . कुमार विश्वास नाम के एक सदस्य भी अपने कर्तव्य से विमुख हुए हैं . गाज़ियाबाद के किसी कालेज में पढ़ाते हैं जहां वे बहुत दिन से हाज़िर नहीं हुए. हालांकि कुमार विश्वास जी ने टीम अन्ना को बदल देने की बात करके बहस को एक नया आयाम देने की कोशिश कर दी है. इन विवादों में फंसे सभी लोगों ने अपने जवाब दे दिए हैं और उनको लगता है कि मामला ख़त्म हो गया . जो भी मामले मीडिया में चर्चा में हैं उनमें से अरविंद केजरीवाल वाले नौलखा मामले के अलावा किसी भी केस में सरकारी जांच नहीं हो रही है . ज़ाहिर है इन मुद्दों पर कोई फालो अप कार्रवाई नहीं होगी. लेकिन इन मुद्दों से यह तो साफ़ हो ही जाता है कि अन्ना के साथ लगे हुए लोग बहुत पाक साफ़ नहीं हैं . उन्होंने भी वे गलतियाँ की हैं जो साधारण लोग कर बैठते हैं .
अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी.
अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अप्रैल से अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले आठ महीने में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो नमें जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है
( इस लेख का संपादित संस्करण नवभारत टाइम्स में २-११-२०११ को छप चुका है )
अन्ना हजारे के साथियों ने दिल्ली से सटे महानगर गाज़ियाबाद में एक बैठक करके कहा है कि उनके संगठन में को समस्या नहीं है .जिस तरह से अब तक काम चलता रहा है,वैसे ही चलता रहेगा .गाज़ियाबाद की बैठक में सरकार पर आरोप भी लगाए गए कि वह अन्ना के साथियों को चुन चुन कर परेशान कर रही है .टीम अन्ना ने सरकार की नीयत पर सवाल उठाने के साथ साथ यह भी साफ़ कर दिया है कि सरकार के आरोपों की परवाह किये बिना उनका काम चलता रहेगा . किसी भी संगठन के लिए अपने आपको ,अपनी नीतियों को और अपने साथियों को सही ठहराना बिलकुल जायज़ काम है . उस से संगठन को मजबूती मिलती है. लेकिन जब किसी संगठन की सारी पूंजी ही उसकी ईमानदारी और पारदर्शिता हो तो उस संगठन को अपनी छवि को पाक साफ़ रखना बहुत ज़रूरी होता है . अन्ना की टीम के लिए भी यह ज़रूरी है कि वह अपने को अन्ना जैसा तो नहीं,उनसे थोडा कम ही सही लेकिन ईमानदार बनाए रखे .गाज़ियाबाद की बैठक के बाद अन्ना के साथियों ने अपने लोगों के खिलाफ हो रही चर्चाओं पर बात को स्पष्ट करने की बजाय उसको इग्नोर करने की कोशिश की. यह किसी राजनीतिक पार्टी या किसी अन्य संगठन के लिए तो सही रणनीति हो सकती है लेकिन जो संगठन समाज से भ्रष्टाचार ख़त्म करने की लड़ाई लड़ रहा हो के सबसे ज्यादा नुकसानदेह रोग से लड़ रहा हो उसे सीज़र की पत्नी की तरह शक़ के घेरे से बाहर होना चाहिए .
यहाँ यह समझ लेने की ज़रुरत है कि अन्ना के साथियों पर जो आरोप लगे हैं उनमें से कई भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आते हैं . यह कहकर कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है ,टीम अन्ना के लोग अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते. उन्हें तो यह साबित करना पडेगा कि आरोप गलत हैं और सरकार वाले उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं . देश को यह भी समझाना पड़ेगा कि सरकार बदले की भावना से काम कर रही है .जब तक आरोपों को ही गलत न साबित कर दिया जाए तब तक उनसे बचना संभव नहीं होगा. पिछले कुछ दिनों से अन्ना की टीम वालों के बारे में तरह तरह की बातें अखबारों में छप रही हैं . स्वामी अग्निवेश बहुत शुरू में मीडिया के हत्थे चढ़ गए थे , बाद में अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी भ्रष्ट आचरण की बहस की ज़द में आ गए. बाद में खबर आयी कि रामलीला मैदान में जो दान का धन इकठ्ठा हुआ था उसमें भी पारदर्शिता नहीं है . कुमार विश्वास नाम के एक सदस्य भी अपने कर्तव्य से विमुख हुए हैं . गाज़ियाबाद के किसी कालेज में पढ़ाते हैं जहां वे बहुत दिन से हाज़िर नहीं हुए. हालांकि कुमार विश्वास जी ने टीम अन्ना को बदल देने की बात करके बहस को एक नया आयाम देने की कोशिश कर दी है. इन विवादों में फंसे सभी लोगों ने अपने जवाब दे दिए हैं और उनको लगता है कि मामला ख़त्म हो गया . जो भी मामले मीडिया में चर्चा में हैं उनमें से अरविंद केजरीवाल वाले नौलखा मामले के अलावा किसी भी केस में सरकारी जांच नहीं हो रही है . ज़ाहिर है इन मुद्दों पर कोई फालो अप कार्रवाई नहीं होगी. लेकिन इन मुद्दों से यह तो साफ़ हो ही जाता है कि अन्ना के साथ लगे हुए लोग बहुत पाक साफ़ नहीं हैं . उन्होंने भी वे गलतियाँ की हैं जो साधारण लोग कर बैठते हैं .
अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी.
अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अप्रैल से अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले आठ महीने में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो नमें जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है
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अन्ना हजारे,
नवभारत टाइम्स
चीन की सीमा पर तैनात होंगें एक लाख सैनिक
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २ नवम्बर .देशी विदेशी मीडिया में चीन के भारत विरोधी रुख और पाकिस्तान से नई दोस्ती की कहानियां रोज़ ही नज़र आ रही हैं .हालांकि भारत की तरफ से बार बार यही कहा जा रहा है कि इन खबरों को भारत गंभीरता से नहीं लेता लेकिन भारतीय सेना की ताज़ी तैयारियों से लगता है कि भारत चीन की किसी भी पैंतरेबाजी को पूरी गंभीरता से लेता है और अगर ज़रूरत पड़ी तो भारतीय सेना चीन को सैनिक भाषा के व्याकरण में भी समझाने के लिए तैयार है . संकेत मिल रहे हैं कि अगले पांच वर्षों में भारत चीन की सीमा के साथ अपने इलाकों में करीब एक लाख सैनिक तैनात कर देगा.
बताया जाता है कि सीमा पर बड़ी सैनिक उपस्थिति का भारतीय सेना का यह प्रस्ताव अब रक्षा मंत्रालय के पास है . इमकान है कि इसे जल्दी ही कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेज दिया जाये़या .चीन से १९६२ की लड़ाई के बाद चीन और भारत की सीमा पर इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती कभी नहीं हुई है .चीन के नए हुक्मरान पाकिस्तान से चीन की बढ़ रही दोस्ती के मद्दे नज़र भारत को अर्दब में लेने के चक्कर में भी बताये जाते हैं . लेकिन भारतीय कूटनीतिक बिरादरी इस बात को कोई महत्व नहीं देती. माना जाता है कि पाकिस्तान में अपनी सैनिक मौजूदगी को मुकम्मल करने के लिए चीन कभी कभी भारत विरोधी राग ज़रूर अलाप देता है लेकिन यह बात बिलकुल पक्की है कि पाकिस्तान को खुश करने के लिए चीन भारत जैसे परमाणु शक्ति संपन्न देश से फौजी पंगा नहीं लेगा.अगर पाकिस्तानी यह सोचते हैं तो वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं .१९६५ में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खां यह गलती कर चुके हैं . उनको भरोसा था कि १९६५ में जब वे भारत पर हमला करेगें तो हिमालय के उस पार से चीन भी भारत पर हमला बोल देगा. इसी मुगालते में उन्होंने १९६५ की लड़ाई की शुरुआत की थी.लेकिन जब चीन से सांस भी नहीं ली तो बेचारे सन्न रह गए और उनकी फौज को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा.
इस नुकसान के बाद अयूब खां की गद्दी छिन गयी थी .उस के बाद बहुत दिनों तक पाकिस्तानी हुक्मरान चीन से बच कर रहते थे लेकिन मुशर्रफ के राज में फिर चीन से दोस्ती की पींग बढ़ने लगी . अब तो चीन बाकायदा पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में अपने फौजी ठिकाने बना रहा है . पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में भी चीन की खासी दखल है . इन सब बातों को ध्यान में रखकर भारतीय रक्षा मंत्रालय ने ६४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करके सेना के आधुनिकीकरण का प्रोजेक्ट तैयार किया है .
अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक हलकों को विश्वास है कि चीन भारत से खुद कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहता क्योंकि इससे उसके वे सपने पूरे नहीं हो सकेगें जिसके अनुसार चीन दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़त बनने के फ़िराक़ में है .लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह पाकिस्तान को भारत के साथ युद्ध में फंसा सकता है . ज़ाहिर है इस तरह की छुपी चालों का न तो पता लगाया जा सकता है और न ही इनकी कोई काट पैदा की जा सकती है . शायद इसीलिये केंद्र सरकार की तरफ से भारतीय सेना को चीन की सीमा पर अपनी रक्षापंक्ति को मज़बूत करने का निर्देश दे दिया गया है .
नई दिल्ली, २ नवम्बर .देशी विदेशी मीडिया में चीन के भारत विरोधी रुख और पाकिस्तान से नई दोस्ती की कहानियां रोज़ ही नज़र आ रही हैं .हालांकि भारत की तरफ से बार बार यही कहा जा रहा है कि इन खबरों को भारत गंभीरता से नहीं लेता लेकिन भारतीय सेना की ताज़ी तैयारियों से लगता है कि भारत चीन की किसी भी पैंतरेबाजी को पूरी गंभीरता से लेता है और अगर ज़रूरत पड़ी तो भारतीय सेना चीन को सैनिक भाषा के व्याकरण में भी समझाने के लिए तैयार है . संकेत मिल रहे हैं कि अगले पांच वर्षों में भारत चीन की सीमा के साथ अपने इलाकों में करीब एक लाख सैनिक तैनात कर देगा.
बताया जाता है कि सीमा पर बड़ी सैनिक उपस्थिति का भारतीय सेना का यह प्रस्ताव अब रक्षा मंत्रालय के पास है . इमकान है कि इसे जल्दी ही कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेज दिया जाये़या .चीन से १९६२ की लड़ाई के बाद चीन और भारत की सीमा पर इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती कभी नहीं हुई है .चीन के नए हुक्मरान पाकिस्तान से चीन की बढ़ रही दोस्ती के मद्दे नज़र भारत को अर्दब में लेने के चक्कर में भी बताये जाते हैं . लेकिन भारतीय कूटनीतिक बिरादरी इस बात को कोई महत्व नहीं देती. माना जाता है कि पाकिस्तान में अपनी सैनिक मौजूदगी को मुकम्मल करने के लिए चीन कभी कभी भारत विरोधी राग ज़रूर अलाप देता है लेकिन यह बात बिलकुल पक्की है कि पाकिस्तान को खुश करने के लिए चीन भारत जैसे परमाणु शक्ति संपन्न देश से फौजी पंगा नहीं लेगा.अगर पाकिस्तानी यह सोचते हैं तो वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं .१९६५ में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खां यह गलती कर चुके हैं . उनको भरोसा था कि १९६५ में जब वे भारत पर हमला करेगें तो हिमालय के उस पार से चीन भी भारत पर हमला बोल देगा. इसी मुगालते में उन्होंने १९६५ की लड़ाई की शुरुआत की थी.लेकिन जब चीन से सांस भी नहीं ली तो बेचारे सन्न रह गए और उनकी फौज को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा.
इस नुकसान के बाद अयूब खां की गद्दी छिन गयी थी .उस के बाद बहुत दिनों तक पाकिस्तानी हुक्मरान चीन से बच कर रहते थे लेकिन मुशर्रफ के राज में फिर चीन से दोस्ती की पींग बढ़ने लगी . अब तो चीन बाकायदा पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में अपने फौजी ठिकाने बना रहा है . पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में भी चीन की खासी दखल है . इन सब बातों को ध्यान में रखकर भारतीय रक्षा मंत्रालय ने ६४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करके सेना के आधुनिकीकरण का प्रोजेक्ट तैयार किया है .
अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक हलकों को विश्वास है कि चीन भारत से खुद कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहता क्योंकि इससे उसके वे सपने पूरे नहीं हो सकेगें जिसके अनुसार चीन दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़त बनने के फ़िराक़ में है .लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह पाकिस्तान को भारत के साथ युद्ध में फंसा सकता है . ज़ाहिर है इस तरह की छुपी चालों का न तो पता लगाया जा सकता है और न ही इनकी कोई काट पैदा की जा सकती है . शायद इसीलिये केंद्र सरकार की तरफ से भारतीय सेना को चीन की सीमा पर अपनी रक्षापंक्ति को मज़बूत करने का निर्देश दे दिया गया है .
Wednesday, November 2, 2011
अन्ना हजारे के एक पुराने साथी को गुस्सा क्यों आता है
शेष नारायण सिंह
मुंबई,३१ अक्टूबर.भ्रष्टाचार के खिलाफ करीब तीस वर्षों से अभियान चला रहे अन्ना हजारे दुविधा में हैं . उनके मौन व्रत से उनको बहुत सारे मुश्किल सवालों से तो छुट्टी मिल गयी है लेकिन अपने करीबी साथियों के आचरण को लेकर उनके आन्दोलन और उनकी शख्सियत को मिल रही कमजोरी से उनके पुराने साथी परेशान हैं. करीब तीस साल से अन्ना हजारे के साथी रहे नामी अर्थशास्त्री, एच एम देसरदा का कहना है कि दिल्ली में सामाजिक कार्य का काम करने वालों पर भरोसा करके अन्ना हजारे और उनके मिशन को भारी नुकसान हुआ है और विवादों के चलते लोकपाल बिल का मुद्दा कमज़ोर पड़ा है .
पिछले तीस साल से अन्ना हजारे की आन्दोलनों के थिंक टैंक का हिस्सा रहे अर्थशास्त्री ,एच एम देसरदा बताते हैं कि जब अन्ना हजारे ने इस साल अप्रैल में जंतर मंतर पर अनशन शुरू किया था, उसके अगले दिन ही उन्होंने दिल्ली जाकर अन्ना को समझाया था कि दिल्ली में सामाजिक सेवा का काम करने वालों से बच कर रहें .उन्होंने उनको लगभग चेतावनी दे दी थी कि इन लोगों के चक्कर में आने पर अन्ना हजारे के सामने मुसीबत पैदा हो सकती है ..लेकिन अन्ना हजारे ने एक नहीं सुनी. नतीजा सामने है. देसरदा का कहना है कि अगर अन्ना ने उनकी बात सुनी होती तो आज उनको शर्माना न पड़ता. अनशन के स्थगित होने के बाद अन्ना लोकपाल बिल और उस से जुड़े मुद्दों पर कोई बात नहीं कर पा रहे हैं . उनका सारा समय और ऊर्जा किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण पर लगे आरोपों का जवाब देने में बीत रहा है .बेदी के ऊपर यात्रा बिल में हेराफेरी का आरोप है. तो अरविंद केजरीवाल पर चंदे के गलत हिसाब और नौकरी के वक़्त किये गए कानून के उल्लंघन का आरोप है . प्रशांत भूषण तो और भी आगे बढ़ गए हैं . जो कश्मीर मूदा १९४७ में सरदार पटेल ने हल कर दिया था, प्रशांत भूषण उसी मुद्दे के नाम पर ख़बरों में बने रहने की साज़िश में शामिल पाए गए हैं . स्वामी अग्निवेश नाम के सामजिक कार्यकर्ता के ऊपर सरकार के लिए जासूसी करने का आरोप पहले ही लग चुका है . शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण के ऊपर पैसा दिलवाकर मुक़दमों में फैसले करवाने का मामला चल ही रहा है . कुमार विश्वास नाम के एक मास्टर जी हैं , वे भी कालेज में पढ़ाने की अपनी बुनियादी ड्यूटी को भूल कर अन्ना के नाम पर चारों तरफ घूमते पाए जा रहे हैं .. देसरदा का कहना है कि अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है .अन्ना हजारे को चाहिए कि अपनी रणनीति पर फिर से विचार करें और अपने अभियान को सही दिशा देने के लिए दिल्ली में सामाजिक काम का धंधा करने वालों से अपने आपको बचाएं .
देसरदा १९८२ से ही अन्ना हजारे के कागज़ात तैयार करते रहे हैं ,उनके लिए रणनीतियाँ बनाते रहे हैं.और उनकी अब तक की सफलताओं में कुछ अन्य निः स्वार्थ लोगों के साथ शामिल रहे हैं . अप्रैल में जब अन्ना हजारे के साथ बहुत देर तक चली उनकी बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला तो उन्होंने अन्ना हजारे को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अन्ना अपनी टीम के हाथों नज़रबंद थे,इस टीम की मर्जी के बिना वे अपने पुराने साथियों से भी नहीं मिल सकते थे .उन्हें इस बात पर भी एतराज़ था कि अन्ना के नए साथी कई मामलों में अन्ना को बताये बिना भी फैसले ले लेते थे. अन्ना हजारे से ने संकेत दिया था कि मौन व्रत के ख़त्म होने के बाद वे टीम के बारे में फिर से विचार करेगें . लेकिन एच एम देसरदा को अफ़सोस है कि टीम ने उनके मौनव्रत के बावजूद भी अपनी खामियों की बचत के प्रोजेक्ट में अन्ना हजारे को इस्तेमाल कर लिया.
मुंबई,३१ अक्टूबर.भ्रष्टाचार के खिलाफ करीब तीस वर्षों से अभियान चला रहे अन्ना हजारे दुविधा में हैं . उनके मौन व्रत से उनको बहुत सारे मुश्किल सवालों से तो छुट्टी मिल गयी है लेकिन अपने करीबी साथियों के आचरण को लेकर उनके आन्दोलन और उनकी शख्सियत को मिल रही कमजोरी से उनके पुराने साथी परेशान हैं. करीब तीस साल से अन्ना हजारे के साथी रहे नामी अर्थशास्त्री, एच एम देसरदा का कहना है कि दिल्ली में सामाजिक कार्य का काम करने वालों पर भरोसा करके अन्ना हजारे और उनके मिशन को भारी नुकसान हुआ है और विवादों के चलते लोकपाल बिल का मुद्दा कमज़ोर पड़ा है .
पिछले तीस साल से अन्ना हजारे की आन्दोलनों के थिंक टैंक का हिस्सा रहे अर्थशास्त्री ,एच एम देसरदा बताते हैं कि जब अन्ना हजारे ने इस साल अप्रैल में जंतर मंतर पर अनशन शुरू किया था, उसके अगले दिन ही उन्होंने दिल्ली जाकर अन्ना को समझाया था कि दिल्ली में सामाजिक सेवा का काम करने वालों से बच कर रहें .उन्होंने उनको लगभग चेतावनी दे दी थी कि इन लोगों के चक्कर में आने पर अन्ना हजारे के सामने मुसीबत पैदा हो सकती है ..लेकिन अन्ना हजारे ने एक नहीं सुनी. नतीजा सामने है. देसरदा का कहना है कि अगर अन्ना ने उनकी बात सुनी होती तो आज उनको शर्माना न पड़ता. अनशन के स्थगित होने के बाद अन्ना लोकपाल बिल और उस से जुड़े मुद्दों पर कोई बात नहीं कर पा रहे हैं . उनका सारा समय और ऊर्जा किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण पर लगे आरोपों का जवाब देने में बीत रहा है .बेदी के ऊपर यात्रा बिल में हेराफेरी का आरोप है. तो अरविंद केजरीवाल पर चंदे के गलत हिसाब और नौकरी के वक़्त किये गए कानून के उल्लंघन का आरोप है . प्रशांत भूषण तो और भी आगे बढ़ गए हैं . जो कश्मीर मूदा १९४७ में सरदार पटेल ने हल कर दिया था, प्रशांत भूषण उसी मुद्दे के नाम पर ख़बरों में बने रहने की साज़िश में शामिल पाए गए हैं . स्वामी अग्निवेश नाम के सामजिक कार्यकर्ता के ऊपर सरकार के लिए जासूसी करने का आरोप पहले ही लग चुका है . शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण के ऊपर पैसा दिलवाकर मुक़दमों में फैसले करवाने का मामला चल ही रहा है . कुमार विश्वास नाम के एक मास्टर जी हैं , वे भी कालेज में पढ़ाने की अपनी बुनियादी ड्यूटी को भूल कर अन्ना के नाम पर चारों तरफ घूमते पाए जा रहे हैं .. देसरदा का कहना है कि अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है .अन्ना हजारे को चाहिए कि अपनी रणनीति पर फिर से विचार करें और अपने अभियान को सही दिशा देने के लिए दिल्ली में सामाजिक काम का धंधा करने वालों से अपने आपको बचाएं .
देसरदा १९८२ से ही अन्ना हजारे के कागज़ात तैयार करते रहे हैं ,उनके लिए रणनीतियाँ बनाते रहे हैं.और उनकी अब तक की सफलताओं में कुछ अन्य निः स्वार्थ लोगों के साथ शामिल रहे हैं . अप्रैल में जब अन्ना हजारे के साथ बहुत देर तक चली उनकी बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला तो उन्होंने अन्ना हजारे को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अन्ना अपनी टीम के हाथों नज़रबंद थे,इस टीम की मर्जी के बिना वे अपने पुराने साथियों से भी नहीं मिल सकते थे .उन्हें इस बात पर भी एतराज़ था कि अन्ना के नए साथी कई मामलों में अन्ना को बताये बिना भी फैसले ले लेते थे. अन्ना हजारे से ने संकेत दिया था कि मौन व्रत के ख़त्म होने के बाद वे टीम के बारे में फिर से विचार करेगें . लेकिन एच एम देसरदा को अफ़सोस है कि टीम ने उनके मौनव्रत के बावजूद भी अपनी खामियों की बचत के प्रोजेक्ट में अन्ना हजारे को इस्तेमाल कर लिया.
मुग़ल बच्चे और उनके मुगालते
शेष नारायण सिंह
मुंबई,३० अक्टूबर.अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने उर्दू की महान लेखिका , इस्मत चुगताई की कुछ कहानियों को थियेटर के माध्यम अमर करने का काम किया है. उन्होंने ' इस्मत आपा के नाम ' सीरीज में इस्मत चुगताई की तीन कहानियों का मंचन किया है. दिल्ली की सामाजिक संस्था, अनहद के एक कार्यक्रम में उनमें से एक का मंचन हुआ. दास्तानगोई की शैली में प्रस्तुत इस्मत चुगताई की कहानी ' मुग़ल बच्चा ' का मंचन मुगलिया सल्तनत के ढह रहे सामंती मूल्यों को बेनकाब करने के साथ साथ बीसवीं सदी की शुरुआत में उत्तर प्रदेश के ज़मींदारों की फर्जी शेखी को भी बहुत करीने से पेश किया गया है .
मुग़ल बच्चा का निर्देशन खुद नसीरुद्दीन शाह ने किया है और कलाकार हैं रत्ना पाठक शाह. रत्ना पाठक शाह ने ब्रिटिश दौर की उत्तर प्रदेश की मुस्लिम ज़मींदार बिरादरी की नंगई को बहुत ही शानदार अंदाज़ में पेश किया है . प्रस्तुति असाधारण है .इसके तीन कारण हैं . एक तो इस्मत चुगताई की कहानी की बहुत फ़ोर्स फुल है . उसके ऊपर नसीरुद्दीन शाह का निर्देशन और रत्ना पाठक शाह जैसी मंजी हुई अभिनेत्री का अभिनय. इस प्रस्तुति में रत्ना पाठक सूत्रधार भी हैं और कहानी के दो मुख्य पात्रों के संवाद भी वे ही boltee हैं. सूत्रधार और पात्रों के अभिनय के बीच कहीं कोई रोड़ा नहीं होता, कहानी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के जोड़ के वर्षों की है . उत्तर प्रदेश के किसी इलाके में मुगलों के तथाकथित वारिस बस गए थे. उनके ही किसी वंशज की शादी पड़ोस के किसी ज़मींदार खानदान की लडकी से कर दी गयी है .. निहायत ही गोरी लडकी से बहुत ही काले वारिस का निकाह हो गया है. इन्हीं गोरी बी और काले मियाँ की शादी और उसमें मौजूद विसंगतियों के हवाले से इस्मत चुगताई ने अपनी इस कहानी को लिखा था . रत्ना पाठक शाह जब कहानी को बयान कर रही होती हैं तो लगता है कि कहीं इसमत आपा ही तो नहीं अपनी कहानी सुना रही हैं. हर तरह के मजाक का नमूना बन चुकी सामंती व्यवस्था के वारिस, काले मियाँ जब अपनी बीबी को बताते हैं कि मुग़ल बच्चे मजाक के आदी नहीं होते तो लगता है कि इस से बड़ा विरोधाभास कहीं हो ही नहीं सकता. सामंती परिवेश में हर मान्यता के सड़ गल जाने के बाद जो कुछ बचा है वह पुराने वक्तों का रद्दी का ज़ भी नहीं लेकिन शेखी का आलम यह है कि काहींन भी मामूली समझौता करने के तैयार नहीं हैं .प्रस्तुति में वही शेखी पात्रों की मजबूरी बन कर सामने आई है.
नाटक में एक ही अंक था और जब रत्ना पाठक शाह ने काले मियाँ की मौत का ऐलान किया तो लगा कि हाय ,यह कहानी और देर तक नहीं चल सकती थी. कुल मिलाकर एक बेहतरीन साहित्यिक कहानी पर एक बहुत ही अच्छा नाटकीय प्रस्तुतीकरण
मुंबई,३० अक्टूबर.अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने उर्दू की महान लेखिका , इस्मत चुगताई की कुछ कहानियों को थियेटर के माध्यम अमर करने का काम किया है. उन्होंने ' इस्मत आपा के नाम ' सीरीज में इस्मत चुगताई की तीन कहानियों का मंचन किया है. दिल्ली की सामाजिक संस्था, अनहद के एक कार्यक्रम में उनमें से एक का मंचन हुआ. दास्तानगोई की शैली में प्रस्तुत इस्मत चुगताई की कहानी ' मुग़ल बच्चा ' का मंचन मुगलिया सल्तनत के ढह रहे सामंती मूल्यों को बेनकाब करने के साथ साथ बीसवीं सदी की शुरुआत में उत्तर प्रदेश के ज़मींदारों की फर्जी शेखी को भी बहुत करीने से पेश किया गया है .
मुग़ल बच्चा का निर्देशन खुद नसीरुद्दीन शाह ने किया है और कलाकार हैं रत्ना पाठक शाह. रत्ना पाठक शाह ने ब्रिटिश दौर की उत्तर प्रदेश की मुस्लिम ज़मींदार बिरादरी की नंगई को बहुत ही शानदार अंदाज़ में पेश किया है . प्रस्तुति असाधारण है .इसके तीन कारण हैं . एक तो इस्मत चुगताई की कहानी की बहुत फ़ोर्स फुल है . उसके ऊपर नसीरुद्दीन शाह का निर्देशन और रत्ना पाठक शाह जैसी मंजी हुई अभिनेत्री का अभिनय. इस प्रस्तुति में रत्ना पाठक सूत्रधार भी हैं और कहानी के दो मुख्य पात्रों के संवाद भी वे ही boltee हैं. सूत्रधार और पात्रों के अभिनय के बीच कहीं कोई रोड़ा नहीं होता, कहानी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के जोड़ के वर्षों की है . उत्तर प्रदेश के किसी इलाके में मुगलों के तथाकथित वारिस बस गए थे. उनके ही किसी वंशज की शादी पड़ोस के किसी ज़मींदार खानदान की लडकी से कर दी गयी है .. निहायत ही गोरी लडकी से बहुत ही काले वारिस का निकाह हो गया है. इन्हीं गोरी बी और काले मियाँ की शादी और उसमें मौजूद विसंगतियों के हवाले से इस्मत चुगताई ने अपनी इस कहानी को लिखा था . रत्ना पाठक शाह जब कहानी को बयान कर रही होती हैं तो लगता है कि कहीं इसमत आपा ही तो नहीं अपनी कहानी सुना रही हैं. हर तरह के मजाक का नमूना बन चुकी सामंती व्यवस्था के वारिस, काले मियाँ जब अपनी बीबी को बताते हैं कि मुग़ल बच्चे मजाक के आदी नहीं होते तो लगता है कि इस से बड़ा विरोधाभास कहीं हो ही नहीं सकता. सामंती परिवेश में हर मान्यता के सड़ गल जाने के बाद जो कुछ बचा है वह पुराने वक्तों का रद्दी का ज़ भी नहीं लेकिन शेखी का आलम यह है कि काहींन भी मामूली समझौता करने के तैयार नहीं हैं .प्रस्तुति में वही शेखी पात्रों की मजबूरी बन कर सामने आई है.
नाटक में एक ही अंक था और जब रत्ना पाठक शाह ने काले मियाँ की मौत का ऐलान किया तो लगा कि हाय ,यह कहानी और देर तक नहीं चल सकती थी. कुल मिलाकर एक बेहतरीन साहित्यिक कहानी पर एक बहुत ही अच्छा नाटकीय प्रस्तुतीकरण
माफी मांगने के बाद सज़ा होगी तो मीडिया की स्वतंत्रता को ख़त्म होने से कोई नहीं रोक सकता .
शेष नारायण सिंह
मीडिया को भी संभल कर रहने का सन्देश बहुत ही साफ़ ज़बान में मिलना शुरू हो गया है .देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार से जुड़े हुए अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल ने पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसे मामलों से पर्दा उठाया है कि कुछ नेताओं के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा हो गयी है . सुरेश कलमाड़ी के कारनामों के बारे में लगभग हर शुरुआती जानकारी इसी चैनल से आई. हालांकि कलमाडी साहेब मुगालते में रहे लेकिन आखिर में घिर गए और आजकल जेल की हवा खा रहे हैं . ज़ाहिर है कि उनके दिमाग में इस चैनल को लेकर बहुत गुस्सा है . बताते हैं कि एक बार उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि इस चैनल को वे कभी माफ़ नहीं करेगें और इसको तबाह कर देगें.उनकी इस बात को एक परेशान आदमी का गुबार मान कर मीडिया बिरादरी ने इग्नोर कर दिया था लेकिन अब बात साफ़ होने लगी है . देश के कई शहरों में कलमाडी के लोगों ने इस इस चैनल और इसके संपादक पर मानहानि का मुक़दमा कर दिया है .कई मामले तो पुणे शहर में ही दाखिल कर दिए गए हैं. सुरेश कलमाड़ी मूल रूप से पुणे के ही रहने वाले हैं . पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वालों को यह मालूम रहता है कि अगर गलती हुई तो मानहानि के मुक़दमे दायर होंगें. इसीलिये हर ईमानदार पत्रकार कोशिश करता है कि गलती न हो और अगर गलती हो जाए तो फ़ौरन माफी मांग ली जाए. देश के लगभग सभी बड़े मीडिया संस्थाओं से गलती हो चुकी है . और जब गलती के लिए माफी मांग ली जाती है तो आमतौर पर पीड़ित पक्ष मुक़दमे नहीं दायर करता है . अगर किसी ने मुक़दमा दायर कर भी दिया तो दो बातें होती हैं. या तो अदालत मीडिया संस्थान की माफी को स्वीकार कर लेती है और फैसला कर देती है.अगर गलत सूचना के तुरंत बाद माफी नहीं माँगी गयी है तो कोर्ट का फैसला आ जाता है कि जिस प्रमुखता से खबर को प्रकाशित और प्रचारित किया गया था, उसी प्रमुखता से गलत खबर के लिए माफी माँगी जाए.लेकिन अगर मीडिया हाउस ऐसा नहीं करता तो उसके ऊपर जुर्माना होता है .
हालांकि इस मामले का कलमाडी से कोई लेना देना नहीं है लेकिन देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार से जुड़े हुए चैनल के मामले में ऐसा नहीं हुआ. बार बार माफी मांगने के बाद भी उनके ऊपर ट्रायल कोर्ट ने एक सौ करोड़ रूपये का जुर्माना ठोंक दिया .चैनल वालों ने जब हाई कोर्ट में अपील की पेशकश की तो माननीय हाई कोर्ट ने कहा कि आप बीस करोड़ रूपया जमा कर दीजिये और अस्सी करोड़ रूपये के लिए गारंटी दे दीजिये तब अपील ली जायेगी. अब लोग सुप्रीम कोर्ट गए हैं . गुहार यह है कि अगर निचली अदालत के फैसले में किये गए जुर्माने को जमा करके ही अपील होनी है तह तो न्याय के मार्ग में बाधा पड़ सकती है .इस मामले में जब चैनल के अधिकारियों से बात की गयी तो उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया . कहा कि मामला अदालत के अधीन है ,इसलिए वे कोई बात नहीं करेगें.
हालांकि यह केस बहुत ही दिलचस्प है २००८ में किसी खबर के सन्दर्भ में सुप्रीम के कोर्ट के एक रिटायर्ड जज साहब की गलत तस्वीर लग गयी थी. यह तस्वीर १०-१५ सेकण्ड आन एयर रही. गलती का एहसास तुरंत ही हो गया था. चैनल वालों ने माफी मांगना शुरू कर दिया और तीन चार दिन तक माफी मांगते रहे .लेकिन फिर भी मुक़दमा हो गया. ट्रायल कोर्ट ने माफी वाली बात को स्वीकार नहीं किया और एक सौ करोड़ रूपये का जुर्माना कर दिया. अपील के लिए जब हाई कोर्ट गए तब पता चला कि बीस करोड़ रूपये जमा करना पडेगा. ज़ाहिर है कि कोई भी मीडिया कंपनी इतनी बड़ी रक़म जमा नहीं करेगी . वैसे भी मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक जाना ही है तो पैसे जमा करने वाली बात बहुत समझ में नहीं आती. लेकिन यह सच्चाई है और इसका समाज के हर स्तर पर विवेचन किये जाने की ज़रुरत है . जहां तक अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल का प्रश्न है ,उसको पास तो इतना जमा करने के लिए रक़म होगी ही लेकिन अगर किसी छोटे अखबार या न्यूज़ चैनल के ऊपर गलती और उसकी बाद माफी मांगने के बाद यह सज़ा होगी तो मीडिया की स्वतंत्रता को ख़त्म होने से कोई नहीं रोक सकता .
मीडिया को भी संभल कर रहने का सन्देश बहुत ही साफ़ ज़बान में मिलना शुरू हो गया है .देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार से जुड़े हुए अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल ने पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसे मामलों से पर्दा उठाया है कि कुछ नेताओं के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा हो गयी है . सुरेश कलमाड़ी के कारनामों के बारे में लगभग हर शुरुआती जानकारी इसी चैनल से आई. हालांकि कलमाडी साहेब मुगालते में रहे लेकिन आखिर में घिर गए और आजकल जेल की हवा खा रहे हैं . ज़ाहिर है कि उनके दिमाग में इस चैनल को लेकर बहुत गुस्सा है . बताते हैं कि एक बार उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि इस चैनल को वे कभी माफ़ नहीं करेगें और इसको तबाह कर देगें.उनकी इस बात को एक परेशान आदमी का गुबार मान कर मीडिया बिरादरी ने इग्नोर कर दिया था लेकिन अब बात साफ़ होने लगी है . देश के कई शहरों में कलमाडी के लोगों ने इस इस चैनल और इसके संपादक पर मानहानि का मुक़दमा कर दिया है .कई मामले तो पुणे शहर में ही दाखिल कर दिए गए हैं. सुरेश कलमाड़ी मूल रूप से पुणे के ही रहने वाले हैं . पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वालों को यह मालूम रहता है कि अगर गलती हुई तो मानहानि के मुक़दमे दायर होंगें. इसीलिये हर ईमानदार पत्रकार कोशिश करता है कि गलती न हो और अगर गलती हो जाए तो फ़ौरन माफी मांग ली जाए. देश के लगभग सभी बड़े मीडिया संस्थाओं से गलती हो चुकी है . और जब गलती के लिए माफी मांग ली जाती है तो आमतौर पर पीड़ित पक्ष मुक़दमे नहीं दायर करता है . अगर किसी ने मुक़दमा दायर कर भी दिया तो दो बातें होती हैं. या तो अदालत मीडिया संस्थान की माफी को स्वीकार कर लेती है और फैसला कर देती है.अगर गलत सूचना के तुरंत बाद माफी नहीं माँगी गयी है तो कोर्ट का फैसला आ जाता है कि जिस प्रमुखता से खबर को प्रकाशित और प्रचारित किया गया था, उसी प्रमुखता से गलत खबर के लिए माफी माँगी जाए.लेकिन अगर मीडिया हाउस ऐसा नहीं करता तो उसके ऊपर जुर्माना होता है .
हालांकि इस मामले का कलमाडी से कोई लेना देना नहीं है लेकिन देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार से जुड़े हुए चैनल के मामले में ऐसा नहीं हुआ. बार बार माफी मांगने के बाद भी उनके ऊपर ट्रायल कोर्ट ने एक सौ करोड़ रूपये का जुर्माना ठोंक दिया .चैनल वालों ने जब हाई कोर्ट में अपील की पेशकश की तो माननीय हाई कोर्ट ने कहा कि आप बीस करोड़ रूपया जमा कर दीजिये और अस्सी करोड़ रूपये के लिए गारंटी दे दीजिये तब अपील ली जायेगी. अब लोग सुप्रीम कोर्ट गए हैं . गुहार यह है कि अगर निचली अदालत के फैसले में किये गए जुर्माने को जमा करके ही अपील होनी है तह तो न्याय के मार्ग में बाधा पड़ सकती है .इस मामले में जब चैनल के अधिकारियों से बात की गयी तो उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया . कहा कि मामला अदालत के अधीन है ,इसलिए वे कोई बात नहीं करेगें.
हालांकि यह केस बहुत ही दिलचस्प है २००८ में किसी खबर के सन्दर्भ में सुप्रीम के कोर्ट के एक रिटायर्ड जज साहब की गलत तस्वीर लग गयी थी. यह तस्वीर १०-१५ सेकण्ड आन एयर रही. गलती का एहसास तुरंत ही हो गया था. चैनल वालों ने माफी मांगना शुरू कर दिया और तीन चार दिन तक माफी मांगते रहे .लेकिन फिर भी मुक़दमा हो गया. ट्रायल कोर्ट ने माफी वाली बात को स्वीकार नहीं किया और एक सौ करोड़ रूपये का जुर्माना कर दिया. अपील के लिए जब हाई कोर्ट गए तब पता चला कि बीस करोड़ रूपये जमा करना पडेगा. ज़ाहिर है कि कोई भी मीडिया कंपनी इतनी बड़ी रक़म जमा नहीं करेगी . वैसे भी मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक जाना ही है तो पैसे जमा करने वाली बात बहुत समझ में नहीं आती. लेकिन यह सच्चाई है और इसका समाज के हर स्तर पर विवेचन किये जाने की ज़रुरत है . जहां तक अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल का प्रश्न है ,उसको पास तो इतना जमा करने के लिए रक़म होगी ही लेकिन अगर किसी छोटे अखबार या न्यूज़ चैनल के ऊपर गलती और उसकी बाद माफी मांगने के बाद यह सज़ा होगी तो मीडिया की स्वतंत्रता को ख़त्म होने से कोई नहीं रोक सकता .
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मीडिया को काबू,
शेष नारायण सिंह
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