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Wednesday, November 2, 2011

मुग़ल बच्चे और उनके मुगालते

शेष नारायण सिंह

मुंबई,३० अक्टूबर.अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने उर्दू की महान लेखिका , इस्मत चुगताई की कुछ कहानियों को थियेटर के माध्यम अमर करने का काम किया है. उन्होंने ' इस्मत आपा के नाम ' सीरीज में इस्मत चुगताई की तीन कहानियों का मंचन किया है. दिल्ली की सामाजिक संस्था, अनहद के एक कार्यक्रम में उनमें से एक का मंचन हुआ. दास्तानगोई की शैली में प्रस्तुत इस्मत चुगताई की कहानी ' मुग़ल बच्चा ' का मंचन मुगलिया सल्तनत के ढह रहे सामंती मूल्यों को बेनकाब करने के साथ साथ बीसवीं सदी की शुरुआत में उत्तर प्रदेश के ज़मींदारों की फर्जी शेखी को भी बहुत करीने से पेश किया गया है .
मुग़ल बच्चा का निर्देशन खुद नसीरुद्दीन शाह ने किया है और कलाकार हैं रत्ना पाठक शाह. रत्ना पाठक शाह ने ब्रिटिश दौर की उत्तर प्रदेश की मुस्लिम ज़मींदार बिरादरी की नंगई को बहुत ही शानदार अंदाज़ में पेश किया है . प्रस्तुति असाधारण है .इसके तीन कारण हैं . एक तो इस्मत चुगताई की कहानी की बहुत फ़ोर्स फुल है . उसके ऊपर नसीरुद्दीन शाह का निर्देशन और रत्ना पाठक शाह जैसी मंजी हुई अभिनेत्री का अभिनय. इस प्रस्तुति में रत्ना पाठक सूत्रधार भी हैं और कहानी के दो मुख्य पात्रों के संवाद भी वे ही boltee हैं. सूत्रधार और पात्रों के अभिनय के बीच कहीं कोई रोड़ा नहीं होता, कहानी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के जोड़ के वर्षों की है . उत्तर प्रदेश के किसी इलाके में मुगलों के तथाकथित वारिस बस गए थे. उनके ही किसी वंशज की शादी पड़ोस के किसी ज़मींदार खानदान की लडकी से कर दी गयी है .. निहायत ही गोरी लडकी से बहुत ही काले वारिस का निकाह हो गया है. इन्हीं गोरी बी और काले मियाँ की शादी और उसमें मौजूद विसंगतियों के हवाले से इस्मत चुगताई ने अपनी इस कहानी को लिखा था . रत्ना पाठक शाह जब कहानी को बयान कर रही होती हैं तो लगता है कि कहीं इसमत आपा ही तो नहीं अपनी कहानी सुना रही हैं. हर तरह के मजाक का नमूना बन चुकी सामंती व्यवस्था के वारिस, काले मियाँ जब अपनी बीबी को बताते हैं कि मुग़ल बच्चे मजाक के आदी नहीं होते तो लगता है कि इस से बड़ा विरोधाभास कहीं हो ही नहीं सकता. सामंती परिवेश में हर मान्यता के सड़ गल जाने के बाद जो कुछ बचा है वह पुराने वक्तों का रद्दी का ज़ भी नहीं लेकिन शेखी का आलम यह है कि काहींन भी मामूली समझौता करने के तैयार नहीं हैं .प्रस्तुति में वही शेखी पात्रों की मजबूरी बन कर सामने आई है.
नाटक में एक ही अंक था और जब रत्ना पाठक शाह ने काले मियाँ की मौत का ऐलान किया तो लगा कि हाय ,यह कहानी और देर तक नहीं चल सकती थी. कुल मिलाकर एक बेहतरीन साहित्यिक कहानी पर एक बहुत ही अच्छा नाटकीय प्रस्तुतीकरण