शेष नारायण सिंह
( इस लेख का संपादित संस्करण नवभारत टाइम्स में २-११-२०११ को छप चुका है )
अन्ना हजारे के साथियों ने दिल्ली से सटे महानगर गाज़ियाबाद में एक बैठक करके कहा है कि उनके संगठन में को समस्या नहीं है .जिस तरह से अब तक काम चलता रहा है,वैसे ही चलता रहेगा .गाज़ियाबाद की बैठक में सरकार पर आरोप भी लगाए गए कि वह अन्ना के साथियों को चुन चुन कर परेशान कर रही है .टीम अन्ना ने सरकार की नीयत पर सवाल उठाने के साथ साथ यह भी साफ़ कर दिया है कि सरकार के आरोपों की परवाह किये बिना उनका काम चलता रहेगा . किसी भी संगठन के लिए अपने आपको ,अपनी नीतियों को और अपने साथियों को सही ठहराना बिलकुल जायज़ काम है . उस से संगठन को मजबूती मिलती है. लेकिन जब किसी संगठन की सारी पूंजी ही उसकी ईमानदारी और पारदर्शिता हो तो उस संगठन को अपनी छवि को पाक साफ़ रखना बहुत ज़रूरी होता है . अन्ना की टीम के लिए भी यह ज़रूरी है कि वह अपने को अन्ना जैसा तो नहीं,उनसे थोडा कम ही सही लेकिन ईमानदार बनाए रखे .गाज़ियाबाद की बैठक के बाद अन्ना के साथियों ने अपने लोगों के खिलाफ हो रही चर्चाओं पर बात को स्पष्ट करने की बजाय उसको इग्नोर करने की कोशिश की. यह किसी राजनीतिक पार्टी या किसी अन्य संगठन के लिए तो सही रणनीति हो सकती है लेकिन जो संगठन समाज से भ्रष्टाचार ख़त्म करने की लड़ाई लड़ रहा हो के सबसे ज्यादा नुकसानदेह रोग से लड़ रहा हो उसे सीज़र की पत्नी की तरह शक़ के घेरे से बाहर होना चाहिए .
यहाँ यह समझ लेने की ज़रुरत है कि अन्ना के साथियों पर जो आरोप लगे हैं उनमें से कई भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आते हैं . यह कहकर कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है ,टीम अन्ना के लोग अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते. उन्हें तो यह साबित करना पडेगा कि आरोप गलत हैं और सरकार वाले उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं . देश को यह भी समझाना पड़ेगा कि सरकार बदले की भावना से काम कर रही है .जब तक आरोपों को ही गलत न साबित कर दिया जाए तब तक उनसे बचना संभव नहीं होगा. पिछले कुछ दिनों से अन्ना की टीम वालों के बारे में तरह तरह की बातें अखबारों में छप रही हैं . स्वामी अग्निवेश बहुत शुरू में मीडिया के हत्थे चढ़ गए थे , बाद में अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी भ्रष्ट आचरण की बहस की ज़द में आ गए. बाद में खबर आयी कि रामलीला मैदान में जो दान का धन इकठ्ठा हुआ था उसमें भी पारदर्शिता नहीं है . कुमार विश्वास नाम के एक सदस्य भी अपने कर्तव्य से विमुख हुए हैं . गाज़ियाबाद के किसी कालेज में पढ़ाते हैं जहां वे बहुत दिन से हाज़िर नहीं हुए. हालांकि कुमार विश्वास जी ने टीम अन्ना को बदल देने की बात करके बहस को एक नया आयाम देने की कोशिश कर दी है. इन विवादों में फंसे सभी लोगों ने अपने जवाब दे दिए हैं और उनको लगता है कि मामला ख़त्म हो गया . जो भी मामले मीडिया में चर्चा में हैं उनमें से अरविंद केजरीवाल वाले नौलखा मामले के अलावा किसी भी केस में सरकारी जांच नहीं हो रही है . ज़ाहिर है इन मुद्दों पर कोई फालो अप कार्रवाई नहीं होगी. लेकिन इन मुद्दों से यह तो साफ़ हो ही जाता है कि अन्ना के साथ लगे हुए लोग बहुत पाक साफ़ नहीं हैं . उन्होंने भी वे गलतियाँ की हैं जो साधारण लोग कर बैठते हैं .
अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से देश के मध्य वर्ग में बहुत ही ज्यादा उत्साह जगा था और लगने लगा था कि भ्रष्टाचार पर आम आदमी की नज़र है , वह ऊब चुका है और अब निर्णायक प्रहार की मुद्रा में है . आम आदमी जब तक मैदान नहीं लेता , न तो उसका भविष्य बदलता है और न ही उसके देश या राष्ट्र का कल्याण होता है .१८५७ में इस देश के आम आदमी ने अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ लड़ने के मन बनाया था. उस लड़ाई में सभी तो नहीं शामिल हुए थे लेकिन मानसिक रूप से देश की अवाम अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए तैयार थी. सही लीडरशिप नहीं थी इसलिए उस दौर के आम आदमी का आज़ाद होने का सपना बिखर गया. दोबारा यह मौक़ा तुरंत नहीं आया. साठ साल के इंतज़ार के बाद यह मौक़ा फिर मिला जब अंग्रेजों का अत्याचार सभी सीमाएं लांघ चुका था .जलियाँवाला बाग़ में हुए अंग्रेज़ी सत्ता के बेशर्म प्रदर्शन के बाद पूरे देश में सत्ता के खिलाफ गुस्सा था. ठीक इसी वक़्त महात्मा गाँधी ने आम आदमी के गुस्से को एक दिशा दे दी.आम आदमी का वही गुस्सा बाद में आज़ादी की लड़ाई की शक्ल अख्तियार करने में कामयाब हुआ . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले २५ साल के संघर्ष के बार अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने हार मान ली और देश आज़ाद हो गया . उस राजनीतिक घटना के साठ साल बाद आज फिर इस देश का आम आदमी आर्थिक भ्रष्टाचार के आतंक के नीचे दब गया है . वह आर्थिक भ्रष्टाचार के निरंकुश तंत्र से आज़ादी चाहता है . आज देश में भ्रष्टाचार का आतंक ऐसा है कि चारों तरफ त्राहि त्राहि मची हुई है , देश के गाँवों में और शहरों के गली कूचों में लोग भ्रष्टाचार की गर्मी में झुलस रहे हैं . शायद इसीलिए जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे ने आवाज़ बुलंद की तो पूरे देश में लोग उनकी हाँ में हां मिला बैठे. सूचना क्रान्ति के चलते पूरे देश में अन्ना की मुहिम का सन्देश पंहुच गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मसीहा मिल गया था . लगभग पूरा मध्यवर्ग अन्ना के साथ था . भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में केंद्र की कांग्रेस की सरकार को घेर कर जनमत की ताक़त हमले बोल रही थी . लेकिन इसी बीच अन्ना हजारे के आन्दोलन की परतें खुलना शुरू हो गईं .अब यह शंका पैदा होने लगी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शायद अब आगे नहीं चल पायेगी.
अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अप्रैल से अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले आठ महीने में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो नमें जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है
Friday, November 4, 2011
चीन की सीमा पर तैनात होंगें एक लाख सैनिक
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २ नवम्बर .देशी विदेशी मीडिया में चीन के भारत विरोधी रुख और पाकिस्तान से नई दोस्ती की कहानियां रोज़ ही नज़र आ रही हैं .हालांकि भारत की तरफ से बार बार यही कहा जा रहा है कि इन खबरों को भारत गंभीरता से नहीं लेता लेकिन भारतीय सेना की ताज़ी तैयारियों से लगता है कि भारत चीन की किसी भी पैंतरेबाजी को पूरी गंभीरता से लेता है और अगर ज़रूरत पड़ी तो भारतीय सेना चीन को सैनिक भाषा के व्याकरण में भी समझाने के लिए तैयार है . संकेत मिल रहे हैं कि अगले पांच वर्षों में भारत चीन की सीमा के साथ अपने इलाकों में करीब एक लाख सैनिक तैनात कर देगा.
बताया जाता है कि सीमा पर बड़ी सैनिक उपस्थिति का भारतीय सेना का यह प्रस्ताव अब रक्षा मंत्रालय के पास है . इमकान है कि इसे जल्दी ही कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेज दिया जाये़या .चीन से १९६२ की लड़ाई के बाद चीन और भारत की सीमा पर इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती कभी नहीं हुई है .चीन के नए हुक्मरान पाकिस्तान से चीन की बढ़ रही दोस्ती के मद्दे नज़र भारत को अर्दब में लेने के चक्कर में भी बताये जाते हैं . लेकिन भारतीय कूटनीतिक बिरादरी इस बात को कोई महत्व नहीं देती. माना जाता है कि पाकिस्तान में अपनी सैनिक मौजूदगी को मुकम्मल करने के लिए चीन कभी कभी भारत विरोधी राग ज़रूर अलाप देता है लेकिन यह बात बिलकुल पक्की है कि पाकिस्तान को खुश करने के लिए चीन भारत जैसे परमाणु शक्ति संपन्न देश से फौजी पंगा नहीं लेगा.अगर पाकिस्तानी यह सोचते हैं तो वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं .१९६५ में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खां यह गलती कर चुके हैं . उनको भरोसा था कि १९६५ में जब वे भारत पर हमला करेगें तो हिमालय के उस पार से चीन भी भारत पर हमला बोल देगा. इसी मुगालते में उन्होंने १९६५ की लड़ाई की शुरुआत की थी.लेकिन जब चीन से सांस भी नहीं ली तो बेचारे सन्न रह गए और उनकी फौज को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा.
इस नुकसान के बाद अयूब खां की गद्दी छिन गयी थी .उस के बाद बहुत दिनों तक पाकिस्तानी हुक्मरान चीन से बच कर रहते थे लेकिन मुशर्रफ के राज में फिर चीन से दोस्ती की पींग बढ़ने लगी . अब तो चीन बाकायदा पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में अपने फौजी ठिकाने बना रहा है . पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में भी चीन की खासी दखल है . इन सब बातों को ध्यान में रखकर भारतीय रक्षा मंत्रालय ने ६४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करके सेना के आधुनिकीकरण का प्रोजेक्ट तैयार किया है .
अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक हलकों को विश्वास है कि चीन भारत से खुद कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहता क्योंकि इससे उसके वे सपने पूरे नहीं हो सकेगें जिसके अनुसार चीन दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़त बनने के फ़िराक़ में है .लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह पाकिस्तान को भारत के साथ युद्ध में फंसा सकता है . ज़ाहिर है इस तरह की छुपी चालों का न तो पता लगाया जा सकता है और न ही इनकी कोई काट पैदा की जा सकती है . शायद इसीलिये केंद्र सरकार की तरफ से भारतीय सेना को चीन की सीमा पर अपनी रक्षापंक्ति को मज़बूत करने का निर्देश दे दिया गया है .
नई दिल्ली, २ नवम्बर .देशी विदेशी मीडिया में चीन के भारत विरोधी रुख और पाकिस्तान से नई दोस्ती की कहानियां रोज़ ही नज़र आ रही हैं .हालांकि भारत की तरफ से बार बार यही कहा जा रहा है कि इन खबरों को भारत गंभीरता से नहीं लेता लेकिन भारतीय सेना की ताज़ी तैयारियों से लगता है कि भारत चीन की किसी भी पैंतरेबाजी को पूरी गंभीरता से लेता है और अगर ज़रूरत पड़ी तो भारतीय सेना चीन को सैनिक भाषा के व्याकरण में भी समझाने के लिए तैयार है . संकेत मिल रहे हैं कि अगले पांच वर्षों में भारत चीन की सीमा के साथ अपने इलाकों में करीब एक लाख सैनिक तैनात कर देगा.
बताया जाता है कि सीमा पर बड़ी सैनिक उपस्थिति का भारतीय सेना का यह प्रस्ताव अब रक्षा मंत्रालय के पास है . इमकान है कि इसे जल्दी ही कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेज दिया जाये़या .चीन से १९६२ की लड़ाई के बाद चीन और भारत की सीमा पर इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों की तैनाती कभी नहीं हुई है .चीन के नए हुक्मरान पाकिस्तान से चीन की बढ़ रही दोस्ती के मद्दे नज़र भारत को अर्दब में लेने के चक्कर में भी बताये जाते हैं . लेकिन भारतीय कूटनीतिक बिरादरी इस बात को कोई महत्व नहीं देती. माना जाता है कि पाकिस्तान में अपनी सैनिक मौजूदगी को मुकम्मल करने के लिए चीन कभी कभी भारत विरोधी राग ज़रूर अलाप देता है लेकिन यह बात बिलकुल पक्की है कि पाकिस्तान को खुश करने के लिए चीन भारत जैसे परमाणु शक्ति संपन्न देश से फौजी पंगा नहीं लेगा.अगर पाकिस्तानी यह सोचते हैं तो वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं .१९६५ में पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खां यह गलती कर चुके हैं . उनको भरोसा था कि १९६५ में जब वे भारत पर हमला करेगें तो हिमालय के उस पार से चीन भी भारत पर हमला बोल देगा. इसी मुगालते में उन्होंने १९६५ की लड़ाई की शुरुआत की थी.लेकिन जब चीन से सांस भी नहीं ली तो बेचारे सन्न रह गए और उनकी फौज को भारतीय सेना ने दौड़ा दौड़ा कर पीटा.
इस नुकसान के बाद अयूब खां की गद्दी छिन गयी थी .उस के बाद बहुत दिनों तक पाकिस्तानी हुक्मरान चीन से बच कर रहते थे लेकिन मुशर्रफ के राज में फिर चीन से दोस्ती की पींग बढ़ने लगी . अब तो चीन बाकायदा पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में अपने फौजी ठिकाने बना रहा है . पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में भी चीन की खासी दखल है . इन सब बातों को ध्यान में रखकर भारतीय रक्षा मंत्रालय ने ६४ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करके सेना के आधुनिकीकरण का प्रोजेक्ट तैयार किया है .
अंतर राष्ट्रीय कूटनीतिक हलकों को विश्वास है कि चीन भारत से खुद कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहता क्योंकि इससे उसके वे सपने पूरे नहीं हो सकेगें जिसके अनुसार चीन दुनिया की बड़ी आर्थिक ताक़त बनने के फ़िराक़ में है .लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह पाकिस्तान को भारत के साथ युद्ध में फंसा सकता है . ज़ाहिर है इस तरह की छुपी चालों का न तो पता लगाया जा सकता है और न ही इनकी कोई काट पैदा की जा सकती है . शायद इसीलिये केंद्र सरकार की तरफ से भारतीय सेना को चीन की सीमा पर अपनी रक्षापंक्ति को मज़बूत करने का निर्देश दे दिया गया है .
Wednesday, November 2, 2011
अन्ना हजारे के एक पुराने साथी को गुस्सा क्यों आता है
शेष नारायण सिंह
मुंबई,३१ अक्टूबर.भ्रष्टाचार के खिलाफ करीब तीस वर्षों से अभियान चला रहे अन्ना हजारे दुविधा में हैं . उनके मौन व्रत से उनको बहुत सारे मुश्किल सवालों से तो छुट्टी मिल गयी है लेकिन अपने करीबी साथियों के आचरण को लेकर उनके आन्दोलन और उनकी शख्सियत को मिल रही कमजोरी से उनके पुराने साथी परेशान हैं. करीब तीस साल से अन्ना हजारे के साथी रहे नामी अर्थशास्त्री, एच एम देसरदा का कहना है कि दिल्ली में सामाजिक कार्य का काम करने वालों पर भरोसा करके अन्ना हजारे और उनके मिशन को भारी नुकसान हुआ है और विवादों के चलते लोकपाल बिल का मुद्दा कमज़ोर पड़ा है .
पिछले तीस साल से अन्ना हजारे की आन्दोलनों के थिंक टैंक का हिस्सा रहे अर्थशास्त्री ,एच एम देसरदा बताते हैं कि जब अन्ना हजारे ने इस साल अप्रैल में जंतर मंतर पर अनशन शुरू किया था, उसके अगले दिन ही उन्होंने दिल्ली जाकर अन्ना को समझाया था कि दिल्ली में सामाजिक सेवा का काम करने वालों से बच कर रहें .उन्होंने उनको लगभग चेतावनी दे दी थी कि इन लोगों के चक्कर में आने पर अन्ना हजारे के सामने मुसीबत पैदा हो सकती है ..लेकिन अन्ना हजारे ने एक नहीं सुनी. नतीजा सामने है. देसरदा का कहना है कि अगर अन्ना ने उनकी बात सुनी होती तो आज उनको शर्माना न पड़ता. अनशन के स्थगित होने के बाद अन्ना लोकपाल बिल और उस से जुड़े मुद्दों पर कोई बात नहीं कर पा रहे हैं . उनका सारा समय और ऊर्जा किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण पर लगे आरोपों का जवाब देने में बीत रहा है .बेदी के ऊपर यात्रा बिल में हेराफेरी का आरोप है. तो अरविंद केजरीवाल पर चंदे के गलत हिसाब और नौकरी के वक़्त किये गए कानून के उल्लंघन का आरोप है . प्रशांत भूषण तो और भी आगे बढ़ गए हैं . जो कश्मीर मूदा १९४७ में सरदार पटेल ने हल कर दिया था, प्रशांत भूषण उसी मुद्दे के नाम पर ख़बरों में बने रहने की साज़िश में शामिल पाए गए हैं . स्वामी अग्निवेश नाम के सामजिक कार्यकर्ता के ऊपर सरकार के लिए जासूसी करने का आरोप पहले ही लग चुका है . शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण के ऊपर पैसा दिलवाकर मुक़दमों में फैसले करवाने का मामला चल ही रहा है . कुमार विश्वास नाम के एक मास्टर जी हैं , वे भी कालेज में पढ़ाने की अपनी बुनियादी ड्यूटी को भूल कर अन्ना के नाम पर चारों तरफ घूमते पाए जा रहे हैं .. देसरदा का कहना है कि अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है .अन्ना हजारे को चाहिए कि अपनी रणनीति पर फिर से विचार करें और अपने अभियान को सही दिशा देने के लिए दिल्ली में सामाजिक काम का धंधा करने वालों से अपने आपको बचाएं .
देसरदा १९८२ से ही अन्ना हजारे के कागज़ात तैयार करते रहे हैं ,उनके लिए रणनीतियाँ बनाते रहे हैं.और उनकी अब तक की सफलताओं में कुछ अन्य निः स्वार्थ लोगों के साथ शामिल रहे हैं . अप्रैल में जब अन्ना हजारे के साथ बहुत देर तक चली उनकी बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला तो उन्होंने अन्ना हजारे को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अन्ना अपनी टीम के हाथों नज़रबंद थे,इस टीम की मर्जी के बिना वे अपने पुराने साथियों से भी नहीं मिल सकते थे .उन्हें इस बात पर भी एतराज़ था कि अन्ना के नए साथी कई मामलों में अन्ना को बताये बिना भी फैसले ले लेते थे. अन्ना हजारे से ने संकेत दिया था कि मौन व्रत के ख़त्म होने के बाद वे टीम के बारे में फिर से विचार करेगें . लेकिन एच एम देसरदा को अफ़सोस है कि टीम ने उनके मौनव्रत के बावजूद भी अपनी खामियों की बचत के प्रोजेक्ट में अन्ना हजारे को इस्तेमाल कर लिया.
मुंबई,३१ अक्टूबर.भ्रष्टाचार के खिलाफ करीब तीस वर्षों से अभियान चला रहे अन्ना हजारे दुविधा में हैं . उनके मौन व्रत से उनको बहुत सारे मुश्किल सवालों से तो छुट्टी मिल गयी है लेकिन अपने करीबी साथियों के आचरण को लेकर उनके आन्दोलन और उनकी शख्सियत को मिल रही कमजोरी से उनके पुराने साथी परेशान हैं. करीब तीस साल से अन्ना हजारे के साथी रहे नामी अर्थशास्त्री, एच एम देसरदा का कहना है कि दिल्ली में सामाजिक कार्य का काम करने वालों पर भरोसा करके अन्ना हजारे और उनके मिशन को भारी नुकसान हुआ है और विवादों के चलते लोकपाल बिल का मुद्दा कमज़ोर पड़ा है .
पिछले तीस साल से अन्ना हजारे की आन्दोलनों के थिंक टैंक का हिस्सा रहे अर्थशास्त्री ,एच एम देसरदा बताते हैं कि जब अन्ना हजारे ने इस साल अप्रैल में जंतर मंतर पर अनशन शुरू किया था, उसके अगले दिन ही उन्होंने दिल्ली जाकर अन्ना को समझाया था कि दिल्ली में सामाजिक सेवा का काम करने वालों से बच कर रहें .उन्होंने उनको लगभग चेतावनी दे दी थी कि इन लोगों के चक्कर में आने पर अन्ना हजारे के सामने मुसीबत पैदा हो सकती है ..लेकिन अन्ना हजारे ने एक नहीं सुनी. नतीजा सामने है. देसरदा का कहना है कि अगर अन्ना ने उनकी बात सुनी होती तो आज उनको शर्माना न पड़ता. अनशन के स्थगित होने के बाद अन्ना लोकपाल बिल और उस से जुड़े मुद्दों पर कोई बात नहीं कर पा रहे हैं . उनका सारा समय और ऊर्जा किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण पर लगे आरोपों का जवाब देने में बीत रहा है .बेदी के ऊपर यात्रा बिल में हेराफेरी का आरोप है. तो अरविंद केजरीवाल पर चंदे के गलत हिसाब और नौकरी के वक़्त किये गए कानून के उल्लंघन का आरोप है . प्रशांत भूषण तो और भी आगे बढ़ गए हैं . जो कश्मीर मूदा १९४७ में सरदार पटेल ने हल कर दिया था, प्रशांत भूषण उसी मुद्दे के नाम पर ख़बरों में बने रहने की साज़िश में शामिल पाए गए हैं . स्वामी अग्निवेश नाम के सामजिक कार्यकर्ता के ऊपर सरकार के लिए जासूसी करने का आरोप पहले ही लग चुका है . शान्ति भूषण और प्रशांत भूषण के ऊपर पैसा दिलवाकर मुक़दमों में फैसले करवाने का मामला चल ही रहा है . कुमार विश्वास नाम के एक मास्टर जी हैं , वे भी कालेज में पढ़ाने की अपनी बुनियादी ड्यूटी को भूल कर अन्ना के नाम पर चारों तरफ घूमते पाए जा रहे हैं .. देसरदा का कहना है कि अभी भी सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है .अन्ना हजारे को चाहिए कि अपनी रणनीति पर फिर से विचार करें और अपने अभियान को सही दिशा देने के लिए दिल्ली में सामाजिक काम का धंधा करने वालों से अपने आपको बचाएं .
देसरदा १९८२ से ही अन्ना हजारे के कागज़ात तैयार करते रहे हैं ,उनके लिए रणनीतियाँ बनाते रहे हैं.और उनकी अब तक की सफलताओं में कुछ अन्य निः स्वार्थ लोगों के साथ शामिल रहे हैं . अप्रैल में जब अन्ना हजारे के साथ बहुत देर तक चली उनकी बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला तो उन्होंने अन्ना हजारे को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अन्ना अपनी टीम के हाथों नज़रबंद थे,इस टीम की मर्जी के बिना वे अपने पुराने साथियों से भी नहीं मिल सकते थे .उन्हें इस बात पर भी एतराज़ था कि अन्ना के नए साथी कई मामलों में अन्ना को बताये बिना भी फैसले ले लेते थे. अन्ना हजारे से ने संकेत दिया था कि मौन व्रत के ख़त्म होने के बाद वे टीम के बारे में फिर से विचार करेगें . लेकिन एच एम देसरदा को अफ़सोस है कि टीम ने उनके मौनव्रत के बावजूद भी अपनी खामियों की बचत के प्रोजेक्ट में अन्ना हजारे को इस्तेमाल कर लिया.
मुग़ल बच्चे और उनके मुगालते
शेष नारायण सिंह
मुंबई,३० अक्टूबर.अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने उर्दू की महान लेखिका , इस्मत चुगताई की कुछ कहानियों को थियेटर के माध्यम अमर करने का काम किया है. उन्होंने ' इस्मत आपा के नाम ' सीरीज में इस्मत चुगताई की तीन कहानियों का मंचन किया है. दिल्ली की सामाजिक संस्था, अनहद के एक कार्यक्रम में उनमें से एक का मंचन हुआ. दास्तानगोई की शैली में प्रस्तुत इस्मत चुगताई की कहानी ' मुग़ल बच्चा ' का मंचन मुगलिया सल्तनत के ढह रहे सामंती मूल्यों को बेनकाब करने के साथ साथ बीसवीं सदी की शुरुआत में उत्तर प्रदेश के ज़मींदारों की फर्जी शेखी को भी बहुत करीने से पेश किया गया है .
मुग़ल बच्चा का निर्देशन खुद नसीरुद्दीन शाह ने किया है और कलाकार हैं रत्ना पाठक शाह. रत्ना पाठक शाह ने ब्रिटिश दौर की उत्तर प्रदेश की मुस्लिम ज़मींदार बिरादरी की नंगई को बहुत ही शानदार अंदाज़ में पेश किया है . प्रस्तुति असाधारण है .इसके तीन कारण हैं . एक तो इस्मत चुगताई की कहानी की बहुत फ़ोर्स फुल है . उसके ऊपर नसीरुद्दीन शाह का निर्देशन और रत्ना पाठक शाह जैसी मंजी हुई अभिनेत्री का अभिनय. इस प्रस्तुति में रत्ना पाठक सूत्रधार भी हैं और कहानी के दो मुख्य पात्रों के संवाद भी वे ही boltee हैं. सूत्रधार और पात्रों के अभिनय के बीच कहीं कोई रोड़ा नहीं होता, कहानी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के जोड़ के वर्षों की है . उत्तर प्रदेश के किसी इलाके में मुगलों के तथाकथित वारिस बस गए थे. उनके ही किसी वंशज की शादी पड़ोस के किसी ज़मींदार खानदान की लडकी से कर दी गयी है .. निहायत ही गोरी लडकी से बहुत ही काले वारिस का निकाह हो गया है. इन्हीं गोरी बी और काले मियाँ की शादी और उसमें मौजूद विसंगतियों के हवाले से इस्मत चुगताई ने अपनी इस कहानी को लिखा था . रत्ना पाठक शाह जब कहानी को बयान कर रही होती हैं तो लगता है कि कहीं इसमत आपा ही तो नहीं अपनी कहानी सुना रही हैं. हर तरह के मजाक का नमूना बन चुकी सामंती व्यवस्था के वारिस, काले मियाँ जब अपनी बीबी को बताते हैं कि मुग़ल बच्चे मजाक के आदी नहीं होते तो लगता है कि इस से बड़ा विरोधाभास कहीं हो ही नहीं सकता. सामंती परिवेश में हर मान्यता के सड़ गल जाने के बाद जो कुछ बचा है वह पुराने वक्तों का रद्दी का ज़ भी नहीं लेकिन शेखी का आलम यह है कि काहींन भी मामूली समझौता करने के तैयार नहीं हैं .प्रस्तुति में वही शेखी पात्रों की मजबूरी बन कर सामने आई है.
नाटक में एक ही अंक था और जब रत्ना पाठक शाह ने काले मियाँ की मौत का ऐलान किया तो लगा कि हाय ,यह कहानी और देर तक नहीं चल सकती थी. कुल मिलाकर एक बेहतरीन साहित्यिक कहानी पर एक बहुत ही अच्छा नाटकीय प्रस्तुतीकरण
मुंबई,३० अक्टूबर.अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने उर्दू की महान लेखिका , इस्मत चुगताई की कुछ कहानियों को थियेटर के माध्यम अमर करने का काम किया है. उन्होंने ' इस्मत आपा के नाम ' सीरीज में इस्मत चुगताई की तीन कहानियों का मंचन किया है. दिल्ली की सामाजिक संस्था, अनहद के एक कार्यक्रम में उनमें से एक का मंचन हुआ. दास्तानगोई की शैली में प्रस्तुत इस्मत चुगताई की कहानी ' मुग़ल बच्चा ' का मंचन मुगलिया सल्तनत के ढह रहे सामंती मूल्यों को बेनकाब करने के साथ साथ बीसवीं सदी की शुरुआत में उत्तर प्रदेश के ज़मींदारों की फर्जी शेखी को भी बहुत करीने से पेश किया गया है .
मुग़ल बच्चा का निर्देशन खुद नसीरुद्दीन शाह ने किया है और कलाकार हैं रत्ना पाठक शाह. रत्ना पाठक शाह ने ब्रिटिश दौर की उत्तर प्रदेश की मुस्लिम ज़मींदार बिरादरी की नंगई को बहुत ही शानदार अंदाज़ में पेश किया है . प्रस्तुति असाधारण है .इसके तीन कारण हैं . एक तो इस्मत चुगताई की कहानी की बहुत फ़ोर्स फुल है . उसके ऊपर नसीरुद्दीन शाह का निर्देशन और रत्ना पाठक शाह जैसी मंजी हुई अभिनेत्री का अभिनय. इस प्रस्तुति में रत्ना पाठक सूत्रधार भी हैं और कहानी के दो मुख्य पात्रों के संवाद भी वे ही boltee हैं. सूत्रधार और पात्रों के अभिनय के बीच कहीं कोई रोड़ा नहीं होता, कहानी उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के जोड़ के वर्षों की है . उत्तर प्रदेश के किसी इलाके में मुगलों के तथाकथित वारिस बस गए थे. उनके ही किसी वंशज की शादी पड़ोस के किसी ज़मींदार खानदान की लडकी से कर दी गयी है .. निहायत ही गोरी लडकी से बहुत ही काले वारिस का निकाह हो गया है. इन्हीं गोरी बी और काले मियाँ की शादी और उसमें मौजूद विसंगतियों के हवाले से इस्मत चुगताई ने अपनी इस कहानी को लिखा था . रत्ना पाठक शाह जब कहानी को बयान कर रही होती हैं तो लगता है कि कहीं इसमत आपा ही तो नहीं अपनी कहानी सुना रही हैं. हर तरह के मजाक का नमूना बन चुकी सामंती व्यवस्था के वारिस, काले मियाँ जब अपनी बीबी को बताते हैं कि मुग़ल बच्चे मजाक के आदी नहीं होते तो लगता है कि इस से बड़ा विरोधाभास कहीं हो ही नहीं सकता. सामंती परिवेश में हर मान्यता के सड़ गल जाने के बाद जो कुछ बचा है वह पुराने वक्तों का रद्दी का ज़ भी नहीं लेकिन शेखी का आलम यह है कि काहींन भी मामूली समझौता करने के तैयार नहीं हैं .प्रस्तुति में वही शेखी पात्रों की मजबूरी बन कर सामने आई है.
नाटक में एक ही अंक था और जब रत्ना पाठक शाह ने काले मियाँ की मौत का ऐलान किया तो लगा कि हाय ,यह कहानी और देर तक नहीं चल सकती थी. कुल मिलाकर एक बेहतरीन साहित्यिक कहानी पर एक बहुत ही अच्छा नाटकीय प्रस्तुतीकरण
माफी मांगने के बाद सज़ा होगी तो मीडिया की स्वतंत्रता को ख़त्म होने से कोई नहीं रोक सकता .
शेष नारायण सिंह
मीडिया को भी संभल कर रहने का सन्देश बहुत ही साफ़ ज़बान में मिलना शुरू हो गया है .देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार से जुड़े हुए अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल ने पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसे मामलों से पर्दा उठाया है कि कुछ नेताओं के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा हो गयी है . सुरेश कलमाड़ी के कारनामों के बारे में लगभग हर शुरुआती जानकारी इसी चैनल से आई. हालांकि कलमाडी साहेब मुगालते में रहे लेकिन आखिर में घिर गए और आजकल जेल की हवा खा रहे हैं . ज़ाहिर है कि उनके दिमाग में इस चैनल को लेकर बहुत गुस्सा है . बताते हैं कि एक बार उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि इस चैनल को वे कभी माफ़ नहीं करेगें और इसको तबाह कर देगें.उनकी इस बात को एक परेशान आदमी का गुबार मान कर मीडिया बिरादरी ने इग्नोर कर दिया था लेकिन अब बात साफ़ होने लगी है . देश के कई शहरों में कलमाडी के लोगों ने इस इस चैनल और इसके संपादक पर मानहानि का मुक़दमा कर दिया है .कई मामले तो पुणे शहर में ही दाखिल कर दिए गए हैं. सुरेश कलमाड़ी मूल रूप से पुणे के ही रहने वाले हैं . पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वालों को यह मालूम रहता है कि अगर गलती हुई तो मानहानि के मुक़दमे दायर होंगें. इसीलिये हर ईमानदार पत्रकार कोशिश करता है कि गलती न हो और अगर गलती हो जाए तो फ़ौरन माफी मांग ली जाए. देश के लगभग सभी बड़े मीडिया संस्थाओं से गलती हो चुकी है . और जब गलती के लिए माफी मांग ली जाती है तो आमतौर पर पीड़ित पक्ष मुक़दमे नहीं दायर करता है . अगर किसी ने मुक़दमा दायर कर भी दिया तो दो बातें होती हैं. या तो अदालत मीडिया संस्थान की माफी को स्वीकार कर लेती है और फैसला कर देती है.अगर गलत सूचना के तुरंत बाद माफी नहीं माँगी गयी है तो कोर्ट का फैसला आ जाता है कि जिस प्रमुखता से खबर को प्रकाशित और प्रचारित किया गया था, उसी प्रमुखता से गलत खबर के लिए माफी माँगी जाए.लेकिन अगर मीडिया हाउस ऐसा नहीं करता तो उसके ऊपर जुर्माना होता है .
हालांकि इस मामले का कलमाडी से कोई लेना देना नहीं है लेकिन देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार से जुड़े हुए चैनल के मामले में ऐसा नहीं हुआ. बार बार माफी मांगने के बाद भी उनके ऊपर ट्रायल कोर्ट ने एक सौ करोड़ रूपये का जुर्माना ठोंक दिया .चैनल वालों ने जब हाई कोर्ट में अपील की पेशकश की तो माननीय हाई कोर्ट ने कहा कि आप बीस करोड़ रूपया जमा कर दीजिये और अस्सी करोड़ रूपये के लिए गारंटी दे दीजिये तब अपील ली जायेगी. अब लोग सुप्रीम कोर्ट गए हैं . गुहार यह है कि अगर निचली अदालत के फैसले में किये गए जुर्माने को जमा करके ही अपील होनी है तह तो न्याय के मार्ग में बाधा पड़ सकती है .इस मामले में जब चैनल के अधिकारियों से बात की गयी तो उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया . कहा कि मामला अदालत के अधीन है ,इसलिए वे कोई बात नहीं करेगें.
हालांकि यह केस बहुत ही दिलचस्प है २००८ में किसी खबर के सन्दर्भ में सुप्रीम के कोर्ट के एक रिटायर्ड जज साहब की गलत तस्वीर लग गयी थी. यह तस्वीर १०-१५ सेकण्ड आन एयर रही. गलती का एहसास तुरंत ही हो गया था. चैनल वालों ने माफी मांगना शुरू कर दिया और तीन चार दिन तक माफी मांगते रहे .लेकिन फिर भी मुक़दमा हो गया. ट्रायल कोर्ट ने माफी वाली बात को स्वीकार नहीं किया और एक सौ करोड़ रूपये का जुर्माना कर दिया. अपील के लिए जब हाई कोर्ट गए तब पता चला कि बीस करोड़ रूपये जमा करना पडेगा. ज़ाहिर है कि कोई भी मीडिया कंपनी इतनी बड़ी रक़म जमा नहीं करेगी . वैसे भी मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक जाना ही है तो पैसे जमा करने वाली बात बहुत समझ में नहीं आती. लेकिन यह सच्चाई है और इसका समाज के हर स्तर पर विवेचन किये जाने की ज़रुरत है . जहां तक अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल का प्रश्न है ,उसको पास तो इतना जमा करने के लिए रक़म होगी ही लेकिन अगर किसी छोटे अखबार या न्यूज़ चैनल के ऊपर गलती और उसकी बाद माफी मांगने के बाद यह सज़ा होगी तो मीडिया की स्वतंत्रता को ख़त्म होने से कोई नहीं रोक सकता .
मीडिया को भी संभल कर रहने का सन्देश बहुत ही साफ़ ज़बान में मिलना शुरू हो गया है .देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार से जुड़े हुए अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल ने पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसे मामलों से पर्दा उठाया है कि कुछ नेताओं के लिए बहुत ही मुश्किल पैदा हो गयी है . सुरेश कलमाड़ी के कारनामों के बारे में लगभग हर शुरुआती जानकारी इसी चैनल से आई. हालांकि कलमाडी साहेब मुगालते में रहे लेकिन आखिर में घिर गए और आजकल जेल की हवा खा रहे हैं . ज़ाहिर है कि उनके दिमाग में इस चैनल को लेकर बहुत गुस्सा है . बताते हैं कि एक बार उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि इस चैनल को वे कभी माफ़ नहीं करेगें और इसको तबाह कर देगें.उनकी इस बात को एक परेशान आदमी का गुबार मान कर मीडिया बिरादरी ने इग्नोर कर दिया था लेकिन अब बात साफ़ होने लगी है . देश के कई शहरों में कलमाडी के लोगों ने इस इस चैनल और इसके संपादक पर मानहानि का मुक़दमा कर दिया है .कई मामले तो पुणे शहर में ही दाखिल कर दिए गए हैं. सुरेश कलमाड़ी मूल रूप से पुणे के ही रहने वाले हैं . पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वालों को यह मालूम रहता है कि अगर गलती हुई तो मानहानि के मुक़दमे दायर होंगें. इसीलिये हर ईमानदार पत्रकार कोशिश करता है कि गलती न हो और अगर गलती हो जाए तो फ़ौरन माफी मांग ली जाए. देश के लगभग सभी बड़े मीडिया संस्थाओं से गलती हो चुकी है . और जब गलती के लिए माफी मांग ली जाती है तो आमतौर पर पीड़ित पक्ष मुक़दमे नहीं दायर करता है . अगर किसी ने मुक़दमा दायर कर भी दिया तो दो बातें होती हैं. या तो अदालत मीडिया संस्थान की माफी को स्वीकार कर लेती है और फैसला कर देती है.अगर गलत सूचना के तुरंत बाद माफी नहीं माँगी गयी है तो कोर्ट का फैसला आ जाता है कि जिस प्रमुखता से खबर को प्रकाशित और प्रचारित किया गया था, उसी प्रमुखता से गलत खबर के लिए माफी माँगी जाए.लेकिन अगर मीडिया हाउस ऐसा नहीं करता तो उसके ऊपर जुर्माना होता है .
हालांकि इस मामले का कलमाडी से कोई लेना देना नहीं है लेकिन देश के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार से जुड़े हुए चैनल के मामले में ऐसा नहीं हुआ. बार बार माफी मांगने के बाद भी उनके ऊपर ट्रायल कोर्ट ने एक सौ करोड़ रूपये का जुर्माना ठोंक दिया .चैनल वालों ने जब हाई कोर्ट में अपील की पेशकश की तो माननीय हाई कोर्ट ने कहा कि आप बीस करोड़ रूपया जमा कर दीजिये और अस्सी करोड़ रूपये के लिए गारंटी दे दीजिये तब अपील ली जायेगी. अब लोग सुप्रीम कोर्ट गए हैं . गुहार यह है कि अगर निचली अदालत के फैसले में किये गए जुर्माने को जमा करके ही अपील होनी है तह तो न्याय के मार्ग में बाधा पड़ सकती है .इस मामले में जब चैनल के अधिकारियों से बात की गयी तो उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया . कहा कि मामला अदालत के अधीन है ,इसलिए वे कोई बात नहीं करेगें.
हालांकि यह केस बहुत ही दिलचस्प है २००८ में किसी खबर के सन्दर्भ में सुप्रीम के कोर्ट के एक रिटायर्ड जज साहब की गलत तस्वीर लग गयी थी. यह तस्वीर १०-१५ सेकण्ड आन एयर रही. गलती का एहसास तुरंत ही हो गया था. चैनल वालों ने माफी मांगना शुरू कर दिया और तीन चार दिन तक माफी मांगते रहे .लेकिन फिर भी मुक़दमा हो गया. ट्रायल कोर्ट ने माफी वाली बात को स्वीकार नहीं किया और एक सौ करोड़ रूपये का जुर्माना कर दिया. अपील के लिए जब हाई कोर्ट गए तब पता चला कि बीस करोड़ रूपये जमा करना पडेगा. ज़ाहिर है कि कोई भी मीडिया कंपनी इतनी बड़ी रक़म जमा नहीं करेगी . वैसे भी मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक जाना ही है तो पैसे जमा करने वाली बात बहुत समझ में नहीं आती. लेकिन यह सच्चाई है और इसका समाज के हर स्तर पर विवेचन किये जाने की ज़रुरत है . जहां तक अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल का प्रश्न है ,उसको पास तो इतना जमा करने के लिए रक़म होगी ही लेकिन अगर किसी छोटे अखबार या न्यूज़ चैनल के ऊपर गलती और उसकी बाद माफी मांगने के बाद यह सज़ा होगी तो मीडिया की स्वतंत्रता को ख़त्म होने से कोई नहीं रोक सकता .
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Monday, October 31, 2011
राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती सरदार पटेल की विरासत है
शेष नारायण सिंह
तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता.३१ अक्टूबर और १५ दिसंबर के दिन सरकारी तबकों में सरदार पटेल को याद करना फैशन है . हालांकि ३१ अक्टूबर को इंदिरा गाँधी के मौत के चलते कांग्रेसी लोग उसी में व्यस्त रहते हैं लेकिन आज भी देश का समझदार वर्ग इस अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना ज़रूरी समझता है .१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..
अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए साठ साल होने को आये लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वास्तव में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना एक गलत फैसला भारी राजनीतिक संकट पैदा कर सकता है
तेलंगाना के विवाद के चलते हैदराबाद एक बार फिर चर्चा में है. जब भी हैदराबाद का ज़िक्र आता है , समकालीन इतिहास का कोई भी विद्यार्थी सरदार पटेल को याद किये बिना नहीं रह सकता.३१ अक्टूबर और १५ दिसंबर के दिन सरकारी तबकों में सरदार पटेल को याद करना फैशन है . हालांकि ३१ अक्टूबर को इंदिरा गाँधी के मौत के चलते कांग्रेसी लोग उसी में व्यस्त रहते हैं लेकिन आज भी देश का समझदार वर्ग इस अवसर पर कुशल राज्य के उस महान प्रणेता और हैदराबाद के सबंधों को याद करना ज़रूरी समझता है .१५ अगस्त १९४७ को जब आज़ादी मिली तो सरदार को इस बात अनुमान हो गया था कि उनके पास बहुत वक़्त नहीं बचा है ..गृहमंत्री के रूप में उनके सिर पर समस्याओं का अम्बार लगा था .अंग्रेजों ने ऐसे ऐसे खेल रच रखे थे कि भारत के गृहमंत्री को एक मिनट की फुरसत न मिले..लेकिन सरदार पटेल की नज़र में भी लक्ष्य और उसको पूरा करने की पक्की कार्ययोजना थी और अपने सहयोगी वी पी मेनन के साथ मिल कर वे उसको पूरा कर रहे थे..
अंग्रेजों ने आज़ादी के बाद जो देश छोड़ा था उसमें ऐसे बहुत सारे देशी राजा थे जो अपने को भारत से अलग रखना चाहते थे. इन राजाओं को अंग्रेजों का नैतिक समर्थन भी हासिल था. मुल्क का बंटवारा हो चुका था और देश , ख़ास कर पंजाब और बंगाल में बड़े पैमाने पर दंगे भड़के हुए थे .. लेकिन सरदार पटेल ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया . जब १५ दिसंबर १९५० को उन्होंने अपना शरीर त्याग किया तो आने वाली नस्लों के लिए एक ऐसा देश छोड़ कर गए थे जो पूरी तरह से एक राजनीतिक यूनिट था ..दुर्भाग्य यह है कि आज के नेता अपनी अदूरदर्शिता के चलते उसी देश को फिर तरह तरह के टुकड़ों में बांटने में लगे हुए हैं . हैदराबाद के लिये एक बार फिर लड़ाई शुरू हो गयी है . तेलंगाना और बाकी आन्ध्र प्रदेश के लोग हैदराबाद के लिए दावेदारी ठोंक रहे हैं . शायद इन में से किसी को पता नहीं होगा कि कैसे सरदार पटेल ने हैदराबाद को तबाही से बचाया था.हैदराबाद को स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनाने के लिए सरदार पटेल को बहुत सारे पापड बेलने पड़े थे अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम,उस्मान अली खां , को पता नहीं क्यों भरोसा दिला दिया था कि वे उसकी मर्जी का पूरा सम्मान करेंगे और निजाम जो चाहेंगें वही होगा... किसी ज़माने में इंग्लैंड के सम्राट ने निजाम को अपना सबसे वफादार सहयोगी कह दिया था और १९४७ के आस पास जो लोग भी ब्रिटिश सत्ता के आसपास थे वे निजाम की भलाई के लिए कुछ भी करने को तैयार थे .स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल , लार्ड माउंटबेटन भी उसी जमात में शामिल थे . वे निजाम से खुद ही बातचीत करना चाहते थे . भारत के गृहमंत्री, सरदार पटेल ने उनको भारी छूट दे रखी थी . बस एक शर्त थी कि हैदराबाद का मसला सिर्फ और सिर्फ ,भारत का मामला है उसमें किसी बाहरी देश की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जायेगी. उनके इस बयान में इंग्लैंड और पाकिस्तान दोनों के लिए चेतावनी निहित है ... उस वक़्त का हैदराबाद का निजाम भी बहुत गुरू चीज़ था. शायद उस वक़्त की दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक था लेकिन कपडे लत्ते बिलकुल अजीब तरह के पहनता था. उसने एक ब्रिटिश वकील लगा रखा था जिसकी पहुँच लन्दन से लेकर दिल्ली तक थी. . सर वाल्टर मोक्टन नाम के इस वकील ने कई महीनों तक चीज़ों को घालमेल की स्थिति में रखा . इसकी सलाह पर ही निजाम ने भारत में पूर्ण विलय की बात न करके , एक सहयोग के समझौते पर दस्तखत करने की पेशकश की थी. . लार्ड माउंटबेटन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में थे लेकन सरदार ने साफ़ मना कर दिया था. . इस बीच निजाम पाकिस्तान में शामिल होने की कोशिश भी कर रहा था .सरदार पटेल ने साफ़ कर दिया था कि अगर निजाम इस बात की गारंटी दे कि वह पाकिस्तान में कभी नहीं मिलेगा तो उसके साथ कुछ रियायत बरती जा सकती है . निजाम के राजी होने पर एक ऐसा समझौता हुआ जिसके तहत भारत और हैदराबाद एक दूसरे की राजधानी में एजेंट जनरल नियुक्त कर सकते थे..इस समझौते को करने के लिए निजाम को अपने प्रधानमंत्री, नवाब छतारी और ब्रिटिश वकील,सर वाल्टर मोक्टन की सलाह का लाभ मिला था लेकिन उन दिनों निजाम के ऊपर एक मुकामी नौजवान का बहुत प्रभाव था.उसका नाम कासिम रिज़वी था और वह इत्तेहादुल मुसलमीन का मुखिया था. कुख्यात रजाकार, इसी संगठन के मातहत काम करते थे . कासिम रिज़वी ने तिकड़म करके नवाब छतारी की छुट्टी करवा दी और उनकी जगह पर मीर लायक अली नाम के एक व्यापारी को तैनात करवा दिया . बस इसी फैसले के बाद निजाम की मुसीबतों का सिलसिला शुरू हुआ जो बहुत बाद तक चला...मीर लायक अली हैदराबाद के थे ,मुहम्मद अली जिन्ना के कृपापात्र थे और पाकिस्तान की तरफ से संयुक्तराष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रह चुके थे... इसके बाद हैदराबाद में रिज़वी की तूती बोलने लगी थी .निजाम के प्रतिनिधि के रूप में उसने दिल्ली की यात्रा भी की. जब उसकी मुलाक़ात सरदार पटेल से हुई तो वह बहुत ही ऊंची किस्म की डींग मार रहा था. उसने सरदार पटेल से कहा कि उसके साथी अपना मकसद हासिल करने के लिए अंत तक लड़ेंगें .सरदार पटेल ने कहा कि अगर आप आत्महत्या करना चाहते हैं तो आपको कोई कैसे रोक सकता है ...हैदराबाद वापस जाकर भी, यह रिज़वी गैर ज़िम्मेदार करतूतों में लगा रहा ..इस बीच खबर आई कि हैदराबाद के बाहर के व्यापारियों ने वहां कुछ भी सामान भेजना बंद कर दिया है. निजाम की फ़रियाद लेकर वाल्टर मोक्टन दिल्ली पंहुचे और सरदार ने इस मसले पर गौर करने की बात की लेकिन इस बीच कासिम रिज़वी का एक बयान अखबारों में छपा जिसमें उसने मुसलमानों से अपील की थी कि अगर भारत से लड़ाई हुई तो उन्हें एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार लेकर जंग में जाना होगा . उसने यह भी कहा कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमान भी उसके पांचवें कालम के रूप में उसके साथ रहेंगें ..बेचारे वाल्टर मोक्टन उस वक़्त दिल्ली में थे और जब सरदार पटेल ने उनको निजाम के सबसे ख़ास चेले की इस गैर जिम्मेदाराना हरकत के बारे में बताया तो वे परेशान हो गए और वादा किया कि हैदराबाद जाकर वे निजाम को सलाह देंगें कि रिज़वी को गिरफ्तार कर लें .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . उलटे मीर लायक अली ने कहा कि रिज़वी ने वह भाषण दिया ही नहीं था ..उसके बाद लायक अली भी दिल्ली आये जहां उनकी मुलाक़ात सरदार से भी हुई . अपनी बीमारी के बावजूद सरदार पटेल ने बातचीत की और साफ़ कह दिया कि यह रिज़वी अगर फ़ौरन काबू में न किया गया तो निजाम और हैदराबाद के लिए बहुत ही मुश्किल पेश आ सकती है . मीर लायक अली को इस तरह की साफ़ बात सुनने का अनुभव नहीं था क्योंकि जवाहर लाल नेहरु बातों को बहुत ही कूटनीतिक भाषा में कहते थे .. कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन गया था कि बातें ही बातें होती रहती थीं और मामला उलझता जा रहा था . .. सरदार पटेल ने कहा कि अगर निजाम इस जिद पर अड़े रहते हैं कि वे भारत में शामिल नहीं होंगें तो उन्हें कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था तो कायम कर ही देनी चाहिए..लेकिन हैदराबाद में इस बात को मानने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. इसीलिए हैदराबाद को भारत के साथ मिलाना सरदार पटेल के सबसे मुश्किल कामों में एक साबित हुआ. . पता नहीं कहाँ से निजाम उस्मान अली खां को यह उम्मीद हो गयी थी कि भारत की आज़ादी के बाद , हैदराबाद को भी डोमिनियन स्टेटस मिल जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ ..लेकिन इस उम्मीद के चलते निजाम ने थोक में गलतियाँ की .यहाँ तक कि वहां पर बाकायदा शक्तिप्रयोग किया और हैदराबाद की समस्या का हल निकाला गया. आखिर में सरदार को हैदराबाद में पुलिस एक्शन करना पड़ा जिसके बाद ही हैदराबाद पूरी तरह से भारत का हिस्सा बन सका .आज उनको गए साठ साल होने को आये लेकिन आज भी राजनीतिक फैसलों में उतनी ही दृढ़ता होनी चाहिए अगर किसी भी राजनीतिक समस्या का हल निकालना हो. ..राजनीतिक फैसलों में पारदर्शिता और मजबूती वास्तव में सरदार पटेल की विरासत है . वैसे भी आन्ध्र प्रदेश की राजनीति में बहुत सारे दांव पेंच होते हैं..जब सरदार पटेल जैसा गृहमंत्री परेशान हो सकता है तो आज के गृहमंत्री को तो बहुत ही चौकन्ना रहना पड़ेगा वरना एक गलत फैसला भारी राजनीतिक संकट पैदा कर सकता है
Saturday, October 29, 2011
श्रीलाल शुक्ल की मौत के बाद का आत्ममंथन
शेष नारायण सिंह
राग दरबारी वाले शुकुल जी की मौत हो गयी. होनी ही थी. बुज़ुर्ग थे.उनकी मौत के बाद अपनी भी छाती में शूल चुभ रहा है .लगता है जैसे अपने ही सगे काका मर गए हों . दरअसल श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी ने ज़िंदगी में कहीं बहुत अंदर तक जाकर अपने को संबल दिया था. हालांकि किसी परीक्षा में हम कभी फेल नहीं हुए लेकिन ज़िंदगी के ज़्यादातर इम्तिहानों में अपने रिज़ल्ट वही रहे. हर बार फेल होना. अभी दयानंद पाण्डेय को पढ़ा, उन्होंने भी लिखा है कि वे भी कभी कभी अपने आपको को रंगनाथ समझते थे. मैं भी ऐसा ही समझता था. लेकिन यह अनुभव बहुत दिन तक नहीं रहा. सच्ची बात यह है कि अपनी ज़िंदगी में शुरू में ऐसे अवसर बार बार आये जब मैंने अपने आप को लंगड़ समझा था . हर गलत काम के खिलाफ अपने आपको खड़ा पाया था लेकिन दसवीं पास करने के बाद मेरे अंदर का लंगड़ कहीं मर गया, दुबारा उसने कभी भी चूँ चपड़ नहीं की. लंगड़ की मौत के बाद मैं कुछ दिन तक सनीचर हो गया था ,जब मामूली ज़रूरतों के लिए भी घर से मदद मिलनी बंद हो गयी थी, दूसरों का मुंह ताकता था लेकिन आदमी की फितरत का क्या कहना .जैसे ही डिग्री कालेज में मास्टरी मिली ,मेरे अंदर खन्ना मासटर की आत्मा प्रवेश कर गयी, बिना किसी सपोर्ट के मैं बागी बन गया. नौकरी हाथ से गयी. अजीब बेवक़ूफ़ था मैं . हर नौकरी के बाद इस खन्ना मास्टर का अभिनय करता रहा और बहुत सारी नौकरियाँ छूटती रहीं. लेकिन इस रंगनाथ से कभी पिंड न छूटा. यह हर बेतुका मौके पर आता रहा और मुझे समझौते करने से रोकता रहा . आज साठ साल की उम्र पार करके लगता है कि वास्तव में मैं कुछ भी नहीं था. मैं रामाधीन भीखमखेडवी ही था और वही हूँ , जो करने चला था , कुछ नहीं कर सका लेकिन मुझे किसी तरह की ग्लानि नहीं है क्योंकि मैंने राग दरबारी को पढ़ा है और उसेक रचयिता को छूकर देखा भी है . आज वह साहित्यकार तो नहीं है लेकिन उसने मुसीबतों को हँसकर उड़ा देने का जो संबल राग दरबारी के ज़रिये दिया था वह मेरे पास है , आने वाली पीढ़ियों के पास भी रहेगा . और हर उस रामाधीन भीखमखेडवी को ताक़त देता रहेगा जो कालेज खोलने का मंसूबा बनाएगा और आटे की चक्की खोलकर अपनी रोटी कमाएगा .
राग दरबारी वाले शुकुल जी की मौत हो गयी. होनी ही थी. बुज़ुर्ग थे.उनकी मौत के बाद अपनी भी छाती में शूल चुभ रहा है .लगता है जैसे अपने ही सगे काका मर गए हों . दरअसल श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी ने ज़िंदगी में कहीं बहुत अंदर तक जाकर अपने को संबल दिया था. हालांकि किसी परीक्षा में हम कभी फेल नहीं हुए लेकिन ज़िंदगी के ज़्यादातर इम्तिहानों में अपने रिज़ल्ट वही रहे. हर बार फेल होना. अभी दयानंद पाण्डेय को पढ़ा, उन्होंने भी लिखा है कि वे भी कभी कभी अपने आपको को रंगनाथ समझते थे. मैं भी ऐसा ही समझता था. लेकिन यह अनुभव बहुत दिन तक नहीं रहा. सच्ची बात यह है कि अपनी ज़िंदगी में शुरू में ऐसे अवसर बार बार आये जब मैंने अपने आप को लंगड़ समझा था . हर गलत काम के खिलाफ अपने आपको खड़ा पाया था लेकिन दसवीं पास करने के बाद मेरे अंदर का लंगड़ कहीं मर गया, दुबारा उसने कभी भी चूँ चपड़ नहीं की. लंगड़ की मौत के बाद मैं कुछ दिन तक सनीचर हो गया था ,जब मामूली ज़रूरतों के लिए भी घर से मदद मिलनी बंद हो गयी थी, दूसरों का मुंह ताकता था लेकिन आदमी की फितरत का क्या कहना .जैसे ही डिग्री कालेज में मास्टरी मिली ,मेरे अंदर खन्ना मासटर की आत्मा प्रवेश कर गयी, बिना किसी सपोर्ट के मैं बागी बन गया. नौकरी हाथ से गयी. अजीब बेवक़ूफ़ था मैं . हर नौकरी के बाद इस खन्ना मास्टर का अभिनय करता रहा और बहुत सारी नौकरियाँ छूटती रहीं. लेकिन इस रंगनाथ से कभी पिंड न छूटा. यह हर बेतुका मौके पर आता रहा और मुझे समझौते करने से रोकता रहा . आज साठ साल की उम्र पार करके लगता है कि वास्तव में मैं कुछ भी नहीं था. मैं रामाधीन भीखमखेडवी ही था और वही हूँ , जो करने चला था , कुछ नहीं कर सका लेकिन मुझे किसी तरह की ग्लानि नहीं है क्योंकि मैंने राग दरबारी को पढ़ा है और उसेक रचयिता को छूकर देखा भी है . आज वह साहित्यकार तो नहीं है लेकिन उसने मुसीबतों को हँसकर उड़ा देने का जो संबल राग दरबारी के ज़रिये दिया था वह मेरे पास है , आने वाली पीढ़ियों के पास भी रहेगा . और हर उस रामाधीन भीखमखेडवी को ताक़त देता रहेगा जो कालेज खोलने का मंसूबा बनाएगा और आटे की चक्की खोलकर अपनी रोटी कमाएगा .
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Monday, October 24, 2011
हालीवुड के बड़े अभिनेता हार्वी काइटेल भारतीय फिल्म " गांधी आफ द मंथ " की मुख्य भूमिका में होंगे
शेष नारायण सिंह
जब भी कोई अमरीकी या ब्रिटिश अभिनेता या निदेशक भारत में बन रही किसी फिल्म पर काम करता है , वह बड़ी खबर बनती है . बोलती फिल्मों के के शुरू होने के बाद यह परंपरा लगभग ख़त्म हो गयी थी लेकिन अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में रिचर्ड एटनबरो ने गाँधी फिल्म बनाकर इस रिवाज़ को बहुत ही धमाकेदार तरीके से ताक़त दी. गांधी फिल्म को बहुत सारे आस्कर अवार्ड मिले थे . उसके बाद इस श्रेणी की फिल्मों में स्लमडाग मिलिनयेर का नाम लिया जा सकता है . हालीवुड की फ़िल्मी दुनिया और भारत के सबंधों में ताज़ा घटना अमरीकी अभिनेता , हार्वी काइटेल की नई फिल्म को लेकर है . ' गाँधी आफ द मंथ ' नाम की इस फिल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी है . पोस्ट प्रोडक्शन का काम चल रहा है . फिल्म अंग्रेज़ी में है लेकिन हिन्दी में भी डब की जा रही है . इसका मतलब यह हुआ कि देश की आम जनता भी फिल्म को देख सकेगी. मुंबई के फ़िल्मी गलियारों से खबर है कि इस फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में भारत की फिल्म के रूप में भेजने की तैयारी शुरू हो चुकी है . इसके पहले कान फिल्म फेस्टिवल के हवाले से आमिर खां की फ़िल्में चर्चा में आई थीं .फेस्टिवल में भेजने की तैयारी का ही इतना हडकंप नाध दिया गया था कि लगता है था कि उस दौर में मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में और कोई खबर ही नहीं बन रही थी. लेकिन 'गाँधी ऑफ़ द मंथ ' वालों की तरफ से ऐसी कोई तैयारी नज़र नहीं आ रही है . फिल्म को प्रोड्यूस करने वाली कंपनी भी लगभग नई है . . २०१० में उनकी दो फ़िल्में आई हैं . हाँ यह कहा जा सकता है कि दोनों ही फ़िल्में, ' उड़ान 'और ' तनु वेड्स मनु ' आम आदमी तक बहुत ही शानदार तरीके से पंहुची थीं .पसंद की गयी थीं . लीक से हटकर थीं. जिस परम्परा को श्याम बेनेगल ने ३५ साल पहले शुरू किया था और जिसे रामगोपाल वर्मा ने आगे बढाया और जिसके व्याकरण को आधार मानकर आजकल अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज फ़िल्में बना रहे हैं , दोनों ही उसी ढर्रे की फिल्मे थीं .इस निर्माता कम्पनी की दोनों शुरुआती फ़िल्में अच्छी मानी जाती हैं ..विषय भी लीक से हटकर था . अब पता पता चला है कि नई फिल्म में इस प्रोडक्शन हाउस ने बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठा दिया है . कोई अमरीकी सज्जन हैं को करीब तीस साल से भारत के किसी पिछड़े इलाके में स्कूल चला रहे हैं . उस इलाके में बहुत ही लोकप्रिय हो जाते हैं . उनके स्कूल की लोकप्रियता से गुस्सा होने के बाद उस इलाके में धर्म के नाम पर राजनीतिक धंधा करने वाले लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं और उनके स्कूल के खिलाफ भिड़ जाते हैं . पूरी फिल्म में इसी उठापटक को प्रस्तुत किया गया है . ज़ाहिर है कि देश के अलग अलग इलाके में यह फिल्म लोगों को किसी बड़ी घटना की याद दिलायेगी. हो सकता है कि कुछ लोगों को यह उड़ीसा के उस विदेशी मिशनरी की याद दिला दे जिसकी लोकप्रियता से परेशान होकर कुछ लोगों ने उसे जिंदा जला दिया था . अन्य इलाकों के लोगों के मान में यह फिल्म और तरह की यादें ताज़ा कर सकती है . कहानी के केंद्र में एक ईसाई है जिस पर ईसाई विरोधी मानसिकता के लोग लगातार हमले बोल रहे हैं.वह अपने स्कूल के गरीब बच्चों को सुनहरे भविष्य के लिए लगातार लड़ रहा है . महात्मा गाँधी को महान मानने वाला यह व्यक्ति नई पीढी को साबरमती के संत की बातें बताते रहना चाहता है लेकिन असहिष्णु राजनीति को यह सूट नहीं करता. एक स्कूल के हेडमास्टर की उस बुलंदी को रेखांकित करने की कोशिश करती हुई यह फिल्म निश्चित रूप से लीक से हटकर होगी, इसमें दो राय नहीं है .
' गाँधी आफ द मंथ ' का निदेशक भी हिन्दी सिनेमा का बहुत नामी आदमी नहीं है . कम से कम हिन्दी इलाकों में आम चर्चा का विषय तो कभी नहीं रहा . फिल्म में काम करने वाले कलाकार भी तथाकथित मेनस्ट्रीम सिनेमा के बहुत बड़े नाम नहीं है . सुहासिनी मुले के अलावा बाकी भारतीय अभिनेताओं को बहुत लोग नहीं जानते होंगें .शायद ऐसा इसलिए किया गया है कि फिल्म की जो मुख्य कथा है , ग्लैमरी चकाचौंध में उस से दर्शक की नज़र न हट जाए. ऐसा लगता है कि इसी रणनीति के तहत निर्माताओं ने हालीवुड के एक बहुत बड़े अभिनेता के साथ अपने अच्छे लेकिन कम प्रसिद्ध अभिनेताओं को जोड़ दिया है . दरअसल इस फिल्म का मुद्दा इतना दिलचस्प है कि आने वाले दिनों में उस पर होने वाली चर्चा को कोई रोक नहीं सकता . ज़ाहिर है कि ऐसी हालत में ध्यान मुख्य अभिनेता पर ही जमा रहेगा .
अगर ऐसा है तो प्रोडक्शन वालों की बात समझ में आती है . फिल्म का मुख्य अभिनेता, भारत में तो शायद स्टार नहीं हो लेकिन हालीवुड में उसका शुमार बड़े स्टारों में किया जाता है .हार्वी काइटेल विख्यात हालीवुड निदेशक मार्टिन स्करसेसी के बचपन के साथी हैं . दोनों ने साथ साथ सिनेमा की शिक्षा ली. दरअसल मार्टिन स्करसेसी ने अपनी पहली फिल्म ,'हूज दैट नाकिंग ऐट माई डोर ' में हार्वी काइटेल को हीरो बनाया था. इसी फिल्म के कारण मार्टिन स्करसेसी का सिक्का पूरी दुनिया में जम गया था . इसी फिल्म के बाद उनका परिचय फ्रांसिस फोर्ड कपोला,ब्रायन ड पल्मा और स्टीवेन स्पाइलबर्ग से हुआ. बाद में ब्रायन ड पाल्मा ने ही स्करसेसी को राबर्ट ड नीरो से मिलवाया जिसके बाद हालीवुड में अपराध की थीम पर बनने वाली कुछ बेहतरीन फ़िल्में बन सकीं. हार्वी काइटेल के साथ स्करसेसी ने टैक्सी ड्राइवर और मीन स्ट्रीट जैसी फ़िल्में भी बनायीं जिनको आज भी अच्छी फिल्मों के सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है .शुरुआती परिचय के बाद हार्वी काइटेल ने भी राबर्ट ड नीरों के साथ कई फिल्मों में काम किया . हार्वी काइटेल एक दिलचस्प इंसान भी हैं . उनको नए निदेशकों के साथ काम करने में बहुत मज़ा आता है . अपने दोस्त मार्टिन स्करसेसी के साथ तो उन्होंने पहली फिल्म की ही थी,हालीवुड के कुछ और बहुत बड़े निदेशकों के साथ उन्होंने उनकी पहली फिल्मो में काम किया और उनको इतना उत्साहित किया कि वे आज विश्व सिनेमा के नामी हस्ताक्षर हैं .इस तरह के निदेशकों में मार्टिन स्करसेसी के अलावा रिडली स्काट, पॉल श्रेडर और जेम्स टोबैक का उल्लेख किया जा सकता है .देखना यह है कि भारतीय सिनेमा की दुनिया में हार्वी काइटेल क्या छाप छोड़ते हैं .
जब भी कोई अमरीकी या ब्रिटिश अभिनेता या निदेशक भारत में बन रही किसी फिल्म पर काम करता है , वह बड़ी खबर बनती है . बोलती फिल्मों के के शुरू होने के बाद यह परंपरा लगभग ख़त्म हो गयी थी लेकिन अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में रिचर्ड एटनबरो ने गाँधी फिल्म बनाकर इस रिवाज़ को बहुत ही धमाकेदार तरीके से ताक़त दी. गांधी फिल्म को बहुत सारे आस्कर अवार्ड मिले थे . उसके बाद इस श्रेणी की फिल्मों में स्लमडाग मिलिनयेर का नाम लिया जा सकता है . हालीवुड की फ़िल्मी दुनिया और भारत के सबंधों में ताज़ा घटना अमरीकी अभिनेता , हार्वी काइटेल की नई फिल्म को लेकर है . ' गाँधी आफ द मंथ ' नाम की इस फिल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी है . पोस्ट प्रोडक्शन का काम चल रहा है . फिल्म अंग्रेज़ी में है लेकिन हिन्दी में भी डब की जा रही है . इसका मतलब यह हुआ कि देश की आम जनता भी फिल्म को देख सकेगी. मुंबई के फ़िल्मी गलियारों से खबर है कि इस फिल्म को कान फिल्म फेस्टिवल में भारत की फिल्म के रूप में भेजने की तैयारी शुरू हो चुकी है . इसके पहले कान फिल्म फेस्टिवल के हवाले से आमिर खां की फ़िल्में चर्चा में आई थीं .फेस्टिवल में भेजने की तैयारी का ही इतना हडकंप नाध दिया गया था कि लगता है था कि उस दौर में मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में और कोई खबर ही नहीं बन रही थी. लेकिन 'गाँधी ऑफ़ द मंथ ' वालों की तरफ से ऐसी कोई तैयारी नज़र नहीं आ रही है . फिल्म को प्रोड्यूस करने वाली कंपनी भी लगभग नई है . . २०१० में उनकी दो फ़िल्में आई हैं . हाँ यह कहा जा सकता है कि दोनों ही फ़िल्में, ' उड़ान 'और ' तनु वेड्स मनु ' आम आदमी तक बहुत ही शानदार तरीके से पंहुची थीं .पसंद की गयी थीं . लीक से हटकर थीं. जिस परम्परा को श्याम बेनेगल ने ३५ साल पहले शुरू किया था और जिसे रामगोपाल वर्मा ने आगे बढाया और जिसके व्याकरण को आधार मानकर आजकल अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज फ़िल्में बना रहे हैं , दोनों ही उसी ढर्रे की फिल्मे थीं .इस निर्माता कम्पनी की दोनों शुरुआती फ़िल्में अच्छी मानी जाती हैं ..विषय भी लीक से हटकर था . अब पता पता चला है कि नई फिल्म में इस प्रोडक्शन हाउस ने बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठा दिया है . कोई अमरीकी सज्जन हैं को करीब तीस साल से भारत के किसी पिछड़े इलाके में स्कूल चला रहे हैं . उस इलाके में बहुत ही लोकप्रिय हो जाते हैं . उनके स्कूल की लोकप्रियता से गुस्सा होने के बाद उस इलाके में धर्म के नाम पर राजनीतिक धंधा करने वाले लोग बहुत गुस्सा हो जाते हैं और उनके स्कूल के खिलाफ भिड़ जाते हैं . पूरी फिल्म में इसी उठापटक को प्रस्तुत किया गया है . ज़ाहिर है कि देश के अलग अलग इलाके में यह फिल्म लोगों को किसी बड़ी घटना की याद दिलायेगी. हो सकता है कि कुछ लोगों को यह उड़ीसा के उस विदेशी मिशनरी की याद दिला दे जिसकी लोकप्रियता से परेशान होकर कुछ लोगों ने उसे जिंदा जला दिया था . अन्य इलाकों के लोगों के मान में यह फिल्म और तरह की यादें ताज़ा कर सकती है . कहानी के केंद्र में एक ईसाई है जिस पर ईसाई विरोधी मानसिकता के लोग लगातार हमले बोल रहे हैं.वह अपने स्कूल के गरीब बच्चों को सुनहरे भविष्य के लिए लगातार लड़ रहा है . महात्मा गाँधी को महान मानने वाला यह व्यक्ति नई पीढी को साबरमती के संत की बातें बताते रहना चाहता है लेकिन असहिष्णु राजनीति को यह सूट नहीं करता. एक स्कूल के हेडमास्टर की उस बुलंदी को रेखांकित करने की कोशिश करती हुई यह फिल्म निश्चित रूप से लीक से हटकर होगी, इसमें दो राय नहीं है .
' गाँधी आफ द मंथ ' का निदेशक भी हिन्दी सिनेमा का बहुत नामी आदमी नहीं है . कम से कम हिन्दी इलाकों में आम चर्चा का विषय तो कभी नहीं रहा . फिल्म में काम करने वाले कलाकार भी तथाकथित मेनस्ट्रीम सिनेमा के बहुत बड़े नाम नहीं है . सुहासिनी मुले के अलावा बाकी भारतीय अभिनेताओं को बहुत लोग नहीं जानते होंगें .शायद ऐसा इसलिए किया गया है कि फिल्म की जो मुख्य कथा है , ग्लैमरी चकाचौंध में उस से दर्शक की नज़र न हट जाए. ऐसा लगता है कि इसी रणनीति के तहत निर्माताओं ने हालीवुड के एक बहुत बड़े अभिनेता के साथ अपने अच्छे लेकिन कम प्रसिद्ध अभिनेताओं को जोड़ दिया है . दरअसल इस फिल्म का मुद्दा इतना दिलचस्प है कि आने वाले दिनों में उस पर होने वाली चर्चा को कोई रोक नहीं सकता . ज़ाहिर है कि ऐसी हालत में ध्यान मुख्य अभिनेता पर ही जमा रहेगा .
अगर ऐसा है तो प्रोडक्शन वालों की बात समझ में आती है . फिल्म का मुख्य अभिनेता, भारत में तो शायद स्टार नहीं हो लेकिन हालीवुड में उसका शुमार बड़े स्टारों में किया जाता है .हार्वी काइटेल विख्यात हालीवुड निदेशक मार्टिन स्करसेसी के बचपन के साथी हैं . दोनों ने साथ साथ सिनेमा की शिक्षा ली. दरअसल मार्टिन स्करसेसी ने अपनी पहली फिल्म ,'हूज दैट नाकिंग ऐट माई डोर ' में हार्वी काइटेल को हीरो बनाया था. इसी फिल्म के कारण मार्टिन स्करसेसी का सिक्का पूरी दुनिया में जम गया था . इसी फिल्म के बाद उनका परिचय फ्रांसिस फोर्ड कपोला,ब्रायन ड पल्मा और स्टीवेन स्पाइलबर्ग से हुआ. बाद में ब्रायन ड पाल्मा ने ही स्करसेसी को राबर्ट ड नीरो से मिलवाया जिसके बाद हालीवुड में अपराध की थीम पर बनने वाली कुछ बेहतरीन फ़िल्में बन सकीं. हार्वी काइटेल के साथ स्करसेसी ने टैक्सी ड्राइवर और मीन स्ट्रीट जैसी फ़िल्में भी बनायीं जिनको आज भी अच्छी फिल्मों के सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है .शुरुआती परिचय के बाद हार्वी काइटेल ने भी राबर्ट ड नीरों के साथ कई फिल्मों में काम किया . हार्वी काइटेल एक दिलचस्प इंसान भी हैं . उनको नए निदेशकों के साथ काम करने में बहुत मज़ा आता है . अपने दोस्त मार्टिन स्करसेसी के साथ तो उन्होंने पहली फिल्म की ही थी,हालीवुड के कुछ और बहुत बड़े निदेशकों के साथ उन्होंने उनकी पहली फिल्मो में काम किया और उनको इतना उत्साहित किया कि वे आज विश्व सिनेमा के नामी हस्ताक्षर हैं .इस तरह के निदेशकों में मार्टिन स्करसेसी के अलावा रिडली स्काट, पॉल श्रेडर और जेम्स टोबैक का उल्लेख किया जा सकता है .देखना यह है कि भारतीय सिनेमा की दुनिया में हार्वी काइटेल क्या छाप छोड़ते हैं .
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Monday, October 17, 2011
मैंने क़सम ली -- मैं फासिस्ट राजनीति और उसके कारिंदों के खिलाफ कुछ नहीं लिखूंगा
शेष नारायण सिंह
प्रशांत भूषण की पिटाई के बाद इस देश की राजनीति ने करवट नहीं कई पल्थे खाए हैं . जिन लोगों को अपना मान कर प्रशांत भूषण क्रान्ति लाने चले थे उन्होंने उनकी विधिवत कुटम्मस की .टी वी पर उनकी हालत देख कर मैं भी डर गया हूँ . जिन लोगों ने प्रशांत जी की दुर्दशा की वही लोग तो पोर्टलों पर मेरे लेख पढ़कर गालियाँ लिखते हैं . लिखते हैं कि मेरे जैसे देशद्रोहियों को देश से निकाल दिया जाएगा. मार डाला जाएगा, काट डाला जाएगा. कुछ ऐसी गालियाँ लिखते हैं जिनका उल्लेख करना असंभव है . मुझे मुगालता था. मैं समझता था कि यह बेचारे किसी ऐसी राजनीतिक पार्टी में नौकरी करते हैं जिसको हमारी बातें कभी नहीं अच्छी लगीं.उसी पार्टी को खुश करने के लिए इस तरह की बातें लिखी जा रही हैं . मुझे इस बात का बिलकुल अंदाज़ नहीं था कि यह लोग बाकायदा तशरीफ़ लाकर शारीरिक रूप से कष्ट भी दे सकते हैं . प्रशांत भूषण की पिटाई का मेरे ऊपर यह असर हुआ है कि अब मैं फासिस्ट राजनीति के खिलाफ कुछ नहीं लिखूंगा. मैं दहशत में हूँ . यह भाई लोग कभी भी पंहुच सकते हैं और धुनाई कर सकते हैं .मुझे ऐसा इसलिए लगता है कि प्रशांत जी की कुटाई कोई हादसा नहीं था. बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से उन्हें घेरकर लतियाया गया था. यह भी हो सकता है कि जिस टी वी चैनल वाले उनसे बात कर रहे थे, वहां भी इन मारपीट वालों का कोई बंदा रहा हो जिसने पिटाई वाली सेना को एडवांस में खबर कर दी हो.
अब यहाँ यह कहकर कि जिन लोगों ने पिटाई की वे सब आर एस एस के अधीन संगठनो से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं मैं अपनी शामत नहीं बुलाना चाहता हूँ . लेकिन जिन लोगों को पिटने का डर नहीं है वे खुले आम कह रहे हैं .मेरी हिम्मत तो नहीं है कि मैं लिख सकूं लेकिन बताने वाले बता रहे हैं पिटाई करने पंहुचे लोग बीजेपी के बड़े नेताओं के साथ भी अक्सर फोटो खिंचवाते रहते थे. और उनके बहुत भरोसे के बन्दे थे. . श्री राम सेना के कर्नाटक राज्य के अधिपति श्री प्रमोद मुथालिक ने भी कहलवा भेजा है कि प्रशांत भूषण को पीटने वाले लोग उनके अपने बन्दे नहीं थे. उन्हें तो प्रमोद जी ने केवल टेक्नीकल ज्ञान मात्र सिखाया था. वह भी खुद प्रमोद जी का इन योद्धाओं से कुछ लेना देना नहीं था. उनके किसी मातहत अफसर ने दिल्ली की श्रीराम सेना को फ़्रैन्चाइज़ी दी थी जिसकी जानकारी मुथालिक श्री को नहीं थी. भगत सिंह के नाम पर धंधा कर रहे भारतीय जनता युवा मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पूर्व सदस्य का बीजेपी या उसकी किसी सहयोगी पार्टी से कोई लेना देना नहीं है.वह कभी भी बीजेपी में नहीं था क्योंकि अगर वह बीजेपी में कभी भी रहा होता तो उसे अपने पराये की पहचान होती और अपनी ही पार्टी के पूर्व सदस्य के बेटे को सरे आम देश की सबसे बड़ी अदालत के आस पास इतनी बेरहमी से न पीटता. ऐसी बहुत सी बातें हैं जो आर एस एस के विरोधी लिख रहे हैं लकिन अपनी हिम्मत नहीं है कि मैं यह लिख दूं कि जिन लोगों ने प्रशांत भूषण को पीटा वे आर एस एस या उसके अधीन काम करने वाले किसी संगठन से किसी तरह से सम्बंधित रहे होंगें.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की पिटाई का मैं अपनी पूरी ताक़त से विरोध करता हूँ . उनके बहुत सारे विचारों से सहमत नहीं हुआ जा सकता लेकिन विचारों से असहमत होने पर किसी को पीटना बिकुल गलत है . इसलिए मेरे अलावा जो भी चाहे उन लोगों की भरपूर भर्त्सना कर सकता है. वैसे सही बात यह है कि उन लोगों की जितनी निन्दा की जाए कम है . पिटाई करने वाले निंदनीय लोग हैं . जिन लोगों ने " मैं अन्ना हूँ " की टोपी पहनकर नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में टी वी कैमरों को धन्य करने की कोशिश की उनकी पिटाई करने वालों की भी सभी निंदा कर ही रहे हैं . वह निंदा बिलकुल सही है . लेकिन मैं उन लोगों की कोई निंदा नहीं कर सकता . क्योंकि कई बार मैं भी पटियाला हाउस कोर्ट के बगल वाली पुराना किला रोड से अपने घर जाता हूँ . लेकिन प्रशांत भूषण को भी आर एस एस प्रायोजित किसी आन्दोलन में शामिल होने के पहले यह सोच लेना चाहिए था कि अगर वे अन्ना हजारे के साथ आर एस एस वालों के आन्दोलन को संचालन करने के प्रोजेक्ट में शामिल हो रहे हैं तो उन्हें आर एस एस की हर बात को मानना पडेगा. आर एस एस के कई बड़े नेताओं ने बार बार बताया है कि वे लोग बहुत ही लोकतांत्रिक सोच के लोग हैं ,लोगों के विरोध करने के अधिकार को सम्मान देते हैं लेकिन वे यह बात कभी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि अपना कोई बंदा उनकी मंज़ूर शुदा राजनीतिक लाइन से हटकर कोई बात कहे. इसका सबसे पहला शिकार प्रो.बलराज मधोक बने थे . किसी ज़माने में वे पार्टी के बहुत बड़े नेता थे. भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे . पं. दीन दयाल उपाध्याय के साथ पार्टी को आगे ले जाने की कोशिश कर रहे थे . लेकिन कुछ मंचों पर उन्होंने अपने विचार रख दिए और पार्टी से निकाल दिए गए. यह जो अपने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी हैं . बड़े विद्वान् हैं . नानाजी देशमुख जैसा बड़ा नेता उनका अमरीका से पकड़ कर जनसंघ में लाया था . १९७४ में उत्तर प्रदेश में जो विधान सभा को चुनाव हुआ था ,उसमें इनकी खासी भूमिका थी. बहुत ही सुरुचिपूर्ण पोस्टर बनाए गए थे . आज़ादी के छब्बीस साल के बाद कांग्रेस की नाकामियों को बहुत ही अच्छे तरीके से उभारा गया था लेकिन निकाल दिए गए. के एन गोविन्दाचार्य की बात तो बहुत ही ताज़ा है . उनको राजनीति के दूध और मक्खी वाले चैप्टर के हवाले से सारी बारीकियां समझा दी गयीं .बेचारे आजकल व्यवस्था परिवर्तन की राजनीति के मैदान में फ्रीलांसिंग कर रहे हैं .हाँ यह लोग प्रशांत भूषण से ज्यादा भाग्यशाली तह , इनको टी वी कैमरों के सामने बैठाकर पीटा नहीं गया.
इसलिए प्रशांत भूषण को समझ लेना चाहिए था कि अगर वे आर एस एस वालों से घनिष्ठता जोड़ रहे हैं तो उन्हें बाकी जीवन बहुत आनंद रहेगा. बशर्ते वे संघ की हर बात को अपनी बात कहकर प्रचारित करते रहते.देश के कई बड़े अखबारों के पत्रकारों ने भी आर एस एस की शरण ग्रहण कर ली है . हमेशा मौज करते रहते हैं . लेकिन उनको मालूम है कि अगर बीच में पत्रकारिता की शेखी बघारेगें तो वही हाल होगा जो प्रशांत भूषण का हुआ है .ऐसा कुछ पत्रकारों के साथ हो चुका है . प्रशांत जी को भी चाहिए था कि वे अगर आर एस एस वालों के साथ जुड़ रहे थे तो बाकी ज़िंदगी उनके कानूनी विशेषज्ञ बने रहते और मौज करते. लेकिन उन्होंने अन्य बुद्धिजीवियों की तरह अपनी स्वतंत्र राय का इज़हार किया तो उनके नए आका लोग इस बात को कभी बर्दाश्त नहीं करेगें.
हाँ आजकल ज़माना ऐसा है कि कुछ छिपता नहीं . यह संभव नहीं है कि आप किसी पार्टी या संगठन के साथ गुपचुप काम करने लगें और बात में फायदा उठा लें . लालू प्रसाद यादव ने सबको बता दिया कि किरण बेदी चांदनी चौक से टिकट के चक्कर में हैं . कांग्रेस वाले दिग्विजय सिंह भी बहुत गलत आदमी हैं उन्होंने सारी दुनिया को बता दिया कि अपने अन्ना जी राष्ट्रपति बनना चाहते हैं .दिग्विजय सिंह को पता ही नहीं है कि देवतास्वरुप अन्ना जी की पोल खोल कर उन्होंने देश और समाज का बहुत नुकसान किया है .हालांकि यह भी सच है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम ने भी देश के साथ दग़ा किया है . भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही देश की जनता सडकों पर आने का मन बना रही थी. शासक वर्गों का वही हाल होने वाला था जो चेकोस्लोवाकिया में १९९० में हुआ था , या चिली के तानाशाहों के खिलाफ जनता ने मैदान ले लिया था. जनता तो उस मूड में थी कि वह सत्ता के सभी दलालों को हमेशा के लिए खत्म कर देती लेकिन शासक वर्गों की कृपा के साथ साथ कांग्रेस और बीजेपी के सहयोग से अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में जनता के बढ़ रहे तूफ़ान को मोड़ दिया . अब पता नहीं इतिहास के किस मोड़ पर जनता इतनी तैयारी के साथ भ्रष्टाचार को चुनौती दे पायेगी. लेकिन २०११ वाला जनता का गुस्सा तो निश्चित रूप से अन्ना वालों ने दफ़न कर दिया है . और अब हिसार में उस भजनलाल की राजनीति को समर्थन दे रहे हैं जिसने भ्रष्टाचार के तरह तरह के प्रयोग किये थे. या उस चौतालावाद को बढ़ावा दे रहे हैं जो हरियाणा में भ्रष्ट राजनीति के पुरोधा के रूप में किसी सूरत में भजनलाली परंपरा से कम नहीं हैं .जहां तक कांग्रेस की बात है वह तो पिछले चुनाव में भी वहां तीसरे स्थान पर थी, और इस चुनाव में भी तीसरे पर ही रहेगी. वहां भी लगता है कि अन्ना के चेला नंबर वन राजनीतिक सपने देखने की तैयारी कर रहे हैं .
मैं अपने पूरे होशो हवास में घोषणा करता हूँ कि ऊपर जो कुछ भी लिखा है ,उसे मैंने बिलकुल नहीं लिखा है. यह सारी बातें सुनी सुनायी हैं और अगर कोई भगवा वस्त्रधारी मुझे पीटने आया तो मैं साफ़ मना कर दूंगा कि यह सब बकवास मैंने नहीं लिखी है .
प्रशांत भूषण की पिटाई के बाद इस देश की राजनीति ने करवट नहीं कई पल्थे खाए हैं . जिन लोगों को अपना मान कर प्रशांत भूषण क्रान्ति लाने चले थे उन्होंने उनकी विधिवत कुटम्मस की .टी वी पर उनकी हालत देख कर मैं भी डर गया हूँ . जिन लोगों ने प्रशांत जी की दुर्दशा की वही लोग तो पोर्टलों पर मेरे लेख पढ़कर गालियाँ लिखते हैं . लिखते हैं कि मेरे जैसे देशद्रोहियों को देश से निकाल दिया जाएगा. मार डाला जाएगा, काट डाला जाएगा. कुछ ऐसी गालियाँ लिखते हैं जिनका उल्लेख करना असंभव है . मुझे मुगालता था. मैं समझता था कि यह बेचारे किसी ऐसी राजनीतिक पार्टी में नौकरी करते हैं जिसको हमारी बातें कभी नहीं अच्छी लगीं.उसी पार्टी को खुश करने के लिए इस तरह की बातें लिखी जा रही हैं . मुझे इस बात का बिलकुल अंदाज़ नहीं था कि यह लोग बाकायदा तशरीफ़ लाकर शारीरिक रूप से कष्ट भी दे सकते हैं . प्रशांत भूषण की पिटाई का मेरे ऊपर यह असर हुआ है कि अब मैं फासिस्ट राजनीति के खिलाफ कुछ नहीं लिखूंगा. मैं दहशत में हूँ . यह भाई लोग कभी भी पंहुच सकते हैं और धुनाई कर सकते हैं .मुझे ऐसा इसलिए लगता है कि प्रशांत जी की कुटाई कोई हादसा नहीं था. बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से उन्हें घेरकर लतियाया गया था. यह भी हो सकता है कि जिस टी वी चैनल वाले उनसे बात कर रहे थे, वहां भी इन मारपीट वालों का कोई बंदा रहा हो जिसने पिटाई वाली सेना को एडवांस में खबर कर दी हो.
अब यहाँ यह कहकर कि जिन लोगों ने पिटाई की वे सब आर एस एस के अधीन संगठनो से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं मैं अपनी शामत नहीं बुलाना चाहता हूँ . लेकिन जिन लोगों को पिटने का डर नहीं है वे खुले आम कह रहे हैं .मेरी हिम्मत तो नहीं है कि मैं लिख सकूं लेकिन बताने वाले बता रहे हैं पिटाई करने पंहुचे लोग बीजेपी के बड़े नेताओं के साथ भी अक्सर फोटो खिंचवाते रहते थे. और उनके बहुत भरोसे के बन्दे थे. . श्री राम सेना के कर्नाटक राज्य के अधिपति श्री प्रमोद मुथालिक ने भी कहलवा भेजा है कि प्रशांत भूषण को पीटने वाले लोग उनके अपने बन्दे नहीं थे. उन्हें तो प्रमोद जी ने केवल टेक्नीकल ज्ञान मात्र सिखाया था. वह भी खुद प्रमोद जी का इन योद्धाओं से कुछ लेना देना नहीं था. उनके किसी मातहत अफसर ने दिल्ली की श्रीराम सेना को फ़्रैन्चाइज़ी दी थी जिसकी जानकारी मुथालिक श्री को नहीं थी. भगत सिंह के नाम पर धंधा कर रहे भारतीय जनता युवा मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पूर्व सदस्य का बीजेपी या उसकी किसी सहयोगी पार्टी से कोई लेना देना नहीं है.वह कभी भी बीजेपी में नहीं था क्योंकि अगर वह बीजेपी में कभी भी रहा होता तो उसे अपने पराये की पहचान होती और अपनी ही पार्टी के पूर्व सदस्य के बेटे को सरे आम देश की सबसे बड़ी अदालत के आस पास इतनी बेरहमी से न पीटता. ऐसी बहुत सी बातें हैं जो आर एस एस के विरोधी लिख रहे हैं लकिन अपनी हिम्मत नहीं है कि मैं यह लिख दूं कि जिन लोगों ने प्रशांत भूषण को पीटा वे आर एस एस या उसके अधीन काम करने वाले किसी संगठन से किसी तरह से सम्बंधित रहे होंगें.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की पिटाई का मैं अपनी पूरी ताक़त से विरोध करता हूँ . उनके बहुत सारे विचारों से सहमत नहीं हुआ जा सकता लेकिन विचारों से असहमत होने पर किसी को पीटना बिकुल गलत है . इसलिए मेरे अलावा जो भी चाहे उन लोगों की भरपूर भर्त्सना कर सकता है. वैसे सही बात यह है कि उन लोगों की जितनी निन्दा की जाए कम है . पिटाई करने वाले निंदनीय लोग हैं . जिन लोगों ने " मैं अन्ना हूँ " की टोपी पहनकर नई दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में टी वी कैमरों को धन्य करने की कोशिश की उनकी पिटाई करने वालों की भी सभी निंदा कर ही रहे हैं . वह निंदा बिलकुल सही है . लेकिन मैं उन लोगों की कोई निंदा नहीं कर सकता . क्योंकि कई बार मैं भी पटियाला हाउस कोर्ट के बगल वाली पुराना किला रोड से अपने घर जाता हूँ . लेकिन प्रशांत भूषण को भी आर एस एस प्रायोजित किसी आन्दोलन में शामिल होने के पहले यह सोच लेना चाहिए था कि अगर वे अन्ना हजारे के साथ आर एस एस वालों के आन्दोलन को संचालन करने के प्रोजेक्ट में शामिल हो रहे हैं तो उन्हें आर एस एस की हर बात को मानना पडेगा. आर एस एस के कई बड़े नेताओं ने बार बार बताया है कि वे लोग बहुत ही लोकतांत्रिक सोच के लोग हैं ,लोगों के विरोध करने के अधिकार को सम्मान देते हैं लेकिन वे यह बात कभी नहीं बर्दाश्त कर सकते कि अपना कोई बंदा उनकी मंज़ूर शुदा राजनीतिक लाइन से हटकर कोई बात कहे. इसका सबसे पहला शिकार प्रो.बलराज मधोक बने थे . किसी ज़माने में वे पार्टी के बहुत बड़े नेता थे. भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे . पं. दीन दयाल उपाध्याय के साथ पार्टी को आगे ले जाने की कोशिश कर रहे थे . लेकिन कुछ मंचों पर उन्होंने अपने विचार रख दिए और पार्टी से निकाल दिए गए. यह जो अपने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी हैं . बड़े विद्वान् हैं . नानाजी देशमुख जैसा बड़ा नेता उनका अमरीका से पकड़ कर जनसंघ में लाया था . १९७४ में उत्तर प्रदेश में जो विधान सभा को चुनाव हुआ था ,उसमें इनकी खासी भूमिका थी. बहुत ही सुरुचिपूर्ण पोस्टर बनाए गए थे . आज़ादी के छब्बीस साल के बाद कांग्रेस की नाकामियों को बहुत ही अच्छे तरीके से उभारा गया था लेकिन निकाल दिए गए. के एन गोविन्दाचार्य की बात तो बहुत ही ताज़ा है . उनको राजनीति के दूध और मक्खी वाले चैप्टर के हवाले से सारी बारीकियां समझा दी गयीं .बेचारे आजकल व्यवस्था परिवर्तन की राजनीति के मैदान में फ्रीलांसिंग कर रहे हैं .हाँ यह लोग प्रशांत भूषण से ज्यादा भाग्यशाली तह , इनको टी वी कैमरों के सामने बैठाकर पीटा नहीं गया.
इसलिए प्रशांत भूषण को समझ लेना चाहिए था कि अगर वे आर एस एस वालों से घनिष्ठता जोड़ रहे हैं तो उन्हें बाकी जीवन बहुत आनंद रहेगा. बशर्ते वे संघ की हर बात को अपनी बात कहकर प्रचारित करते रहते.देश के कई बड़े अखबारों के पत्रकारों ने भी आर एस एस की शरण ग्रहण कर ली है . हमेशा मौज करते रहते हैं . लेकिन उनको मालूम है कि अगर बीच में पत्रकारिता की शेखी बघारेगें तो वही हाल होगा जो प्रशांत भूषण का हुआ है .ऐसा कुछ पत्रकारों के साथ हो चुका है . प्रशांत जी को भी चाहिए था कि वे अगर आर एस एस वालों के साथ जुड़ रहे थे तो बाकी ज़िंदगी उनके कानूनी विशेषज्ञ बने रहते और मौज करते. लेकिन उन्होंने अन्य बुद्धिजीवियों की तरह अपनी स्वतंत्र राय का इज़हार किया तो उनके नए आका लोग इस बात को कभी बर्दाश्त नहीं करेगें.
हाँ आजकल ज़माना ऐसा है कि कुछ छिपता नहीं . यह संभव नहीं है कि आप किसी पार्टी या संगठन के साथ गुपचुप काम करने लगें और बात में फायदा उठा लें . लालू प्रसाद यादव ने सबको बता दिया कि किरण बेदी चांदनी चौक से टिकट के चक्कर में हैं . कांग्रेस वाले दिग्विजय सिंह भी बहुत गलत आदमी हैं उन्होंने सारी दुनिया को बता दिया कि अपने अन्ना जी राष्ट्रपति बनना चाहते हैं .दिग्विजय सिंह को पता ही नहीं है कि देवतास्वरुप अन्ना जी की पोल खोल कर उन्होंने देश और समाज का बहुत नुकसान किया है .हालांकि यह भी सच है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम ने भी देश के साथ दग़ा किया है . भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही देश की जनता सडकों पर आने का मन बना रही थी. शासक वर्गों का वही हाल होने वाला था जो चेकोस्लोवाकिया में १९९० में हुआ था , या चिली के तानाशाहों के खिलाफ जनता ने मैदान ले लिया था. जनता तो उस मूड में थी कि वह सत्ता के सभी दलालों को हमेशा के लिए खत्म कर देती लेकिन शासक वर्गों की कृपा के साथ साथ कांग्रेस और बीजेपी के सहयोग से अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में जनता के बढ़ रहे तूफ़ान को मोड़ दिया . अब पता नहीं इतिहास के किस मोड़ पर जनता इतनी तैयारी के साथ भ्रष्टाचार को चुनौती दे पायेगी. लेकिन २०११ वाला जनता का गुस्सा तो निश्चित रूप से अन्ना वालों ने दफ़न कर दिया है . और अब हिसार में उस भजनलाल की राजनीति को समर्थन दे रहे हैं जिसने भ्रष्टाचार के तरह तरह के प्रयोग किये थे. या उस चौतालावाद को बढ़ावा दे रहे हैं जो हरियाणा में भ्रष्ट राजनीति के पुरोधा के रूप में किसी सूरत में भजनलाली परंपरा से कम नहीं हैं .जहां तक कांग्रेस की बात है वह तो पिछले चुनाव में भी वहां तीसरे स्थान पर थी, और इस चुनाव में भी तीसरे पर ही रहेगी. वहां भी लगता है कि अन्ना के चेला नंबर वन राजनीतिक सपने देखने की तैयारी कर रहे हैं .
मैं अपने पूरे होशो हवास में घोषणा करता हूँ कि ऊपर जो कुछ भी लिखा है ,उसे मैंने बिलकुल नहीं लिखा है. यह सारी बातें सुनी सुनायी हैं और अगर कोई भगवा वस्त्रधारी मुझे पीटने आया तो मैं साफ़ मना कर दूंगा कि यह सब बकवास मैंने नहीं लिखी है .
Thursday, October 13, 2011
वंचित तबकों की बेहतरी के लिए ज़रूरी हस्तक्षेप हैं फुटपाथ के यह स्कूल
शेष नारायण सिंह
मुंबई के फुटपाथों पर भीख मांगने वाले बच्चों के लिए शुरू किये गए कोचिंग सेंटर अब वंचित तबकों के लोगों के सपनों को संजोने के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित हो रहे हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट नाम के संगठन के प्रयास से मुंबई के उपनगर अंधेरी और वर्सोवा के इलाके में सडकों के फुटपाथों पर स्कूल चल रहे हैं जो हज़ारों रूपये देकर ट्यूशन करने वालों से बेहतर शिक्षा उन बच्चों को दे रहे हैं जिनके लिए ट्यूशन क्या, स्कूल जाना भी एक सपने से कम नहीं था. आशा किरण ट्रस्ट के इस अभियान को प्रो.शर्मा नाम के एक बुज़ुर्ग लीड कर रहे हैं .
एयर फोर्स से रिटायर होकर शर्माजी ने मुंबई के चार बंगला इलाके को अपना ठिकाना बनाया. करीब १६ साल पहले की बात है उन्होंने देखा कि चार बंगला क्रासिंग के पास कुछ लोग भीख मांगने वाले बच्चों को खाना खिला रहे हैं .खिचडी घर नाम की संस्था के तत्वावधान में यह काम चल रहा था. यह रोज़ का काम था. खाना वितरण के वक़्त वहां भीख मांगने वालों की भारी संख्या हो जाती थी . चार विषयों के एम ए ,शर्माजी एयर फोर्स से आने के बाद ट्यूशन किया करते थे. खुद अविवाहित हैं इसलिए कोई जिम्मेवारी भी नहीं थी. ट्रस्ट वालों से उन्होंने कहा कि इस तरह से भिखारी को खाना देने से भीख मांगने के काम को प्रोत्साहन मिलता है . इस काम पर होने वाले खर्च का समाज के विकास में कोई रचनात्मक योगदान नहीं है.शर्माजी ने उन दानी लोगों से कहा कि मैं इन बच्चों को पढ़ाऊंगा . उन्होंने विवेकानंद की उस बात का हवाला भी दिया जहां उन्होंने कहा था कि अगर प्यासा कुएं के पास नहीं जा सकता तो ऐसे उपाय किये जाने चाहिए कि कुआं ही प्यासे के पास चला जाए. उन्होंने तर्क दिया कि शिक्षा ही समाज और राष्ट्र के विकास की मुख्य धुरी है . इसी के आस पास सारी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां घूमती हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टियों की समझ में बात आ गयी . उन्होंने शर्माजी को हरी झंडी दे दी और पूछा कि कब से आप पढ़ाना चाहेगें. उन्होंने कहा कि मैं अभी इसी वक़्त काम शुरू करना चाहता हूँ.शुरू में वे दो बच्चों को वहां लेकर बैठे . बाकी माता पिता अपने बच्चों को शिक्षा जैसी बेकार की चीज़ में समय बर्बाद करने के लिए भेजने को तैयार नहीं थे. ट्रस्ट के अध्यक्ष अग्रवाल साहेब और अन्य साथियों ने मिलकर आस पास की झुग्गी झोपडी इलाकों में जाकर अभियान चलाया . लेकिन बच्चों की कमी रही . १९९६ में एक अन्य ट्रस्टी नंदा कोटावाला ने कहा कि जो बच्चे स्कूल आयेगें उन्हें पांच रूपया दिया जाएगा . संख्या तो बढ़ी लेकिन उस रूपये का दुरुपयोग होने लगा . बच्चे सुरती तमाखू खाने लगे. शर्माजी ने सुझाव दिया कि नक़द नहीं सभी बच्चों को २०० ग्राम दूध दिया जाए जिसे या तो वे खुद पी लेगें या अपने घर ले जायेगें . दोनों ही हालात में उस दूध का सही इस्तेमाल होगा. बहरहाल शुरुआती मुश्किलों के बाद आज यह प्रयास चल निकला है . इन सेंटरों को स्कूल के रूप में मान्यता नहीं मिली है इसलिए सभी बच्चों का आस पास के महानगरपालिका के स्कूलों में दाखिला करा दिया जाता है . जहां वे स्कूली पढाई करते हैं और महाराष्ट्र बोर्ड की परीक्षाओं में शामिल होते हैं .
मुंबई के व्यस्त उपनगर अंधेरी की व्यस्त सडकों के फुटपाथों पर चटाई बिछाकर बैठे यह बच्चे उन वर्गों के लोगों के हैं जो आमतौर पर हिम्मत हार चुके होते हैं . सड़क पर ट्रैफिक शोर लगातार सुनायी पड़ता रहता है लेकिन इन बच्चों की पढाई चलती रहती है . वाकर के सहारे चलने वाले शर्माजी खुद भी कुछ सेंटरों पर मौजूद रहते हैं . उनके साथ एक सुषमा मेहता भी मिलीं . मुंबई के महंगे पोद्दार स्कूल में ३५ साल तक पढ़ाने के बाद वे इन बच्चों को मुफ्त में पढ़ाती हैं . एक ब्रिगेडियर साहेब की पत्नी रेखा शर्मा भी जुडी हैं जो अपना समय और ज्ञान इन बच्चों को मुफ्त में दे रही हैं. मिसेज़ मेहता और मिसेज़ शर्मा की तरह के करीब चालीस और लोग हैं जो समाज के संपन्न वर्ग के हैं लेकिन इन वंचित वर्ग के बच्चों के लिए अपना समय और प्रयास लगा रहे हैं . लेकिन सारा काम वालिटियरों के सहारे ही नहीं चलता .हर सेन्टर पर तीन घंटे पढाई होती है . इन सेन्टरों पर काम करने के लिए कुछ ऐसी लड़कियों को नौकरी पर भी रखा गया है जिनको तीन घंटे के काम के लिए उपयुक्त वेतन दिया जाता है .
शून्य से शुरू हुआ यह प्रयास आज मुंबई की शहरी ज़िंदगी में एक सार्थक हस्तक्षेप है . शुरुआती कोशिश के बाद जब स्कूल ने कुछ गति पकड़ी तो एक सरदार जी आये और उन्होंने कहा कि जितने भी केले खरीदे जाते हों सब का भुगतान वे करेगें . ट्रस्ट ने कभी किसी सरकारी संस्था या किसी नेता से कोई मदद नहीं ली है . अपने सहयोगियों के प्रयास से ही म्हाडा का फ़्लैट खरीदा गया था जो करीब १५ साल पहले १३ लाख रूपये का मिला था. आज उसकी कीमत डेढ़ करोड़ रूपये है . सेंटर को एक बस की ज़रुरत थी तो हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करने वाले एक पत्रकार ने बिरला औद्योगिक परिवार से साढ़े छः लाख रूपये दिलवा दिया .कुछ और लोगों के सहयोग से बस भी खरीद ली गयी. आज ट्रस्ट का एक फ़्लैट भी है जहां सारा सामान रखा जाता है .
इन केन्द्रों से पढ़कर जाने वाले बच्चे जीवन में बेहतर ज़िंदगी जीने और अपने आस पास के माहौल को बदलने की कोशिश करते हैं . यहाँ से जाने वाली लड़कियां गरीब तो होती हैं लेकिन अपनी अगली पीढ़ियों को बेहतर ज़िंदगी देने की कोशिश करती रहती हैं .शर्माजी ने बताया कि उनके केन्द्रों से पढाई करने वाले कुछ पूर्व छात्र-छात्राएं यहाँ आते भी है और अपने स्कूल से सम्बन्ध बनाए रखने में गर्व का अनुभव करते हैं .
मुंबई के फुटपाथों पर भीख मांगने वाले बच्चों के लिए शुरू किये गए कोचिंग सेंटर अब वंचित तबकों के लोगों के सपनों को संजोने के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विकसित हो रहे हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट नाम के संगठन के प्रयास से मुंबई के उपनगर अंधेरी और वर्सोवा के इलाके में सडकों के फुटपाथों पर स्कूल चल रहे हैं जो हज़ारों रूपये देकर ट्यूशन करने वालों से बेहतर शिक्षा उन बच्चों को दे रहे हैं जिनके लिए ट्यूशन क्या, स्कूल जाना भी एक सपने से कम नहीं था. आशा किरण ट्रस्ट के इस अभियान को प्रो.शर्मा नाम के एक बुज़ुर्ग लीड कर रहे हैं .
एयर फोर्स से रिटायर होकर शर्माजी ने मुंबई के चार बंगला इलाके को अपना ठिकाना बनाया. करीब १६ साल पहले की बात है उन्होंने देखा कि चार बंगला क्रासिंग के पास कुछ लोग भीख मांगने वाले बच्चों को खाना खिला रहे हैं .खिचडी घर नाम की संस्था के तत्वावधान में यह काम चल रहा था. यह रोज़ का काम था. खाना वितरण के वक़्त वहां भीख मांगने वालों की भारी संख्या हो जाती थी . चार विषयों के एम ए ,शर्माजी एयर फोर्स से आने के बाद ट्यूशन किया करते थे. खुद अविवाहित हैं इसलिए कोई जिम्मेवारी भी नहीं थी. ट्रस्ट वालों से उन्होंने कहा कि इस तरह से भिखारी को खाना देने से भीख मांगने के काम को प्रोत्साहन मिलता है . इस काम पर होने वाले खर्च का समाज के विकास में कोई रचनात्मक योगदान नहीं है.शर्माजी ने उन दानी लोगों से कहा कि मैं इन बच्चों को पढ़ाऊंगा . उन्होंने विवेकानंद की उस बात का हवाला भी दिया जहां उन्होंने कहा था कि अगर प्यासा कुएं के पास नहीं जा सकता तो ऐसे उपाय किये जाने चाहिए कि कुआं ही प्यासे के पास चला जाए. उन्होंने तर्क दिया कि शिक्षा ही समाज और राष्ट्र के विकास की मुख्य धुरी है . इसी के आस पास सारी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां घूमती हैं . आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टियों की समझ में बात आ गयी . उन्होंने शर्माजी को हरी झंडी दे दी और पूछा कि कब से आप पढ़ाना चाहेगें. उन्होंने कहा कि मैं अभी इसी वक़्त काम शुरू करना चाहता हूँ.शुरू में वे दो बच्चों को वहां लेकर बैठे . बाकी माता पिता अपने बच्चों को शिक्षा जैसी बेकार की चीज़ में समय बर्बाद करने के लिए भेजने को तैयार नहीं थे. ट्रस्ट के अध्यक्ष अग्रवाल साहेब और अन्य साथियों ने मिलकर आस पास की झुग्गी झोपडी इलाकों में जाकर अभियान चलाया . लेकिन बच्चों की कमी रही . १९९६ में एक अन्य ट्रस्टी नंदा कोटावाला ने कहा कि जो बच्चे स्कूल आयेगें उन्हें पांच रूपया दिया जाएगा . संख्या तो बढ़ी लेकिन उस रूपये का दुरुपयोग होने लगा . बच्चे सुरती तमाखू खाने लगे. शर्माजी ने सुझाव दिया कि नक़द नहीं सभी बच्चों को २०० ग्राम दूध दिया जाए जिसे या तो वे खुद पी लेगें या अपने घर ले जायेगें . दोनों ही हालात में उस दूध का सही इस्तेमाल होगा. बहरहाल शुरुआती मुश्किलों के बाद आज यह प्रयास चल निकला है . इन सेंटरों को स्कूल के रूप में मान्यता नहीं मिली है इसलिए सभी बच्चों का आस पास के महानगरपालिका के स्कूलों में दाखिला करा दिया जाता है . जहां वे स्कूली पढाई करते हैं और महाराष्ट्र बोर्ड की परीक्षाओं में शामिल होते हैं .
मुंबई के व्यस्त उपनगर अंधेरी की व्यस्त सडकों के फुटपाथों पर चटाई बिछाकर बैठे यह बच्चे उन वर्गों के लोगों के हैं जो आमतौर पर हिम्मत हार चुके होते हैं . सड़क पर ट्रैफिक शोर लगातार सुनायी पड़ता रहता है लेकिन इन बच्चों की पढाई चलती रहती है . वाकर के सहारे चलने वाले शर्माजी खुद भी कुछ सेंटरों पर मौजूद रहते हैं . उनके साथ एक सुषमा मेहता भी मिलीं . मुंबई के महंगे पोद्दार स्कूल में ३५ साल तक पढ़ाने के बाद वे इन बच्चों को मुफ्त में पढ़ाती हैं . एक ब्रिगेडियर साहेब की पत्नी रेखा शर्मा भी जुडी हैं जो अपना समय और ज्ञान इन बच्चों को मुफ्त में दे रही हैं. मिसेज़ मेहता और मिसेज़ शर्मा की तरह के करीब चालीस और लोग हैं जो समाज के संपन्न वर्ग के हैं लेकिन इन वंचित वर्ग के बच्चों के लिए अपना समय और प्रयास लगा रहे हैं . लेकिन सारा काम वालिटियरों के सहारे ही नहीं चलता .हर सेन्टर पर तीन घंटे पढाई होती है . इन सेन्टरों पर काम करने के लिए कुछ ऐसी लड़कियों को नौकरी पर भी रखा गया है जिनको तीन घंटे के काम के लिए उपयुक्त वेतन दिया जाता है .
शून्य से शुरू हुआ यह प्रयास आज मुंबई की शहरी ज़िंदगी में एक सार्थक हस्तक्षेप है . शुरुआती कोशिश के बाद जब स्कूल ने कुछ गति पकड़ी तो एक सरदार जी आये और उन्होंने कहा कि जितने भी केले खरीदे जाते हों सब का भुगतान वे करेगें . ट्रस्ट ने कभी किसी सरकारी संस्था या किसी नेता से कोई मदद नहीं ली है . अपने सहयोगियों के प्रयास से ही म्हाडा का फ़्लैट खरीदा गया था जो करीब १५ साल पहले १३ लाख रूपये का मिला था. आज उसकी कीमत डेढ़ करोड़ रूपये है . सेंटर को एक बस की ज़रुरत थी तो हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करने वाले एक पत्रकार ने बिरला औद्योगिक परिवार से साढ़े छः लाख रूपये दिलवा दिया .कुछ और लोगों के सहयोग से बस भी खरीद ली गयी. आज ट्रस्ट का एक फ़्लैट भी है जहां सारा सामान रखा जाता है .
इन केन्द्रों से पढ़कर जाने वाले बच्चे जीवन में बेहतर ज़िंदगी जीने और अपने आस पास के माहौल को बदलने की कोशिश करते हैं . यहाँ से जाने वाली लड़कियां गरीब तो होती हैं लेकिन अपनी अगली पीढ़ियों को बेहतर ज़िंदगी देने की कोशिश करती रहती हैं .शर्माजी ने बताया कि उनके केन्द्रों से पढाई करने वाले कुछ पूर्व छात्र-छात्राएं यहाँ आते भी है और अपने स्कूल से सम्बन्ध बनाए रखने में गर्व का अनुभव करते हैं .
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आशा किरण चैरिटेबल ट्रस्ट,
शेष नारायण सिंह
Wednesday, October 12, 2011
सरकारी अस्पताल की नर्स किसी मुख्यमंत्री की नौकर नहीं होती
शेष नारायण सिंह
मुंबई ,११ अक्टूबर . मुम्बई के दो सरकारी अस्पतालों की नर्सों ने अपने अस्पतालों के सामने प्रदर्शन किया और नारे लगाये. उनकी मांग थी कि उन्होंने सरकारी अस्पताल में काम करने के लिए नौकरी की है . वे किसी मंत्री के घर जाकर उसके किसी रिश्तेदार की देखभाल करने के लिए तैयार नहीं हैं.इस हड़ताल का फौरी कारण था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वी राज चह्वाण की सास जी का देखभाल करने के लिए मुंबई के कामा अस्पताल से कुछ नर्सों को उनके मालाबार हिल स्थित सरकारी आवास में भेज दिया गया था.
मुख्यमंत्री की बीमार सास की सेवा के लिए मुख्यमंत्री आवास पर तलब किये जाने से नर्सों में भारी गुस्सा है . कामा और आल्ब्लेस अस्पताल की जिन नर्सों को वहां भेजा गया था उन्होंने कहा कि अस्पताल के अफसर उनके ऊपर गैरकानूनी तरीके से दबाव डालते हैं . यह तरीका ठीक नहीं है . इन नर्सों के हड़ताल पर जाने के बाद तीन अन्य सरकारी अस्पतालों, जे जे ,सेंट जार्ज और जी टी अस्पताल की नर्सें भी उनके समर्थन में हड़ताल पर चली गयीं. नर्सों में इस बात को लेकर भारी नाराज़गी है कि उन्हें मंत्रियों के घर भेज दिया जाता है जब्कू उनकी ड्यूटी सरकारी अस्पताल में काम करने की है . उनका कहना है कि अस्पताल में चाहे कोई मंत्री आये या कोई सामान्य व्यक्ति , वे सबकी सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन मंत्रियों के घरों पर जाना उन्हें बर्दाश्त नहीं है.जो नर्सें मुख्यमंत्री आवास पर भेजी गयी थीं, उनका आरोप है कि वहां नर्सिंग जैसा कोई काम नहीं था . मुख्य मंत्री की सास जी को चलने में थोड़ी दिक्क़त होती है , बस उनको वाकर के सहारे टहलाने भर का काम करना था जिसे घर का कोई भी सदस्य या कोई भी प्रायवेट नर्स कर सकती थी. नर्सों को इस बात पर भी घोर एतराज़ है कि राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल मुख्यमंत्री जी की सास के सामने शेखी बघारने के लिए किया जा रहा है .
महाराष्ट्र सरकारी नर्स फेडरेशन की जनरल सेक्रेटरी , कस्तूरी कदम का कहना है कि ५ अक्टूबर को जे जे ग्रुप आफ हास्पिटल्स के डीन, डॉ टी पी लाहने ने आदेश भेज दिया था कि तीन नर्सों को मुख्यमंत्री आवास पर काम करना है . यह नहीं बताया गया कि कब तक वहां रहना है . जो नर्सें वहां गयी थीं, उनको १२ घंटे की ड्यूटी करनी पड़ी. और वे देर से घर पंहुचीं .फेडरेशन ने सवाल उठाया है कि अगर उन नर्सों के साथ कोई अनहोनी हो जाती तो कौन ज़िम्मेदार होता.
पता चला है कि सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों और नर्सों को इस तरह से मंत्रियों के घरों पर भेजना कोई नई बात नहीं है . यह तो अक्सर होता रहता है . उधर जे जे ग्रुप आफ हास्पिटल्स के डीन ,डॉ टी पी लाहने का दावा है कि नर्सों को मुख्य मंत्री निवास पर ड्यूटी के लिए भेजने में कोई गैर कानूनी काम नहीं किया गया है .इन नर्सों की ड्यूटी इसलिए लगाई गयी थी क्यंकि मुख्यमंत्री की सास की देखभाल का काम जिस प्राइवेट नर्स के जिम्मे था वह छुट्टी पर चली गयी थी. लेकिन नर्सों का आरोप है कि यह काम तो गैरकानूनी है लेकिन विरोध के स्वर कमज़ोर होने की वजह से अपनी चापलूसी को चमकदार बनाने के लिए अधिकारी इस तरह के काम करते रहते हैं . नर्सों की यूनियन की एक अन्य नेता, श्रीमती वायकर का कहना है कि १९६६ में भी एक बार मुख्यमंत्री आवास पर नर्सों की ड्यूटी लगा दी गयी थी . जब विरोध किया गया तब जाकर कानूनी स्थिति साफ़ हुई और बाद के कई वर्षों तक किसी भी अफसर की हिम्मत नर्सों को मंत्रियों के यहाँ भेजने की नहीं पड़ी अब जब मुख्यमंत्री की सास की सेवा के मामले में ज़बरदस्त विरोध कर दिया गया है , सब लोग ठीक हो जायेगें.
मुंबई ,११ अक्टूबर . मुम्बई के दो सरकारी अस्पतालों की नर्सों ने अपने अस्पतालों के सामने प्रदर्शन किया और नारे लगाये. उनकी मांग थी कि उन्होंने सरकारी अस्पताल में काम करने के लिए नौकरी की है . वे किसी मंत्री के घर जाकर उसके किसी रिश्तेदार की देखभाल करने के लिए तैयार नहीं हैं.इस हड़ताल का फौरी कारण था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वी राज चह्वाण की सास जी का देखभाल करने के लिए मुंबई के कामा अस्पताल से कुछ नर्सों को उनके मालाबार हिल स्थित सरकारी आवास में भेज दिया गया था.
मुख्यमंत्री की बीमार सास की सेवा के लिए मुख्यमंत्री आवास पर तलब किये जाने से नर्सों में भारी गुस्सा है . कामा और आल्ब्लेस अस्पताल की जिन नर्सों को वहां भेजा गया था उन्होंने कहा कि अस्पताल के अफसर उनके ऊपर गैरकानूनी तरीके से दबाव डालते हैं . यह तरीका ठीक नहीं है . इन नर्सों के हड़ताल पर जाने के बाद तीन अन्य सरकारी अस्पतालों, जे जे ,सेंट जार्ज और जी टी अस्पताल की नर्सें भी उनके समर्थन में हड़ताल पर चली गयीं. नर्सों में इस बात को लेकर भारी नाराज़गी है कि उन्हें मंत्रियों के घर भेज दिया जाता है जब्कू उनकी ड्यूटी सरकारी अस्पताल में काम करने की है . उनका कहना है कि अस्पताल में चाहे कोई मंत्री आये या कोई सामान्य व्यक्ति , वे सबकी सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन मंत्रियों के घरों पर जाना उन्हें बर्दाश्त नहीं है.जो नर्सें मुख्यमंत्री आवास पर भेजी गयी थीं, उनका आरोप है कि वहां नर्सिंग जैसा कोई काम नहीं था . मुख्य मंत्री की सास जी को चलने में थोड़ी दिक्क़त होती है , बस उनको वाकर के सहारे टहलाने भर का काम करना था जिसे घर का कोई भी सदस्य या कोई भी प्रायवेट नर्स कर सकती थी. नर्सों को इस बात पर भी घोर एतराज़ है कि राज्य के संसाधनों का इस्तेमाल मुख्यमंत्री जी की सास के सामने शेखी बघारने के लिए किया जा रहा है .
महाराष्ट्र सरकारी नर्स फेडरेशन की जनरल सेक्रेटरी , कस्तूरी कदम का कहना है कि ५ अक्टूबर को जे जे ग्रुप आफ हास्पिटल्स के डीन, डॉ टी पी लाहने ने आदेश भेज दिया था कि तीन नर्सों को मुख्यमंत्री आवास पर काम करना है . यह नहीं बताया गया कि कब तक वहां रहना है . जो नर्सें वहां गयी थीं, उनको १२ घंटे की ड्यूटी करनी पड़ी. और वे देर से घर पंहुचीं .फेडरेशन ने सवाल उठाया है कि अगर उन नर्सों के साथ कोई अनहोनी हो जाती तो कौन ज़िम्मेदार होता.
पता चला है कि सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों और नर्सों को इस तरह से मंत्रियों के घरों पर भेजना कोई नई बात नहीं है . यह तो अक्सर होता रहता है . उधर जे जे ग्रुप आफ हास्पिटल्स के डीन ,डॉ टी पी लाहने का दावा है कि नर्सों को मुख्य मंत्री निवास पर ड्यूटी के लिए भेजने में कोई गैर कानूनी काम नहीं किया गया है .इन नर्सों की ड्यूटी इसलिए लगाई गयी थी क्यंकि मुख्यमंत्री की सास की देखभाल का काम जिस प्राइवेट नर्स के जिम्मे था वह छुट्टी पर चली गयी थी. लेकिन नर्सों का आरोप है कि यह काम तो गैरकानूनी है लेकिन विरोध के स्वर कमज़ोर होने की वजह से अपनी चापलूसी को चमकदार बनाने के लिए अधिकारी इस तरह के काम करते रहते हैं . नर्सों की यूनियन की एक अन्य नेता, श्रीमती वायकर का कहना है कि १९६६ में भी एक बार मुख्यमंत्री आवास पर नर्सों की ड्यूटी लगा दी गयी थी . जब विरोध किया गया तब जाकर कानूनी स्थिति साफ़ हुई और बाद के कई वर्षों तक किसी भी अफसर की हिम्मत नर्सों को मंत्रियों के यहाँ भेजने की नहीं पड़ी अब जब मुख्यमंत्री की सास की सेवा के मामले में ज़बरदस्त विरोध कर दिया गया है , सब लोग ठीक हो जायेगें.
जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि
शेष नारायण सिंह
जगजीत सिंह को पहली बार १९७८ में जाकिर हुसेन मार्ग के मकान नंबर ४७ के लान में देखा था. दिल्ली हाई कोर्ट के ऐन पीछे यह मकान है. उस मकान में उन दिनों विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव डॉ इंदु प्रकाश सिंह रहते थे. जनता पार्टी का ज़माना था . इंदिरा गांधी १९७७ में चुनाव हार चुकी थीं . पाकिस्तानियों के लिए १९७१ की लड़ाई को भूल पाना मुश्किल था लेकिन मोरारजी देसाई के आने के बाद भारत की विदेशनीति का मुख्य नारा था कि पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की ज़रुरत है . वही कवायद चल रही थी. डॉ इंदु प्रकाश सिंह विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान डेस्क के इंचार्ज थे .विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे .अटल जी का शुमार उर्दू के बहुत बड़े शायर फैज़ अहमद फैज़ के समर्थकों में किया जाता था.अटल बिहारी वाजपेयी इमरजेंसी में जेल में बंद रह चुके थे . जेल से आने के बाद उन्होंने दिल्ली की एक सभा में बा-आवाज़े बुलंद घोषित किया था कि उन्होंने जेल में फैज़ की शायरी को पढ़ा था और उनको फैज़ का वह शेर बहुत पसंद आया था जहां फैज़ फरमाते हैं कि " कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले " . जब अटल जी का यह भाषण मावलंकर आडिटोरियम में चल रहा था ,उस वक़्त दर्शकों में कनाडा के नागरिक अशोक सिंह भी बैठे थे. अशोक सिंह किसी भारतीय राजनयिक के बेटे थे और पूरी दुनिया में संगीत और संगीतकारों के प्रमोशन का काम करते थे. मुझे लगता है कि वहीं उन्होंने तय कर लिया था कि फैज़ को इस देश में सम्मानपूर्वक लाना है . अशोक सिंह ही फैज़ को अपने पिता जी के मित्र डॉ इंदु प्रकाश सिंह के लान के कार्यक्रममें लाये थे . वह कार्यक्रम हालांकि घर पर हुआ था लेकिन वह कार्यक्रम था सरकारी . वहां पर माहौल फैज़मय था . फैज़ ने बहुत सारी अपनी गज़लें पढ़ीं . फैज़ की शायरी को फैज़ की मौजूदगी में गाने के लिए पाकिस्तान की नामी गज़ल गायिका मुन्नी बेगम भी तशरीफ़ लाई थीं. उन्होंने फैज़ की कई गज़लें गाईं. बीच में थक गयीं और लगा कि वे कुछ मिनटों का एक ब्रेक चाहती थीं ,. इसी बीच अशोक सिंह ने कहा कि माहौल बन चुका है .उसको जारी रखना ज़रूरी है . मुन्नी बेगम थोड़ी देर आराम करेंगीं लेकिन इस बीच उन्होंने अपने बम्बई के एक साथी को फैज़ गाने के लिए प्रस्तुत कर दिया. वहां मौजूद लोगों में किसी ने जगजीत सिंह नाम के इस नौजवान को कभी गाते नहीं सुना था . लेकिन टाइम पास करने के लिए लोगों ने इस नौजवान को भी सुनने के मन बना लिया. पहली ग़ज़ल के बाद ही सब कुछ बदल चुका था.इस खूबसूरत नौजवान की पहली ग़ज़ल सुन कर ही लोग फरमाइश करने लगे. दूसरी, तीसरी और चौथी ग़ज़ल के बाद मुन्नी बेगम ने मोर्चा संभाला लेकिन उन्होंने साफ़ कहा कि जगजीत सिंह की आवाज़ में फैज़ सुनना बहुत अच्छा लगा. प्रोग्राम के आखिर में फैज़ साहब ने खुद कहा कि यह नौजवान ग़ज़ल गायकी की बुलंदियों तक जाएगा. फैज़ की बात में दम था . जगजीत सिंह ने उस दिन बहुत सारे लोगों के अलावा फैज़ और मुन्नी बेगम का नाम भी अपने शुरुआती प्रशंसकों की लिस्ट में लिख लिया था .
उसके बाद बहुत दिन तक जगजीत सिंह को करीब से देखने का मौक़ा नहीं मिला. उनकी फिल्म प्रेमगीत ने यह सुनिश्चित कर दिया कि जगजीत सिंह एक गायक के रूप में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं .फ़िल्मी दुनिय अमन वे चलता सिक्का बन चुके थे. उसके बाद अर्थ आई, फिर फिल्म साथ साथ .उसके बाद तो फिल्मों का सिलसिला ही शुरू हो गया . जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी को एक मेयार दिया. जब टी वी में हमने नसीरुद्दीन शाह को गालिब के रूप में देखा तो समझ में आ गया कि करीब डेढ़ सौ साल पहले गालिब उसी हुलिया में दिल्ली में घूमते रहे होंगें लेकिन जगजीत सिंह ने गालिब की गजलों को जिस मुहब्बत के साथ गाया वह आने वाली नस्लों के लिए फख्र की बात है . जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी की मूल परम्परा को भी निभाया लेकिन बहुत सारे प्रयोग भी किये. उनके जाने के बाद ग़ज़ल के जानकारों का एक करीबी दोस्त गुज़र गया है . और ग़ज़ल को सुनने वालों का एक बहुत बड़ा हीरो चला गया है . अलविदा जगजीत , अलविदा ग़ज़ल के राजकुमार
जगजीत सिंह को पहली बार १९७८ में जाकिर हुसेन मार्ग के मकान नंबर ४७ के लान में देखा था. दिल्ली हाई कोर्ट के ऐन पीछे यह मकान है. उस मकान में उन दिनों विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव डॉ इंदु प्रकाश सिंह रहते थे. जनता पार्टी का ज़माना था . इंदिरा गांधी १९७७ में चुनाव हार चुकी थीं . पाकिस्तानियों के लिए १९७१ की लड़ाई को भूल पाना मुश्किल था लेकिन मोरारजी देसाई के आने के बाद भारत की विदेशनीति का मुख्य नारा था कि पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की ज़रुरत है . वही कवायद चल रही थी. डॉ इंदु प्रकाश सिंह विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान डेस्क के इंचार्ज थे .विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे .अटल जी का शुमार उर्दू के बहुत बड़े शायर फैज़ अहमद फैज़ के समर्थकों में किया जाता था.अटल बिहारी वाजपेयी इमरजेंसी में जेल में बंद रह चुके थे . जेल से आने के बाद उन्होंने दिल्ली की एक सभा में बा-आवाज़े बुलंद घोषित किया था कि उन्होंने जेल में फैज़ की शायरी को पढ़ा था और उनको फैज़ का वह शेर बहुत पसंद आया था जहां फैज़ फरमाते हैं कि " कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले " . जब अटल जी का यह भाषण मावलंकर आडिटोरियम में चल रहा था ,उस वक़्त दर्शकों में कनाडा के नागरिक अशोक सिंह भी बैठे थे. अशोक सिंह किसी भारतीय राजनयिक के बेटे थे और पूरी दुनिया में संगीत और संगीतकारों के प्रमोशन का काम करते थे. मुझे लगता है कि वहीं उन्होंने तय कर लिया था कि फैज़ को इस देश में सम्मानपूर्वक लाना है . अशोक सिंह ही फैज़ को अपने पिता जी के मित्र डॉ इंदु प्रकाश सिंह के लान के कार्यक्रममें लाये थे . वह कार्यक्रम हालांकि घर पर हुआ था लेकिन वह कार्यक्रम था सरकारी . वहां पर माहौल फैज़मय था . फैज़ ने बहुत सारी अपनी गज़लें पढ़ीं . फैज़ की शायरी को फैज़ की मौजूदगी में गाने के लिए पाकिस्तान की नामी गज़ल गायिका मुन्नी बेगम भी तशरीफ़ लाई थीं. उन्होंने फैज़ की कई गज़लें गाईं. बीच में थक गयीं और लगा कि वे कुछ मिनटों का एक ब्रेक चाहती थीं ,. इसी बीच अशोक सिंह ने कहा कि माहौल बन चुका है .उसको जारी रखना ज़रूरी है . मुन्नी बेगम थोड़ी देर आराम करेंगीं लेकिन इस बीच उन्होंने अपने बम्बई के एक साथी को फैज़ गाने के लिए प्रस्तुत कर दिया. वहां मौजूद लोगों में किसी ने जगजीत सिंह नाम के इस नौजवान को कभी गाते नहीं सुना था . लेकिन टाइम पास करने के लिए लोगों ने इस नौजवान को भी सुनने के मन बना लिया. पहली ग़ज़ल के बाद ही सब कुछ बदल चुका था.इस खूबसूरत नौजवान की पहली ग़ज़ल सुन कर ही लोग फरमाइश करने लगे. दूसरी, तीसरी और चौथी ग़ज़ल के बाद मुन्नी बेगम ने मोर्चा संभाला लेकिन उन्होंने साफ़ कहा कि जगजीत सिंह की आवाज़ में फैज़ सुनना बहुत अच्छा लगा. प्रोग्राम के आखिर में फैज़ साहब ने खुद कहा कि यह नौजवान ग़ज़ल गायकी की बुलंदियों तक जाएगा. फैज़ की बात में दम था . जगजीत सिंह ने उस दिन बहुत सारे लोगों के अलावा फैज़ और मुन्नी बेगम का नाम भी अपने शुरुआती प्रशंसकों की लिस्ट में लिख लिया था .
उसके बाद बहुत दिन तक जगजीत सिंह को करीब से देखने का मौक़ा नहीं मिला. उनकी फिल्म प्रेमगीत ने यह सुनिश्चित कर दिया कि जगजीत सिंह एक गायक के रूप में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं .फ़िल्मी दुनिय अमन वे चलता सिक्का बन चुके थे. उसके बाद अर्थ आई, फिर फिल्म साथ साथ .उसके बाद तो फिल्मों का सिलसिला ही शुरू हो गया . जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी को एक मेयार दिया. जब टी वी में हमने नसीरुद्दीन शाह को गालिब के रूप में देखा तो समझ में आ गया कि करीब डेढ़ सौ साल पहले गालिब उसी हुलिया में दिल्ली में घूमते रहे होंगें लेकिन जगजीत सिंह ने गालिब की गजलों को जिस मुहब्बत के साथ गाया वह आने वाली नस्लों के लिए फख्र की बात है . जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी की मूल परम्परा को भी निभाया लेकिन बहुत सारे प्रयोग भी किये. उनके जाने के बाद ग़ज़ल के जानकारों का एक करीबी दोस्त गुज़र गया है . और ग़ज़ल को सुनने वालों का एक बहुत बड़ा हीरो चला गया है . अलविदा जगजीत , अलविदा ग़ज़ल के राजकुमार
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