शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२१ सितम्बर. लाल कृष्ण आडवाणी ने बीजेपी की तरफ से २०१४ के लोक सभा चुनाव के वक़्त प्रधान मंत्री पड़ की दावेदारी से किनारा कर लिया है .आज सुबह नागपुर की यात्रा पर तलब किये गए आडवाणी ने आर एस एस को भरोसा दिला दिया है कि अब वे देश के सर्वोच्च पद के लिए दावेदारी नहीं करेगें . उनके इस बयान के बाद नई दिल्ली में बीजेपी के अंदर का राजनीतिक संघर्ष तेज़ हो गया है . इस संघर्ष के तार अहमदाबाद से भी सीधे तौर पर जुड़ गए हैं.आज जब दिल्ली में पार्टी की नियमित ब्रीफिंग में पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर से पूछा गया कि क्या आडवाणी के नागपुर के बयान के पीछे आर एस एस का दबाव था क्योंकि दिल्ली में आठ सितम्बर को जब उन्होंने अपनी रथ यात्रा का ऐलान किया था तो उन्होंने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के सवाल को खुला छोड़ दिया था. आज नागपुर में उन्होंने साफ़ कहा कि उन्हें पार्टी, संघ और मीडिया से जितना प्यार मिला है वह प्रधान मंत्री पद से ज्यादा महत्वपूर्ण है.पार्टी प्रवक्ता ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा और यही कहते रहे कि आडवाणी जी ने भ्रष्टाचार विरोधी यात्रा के ऐलान के समय जो कुछ दिल्ली में कहा था वही बात उन्होंने नागपुर में भी कही. लेकिन बीजेपी के अंदर की खबर रखने वाले बताते हैं कि अब बीजेपी की राजनीति में आडवाणी युग समाप्त हो गया है और आर एस एस के टाप नेताओं की मौजूदगी में आज यह बात नागपुर में बिलकुल पक्के तौर पर तय कर दी गयी है . इसीलिये आडवानी ने आज नागपुर में कहा कि मैं पार्टी के साथ बना हूँ औअर यह उनके लिय एबहुत खुशी की बात है . उन्होंने साफ़ कहा कि वे प्रधान मंत्री नहीं बनना चाहते.बीजेपी प्रवक्ता ने आज स्पष्ट किया कि जिस रथयात्रा की घोषणा आडवाणी जी ने ८ सितम्बर को की थी , वह अभी रद्द नहीं की गयी है . लेकिन अभी उसके बारे में विस्तार से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.
आडवाणी के इस बयान के बाद बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में एक बार फिर उठापटक का दौर शुरू हो जाने की आशंका है . बीजेपी वालों को अनुमान है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस सरकार पूरी तरह से घिर चुकी है इसलिए अगले चुनाव में उसका जीतना असंभव है . उस खाली जगह को भरने के लिए बीजेपी के नए टाप नेता कोशिश कर रहे हैं . आडवानी के मैदान छोड़ देने के बाद यह रसाकशी और तेज़ हो जायेगी इस सम्बन्ध में जब कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के कम से कम पांच दावेदार हैं. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि बीजेपी की आन्तरिक राजनीतिक उथल पुथल के बारे में वे कुछ नहीं कहना चाहते लेकिन उन्होंने बीजेपी का मजाक उडाना जारी रखा . बहरहाल बीजेपी में लाल कृष्ण आडवानी के नागपुर में दिए गए बयान के बाद सत्ता की दावेदारी का संघर्ष तेज़ हो गया है .
Thursday, September 22, 2011
योजना आयोग और कांग्रेस के बीच गरीबी रेखा पर मतभेद
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२१ सितम्बर.बीजेपी ने आज सरकार के उस हलफनामे की सख्त निंदा की जिसमें कथित रूप से गरीबों की संख्या घटाने की साज़िश की गयी है . बीजेपी ने एक बयान जारी करके कहा कि यह उस गरीब व्यक्ति का अपमान है जो बढ़ती मंहगाई और भ्रष्टाचार का शिकार हो रहा है.गरीब को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के बजाय सरकार ने तथ्य को नकारने और गरीब व्यक्तियों की संख्या छिपाने का रास्ता चुना यह गरीबी दूर करना नहीं बल्कि गरीब को गरीब न मानना है. बीजेपी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू पी ए सरकार के इस गरीब विरोधी रवैये का सभी उपलब्ध मंचों पर विरोध करेगी. हालांकि कांग्रेस ने इस हलफनामे को अंतिम सत्य मानने से इनकार कर दिया और कहा कि योजना आयोग के पास इस मामले में सुझाव दिए जायेगें . कांग्रेस का दावा है कि यह सुझाव कोई भी दे सकता है . एक सीधे सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी भी योजना आयोग को सकारात्मक सुझाव देगी.लगता है कि अर्थशात्र के विद्वान् योजना आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने कांग्रेस के पार्टी से गरीबी की रेखा की परिभाषा तय करने के पहले हरी झंडी नहीं ली थी.
योजना आयोग ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल करके कहा था कि देश के शहरी इलाकों में रह रहे लोग अगर ९६५ रूपये प्रति माह अपने परिवार के रख रखाव पर खर्च करते हैं तो वे गरीबी रेखा कि उपर मानेजायेगें जबकि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले पारिवारों के पास अगर ७८१ रूपये खर्च करने के लिए उपलब्ध है तो वे गरीब नहीं माने जायेगें. बीजेपी का कहना है कि यह सरकार की गैर ज़िम्मेदार कोशिश है . बीजेपी का दावा है कि यह दिमागी दिवालियापन है और इस प्रकार का हलफनामा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की विफलता का प्रतीक है .
खाद्य सुरक्षा का कानून बनाकर गरीब आदमी के बीच लोकप्रिय बनने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए योजना आयोग़ का यह हलफ़नामा बहुत मुश्किलें पैदा कर रहा है . आज जब कांग्रेस प्रवक्ता से इस बारे में जब सवाल किया गया तो तो उन्होंने साफ़ कहा कि अभी इस हलफनामे में सुधार किया जायेगा . हालांकि बात को बहुत घुमावदार तरीके से पेश किया गया लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता की बात से साफ़ था कि योजना आयोग ने उसके लिए मुश्किल पेश कर दी है . उनका कहना है कि बहुत ही सोच विचार के बाद यह आंकड़े उपलब्ध हुए हैं और योजना आयोग के बहुत ही काबिल लोगों ने इस हलफ नामे पर काम किया है . इसलिए इस पर सोच विचार के बाद कोई फैसला लिया जायेगा. कांगेस के सूत्रों का दावा है कि यह हलफनामा पार्टी को मुश्किल में डालने वाला है और बिना राजनीतिक क्लियरेंस के इसे सुप्रीम कोर्ट में पेश कर दिया गया है .
नई दिल्ली,२१ सितम्बर.बीजेपी ने आज सरकार के उस हलफनामे की सख्त निंदा की जिसमें कथित रूप से गरीबों की संख्या घटाने की साज़िश की गयी है . बीजेपी ने एक बयान जारी करके कहा कि यह उस गरीब व्यक्ति का अपमान है जो बढ़ती मंहगाई और भ्रष्टाचार का शिकार हो रहा है.गरीब को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के बजाय सरकार ने तथ्य को नकारने और गरीब व्यक्तियों की संख्या छिपाने का रास्ता चुना यह गरीबी दूर करना नहीं बल्कि गरीब को गरीब न मानना है. बीजेपी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू पी ए सरकार के इस गरीब विरोधी रवैये का सभी उपलब्ध मंचों पर विरोध करेगी. हालांकि कांग्रेस ने इस हलफनामे को अंतिम सत्य मानने से इनकार कर दिया और कहा कि योजना आयोग के पास इस मामले में सुझाव दिए जायेगें . कांग्रेस का दावा है कि यह सुझाव कोई भी दे सकता है . एक सीधे सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी भी योजना आयोग को सकारात्मक सुझाव देगी.लगता है कि अर्थशात्र के विद्वान् योजना आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने कांग्रेस के पार्टी से गरीबी की रेखा की परिभाषा तय करने के पहले हरी झंडी नहीं ली थी.
योजना आयोग ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल करके कहा था कि देश के शहरी इलाकों में रह रहे लोग अगर ९६५ रूपये प्रति माह अपने परिवार के रख रखाव पर खर्च करते हैं तो वे गरीबी रेखा कि उपर मानेजायेगें जबकि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले पारिवारों के पास अगर ७८१ रूपये खर्च करने के लिए उपलब्ध है तो वे गरीब नहीं माने जायेगें. बीजेपी का कहना है कि यह सरकार की गैर ज़िम्मेदार कोशिश है . बीजेपी का दावा है कि यह दिमागी दिवालियापन है और इस प्रकार का हलफनामा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की विफलता का प्रतीक है .
खाद्य सुरक्षा का कानून बनाकर गरीब आदमी के बीच लोकप्रिय बनने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए योजना आयोग़ का यह हलफ़नामा बहुत मुश्किलें पैदा कर रहा है . आज जब कांग्रेस प्रवक्ता से इस बारे में जब सवाल किया गया तो तो उन्होंने साफ़ कहा कि अभी इस हलफनामे में सुधार किया जायेगा . हालांकि बात को बहुत घुमावदार तरीके से पेश किया गया लेकिन कांग्रेस प्रवक्ता की बात से साफ़ था कि योजना आयोग ने उसके लिए मुश्किल पेश कर दी है . उनका कहना है कि बहुत ही सोच विचार के बाद यह आंकड़े उपलब्ध हुए हैं और योजना आयोग के बहुत ही काबिल लोगों ने इस हलफ नामे पर काम किया है . इसलिए इस पर सोच विचार के बाद कोई फैसला लिया जायेगा. कांगेस के सूत्रों का दावा है कि यह हलफनामा पार्टी को मुश्किल में डालने वाला है और बिना राजनीतिक क्लियरेंस के इसे सुप्रीम कोर्ट में पेश कर दिया गया है .
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गोपालगढ़ में मुसलमानों को टार्गेट करने के मामले में कांग्रेस को रंज है आराम के साथ
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २१ सितम्बर .बीजेपी ने राजस्थान सरकार के इस्तीफे की मांग की है . पार्टी का आरोप है कि राजस्थान के भरतपुर जिले के गोपालगढ़ गांव में 14 सितंबर को पुलिस ने एक समुदाय के लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग की और लोगों की जान गयी . कांग्रेस के राशिद अल्वी इस मामले की जांच के लिए गोपाल गढ़ गए थे और उन्होंने राज्य के गृह मंत्री को घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहराया . बीजेपी का आरोप है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद राजस्थान की पूरी सरकार को इस्तीफ़ा दे देना चाहिये . जब बीजेपी प्रवक्ता को बताया गया कि आप लोग गुजरात में हज़ारों मुसलमानों की हत्या के बाद भी नरेंद्र मोदी को दोषी नहीं मानते हैं तो उन्होंने कहा कि गोपालगढ़ में सीधे तौर पर राज्य सरकार का हाथ है . मानवाधिकार संगठन ,पी यू सी एल का आरोप है कि इस मामले में पुलिस का गैर ज़िम्मेदार रवैया ही सबसे ज्यादा चिंता की बात है . अजीब बात है कि पुलिस ने दो लोगों के आपसी विवाद में भाग लेते हुए एक खास समुदाय को निशाना बनाया.
गोपालगढ़ की इस घटना में आठ लोग मारे गए और अधिकारिक रूप से 23 लोग घायल हुए। जिन आठ मृतकों की शिनाख्त हुई है, वे सभी अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं। 23 लोग घायल हुए, इसमें से 19 लोग अल्पसंख्यक समुदाय के हैं. यदि पुलिस ने सही कदम उठाते हुए गोलीबारी की है, तो यह एक पहेली है कि मरने वाले सभी एक ही समुदाय के कैसे हो सकते हैं. शुरुआती जांच में पता चला है कि पुलिस ने 219 राउंड गोलियां चलाईं. गोलीबारी से पहले सिर्फ आंसू गैस के गोले छोड़े जाने का उल्लेख है लेकिन लाठीचार्ज या रबर बुलेट का कोई जिक्र नहीं आया है।
पीयूसीएल के अनुसार अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर उन्हें जलाया भी गया। यह जांच करने की जरूरत है कि यह किसने किया। गोलीबारी के बाद मस्जिद परिसर पुलिस के नियंत्रण में था . पी यू सी एल का आरोप हैं कि इस घटना के पीछे स्थानीय पुलिस के अलावा आरएसएस, बजरंग दल और विहिप के कार्यकर्ता शामिल हो सकते हैं। आरोप यह लगाया कि ये लोग घटना से पहले थाने में थे, जहां दोनों समुदाय के बीच समझौते के लिए बैठक चल रही थी तथा इन्हीं लोगों ने दबाव बनाकर कलेक्टर से फायरिंग के आदेश लिखवाए। इसकी भी जांच करवाए जाने की आवश्यकता है. यह भी पता चला है कि गोपालगढ की मस्जिद की दीवारों पर गोलियों के निशान थे. खून के निशान भी मिले हैं .मारने के बाद लोगों को घसीटा भी गया .
नई दिल्ली में आज कांग्रेस के प्रवक्ता ने इसे बहुत ही दुखद और दुभाग्यपूर्ण बताया लेकिन वे इस से आगे जाने को तैयार नहीं थे. जब पूछा गया कि यह मामला तो गुजरात जैसा ही है तो उन्होंने एतराज़ किया और कहा कि गोपाल गढ़ के मामले में अभी कोई सबूत नहीं हैं . गुजरात के मामले में तो सबूत सुप्रीम कोर्ट तक पंहुच चुके हैं . बहरहाल कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद मुसलमानों को टार्गेट करके मारने की इस घटना से सभ्य समाज में बहुत नाराज़गी है .
नई दिल्ली, २१ सितम्बर .बीजेपी ने राजस्थान सरकार के इस्तीफे की मांग की है . पार्टी का आरोप है कि राजस्थान के भरतपुर जिले के गोपालगढ़ गांव में 14 सितंबर को पुलिस ने एक समुदाय के लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग की और लोगों की जान गयी . कांग्रेस के राशिद अल्वी इस मामले की जांच के लिए गोपाल गढ़ गए थे और उन्होंने राज्य के गृह मंत्री को घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहराया . बीजेपी का आरोप है कि इतना बड़ा हादसा होने के बाद राजस्थान की पूरी सरकार को इस्तीफ़ा दे देना चाहिये . जब बीजेपी प्रवक्ता को बताया गया कि आप लोग गुजरात में हज़ारों मुसलमानों की हत्या के बाद भी नरेंद्र मोदी को दोषी नहीं मानते हैं तो उन्होंने कहा कि गोपालगढ़ में सीधे तौर पर राज्य सरकार का हाथ है . मानवाधिकार संगठन ,पी यू सी एल का आरोप है कि इस मामले में पुलिस का गैर ज़िम्मेदार रवैया ही सबसे ज्यादा चिंता की बात है . अजीब बात है कि पुलिस ने दो लोगों के आपसी विवाद में भाग लेते हुए एक खास समुदाय को निशाना बनाया.
गोपालगढ़ की इस घटना में आठ लोग मारे गए और अधिकारिक रूप से 23 लोग घायल हुए। जिन आठ मृतकों की शिनाख्त हुई है, वे सभी अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं। 23 लोग घायल हुए, इसमें से 19 लोग अल्पसंख्यक समुदाय के हैं. यदि पुलिस ने सही कदम उठाते हुए गोलीबारी की है, तो यह एक पहेली है कि मरने वाले सभी एक ही समुदाय के कैसे हो सकते हैं. शुरुआती जांच में पता चला है कि पुलिस ने 219 राउंड गोलियां चलाईं. गोलीबारी से पहले सिर्फ आंसू गैस के गोले छोड़े जाने का उल्लेख है लेकिन लाठीचार्ज या रबर बुलेट का कोई जिक्र नहीं आया है।
पीयूसीएल के अनुसार अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर उन्हें जलाया भी गया। यह जांच करने की जरूरत है कि यह किसने किया। गोलीबारी के बाद मस्जिद परिसर पुलिस के नियंत्रण में था . पी यू सी एल का आरोप हैं कि इस घटना के पीछे स्थानीय पुलिस के अलावा आरएसएस, बजरंग दल और विहिप के कार्यकर्ता शामिल हो सकते हैं। आरोप यह लगाया कि ये लोग घटना से पहले थाने में थे, जहां दोनों समुदाय के बीच समझौते के लिए बैठक चल रही थी तथा इन्हीं लोगों ने दबाव बनाकर कलेक्टर से फायरिंग के आदेश लिखवाए। इसकी भी जांच करवाए जाने की आवश्यकता है. यह भी पता चला है कि गोपालगढ की मस्जिद की दीवारों पर गोलियों के निशान थे. खून के निशान भी मिले हैं .मारने के बाद लोगों को घसीटा भी गया .
नई दिल्ली में आज कांग्रेस के प्रवक्ता ने इसे बहुत ही दुखद और दुभाग्यपूर्ण बताया लेकिन वे इस से आगे जाने को तैयार नहीं थे. जब पूछा गया कि यह मामला तो गुजरात जैसा ही है तो उन्होंने एतराज़ किया और कहा कि गोपाल गढ़ के मामले में अभी कोई सबूत नहीं हैं . गुजरात के मामले में तो सबूत सुप्रीम कोर्ट तक पंहुच चुके हैं . बहरहाल कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद मुसलमानों को टार्गेट करके मारने की इस घटना से सभ्य समाज में बहुत नाराज़गी है .
Wednesday, September 21, 2011
भारतीय ज्ञानपीठ ने श्रीलाल शुक्ल को सम्मानित करके अपनी इज्ज़त बढ़ाई
शेष नारायण सिंह
श्रीलाल शुक्ल और अमर कान्त को साहित्य का सबसे ज्यादा कीमत वाला पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, मिल गया है .लखनऊ के दैनिक अखबार , जनसंदेश टाइम्स ने आज इसे पहले पेज पर अपनी मुख्य हेडलाइन बनाकर छापा है . यह बहुत खुशी की बात है . श्री लाल शुक्ल के कालजयी ग्रन्थ ' राग दरबारी ' को देश का सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक पुरस्कार, " साहित्य अकादमी " तो १९६९ में ही मिल चुका था लेकिन सबसे ज्यादा पैसे वाला पुरस्कार मिलने में बहुत देर हुई .ज्ञान पीठ ने ' राग दरबारी ' के लेखक को यह पुरस्कार देकर उनका कोई सम्मान नहीं बढ़ाया है. हिन्दी साहित्य के जिस मुकाम पर श्रीलाल शुक्ल विराजते हैं , वहां किसी भी पुरस्कार की कोई औकात नहीं रह जाती लेकिन इस पुरस्कार की घोषणा करके भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने सम्मान में वृद्धि ज़रूर की है . राजनीतिक और समकालीन घटनाओं पर केन्द्रित एक अखबार ने इस साहित्यिक घटना को मुख्य हेडलाइन बनाकर यह साबित कर दिया है कि पिछले ४० साल से जिस साहित्यकार की धमक लखनऊ की हर सांस में रही है वह किसी भी नेता से बड़ा है और जब कोई संगठन उसको सम्मानित करता है तो उसे लखनऊ की सबसे बड़ी खबर में शामिल होने का मौक़ा दिया जाना चाहिए. राग दरबारी का सम्मान करके ज्ञानपीठ ने अपने आपको सम्मान के लायक एक बार फिर घोषित कर दिया है .
१९७० में ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास ,' गणदेवता ' को पढ़ते हुए मुझे लगा था कि प्रेमचंद के बाद भी ऐसे लोग पैदा हुए हैं जो आपको अपनी कहानी के गाँव में बैठा देते हैं. ग्रामीण बंगाल की पृष्ठभूमि और जाति की संस्था और ज़मीन के रिश्तों पर हमला बोल रहे ' गणदेवता ' में लेखक की कबीरपंथी ईमानदारी से मैं बहुत प्रभावित हुआ था. मैंने कभी बंगाल का कोई गाँव नहीं देखा था लेकिन उस उपन्यास के पात्र मुझे अपने गाँव में ही मिल गए थे. ख़ास तौर पर छिरू पाल का चरित्र तो कुछ पन्नों के बाद बंगाल के किसी गांव से उठ कर सीधे मेरे अपने गाँव में आ गया था. लगता है कि वह मेरे गाँव के एक गंवई दबंग का चरित्र है . पूरे उपन्यास में छिरू पाल मुझे अपने गाव के ही लगते रहे. गाँव में ज़मीन की मिलकियत के बदल रहे समीकरण ने भी मुझे अपने गाँव में ही स्थापित कर दिया था. गणदेवता पढने वाले उस वक़्त मेरे कालेज में बहुत कम लोग थे उनसे बात नहीं हो सकती थी. ज्ञानपीठ सम्मान में उन दिनों भी शायद एक लाख रूपये मिलते थे जो सम्मानित लेखक के लिए बहुत बड़ी रक़म थी. उन्हीं दिनों श्रीलाल शुक्ल का ग्रन्थ " राग दरबारी " बहुत चर्चा में था. उसे भी उसी साल या कुछ पहले साहित्य अकादमी पुरास्कार मिला था.. गणदेवता के बाद मैंने ' राग दरबारी ' पढ़ा मुझे लगा कि इस उपन्यास को भी लखटकिया पुरस्कार मिलना चाहिए . आज ४० साल बाद जब ' राग दरबारी ' के लेखक को लखटकिया पुरस्कार मिला तो वह ८५ साल की उम्र पार कर चुके हैं. खुशी इस बात की है कि जिस अखबार में मैं भी लिखता हूँ उस अखबार ने समकालीन साहित्य के सबसे बड़े मनीषी को मिले हुए सम्मान को मुख्य खबर बनाया है .
छात्र जीवन के बाद १९७३ में डिग्री कालेज में लेक्चरर होने के बाद मैंने ' राग दरबारी ' दुबारा पढ़ा . उसके सारे चरित्र वही थे लेकिन उनका मतलब मेरे लिए नया हो चुका था. खन्ना मास्टर में अब अपना अक्स दिखने लगा था. पहली बार पढने पर सनीचर मेरे अपने गाँव के एक आदमी के रूप में नज़र आता था लेकिन कालेज में तो वह प्रिंसिपल की काया में प्रवेश कर गया था. १९७० में रंग नाथ एक बन्तू किस्म का इंसान था जो कि मेरे कालेज में पढाता था. यहाँ आकर रंगनाथ एकदम अलग तरह का बेहूदा नज़र आने लगा था. वैद जी के चरित्र में भी नई पहचान घुस गयी थी. . नई परिस्थिति में एकदम अलग किस्म का रामाधीन भीखमखेडवी पैदा हो चुका था. मुराद यह कि ' राग दरबारी 'के जो चरित्र मूल रूप से शिवपाल गंज के आस पास विराजते थे , वे मौक़ा मिलते ही किसी भी गांव के चरित्र बन सकते थे. यही नहीं वे शहरी चरित्र भी बन सकते थे. दिल्ली में १९७७ के दौरान मैंने ' राग दरबारी ' के पात्रों को फिर से नए परिवेश में देखा. यहाँ वैद जी तो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर नामवर सिंह ही लगते थे लेकिन . उन दिनों कई सनीचर नज़र आने लगे थे. यहाँ के रंगनाथ का बांकपन बिलकुल अलग था. १९७८ में शायद राजिंदर नाथ का नाटक "जाति ही पूछो साधू की " श्रीराम सेंटर में खेला गया था. उस नाटक में आज के बुज़ुर्ग अभिनेता, एस एम ज़हीर ने लेक्चरर की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने वाले पात्र की भूमिका अदा की थी. वह भी बिलकुल खन्ना मासटर का अवतार लग रहा था. राष्ट्रीय सहारा अखबार में नौकरी करते हुए मैंने और मेरे साथी संजय श्रीवास्तव ने उस अखबार के दफ्तर को ही शिवपालगंज नाम दे दिया था. वहां भी एक से एक बढ़ कर वैद जी, खन्ना मास्टर आदि पाए जाते थे. राग दरबारी के और भी बहुत सारे इस्तेमाल हैं . मैंने उसे तीन चार बार पढ़ रखा था लेकिन जब दिल्ली में अपनी पत्नी के साथ अपना घर बसाया तो मैंने उन्हें पूरा ' राग दरबारी ' करीब एक हफ्ते के अंदर बांचकर सुनाया था. मुझे मालूम है कि उसके बाद वे मुझे पहले से ज्यादा प्यार करने लगी थीं .
राग दरबारी को हालांकि उपन्यास कहा जाता है . लेकिन मैं उसे एक पूर्ण ग्रन्थ मानता हूँ .साहित्यकार और आलोचक क्या कहते हैं , मुझे नहीं मालूम लेकिन मैं उसे १९६० के बाद के बदल रहे भारत का लखनऊ के आस पास का समकालीन इतिहास ही मानता हूँ . उसकी खूबी यह है कि उसके पात्र हर गाँव और हर व्यक्ति में अलग अलग मायने के साथ हाज़िर होते हैं. भारतीय ज्ञानपीठ ने एक बार अपनी इज़्ज़त को फिर से रिक्लेम करने की कोशिश की . हालांकि बीच में तो बहुत सारे तिकड़म बाजों को सम्मानित करके वह भी भारत सरकार के पद्म पुरस्कारों की तरह पतन के रास्ते पर चल पड़ा था. लेकिन लगता है कि अब वह फिर से अपने खोये हुए गौरव की तलाश में है .
श्रीलाल शुक्ल और अमर कान्त को साहित्य का सबसे ज्यादा कीमत वाला पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, मिल गया है .लखनऊ के दैनिक अखबार , जनसंदेश टाइम्स ने आज इसे पहले पेज पर अपनी मुख्य हेडलाइन बनाकर छापा है . यह बहुत खुशी की बात है . श्री लाल शुक्ल के कालजयी ग्रन्थ ' राग दरबारी ' को देश का सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक पुरस्कार, " साहित्य अकादमी " तो १९६९ में ही मिल चुका था लेकिन सबसे ज्यादा पैसे वाला पुरस्कार मिलने में बहुत देर हुई .ज्ञान पीठ ने ' राग दरबारी ' के लेखक को यह पुरस्कार देकर उनका कोई सम्मान नहीं बढ़ाया है. हिन्दी साहित्य के जिस मुकाम पर श्रीलाल शुक्ल विराजते हैं , वहां किसी भी पुरस्कार की कोई औकात नहीं रह जाती लेकिन इस पुरस्कार की घोषणा करके भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने सम्मान में वृद्धि ज़रूर की है . राजनीतिक और समकालीन घटनाओं पर केन्द्रित एक अखबार ने इस साहित्यिक घटना को मुख्य हेडलाइन बनाकर यह साबित कर दिया है कि पिछले ४० साल से जिस साहित्यकार की धमक लखनऊ की हर सांस में रही है वह किसी भी नेता से बड़ा है और जब कोई संगठन उसको सम्मानित करता है तो उसे लखनऊ की सबसे बड़ी खबर में शामिल होने का मौक़ा दिया जाना चाहिए. राग दरबारी का सम्मान करके ज्ञानपीठ ने अपने आपको सम्मान के लायक एक बार फिर घोषित कर दिया है .
१९७० में ताराशंकर बंद्योपाध्याय के उपन्यास ,' गणदेवता ' को पढ़ते हुए मुझे लगा था कि प्रेमचंद के बाद भी ऐसे लोग पैदा हुए हैं जो आपको अपनी कहानी के गाँव में बैठा देते हैं. ग्रामीण बंगाल की पृष्ठभूमि और जाति की संस्था और ज़मीन के रिश्तों पर हमला बोल रहे ' गणदेवता ' में लेखक की कबीरपंथी ईमानदारी से मैं बहुत प्रभावित हुआ था. मैंने कभी बंगाल का कोई गाँव नहीं देखा था लेकिन उस उपन्यास के पात्र मुझे अपने गाँव में ही मिल गए थे. ख़ास तौर पर छिरू पाल का चरित्र तो कुछ पन्नों के बाद बंगाल के किसी गांव से उठ कर सीधे मेरे अपने गाँव में आ गया था. लगता है कि वह मेरे गाँव के एक गंवई दबंग का चरित्र है . पूरे उपन्यास में छिरू पाल मुझे अपने गाव के ही लगते रहे. गाँव में ज़मीन की मिलकियत के बदल रहे समीकरण ने भी मुझे अपने गाँव में ही स्थापित कर दिया था. गणदेवता पढने वाले उस वक़्त मेरे कालेज में बहुत कम लोग थे उनसे बात नहीं हो सकती थी. ज्ञानपीठ सम्मान में उन दिनों भी शायद एक लाख रूपये मिलते थे जो सम्मानित लेखक के लिए बहुत बड़ी रक़म थी. उन्हीं दिनों श्रीलाल शुक्ल का ग्रन्थ " राग दरबारी " बहुत चर्चा में था. उसे भी उसी साल या कुछ पहले साहित्य अकादमी पुरास्कार मिला था.. गणदेवता के बाद मैंने ' राग दरबारी ' पढ़ा मुझे लगा कि इस उपन्यास को भी लखटकिया पुरस्कार मिलना चाहिए . आज ४० साल बाद जब ' राग दरबारी ' के लेखक को लखटकिया पुरस्कार मिला तो वह ८५ साल की उम्र पार कर चुके हैं. खुशी इस बात की है कि जिस अखबार में मैं भी लिखता हूँ उस अखबार ने समकालीन साहित्य के सबसे बड़े मनीषी को मिले हुए सम्मान को मुख्य खबर बनाया है .
छात्र जीवन के बाद १९७३ में डिग्री कालेज में लेक्चरर होने के बाद मैंने ' राग दरबारी ' दुबारा पढ़ा . उसके सारे चरित्र वही थे लेकिन उनका मतलब मेरे लिए नया हो चुका था. खन्ना मास्टर में अब अपना अक्स दिखने लगा था. पहली बार पढने पर सनीचर मेरे अपने गाँव के एक आदमी के रूप में नज़र आता था लेकिन कालेज में तो वह प्रिंसिपल की काया में प्रवेश कर गया था. १९७० में रंग नाथ एक बन्तू किस्म का इंसान था जो कि मेरे कालेज में पढाता था. यहाँ आकर रंगनाथ एकदम अलग तरह का बेहूदा नज़र आने लगा था. वैद जी के चरित्र में भी नई पहचान घुस गयी थी. . नई परिस्थिति में एकदम अलग किस्म का रामाधीन भीखमखेडवी पैदा हो चुका था. मुराद यह कि ' राग दरबारी 'के जो चरित्र मूल रूप से शिवपाल गंज के आस पास विराजते थे , वे मौक़ा मिलते ही किसी भी गांव के चरित्र बन सकते थे. यही नहीं वे शहरी चरित्र भी बन सकते थे. दिल्ली में १९७७ के दौरान मैंने ' राग दरबारी ' के पात्रों को फिर से नए परिवेश में देखा. यहाँ वैद जी तो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर नामवर सिंह ही लगते थे लेकिन . उन दिनों कई सनीचर नज़र आने लगे थे. यहाँ के रंगनाथ का बांकपन बिलकुल अलग था. १९७८ में शायद राजिंदर नाथ का नाटक "जाति ही पूछो साधू की " श्रीराम सेंटर में खेला गया था. उस नाटक में आज के बुज़ुर्ग अभिनेता, एस एम ज़हीर ने लेक्चरर की नौकरी के लिए इंटरव्यू देने वाले पात्र की भूमिका अदा की थी. वह भी बिलकुल खन्ना मासटर का अवतार लग रहा था. राष्ट्रीय सहारा अखबार में नौकरी करते हुए मैंने और मेरे साथी संजय श्रीवास्तव ने उस अखबार के दफ्तर को ही शिवपालगंज नाम दे दिया था. वहां भी एक से एक बढ़ कर वैद जी, खन्ना मास्टर आदि पाए जाते थे. राग दरबारी के और भी बहुत सारे इस्तेमाल हैं . मैंने उसे तीन चार बार पढ़ रखा था लेकिन जब दिल्ली में अपनी पत्नी के साथ अपना घर बसाया तो मैंने उन्हें पूरा ' राग दरबारी ' करीब एक हफ्ते के अंदर बांचकर सुनाया था. मुझे मालूम है कि उसके बाद वे मुझे पहले से ज्यादा प्यार करने लगी थीं .
राग दरबारी को हालांकि उपन्यास कहा जाता है . लेकिन मैं उसे एक पूर्ण ग्रन्थ मानता हूँ .साहित्यकार और आलोचक क्या कहते हैं , मुझे नहीं मालूम लेकिन मैं उसे १९६० के बाद के बदल रहे भारत का लखनऊ के आस पास का समकालीन इतिहास ही मानता हूँ . उसकी खूबी यह है कि उसके पात्र हर गाँव और हर व्यक्ति में अलग अलग मायने के साथ हाज़िर होते हैं. भारतीय ज्ञानपीठ ने एक बार अपनी इज़्ज़त को फिर से रिक्लेम करने की कोशिश की . हालांकि बीच में तो बहुत सारे तिकड़म बाजों को सम्मानित करके वह भी भारत सरकार के पद्म पुरस्कारों की तरह पतन के रास्ते पर चल पड़ा था. लेकिन लगता है कि अब वह फिर से अपने खोये हुए गौरव की तलाश में है .
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श्रीलाल शुक्ल
Sunday, September 18, 2011
मोदी उन लोगों के जले पर नमक छिड़क रहे हैं जो मजबूरी में उपवास रखते हैं.
शेष नारायण सिंह
आज जब मीडिया के हर मंच पर गुजरात के मुख्य मंत्री ,नरेंद्र मोदी के उपवास की खबरें लगातार देखा तो अपने गाँव में बिताया गया अपना बचपन बहुत याद आया . बाइस्कोप की तरह तस्वीरें नज़र आती रहीं. एक जगह जहां बार बार मन अटक रहा था ,वह तस्वीर मेरे दरवाज़े के नीम के पेड के नीचे की गयी बातचीत का एक टुकड़ा था .उस वक़्त के वरिष्ठ नागरिक टिबिल साहेब ने कहा कि बच्चा, आज तो बंडेरी पर धुंआ दिखाने के लिए चूल्हे में लकड़ी जलानी पड़ेगी . राशन है नहीं सो खाना तो नहीं बन पायेगा , शाम को जब भैंस दूध देगी तो बच्चों को पिला दिया जाये़या .आज हम लोग उपवास करेगें . जिसको बच्चा कह कर संबोधित किया गया था वे मेरे स्वर्गीय पिता जी थे. मेरे अपने घर में भी खाने पीने की तकलीफ थी. मेरे पिता जी ने टिबिल साहेब की बात सुन कर सन्न खींच लिया. कुछ देर बाद मेरी बड़ी बहन एक गठरी जैसी कोई चीज़ लेकर टिबिल साहेब के घर जाती देखी गयी. यह साठ के दशक का मेरा गाँव है. आजादी मिले कोई १०-१२ साल हुए रहे होंगें. ग्रीन रिवोल्यूशन का कहीं आता पता नहीं था .खेती के तरीके बहुत पुराने थे. देहुला धान और जौ की खेती होती थी. पूस आते आते खाने का सामान घर में चुक जाता था. भड़भूजे के यहाँ से भुनवा कर लाया गया दाना भी स्नैक्स की तरह नहीं , लंच या डिनर की तरह खाया जाता था. मेरे गाँव में लोगों के घरों में अक्सर उपवास हो जाया करता था. इस उपवास में बूढ़े और जवान तो शामिल रहते ही थे , बच्चों को भी शामिल होना पड़ता था . बड़े होने पर मैंने अर्थशास्त्र की किताबों में पढ़ा कि भारत के बड़े भूभाग में लोग इसी तरह की ज़िन्दगी बसर करने के लिए मजबूर थे. गरीब लोगों के इस गाँव में किसान यह स्वीकार कर ही नहीं सकता था कि उसके यहाँ खाने के लिए कुछ नहीं है . उसका ज़मीर ज़िंदा था और वह अपनी गरीबी को छुपाकर रखना चाहता था . गरीब आदमी जब भूख से मरता है तो वह हार जाता है . हारा हुआ आदमी बहुत कमज़ोर होता है .
महात्मा गांधी भी उपवास रखते थे. उन्होंने उपवास कभी धमकाने के लिए नहीं रखा. अपने विरोधी पर दबाव डालने के लिए भी कभी नहीं रखा. महात्मा जी अगर आज जिंदा होते तो वे गुजरात के मामले में उपवास ज़रूर रखते लेकिन इसलिए नहीं कि जिन लोगों को २००२ में मारा गया था, उनके घर वाले और डर जाएँ. उनका उपवास इसलिए होता कि जिन लोगों ने गुजरात में इंसानियत का क़त्ले-आम किया था वे अपनी गलती मानें और दुबारा उसे दोहराने की बात न सोचें . आज की हालात बिलकुल अलग हैं .नरेंद्र मोदी के लोगों ने गुजरात में बहुत सारे घर ऐसे बना दिए थे जहां कोई भी कमाने वाला नहीं बचा. आज वे लोग मजबूरी में अक्सर उपवास करते हैं .आज का गुजरात का उपवासी यह साबित करना चाहता है कि उसने जो कुछ गुजरात में २००२ में करवाया वह बिलकुल सही था. अब उसकी कोशिश है कि बाकी देश में भी सत्ता हासिल करे . उसकी योजना है कि पूरे भारत के मुसलमानों को उसी तरह से ठीक कर दिया जाय जैसे २००२ में गुजरात में किया गया था. आज गुजरात का स्टार उपवासी यह साबित करना चाहता है कि वह बहुत ही विनम्र है . ठीक उसी तरह जैसे फिल्म "लगे रहो मुन्ना भाई" का मुरली प्रसाद शर्मा विनम्र हो गया था. लगता है कि नरेंद्र मोदी ने उसी विनम्रता को अपनाने की कोशिश की है जैसी संजय दत्त ने अपनाई थी .वैसे उपवास का स्वांग करके नरेंद्र मोदी उन लोगों का अपमान कर रहे हैं जो उपवास रखने के लिए मजबूर हैं .
आज जब मीडिया के हर मंच पर गुजरात के मुख्य मंत्री ,नरेंद्र मोदी के उपवास की खबरें लगातार देखा तो अपने गाँव में बिताया गया अपना बचपन बहुत याद आया . बाइस्कोप की तरह तस्वीरें नज़र आती रहीं. एक जगह जहां बार बार मन अटक रहा था ,वह तस्वीर मेरे दरवाज़े के नीम के पेड के नीचे की गयी बातचीत का एक टुकड़ा था .उस वक़्त के वरिष्ठ नागरिक टिबिल साहेब ने कहा कि बच्चा, आज तो बंडेरी पर धुंआ दिखाने के लिए चूल्हे में लकड़ी जलानी पड़ेगी . राशन है नहीं सो खाना तो नहीं बन पायेगा , शाम को जब भैंस दूध देगी तो बच्चों को पिला दिया जाये़या .आज हम लोग उपवास करेगें . जिसको बच्चा कह कर संबोधित किया गया था वे मेरे स्वर्गीय पिता जी थे. मेरे अपने घर में भी खाने पीने की तकलीफ थी. मेरे पिता जी ने टिबिल साहेब की बात सुन कर सन्न खींच लिया. कुछ देर बाद मेरी बड़ी बहन एक गठरी जैसी कोई चीज़ लेकर टिबिल साहेब के घर जाती देखी गयी. यह साठ के दशक का मेरा गाँव है. आजादी मिले कोई १०-१२ साल हुए रहे होंगें. ग्रीन रिवोल्यूशन का कहीं आता पता नहीं था .खेती के तरीके बहुत पुराने थे. देहुला धान और जौ की खेती होती थी. पूस आते आते खाने का सामान घर में चुक जाता था. भड़भूजे के यहाँ से भुनवा कर लाया गया दाना भी स्नैक्स की तरह नहीं , लंच या डिनर की तरह खाया जाता था. मेरे गाँव में लोगों के घरों में अक्सर उपवास हो जाया करता था. इस उपवास में बूढ़े और जवान तो शामिल रहते ही थे , बच्चों को भी शामिल होना पड़ता था . बड़े होने पर मैंने अर्थशास्त्र की किताबों में पढ़ा कि भारत के बड़े भूभाग में लोग इसी तरह की ज़िन्दगी बसर करने के लिए मजबूर थे. गरीब लोगों के इस गाँव में किसान यह स्वीकार कर ही नहीं सकता था कि उसके यहाँ खाने के लिए कुछ नहीं है . उसका ज़मीर ज़िंदा था और वह अपनी गरीबी को छुपाकर रखना चाहता था . गरीब आदमी जब भूख से मरता है तो वह हार जाता है . हारा हुआ आदमी बहुत कमज़ोर होता है .
महात्मा गांधी भी उपवास रखते थे. उन्होंने उपवास कभी धमकाने के लिए नहीं रखा. अपने विरोधी पर दबाव डालने के लिए भी कभी नहीं रखा. महात्मा जी अगर आज जिंदा होते तो वे गुजरात के मामले में उपवास ज़रूर रखते लेकिन इसलिए नहीं कि जिन लोगों को २००२ में मारा गया था, उनके घर वाले और डर जाएँ. उनका उपवास इसलिए होता कि जिन लोगों ने गुजरात में इंसानियत का क़त्ले-आम किया था वे अपनी गलती मानें और दुबारा उसे दोहराने की बात न सोचें . आज की हालात बिलकुल अलग हैं .नरेंद्र मोदी के लोगों ने गुजरात में बहुत सारे घर ऐसे बना दिए थे जहां कोई भी कमाने वाला नहीं बचा. आज वे लोग मजबूरी में अक्सर उपवास करते हैं .आज का गुजरात का उपवासी यह साबित करना चाहता है कि उसने जो कुछ गुजरात में २००२ में करवाया वह बिलकुल सही था. अब उसकी कोशिश है कि बाकी देश में भी सत्ता हासिल करे . उसकी योजना है कि पूरे भारत के मुसलमानों को उसी तरह से ठीक कर दिया जाय जैसे २००२ में गुजरात में किया गया था. आज गुजरात का स्टार उपवासी यह साबित करना चाहता है कि वह बहुत ही विनम्र है . ठीक उसी तरह जैसे फिल्म "लगे रहो मुन्ना भाई" का मुरली प्रसाद शर्मा विनम्र हो गया था. लगता है कि नरेंद्र मोदी ने उसी विनम्रता को अपनाने की कोशिश की है जैसी संजय दत्त ने अपनाई थी .वैसे उपवास का स्वांग करके नरेंद्र मोदी उन लोगों का अपमान कर रहे हैं जो उपवास रखने के लिए मजबूर हैं .
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शेष नारायण सिंह
महात्मा बनने की कोशिश के तार नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति के सपनों से जुड़े हैं
शेष नारायण सिंह
गुजरात के मुख्य मंत्री,नरेंद्र मोदी ने दुनिया भर के गुजरातियों को संबोधित एक पत्र में अपने को महात्मा साबित करने की कोशिश की है . उस चिट्ठी में उन्होंने २००२ के गुजरात के नरसंहार को एक साम्प्रदायिक दंगा बताया है और कहा है कि २००२ के बाद गुजरात के विरोधियों ने उनके खिलाफ प्रचार अभियान शुरू कर दिया था. उन्होंने गुजरातियों को सूचित किया है कि अब वे ' सद्भावना मिशन ' शुरू करने वाले हैं . गुजरात नरसंहार २००२ से नाराज़ लोगों ने इस पर कड़ा एतराज़ जताया है .उनका कहना है कि मोदी जैसे आदमी को ' सद्भावना मिशन ' पर जाने का कोई हक नहीं है. क्योंकि २००२ में गुजरात के नर संहार की निगरानी मोदी ने ही की थी. और हज़ारों मुसलमानों की हत्या करवाई थी. उनके नाम के साथ सद्भावना शब्द ठीक नहीं लगता . मोदी ने अब तक २००२ के सामूहिक हत्याकांड के लिए कभी दुःख नहीं प्रकट किया है . उस क़त्ले आम के बाद उन्होंने गौरव यात्रा निकाली थी और पूरे गुजरात के मुसलमानों की छाती पर मूंग दलने का काम किया था. उनसे २००२ के लिए शर्मिंदा होने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . उनकी यह चिट्ठी भी उन लोगों को संबोधित की गयी है जो उनके २००२ के काम को बहादुरी का काम मानते हैं .उनका जो मौजूदा सद्भावना मिशन है उसका २००२ से कुछ भी लेना देना नहीं है . सुप्रीम कोर्ट से एक मामूली राहत मिलने के बाद बीजेपी में उनके साथियों ने हल्ला मचा दिया कि मोदी को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया है . सही बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने केवल यह कहा है कि अभी मुक़दमा निचली अदालत में चलेगा . अगर ज़रूरी हुआ तो अपील के ज़रिये शिकायतकर्ता सुप्रीम कोर्ट में भी आ सकते हैं . इसमें बरी होने जैसी कोई बात नहीं थी लेकिन राजनीतिक कारणों से इस बात को तूल दिया जा रहा है . असली लड़ाई बीजेपी की आतंरिक राजनीति के हवाले से समझी जा सकती है . मामला यह है कि २०१४ के चुनाव में बीजेपी को अपने प्रधान मंत्री पद के उम्मीद वार को प्रोजेक्ट करना है . हालांकि उनके सत्ता में वापस आने की संभावना बिलकुल नहीं है.मोदी के सद्भावना मिशन या आडवाणी की रथ यात्रा को उसी राजनीतिक मुहिम के सन्दर्भ में ही समझना पडेगा . आम तौर पर माना जाता रहा है कि २००९ में किरकिरी होने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी २०१४ में प्रधान मंत्री पद वाली दावेदारी से अपने आपको अलग कर लेगें. लेकिन लोकसभा के मानसून सत्र के अंतिम दिन उन्होंने एक रथ यात्रा का ऐलान कर दिया . बाकी देश के राजनीति के जानकारों सहित उनकी पार्टी के नेता भी अवाक रह गए.जिस यात्रा की आडवाणी जी ने घोषणा की थी उसकी तारीख , रूट या विषय वस्तु अभी तक किसी को नहीं मालूम है , शायद खुद आडवाणी को भी नहीं . लेकिन यात्रा की घोषणा में दिखाई गयी जल्दबाजी से एक बात साफ़ हो गयी थी कि लाल कृष्ण आडवाणी किसी आसन्न खतरे को टालने की गरज से आनन फानन में यात्रा की घोषणा कर रहे हैं. उनकी घोषणा के बाद से ही बीजेपी के अंदर चल रही सुप्रीमेसी की लड़ाई खुल कर सामने आ गयी. सारी दुनिया जानती है कि अटल बिहारी वाजपेयी के बाद बीजेपी में आडवाणी सबसे मह्त्वपूर्ण नेता हैं . यह भी मालूम है कि अगर आडवाणी जी मैदान में हैं तो कोई दूसरा भाजपाई नेता उनको चुनौती नहीं दे सकता . एक कारण तो शिष्टाचार का है लेकिन उस से भी मज़बूत कारण पार्टी के अंदर राजनीतिक हैसियत का भी है . आडवाणी के रहते किसी को भी उनके ऊपर के मुकाम पर नहीं बैठाया जा सकता . हाँ उनकी मर्ज़ी से कोई भी किसी भी पद पर बैठाया जा सकता है . हमने बंगारू लक्षमण और वेंकैया नायडू को आडवाणी जी की कृपा से पार्टी के अध्यक्ष पद पर विराजते देखा है . और उन दोनों को पार्टी के अंदर से कोई चुनौती नहीं मिली थी. आडवाणी जी की मर्जी के खिलाफ डॉ मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाया गया था . दुनिया जानती है कि आडवाणी गुट के दमदार नेताओं ने मीडिया में मज़बूत पकड़ का इस्तेमाल करके उन दोनों ही नेताओं का क्या हाल किया था . अपनी नई रथयात्रा का ऐलान कर के आडवाणी जी ने अपना नाम सर्वोच्च पद की दावेदारी की लिस्ट में डाल दिया है . ऐसा करके उन्होंने उन सभी नेताओं की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है जो अब लगभग साठ साल के हैं .उनके लिए प्रधानमंत्री पद पर विराजने का यही सही समय है.लेकिन अगर आडवाणी जी को किसी तरह से रेस से बाहर किया जा सके, तो मैदान फिर साफ़ हो जाएगा और बीजेपी की टाप लीडरशिप के लिए अपनी किस्मत आजमाने का मौक़ा मिल जाएगा. ऐसा लगता है कि इन लोगों ने ही नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति में आने की प्रेरणा दी है . नरेंद्र मोदी के मैदान में कूद जाने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी के लिए मुश्किल पैदा हो सकती है . बीजेपी का जो हार्ड कोर वोट बैंक है वह आम तौर पर आक्रामक हिंदुत्व को बहुत ही सही मानता है . १९९० में सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा करके आडवाणी जी ने इस आक्रामक हिंदुत्व के पुजारी का दिल जीत लिया था . उस दौर में जो दंगे हुए थे उसमें बड़ी संख्या में मुसलमान मारे गए थे. इस देश में ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या है जो आर एस एस के भक्त हैं और उनको भरोसा है क अगर मुसलमानों को मार डाला आये या इस देश से भगा दिया जाए तो भारत बहुत महान देश बन जाएगा. २००२ तक इस वर्ग के हीरो लाल कृष्ण आडवाणी थे लेकिन २००२ के बाद आक्रामक हिंदुत्व की विचार धारा के इन भक्तों के नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. ज़ाहिर है कि मोदी और आडवाणी की लड़ाई में मोदी ही जीतेगें. इसके कई कारण हैं . आक्रामक हिंदुत्व के अलावा जो दूसरा प्रमुख कारण है वह यह कि आडवाणी जी को लोकसभा चुनाव में गाँधीनगर सीट से नरेंद्र मोदी के सहयोग से ही जीत हासिल होती है . राजनीति के कुशल पारखी, लाल कृष्ण आडवाणी ऐसी कोई गलती कभी नहीं करेगें जिसके चलते उनको नरेंद्र मोदी को नाराज़ करना पड़े. ऐसा लगता है कि इस रणनीति की कारगर मारक क्षमता के मद्दे नज़र बीजेपी के नए आलाकमान ने मोदी को आगे कर दिया है और अब वे आडवाणी को रास्ते से हटाने में कामयाब हो जायेगें.
इस बड़े सफलता के बाद मोदी को रास्ते से हटाने की बात आयेगी..आडवाणी जी के अलावा इस वक़्त बीजेपी के जो नेता प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं उनमें सुषमा स्वराज ,अरुण जेटली , राजनाथ सिंह , वेंकैया नायडू, बंगारू लक्षमण आदि का नाम लिया जा सकता है . नेताओं की इस मज़बूत पंक्ति में सबकी ताक़त ऐसी है कि वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ माहौल बना देगें . सबको मामूल है कि यूरोप और अमरीका के कई बड़े देशों में मोदी के घुसने की इज़ाज़त नहीं है . यह देश उनके वीजा की दरखास्त को खारिज कर देते हैं और वीजा नहीं देते .बीजेपी अपने एताक़त क एबल पर तो प्रधानमंत्री की गद्दी हासिल नहीं कर सकती. एन डी ए के एक बड़े घटक जे डी ( यू ) के बड़े नेता और बिहार के मुख्यमंत्री , नीतीश कुमार कभी भी नरेंद्र मोदी को नेता नहीं मानेगें. यहाँ तक कि उन्होंने अपने राज्य में मोदी के चुनाव प्रचार करने की बात का भी बहुत बुरा माना था . इसलिए नरेंद्र मोदी को रास्ते से हटाना बीजेपी आलाकमान के लिए बहुत आसान होगा . इस लेख का उद्देश्य बीजेपी की ओर से संभावित प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार की तलाश करना नहीं है .क्योंकि यह लगभग पक्का है कि २०१४ के चुनावों के बाद बीजेपी सत्ता से और दूर हो जायेगी लेकिन उनकी आतंरिक राजनीति में नरेंद्र मोदी और आडवाणी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं एक मनोरंजक अवसर तो देती ही हैं .
गुजरात के मुख्य मंत्री,नरेंद्र मोदी ने दुनिया भर के गुजरातियों को संबोधित एक पत्र में अपने को महात्मा साबित करने की कोशिश की है . उस चिट्ठी में उन्होंने २००२ के गुजरात के नरसंहार को एक साम्प्रदायिक दंगा बताया है और कहा है कि २००२ के बाद गुजरात के विरोधियों ने उनके खिलाफ प्रचार अभियान शुरू कर दिया था. उन्होंने गुजरातियों को सूचित किया है कि अब वे ' सद्भावना मिशन ' शुरू करने वाले हैं . गुजरात नरसंहार २००२ से नाराज़ लोगों ने इस पर कड़ा एतराज़ जताया है .उनका कहना है कि मोदी जैसे आदमी को ' सद्भावना मिशन ' पर जाने का कोई हक नहीं है. क्योंकि २००२ में गुजरात के नर संहार की निगरानी मोदी ने ही की थी. और हज़ारों मुसलमानों की हत्या करवाई थी. उनके नाम के साथ सद्भावना शब्द ठीक नहीं लगता . मोदी ने अब तक २००२ के सामूहिक हत्याकांड के लिए कभी दुःख नहीं प्रकट किया है . उस क़त्ले आम के बाद उन्होंने गौरव यात्रा निकाली थी और पूरे गुजरात के मुसलमानों की छाती पर मूंग दलने का काम किया था. उनसे २००२ के लिए शर्मिंदा होने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए . उनकी यह चिट्ठी भी उन लोगों को संबोधित की गयी है जो उनके २००२ के काम को बहादुरी का काम मानते हैं .उनका जो मौजूदा सद्भावना मिशन है उसका २००२ से कुछ भी लेना देना नहीं है . सुप्रीम कोर्ट से एक मामूली राहत मिलने के बाद बीजेपी में उनके साथियों ने हल्ला मचा दिया कि मोदी को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया है . सही बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने केवल यह कहा है कि अभी मुक़दमा निचली अदालत में चलेगा . अगर ज़रूरी हुआ तो अपील के ज़रिये शिकायतकर्ता सुप्रीम कोर्ट में भी आ सकते हैं . इसमें बरी होने जैसी कोई बात नहीं थी लेकिन राजनीतिक कारणों से इस बात को तूल दिया जा रहा है . असली लड़ाई बीजेपी की आतंरिक राजनीति के हवाले से समझी जा सकती है . मामला यह है कि २०१४ के चुनाव में बीजेपी को अपने प्रधान मंत्री पद के उम्मीद वार को प्रोजेक्ट करना है . हालांकि उनके सत्ता में वापस आने की संभावना बिलकुल नहीं है.मोदी के सद्भावना मिशन या आडवाणी की रथ यात्रा को उसी राजनीतिक मुहिम के सन्दर्भ में ही समझना पडेगा . आम तौर पर माना जाता रहा है कि २००९ में किरकिरी होने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी २०१४ में प्रधान मंत्री पद वाली दावेदारी से अपने आपको अलग कर लेगें. लेकिन लोकसभा के मानसून सत्र के अंतिम दिन उन्होंने एक रथ यात्रा का ऐलान कर दिया . बाकी देश के राजनीति के जानकारों सहित उनकी पार्टी के नेता भी अवाक रह गए.जिस यात्रा की आडवाणी जी ने घोषणा की थी उसकी तारीख , रूट या विषय वस्तु अभी तक किसी को नहीं मालूम है , शायद खुद आडवाणी को भी नहीं . लेकिन यात्रा की घोषणा में दिखाई गयी जल्दबाजी से एक बात साफ़ हो गयी थी कि लाल कृष्ण आडवाणी किसी आसन्न खतरे को टालने की गरज से आनन फानन में यात्रा की घोषणा कर रहे हैं. उनकी घोषणा के बाद से ही बीजेपी के अंदर चल रही सुप्रीमेसी की लड़ाई खुल कर सामने आ गयी. सारी दुनिया जानती है कि अटल बिहारी वाजपेयी के बाद बीजेपी में आडवाणी सबसे मह्त्वपूर्ण नेता हैं . यह भी मालूम है कि अगर आडवाणी जी मैदान में हैं तो कोई दूसरा भाजपाई नेता उनको चुनौती नहीं दे सकता . एक कारण तो शिष्टाचार का है लेकिन उस से भी मज़बूत कारण पार्टी के अंदर राजनीतिक हैसियत का भी है . आडवाणी के रहते किसी को भी उनके ऊपर के मुकाम पर नहीं बैठाया जा सकता . हाँ उनकी मर्ज़ी से कोई भी किसी भी पद पर बैठाया जा सकता है . हमने बंगारू लक्षमण और वेंकैया नायडू को आडवाणी जी की कृपा से पार्टी के अध्यक्ष पद पर विराजते देखा है . और उन दोनों को पार्टी के अंदर से कोई चुनौती नहीं मिली थी. आडवाणी जी की मर्जी के खिलाफ डॉ मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाया गया था . दुनिया जानती है कि आडवाणी गुट के दमदार नेताओं ने मीडिया में मज़बूत पकड़ का इस्तेमाल करके उन दोनों ही नेताओं का क्या हाल किया था . अपनी नई रथयात्रा का ऐलान कर के आडवाणी जी ने अपना नाम सर्वोच्च पद की दावेदारी की लिस्ट में डाल दिया है . ऐसा करके उन्होंने उन सभी नेताओं की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है जो अब लगभग साठ साल के हैं .उनके लिए प्रधानमंत्री पद पर विराजने का यही सही समय है.लेकिन अगर आडवाणी जी को किसी तरह से रेस से बाहर किया जा सके, तो मैदान फिर साफ़ हो जाएगा और बीजेपी की टाप लीडरशिप के लिए अपनी किस्मत आजमाने का मौक़ा मिल जाएगा. ऐसा लगता है कि इन लोगों ने ही नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति में आने की प्रेरणा दी है . नरेंद्र मोदी के मैदान में कूद जाने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी के लिए मुश्किल पैदा हो सकती है . बीजेपी का जो हार्ड कोर वोट बैंक है वह आम तौर पर आक्रामक हिंदुत्व को बहुत ही सही मानता है . १९९० में सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा करके आडवाणी जी ने इस आक्रामक हिंदुत्व के पुजारी का दिल जीत लिया था . उस दौर में जो दंगे हुए थे उसमें बड़ी संख्या में मुसलमान मारे गए थे. इस देश में ऐसे लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या है जो आर एस एस के भक्त हैं और उनको भरोसा है क अगर मुसलमानों को मार डाला आये या इस देश से भगा दिया जाए तो भारत बहुत महान देश बन जाएगा. २००२ तक इस वर्ग के हीरो लाल कृष्ण आडवाणी थे लेकिन २००२ के बाद आक्रामक हिंदुत्व की विचार धारा के इन भक्तों के नेता गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. ज़ाहिर है कि मोदी और आडवाणी की लड़ाई में मोदी ही जीतेगें. इसके कई कारण हैं . आक्रामक हिंदुत्व के अलावा जो दूसरा प्रमुख कारण है वह यह कि आडवाणी जी को लोकसभा चुनाव में गाँधीनगर सीट से नरेंद्र मोदी के सहयोग से ही जीत हासिल होती है . राजनीति के कुशल पारखी, लाल कृष्ण आडवाणी ऐसी कोई गलती कभी नहीं करेगें जिसके चलते उनको नरेंद्र मोदी को नाराज़ करना पड़े. ऐसा लगता है कि इस रणनीति की कारगर मारक क्षमता के मद्दे नज़र बीजेपी के नए आलाकमान ने मोदी को आगे कर दिया है और अब वे आडवाणी को रास्ते से हटाने में कामयाब हो जायेगें.
इस बड़े सफलता के बाद मोदी को रास्ते से हटाने की बात आयेगी..आडवाणी जी के अलावा इस वक़्त बीजेपी के जो नेता प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं उनमें सुषमा स्वराज ,अरुण जेटली , राजनाथ सिंह , वेंकैया नायडू, बंगारू लक्षमण आदि का नाम लिया जा सकता है . नेताओं की इस मज़बूत पंक्ति में सबकी ताक़त ऐसी है कि वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ माहौल बना देगें . सबको मामूल है कि यूरोप और अमरीका के कई बड़े देशों में मोदी के घुसने की इज़ाज़त नहीं है . यह देश उनके वीजा की दरखास्त को खारिज कर देते हैं और वीजा नहीं देते .बीजेपी अपने एताक़त क एबल पर तो प्रधानमंत्री की गद्दी हासिल नहीं कर सकती. एन डी ए के एक बड़े घटक जे डी ( यू ) के बड़े नेता और बिहार के मुख्यमंत्री , नीतीश कुमार कभी भी नरेंद्र मोदी को नेता नहीं मानेगें. यहाँ तक कि उन्होंने अपने राज्य में मोदी के चुनाव प्रचार करने की बात का भी बहुत बुरा माना था . इसलिए नरेंद्र मोदी को रास्ते से हटाना बीजेपी आलाकमान के लिए बहुत आसान होगा . इस लेख का उद्देश्य बीजेपी की ओर से संभावित प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार की तलाश करना नहीं है .क्योंकि यह लगभग पक्का है कि २०१४ के चुनावों के बाद बीजेपी सत्ता से और दूर हो जायेगी लेकिन उनकी आतंरिक राजनीति में नरेंद्र मोदी और आडवाणी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं एक मनोरंजक अवसर तो देती ही हैं .
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शेष नारायण सिंह
महंगाई के मुद्दे पर सरकार पर चौतरफा हमला , भ्रष्टाचार और बढ़ती कीमतों की लपटों में झुलस रही है कांग्रेस
शेष नारायण सिंह
महंगाई के सवाल पर आज केंद्र सरकार बहुत बुरी तरह घिर गयी है . कांग्रेस के दफ्तर का माहौल देखने पर लगता है कि वहां किसी बड़े चुनाव में हार जाने के बाद वाली मुर्दनी छाई हुई है .सरकार में भी सन्नाटा है . केन्द्रीय वित्तमंत्री ने आज एक बयान दिया कि केंद्र सरकार ने नहीं ,पेट्रोल कंपनियों ने पेट्रोल की कीमतें बढ़ाई हैं . उनके इस बयान का सरकार के बाहर और अंदर बैठे लोग मजाक उड़ा रहे हैं . जानकार बताते हैं कि पिछले दो दशकों में केंद्र सरकार इतनी लाचार कभी नहीं देखी गयी थी. पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि,बैंक की ब्याज दरों में बढ़ोतरी और मुद्रास्फीति की छलांग लगाती दर के कारण मनमोहन सिंह की सरकार को समर्थन दे रही पार्टियों ने सरकार की लाचारी को निशाने में लिया और दिल्ली की राजनीतिक हवा में आज यह संकेत साफ़ नज़र आने लगे कि लोकसभा का अगला आम चुनाव २०१४ में बताने वाले राजनीतिक तूफ़ान की रफ्तार को पहचान नहीं पा रहे हैं . यू पी ए समर्थकों तक को दर लगन एलागा है कि कहेने सरकार की छुट्टी न हो जाए. बीजेपी ने आज दिल्ली के हर मंच पर सरकार को नाकारा और भ्रष्ट साबित करने का अभियान चला रखा है . जहां तक बीजेपी का सवाल है उसके किसी भी राजनीतिक रुख से केंद्र सरकार की स्थिरता और लोकसभा के चुनाव पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . लेकिन यू पी ए में शामिल राजनीतिक पार्टियों के आज के रुख से बिलकुल साफ़ संकेत मिल रहा है कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार की उलटी गिनती शुरू हो गयी है . केंद्र सरकार में कांग्रेस सबसे बड़ा दल है लेकिन सरकार बनी रहने में अंदर से समर्थन दे रही तृणमूल कांग्रेस और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम का योगदान सबसे ज्यादा है . सरकार में शामिल बाकी राजनीतिक पार्टियों की संख्या बहुत मामूली है . आज पहली बार डी एम के और तृणमूल कांग्रेस ने सरकार की महंगाई रोक सकने की नीति की सख्त आलोचना की . बाहर से समर्थन दे रही दो बड़ी पार्टियों,बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी , ने भी आज कांग्रेस की आम आदमी विरोधी नीतियों का ज़बरदस्त विरोध किया. बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों की जमकर आलोचना की और साफ़ कर दिया कि अगर सरकार पर बुरा वक़्त आता है तो यह पार्टियां कांग्रेस के संकटमोचक के रूप में नहीं खडी होंगीं. हालांकि अब तक ऐसे कई मौके आये हैं जब इन दोनों पार्टियों ने केंद्र सरकार को तृणमूल और डी एम के की मनमानी से बच निकलने में मदद की है लेकिन इस बार लगता है कि अब कोई भी पार्टी कांग्रेस का साथ देने को तैयार नहीं है ,कम से कम आज दिल्ली में राजनीतिक गलियारों से तो यह साफ़ नज़र आ रहा है. आज दिल्ली में चारों तरफ से मनमोहन सिंह की सरकार की निंदा की आवाजें उठ रही हैं .
यू पी ए सरकार की सबसे ज्यादा कड़ी आलोचना पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों के सवाल पर हो रही है .बीजेपी ने आरोप लगाया है कि यू पी ए के सात साल के शासनकाल में पेट्रोल की कीमतों में २५ रूपये की वृद्धि हुई है . बीजेपी के प्रवक्ता शाहनवाज़ हुसैन ने बताया कि जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने कांग्रेस की अगुवाई वाली मनमोहन सरकार को चार्ज दिया था तो पेट्रोल की कीमत ४० रूपये से भी कम थी जबकि अब अवह सत्तर पार कर गयी है . बीजेपी ने मांग की है कि सरकार को फ़ौरन पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमतें वापस लेनी होंगीं .अगर ऐसा न हुआ तो पूरे देश में आन्दोलन शुरू कर दिया जाएगा. किसी भी विपक्षी पार्टी के लिए आम आदमी के खिलाफ खडी किसी भी सरकार को घेरने का यह बेहतरीन मौक़ा है और बीजेपी उसका इस्तेमाल कर रही है . सरकार की परेशानी तृणमूल कांग्रेस के रुख से है . उसने मांग कर डी है कि पेट्रोल के बढे हुए दाम फ़ौरन वापस लिए जाएं . तृणमूल कांग्रेस के नेता और रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने आज एक प्रेस कानफरेंस में कहा कि सरकार ने पेट्रोल की कीमतें बढाने के पहले उनकी पार्टी से सलाह नहीं किया था. तृणमूल कांग्रेस की नाराज़गी केंद्र सरकार के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर सकती है . मनमोहन सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मोहन सिंह ने कहा कि पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि का कोई आर्थिक कारण नहीं है . यह शुद्ध रूप से भ्रष्टाचार के कारण हुआ है . उन्होंने आरोप लगाया भ्रष्टाचार और महंगाई दोनों का बहुत करीबी साथ है . केंद्र की सरकार भ्रष्ट है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है . ज़खीरेबाज़ और बड़े पूंजीपति सरकार को पाल रहे हैं और वे ही सरकार की लचर नीतियों का फायदा उठाकर हर चीज़ के दाम बढ़ा रहे हैं . और सरकार मुनाफाखोरों के साथ खडी है . केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों की कोई दिशा नहीं है . सब कुछ आकस्मिक तरीके से हो रहा है . इस लिए मंहगाई बढ़ रही है .
पेट्रोल और खाने की चीज़ों की बढ़ती कीमतों के बाद आज केंद्र सरकार के मातहत काम करने वाले रिज़र्व बैंक ने भी मध्य वर्ग को झकझोर दिया . आज ही ब्याज दर में वृद्धि की घोषणा कर दी गयी . अब मकान , कार ओर स्कूटर के लिए लिया गया क़र्ज़ और महंगा हो गया . यह खबर टेलिविज़न पर लगातार दिखाई जा रही है जिसके चलते लगता है कि केंद्र सरकार और उसके मध्यवर्गीय समर्थक और भी दबाव में आ जायेगें
महंगाई के सवाल पर आज केंद्र सरकार बहुत बुरी तरह घिर गयी है . कांग्रेस के दफ्तर का माहौल देखने पर लगता है कि वहां किसी बड़े चुनाव में हार जाने के बाद वाली मुर्दनी छाई हुई है .सरकार में भी सन्नाटा है . केन्द्रीय वित्तमंत्री ने आज एक बयान दिया कि केंद्र सरकार ने नहीं ,पेट्रोल कंपनियों ने पेट्रोल की कीमतें बढ़ाई हैं . उनके इस बयान का सरकार के बाहर और अंदर बैठे लोग मजाक उड़ा रहे हैं . जानकार बताते हैं कि पिछले दो दशकों में केंद्र सरकार इतनी लाचार कभी नहीं देखी गयी थी. पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि,बैंक की ब्याज दरों में बढ़ोतरी और मुद्रास्फीति की छलांग लगाती दर के कारण मनमोहन सिंह की सरकार को समर्थन दे रही पार्टियों ने सरकार की लाचारी को निशाने में लिया और दिल्ली की राजनीतिक हवा में आज यह संकेत साफ़ नज़र आने लगे कि लोकसभा का अगला आम चुनाव २०१४ में बताने वाले राजनीतिक तूफ़ान की रफ्तार को पहचान नहीं पा रहे हैं . यू पी ए समर्थकों तक को दर लगन एलागा है कि कहेने सरकार की छुट्टी न हो जाए. बीजेपी ने आज दिल्ली के हर मंच पर सरकार को नाकारा और भ्रष्ट साबित करने का अभियान चला रखा है . जहां तक बीजेपी का सवाल है उसके किसी भी राजनीतिक रुख से केंद्र सरकार की स्थिरता और लोकसभा के चुनाव पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है . लेकिन यू पी ए में शामिल राजनीतिक पार्टियों के आज के रुख से बिलकुल साफ़ संकेत मिल रहा है कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार की उलटी गिनती शुरू हो गयी है . केंद्र सरकार में कांग्रेस सबसे बड़ा दल है लेकिन सरकार बनी रहने में अंदर से समर्थन दे रही तृणमूल कांग्रेस और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम का योगदान सबसे ज्यादा है . सरकार में शामिल बाकी राजनीतिक पार्टियों की संख्या बहुत मामूली है . आज पहली बार डी एम के और तृणमूल कांग्रेस ने सरकार की महंगाई रोक सकने की नीति की सख्त आलोचना की . बाहर से समर्थन दे रही दो बड़ी पार्टियों,बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी , ने भी आज कांग्रेस की आम आदमी विरोधी नीतियों का ज़बरदस्त विरोध किया. बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस की आर्थिक नीतियों की जमकर आलोचना की और साफ़ कर दिया कि अगर सरकार पर बुरा वक़्त आता है तो यह पार्टियां कांग्रेस के संकटमोचक के रूप में नहीं खडी होंगीं. हालांकि अब तक ऐसे कई मौके आये हैं जब इन दोनों पार्टियों ने केंद्र सरकार को तृणमूल और डी एम के की मनमानी से बच निकलने में मदद की है लेकिन इस बार लगता है कि अब कोई भी पार्टी कांग्रेस का साथ देने को तैयार नहीं है ,कम से कम आज दिल्ली में राजनीतिक गलियारों से तो यह साफ़ नज़र आ रहा है. आज दिल्ली में चारों तरफ से मनमोहन सिंह की सरकार की निंदा की आवाजें उठ रही हैं .
यू पी ए सरकार की सबसे ज्यादा कड़ी आलोचना पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों के सवाल पर हो रही है .बीजेपी ने आरोप लगाया है कि यू पी ए के सात साल के शासनकाल में पेट्रोल की कीमतों में २५ रूपये की वृद्धि हुई है . बीजेपी के प्रवक्ता शाहनवाज़ हुसैन ने बताया कि जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने कांग्रेस की अगुवाई वाली मनमोहन सरकार को चार्ज दिया था तो पेट्रोल की कीमत ४० रूपये से भी कम थी जबकि अब अवह सत्तर पार कर गयी है . बीजेपी ने मांग की है कि सरकार को फ़ौरन पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमतें वापस लेनी होंगीं .अगर ऐसा न हुआ तो पूरे देश में आन्दोलन शुरू कर दिया जाएगा. किसी भी विपक्षी पार्टी के लिए आम आदमी के खिलाफ खडी किसी भी सरकार को घेरने का यह बेहतरीन मौक़ा है और बीजेपी उसका इस्तेमाल कर रही है . सरकार की परेशानी तृणमूल कांग्रेस के रुख से है . उसने मांग कर डी है कि पेट्रोल के बढे हुए दाम फ़ौरन वापस लिए जाएं . तृणमूल कांग्रेस के नेता और रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने आज एक प्रेस कानफरेंस में कहा कि सरकार ने पेट्रोल की कीमतें बढाने के पहले उनकी पार्टी से सलाह नहीं किया था. तृणमूल कांग्रेस की नाराज़गी केंद्र सरकार के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर सकती है . मनमोहन सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मोहन सिंह ने कहा कि पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि का कोई आर्थिक कारण नहीं है . यह शुद्ध रूप से भ्रष्टाचार के कारण हुआ है . उन्होंने आरोप लगाया भ्रष्टाचार और महंगाई दोनों का बहुत करीबी साथ है . केंद्र की सरकार भ्रष्ट है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है . ज़खीरेबाज़ और बड़े पूंजीपति सरकार को पाल रहे हैं और वे ही सरकार की लचर नीतियों का फायदा उठाकर हर चीज़ के दाम बढ़ा रहे हैं . और सरकार मुनाफाखोरों के साथ खडी है . केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों की कोई दिशा नहीं है . सब कुछ आकस्मिक तरीके से हो रहा है . इस लिए मंहगाई बढ़ रही है .
पेट्रोल और खाने की चीज़ों की बढ़ती कीमतों के बाद आज केंद्र सरकार के मातहत काम करने वाले रिज़र्व बैंक ने भी मध्य वर्ग को झकझोर दिया . आज ही ब्याज दर में वृद्धि की घोषणा कर दी गयी . अब मकान , कार ओर स्कूटर के लिए लिया गया क़र्ज़ और महंगा हो गया . यह खबर टेलिविज़न पर लगातार दिखाई जा रही है जिसके चलते लगता है कि केंद्र सरकार और उसके मध्यवर्गीय समर्थक और भी दबाव में आ जायेगें
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Friday, September 16, 2011
साम्प्रदायिक हिंसा रोकने वाले बिल की सही आलोचना की ज़रुरत
शेष नारायण सिंह
केंद्र सरकार की ओर से राष्ट्रीय एकता परिषद् के सामने पेश किया साम्प्रदायिक हिंसा रोकने वाला बिल मुंह के बल गिर पड़ा . होना भी यही चाहिए था. सोनिया गांधी के प्रिय संगठन , नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल नाम की शहरी मंडली ने एक मसौदा बनाया था जिसमें बहुत खामियां थीं .लेकिन सोनिया जी की इच्छा को कानून मानने वाले डॉ मनमोहन सिंह ने उसे बिल की शक्ल दिलवाई और राष्ट्रीय एकता परिषद् के सामने पेश कर दिया . बिल अपने मौजूदा स्वरुप में पास नहीं होगा यह तो अब पक्का हो चुका है . लेकिन जिन मुद्दों पर उसका विरोध हो रहा है वह भी बेमतलब है . जिन राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें हैं उनको इस बात पर एतराज़ है कि यह बिल अगर क़ानून बन गया तो राज्य में उनकी सरकार और उनकी पार्टी के खिलाफ काम करने वालों को धमकाने की उनकी ताक़त कम हो जायेगी.. अजीब बात है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इस बेकार के बिल का इसलिए विरोध नहीं कर रही है कि इसके कानून बन जाने के बाद राज काज का पूरा व्याकरण बदल जाएगा जो कि राष्ट्र हित के खिलाफ भी जा सकता है . नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल वालों का दावा है कि इस बिल के पास हो जाने के बाद धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के बारे में समाज और देश के रूप में हमारी प्रशानिक नज़र बदल जायेगी. यह बात कहने में ठीक लगती है लेकिन इसमें कमियाँ बहुत हैं .सबसे बड़ी कमी तो यही है कि यह कानून सरकारी तंत्र को बहुत ज्यादा ताक़त दे देगा . ज़रूरी नहीं कि उस ताक़त का सही इस्तेमाल ही हो . बिल की बुनियादी सोच में ही खोट है . इस बिल को बनाने वाले यह मानकर चलते हैं कि भविष्य में भी भारत में दंगे उतने ही खूंखार होंगें जितने कि अब तक होते रहे हैं . इस बिल की मंशा है कि प्लानिंग कमीशन की तर्ज़ पर एक अथारिटी बनायी जायेगी जिसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी केंद्र सरकार के सचिव स्तर का एक अफसर होगा . उस अथारिटी में बहुत सारे सदस्य होंगें जिनको केंद्र सरकार के राज्य मंत्री का दर्ज़ा दिया जाएगा . इस अथारिटी का अध्यक्ष कैबिनेट रैंक का मंत्री होगा . इस का भावार्थ यह हुआ कि एक और सरकारी विभाग खड़ा कर दिया जाएगा जो परमानेंट होगा और जो चौबीसों घंटे दंगों आदि को संभालने के लिए काम करता रहेगा. इस सोच में बहुत भारी दोष है . सोनिया जी की मंडली के लोगों को लगता है कि इस देश में दंगा अब एक स्थायी चीज़ के रूप में बना रहेगा . कोई भी कानून बनाने के लिए यह बिलकुल गलत बुनियाद है .
इस बिल का घोषित उद्देश्य अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करना है .इस उद्देश्य में कहीं कोई बुराई नहीं है .ऐसा लगता है कि दिल्ली में बैठकर जिन लोगों ने इस बिल को बनाया है वे हर बात को साबित करने के लिए २००२ के गुजरात को उदाहरण के रूप में पेश करते हैं . गुजरात में २००२ में जो कुछ भी हुआ ,उसको कोई सही नहीं मानता .यहाँ तक कि जिन लोगों ने उस काम को किया था अब वे भी उसके पक्ष में नहीं बोलते .सारी दुनिया के सभ्य समाजों में उसकी निंदा की जा रही है .उसको आधार मानकर कोई भी कानून नहीं बनाया जा सकता. गुजरात में २००२ में जिन लोगों ने नर संहार किया था ,उनको मुकामी नौकरशाही का आशीर्वाद प्राप्त था . उसी नौकरशाही को निरंकुश ताक़त देने की बात करने वाले इस बिल से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी की बात सोचना ठीक नहीं है. इस बिल में प्रावधान है कि जिन अधिकारियों को इलाके में साम्प्रदायिक दंगा होगा उन्हें दण्डित किया जाएगा. जो भी भारत की नौकरशाही को समझता है उसे मालूम है कि अपनी नौकरी बचाने के लिए अपने देश का अफसर कुछ भी कर सकता है . इस प्रावधान को कानून में शामिल कर लेने से इस बात का पूरा ख़तरा बना रहेगा कि दंगा रोकने के लिए मिले हुए अधिकार का प्रयोग सम्बंधित सरकारी अफसर अपनी मनमानी करने के लिए भी करेगा. बिल में लिखा है कि अगर कहीं साम्प्रदायिक हिंसा होती है तो यह मान लिया जाएगा कि उस इलाके के अधिकारी ने कानून द्वारा दिया गए अपने विधि सम्मत अधिकार का प्रयोग नहीं किया है और उसे ड्यूटी को सही तरीके से न करने के लिए दोषी माना जाएगा . इस दोष के लिए उसे दंड मिलेगा . यह दंड बहुत ही कठोर होगा. सरसरी तौर पर देखने तो यह बात ठीक लगती है . आई ए एस और आई पी एस अफसरों की सेवा शर्तों में साफ़ लिखा है कि वे भारत में संविधान का राज कायम करने के लिए ही काम करेगें . लेकिन अक्सर देखा गया है कि वे ऐसा नहीं करते . लेकिन उनको बता दिया जाए कि अगर उन्होंने संविधान के पालन को मुकम्मल तौर पर सुनिश्चित नहीं किया तो उनकी नौकरी भी जा सकती है तो यह अफसर कुछ भी कर सकते हैं .बिल को बनाने वाले यह मानकर चल रहे हैं कि अफसर को व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार ठहरा देने पर वह कानून का राज कायम कर देगा.लेकिन सरकारी अफसरों के बारे में इस तरह का विचार रखना सही नहीं है . वह किसी भी नए कानून को शोषण या धन वसूली का भी जरिया भी बना सकता है .
बिल का जो मौजूदा स्वरुप है उसके अनुसार सांप्रदायिक सद्भाव और इंसाफ़ को सुनिश्चित करने के लिए एक नए नौकरशाही के ढाँचे को तैयार किया जाना है .साम्प्रदायिक सद्भाव और इंसाफ़ के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय अथारिटी और उसके मातहत संगठनों के नाम पर एक सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की एक बहुत बड़ी फौज तैयार हो जायेगी. सरकारी तनखाहों और सरकारी कर्मचारियों की पेंशन की मार झेल रहे इस मुल्क पर इतना बड़ा आर्थिक बोझ लादना बिलकुल गलत होगा. खासकर जब इस तरह की सरकारी नौकरशाही की कोई ज़रुरत न हो . वास्तव में किसी नए सरकारी तंत्र की ज़रुरत नहीं है . ज़रुरत इस बात की है कि साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए ज़रूरी नियम कानून ऐसे बनाए जाएँ जिसको राज्य सरकारें मजबूती के साथ लागू कर सकें . इंसाफ़ की डिलीवरी के काम में पारदर्शिता के निजाम की आवश्यकता भी है . लेकिन उस मकसद को हासिल करते हुए यह भी देखना ज़रूरी है कि केंद्र -राज्य सम्बन्ध की जो संविधान की मौलिक व्यवस्था है वह भी खंड खंड न हो जाए.
दंगों के समाजशास्त्र का कोई भी जानकार बता देगा कि दंगे आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों में ज्यादा होते हैं . दिल्ली का १९८४ का सिख विरोधी क़त्ले-आम और २००२ का गुजरात का नरसंहार केवल दो केस हैं जहां साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार संपन्न वर्ग भी हुये थे. इसलिए साम्प्रदायिक दंगों के बार बार होने की संभावना घट रही है क्योंकि देश के ज़्यादातर इलाकों में लोग शिक्षा और सम्पन्नता की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर स्थायी नौकरशाही के ढाँचे के जरूरत नहीं रह जायेगी. मनमोहन सरकार के साम्प्रदायिकता विरोधी बिल के वर्तमान स्वरुप का विरोध तो किया जाना चाहिए लेकिन उसमे जो असली खामियां हैं उनको आलोचना का विषय बनाया जाना चाहिए . बेमतलब की आलोचना से बचना चाहिए
केंद्र सरकार की ओर से राष्ट्रीय एकता परिषद् के सामने पेश किया साम्प्रदायिक हिंसा रोकने वाला बिल मुंह के बल गिर पड़ा . होना भी यही चाहिए था. सोनिया गांधी के प्रिय संगठन , नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल नाम की शहरी मंडली ने एक मसौदा बनाया था जिसमें बहुत खामियां थीं .लेकिन सोनिया जी की इच्छा को कानून मानने वाले डॉ मनमोहन सिंह ने उसे बिल की शक्ल दिलवाई और राष्ट्रीय एकता परिषद् के सामने पेश कर दिया . बिल अपने मौजूदा स्वरुप में पास नहीं होगा यह तो अब पक्का हो चुका है . लेकिन जिन मुद्दों पर उसका विरोध हो रहा है वह भी बेमतलब है . जिन राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें हैं उनको इस बात पर एतराज़ है कि यह बिल अगर क़ानून बन गया तो राज्य में उनकी सरकार और उनकी पार्टी के खिलाफ काम करने वालों को धमकाने की उनकी ताक़त कम हो जायेगी.. अजीब बात है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इस बेकार के बिल का इसलिए विरोध नहीं कर रही है कि इसके कानून बन जाने के बाद राज काज का पूरा व्याकरण बदल जाएगा जो कि राष्ट्र हित के खिलाफ भी जा सकता है . नेशनल एडवाइज़री काउन्सिल वालों का दावा है कि इस बिल के पास हो जाने के बाद धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के बारे में समाज और देश के रूप में हमारी प्रशानिक नज़र बदल जायेगी. यह बात कहने में ठीक लगती है लेकिन इसमें कमियाँ बहुत हैं .सबसे बड़ी कमी तो यही है कि यह कानून सरकारी तंत्र को बहुत ज्यादा ताक़त दे देगा . ज़रूरी नहीं कि उस ताक़त का सही इस्तेमाल ही हो . बिल की बुनियादी सोच में ही खोट है . इस बिल को बनाने वाले यह मानकर चलते हैं कि भविष्य में भी भारत में दंगे उतने ही खूंखार होंगें जितने कि अब तक होते रहे हैं . इस बिल की मंशा है कि प्लानिंग कमीशन की तर्ज़ पर एक अथारिटी बनायी जायेगी जिसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी केंद्र सरकार के सचिव स्तर का एक अफसर होगा . उस अथारिटी में बहुत सारे सदस्य होंगें जिनको केंद्र सरकार के राज्य मंत्री का दर्ज़ा दिया जाएगा . इस अथारिटी का अध्यक्ष कैबिनेट रैंक का मंत्री होगा . इस का भावार्थ यह हुआ कि एक और सरकारी विभाग खड़ा कर दिया जाएगा जो परमानेंट होगा और जो चौबीसों घंटे दंगों आदि को संभालने के लिए काम करता रहेगा. इस सोच में बहुत भारी दोष है . सोनिया जी की मंडली के लोगों को लगता है कि इस देश में दंगा अब एक स्थायी चीज़ के रूप में बना रहेगा . कोई भी कानून बनाने के लिए यह बिलकुल गलत बुनियाद है .
इस बिल का घोषित उद्देश्य अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करना है .इस उद्देश्य में कहीं कोई बुराई नहीं है .ऐसा लगता है कि दिल्ली में बैठकर जिन लोगों ने इस बिल को बनाया है वे हर बात को साबित करने के लिए २००२ के गुजरात को उदाहरण के रूप में पेश करते हैं . गुजरात में २००२ में जो कुछ भी हुआ ,उसको कोई सही नहीं मानता .यहाँ तक कि जिन लोगों ने उस काम को किया था अब वे भी उसके पक्ष में नहीं बोलते .सारी दुनिया के सभ्य समाजों में उसकी निंदा की जा रही है .उसको आधार मानकर कोई भी कानून नहीं बनाया जा सकता. गुजरात में २००२ में जिन लोगों ने नर संहार किया था ,उनको मुकामी नौकरशाही का आशीर्वाद प्राप्त था . उसी नौकरशाही को निरंकुश ताक़त देने की बात करने वाले इस बिल से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी की बात सोचना ठीक नहीं है. इस बिल में प्रावधान है कि जिन अधिकारियों को इलाके में साम्प्रदायिक दंगा होगा उन्हें दण्डित किया जाएगा. जो भी भारत की नौकरशाही को समझता है उसे मालूम है कि अपनी नौकरी बचाने के लिए अपने देश का अफसर कुछ भी कर सकता है . इस प्रावधान को कानून में शामिल कर लेने से इस बात का पूरा ख़तरा बना रहेगा कि दंगा रोकने के लिए मिले हुए अधिकार का प्रयोग सम्बंधित सरकारी अफसर अपनी मनमानी करने के लिए भी करेगा. बिल में लिखा है कि अगर कहीं साम्प्रदायिक हिंसा होती है तो यह मान लिया जाएगा कि उस इलाके के अधिकारी ने कानून द्वारा दिया गए अपने विधि सम्मत अधिकार का प्रयोग नहीं किया है और उसे ड्यूटी को सही तरीके से न करने के लिए दोषी माना जाएगा . इस दोष के लिए उसे दंड मिलेगा . यह दंड बहुत ही कठोर होगा. सरसरी तौर पर देखने तो यह बात ठीक लगती है . आई ए एस और आई पी एस अफसरों की सेवा शर्तों में साफ़ लिखा है कि वे भारत में संविधान का राज कायम करने के लिए ही काम करेगें . लेकिन अक्सर देखा गया है कि वे ऐसा नहीं करते . लेकिन उनको बता दिया जाए कि अगर उन्होंने संविधान के पालन को मुकम्मल तौर पर सुनिश्चित नहीं किया तो उनकी नौकरी भी जा सकती है तो यह अफसर कुछ भी कर सकते हैं .बिल को बनाने वाले यह मानकर चल रहे हैं कि अफसर को व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार ठहरा देने पर वह कानून का राज कायम कर देगा.लेकिन सरकारी अफसरों के बारे में इस तरह का विचार रखना सही नहीं है . वह किसी भी नए कानून को शोषण या धन वसूली का भी जरिया भी बना सकता है .
बिल का जो मौजूदा स्वरुप है उसके अनुसार सांप्रदायिक सद्भाव और इंसाफ़ को सुनिश्चित करने के लिए एक नए नौकरशाही के ढाँचे को तैयार किया जाना है .साम्प्रदायिक सद्भाव और इंसाफ़ के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय अथारिटी और उसके मातहत संगठनों के नाम पर एक सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की एक बहुत बड़ी फौज तैयार हो जायेगी. सरकारी तनखाहों और सरकारी कर्मचारियों की पेंशन की मार झेल रहे इस मुल्क पर इतना बड़ा आर्थिक बोझ लादना बिलकुल गलत होगा. खासकर जब इस तरह की सरकारी नौकरशाही की कोई ज़रुरत न हो . वास्तव में किसी नए सरकारी तंत्र की ज़रुरत नहीं है . ज़रुरत इस बात की है कि साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए ज़रूरी नियम कानून ऐसे बनाए जाएँ जिसको राज्य सरकारें मजबूती के साथ लागू कर सकें . इंसाफ़ की डिलीवरी के काम में पारदर्शिता के निजाम की आवश्यकता भी है . लेकिन उस मकसद को हासिल करते हुए यह भी देखना ज़रूरी है कि केंद्र -राज्य सम्बन्ध की जो संविधान की मौलिक व्यवस्था है वह भी खंड खंड न हो जाए.
दंगों के समाजशास्त्र का कोई भी जानकार बता देगा कि दंगे आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों में ज्यादा होते हैं . दिल्ली का १९८४ का सिख विरोधी क़त्ले-आम और २००२ का गुजरात का नरसंहार केवल दो केस हैं जहां साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार संपन्न वर्ग भी हुये थे. इसलिए साम्प्रदायिक दंगों के बार बार होने की संभावना घट रही है क्योंकि देश के ज़्यादातर इलाकों में लोग शिक्षा और सम्पन्नता की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर स्थायी नौकरशाही के ढाँचे के जरूरत नहीं रह जायेगी. मनमोहन सरकार के साम्प्रदायिकता विरोधी बिल के वर्तमान स्वरुप का विरोध तो किया जाना चाहिए लेकिन उसमे जो असली खामियां हैं उनको आलोचना का विषय बनाया जाना चाहिए . बेमतलब की आलोचना से बचना चाहिए
केंद्रीय कार्यक्रमों के रास्ते अपनों को फिट करने की कांग्रेसी कोशिश
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,१५ सितम्बर . ग्राम विकास मंत्रालय के ज़रिये केंद्र सरकार हर गाँव में अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने की रणनीति पर काम कर रही है . केंद्र सरकार की तरफ से चलाई जा रही योजनाओं के ज़रिये इस हस्तक्षेप की योजना बन रही है .केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की प्रमुख योजनाओं--प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना और मनरेगा की मौजूदगी देश के लगभग हर गाँव में है. इसके अलावा भी छः और योजनायें चल रही हैं लेकिन अभी वे अपेक्षाकृत कम चर्चा में है . देश के ६० नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की नई दिल्ली में न आयोजित कार्यशाला में सरकार की मंशा सामने आई. कार्यशाला के बाद जो कागज़ तैयार किये गए हैं उनमें लिखा है कि नक्सल प्रभावित हर जिले में ५०० लोगों को कार्यकर्ता के रूप में भर्ती किया जाएगा जिनका काम प्रशासन और जनता के बीच कड़ी के रूप में काम करना होगा. केंद्र सरकार की ओर से चल रही गाँव के विकास योजनाओं पर इनकी नज़र रहेगी . इनको केंद्र सरकार की ओर से पैसा दिया जाएगा . इनकी न्यूनतम योग्यता के बारे में कुछ ख़ास नहीं बताया गया. है .यह काम अभी ६० नक्सल प्रभावित जिलों में किया जाएगा . बाद में इसको बाकी जिलों में भी लागू किया जा सकता है . इसके अलावा हर जिले में कलेक्टर की मदद के लिए केंद्र सरकार की ओर से २५-३० साल के ३ नौजवानों को फेलो के रूप में नियुक्त किया जाएगा . इनको २-३ साल तक के लिए कपार्ट के लिए निरधारित फंड से पैसा दिया जाएगा. सिविल सोसाइटी के लोगों को भी ग्राम विकास की योजनाओं को लागू करने के काम में शामिल करने की योजना पर भी काम कर रहा है . ग्रामीण विकास मंत्रालय की इस योजना को विपक्षी पार्टियां शक़ की निगाह से देखती हैं .भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अनजान ने कहा कि कांग्रेस पार्टी मौजूदा राजनीतिक हालत से घबडा गयी है और उसी घबडाहट में इस तरह के काम कर रही है . इस तरह के कदम से कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं आयेगा और न ही कांग्रेस को कोई तात्कालिक लाभ होगा. एक संशयात्मा सरकारी अफसर ने कहा कि यह योजना कहने को तो बड़ी आदर्शवादी बतायी जा रही है लेकिन इसका असली मकसद हर जिले में ५०० कांग्रेसियों को काम पर लगाना है . कमज़ोर पड़ रही कांग्रेस अब सरकारी योजनाओं के कन्धों पर बैठ कर राजनीतिक सफलता हासिल करना चाहती है.
६० नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की एक दिन की कार्यशाला के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जो निष्कर्ष निकाले हैं उनके बारे में एक पर्चा तैयार किया गया है . यह पर्चा सार्वजनिक रूप तो से जारी नहीं किया गया है लेकिन यह जानकार लोगों के ज़रिये मीडिया तक पंहुच गया है . इसमें ही कुछ लोगों को काम देकर उनको अपने साथ की लेने की बात की गयी है . इस पर्चे में और भे एबहुत सारी योजनाओं का ज़िक्र है .प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना में सड़क बनाने का प्रावधान तो है लेकिन छोटी पुलिया बनाने की मंजूरी उसके तहत नहीं दी जाती . प्रस्ताव है कि साठ नक्सल प्रभावित जिलों में अब पुलिया के निर्माण को भी प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना में शामिल कर लिया जाए. इस काम को शुरू करने के लिए ५०० करोड़ रूपये की ज़रूरत होगी. बाद में अगले तीन साल के अंदर करीब ३५ हज़ार करोड़ रूपये लगेंगें . ग्रामीण विकास मंत्रालय इस दिशा में आगे क़दम बढ़ाएगा और विस्तृत प्रस्ताव प्रधान मंत्री के पास भेजेगा. . इन जिलों में अब तारकोल की जगह कांक्रीट की सड़कें बनायी जायेगीं . केंद्र सरकार का मुख्य हस्तक्षेप मनरेगा को दुरुस्त करने की दिशा में होगा . नक्सल प्रभावित ६० जिलों में हर ग्राम पंचायत में एक पंचायत विकास अधिकारी तैनात किया जायेगा . इसके अलावा एक जूनियर इंजीनियर भी भर्ती किया जायेगा. . यह स्टाफ बाहर से नहीं लाया जाएगा. यह सब मुकामी लोग होंगें और इनका वेतन भी केंद्र सरकार देगी.बैंकों और डाकखानों में खाली पड़ी जगहों को भी मुकामी लोगों से भरा जाएगा. मनरेगा के अन्तार्गत अब खेल के मैदान भी बनाए जा सकेगें . अभी तक इसकी मनाही थी . अभी तो यह मंजूरी केवल साठ जिलों के लिए है लेकिन बाद में इसे पूरे देश में भी लागू किया जा सकता है . अभी तक खेल के मैदान मनरेगा की योजना में शामिल नहीं थे इनकी मनाही थी . नक्सल प्रभावित ६० ज़िलों में अगले पांच वर्षों के अंदर राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका कार्यक्रम के तहत तीन लाख युवकों को नौकरी दी जायेगी. . ज़ाहिर है जयराम रमेश की अगुवायी में ग्रामीण विकास मंत्रालय सत्ताधारी पार्टी का एक दयालु चेहरा पेश करने की कोशिश करेगा.
नई दिल्ली ,१५ सितम्बर . ग्राम विकास मंत्रालय के ज़रिये केंद्र सरकार हर गाँव में अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कराने की रणनीति पर काम कर रही है . केंद्र सरकार की तरफ से चलाई जा रही योजनाओं के ज़रिये इस हस्तक्षेप की योजना बन रही है .केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की प्रमुख योजनाओं--प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना और मनरेगा की मौजूदगी देश के लगभग हर गाँव में है. इसके अलावा भी छः और योजनायें चल रही हैं लेकिन अभी वे अपेक्षाकृत कम चर्चा में है . देश के ६० नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की नई दिल्ली में न आयोजित कार्यशाला में सरकार की मंशा सामने आई. कार्यशाला के बाद जो कागज़ तैयार किये गए हैं उनमें लिखा है कि नक्सल प्रभावित हर जिले में ५०० लोगों को कार्यकर्ता के रूप में भर्ती किया जाएगा जिनका काम प्रशासन और जनता के बीच कड़ी के रूप में काम करना होगा. केंद्र सरकार की ओर से चल रही गाँव के विकास योजनाओं पर इनकी नज़र रहेगी . इनको केंद्र सरकार की ओर से पैसा दिया जाएगा . इनकी न्यूनतम योग्यता के बारे में कुछ ख़ास नहीं बताया गया. है .यह काम अभी ६० नक्सल प्रभावित जिलों में किया जाएगा . बाद में इसको बाकी जिलों में भी लागू किया जा सकता है . इसके अलावा हर जिले में कलेक्टर की मदद के लिए केंद्र सरकार की ओर से २५-३० साल के ३ नौजवानों को फेलो के रूप में नियुक्त किया जाएगा . इनको २-३ साल तक के लिए कपार्ट के लिए निरधारित फंड से पैसा दिया जाएगा. सिविल सोसाइटी के लोगों को भी ग्राम विकास की योजनाओं को लागू करने के काम में शामिल करने की योजना पर भी काम कर रहा है . ग्रामीण विकास मंत्रालय की इस योजना को विपक्षी पार्टियां शक़ की निगाह से देखती हैं .भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अनजान ने कहा कि कांग्रेस पार्टी मौजूदा राजनीतिक हालत से घबडा गयी है और उसी घबडाहट में इस तरह के काम कर रही है . इस तरह के कदम से कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं आयेगा और न ही कांग्रेस को कोई तात्कालिक लाभ होगा. एक संशयात्मा सरकारी अफसर ने कहा कि यह योजना कहने को तो बड़ी आदर्शवादी बतायी जा रही है लेकिन इसका असली मकसद हर जिले में ५०० कांग्रेसियों को काम पर लगाना है . कमज़ोर पड़ रही कांग्रेस अब सरकारी योजनाओं के कन्धों पर बैठ कर राजनीतिक सफलता हासिल करना चाहती है.
६० नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की एक दिन की कार्यशाला के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जो निष्कर्ष निकाले हैं उनके बारे में एक पर्चा तैयार किया गया है . यह पर्चा सार्वजनिक रूप तो से जारी नहीं किया गया है लेकिन यह जानकार लोगों के ज़रिये मीडिया तक पंहुच गया है . इसमें ही कुछ लोगों को काम देकर उनको अपने साथ की लेने की बात की गयी है . इस पर्चे में और भे एबहुत सारी योजनाओं का ज़िक्र है .प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना में सड़क बनाने का प्रावधान तो है लेकिन छोटी पुलिया बनाने की मंजूरी उसके तहत नहीं दी जाती . प्रस्ताव है कि साठ नक्सल प्रभावित जिलों में अब पुलिया के निर्माण को भी प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना में शामिल कर लिया जाए. इस काम को शुरू करने के लिए ५०० करोड़ रूपये की ज़रूरत होगी. बाद में अगले तीन साल के अंदर करीब ३५ हज़ार करोड़ रूपये लगेंगें . ग्रामीण विकास मंत्रालय इस दिशा में आगे क़दम बढ़ाएगा और विस्तृत प्रस्ताव प्रधान मंत्री के पास भेजेगा. . इन जिलों में अब तारकोल की जगह कांक्रीट की सड़कें बनायी जायेगीं . केंद्र सरकार का मुख्य हस्तक्षेप मनरेगा को दुरुस्त करने की दिशा में होगा . नक्सल प्रभावित ६० जिलों में हर ग्राम पंचायत में एक पंचायत विकास अधिकारी तैनात किया जायेगा . इसके अलावा एक जूनियर इंजीनियर भी भर्ती किया जायेगा. . यह स्टाफ बाहर से नहीं लाया जाएगा. यह सब मुकामी लोग होंगें और इनका वेतन भी केंद्र सरकार देगी.बैंकों और डाकखानों में खाली पड़ी जगहों को भी मुकामी लोगों से भरा जाएगा. मनरेगा के अन्तार्गत अब खेल के मैदान भी बनाए जा सकेगें . अभी तक इसकी मनाही थी . अभी तो यह मंजूरी केवल साठ जिलों के लिए है लेकिन बाद में इसे पूरे देश में भी लागू किया जा सकता है . अभी तक खेल के मैदान मनरेगा की योजना में शामिल नहीं थे इनकी मनाही थी . नक्सल प्रभावित ६० ज़िलों में अगले पांच वर्षों के अंदर राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका कार्यक्रम के तहत तीन लाख युवकों को नौकरी दी जायेगी. . ज़ाहिर है जयराम रमेश की अगुवायी में ग्रामीण विकास मंत्रालय सत्ताधारी पार्टी का एक दयालु चेहरा पेश करने की कोशिश करेगा.
Wednesday, September 14, 2011
प्रधान मंत्री ने कहा कि नक्सलवाद से प्रभावित जिलों में काम करने वालों को सुरक्षा की गारंटी देनी होगी
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली ,१३ सितंबर. नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की बैठक में प्रधान मंत्री ने जोर देकर कहा कि मुश्किल इलाकोंमें काम करने वालों को हर हाल में सुरक्षा दी जानी चाहिए . उन इलाकों में रहने वालों को नाक्साली हिंसा से बचाने के लिए हर कारगर उपाय किया जाना चाहिए. इसके पहले इसी वर्कशाप में गृह मंत्री ने नक्सल प्रभावित इलाकों में कानून व्यवस्था को पूरी तरह से राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी बताया और कहा कि केंद्र सरकार की भूमिका केवल राज्य सरकार की कोशिश में सहयोग करने तक ही सीमित है . लेकिन प्रधान मंत्री की बात उनसे अलग थी. लगता है कि प्रधान मंत्री ने गृह मंत्री की बात को सुधारने की कोशिश की . बहर हाल केंद्र सरकार के सर्वोच्च स्तर पर नक्सली हिंसा को हल करने के तरीकों में मतभेद सामने आ गए. प्रधानमंत्री ने कहा कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना ( मनरेगा ) की मजदूरी लाभार्थी को सही तरीके से मिल सके. इसके लिए नक्सल प्रभावित इलाकों में बैंको की शाखाओं की कमी को आड़े नहीं आने दिया जायेगा . उन्होंने सुझाव दिया कि बैंकों की शाखाओं को पुलिस तानों में खोला जा सकता है . नीचे की मंजिल पर थाना रहे और पहली मंजिल पर बैंक की ब्रांच खोल दी जाए. ऐसा करने से बैंकों की सुरक्षा के लिए अलग से व्यवस्था नहीं करनी पड़ेगी. लेकिन केवल सुरक्षा बलों के सहारे ही देश के सबसे पिछड़े इलाकों का विकास करने की कोशिश को प्रधान मंत्री ने सहे एनाहेने ठहर्या. उन्होंने कहा कि इन इलाकों में रहने वाले लोग तथाकथित विकास की प्रक्रिया से बिलकुल अलग थलग पड़ गए हैं . उनको लगता है कि विकास का जो भी काम हो रहा है उसमें उनका कोई योगदान नहीं है. प्रधान मंत्री ने जोर देकर कहा कि जब तक नक्सल प्रभावित इलाकों के लोगों को विकास के काम में भागीदार बनाने की ज़रुरत है .
प्रधान मंत्री ने कहा कि जब तक प्रशासन ज़मीनी सच्चाई से मुक़ाबिल नहीं होगा तब तक विकास की गाडी बेढंगी ही रहेगी. उन्होंने कहा कि पंचायती राज संस्थाओं के प्रभावी हस्तक्षेप के ज़रिये विकास के काम में लोगों की भागीदारी का एक मेकनिज्म तैयार किया जा सकता है . इसी सम्मलेन में सड़क और परिवहन मंत्री डॉ सी पी जोशी ने कहा कि आदिवासी इलाके के लोगों में सरकार के प्रति भरोसा नईं है . उसको ठीक किये बिना कोई भी काम नहीं हो सकेगा.जब तक लोग यह नहीं महसूस करेगें कि वे इलाके में हो रहे सारे काम में हिस्सेदार के रूप में शामिल हो रहे हैं तब तक उनका विश्वास नहीं हासिल किया जा सकता .. प्रधान मंत्री ने भी इस बात को सही बताया और कलेक्टरों से कहा कि आप का काम लोगों हर नए विकास कार्य में शामिल होने के लिए राजी करना है लेकिन जब तक आप सच्चे मन से कोई काम नहीं करेगें आपकी विश्वसनीयता कभी नहीं बनेगी.
दिनमें वर्कशाप में कुछ कलेक्टरों ने अपने जिले की बात भी रखी . उत्तर प्रदेश का केवल एक जिला, सोनभद्र नक्सल प्रभावित इलाका है . वहां के कलेक्टर विजय विश्वास पन्त ने भी अपने ज़िले की समस्याओं का ज़िक्र किया . बैठक में ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश दिन भर जमे रहे . उन्होंने ऐसे कुछ नियमों को बदल देने की दिशा में पहल की जिनकी वजह मनरेगा और प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना के काम में बाधा आती है . प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना में छोटे पुलों को भी शामिल करने के सुझाव को उन्होंने लगभग मंज़ूर कर लिया. और सुझाव दिया कि प्रेफैब पुलों क इस्तेमाल किया जाना चाहिए . मुकामी दादा टाइप ठेकेदारों से बचने के लिए ई टेंडरिंग की व्यवस्था में कुछ ढीले देने के सुझाव को भी उन्होंने विचार करने के लिए स्वीकार किया . ग्रामेने विकास मंत्री ने घोषित किया कि जंगल में पैदा होने वाली १२ जिन्सें अब केंद्र सरकार की सरकारी खरीद योजना में शामिल कर ली जायेगीं . जिसका लाभ आदिवासी इलाकों में रहने वाले लोगों को होगा
नई दिल्ली ,१३ सितंबर. नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की बैठक में प्रधान मंत्री ने जोर देकर कहा कि मुश्किल इलाकोंमें काम करने वालों को हर हाल में सुरक्षा दी जानी चाहिए . उन इलाकों में रहने वालों को नाक्साली हिंसा से बचाने के लिए हर कारगर उपाय किया जाना चाहिए. इसके पहले इसी वर्कशाप में गृह मंत्री ने नक्सल प्रभावित इलाकों में कानून व्यवस्था को पूरी तरह से राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी बताया और कहा कि केंद्र सरकार की भूमिका केवल राज्य सरकार की कोशिश में सहयोग करने तक ही सीमित है . लेकिन प्रधान मंत्री की बात उनसे अलग थी. लगता है कि प्रधान मंत्री ने गृह मंत्री की बात को सुधारने की कोशिश की . बहर हाल केंद्र सरकार के सर्वोच्च स्तर पर नक्सली हिंसा को हल करने के तरीकों में मतभेद सामने आ गए. प्रधानमंत्री ने कहा कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना ( मनरेगा ) की मजदूरी लाभार्थी को सही तरीके से मिल सके. इसके लिए नक्सल प्रभावित इलाकों में बैंको की शाखाओं की कमी को आड़े नहीं आने दिया जायेगा . उन्होंने सुझाव दिया कि बैंकों की शाखाओं को पुलिस तानों में खोला जा सकता है . नीचे की मंजिल पर थाना रहे और पहली मंजिल पर बैंक की ब्रांच खोल दी जाए. ऐसा करने से बैंकों की सुरक्षा के लिए अलग से व्यवस्था नहीं करनी पड़ेगी. लेकिन केवल सुरक्षा बलों के सहारे ही देश के सबसे पिछड़े इलाकों का विकास करने की कोशिश को प्रधान मंत्री ने सहे एनाहेने ठहर्या. उन्होंने कहा कि इन इलाकों में रहने वाले लोग तथाकथित विकास की प्रक्रिया से बिलकुल अलग थलग पड़ गए हैं . उनको लगता है कि विकास का जो भी काम हो रहा है उसमें उनका कोई योगदान नहीं है. प्रधान मंत्री ने जोर देकर कहा कि जब तक नक्सल प्रभावित इलाकों के लोगों को विकास के काम में भागीदार बनाने की ज़रुरत है .
प्रधान मंत्री ने कहा कि जब तक प्रशासन ज़मीनी सच्चाई से मुक़ाबिल नहीं होगा तब तक विकास की गाडी बेढंगी ही रहेगी. उन्होंने कहा कि पंचायती राज संस्थाओं के प्रभावी हस्तक्षेप के ज़रिये विकास के काम में लोगों की भागीदारी का एक मेकनिज्म तैयार किया जा सकता है . इसी सम्मलेन में सड़क और परिवहन मंत्री डॉ सी पी जोशी ने कहा कि आदिवासी इलाके के लोगों में सरकार के प्रति भरोसा नईं है . उसको ठीक किये बिना कोई भी काम नहीं हो सकेगा.जब तक लोग यह नहीं महसूस करेगें कि वे इलाके में हो रहे सारे काम में हिस्सेदार के रूप में शामिल हो रहे हैं तब तक उनका विश्वास नहीं हासिल किया जा सकता .. प्रधान मंत्री ने भी इस बात को सही बताया और कलेक्टरों से कहा कि आप का काम लोगों हर नए विकास कार्य में शामिल होने के लिए राजी करना है लेकिन जब तक आप सच्चे मन से कोई काम नहीं करेगें आपकी विश्वसनीयता कभी नहीं बनेगी.
दिनमें वर्कशाप में कुछ कलेक्टरों ने अपने जिले की बात भी रखी . उत्तर प्रदेश का केवल एक जिला, सोनभद्र नक्सल प्रभावित इलाका है . वहां के कलेक्टर विजय विश्वास पन्त ने भी अपने ज़िले की समस्याओं का ज़िक्र किया . बैठक में ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश दिन भर जमे रहे . उन्होंने ऐसे कुछ नियमों को बदल देने की दिशा में पहल की जिनकी वजह मनरेगा और प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना के काम में बाधा आती है . प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना में छोटे पुलों को भी शामिल करने के सुझाव को उन्होंने लगभग मंज़ूर कर लिया. और सुझाव दिया कि प्रेफैब पुलों क इस्तेमाल किया जाना चाहिए . मुकामी दादा टाइप ठेकेदारों से बचने के लिए ई टेंडरिंग की व्यवस्था में कुछ ढीले देने के सुझाव को भी उन्होंने विचार करने के लिए स्वीकार किया . ग्रामेने विकास मंत्री ने घोषित किया कि जंगल में पैदा होने वाली १२ जिन्सें अब केंद्र सरकार की सरकारी खरीद योजना में शामिल कर ली जायेगीं . जिसका लाभ आदिवासी इलाकों में रहने वाले लोगों को होगा
चिदंबरम बोले --नक्सलवादी हिंसा से लड़ने का काम राज्य सरकारों का है .
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,१३ सितम्बर. गृह मंत्री पी चिदंबरम का दावा है कि देश की शान्ति और कानून व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा ख़तरा नक्सलवाद से है . कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत में चल रहे आतंकवादी गतिविधियों में जितने लोग मारे जाते हैं , नक्सलवादी आतंकी उस से दस गुना ज्यादा लोगों की जान ले लेते हैं . नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की एक सभा में गृह मंत्री ने कहा कि आतंकवाद के अन्य कारनामों के अंजाम देने वालों का सीमित लक्ष्य है . वे सरकार से कुछ सुविधाएं चाहते हैं . शासन की मौजूदा व्यवस्था में अपनी भागीदारी चाहते हैं लेकिन नक्सल आन्दोलन में लगे हुए लोग पूरी सरकार को ही हटा कर अपनी तानाशाही कायम करना चाहते हैं . उनके पास गुरिल्ला फौज है और वे एक विचार धारा को लागू करने के लिए आतंक का रास्ता अपना रहे हैं. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार इस समस्या से जूझने में राज्य सरकारों की मदद कर सकती है लेकिन असली प्रयास तो राज्य सरकार की तरफ से ही किया जाना चाहिए . ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने गृह मंत्री से अनुरोध किया था कि नक्सल प्रभावित इलाकों में चाल रहे विकास कार्यों , खासकर प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना को सुचारू रूप से चलाने के लिए सी आर पी एफ की और अधिक सक्रिय भागी दारी को सुनिश्चित करें. गृह मंत्री ने कहा कि यह काम इतना आसान नहीं है .सी आर पी एफ को संतरी ड्यूटी के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता , वह एक फाइटिंग फ़ोर्स है . लेकिन गृहमंत्री ने बताया कि नक्सल प्रभावित इलाकों और प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना में सी आर पी एफ की प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सी आर पी एफ में एक ऐसी शाखा बनाई जा रही है जिसका मुख्य काम इंजीनियरिंग से सम्बंधित होगा.और उसका इस्तेमाल ग्राम सड़क परियोजना में किया जा सकता है लेकिन इस शाक्षा को काम लायक बनाने में कम स कम दो साल लगेया.
नक्सलवादी हिंसा को रोकने में सबसे बड़ी अड़चन यह है कि उन लोगों से बात ही नहीं की जा सकती. वे संविधान को नहीं मानते . लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को जनविरोधी मानते हैं . इसलिए नक्सल हिंसा को काबू में करने के लिए वे तरीके कारगर नहीं होंगें जो आम तौर पर कानून व्यवस्था की समस्या को हल करने के लिए अपनाए जाते हैं .लेकिन सरकार को शान्ति तो कायम करनी ही है इसलिए ज़रूरी है कि नक्सलवादी हिंसा को रोकने के लिए उन इलाकों के लोगों को विकास प्रक्रिया में शामिल किया जाए जहां पर नक्सल वादी आतंकियों का प्रभाव है .
गृह मंत्री आज नई दिल्ली में आयोजित नक्सल आतंकवाद से प्रभावित ६० जिलों के कलेक्टरों की एक वर्कशाप में बोल रहे थे. उन्होंने आंकड़े देकर बताया कि इस साल के आठ महीनों में कश्मीर में २७ सिविलियन और पूर्वोत्तर भारत में ४६ सिविलियन मारे गए हैं जबकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में १९७ सिविलियन मारे गए हैं.इसी तरह पूर्वोत्तर भारत में २७ सुरक्षा कर्मी मारे गए जबकि नक्सलियों ने १०९ सुरक्षा कर्मियों की ह्त्या की . लेकिन गृहमंत्री ने स्पष्ट कहा कि हर तरह की हिंसा का मुकाबला करना राज्य सरकारों का ज़िम्मा है . उन्होंने कलेक्टरों से कहा कि आप लोग अपनी सरकारों से उतनी बात नहीं करते जितनी कि केंद्र सरकार से उम्मीद करते हैं. राज्य में शान्ति और कानून व्यवस्था के काममें गृह मंत्रालय केवल मदद कर सकता है . लेकिन असली काम तो राज्य सरकारों को ही करना चाहिए
नई दिल्ली,१३ सितम्बर. गृह मंत्री पी चिदंबरम का दावा है कि देश की शान्ति और कानून व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा ख़तरा नक्सलवाद से है . कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत में चल रहे आतंकवादी गतिविधियों में जितने लोग मारे जाते हैं , नक्सलवादी आतंकी उस से दस गुना ज्यादा लोगों की जान ले लेते हैं . नक्सल प्रभावित जिलों के कलेक्टरों की एक सभा में गृह मंत्री ने कहा कि आतंकवाद के अन्य कारनामों के अंजाम देने वालों का सीमित लक्ष्य है . वे सरकार से कुछ सुविधाएं चाहते हैं . शासन की मौजूदा व्यवस्था में अपनी भागीदारी चाहते हैं लेकिन नक्सल आन्दोलन में लगे हुए लोग पूरी सरकार को ही हटा कर अपनी तानाशाही कायम करना चाहते हैं . उनके पास गुरिल्ला फौज है और वे एक विचार धारा को लागू करने के लिए आतंक का रास्ता अपना रहे हैं. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार इस समस्या से जूझने में राज्य सरकारों की मदद कर सकती है लेकिन असली प्रयास तो राज्य सरकार की तरफ से ही किया जाना चाहिए . ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने गृह मंत्री से अनुरोध किया था कि नक्सल प्रभावित इलाकों में चाल रहे विकास कार्यों , खासकर प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना को सुचारू रूप से चलाने के लिए सी आर पी एफ की और अधिक सक्रिय भागी दारी को सुनिश्चित करें. गृह मंत्री ने कहा कि यह काम इतना आसान नहीं है .सी आर पी एफ को संतरी ड्यूटी के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता , वह एक फाइटिंग फ़ोर्स है . लेकिन गृहमंत्री ने बताया कि नक्सल प्रभावित इलाकों और प्रधान मंत्री ग्राम सड़क परियोजना में सी आर पी एफ की प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सी आर पी एफ में एक ऐसी शाखा बनाई जा रही है जिसका मुख्य काम इंजीनियरिंग से सम्बंधित होगा.और उसका इस्तेमाल ग्राम सड़क परियोजना में किया जा सकता है लेकिन इस शाक्षा को काम लायक बनाने में कम स कम दो साल लगेया.
नक्सलवादी हिंसा को रोकने में सबसे बड़ी अड़चन यह है कि उन लोगों से बात ही नहीं की जा सकती. वे संविधान को नहीं मानते . लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को जनविरोधी मानते हैं . इसलिए नक्सल हिंसा को काबू में करने के लिए वे तरीके कारगर नहीं होंगें जो आम तौर पर कानून व्यवस्था की समस्या को हल करने के लिए अपनाए जाते हैं .लेकिन सरकार को शान्ति तो कायम करनी ही है इसलिए ज़रूरी है कि नक्सलवादी हिंसा को रोकने के लिए उन इलाकों के लोगों को विकास प्रक्रिया में शामिल किया जाए जहां पर नक्सल वादी आतंकियों का प्रभाव है .
गृह मंत्री आज नई दिल्ली में आयोजित नक्सल आतंकवाद से प्रभावित ६० जिलों के कलेक्टरों की एक वर्कशाप में बोल रहे थे. उन्होंने आंकड़े देकर बताया कि इस साल के आठ महीनों में कश्मीर में २७ सिविलियन और पूर्वोत्तर भारत में ४६ सिविलियन मारे गए हैं जबकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में १९७ सिविलियन मारे गए हैं.इसी तरह पूर्वोत्तर भारत में २७ सुरक्षा कर्मी मारे गए जबकि नक्सलियों ने १०९ सुरक्षा कर्मियों की ह्त्या की . लेकिन गृहमंत्री ने स्पष्ट कहा कि हर तरह की हिंसा का मुकाबला करना राज्य सरकारों का ज़िम्मा है . उन्होंने कलेक्टरों से कहा कि आप लोग अपनी सरकारों से उतनी बात नहीं करते जितनी कि केंद्र सरकार से उम्मीद करते हैं. राज्य में शान्ति और कानून व्यवस्था के काममें गृह मंत्रालय केवल मदद कर सकता है . लेकिन असली काम तो राज्य सरकारों को ही करना चाहिए
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Tuesday, September 13, 2011
अब गाँव से दूर रहने वालों के लिए अलग होगा सीलिंग एक्ट
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,१२ सितम्बर .केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री, जयराम रमेश एक नया धमाका कर रहे हैं . इस नए काम की धमक दूर तलक महसूस की जायेगी . पर्यावरण मंत्रालय में उन्होंने कुछ बहुत बड़ी कंपनियों को इतना टाईट कर दिया था कि सरकार के लिए उन्हें पर्यावरण मंत्री बनाए रखना असंभव हो गया. अपने नए मंत्रालय में भी वे कुछ बड़ा करने की योजना बना चुके हैं. जयराम रमेश ने एक योजना बनायी है जिसके बाद भूमि सुधार कानूनों में भारी फेरबदल कर दिया जाएगा. केंद्र सरकार की योजना है कि राज्यों के भूमि हदबंदी कानून को बदल दिया जाए. हालांकि भूमि सुधार राज्य का विषय है लेकिन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के माडल भूमि हदबंदी कानून लाने की योजना बना रहा है जिसके अनुसार अपने गाँव से दूर शहरों में रहने वाले लोगों के लिए अलग भूमि हदबंदी कानून बनाया जाएगा . सरकार का प्रस्ताव है कि गैर हाज़िर भूस्वामी को गाँव में रहने वाले भूस्वामी से आधी ज़मीन रखने का अधिकार होगा . यानी अगर यह कानून उत्तर प्रदेश में लागू हो गया तो गाँव से बाहर शहरों में रहने वाले खातेदारों को सवा तीन एकड़ सिंचित भूमि ही रखने का अधिकार रह जाएगा. असिंचित के केस में भी यही फार्मूला लागू होगा .
जयराम रमेश का प्रस्ताव है कि गैर हाज़िर खातेदारों की सूची अब बहुत ही आसानी ने बन जायेगी .केंद्र सरकार की यू आई डी स्कीम वाले कार्ड के बन जाने के बाद देश के हर नागरिक का केवल एक परिचय पत्र रहेगा. वही कार्ड हर सरकारी स्कीम के लिए लागू होगा .जो लोग गाँव से दूर शहरों में रहते हैं ,उनको अपनी नौकरी के स्थान का ही कार्ड बनवाना पड़ेगा . इस तरह अभी तक दो या तीन जगह की मतदाता सूचियों में नाम लिखा कर काम चलाने वालों को एक जगह चुनना पड़ेगा जहां से वे कार्ड बनवाएं . ऐसी हालत में शहर में रह कर काम करने वालों के लिए गाँव का कार्ड नहीं बन पायेगा.
इस योजना की पूरी तैयारी हो चुकी है .ग्रामीण विकास मंत्रालय ने प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में २००८ में ही भूमि सुधारों की राष्ट्रीय परिषद् ( एन सी एल आर ) का गठन कर दिया था जो सक्रिय नहीं थी. अब वह सक्रिय कर दी गयी है . भूमि सुधारों की राष्ट्रीय परिषद् की पहली बैठक अक्टूबर में बुलाई जा रही है .इस परिषद् का उद्देश्य भूमि सुधार के बारे में दिशा निर्देश और नीतियाँ तय करना बताया गया है . भूमि सुधार के अधूरे काम को पूरा करने के लिए इस परिषद् के अंदर ही एक कमेटी बनायी गयी है जिसके अध्यक्ष ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश हैं.सरकार की कोशिश है कि भूमि के न्यायपूर्ण वितरण के लिए एक माडल भूमि सुधार कानून की आवश्यकता है . हालांकि राज्यों के सामने कोई बाध्यता नहीं होगी लेकिन केंद्र सरकार को उम्मीद है कि इंसाफ़ का निजाम स्थापित करने के एजेंडे के साथ राज्यों में सरकार बनाने वाली पार्टिया इस माडल भूमि हदबंदी कानून को लागू करेगीं.
नई दिल्ली,१२ सितम्बर .केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री, जयराम रमेश एक नया धमाका कर रहे हैं . इस नए काम की धमक दूर तलक महसूस की जायेगी . पर्यावरण मंत्रालय में उन्होंने कुछ बहुत बड़ी कंपनियों को इतना टाईट कर दिया था कि सरकार के लिए उन्हें पर्यावरण मंत्री बनाए रखना असंभव हो गया. अपने नए मंत्रालय में भी वे कुछ बड़ा करने की योजना बना चुके हैं. जयराम रमेश ने एक योजना बनायी है जिसके बाद भूमि सुधार कानूनों में भारी फेरबदल कर दिया जाएगा. केंद्र सरकार की योजना है कि राज्यों के भूमि हदबंदी कानून को बदल दिया जाए. हालांकि भूमि सुधार राज्य का विषय है लेकिन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के माडल भूमि हदबंदी कानून लाने की योजना बना रहा है जिसके अनुसार अपने गाँव से दूर शहरों में रहने वाले लोगों के लिए अलग भूमि हदबंदी कानून बनाया जाएगा . सरकार का प्रस्ताव है कि गैर हाज़िर भूस्वामी को गाँव में रहने वाले भूस्वामी से आधी ज़मीन रखने का अधिकार होगा . यानी अगर यह कानून उत्तर प्रदेश में लागू हो गया तो गाँव से बाहर शहरों में रहने वाले खातेदारों को सवा तीन एकड़ सिंचित भूमि ही रखने का अधिकार रह जाएगा. असिंचित के केस में भी यही फार्मूला लागू होगा .
जयराम रमेश का प्रस्ताव है कि गैर हाज़िर खातेदारों की सूची अब बहुत ही आसानी ने बन जायेगी .केंद्र सरकार की यू आई डी स्कीम वाले कार्ड के बन जाने के बाद देश के हर नागरिक का केवल एक परिचय पत्र रहेगा. वही कार्ड हर सरकारी स्कीम के लिए लागू होगा .जो लोग गाँव से दूर शहरों में रहते हैं ,उनको अपनी नौकरी के स्थान का ही कार्ड बनवाना पड़ेगा . इस तरह अभी तक दो या तीन जगह की मतदाता सूचियों में नाम लिखा कर काम चलाने वालों को एक जगह चुनना पड़ेगा जहां से वे कार्ड बनवाएं . ऐसी हालत में शहर में रह कर काम करने वालों के लिए गाँव का कार्ड नहीं बन पायेगा.
इस योजना की पूरी तैयारी हो चुकी है .ग्रामीण विकास मंत्रालय ने प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में २००८ में ही भूमि सुधारों की राष्ट्रीय परिषद् ( एन सी एल आर ) का गठन कर दिया था जो सक्रिय नहीं थी. अब वह सक्रिय कर दी गयी है . भूमि सुधारों की राष्ट्रीय परिषद् की पहली बैठक अक्टूबर में बुलाई जा रही है .इस परिषद् का उद्देश्य भूमि सुधार के बारे में दिशा निर्देश और नीतियाँ तय करना बताया गया है . भूमि सुधार के अधूरे काम को पूरा करने के लिए इस परिषद् के अंदर ही एक कमेटी बनायी गयी है जिसके अध्यक्ष ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश हैं.सरकार की कोशिश है कि भूमि के न्यायपूर्ण वितरण के लिए एक माडल भूमि सुधार कानून की आवश्यकता है . हालांकि राज्यों के सामने कोई बाध्यता नहीं होगी लेकिन केंद्र सरकार को उम्मीद है कि इंसाफ़ का निजाम स्थापित करने के एजेंडे के साथ राज्यों में सरकार बनाने वाली पार्टिया इस माडल भूमि हदबंदी कानून को लागू करेगीं.
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शेष नारायण सिंह
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