Saturday, March 23, 2013

डी एम के की केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी के बाद के सवाल



शेष नारायण सिंह

डी एम के नेताएम करूणानिधि ने यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेकर राजनीतिक सरगर्मियां  बढ़ा दी हैं . तमिलनाडु में श्रीलंका के तमिलों के समर्थन में लोकप्रिय आंदोलन चल रहा है .ऐसी हालात में राज्य की किसी भी पार्टी के लिए ऐसी किसी सरकार के साथ खड़े रहना बहुत नुक्सानदेह साबित होगा जो श्रीलंका सरकार से किसी तरह से भी सहानुभूति रखती देखी जाए. जानकार बताते हैं कि समर्थन वापसी की राजनीति करूणानिधि की एक राजनीतिक चाल है और जैसा कि उनके बारे में सबको मालूम है वे अक्सर राजनीतिक सौदेबाजी कर रहे होते हैं. इस बार ऐसा नहीं लगता . तमिलों के प्रति केन्द्र सरकार के रुख से तमिलनाडु में नाराज़गी है .आमतौर पर माना जा रहा था कि चुनाव करीब आने पर डी एम के वाले केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी का ड्रामा करेगें लेकिन इतनी जल्दी कर देगेंइसकी उम्मीद नहीं थी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केन्द्र सरकार के साथ बने रहने में डी एम को कोई राजनीतिक लाभ नहीं होगा जबकि उसका साथ छोड़ देने से तमिलनाडु की सडकों पर  श्रीलंका  के तमिलों के साथ सहानुभूति प्रकट कर रही जनता के साथ सम्मिलित होने का मौक़ा मिल जाएगा. वहाँ की जयललिता सरकार भी अलग थलग पडी हुई है और उसकी असुविधा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने की रणनीति के तहत एम करुनानिधि ने  यह फैसला लिया है .उनकी समर्थन वापसी से केन्द्र सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है . समर्थन वापसी की बात शुरू होने के साथ साथ यू पी ए को बाहर  से समर्थन दे रही उत्तर प्रदेश की दोनों ही पार्टियों ने ऐलान कर दिया कि उनका समर्थन जारी रहेगा. ज़ाहिर है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के समर्थन के सुनिश्चित हो जाने के बाद केन्द्र सरकार अपना कार्यकाल बिता लेगी.  हाँ नए घटनाक्रम का एक नतीजा यह हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव को खुश रखने के लिए  कांग्रेस पार्टी अपने नेता और केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से निकाल दे. बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से बाहर कर देने में कांग्रेस का कोई राजनीतिक घाटा नहीं होगा क्योंकि सबको मालूम है कि बेनी बाबू की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है . अभी साल भर पहले हुए विधान सभा चुनावों में उन्होने एक सौ से ज्यादा लोगों को चुनकर विधान सभा का टिकट दिया था और किसी को नहीं जितवा पाए. यहाँ तक कि उनके अपने बेटे को भी चुनाव में  हार का सामना करना पड़ा था.बेनी प्रसाद वर्मा की राजनीतिक ताक़त की कोई खास अहमियत नहीं है और अगर उनको हटाकर समाजवादी पार्टी के २२ सदस्यों का समर्थन हासिल किया जा सकता है तो यह सौदा किसी तरह से भी घाटे का नहीं माना जाएगा. 
ऐसी स्थिति में लोक सभा चुनाव २०१४ के पहले  होने की संभावनाओं पर फिर चर्चा शुरू हो गयी है . इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि चुनाव  कब होंगें क्योंकि जब भी चुनाव होंगे राजनीतिक पैरामीटर अब तय हो चुके हैं . बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चुनाव लड़ा जाना लगभग पक्का हो गया है . दिल्ली में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक अक्सर यह कहते पाए जाते  हैं कि बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह  नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं हैं . यह बात सच नहीं है . राजनाथ सिंह ने खुद कहा है कि बीजेपी का सबसे लोकप्रिय नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी हैं . उनका कहना  है कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की कोई  महत्वपूर्ण मौजूदगी नहीं है ,वहाँ भी नरेंद्र मोदी को  पसंद करने वालों की बड़ी संख्या है . तमिलनाडु जैसे राज्य में भी मोदी के प्रशंसक हैं . ऐसी हालत में लगता है कि २०१४ के चुनाव में नरेंद्र मोदी  ही प्रमुख होंगें और उनको राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी के वे बड़े नेता जिनका  कोई ज़मीनी काम नहीं है, उनका कोई महत्व वैसे भी नहीं है . और जब राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी में सहमति रहेगी तो बीजेपी में किसी भी नेता के लिए मोदी का विरोध कर पाना बहुत मुश्किल होगा. हाँ यह हो सकता है कि नरेंद्र मोदी  को अभी प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में न पेश किया जाए ,अभी उनको प्रचार कमेटी के मुखिया या और इसी तरह के किस किसी फैंसी पद के साथ चुनाव  का संचालन का ज़िम्मा दिया जाए लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि अगले चुनाव में नरेंद्र मोदी ही बीजेपी के कर्णधार होंगे और उनको पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी को उम्मीद है कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के नाम पर लहर चल पड़ेगी और कांग्रेस का उसी तरह से सफाया हो जाएगा जैसा १९७७ में हो गया था.

राजनाथ सिंह की इस बात में दम हो सकता है कि नरेंद्र मोदी  के समर्थक पूरे भारत में हैं .लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नरेंद्र मोदी के विरोधी भी पूरे भारत में हैं जहां तक मुसलमानों का सवाल है वे तो नरेंद्र मोदी को किसी भी सूरत में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं लेकिन गैर मुस्लिम आबादी में भी बीजेपी और नरेंद्र मोदी के विरोधियों की संख्या कम  नहीं है . नरेंद्र मोदी के विरोधी निश्चित रूप से आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगें. और देश की राजनीति के लिए यह समझ लेना ज़रूरी है कि अपनी धार्मिक पहचान वाली राजनीति के साथ नरेंद्र  मोदी देश की राजनीति को कहाँ तक प्रभावित करते हैं . नरेंद्र मोदी के बीजेपी के मुख्य चुनाव प्रचारक या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होने में सबसे दिलचस्प लड़ाई उत्तर प्रदेश  में ही होगी . कांग्रेस को उम्मीद है कि अगर नरेंद्र मोदी मुख्य नेता के रूप में आगे आये तो उत्तर प्रदेश में उसको फिर अच्छी सीटें मिल जायेगीं . जो कांग्रेस  पार्टी उत्तर प्रदेश के २००७ और २०१२ के विधान सभा चुनावों में सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में सामने आती है , वही पार्टी २००९ के लोक सभा चुनावों में राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से भारी क्यों पड़ती है . यह एक  ऐसी पहेली है जिसमें आगामी लोक सभा चुनावों के नतीजों का भेद छुपा है . उत्तर प्रदेश में कई जिलों में मुसलमानो की बड़ी संख्या है . वे आम तौर पर मुलायम सिंह यादव को वोट देते हैं .उनको भरोसा है कि समाजवादी पार्टी उनके हित का पूरा ध्यान रखेगी.लेकिन उनको यह भी मालूम है कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी की उत्तर प्रदेश के बाहर कोई खास मौजूदगी नहीं है . वे चाहकर भी  केन्द्र में नरेंद्र मोदी या बीजेपी की सरकार बनने से नहीं रोक सकते . केन्द्र में बीजेपी के खिलाफ बड़ी राजनीतिक जमात तैयार करने के लिए ही २००९ में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दे दिया था.  कांग्रेस को इस बार भी  यही उम्मीद है . मुसलमानों के अलावा देश में  बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो राजनीति से धर्म  को अलग रखना चाहते हैं . वे भी अक्सर बीजेपी के  खिलाफ ही वोट डालते हैं . यह अलग बात है कि लालकृष्ण आडवानी से लेकर छोटे कार्यकर्ताओं तक बीजेपी वाले आजकल अपने आपको सेकुलर कहने लगे हैं . उनकी बातों को बहुत सारे लोग सच भी मानते हैं . और देश के कई हिस्सों में तो मुसलमानों में भी  यह बात मानी जाने  लगी है कि बीजेपी भी मुसलमानों को वह  नुक्सान नहीं पंहुचायेगी जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है . इसी सोच के तहत देश के कई इलाकों में मुसलमानों ने भी बीजेपी को वोट दिया है  लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन सकने की संभावना के बाद तस्वीर एकदम  बदल जायेगी.  गोधरा हादसे के बाद हुए मुसलमानों एक नरसंहार के बारे में अब बहुत जयादा बात नहीं  होती लेकिन सब को मालूम है कि नरेंद्र मोदी  की उस कांड में क्या भूमिका थी. उसी का नतीजा है कि सारे देश में सेकुलर जमातें  मोदी के खिलाफ लामबंद हो जायेगीं . यह भी सच है कि जो भी बीजेपी के  साथ देखा जाएगा उसको सेकुलर जमातों  का वोट नहीं मिलेगा और मुसलमान  तो किसी भी सूरत में बीजेपी के किसी साथी को वोट नहीं देगा. डी एम के ने जब केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी की बात की तो बीजेपी के एक प्रवक्ता की बड़ी दिलचस्प टिप्पणी सुनने को मिली. उन्होंने कहा कि यू पी ए के सभी साथी उसका साथ छोड़ रहे हैं और अब यू पी ए बिलकुल अकेला पड़ जाएगा . लेकिन यही बात तो बीजेपी के बारे में भी सच है . करीब २४ पार्टियों के सहयोग से बीजेपी की सरकार १९९९ में बनी थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने थे .  धीरे धीरे वे सभी पार्टियां बीजेपी का साथ छोड़ गयीं . आज उनके साथ केवल शिवसेना और अकाली दल ही मौजूद हैं. नीतीश कुमार की पार्टी टेक्नीकल तौर पर तो उनके साथ है लेकिन कितनी साथ  है ,यह सबको मालूम है . २००४ के चुनावों में एक बहुत ही अजीब सच्चाई से राजनीतिक पार्टियों का सामना हुआ था . जिन लोगों ने सेकुलर वोट की मदद से अपने  राज्यों में सीटें हासिल की थीं  और दिल्ली आकर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधान मंत्री बनवा दिया था वे सब जीरो हो गए थे . इसलिए अब यह माना जाता है कि सेकुलर वोट  की उम्मीद में जो भी राजनीतिक दल हैं . वे बीजेपी के साथ कभी नहीं जायेगें. चन्द्र बाबू नायडू, ममता बनर्जी , फारूक अब्दुल्ला आदि ऐसे कुछ नाम हैं जिन्होंने दोबारा सेकुलर वोट हासिल करने की क्षमता विकसित कर ली है जिसे वे शायद दुबारा न खोना  चाहें . ऐसी हालत में बीजेपी के राजनीतिक ध्रुवीकरण की  कोशिश का फायदा बीजेपी को तो होगा ही, कांग्रेस को भी होगा . क्योंकि जो लोग देश में धर्म निरपेक्ष राजनीति के समर्थक हैं उनके  सामने बीजेपी के विरोध में खड़ी कांग्रेस के अलावा किसी और के साथ जाने का  रास्ता नही बचेगा  . डी एम के नेता एम करूणानिधि ने सरकार से समर्थन वापसी की बात शुरू करके एक बार से फिर से देश के सामने मौजूद बड़े राजनीतिक सवालों को जिंदा कर दिया है .

कर्नाटक से उत्तर प्रदेश तक, राजनीति की नज़र २०१४ पर है .



शेष नारायण सिंह

कर्नाटक में हुए शहरी निकायों के चुनावों के बाद देश की राजनीति में बहुत कुछ बदल गया है . वहाँ कांग्रेस ने जीत दर्ज की है और  विधानसभा चुनावों के पूर्व एक सन्देश देने में सफलता हासिल कर ली है कि वह कर्नाटक में सबसे मज़बूत राजनीतिक शक्ति है .कई राज्यों में विधानसभा चुनावों के लगभग तुरंत बाद  ही  लोकसभा के चुनाव होने हैं जिनके ऊपर बहुत सारे  राजनेताओं के सपने निर्भर कर रहे हैं . प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए बीजेपी में उठापटक चल रही है . कांग्रेस में  भी दरबारी संस्कृति से आये लोग राहुल गांधी का नाम लेकर अपने नंबर बढवाने के लिए सक्रिय थे लेकिन एक राज्य के मुख्यमंत्री को फटकार लगाकर राहुल गांधी ने इन चर्चाओं पर फिलहाल विराम लगा दिया है .लेकिन इस बात में दो राय नहीं है कि हर राजनीतिक पार्टी अब  लोकसभा २०१४ के चुनाव की तैयारी कर रही है .सत्ता की मुख्य दावेदार यू पी ए और एन डी ए है . यू पी ए का २००४ से ही राज है . उसके पहले एन डी ए वालों ने भी करीब छः साल राज किया था. जब २००४ में चुनाव हुआ तो उस वक़्त की सरकार ने देश में मीडिया के ज़रिये ऐसा माहौल बनाया कि जनता इण्डिया शाइनिंग के उनके नारे पर भरोसा कर रही है और सत्ता उनको ही दे देगी . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. २४ पार्टियों के गठबंधन से बना एन डी ए टूट गया . अब तो एन डी ए में मुख्य पार्टी  बीजेपी है और पूरी मजबूती के साथ  उसको शिवसेना और अकाली दल का समर्थन मिल रहा है . एन  डी ऐ के एक अन्य समर्थक नीतीश कुमार की पार्टी है , लेकिन नरेंद्र मोदी  को प्रधान मंत्री पद का दावेदार बनाने की कोशिश करके बीजेपी ने नीतीश कुमार को निराश किया है और अब लगभग पक्का  माना जा रहा  है कि नीतीश कुमार २०१४ के चुनावों के पहले या बाद में बीजेपी के खिलाफ खड़े होंगें . इसी हफ्ते नई दिल्ली में नीतीश कुमार की रैली होने वाली है और उसमें बिहार के अधिकार की बात की जायेगी. अब तक केन्द्र सरकार से जो भी नीतीश कुमार की अपेक्षा रही है ,उसे मौजूदा सरकार पूरी कर रही है. जानकार बताते हैं कि अब नीतीश कुमार बीजेपी से दूरी बनाने के लिए कमर कस चुके हैं . अपने किसी नेता को अगली बार प्रधानमंत्री बनाने के अपने अभियान में बीजेपी को नीतीश कुमार पर भरोसा नहीं करना चाहिए .अभी चार महीने पहले तक बीजेपी के बड़े नेता कहते पाए जाते थे कि आठ राज्यो में उनकी  सरकारें थीं ,  लेकिन अब चार राज्यों में ही हैं . उन चार में एक कर्नाटक भी है . यानी अब बीजेपी की मजबूती का दावा केवल मध्य प्रदेश , छत्तीस गढ़ और गुजरात में है . अगर यह  मान भी लिया जाये कि इन तीनों राज्यों में बीजेपी  को सभी सीटें मिल जायेगीं तो क्या बीजेपी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल जाएगा. सबको मालूम है कि बीजेपी का वही नेता प्रधान मंत्री बन सकता है जो अन्य पार्टियों को स्वीकार्य हो . अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर बीजेपी ने ऐसी पार्टियों का समर्थन ले लिया था जो मूल रूप से बीजेपी की राजनीति की विरोधी मानी जाती हैं. क्या बीजेपी का कोई नेता आज अटल जी की तरह राजनीतिक मतभेदों की बाधा पार करने की क्षमता रखता है? बीजेपी की सरकार बनेगी ऐसा सोचना एक काल्पनिक स्थिति है क्योंकि देश की राजनीति का मौजूदा माहौल ऐसा  नहीं नज़र आता कि बीजेपी को सरकार बनाने का दावा करने भर को बहुमत मिल जाएगा. पिछले एक  वर्ष में बीजेपी ने कई राज्यों में अपने को  कमज़ोर साबित किया है . गुजरात के अलावा उसको कहीं भी एक ताक़तवर पार्टी के रूप में  नहीं माना जा रहा है .

जहां तक कांग्रेस का सवाल है वह आश्वस्त है कि देश में बहुत सारी पार्टियां ऐसी हैं जो बीजेपी और आर एस एस को सत्ता से दूर रखने के लिए उसे समर्थन दे सकती हैं . कांग्रेस इस मामले में भाग्यशाली भी है कि बीजेपी ने लोक सभा में उसकी गलतियों को उजागर करने में वह कुशलता नहीं दिखाई जो १९७१ के बाद के विपक्ष ने कांग्रेस को बेनकाब करने के लिए दिखाई थी. अब तो बीजेपी वाले संसद में बहस बहुत कम करते हैं अक्सर तो हल्ला गुल्ला करके ही काम चला  लेते हैं . नतीजा यह हो रहा है कि कांग्रेस की गलतियाँ पब्लिक डोमेन में  नहीं आ रही हैं. सी ए जी की रिपोर्टों के सहारे कांग्रेस की सरकार को भ्रष्ट साबित करने की कोशिश चल रही है .चारों तरफ फ़ैली हुई महंगाई पर बीजेपी ने कांग्रेस पर कोई कारगर हमला नहीं किया है . ऐसा शायद इसलिए कांग्रेस की आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का विरोध बीजेपी नहीं करना चाहती क्योंकि आर्थिक उदारीकरण की डॉ मनमोहन सिंह की अर्थनीति को बीजेपी का पूरा समर्थन मिलता है . राजनीति का मामूली जानकार भी बता देगा कि अपने देश में मंहगाई का कारण आर्थिक उदारीकरण और उस से पैदा हुआ भ्रष्टाचार ही है . दोनों  ही बड़ी पार्टियां आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की समर्थक हैं . इसलिए नीति के आधार पर बीजेपी के लिए कांग्रेस का विरोध कर पाना संभव नहीं है. हाँ  यू पी ए के कुछ मंत्रियों और सोनिया गांधी के परिवार के खिलाफ अभियान चलाकर बीजेपी जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है . वक़्त ही बताएगा कि उसे कितनी सफलता मिलती है .

 कांग्रेस और बीजेपी के अलावा भी कई ऐसी पार्टियां हैं जो अगला प्रधानमंत्री बनवाने में मदद करेगीं. पश्चिम बंगाल की दोनों ही पार्टियां . लेफ्ट फ्रंट और तृणमूल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं . आन्ध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी एक राजनीतिक ताक़त बन कर उभर रहे हैं . उन पर भी नज़र रहेगी . बिहार से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सफलता पर भी सबकी नज़र रहेगी . उत्तर प्रदेश की अस्सी सीटों का भी ख़ासा योगदान रहेगा. मौजूदा सरकार भी उत्तर प्रदेश की तीन  पार्टियों के सहयोग से चल रही है . बहुजन समाज पार्टी , समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के एम पी , डॉ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए रखने में मदद कर रहे हैं .आने वाले समय में भी उतर प्रदेश के सांसदों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रहने वाली है .विधान सभा में स्पष्ट बहुमत लेने के बाद समाजवादी पार्टी के हौसले बहुत ही बुलंद हैं . अखिलेश सरकार के एक साल पूरे हो रहे हैं .  पिछले एक साल में समाजवादी पार्टी के अधिकतर नेताओं ने दावा किया है कि राज्य से ५० से ज़्यादा सीटें जीतकर वे मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनवाएगें . इस महत्वपूर्ण राजनीतिक पहेली को समझने के लिए संसद भवन के उनके कमरे में  आज मुलायम सिंह यादव से मुलाक़ात की गयी . मुलायम सिंह यादव का कहना है २०१४ का चुनाव बहुत ही गंभीरता से लड़ा जाएगा. उन्होंने बताया कि संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद वे निकल पड़ेगें और पूरे राज्य में  जनसंपर्क शुरू कर देगें . जब पूछा गया कि क्या उसी तरह का जनसंपर्क करने की योजना  है जो १९८६-८७ में थी तो उन्होंने बताया कि वह तो तब किया था जब एक बार भी मुख्यमंत्री नहीं बना था.राज्य में हर जिले में लोग उन्हें जानते तक नहीं थे . लेकिन उस यात्रा के बाद तो हर जिले में कई चक्कर लगाया , हर कस्बे तक पंहुचा और हर जिले में दो दो ,तीन तीन बार सोये भी . मुलायम सिंह ने बताया कि अपने बेटे अखिलेश यादव को दो साल पहले वहीं प्रेरणा दी थी और उन्होंने भी राज्य का  खूब दौरा किया और नतीजा सामने है . अपने भावी राजनीतिक कार्यक्रम के बारे में उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश में १८ मंडल हैं . वे संसद का सत्र खत्म होते ही हर मंडल में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक बुलायेगें और उनसे व्यक्तिगत संपर्क करेगें . स्वर्गीय जनेश्वर मिश्र ने उनको आगाह किया था कि अब हर कस्बे में जाने की ज़रूरत नहीं है . उनकी सलाह थी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उनको वहीं जाना चाहिए जहां समाजवादी पार्टी की राज्य इकाई वाले जाने को कहें . इसलिए वे हर मंडल में बैठकें करने के बाद राज्य पार्टी के सुझाव पर ही काम करेगें . जब उनको याद दिलाया गया कि उनकी पार्टी की सरकार को आये एक साल हो गया है लेकिन सरकार ने कोई ऐसा कारनामा नहीं किया है जिसको उदाहरण के रूप में पेश किया जा सके. उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है . राज्य सरकार ने अपने चुनाव घोषणापत्र में लिखी गयी हर बात को पूरा करने की योजना पर पहले दिन से काम करना शुरू कर दिया था. आज ही अखबारों में छपे हुए लैपटाप वितरण की तस्वीरों के हवाले से उन्होने बताया कि अभी सरकार के एक साल पूरे नहीं हुए हैं लेकिन सरकार ने इतने बड़े प्रोजेक्ट में सफलता हासिल कर ली है . देश की सबसे अच्छी कम्यूटर कंपनी से लैपटाप खरीद जा रहा है लेकिन थोक में खरीदे जाने के कारण उनका दाम आधा करवा लिया गया  है . बेरोजगारी भत्ता फिर से शुरू कर दिया गया है . हाई स्कूल के बाद से ही  मुस्लिम लड़कियों को आर्थिक सहायता दी जा रही है जबकि बाकी लड़कियों को इंटरमीडियेट के बाद  . उन्होंने कहा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में लिखा है कि मुसलमानों  की हालत अनुसूचित जातियों से भी खराब है इसलिए उनकी  पार्टी की सरकार मुसलमानों के प्रति खास जिम्मेदारी का अनुभव करती है .उन्होंने  बताया कि राज्य में सरकारी ट्यूबवेल और नहरों का पानी किसानो को मुफ्त दिया जा रहा  है.राज्य सरकार ने आदेश कर दिया है कि किसी भी किसान की ज़मीन नीलाम नहीं की जायेगी . होता यह रहा है कि भूमि विकास बैंक से क़र्ज़ लेने वाले किसान जब भुगतान नहीं कर पाते  थे तो उनकी ज़मीन नीलाम कर दी जाती थी . अब सरकारी आदेश है कि नीलामी नहीं होगी. उसके ऊपर से ५० हज़ार रूपये तक के किसानों के क़र्ज़ माफ कर दिए गए हैं .उन्होंने बताया कि कैंसर , दिमाग और हार्ट की गरीब आदमियों की बीमारियों का  इलाज़ राज्य सरकार करवा रही है .उन्होंने  राज्य स्तर के अपने पार्टी के नेताओं खासी नाराजगी जताई और कहा कि जो विधायक बन गए हैं वे अब अपने क्षेत्रों में नहीं जा रहे हैं .जो लोग मंत्री बन गए हैं .वे भी तो विधायक ही  हैं लेकिन सब लोग लखनऊ में जमे रहते हैं और जनता से संपर्क नहीं रख रहे हैं . इस कारण से पार्टी का बहुत नुक्सान हो रहा है .  पार्टी के विधायकों को अपने क्षेत्र में ज़्यादा सक्रिय रहना चाहिए . वे इस बात से भी बहुत नाराज़ हैं कि पार्टी के कुछ नेता दिल्ली के चक्कर काटते रहते हैं . उन्होने उन संसद सदस्यों के प्रति भी नाराजगी जताई जो कार्यकर्ताओं को दिल्ली बुला लेते हैं और उनको संसद के अंदर आने  का पास बनवा देते हैं . नतीजा यह होता है कि वे लोग संसद भवन के मुलायम सिंह यादव के कार्यालय के  बाहर आकर खड़े हो जाते हैं . यह ठीक नहीं है. वे चाहते हैं  कि पार्टी के कार्यकर्ता उन्हें लखनऊ में ही मिलें .कानून व्यवस्था के बारे में बात करने पर उन्होने कहा कि  उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था  की हालत दिल्ली से ठीक है . उत्तर प्रदेश की आबादी दिल्ली से दस गुना ज्यादा है जबकि अपराध दिल्ली में उत्तर प्रदेश से दस गुना ज़्यादा है . प्रतापगढ़ के  पुलिस अफसर  हत्याकांड के बारे में कोई बात करने से उन्होने यह कहकर इनकार कर दिया कि मामले की सी बी आई जाँच हो रही है ,उनका कुछ भी कहना ठीक नहीं है .लेकिन पूरी बातचीत में मुलायम सिंह यादव इस बात से तो आश्वस्त दिखे कि उनकी पार्टी अच्छा काम कर रही  है लेकिन उनको अपनी पार्टी के नेताओं में अनुशासन लाना बहुत ज़रूरी है .अब यह देखना दिलचस्प होगा कि  मुलायम सिंह यादव की यह इच्छा कितनी पूरी होती है क्योंकि राज्य में सत्ता के जितने केंद्र बन गए हैं उनके बीच सुशासन की उम्मीद करना बहुत ही बड़ी बात है ,बहुत ही मुश्किल बात है .
नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की बात को समाजवादी पार्टी एक प्रहसन से ज्यादा कुछ नहीं मानती लेकिन उन्होने साफ़ कहा मोदी  के बारे में चर्चा करना ठीक नहीं होगा  क्योंकि उनके विरोध में भी बोलने पर उनका प्रचार होगा जो ठीक नहीं है .कुल मिलाकर   की  में  तो समाजवादी पार्टी भारी पड़  रही है लेकिन बीजेपी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के  भी इस इंतज़ार में  हैं की समाजवादी पार्टी वाले कोई गलती करें और वे उनको  पीछे धकेलने में कामयाब हों .

नेताओं को बलात्कार के अपराध से मुक्त करने की सरकारी कोशिश का दो सांसदों ने किया विरोध




शेष नारायण सिंह 

१८६० में बनाए गए कानून , भारतीय दंड संहिता में आधुनिक  के हिसाब से बदलाव की मांग बार बार उठती रही है  . पिछले दिनों  दिल्ली  में बहुत ही वहशियाना तरीके से रेप का शिकार हुयी लडकी के अपमान के खिलाफ जब आम आदमी का गुस्सा सडकों पर फूट  पड़ा तो सरकार भी सचेत हुयी और डेढ़ सौ साल से लागू बलात्कार कानून में बदलाव की मंशा बनायी . सरकार ने  फौरी तौर पर जस्टिस जे एस वर्मा की  कमेटी बना दी और उनसे भारतीय दंड संहिता के बलात्कार कानून में ज़रूरी बदलाव की बाबत सलाह देने को कहा . जस्टिस वर्मा ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी और सरकार ने तुरंत एक अध्यादेश जारी करके अपनी तत्परता दिखायी और  एक बिल भी तैयार करके संसद की गृह मंत्रालय की स्थायी समिति को दे दिया और कहा कि  इस पर विधिवत विचार करके सुझाव दिए जाएँ जिसके बाद बिल को संसद में पेश करके कानून बना लिया जाए और अध्यादेश की जगह एक नितमित कानून बन जाए . जिस कमेटी के पास यह बिल भेजा गया उसके अध्यक्ष वेंकैया नायडू हैं लेकिन उसके सदस्यों में देश की राजनीति के बहुत बड़े लोग शामिल हैं . इस कमेटी में  लाल कृष्ण आडवानी लालू प्रसाद , जनार्दन द्विवेदी, डी  राजा ,प्रशांत चटर्जी,सतीश चन्द्र मिश्र,संदीप दीक्षित और नीरज शेखर भी शामिल है. कमेटी ने जो रिपोर्ट दी वह  कुछ सदस्यों को ही नहीं पसदं आयी और उन्होने बाकायदा अपनी नाराजगी जताई और सर्वसम्मति रिपोर्ट के खिलाफ डिसेंट नोट लगा दिया . उनका मुख्य एतराज़ इस बात पर है कि  सरकार ने और स्थाई समिति ने राजनेताओं को बलात्कार के आरोपों से मुक्त रखने की कोशिश की है . जबकि डिसेंट नोट लगाने वाले सदस्यों का कहना है की राजनीतिक व्यक्तियों की ज़िम्मेदारी सबसे ज्यादा है इसलिए उनको मुक्त कर देने से बलात्कार की वारदातों  में कोई कमी नहीं आयेगॆ. 
डिसेंट नोट में लिखा है की २०१०  के सरकारी  विशेयक में एक वाक्य था की " अगर बलात्कार करने वाला व्यक्ति सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा के पद पर है तो इस अपराध को और भी गंभीर माना जायेगा. , मौजूदा अध्यादेश में  इस परिभाषा से " राजनीतिक " शब्द को हटा दिया गया है .स्थायी समिति ने भी  परिभाषा में इस संशोधन से सहमति व्यक्त की है. हम ' राजनीतिक ' शब्द को हटाये जाने से पूरी तरह से असहमत हैं .धारा ३७६ के  खंड जे में राजनीतिक शब्द हर हाल में जोड़ा जाना चाहिए . यह प्रावधान वंचित महिलाओं के शोषण को ख़त्म करने के लिए लगाया गया था . पिछले कुछ वर्षों में ऐसे बहुत  सारे मामले आये है जहां राजनीतिक पदों पर मौजूद लोगों ने बलात्कार  किये हैं और उनको कानून की ज़द से बाहर करना तो उनके आतंक को बढ़ावा देने से कम नहीं  होगा .वैसे भी कोई भी   बलात्कारी  जुगाड़ करके राजनीतिक पद हासिल कर सकता है और उस से वह  अपराध के दंड से बच  निकलेगा .सरकारी कर्मचारियों के बारे में कहा गया है किअगर वह " जानबूझकर " कोई गलती करता है तो दंड दिया जायेगा. यह बेकार की बात है क्योंकि किसी भी सरकारी  कर्मचारी को कानून के अनजान होने के  बहाने बचने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए . 


कायदे से बलात्कार कानूनों में प्रस्तावित बदलाव के बारे  में सरकार की तरफ से पेश किये गए बिल पर सभी दलों के बड़े नेताओं की सदस्यता वाली संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट को आज की मुख्य खबर  बनना  चाहिए था लेकिन डी  राजा और प्रशांत चटर्जी का डिसेंट नोट ही आज की मुख्य खबर है . डिसेंट नोट को भी रिपोर्ट के साथ संलग्न किया गया है . इन दो सदस्यों ने वर्मा समीति की सिफारिशों को बिल में तोड़ मरोड़ कर शामिल किये जाने का घोर विरोध किया है . उन्होंने कहा है कि स्थाई समिति को चाहिए को वह सरकार से मांग करे की जस्टिस वर्मा समिति की सिफारिशों को शामिल करके सरकार एक नया बिल संसद में विचार करने के लिए लाये. समिति की रिपोर्ट के खंड पांच में अध्यादेश की धारा  ८  की तरह सेक्सुअल असाल्ट के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग किया गया है जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही दोषी  साबित हो सकते हैं . . यह  पुरुषों द्वारा होने वाले बलात्कार की घटनाओं को गौण बनाता है . . यह खंड वर्मा समिति की सिफारिशों के विरुद्ध है . जिसमें अपराध करने वाले को पुरुष के रूप  में परिभाषित करने की सिफारिश की गयी है .. आरोपी व्यक्ति केवल पुरुष ही हो सकता है जबकि पीड़ित पक्ष केवल महिला हो सकती है .  मौजूदा बिल वर्मा समिति की इस मंशा को ख़त्म कर देता है . 



सरकारी बिल में वैवाहिक बलात्कार को आई पी सी की धारा ३७५  के तहत अपराध नहीं मन गया है जबकि वर्मा समिति में ऐसा करने की सिफारिश की गयी थॆ. . यह व्यवस्था भारतीय संविधान के भी विरुद्ध है .. संविधान में सभी महिलाओं को हिंसा मुक्त जीवन जीने का अधिकार है . . शायद इसीलिये वर्मा समिति ने कहा था की आई पी सी में " वैवाहिक बलात्कार को शामिल न करना विवाह  की उस पुरातन परम्परा पर आधारित है जिसमें पत्नी को अपने पति की संपत्ति  माना गया है .जबकि आधुनिक समय में विवाह दोनों का सामान उत्तरदायित्व माना  गया है ." कमेटी ने भी इस मामले में सरकार की हाँ में हाँ मिला दी है .बाद में कमेटी ने नेताओं को बरी कारने वाला प्रावधान हटा दिया लेकिन डी राजा का कहना है कि अगर दबाव न डाला गया होता तो शायद यह प्रस्ताव कानून का  हिस्सा बन जाता .

उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव की तैयारियां और मुसलमानों की भूमिका




शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश में एक बार फिर मुसलमानों में अपने आपको लोकप्रिय बनाने के लिए राजनीतिक पार्टियों में होड़ शुरू हो गयी है . सब को मालूम है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सफलता के लिए मुसलमानों के समर्थन की ज़रूरत होती है . पिछले विधान सभा चुनाव के दौरान एक बार फिर यह साबित हो गया है कि मुसलमान जिस तरफ जाता है उसकी सीटें बढ़ जाती हैं .जहां तक बीजेपी का सवाल है वह पिछले चुनाव में मुसलमानों का विरोध करके ध्रुवीकरण करवाने की कोशिश कर चुकी है .सबको मालूम है की उसको कोई राजनीतिक सफलता नहीं मिली . शायद अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी में आम तौर पर मुसलमानों के  दुश्मन के रूप में माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी भी अपनी ऐसी कुछ तस्वीरें अखबारों में छपवा रहे हैं जिसमें वे मुसलमानों की हुलिया वाले कपडे पहने कुछ लोगों के साथ देखे जा सकते हैं . हालांकि मोदी को भी मालूम है की मुसलमान उनको हराने के लिए ही वोट देगा लेकिन   बीजेपी वाले अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं कि   मोदी के ऊपर मुस्लिम द्रोह का जो मुलम्मा लगा है उसको मिटाया जा सके. सभी दलों को पता है कि उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीटें जीतने के लिए मुसलमानों की मदद बहुत ज़रूरी है  शायद इसीलिये सभी गैर बीजेपी पार्टियां अपने को मुसलमानों सबसे बड़ा शुभचिन्तक बता रही है . 

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां मुसलमान किसी भी सीट पर पक्की जीत तो नहीं दिलवा सकते हैं लेकिन एकाध सीट को छोड़कर उनकी संख्या हर सीट पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करती है .आबादी के हिसाब से करीब १९ जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी बहुत घनी है.रामपुर ,मुरादाबाद,बिजनौर मुज़फ्फर नगर,सहारनपुर, बरेली,बलरामपुर,अमरोहा,मेरठ ,बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं . गाज़ियाबाद,लखनऊ , बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद पीलीभीत,आदि कुछ ऐसे जिले जहां  कुल वोटरों का एक चौथाई संख्या मुसलमानों की है . जहां तक बीजेपी का सवाल है उन्हें मालूम है कि  उन्हने मुसलामानों के वोट नहीं मिलने वाले हैं  इसलिए उनकी तरफ से केवल सांकेतिक कोशिश ही की जा रही है . उत्तर प्रदेश से आने वाले इकलौते राष्ट्रीय  मुस्लिम नेता तक रामपुर जैसी मुस्लिम बहुल सीट से चुनाव  हार गए थे. लेकिन बाकी तीनों पार्टियां मुसलमानों के वोट  की चाहत रखती हैं . कांग्रेस ने पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान ओबीसी कोटे से काटकर  साढ़े चार प्रतिशत अल्पसंख्यक  आरक्षण की बात करके  मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी . वह सफल नहीं रहा  .कांग्रेस के खाते में मुसलमानों का पक्षधर बनाने के बहुत सारे अवसर नहीं हैं . बड़े ताम झाम के साथ  यू  पी ए  सरकार ने अल्पसंख्यक मंत्रालय बनाया था .उस वक़्त कहा गया था कि  सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करवाने का ज़िम्मा इस मंत्रालय के पास था. लेकिन शुरू में यह मंत्रालय ऐसे  मंत्रियों के हवाले किया गया था जो इस काम को पार्ट टाइम मानकर चल रहे थे. अब जो नए मंत्री आये हैं वे काम को गंभीरता से ले रहे हैं लेकिन अब समय बहुत कम बचा है . ज़ाहिर है मुसलमानों का पक्षधर बनाने की कांग्रेस की कोशिश हमेशा की तरह डावांडोल  है .पिछले मंत्रियों के कार्यकाल के काम काज की जांच करने वाली संसद की एक कमेटी ने सरकार के कामकाज की सख्त नुक्ताचीनी की  थी .
 सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से सम्बंधित कमेटी ने अल्पसंख्यकों के लिए किये जा रहे काम में सम्बंधित मंत्रालय को गाफिल पाया था . इस समिति की बीसवीं रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार ने  मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए बजट में मिली हुई रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया और पैसे वापस भी करने पड़े.  कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि कमेटी इस  बात से बहुत नाराज़ है कि २०१०-११ के साल में अल्पसंख्यक मंत्रालय ने ५८७ करोड़ सत्तर लाख की वह रक़म लौटा दी  जो घनी अल्पसंख्यक आबादी के विकास के लिए मिले थे. हद तो तब हो गयी जब मुस्लिम बच्चों के वजीफे के लिए मिली हुई रक़म  वापस कर दी गयी.  यह रक़म संसद ने दी थी और सरकार ने इसे इसलिए वापस कर दिया कि वह इन स्कीमों में ज़रूरी काम नहीं तलाश पायी. यह सरकारी बाबूतंत्र के नाकारापन का नतीजा है .,  प्री मैट्रिक वजीफों के मद   में  मिले हुए धन में से ३३ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए , मेरिट वजीफों के लिए मिली हुई रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए और पोस्ट मैट्रिक वजीफों के लिए मिली हुयी रक़म में से २४ करोड़ रूपये वापस कर दिए गए . इसका मतलब  यह हुआ कि सभी पार्टियों के प्रतिनिधित्व वाली  संसद ने तो सरकार को मुसलमानों के विकास के लिए पैसा दिया था लेकिन सरकार ने उसका सही इस्तेमाल नहीं किया . इस के बारे में सरकार का कहना  है कि उनके पास  अल्पसंख्यक आबादी वाले जिलों से प्रस्ताव नहीं आये इसलिए उन्होंने संसद से मिली रक़म का सही इस्तेमाल नहीं किया . संसद की स्थायी समिति ने इस बात पर सख्त नाराज़गी जताई है और कहा है कि वजीफों वाली गलती बहुत बड़ी है और उसको दुरुस्त करने के लिए सरकार को काम करना चाहिए . बजट में वजीफों की घोषणा हो जाने  के बाद सरकार को चाहिए कि उसके लिए ज़रूरी प्रचार प्रसार आदि करे जिससे जनता भी अपने जिले या राज्य के अधिकारियों पर दबाव बना सके और अल्पसंख्यकों के विकास के लिए मिली हुई रक़म  सही तरीके से इस्तेमाल हो सके. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास मुसलमानों का नेतृत्व  करने वालों की भी भारी कमी है . अपने एक राष्ट्रीय नेता को उन्होंने प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर देख लिया  कि  बड़े नेता को चार्ज देने से भी उनका कोई लाभ नहीं हुआ. 
बहुजन समाज पार्टी  भी मुस्लिम बी वोटों की दावेदार के रूप में जानी जाती है . यह अलग बात है कि  मायावती ने राज्य और केंद्र में कई बार बीजेपी की सरकारों का समर्थन किया है लेकिन वे अपने को मुसलमानों का शुभचिंतक बताती हैं . उनकी तरकीब यह है कि वे बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देती हैं . उनके साथ कुछ मुसलमान मंत्री भी रहते हैं लेकिन  किसी को भी नेता के रूप में उभरने का मौक़ा नहीं  मिलता,सभी मायावती जी की छत्रछाया में ही नेता बने रहते हैं .


उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की खैरख्वाह के रूप में समाजवादी पार्टी को १९९१ से ही एक पहचान मिली हुयी है . बीच में कुछ महीनों के लिए पार्टी के अध्यक्ष के कल्याण प्रेम के कारण समाजवादी पार्टी को मुसलमानों  ने शक की नज़र से देखा लेकिन बाद में जब कल्याण सिंह को पार्टी से हटा दिया गया  तो मुसलमान बड़ी संख्या में उनके साथ आये और  सत्ता अखिलेश यादव को सौंप दी .लेकिन जब सत्ता आयी तो दिल्ली  और पश्चिमी  उत्तर प्रदेश के बहुत सारे मुसलमानों  ने दावा करना शुरू कर दिया की उनके कारण ही सारा मुसलमान समाजवादी पार्टी के साथ जुडा था. मुलायम सिंह की पार्टी को सत्ता दिलवाने का दावा करने वालों में ऐसे मुसलमान भी शामिल थे जो अपने मुहल्ले का चुनाव नहीं जीत सकते . ऐसे बहुत सारे मुसलमान  भी  मुलायम सिंह की तकदीर बनाने का  दावा करने लगे जिनकी रोटी पानी भी समाजवादी पार्टी की वजह से चलती  थी . मुलायम सिंह यादव ने इस जमात के लोगों को खूब लाभ पंहुचाया और  जनता में ऐसा माहौल बनना शुरू  हो गया कि वे लोग वास्तव में समाजवादी पार्टी के सही खैरख्वाह हैं . आजकल पूरे राज्य में यही माहौल है . हालांकि सच्चाई  यह  है  उत्तर प्रदेश का आम मुसलमान इन लोगों में से किसी को नेता नहीं  मानता . वह केवल मुलायम सिंह यादव को अपना  शुभचिन्तक और नेता मानता है. समाजवादी पार्टी के अन्दर  की खबर रखने वाले पार्टी के एक नेता ने बताया  कि  उनकी पार्टी का आलाकमान अब पार्टी में ऐसे मुसलमानों को महत्व देना  चाहता है जो वक़्त के साथ आर्थिक लाभ के लिए हर सत्ताधारी पार्टी के चक्कर नहीं काटने  लगते .अब ऐसे नेताओं को आगे बढाने की योजना पर काम चल रहा है जो नौजवान हों और समाजवादी पार्टी के साथ ही शुरू से जुड़े रहे हों . जिनको विकसित किया जाए और जो बाद में पार्टी का मुस्लिम फेस बन सकें . पार्टी की स्थापना के बाद मुलायम सिंह यादव ने यह प्रयास किया था  जब उन्होंने एक आन्दोलन से आये आज़म खान को समाजवादी पार्टी का प्रमुख मुस्लिम चेहरा बनाया था लेकिन बाद में जब अमर सिंह का प्रादुर्भाव हुआ तो आज़म खान का महत्व कम हो गया . पता चला है की इस बार भी सत्ता के दलालों के  मकड़जाल से निकल कर समाजवादी पार्टी का आलाकमान किसी मुसलमान को गंभीर नेता के रूप में आगे बढाने की सोच रहा है . पता चला है की अमरोहा के विधायक और मंत्री, कमाल अख्तर को समाजवादी पार्टी आगे बढाने की सोच रही है . कमाल अख्तर छात्र नेता रहे हैं , जामिया मिलिया के छात्र संघ के अध्यक्ष रहे, समाजवादी पार्टी के युवा  संगठन के अखिल भारतीय अध्यक्ष रहे और  राज्य सभा के सदस्य रहे . समाजवादी पार्टी के नेताओं के आस पास घूमने वाले अन्य नेताओं से अलग उनकी छवि भी है. पार्टी के शीर्ष नेता उन्हें पसंद करते हैं और वे चुनाव भी जीत जाते हैं . आजकल मंत्री हैं और लखनऊ के सत्ता के गलियारों के जानकारों  का कहना है की बहुत खुशमिजाज़ भी है।यह देखना दिलचस्प होगा कि समाजवादी पार्टी की यह कोशिश कितना  प्रभावकारी साबित होते है .  बहरहाल आने वाला चुनाव राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के लिए एक अवसर है . वक़्त ही बताएगा कि  वह इस अवसर का कैसा इस्तेमाल करती है .

Tuesday, February 26, 2013

अगर बीजेपी ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया तो अलग थलग पड़ जायेगी



 

शेष नारायण सिंह  
 

कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर में जब राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया तो हर रंग के कांग्रेसी ने उनको प्रधान मंत्री बनाने की राग में बात करना शुरू कर दिया . हद तो तब हो गयी जब उसी मंच पर मौजूद प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की मौजूदगी की परवाह न करते हुए कांग्रेसियों ने राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनाने की मांग करते हुए नारे लगाना शुरू कर दिया . ऐसा माहौल बन गया कि लगने लगा कि अब कांग्रेस का एक सूत्री कार्यक्रम राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना ही रह गया है .  उपाध्यक्ष बनने के बाद दिल्ली में राज्यों के कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों , विधान मंडल में कांग्रेस पार्टी के नेताओं और राज्य अध्यक्षों की बैठक में भी उत्तराखंड के  मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा ने राग प्रधानमंत्री का आलाप लिया . संतोष की बात यह है कि राहुल गांधी ने उनको फटकार दिया और यह बात वहीं बंद हो गयी. एक  हफ्ते से अधिक वक़्त हो गया है और किसी कांग्रेसी का किसी भी अखबार में राहुल गांधी को  प्रधान मंत्री बनाने वाला बयान नहीं छपा है . यह देश की राजनीति के लिए सुकून की बात है कि देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के नेता और कार्यकर्ता फ़िज़ूल की बातों में समय नहीं लगा रहे हैं . सच्ची बात यह है कि अगर २०१४ के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस इस स्थिति में रही कि वह अपने उम्मीदवार को प्रधानमंत्री बनवा सके तो वह राहुल गांधी समेत किसी को भी प्रधानमंत्री बनवा सकती है .वह उनका अपना मामला है .
लेकिन देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी वाले अभी भी प्रधान मंत्री बनवाने वाले खेल में पूरी तरह से तल्लीन हैं . मीडिया में मौजूद  मोदी के मित्रों की मदद से नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनवाने का अभियान प्रतिदिन रफ़्तार पकड़ रहा है . टेलीविज़न में भी नरेंद्र मोदी के समर्थक दिन रात इसी  कार्यक्रम में लगे हुए हैं . हालांकि इस बात की कोई संभावना नहीं  है कि बीजेपी को देश के अगले प्रधान मंत्री के चुनाव में कोई प्रभावशाली भूमिका मिलने वाली है .जब एन डी ए के नेता के रूप में  अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने थे तो उनको बीस से ज्यादा राजनीतिक  पार्टियों का समर्थन हासिल था .बीजेपी के अलावा उनके समर्थन में जनता दल यूनाइटेड, अकली दल, असं गन परिषद ,नागालैंड पीपुल्स फ्रंट,उत्तराखंड क्रान्ति दल, जनता पार्टी  आल झारखण्ड स्टूडेंट्स युनियन ,महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी ,हरियाणा जनहित कांग्रेस , झारखण्ड मुक्ति मोर्चा , बहुजन समाज पार्टी ,जम्मू-कश्मीर नेशनल कान्फरेंस,लोक जनशक्ति पार्टी ,एम डी एम के,डी एम के ,पी एम के ,इन्डियन  फेडरल डेमोक्रेटिक पार्टी, तृणमूल कांग्रेस , बीजू जनता दल ,इन्डियन नेशनल लोक दल , राष्ट्रीय लोक दल . तेलुगु देशम , शिव सेना आदि के सहयोग से बीजेपी सत्तधारी पार्टी  बनने में सफल हुई थी. इसमें से बहुत सारी पार्टियां २००४ के चुनावों में शून्य पर पंहुच गयीं . उनके  नेताओं से बात करने पर पता चला है कि वे इसलिए भी तबाह हो गयीं कि उनके समर्थकों में एक बड़ा वर्ग ऐसे लोगों का था जो बीजेपी की राजनीति के विरोधी थे  लेकिन जब केन्द्र में सरकार में शामिल होने का मौक़ा मिला तो वे पार्टियां बीजेपी के साथ शामिल हो गयीं . राजनीति के जानकार मानते हैं कि २०१४ के चुनाव में अब वे पार्टियां बीजेपी के साथ नहीं जाने वाली हैं . आज की राजनीतिक सच्चाई यह  है कि  केवल शिव सेना और अकाली दल आज बीजेपी के साथ पूरी तरह से हैं . एक अन्य मज़बूत सहयोगी नीतीश कुमार की जनता दल ( यू ) भविष्य में  बीजेपी के साथ नही रहेगी . अगर एक  प्रतिशत वे बीजेपी के साथ जाना चाहेगें भी तो नरेंद्र  मोदी के साथ तो बिलकुल नहीं रहेगें . यह बात खुद नीतीश कुमार ने बार बार दोहराई है . ऐसी हालत में नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वालों को देश की भावी राजनीति  की सच्चाई पर गौर  करना ज़रूरी है .
मीडिया में मौजूद नरेंद्र मोदी समर्थकों की उतावली का आलम यह है कि  किसी के बयान को भी नरेंद्र मोदी  को प्रधान मंत्री बनाने वाला बयान साबित करने में किसी तरह का संकोच नहीं करते. पिछले दिनों देवबंद के किसी मौलाना ने कुछ कह दिया जिसे मोदी समर्थकों ने मोदी के समर्थन में दिया गया बयान बता दिया . टी वी  चैनलों पर उन मौलाना साहेब की बातें छाई रहीं .जोर शोर से  यह प्रचार किया गया कि देवबंद  जैसी जगह से आने वाले इतने बड़े मौलाना ने ऐलान कर दिया है कि मुसलमान अब नरेंद्र मोदी से नफरत नहीं करते , वे मोदी को प्रधान मंत्री के रूप में स्वीकार करने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं .लेकिन जब उन्हीं मौलाना साहेब ने अपनी सफाई देने की कोशिश की तो उनकी बात को आगे बढाने वाले पता नहीं कहाँ गायब हो गए . वे बेचारे छोटे मोटे टी वी चैनलों के ज़रिये अपनी बात कहने की कोशिश करते पाए जा रहे हैं .
मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वालों को बहुत जल्दी है और वे बहुत गुस्से में भी हैं . इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर कहीं मोदी के खिलाफ कोई भी बात लिख  दी जाती है तो उसके खिलाफ तो टिप्पणियां आती हैं  वह गाली गलौज की भाषा अख्तियार कर लेती हैं . आज ही देश के एक बड़े अखबार में नरेंद्र मोदी की तुलना १९३३ के बाद के जर्मनी के नेता से करने की कोशिश करने वाला एक लेख छपा है . उसके खिलाफ मोदी समर्थकों का जो अभियान चल  रहा है उस से अंदाज़ लगाया जा सकता है कि मोदी को प्रधान मंत्री बनाने वाली ब्रिगेड  कितनी असहिष्णु है . अभी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व  जज मार्कंडेय  काटजू ने नरेंद्र मोदी के  बारे में एक विश्लेषणात्मक लेख लिख दिया था . बीजेपी आलाकमान के एक नेता ने पार्टी के अधिकृत प्रकाशन में काटजू के खिलाफ अभियान की शुरुआत कर दी .नतीजा यह हुआ कि बीजेपी का हर छुटभैया नेता इस विवाद में टूट पड़ा और संघ समर्थक मीडिया की मदद से तूफ़ान खडा कर दिया . इस वक़्त अगर भारतीय मीडिया के एक बड़े वर्ग  पर नज़र डाली जाए तो समझ में आ जाएगा कि बीजेपी के मोदी  गुट वालों का  कितना प्रभाव है . दिलचस्प बात  यह है कि बीजेपी या आर एस एस ने अभी हर स्तर पर यह बात बार बार दोहराया है कि नरेंद्र मोदी आधिकारिक रूप से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश नहीं किये गए  हैं. पार्टी के राष्ट्रीय  अध्यक्ष , राजनाथ सिंह ने कई बार  मीडिया के ज़रिये स्पष्ट कर दिया है कि नरेंद्र मोदी को पार्टी ने प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश नहीं किया है .पार्टी के सही मंचों पर फैसला लिया जाएगा लेकिन मोदी समर्थकों के पास यह सब सुनने का समय नहीं है . उन्हें  तो प्रधानमंत्री के पद पर मोदी की तैनाती चाहिए .
राजनीतिक सच्चाई  यह है कि अगर बीजेपी वाले नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश कर देते हैं तो देश में चुनाव  की राजनीति के बहुत सारे समीकरण बदल जायेगें .बीजेपी के साथ रहकर जिन राजनीतिक पार्टियों ने अपना  सब कुछ गँवा दिया है वे किसी भी हालत में बीजेपी के पास नहीं जायेगीं .  मुसलमानों के समर्थन से चुनाव जीतने वाली पार्टियां भी बीजेपी के साथ नहीं जायेगीं . १९९९ से २००४ के बीच में बीजेपी के साथ रहकर कई पार्टियों ने अपनी राजनीतिक हैसियत को चौपट किया है . इस लिस्ट में राम विलास पासवान, चंद्र बाबू नायडू जैसे नेता सरे फेहरिस्त हैं.  अगर नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने आगे कर दिया तो उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कांग्रेस की मजबूती  की संभावना बहुत ज्यादा  बढ़ जायेगी .  २००७ और २०१२ के विधान सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को कोई महत्व नहीं दिया लेकिन इन दो चुनावों के बीच जब २००९ का लोक सभा चुनाव हुआ  तो कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें मिल गयीं. जानकार बताते हैं कि जनता ने केन्द्र में आर एस एस की संभावित सत्ता  को रोकने के लिए ऐसा किया था. यह बात इस बार भी हो सकती है . वैसे यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति के मौजूदा गणित में भी ऐसा कुछ नहीं है जिस से बीजेपी को सत्ता के करीब जाने में मदद मिलेगी. वहाँ चाहे कांग्रेस जीते या मायावती और मुलायम सिंह यादव , कोई भी  बीजेपी की सरकार नहीं बनवाने वाला है. इसी तरह से ममता बनर्जी ने भी बीजेपी से दूरी बनाकर मुसलमानों का वोट  हासिल किया है और आज कल मुख्यमंत्री बनी हुई हैं . उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद मुसलमानों को खुश करने के लिए उनको बहुत सारी सुविधाएँ दी हैं ,उर्दू अखबार वालों को बहुत महत्व दिया है और अपने आपको मुसलमानों का बहुत बड़ा हित चिन्तक साबित करने का अभियान चलाया है . ऐसी हालत में ऐसा नहीं लगता कि वे भविष्य में बीजेपी के साथ जायेगीं क्योंकि अगर उन्होने ऐसा किया तो उनको राजनीतिक रूप से घाटा होने की पूरी आशंका है .  आन्ध्र प्रदेश  की पार्टियां तेलुगु देशम और तेलंगाना राष्ट्र समिति वाले भी बीजेपी के साथी बनकर चुनावी मैदान में हार का सामना कर चुके हैं . दोनों  ही पार्टियों के  बड़े नेता कई बार कह चुके हैं कि वे किसी भी हालत में बीजेपी के साथ नहीं जायेगें . बड़े राज्यों में बिहार को भी शामिल किया जा  सकता है जहां नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और राम विलास पासवान नरेंद्र मोदी का समर्थन किसी भी हालत में नहीं करेगें.  महारष्ट्र में शिव सेना  तो बीजेपी की मुख्य समर्थक है लेकिन बाकी कोई भी पार्टी उसके साथ नहीं जाने वाली है . पिछले दिनों शरद पवार की कुछ मुलाकातों के हवाले से माहौल बनाने की कोशिश की गयी कि उनकी पार्टी बीजेपी के साथ जा सकती है लेकिन जब पार्टी के अंदर की राजनीति के जानकारों से बात  हुई तो समझ में आ गया कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है .ऐसी हालत में  बीजेपी की राजनीति का समर्थन मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़, गुजरात , राजस्थान . तमिल नाडू और दिल्ली के अलावा कहीं से आने की  संभावना नहीं है . कर्णाटक में बीजेपी का अर्थ पूरी तरह से येदुरप्पा हुआ  करता था . येदुरप्पा की राजनीति के जानकार जानते हैं कि येदुरप्पा के मन में दिल्ली वाले बीजेपी नेताओं के बारे में इतनी तल्खी है कि वे किसी भी हाल में इन लोगों को  समर्थन नहीं देगे.
कुल मिलाकर जो राजनीतिक हालात विकसित हो रहे हैं उन से साफ़ संकेत मिल रहे हैं कि देश में परिपक्वता की राजनीति का युग आने वाला है . कांग्रेस में भी अब चापलूसी करने  वालों का महत्व घटने के संकेत साफ़ नज़र आ रहे हैं . प्रधान मंत्री बनाने वालों की मंडली को फटकार बता कर राहुल गांधी ने संगठन को महत्व देने की बात करके अपनी पार्टी की राजनीति को गरिमा देने की कोशिश की है. बीजेपी में भी नितिन गडकरी को हटाकर राजनाथ सिंह को  पार्टी का अध्यक्ष  बनाया  जाना इस बात का संकेत है कि वे नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों की ओर से मीडिया के ज़रिये चलने वाले अभियानों को उतना महत्व नहीं देने वाले  हैं .ज़ाहिर है कि  देश में परिपक्व राजनीति का युग आने ही वाला है .

Wednesday, February 20, 2013

इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी बना हुआ है आई ए एस अफसरों का डम्पिंग ग्राउंड



शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,१९ फरवरी . भारत में नदियों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण नेटवर्क है . प्राचीन काल में नदियाँ आवाजाही का सबसे प्रमुख साधन थीं इसीलिये ज़्यादातर पुराने शहर नदियों के किनारे ही बसे हैं .बहादुरशाह ज़फर भी जब दिल्ली से रंगून भेजे जा रहे थे कलकत्ता तक की यात्रा गंगा नदी के रास्ते पूरी की थी. आज़ादी के बाद सरकार ने तय किया कि अपने देश में नदियों के ज़रिये यातायात को बड़े पैमाने पर  विकसित किया जाएगा. इसके लिए इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी भी बना दी गयी . सरफेस ट्रांसपोर्ट मंत्रालय के अधीन सारा सरकारी तामझाम भी बना दिया गया . लेकिन अफसरों के गैर ज़िम्मेदार रवैये के कारण पिछले ४० साल से यह सारा काम बेकार पड़ा है . सरकारी पैसा लग रहा है लेकिन कहीं  कुछ नहीं हो रहा है . केन्द्र सरकार के अफसरों के दिल्ली प्रेम के चलते इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी का  मुख्यालय नोयडा में बना दिया गया है जो कि एक तरह से दिल्ली ही है . इनसे कोई पूछे कि ,’भाई दिल्ली के पास मुख्यालय क्यों रखा गया है जबकि दिल्ली  या नोयडा के पास अथारिटी का कहीं कोई काम नहीं है . यह भी वैसा ही अजूबा है कि जैसे ओ एन जी सी  का मुख्यालय देहरादून में बना दिया गया था जबकि उनका सारा काम समुद्र के आस पास है . इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी काम नेशनल वाटरवेज का विकास करना है लेकिन कहीं कोई खास प्रगति नहीं हो  है .
संसद की इस विभाग का काम देखने वाली ,यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति की नज़र इस मामले पर पड़  गयी और  समिति ने विधिवत जांच की और पाया कि सरकारी तंत्र जो सफ़ेद हाथियों को पालने का बेहद शौक़ीन है ,उसने यहाँ भी एक बेहतरीन क्वालिटी के बहुत ही सफ़ेद हाथी पाल रखा है . कमेटी ने इसी फरवरी में कमेटी ने दोनों ही सदनों के पीठासीन अधिकारीयों को अपनी रिपोर्ट दी है. रिपोर्ट देख कर कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनको देख कर लगता है कि अगर सरकारी अफसर चाह लें तो बढ़िया से बढिया राष्ट्रीय योजनाओं को अपनी जगह से उठने का कोई मौक़ा ही न नसीब हो .अपने देश में इनलैंड वाटरवेज़ का एक अच्छा नेटवर्क है .नदियों, नहरों,समुद्री क्षेत्रों में करीब १४५०० किलोमीटर की दूरी में जल यातायात संभव है.जिसमें से ५२०० किलोमीटर नदी और ४००० किलोमीटर नहरों में है जिसमें मशीनीकृत छोटे जहाज़  चल सकते हैं जिनसे बहुत सारा व्यापारिक माल ढोया जा सकता है . एक तुलना से बात सही सन्दर्भ में सामने आ जायेगी. अमरीका में पानी के मार्ग से माल ढुलाई उनकी पूरी राष्ट्रीय  क्षमता का २१ प्रतिशत है जबकि अपने देश में दशमलव एक प्रतिशत ( ०.१०) माल की दुलाई जलमार्गों से होती है . माल ढुलाई का यह सस्ता  तरीका है और अपने देश में इसकी बहुत सारी संभावना है लेकिन सरकारी अफसरों के आलस्य की कृपा से राष्ट्र लगातार नुक्सान उठा  रहा  है . यह  कोई आरोप नहीं है , यह सारी जानकारी यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति की १८९वीं रिपोर्ट में संकलित है . रिपोर्ट में मांग की गयी है  कि इस बात को अर्जेंट समझ कर काम किया जाना चाहिए लेकिन भरोसा इसलिए नहीं जम रहा है कि इस तरह के सिफारिशें पहले भी हो चुकी हैं लेकिन अधिकारियों ने हर बार संसद की मंशा को पटरी से उतारने में सफलता  पा ली है.
यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध स्थायी संसदीय समिति  ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि देश के अंदर जलमार्गों के यातायात को विकसित करने से भारी माल की ढुलाई आसान हो जायेगी . यह तरीका पर्यावरण की रक्षा में भी मदद करेगा.अभी तक यातायात की इस विधा को सरकार की वह प्राथमिकता नहीं मिली है जो मिलनी चाहिए. सरकार ने देश में आतंरिक जल यातायात के लिए पांच मार्गों की घोषणा की है   जिनमें से दो मार्ग तो बिलकुल बंद  पड़े हैं और जो तीन चल भी रहे हैं वह भी लगभग शून्य के आसपास ही की क्षमता का इस्तेमाल कर रहे हैं . संसदीय समिति ने इस बात पर जोर दिया है कि १२वीं
योजना में १०५०० करोड रूपये इस मद में लगाए जाएँ.और एन टी पी सी ,ओ एन जी सी जैसी सरकारी कंपनियों को इस यातायात के विकास में भागीदार बनाया जाए.इस रकम का इस्तेमाल बुनियादी ढाँचे के विकास में लगाया जाए. और इस यातायात को समयबद्ध तरीके से  विकसित किया जाए. आतंरिक जलमार्गों को पड़ोसी देशों , बांग्लादेश और म्यांमार के साथ जोड़ने के लिए भी कोशिश की जानी चाहिए जिससे आर्थिक पक्ष के अलावा कूटनीतिक लाभ भी हासिल किया जा सके.
इस सब काम के लिए ज़िम्मेदार इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी  है . कमेटी ने उसके कामकाज के तरीकों पर भी सख्त टिप्पणी की है. कमेटी का कहना है कि इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी के पास अपनी क्षमता और लक्ष्य हासिल करने की न तो इच्छाशक्ति है और  न ही ज़रूरी लावलश्कर. सरकार को सुझाव दिया गया है कि  हाइड्रोग्राफी ,नेवीगेशन,सिविल इंजीनियरिंग,नौसैनिक आर्किटेक्चर जैसी सुविधाओं से इनलैंड वाटरवेज़ अथारिटी को लैस  किया जाना चाहिए . इसके प्रबंधन में विशेषज्ञों को शामिल किया जाना चाहिए . अभी तो यह आई ए एस अफसरों के लिए एक तरह से डम्पिंग ग्राउंड बना हुआ है जहां यह अफसर तब तक इंतज़ार करते हैं जब तक कि इन्हें कोई बढ़िया मालदार तैनाती न मिल जाए. अफसरशाही की इस जिद के सामने राष्ट्र का एक अहम संसाधन लुंजपुंज पड़ा है इस पर फौरान लगाम  लगाने की ज़रूरत है .

रेलवे मंत्रालय की मनमानी के कारण होती हैं रेल दुर्घटनाएं


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शेष नारायण सिंह

अपने देश में  रेलों में सुरक्षा की हालत दिन बा दिन बिगडती जा रही है लेकिन रेलवे के अफसरों को कहीं से भी जिमेदार नहीं ठहराया जा सक रहा है .  यह  रहस्य बना हुआ था लेकिन रेलवे सुरक्षा आयुक्त के कामकाज से सम्बंधित संसद की एक स्थायी समिति की रपोर्ट आने के बाद अब बात समझ में आने लगी है . रेल सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार ने रेलवे एक्ट के तहत रेलवे सुरक्षा आयुक्त के संगठन का गठन किया गया था . एक्ट में इस संगठन का काम बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया था. इस संगठन के जिम्मे रेलवे के हर साजो-सामान का  निरीक्षण भी था. एक्ट में यह व्यवस्था थी की अगर कभी कहीं कोई रेल दुर्घटना हो तो रेलवे सुरक्षा आयुक्त को जांच करना था .इसमें कहीं भी किसी आदेश का इंतज़ार करने की व्यवस्था नहीं थी.इस संगठन की  आज़ादी को बनाए रखने के लिए  रेलवे सुरक्षा आयुक्त को रेल मंत्रालय के  कंट्रोल के बाहर रखा गया था. इसे नागरिक उड्डयन मंत्रालय के प्रशासनिक कंट्रोल में रखा गया था. इसके सारे नियम कानून रेलवे एक्ट के प्रावधानों के तहत बनाए  गए थे .लेकिन रेल मंत्रालय के अधिकारियों ने १९५३ में एक एक्जीक्यूटिव आर्डर जारी करके यह अधिकार वापस ले  लिया. यानी निरीक्षण का जो महत्वपूर्ण काम रेलवे सुरक्षा आयुक्त  को करना था वह वापस ले लिया गया .  संसद की इस विभाग से सम्बंधित स्थायी समिति ने सवाल किया है कि जो अधिकार किसी भी संगठन को संसद के किसी एक्ट के कारण मिला है उसे किसी एक्जीक्यूटिव आर्डर  के ज़रिये कैसे वापस लिया जा सकता है . इसके अलावा हमेशा से ही रेल मंत्रालय  का रवैया ऐसा रहा है कि  रेलवे सुरक्षा आयुक्त का दफ्तर पूरी तरह से रेल मंत्रालय के अधिकारियों की कृपा पर बना रहे. मसलन संसद ने रेलवे सुरक्षा आयुक्त की आटोनामी को सुनिश्चित करने के लिए इसे रेल मंत्रालय से हटकार सिविल एविएशन मंत्रालय के जिम्मे किया था लेकिन रेलवे बोर्ड के ताक़तवर अधिकारियों ने इस आर्डर  जारी कर दिया और नियम बना दिया कि रेलवे सुरक्षा आयुक्त का ज़ोन स्तर पर तैनात बड़ा अफसर वहाँ के जनरल मैनेजर के अधीन काम करेगा. इस आदेश एक बाद सब कुछ ऐसे  ही चलता  रहा और रेलवे सुरक्षा आयुक्त पूरी तरह से सफ़ेद हाथी के रूप में काम  करता रहा. देश  भर में रेल में दुर्घटनाएं होती रहीं और रेल मंत्रालय के अफसरों की सुविधा के हिसाब से  रिपोर्ट आती रही. जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने  रेलवे सुरक्षा का जो भरोसेमंद ताम झाम तैयार किया था , उस रेलवे सुरक्षा आयुक्त के संगठन को  कुछ रेलवे अधिकारियों ने दो एक्जीक्यूटिव आर्डर जारी करके छीन लिया . और संसद को बहुत दिन तक इस हेराफेरी का पता भी नहीं चला.
अब बात  पब्लिक डोमेन में आ गयी है . यातायात,पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति ने सारी गडबडी को पकड़ लिया है और अपनी १८८वीं रिपोर्ट में संसद को सब कुछ बता दिया है .रिपोर्ट में बताया गया है कि  रेलवे सुरक्षा आयुक्त में कमांड का दोहरापन है .रेलवे एक्ट में इसे नागरिक उड्डयन मंत्रालय के जिम्मे किया गया है .दुर्घटना के इन्वेस्टीगेशन के नियम तो नागरिक उड्डयन मंत्रालय की तरफ से बनाए जाते हैं जबकि दुर्घटना के इन्क्वायरी से सम्बंधित नियम रेल  मंत्रालय से आते हैं .  कमेटी को यह बात बहुत अजीब लगी क्योंकि इस तरह से कुछ  शब्दों के उलटफेर  के बाद जनहित का काम बहुत बुरी तरह से प्रभावित होता है. नतीजा यह होता है कि सुरक्षा के जो कोड बनाए जाते हैं , रेलवे सुरक्षा आयुक्त को  उसके बारे में कोई जानकारी नहीं होती. सरकारी कायदा यह है कि अगर किसी फैसले में दो मंत्रालय शामिल हैं तो जब तक तो दोनों ही मंत्रालय सहमत न हों कोई फैसला न लिया जाए लेकिन रेलवे सुरक्षा आयुक्त के अधिकार के फैसले रेलवे मंत्रालय वाले बड़े मौज से लेते रहते हैं .रेलवे एक्ट में एक टर्म “ सेन्ट्रल गवर्नमेंट “ लिखा हुआ है . इसी टर्म के कवर में रेल मंत्रालय के अफसर मनमानी करते रहते हैं .कमेटी ने सुझाव दिया है कि इस दुविधा को दूर करने के लिए रेलवे एक्ट में ही ज़रूरी सुधार कर दिया  जाना चाहिए .
 मौजूदा सिस्टम में रेलवे मंत्रालय की मनमानी चलती है क्योंकि रेलवे सुरक्षा आयुक्त को अपना काम करने के लिए रेल मंत्रालय पर निर्भर करना पडता है . उसके  पास अपने एक्सपर्ट नहीं होते और रेल मंत्रालय उनको एक्सपर्ट देता नहीं . कमेटी का विचार है कि सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिसके बाद रेलवे सुरक्षा आयुक्त को अपनी एक्सपर्ट  सीधे भर्ती करने के अधिकार मिल जाएँ . वर्ना आज तो रेलवे सुरक्षा आयुक्त पूरी तरह से रेल मंत्रालय के अधीन ही काम करने के लिए अभिशप्त है . नागरिक उड्डयन मंत्रालय वाले केवल कुर्सी मेज़ आदि के  इंतजाम तक ही सीमित हैं . अभी रेलवे सुरक्षा आयुक्त सभी  दुर्घटनाओं की जांच नहीं कर पाता क्योंकि क्योंकि रेल मंत्रालय सभी दुर्घटनाओं की नोटिफिकेशन नहीं जारी करता . नतीजा यह होता है कि रेल मंत्रालय वाले खुद ही  जांच करके मामले को रफा दफा कर देते हैं. रेलवे सुरक्षा आयुक्त को रेलवे की सुरक्षा के मानकों को बदलने के पहले  भरोसे में लेना ज़रूरी है लेकिन अभी ऐसा कुछ नहीं  है . रेल अफसर जब चाहते हैं रेलवे सुरक्षा आयुक्त को बताए बिना मानकों में परिवर्तन कर देते हैं .
इस सारी दुर्दशा से बचने के लिए कमेटी ने सुझाव दिया है रेलवे सुरक्षा आयुक्त को किसी भी मंत्रालय के अधीन कर दिया जाए उससे कोई फर्क नहीं पडेगा लेकिन ज़रूरी  है कि संसद एक अलग एक्ट पास करके रेलवे सुरक्षा आयुक्त के अधिकार ,कर्तव्य और जिम्मेवारियों को विधिवत कानून की सीमा में लाने की व्यवस्था करे . वरना दुर्घटनाएं होती रहेगीं और रेलवे के अधिकारी अपनी मर्जी के हिसाब से रिपोर्ट बनवाते रहेगें.  

Saturday, February 16, 2013

सावरकरवादी हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकारों के सामने अस्तित्व का संकट



शेष नारायण सिंह


बीजेपी और आर एस एस के बीच २०१४ के लोकसभा चुनावों के मुद्दों के बारे में भारी विवाद है . आर एस एस की कोशिश है कि इस बार का चुनाव शुद्ध रूप से धार्मिक ध्रुवीकरण  को मुद्दा बनाकर लड़ा जाए .शायद इसीलिये सबसे ज़्यादा लोकसभा सीटों  वाले राज्य उत्तर प्रदेश में किसी सीट से नरेंद्र मोदी को उम्मीदवार बनाने की बात शुरू कर दी गयी है . उत्तर प्रदेश में मौजूदा सरकार में मुसलमानों के समर्थन के माहौल के चलते मुस्लिम बिरादरी में उत्साह है . उम्मीद की जा रही है कि राज्य सरकार के ऊपर  बीजेपी वाले बहुत आसानी से मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप चस्पा कर देगें. और मुसलमानों के खिलाफ नरेंद्र मोदी की इमेज का फायदा उठाकर हिंदुओं को एकजुट कर लेगें  . राज्य में कुछ इलाकों में समाजविरोधी तत्वों ने कानून व्यवस्था के सामने खासी चुनातियाँ पेश कर रखी हैं .इन समाज विरोधी तत्वों में अगर कोई मुसलमान हुआ तो आर एस एस के सहयोग वाले मुकामी अखबार उसको भारी मुद्दा बना देते हैं  और  मुसलमानों को राष्ट्र के दुश्मन की तरह पेश करके यह सन्देश देने की कोशिश करते हैं कि अगर मोदी की तरह की राजनीति उत्तरप्रदेश में भी चल गयी तो मुसलमान बहुत कमज़ोर हो जायेगें और  उनका वही हाल होगा जो २००२ में गुजरात के मुसलमानों का हुआ था.इस तर्कपद्धति में केवल एक दोष यह है कि आर एस एस और  उसके सहयोगी मीडिया की पूरी कोशिश के बावजूद मुसलमानों से साफ़ बता दिया  है कि अब चुनाव  वास्तविक मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा ,धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश करने से कोई लाभ नहीं होने वाला है .
२०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए मुद्दों की तलाश में भटक रही सावरकरवादी हिन्दुत्ववादी  संगठनों में रास्ते की तलाश की कोशिशें जारी हैं .इसी सिलसिले में  १२ फरवरी के दिन दिल्ली में एक बार फिर आर एस एस के बड़े नेता और बीजेपी अध्यक्ष समेत कई लोग इकठ्ठा हुए और और करीब चार घंटे तक चर्चा की. आर एस एस और बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले टी वी चैनलों ने मीटिंग की खबर को दिन  भर इस तर्ज़ में पेश किया कि जैसे उस मीटिंग के बाद देश का इतिहास बदल जायेगा.लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. मीटिंग में शामिल लोगों ने बताया कि बीजेपी के नेता आर एस एस–बीजेपी के सावरकरवादी हिंदुत्व के एजेंडे को २०१४ के चुनावी उद्घोष के रूप में पेश करने से बच रहे हैं . इस बैठक में शामिल बीजेपी नेताओं ने कहा कि जब कांग्रेस शुद्ध रूप से राजनीतिक मुद्दों पर चुनाव के मैदान में जा आ रही है और बीजेपी को ऐलानियाँ एक साम्प्रदायिक पार्टी की छवि में  लपेट रही है तो सावरकरवादी हिंदुत्व को राजनीतिक आधार बनाकर चुनाव में जाने की गलती नहीं की जानी चाहिए . १२ फरवरी की बैठक में आर एस एस वालों ने बीजेपी नेताओं को साफ़ हिदायत दी कि उनको हिंदुओं की पक्षधर पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में जाने की ज़रूरत है .जबकि बीजेपी का कहना है कि अब सरस्वती शिशु मंदिर से पढकर आये कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी सावरकरवादी हिंदुत्व को गंभीरता से नहीं लेता. बीजेपी वालों का आग्रह है कि ऐसे मुद्दे आने चाहिए जिसमें उनकी पार्टी देश के नौजवानों की समस्याओं को संबोधित कर सके.इस बैठक से जब बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बाहर आये तो उन्होंने बताया कि अपनी पार्टी की भावी रणनीति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई .उन्होंने साफ़ कहा कि प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के मामले पर  कोई चर्चा नहीं हुई .हालांकि राजनाथ सिंह ने तो इस मुद्दे पर कुछ नहीं कहा लेकिन अन्य सूत्रों से पता चला है कि आतंकवादी घटनाओं में शामिल आर एस एस वालों के भविष्य के बारे में चर्चा विस्तार से हुई. आर एस एस को डर है कि अगर एन आई ए ने प्रज्ञा ठाकुर, असीमानंद आदि को आतंकवाद के आरोपों में सज़ा करवा दिया तो मुसलमानों को आतंकवादी साबित करने की उनकी सारी मंशा रसातल में चली जायेगी. जब तक आर एस एस से सम्बंधित लोगों को कई आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में पकड़ा नहीं गया था तब तक बीजेपी वाले कहते पाए जाते थे  कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं  होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान होता है . जब आर एस एस के बड़े नेता इन्द्रेश कुमार सहित बहुत सारे अन्य लोगों एक खिलाफ भी आतंकवाद में शामिल होने की जांच शुरू हो गयी तो बीजेपी वालों के सामने मुश्किल आ गयी . कांग्रेस में साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति के मुख्य रणनीतिकार दिग्विजय सिंह ने भी बीजेपी की मुश्किले  बढ़ा दीं जब उन्होने संघी आतंकवाद को बाकी हर तरह के आतंकवाद की तरह का ही साबित कर दिया. हालांकि जयपुर में संघी आतंकवाद को भगवा आतंकवाद कहकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने बीजेपी वालों को कुछ उम्मीद दिखा दी थी और बीजेपी वाले कहते फिर रहे थे कि सुशील कुमार शिंदे ने हिंदू आतंकवाद कहा था. यह सच नहीं है . मैं उस वक़्त हाल में मौजूद था और शिंदे के भाषण को सुना था. उन्होंने  हिन्दू आतंकवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया था.  लेकिन बीजपी उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने पर आमादा थी और ऐलान कर दिया था कि वह संसद के बजट सत्र के दौरान शिंदे का बहिष्कार करेगी .लेकिन इस बीच शिंदे ने बीजेपी से सबसे प्रिय विषय को उनके हाथ से छीन लिया है . पिछले कई वर्षों से बीजेपी वाले “ अफजल गुरू को फांसी  दो “ के नारे लगाते रहे हैं लेकिन शिंदे  के  विभाग की तत्परता के कारण अफजल गुरू को फांसी दी जा चुकी है . यहाँ अफजल गुरू को दी गयी फांसी के गुणदोष पर विचार करने का इरादा नहीं है लेकिन यह साफ़ है कि बीजेपी के लिए अब अफजल गुरू के नाम के मुद्दे की जगह कोई और नाम लाना पडेगा .इसके साथ ही सुशील कुमार शिंदे का बहिष्कार कर पाना बहुत मुश्किल होगा. लेकिन बीजेपी को एक डर और भी है कि अगर  २०१४ के लोकसभा के चुनाव के पहले समझौता एक्सप्रेस, मक्का मसजिद, अजमेर धमाके आदि के अभियुक्त आर एस एस वालों को सज़ा हो गयी तो मुसलमानों को आतंकवाद का समानार्थी साबित करने की आर एस एस की कोशिश हमेशा के लिए दफन हो जायेगी.


अफजल गुरू को फांसी देने की बीजेपी की मांग से माहौल को धार्मिक ध्रुवीकरण के रंग में रंगने की आर एस एस की कोशिश बेकार साबित हो चुकी है . जिस तरह से भारत के मुसलमानों ने अफजल गुरू के फांसी के मुद्दे को बीजेपी की मंशा के हिसाब से  नहीं ढलने दिया वह अपनी लोकशाही की परिपक्वता का परिचायक है . अफजल गुरू की फांसी की राजनीति पर सोशल मीडिया और अन्य मंचों पर जो बहसें चल रही हैं उसमें भी भारतीय हिंदू ही बढ़ चढ़कर हिसा ले रहे हैं . मुसलमानों ने आम तौर पर इस मुद्दे पर बीजेपी की मनपसंद टिप्पणी  कहीं नहीं की . इस सन्दर्भ में उर्दू अखबारों का रुख भी ऐसा रहा जिसको ज़िम्मेदार माना जाएगा. बीजेपी ने जब १९८६ के बाद से सावरकरवादी हिंदुत्व को चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया उसके बाद से ही उनको उम्मीद रहती थी कि जैसे ही किसी ऐसे मुद्दे पर चर्चा की जायेगी जिसमें इतिहास के किसी मुकाम पर हिंदू-मुस्लिम  विवाद रहा हो तो माहौल गरम हो जाएगा .अयोध्या की बाबरी  मसजिद को राम जन्म भूमि बताना इसी रणनीति का हिस्सा था.  बहुत ही भावनात्मक मुद्दे के नाम पर आर एस एस ने काम किया और जो बीजेपी १९८४ के चुनावोंमें २ सीटों वाली पार्टी बन गयी  उसकी संख्या इतनी बढ़ गयी कि वह जोड़ तोड़ कर सरकार बनाने के मुकाम पर पंहुच गयी . आर एस एस वालों की यही सोच  है  कि अगर चुनाव धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मुद्दा बनाकर लड़ा गया तो बहुत फायदा होगा . अफजल गुरू के मामले में भी बीजेपी को  यह  उम्मीद थी कि देश के मुसलमान तोड़ फोड करना शुरू कर देगें और उसको हाईलाईट किया जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आज की राजनीतिक सच्चाई यह है कि उत्तर प्रदेश में तो मुसलमान , समाजवादी पार्टी की सरकार को अपना शुभचिन्तक मनाता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों का भरोसा कांग्रेस में पूरी तरह से हो गया है . प्रधानमंत्री के पन्द्रह सूत्री कार्यक्रम को लागू करने के लिए अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्र सरकार के मौजूदा  मंत्री के.रहमान खान दिन-रात एक कर रहे हैं . सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्टों पर केन्द्र सरकार का पूरा ध्यान है . ज़ाहिर है मुसलमानों को केन्द्र सरकार की नीयत पर शक नहीं है . ऐसी हालत में अगर केन्द्र सरकार से पहल होती है और देश  के  धर्मनिरपेक्ष ताने बाने  को सुरक्षित रखने के लिए कोई ऐसा क़दम भी उठाया जाता है जिस से बीजेपी  की चमक कमज़ोर हो तो मुस्लिम समाज के ज़िम्मेदार नेता और उर्दू अखबार  सहयोग करते नज़र आ रहे हैं.

साम्प्रदायिक राजनीति के पैरोकारों के लिए परेशानी का एक और भी कारण है . एक  तरफ दिग्विजय सिंह  हैं जो आर एस एस और बीजेपी के साम्प्रदायिक रूप को हमले के निशाने में लेने के किसी मौके को हाथ से नहीं जाने देते वहीं दूसरी तरह पी चिदंबरम,  जयराम रमेश आदि नेता हैं जो सब्सिडी के कैश ट्रांसफर जैसी स्कीमों पर काम कर रहे हैं जो देश के हर गाँव और हर  कालेज में रहने वाले लोगों को लाभ पन्हुचायेगी. वजीफों आदि को सीधे लाभार्थी के खाते में जमा कर देने वाली जो स्कीमें हैं वे निश्चित रूप से महात्मा गांधी के भाषणों और लेखों में बताए गए आख़री आदमी को लाभ पंहुचायेगी . काँग्रेस के इस चौतरफा अभियान के बीच बीजेपी वाले भावी प्रधानमंत्री के दावेदार के खेल में अपने आपको घिरा पाते हैं . दिल्ली दरबार में सक्रिय  बीजेपी वाले और उनके समर्थक पत्रकार कुछ इस तरह से बात करते पाए जाते हैं जैसे बीजेपी को बहुतमत मिल चुका है और अब किसी बेजीपी नेता को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेनी बाकी है . इसी सिलसिले में  नरेंद्र मोदी का नाम उछाला जा रहा है . उनका नाम ऐसे लोग उछाल रहे हैं जिनका आर एस एस और बीजेपी की सियासत में कोई मज़बूत स्थान नहीं है . बीजेपी के अध्यक्ष और आर एस एस के बड़े नेताओं  सहित सावरकरवादी हिंदुत्व के सभी पैरोकारों में नरेंद्र मोदी का विरोध है लेकिन मीडिया के बल पर राजनीति करने वाले मोदी  के कुछ मित्रों ने माहौल बना रखा  है . बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवानी को प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में पूरे देश में घुमते हुए २००९ के चुनावों में जिन लोगों ने देखा  है उनको मालूम है कि बीजेपी नेताओं के प्रधान मंत्री पद के सपनों में कितना प्रहसन हो सकता है .वैसे भी अटल बिहारी वाजपेयी को इस देश का  प्रधान मंत्री बनाने में २० से ज़्यादा पार्टियां शामिल थीं . उन पार्टियों में रामविलास पासवान, फारूक अब्दुल्ला, ममता बनर्जी, चन्द्र बाबू नायडू ,मायावती जैसे लोग भी थे. अब यह सारे लोग किसी ऐसी पार्टी के साथ नहीं जायेगें जो साम्प्रदायिक हो . २००४ के लोकसभा चुनावों में यह सभी पार्टियां तबाह हो गयी थी. आज बीजेपी के साथ केवल दो पार्टियां तहे दिल से हैं . शिवसेना और अकाली दल . नीतीश कुमार की पार्टी को अगर धर्मनिरपेक्ष पार्टियों में रहने का मौक़ा मिला तो वह भी सावरकरवादी हिंदुत्व की पार्टी से नाता तोड़ने में संकोच नहीं करेगी.

ऐसी हालत में देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक कर सत्ता हासिल करने की कोई कोशिश सफल होती नहीं दिखती . आर एस एस और बीजेपी की कोशिश है कि जिस तरह से १९८६ से लेकर २००२ तक साम्प्रदायिक राजनीति के सहारे देश में ध्रुवीकरण किया गया था अगर वह एक बार फिर संभव हो गया तो सत्ता फिर हाथ आ सकती है . लेकिन अब देश के लोग ,खासकर बहुसंख्यक मुसलमान ज्यादा मेच्योर हो गये हैं . अब न तो बहुसंख्यक हिन्दुओं  को नक़ली मुद्दों में फंसाया  जा सकता है और न ही  बहुसंख्यक मुसलमानों को .ऐसी स्थिति में अगर बाबरी मसजिद के मसले का कोई समाधान अगले दो चार महीनों में हो गया तो सावरकरवादी  हिंदुत्व की समर्थक राजनीतिक ताक़तों के सामने अस्तित्व का संकट भी आ सकता है . 

Monday, February 11, 2013

सत्य और अहिंसा के दार्शनिक गांधी की विरासत को अपनाने में जुटीं फासिस्ट जमातें




शेष नारायण सिंह 

महात्मा गांधी को गए 65 साल हो गए।  30 जनवरी 1948 के दिन दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे  महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दिया था और हे राम कहते हुए वे स्वर्ग चले गए थे . पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में  डूब गयी थी। ऐसा इसलिए हुआ था कि 1920 से 1947 तक महात्मा  गांधी के नेतृत्व में  ही आज़ादी का लड़ाई लड़ी गयी थी। लेकिन जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थीं, उन्होंने गांधी जी की शहादत पर कोई आंसू नहीं बहाए। ऐसी ही एक जमात आर  एस एस थी जिसकी सहयोगी राजनीतिक पार्टी उन दिनों हिन्दू महासभा हुआ करती थी। हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश का ही नतीजा था जिसके कारण महात्मा गांधी की मृत्यु हुयी थी।  हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही  महात्मा गांधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फांसी हुयी, कुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियां चलायी थीं , उसे फांसी हुयी, उसके भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुयी। बाद में वह छूट कर  जेल से बाहर आया और उसने गांधी जी की हत्या को सही ठहराने के लिए कई किताबें वगैरह  लिखीं। आर एस एस के लोगों के ऊपर आरोप है की उन्होंने महात्मा जी की हत्या के बाद कई जगह मिठाइयां आदि भी बांटी। इस बात को आर एस एस वाले शुरू से ही गलत बताते रहे हैं लेकिन इतना पक्का है की आर एस एस  ने  प्रकट रूप से महात्मा गांधी की  मृत्यु पर कोई दुःख व्यक्त नहीं किया  उस वक़्त के आर एस एस के मुखिया एम एस गोलवलकर को भी महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार  किया गया था  . सरदार पटेल उन दिनों देश के गृह मंत्री थे और उन्होंने  गोलवलकर को एक अंडरटेकिंग लेकर  कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था . बाद के दिनों में आर एस एस ने हिन्दू महासभा से पूरी  तरह से किनारा  कर लिया था। बाद में जनसंघ की स्थापना हुयी और आर एस एस के प्रभाव वाली एक नयी राजनीतिक पार्टी की तैयार हो गयी। आर एस एस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय  को नागपुर वालों ने जनसंघ का काम करने के लिए भेजा था। बाद में  वे जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए।  1977  तक आर एस एस और जनसंघ वालों ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की खूब जमकर आलोचना की और  गांधी-नेहरू की राजनीतिक  विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया . . लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने   भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में  गांधियन  सोशलिज्म को भी शामिल कर लिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस  का कोई आदमी कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी  को कम से कम  एक ऐसे महान व्यक्ति तलाश थी जिसने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो . हालांकि अपने पूरे जीवन भर महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया . 

महात्मा गांधी को अपनाने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए बीजेपी ने मुंबई में 28 दिसंबर 1980 को आयोजित अपने पहले ही अधिवेशन में अपने पांच आदर्शों में से एक गांधियन सोशलिज्म  को निर्धारित किया .बाद में जब 1985 में बीजेपी लगभग शून्य हो गयी  तो गांधी जी से अपने आपको दूर भी कर लिया गया लेकिन बाद में फिर  किस मंशा से महात्मा गांधी को अपाने की योजना पर काम चल रहा है और अब तो बीजेपी वाले खुले आम कहते पाए जाते हैं की महात्मा गांधी  कांग्रेस  की बपौती नहीं  हैं . हालांकि आजकल बीजेपी वाले महात्मा गांधी को अपना बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन सच्चाई यह है की महात्मा गांधी और आर एस एस के बीच इतनी  दूरियां  थीं जिनको कि महात्मा जी के जीवन काल और उसके बाद भी  भरा नहीं जा सका।अंग्रेज़ी  राज  के  बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हर कीमत पर हटाना चाहते थे  जबकि आर एस एस वाले अंग्रेजों की छत्रछाया में ही अपना मकसद हासिल  करना चाहते थे। . वास्तव में 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और  अँगरेज़ अफसरों की  कृपा से अपना सांस्कृतिक काम चला रहे थे .

गांधियन सोशलिज्म की असफलता के बाद दोबारा महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश आर एस एस ने पूरी गंभीरता के साथ 1997 को 2 अक्टोबर को शुरू किया . योजना यह थी की 30 जनवरी 1998 के दिन इस अभियान का समापन करके महात्मा गांधी को संघी विचारधारा का समर्थक साबित कर दिया जाएगा . 2 अक्टूबर की सभा में आर एस एस के तत्कालीन प्रमुख , राजेन्द्र सिंह ने महात्मा गांधी की बहुत तारीफ़ की . उस सभा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी मौजूद थे। राजेन्द्र सिंह ने कहा कि  गांधीजी भारतमाता  के चमकते हुए नवरत्नों में से एक थे और अफ़सोस जताया कि  उनको सरकार ने भारत रत्न की उपाधि तो नहीं दी लेकिन  वे लोगों की नज़र में सम्मान के पात्र थे। इतिहास का कोई भी  विद्यार्थी बता देगा कि  महात्मा गांधी के प्रति प्रेम के इस उभार में  किसी योजना का हाथ नज़र आता है .संघ परिवार ने अपने सामाजिक कार्य से भारत के बंटवारे के दौरान बहुत ही सम्मान हासिल कर लिया था . लेकिन  महात्मा गांधी की हत्या में आर एस एस के  बहुत सारे लोगों की गिरफ्तारी के कारण उन्हें सम्मान मिलना बंद हो गया था।महात्मा जी की ह्त्या के 30 साल बाद जब आर एस एस वाले जनता पार्टी के सदस्य बने तो उन्हें राजनीतिक सम्मान मिलना शुरू हुआ लेकिन उन्हें कुछ काबिल पुरखों की तलाश लगातार बनी हुयी थी। इसी प्रक्रिया में आर एस एस प्रमुख के अलावा बीजेपी के  दोनों बड़े नेता, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी  गांधीजी  को सदगुणों की खान मानने  लगे। महात्मा गांधी से अपनी करीबी और नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आर एस एस ,जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है . महात्मा गांधी की विरासत पर क़ब्ज़ा पाने की  संघ की  जारी मुहिम  के बीच कुछ ऐसे तथ्य सामने  आ गए जिस से उनके अभियान को भारी घाटा हुआ। आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गांधी जी  की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा  काट कर लौटे  नाथू राम गोडसे के भाई , गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी  और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी  नहीं  बना सकते। . उसने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय . मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं  की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।  . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि  उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने  इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर एस एस वाले बहुत परेशानी  में पड़  गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था " जब गोपाल गोडसे को बताया गया कि आडवानी ने दावा किया है कि नाथूराम का आर एस एस से कोई लेना देना नहीं था तो गोपाल गोडसे ने जवाब दिया " मैंने उनको  यह कहकर फटकार दिया है  की ऐसा कहना कायराना हरकत है .. हाँ यह आप कह सकते हैं की आर एस एस ने गांधी की हत्या का कोई प्रस्ताव नहीं पास किया था लेकिन आप उनसे  (नाथूराम से ) सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर सकते। जब 1944 में नाथूराम ने हिन्दू महासभा का काम करना शुरू किया था तो वे आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह थे।"

 नाथूराम गोडसे दूरी बनाने और अपनी विचारधारा  को महात्मा गांधी की प्रिय विचारधारा बताने के लिए भी आर एस एस वालों ने बहुत काम किया है .नवम्बर 1990 में बीजेपी के महासचिव कृष्ण लाल शर्मा ने प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर को एक पत्र लिखकर बताया कि  27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक  में एक लेख लिखा था जिसमें महात्मा गांधी ने रामजन्म भूमि के बारे में उन्हीं बातों को सही ठहराया था जिसको अब आर एस एस सही बताता  है . उन्होंने यह भी दावा किया कि महात्मा गांधी के हिंदी साप्ताहिक की वह प्रति उन्होंने देखी थी जिसमें यह बात लिखी गयी थी। . यह खबर अंग्रेज़ी अखबार टाइम्स आफ इण्डिया में छपी भी थी . लेकिन कुछ दिन बाद टाइम्स आफ इण्डिया की रिसर्च टीम ने यह  खबर छापी कि  कृष्ण लाल शर्मा का बयान सही नहीं है क्योंकि महात्मा गांधी ने ऐसा कोई  लेख लिखा ही नहीं था . सच्चाई यह है की 27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक का कोई अंक ही नहीं छपा था . 1937 में उस साप्ताहिक अखबार का अंक 24 जुलाई और 31 जुलाई को छपा था। 

कुल मिलाकर सत्य और अहिंसा के सबसे बड़े दार्शनिक की विरासत को वे लोग झपटने की कोशिश में हैं जो हिंसा को हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का माध्यम मानते और असत्य तो उनके खजाने में इतने हैं कि की उनको कोई गिना ही नहीं सकता .मैंने कुछ नमूने पेश किये हैं और अगर ज़रूरी हुआ तो ऐसे बहुत सारे तथ्य और भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं . आज सभ्य समाज की यह सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वह महात्मा  गांधी को सत्य और अहिंसा के मैदान से बाहर  खींचकर अपना बनाने की कोशिश करने वालों को रोकने के प्रयास में शामिल हो जाए।.

Monday, January 28, 2013

हिंदू धर्म एक पवित्र धर्म है जबकि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है




शेष नारायण सिंह

हिंदू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है। इसमें बहुत सारे संप्रदाय हैं। संप्रदायों को मानने वाला व्यक्ति अपने आपको हिंदू कहता है लेकिन हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका प्रतिपादन 1924 में वीडी सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व में किया था। सावरकर इटली के उदार राष्ट्रवादी चिंतक माजिनी से बहुत प्रभावित हुए थे। उनके विचारों से प्रभावित होकर ही उन्होंने हिंदुत्व का राजनीतिक अभियान का मंच बनाने की कोशिश की थी।

सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म और सांप्रदायिकता के सवाल पर कोई भी सार्थक बहस शुरू करने के पहले यह जरूरी है कि धर्म के स्वरूप और उसके दर्शन को समझने की कोशिश की जाये।

दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्घा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है। इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिता, शील, सम्मान और आराधना का विषय है।

यह परिभाषाएं लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में कुछं ऐसे भी धर्म हैं जो सैद्धांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरूद्घ तर्क भी दिए गये हैं। बौद्ध धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्घांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।

इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को, प्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक, अदार्श विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियम, बौद्घों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्घांत या वैष्णवों, ईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। विश्वविख्यात दार्शनिक इमनुअल कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुन्ष्टि रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।

आस्था का विषय बुद्घि या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्घि के विपरीत हों, वे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति का जाता है। यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपका इसके लिए तैयार करते हैं।

इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगा, तब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैं, जिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैं, अनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।

लेकिन यह बात निर्विवाद है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों और कालों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। अध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता है, ऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकर, जिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्री, करुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।

सांसारिक सुखों के प्रति जो उदासीनता सन्तों में पाई जाती है उसे एक उदाहरण में समझा जा सकता है। छोटी बच्ची गुडिय़ा के गायब हो जाने पर दुखी होती है और मिल जाने पर खुश होती है। उसके माता पिता मुस्कुराते हैं और बच्ची के व्यवहार को नासमझी समझते हैं। उसी प्रकार सन्त भी आम आदमी के ईप्र्या, द्वेष, मान-अपमान संबंधी मापदंडों पर मुस्कुराते हैं और मानते हैं कि जीवन के उच्चतर मूल्यों को न समझ पाने के कारण व्यक्ति इस तरह का आचरण करता है। भौतिक उपलब्धियों के प्रति उदासीनता का यह भाव श्रेष्ठ वैज्ञानिकों, चिन्तकों आदि में भी पाया जाता है।

लेकिन सन्त मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। अरण्यकांड के अंत मे गोस्वामी तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रद्घा, क्षमा, मैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। बौद्घ ग्रंथों में भी ब्रह्मï विहार को भिक्षुओं का स्वाभाविक गुण बताया गया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और सांसारिक भागों के प्रति उपेक्षा ही ब्रह्मï विहार हैं। किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त चरित्र ही है। इसीलिए हर धर्म के महान संतों ने मैत्री, करुणा और मुदिता का ही उपदेश दिया है। भारतीय संदर्भ में धर्म का विशेष अर्थ है। प्राचीन भारतीय चिन्तन में मूल्य का प्रयोग नहीं हुआ है। मूल्य की बजाय पुरुषार्थ शब्द का प्रयोग किया गया है।

चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम है मोक्ष। आमतौर पर 'धर्म शब्द का प्रयोग मोक्ष या पारलौकिक आनन्द प्राप्त करने के मार्ग के रूप में किया जाता है। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म और मोक्ष समानार्थी शब्द नहीं हैं। धर्म का अर्थ नैतिक आचरण के रूप में किया गया है, धर्म सम्मत अर्थ और काम ही पुरुषार्थ हैं। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है धारण करना। महाभारत में कहा गया है कि जो समाज को धारण करे वही धर्म है।

यहां धर्म नैतिक चेतना या विवेक के अर्थ में प्रयोग किया गया है। वैसे भी भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग अधिकतर कर्तव्य के अर्थ में ही होता है। इसीलिए धर्म के दो प्रकार बताए गये हैं-विशेषधर्म और सामान्य धर्म। सामान्य धर्म मानव का स्वाभाविक धर्म है जबकि विशेष धर्म उसके विभिन्न सामाजिक सन्दर्भों में कर्तव्य है। सामान्य धर्म है-धृति:, क्षमा,यम, शौचम् अस्तेयम् इन्द्रिय निग्रह, धा,विद्या, सत्यम, आक्रोध। मतलब यह है कि धर्म इंसान के लिए बहुत जरूरी चीज है। सच्चा धर्म मनुष्य के चरित्र को उदात्त बनाता है और वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा को विकसित करता है। धर्म मनुष्यों को जोड़ता है, तोड़ता नहीं।

प्रथम पुरुषार्थ के रूप में धर्म नैतिकता है और चौथे पुरुषार्थ, मोक्ष की प्राप्ति का साधन है। इसीलिए नैतिक आचरण या धर्म आचरण का पालन न करने वाला व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी नहीं हो सकता। हमने देखा कि भारतीय परम्परा के अनुसार धर्म पूरी तरह से जीवन के हर पक्ष को प्रभावित करता है जबकि सम्प्रदाय का एक सीमित क्षेत्र है। संस्कृत कोश के अनुसार सम्प्रदाय का अर्थ है-धर्म (मोक्ष) शिक्षा की विशेष पद्घति। औक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार मज़हब का अर्थ है-वह धार्मिक ग्रुप या वर्ग जो मुख्य परम्परा से हटकर हो। सवाल यह है कि विभिन्न सम्प्रदाय पैदा क्यों और कैसे होते हैं। ऐसा लगता है कि सभी लोग धर्म के उदात्त स्वरूप को समझ नहीं पाते हैं जिस अहंकार से मुक्ति धर्म साधना की मुख्य शर्त होती है, उसी के वशीभूत होकर अपने-अपने ढंग से धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करने लगते हैं।

दार्शनिक मतभेद के कारण भी अलग-अलग सम्प्रदायों का उदय होता है। उपनिषदों में अनुभूतिजन्य सत्य का वर्णन किया गया है। इन अनुभूतियों की व्याख्या उद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्घाद्वैत आदि दार्शनिक दृष्टिïयों से की गयी है। सत्य की अनुभूति के लिए इन सम्प्रदायों में अलग-अलग पद्घति बताई गयी है। लेकिन जो बात सबसे अहम है, वह यह है कि सभी सम्प्रदायों में साधना की पद्घति की विभिन्नता तो है लेकिन नैतिक आचरण के मामले पर लगभग पूरी तरह से एक रूपता है। परेशानी तब होती है जब विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी इस एकरूपता का कम महत्व देकर, भिन्नता पर ही फोकस कर लेते हैं और अपनी सांप्रदायिक मान्यता को सबसे ऊपर मानने लगते हैं।

यहां समझने की बात यह है कि अपने सम्प्रदाय को सबसे बड़ा मानने में वे अहंकार की शरण जाते हैं और हमने इस की शुरूआत में ही बता दिया है कि धार्मिक साधना की पहली शर्त ही अहंकार का खात्मा है। जब व्यक्ति या सम्प्रदाय अहंकारी हो जाता है तो संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। जाहिर है कि अहंकारी व्यक्ति सांप्रदायिक तो हो सकता है, धार्मिक कतई नहीं हो सकता। संकुचित दृष्टि के कारण सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होता है। लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं और सत्य तक पहुंचने के रास्ते को ही महत्व देने लगते हैं और यही सांप्रदायिक आचरण है।

कभी-कभी स्वार्थी और चालाक  लोग भी साधारण लोगों को सांप्रदायिक श्रेष्ठता के नाम पर ठगते हैं। एक खास किस्म की पूजा पद्धति , कर्मकांड आदि के चक्कर में सादा दिल इंसान फंसता जाता है। समाज में दंगे फसाद इसे संकीर्ण स्वार्थ के कारण होते हैं। जो सत्ता सारी सृष्टि में व्याप्त है, उसे हम मंदिरों और गिरिजाघरों में सीमित कर देते हैं और इंसान को बांट देते हैं।धर्म का लक्ष्य सन्त चरित्र है, दम्भी, लोभी और भोगी गुरू नहीं सत्य तो एक ही है उसकी प्राप्ति के उपाय अनेक हो सकते हैं और अगर मकसद को भूलकर उस तक पहुंचने के साधन पर लड़ाई भिड़ाई हो जाए तो हम लक्ष्यहीन हो जाएंगी और दिग्भ्रम की स्थिति पद होगी। और इसी हालत का फायदा उठाकर हर धर्म का कठमुल्ला और धार्मिक विद्वेष की राजनीति की रोटी खाने वाला नेता सांप्रदायिक दंगे कराएगा, समाज को बांटेगा और धार्मिकता के लक्ष्य में अडंगा खड़ा करेगा।

ज़ाहिर है धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा

Monday, January 21, 2013

राहुल गांधी का उपाध्यक्ष के रूप में पहला भाषण


शेष नारायण सिंह 

जयपुर,२० जनवरी  काँग्रेस के नव नियुक्त उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने आज अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में दिए  गए अपने भाषण में  ऐसा बहुत कुछ कहा कि जिस से स्थापित सत्ता की राजनीति को कई मुकामों पर  चुनौती मिलती है .हालांकि आलोचकोंको शक है कि राहुल गांधी  ने जो बातें की हैं वे गैलरी को ध्यान में रख कर कही गयी हैं लेकिन यह भी सच है कि देश की सबसे  बड़ी पार्टी के आला हाकिम  की तरफ से यह बात इतने बेबाक तरीके से पिछले कई दशकों में कभी नहीं कही गयी. उन्होंने अपने पिता स्व राजीव गांधी के उस भाषण से बात को शुरू किया जो उन्होंने १९८५ में दिया था .  राजीव गांधी ने कहा था कि केन्द्र से जो कुछ आम आदमी के लिए भेजा जाता है उसका केवल १५ प्रतिशत ही पंहुचता है .उन्होंने दावा किया कि अब आम आदमी को  जितना भेजना है उसका ९९ प्रतिशत सही व्यक्ति तक पंहुचाया जायेगा. इसके लिए उन्होंने वर्तमान सूचना क्रान्ति का धन्यवाद किया . अपने भाषण में राहुल गांधी ने भावनात्मक क्षण भी जोड़ दिया जब  उन्होंने कहा कि बचपन  में  अपनी दादी के रक्षकों के साथ वे खेला करते थे , वे  लोग उनके दोस्त  बन गए थे लेकिन के दिन उनके उन्हीं दो दोस्तों  ने उनकी दादी को मार डाला .

अपने भाषण में राहुल गांधी ने कांग्रेस की सफलताओं का ज़िक्र किया और हरित क्रान्ति से लेकर शिक्षा के अधिकार तक को अपनी पार्टी की सरकार की उपलब्धि बताया . लेकिन उनकी जो बातें देश में बहुत ही ध्यान से सूनी जायेगी वह है उनकी तो टूक बातें .उन्होंने कहा कि सरकार और राज काज का जो मौजूदा सिस्टम है वह ज़रूरी डिलीवरी नहीं कर पा रहा है .. सत्ता के बहुत सारे केन्द्र बने हुए हैं .बड़े पदों पर जो लोग बैठे हैं उन्हें समझ नहीं है और जिनको समझ और अक्ल है वे लोग बड़े पदों पर पंहुच नहीं पाते ऐसा सिस्टम  बन गया है कि बुद्दिमान व्यक्ति महत्वपूर्ण मुकाम तक पंहुच ही  नहीं पाता.आम आदमी की आवाज़ सुनने वाला कहीं कोई नहीं है .उन्होंने कहा कि  अभी ज्ञान की इज्ज़त नहीं 
होती बल्कि  पद की इज्ज़त होती है . इस व्यवस्था को बदलना पडेगा.  ज्ञान  पूरे देश में जहां भी होगा उसे आगे लाना पडेगा. उन्होंने कहा कि  यह दुर्भाग्य है कि कांग्रेस में नियम कानून नहीं चलते .  इसे बदलना होगा  , नियम क़ानून के हिसाब से कांग्रेस को चलाना पडेगा .. उन्होंने इस बात पर दुःख व्यक्त किया कि हर जगह मीडियाक्रिटी  समझदार लोगों  को दबाने में सफल हो जाती है .. इनीशिएटिव को मार दिया जाता है . सत्ता  में  बैठे लोग मीडियाक्रिटी को ही आगे करते हैं क्योंकि उस से उनको सुरक्षा मिलती है . काबिल  लोगों  की  तारीफ़ करने का फैशन ही नहीं है .भ्रष्ट लोग भ्रष्टाचार हटाने की बात करते हैं , औरतों की रोज ही बेइज्ज़त करने  वाले  महिलाओं  के अधिकारों की बात करते हैं .उन्होंने कहा कि इस तरह के पाखण्ड को भारत अनंत काल तक बर्दाश्त नहीं करेगा. 

राहुल गांधी ने कहा कि वे आशावादी हैं . इसलिए कि उनको उम्मीद है कि इस देश का नौजवान जब सही अवसर पायेगा को देश को आग ले  जाने में उसे कोई  परेशानी नहीं आयेगी. उन्होंने कहा कि कांग्रेस को एक  ऐसी पार्टी के रूप में अपनी पहचान बनानी है  जहां नेताओं का विकास होता है . उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद अपने देश में ऐसे बहुत सारे  नेता थे जो प्रधानमंत्री बंसकते थे और हर राज्य में ऐसे नेता थे जो मुख्यमंत्री बन सकते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है . कांग्रेस पार्टी कोशिश करेगी कि वह  हर स्तर पर लीडरशिप का विकास करे और बहुत सारे नेता पैदा कर सके. 
आखिर में उन्होने दादी की हत्या से जुडी घटना और दोस्ती पर लगी आंच का ज़िक्र करके माहौल को बहुत ही संजीदा बना दिया .