शेष नारायण सिंह
डी एम के नेता, एम करूणानिधि ने यू पी ए सरकार से समर्थन वापस लेकर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दी हैं . तमिलनाडु में श्रीलंका के तमिलों के समर्थन में लोकप्रिय आंदोलन चल रहा है .ऐसी हालात में राज्य की किसी भी पार्टी के लिए ऐसी किसी सरकार के साथ खड़े रहना बहुत नुक्सानदेह साबित होगा जो श्रीलंका सरकार से किसी तरह से भी सहानुभूति रखती देखी जाए. जानकार बताते हैं कि समर्थन वापसी की राजनीति करूणानिधि की एक राजनीतिक चाल है और जैसा कि उनके बारे में सबको मालूम है वे अक्सर राजनीतिक सौदेबाजी कर रहे होते हैं. इस बार ऐसा नहीं लगता . तमिलों के प्रति केन्द्र सरकार के रुख से तमिलनाडु में नाराज़गी है .आमतौर पर माना जा रहा था कि चुनाव करीब आने पर डी एम के वाले केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी का ड्रामा करेगें लेकिन इतनी जल्दी कर देगें, इसकी उम्मीद नहीं थी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केन्द्र सरकार के साथ बने रहने में डी एम को कोई राजनीतिक लाभ नहीं होगा जबकि उसका साथ छोड़ देने से तमिलनाडु की सडकों पर श्रीलंका के तमिलों के साथ सहानुभूति प्रकट कर रही जनता के साथ सम्मिलित होने का मौक़ा मिल जाएगा. वहाँ की जयललिता सरकार भी अलग थलग पडी हुई है और उसकी असुविधा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने की रणनीति के तहत एम करुनानिधि ने यह फैसला लिया है .उनकी समर्थन वापसी से केन्द्र सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है . समर्थन वापसी की बात शुरू होने के साथ साथ यू पी ए को बाहर से समर्थन दे रही उत्तर प्रदेश की दोनों ही पार्टियों ने ऐलान कर दिया कि उनका समर्थन जारी रहेगा. ज़ाहिर है समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के समर्थन के सुनिश्चित हो जाने के बाद केन्द्र सरकार अपना कार्यकाल बिता लेगी. हाँ नए घटनाक्रम का एक नतीजा यह हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव को खुश रखने के लिए कांग्रेस पार्टी अपने नेता और केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से निकाल दे. बेनी प्रसाद वर्मा को सरकार से बाहर कर देने में कांग्रेस का कोई राजनीतिक घाटा नहीं होगा क्योंकि सबको मालूम है कि बेनी बाबू की कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है . अभी साल भर पहले हुए विधान सभा चुनावों में उन्होने एक सौ से ज्यादा लोगों को चुनकर विधान सभा का टिकट दिया था और किसी को नहीं जितवा पाए. यहाँ तक कि उनके अपने बेटे को भी चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था.बेनी प्रसाद वर्मा की राजनीतिक ताक़त की कोई खास अहमियत नहीं है और अगर उनको हटाकर समाजवादी पार्टी के २२ सदस्यों का समर्थन हासिल किया जा सकता है तो यह सौदा किसी तरह से भी घाटे का नहीं माना जाएगा.
ऐसी स्थिति में लोक सभा चुनाव २०१४ के पहले होने की संभावनाओं पर फिर चर्चा शुरू हो गयी है . इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि चुनाव कब होंगें क्योंकि जब भी चुनाव होंगे राजनीतिक पैरामीटर अब तय हो चुके हैं . बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चुनाव लड़ा जाना लगभग पक्का हो गया है . दिल्ली में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं हैं . यह बात सच नहीं है . राजनाथ सिंह ने खुद कहा है कि बीजेपी का सबसे लोकप्रिय नेता आज की तारीख में नरेंद्र मोदी हैं . उनका कहना है कि जिन राज्यों में उनकी पार्टी की कोई महत्वपूर्ण मौजूदगी नहीं है ,वहाँ भी नरेंद्र मोदी को पसंद करने वालों की बड़ी संख्या है . तमिलनाडु जैसे राज्य में भी मोदी के प्रशंसक हैं . ऐसी हालत में लगता है कि २०१४ के चुनाव में नरेंद्र मोदी ही प्रमुख होंगें और उनको राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी के वे बड़े नेता जिनका कोई ज़मीनी काम नहीं है, उनका कोई महत्व वैसे भी नहीं है . और जब राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी में सहमति रहेगी तो बीजेपी में किसी भी नेता के लिए मोदी का विरोध कर पाना बहुत मुश्किल होगा. हाँ यह हो सकता है कि नरेंद्र मोदी को अभी प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में न पेश किया जाए ,अभी उनको प्रचार कमेटी के मुखिया या और इसी तरह के किस किसी फैंसी पद के साथ चुनाव का संचालन का ज़िम्मा दिया जाए लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि अगले चुनाव में नरेंद्र मोदी ही बीजेपी के कर्णधार होंगे और उनको पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह का समर्थन रहेगा. बीजेपी को उम्मीद है कि पूरे देश में नरेंद्र मोदी के नाम पर लहर चल पड़ेगी और कांग्रेस का उसी तरह से सफाया हो जाएगा जैसा १९७७ में हो गया था.
राजनाथ सिंह की इस बात में दम हो सकता है कि नरेंद्र मोदी के समर्थक पूरे भारत में हैं .लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नरेंद्र मोदी के विरोधी भी पूरे भारत में हैं जहां तक मुसलमानों का सवाल है वे तो नरेंद्र मोदी को किसी भी सूरत में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं लेकिन गैर मुस्लिम आबादी में भी बीजेपी और नरेंद्र मोदी के विरोधियों की संख्या कम नहीं है . नरेंद्र मोदी के विरोधी निश्चित रूप से आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगें. और देश की राजनीति के लिए यह समझ लेना ज़रूरी है कि अपनी धार्मिक पहचान वाली राजनीति के साथ नरेंद्र मोदी देश की राजनीति को कहाँ तक प्रभावित करते हैं . नरेंद्र मोदी के बीजेपी के मुख्य चुनाव प्रचारक या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होने में सबसे दिलचस्प लड़ाई उत्तर प्रदेश में ही होगी . कांग्रेस को उम्मीद है कि अगर नरेंद्र मोदी मुख्य नेता के रूप में आगे आये तो उत्तर प्रदेश में उसको फिर अच्छी सीटें मिल जायेगीं . जो कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश के २००७ और २०१२ के विधान सभा चुनावों में सबसे कमज़ोर पार्टी के रूप में सामने आती है , वही पार्टी २००९ के लोक सभा चुनावों में राज्य की दोनों बड़ी पार्टियों, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से भारी क्यों पड़ती है . यह एक ऐसी पहेली है जिसमें आगामी लोक सभा चुनावों के नतीजों का भेद छुपा है . उत्तर प्रदेश में कई जिलों में मुसलमानो की बड़ी संख्या है . वे आम तौर पर मुलायम सिंह यादव को वोट देते हैं .उनको भरोसा है कि समाजवादी पार्टी उनके हित का पूरा ध्यान रखेगी.लेकिन उनको यह भी मालूम है कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी की उत्तर प्रदेश के बाहर कोई खास मौजूदगी नहीं है . वे चाहकर भी केन्द्र में नरेंद्र मोदी या बीजेपी की सरकार बनने से नहीं रोक सकते . केन्द्र में बीजेपी के खिलाफ बड़ी राजनीतिक जमात तैयार करने के लिए ही २००९ में मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दे दिया था. कांग्रेस को इस बार भी यही उम्मीद है . मुसलमानों के अलावा देश में बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है जो राजनीति से धर्म को अलग रखना चाहते हैं . वे भी अक्सर बीजेपी के खिलाफ ही वोट डालते हैं . यह अलग बात है कि लालकृष्ण आडवानी से लेकर छोटे कार्यकर्ताओं तक बीजेपी वाले आजकल अपने आपको सेकुलर कहने लगे हैं . उनकी बातों को बहुत सारे लोग सच भी मानते हैं . और देश के कई हिस्सों में तो मुसलमानों में भी यह बात मानी जाने लगी है कि बीजेपी भी मुसलमानों को वह नुक्सान नहीं पंहुचायेगी जैसा कि आम तौर पर कहा जाता है . इसी सोच के तहत देश के कई इलाकों में मुसलमानों ने भी बीजेपी को वोट दिया है लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन सकने की संभावना के बाद तस्वीर एकदम बदल जायेगी. गोधरा हादसे के बाद हुए मुसलमानों एक नरसंहार के बारे में अब बहुत जयादा बात नहीं होती लेकिन सब को मालूम है कि नरेंद्र मोदी की उस कांड में क्या भूमिका थी. उसी का नतीजा है कि सारे देश में सेकुलर जमातें मोदी के खिलाफ लामबंद हो जायेगीं . यह भी सच है कि जो भी बीजेपी के साथ देखा जाएगा उसको सेकुलर जमातों का वोट नहीं मिलेगा और मुसलमान तो किसी भी सूरत में बीजेपी के किसी साथी को वोट नहीं देगा. डी एम के ने जब केन्द्र सरकार से समर्थन वापसी की बात की तो बीजेपी के एक प्रवक्ता की बड़ी दिलचस्प टिप्पणी सुनने को मिली. उन्होंने कहा कि यू पी ए के सभी साथी उसका साथ छोड़ रहे हैं और अब यू पी ए बिलकुल अकेला पड़ जाएगा . लेकिन यही बात तो बीजेपी के बारे में भी सच है . करीब २४ पार्टियों के सहयोग से बीजेपी की सरकार १९९९ में बनी थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने थे . धीरे धीरे वे सभी पार्टियां बीजेपी का साथ छोड़ गयीं . आज उनके साथ केवल शिवसेना और अकाली दल ही मौजूद हैं. नीतीश कुमार की पार्टी टेक्नीकल तौर पर तो उनके साथ है लेकिन कितनी साथ है ,यह सबको मालूम है . २००४ के चुनावों में एक बहुत ही अजीब सच्चाई से राजनीतिक पार्टियों का सामना हुआ था . जिन लोगों ने सेकुलर वोट की मदद से अपने राज्यों में सीटें हासिल की थीं और दिल्ली आकर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधान मंत्री बनवा दिया था वे सब जीरो हो गए थे . इसलिए अब यह माना जाता है कि सेकुलर वोट की उम्मीद में जो भी राजनीतिक दल हैं . वे बीजेपी के साथ कभी नहीं जायेगें. चन्द्र बाबू नायडू, ममता बनर्जी , फारूक अब्दुल्ला आदि ऐसे कुछ नाम हैं जिन्होंने दोबारा सेकुलर वोट हासिल करने की क्षमता विकसित कर ली है जिसे वे शायद दुबारा न खोना चाहें . ऐसी हालत में बीजेपी के राजनीतिक ध्रुवीकरण की कोशिश का फायदा बीजेपी को तो होगा ही, कांग्रेस को भी होगा . क्योंकि जो लोग देश में धर्म निरपेक्ष राजनीति के समर्थक हैं उनके सामने बीजेपी के विरोध में खड़ी कांग्रेस के अलावा किसी और के साथ जाने का रास्ता नही बचेगा . डी एम के नेता एम करूणानिधि ने सरकार से समर्थन वापसी की बात शुरू करके एक बार से फिर से देश के सामने मौजूद बड़े राजनीतिक सवालों को जिंदा कर दिया है .