Friday, April 6, 2012

अमरीका के भारी दबाव के बाद भी पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को नहीं पकड़ेगा

शेष नारायण सिंह

मुंबई हमलों की साज़िश के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को अब अमरीका भी आतंकवादी मानने लगा है . इसके पहले जब भारत की तरफ से कहा जाता था कि हाफ़िज़ सईद को काबू में किये बिना आतंक के खिलाफ किसी तरह की लड़ाई, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं लड़ी जा सकती, तो अमरीका के नेता हीला हवाला करते थे. अब अमरीका की समझ में भी आ गया है कि हाफ़िज़ सईद को पकड़ना ज़रूरी है क्योंकि उसने पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान जाने वाली फौजी सप्लाई में अडंगा डालने की कोशिश शुरू कर दिया है .अब अमरीका को लगता है कि हाफ़िज़ सईद को काबू में कर लेना चाहिए . लेकिन उसे पकड़ने के लिए अमरीकी हुकूमत ने जो तरीका अपनाया है वह बहुत ही अजीब है . अमरीका ने ऐलान कर दिया है कि जो भी हाफ़िज़ सईद को अमरीका के हवाले कर देगा उसे पचास करोड़ से ज्यादा रूपये इनाम के रूप में दिए जायेगें. लगता है कि अमरीका की पाकिस्तान नीति के संचालकों को मालूम नहीं है कि हाफ़िज़ सईद की पाकिस्तान की फौज में क्या हैसियत है . आज ही पाकिस्तानी फौज के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल का बयान आ गया है कि अमरीका को कोई अख्तियार नहीं है कि वह हाफ़िज़ सईद की गिरफ्तारी की बात करे. यह वही हमीद गुल हैं जो कभी आई एस आई के डाइरेक्टर हुआ करते थे और पाकिस्तान में जितने भी बड़े आतंकवादी हैं यह उन सभी के संरक्षक रह चुके हैं . लेकिन हाफ़िज़ सईद इनका भी संरक्षक रह चुका है . हाफ़िज़ सईद के अहसानों का बदला चुकाने के लिए हमीद गुल ने तो भारत के खिलाफ भी बयान देना शुरू कर दिया है . कहते हैं कि भारत को अमरीका के उस बयान का स्वागत नहीं करना चाहिए था जिसमें कहा गया है कि हाफिज़ सईद को पकड़ने वाले को भारी रक़म बतौर इनाम दी जायेगी. वे तो यहाँ तक धमकी दे रहे हैं कि अगर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ८ अप्रैल को ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह पर हाजिरी लगाने अजमेर जाते हैं तो पाकिस्तान की सडकों और बाज़ारों में जुलूस निकाल कर उनका विरोध किया जायेगा.

यह देखना दिलचस्प होगा कि एक आतंकवादी के लिए पाकिस्तानी फौज़ और उसकी आई एस आई का निर्माता इस तरह की बात क्यों कर रहा है . यह हाफ़िज़ सईद आखिर है कौन. पाकिस्तान की सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आतंक का जो भी तंत्र है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . वह पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया . सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके हैं उसके अहसान के नीचे दबे हुए अफसर हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.


अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पल रहे पकिस्तान को अमरीकी सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है .इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं . ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी रक़म को इनाम के रूप में घोषित करके अमरीका ने एक असाधारण फैसला लिया है . लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को पकड़ कर अमरीका के हवाले कर देगा . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ सईद का कुछ नहीं बिगड़ेगा.

Thursday, April 5, 2012

भारत के न्यायप्रिय लोग बाबू जगजीवन राम को आदर्श मानते हैं

आज जगजीवन राम की जयंती है


शेष नारायण सिंह

जगजीवन राम इस देश के राष्ट्रीय हीरो हैं . अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने भारत को हमेशा सबसे ऊपर रखा . सामाजिक न्याय की उनकी सोच बहुत ही व्यावहारिक थी. महात्मा गाँधी की सामाजिक बराबरी की दार्शनिक सोच को उन्होंने अमली जामा पहनाया. १९३० के दशक में वे बाकायदा राजनीति में आये . यह एक महान राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के साथ हमेशा खड़े रहने वाले जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन का हमेशा नेतृत्व किया . आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए. सब जानते हैं कि ६ फरवरी १९७७ के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी के राज को ख़त्म किया. उसके बाद उन्हें इस देश ने प्रधानमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित थे . हालांकि उनको ही प्रधान मंत्री होना चाहिए था . केंद्र में वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों में रहे . कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में उन्होंने देश की खाद्य समस्या का ऐसा हल निकाला कि आज तक अनाज के लिए हमें किसी मुल्क के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ा . बंगलादेश की स्थापना के समय वे रक्षा मंत्री थे . सेना को जो नेतृत्व उन्होंने दिया वह अपने आप में एक मिसाल है . उन दिनों एक बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आदमी अमरीका का राष्ट्रपति था , उसने भारत को धमकाने के लिए हिंद महासागर में अमरीकी सेना का परमाणु हथियारों से लैस विमानवाहक पोत , 'इंटरप्राइज़' भेज दिया था. बाबू जगजीवन राम ने ऐलान कर दिया कि अगर ' इंटरप्राइज़' बंगाल की खाड़ी में ज़रा सा भी आगे बढा तो भारत के जांबाज़ सैनिक उसे वहीं डूबा देंगें.

बाबू जगजीवन राम के योग्य नेतृत्व का ही कमाल है कि बंगला देश को स्वतंत्र करवाने की लड़ाई को बहुत ही योजनाबंद्ध तरीके से पूरा कर लिया गया . कृषि मंत्री के रूप में उन्होंने हरित क्रान्ति की उपलब्धियों को देश की आर्थिक तरक्की के मिशन से जोड़ा . देश में मौजूद कृषि शोध संस्थानों की स्थापना में उनका बड़ा योगदान है . रेल मंत्री के रूप में बाबू जगजीवन राम ने बुनियादी ढांचागत सुविधाओं में क्रांतिकारी योगदान किया . एक राष्ट्र निर्माता के रूप में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा . आज अपने देश में जितने भी कानून मजदूरों के हित के लिए बनाए गए हैं उन सबको बाबू जगजीवन राम ने तब बनाया था जब वे नेहरू की कैबिनेट में मंत्री थे.लेकिन यह देश जगजीवन राम के प्रति वह सम्मान कभी नहीं व्यक्त कर पाया जिस पर उनका अधिकार है . उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे बहुत सारे दृष्टांत हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने हमेशा ही राष्ट्र प्रेम और सामाजिक समरसता को मह्त्व दिया . सामाजिक न्याय की अपनी लड़ाई में उन्होंने सारे समाज को साथ रखने की कोशिश की और महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू के विश्वास पात्र बने. सारी दुनिया जानती है कि १९६९ में कांग्रेस में बँटवारे के बाद जगजीवन राम कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और उम्मीद की जा रही थी कांग्रेस में उन्हें ही वैकल्पिक नेता के रूप में स्वीकार किया जाएगा. . १९६९ के बाद में बाबूजे एने ही इंदिरा गांधी की डूबती नैया को पार लगाया था . कांग्रेस की १९७१ की जीत में भी बाबू जगजीवन राम के कुशल नेतृत्व का भारी योगदान था . हरित क्रान्ति के ज़रिये उन्होंने देश के ग्रामीण इलाकों में सम्पन्नता को न्योता दिया था और जब कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेता इंदिरा गाँधी को सबक सिखाने के चक्कर में थे . बाबू जी के नेतृत्व का जलवा था कि पूरे देश का कांग्रेस कार्यकर्ता उनकी पार्टी के साथ लगा रहा . लेकिन जब १९७२ के बाद बंगलादेश की स्थापना हो गयी तो इंदिरा गाँधी ने समझा कि सब उनकी ही कृपा से हुआ था , सब उबका ही प्रताप था. इसी सोच के तहत उन्होंने अपने छोटे बेटे को अपने विकल्प के रूप मों पेश करने की योजना पर काम कारण शुरू कर दिया . उसके बाद तो कांग्रेस में मनमानी का युग शुरू हो गया. इंदिरा गाँधी के छोटे बेटे के संगी साथी देश की राजनीतिक व्यवस्था पर हावी हो गए.कांग्रेस में उन लोगों की जय जय कार होने लगी जो किसी रूप में इंदिरा गाँधी छोटे बेटे तक पंहुच बना सकते थे. नतीजा यह हुआ कि अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई. राज नारायण की चुनाव याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद इंदिरा गांधी के लिए प्रधान मंत्री पद पर बने रहना असंभव हो गया था . अगर उस वक़्त उन्होंने कांग्रेस के सबसे बड़े नेता, बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बना दिया होता तो कांग्रेस एक लोकतांत्रिक संगठन के रूप में बच जाती और देश को इमरजेंसी और संजय गाँधी का आतंक न झेलना पड़ता . लेकिन इन्दिरा गाँधी को अपने बेटे संजय के राजनीतिक भविष्य के सिवा कुछ भी नहीं दिखता था . नतीजा सब को मालूम है . कांग्रेस एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में वहीं खतम हो गयी.

इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता के विरोधी जयप्रकाश नारायण ने कई बार कहा था कि जगजीवन राम जैसे बड़े नेताओं को इंदिरा गाँधी और संजय गांधी के विरोध में खड़े हो जाना चाहिए . वह अवसर फरवरी १९७७ में आया जब जगजीवन राम ने अपने कुछ सताहियों के साथ मिलकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना ली.एक बार कांग्रेस फिर टूट गयी और देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई. सब को मालूम था अकी १९७७ की जीत कभी न मिलती अगर बाबू जगजीवन राम का साथ न होता . लेकिन जब प्रधान मंत्री चुनने की बात आई तो पुरातन पंथी ताक़तों ने मोरारजी देसाई को सत्ता सौंप दी. अपनी जिद और अजीबोगरीब आदतों की वजह से विख्यात मोरारजी देसाई ने देश को कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं दिया और एक बहुत बड़ा राजनीतिक प्रयोग ज़मींदोज़ हो गया . जनता पार्टी को एक बार मौक़ा मिला था कि उस वक़्त के सबसे बड़े राजनीतिक नेता को प्रधान मंत्री बनाते लेकिन जनता पार्टी नामक भानुमती के कुनबे में ऐसे लोग शामिल थे जो किसी भी हालत में आम राय से फैसले ले ही नहीं सकते थे. उनकी आपसी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए जनता ने दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी का हुक्म सुना दिया.

१९७७ में जगजीवन राम को उनके हक से दूर रखने के बहुत दूरगामी नतीजे हुए. सैकड़ों वर्षों से दोयम दर्जे की ज़िंदगी जी रहे दलित समाज ने आज़ादी के बाद पहली बार समझा कि कांग्रेस या अन्य कोई भी राजनीतिक जमात उनको केवल इस्तेमाल काना चाहती है. कोई भे एराजनीतिक पार्टी दलितों को उनका हक देने के लिए तैयार नहीं है . न्याय प्रिय लोगों का एक बहुत बड़ा समुदाय आज कांग्रेस से दूर जा चुका है और उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कनाग्रेस को कोई पूछने वाला नहीं है . १९७७ के बाद से ही दलितों ने कांग्रेस से किनारा करना शुरू कर दिया और जब कांशीराम ने ऐलानियाँ दलितों की पार्टी बनायी तो दलित समुदाय के लोगों ने उसी पार्टी को अपना लिया. सच्च्ची बात यह है कि जगजीवन राम ने कभी भी दलितों की राजनीति नहीं की लेकिन कांग्रेस और उसके बाद के नेतृत्व ने उन्हें हमेशा दलित ही माना .उनकी राजनीति के केंद्र में हमेशा से ही भारत रहा है और उसी भारत के न्याय प्रिय लोग आज भी बाबू जगजीवन राम को आदर्श मानते हैं .

Monday, April 2, 2012

हथियारों के दलाल और उनके कारिंदे जनरल के खिलाफ लामबंद हो गए हैं .

शेष नारायण सिंह

जनरल वी के सिंह के खिलाफ नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में बहुत सारे लोग लाठी भांज रहे थे. बाद में उनकी संख्या कुछ कम हुई. जनरल वी के सिंह को हटाने के लिए दिल्ली में सक्रिय हथियार दलालों की लाबी बहुत तेज़ काम कर रही थी. राजधानी में यही लाबी सबसे ताक़तवर मानी जाती है .नई दिल्ली के हथियार दलालों ने ही कुमार नारायण नाम के हथियारों के एक दलाल को जेल में डलवा दिया था क्योंकि वह विरोधी पार्टी का था और उसके दुश्मन उससे मज़बूत थे. इस हथियार लाबी की ताक़त इतनी है कि वह किसी को भी प्रभावित कर सकती है . ज़्यादातर मामलों में तो पता भी नहीं चलता और ईमानदार आदमी भी दलालों के इस गिरोह का शिकार हो जाता है . जब मीडिया पर एकाधिकार का ज़माना था और सरकारी रेडियो और टेलिविज़न ही हुआ करते थी तो अखबारों की खबरें किसी भी हालत में हथियारों के दलालों के खिलाफ नहीं जा सकती थीं . जब से प्राइवेट टेलिविज़न चैनल आये हैं , हथियारों के दलालों के गिरोह खबरों को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं . नतीजा यह है कि इनके कारनामे सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जा रहे हैं . जनरल वी के सिंह के खिलाफ भी जो अभियान चला , वह अब खंड खंड हो रहा है. जनरल ने १४ करोड़ रूपये के घूस वाले अपने इंटरव्यू में हिन्दू अखबार की संवाददाता, विद्या सुब्रमनियम को बताया था कि फौज के नाम पर दलाली करने वाले आदर्श घोटाले वाला गिरोह उनके पीछे पडा हुआ है और उसी गैंग के लोग उन्हें बदनाम करने पर आमादा है . सवाल यह उठता है कि अगर उस गिरोह वाले जनरल के पीछे पड़े हैं तो प्रेस क्लब में लोग उनके खिलाफ इतना क्यों हैं, मेरे वे पत्रकार मित्र जिनकी ईमानदारी पर कभी कोई सवाल नहीं उठाये गए, वे क्यों जनरल के खिलाफ हैं . वे अफसर जनरल को क्यों गरिया रहे हैं जिनकी ईमानदारी की कहानियां दिल्ली में उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं . वे नेता क्यों जनरल को बर्खास्त करने की बात कर रहे हैं जो आम तौर पर बहुत ही कड़क माने जाते हैं और जिनको कभी कोई भी दलाल बेवक़ूफ़ नहीं बना सकता .
इन सारे सवालों का एक ही जवाब है. वह जवाब यह है कि हथियारों के दलालों ने जनरल वी के सिंह को निपटाने की योजना बहुत ही ठीक से बना रखी थी. इन लोगों ने मीडिया में अपने कुछ ख़ास लोगों के बीच बहुत दिनों से जनरल वी के सिंह के खिलाफ खुसुर पुसुर चला रखा था . जनरल को कुछ नहीं मालूम था. नौकरशाही में भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो हथियारों के दलालों के लिए काम करते हैं . तो मीडिया में मौजूद हथियार दलाल लाबी के ख़ास लोगों ने ईमानदार पत्रकारों को संभाला और उन्हें जनरल की काल्पनिक कमियों की जानकारी दी. इन ईमानदार पत्रकारों ने नेताओं को अंदर की खबर देने के चक्कर में उन्हें बता दिया कि सेना प्रमुख बिलकुल बेकार आदमी है . इस बीच प्रधानमंत्री को लिखा गया एक रूटीन पत्र इन्हीं दलालों के एजेंटों ने लीक कर दिया . ब्रिक्स सम्मेलन की टाइमिंग भी दलालों ने ही मैनेज की . और भी बहुत सारी बातें हुईं और जनरल वी के सिंह एक जिद्दी इंसान के रूप में पेश कर दिए गए. आज तो हद ही हो गयी . अखबार में एक ऐसे आदमी का बयान छपा है जो कई पीढ़ियों से सत्ता के गलियारों में सक्रिय है . यह आदमी कहता है कि जनरल को ज़बस्दस्ती छुट्टी पर भेज दो .

जानकार बताते हैं कि अगर जनरल वी के सिंह ने सेना के कुछ बड़े अफसरों द्वारा किये गए फौज की सुखना वाली ज़मीन के घोटाले का पर्दाफाश न किया होता या आदर्श घोटाले को बेनकाब न किया होता , या हथियारों की दलाली में लगे लोगों को मनमानी करने दी होती तो नई दिल्ली के पावर ब्रोकर उन्हें घेरने की कोशिश न करते. इन पावर ब्रोकरों के हाथ बहुत लम्बे होते हैं और बहुत सारे लोगों को पता भी नहीं लगता कि यह उनको कब इस्तेमाल कर लेते हैं . बहरहाल संतोष इस बात का है कि जनरल वी के सिंह ने वह काम किया जो कभी टी एन शेषन ने किया था और अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना दिल्ली के स्वार्थी लोगों को उनकी औकात पर ला दिया . इस दिशा में आज का विद्या सुब्रमनियम का वह लेख बहुत काम आएगा जिसमें उन्होंने लिखा है कि जनरल बेदाग़ है

Friday, March 30, 2012

अमरीकी दादागीरी के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं ब्रिक्स देश

शेष नारायण सिंह

नयी दिल्ली, २९ मार्च. ब्रिक्स देशों का चौथा शिखर सम्मलेन आज संपन्न हो गया. इस अवसर पर रूस के राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने ऐलान किया कि वे भारत , ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता देने की कोशिश का समर्थन करते हैं .. उन्होंने यह भी कहा कि किसी भी देश को दूसरे देश के आतंरिक मामलोंमें हस्तक्षेप का अधिकार नहीं दिया जा सकता है और सभी देशों को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान करना चाहिए . उन्होंने सीरिया और अफगानिस्तान में बातचीत के ज़रिये शान्ति पूर्ण हल तलाशने की बात को भी बहुत ही जोर देकर कहा . साफ़ था कि उन्होंने ब्रिक्स देशों की उस मंशा को रेखांकित किया कि सीरिया के मामले में अमरीका को दखल नहीं देना चाहिए . भारत के प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने शिखर सम्मलेन के सार्वजनिक सत्र की शुरुआत करते हुए कहा था कि उदारीकरण के दौर में अर्थ व्यवस्था का विकास बहुत ही संतुलित होना चाहिए . इसके लिए ज़रूरी है कि आतंकवाद को हर कीमत पर रोका जाए. . उन्होंने कहा कि ब्रिक्स देशों के बीच आपसी समझदारी की बहुत ज़्यादा संभावनाएं हैं . उनको हर हाल में इन इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए. . उन्होंने कहा कि भारत में अगले दस साल तक प्रति वर्ष एक करोड़ रोज़गार उपलब्ध कराना है . और भारत इस दिशा में पूरी कोशिश कर रहा है .उन्होंने सदस्य देशों से अपील की कि इस दिशा में वे अपने अनुभवों से भारत की मदद करें .डॉ मनमोहन सिंह ने ब्रिक्स देशों के लिए एक दस सूत्री कार्यक्रम की रूपरेखा भी दी.

ब्राजील की राष्ट्रपति दिलमा रूसेव ने कहा कि उनका देश बिलकुल अलग है , और उसकी समस्याएं भी अलग हैं लेकिन ब्रिक्स के मंच से उन्हें बहुत उम्मीदें हैं . उन्होंने कहा कि वे अपने देश में आमदनी के न्याय पूर्ण वितरण की योजना पर काम कर रही हैं .लेकिन कुछ देशों के अनावश्यक दखल के कारण उनकी अर्थव्यवस्था पर उल्टा असर पड़ता है . उनका इशारा अमरीका की तरफ था. उन्होंने इस बार पर भी खुशी जताई कि ब्रिक्स बैंक की स्थापना के बाद आपसी कारोबार के लिए डालर के इस्तेमाल की पाबंदी ख़त्म हो जायेगी. क्योंकि यूरो और डालर मुद्रा बाज़ार में असंतुलन फैला रहे हैं और आर्थिक विस्तारवाद की नीति का पालन कर रहे हैं . . उन्होंने कहा कि ज़रूरी है ब्रिक्स देश अपने घरेलू बाज़ार का विकास करें और आर्थिक तानाशाही से बचने की दिशा में आगे बढ़ें. उन्होंने कहा कि निर्यात को कमज़ोर किये बिना अपने देशों के आतंरिक बाज़ार का विस्तार किया जाना चाहिए.. उन्होंने कहा कि इरान के परमाणु कार्यक्रम को ज़बरदस्ती नहीं रोका जाना चाहिए क्योंकि ऊर्जा के क्षेत्र में आत्म निर्भरता सभी देशों का अधिकार है और उसकी रक्षा की जानी चाहिए. उन्होंने कहा कि ऊजा के क्षेत्र में आत्म निर्भरता भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी कि भूख के खिलाफ चल रही जंग को जीतना .
चीन के राष्ट्रपति हु जिंताओ ने बार बार लोकतांत्रिक तरीकों की बात की और आपसी भरोसे का माहौल विकसित करने की ज़रुरत को भी महत्व दिया . दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जैकब जुमा ने इस बात पर बाकी ब्रिक्स देशों का आभार जताया कि दक्षिण अफीका कोअपने संगठन का सदस्य बनाकर उन पर और अफ्रीका पर अहसान किया है . उन्होंने उम्मीद जताई कि नए आर्थिक कार्यक्रमों के लागू होने के बाद उनके देश और अन्य अफ्रीकी देशों के ढांचागत विकास को ताक़त मिलेगी.

ब्रिक्स देश विश्व बैंक की तर्ज़ पर ब्रिक्स बैंक बनायेगें

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली,२९ मार्च. ब्राज़ील,भारत,चीन ,रूस और दक्षिण अफ्रीका ने आज प्रभावी तरीके से अमरीकी डालर के आधिपत्य को चुनौती देने का फैसला कर लिया है . ब्रिक्स शिखर सम्मलेन २०१२ के अवसर पर आज यहाँ पाँचों देशों के विकास बैंकों के आला अफसरों ने ब्रिक्स शासन प्रमुखों की मौजूदगी में एक समझौते पर दस्तखत किया जिसके बाद अब ब्रिक्स देश सदस्य देशों को अपनी मुद्रा में कारोबार के अवसर प्रदान करेगें और डालर को आपसी कारोबार की सीमा से बाहर कर देगें.यह एक बड़ी बात है क्योंकि आज ही मंज़ूर किये गए दिल्ली घोषणा पत्र में विश्व बैंक की तर्ज़ पर एक विकास बैंक स्थापित करने की बात की गयी है जो इन देशों में कारोबार के लिए ज़रूरी बुनियादी ढाँचे के विकास को रफ़्तार देने का काम करेगा.
आज नई दिल्ली में ब्रिक्स दशों के शासनाध्यक्षों के शिखर के बाद दिल्ली घोषणापत्र जारी कर दिया गया. इस घोषणा पत्र के जारी होने के बाद सदस्य देशों ने यह भी ऐलान कर दिया कि अब वे दुनिया के क्षितिज पर आ चुके हैं और एक नए समूह के रूप में उनको गंभीरता से लेने के सिवा बाकी दुनिया के पास कोई रास्ता नहीं है . इस अवसर पर यह भी तय किया गया कि आने वाले दिनों में उन सभी मंचों पर ब्रिक्स देशों के प्रतिनधि सक्रिय रहेगें जहां इनकी सदस्यता है . ख़ासकर जी-२० एक ऐसा संगठन है जिसमें ब्रिक्स के सभी सदस्य देश शामिल हैं . आज तय किया गया कि जी-२० के मंच को ब्रिक्स के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए बखूबी इस्तेमाल किया जाएगा. इसके अलावा आने वाल एक वर्ष में ऐसी बहुत सारी बैठकें होंगीं जिनके बाद एक संगठन के रूप में ब्रिक्स को बहुत मजबूती मिलेगी.. . संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के दौरान ब्रिक्स देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक होगी. जी २० की बैठक के दौरान ब्रिक्स देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के अध्यक्षों की बैठक होगी. ब्रिक्स देशों के कृषि मंत्रियों की तीसरी बैठक को बहुत ही ज्यादा तैयारी के साथ किया जाएगा. . ब्रिक्स देशों ने राष्ट्रीय सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा को बहुत ज्यादा प्राथमिकता देने का फैसला किया है इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा से जुड़े मामलों को सर्वोच्च प्राथमिकता पर लिया जाएगा . ब्रिक्स देशों के बीच एक शहरीकरण फोरम की स्थापना की गयी है . इस वर्ष दिल्ली में उसका सम्मलेन होगा जसी बहुत ही गम्भीरता से लेने का फैसला किया गया . ब्रिक्स देशों के स्वास्थ्य मंत्रियों की बैठक का आयोजन २०१३ में किया जाएगा. . विश्व बैंक की तर्ज़ पर एक ब्रिक्स विकास बैंक स्थापित करने के लिए विशेषज्ञों की एक अहम बैठक बहुत जल्द बुलाई जायेगी. ब्रिक्स रिपोर्ट पर हुई कार्रवाई को समझने के लिए सदस्य देशों के वित्तीय जानकारों की बैठक बुलाई जायेगी.
कुछ नए क्षेत्रों में भी आपसी सहयोग बढाने के लिए सम्भावनाओं की तलाश की जायेगी. ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग,ब्रिक्स युवक नीति संवाद और जनसँख्या से सम्बंधित विषयों के बारे में भी सहयोग के लिए योजना बनाने पर विचार किया जाएगा

Monday, March 26, 2012

अन्ना को चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लम्बा अभियान चलायें

शेष नारायण सिंह

अन्ना हजारे अब लाइन पर आ गए लगते हैं . अब तक तो उन्हें मुगालता था कि वे जब चाहेगें किसी भी पार्टी को हरा देगें. जिस तरह से इन्होने भ्रष्टाचार जैसी भयानक बीमारी का इंस्टैंट हल निकालने की कोशिश की थी उस से यह भी लगता था कि वे किसी पार्टी की तरफ से काम कर रहे हैं . लेकिन पिछले एक साल में हुए चुनावों में उनकी वजह से किसी भी नतीजे में कोई बदलाव नहीं आया. हिसार में उनके प्रचार का बहुत प्रचार किया गया, लेकिन वहां नतीजा वही आया जो पिछली बार था. यानी भजनलाल की मृत्यु से खाली हुई सीट पर उनका बेटा जीत गया.पांच राज्यों के चुनाव में भी उनकी टीम वालों का कहीं कोई असर नहीं दिखा.और एक बात जो सारी दुनिया को मालूम थी वह अन्ना की टीम की समझ में भी आ गयी कि चुनावी नतीजों पर उनका कोई असर नहीं पड़ने वाला है . अगर अन्ना टीम चुनाव जिता सकती तो अन्ना हजारे के परम प्रिय नेता, बी सी खंडूरी को कभी हारने न देती. इस बीच अन्ना की टीम के कई सदस्यों के बीजेपी प्रेम की कहानियाँ भी चर्चा में थीं . लेकिन इस बार बीजेपी के एक मुख्यमंत्री के खिलाफ भी मुद्दा बनाया जा रहा है .शिवराज सिंह चौहान को निशाना बनाकर अन्ना हजारे ने रिस्क लिया है .इसका नुकसान भी हो सकता है क्योंकि बीजेपी अपने लोगों को कभी गलत नहीं मानते .अगर बीजेपी ने अन्ना के कार्यक्रमों में भीड़ भेजना बंद कर दिया तो अन्ना के कार्यक्रम का वही हाल होगा जो मुम्बई में हुआ था.

मुझे यह कहनेमें बहुत संकोच लगता है कि मैंने तो पहले ही कहा था लेकिन आज मैं कह देता हूँ . अन्ना हजारे का जो काम है वह भ्रष्टाचार को कम कर सकता है लेकिन उन्हें लम्बी लड़ाई के लिए तैयार रहना पड़ेगा.यह बात मैंने बहुत पहले कही थी जब उनके साथी कुछ घंटों में कोई कानून पास करवा लेना चाहते थे. अब अन्ना को चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लम्बा अभियान चलायें और चुनावों की तारीख से कोई घालमेल न करें

बीजेपी अध्यक्ष के फैसलों को एक बार फिर मिल रही है अंदर से चुनौती

शेष नारायण सिंह

भारतीय जनता पार्टी में नेतृत्व का संकट गहराता ही जा रहा है .कर्नाटक में पार्टी की दुविधा बहुत ही भारी है . राज्य में बीजेपी के सबसे बड़े नेता और पूर्व मुख्य मन्त्री बी एस येदुरप्पा किसी भी वक़्त पार्टी तोड़ देने पर आमादा हैं. ताज़ा घटनाक्रम से लगता है कि बी एस येदुरप्पा ने बीजेपी आलाकमान को थोड़ी राहत देने का फैसला कर लिया है क्योंकि खबर है कि अब वे मौजूदा मुख्य मंत्री , सदानंद गौड़ा को बजट पेश करने की अनुमति दे देगें .यानी कर्नाटक सरकार के सामने मौजूद फौरी संकट ख़त्म हो गया है लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि संकट सही मायनों में ख़त्म हो गया है . कर्नाटक की राजनीति के जानकार बताते हैं कि बीजेपी को कर्नाटक में अपने आप को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में बचाए रखने का एक ही तरीका है कि वह बी एस येदुरप्पा की मांग स्वीकार कर ले और उन्हेंमुख्या मंत्री की कुर्सी दुबारा सौंप दे . उनके पास बीजेपी के १२० विधायाकों में से ६६ का समर्थन है . यह वह समर्थक हैं जो येदुरप्पा के साथ जाकर रिजार्ट में छुपे थे . यह भी तय है कि मौजूदा मुख्यमंत्री भी अभी कुछ महीने पहले तक बी एस येदुरप्पा के बहुत करीबी और उनके भक्त थे .इसलिए कर्नाटक में बीजेपी के लिए येदुरप्पा को हटाकर अपने आपको एक मज़बूत राजनीतिक पार्टी के रूप में बचा पाना बहुत ही मुश्किल होगा. लेकिन बी एस येदुरप्पा की छवि एक ऐसे नेता की बन गयी है जिसके साथ भ्रष्टाचार बहुत ही गंभीरता से जुड़ गया है. भ्रष्टाचार के कुछ् मामले उजागर हो जाने के बाद ही बीजेपी आलाकमान ने कर्नाटक में मुख्य मंत्री बदला था. भ्रष्टाचार में डूबी कांग्रेस पार्टी के ऊपर बीजेपी के हमलों को बेमतलब साबित करने के लिए बीजेपी के विरोधी कर्नाटक में बी एस येदुरप्पा के भ्रष्टाचार का उदाहरण देते थे. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलन से भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल को भी अपने राजनीतिक हित में बीजेपी वाले नहीं इस्तेमाल कर सके क्योंकि उनके पास भी येदुरप्पा जैसे लोगों के भ्रष्टाचार का बोझ था. येदुरप्पा के बचाव में बहुत दिनों तक बीजेपी आलाकमान खड़ा रहा और जब हटाया तो बहुत देर हो चुकी थी और उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में बीजेपी भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं बना सकी क्योंकि भ्रष्टाचार के कीचड में बीजेपी के विरोधी तो डुबकियां लगा ही रहे थे, वह खुद भी बीजेपी बी एस येदुरप्पा और रमेश पोखरियाल निश्शंक जैसे लोगों को ले कर चलने के लिए मजबूर थी जिनके नाम के भ्रष्टाचार की बहुत सारी कहानियाँ जुड़ चुकी हैं .

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों के ठीक पहले बीजेपी ने एक और बड़ी राजनीतिक गलती की. राज्य में हज़ारों करोड़ रूपये के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन यानी एन आर एच एम घोटाले में शामिल राज्य के पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को बहुत ही सम्मानपूर्वक पार्टी में शामिल कर लिया गया . पार्टी के बाहर और पार्टी के भीतर बहुत तेज़ हल्ला गुल्ला शुरू हो गया और बाबू सिंह कुशवाहा की सदस्यता को कुछ दिन के लिए टाल दिया गया लेकिन विधानसभा चुनाव में बाबू सिंह कुशवाहा पूरी ताक़त के साथ जुटे रहे और बीजेपी के उम्मीदवारों का प्रचार करते रहे. इस एक घटना ने बीजेपी को भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने लायक नहीं छोड़ा और बीजेपी को भारी चुनावी नुकसान हुआ. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही पार्टी ने उत्तराखंड में भी चुनाव के कुछ महीने पहले ही कथित रूप से भ्रष्ट मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निश्शंक को हटाया था लेकिन इस बात की कोई सफाई नहीं दी जा सकी कि एक भ्रष्ट मुख्य मंत्री को राज्य में क्यों इतने लम्बे समय तक तक इंचार्ज बनाकर रखा गया .
बीजेपी और भ्रष्टाचार के बीच के गहरे संबंधों के बारे में जो नया मामला आया है वह तो पार्टी की जड़ें हिला देने की ताक़त रखता है . राज्य सभा में बीजेपी के उपनेता, एस एस अहलूवालिया का राज्यसभा का टिकट काट कर लन्दन के एक व्यापारी को झारखण्ड से उम्मीदवार बना दिया गया है. हालांकि वह बंदा पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार नहीं है लेकिन पार्टी के विधायाकों ने उसकी नामजदगी के कागजों पर दस्तखत किया है और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उसे आशीर्वाद दिया है . लगता है कि दिल्ली में जमे जमाये अपनी पार्टी के बड़े नेताओं पर अपनी अथारिटी को स्थापित करने के उद्देश्य से नितिन गडकरी कुछ ऐसे फैसले ले लेते हैं जिनकी वजह से बीजेपी को अपनी बहुत मेहनत से बनायी गयी छवि को संभाल पाना भारी पड़ जाता है . नागपुर की कृपा से पार्टी के अध्यक्ष बने गडकरी को दिल्ली वाले नेताओं ने स्वीकार भले ही कर लिया हो लेकिन वे अभी तक नितिन गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के काबिल नहीं मानते. शायद इसी कारण से मंगलवार को नई दिल्ली में हुई बीजेपी संसदीय दल की बैठक में कई बड़े नेता राज्यसभा में उपनेता, एस एस अहलुवालिया के टिकट काटने से नाराज़ दिखे. लोकसभा सदस्य और पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने तो पार्टी छोड़ने तक की धमकी दे डाली. एस एस अहलूवालिया का टिकट काटने का मामला उनके राज्य , झारखण्ड से सम्बंधित है . यशवंत सिन्हा झारखण्ड के हजारीबाग़ क्षेत्र से ही लोकसभा के लिए चुने गए हैं .यशवंत सिन्हा ने बीजेपी संसदीय पार्टी की बैठक में जो कुछ भी कहा वह बहुत ही ज़ोरदार तरीके से पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व पर प्रहार करता है . बैठक के बाद जब यशवंत सिन्हा बाहर आये तो उन्होंने मीडिया से कहा कि उन्हें पता चला है कि बीजेपी के समर्थन से किसी व्यक्ति ने झारखण्ड से राज्य सभा के लिए उम्मीदवारी का परचा भरा है .जब यह श्रीमानजी पर्चा दाखिल कर रहे थे तो बीजेपी एक बड़े नेता वहां मौजूद थे . इसका सीधा मतलब यह है कि इस उम्मीदवार को बीजेपी का समर्थन मिला हुआ है . यशवंत सिन्हा
के अलावा लाल कृष्ण अडवाणी , सुषमा स्वराज , मुरली मनोहर जोशी आदि ने भी झारखण्ड के मामले में नाराजगी जताई . सदस्यों का गुस्सा तब शांत हुआ जब लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि वे पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से इस मामले में बात करेगें .बताते हैं कि बीजेपी संसदीय पार्टी के अंदर यशवंत सिन्हा ने जो बातें कहीं वे तो बहुत ही सख्त हैं . उन्होंने कहा कि बीजेपी के किसी एम एल ए को नीलाम नहीं किया जाना चाहिए और किसी दागी उम्मीदवार को राज्यसभा में नहीं लाना चाहिए . यशवंत सिन्हा निराश हैं और कहते हैं कि ऐसी हालत में उनके लिए संसद में रहकर काम कर पाना बहुत मुश्किल होगा . यानी अगर बात नहीं संभली तो यशवंत सिन्हा बीजेपी से अलग भी हो सकते हैं . झारखण्ड का उम्मीदवार तो वास्तव में मामूली आदमी है यशवंत सिन्हा और अन्य संसद सदस्यों का हमला पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के कामकाज के तरीके पर है . बीजेपी के कई बड़े नेता मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में जिस तरह से विधान सभा चुनावों का संचालन किया गया वह भी नितिन गडकरी के नेतृत्व शक्ति पर सवालिया निशान लगाता है . उन्होंने उत्तर प्रदेश के पार्टी नेताओं के ऊपर मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को जिस तरह से स्थापित किया उसके कारण भी राज्य में बीजेपी को भारी नुकसान हुआ, पार्टी के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष को हार का मुंह देखना पड़ा.

ऐसी हालत में साफ़ नज़र आता है कि बीजेपी में राष्टीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की स्वीकार्यता पूरी तरह से घट रही है . ताज़ा खबर यह है कि वे नागपुर में हैं और वहां से दिल्ली और बंगलूरू के नेताओं पर दबाव बनाकर अपनी राजनीतिक मजबूती को सुनिश्चित करना चाहते हैं . ऐसा होना संभव है क्योंकि नागपुर के आर एस एस मुख्यालय से ही उनको पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था और बीजेपी में आम तौर पर आर एस एस के आला नेतृत्व को चुनौती देने की कोई परंपरा नहीं है . लेकिन यह बात तय है कि नितिन गडकरी पार्टी के शीर्ष पर मौजूद होने के बाद भी अपनी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं बना पाए हैं .

Wednesday, March 21, 2012

कार्पोरेट घरानों के कारिंदे सरकारी अर्थशास्त्री अब गरीबी का मजाक उड़ा रहे हैं

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, २० मार्च.योजना आयोग करर उस रिपोर्ट को वामपंथी पार्टियों ने फ्राड कहा है जिसके तहत केंद्र सरकार ने देश में गरीबों की संख्या को घटा दिया है . मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्यसभा नेता सीताराम येचुरी ने बताया कि गरीबों की संख्या घटाने के चक्कर में सरकार ने इस देश की गरीब जनता का मजाक उड़ाया है और आंकड़ों की बाजीगरी के चलते देश को भुखमरी की तरफ धकेलने की साज़िश रची है .
सीताराम येचुरी ने कहा कि अब तक यह माना जाता था कि शहरों में जिसके पास अपने ऊपर खर्च करने के लिए ३२ रूपये प्रतिदिन के लिए उपलब्ध हो वह गरीब नहीं होता जबकि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के पास अगर २६ रूपये हों तो वह गरीबी रेखा के ऊपर माने जायेगें. सरकार ने अब गरीब आदमी की परिभाषा बदल दी है . नए फार्मूले के हिसाब से शहरों में जिसके पास अपने ऊपर खर्च करने के लिए २८ रूपये होगा वह गरीब नहीं रह जाएगा जबकि गाँवों में जिसके पास रोज़ के 22 रूपये होंगें वह गरीबी रेखा के ऊपर माना जाएगा. सीताराम येचुरी का दावा है कि यह सरकार की तरफ से की जा रही आंकड़ों की हेराफेरी है . इस हेराफेरी के ज़रिये खाने की चीज़ों पर दी जाने वाली सब्सिडी को कम करने की कोशिश की जा रही है . बीजेपी ने भी आंकड़ों के ज़रिये गरीबों की संख्या घटाने की सरकार की कोशिश को गलत बताया . उसका कहना है सरकार को एक कमेटी बनाकर गरीबी रेखा के बारे में फैसला करना चाहिए .

वामपंथी पार्टियों ने आज सरकार पर जम कर हमला बोला. उनका आरोप है कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या कम करके सरकार उन सरकारी स्कीमों से सब्सिडी हटाना चाहती है जो गरीबों के लिए चलाई जा रही हैं . इसमं अन्त्योदय और ग्रामीण रोज़गार जैसी स्कीमें शामिल हैं . सी पी एम का कहना है कि केंद्र सरकार गरीबों की रोटी छीनकर धन्नासेठों को संपन्न बनाना चाहती है . उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे ऐसे फैसले हैं जिनमें सरकार को हिदायत दे गयी है कि लोगों के लिए अच्छा जीवन स्तर सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है . लेकिन क्या गरीबी की परिभाषा बदल कर गरीबी हटाई जा सकती है या केंद्र सरकार ने मन बना लिया है कि गरीबों का मजाक उड़ाया जायेगा

सीताराम येचुरी ने आरोप लगाया कि सरकारी खजाने को लूट कर केंद्र सरकार धन्नासेठों को और दौलत देने की कोशिश कर रही है . उन्होंने कहा कि बजट में सरकार ने कहा है कि वित्तीय घाटा जी डी पी का ५.९ प्रतिशत हो गया है . यह घाटा पांच लाख २२ हज़ार करोड़ रूपये के बराबर है . . जबकि बजट में ही बताया गया है कि केंद्र सरकार ने उसी साल में पांच लाख २८ हज़ार करोड़ रूपये के टैक्स की छूट दी है. टैक्स छूट का मतलब यह है कि सरकार ने यह ऐलान किया है वह जान बूझकर इतना टैक्स नहीं वसूलेगी. . अगर यह टैक्स वसूले गए होते तो बजट में वित्तीय घाटा बिल्कुल नहीं होता.बल्कि ८ हज़ार करोड़ रूपये का फ़ायदा हुआ होता. वामपंथी पार्टियों का आरोप है कि अब सरकार रासायनिक खाद से ६ हज़ार करोड़ के सब्सिडी हटा रही है , ३० हज़ार करोड़ रूपये का बंदोबस्त सरकारी कम्पनियों को बेचकर किया जाएगा . यह सब वित्तीय घाटे को दुरुस्त करने के लिए किया जा रहा है . सच्ची बात यह है कि अगर सरकार ने धन्नासेठों को टैक्स में ५ लाख हाजार करोड़ से ज़्यादा की छूट न दी होती तो इसकी कोई ज़रुरत नहीं पड़ती.
जब उनको याद दिलाया गया कि कारपोरेट घरानों को सरकार टैक्स में भारी छूट इसलिए देती है कि उनसे रोज़गार बढ़ता है और वे उत्पादन बढ़ाकर सरकारी खजाने में धन देते हैं .. सीताराम येचुरी ने इस बात को बिकुल गलत बताया . उन्होंने कहा कि जब से इस तरह की भारी छूट की बात शुरू हो गयी है तब से इस देश के ५५ घरानों के बीच देश की जी डी पी का एक तिहाई हिस्सा केंदित हो गया है देश की १२० करोड़ आबादी के हिस्से केवल दो तिहाई संपत्ति ही बचती है . इस तरह की सोच पर आधारित यह अर्थव्यस्था बहुत बड़ी मुसीबतों को दावत देने जा रही जहां पूंजीपतियों को दिया जाने वाली टैक्स में छूट विकास के लिए प्रोत्साहन माना जाता है जबकि गरीब आदमी को मिलने वाली सब्सिडी को बोझ माना जाता है .. लोकसभा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बासुदेव आचार्य ने कहा कि पूंजीपतियों को टैक्स में छूट देकर सरकार रोज़गार नहीं बड़ा रही है . पिछले एक साल में ३५ लाख नौकारियाँ कम हो गयी हैं जबकि गरीबों को दी जाने वाली २ लाख १६ हज़ार करोड़ की सब्सिडी बचाकर सरकार वित्तीय घाटा कम कर रही है . इसी बीच एक लाख सात हज़ार करोड़ का आर्थिक पैकेज कुछ निजी कंपनियों को दिया गया है .वामपंथी पार्टियों का आरोप है कि सरकार गरीब आदमी को लूट कर धन्नासेठों को और दौलतमंद बना रही है .

Saturday, March 17, 2012

क्या अखिलेश यादव इन चुनौतियों को अवसर के रूप में बदल पायेगें ?

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में अखिलेश यादव ने शपथ ले ली है . उन्हें यह पद एक सही लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बाद मिला है . पूरे राज्य में चार मुख्य पार्टियों ने चुनाव लड़ा, धुआंधार प्रचार हुआ, सबने एक दूसरे के खिलाफ बातें कीं और जब नतीजा आया तो सभी पार्टियों ने चुनाव नतीजों को स्वीकार किया . उनके सामने कोई विकल्प भी नहीं था लेकिन कभी कभार देखा गया है कि चुनाव के बाद तल्खी रह जाती है .खुशी कीबात्याह अहि इस बार ऐसी कोई तल्खी नहीं थी . अब तक के संकेतों से लगता है कि अखिलेश यादव एक गंभीर मुख्य मंत्री होंगें . एक राजनीतिक प्रचारक के रूप में अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी के अभियान की अगुवाई की और उसमें वे एक सफल राजनेता के रूप में पहचाने गए हैं . लेकिन क्या वे आने वाली लड़ाइयों में भी सफल होंगें , यह देखना बहुत ही दिलचस्प होगा.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का काम बहुत ही मुश्किल है . सबसे बड़ा तो यही कि पिछली सरकार ने अपना पांच साल पूरा किया और उसके राज की जो सबसे बड़ी बात राज्य के अंदर और राज्य के बाहर मालूम है ,वह यह है कि पूर्व मुख्यमंत्री के बहुत करीबी लोगों ने नोयडा और ग्रेटर नोयडा के कुछ लोगों को अपना एजेंट बना रखा था और वे यहाँ पूर्व मुख्यमंत्री के नाम पर अरबों रूपये की वसूली करते थे . बताते हैं कि नोयडा और ग्रेटर नोयडा में ज़मीन के हर इंच की बिक्री में इन लोगों ने मुख्यमंत्री या उनके भाई के नाम पर उगाही की . पिछले एक हफ्ते से दिल्ली के आसपास के इलाकों में चर्चा है कि जिन लोगों ने पूर्व मुख्यमंत्री के यहाँ वसूली का तंत्र बना रखा था , उन्होंने किसी बिल्डर की मार्फ़त अखिलेश यादव के यहाँ भी अपनी पंहुच बना ली है और कुछ सौ करोड़ रूपये अखिलेश यादव के यहाँ पंहुचा दिया है . अखिलेश यादव का मुख्यमंत्री के रूप में सबसे बड़ा काम होना चाहिए कि इस तरह के लोगों के बारे में पता करें और उनको ऐसी सज़ा दें कि आने वाले पांच वर्षों में किसी की हिम्मत न पड़े कि वह मुख्यमंत्री के नाम पर वसूली का काम शुरू कर सके. क्योंकि अब तक के उनके राजनीतिक आचरण से साफ़ लगता है कि वे एक आधुनिक राजनेता हैं और वे किसी भी तरह के धंधेबाज़ के हाथों में इस्तेमाल नहीं हो सकेगें .नए मुख्यमंत्री ने साफ़ कहा है कि उनकी सरकार बदले की भावना से काम नहीं करेगी लेकिन उन्हें यह तो सुनिश्चित करना ही होगा कि उनके नाम पर कोई भी व्यक्ति किसी तरह का धंधा न कर सके . ख़ास तौर पर कोई भी ऐसा आदमी जिसने पिछली सरकार के दौरान लूटमार मचा रखी थी,उसे दूर रखना उनके हित में होगा.
अगर एक सफल मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें अपनी छवि स्थापित करनी है तो उन्हें यह बात सुनिश्चित करनी पड़ेगी कि वे उन लोगों से दूर रहें जिन्होंने पिछली सरकार को एक उगाही की सरकार के रूप में पहचान दिलाई थी. इन लोगों को सज़ा देना बिलकुल आसान होगा क्योंकि यह सभी सरकारी कर्मचारी हैं . इन लोगों के बारे में पता लगाना किसी भी मुख्यमंत्री के लिए बहुत ही आसान होगा. लेकिन उनकी सरकार के कामकाज को देखने के लिए इस बार उनके चुनावी घोषणा पत्र को देखा जाएगा. समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र को इस बार राज्य की जनता ने बहुत ही गंभीरता से लिया है . उस में जो भी वायदे किये गए हैं उनको पूरा करना नई सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी. इस बार नौजवानों और महिलाओं ने समाजवादी पार्टी को झूम कर वोट दिया है . उनके बारे में जो वायदे किये गए हैं उन्हें हर हाल में लागू करना होगा. और अगर अपने घोषणा पत्र में किये गए वायदों को लागू करने की दिशा में मुख्यमंत्री ने सही क़दम उठा लिया तो आने वाले वर्षों में वे एक ऐसे राजनेता के रूप में पहचाने जायेगें जिसका कोई जोड़ नहीं रहेगा. समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र में कहा गया है कि किसानों को मुफ्त पानी दिया जाएगा, खेती के लिए और शहरी इलाकों में बिजली हर हाल में उपलब्ध कराई जायेगी और बेरोजगार युवाओं को रोजगार दिया जायेगा . अगर उन्हें रोजगार नहीं दिया जा सका तो जब तक वे काम नहीं पा जाते ,उन्हें बेरोजगारी भत्ते के रूप में हर महीने क हज़ार रूपया दिया जायेगा . यह बहुत बड़ी बात है . समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव की इस बात पर राज्य के नौजवानों ने विश्वास किया और उनको बड़ी संख्या में वोट दिया . इस विश्वास का कारण यह है कि पिछली बार जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे , तो उन्होंने बेरोजगारी भत्ता देना शुरू कर दिया था. उनपर विश्वास किया गया इसीलिये जब से चुनाव का काम पूरा हुआ है तभी से बुन्देलखंड , मध्य उत्तर प्रदेश और पूर्वी उत्तर प्रदेश के हर जिला रोज़गार कार्यालय में नाम लिखाने के लिए नौजवानों की कतारें लगी हुई हैं . इन नौजवानों की उम्मीद को पूरा करना मुख्य मंत्री की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए अपने पिछले कार्यकाल में मुलायम सिंह यादव ने लडकियोंको बहुत महत्व दिया था . बच्चियों के लिए उन्होंने कन्याधन की व्यवस्था थी. उनकी इस बात को राज्य के ग्रामीण इलाकों में बहुत सराहा गया था और इस चुनाव में बूथों पर माहिलाओं की जो लंबी लम्बी कतारें लगी थीं , वह उन महिलाओं की थीं जो मानती हैं कि मुलायम सिंह यादव बात के धनी नेता हैं .उनकी उम्मीदों पर भी समाजवादी पार्टी को खरा उतरना होगा. इन दोनों ही स्कीमों में पिछली बार बिचौलियों ने खूब दलाली खाई थी, विधायकों ने भी जम कर लूटा था, इस बार स्पष्ट बहुमत से आई सरकार के लिए बेईमान विधायकों या उनके एजेंटों की मनमानी रोकना बहुत आसान होगा . अगर यह योजनायें और इनका लाभ आम आदमी तक पंहुच गया तो सही मायनों में एक वेलफेयर स्टेट की स्थापना हो जायेगी. आखिलेश यादव के रिकार्ड बेदाग़ है और मुख्य मंत्री के बेटे के रूप में उन्होंने कभी भी सत्ता का दुरुपयोग नहीं किया है इसलिए लगता है कि वे सत्ता को आम आदमी के हित के लिए इस्तेमाल ज़रूर करेगें. समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र में शिक्षित लड़के लड़कियों के लिए लैपटाप और टैबलेट का वायदा किया गया है . बहुत बड़ा राज्य है , और इस तरह के लैपटाप और टैबलेट को खरीदने के लिए बहुत बड़ी रक़म की ज़रुरत भी पड़ेगी . शहरी बाबू और बुद्धिजीवी टाइप पत्रकार कहने लगे हैं कि इतनी बड़ी रक़म का इंतजाम कर पाना बहुत मुश्किल होगा. लेकिन उन्हें मालूम नहीं कि अगर सरकार तय कर ले तो कुछ भी असंभव नहीं होता . जो सरकार एक मामूली फैसले से पूंजीपतियों को लाखों करोडो रूपये के टैक्स की छूट दे सकती है ,वह अपने राज्य के नौजवानों की शिक्षा के लिए ज़रूरी लैपटाप का इंतज़ाम भी कर सकती है . पिछले पांच वर्षों में इसी उत्तर प्रदेश सरकार के अफसरों और मुख्यमंत्री की कृपा से नोयडा और ग्रेटर नोयडा में कई हज़ार करोड़ रूपये रिश्वत के रूप में खाए गए हैं . नए मुख्यमंत्री ने अगर दिल्ली से लगे इलाकों में ज़मीन की बिक्री में होने वाले सरकारी धन की लूट पर लगाम लगाने में सफलता हासिल कर ली तो नौजवानों के कल्याण के लिए खर्च होने वाली रक़म का इंतज़ाम बहुत ही आसानी से किया जा सकेगा. वैसे भी नीतीश कुमार ने एक नया रास्ता खोल दिया है . अफसरों की घूस की कमाई को वे ज़ब्त कार लेते हैं . अगर अखिलेश यादव ने अफसरों की घूस की कमाई को ज़ब्त करने का काम शुरू कर दिया तो राज्य में धन की कमी नहीं रह जायेगी.
इस बार समाजवादी पार्टी को मुसलमानों ने लगभग एकतरफा वोट किया है . यह भी सच है कि पिछले बीस वर्षों से मुसलमान हर चुनाव में मुलायम सिंह यादव के साथ खड़े रहते हैं .अब तक मुसलमानों ने जब भी समाजवादी पार्टी को वोट दिया तो उनके मन में यह उम्मीद रहती रही है कि उन्हें राज्य में शान्ति से रहने का मौक़ा मिलेगा और वे अपना काम कर सकेगें . राज्य में पिछली सदी में इतने दंगे हुए हैं कि मुसलमान के लिए दंगे बच पाना ही सबसे बड़ी मदद हुआ करती थी . लेकिन अब माहौल बदल गया है .अब किसी भी जमात के लिए दंगे को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर पाना बहुत मुश्किल होगा .इसके कई कारण हैं . सबसे बड़ी बात तो यह है कि मीडिया अब बहुत ही चौकन्ना रहता है . कहीं भी कोई भी बात होती है ,वह फ़ौरन टेलीविज़न के ज़रिये पूरी दुनिया को पता लग जाती है . ज़ाहिर है कोई भी नेता यह नहीं चाहेगा कि वह दंगा करवाए और उसका नुकसान उठाये . वैसे भी हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगा कराने वाली जमातों की औकात घटी है . इसलिए दंगे से बचना मुसलमान के लिए कोई बहुत बड़ी बात नहीं है , वह अपने आप बच जाता है. इस बार मुसलमान नई सरकार की तरफ इस उम्मीद से आया है कि उसकी सामाजिक तरक्की होगी. उसे सरकार में भागीदारी का मौक़ा मिलेगा. पिछली बार जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे तो सरकारी नौकरियों में बड़ी संख्या में मुसलमानों को भर्ती किया गया था. इस बार भी मुसलमानों को उम्मीद है कि सरकारी नौकरियों में उनकी संख्या के हिसाब से अवसर मिलेगें.
मुसलमानों के बीच शिक्षा की बहुत कमी है. इसके चलते भी गरीबी बहुत है . नई सरकार को उनकी शिक्षा के लिए बड़े पैमाने पर काम करना पडेगा हालांकि यह काम सबसे आसान है . केंद्र सरकार ने मुसलमानों के लिए मौलाना आज़ाद फाउडेशन नाम के संस्था के ज़रिये हर मुस्लिम बच्चे के लिए वजीफे की व्यवस्था कर रखी है . हर मुस्लिम बच्चा जो स्कूल जाता है या ऊंचे दर्जों की पढाई करता है इस वजीफे का हक़दार है . दक्षिण भारत के सभी राज्यों और महारष्ट्र में बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम बच्चे इस योजना का लाभ उठा रहे हैं . लेकिन उत्तर भारत में यह योजना उतनी सफल नहीं है . राज्य सरकार को चाहिए कि हर इलाके में बाहुत सारे सेकुलर लोगों को उत्साहित करके इस काम में लगा दे . अगर गरीब मुसलमानों के परिवारों में वजीफे के रूप में हर महीने कुछ हज़ार रूपये आने लगेगें तो मुसलमानों के बच्चे भारी संख्या में शिक्षा हासिल कर लेगें और फिर उनकी तरक्की को कोई नहीं रोक पायेगा. इसके अलावा राज्य सरकार के जिन प्राइमरी स्कूलों की पूरी तरह से दुर्दशा हुई पड़ी है ,उसको भी ठीक किया जा सकता है .अगर शिक्षा के क्षेत्र में सकारात्मक पहल करने में अखिलेश यादव की सरकार कामयाब हो गयी तो वे मुख्यमंत्री के रूप में राज्य का मुस्तकबिल चमकदार बना देगें .

Friday, March 16, 2012

यह रेल बजट रेलवे को पूंजीपतियों को सौंप देने की साज़िश की शुरुआत है

शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली, १४ मार्च . २०१२-१३ के लिए रेल बजट पेश कर दिया गया है . इस बजट के साथ ममता बनर्जी की जानी पहचानी राजनीतिक क्रिया शुरू हो गयी है . सरकार में उनकी गद्दी लेने वाले रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की मनमोहनी अर्थनीति का पूरा पालन किया और बहुत सारे ऐसे कार्यक्रमों की घोषणा की जिसके बाद रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की बड़े पैमाने पर शुरुआत हो जायेगी. उधर तृणमूल ब्रैंड की राजनीति भी शुरू हो गयी. तृणमूल कांग्रेस के नेता और रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट में किराए के वृद्धि का ऐलान किया तो उसी पार्टी के दूसरे नेता सुदीप बंद्योपाध्याय ने संसद से बाहर निकल कर भाड़ा बढाए जाने का विरोध कर दिया .फिलहाल नूरा कुश्ती जारी है और राजनीति में ममता विधा के जानकारों का कहना है कि बात बिकुल साफ़ नहीं है.
यह रेल बजट शुद्ध रूप से मनमोहन सिंह के आशीर्वाद से तैयार किया गया लगता है क्योंकि इसमें एक बहुत महत्वपूर्ण सरकारी विभाग को निजी हाथों में सौंप देने की लगभग वही अकुलाहट है जो टेलीफोन विभाग को सौंप देने के समय थी.डॉ मनमोहन सिंह ने भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर ज़्यादातर सरकारी व्यापारिक काम को निजी हाथों में सौंप देने की बुनियाद तभी डाल दी थी . जब वे पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री थे.बाद की सभी सरकारों ने मनमोहन सिंह के पूंजीवादी अर्थशास्त्र को ही आर्थिक विकास का ढांचा बनाया. आज लगता है कि रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने उसी प्रक्रिया को आगे बढाते हुए रेल बजट पेश किया है . उनकी पार्टी की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने रेल बजट में प्रस्तावित वृद्धि के खिलाफ लाठी भांजना शुरू कर दिया है लेकिन जानकार कहते हैं कि किराया वृद्धि के बारे में ममता बनर्जी का बयान राजनीतिक है और वे डॉ मनमोहन सिंह के साथ बातचीत करने के बाद इस तरह की पैंतरेबाजी कर रही हैं . इस बात की संभावना है कि उनके हल्ला मचाने के बाद बढा हुआ किराया वापस ले लिया जाएगा और वे बंगाल की जनता के सामने इसे अपनी ट्राफी के रूप में पेश करेगीं . लेकिन इस सरकार का जो मुख्य एजेंडा है वह लागू हो जाएगा. दुनिया जानती है कि इस सरकार का एजेंडा हर सरकारी व्यापार को निजी हाथों में सौंप देना है

.ऐसे राजनीतिक माहौल में आज रेल बजट पेश कर दिया गया . रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने कहा कि उनका उद्देश्य रेल में पांच बातें लागू करना है . उन्होंने कहा कि उनकी प्राथमिकता है , संरक्षा,मजबूती, भीड़ भाड़ को कम करना और क्षमता में वृद्धि करना . १२वीं पंच वर्षीय योजना में परिचालन अनुपात ९५ प्रतिशत से घटाकर ७४ प्रतिशत करना.
इसके लिए उन्होंने उपाय भी बताये. उन्होंने कहा कि काकोडकर समिति की सिफारिशों के तहत रेलवे संरक्षा प्राधिकरण की स्थापना . सैम पित्रोदा समिति की सिफारिशों के तहत मिशनों की स्थापना करना,काकोदकर और पित्रोदा समिति द्वारा बताये गए पांच क्षत्रों को लक्ष्य बनाकर काम करना . यह क्षेत्र हैं . रेलपथ,, पुल,सिग्नल प्रणाली,रोलिंग स्टाक,स्टेशन और टर्मिनल पर वार्षिक निवेश की योजना को संतुलित करना. नए बोर्ड सदस्यों की तैनाती, लेवल क्रासिंग पर होने वाले हादसों से बचने के लिए रेल-रोड सेपरेशन कारपोरेशन आफ इण्डिया की स्थापना करना. इसके अलावा और भी कुछ प्रस्ताव रेल मंत्री ने अपने बजट में किया है. ज़ाहिर है इस तरह के काम केलिए सरकार के पास पैसा नहीं है . उसके लिए भी रेले मंत्री ने रास्ता निकाल लिया है . वे कहते हैं कि सब कुछ प्राइवेट लोगों को शामिल करके हासिल किया जा सकता है .प्रस्ताव है कि सार्वजनिक -निजी -भागीदारी ( पी पी पी ) के माध्यम से स्टेशनों का पुनर्विकास करने के लिए इन्डियन रेलवे डेवलपमेंट कारपोरेशन की स्थापना की जायेगी . वैगन लीसिंग,साइडिंग ,प्राइवेट फ्रेट टर्मिनल,कंटेनर ट्रेन परिचालन में भी निजी पूंजी को शामिल कर लिया जायेगा,. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों इस तरह की योजनाओं में निजी पूंजी का निवेश नहीं हो सका है इसलिए अब इसे और आकर्षक बनाया जाएगा,. और निजीकरण की बात को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जायेगी इस काम के लिए रेलवे बोर्ड में एक ऐसे सदस्य की भर्ती की जायेगी जिसका काम केवल पी पी पी परियोजनाओं की देख भाल करना होगा . उसको रेल के निजीकरण की योजना की मार्केटिंग भी करनी पड़ेगी.
रेल के विकास में राज्य सरकारों से भी सहयोग लिया जाएगा. छत्तीसगढ़ सरकार के साथ रेल मंत्रालय इस तरह का समझौता कर भी चुका है . राज्य सरकारों के सहयोग से १० राज्यों में ५ हज़ार किलोमीटर की ३१ परियोजनाओं पर काम चल रहा है .पड़ोसी देशों के साथ संपर्क पर भी काम चल रहा है . नेपाल से संपर्क करने के लिए जोगबनी-बिराट नगर और जयनगर -बीजलपुरा-बरबीदास के बीच नई लाइन का काम चल रहा है .बहुत सारे कारखाने भी लगाने का प्रस्ताव है और उनमें भी निजी भागीदारी से परहेज़ नहीं किया जायेगा.
देश के महत्वपूर्ण स्टेशनों पर सीढ़ी चढने में दिक्क़त पेश आती है . इसके लिए करीब ३२१ एस्केल्टर लगाए जायेगें . इस तरह की योजना में मुम्बई के लोकल ट्रेनों वाले स्टेशनों को भी शामिल किया गया है .बजट में हर बार की तरह आंकड़े भी दिए गए हैं . और बहुत सारी कल्याण कारी योजनायें भी शामिल की गयी हैं . एक बड़ी सूची तो उन योजनाओं की है जिन्हें पहले के रेल मंत्री बीसों साल से बताते रहे हैं ..लेकिन आज के बजट का स्थायी भाव यही है कि भारतीय रेल को निजी हाथों में देने की तैयारी बड़े पैमाने पर शुरू हो चुकी है ठीक उसी तरह जैसे टेलीफोन सुविधाओं के साथ किया गया था , यह अलग बात है कि बाद में उन्हीं योजनाओं में देश के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले भी हुए

Monday, March 12, 2012

चुनावी बहस और टेलिविज़न की दुनिया

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव २०१२ ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि दिल्ली में बैठे राजनीतिक पंडितों को कुछ पता नहीं रहता कि राज्य में क्या हो रहा है . टेलिविज़न चैनलों पर बहस के प्रहसन में भाग लेने वाले राजनीतिक विश्लेषकों की भी यही स्थिति होती है. चुनाव की घोषणा के साथ ही विद्वान् पत्रकारों की मंडली में चर्चा शुरू हो गयी थी कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को १५० के करीब सीटें मिलेगीं, बहुजन समाज पार्टी को १३० के आसपास, बीजेपी ९० तक जा सकती है और कांग्रेस की झोली में ५० के आसपास सीटें आयेगीं. लगभग सब का ऐलान यही था कि उत्तर प्रदेश में इस बार त्रिशंकु विधानसभा आयेगी , किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा. इन स्वनामधन्य विश्लेषकों से जब कभी पूछा गया कि भाई आपको यह इलहाम कैसे हो रहा है तो एक सर्वज्ञ मुद्रा वाली मुस्कराहट के साथ बता देते थे कि कि उन्हें सब मालूम है ठीक उसी तरह जैसे आजकल एक विज्ञापन में बीते ज़माने की अभिनेत्री नीतू सिंह कहती पायी जाती हैं कि ' आई नो एवरीथिंग ' . लेकिन सच्चाई यह थी कि किसी को कुछ नहीं मालूम था और उत्तर प्रदेश की जनता किसी भी कीमत पर बदलाव चाहती थी . उसकी बदलाव की यह इच्छा मायावती के राज के दो साल के अंदर ही नज़र आने लगी थी लेकिन यह जनता की समझ में यह नहीं आ रहा था कि जाना किधर है .
उत्तर प्रदेश की जनता ने जब २००९ के लोकसभा चुनावों में देखा कि सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी के अलावा कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी ने भी लगभग बराबर सीटें हासिल की हैं तो यह तय हो गया कि मायावती की सत्ता को बदलने के अवसरों की कमी नहीं है .उस चुनाव के बाद राज्य के बहुत सारे इलाकों के लोगों से बात करके पता लगा कि विधान सभाचुनाव में बदलाव का हवा बहेगी.
बहरहाल अब चुनावों के नतीजे पब्लिक डोमेन में हैं . और सभी विश्लेषक और पत्रकार उसकी माकूल व्याख्या कर रहे हैं और बता रहे हैं कि उनसे चूक क्यों हुई .लेकिन ३ मार्च २०१२ के दिन कोई भी ऐसा विश्लेषक नज़र नहीं आया था जो इन नतीजों को किसी भी तरह से संभव मानने को तैयार होता. अंग्रेज़ी के सबसे नामी न्यूज़ चैनल में चुनाव विश्लेषण केलिए बुलाये गए लोगों से मैंने कहा कि उत्तर प्रदेश के चुनाव बहुत ही अलग माहौल में हुए हैं , कहीं किसी का कोई दबाव नहीं पड़ा है ,लोगों ने अपने मन से वोट दिया है और दो बातें तय हैं. पहली तो यह कि मायावती सत्ता से बाहर चली जायेगीं और जो दूसरी बात तय है वह यह कि समाजवादी पार्टी को २२० से एकाध ज्यादा ही सीटें मिलेगीं . मेरी इस बात को सुनकर जिस तरह के अविश्वास का माहौल हवा में तैर गया वह बहुत ही दमघोंटू था .कुछ लोगों ने मुझे समझाने की कोशिश की मैं अपनी राय बदल लूं . पैनल में मौजूद पंजाब की राजनीति के जानकार एक आदरणीय मित्र से मैंने गंभीरता से कहा कि भाई मेरे पास राय बदलने का विकल्प नहीं है . यह सच्चाई है . और यह सच्चाई मैंने हर दौर के चुनाव के बाद की हालत को समझ कर जानी है . लेकिन खंडित जनादेश के विमर्श से आगे जाने को कोई तैयार नहीं था. पूरे तीन दिन बहस इस बात पर होती रही कि समाजवादी पार्टी को जब १८० के आस पास सीट मिलेगी तो मुलायम सिंह किसके समर्थन से सरकार बनायेगें ,या नहीं बनायेगें . ज़ाहिर है कि मुझे इस सिद्धांत की परिकल्पना पर ही विश्वास नहीं था इसलिए मैं बहस से लगभग बाहर ही रहा . चुनाव के नतीजों के बाद देश के चोटी के पत्रकार कुमार केतकर ने मेरी तारीफ़ की और कहा कि हालांकि शुरू में उन्होंने भी मेरी बात पर बहुत विश्वास नहीं किया था लेकिन नतीजों के बाद उन्होंने मुझे इस बात पर शाबासी दी कि न केवल मैंने समाजवादी पार्टी के नतीजों का सही आकलन किया था बल्कि सभी चारों पार्टियों की संभावित सीटों का भी लगभग सही अनुमान लगाया था. मैंने बहस के दौरान भी बार बार यह कहा था कि इस बार उत्तर प्रदेश में बाहुबली भी नहीं जीत पायेगें . चार दिन तक चर्चा में शामिल कई मित्रों ने इस बात की भी तारीफ़ की . पत्रकारिता के एक शीर्ष पुरुष और मेरे आदर्श पत्रकार ने मुझसे कहा है कि मैं ३ मार्च २०१२ के दिन किये गए के अपने आकलन के कारणों पर चर्चा करूँ , इसलिए यह लेख लिखा जा रहा है .

उत्तर प्रदेश की जनता ने २००७ में मुलायम सिंह यादव की पार्टी के जोर ज़बरदस्ती के राज से बचने के लिए मायावती को स्पष्ट बहुमत दिया था . लेकिन मायावती ने जनता को निराश किया .लोग उन्हने हटाना चाहते थे लेकिन यह नहीं पता लग पा रहा था कि रास्ता किधर से है. २००९ के चुनावों के बाद से यह बात साफ़ हो गयी थी कि सत्ता बदल दी जायेगी. मुलायम सिंह की पार्टी २००९ के लोक सभा चुनाव तक पस्त हिम्मत की शिकार थी. उसी के बाद फिरोजाबाद संसदीय क्षेत्र में ही उपचुनाव में हुई अखिलेश यादव की पत्नी की हार के बाद समाजवादी पार्टी में चारों तरफ निराशा थी .मुलायम सिंह यादव शारीरिक रूप से कुछ कमज़ोर भी हो गए थे . पार्टी का और कोई नेता बाहर नहीं निकल रहा था. अमर सिंह ने मीडिया के ज़रिये हमला बोल रखा था . ज़ाहिर है पार्टी में निराशा और मायूसी का माहौल था . कांग्रेस को लोक सभा २००९ में पहले से ज्यादा वोट मिले थे लेकिन कांग्रेस के नेताओं को भी मालूम था और जनता को भी मालूम था कि ज्यादातर सीटों पर चौथी या पांचवीं और कहीं कहीं तो सातवीं या आठवीं जगह पर रही कांग्रेस पार्टी मायावती को चुनौती नहीं दे सकती थी. एक दौर में तो ऐसा लगता था कि भारतीय जनता पार्टी ही मायावती को चुनौती दे सकती थी. उनके पास लगभग हरेक मंडल में कार्यकर्ता थे , आर एस एस की मौजूदगी थी और सारे इलाकों में मज़बूत नेता थे . यह सारा माहौल तब बदला जब समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ,अखिलेश यादव ने मैदान ले लिया और सडकों पर निकल पड़े . मायावती से नाराज़ लोगों को उम्मीद नज़र आने लगी कि समाजवादी पार्टी को वोट देने से मायावती से पिंड छूट जाएगा .इसके पहले तो यू पी के राजनीतिक माहौल में साफ़ नज़र आ रहा था कि २०१२ की लड़ाई भारतीय जनता पार्टी और मायावती के बीच होगी और मायावती को हराने के लिए तड़प रही जनता बीजेपी के सिर पर ताज रख देगी . इस पर ब्रेक लगाया नागपुर के नेता और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष , नितिन गडकरी ने. उन्होंने यू पी के बीजेपी नेताओं राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र , विनय कटियार , मुरली मनोहर जोशी , ओम प्रकाश सिंह , सूर्य प्रताप शाही और केशरी नाथ त्रिपाठी को पीछे कारके मध्य प्रदेश की नेता उमा भारती को आगे कर दिया . राज्य के स्थापित नेताओं के समर्थक बीजेपी के अभियान से अलग हो गए और जो बीजेपी मायावती को चुनौती देने वाली थी, वह तीसरे स्थान की लड़ाई में चली गयी . अखिलेश यादव की सभाओं में भीड़ होने लगी और साफ़ नज़र आने लगा कि मायावती को चुनौती समाजवादी पार्टी से मिल रही है . इस बीच राहुल गांधी ने भी राज्य में धुंआधार प्रचार किया . लेकिन उनके चुनावी प्रबंधन में बहुत सारी गड़बड़ियां हुईं . उन्होंने बाराबंकी के नेता बेनी प्रसाद वर्मा को बहुत मह्त्व दे दिया .बेनी प्रसाद वर्मा भी पूरे फार्म में आ गये . उन्होंने करीब १३५ सीटों पर अपनी पुरानी समाजवादी पार्टी से आये हुए चेलों को टिकट दे दिया . जिसके कारण कांग्रेस के मुकामी नेता तो नाराज़ हुए ही , कांग्रेस के कई एम पी बेनी प्रसाद वर्मा के खिलाफ हो गए . ऐसे माहौल में समाजवादी पार्टी ने अखिलेश यादव के नेतृत्व में चुनाव में झंडे गाड़ने शुरू कर दिए .
चुनाव आभियान शुरू होने के बाद भी बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं ने थोक में गलतियां की.मायावती के बहुत करीबी रह चुके और भारी भ्रष्टाचार में फंसे बाबू सिंह कुशवाहा को चुनाव अभियान के दौरान भारतीय जनता पार्टी में शामिल कर लेने से रामदेव और अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कारण बीजेपी की तरफ मुड़ रहे नौजवानों ने बीजेपी के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया . कांग्रेस ने साम्प्रदायिक आधार पर जनता के ध्रुवीकरण की कोशिश की . जिसका फायदा भी समाजवादी पार्टी को मिल गया . मुसलमान लगभग एकतरफा समाजवादी पार्टी में चले गए. राष्ट्रपति राज की चर्चा करके भी कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत की ज़रुरत को रेखांकित किया .
इस बीच समाजवादी पार्टी के बड़े नेता आज़म खां ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबली , डी पी यादव को पार्टी में भर्ती करने की कोशिश की . अखिलेश यादव ने बहुत ही निर्णायक तरीके से हस्तक्षेप किया और डी पी यादव की भर्ती पर लगाम लगा दिया . उनके इस एक क़दम ने उत्तर प्रदेश में कई सन्देश दिए . एक तो यह कि अब अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को वे साथ नहीं आने देगें . और दूसरा सन्देश राज्य के सरकारी कर्मचारियों को दिया गया. उन्हें साफ़ बता दिया गया कि समाजवादी पार्टी के पिछले कार्यकाल की तरह की स्थिति नहीं रहने वाली है .उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों के बीच आज़म खां की छवि एक ऐसे नेता की है जो मंत्री बनने के बाद लोगों को डांटते फटकारते रहते हैं .उनको काबू करके अखिलेश यादव ने ऐलान कर दिया कि आज़म खां की मनमानी नहीं चलेगी. इसके बाद तो समाजवादी पार्टी के पक्ष में लहर चलने लगी. इस बीच समाजवादी के घोषणापत्र ने बाकी काम पूरा कर दिया.आमतौर पर पार्टी के घोषणापत्रों पर विश्वास नहीं किया जाता लेकिन मुलायम सिंह यादव की उस बात पर लोगों ने विश्वास किया जहां उन्होंने कहा था कि अगर सरकार बनी तो १००० रूपये महीने का बेरोजगारी भत्ता दिया जाएगा. उनकी बात पर लोगों ने विश्वास इसलिए किया कि अपने पिछले कार्यकाल के अंतिम छः महीनों में उन्होंने ५०० रूपये महीने का बेरोजगारी भत्ता दिया था . मैंने देखा था कि पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश के बहुत सारे इलाकों में नौजवान और बेरोजगार युवकों ने मुलायम सिंह को इसलिए वोट दिया था कि वे १००० महीने के बेरोजगारी भत्ते के चक्कर में थे . बड़ी संख्या में नौजवानों के वोट इसी कारण से मुलायम सिंह को मिले . चुनाव ख़त्म होने के बाद जिला रोज़गार कार्यालयों में बेरोजगार नौजवानों की भीड़ को जिसने भी देखा था उसे पक्का भरोसा था कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी का स्पष्ट बहुमत आ रहा है . इसके अलावा मैंने हर दौर के चुनाव के पहले और बाद में जिला स्तर के पत्रकारों से बात करके सही स्थिति का जायज़ा लिया था . और लगभग हर सीट के ज़मीनी समीकरणों को समझा था शायद इसी लिए सही आकलन कर सका था .

Saturday, March 3, 2012

गुजरात में साझी आस्था के केंद्र भी तोड़े गए थे

शेष नारायण सिंह

दस साल पहले गुजरात में वली गुजराती की मज़ार पर बुलडोज़र चला दिया गया और उर्दू बोलने वालों को घेर घेर कर मारा गया था . हुआ यह था कि गोधरा में एक ट्रेन में कुछ कारसेवकों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत हो गयी थी. अयोध्या से लौट रहे इन कारसेवकों की बोगी में आग लग गयी थी जिसमें उस डिब्बे में सवार सभी लोग मर गए थे.इस हादसे के बाद गुजरात के बड़े शहरों और कुछ गांवों में मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों को लगा था कि उस डिब्बे में सवार लोगों की हत्या में मुसलमानों का हाथ था . उनके सहयोगी संगठनों , विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंगदल वालों ने मुसलमानों से बदला लेने की योजना बनायी . जिसके बाद तो अहमदाबाद, वड़ोदरा, सूरत राजकोट आदि शहरोंमें मुसलमानों को तबाह करने की कोशिश की गयी , उनके घर जलाए गए, उनकी महिलाओं को रेप किया गया और घरों में घेर कर लोगों को जलाया गया. कांग्रेस के एक सांसद एहसान जाफरी को भी उसी दौरान गुलबर्गा सोसाइटी के उनके घर में जलाकर मारा डाला गया था. उसके बाद से ही गोधरा हादसे के बाद हुए नरसंहार में मारे गए लोगों को इंसाफ़ दिलाने की कोशिश चल रही है लेकिन अभी तक कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है .
गोधरा हादसे के बाद गुजरात में हुए नरसंहार के दस साल पूरा होने के बाद आज एक बार वे ज़ख्म फिर ताज़ा हो गए हैं .इस बीच नरेंद्र मोदी और उनके साथियों ने कोई मौक़ा भी नहीं दिया कि उन ज़ख्मों पर किसी तरह का मरहम लगाया जा सके. उनकी पार्टी के सभी नेता यही कहते रहे कि २००२ के बाद गुजरात में बहुत विकास हुआ है इसलिए उस नर संहार की बात नहीं की जानी चाहिए . जिसने भी उन भयानक दौर की बात उठायी उसे धमकाया गया और कुछ लोगों को तो फर्जी मुठभेड़ में मार भी दिया गया. अब ताज़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि मीडिया ने गुजरात नरसंहार को ज्यादा तूल दे दिया वरना बात इतनी बड़ी नहीं थी. यह भी तर्क सुनने में आ रहा है कि गुजरात के २००२ नरसंहार के बाद वहां कोई दंगा नहीं हुआ. ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी के साथियों की इच्छा है कि देश और समाज यह मान ले कि गुजरात के विकास के लिए २००२ के नरसंहार का होना बहुत ज़रूरी था. कुछ लोग यह भी तर्क देते पाए जा रहे हैं कि २००२ के बाद नरेंद्र मोदी ने बहुत तरक्की की है इसलिए उनके २००२ वाले अपराध को भूल जाना चाहिए और उन्हें माफ़ कर देना चाहिए .
गुजरात सरकार और उसके मुख्यमंत्री के मीडिया और राजनीति में मौजूद साथियों के इस दावे में कोई दम नहीं है कि गुजरात में २००२ के बाद दंगे नहीं हुए . गुजरात में २००२ के नर संहार के पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने की मुहिम में जुटी मानवाधिकार कार्यकर्ता, शबनम हाशमी का कहना है कि गुजरात में २००२ के बाद कई दंगे हुए हैं . २००५ में बडौदा में दंगा हुआ था, सितम्बर २००७ में सूरत जिले के कोसाड़ी गाँव में जो दंगा हुआ था उसके बाद आस पास के पांच गाँव जला दिए गए थे .सच्चाई यह है कि २००२ के बाद मुसलमान गुजरात में दहशत के साए में ज़िंदगी बसर करने के लिए मजबूर है . इसका नामूना यह है कि डांग जिले के एक गाँव ,नंदनपड़ा में २००९ के आस पास वी एच पी के कुछ लोग गए और उनको धमकाया कि अपना धर्म छोड़कर हिन्दू बन जाओ . अगर ऐसा न हुआ तो मार डाले जाओगे. अहमदाबाद और अन्य बड़े शहरों के पास ऐसे करीब ६ कब्रिस्तान हैं जिन पर क़ब्ज़ा करके सड़कें बना दी गयी हैं . और इन सारी बातों की कहीं कोई सुनवाई नहीं हैं . हो सकता है कि मुसलमान इतने दबे कुचले महसूस करने के लिए मजबूर कर दिए गए हों कि वे अब हर तरह के अत्याचार के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत ही न कर पाते हों . गुजरात में पिछले दस साल से दंगे न होने की बात को और भी गलत साबित करने के लिए हजात कैडर के ही आला पुलिस अफसर संजीव भट्ट के हवाले से बताया जा सकता है . .उनका दावा है कि १९९३ के बाद गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ था लेकिन २००२ में इतना बड़ा नरसंहार किया गया. संजीव भट्ट गुजरात २००२ के समर्थकों के एक और दावे की भी धज्जियां उड़ा देते हैं . उनका कहना है कि गुजरात में हमेशा से ही विकास होता रहा है इसलिए नरेंद्र मोदी और उनके साथियों का २००२ के बाद राज्य में बहुत तरक्की होने वाला तर्क भी बेमतलब साबित हो जाता है .
दुनिया भर में माना जाता है कि २००२ का गुजरात का नरसंहार मानवता पर कलंक है. उस कलंक को धोने का तरीका यह नहीं है कि उसे भूल जाया जाए. और अपराधियों को माफ़ कर दिया जाए . उस कलंक को धोने का तरीका यह है कि उस नर संहार के दोषियों को कानूनी तरीके से सज़ा दी जाए और इंसाफ़ की प्रक्रिया में पड़ने वाले रोड़ों को ख़त्म किया जाए. इस देश की सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि गुजरात २००२ के अपराधियों को कानून के दायरे में ज़रूर लाया जाएगा.जहां तक इस देश के आम आदमी का सवाल है वह कभी भी गुजरात २००२ के अपराधियों को सम्मान का जीवन नहीं हासिल करने देगा. गुजरात २००२ के दस साल पूरा होने पर देश में जगह जगह सभ्य समाज के लोग इकट्ठा हुए औरत उन्होंने संकल्प लिया कि यह देश नरसंहार के अपराधियों को कभी माफ़ नहीं करेगा. अहमदाबाद में कई संगठनों के लोगों ने फरवरी के अंतिम हफ्ते में कई आयोजन किये और आने वाली नस्लों को आगाह किया कि कहीं कोई गाफिल न रह जाए और भविष्य में २००२ जैसा नर संहार दुबारा न हो . लखनऊ में शान्ति,सद्भाव और लोकतंत्र की भावना को जिंदा रखने के लिए ज़रूरी साझी विरासत के विषय पर हफ्ते भर का आयोजन किया गया. इंस्टीटयूट फार सोशल डेमोक्रेसी नाम के संगठन ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया . इंस्टीटयूट फार सोशल डेमोक्रेसी के निदेशक खुर्शीद अनवर का कहना है कि गुजरात २००२ केवल एक नरसंहार नहीं था. वह दरअसल फासिस्ट ताक़तों का वह खेल था जिसके तहत उन्होंने हमारी संस्कृति और हमारी साझी विरासत को जोड़ने वाले पुलों को ही तबाह करने की कोशिश की थी. खुर्शीद अनवर का दावा है जो लोग २००२ में गुजरात में आतंक का राज कायम करने में सफल हुए थे वे सिर्फ मुसलमानों को नहीं मार रहे थे . फरवरी मार्च २००२ के उन काली रातों को गुजरात में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच स्थायी खाईं बनाने की साज़िश पर भी काम हुआ था. उस दौर में वहां २६ मंदिर,३६ मदरसे,१८६ मस्जिदें तो जलाई ही गयी थीं, २६८ ऐसे स्थान भी आग के हवाले कर दिए गए थे जो हिन्दू और मुसलमान ,दोनों के ही आस्था के केंद्र थे. इसके अलावा गुजरात की साझा विरासत के महान फ़कीर वली गुजराती की मजार को भी ज़मींदोज़ कर दिया गया था और आज उस जगह के ऊपर से एक सड़क गुजरती है . ज़ाहिर है यह कुछ मुसलमानों को मार डालने और उनके कारोबार को तबाह करने भर की साज़िश नहीं थी, वास्तव में यह उस संस्कृति को ही तबाह करने की साज़िश थे जसकी वजह से इस देश में हर धर्म और वर्ग का आदमी साथ साथ रहता रहा है . इसी कार्यक्रम में शामिल वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज का कहना है कि गुजरात २००२ को भारतीय जनता ने हमेशा हिकारत के नज़र से देखा है . आतंक फैलाने वालों की कोशिश थी कि मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाई जाए लेकिन ऐसा नहीं हो सका . देश की सिनेमा देखने वाली अवाम ने अपनी तरह से उसका जवाब दिया . भारत की फ़िल्में भारत की अवाम की पसंद या नापसंद जानने का सबसे बड़ा बैरोमीटर होती हैं और वहां नज़र डालें तो समझ में आ जाता है कि भारत की जनता ने फिरकापरस्तों को अपना जवाब दे दिया है. आज हिन्दी फिल्मों के सबसे लोकप्रिय हीरो मुसलमान हैं. २००२ के पहले जो फ़िल्में बनती थीं उनमें आम तौर पर जिस पात्र की मुख्य भूमिका होती थी वह पात्र मुसलमान नहीं होता था , वह हमेशा ही सहनायक के रूप में आता था लेकिन २००२ के बाद ऐसी कई हिट फ़िल्में बनी हैं जिसमें हीरो मुसलमान है . २००२ के नर संहार को विषय बनाकर जो फ़िल्में बनायी गयीं वे भी हिट रही हैं . भारतीय अवाम का यह रुख भी फासिस्ट ताक़तों के मुंह पर तमाचा हैं . पाकिस्तान के प्रति नफरत का अभियान चलाने की फासिस्ट ताक़तों की कोशिश भी बेकार गयी है .भारत में पाकिस्तानी फ़िल्मी कलाकार बहुत ही लोकप्रिय हो रहे हैं .पाकिस्तानी कलाकार भारत में अब सम्मान पा रहे हैं . इस हफ्ते पाकिस्तानी फ़िल्मी अभिनेता अली ज़फर के एफिल्म रिलीज़ हि रही है जिसके बहुत ही सफल रहने की संभावना है .

२००२ से सबक लेने और हमारी एकता को मुक़म्मल रखने के उद्देश्य से ४ मार्च को दिल्ली के मावलंकर हाल के मैदान में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया है .जहाँ साझी विरासत की बुनियाद पर हमारी एकता को मज़बूत बनाने की कोशिश जायेगी.इस कारय्क्रम्में बहुत नामी कलाकार और दिल्ली की जनता शामिल हो रही है . ज़ाहिर है यह देश गुजरात नरसंहार के शिकार हुए लोगों को तो वापस नहीं ला सकता लेकिन एक बात पक्की है कि भारत की जनता दुबारा गुजरात के नरसंहार को कहीं भी दोहराए जाने की मौक़ा नहीं देगी