शेष नारायण सिंह
दस साल पहले गुजरात में वली गुजराती की मज़ार पर बुलडोज़र चला दिया गया और उर्दू बोलने वालों को घेर घेर कर मारा गया था . हुआ यह था कि गोधरा में एक ट्रेन में कुछ कारसेवकों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत हो गयी थी. अयोध्या से लौट रहे इन कारसेवकों की बोगी में आग लग गयी थी जिसमें उस डिब्बे में सवार सभी लोग मर गए थे.इस हादसे के बाद गुजरात के बड़े शहरों और कुछ गांवों में मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोगों को लगा था कि उस डिब्बे में सवार लोगों की हत्या में मुसलमानों का हाथ था . उनके सहयोगी संगठनों , विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंगदल वालों ने मुसलमानों से बदला लेने की योजना बनायी . जिसके बाद तो अहमदाबाद, वड़ोदरा, सूरत राजकोट आदि शहरोंमें मुसलमानों को तबाह करने की कोशिश की गयी , उनके घर जलाए गए, उनकी महिलाओं को रेप किया गया और घरों में घेर कर लोगों को जलाया गया. कांग्रेस के एक सांसद एहसान जाफरी को भी उसी दौरान गुलबर्गा सोसाइटी के उनके घर में जलाकर मारा डाला गया था. उसके बाद से ही गोधरा हादसे के बाद हुए नरसंहार में मारे गए लोगों को इंसाफ़ दिलाने की कोशिश चल रही है लेकिन अभी तक कोई ख़ास सफलता नहीं मिली है .
गोधरा हादसे के बाद गुजरात में हुए नरसंहार के दस साल पूरा होने के बाद आज एक बार वे ज़ख्म फिर ताज़ा हो गए हैं .इस बीच नरेंद्र मोदी और उनके साथियों ने कोई मौक़ा भी नहीं दिया कि उन ज़ख्मों पर किसी तरह का मरहम लगाया जा सके. उनकी पार्टी के सभी नेता यही कहते रहे कि २००२ के बाद गुजरात में बहुत विकास हुआ है इसलिए उस नर संहार की बात नहीं की जानी चाहिए . जिसने भी उन भयानक दौर की बात उठायी उसे धमकाया गया और कुछ लोगों को तो फर्जी मुठभेड़ में मार भी दिया गया. अब ताज़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि मीडिया ने गुजरात नरसंहार को ज्यादा तूल दे दिया वरना बात इतनी बड़ी नहीं थी. यह भी तर्क सुनने में आ रहा है कि गुजरात के २००२ नरसंहार के बाद वहां कोई दंगा नहीं हुआ. ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी के साथियों की इच्छा है कि देश और समाज यह मान ले कि गुजरात के विकास के लिए २००२ के नरसंहार का होना बहुत ज़रूरी था. कुछ लोग यह भी तर्क देते पाए जा रहे हैं कि २००२ के बाद नरेंद्र मोदी ने बहुत तरक्की की है इसलिए उनके २००२ वाले अपराध को भूल जाना चाहिए और उन्हें माफ़ कर देना चाहिए .
गुजरात सरकार और उसके मुख्यमंत्री के मीडिया और राजनीति में मौजूद साथियों के इस दावे में कोई दम नहीं है कि गुजरात में २००२ के बाद दंगे नहीं हुए . गुजरात में २००२ के नर संहार के पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने की मुहिम में जुटी मानवाधिकार कार्यकर्ता, शबनम हाशमी का कहना है कि गुजरात में २००२ के बाद कई दंगे हुए हैं . २००५ में बडौदा में दंगा हुआ था, सितम्बर २००७ में सूरत जिले के कोसाड़ी गाँव में जो दंगा हुआ था उसके बाद आस पास के पांच गाँव जला दिए गए थे .सच्चाई यह है कि २००२ के बाद मुसलमान गुजरात में दहशत के साए में ज़िंदगी बसर करने के लिए मजबूर है . इसका नामूना यह है कि डांग जिले के एक गाँव ,नंदनपड़ा में २००९ के आस पास वी एच पी के कुछ लोग गए और उनको धमकाया कि अपना धर्म छोड़कर हिन्दू बन जाओ . अगर ऐसा न हुआ तो मार डाले जाओगे. अहमदाबाद और अन्य बड़े शहरों के पास ऐसे करीब ६ कब्रिस्तान हैं जिन पर क़ब्ज़ा करके सड़कें बना दी गयी हैं . और इन सारी बातों की कहीं कोई सुनवाई नहीं हैं . हो सकता है कि मुसलमान इतने दबे कुचले महसूस करने के लिए मजबूर कर दिए गए हों कि वे अब हर तरह के अत्याचार के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत ही न कर पाते हों . गुजरात में पिछले दस साल से दंगे न होने की बात को और भी गलत साबित करने के लिए हजात कैडर के ही आला पुलिस अफसर संजीव भट्ट के हवाले से बताया जा सकता है . .उनका दावा है कि १९९३ के बाद गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ था लेकिन २००२ में इतना बड़ा नरसंहार किया गया. संजीव भट्ट गुजरात २००२ के समर्थकों के एक और दावे की भी धज्जियां उड़ा देते हैं . उनका कहना है कि गुजरात में हमेशा से ही विकास होता रहा है इसलिए नरेंद्र मोदी और उनके साथियों का २००२ के बाद राज्य में बहुत तरक्की होने वाला तर्क भी बेमतलब साबित हो जाता है .
दुनिया भर में माना जाता है कि २००२ का गुजरात का नरसंहार मानवता पर कलंक है. उस कलंक को धोने का तरीका यह नहीं है कि उसे भूल जाया जाए. और अपराधियों को माफ़ कर दिया जाए . उस कलंक को धोने का तरीका यह है कि उस नर संहार के दोषियों को कानूनी तरीके से सज़ा दी जाए और इंसाफ़ की प्रक्रिया में पड़ने वाले रोड़ों को ख़त्म किया जाए. इस देश की सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि गुजरात २००२ के अपराधियों को कानून के दायरे में ज़रूर लाया जाएगा.जहां तक इस देश के आम आदमी का सवाल है वह कभी भी गुजरात २००२ के अपराधियों को सम्मान का जीवन नहीं हासिल करने देगा. गुजरात २००२ के दस साल पूरा होने पर देश में जगह जगह सभ्य समाज के लोग इकट्ठा हुए औरत उन्होंने संकल्प लिया कि यह देश नरसंहार के अपराधियों को कभी माफ़ नहीं करेगा. अहमदाबाद में कई संगठनों के लोगों ने फरवरी के अंतिम हफ्ते में कई आयोजन किये और आने वाली नस्लों को आगाह किया कि कहीं कोई गाफिल न रह जाए और भविष्य में २००२ जैसा नर संहार दुबारा न हो . लखनऊ में शान्ति,सद्भाव और लोकतंत्र की भावना को जिंदा रखने के लिए ज़रूरी साझी विरासत के विषय पर हफ्ते भर का आयोजन किया गया. इंस्टीटयूट फार सोशल डेमोक्रेसी नाम के संगठन ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया . इंस्टीटयूट फार सोशल डेमोक्रेसी के निदेशक खुर्शीद अनवर का कहना है कि गुजरात २००२ केवल एक नरसंहार नहीं था. वह दरअसल फासिस्ट ताक़तों का वह खेल था जिसके तहत उन्होंने हमारी संस्कृति और हमारी साझी विरासत को जोड़ने वाले पुलों को ही तबाह करने की कोशिश की थी. खुर्शीद अनवर का दावा है जो लोग २००२ में गुजरात में आतंक का राज कायम करने में सफल हुए थे वे सिर्फ मुसलमानों को नहीं मार रहे थे . फरवरी मार्च २००२ के उन काली रातों को गुजरात में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच स्थायी खाईं बनाने की साज़िश पर भी काम हुआ था. उस दौर में वहां २६ मंदिर,३६ मदरसे,१८६ मस्जिदें तो जलाई ही गयी थीं, २६८ ऐसे स्थान भी आग के हवाले कर दिए गए थे जो हिन्दू और मुसलमान ,दोनों के ही आस्था के केंद्र थे. इसके अलावा गुजरात की साझा विरासत के महान फ़कीर वली गुजराती की मजार को भी ज़मींदोज़ कर दिया गया था और आज उस जगह के ऊपर से एक सड़क गुजरती है . ज़ाहिर है यह कुछ मुसलमानों को मार डालने और उनके कारोबार को तबाह करने भर की साज़िश नहीं थी, वास्तव में यह उस संस्कृति को ही तबाह करने की साज़िश थे जसकी वजह से इस देश में हर धर्म और वर्ग का आदमी साथ साथ रहता रहा है . इसी कार्यक्रम में शामिल वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज का कहना है कि गुजरात २००२ को भारतीय जनता ने हमेशा हिकारत के नज़र से देखा है . आतंक फैलाने वालों की कोशिश थी कि मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाई जाए लेकिन ऐसा नहीं हो सका . देश की सिनेमा देखने वाली अवाम ने अपनी तरह से उसका जवाब दिया . भारत की फ़िल्में भारत की अवाम की पसंद या नापसंद जानने का सबसे बड़ा बैरोमीटर होती हैं और वहां नज़र डालें तो समझ में आ जाता है कि भारत की जनता ने फिरकापरस्तों को अपना जवाब दे दिया है. आज हिन्दी फिल्मों के सबसे लोकप्रिय हीरो मुसलमान हैं. २००२ के पहले जो फ़िल्में बनती थीं उनमें आम तौर पर जिस पात्र की मुख्य भूमिका होती थी वह पात्र मुसलमान नहीं होता था , वह हमेशा ही सहनायक के रूप में आता था लेकिन २००२ के बाद ऐसी कई हिट फ़िल्में बनी हैं जिसमें हीरो मुसलमान है . २००२ के नर संहार को विषय बनाकर जो फ़िल्में बनायी गयीं वे भी हिट रही हैं . भारतीय अवाम का यह रुख भी फासिस्ट ताक़तों के मुंह पर तमाचा हैं . पाकिस्तान के प्रति नफरत का अभियान चलाने की फासिस्ट ताक़तों की कोशिश भी बेकार गयी है .भारत में पाकिस्तानी फ़िल्मी कलाकार बहुत ही लोकप्रिय हो रहे हैं .पाकिस्तानी कलाकार भारत में अब सम्मान पा रहे हैं . इस हफ्ते पाकिस्तानी फ़िल्मी अभिनेता अली ज़फर के एफिल्म रिलीज़ हि रही है जिसके बहुत ही सफल रहने की संभावना है .
२००२ से सबक लेने और हमारी एकता को मुक़म्मल रखने के उद्देश्य से ४ मार्च को दिल्ली के मावलंकर हाल के मैदान में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया है .जहाँ साझी विरासत की बुनियाद पर हमारी एकता को मज़बूत बनाने की कोशिश जायेगी.इस कारय्क्रम्में बहुत नामी कलाकार और दिल्ली की जनता शामिल हो रही है . ज़ाहिर है यह देश गुजरात नरसंहार के शिकार हुए लोगों को तो वापस नहीं ला सकता लेकिन एक बात पक्की है कि भारत की जनता दुबारा गुजरात के नरसंहार को कहीं भी दोहराए जाने की मौक़ा नहीं देगी
Saturday, March 3, 2012
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sir sorry, but why are you changing history.those carsavaks were killed by muslims. and during these riots only approx 250 muslims
ReplyDeleteand around 1000 hindus were killed.
Bobby you are utterly misinformed with a communal mind set
ReplyDeleteWhat is the correct information, please narrate mishra ji.
Deleteगोधरा के बारे में हमारे बुद्धिजीवी नहीं लिख पाते. उन्हें वह दुर्घटना ही नजर आती है. अभी एक मौलाना ने गैर मुस्लिमों के सर कलम करने की बात चुनाव के दौरान कही, बुद्धिजीवी चुप रहे, क्यों? हिन्दू लड़ बैठे तो भगवा गुंडा और मुसलमान गडबडी फैलाये तो भावनाओं का भड़क जाना. यही दोहरा रवैया घातक है. हिट फिल्में तो अन्य मुद्दों पर भी हो जाती हैं. कश्मीर में जो कुछ हुआ, उस पर क्यों आवाज नहीं उठाते.
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