Tuesday, March 1, 2011

पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की भारी दखल

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान अब अमरीका के चंगुल में बुरी तरह से फंस गया है और छूटने के लिए छटपटा रहा है.लेकिन पिछले साठ वर्षों से पाकिस्तानी हुकूमत को पाल रही अमरीकी विदेश नीति पाकिस्तान को आसानी से छोड़ने वाली नहीं है . जनरल अयूब खां से लेकर अब तक पाकिस्तान का हर तानाशाह अपने खुद के लिए और अपने देश के लिए अमरीका से खैरात लेता रहा है . ज़ाहिर है अमरीका अपने खरबों डालर को ऐसे ही नहीं डूबने देगा .पाकिस्तानी अवाम में अमरीकी दादागीरी के प्रति बहुत बड़ी नफरत का भाव है लेकिन हुकूमत के लोग चुप रहते हैं . अब लगता है कि हुकूमत को भी अपना रुख साफ़ करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है . पाकिस्तान की राजधानी लाहौर में दो लोगों के क़त्ल के आरोप में पकडे गए अमरीकी नागरिक रेमंड डेवीस की गिरफ्तारी के बाद मामला पब्लिक डोमेन में आया और रोज़ ही बिगड़ता जा रहा है. पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई ने दावा किया है कि रेमंड डेवीस अमरीकी सी आई ए का एजेंट है और उसे ठेकेदारी का कवर देकर पाकिस्तानी सेना की गतिविधियों पर नज़र रखने को कहा गया था . आई एस आई ने मांग की है कि अमरीका अपने उन सभी सी आई ए एजेंटों के बारे में जानकारी दे जिन्हें उसने पाकिस्तान में ठेकेदार के रूप में काम करने के लिए तैनात किया है . पाकिस्तान का आरोप है कि सी आई ए ने बहुत बड़ी संख्या में अपने एजेंटों को पाकिस्तान में तैनात कर रखा है लेकिन उनके बारे में पाकिस्तानी अधिकारियों को कोई जानकारी नहीं है . अमरीका पाकिस्तान की इस बात को मानने को तैयार नहीं है . ताज़ा खबर यह है कि अमरीकी राष्ट्रपति के घर,व्हाईट हाउस से पाकिस्तान सरकार को चेतावनी दे दी गयी है कि रेमंड डेवीस अमरीकी राजनयिक है और उसे वियेना कन्वेंशन के नियमों अनुसार एक राजनयिक का सम्मान मिलना चाहिए .लेकिन पाकिस्तान सरकार के कुछ विभाग अपनी अकड़ में हैं. खबर है कि पेशावर से एक और अमरीकी नागरिक को गिरफ्तार कर लिया गया है . उस पर भी आई एस आई ने आरोप लगाया है कि वह जासूसी कर रहा था. वेस्ट वर्जीनिया का रहने वाले इस व्यक्ति का नाम मार्क देहावेन है लेकिन यह पेशावर में अहमद हारून बन कर रह रहा था .इन सारी घटनाओं का मतलब यह है कि पाकिस्तानी हुकूमत में कुछ ऐसे लोग हैं जो दोनों देशों के बीच के रिश्ते खराब करने पर आमादा है .

पाकिस्तान में और बाकी दुनिया में सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की औकात अमरीका को चुनौती देने की नहीं है लेकिन पाकिस्तान की सरकार को यह रुख इसलिए लेना पड़ रहा है कि रेमंड डेवीस के मामले में पाकिस्तानी अवाम में अमरीका के खिलाफ बहुत गुस्सा है और उस गुस्से को काबू में करने के लिए पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका की अनुमति से अमरीका के खिलाफ सख्त रुख अपनाने का अभिनय कर रहे हैं. रेमंड देसस के मामले में पाकिस्तान में इतनी हडकंप का कारण यह है कि पाकिस्तान में फौज़ के आशीर्वाद से चलने वाले आतंकवाद का सबसे बड़ा सरगना, हाफ़िज़ मुहम्मद सईद खुद रेमंड डेवीस के मसले को तूल दे रहा है. हाफ़िज़ सईद का गुस्सा इसलिए भी सातवें आसमान पर है सी आई ए ने उसी पर नज़र रखने के लिए इस रेमंड डेवीस को तैनात किया था .यहाँ एक बात समझ लेने की है कि अमरीका ने पाकिस्तान की सरकार को यह आज़ादी भी नहीं दी है कि वह पाकिस्तानी अवाम के साथ खडी नज़र आये . अमरीकी फौज, सी आई ए और सिविलियन सरकार को पाकिस्तान में मौजूद अमरीका विरोध के माहौल को ख़त्म करने की पूरी ड्यूटी दी गयी है . जानकार बताते हैं कि अमरीकी विदेश विभाग ने साफ़ कह दिया है कि अगर पाकिस्तानी जनता के गुस्से को शांत करने में हुकूमत नाकाम रहती है तो भविष्य में खर्चा पानी मिलना बंद हो जाएगा . पाकिस्तानी राजनीति का कोई भी जानकार बता देगा कि अगर अमरीकी मदद मिलनी बंद हो जायेगी तो पाकिस्तान में भूखों मरने की नौबत आ जायेगी. अमरीकी राष्ट्रपति की ओर से मिली धमकी और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत को ध्यान में रखते हुए अब पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के लोगों की समझ में आने लगा है कि अमरीका पर एक हद से ज्यादा दबाव नहीं डाला जा सकता .इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तानी का रवैया थोडा लचीला हुआ है . पाकिस्तानी आई एस आई के एक अफसर ने वाशिंगटन पोस्ट के संवाददाता को बताया कि पाकिस्तान चाहता है कि अमरीकी उनके देश में जासूसी तो करें लेकिन उन्हने भी बराबरी की इज़्ज़त दें . गौर करने की बात यह है कि अमरीकी नागरिक, रेमंड डेवीस ने जिन दो पाकिस्तानी नागरिकों को गोली मारी थी वे भी पाकिस्तानी खुफिया तंत्र के कर्मचारी थे और वारदात के वक़्त रेमंड डेवीस का पीछा कर रहे थे. पारंपरिक रूप से आई एस आई और सी आई ए के बीच दोस्ताना रिश्ते रहे हैं . अगर रेमंड डेवीस ने किसी आम पाकिस्तानी नागरिक को मार डाला होता तो शायद पाकिस्तान सरकार को कोई एतराज़ न होता लेकिन आई एस आई के कर्मचारियों की ह्त्या के बाद मामला गरमा गया .. अगर पाकिस्तानी सरकार कोई एक्शन न लेती तो आई एस आई में ही बगावत के खतरे पैदा हो गए थे. बात को हल करने के लिए अमरीकी सेना के सभी विभागों के प्रमुखों की कमेटी के अध्यक्ष एडमिरल माइक मुलेन और पाकिस्तानी सेना के मुखिया जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने पिछले दिनों ओमान में मुलाक़ात की और समस्या का हल तलाशने की कोशिश की .पाकिस्तानी सेना के पूर्व प्रमुख जहांगीर करामत ने बताया कि दोनों ही सैन्य अधिकारियों ने मामले को रफा दफा करने की कोशिश की . सिद्धांत रूप में दोनों ही अफसरों में सहमति हो गयी हैं . अब बस यह देखा जा रहा है कि समझौता करने के लिए आई एस आई और जनरल कयानी अमरीकियों से कितना माल झटक सकते हैं . इसके अलावा डेवीस को रिहा करने के बदले पाकिस्तानी फौज की कोशिश है कि अमरीका की ब्रूकलिन कोर्ट में आई एस आई के पूर्व प्रमुख अहमद शुजा पाशा के खिलाफ दर्ज वह मामला भी ख़त्म हो जाए. अहमद शुजा पाशा के खिलाफ नवम्बर २००८ में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के सिलसिले में मुक़दमा दर्ज है . पाकिस्तानी हुकूमत के लिए रेमंड डेवीस को छोड़ना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों के आदि पुरुष हाफ़िज़ मुहम्मद सईद ने ऐसा माहौल बना दिया है कि पाकिस्तानी अवाम डेवीस को पाकिस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन मानती है . लाहौर की सडकों पर हाफ़िज़ मुहम्म्द सईद के आशीर्वाद से रोज़ ही जुलूस निकाले जा रहे हैं और रेमंड डेवीस को फांसी देने की मांग की जा रही है . हाफ़िज़ सईद पाकिस्तान की फौजी राजनीति में बहुत ही प्रभावशाली व्यक्ति है . . कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि पाकिस्तान और अमरीका के रिश्ते रेमंड डेवीस के चक्कर में ऐसे मुकाम पर पंहुच गए हैं जहां से बिना किसी नुक्सान के फिर से सामान्य रिश्ते कायम होना बहुत ही मुश्किल है

Sunday, February 27, 2011

अलविदा साथी अनिल , बहुत जल्दी क्यों चले गए ?

जाने-माने लेखक और पत्रकार अनिल सिन्हा का निधन हो गया. उन्होंने 25 फरवरी को दिन में 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में अंतिम सांस ली. 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से पटना आ रहे थे उसी दौरान ट्रेन में ब्रेन स्ट्रोक हुआ. उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया. तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार कल उन्होंने अन्तिम सांस ली. उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा.

अनिल सिन्हा का जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ. उन्होंने पटना विश्वविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी की परीक्षा पास की. विश्वविद्यालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पीएचडी बीच में ही छोड़ दिया. उन्होंने बाद में कई तरह के काम किये. प्रूफ रीडिंग, शिक्षण, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये. 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी. आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे. 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया. अमृत प्रभात, लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये.

दैनिक जागरण, रीवां के भी वे स्थानीय संपादक रहे. लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया. अनिल सिन्हा एक जुझारू और प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं. अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं. वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है. उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है.

उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृतिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई. जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है. उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है. वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे. वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे. वे जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के पहले सचिव थे. वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा माले से भी जुड़े थे. इंडियन पीपुल्स फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी. इस राजनीतिक जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था.

कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया. ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया. पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई. पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मूलन’ छपकर आया था. उनकी सैकड़ों रचनाएं पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है. उनका रचना संसार बहुत बड़ा है, उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया. मृत्यु के अन्तिम दिनों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित नागार्जुन व केदार जन्मशती आयोजन के वे मुख्यकर्ता धर्ता थे.

उनके निधन पर शोक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी राय, अशोक भैमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंकर राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं. अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे. इनकी आलोचना में सर्जनात्मकता और शालीनता दिखती है. ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सृर्जनात्मकता हो. इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है.

Friday, February 25, 2011

रेल बजट में २ जी जैसे घोटाले की पदचाप सुनायी पड़ रही है

शेष नारायण सिंह

रेलमंत्री ममता बनर्जी ने यू पी ए -२ का तीसरा रेल बजट पेश कर दिया . जैसा कि आमतौर पर होता है तरह तरह के वायदे किये गए . यह बताया गया कि कि पिछले साल जो कुछ भी कहा था सब पूरा कर दिखाया है और आगे के लिए भी बहुत सारे वायदे किये गए और बजट भाषण पूरा हो गया .सबने देखा कि रेल मंत्री ने कोई किराया नहीं बढ़ाया , माल भाड़े में किसी तरह की वृद्धि नहीं की और हर इलाके के लिए खुशनुमा योजनाओं का ऐलान कर दिया . जानने वाले जानते हैं कि रेल भाषण में जिन नई लाइनों के ऐलान किये जाते हैं उनका कोई मतलब नहीं होता . रेलवे बोर्ड अपनी तरह से सारे काम करता रहता है और जनता इंतज़ार करती रहती है . पश्चिम बंगाल में विधान सभा के चुनाव होने हैं . लोगों को अनुमान था कि ममता बनर्जी उन चुनावों को ध्यान में रख कर ही रेल बजट बनायेगी . उन्होंने किया भी . जितनी भी स्कीमें घोषित कीं सब में बंगाल का नाम ज़रूर डाला . कुल मिलाकर बंगाल के लिए इतनी स्कीमें दे दीं कि लगता है कि रेल बजट बंगाल के लिए ही बनाया गया है . रेल मंत्री ने कलकाता मेट्रो के हवाले से बहुत सारी योजनायें शुरू करने का ऐलान किया. जादवपुर ,दानकुनी, सियालदाह, आदि ऐसे नाम बजट में आते रहे कि बंगाल का भूगोल और चुनाव क्षेत्रों को समझने वाले समझ गए कि बंगाल के हर इलाके में कोई न कोई स्कीम पंहुच रही है .
बजट भाषण में रेलमंत्री ने कुछ ऐसी योजनाओं के ज़िक्र भी किया जिनका दूरगामी परिणाम होगा . मसलन जम्मू-कश्मीर में रेल से सम्बंधित उद्योग लागाने की बात करके उन्होंने निश्चित रूप से एक नई शुरुआत की है .. राजनीतिक पार्टियों ने ममता बनर्जी के रेल बजट के आलोचना शुरू कर दी है. उंनका कहना है कि यह बजट कोई ख़ास नहीं है . विपक्षी दलों का काम है सरकारी पक्ष की आलोचना करना ,सो वे अपना काम कर रहे हैं . लेकिन ममता के बजट में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिनका चारों तरह स्वागत किया जाएगा .रेल में काम करने वाले मेहनतकश वर्गों के लोगों को ममता ने बहुत ही मानवीय सन्देश दिया है . खलासी आदि ऐसे वर्ग हैं जो पचास साल की उम्र होने के बाद मेहनत नहीं कर पाते . उनको अपनी जगह पर अपने बच्चों को लगाने का विकल्प देकर ममता ने बहुत ही मानवीय कार्य किया है . इसी तरह से रेल कर्मचारियों के बच्चों को मिलने वाली छात्रवृत्ति में सुधार की बात करके भी उन्होंने कल्याणकारी राज्य के मंत्री का कर्त्तव्य निभाया है . सारी अच्छी बातों के बीच रेल मंत्री ने बहुत ही मासूमियत से एक और योजना को बजट में डाल दिया है जो प्रकट रूप से तो बहुत ही साधारण और तरक्कीपसंद ख्याल है लेकिन ऐसा है नहीं . ममता बनर्जी ने ऐलान किया कि निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ मिलकर रेल विभाग बहुत सारे काम करने की योजना बना रहा है . उन्होंने यह भी बताया कि पचासी ऐसी योजनाओं को वे मंजूरी भी दे चुकी हैं . लेकिन इसके बाद जो उन्होंने कहा उसका देश की रेल सम्पदा पर बहुत ही उलटा असर पड़ने वाला है . उन्होंने कहा कि यह तय किया गया है कि सरकार और निजी क्षेत्र की पार्टनरशिप को मंजूरी देने के लिए सिंगिल विंडो स्कीम लागू की जायेगी. याने कोई भी पूंजीपति रेल विभाग के किसी प्रोजेक्ट को चुनेगा और उसको पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप योजना में लाकर विचार करेगा, योजना बनाएगा और सिंगिल विंडो पर मंजूरी देने वाले अफसर या मंत्री के पास पंहुच जाएगा . इसके बाद जो होगा उसका अंदाज़ अभी लोगों को नहीं है. यहाँ एक अन्य सरकारी विभाग के हवाले से बात को समझा जा सकता है . टेलीफोन विभाग भी पहले रेल की तरह का सरकारी उद्यम था . एक संचारमंत्री आये प्रमोद महाजन. उन्होंने सरकारी कंपनियों को बेचने की नीति का पालन करने का मंसूबा बनाया . और संचार विभाग में भी सिंगिल विंडो की योजना लगा दी . उसके बाद क्या हुआ,यह दुनिया जानती है . दूर संचार विभाग का २ जी घोटाला उसी सिंगिल विंडो की योजना का नतीजा है . यानी सरकार ने २ जी टाइप घोटाले की बुनियाद रख दी है . प्रमोद महाजन या ए राजा की तरह का अगर कोई रेल मंत्री आया तो घोटाले का रास्ता साफ़ हो चुका है . अभी रेल बजट पर बहस होनी है. संसद सदस्यों को चाहिए कि इस पहलू पर भी गौर कर ले और रेल मंत्री को इस खामी से अवगत करा दें . उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस खतरनाक संभावना को भांप लेगीं और रेल विभाग को भी संचार विभाग के रास्ते जाने से बचा लेगीं.

Thursday, February 24, 2011

पूंजी की चाकर राजनीति और गरीब की दुश्मन सरकार

शेष नारायण सिंह

अभी मिस्र जैसी बात तो नहीं है लेकिन अब भारत की जनता भी शासक वर्गों की मनमानी के खिलाफ लामबंद होने लगी है . जहां तक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों की बात है उनकी विश्वसनीयता तो बहुत कम है लेकिन अगर कोई भी आदमी या संगठन सरकार की तरफ से प्रायोजित महंगाई के खिलाफ नारा देता है तो जनता मैदान लेने में कोई संकोच नहीं करती . अभी कुछ हफ्ते पहले बाबा रामदेव और उनकी तरह के कुछ संदिग्ध लोगों ने महंगाई के खिलाफ एकजुटता का नारा दिया तो देश के हर शहर में लोग जमा हो गए और सरकार के साथ साथ सभी राजनीतिक पार्टियों की निंदा की . आम आदमी के दिमाग में राजनीतिक बिरादरी के लिए जो तिरस्कार का भाव है ,वह लोकशाही के लिए ठीक नहीं है. ज़ाहिर है कि राजनीतिक बिरादरी को अपनी छवि को दुरुस्त करने के लिए फौरान काम करना चाहिए वरना अगर अरब देशों की तरह जनता सडकों पर आ गयी तो आज की राजनीतिक जमातों में से कोई भी नहीं बचेगा. डर केवल यह है कि मौजूदा राजनीतिक जमातों के खिलाफ होने वाले किसी आन्दोलन की बाग़डोर उन लोगों के हाथ भी जा सकती है जिनके ऊपर क्रिमिनल गवर्नेंस का नुमाइंदा होने के आरोप लगते रहते हैं . बहरहाल दिल्ली में संसद के बजट सत्र के पहले दिन नेता लोग तो संसद में हंगामा हंगामा खेल रहे थे लेकिन उनकी मालिक जनता का एक हिस्सा दिल्ली की सडकों पर था . बजट के पहले गरीब आदमी ने दिल्ली के दरबार पर दस्तक दी और नेताओं को आगाह किया कि बजट में इस बार भी अगर हर बजट की तरह पूंजीपतियों के हित की साधना ही की गयी तो बात बिगड़ सकती है . यह बात भी लगभग तय है कि दिल्ली के हुक्मरान इस तरह की बातों को गंभीरता से नहीं लेते . वे इसे अपनी शान्ति में एक दिनी खलल की तरह ही देखते हैं लेकिन यह भी सच है कि लीबिया का कर्नल गद्दाफी या मिस्र के होस्नी मुबारक को भी तो नहीं अंदाज़ था कि बात कहाँ तह पंहुच चुकी थी. दिल्ली में जनता ने आकर गूंगी बहरी सरकार को चेतावनी दी कि मुगालते से बाहर आओ और खाने की चीज़ों की बढ़ती कीमतों को कंट्रोल करो . इस बीच दिल्ली दरबार में सक्रिय राजनीतिक नेता और अर्थशास्त्र की पूंजीवादी व्याख्या के आचार्य लोग यह बताने से नहीं चूक रहे हैं कि भारत की अर्थ व्यवस्था बहुत मज़बूत हो रही है और पूंजीवादी हितों के पोषक अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि सन २०५० तक भारत इतना मज़बूत हो जाएगा कि चीन और अमरीका को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. पूरी दुनिया में फैले पूंजीवाद के हरकारे बैंकों में से एक बैंक की ताज़ा रिपोर्ट में यह ज्ञान बताया गया है .


लेकिन दिल्ली में महंगाई का विरोध करने आई जनता को इन बातों से कोई मतलब नहीं है. उसने साफ़ कह दिया कि कीमतें तुरंत कम करो , २०५० में जो होगा उसे किसने देखा है . पूंजीवादी व्यवस्था के पोषक अर्थशास्त्रियों ने पिछले २० साल से भारत के सरकारी कामकाज को काबू में ले रखा है . उन अर्थशास्त्रियों का उद्देश्य पूंजीवादी हितों की रक्षा करना है और वे इन्हीं पूंजीवादियों के चाकर के रूप में ऐसी योजनायें बनाते रहते हैं जिससे पूंजी की सुप्रीमेसी बनी रहे. अर्थशास्त्रियों के इस ग्रुप के मुखिया प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ही हैं . जिस तरह का अर्थशास्त्र उन्होंने पढ़ा है और पढ़ाया है उसका उद्देश्य ही आम आदमी के हितों की मुखालिफत करना होता है . उस व्यवस्था में गरीब आदमी आर्थिक विकास का कच्चा माल होता है . इसका भावार्थ यह हुआ कि पूंजीवादी अर्थशास्त्र में आम आदमी की भलाई की कोई योजना नहीं होती. उसे तो बस जिंदा रहना होता है और पूंजीवादी विकास में अपने श्रम से योगदान करना होता है . इस अर्थशास्त्र में गरीब आदमी के जन्म का मकसद ही यही होता है कि वह पूंजी को कंट्रोल करने वालों की जीवनशैली को बनाए रखने में अपना योगदान करे. डॉ मनमोहन सिंह की निजी जीवन में ईमानदारी और बेदाग़ छवि को समझने के लिए उनकी अर्थशास्त्र की समझ पर नज़र डालना ज़रूरी है . बुनियादी सवाल यह है कि जिस तरह का अर्थशास्त्र उन्होंने पढ़ा है उसका उद्देश्य ही गरीब आदमी का हित साधन नहीं है . उस व्यवस्था में मजदूर की मेहनत से जो सरप्लस पैदा होता है उसे पूंजीपति वर्ग अपनी आमदनी मानते हैं . यानी मजदूर वर्ग को हमेशा ही मजदूर बने रहने के लिए अभिशप्त रहना पड़ता है .उसकी जंजीरें कभी नहीं कट सकतीं . इस व्यवस्था में मिडिल क्लास की भूमिका भी बहुत ज्यादा होती है .वह पूंजीवादी सरकार के विकास के सेवक के रूप में अपनी कुशलता को समर्पित करता है . उसे मजदूर वर्ग से बेहतर मजूरी मिलती है लेकिन वह एक दूसरे स्तर पर भी पूंजीपति वर्ग की सेवा करता है . वह पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में एक ग्राहक की भूमिका भी निभाता है . यानी जो कुछ भी उसे मजूरी के रूप में मिलता है उसे वह फालतू चीज़ों के उपभोक्ता के रूप में खरीदता है और पूंजी के सर्किल को पूरा करता है .वह शोषण के मज़बूत तंत्र के एक हिस्से के रूप में शोषण के निजाम को चलाने में मदद भी करता है और उसका शिकार भी होता है .


प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह की ईमानदारी को इसी संदर्भ में संझने की ज़रुरत है . वे बहुत ईमानदार है लेकिन वे जिस राजनीतिक दर्शन में विश्ववास करते हैं और जिसके प्रतिनधि हैं वह दर्शनशास्त्र ही गरीब विरोधी है और पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थक है . ऐसी हालत में निजी जीवन में उनकी ईमानदारी गरीब आदमी के शोषण को और पुख्ता करती है . इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि आम आदमी की पक्षधरता वाली राजनीतिक सोच पर आधारित व्यवस्था की बात की जाए .मौजूदा राजनीतिक सोच पर बनने वाली हर सरकार गरीब विरोधी होगी उसका नेतृत्व कांग्रेस करे या बीजेपी . गरीबी बेरोजगारी और महंगाई से बचने का एक ही रास्ता है कि देश की जनता इस पूंजीवादी सोच की बुनियाद वाली सारकार को ही हटा दे और एक ऐसी सरकार बनाये जो सही मायनों में आम आदमी की बात करे. जहां तक मौजूदा सरकार की बात है इसकी तो डिजाइन में ही लिखा है कि वह आम आदमी के शोषण का निजाम कायम करेगी. उस सरकार का प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव , एच डी देवेगौडा, इन्दर गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी या मनमोहन सिंह कोई भी हो सकता है . खुद मनमोहन सिंह ने कहा है कि भारत के विकास के लिए महंगाई एक गंभीर ख़तरा है लेकिन वे इसे कम करने के लिए कर कुछ नहीं रहे हैं . एक साल में सात बार ब्याज दर बढ़ाई गयी है जबकि महंगाई की दर आठ प्रतिशत के नीचे कभी आई ही नहीं . पूंजीवादी आंकड़ों की मानें तो वह भी यही कह रहे हैं कि पिछले छः वर्षों में खाने की चीज़ों की कीमतें अस्सी प्रतिशत बढ़ गयी हैं .ऐसी हालत में उम्मीद है कि सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस सरकार अगला बजट थोडा नरम ज़रूर करेगी लेकिन उसका उद्देश्य आम आदमी की भलाई नहीं होगी बल्कि जनता का ध्यान मुसीबतों से हटाना होगा .

Wednesday, February 23, 2011

बाबा रामदेव की हिचकोले खाती नैया

शेष नारायण सिंह

जब कांग्रेस ने योग गुरु बाबा रामदेव से पूछा कि उनके पास इतना काला धन कहाँ से आया तो बाबा के समर्थक कांग्रेस के बहुत खिलाफ हो गए. लेकिन इस से कांग्रेसी रण नीतिकार बिलकुल भी चिंतिंत नहीं है . उनका विश्वास है कि रामदेव के भक्त लोग वैसे भी बीजेपी के साथ हे पाये जाते हैं .. अभी तीन दिन पहले बाबा ने कहा था कहा था कि उनके पास कोई काला धन नहीं है.. लेकिन अब सवाल उठ रहा है कि कि एक हज़ार करोड़ रूपये से ज्यादा की जो संपत्ति बाबा के पास है वह कहाँ से आई. अब बाबा खामोश हो गए हैं . लगता है कि उन्हें सरकार की ताक़त से कुछ डर लगने लगा है .

पिछले दिनों बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ अभियान चलाया था . देशके कुछ और नामी लोगों के साथ मिलकर उन्होंने बीजेपी की राजनीति की तरफ देश को मोड़ने की कोशिश भी की थी लेकिन कांग्रेस ने सब गुड गोबर कर दिया .. पता चला है कि सर्वोच्च स्तर पर कांग्रेस ने तय कर लिया है कि बीजेपी की रामदेव रण नीति को फेल करना ज़रूरी है .जब आम तौर्र पर उलटे सीधे बयान देने के लिए विख्यात कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने बाबा की आमदनी के श्रोतों पर सवाल उठाया तो उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन कई दिन हो चले हैं और कांग्रेस के किसी नेता ने दिग्विजय के बयानों का खंडन नहीं किया है . इस से लगता है कि रामदेव को एक्सपोज़ करने की रणनीति कांग्रेस ने राजनीतिक तौर पर लिया है . शायद इसीलिये पहले तीन दिन तक किसी भी जांच का सामना करने की शेखी बघारने के बाद बाबा बेचारे को औकात बोध हो गया है . शुरू में तो उन्हें उम्मीद थी कि जब उनके ऊपर राजनीतिक हमला होगा तो बीजेपी वाले संभाल लेगें लेकिन जब उन्हें बीजेपी की तरफ से कोई उत्साह वर्धक संकेत नहीं मिले तो वे घबडा गए हैं . और अब किसी तरह का बडबोला बयान नहीं दे रहे हैं . कांग्रेस ने कहा है कि "सरकार काले धन को लेकर गंभीर है और केंद्रीय वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री इस मामले में कार्रवाई कर रहे हैं। बाबा रामदेव केवल कांग्रेस पर ही ध्यान लगाए हुए हैं। दूसरे दलों पर उनका ध्यान नहीं है। उन्हें विभिन्न स्रोतों से प्राप्त होने वाली दान-दक्षिणा को सत्यापित करना चाहिए।"
जब सरकार की तरफ से इतना साफ़ बयान आ जाये तो कोई भी पूंजीपति घबडा जाएगा . बाबा तो बेचारे पिछले १० साल से पैसा देख रहे हैं . घाघ पूंजीपतियों वाले हथकंडे उन्हें नहीं आते . नतीजा यह हुआ कि अब वकीलों से राय सलाह कर रहे हैं और किसी तरह से जान बचाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं . जहां तक बाबा की संपत्ति का सवाल है ,उसके बारे में साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि वे दुनिया के सबसे संपन्न बाबाओं में से एक हैं .एक नज़र उनकी संपत्ति पर डाल लेना ठीक होगा. बाबा की संपत्ति के अंतर्गत पतंजलि योगपीठ, स्कॉटलैंड में रिट्रीट लैंड, धार्मिक टीवी चैनल में ट्रस्ट की हिस्सेदारी, दिव्य योग मंदिर, दिव्य फॉर्मेसी, कृपालु बाग, दिव्य योग आश्रम, पतंजलि योग विश्वविद्यालय, पतंजलि हर्बल, हर्बल वाटिका व आयुर्वेदिक चिकित्सा और अनुसंधान संस्थान हैं। बाबा रामदेव के मुताबिक उनकी इस संपत्ति की कीमत एक हजार करोड़ रुपए के करीब है।

हाल ही में बाबा रामदेव ने टेलीविजन चैनलों को विशेष इंटरव्‍यू में दावा किया था कि उनके पास कई राजनेताओं के खिलाफ पुख्‍ता सबूत हैं। उनके पास नेताओं के खिलाफ किए गए स्टिंग ऑपरेशन के वीडियो हैं। आवाज़ की रिकॉर्डिंग हैं और ऐसे बहुत सारे सबूत हैं, जो भ्रष्‍ट नेताओं की पोल खोल सकते हैं। बाबा ने तब यह भी कहा था कि वो जल्‍द ही एक-एक कर खुलासे करेंगे। जहां तक देश की जनता का सवाल है उसे बाबा रामदेव के पिटारे के खुलने का इंतजार रहेगा लेकिन बाबा के ताज़ा रुख से लगता है कि वे औकात से ज्यादा बडबोलापन कर गए हैं और सत्ता का रथ उनको कुचल देने के लिए चल पड़ा है . ऐसी हालत में बीजेपी भी उनके साथ नहीं खडी होगी क्योंकि उसे पता नहीं है कि बाबा के आने से फायदा कितना होगा लेकिन अगर एक विवादित बाबा के साथ खड़े पाए गए तो नुकसान बहुत ज्यादा होगा .

Monday, February 21, 2011

दादासाहेब फाल्के के उद्यम का दस्तावेज़ है मराठी फिल्म हरिशचंद्राची फैक्टरी

शेष नारायण सिंह

टेलिविज़न पर मराठी फिल्म "हरिशचंद्राची फैक्टरी " देखने का मौक़ा मिला. एक बहुत ही अज़ीज़ दोस्त ने कहा कि मराठी भाषा न जानने की वजह से फिल्म को देखने में कोई दिक्क़त नहीं आयेगी . इस फिल्म के बारे में इतना पता था कि आस्कर पुरस्कारों के लिए गयी थी लेकिन पुरस्कार मिला नहीं . फिल्म देख कर समझ में आया कि आस्कर पुरस्कार देने वाले गलती कैसे करते हैं .यह फिल्म भारतीय सिनेमा के आदिपुरुष दादा साहेब फाल्के की पहली फिल्म हरिश्चंद्र तारामती के निर्माण के बारे में है . दादासाहेब फाल्के ने इस देश में सिनेमा की बुनियाद डालने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था . उनके उद्यम को विषय बनाकर बनायी गयी यह फिल्म बेहतरीन है और पहली बार फिल्म निर्देशन का काम कर रहे परेश मोकाशी की लीक से हट कर चलने की हिम्मत भी लाजवाब है . फिल्म एक वृत्तचित्र है लेकिन डाकुमेंटरी की तरह बनायी गयी है. दादासाहेब फाल्के के दृढ़निश्चय को फिल्म की भाषा में पेश करने की कोशिश में फिल्मकार ने एक ऐसी फिल्म बनाने में सफलता हासिल कर ली है जो गैर मराठी भाषी को भी मन्त्रमुग्ध करने की क्षमता रखती है .. दादासाहेब फाल्के की शुरुआती ज़िंदगी और खतरों से खेलने की क्षमता को बहुत ही अच्छी तरह से प्रस्तुत किया गया है . मुंबई में प्रिंटिंग प्रेस की नौकरी छोड़कर जब फाल्के ने जादू दिखाने का काम शुरू किया तो जिस ऊहापोह से गुज़रे वह बहुत ही अच्छी तरह से फिल्म के व्याकरण में क़ैद कर लिया गया है. जादू दिखाने के काम के दौरान उन्होंने चलती फिरती तस्वीरें देखीं. अभिभूत हो गए. तब तक फिल्मों के बारे में कुछ नहीं जानते थे लेकिन पढ़ लिख कर पता लगाया कि लन्दन में उस तरह की फ़िल्में बनती थीं . खर्च पानी का इंतज़ाम करके लन्दन गए और वहां देखा कि छोटी छोटी फिल्म बनती थीं , कलाकार कुछ बोलते नहीं थे लेकिन मनोरंजन ख़ासा होता था .लन्दन में ही उन्होंने हज़रत ईसा मसीह के जीवन पर बनी एक फिल्म देखी जिसमें एक कहानी थी . बस उन्होंने फैसला कर लिया कि लौट कर महापुरुषों के जीवन पर आधारित फ़िल्में बनायेगें . लन्दन से स्वदेश लौटने के पहले कैमरा खरीदने का आर्डर दे दिया और यहाँ आकर अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र के जीवन पर फिल्म बनाने का मन बनाया . दादा साहेब फाल्के की भूमिका इस फिल्म में नंदू माधव ने निभाई है जब कि फाल्के की पत्नी सरस्वती की भूमिका मराठी थियेटर की सफल अभिनेत्री, विभावरी देशपांडे ने की है . दोनों ही कलाकारों का अभिनय बेहतरीन है .

'हरिशचंद्राची फैक्टरी' फिल्म की कहानी १९११ में शुरू होती है जब फाल्के ने कुछ नया कर गुजरने का मन बनाया . १९१३ में हरिश्चंद्र तारामती प्रदर्शित होने और उसके बाद के फाल्के के हौसले को जिस तरह से फिल्माया गया है वह लाजवाब है . फिल्म में ह्यूमर है लेकिन फिल्म बहुत ही गंभीर है . ह्यूमर की शास्त्रीय परिभाषा में बताया गया था कि अपने आप पर हंसने की क्षमता ही ह्यूमर होता है . ज़ाहिर है अपने आप पर हंस पाना कमज़ोर इंसान का गुण नहीं होता , उसके लिए अन्दर की बहुत मजबूती चाहिए. पूरी फिल्म में ऐसी बहुत सारी सिचुएशंस हैं जब मुख्य कलाकार नंदू माधव दादासाहेब की ज़िंदगी के बहुत मुश्किल लम्हों को ह्यूमर में बदल देते हैं . इससे फाल्के के चरित्र की ऐतिहासिक मजबूती और नंदू माधव की अभिनय क्षमता दोनों का डंका बज जाता है . जब अपने घर को छोड़कर फिल्म बनाने की अपनी योजना को कार्यरूप देने के लिए फाल्के अपने बच्चों और पत्नी के साथ चल पड़ते हैं तो उनकी मंजिल दादर है . उन्हें पता चला था कि दादर में फिल्म का काम करने के लिए सस्ते दामों पर ज्यादा जगह मिल आयेगी. दादर उन दिनों शहर से बहुत दूर था . उनकी पड़ोसी एक महिला अपने पति से पूछती है कि सुना है कि दादर में तो जंगल हैं . जवाब में बहुत सारी सूचना एक वाक्य में भर दी गयी है . बुढऊ कहते हैं कि फाल्के जैसे जंगली के लिए वह सही जगह है . अभिनेताओं के लिए दिया गया विज्ञापन और उसके जवाब में आने वाले लोगों का जो हिस्सा है वह भी फाल्के की उस योग्यता की सनद है कि वे विपरीत हालात में किस तरह से लक्ष्य को नहीं भूलते. तारामती के रोल के लिए महिला कलाकार की उनकी तलाश के जो शाट हैं वह बहुत ही अच्छी तरह से प्रस्तुत किये गए हैं . किसी महिला को सिनेमा में काम करने के लिए तैयार कर पाना उन दिनों असंभव था . लेकिन फाल्के ने आसानी से हार नहीं मानी . तवायफों के कोठों पर भी गए लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी.आखिर में लड़कों को ही स्त्रियों के रोल में इस्तेमाल किया. जिस लड़के को तारामती को रोल दिया ,उसका मूंछ सहित तारामती का रोल करने का आग्रह और उसको उसके बाप की मौजूदगी में मूंछ साफ़ कराने के लिए राजी कर पाना बहुत ही कठिन काम था लेकिन उसे फाल्के ने हासिल किया और नंदू माधव ने उस सीन में जान डाल दी. उसके पहले अपनी पत्नी को तारामती की भूमिका देने की जो कोशिश है वह विभावरी देशपांडे और नंदू माधव को वहां स्थापित कर देती है जहां अभिनय की काबिलियत के लिहाज़ से हिन्दी फिल्मों का कोई भी मौजूदा स्टार नहीं पंहुच पाया है .

फाल्के की फिल्म लन्दन में दिखाई गयी और वहां के फिल्म उद्योग के नेताओं ने उन्हें आमंत्रित किया कि लन्दन में ही रहकर फिल्म बनाइये लेकिन उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि अगर वे ज्यादा पैसे के लालच में लन्दन में फिल्म बनायेगें तो भारत में फिल्म उद्योग की स्थापना ही नहीं हो पायेगी . बाद में जब नंदू माधव और विभावरी देशपांडे मुंबई की सडकों पर चार आने में फाल्के नाम के खिलौने बिकते देखते हैं तो उनकी समझ में आ जाता है कि भारतीय सिनेमा के आदिपुरुष ने अपना काम कर दिखाया है . फिल्म में कोई भी नाच गाना नहीं है लेकिन आनंद मोदक का संगीत बहुत ही अच्छा है . पूरी फिल्म में लगता है कि आप १९१० के मुंबई में ही घूम रहे हैं . उसके लिए कला निदेशक नितिन चंद्रकांत देसाई और संगीतकार आनंद मोदक की तारीफ़ की जानी चाहिए .सिनेमा के इतिहास पर एक ऐतिहासिक फिल्म बहुत ही अच्छी बन गयी है . इस तरह की फ़िल्में बनाने का सौदा बहुत ही रिस्की होता है . श्याम बंगाल जैसा फिल्मकार भूमिका बनाकर इस सच्चाई को रेखांकित कर चुका है लेकिन फिर भी आशा की जानी चाहिए कि हिन्दी में भी इस तरह की फ़िल्में बनाने की दुबारा कोशिश की जायेगी .

बौखलाए सीएम निशंक ने पत्रकार उमेश कुमार के घर धावा बोलने के आदेश दिए

Sunday, 20 February 2011 21:36 B4M भड़ास4मीडिया - हलचल


: उत्तराखंड पुलिस ने उमेश कुमार के नोएडा स्थित घर को घेरा : गिरफ्तारी कर अपमानित करते हुए उत्तराखंड ले जाने पर तुली : एनएनआई और भड़ास4मीडिया पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के महाघोटाले के बारे में खबर छपने के कुछ ही देर बाद निशंक का माथा घूम गया और उन्होंने उमेश कुमार के खिलाफ बर्बर कार्रवाई शुरू करा दी है. अभी तक पत्रकार उमेश कुमार के घर और मकान को निशाना बनाए मुख्यमंत्री निशंक ने अब सीधे उमेश और उनके परिजनों को शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने का इरादा कर लिया है.

इसी इरादे के तहत निशंक ने उत्तराखंड की पुलिस फोर्स को उमेश और उनके बच्चे व पत्नी को गिरफ्तार करने के लिए आदेशित कर दिया है. ऐसी अपुष्ट जानकारी सूत्रों के हवाले से मिली है. उमेश ने उत्तराखंड राज्य में अपने उपर उत्पीड़न होते देख खुद को और अपने परिजनों को नोएडा बुला लिया था लेकिन निशंक सरकार की पुलिस उमेश का लोकेशन ट्रेस करते हुए नोएडा तक पहुंच गई है. ताजी सूचना के अनुसार उमेश कुमार, उनकी पत्नी और इकलौता बच्चा नोएडा के जिस फ्लैट में आज रहने के लिए आए, उसी फ्लैट को उत्तराखंड पुलिस ने घेर लिया है. यह घेराबंदी पिछले कई घंटों से चल रही है. पुलिस हर हाल में उमेश और उनके परिजनों को अपमानित करते हुए देहरादून ले जाने पर तुली हुई है जबकि उमेश और उनके परिजन गिरफ्तारी के पीछे वजह जानने की बात कह रहे हैं.

सूत्रों के मुताबिक पुलिस का कहना है कि जो समाचार एजेंसी उमेश कुमार चलाते हैं, एनएनआई नाम से, उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज है और कई अन्य मुकदमे उमेश की तरफ से लिखाए गए हैं, उसी के तहत उत्तराखंड पुलिस उनकी गिरफ्तारी करना चाहती है. फिलहाल पूरी स्थिति स्पष्ट नहीं हो पा रही है. पुलिस उमेश कुमार को गिरफ्तार करने का प्रयास कर रही है. नोएडा और दिल्ली के पत्रकार उत्तराखंड पुलिस द्वारा उमेश के घर को घेरे जाने की सूचना मिलते ही उमेश कुमार की घर की तरफ पहुंच रहे हैं. कुछ न्यूज चैनलों की ओवी वैन भी उमेश की घर की ओर पहुंच रही है. कई पत्रकार संगठनों और पत्रकारों ने निशंक सरकार की दमनकारी नीति की निंदा की है. साथ ही यह भी कहा है कि अगर कोई पत्रकार घोटाले का पर्दाफाश करता है तो उसका सत्ता द्वारा दमन करना न सिर्फ निंदनीय है बल्कि उस मामले में घोर अपराध है जब सत्ता के शीर्ष पर एक पत्रकार से नेता बना शख्स बैठा हो.

इस घटनाक्रम पर भड़ास4मीडिया के संपादक यशवंत सिंह ने कहा है कि अगर उत्तराखंड की निशंक सरकार किसी पत्रकार द्वारा घोटाले को उजागर करने पर उसे चुप कराने पर तुली हुई है तो इस देश के आनलाइन माध्यम से जुड़े सारे लोग, खासकर मीडियाकर्मी फेसबुक, ब्लाग सहित सभी प्लेटफार्मों पर निशंक सरकार की निंदा करेंगे और जरूरत पड़ी तो दिल्ली और देहरादून में काला दिवस मनाएंगे और गिरफ्तारी भी देंगे. यशवंत ने स्थिति की पूरी जानकारी मिलने के बाद अपनी रणनीति का खुलासा करने की बात कही है.

अगर आप लोग इस खबर को पढ़ रहें हों तो आप सभी से अनुरोध है कि निशंक सरकार के इस काले कारनामें की निंदा करें और देहरादून से लेकर दिल्ली, रायपुर, पटना, भोपाल आदि सभी छोटे बड़े शहरों में यथासंभव जो भी कर सकते हों, आनलाइन माध्यम के जरिए या आफलाइन माध्यम से, अपनी बात कहें और अपने अपने हिसाब से विरोध प्रदर्शित करें. कई प्रेस क्लब और प्रेस संगठन भी इस घटना की निंदा करने की तैयारी कर रहे हैं. पूरी दुनिया में भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे अभियान को अब भारत में भी आगे बढ़ाने की जरूरत है और जिस तरह उमेश कुमार ने पहल की है, उस पहल को आगे बढ़ाने का कार्य हम सभी लोगों को करना चाहिेए.

Comments (7)
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written by dobhal, February 21, 2011
अच्छा तो ये वही राजेंद्र जोशी कमेंट कर रहा है उमेश के खिलाफ जो कई वर्षों से उन्हीं उमेश की न्यूज एजेंसी में उनके तलवे चाट कर काम कर रहा था.... तब उमेश से पगार पाते हुए उमेश की जय जयकार करता था और आजकल निशंक से वित्तपोषित होकर उमेश के खिलाफ राग अलाप रहा है. जिस आदमी ने खुद नेताओं के तलवे चाटकर अपनी जीविका चलाई हो वो क्या दूसरों के बारे में बात करेगा. उमेश अगर इतने धन संपत्ति का मालिक है तो भी वो अपने धन संपत्ति की परवाह न कर पत्रकारिता की अलख जगाए है और एक भ्रष्टाचारी सत्ताधारी के खिलाफ कलम की ताकत दिखा रहा है. राजेंद्र जोशी, वो तुमसे तो लाख गुना अच्छा है जो कलम को गिरवी रखे हुए है. तुम जैसे दलालों के कारण ही आज उत्तराखंड में मीडिया की ये हालत है कि कोई सत्ता के खिलाफ लिखने बोलने का साहस नहीं करता. उमेश के निजी जीवन के बारे में मैं नहीं जानता लेकिन वो जिस तरह का साहसिक काम कर रहे हैं, उससे उनके प्रति समर्थन का भाव ही पैदा होगा, विरोध कतई नहीं. हां, इसी बहाने तुम जैसे भाटों चारणों के चेहरे पर लगे मुखौटे जरूर हट रहे हैं. तुम्हें शर्म आनी चाहिए राजेंद्र जोशी और तुम्हें खुद को पत्रकार कहने से पहले सौ बार सोचना चाहिए. अगर तुम्हारे में हिम्मत होगी और तुम असली पत्रकार होगे तो उमेश द्वारा खुलासा किए गए निशंक के महाघोटाले के तथ्यों पर बात करोगे, न कि उमेश के निजी जीवन व आचरण पर. एक बार फिर मैं तुम जैसे उत्तराखंडी दलाल पत्रकारों को महा चारण और महा भाट की उपाधि देता हूं. तुम्हें कीड़े पड़ेंगे कथित पत्रकार राजेंद्र जोशी, देख लेना.

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written by संजीव शर्मा, February 21, 2011
ये क्या मूर्खता कर रहे हो निशंक भाई..? भ्रष्टाचारी नेताओं को इतनी अकड़ में नहीं रहना चाहिए. अब अपने भाई मधु कोड़ा को ही देख लो. तुमसे तो कहां आगे थे खाने-पकाने में, लेकिन क्या मजाल जो किसी पत्रकार का बाल भी बांका किया हो.. आज भी कोड़ा भाई के इर्द-गिर्द उनके चहेते पत्रकार मधुमक्खियों की तरह मंडराते रहते हैं.. निशंक भाई, कल को तुम्हारा भी बुरा वक्त आएगा, तब यही लोग काम आएंगे. अभी तो तुम हॉट सीट पर हो... सँबल कर बैठो वर्ना जल गए तो फोड़ा हो जाएगा.

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written by अभिषेक, February 21, 2011
ये तो बहुत ही शर्मनाक हरकत है निशंक की. शायद निशंक यह भूल गए हैं कि वो कुर्सी पर हमेशा चिपके नहीं रहेंगे. जब उतर जाएंगे तो उनकी यही करतूतें उन्हें सांप बन कर डंसने को दौड़ेंगी.. तब कहां-कहां भागते फिरेंगे..?

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written by ??? ????? ??????, February 20, 2011
written by मदन कुमार तिवारी , February 20, 2011

उतराखंड पुलिस को बिना यूपी पुलिस को साथ लिये उमेश के घर को घेरने या गिरफ़्तार करने का अधिकार नही है । अविलंब उस थाना क्षेत्र का फ़ोन न० तथा उमेश का पता बतायें । मैं गया में हूं । परन्तु अभी बात करुंगा । उतराखंड के डीजीपी का भी फ़ोन न० बतायें या जिस जिले से पुलिस आई है , उस जिले के एस पी का न० बतायें । मैने अभी-अभी डीजीपी के इमेल किया है । '> jspndy@yahoo.co.in यह इमेल है डीजीपी का । मैने जो इमेल किया वह निचे दे रहा हूं ।
Mr. DGP , right now it has come to my knowledge that the utrakhand police is harassing one Journalist Mr. Umesh kumar and even trying to enter into his Noida house without adopting legal provision to inform local police . procedure to arrest outside of state has been well defined in Cr.p.c . person must be informed reason and should be allowed to make consultation with his lawyer. I hope you will stop such illegal act of your police with immediate effect . It appears that Mr. Umesh kumar has written few articles against CM Nishank that is why he has been made target . we are living in a civilised society having legal provision to safe guard the life and property of citizen. Any act against the provision as enshrined in our constitution is offence . Stop the illegal act of your concerned police officials .

madan kumar tiwary
advocate



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written by naren, February 20, 2011
निशंक दरअसल राजनीति के लिए नही स्त्रैण लहजे में कविताऐं पढ़ने और उत्तराखंड को लूटने के लिए मुख्यमंत्री बने है। हैरत की बात ये है कि केन्द्र को मँहगाई और घोटालों के लिए घेरने वाली बीजेपी को ये दिखाई ही नही देता। उत्तराखंड में पत्रकारिता का क्या हाल कर रखा है निशंक ने, ये तो आप रीजनल चैनल और अखवारों में देखते ही होगें। रही बात शर्माजी की तो अगर सही घोटाले का खुलासा किया है तो पुलिस तो क्या कोई भी हाथ नही डाल सकता। बशर्ते मानसिकता सही रही हो। पत्रकार होने के नाते अच्छी खबरों के बाद ऐसी कार्रवाई झेलनी पड़ती है, मुकाबला कीजिए हम सब आपके साथ है।

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written by Rajender Joshi, February 20, 2011
आदरणीय यशवन्त जी
आपके द्वारा पत्रकारों को अपनी बात कहने का एक माध्यम उपलब्ध कराया गया है वह सराहनीय है लेकिन कुछ माफिया जो जमीनों का धन्धा करते हैं इसका बड़ा मासूमी से उपयोग कर रहे हैं। उमेश कुमार शर्मा जिनकी बड़ी दर्दनाक कहानी आपने पोस्ट की है उसका सत्य भी जानने का प्रयास करें। कितने गरीब लोगों की जमीनें इस मासूम व्यक्ति ने हड़प ली और अपना महलनुमा आवास मन्दाकिनी विहार में खड़ा कर दिया है। कृपया देहरादून आकर उसकी भी जानकारी लें और इस व्यक्ति के विषय में सुनिश्चित करें कि यह पत्रकार है अथवा पत्रकार की खाले में छुपा हुआ भेड़िया है, जो पैसा और औरत का उपयोग कर आज देहरादून में अकूत सम्पति का मालिक है। इसकी सहस्रधारा रोड, राजपुर रोड तथा डी०एल० रोड पर सम्पति है दर्जनों महंगी कारों का मालिक है। शायद देहरादून के वास्तविक पत्रकारों के पास अपना मकान या वाहन तक ना हो। यह सत्ता का दलाल नेताओं के तलवे चाटने वाला जब तक पैसा कमाता तब तक उसका रहता है जब पैसा नही मिलता तो उसका विरोधी बन जाता है। पहले खण्डूरी का दुश्मन अब निशंक का दुश्मन, आखिर क्या कारण है? और भी पत्रकार हैं। इसकी संस्था एन०एन०आई० में काम कर चुके अरुण शर्मा, प्रवीन भारद्वाज आदि ऎसे कई पत्रकार हैं जो इसकी असलियत जानते हैं। यहां कई लोगों के मकानों पर इसने कब्जे कर रखे हैं उनमें से एक श्री सन्त सूद के मकान में यह २००३ में ७ माह का किराया तय कर घुसा था और आज तक कब्जा किये बैठा है। माननीय यश्वन्त जी एक शातिर टोपीबाज जो आपके पोर्टल के माध्यम से आपको भी ईस्तेमाल कर रहा है और आप इससे बच कर रहियेगा।

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written by मदन कुमार तिवारी , February 20, 2011
उतराखंड पुलिस को बिना यूपी पुलिस को साथ लिये निशंक के घर को घेरने या गिरफ़्तार करने का अधिकार नही है । अविलंब उस थाना क्षेत्र का फ़ोन न० तथा निशंक का पता बतायें । मैं गया में हूं । परन्तु अभी बात करुंगा । उतराखंड के डीजीपी का भी फ़ोन न० बतायें या जिस जिले से पुलिस आई है , उस जिले के एस पी का न० बतायें ।

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Saturday, February 19, 2011

आखिर में एक सामंत ने भी औरत को सुपीरियर माना

शेष नारायण सिंह

मेरे बाबू, स्व लाल साहेब सिंह, होते तो आज ८७ साल के हो गए होते लेकिन आज से ठीक १० साल पहले १९ फरवरी २००१ को चले गए. मकसूदन के पट्टी पिरथी सिंह के सबसे बुज़ुर्ग बाबू साहेब की मृत्यु हो गयी .अवध के सुल्तानपुर जिले के एक मामूली हैसियत वाले ज़मींदारों के परिवार में उनका जन्म १९२४ में हुआ था. सुल्तानपुर जिले के राजकुमार ठाकुरों की भदैयां शाखा के मकसूदन गाँव के मूल परिवार में जन्मे मेरे बाबू के पूर्वज भी शिक्षित नहीं थे. १८५७ में जब सुल्तानपुर पर दुबारा क़ब्ज़ा करने के इरादे अंग्रेजों ने हमला किया तो कोई विरोध नहीं हुआ . उसके पहले इस इलाके के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाया था . शायद हमारे पुरखे भी उस लड़ाई में शामिल थे . लेकिन जब १८६१ के बाद अवध के पुनर्गठन का काम शुरू हुआ तो ठा. दुनियापति सिंह को मकसूदन की ज़मींदारी मिल गयी. गोमती नदी के किनारे एक टीले पर उन्होंने अपनी गढ़ी बनायी .अंग्रेजों को बाकायदा लगान देने की शर्त पर मिली यह ज़मींदारी १२ गाँवों की थी . उनके चार लड़के थे और चारों ने उनकी मृत्यु के तुरंत बाद गाँवों का बँटवारा कर लिया . सबसे छोटे भाई , पिरथी सिंह की सातवीं पीढी में मेरे पिता जी का जन्म हुआ था. बाबू के पिता जी तो कुशाग्रबुद्धि थे लेकिन शिक्षा उन्होंने भी चहारुम तक की हे एपाई . बाबू बहुत लाडले थे , घर में कई बाबा दादा थे लिहाज़ा खेल कूद में ज्यादा रूचि ली और पढाई उन्होंने भी बमुश्किल चहारुम तक ही पाई. जब उनका जन्म हुआ तो देश में महात्मा गाँधी की आंधी चल रही थी लेकिन मेरे गाँव में उसका कहीं कोई पता नहीं था .मेरे गाँव में उन दिनों केवल दो लोगों के पास सरकारी नौकरी थी एक डाकखाने में चिट्ठीरसा थे और दूसरे पुलिस में कांस्टेबिल . रियाया थे दोनों . लेकिन ज़मींदारों के परिवार में कोई भी नौकरी करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था .कहीं कुछ भी रिकार्ड नहीं है मेरे परिवार के बारे में . शायद ज़मीन जायदाद के रिकार्डों में या अवध के ज़मींदारों के बारे में जहां लिखा गया है वहां कुछ जानकारी मिल जायेगी. .१३ साल की उम्र में मेरे बाबू की शादी हो गयी थी . मेरी माँ उनसे २ साल बड़ी थीं और मौजूदा जौनपुर सिटी स्टेशन के पास के गाँव सैदन पुर के किसान ठाकुरों के परिवार से आई थी. १९३७ में मेरी माँ जब आयीं ,उसके बाद का अपने परिवार का ब्यौरा मैंने सुन रखा है . माई अक्सर अपने बचपन और जवानी के दिनों की बातें किया करती थीं . उन्हें मालूम था कि १९३७ में जब उनकी शादी हुई तो देश में गान्ही का राज आ चुका था . यानी गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट १८३५ के तहत राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बन चुकी थीं .. जौनपुर और सुलतानपुर के बीच ट्रेन चलने लगी थी ,हालांकि मेरे बाबू की शादी में कोई भी ट्रेन से नहीं गया था. हाथी, घोड़े, ऊँट और बैलगाड़ियों से उनकी बारात गयी थी. तीन दिन वहां रुके थे और बारातियों का खूब आदर सत्कार हुआ था . मेरे नाना अपने इलाके के चमेली उगाने वाले बड़े किसान थे जिसके फूल का इस्तेमाल जौनपुर के प्रसिद्द चमेली के तेल में होता था .इस अआद्र सत्कार का जलवा था कि उसके बाद से मेरी माँ के गाँव की कई लड़कियों की शादी हमारे इलाके में हुई .शिक्षा दीक्षा के बारे में मेरे ननिहाल में भी ख़ास ध्यान नहीं दिया गया था क्योंकि मेरी माँ और मामा लोगों ने भी कोई पढाई नहीं की . हालांकि उन दिनों जौनपुर शहर के आस पास के ठाकुरों में शिक्षा का मह्त्व पहचान लिया गया था. जौनपुर में तिलक धारी सिंह ने क्षत्रिय हाई स्कूल की स्थापना कर दी थी जो मेरी माँ के घर से पैदल जाने पर ३० मिनट की दूरी पर था. यह अलग बात है कि मेरी माँ को शिक्षा का मह्त्व मालूम था. मेरे माता पिता की शादी का वाहे एवाक्त है जब देश की राजनीति बहुत गरमा चुकी थी . आज़ादी की लड़ाई अपने उफान पर थी, अवध तालुकेदार कानफरेंस हो चुकी थी . जिन्ना ने लखनऊ में दो राष्ट्र के सिद्धांत का नारा बुलंद कर दिया था. यूरोप में हिटलर और मुसोलिनी पूरी तरह से माज़िनी और नीत्शे के दर्शन को राजनीति में लागू करने के लिए कमर कस चुके थे . अंग्रेजों ने जिन्ना को उकसा कर पाकिस्तान की मांग करने के लिए तैयार कर किया था . १९४० में उन्होंने अलग देश की मांग कर भी दी. . उसी दौर में १९४२ आया जिसने पूरी दुनिया में राजनीतिक संघर्ष के व्याकरण को बदल दिया. हर वह नेता जो भारत की आज़ादी चाहता था जेलों में ठूंस दिया गया , लेकिन अंग्रेजों के वफादार राजनेता ऐश करते रहे. उनमें से कोई जेल नहीं गया . दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो चुका था . लेकिन मेरे पुरखों के घर में सारी बहस इस बात को लेकर थी कि लाल साहेब की शादी को कितने साल हो गए लेकिन कोई औलाद क्यों नहीं हो रही थी. लगभग सब को शक़ था कि किसी भूत का असर है . बहुत सारे पंडितों और ओझाओं को तलब किया गया और शादी के ८ साल बाद मेरी बड़ी बहन का जन्म हुआ. भला बताइये, जब मेरी बहन का जन्म हुआ तो मेरी माँ की उम्र कुल २३ साल की थी लेकिन तब तक उन्हें बाकायदा बाँझ घोषित किया जा चुका था और परिवार के शुभचिन्तक वंशपरंपरा चलाने के लिए दूसरी शादी का सुझाव देने लगे थे . उन दिनों हिन्दू मैरेज एक्ट १९५५ नहीं था इसलिए इस प्रस्ताव पर कोई नाराजगी नहीं थी . लेकिन १९४५ में मेरी बहन के जन्म के साथ वह ख़तरा ख़त्म हो गया .उसके जन्म के बाद लोगों को अंदाज़ लगा कि देश में कहीं हलचल है क्योंकि उसके लिए नए कपड़ों का जुगाड़ करना बहुत ही मुश्किल हो गया . उन दिनों युद्ध की वजह से मिलों का सारा कपड़ा लाम पर तैनात सिपाहियों के लिए जाता था . देशवासियों को कपड़ा देने के लिए राशन प्रणाली लागू कर दी गयी थी.

१९४७ में देश आज़ाद हो गया लेकिन उसका मेरे गाँव में कोई असर नहीं पड़ा . हमारे इलाके में कोई कांग्रेसी नहीं था. लेकिन यू पी ज़मींदारी एबालिशन एक्ट लागू होने के बाद मेरे खानदान में आज़ादी की हैसियत को अनुभव किया गया . रातोंरात सारी ज़मीन किसानों की हो गयी और फिर गंधिया ( महात्मा गाँधी का अपमान सूचक संबोधन ) को गाली देने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह मेरे बड़े होने तक सुना जाता था . दिलचस्प बात यह है कि जब ज़मींदारी उन्मूलन हुआ तो महात्मा गाँधी की शहादत के ४ साल पूरे हो चुके थे लेकिन मेरे खानदान के लोगों को उनकी ताक़त का अंदाज़ १९५२ में लगा जब नए निजाम में ज़मींदार भी आम आदमी हो गए. .मेरा महात्मा गाँधी से परिचय एक ऐसे आदमी के रूप में हुआ जिसने मेरे सभी बाग़ दूसरों को दे दिया था . मेरी समझ में नहीं आता था कि यह कैसे संभव हुआ . बाद में स्कूल जाने पर साबरमती के संत के बारे में पता चला . स्कूल से लौट कर जब मैंने बाबू के काका को बताया कि महात्मा गाँधी ने देश को आज़ादी दिलवाई थी तो वे बहुत खफा हो गए और मेरे बाबू से कहा कि स्कूल जा कर के बच्चा उल्टी सीधी बातें सीख रहे हैं . यह अलग बात है कि उनके बेटे और मेरे बाबू के चचेरे भाई उन दिनों खुद हाई स्कूल में थे . लेकिन शायद मेरे काका ने कभी गाँधी को बड़ा आदमी बताने की बेवकूफी नहीं की थी . इसलिये उनकी पढाई से किसी को एतराज़ नहीं था. मेरे काका ने भी दसवीं के बाद पढाई छोड़ दी थी . मेरे बाबू ने भी मंसूबा बना लिया था कि लड़के को दसवीं तक पढायेगें. ज़मींदारी उन्मूलन के वक़्त मेरे पिता जी की उम्र करीब २७-२८ साल की थी. बहुत ताक़त वर थे . लाठी के जोर से उन्होंने अपनी बहुत सारी ज़मीन वापस ले ली जो किसानों के नाम शिकमी लग गयी थी. कई बाग़ हाथ से निकल गए क्योंकि वे १९२२ में ही नीलाम हो चुके थे क़र्ज़ की डिक्री के बाद मकसूदन के कुछ बनियों ने उन बागों को नीलाम करवा लिया था लेकिन क़ब्ज़ा हमारे पुरखों का ही था. हुआ यूं कि जब नीलामी की डुगडुगी बजी तो ज़मींदारों ने कहा कि बनिया की हिम्मत है कि उनकी बाग़ ले लेगा . नीलामी तो कागज़ में ही होगी , मौके पर तो बाग़ हमारी ही रहेगी . लेकिन १९५२ के बाद सब कुछ ख़त्म हो गया.

इसी अभाव के माहौल में मेरा बचपन शुरू हुआ . मेरे बाबू को पता ही नहीं चला कि मैं कब दूसरी जमात में चला गया .उन्होंने मेरी बड़ी बहन को कभी स्कूल के तरफ मुंह नहीं करने दिया था . मुझसे चार साल छोटी बहन को मेरी बड़ी बहन ने ही मेरे साथ स्कूल भेजना शूरो कर दिया था लेकिन बाबू ने उसे मिडिल स्कूल में कभी नहीं जाने दिया. जहां तक मेरा सवाल है गाँव के लड़कों के साथ मैं स्कूल जाने लगा और जब बाबू के मित्र स्व बब्बन सिंह एक दिन स्कूल गए तो उन्हें पता लगा कि लम्बरदार का बेटा तो दूसरी क्लास में पंहुच गया हैं , आकर बाबू से बताया तब मेरे लिए किताब आई. याद नईं कब लेकिन प्राइमरी में ही बाबू ने घोषित कर दिया था कि अगर फेल हो जाओगे तो पढाई बंद करवा देगें . माई की इच्छा थी कि लड़का पढ़ लेगा तो दलिद्दर भाग जाएगा. पढाई चलती रही . आठवीं में प्रथम श्रेणी में पास होने के बाद बाबू बहुत खुश हुए और अपने रिश्ते के चचेरे बड़े भाई धोंधर सिंह से बात कर आये कि अब लड़के को बम्बई में बैंक में नौकरी पर लगवा दें . वे देना बैंक में चपरासी थे. उन्होंने कहा कि अभी पढने दो लड़का पढने में अच्छा है . बाबू निराश तो हुए लेकिन नौवीं क्लास में नाम लिखवा दिया . वे चाहते थे कि कोई छोटी मोटी नौकरी कर लेगें तो आमदनी में वृद्धि हो जायेगी . मेरे छोटे भाई को बाबू बहुत पसंद करते थे क्योंकि वह गोरा थाऔर शरीर से मज़बूत था . वे चाहते थे कि अगर बड़ा बेटा कुछ काम कर लेगा तो छोटे की ज़िंदगी बन जायेगी . धोंधर सिंह की बात मानकर बाबू ने नाम तो लिखा दिया लेकिन साथ में चेतावनी भी कि अगर फेल हुए तो पढाई बंद करवा देगें . शायद इसीलिये हाई स्कूल के इम्तिहान के ठीक पहले टाईफाइड हो जाने के बाद भी मैंने दसवीं का इम्तिहान दिया . कमजोरी इतनी थी कि मैं चल नहीं सकता था लेकिन बाबू ने डोली पर बैठाकर कहारों के कंधे से मुझे परीक्षा केंद्र तक पंहुचवा दिया . उसके बाद वे पढाई किसी कीमत पर नहीं होने देना चाहते थे लेकिन माँ की जिद के चलते पढाई हुई और मेरे खानदान में मुझे पहला ग्रेजुएट होने का सौभाग्य मिला. मेरे बाबू बहुत खुश हुए थे जब मैं १९७३ में डिग्री कालेज का लेक्चरर हो गया था लेकिन अपनी खुशी का खुले आम इज़हार कभी नहीं किया . उसके बाद तो उनकी कभी नहीं चली . हालांकि उसके पहले वे दोनों बहनों की शादी का काम निपटा चुके थे .बच्चों के शादी ब्याह को वे काम मानते थे . शायद इसी लिए चौदह पन्द्रह साल की उम्र में सभी बच्चों की शादी करके ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहते थे . शिक्षा के मह्त्व को उन्होंने तब समझा जब मेरे कुछ साथी जो सरकार में उच्च पदों पर पंहुच गए थे घर आकर बाबू का पाँव छूते थे. जब मेरे बेटे ने आई आई एम में दाखिला लिया और अखबारों में छपने लगा कि इस दाखिले का क्या मतलब है तब उनको लगा कि शिक्षा की वजह से मामूली लोगों का भाग्य भी बदल सकता है. लोग आकर उन्हें बताते थे कि आई आई एम का क्या मतलब है. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी . सिद्धार्थ के एम बी ए करने के अगले साल ही बाबू चले गए .

आज उनकी बहुत याद आ रही है . उनका जीवन इस बात का सबूत है कि माहौल में तरक्की के सारे लक्षण मौजूद हो फिर भी तरक्की तब तक नहीं होती जब तक के आपके अन्दर वह जज़बा न पैदा हो .अब उनके पौत्र का बेटा पैदा हो चुका है . अगर बाबू की चली होती तो मेरे बेटे की शादी वे आज से पंद्रह साल पहले कर चुके होते .लेकिन बाद के वक़्त में वे यह बात स्वीकार करने लगे थे कि वे गलत थे और माई सही थीं . जो लोग ज़मींदारी और सामंती परिवेश से वाकिफ हैं उन्हें समझ में आ जाएगा कि यह स्वीकारोक्ति कितनी बड़ी क्रान्तिकारी घटना है .

Thursday, February 17, 2011

पश्चिम बंगाल में सामंती कम्युनिस्टों की ज़मींदारी पर जनता की लगाम

शेष नारायण सिंह

बहुत साल बाद कोलकाता जाने का मौक़ा लगा .तीन दिन की इस कोलकाता यात्रा ने कई भ्रम साफ़ कर दिया. ज्यादा लोगों से न मिलने का फायदा भी होता है . बातें बहुत साफ़ नज़र आने लगती हैं . १९७८ में आपरेशन बर्गा पर एक परचा लिखने के बाद अपने आपको ग्रामीण पश्चिम बंगाल का ज्ञाता मानने की बेवकूफी मैं पहले भी कर चुका हू. कई बार अपने आप से यह कह चुका हूँ कि आगे से सर्वज्ञ होने की शेखी नहीं पालेगें लेकिन फिर भी मुगालता ऐसी बीमारी है जिसका जड़तोड़ इलाज़ होता ही नहीं . एक बार दिमाग दुरुस्त होता है ,फिर दुबारा वही हाल तारी हो जाता है. इसलिए मेरे अन्दर पिछले कुछ महीनों से फिर सर्वज्ञता की बीमारी के लक्षण दिखने लगे थे . १४ फरवरी को कोलकाता पंहुचा ,सब कुछ अच्छा लग रहा था . जनता के राज के ३३ साल बहुत अच्छे लग रहे थे. लेकिन जब वहां कुछ अपने पुराने दोस्तों से मुलाक़ात हुई तो सन्न रह गया . जनवादी जनादेश के बाद सत्ता में आयी कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीति की चिन्दियाँ हवा में नज़र आने लगीं. नंदीग्राम की कथा का ज़िक्र हुआ तो अपन दिल्ली टाइप पत्रकार की समझ को लेकर पिल पड़े और ममता बनर्जी के खिलाफ ज़हर उगलने का काम शुरू कर दिया .और कहा कि इस छात्र परिषद् टाइप महिला ने फिर उन्हीं गुंडों का राज कायम करने का मसौदा बना लिया है जिन्होंने सिद्धार्थ शंकर राय के ज़माने में बंगाल को क़त्लगाह बना दिया था . लेकिन अपने दोस्त ने रोक दिया और समझाया कि ऐसा नहीं है . नंदीग्राम में जब तूफ़ान शुरू हुआ तो वहां एक भी आदमी तृणमूल कांग्रेस का सदस्य नहीं था . जो लोग वहां वामपंथी सरकार के खिलाफ उठ खड़े हुए थे वे सभी सी पी एम के मेम्बर थे. और वे वहां के सी पी एम के मुकामी नेताओं के खिलाफ उठ खड़े हुए थे . कोलकता की राइटर्स बिल्डिंग में बैठे बाबू लोगों को जनता का उठ खड़ा होना नागवार गुज़रा और अपनी पार्टी के मुकामी ठगों को बचाने के लिए सरकारी पुलिस आदि का इस्तेमाल होने लगा . सच्ची बात यह है कि वहां सी पी एम के दबदबे के वक़्त में तो वाम मोर्चे के अलावा और किसी पार्टी का कोई बंदा घुस ही नहीं सकता था. जब नंदीग्राम के लोग सडकों पर आ गए तो उनकी नाराजगी का लाभ उठाने के लिए तृणमूल कांग्रेस ने प्रयास शुरू किया और अब वहां सी पी एम के लोग भागे भागे फिर रहे हैं . इस सूचना का मेरे ऊपर पूरा असर पड़ा . वामपंथी रुझान की वजह से चीज़ों को सही परिदृश्य में समझने की आदत के तहत और भी सवाल दिमाग में उठने लगे. सी पी एम के पुराने सहयोगी और बंगला के महान साहित्यकार सुभाष मुखोपाध्याय का भी ज़िक्र हुआ जिनका ममता को सही कहना बहुत ही अजीब माना गया था लेकिन फिर परत दर परत बातें साफ़ होने लगीं. और समझ में आ गया कि अब वहां का भद्रलोक कम्युनिस्ट पार्टियों के रास्ते ज़मींदारी प्रथा को कायम करना चाहता है . पश्चिम बंगाल का आम आदमी ज़मींदारी स्थापित करने की इसी वामपंथी कोशिश के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है . ममता बनर्जी का राजनीतिक उदय इसी नेगेटिव राजनीति का नतीजा है . इसमें दो राय नहीं है कि उनकी पार्टी में भी जो लोग शामिल हैं वे उसी तरह की राजनीतिक फसल काटना चाह रहे हैं जो पिछले दस साल से कम्युनिस्ट पार्टियों के लोग काट रहे हैं . आशंका यह भी है कि वे मौजूदा राजनीतिक गुंडों से ज्यादा खतरनाक होंगें लेकिन जनता को तो फिलहाल मौजूदा बदमाशों की राजनीति को ख़त्म करना है .
कम्युनिस्ट पार्टी के आतंक का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि कोई भी सरकारी अफसर अपनी मर्जी से कोई काम नहीं कर सकता . महानगरों में तो कम लेकिन गाँवों में इस आतंक का बाकायदा नंगा नाच हो रहा है . वहां तैनात बी डी ओ को लोकल पार्टी यूनिट के सेक्रेटरी से पूछे बिना कोई काम करने की अनुमति नहीं है . यहाँ तक कि उसको सरकारी काम के लिए जो जीप मिलती है उसकी चाभी भी पार्टी के अधिकारी के पास होती है .यानी पार्टी के हुकुम के बिना वह अपने रोज़मर्रा के काम भी नहीं कर सकता .सरकारी नौकरियों के मामले में तो चौतरफा आतंक का ही राज है . एक दिलचस्प वाक़या एक बहुत करीबी दोस्त से सुनने को मिला. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन अपनी मातृभूमि से बहुत मुहब्बत करते हैं .इंसानी जीवन से वह सब कुछ पा चुके हैं जिसके बारे में लोग सपने देखते हैं . एक बार उन्होंने पश्चिम बंगाल के मुख्य मंत्री से इच्छा ज़ाहिर की वे जादवपुर विश्वविद्यालय से किसी रूप में जुड़ना चाहते हैं . मुख्यमंत्री ने उत्साहित होकर सुझाया कि उन्हें वाइस चांसलर ही बनना चाहिए .इस से जादवपुर और वाम मोर्च सरकार का नाम होगा लेकिन पार्टी दफतर में बैठे मुंशी टाइप लोगों ने कहा कि मुख्य मंत्री को इस तरह की नियुक्ति करने का पावर नहीं है. पार्टी की एजुकेशन ब्रांच जांच करेगी. उसके बाद सरकार को फैसला लेने दिया जाएगा .खैर एजुकेशन ब्रांच के लोग बैठे और सोच विचार के बाद अमर्त्य सेन के नाम को खारिज कर दिया . जब किसी ने पूछा कि ऐसा क्यों किया जा रहा है तो जवाब मिला कि अमर्त्य सेन पार्टी के मेंबर नहीं है इसलिए उन्हें इतने महत्वपूर्ण पद पर नहीं तैनात किया जा सकता .यह है पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी की दखलंदाजी का हाल. इस खबर के बाद समझ में आने लगा है कि ज्योति बासु को किस दम्भी मानसिकता ने प्रधान मंत्री पद तक पंहुचने से रोका था. अब सभी मानते हैं कि अगर ज्योति बाबू प्रधान मंत्री बन गए होते तो इतनी दुर्दशा नहीं होती और कम्युनिस्ट आन्दोलन का राजनीतिक फायदा हुआ होता लेकिन उस वक़्त तो दंभ अपने मानवीकृत रूप में नई दिल्ली के एकेजी भवन और कोलकाता की अलीमुद्दीन स्ट्रीट में तांडव कर रहा था.
पश्चिम बंगाल में आज कोई भी सरकारी नौकरी किसी ऐसे आदमी को नहीं मिल सकती जो वामपंथी मोर्चे की किसी पार्टी का मेंबर नहीं है . सारे टेस्ट सारे इम्तिहान पास कर लेने के बाद इंटरव्यू के वक़्त बोर्ड में पार्टी की तरफ से कोई लिस्ट आ जाती है जिसमें लिखे नामों पर बोर्ड को मुहर लगानी होती है . उसके बाहर के किसी आदमी को नौकरी नहीं दी जा सकती. पश्चिम बंगाल में लोगों के बीच वाम मोर्चे से नाराजगी है उसके पीछे इसी मानसिकता का योगदान है . सी पी एम के शुभ चिंतकों का मानना भी है कि पश्चिम बंगाल में आज सर्वहारा की पार्टी का कहीं नामो निशान नहीं है. १९७० के दशक के कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की तीसरी पीढी के लोग उसी तरह से लूट पाट कर रहे हैं जैसे ६० और सत्तर के दशक में कांग्रेसियों ने किया था . उनके जवाब में नक्सलवादी आन्दोलन शुरू हुआ था और इनकी जवाब में माओवादी उठ खड़े हुए हैं . आने वाला कल दिलचस्प होगा क्योंकि छात्र परिषद् की बदमाशी की राजनीति सीख चुके लोगों की सत्ता आने के बाद उनके लोग भी उसी तरह की लूट पाट मचाएगें लेकिन उम्मीद की जानी चाहिये कि उसके बाद शायद जो सिंथेसिस बने उस से पश्चिम बंगाल में सही मायनों में जनवादी सरकार बन सकेगी ,

Friday, February 11, 2011

आर एस एस ने की प्रधानमंत्री से फ़रियाद ,' हमारे टाप नेताओं को बचाओ '

शेष नारायण सिंह

आर एस एस वाले डर गए हैं . कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने जिस तरह से संघी आतंकवाद के खिलाफ हमला बोला है उसके बाद आर एस एस में दहशत का आलम है . आर एस एस के एक बड़े नेता भैयाजी जोशी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर मांग की है उनके टाप नेताओं, मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार की हत्या की साज़िश रची जा रही है और प्रधानमंत्री को चाहिए कि उनकी रक्षा करें . उनका आरोप है कि संघी आतंकवाद में शामिल लोग ही इन नेताओं को मारना चाहते हैं . आर एस एस का यह क़दम स्वागत योग्य है क्योंकि बहुत दिनों बाद पार्टी ने सिस्टम की इज्ज़त करने का फैसला किया है . इसके पहले आर एस एस वाले अपने आपको कानून मानते थे और मनमोहन सिंह की सरकार को एक गैरज़रूरी चीज़ मानते थे. अजमेर, मालेगांव और मक्का मस्जिद में आतंकवादी हमलों के सरगना कर्नल पुरोहित, दयानंद पाण्डेय और प्रज्ञा ठाकुर को हीरो के रूप में पेश करते थे लेकिन ताज़ा चिट्ठी में उन्होंने दावा किया है कि कर्नल पुरोहित और दयानन्द पाण्डेय उनके बड़े नेताओं, मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार की हत्या करना चाहते हैं .आर एस एस के प्रवक्ता और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य , राम माधव ने बताया कि चिट्ठी प्रधानमंत्री कार्यालय में जमा करा दी गयी है . इसके पहले आर एस एस को उम्मीद थी कि बीजेपी के नेता उनके इन्द्रेश कुमार को बचाने के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़ेंगें लेकिन बीजेपी ने साफ़ मना कर दिया . उनका तर्क है कि बीजेपी की अंतरराष्ट्रीय छवि बहुत ही खराब हो जायेगी अगर वे आतंकवादी गतिविधियों में लीन एक व्यक्ति के पक्ष में खड़े देखे जायेगें . बीजेपी सहित सब को मालूम है कि इन्द्रेश कुमार का बचाव करना असंभव है . अब आर एस एस ने खुद ही पहल की है . प्रधान मंत्री के यहाँ भेजी गयी चिट्ठी में लिखा है कि आर एस एस को अस्थिर करने के इरादे से एक साज़िश रची गयी है जिसके तहत आर एस एस के नेताओं, मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार को मार डालने की योजना बनायी गयी है . उनका आरोप है कि कर्नल पुरोहित और दयानंद पाण्डेय उस साज़िश में शामिल हैं . चिट्ठी में मांग की गयी है कि इस मामले की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच कराई जाये.यहाँ यह याद दिलाने की ज़रुरत है कि जब स्व हेमंत करकरे ने मालेगांव धमाकों के आरोप में इन लोगों को पकड़ा था तो सारे देश में आर एस एस ने इन्हीं प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित को हिन्दू धर्म के रक्षक के रूप में पेश किया था और करकरे के खिलाफ अभियान चलाया था . आज जब जांच के घेरे में आर एस एस के बड़े नेता फंसने लगे हैं तो अपने को आतंकवादी संगठन के रूप में पहचाने जाने के खतरे से बचने के लिए यह सारा काम किया जा रहा है. अब पाण्डेय और पुरोहित को आर एस एस के विरोधी के रूप में पेश करने की कोशिश चल रही है.आरोप यह भी है कि असीमानंद के इकबालिया बयान में इन्द्रेश कुमार का नाम आ जाने के बाद उन्हें तो पकड़ा जा रहा है लेकिन उसी बयान में उसने कहा है कि कर्नल पुरोहित ने इन्द्रेश कुमार को मार डालने की योजना बनायी थी लेकिन उसका ज़िक्र नहीं किया जा रहा है . आर एस एस की इस बात में तो दम है कि इन्द्रेश कुमार की जान को ख़तरा है लेकिन असीमानंद के बयान में यह भी है कि इन्द्रेश कुमार को पाकिस्तान से पैसा मिलता था . ज़ाहिर है कि यह बहुत ही गंभीर आरोप है , इसकी भी जांच की जानी चाहिए . आर एस एस की अब तक की जो ख्याति है उसमें यह बहुत कठिन होगा कि पार्टी का कोई टाप नेता किसी मुसलमान या पाकिस्तान से रिश्ता रखेगा लेकिन इन्द्रेश कुमार का जो काम है वह इसकी पूरी गुंजाइश छोड़ता है . आर एस एस में मुसलमानों को शामिल करने के प्रोजेक्ट के कर्ता-धर्ता के रूप में उन्होंने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच की स्थापना करवाई थी. मुस्लिम विरोधी मुसलमानों के बीच उनका खासा उठना बैठना था इसलिए पाकिस्तान में भी उनके सम्बन्ध होने की जांच का केस तो बनता है . जहां तक आर एस एस के लोगों का आतंकवादी धमाकों में शामिल होने के आरोप हैं अब वे लगभग साबित हो चुके हैं . हो सकता है कि कानूनी लड़ाई में इनमें से कुछ लोग तकनीकी आधार पर बच भी जाएँ लेकिन जनमानस में अब यह सिद्ध हो चुका है कि आर एस एस ने आतंकवादी तरीकों को अपनाया था . ऐसी हालत में लगता है कि भागते भूत की लंगोटी ही बचाने की योजना पर काम चल रहा है.हो सकता है कि बाकी सारे अभियुक्तों से पिंड छुड़ा कर आर एस एस वाले अपने टाप नेताओं को बचाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं और उसमें उन्हें बीजेपी से कोई मदद नहीं मिल रही है . इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आर एस एस ने बीजेपी को सबक सिखाने के लिए सरकार के पास कोई प्रस्ताव भी भेजा हो . हालांकि इस बात का अभी पक्का पता नहीं है लेकिन अगर सरकार और कांग्रेस पार्टी को सही मौका हाथ आया तो वे बीजेपी और आर एस एस में फ़र्क़ डालने के किसी मौके का पूरा फायदा उठायेगें. यह आर एस एस की बहुत बड़ी कुर्बानी होगी लेकिन मोहन भागवत और इन्द्रेश कुमार जैसे बड़े नताओं को आतंकवादी घोषित होने से बचाने के लिए कोई भी कुर्बानी छोटी होगी.

Thursday, February 10, 2011

बनारसी तहजीब का दस्तावेज़ है काशी का अस्सी

शेष नारायण सिंह

अपने देश में साहित्यिक रचनाओं को आधार बनाकर फ़िल्में बनाने का फैशन नहीं है लेकिन हर दौर में कोई फिल्मकार ऐसा आता है जो यह पंगा लेता है . ज़्यादातर फ़िल्में बाज़ार में पिट जाती हैं लेकिन कला की दुनिया में उनका नाम होता है . मुंशी प्रेमचंद, सआदत हसन मंटो , अमृत लाल नागर, फणीश्वर नाथ रेणु, अमृता प्रीतम जैसे बड़े लेखकों की कहानियों पर फ़िल्में बन चुकी हैं . कुछ फ़िल्में तो बाज़ार में भी बहुत लोकप्रिय हुईं लेकिन कुछ कला के मोहल्ले में ही नाम कमा सकीं . जब अमृतलाल नागर मुंबई गए थे तो बहुत खुश होकर गए थे लेकिन जब वहां देखा कि फ़िल्मी कहानी लिखने वाले को किरानी कहते थे और वह आमतौर पर फिल्म के हीरो का चापलूस होता था , तो बहुत मायूस हुए. किरानी बिरादरी का मुकाबला अमृतलाल नागर तो नहीं ही कर सकते थे क्योंकि इन किरानियों की खासियत यह होती थी कि उन पर हज़ारों कमीने न्योछावर किये जा सकते थे . नागर जी वापस लौट आये अपने लखनऊ की गोद में और दोबारा उधर का रुख नहीं किया .अब सुना जा रहा है कि एक जिद्दी फिल्मकार ने उनकी किसी रचना पर फिल्म बनाने का मन बना लिया है . इन श्रीमान जी ने इसके पहले भी पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम के एक मामूली उपन्यास पर बहुत अच्छी फिल्म बनायी थी . भारत के बँटवारे के वक़्त लाहौर और अमृतसर के बीच के कुछ गाँवों को इस फिल्मकार ने फिर से जिंदा कर दिया था. हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार प्रोफ़ेसर काशीनाथ सिंह का कहना है कि इतने घटिया उपन्यास पर जिस आदमी ने इतनी बढ़िया फिल्म बनाई है वह निश्चित रूप से बहुत बेहतरीन रचनाधर्मी होगा . डाक्टरी की पढाई कर चुके इस फिल्मकार को लोग फिल्म ' पिंजर ' के निदेशक के रूप में जानते हैं .वैसे भारतीय जनमानस में इसकी पहचान आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य के रूप में भी है . इन्होने 'चाणक्य 'नाम के सीरियल को दूरदर्शन के लिए बनाया था. वह बहुत लोकप्रिय हुआ था . जब इस चाणक्य ने काशीनाथ सिंह से उनके बहुचर्चित उपन्यास ' काशीं के अस्सी ' के ऊपर फिल्म बनाने की बात की तो काशीनाथ सिंह तुरंत तैयार हो गए. मुझसे उन्होंने कहा कि जिस आदमी ने ढाई हज़ार साल पुराने चाणक्य को समकालीन चरित्र बना दिया हो और एक बहुत ही रद्दी उपन्यास पर पिंजर जैसी महान फिल्म बना दी हो , जब वह आपके किसी उपन्यास पर फिल्म बनाने की बात करे तो बिना कुछ सोचे समझे हाँ कर देना चाहिए . मुंबई की फिल्म सिटी में जब इस फिल्म की शूटिंग चल रही थी , तो काशीनाथ सिंह से फिल्म के सेट पर ही मुलाक़ात हो गयी . बहुत खुश थे . उनको लग रहा था कि मुंबई में ही अस्सी की वह पप्पू की दुकान , पांडे जी का घर, वह मोहल्ला जिंदा हो उठा है . हो भी क्यों न . फिल्मकार डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने अस्सी वाले पप्पू की पूरी दुकान खरीद कर उसे ट्रक में लाद कर मुंबई की फिल्म सिटी में फिर से स्थापित कर दिया है . पप्पू भी खुश कि उसकी टुटही दुकान को नए सिरे से सजाने का लिए पैसा मिल गया. और डॉ द्विवेदी भी खुश कि उनकी फिल्म का सेट एकदम सही बन गया .
डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने काशीनाथ सिंह को मुंबई आमंत्रित किया था. वहां पर फिल्म की शूटिंग देख कर वे बहुत ही खुश हुए. जिस दिन काशीनाथ सिंह सेट पर पंहुचे थे ,पड़ाइन और रामदेई से सम्बंधित सीन की शूटिंग चल रही थी. शूटिंग शुरू होने के पहले उन्हें कलाकारों से मिलाया गया तो बहुत मायूस दिखे . उन्हें लगा कि पड़ाइन और रामदेई के चरित्र में जो बनारसी मस्ती और शोखी हैं उसकी एक्टिंग कर पाना इन लड़कियों के बस की बात नहीं है . लेकिन जब उन्हें काम करते देखा तो खुशी से झूम उठे .काशी का अस्सी उपन्यास की पड़ाइन तीन बच्चों की माँ है . काशीनाथ सिंह को लगता था कि साक्षी तंवर जैसी कम उम्र की अभिनेत्री कैसे वह काम कर पायेगी लेकिन उसके शाट को देख कर कहा कि भाई पडाइन का ठसका तो है इस पात्र में . रामदेई का रोल सीमा आजमी ने किया है उसकी भी उन्होंने बहुत तारीफ़ की लेकिन शूटिंग देखने के बाद ..उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से डॉ द्विवेदी बहुत बड़ा फिल्मकार है . फिल्म में सनी देओल का रोल एक बनारसी पण्डे का है . कमीज़ ,धोती,चप्पल और मूंछ धारी सनी देओल को अगर एकाएक देखें तो लगेगा ही नहीं कि वह मुंबई का इतना बड़ा फ़िल्मी कलाकार है . उनकी शख्शियत पूरी तरह से बदल गयी है इस फिल्म में . डॉ द्विवेदी ने बताया कि सनी देओल ने फिल्म में पांडे जी का रोल तैयार करने में बहुत मेहनत की है
काशी का अस्सी में लखनवी तड़का भी है क्योंकि इस फिल्म के प्रोड्यूसर विनय तिवारी लखनऊ के हैं . उन्होंने उपन्यास को पढ़ रखा था और जब डॉ.द्विवेदी ने फिल्म बनाने का प्रस्ताव किया तो वे तुरंत राजी हो गए. भोजपुरी फिल्मों के बड़े कलाकार रवि किशन कन्नी के रोल में हैं जब कि मिथिलेश चतुर्वेदी को डॉ गया सिंह का रोल मिला है . दर असल डॉ गया सिंह का चरित्र ही कहानी को लगातार खींचता रहता है .मुंबई में फिल्म के सेट पर काशीनाथ सिंह के बड़े भाई और हिन्दी के सबसे बड़े नाम , डॉ नामवर सिंह भी हो आये हैं . शूटिंग देख कर वे भी बहुत खुश हुए और लोगों को बताया कि जब वे बनारस में फाकामस्ती कर रहे थे तो उनकी प्रिय चाय की दुकान , केदार की दुकान थी लेकिन जब तक कासी का ज़माना आया , तब तक पप्पू की दुकान ही साहित्य का जंक्शन हो चुकी थी . डॉ काशीनाथ सिंह को उम्मीद है कि यह फिल्म अस्सी की संस्कृति को दुनिया के सामने अपने असली रूप में रखेगी और दो शताब्दियों के संधिकाल के बनारस की ज़िंदगी और मस्ती को जिंदा कर देगी.

Wednesday, February 9, 2011

नाम नई दिल्ली, उम्र अस्सी साल

शेष नारायण सिंह

आज से ठीक अस्सी साल पहले, 10 फरवरी 1931 के दिन नयी दिल्ली को औपचारिक रूप से ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया. उस वक़्त के वाइसराय लार्ड इरविन ने नयी दिल्ली शहर का विधिवत उदघाटन किया . १९११ में जार्ज पंचम के राज के दौरान दिल्ली में दरबार हुआ और तय हुआ कि राजधानी दिल्ली में बनायी जायेगी. उसी फैसले को कार्यरूप देने के लिए रायसीना की पहाड़ियों पर नए शहर को बसाने का फैसला हुआ और नयी दिल्ली एक शहर के रूप में विकसित हुआ . इस शहर की डिजाइन में एडविन लुटियन क बहुत योगदान है . १९१२ में एडविन लुटियन की दिल्ली यात्रा के बाद शहर के निर्माण का काम शुरू हो जाना था लेकिन विश्वयुद्ध शुरू हो गया और ब्रिटेन उसमें बुरी तरह उलझ गया इसलिए नयी दिल्ली प्रोजेक्ट पर काम पहले विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुआ. यह अजीब इत्तिफाक है कि भारत की आज़ादी की लडाई जब अपने उरूज़ पर थी तो अँगरेज़ भारत की राजधानी के लिए नया शहर बनाने में लगे हुए थे. पहले विश्वयुद्ध के बाद ही महात्मा गाँधी ने कांग्रेस और आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व संभाला और उसी के साथ साथ अंग्रेजों ने राजधानी के शहर का निर्माण शुरू कर दिया . १९३१ में जब नयी दिल्ली का उदघाटन हुआ तो महात्मा गाँधी देश के सर्वोच्च नेता थे और पूरी दुनिया के राजनीतिक चिन्तक बहुत ही उत्सुकता से देख रहे थे कि अहिंसा का इस्तेमाल राजनीतिक संघर्ष के हथियार के रूप में किस तरह से किया जा रहा है . १९२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन की सफलता और उसे मिले हिन्दू-मुसलमानों के एकजुट समर्थन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के लोग घबडा गए थे . उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए सारे इंतज़ाम करना शुरू कर दिया था . हिन्दू महासभा के नेता वी डी सावरकर को माफी देकर उन्हें किसी ऐसे संगठन की स्थापना का ज़िम्मा दे दिया था जो हिन्दुओं और मुसलमानों में फ़र्क़ डाल सके . उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया और १९२४-२५ के बीच नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम के दल की स्थापना करवा दी थी. इस पार्टी की विचारधारा के गाइड के रूप में उन्होंने एक नयी किताब लिखी जिसका नाम हिंदुत्व रखा गया. यह किताब इटली के दार्शनिक माज़िनी की विचारधारा पर आधारित थी . माज़िनी की न्यू इटली की धारणा पर ही बाद में हिटलर ने राजनीतिक अभियान चलाया था.१९२० के आन्दोलन के बाद कांग्रेस की राजनीति में निष्क्रिय हो चुके मुहम्मद अली जिन्ना को अंग्रेजों ने सक्रिय किया और उनसे मुसलमानों के लिए अलग देश माँगने की राजनीति पर काम करने को कहा गया. देश का राजनीतिक माहौल इतना गर्म हो गया कि १९३१ में नयी दिल्ली के उदघाटन के बाद ही अंग्रेजों की समझ में आ गया था कि उनके चैन से बैठने के दिन लद चुके हैं . . इम्पीरियल दिल्ली की स्थापना के साथ ही अंग्रेजों ने इसे आबाद करने की योजना को भी कार्य रूप देना शुरू कर दिया . नयी दिल्ली के नए बाज़ार कनाट प्लेस को आबाद करने के लिए चाँदनी चौक के व्यापारियों को तरह तरह के प्रलोभन दिए गए लेकिन कोई आने को तैयार नहीं था. १९८० में मैंने चांदनी चौक के उन व्यापारियों से बात की थी , जो १९३० के दशक में जवान रहे होंगें . उनके बाप दादाओं को जब अंग्रेजों ने मजबूर किया तो उन लोगों ने कनाट प्लेस में जगह तो खरीद ली लेकिन कारोबार चांदनी चौक से ही करते रहे . उनका तर्क था कनाट प्लेस व्यापार के लिए सही जगह नहीं है क्योंकि गर्मियों में राजधानी शिमला शिफ्ट हो जाती है तो नयी दिल्ली में उल्लू बोलते हैं .सारे अफसर शिमला में जा कर रहते हैं . लेकिन धीरे धीरे हालात बदले और १९४७ के बाद जब आबादी क रेला दिल्ली आया तो नयी दिल्ली में आबादी आ गयी. दुकानें भी भर गयीं
नयी दिल्ली ने हमारी आज़ादी की लड़ाई को बहुत ही करीब से देखा है . १९३१ के बाद जब भारत में महात्मा गाँधी की हर बात अंतिम सत्य मानी जाती थी, उस वक़्त नई दिल्ली में ही आज़ादी की सारी बातें होती थीं. गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट १९३५ के बाद यह तय हो गया था कि अँगरेज़ को जाना ही पड़ेगा . लेकिन वह तरह तरह के तरीकों से उसे टालने की कोशिश कर रहा था . नयी दिल्ली क महत्व इतना बढ़ गया कि बम्बई के बैरिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना ने भी नयी दिल्ली के जनपथ पर एक मकान खरीद लिया और यहीं जम गए. उसके बाद ज़्यादातर वक़्त उन्होंने दिल्ली में ही गुज़ारा . अंग्रेजों के मित्र थे इसलिए उन्हें एडवांस में मालूम पड़ गया था कि बंटवारा होगा और फाइनल होगा . जैसा कि हर चालाक आदमी करता है , उन्होंने अपने करीबी दोस्त , राम कृष्ण डालमिया के हाथों अपने घर का सौदा किया और नयी दिल्ली के सफ़दरजंग हवाई अड्डे से कराची के लिए उड़ गए. उन्हें मालूम था कि अब वे दुबारा दिल्ली नहीं आयेगें .
इसी नई दिल्ली में महात्मा गाँधी ने अपनी अंतिम सांस ली. नफरत के सौदागरों की पार्टी के एक सिरफिरे ने उन्हें मार डाला . नयी दिल्ली में ही लोकतंत्र की बुनियाद रखी गयी जिसे जवाहरलाल नेहरू ने दिन रात एक करके मज़बूत बनाया . लेकिन अपनी बेटी को गद्दी देने के चक्कर में उन्होंने वंशवाद की बुनियाद रख दी. इसी दिल्ली को निशाना बनाकर पाकिस्तानी तानाशाह अयूब खां ने दोनों मुल्कों पर १९६५ की लड़ाई थोपी. भारत तो उस झटके से बच गया लेकिन पाकिस्तान आज जिस दुर्दशा से गुज़र रहा है ,उसमें उस मूर्खतापूर्ण युद्ध का बहुत अधिक योगदान है .नयी दिल्ली ने संजय गाँधी का आतंक भी देखा जो उन्होंने इमरजेंसी के दौरान इस शहर पर बरपा किया था . नयी दिल्ली में पर जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छः लाख लोगों ने दस्तक दी तो घबडाकर इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा दी. बाद में जनता पार्टी का असफल प्रयोग भी यहीं किया गया . इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद १९८४ में इसी शहर में सिखों क क़तले-आम हुआ और यहीं पर वह लोकशाही परवान चढी जिसके बीज जवाहरलाल नेहरू ने बोये थे. आज जब लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों को ख़तरा पैदा हो गया है , भ्रष्टाचार और क्रिमिनल गवर्नेंस का ज़माना है तो इसी नयी दिल्ली में तय होगा कि भारत का मुस्तकबिल क्या होगा