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Wednesday, February 9, 2011

नाम नई दिल्ली, उम्र अस्सी साल

शेष नारायण सिंह

आज से ठीक अस्सी साल पहले, 10 फरवरी 1931 के दिन नयी दिल्ली को औपचारिक रूप से ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया. उस वक़्त के वाइसराय लार्ड इरविन ने नयी दिल्ली शहर का विधिवत उदघाटन किया . १९११ में जार्ज पंचम के राज के दौरान दिल्ली में दरबार हुआ और तय हुआ कि राजधानी दिल्ली में बनायी जायेगी. उसी फैसले को कार्यरूप देने के लिए रायसीना की पहाड़ियों पर नए शहर को बसाने का फैसला हुआ और नयी दिल्ली एक शहर के रूप में विकसित हुआ . इस शहर की डिजाइन में एडविन लुटियन क बहुत योगदान है . १९१२ में एडविन लुटियन की दिल्ली यात्रा के बाद शहर के निर्माण का काम शुरू हो जाना था लेकिन विश्वयुद्ध शुरू हो गया और ब्रिटेन उसमें बुरी तरह उलझ गया इसलिए नयी दिल्ली प्रोजेक्ट पर काम पहले विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुआ. यह अजीब इत्तिफाक है कि भारत की आज़ादी की लडाई जब अपने उरूज़ पर थी तो अँगरेज़ भारत की राजधानी के लिए नया शहर बनाने में लगे हुए थे. पहले विश्वयुद्ध के बाद ही महात्मा गाँधी ने कांग्रेस और आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व संभाला और उसी के साथ साथ अंग्रेजों ने राजधानी के शहर का निर्माण शुरू कर दिया . १९३१ में जब नयी दिल्ली का उदघाटन हुआ तो महात्मा गाँधी देश के सर्वोच्च नेता थे और पूरी दुनिया के राजनीतिक चिन्तक बहुत ही उत्सुकता से देख रहे थे कि अहिंसा का इस्तेमाल राजनीतिक संघर्ष के हथियार के रूप में किस तरह से किया जा रहा है . १९२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन की सफलता और उसे मिले हिन्दू-मुसलमानों के एकजुट समर्थन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के लोग घबडा गए थे . उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए सारे इंतज़ाम करना शुरू कर दिया था . हिन्दू महासभा के नेता वी डी सावरकर को माफी देकर उन्हें किसी ऐसे संगठन की स्थापना का ज़िम्मा दे दिया था जो हिन्दुओं और मुसलमानों में फ़र्क़ डाल सके . उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया और १९२४-२५ के बीच नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम के दल की स्थापना करवा दी थी. इस पार्टी की विचारधारा के गाइड के रूप में उन्होंने एक नयी किताब लिखी जिसका नाम हिंदुत्व रखा गया. यह किताब इटली के दार्शनिक माज़िनी की विचारधारा पर आधारित थी . माज़िनी की न्यू इटली की धारणा पर ही बाद में हिटलर ने राजनीतिक अभियान चलाया था.१९२० के आन्दोलन के बाद कांग्रेस की राजनीति में निष्क्रिय हो चुके मुहम्मद अली जिन्ना को अंग्रेजों ने सक्रिय किया और उनसे मुसलमानों के लिए अलग देश माँगने की राजनीति पर काम करने को कहा गया. देश का राजनीतिक माहौल इतना गर्म हो गया कि १९३१ में नयी दिल्ली के उदघाटन के बाद ही अंग्रेजों की समझ में आ गया था कि उनके चैन से बैठने के दिन लद चुके हैं . . इम्पीरियल दिल्ली की स्थापना के साथ ही अंग्रेजों ने इसे आबाद करने की योजना को भी कार्य रूप देना शुरू कर दिया . नयी दिल्ली के नए बाज़ार कनाट प्लेस को आबाद करने के लिए चाँदनी चौक के व्यापारियों को तरह तरह के प्रलोभन दिए गए लेकिन कोई आने को तैयार नहीं था. १९८० में मैंने चांदनी चौक के उन व्यापारियों से बात की थी , जो १९३० के दशक में जवान रहे होंगें . उनके बाप दादाओं को जब अंग्रेजों ने मजबूर किया तो उन लोगों ने कनाट प्लेस में जगह तो खरीद ली लेकिन कारोबार चांदनी चौक से ही करते रहे . उनका तर्क था कनाट प्लेस व्यापार के लिए सही जगह नहीं है क्योंकि गर्मियों में राजधानी शिमला शिफ्ट हो जाती है तो नयी दिल्ली में उल्लू बोलते हैं .सारे अफसर शिमला में जा कर रहते हैं . लेकिन धीरे धीरे हालात बदले और १९४७ के बाद जब आबादी क रेला दिल्ली आया तो नयी दिल्ली में आबादी आ गयी. दुकानें भी भर गयीं
नयी दिल्ली ने हमारी आज़ादी की लड़ाई को बहुत ही करीब से देखा है . १९३१ के बाद जब भारत में महात्मा गाँधी की हर बात अंतिम सत्य मानी जाती थी, उस वक़्त नई दिल्ली में ही आज़ादी की सारी बातें होती थीं. गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट १९३५ के बाद यह तय हो गया था कि अँगरेज़ को जाना ही पड़ेगा . लेकिन वह तरह तरह के तरीकों से उसे टालने की कोशिश कर रहा था . नयी दिल्ली क महत्व इतना बढ़ गया कि बम्बई के बैरिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना ने भी नयी दिल्ली के जनपथ पर एक मकान खरीद लिया और यहीं जम गए. उसके बाद ज़्यादातर वक़्त उन्होंने दिल्ली में ही गुज़ारा . अंग्रेजों के मित्र थे इसलिए उन्हें एडवांस में मालूम पड़ गया था कि बंटवारा होगा और फाइनल होगा . जैसा कि हर चालाक आदमी करता है , उन्होंने अपने करीबी दोस्त , राम कृष्ण डालमिया के हाथों अपने घर का सौदा किया और नयी दिल्ली के सफ़दरजंग हवाई अड्डे से कराची के लिए उड़ गए. उन्हें मालूम था कि अब वे दुबारा दिल्ली नहीं आयेगें .
इसी नई दिल्ली में महात्मा गाँधी ने अपनी अंतिम सांस ली. नफरत के सौदागरों की पार्टी के एक सिरफिरे ने उन्हें मार डाला . नयी दिल्ली में ही लोकतंत्र की बुनियाद रखी गयी जिसे जवाहरलाल नेहरू ने दिन रात एक करके मज़बूत बनाया . लेकिन अपनी बेटी को गद्दी देने के चक्कर में उन्होंने वंशवाद की बुनियाद रख दी. इसी दिल्ली को निशाना बनाकर पाकिस्तानी तानाशाह अयूब खां ने दोनों मुल्कों पर १९६५ की लड़ाई थोपी. भारत तो उस झटके से बच गया लेकिन पाकिस्तान आज जिस दुर्दशा से गुज़र रहा है ,उसमें उस मूर्खतापूर्ण युद्ध का बहुत अधिक योगदान है .नयी दिल्ली ने संजय गाँधी का आतंक भी देखा जो उन्होंने इमरजेंसी के दौरान इस शहर पर बरपा किया था . नयी दिल्ली में पर जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छः लाख लोगों ने दस्तक दी तो घबडाकर इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगा दी. बाद में जनता पार्टी का असफल प्रयोग भी यहीं किया गया . इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद १९८४ में इसी शहर में सिखों क क़तले-आम हुआ और यहीं पर वह लोकशाही परवान चढी जिसके बीज जवाहरलाल नेहरू ने बोये थे. आज जब लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों को ख़तरा पैदा हो गया है , भ्रष्टाचार और क्रिमिनल गवर्नेंस का ज़माना है तो इसी नयी दिल्ली में तय होगा कि भारत का मुस्तकबिल क्या होगा