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Thursday, February 10, 2011

बनारसी तहजीब का दस्तावेज़ है काशी का अस्सी

शेष नारायण सिंह

अपने देश में साहित्यिक रचनाओं को आधार बनाकर फ़िल्में बनाने का फैशन नहीं है लेकिन हर दौर में कोई फिल्मकार ऐसा आता है जो यह पंगा लेता है . ज़्यादातर फ़िल्में बाज़ार में पिट जाती हैं लेकिन कला की दुनिया में उनका नाम होता है . मुंशी प्रेमचंद, सआदत हसन मंटो , अमृत लाल नागर, फणीश्वर नाथ रेणु, अमृता प्रीतम जैसे बड़े लेखकों की कहानियों पर फ़िल्में बन चुकी हैं . कुछ फ़िल्में तो बाज़ार में भी बहुत लोकप्रिय हुईं लेकिन कुछ कला के मोहल्ले में ही नाम कमा सकीं . जब अमृतलाल नागर मुंबई गए थे तो बहुत खुश होकर गए थे लेकिन जब वहां देखा कि फ़िल्मी कहानी लिखने वाले को किरानी कहते थे और वह आमतौर पर फिल्म के हीरो का चापलूस होता था , तो बहुत मायूस हुए. किरानी बिरादरी का मुकाबला अमृतलाल नागर तो नहीं ही कर सकते थे क्योंकि इन किरानियों की खासियत यह होती थी कि उन पर हज़ारों कमीने न्योछावर किये जा सकते थे . नागर जी वापस लौट आये अपने लखनऊ की गोद में और दोबारा उधर का रुख नहीं किया .अब सुना जा रहा है कि एक जिद्दी फिल्मकार ने उनकी किसी रचना पर फिल्म बनाने का मन बना लिया है . इन श्रीमान जी ने इसके पहले भी पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम के एक मामूली उपन्यास पर बहुत अच्छी फिल्म बनायी थी . भारत के बँटवारे के वक़्त लाहौर और अमृतसर के बीच के कुछ गाँवों को इस फिल्मकार ने फिर से जिंदा कर दिया था. हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार प्रोफ़ेसर काशीनाथ सिंह का कहना है कि इतने घटिया उपन्यास पर जिस आदमी ने इतनी बढ़िया फिल्म बनाई है वह निश्चित रूप से बहुत बेहतरीन रचनाधर्मी होगा . डाक्टरी की पढाई कर चुके इस फिल्मकार को लोग फिल्म ' पिंजर ' के निदेशक के रूप में जानते हैं .वैसे भारतीय जनमानस में इसकी पहचान आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य के रूप में भी है . इन्होने 'चाणक्य 'नाम के सीरियल को दूरदर्शन के लिए बनाया था. वह बहुत लोकप्रिय हुआ था . जब इस चाणक्य ने काशीनाथ सिंह से उनके बहुचर्चित उपन्यास ' काशीं के अस्सी ' के ऊपर फिल्म बनाने की बात की तो काशीनाथ सिंह तुरंत तैयार हो गए. मुझसे उन्होंने कहा कि जिस आदमी ने ढाई हज़ार साल पुराने चाणक्य को समकालीन चरित्र बना दिया हो और एक बहुत ही रद्दी उपन्यास पर पिंजर जैसी महान फिल्म बना दी हो , जब वह आपके किसी उपन्यास पर फिल्म बनाने की बात करे तो बिना कुछ सोचे समझे हाँ कर देना चाहिए . मुंबई की फिल्म सिटी में जब इस फिल्म की शूटिंग चल रही थी , तो काशीनाथ सिंह से फिल्म के सेट पर ही मुलाक़ात हो गयी . बहुत खुश थे . उनको लग रहा था कि मुंबई में ही अस्सी की वह पप्पू की दुकान , पांडे जी का घर, वह मोहल्ला जिंदा हो उठा है . हो भी क्यों न . फिल्मकार डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने अस्सी वाले पप्पू की पूरी दुकान खरीद कर उसे ट्रक में लाद कर मुंबई की फिल्म सिटी में फिर से स्थापित कर दिया है . पप्पू भी खुश कि उसकी टुटही दुकान को नए सिरे से सजाने का लिए पैसा मिल गया. और डॉ द्विवेदी भी खुश कि उनकी फिल्म का सेट एकदम सही बन गया .
डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने काशीनाथ सिंह को मुंबई आमंत्रित किया था. वहां पर फिल्म की शूटिंग देख कर वे बहुत ही खुश हुए. जिस दिन काशीनाथ सिंह सेट पर पंहुचे थे ,पड़ाइन और रामदेई से सम्बंधित सीन की शूटिंग चल रही थी. शूटिंग शुरू होने के पहले उन्हें कलाकारों से मिलाया गया तो बहुत मायूस दिखे . उन्हें लगा कि पड़ाइन और रामदेई के चरित्र में जो बनारसी मस्ती और शोखी हैं उसकी एक्टिंग कर पाना इन लड़कियों के बस की बात नहीं है . लेकिन जब उन्हें काम करते देखा तो खुशी से झूम उठे .काशी का अस्सी उपन्यास की पड़ाइन तीन बच्चों की माँ है . काशीनाथ सिंह को लगता था कि साक्षी तंवर जैसी कम उम्र की अभिनेत्री कैसे वह काम कर पायेगी लेकिन उसके शाट को देख कर कहा कि भाई पडाइन का ठसका तो है इस पात्र में . रामदेई का रोल सीमा आजमी ने किया है उसकी भी उन्होंने बहुत तारीफ़ की लेकिन शूटिंग देखने के बाद ..उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से डॉ द्विवेदी बहुत बड़ा फिल्मकार है . फिल्म में सनी देओल का रोल एक बनारसी पण्डे का है . कमीज़ ,धोती,चप्पल और मूंछ धारी सनी देओल को अगर एकाएक देखें तो लगेगा ही नहीं कि वह मुंबई का इतना बड़ा फ़िल्मी कलाकार है . उनकी शख्शियत पूरी तरह से बदल गयी है इस फिल्म में . डॉ द्विवेदी ने बताया कि सनी देओल ने फिल्म में पांडे जी का रोल तैयार करने में बहुत मेहनत की है
काशी का अस्सी में लखनवी तड़का भी है क्योंकि इस फिल्म के प्रोड्यूसर विनय तिवारी लखनऊ के हैं . उन्होंने उपन्यास को पढ़ रखा था और जब डॉ.द्विवेदी ने फिल्म बनाने का प्रस्ताव किया तो वे तुरंत राजी हो गए. भोजपुरी फिल्मों के बड़े कलाकार रवि किशन कन्नी के रोल में हैं जब कि मिथिलेश चतुर्वेदी को डॉ गया सिंह का रोल मिला है . दर असल डॉ गया सिंह का चरित्र ही कहानी को लगातार खींचता रहता है .मुंबई में फिल्म के सेट पर काशीनाथ सिंह के बड़े भाई और हिन्दी के सबसे बड़े नाम , डॉ नामवर सिंह भी हो आये हैं . शूटिंग देख कर वे भी बहुत खुश हुए और लोगों को बताया कि जब वे बनारस में फाकामस्ती कर रहे थे तो उनकी प्रिय चाय की दुकान , केदार की दुकान थी लेकिन जब तक कासी का ज़माना आया , तब तक पप्पू की दुकान ही साहित्य का जंक्शन हो चुकी थी . डॉ काशीनाथ सिंह को उम्मीद है कि यह फिल्म अस्सी की संस्कृति को दुनिया के सामने अपने असली रूप में रखेगी और दो शताब्दियों के संधिकाल के बनारस की ज़िंदगी और मस्ती को जिंदा कर देगी.

Friday, December 17, 2010

इस बार पिंजर के निदेशक ने बनारस का मैदान लिया है

शेष नारायण सिंह

प्रोफ़ेसर काशी नाथ सिंह हिन्दी के बेहतरीन लेखक हैं . ज़रुरत से ज्यादा ईमानदार हैं और लेखन में अपने गाँव जीयनपुर की माटी की खुशबू के पुट देने से बाज नहीं आते. हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े भाई के सबसे छोटे भाई हैं . उनके भईया का नाम दुनिया भर में इज्ज़त से लिया जाता है. और स्कूल से लेकर आज तक हमेशा अपने भइया से उनकी तुलना होती रही है .उनके भइया को उनकी कोई भी कहानी पसंद नहीं आई , अपना मोर्चा जैसा कालजयी उपन्यास भी नहीं . यह अलग बात है कि उस उपन्यास का नाम दुनिया भर में है . कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है ' साठ और सत्तर के दशक की छात्र राजनीति पर लिखा गया वह सबसे अच्छा उपन्यास है . काशीनाथ सिंह फरमाते हैं कि शायद ही उनकी कोई ऐसी कहानी हो जो भइया को पसंद हो लेकिन ऐसा संस्मरण और कथा-रिपोर्ताज भी शायद ही हो जो उन्हें नापसंद हो . शायद इसीलिये काशीनाथ सिंह जैसा समर्थ लेखक कहानी से संस्मरण और फिर संस्मरण से कथा रिपोर्ताज की तरफ गया . उनके भइया भी कोई लल्लू पंजू नहीं , हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष , डॉ नामवर सिंह हैं . नामवर सिंह ने काशी में आठ आने रोज़ पर भी ज़िंदगी बसर की है और इतना ही खर्च करके हिन्दी साहित्य को बहुत बड़ा योगदान दिया है. काशीनाथ सिंह ने बताया है कि उनके भईया ने ज़िंदगी में बहुत कम समझौते किये हैं , हम यह भी जानते हैं कि उनके भइया की आदर्शवादी जिद के कारण परिवार को और काशीनाथ सिंह को बहुत कुछ झेलना पड़ा . काशीनाथ सिंह के लिए तो सबसे बड़ी मुसीबत यही थी कि जाने अनजाने वे जीवन भर नामवर सिंह के बरक्स नापे जाते रहे .जो लोग नामवर सिंह को जानते हैं , उन्हें मालूम है कि किसी भी सभा सोसाइटी में नामवर सिंह का ज़िक्र आ जाने के बाद बाकी कार्यवाही उनके इर्द गिर्द ही घूमती रहती है . मैं यह बात १९७६ से देख रहा हूँ . नामवर सिंह का विरोध करने पर मैंने कुछ लोगों को पिटते भी देखा है . इमरजेंसी के तुरंत बाद ३५ फिरोजशाह रोड , नयी दिल्ली में एक सम्मलेन हुआ था . उस वक़्त की एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक का एक चेला मय लाव लश्कर मुंबई से दिल्ली पंहुचा था. बहुत कुछ पैसा कौड़ी बटोर रखा था उसने और नामवर सिंह के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश कर रहा था . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने उस धतेंगड़ की विधिवत पिटाई कर दी थी . पीटने वालों में वे लोग भी थे जो आज के बहुत बड़े कवि और लेखक हैं .उस पहलवान को दो चार ठूंसा मैंने भी लगाया था , . बाद में जब मैंने भाई लोगों से पूछा कि जे एन यू की परंपरा तो बहस की है , इस बेचारे को शारीरिक कष्ट क्यों दिया जा रहा है , तो आज के एक बड़े कवि ने बताया कि भैंस के आगे बीन बजाने की स्वतंत्रता तो सब को है लेकिन उसको समझा सकना हमेशा से असंभव रहा है .इसलिए अगर पशुनुमा साहित्यकार को कुछ समझाना हो तो यही विधि समीचीन मानी गयी है .

मुराद यह है कि काशीनाथ सिंह इस तरह के नामवर इंसान के छोटे भाई हैं . आज भी जब नामवर सिंह उनको "काशीनाथ जी" कहते हैं तो आम तौर पर काशी कहे जाने वाले बाबू साहेब असहज हो जाते हैं. आम तौर पर लेखकों को कुछ भी लिखते समय आलोचक की दहशत नहीं होती लेकिन काशीनाथ सिंह को तो कुछ लिखना शुरू करने से पहले से ही देश के सबसे बड़े आलोचक का आतंक रहता है . एक तो बाघ दुसरे बन्दूक बांधे. लेकिन इन्हीं हालात में डॉ काशीनाथ सिंह ने हिन्दी को बेहतरीन साहित्य दिया है .' घोआस' जैसा नाटक, 'आलोचना भी रचना है ' जैसी समीक्षा ,'अपना मोर्चा 'और ' काशी का अस्सी 'जैसा उपन्यास डॉ काशीनाथ सिंह ने इन्हीं परिस्थितियों में लिखा है. 'अपना मोर्चा ' विश्व साहित्य में अपना मुकाम बना चुका है . और अब पता चला है कि उनके उपन्यास " काशी का अस्सी " को आधार बनाकर एक फिल्म बन रही है . इस फिल्म का निर्माण हिन्दी सिनेमा के चाणक्य , डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी कर रहे हैं .अपने नामी धारावाहिक " चाणक्य " की वजह से दुनिया भर में पहचाने जाने वाले डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने जब अमृता प्रीतम की कहानी के आधार पर फिल्म ' पिंजर ' बनाई थी तो भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के दौरान पंजाब में दर्द का जो तांडव हुआ था ,वह सिनेमा के परदे पर जिंदा हो उठा था . छत्तोआनी और रत्तोवाल नाम के गावों के हवाले से जो भी दुनिया ने देखा था , उस से लोग सिहर उठे थे . जिन लोगों ने भारत-पाकिस्तान के विभाजन को नहीं देखा उनकी समझ में कुछ बात आई थी और जिन्होंने देखा था उनका दर्द फिर से ताज़ा हो गया था. मैंने उस फिल्म को अपनी पत्नी के साथ सिनेमा हाल में जाकर देखा था,. मेरी पत्नी फिल्म की वस्तुपरक सच्चाई से सिहर उठी थीं .बाद में मैंने कई ऐसी बुज़ुर्ग महिलाओं के साथ भी फिल्म " पिंजर " को देखा जो १९४७ में १५ से २५ साल के बीच की उम्र की रही होंगीं . उन लोगों के भी आंसू रोके नहीं रुक रहे थे . फिल्म बहुत ही रियल थी. लेकिन उसे व्यापारिक सफलता नहीं मिली.

" पिंजर " का बाक्स आफिस पर धूम न मचा पाना मेरे लिए एक पहेली थी . मैंने बार बार फिल्म के माध्यम को समझने वालों से इसके बारे में पूछा .किसी के पास कोई जवाब नहीं था . अब जाकर बात समझ में आई जब मैं यह सवाल डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी से ही पूछ दिया . उनका कहना है शायद अवसाद को बहुत देर तक झेल पाना इंसानी प्रकृति में नहीं है .दूसरी बात यह कि फिल्म के विज़ुअल कला पक्ष को बहुत ही आथेंटिक बनाने के चक्कर में पूरी फिल्म में धूसर रंग ही हावी रहा .तीसरी बात जो उन्होंने बतायी वह यह कि फिल्म लम्बी हो गयी, तीन घंटे तक दर्द के बीच रहना बहुत कठिन काम है . मुझे लगता है कि डॉ साहब की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ . ऐतिहासिक फिल्म बनाना ही बहुत रिस्की सौदा है और उसमें दर्द को ईमानदारी से प्रस्तुत करके तो शायद आग से खेलने जैसा है , लेकिन अपने चाणक्य जी ने वह खेल कर दिखाया उनकी आर्थिक स्थिति तो शायद इस फिल्म के बाद खासी पतली हो गयी. लेकिन उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक ऐसी फिल्म दे दी जो आने वाली पीढ़ियों के लिए सन्दर्भ विन्दु का काम करेगी,.

पता चला है कि डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने काशी नाथ सिंह के उपन्यास " काशी के अस्सी " के आधार पर फिल्म बनाने का मंसूबा बना लिया है . पिछली गलतियों से बचना तो इंसान का स्वभाव है . कहानी के पात्रों के साथ ईमानदारी के लिए विख्यात डॉ द्विवेदी से उम्मीद की जानी चाहिए कि बनारस की ज़िंदगी की बारीक समझ पर आधारित काशीनाथ सिंह के उपन्यास के डॉ गया सिंह , उपाध्याय जी , केदार , उप्धाइन वगैरह पूरी दुनिया के सामने नज़र आयेगें . हालांकि इस कथानक में भी दर्द की बहुत सारी गठरियाँ हैं लेकिन बनारसी मस्ती भी है . अवसाद को " पिंजर " का स्थायी भाव बना कर हाथ जला चुके चाणक्य से उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार वे मस्ती को ही कहानी का स्थायी भाव बनायेगें , दर्द का छौंक ही रहेगा . व्यापारिक सफलता की बात तो हम नहीं कर सकते , क्योंकि वह विधा अपनी समझ में नहीं आती लेकिन चाणक्य और पिंजर के हर फ्रेम को देखने के बाद यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी के एक बेहतरीन उपन्यास पर आधारित एक बहुत अच्छी फिल्म बाज़ार में आने वाली है . इस उपन्यास में बनारसी गालियाँ भी हैं लेकिन मुझे भरोसा है कि यह गालियाँ फिल्म में वैसी ही लगेगीं जैसी शादी ब्याह के अवसर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाये जाने वाले मंगल गीत .