Tuesday, January 18, 2011

किसी लेख पर विद्वान् विश्लेषक और लेखक वीरेन्द्र जैन की टिप्पणी

वीरेन्द्र जैन्

विष्णु बैरागीजी इस नेट की दुनिया में साम्प्रदाय्क संगठन के कुछ लोग अपने सैकड़ों छद्म नाम बना कर गालियां देने का यह काम ठेके पर कर रहे हैं और वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। तर्क वहां दिया जा सकता है जहाँ लोग ज्ञान पिपासु हों, यहाँ तो मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में कहा जा सकता है-

बन्द किवार किये बैठे हैं, अब आये कोई समझाने
इसलिए इनमें से अगर कोई अज्ञानी भी है तो जीसस के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि हे प्रभु इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं

Monday, January 17, 2011

पेट्रोल की बढ़ी कीमत इस देश के गरीब आदमी के मुंह पर तमाचा है .

शेष नारायण सिंह

केंद्र सरकार ने महंगाई की एक और खेप आम आदमी के सिर पर लाद दिया है . आलू प्याज सहित खाने की हर चीज़ की महंगाई की मार झेल रही जनता के लिए पेट्रोल की बढ़ी कीमतें बहुत भारी हमला हैं . हालांकि फौरी तौर पर गरीब आदमी सोच सकता है कि बढ़ी हुई कीमतों से उनका क्या लेना देना लेकिन सही बात यह है कि यह मंहगाई निश्चित रूप से कमर तोड़ है . १९६९ में जब स्व इंदिरा गाँधी ने डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों में मामूली वृद्धि की थी तो साप्ताहिक ब्लिट्ज के महान संपादक , रूसी करंजिया ने अपने अखबार की हेडिंग लगाई थी कि पेट्रोल के महंगा होने से आम आदमी सबसे ज्यादा प्रभावित होगा , सबसे बड़ी चपत उसी को लगेगी . उन दिनों लोगों की समझ में नहीं आता था कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी कैसे प्रभावित होगा. स्व करंजिया ने अगले अंक में ही बाकायदा समझाया था कि किस तरह से पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी प्रभावित होता है . उन दिनों तो उनका तर्क ढुलाई के तर्क पर ही केंद्रित था लेकिन उन्होंने समझाया था कि डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें बढ़ने या घटने का लाभ या हानि आम आदमी को सबसे ज्यादा होता है . नेहरू युग के बाद का युग था इसलिए घूस का वह बुलंद मुकाम उन दिनों नहीं हासिल था जो आजकल है . आजकल तो हर क्षेत्र में घूस को स्थायी तत्व माना जाता है लेकिन उन दिनों हर अफसर और नेता घूस जीवी नहीं थे . लेकिन करंजिया ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि हर उस चीज़ का असर आम आदमी पर पड़ेगा जिसका असर घूसजीवी अधिकारियों पर पड़ता है क्योंकि वह अपने सारे खर्च का मुआवजा गरीब आदमी से वसूलता है .

आज की हालात अलग हैं . यह मंहगाई जनविरोधी नीतियों की कई साल से चली आ रही परम्परा का नतीजा है . विपक्षी पार्टियों की समझ में यह बात कब आयेगी कि जब संकट की हालात शुरू हो रही हों ,उसी वक़्त सरकार की नीतियों के खिलाफ जागरण का अभियान शुरू कर देने से आम आदमी की जान महंगाई के थपेड़ों से बचाई जा सकती है. पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि तो ऐसी बात है जो सौ फीसदी सरकारी कुप्रबंध का नतीजा है . अगर कांग्रेस के शुरुआती दौर की बात छोड़ भी दी जाए जब घनश्याम दास बिड़ला की अम्बेसडर कार को जिंदा रहने के लिए अपने देश में कारों का वही इंजन चलता रहा जिसे बाकी दुनिया बहुत पहले ही नकार चुकी थी क्योंकि वह पेट्रोल बहुत पीता था . अम्बेसडर कार में वही इंजन चलता रहा लेकिन कांग्रेस में बिड़ला की पंहुच इतनी थी कि सरकारी कार के रूप में अम्बेसडर ही चलती रही . बहर हाल यह पुरानी बात है और उसके लिए ज़िम्मेदार किसी को ठहरा लिया जाए लेकिन हालात बदलेगें नहीं . केंद्र सरकार का मौजूदा रुख निश्चित रूप से अफ़सोस नाक है जब कि वह पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों को बेहिसाब बढ़ने से रोकने की दिशा में पहल नहीं किया. बहुत मेहनत से इस देश में पब्लिक सेक्टर का विकास हुआ था लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन और उदारी करण की आर्थिक नीतियों ने देश के आर्थिक विकास में सबसे ज्यादा योगदान कर सकने वाली कंपनियों को ही अपने चहेते पूंजीपतियों को सौंप दिया . नतीजा यह हुआ कि सरकारी कंपनी ओ एन जी सी और अन्य पेट्रोलियम कंपनियों को राजनीतिक रूप से कनेक्ट पूंजीपतियों को सौंप दिया गया. बात अब सरकार की काबू से बाहर जा चुकी है . लेकिन पिछले २० वर्षों में पूंजीपतियों को इतनी ताक़त दे दी गयी है कि अब वे हर क्षेत्र में सरकार को चुनौती देने की स्थिति में हैं,मनमानी कर सकने की स्थिति में हैं . सरकार के पास निजी पूंजी को काबू कर सकने की ताक़त अब बिलकुल नहीं है .

इस पृष्ठभूमि में बढ़ती कीमतों के अर्थशास्त्र को समझने की ज़रुरत है . दुर्भाग्य यह है कि देश का मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व कुछ भी कंट्रोल कर पाने की स्थिति में नहीं है . गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियां होती हैं लेकिन जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं वे बहुत ही खतरनाक दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं . आम आदमी को पूंजीपति वर्ग के कारखानों के लिए कच्चा माल और बाज़ार दोनों रूप में मान चुकी सरकार को चाहिए कि फ़ौरन ज़रूरी क़दम उठाये वरना अफ्रीका के कुछ देशों की तरह अपने यहाँ भी खाने के लिए दंगे शुरू हो जायेगें .क्योंकि अगर खाने पीने की हर चीज़ नागरिकों की सीमा के बाहर हो गयी तो आम आदमी लूट खसोट पर आमादा हो जाएगा .अगर ऐसी नौबत आई तो हालात को संभालने वाला कोई नहीं होगा क्योंकि उस हालात में सभी मंहगाई के शिकार हो चुके होगें

Sunday, January 16, 2011

यू पी में मुसलमानों के वोटों के चक्कर में हैं कई पार्टियां

शेष नारायण सिंह

केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार कभी भी हो सकता है . कुछ मंत्रियोंकी छुट्टी की भी चर्चा है,हालांकि फोकस नयी भर्तियों पर ही ज्यादा है . कुछ मंत्रियों के विभाग भी बदले जायेगें. अगले दो वर्षों में कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं . जानकार बताते हैं कि यह विस्तार आगामी चुनावों को ध्यान में रख कर किया जाएगा ,इसलिए राजनीतिक प्रबंधन मंत्रिमंडल की फेरबदल का स्थायी भाव होगा. मायावती ने उत्तर प्रदेश विधान सभा के उम्मीदवारों की सूची जारी करके राज्य की राजनीति की रफ़्तार को तेज़ कर दिया है . उत्तर प्रदेश में दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है .बीजेपी की शुरुआती कोशिश तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिये चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की थी लेकिन अब लगता है कि उनकी रणनीति भी बदल गयी है . खबर है कि अपेक्षाकृत उदार विचारों वाले राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश की कमान दी जाने वाली है . उनके मुख्य सहयोगी के रूप में मुख्तार अब्बास नकवी को रखे जाने की संभावना है. बीजेपी मूल रूप से नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी टाइप खूंखार लोगों को आगे करके उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण की राजनीति करना चाहती थी लेकिन नीतीश कुमार ने साफ़ बता दिया कि अगर इन अतिवादी छवि के लोगों को आगे किया गया तो यू पी में बीजेपी को एन डी ए का कवर नहीं मिलेगा . ,वहां बीजेपी के रूप में ही उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ना पड़ेगा. बिहार में नीतीश कुमार की सफलता के बाद मुसलमानों और पिछड़ों में उन्हें एक उदार नेता के रूप में देखा जाने लगा है . लगता है कि बीजेपी उनकी छवि को इस्तेमाल करके कुछ चुनावी मजबूती के चक्कर में है . केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस विस्तार में राजनीति की इन बारीकियों को भी ध्यान में रखा जाएगा, ऐसा अन्दर की बात जानने वालों का दावा है .
उत्तर प्रदेश में चुनावी रणनीति को डिजाइन करने वालों को मालूम रहता है कि आधे से ज्यादा सीटों पर राज्य का मुसलमानों की निर्णायक भूमिका रहती है . इसलिए बीजेपी के अलावा बाकी तीनों पार्टियां , बहुजन समाज पार्टी ,समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की कोशिश है कि मुसलमानों को साथ रखने की जुगत भिडाई जाए. पिछले क़रीब २० साल से उत्तर प्रदेश का मुसलमान मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को वोट देता रहा है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं हुआ . मुसलमान ने बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस दोनों को वोट दिया .उसकी नज़र में जो बीजेपी को हराने की स्थिति में था , वही मुस्लिम वोटों का हक़दार बना . उसके बाद भी मुलायम सिंह यादव ने कई राजनीतिक गलतियाँ कीं. एक तो अमर सिंह को पार्टी से निकाल कर उन्होंने अपने लिए एक मुफ्त का दुश्मन खड़ा कर लिया . अमर सिंह की मदद से पीस पार्टी ने राज्य के पूर्वी हिस्से में मुलायम सिंह को कहीं भी जीतने लायक नहीं छोड़ा है . दूसरी बड़ी गलती मुलायम सिंह यादव ने यह की कि उन्होंने आज़म खां को फिर से पार्टी में भर्ती कर लिया . जिसकी वजह से बड़ी संख्या में मुसलमान उनसे दूर चला गया . आज़म खां ने अपने व्यवहार से बहुत बड़ी संख्या में मुसलमानों को नाराज़ कर रखा है . उनकी राजनीतिक ताक़त का पता २००९ के लोकसभा चुनावों में चल गया था जब उनके अपने विधान सभा क्षेत्र में जयाप्रदा भारी वोटों से विजयी रही थीं जबकि आज़म खां ने उनको हराने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था .. ज़ाहिर है कि आज़म खां के साथ अब राज्य का मुसलमान नहीं है . इसका मातलब यह हुआ कि मुसलमानों के वोटों की दावेदारी में मुलायम सिंह बहुत पीछे छूट गए हैं . वे अब उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के प्रिय पात्र नहीं रहे.

बीजेपी के खिलाफ मज़बूत राजनीतिक ताक़त के रूप में मुसलमानों की नज़र राज्य में बी एस पी और कांग्रेस पर पड़ रही है. मायावती पहले से ही वरुण गाँधी टाइप लोगों को जेल की हवा खिलाकर इस दिशा में पहल कर चुकी हैं . लेकिन कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी की मुस्लिम बहुल इलाकों की यात्राओं के अलावा कोई पहल नहीं हुई है. सच्चर कमेटी जिस से कांग्रेस को बहुत उम्मीद थी ,वह कहीं लागू ही नहीं हुई है . मुसलमानों के बच्चों के लिए वजीफे का काम भी रफ़्तार नहीं पकड़ सका. अल्पसंख्यक मंत्रालय ने उस दिशा में ज़रूरी पहल ही नहीं की..मंत्रिमंडल का विस्तार एक ऐसा मौक़ा है जब कांग्रेस मुसलमानों में यह सन्देश दे सकती है कि वह कौम को क़ाबिले एहतराम मानती है . मोहसिना किदवई उत्तरप्रदेश के राजनीतिक मुसलमानों की सबसे सीनियर नेता हैं . उन्हें अगर सम्मान दिया गया तो कुछ मुसलमान कांग्रेस को विकल्प मान सकते हैं . ज़फर अली नकवी भी सांसद हैं . उनकी वजह से भी देहाती इलाकों में मुसलमानों को बताया जा सकता है कि कांग्रेस उन्हें गंभीरता से लेती है . अभी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के बीच से केवल सलमान खुर्शीद मंत्रिमंडल में हैं . एक तो आम मुसलमान उन्हें यू पी वाला मानता ही नहीं क्योंकि वे अपने पुरखों का नाम लेकर उत्तर प्रदेश में केवल चुनाव लड़ने जाते हैं . दूसरी बात जो उनको मुसलमान नेता कभी नहीं बनने देगी , वह अल्पसंख्यक मंत्रालय में उनकी काम करने या यूं कहिये कि काम न करने की योग्यता है .मुसलमानों के लिए इतने महत्वपूर्ण मंत्रालय को उन्होंने जिस तरह से चलाया है वह किसी की तारीफ़ का हक़दार नहीं बन सका.
ऐसी हालात में अगर कांग्रेस ने मुसलमानों का दिल जीतने के लिए कुछ कारगर क़दम नहीं उठाती तो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव बीजेपी बनाम बहुजन समाज पार्टी हो जाएगा . . ज़ाहिर है ऐसा होने पर मुसलमान बहुजन समाज पार्टी के साथ होगा. हाँ, अगर कांग्रेस ने मुसलमान के पक्ष में फ़ौरन कोई बड़ा सन्देश दे दिया तो कांग्रेस भी मुख्य लड़ाई में आ सकती है . अगर विधान सभा में कांग्रेस ने अपनी धमाकेदार मौजूदगी दर्ज करा दी तो लोकसभा २०१४ में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक मज़बूत ताक़त बन सकेगी . जिसके लिए राहुल गाँधी और दिग्विजय सिंह खासी मेहनत कर रहे हैं

Thursday, January 13, 2011

यह कवि फौलाद का बना है ,अपनी शर्तों पर कविता करेगा

शेष नारायण सिंह


फेसबुक पर एक बहुत ही दिलचस्प बहस चल रही है.जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उनके छात्र जीवन के साथी असरार खां ने जनवादी कवि रमाशंकर यादव विद्रोही के बारे में कुछ ऐसे बयान दे दिए हैं जिन पर विवाद है. जे एन यू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर से उनकी तुलना कर देने के बाद कुछ लोगों को नागवार गुज़रा और उन्होंने विद्रोही की कविता पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में १९८३ में हुए संघर्ष की कथा में नायकों और खलनायकों का ज़िक्र चल पड़ा और बात विद्रोही की कविता से हट कर छात्र राजनीति की बारीकियों पर केन्द्रित हो गयी. मुझे लगता है कि चंद्रशेखर और विद्रोही दोनों उस महान विश्वविद्यालय के छात्र हैं और दोनों की अपनी अपनी विशिष्टता है . दोनों ने ही अवाम के संघर्ष की गाथा में योगदान किया है .चन्द्रशेखर का हमला सीधा था तो शासक वर्गों के एक मुष्टंडे ने उनकी जान ही ले ली और विद्रोही ने कविता के ज़रिये आम आदमी की तकलीफ को आवाज़ देने की कोशिश की ,तो अभी तक उनकी सांस चल रही है. इसलिए तुलना की बात यहीं ख़त्म की जानी चाहिए .लेकिन कविता के मैदान में विद्रोही का जवाब नहीं है. उनकी अवधी कविता , 'जगीर मांगता ,जगीर मांगता ,कलजुगहा मजूर पूरी सीर मांगता ' खेतिहर मजदूरों की उस संघर्ष गाथा की अभिव्यक्ति है जिसमें मजूर के दर्द की जो परते हैं वे उसकी उस हिम्मत की बात को रेखांकित करती हैं . विद्रोही ने इसी दर्द और हिम्मत को बा-आवाज़े बुलंद ऐलान किया है . इसी कविता में विद्रोही बताते हैं अब मजूर अपने पसीने का रेट मांग रहा है . वह इनाम से संतुष्ट नहीं होने वाला ,वह हक की बात करता है . मैं साहित्य का आलोचाक नहीं हूँ ,इस अवधी कविता की साहित्यिक व्याख्या के झेमेले में नहीं पड़ना चाहता लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अवधी क्षेत्र में किसी भी संघर्ष के अगले दस्ते का गीत बन सकने की ताक़त वाला यह गीत आलोचकों की नज़र से या तो गुज़रा ही नहीं है और या उन लोगों का वर्गचरित्र आड़े आ गया होगा और इसे मामूली कविता मानकर भुला दिया गया होगा. जिस दौर में विद्रोही जे एन यू आये थे, उस दौर के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों और प्राध्यापकों ने हिन्दी साहित्य में बहुत ज्यादा योगदान किया है . कविता,आलोचना,कहानी,उपन्यास सभी क्षेत्रों के चोटी के आज के अधिकतर रचनाकार उस दौर में उसी विश्वविद्यालय में रहते थे . विद्रोही की कविताओं के बारे में उस तरह का जिक्र नहीं हुआ जैसा बाकी लोगों का हुआ. जब विद्रोही अपनी एक कविता में चेतावनी देते हैं कि 'नाच नाचेगी ऐसे कडाही में पूड़ी, खायेगा वही जो हवन से बचेगा ' तो अपने गाँव में बैठे उस शोषण की बारीकी को बात कर रहे होते हैं जो काफी हाउस वाले आलोचकों और बुद्धिजीवियों की समझ में नहीं आयेगा. इस कविता में सामंती मानसिकता की बखिया भी उधेड़ी गयी है . इस कविता में अवध के ग्रामीण समाज के उस इतिहास को रेखांकित करते हैं जो त्रिलोचन की समझ में तो आती थी लेकिन बाकी लोगों के लिए वह बरास्ता अनुवाद ही अपनी मंजिल तय करती है .
सर्वहारा के नाम पर साहित्य की खेती करने वालों के उस विशिष्ट वर्ग में विद्रोही की पंहुच नहीं है, जो किसी को भी महान साहित्यकार के रूप में पहचान दिलाती है . उनकी कविता को जे एन यू कैम्पस के बाहर पंहुचाने में विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने प्रमुख भूमिका निभाई है, जनवादी कवियों के बीच उनकी कविता की इज़्ज़त भी है . इन छात्रों ने उनकी कुछ कविताओं को यू ट्यूब पर डाल दिया है जिसके ज़रिये विद्रोही को सुना ,देखा जा सकता है लेकिन गरीब आदमी की पक्षधरता का दावा करने वाली राजनीतिक जमातों और उनके साहित्यिक ढपलीबाजों ने कुछ नहीं किया . मैं विद्र्ही को १९७४ से जानता हूँ जब वे मेरे छात्र के रूप में बी ए में दाखिल हुए थे. वामपंथी थे ,कवि थे और बहुत ही भले आदमी थे. जिस कालेज में विद्रोही पढने गए थे ,वह बांयें बाजू के साहित्यकार और कवि स्व मान बादुर सिंह के गाँव में था. मान बहादुर बहुत पहले से कवितायें करते थे लेकिन उसे उन्होंने कहीं भी छपने के लिए नहीं भेजा था . बाद में उनकी शोहरत देख कर लगा कि वे अच्छे कवि रह एहोगें . लेकिन विद्रोही की १९७४ की कवितायें जब उनको दिखाई गयीं तो वे बहुत प्रभावित हुए थे और कहा कि विद्रोही की सोच बिलकुल मौलिक है और भाषा बहुत ही दमदार . कादीपुर में मई दिवस के एक जुलूस में विद्रोही की कवितायें पढी और सराही गई थीं . १९७९ में वे, जे एन यू आ गए और यहाँ सामंती सोच के हर अलंबरदार ने उनका शोषण किया ,उनके परिवार को तहस नहस किया और उनको विश्वविद्यालय से बाहर निकाल कर सड़क पर खदेड़ दिया लेकिन विद्रोही के जीवट का उन्हें अंदाज़ नहीं था .बगावत का यह कवि तब से वहीं सड़क पर डटा हुआ है और आपनी बात को अपनी शर्तों पर कह रहा है . इस काम के लिए उसे अपने शरीर पर अथाह कष्ट झेलने पड़ रहे हैं लेकिन कमज़ोर लोगों की तरह वह आत्महत्या नहीं करेगा , वह जिंदा रहेगा .

Tuesday, January 11, 2011

ज़ुल्मो सितम के कोहे गिरां, रूई की तरह उड़ जायेगें

शेष नारायण सिंह



कांग्रेस के महामंत्री दिग्विजय सिंह की राजनीति रंग लाने लगी है . अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार में डूबे हुए सूरमाओं के ऊपर से मीडिया का ध्यान हटाने का जो प्रोजेक्ट उन्होंने शुरू किया था , वह अब चमकना शुरू हो गया है . जिन लोगों ने उनकी पार्टी के बड़े नेताओं को भ्रष्ट साबित करने का मंसूबा बनाया था,उनके हौसले पस्त हैं . नागपुर में विराजने वाले उन लोगों के मालिकों के ख़ास लोगों को ही दिग्विजय सिंह के खेल ने अपनी जान बचाने के लिए मजबूर कर दिया है. आर एस एस के बड़े पदों पर विराजमान लोग इस क़दर दहशत में हैं कि इनके सबसे बड़े अधिकारी ने सूरत की एक सभा में सफाई दी कि आर एस एस के जो लोग भी गलत काम करते हैं ,उन्हें संगठन से निकाल दिया जाता है . यानी वे यह कहना चाह रहे हैं कि असीमानंद और इन्द्रेश कुमार अब उनके साथ नहीं हैं . उनको भी मालूम है कि असीमानंद से तो शायद पिंड छूट भी जाए लेकिन इन्द्रेश कुमार से जान नहीं बचने वाली है क्योंकि वह आज तक उनके संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय पदाधिकारी है . अभी कुछ दिन पहले तक बीजेपी के लोग इन्द्रेश कुमार के पक्ष में बयान देते पाए जा चुके हैं . शुरू में तो आर एस एस ने दिग्विजय सिंह को यह कहकर धमकाने की कोशिश की थी कि वे हिन्दुओं के खिलाफ हैं इसलिए आतंकवाद को भगवा रंग दे रहे हैं . लेकिन दिग्विजय सिंह ने तुरंत जवाबी हमला बोल दिया और ऐलान कर दिया कि भगवा रंग तो बहुत ही पवित्र रंग है , वास्तव में उनका विरोध संघी आतंकवाद से है . लगता है कि भ्रष्टाचार के कांग्रेसी खेल से फिलहाल मीडिया का ध्यान बंटाने में दिग्विजय सिंह कामयाब हो गए हैं क्योंकि आतंकवाद की खबरें अगर बाज़ार में हो तो भ्रष्टाचार का नंबर दूसरे मुकाम पर अपने आप पंहुच जाता है .कांग्रेस के पक्ष में गुवाहाटी में संपन्न बीजेपी के राष्ट्रीय सम्मलेन में भी काम हो गया . सोनिया गाँधी को कटघरे में खड़ा करने की अपनी उतावली में बीजेपी आलाकमान ने सारे तीर सोनिया गाँधी के नाम कर दिए .नतीजा यह होगा कि अब बीजेपी के ज़्यादातर प्रवक्ता कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ ही बयान देते रहेगें और मीडिया में आर एस एस के प्रभाव के मद्दे नज़र इस बात में दो राय नहीं कि बीजेपी प्रवक्ताओं का बयान पहले पन्ने पर ही छपेगा.यही गलती चौधरी चरण सिंह ने १९७८ में की थी जब अपनी मामूली सोच के तहत इंदिरा गाँधी को पहले पन्ने की खबर बना दी थी . उसके बाद इंदिरा गाँधी कभी भी पहले पन्ने से नहीं हटीं और जनता पार्टी टूट गयी. दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर वही माहौल बना दिया है कि बीजेपी वाले अब सोनिया गाँधी को प्रचारित करते रहेगें और आर एस एस के लोग अपने आपको भला आदमी साबित करने में सारी ताक़त लगाते रहेगें. आर एस एस और उस से जुड़े हुए पत्रकार और बुद्धिजीवी आजकल यह बताने में लगे हुए हैं कि असीमानंद का बयान अदालत में नहीं टिकेगा . यह बात सभी जानते हैं . हम तो यह भी जानते हैं कि असीमानंद की हड्डियों का चूरमा बनाकर ही पुलिस ने बयान लिया है और वह बयान किसी भी हालत में बचाव पक्ष के वकीलों की बहस के सामने नहीं टिकेगा लेकिन उनके बयान के आधार पर जो जांच हो रही है वह आर एस एस और संघी आतंकवाद के पोषकों को बहुत नुकसान पंहुचाएगा . असीमानंद ने बताया है कि इन्द्रेश कुमार को कर्नल पुरोहित पाकिस्तानी जासूस मानता था . अगर यह साबित हो गया तो आर एस एस का हिन्दुओं का प्रतिनधि बनने का सपना हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा. देश को पूरी तरह से याद है कि अपने आपको पूरी दुनिया के सामने स्वीकार्य बनाने के लिए बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने किस तरह से पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना का गुणगान किया था . उसके बाद पूरे देश में उनके खिलाफ माहौल बना. यहाँ तक कि उनकी अपनी पार्टी में भारी मतभेद पैदा हो गया था . अगर आर एस एस में टाप पोजीशन पर बैठा हुआ कोई पदाधिकारी पाकिस्तानी जासूस साबित हो गया तो उस संगठन के लिए बहुत मुश्किल होगा . जानकार बाते हैं कि यह झटका गाँधी जी की हत्या में अभियुक्त होने से भी ज्यादा नुकसानदेह होगा . दुनिया जानती है कि १९४८ में गांधी जी की हत्या के आरोप में आर एस एस के मुखिया गोलवलकर के गिरफ्तार होने के बाद उनके संगठन को दुबारा सम्भलने के लिए १९७५ तक जयप्रकाश नारायण के आशीर्वाद का इंतज़ार करना पड़ा था.इस सारे मामले में एक और दिलचस्प बात सामने आ रही है . आर एस एस के प्रवक्ता ने असीमानंद के इकबाले-जुर्म वाले बयान को गलत नहीं बताया . उनको केवल यह एतराज़ है कि संघ को बदनाम करने के लिए सरकारी जांच एजेंसी ने बयान को लीक किया . उन्हें अपने आदमी के आतंकवादी होने की बात से ज्यादा नाराज़गी इस बात पर है कि दुनिया को कैसे मालूम हो गया कि उनके संगठन के बड़े लोग आतंकवाद में लिप्त हैं . यह बयान उसी तर्ज पर है जिसके अनुसार रतन टाटा ने आरोप लगाया था कि राडिया और उनके बीच की बातचीत को सरकार ने टेप किया वह तो ठीक है लेकिन उसे पब्लिक क्यों किया गया .अभी तक के संकेतों से लगता है कि आर एस एस की मुसीबतें अभी शुरू ही हुई हैं . सूरत में उनके मुखिया , मोहन भागवत ने आर एस एस का गणवेश पहनकर ऐलान किया कि आर एस एस के जो लोग आतंकवादी धमाकों में पकडे गए हैं, उनमें से कुछ ने अपने आप संगठन छोड़ दिया था और कुछ लोगों को आर एस एस ने ही अलग कर दिया था. इसका भावार्थ यह हुआ कि संघ का जो भी बंदा आतंकवादी घटनाओं में पकड़ा जाये़या उसे मोहन भागवत और उनके लोग दूध की मक्खी की तरह निकाल कार फेंक देगें. ज़ाहिर है कि इसके बाद उनमें से कुछ लोग सरकारी गवाह बनकर आर एस एस की पोल खोलने का काम करेगें . जो भी हो अब आने वाले वक़्त में आर एस एस के और भी बहुत सारे कारनामों से पर्दा उठने वाला है .

Monday, January 10, 2011

बीजेपी ने सोनिया गाँधी को मुद्दा बनाया

शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में १९६७ के चुनाव में बीजेपी के पूर्व अवतार,जनसंघ ने मजबूती से चुनाव लड़ा था.इसका मतलब यह नहीं कि पार्टी जीत गयी थी लेकिन थोड़ी सम्मानजनक सीटें मिल गयी थी. मेरे गाँव में भी १९६७ के चुनाव में जनसंघ का जोर था. पूरे गाँव ने जनसंघ को वोट दिया था लेकिन जब नतीजे आये तो उम्मीदवार हार गया ,कांग्रेस वाला जीत गया था . मेरे गाँव में हर आदमी हतप्रभ था कि जब पूरी आबादी जनसंघ को वोट दे रही है तो हारने का क्या मतलब है .जनसंघ की हनक भी इतनी थी कि आसपास के गाँवों के लोग डर के मारे यही कहते थे कि उनके गाँव में भी जनसंघ के चुनाव निशान दीपक पर ही वोट पड़ा था. लेकिन सच्चाई यह थी कि हमारे गाँव के बाहर के गाँवों के लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया था. पूरे जिले में कांग्रेस को ही वोट मिला था और कांग्रेस लगभग सभी सीटों पर जीत गयी थी . मैं बहुत परेशान था और मेरे गाँव के भगेलू सिंह ने जब जनसंघ के उम्मीदवार के घर से लौट कर बताया कि कांग्रेसियों ने बक्सा बदल दिया तो हमारे गाँव में सबने विश्वास कर लिया था . १९७१ में जब इंदिरा गाँधी की पार्टी को भारी बहुमत मिला तो मेरे गाँव में भगेलू सिंह के समर्थकों ने साफ़ ऐलान कर दिया कि बक्सा बदल गया है .हालांकि तब तक कुछ और पढ़े लिखे लोग गाँव में पैदा हो चुके थे और उन्होंने कहा कि बक्सा नहीं बदला गया बल्कि अखबार में छपा था कि उस वक़्त के जनसंघ के बड़े नेता , बलराज मधोक ने कहा है कि कांग्रेस ने बैलट पेपर के ऊपर ऐसा केमिकल लगवा दिया था कि मोहर कहीं भी लगाओ निशान गाय बछड़े पर ही बन रहा था जो इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव निशान था.बहरहाल जो भी हो कांग्रेस की जीत में बेईमानी का योगदान मुकम्मल तौर पर माना जाता था . हमारे गाँव में कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि जनसंघ जैसी अच्छी पार्टी को छोड़कर कोई किसी अन्य पार्टी को वोट दे सकता था..धीरे धीरे लोगों की समझ में आया कि एक गाँव के वोट से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बाकी गाँवों में भी लोग रहते हैं और वोट देते हैं. हमारे गाँव वालों की समझ में यह बात तो बहुत पहले आ गयी लेकिन जनसंघ/बीजेपी के नेताओं की समझ में यह बात अभी तक नहीं आई है कि लोग उनके अलावा किसी और को वोट कैसे दे सकते हैं . शायद इसी मानसिकता से पीड़ित होकर गुवाहाटी में जमा हुये बीजेपी नेताओं ने बोफोर्स तोप के सौदे को एक बार फिर चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है . उन्हें लगता है कि जब बोफोर्स जैसा मुद्दा मौजूद है तो और किसी बात पर क्यों ध्यान दिया जाय . अब जब आम आदमी के दिमाग में बैठ गया है कि कामनवेल्थ और २ जी के घोटाले में कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों ही शामिल हैं,तो बीजेपी उससे बचने की कोशिश कर रही है . प्याज की बढ़ी हुई कीमतें भी अच्छा मुद्दा थीं लेकिन अब ज़खीरेबाज़ों की धर पकड़ में तो बीजेपी वाले ही फंस रहे हैं .इसलिए कुल मिला कर बीजेपी को भ्रष्टाचार का एक मुद्ददा मिल रहा है जिसमें उसके लोग बिलकुल शामिल नहीं हैं और वह है , बोफोर्स वाला . लेकिन सवाल यह उठता है कि आज २५ साल बाद तक बोफोर्स मुद्दा चल पायेगा क्या? ख़ास तौर पर जब बोफोर्स के ६५ करोड़ रूपये के घूस के बदले जब बीजेपी के नेताओं ने अपनी सरकार के दौरान सैकड़ों करोड़ की हेराफेरी की हो . वैसे भी जानकार बताते हैं कि १९८९ के चुनाव में बीजेपी की सीटें बोफोर्स के चक्कर में नहीं बढीं थीं . हिंदुत्व के नारे ने काम किया था, बोफोर्स तो मरीचिका ही था . वैसे भी बाद के वर्षों में बोफोर्स केवल बीजेपी के नेताओं के दरबारों में मुद्दा रहा देश ने कभी उसे गंभीरता से नहीं लिया .लेकिन गुवाहाटी में तो बीजेपी के नागपुरी अध्यक्ष ने न केवल बोफोर्स को मुद्दा बनाने का ऐलान किया बल्कि सोनिया गाँधी के परिवार को मीडिया के फोकस में रखने का भी फैसला कर दिया . यह क़दम उतना ही अजीब है जितना जनता पार्टी के राज में चौधरी चरण सिंह का इंदिरा गाँधी को गिरफतार करने का फैसला था . इंदिरा गाँधी को देश ने १९७७ में दुत्कार दिया था लेकिन केंद्र सरकार की उस मूर्खतापूर्ण कारवाई के बाद जब इंदिरा गाँधी अखबारों के पहले पन्ने पर आयीं तो कभी हटी ही नहीं .इस तरह १९७७ में जनता ने जो बाज़ी जीती थी उसे उस दौर के गैर कांग्रेसी नेताओं ने हार में बदल दिया . बीजेपी के गुवाहाटी के फैसले से भी लगता है कि अब रोज़ ही इनकी प्रेस कानफरेंस में सोनिया गाँधी छायी रहेगीं और उन्हें ही सारा मीडिया कवर करने को मजबूर होगा. बीजेपी देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है उसे इस तरह के गैरजिम्मेदार राजनीतिक आचरण से बच कर रहना चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिये कि भ्रष्टाचार ही मुद्दा बना रहे , कोई परिवार मुद्दा न बन बान जाए . बीजेपी के इस काम से आम आदमी की सत्ता को बदल देने की इच्छा प्रभावित होती है.

Sunday, January 9, 2011

आर एस एस पर प्रतिबन्ध की बात बिलकुल अहमकाना है .

शेष नारायण सिंह

कांग्रेस पार्टी के एक प्रवक्ता ने आर एस एस पर प्रतिबन्ध की मांग की है . उन्होंने पत्रकारों से बताया कि सरकार को चाहिए कि आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करे. कांग्रेस का यह बहुत ही गैर ज़िम्मेदार और अनुचित प्रस्ताव है . लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब को संगठित होने का अधिकार है . आर एस एस भी एक संगठन है उसके पास भी उतना ही अधिकार है जितना किसी अन्य जमात को . पिछले कुछ वर्षों से आर एस एस से जुड़े लोगों को आतंकवादी घटनाओं में पुलिस वाले पकड़ रहे हैं ..हालांकि मामला अभी पूरी तरह से जांच के स्तर पर ही है लेकिन आरोप इतने संगीन हैं उनका जवाब आना ज़रूरी है . ज़ाहिर है कि आर एस एस से जुड़े लोगों को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक वह भारतीय दंड संहिता की किसी धारा के अंतर्गत दोषी न मान लिया जाए. यह तो हुई कानून की बात लेकिन उसको प्रतिबंधित कर देना पूरी तरह से तानाशाही की बात होगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार कांग्रेस के इस अहमकाना सुझाव पर ध्यान नहीं देगी .
आर एस एस पर उनके ही एक कार्यकर्ता ने बहुत ही गंभीर आरोप लगाए हैं . असीमानंद नाम के इस व्यक्ति ने मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया है कि उसने हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट करवाया था, समझौता एक्सप्रेस , मालेगांव , अजमेर की दरगाह आदि धमाको में वह शामिल था और उसके साथ आर एस एस के और कई लोग शामिल थे . किसी अखबार में छपा है कि मालेगांव धमाकों में शामिल एक फौजी अफसर ने इस असीमानंद को बताया था कि आर एस एस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य इन्द्रेश कुमार , पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई एस आई के लिए काम करता है . कांग्रेसी प्रवक्ता ने इस इक़बालिया अपराधी की बात को अंतिम सत्य मानने की जल्दी मचा दी और मांग कर बैठा कि आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगा दो . अब कोई इनसे पूछे कि महराज आर एस एस पर इतने संगीन आरोप लगाए गए हैं और आप अगर उस पर प्रतिबन्ध लगवा देगें तो इन सवालों के जवाब कौन देगा. एक प्रतिबंधित संगठन की ओर से कौन पैरवी करने अदालतों में कौन जाएगा . जबकि देश को इन सवालों के जवाब चाहिए. देश के सबसे बड़े राजनीतिक / सांस्कृतिक संगठन का एक बहुत बड़ा पदाधिकारी अगर पाकिस्तानी जासूस है तो यह देश के लिए बहुत बड़ी चिंता की बात है .इस हालत में केवल दो बातें संभव है . या तो उस पदाधिकारी को निर्दोष सिद्ध किया आये और अगर वह दोषी पाया गया तो उसे दंड दिया जाए. प्रतिबन्ध लग जाने के बाद तो यह नौबत ही नहीं आयेगी .आर एस एस के ऊपर इस स्वामी असीमानंद ने आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के आरोप लगाए हैं . लोकतांत्रिक व्यवस्था में ज़रूरी है कि प्रत्येक अभियुक्त अपने ऊपर लगे आरोपों से अपने आप को मुक्त करवाने की कोशिश करे. हम में से बहुत लोगों को मालूम है कि आर एस एस इस तरह की गतिविधियों में शामिल रहता है लेकिन वह केवल शक़ है . असीमानंद का मजिस्ट्रेट के सामने दिया गया बयान भी केवल गवाही है . फैसला नहीं . और जिसके ऊपर आरोप लगा है अगर वह प्रतिबन्ध का शिकार हो गया तो अपनी सफाई कैसे देगा . इसलिए आर एस एस पर प्रतिबन्ध की मांग करके कांग्रेसी प्रवक्ता ने लोकतांत्रिक व्यवस्था का तो अपमान किया ही है ,एक राजनीतिक पार्टी के रूप में अपनी पार्टी का काम भी कम करने की कोशिश की है . अगर आर एस एस पर इतना बड़ा आरोप लगा है तो कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का ज़िम्मा है कि उन आरोपों को साबित करें . लेकिन यह आरोप राजनीतिक तौर पर साबित करने होगें . अदालतों को अपना काम करने की पूरी छूट देनी होगी और निष्पक्ष जांच की गारंटी देनी होगी. ऐसी स्थिति में आम आदमी का ज़िम्मा भी कम नहीं है . उसे आर एस एस के आतंकवादी संगठन होने वाले आरोप के हर पहलू पर गौर करना होगा और अगर असीमानंद के आरोप सही पाए गए तो आर एस एस को ठीक उसी तरह से दण्डित करना पड़ेगा जैसे जनता ने १९७७ में इंदिरा गाँधी को दण्डित किया था . और अगर आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगाने की बेवकूफी हो गयी तो आर एस एस सरकारी उत्पीडन के नाम पर बच निकलेगा जो देश की सुरक्षा के लिए भारी ख़तरा होगा . दुनिया जानती है कि देश की एक बहुत बड़ी पार्टी के ज़्यादातर नेता आर एस एस के ही हुक्म से काम करते हैं . अगर उनके ऊपर लगे आरोप गलत न साबित हो गए तो यह देश की सुरक्षा के लिए ठीक नहीं होगा . इसलिए ज़रूरी है कि आर एस एस को किसी तरह के प्रतिबन्ध का शिकार न बनाया जाए और उसे सार्वजनिक रूप से अपने आपको निर्दोष साबित करने का मौक़ा दिया जाय . इस बीच आर एस एस और उसके अधीन काम करने वाली बीजेपी के कुछ नेताओं के अजीब बयान आएं है कि केंद्र सरकार की जांच एजेंसी उनके संगठन को बदनाम करने के लिए इस तरह के आरोप लगा रही हैं . यह गलत बात है . देश की जनता सब जानती है . इस देश में बहुत ही चौकन्ना मीडिया है , बहुत बड़ा मिडिल क्लास है और जागरूक जनमत है . अगर सरकार किसी के ऊपर गलत आरोप लगाएगी तो जनता उसका जवाब देगी. इसलिए आर एस एस वालों को चाहिए कि वे अपने आप को असीमानंद के आरोपों से मुक्त करने के उपाय करें क्योंकि वे आरोप बहुत ही गंभीर हैं और अगर वे सच हैं तो यह पक्का है कि जनता कभी नहीं छोड़ेगी. हो सकता है कि सरकारी अदालतें इन लोगों को शक़ की बिना पर छोड़ भी दें . इंदिरा गाँधी ने १९७५ में इमरजेंसी को हर परेशानी का इलाज बताया था लेकिन जनता ने उनकी बात को गलत माना और १९७७ में उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा . २००४ में बीजेपी ने अरबों रूपया खर्च करके देश वासियों को बताया कि इंडिया चमक रहा है लेकिन जनता ने कहा कि बकवास मत करो और उसने राजनीतिक फैसला दे दिया . इसलिए असीमानंद के बयान के बाद हालात बहुत बदल गए हैं . और आर एस एस को चाहिए कि वह अपने आप को पाकसाफ़ साबित करे. और अगर नहीं कर सकते तो असीमानन्द और इन्द्रेश कुमार टाइप लोगों को दंड दिलवाने के लिएय अदालत से खुद ही अपील करे. यह राष्ट्र हित में होगा

Saturday, January 8, 2011

दलित नेता और विद्रोही के संपादक सुधीर ढवले को पुलिस ने बिनायक सेन किया

शेष नारायण सिंह


महाराष्ट्र पुलिस ने भी छत्तीसगढ़ पुलिस की तरह गरीबों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वालों की धरपकड़ शुरू कर दी है . इस सिलसिले में दलित अधिकारों के चैम्पियन और मराठी पत्रिका , 'विद्रोही ' के संपादक सुधीर ढवले को गोंदिया पुलिस ने देशद्रोह और अनलाफुल एक्टिविटीज़ प्रेवेंशन एक्ट की धारा १७,२० और ३० लगाकर गिरफ्तार कर लिया . उन पर आरोप है कि वे आतंकवादी काम के लिए धन जमा कर रहे थे. ,और किसी आतंकवादी संगठन के सदस्य थे. पुलिस ने उनको नक्सलवादी बताकर अपने काम को आसान करने की कोशिश भी कर ली है .अभी पिछले हफ्ते गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने महाराष्ट्र सरकार से आग्रह किया था कि नक्सलियों के खिलाफ अभियान को तेज़ किया जाए. सबको मालूम है कि जब पुलिस के ऊपर आला अफसरों का दबाव पड़ता है तो वे सबसे आसान पकड़ उन वामपंथियों को मानते हैं जो गरीब आदमियों के बीच काम कर रहे हों . छत्तीसगढ़ में डॉ बिनायक सेन ऐसे ही शिकार थे और अब महाराष्ट पुलिस ने वही कारनामा कर दिखाया है .सुधीर ढवले ने वर्धा में रविवार को अंबेडकर-फुले साहित्य सम्मलेन को संबोधित किया था और गिरफतारी के समय ट्रेन से वापस मुंबई जा रहे थे. उन्हें गिरफ्तार करके १२ जनवरी तक पुलिस हिरासत में रखा जाएगा.

गोंदिया की पुलिस ने दावा किया है कि कुछ लोगों ने उसे बता दिया था कि सुधीर ढवले किसी नक्सलवादी संगठन के राज्य स्तर के पदाधिकारी हैं . और उनके पास एक कम्प्युटर है जिसमें सारा नक्सलवादी साहित्य रखा हुआ है .सुधीर का कम्प्युटर भी पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया है . सुधीर की गिरफ्तारी को सभ्य समाज के लोग किसी भी विरोधी आवाज़ को कुचल देने की सरकारी साज़िश का हिस्सा मान रहे हैं सुधीर सुधीर ढवले कोई लल्लू पंजू सड़क छाप नेता नहीं है .महाराष्ट्र में दलित अधिकारों के लिए चल रहे आन्दोलन के चोटी के नेता हैं . महाराष्ट्र में जाति के विनाश के लिए चल रहे आन्दोलन में वे बहुत ही आदर के मुकाम पर विराजमान हैं . २००६ में जब खैरलांजी में दलितों की सामूहिक ह्त्या की गयी थी तो महाराष्ट्र के नौजवानों में बहुत गुस्सा था . उसके बाद ६ दिसंबर २००७ को डॉ अंबेडकर के महापरिनिर्वाण के दिन रिपब्लिकन जातीय अन्ताची चालवाल की स्थापना करके सुधीर ढवले ने जाति के विनाश के डॉ अंबेडकर के अभियान को आगे बढ़ाया था. यह आन्दोलन आज मुंबई में एक मज़बूत आन्दोलन है . इस बात में दो राय नहीं है कि वे सरकार के लिए असुविधाजनक हमेशा से ही रहे हैं . .महाराष्ट्र में चल रहे उस आन्दोलन की अगुवाई भी वे कर रहे थे जिसमें मुंबई और महाराष्ट्र के सभ्य समाज के लोग डॉ बिनायक सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ लामबंद हो गए थे. सुधीर की गिरफ्तारी के बाद मुंबई के संस्कृति कर्मियों के बीच बहुत गुस्सा है . फिल्मकार आनंद पटवर्धन ने कहा कि सुधीर धावले बहुत ही भले आदमी है .उनको भी उसी तर्ज़ पर पकड़ा गया है जिस पर बिनायक सेन को पकड़ा गया था. फिल्मकार सागर सरहदी ने भी सुधीर ढवले के एगिराफ्तारी को गलत बताया है .

Friday, January 7, 2011

हर बच्चे के हाथ में लैपटाप होना चाहिए .

शेष नारायण सिंह

नईदिल्ली , ७ जनवरी. आज दिल्ली में नौवें प्रवासी भारतीय दिवस का उदघाटन हुआ . इस अवसर पर भारत की ताक़त की हनक नज़र आई. शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल ने साफ़ कहा कि अब उद्योग और व्यापार और उस से जुडी चीज़ों के अवसर भारत में ही हैं इसलिए भारतीय मूल के लोगों को नयी हालात में अपने बात कहने की आदत डालनी पड़ेगी. उन्होंने कहा कि भारत में जो लोग भी आ रहे हैं वे यहाँ बेहतर अवसर की तलाश में आ रहे हैं .इस अवसर पर शिक्षा के क्षेत्र में निवेश की संभावनाओं पर भी एक सेमिनार का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य वक्तव्य प्रधान मंत्री के सलाहकार सैम पित्रोदा ने दिया . उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में नयी टेक्नालोजी का रोल बहुत ही महत्वपूर्ण है .लेकिन शिक्षा का महत्व सही अर्थों में समझना होगा . ज़रुरत इस बात की है कि शिक्षा में सुधार को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में विकसित किया जाए . कोशिश की जानी चाहिए कि भारतीय मूल के साढ़े बारह करोड़ लोग जो विदेशों में बसे हैं उन्हें भारत में काम करने के लिए प्रेरणा दी जा सके.उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय मूल के विदेशियों का धन हमें नहीं चाहिए उनके पास जो ज्ञान का ज़खीरा है वह भारत के विकास में इस्तेमाल हो सकता है . उसके बदले में उन्हें भी काम करने के बड़े मौके मिलेगें .श्री पित्रोदा ने दावा किया कि मौजूदा सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता शिक्षा है . लेकिन शिक्षा के बारे में जो पुरानी समझ है उसे ख़त्म करना होगा . शिक्षा के बारे में नयी समझ को आगे लाना पड़ेगा और भारत को शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी देश बनाना होगा .

इस अवसर पर सैम पित्रोदा ने कहा कि अपने देश में करीब ५० करोड़ ऐसे लोग हैं जिनकी उम्र २५ साल से कम है . उनकी काम करने की क्षमता का विकास किया जाना चाहिए . अगर शिक्षा के क्षेत्र में विकास की दर करीब १० प्रतिशत नहीं रही तो देश पिछड़ जाएगा. . शिक्षा की मांग बहुत ज्यादा है लेकिन मौजूदा तरीके के बुनियादी ढाँचे के विकास के सहारे उस मांग को पूरा नहीं किया जा सकता है .इसके लिए ज़रूरी है कि कुशल कारीगरों और अन्य तरह के काम करने वालों की शिक्षा को कंट्रोल की व्यवस्था से बाहर किया जाए . इस दिशा में मनमोहन सिंह की सरकार ने ज़रूरी पहल कर दी है. नालेज कमीशन उसी आधुनिक सोच का नतीजा था . हमने तीन साल मेहनत करके रिपोर्ट तैयार की जिसमें २७ मुद्दे पहचाने गए और उन पर काम करने की ज़रुरत थी लेकिन शिक्षा मंत्रालय ने वह काम मुस्तैदी ने नहीं किया .अब सरकार ने तय किया है कि दो अरब डालर खर्च करके एक सूचनातंत्र बनाया जाएगा अगले डेढ़ साल में देश की ढाई लाख पंचायतों को ब्राड बैंड से जोड़ दिया जाएगा . शिक्षा में मास्टर के ज़रुरत को ख़त्म करने की दिशा में काम चल रहा है . इतनी बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षित करने के ज़रुरत है कि पुराने तरीके के बुनियादी ढाँचे से काम नहीं चलने वाला है . आज की तारीख में हमें नए आविष्कार करके ही समस्या का समाधान तलाशने की ज़रुरत है .. प्रधान मंत्री ने इस दिशा में शुरुआत कर दी है सरकारी खर्च पर एक राष्टीय आविष्कार परिषद की स्थापना कर दी गयी है . जिसका शुरुआती बजट एक अरब डालर का है . और भी पैसा उपलब्ध करवाया जा सकता है . इस सरकार ने शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा है और कोशिश की जा रही है कि देश भर में १४ ऐसे विश्वविद्यालय बनाए जाएँ जहां केवल आविष्कार से सम्बंधित काम हो ..
इस अवसर पर हर बच्चे के लिए एक लैप टाप के व्यवस्था करने वाले मिशन के अध्यक्ष सतीश झा ने भी भाषण दिया .. उन्होंने कहा कि मौजूदा समय को नेशनल इमरजेंसी इन एजूकेशन का नाम दिया जाना चाहिए . उन्होंने कहा कि इस देश में ६४० हज़ार गावं हैं . गावों में शिक्षा का जो स्तर वह बिलकुल आदिम है . उसको ठीक करने की ज़रुरत है . लेकिन यह हमारी मौजूदा शिक्षाव्यवस्था के बूते के बात नहीं है कि उसको बदला जा सके . उसके लिए कुछ नया करना होगा . श्री झा ने बताया कि बहुत सोच विचार और शोध के बाद एक ऐसा कम्प्युटर तैयार किया जा सका है जिसकी देखभाल गाँव का बच्चा भी कर लेगा. उसको ज्यादा गर्मी से कोई नुकसान नहीं होता , उसको पटक देने से टूटता नहीं और उस लैप टाप की मदद से बिना टीचर की मदद के भी बच्चे अपनी पढाई कर सकते हैं . उसमें बच्चों के स्तर का इंटरनेट , उनकी अपनी भाषा में उपलब्ध करवाया जा सकता है .
बाद में सैम पित्रोदा ने भी कहा कि अपने देश की शिक्षा की ज़रुरत को पूरा करने के लिए सतीश झा के प्रोजेक्ट की तरह काम करने की ज़रूरत है लेकिन इस तरकीब में भी लगातार विकास करते रहना चाहिए

Thursday, January 6, 2011

आरक्षण की राजनीति , नीतीश कुमार के महादलित और राजनाथ फार्मूला

शेष नारायण सिंह
( मूल लेख दैनिक जागरण में छप चुका है )

आरक्षण आज की राजनीति का एक अजीब हथियार बन गया है .राजस्थान के गुर्जर समुदाय अपने आपको मीणा समुदाय की तरह जनजाति घोषित करवाने के लिए आन्दोलन चला रहे हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह के दौर में पिछड़ी जातियों को नौकरियों में आरक्षण दे दिया गया था लेकिन ओबीसी के जिस वर्ग को उसमें शामिल किया गया था उसमें कुछ जातियाँ ऐसी थीं जो पहले से ही बेहतर आर्थिक सामाजिक स्थिति में थीं . ज़ाहिर है ओबीसी में जो कमज़ोर जातियां थीं , वे फिर सामाजिक बराबरी की रेस में पिछड़ती नज़र आ रही हैं . बिहार में कई वर्षों के कुप्रबन्ध के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता में आये तो उन्होंने पिछड़े वर्गों के आरक्षण के तरीके में थोडा परिवर्तन सुझाया और उसके नतीजे चुनाव में फायदे की खेती साबित हुए. सामाजिक परिवर्तन की राजनीति में नीतीश कुमार के इस प्रयोग के बाद सामाजिक न्याय के विमर्श में नया अध्याय शुरू हो गया है .अपने देश में सकारात्मक हस्तक्षेप के पुरोधा डॉ भीमराव आंबेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया माने जाते हैं . इन नेताओं की सोच को कांग्रेस ने भी अपनाया और संविधान में ऐसी व्यवस्था की गयी कि दलितों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया. संविधान के लागू होने के 60 साल बाद सकारात्मक हस्तक्षेप के राजनीतिक दर्शन में अब कुछ सुधार की ज़रुरत महसूस की जा रही है . हालांकि आज के नेताओं में किसी की वह ताक़त नहीं है कि वह आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेताओं की तरह वे तरीके भी अपना सकें जो चुनाव के गणित के हिसाब से अलोकप्रिय हों . लेकिन इतना तय है कि चुनावी लाभ हानि को ध्यान में रख कर ही सही सामाजिक बराबरी के बारे में चर्चा हो रही है . पिछड़े वर्गों में ऊपरी पायदान पर मौजूद जाति के एक सदस्य नीतीश कुमार के लिये इन नीतियों को लागू कर पाना अपेक्षाकृत आसान था . नीतीश कुमार की इस राजनीतिक सोच को रोकने वाला कोई नहीं था क्योंकि वे अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं . दिल्ली में उनकी पार्टी के बड़े नेता ,शरद यादव हैं . शरद यादव की राजनीतिक हैसियत ऐसी नहीं है कि वे नीतीश कुमार के किसी फैसले को वीटो कर सकें . इसलिए अपनी ज़िम्मेदारी पर नीतीश ने फैसला किया और लागू किया. नीतीश ने दलित राजनीति को भी आरक्षण की कसौटी पर फिर से कसा और दलित जातियों में जो उच्च वर्ग विकसित हो गया है ,उसकी पहचान की. दलितों में जो उच्च वर्ग है वह परंपरागत रूप से मायावती को नेता मानने लगा है . बिहार में रामविलास पासवान भी इस वर्ग के वोट के खासे गंभीर दावेदार माने जाते हैं . शायद नीतीश कुमार को अंदाज़ था कि इन दोनों नेताओं को अपेक्षाकृत संपन्न दलितों में जो मुकाम हासिल है उसे कमज़ोर कर पाना बहुत ही मुश्किल है . इसी सोच का नतीजा है कि उन्होंने दलित वोट बैंक को तोड़ दिया और महादलित नाम की एक नई राजनीतिक जमात की पहचान करवाने में सहयोग दिया . बिहार विधान सभा के चुनाव में जब लालू प्रसाद और राम विलास पासवान इकठ्ठा खड़े हुए तो राजनीति की मामूली समझ वाले विश्लेषक मानकर चल रहे थे कि पिछड़े वर्ग और दलित नेताओं का यह मिलन अजेय है . लेकिन ऐसा कुछ नहीं था . संपन्न दलितों और संपन्न पिछड़ों के नेता के रूप में लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की पहचान बन गयी जो पता नहीं कब कायम रहेगी
उत्तर प्रदेश में भी यह प्रयोग किया गया था .उत्तर प्रदेश में दलितों की राजनीति का व्याकरण अलग है . वहां कांशी राम ने शुरुआती काम किया था जिसकी वजह से उनकी पार्टी वहां आज बहुत ही मज़बूत है . मायावती को आज उत्तरप्रदेश के दलितों का सर्व स्वीकार्य नेता माना जाता है . लेकिन शुरू से ऐसा नहीं था . हालांकि दूर तक देख सकने वालों को मालूम था कि उत्तर प्रदेश में दलित अस्मिता भावी राजनीति का स्थायी भाव बनने जा रही थी. बीजेपी की ओर से जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बनाए गए तो उन्होंने राज्य की भावी राजनीति की इस दस्तक को पहचान लिया था .पिछड़ों की राजनीति के मामले में भी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की ताक़त बहुत ज्यादा थी. पिछड़े और दलित वोट बैंक को छिन्न भिन्न करके अपनी पार्टी की स्थिति को मज़बूत बनाने के लिए राजनाथ सिंह ने वही करने की कोशिश की जिसे बाद में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने अपनाया . नीतीश अपनी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं इसलिए वे अपनी योजना को लागू करने में सफल हुए लेकिन राजनाथ सिंह की किस्मत वैसी नहीं थी. उनकी टांग खींचने के लिए तो उत्तर प्रदेश में ही बहुत लोग मौजूद थे और उन लोगों को दिल्ली के नेताओं का आशीर्वाद भी मिलता रहता था . बहरहाल अब बीजेपी के नेताओं की समझ में आ गया है कि राजनाथ सिंह की योजना को खटाई में डालना राजनीतिक गलती थी .दैनिक जागरण की खबर है कि पिछले दिनों उत्तरप्रदेश में पीस पार्टी से भी पिछड़ जाने के बाद बीजेपी को राजनाथ सिंह फार्मूला याद आ रहा है . उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनायी थी जिसने अति पिछड़ों के लिए आरक्षण के अन्दर आरक्षण की सिफारिश की थी . राजनाथ सिंह ने कहा था कि पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में कुछ जातियां ही आरक्षण का पूरा लाभ उठा लेती हैं जबकि अन्य पिछड़ी जातियां वंचित रह जाती हैं। समिति की सिफारिशें लागू हो पाती कि आम चुनाव हो गए और भाजपा सत्ता में लौटी ही नहीं। इसके बाद भाजपा ने भी समिति की रिपोर्ट को भुला दिया। उप्र में लगातार कम होते जनाधार से चिंतित पार्टी को अब इस समिति की रिपोर्ट की फिर से याद आई.बीजेपी के प्रदेश मुख्यालय में अति पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ की बैठक को सम्बोधित करते हुए प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ने भी इस बात पर जोर दिया . अब लगता कि बीजेपी में भी सामाजिक न्याय और आरक्षण के मामले पर गंभीर आन्तरिक चिंतन चल रहा है . ज़ाहिर है आरक्षण से जुड़े मुद्दों की राजनीति करवट ले रही है .

Tuesday, January 4, 2011

इमरजेंसी के खलनायक संजय गाँधी को बचाने की कोशिश अब्सर्ड है

शेष नारायण सिंह

समकालीन इतिहास का सबसे बड़ा अजूबा संजय गाँधी को माना जाना चाहिए . कभी स्व इंदिरा गाँधी उसके गुण गाया करती थीं और आजकल लालकृष्ण आडवानी उसको सही आदमी मानने लगे हैं जिन्हें उसने कभी जेल में ठूंस दिया था .संजय गाँधी करीब चालीस साल पहले भारतीय राजनीति के क्षितिज पर उभरे . अपनी माँ स्व इंदिरा गाँधी के चहेते बेटे संजय गाँधी की शुरुआती योजना यह थी कि उद्योग जगत में सफलता हासिल करने के बाद राजनीति का रुख किया जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ . मारुति लिमिटेड नाम की एक फैक्ट्री लगाकार उन्होंने कारोबार शुरू किया लेकिन बुरी तरह से असफल रहे. अटल बिहारी वाजपेयी, मधु लिमये , ज्योतिर्मय बसु , पीलू मोदी, जार्ज फर्नांडीज़ और हरि विष्णु कामथ के लोकसभा में दिए गए भाषणों से हमें मालूम हुआ कि संजय गाँधी को उद्योगपति बनाने के लिए बहुत से दलालों , चापलूसों, कांग्रेसियों और मुख्य मंत्रियों ने कोशिश की लेकिन संजय गाँधी उद्योग के क्षेत्र में बुरी तरह से फेल रहे . उसी दौर में दिल्ली के उस वक़्त के काकटेल सर्किट में सक्रिय लोगों ने उन्हें कमीशन खोरी के धंधे में लगा दिया . बाद में तो वे लगभग पूरी तरह से इन्हीं लोगों की सेवा में लगे रहे. शादी ब्याह भी हुआ और काम की तलाश में इंदिरा गाँधी के कुछ चेला टाइप अफसरों के सम्पर्क में आये और नेता बन गए. भारतीय राजनीति का सबसे काला अध्याय संजय गाँधी के साथ ही शुरू होता है. जब हर तरफ से फेल होकर संजय गाँधी ने देश की जनता का सब कुछ लूट लेने की योजना बनाई तो बड़े बड़े मुख्य मंत्री उनके दास बन गए . नारायण दत्त तिवारी, बंसी लाल आदि ऐसे मुख्य मंत्री थे जिनकी ख्याति संजय गाँधी के चपरासी से भी बदतर थी. न्यायपालिका संजय गाँधी की मनमानी में आड़े आने लगी. संजय गाँधी ने अपनी माँ को समझा कर इमरजेंसी लगवा दी और माँ बेटे दोनों ही इतिहास के डस्टबिन में पंहुच गए. कांग्रेस ने बार बार इमर्जेंसी की ज्यादतियों के लिए माफी मागी लेकिन इमरजेंसी को सही ठहराने से बाज़ नहीं आये . अब कांग्रेस के 125 पूरा करने के बाद इमरजेंसी को गलत कहते हुए कांग्रेस ने यह कहा है कि उसके लिए संजय गाँधी ज़िम्मेदार थे , इंदिरा गाँधी नहीं . जहां तक इमरजेंसी का सवाल है ,उसके लिए मुख्य रूप से इंदिरा गाँधी ही ज़िम्मेदार हैं और इतिहास यही मानेगा .कांग्रेस पार्टी की ओर से एक किताब छपवा देने से कांग्रेस बरी नहीं हो सकती . इमरजेंसी को लगवाने और उस दौर में अत्याचार करने के लिए संजय गाँधी इंदिरा से कम ज़िम्मेदार नहीं है लेकिन यह ज़िम्मेदारी उनकी अकेले की नहीं है . वे गुनाह में इंदिरा गाँधी के पार्टनर हैं .यह इतिहास का तथ्य है और इसकी जांच की अब कोई ज़रुरत नहीं है . अब इतिहास की फिर से व्याख्या करने की कोशिश न केवल हास्यास्पद है बल्कि अब्सर्ड भी है . कांग्रेस की इस कोशिश को मजाक के विषय के रूप में ही स्वीकार किया जाना चाहिये . लेकिन इस सारे नाटक में जो सबसे हास्यास्पद पहलू है वह बीजेपी की तरफ से आ रहा है . दुनिया जानती है कि जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को उन प्रदेशों में ही सबसे ज्यादा ताक़त मिली जहां आर एस एस का संगठन मज़बूत था . आज की बीजेपी को उन दिनों जनसंघ के नाम से जाना जाता था. इमरजेंसी की प्रताड़ना के सबसे ज्यादा संख्या में शिकार आज की बीजेपी वाले ही हुए थे. अटल बिहारी वाजपेयी ,लालकृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली जेल में थे . यह सज़ा उन्हें संजय गाँधी की कृपा से ही मिली थी. यह बात बिलकुल सच है और इसे कोई भी नहीं झुठला सकता . ताज्जुब इस बात पर होता है जब इनमें से कोई भी संजय गाँधी को धर्मात्मा बताने की कोशिश करता है . ऐसी कोशिश को अब्सर्ड का प्रहसन ही कहा जा सकता है . संजय गाँधी को पिछले दिनों इमरजेंसी की बदमाशी से बरी करने की कोशिश शुरू हो गयी है. सबसे अजीब बात यह है कि उस अभियान की अगुवाई इमरजेंसी के भुक्तभोगी, लालकृष्ण आडवानी ही कर रहे हैं . अपने ताज़ा बयान में श्री आडवाणी ने कहा है कि इमरजेंसी के लिए संजय गाँधी को बलि का बकरा बनाने की कोशिश की जा रही है ..आडवाणी कहते हैं कि , 'अपने मंत्रिमंडल या यहां तक कि अपने कानून मंत्री और गृहमंत्री से संपर्क किए बगैर उन्होंने [इंदिरा गांधी ने] लोकतंत्र को अनिश्चितकाल तक निलंबन में रखने के लिए राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से अनुच्छेद 352 लगवाया।' उनका कहना है कि इंदिरा गांधी इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला पचा नहीं पाईं और उन्होंने आपातकाल लगा दिया। इस फैसले में इंदिरा गांधी को चुनावी धांधली के लिए दोषी ठहराया गया था।आडवाणी ने कहा है, 'कांग्रेस पार्टी यह स्वीकार कर चुकी है कि आपातकाल के दौरान एक लाख से अधिक जेल में डाल दिए गए। जेल में डाले गए लोगों की संख्या एक लाख 10 हजार आठ सौ छह थी। उनमें से 34 हजार 988 आतंरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिए गए लेकिन कैदी को उसका कोई आधार नहीं बताया गया। अजीब बात है कि अब लाल कृष्ण आडवानी इस सबके लिए संजय गाँधी को ज़िम्मेदार नहीं मानते . शायद इसलिए कि संजय गाँधी की पत्नी और बेटा उनकी पार्टी के सांसद हैं और संजय गाँधी का सबसे ख़ास लठैत , बीजेपी के राज में मंत्री रह चुका है

फैज़ की शायरी - गुरुरे इश्क का बांकपन

मनमोहन

( mohallalive.com से साभार )

फैज़ अहमद फैज और उनकी शायरी की जगह और उसका मूल्य ठीक-ठीक वही बता सकते हैं, जो उर्दू जुबान और अदब के अच्छे जानकार और अधिकारी विद्वान हैं। मेरी समाई तो सिर्फ इतनी है कि अपने कुछ ‘इंप्रेशंस’ (या इस कवि के साथ अपने लगाव की कुछ तफसीलें) रख दूं, सो यहां मैं इन्हीं को रखने की कोशिश करता हूं।

7वीं दहाई के जनवादी उभार के वर्षों में खासतौर पर, और उसके बाद लगातार, हमारी पीढ़ी की हिंदी रचनाशीलता को हमारे जिन बुजुर्ग उस्तादों का खामोश लेकिन मजबूत साथ और सहारा मिला, उनमें जर्मनी के बर्तोल्‍त ब्रेख्त, तुर्की के नाजिम हिकमत और हमारी उर्दू जुबान के फैज अहमद फैज शायद सबसे अहम थे। शायद इस पूरे दौर में नयी रचनाशीलता को ब्रेख्त की कठोर आलोचनाशीलता और द्वंद्वात्मकता ने देखना सिखाया है और फैज या नाजिम हिकमत की खरी क्रांतिकारी रूमानियत ने मौजूदा रणक्षेत्र में अपने पक्ष के साथ खड़े रहने का हौसला दिया है और पराजय और अलगाव के कठिन क्षणों में अपनी स्वप्नशीलता और स्वाभिमान की हिफाजत करना सिखाया है।

यह बात भी गौर करने लायक है कि पुराने प्रगतिशील आंदोलन की अत्यंत संपन्न विरासत में भी क्यों फैज की उपस्थिति हमें सबसे जीवित और दमदार लगती रही है। वे आज भी लगभग हर तरह से हमारे समकालीन हैं। बल्कि मैं सोचता हूं, 1990 के बाद नव-साम्राज्यवादी बर्बरता के नये आलम में फैज की शायरी में हमारे दिलों की धड़कन और ज्यादा साफ सुनाई देने लगी है।

मुझे याद है कि इमरजेंसी के खौफनाक दिनों में जब सव्यसाची द्वारा संपादित ‘उत्तरार्द्ध’ का पहला अंक (वैसे अंक 11) छपा और पत्रिका की पीठ पर फैज की नज्म ‘लहू का सुराग’ (‘कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग’) छपी, तो कितना बुरा-भला सुनना पड़ा। एकाध क्रांतिकारी दोस्तों ने यहां तक कहा कि फैज ‘भुट्टो के एंबेसडर’ के सिवा क्या हैं। इनकी कविता आपने क्यूं छापी! और ‘दस्ते-नाखुने-कातिल’ या ‘खूंबहा’ जैसे लफ्जों को कितने लोग समझते हैं? लेकिन मेरा खयाल है कि यह नज्म और इसके अलावा उन दिनों इसी पत्रिका में छपी ‘बोल के लब आजाद हैं तेरे’ और ‘निसार मैं तेरी गलियों पे’ जैसी नज्में न सिर्फ समझी गयीं, बल्कि इन्होंने उस कठिन समय में अजीब सी ताकत दी और हमारे नैतिक-भावनात्मक विक्षोभ को स्वर दिया।

यह मेरी खुशनसीबी है कि मुझे फैज साहब को सुनने का और उनसे छोटी सी मुलाकात का मौका मिला। शायद यह 1978-79 के बीच की बात है। एक दिन सुनाई दिया कि फैज हिंदुस्तान ही में हैं और (शायद ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ हो कर?) कुछ दिन के लिए जवाहरलाल नेहरू यूनीवर्सिटी में ही चले आये हैं। हम लोग बड़े खुश थे। फिर एक दिन उनका काव्य-पाठ हुआ। शायद उस वक्त के ‘डाउन कैंपस’ की क्लब बिल्डिंग के पास की खुली जगह में कुछ कनातें खड़ी की गयीं थीं और मंच भी बांधा गया था। उस धूप वाले दिन का खुला नीला आसमान अभी भी याद है। फैज साहब ने जम कर अपनी ढेर सारी नज्‍में, गजलें कही थीं। जब वे खड़े हुए और उन्हें पहली बार देखा, तो थोड़ा अजीब सा लगा। सिर्फ उन्हें देख कर एक बार उस छवि को कुछ धक्का सा लगता था जो उनका पढ़ते-सुनते हुए मन ही मन बन गयी थी। सफारी सूट पहने (शायद एकाध अंगूठी भी), कुछ भारी-भारी सा डील-डौल लिये यह गंजे से सर वाला लंबा-चौड़ा शख्‍स देखने में कतई स्टेट बैंक या जीवन बीमा निगम का ‘टिपिकल’ अफसर या मैनेजर लगता था। लेकिन जब फैज साहब ने सुनाना शुरू किया तो उनकी आवाज ने दिल को छू लिया, बल्कि सीधे पकड़ लिया।

हालांकि हमने मुशायरे की परंपरागत धज में तरन्नुम के साथ ‘जलद-मंद्र-स्वर’ में किया हुआ मजरूह सुल्तानपुरी का प्रभावशाली पाठ सुना है; धारावाहिक वक्तृता की शैली में कैफी आजमी या सरदार जाफरी का नज्में पढ़ना देखा है; बाबा नागार्जुन की बांध लेने वाली ‘थियेटरीकल’ प्रस्तुतियां देखी हैं; आलोकधन्वा का अविस्मरणीय काव्य-पाठ सुना है; और तो और जेएनयू के ‘स्पेनिश सेंटर’ की मेहरबानी से ‘रिकॅर्डेड’ आवाज में नेरूदा के स्पेनिश पाठ की एक बानगी देखने और आरोह-अवरोह के साथ उनकी नाद-गुण संपन्न गहिर गंभीर वाग्मिता की स्‍पंदित स्वर लिपि को सुनने का सौभाग्य भी मिला है। लेकिन फैज का अंदाज इन सबसे अलग था। यह किसी भी तरह की ‘परफोरमेंस’ से कोसों दूर था। फिर भी उनकी आवाज में एक जादुई छुअन थी, जिसमें अपने कमाये हुए गहरे दर्द के एहसास के साथ एक ठहरी थकान और अनमनेपन में लिपटी विलक्षण कोमलता और आत्मीयता का मेल था। यह एक दुख उठाये हुए, अनुभव संपन्न, उम्रजदा शख्‍स की दिलासा और भरोसा दिलाती हुई आवाज थी। ऐसी आवाज शायद अब कुछ पुरानी बूढ़ी, घरेलू स्त्रियों के पास ही बची मिलगी। फैज इतने बेबनाव और सादे तरीके से कविताएं कहते थे कि कोई भी काव्य-रसिक उसे खराब तरीके का काव्य-पाठ भी कह सकता था, लेकिन यह शायद ज्यादा अच्छा तरीका था। उनके अलावा यह चीज रघुवीर सहाय के काव्य-पाठ में भी मिलती थी, बल्कि वे तो इसका उपयोग एक सचेत युक्ति की तरह करते थे। शमशेर का कहने का अंदाज भी गुफ्तगू ही का अंदाज था, जो उनकी कविताओं के मिजाज में ढला हुआ था और गजल तो अपनी परिभाषा में ही दिल से दिल की गुफ्तगू है।

खैर, फैज साहब ने जम कर सुनाया। वह नज्म भी – ‘कुछ इश्‍क किया, कुछ काम किया’। फरमाइशें भी खूब हुईं। जो किसी ने कहा, ‘फैज साहब, ‘गुलों में रंग भरे’ भी सुनाइए’, तो फैज साहब ने हंस कर कहा, ‘कौन सी सुनाऊं, नूरजहां वाली सुनाऊं कि मेहंदी हसन वाली सुनाऊं’ और सब हंस पड़े।

इस बात का कम महत्त्व नहीं है कि फैज की शायरी को नूरजहां, बेगम अख्तर, अमानत अली खां, मलिका पुखराज, इकबाल बानो, अली बख्‍श जहूर, फरीदा खानम, फिरदौसी बेगम, बरकत अली खां, शांति हीरानंद और मेहंदी हसन जैसी अदभुत आवाजें नसीब हुईं। गालिब की शायरी के बाद इतनी तादाद में अव्वल दर्जे के गायकों ने, किसी और शायर की चीजें शायद ही गायी हों। यकीनन इससे फैज की शायरी का दायरा विस्तृत हुआ है। उनकी शायरी के गूढ़ार्थ और अनेक अर्थछटाएं उदघाटित हुए हैं। फैज को पढ़कर हमने जितना जाना है, हिंदुस्तान और पाकिस्तान के महान गायकों से सुनकर कम नहीं जाना। गायक भी आखि़रकार अपने गाने से ‘टैक्स्ट’ की अपनी व्याख्या पेश करता है और एक प्रकार से कृति की पुनर्रचना करता है लेकिन शायद इसकी गुंजाइशें ‘टैक्स्ट’ में पहले से छिपी होती हैं।

एक दिन रूसी भाषा केंद्र के ऑडिटोरियम में फैज ने अल्लामा इकबाल पर अपना पर्चा पढ़ा, शायद अंग्रेजी में। यह विद्वत्तापूर्ण और जानकारी से भरा हुआ पर्चा उनकी शायरी के मिजाज से मेल नहीं खाता था। वैसे अंग्रेजी में उपलब्ध उनके ज्यादातर गद्य में कई बार नवशास्‍त्रीय किस्म की अकादमिकता हावी दिखाई देती है। इकबाल की शख्‍सियत और उनकी शायरी में फैज साहब की कुछ खास और बुनियादी किस्म की दिलचस्पी लगती थी। कुछ-कुछ वैसा ही रिश्‍ता था, जैसा रवींद्रनाथ और निराला का या प्रसाद और मुक्तिबोध का। बाद में यह भी पता चला कि इकबाल भी स्यालकोट के ही थे और इकबाल के प्रभाव की सघन छाया में ही एक नवोदित कवि के रूप में फैज का विकास हुआ था।

1978 में मैं रोहतक आ गया था। लेकिन इसके बाद भी लगभग दो साल तक मेरा रिश्‍ता जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र से बना रहा। रोहतक में डॉ ओमप्रकाश ग्रेवाल अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर थे। उन्होंने और डॉ भीम सिंह दहिया (जो उस वक्त विश्‍वविद्यालय के रजिस्ट्रार भी थे) ने मुझसे कहा कि मैं किसी तरह फैज साहब को रोहतक लाऊं। मैंने डॉ मुहम्मद हसन (जो एमए में मेरे शिक्षक भी रहे थे) से कहा कि फैज साहब को मुझे रोहतक ले जाना है। उन्होंने कहा कि मैं अगले दिन 11 बजे सेंटर में उनके कमरे में आ कर फैज साहब से खुद ही बात कर लूं।

शुरू में मुहम्मद हसन साहब से मेरा रिश्‍ता कतई औपचारिक और नपा-तुला था, लेकिन गहरा था। यों वे बात करने में सख्त, कंजूस और बेहद चौकन्ने शख्‍स लगते थे लेकिन उनके अंदर बंटवारे का सच्चा दर्द और एक तरह का सात्विक विक्षोभ था। नामवर जी और मुहम्मद हसन के जेएनयू में आने के बाद हिंदी-उर्दू के पाठ्यक्रमों को लेकर, खासतौर से हिंदी विद्यार्थियों को उर्दू का क्रेडिट कोर्स करने या पाठ्यक्रम के एक हिस्से को दोनों भाषाओं के लिए समावेशी ढंग से तैयार करने को लेकर पहली स्ट्डैंट फैकल्टी कमेटी में जो बहस हुई, उसमें हसन साहब और हमारा एक ही पक्ष था। ‘प्रगतिशील लेखक महासंघ’ (जो उन्हीं दिनों नयी शक्‍ल में खड़ा किया गया संगठन था) के आपातकाल के समर्थन में निकले प्रपत्र पर छपे अपने नाम को लेकर उनके मन में घोर ग्लानि थी। उन्हीं दिनों आपातकाल को लेकर उन्होंने अपना बेहद अच्छा नाटक ‘जेहाक’ हमें सुनाया था।

खैर, अगले दिन जब मैं 11 बजे मुहम्मद हसन साहब के कमरे में दाखिल हुआ, तो फैज साहब उनकी ‘अध्यक्षीय’ कुर्सी के सामने की कुर्सी पर बैठे थे। हसन साब ने मुझे देखते ही उनसे कहा, ‘जनाब यही हैं, जिनका जिक्र मैं कल आपसे कर रहा था। मनमोहन साब हमारे शागिर्द हैं। इन दिनों रोहतक यूनिवर्सिटी में हैं और आपको रोहतक ले जाना चाहते हैं।’ फैज साहब ने, जो अब तक खड़े हो गये थे, तपाक से हाथ मिलाया, जैसे गले मिल रहे हों। उनकी आंखें झिलमिला रही थीं, बोले, ‘रोहतक! अरे भाई रोहतक तो हमारा वतन है, जरूर चलेंगे। वैसे मैं अभी कुछ दिन पहले ही चंडीगढ़ (या शायद कुरुक्षेत्र?) हो कर आया हूं, लेकिन रोहतक जरूर चलना है। अभी तो बाहर (विदेश, फ्रांस या शायद सोवियत यूनियन?) जाना है, लौट कर प्रोग्राम बनाते हैं।’ मैं सोचता रह गया रोहतक और इनका वतन! कुछ दिनों बाद समझ में आया कि उनके दिमाग में संयुक्त पंजाब का पुराना नक्‍शा था, जिसका एक अहम शहरी केंद्र शायद रोहतक भी रहा होगा। जिया उल हक के पतन से पहले दसियों हजार लोगों की रैली में बुलंद आवाज में फैज का वो अविस्मरणीय तराना ‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ की अदभुत प्रस्तुति करने वाली प्रख्यात पाकिस्तानी गायिका इकबाल बानो मूलतः रोहतक की ही रहने वाली थीं। खैर, हम लोग कुछ देर उनके साथ बैठे और उन्हें बाहर टैक्सी तक छोड़ा। बाहर जो विदेशी मूल की महिला उनका इंतजार कर रही थीं शायद उनकी बीवी एलिस ही रही होंगी। अफसोस है कि फैज साहब से फिर कभी मुलाकात नहीं हो पायी और उन्हें रोहतक लाने का हमारा ख्वाब, जिसमें शायद उनका भी कोई ख्वाब छिपा था, अधूरा ही रह गया।

इस बात पर जब गौर करते हैं कि क्यों हमारे वक्त में फैज की उपस्थिति दिनोंदिन इतनी प्रबल, इतनी वास्तविक और इतनी अनिवार्य होती चली गयी है, तो सबसे पहले यही खयाल आता है कि उनकी शायरी हमारे इस बैचेनी भरे ऐतिहासिक दौर में न्याय के कठिन संघर्ष में उलझी ताकतों के भावनात्मक और नैतिक उद्वेगों को, उनकी व्याकुलता और आंतरिक विक्षोभ को, अपमान और पराजय के बीच भी उनकी उद्दीप्त आत्मगरिमा, अकूत धैर्य, साहस और सुंदरता को बेमिसाल ढंग से उदघाटित करती है, सचाई और पूरेपन के साथ। यही एक चीज है जो फैज को फैज बनाती है और उन्हें हमारी ‘आत्मा का मित्र’ बना देती है।

मीर और गालिब के बाद उर्दू जुबान में शायद फैज हमारी स्मृति में सबसे गहरे उतरने वाले शायरों में हैं। पिछली तीन शताब्दी में दूसरी भारतीय भाषाओं की कविता में भी इन तीनों जितनी पुख्तगी कितने कवियों में मिलेगी, कहना कठिन है। इसकी वजह जो समझ में आती है, वो ये कि ये तीनों कवि गहरे अर्थों में अपने-अपने वक्तों की भीषण उथल-पुथल की उपज हैं। यह उथल-पुथल कोरा ‘ऐतिहासिक संदर्भ’ ही नहीं है, यह इनके भीतर से, इनके निजी जीवन और दिल-दिमाग के बीचों-बीच से इन्हें चल-विचल करते हुए कुछ इस तरह से गुजरी है कि इनके व्यक्तित्वों की अंदरूनी बनावट में रच-बस गयी है। इससे भी ज्यादा अहम यह है कि तीनों अपने-अपने ढंग से घोर अवमूल्यनकारी, अपमानजनक और हृदयहीन परिस्थितियों में मनुष्य की गरिमा की प्रतिष्ठा करते हैं; भीषण आंतरिक यातना और विक्षोभ से गुजर कर इसकी पूरी कीमत चुकाते हैं, लेकिन इसका पूरा दावा रखते हैं। इस तरह तीनों ही मनुष्य को तुच्छ बनाने वाली और कुचलने वाली परिस्थिति को मानने से इनकार करते हैं। यही इनका प्रतिरोध है। यह प्रतिरोध फकत इनके अपने सचेत चुनाव या पक्षधरता की वजह से पैदा हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। यह इनके लिए लगभग एक ‘बुलफाइट’ में उलझे, घिरे और आत्मरक्षा की कोशिश में लगे हुए शख्‍स की मजबूरी की तरह निर्विकल्प और अनिवार्य था।

दिलचस्प तथ्य यह है कि तीनों गजल के शायर हैं। गजल एक किस्म का ‘लिरिक’ ही मान लिया गया है (हालांकि यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है)। लेकिन इन्होंने गजल के आत्मपरक ढांचे में एक ‘क्लासिकी’ अंदाज पैदा किया। यह क्लासिकी किस्म की महाकाव्यात्मकता ‘फिनोमिनल’ कोण पैदा करने वाली उस विद्युत्धर्मिता और बुनियादी नजर की मांग करती है, जो महान त्रासदियों में हमें अक्सर दिखाई देती है (मिर्जा गालिब के यहां शायद यह चीज सबसे ज्यादा है)। इस खूबी के बाद गजल सिर्फ एक आत्मपरक उच्छ्वास या कोरा ‘लिरिक’ नहीं रह जाती। वह चाहे एहसास के पर्दे पर ही सही, अपने युग के महानाटक की अंदरूनी कशमकश के जहां-तहां कौंदने वाले अक्स फेंकती चलती है।

खुद फैज ने गजल के काव्यरूप की इस विलक्षणता और चमत्कारिक लचीलेपन के बारे में कहीं लिखा है कि प्रतीक-व्यवस्था के सीमित प्रारूपों और एक रिवायत में बंधी-बंधायी पदावली और भंगिमाओं के दायरों के अंदर गजल कैसे नये-नये अर्थ और एक साथ अनेकस्तरीय अर्थछटाएं पैदा करती और खोलती है और नये अवकाश रच लेती है। कैसे इसमें अर्थ की नयी अनुगूंजें पैदा होती हैं और सुनाई देती हैं। फैज ने यह भी बताया है कि शायद इसीलिए यह नाजुक काव्यरूप उठाईगीरी, फरेब और तरह-तरह के दुरुपयोग के लिए भी ज्यादा खुला हुआ है। एक जैसी लगने वाली भंगिमाओं और पदावली की वजह से अच्छी गजल और खराब गजल के बीच फर्क की तमीज पैदा करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है।

कुल मिलाकर यह कि मीर, गालिब और फैज इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे अपनी शायरी के जरिये न सिर्फ अपने निजी एहसास की बल्कि अपने-अपने बदलते वक्तों की तर्जुमानी करते हैं और उनकी नुमाइंदगी करने वाली प्रामाणिक आवाज बन जाते हैं। मानव स्थितियों की इसी बुनियादी और अस्तित्वमूलक पकड़ की वजह से उनकी अनुगूंजें उनके वक्तों के बाहर भी जब-तब सुनाई देती हैं।

मीर का जमाना एक बस्ती के उखड़ने का जमाना है (‘कैसी-कैसी सोहबतें उखड़ गयीं!’)। अंतःस्फोटों के बीच अपने ही मलबे में धंसते ह्रासग्रस्त सामंतवाद के उन दिनों में तमाम लूटपाट, अफरा-तफरी और बदहवास आपाधापी के बीच शाही अभिजात वर्ग के एक नुमाइंदे के तौर पर मीर (किसी हद तक अपने उदार सूफियाना मिजाज की वजह से भी) अपने युग की जलालत और क्रूरता के तीखे अहसास से गुजरते हैं। उनकी शोकमग्न आत्मा इस हानि का बोझ उठाती है और इसे बताती है। यह भी एक प्रत्याख्यान ही है। अगली सदी में, औपनिवेशिक विजय के युग में, इसी पिटे पिटाये शाही आभिजात्य के आखि़री अवशेष की तरह मिर्जा गालिब एक ज्यादा विडंबनामय जमीन पर खड़े हुए इसी तरह की आत्मपीड़ा, लांछना, नैतिकत्रास और sense of loss से गुजरते हैं और तुच्छताओं में घिर कर घिसटते अपने अस्तित्व के साथ मनुष्य की उद्दीप्त आत्मगरिमा की लौ को बचाते और प्रतिभासित करते चलते हैं।

फैज का वक्त और फैज का जीवन कतई अलग था। उनका रंगमंच और उस रंगमंच के किरदार अलग थे। कुल मिलाकर फैज का युग इतिहास की ऊर्ध्वगति और भविष्यवादी प्रेरणाओं की क्रियाशीलता का युग है। फिर भी फैज का आयुष्यक्रम कभी-कभी गालिब के विरोधाभासी जीवन की याद दिलाता है।

पैतृक रूप से एक भूमिहीन परिवार में जन्मे फैज के पिता ने भी अपनी जिंदगी की शुरुआत चरवाहे और कुली की तरह की थी, लेकिन किसी संयोग से उनके दिन फिरे और वे नाटकीय ढंग से अफगानिस्तान के बादशाह के यहां ऊंचे नौकरशाह बन गये। फैज के ही लफ्जों में उन्होंने काफी ‘रंगीन’ जीवन बिताया। फिर एक दिन सांप-सीढी के इस खेल में वापिस अपनी जगह पहुंच गये। मामूली देहाती मां के बेटे फैज के हिस्से में ज्यादा से ज्यादा पिता के रुतबे की ‘जली हुई रस्सी’ के कुछ बल ही आये होंगे।

प्रथम महायुद्ध के बाद साम्राज्यवाद विरोध की उत्ताल तरंगों से आंदोलित दुनिया में फैज ने होश संभाला। उनका बचपन और किशोरावस्था सोवियत क्रांति की विजय और असहयोग और खिलाफत आंदोलनों की हलचलों के साक्षी बने और राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के लोकव्यापीकरण के गहरे प्रभावों और ऊर्जाओं को जज्ब करते हुए गुजरे। 1930 के ‘ग्रेट डिप्रेशन’ का अपने संदर्भ में फैज ने खासतौर पर जिक्र किया है। वे तब 20-21 साल के नौजवान थे। इस सर्वग्रासी मंदी ने जहां एक तरफ उनके अपने परिवार को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया और उनके सामने जीवनयापन का प्रश्‍न उपस्थित किया, वहीं दुनिया में इसने फासीवाद के उभार के लिए ईंधन का काम किया। देश में आजादी की दिनों-दिन तेज होती जंग और योरप में युद्ध के खिलाफ और अमन के हक में उठी प्रबल हिलोर के गहरे असर में फैज इन्हीं दिनों आये। इसी बीच कम्युनिस्ट आंदोलन और मार्क्सवाद से भी उनका रिश्‍ता जुड़ा। यह फैज के आत्मनिरूपण के महत्वपूर्ण वर्ष थे। भारत में प्रगतिशील साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघ की प्रतिष्ठा करने वाली अग्रणी शख्‍सियतों में से एक फैज भी थे। इस शुरुआती दौर की प्रेरणा, लक्ष्य और स्वप्न ही फैज के अंतर्व्यक्तित्व की धुरी बन गये। फैज की शायरी इस बात की गवाही देती है कि ये चीजें उनसे कभी दूर नहीं हुईं और उनके लिए कभी झूठी नहीं पडीं। इनके स्रोत उनके यहां कभी सूखे नहीं, कठिन से कठिन वक्त में भी नहीं।

फैज का खुद का जीवन ज्यादा जटिल था। द्वितीय महायुद्ध के दौरान जब साम्राज्यवादी युद्ध ‘लोक युद्ध’ में बदला तो फैज कॉलेज की लैक्चररशिप छोड़ कर सेना में भर्ती हो गये। बाहर ब्रिटिश आधिपत्य के खिलाफ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ तेज हो रहा था और सेना के अंदर फैज एक नाजुक संतुलन साधते हुए सेना को फासीवाद विरोधी युद्ध के लिए तैयार करने की मुश्किल उठा रहे थे। युद्ध के बाद वे सेना से बाहर आ गये और 1947 की जनवरी में ही ‘पाकिस्तान टाइम्स’ के संपादक हो गये। बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान ही में रह गये और दो ही तीन साल की पत्रकारिता और मजदूर आंदोलन के संगठन के बाद राजद्रोह के आरोप के साथ ‘रावलपिंडी षड्यंत्र केस’ में धर लिये गये। चार साल तक ‘तन्‍हाई’ समेत उन्होंने जेल जीवन की तमाम यंत्रणाएं सहीं। दो-तीन साल बाद कुछ समय के लिए फिर से पाकिस्तान में मार्षल लॉ के बाद की अंधी धर-पकड़ में आ गये। एक जज की मेहरबानी से छूट कर आये तो अखबार जब्त हो चुका था। उसके बाद उन्होंने लाहौर में ‘आर्ट्स कॉउंसिल’ की स्थापना की, मास्को और लंदन में कुछ समय रहे और आठ साल दोस्तों की मेहरबानी से कराची में काटे। 71 के बाद के दिनों में जब मिलिट्री षासन कुछ समय के लिए हटा तो (भुट्टो के कार्यकाल में) पुनः उन्हें कला-संस्कृति के कुछ प्रतिष्ठान खड़ा करने का मौका मिला लेकिन कुछ ही दिनों में फिर तख्तापलट हुआ, जिया उल-हक की सैनिक तानाशाही लागू हो गयी। इसके बाद वे चार साल तक ‘अफ्रो-एशियाई राइटर्स एसोसिएशन’ और उसकी पत्रिका ‘लोटस’ को संभालने बेरूत चले आये।

फैज की शायरी का ग्राफ भी दिलचस्प है। 1941 में जब उनका पहला संकलन ‘नक्‍शे फरियादी’ प्रकाशित हुआ तो उसमें उनके अंतर्जगत के मानचित्र की शुरुआती निशानदेही हो गयी। इस संग्रह में उनकी 1928 के बाद की प्रारंभिक रचनाओं से लेकर, प्रगतिशील आंदोलन की प्रेरणाओं से उनके रिश्‍ता बनाने तक की विकास यात्रा संचित है। सद्यजात उच्छ्वसित रूमानी संवेगों की शुरुआती बेकली और तीव्रता इनमें से पहले दौर की अनेक रचनाओं की संचालिका शक्ति है, जो ज्यादातर निजी किस्म की है और तेजी से चढ़ती और गिरती है। इनमें लगता है कि कवि की एक उम्र है और ‘बाहर’ अभी ज्यादातर बाहर ही है, ‘अंदर’ नहीं आया है। निजी अभी तक निजी ही बना हुआ है। हालांकि अपने दौर की मुख्य दिशा के मुताबिक कवि ने बाहर की दुनिया की कठोर हकीकत और नैतिक तकाजों से अपने भाव-संसार का मेल करना शुरू कर दिया है। लेकिन इस प्रक्रिया में कवि को खुद को बार-बार समझाना बुझाना पड़ता है “मेरा दिल गमगीं है तो क्या, गमगीं ये दुनिया है सारी” और “ये दुख तेरा है न मेरा, हम सब की जागीर है प्यारी” इसलिए “क्यूं न जहां का गम अपना लें, बाद में सब तदबीरें सोचें”। एक तरफ ‘अपनाने’ की यह जद्दोजहद चलती है तो दूसरी तरफ एक और ही निजी उधेड़बुन चलती रहती है, जो कभी भी कह उठती है, “हो चुका खत्म अहदे-हिज्रो-विसाल जिंदगी में मजा नहीं बाकी” या “अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो, अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आएगा”।

‘नक्‍शे फरियादी’ में ही फैज की बेहद लोकप्रिय नज्म “मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग” संकलित है। ये नज्म साहिर की नज्म ‘ताजमहल’ से ज्यादा अच्छी है और पंत की “बाले तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूं लोचन, भूल अभी से इस जग को” जैसी खराब कविता से ज्यादा सच्ची और प्रामाणिक है। अंततः यह नज्म प्रगतिशील आंदोलन की तत्कालीन मुख्यधारा की उन ढेर सारी रचनाओं के नमूने में ही ढली हुई है, जिनमें कई बार भावनात्मक अनुरोध अपनी जांच किये बगैर अति नाटक की मदद से और नैतिकीकरण की युक्ति का सहारा लेकर सहानुभूति का नया ढांचा खड़ा करना चाहते हैं और “न्याय-चेतना” के अनुरूप स्थित होना चाहते हैं। ‘नक्‍शे फरियादी’ में ही फैज ने एक नये कवि की इस स्वाभाविक लड़खड़ाहट को पार कर लिया था। “बोल के लब आजाद है तेरे” जैसे तराने या “दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के” जैसी मर्मस्पर्शी गजलें इसी संकलन में शामिल थीं।
‘नक्‍शे फरियादी’ की एक गजल में फैज का यह शेर है…

फैज तकमीले गम भी हो न सकी
इश्‍क को आजमा के देख लिया

लेकिन हम जानते हैं कि इश्‍क की मुश्किल आजमाइश अभी शुरू ही हुई थी और ताजिंदगी जारी रही। इसे अभी कई बीहड़ रास्तों से गुजरना था। तकमीले गम भी खूब हुई लेकिन फिर भी कम ही ठहरी।

आजादी के बाद राष्ट्रीय आंदोलन के बिखराव के वर्षों में, खासकर 50 के दशक में प्रगतिशील आंदोलन की स्वतः स्फूर्त ऊर्जा खत्म होने लगी और धीरे-धीरे कम से कम एक बार पूरा आंदोलन ही बिखर कर विसर्जित हो गया। “आखिरी शब के हमसफर” अपना-अपना सफर खत्म करके सुस्ताने के अपने ठिकाने ढूंढ़ रहे थे। कोई किसी किनारे लगा, कोई किसी और किनारे। धीरे-धीरे अच्छी खासी तादाद में लोग प्रलोभनों या पराये वैचारिक दबावों और प्रभावों में आये और खामोशी से कहीं और चले गये। उर्दू-हिंदी के कितने ही तरक्कीपसंद, ‘इप्टा’ और ‘पृथ्वी थियेटर्स’ की कितनी ही प्रतिभाएं जो कभी इस तहरीक का परचम उठाये गांवों-कस्बों की खाक छानते फिरते थे, एक दूसरी ही दुनिया में जा बसे। न जाने कितने कलाकार संस्कृति के व्यावसायिक ढांचों में जज्ब हो गये या फिर फिल्म उद्योग के विषाल उदर में ठीक-ठीक समा गये। क्रांति का खयाल अब कोई खास खलल पैदा न करता था। इन प्रतिभाओं ने इन नयी जगहों को भी कुछ वक्त के लिए अपनी जल्वागरी से रौशन जरूर किया, लेकिन एक आंदोलन जिसकी जड़ें मामूली लोगों की ठोस जिंदगी में, उनके दुखदर्द में, उनके सपनों और दैनिक संघर्षों में थीं, एकबारगी खत्म हो गया।

लेकिन फैज साहब का मामला कुछ अलग था। उनका दर्दभरा लंबा और मुश्किल सफर अभी बचा हुआ था जिसे उन्हें लगभग अकेले ही तय करना था। अलग पाकिस्तान के खयाल को फैज ने कुबूल कर लिया था और जनवरी ’47 में ही ‘पाकिस्तान टाइम्स’ का संपादन करने लाहौर आ चुके थे। हालांकि अगस्त 1947 में फैज लिख रहे थे, “ये दाग-दाग उजाला ये शबगजीदा सहर, वो इंतिजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं”। लेकिन शायद तब उन्हें भी इस बात का इल्म न रहा होगा कि आने वाले दिन इस कदर काले होंगे। फैज की जिंदगी का एक बहुत ही अहम और पेचीदा पहलू यह है कि बंटवारे के बाद वे पाकिस्तान ही में रहे। लिहाजा आजादी की वे खुशफहमियां और झूठी तसल्लियां उनके हिस्से में नहीं आयी थीं, जो प्रगतिशील आंदोलन से निकले उनके किसी जमाने के संगी-साथियों को हिंदुस्तान में आसानी से नसीब थीं। ज्यादातर वक्त उन्होंने पाकिस्तान में जनवाद को कुचल कर रखने वाले अमरीकापरस्त जालिम भूस्वामी-सैनिक गठजोड़ की दमघोंट सुरंगों में घोर आत्मविच्छिन्नता से गुजरते हुए या एक निर्वासित की जिंदगी जीते हुए बिताया। आजादी उनके लिए अभी भी एक सपना थी। सेना में शामिल होकर फासीवाद के खिलाफ लड़ने वाले फैज के लिए फासिज्म लगभग तमाम उम्र एक जिंदा हकीकत रहा, लेकिन बड़ी बात यह थी कि घोर अलगाव और अकेलेपन की इन मुश्किल परिस्थितियों में फैज ने अपने निरूपण काल की लौ की हिफाजत अपनी आबरू की तरह की, उसे न सिर्फ जिलाये रक्खा बल्कि इस पूरे दौर में उनके अंतःकरण में उसकी दीप्ति और भी ज्यादा स्वच्छ, उदग्र और प्राणवंत हो गयी। “गुरुरे इश्‍क का बांकपन” कम न हुआ, उल्टा बढ़ता गया। यह नहीं भूलना चाहिए कि न्याय के लिए लड़ने वाले लोग वर्गारोहण और बुर्ज्वा सुखभ्रांतियों की भूलभुलैयों में ही गुम नहीं होते, दमनकारी परिस्थितियों में नृशंसीकरण और हताशा के सामने भी अलग-थलग और लाचार होकर टूट जाते हैं और समर्पण कर देते हैं। खासकर तब, जबकि परिदृश्‍य में संगठित प्रतिरोध के कोई विश्‍वसनीय लक्षण दिखाई न देते हों। इसलिए फैज को ही इस बात का पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे इश्‍क के इस कठिन इम्तहान में सुर्खरू हो कर निकले।

‘नक्‍शे फरियादी’ के बाद फैज की शायरी को जैसे अपना आपा मिल गया। कवि जैसे अपने असल मैदान में आ पहुंचा हो। जेल की जिंदगी ने मंच को ठीक-ठीक बांध दिया और उन्हें अपने वक्त के नाटक के बीचोंबीच उस केंद्रीय जगह ला खड़ा किया जहां से वे अपने भीषण आंतरिक संघर्ष के जरिये भी बीसवीं सदी के अल्पविकसित नवस्वतंत्र देशों के मुख्य संघर्ष की रूपरेखा को संकेतित कर सकते थे और आजादी और जनवाद के ज्वलंत प्रश्‍न की त्रासद विडंबना को ज्यादा से ज्यादा उदघाटित कर सकते थे।

‘दस्ते-सबा’ (1952) और ‘जिंदांनामा’ (1956) और उसके बाद ‘दस्त-ए-तह-ए-संग’ (1964) में फैज की शायरी की तमाम खूबियां एक रचनात्मक संश्‍लेषण में ढल कर अपनी मौलिकता और उत्कर्ष के साथ उभर कर आती हैं और अपनी पूरी आजमाइश करते हुए उनके कवि व्यक्तित्व को तमाम पहलुओं को समग्रता में सामने लाती हैं। यह चीज बाद तक आने वाले दूसरे संग्रहों में भी हम देखते हैं।

इस पूरे लंबे दौर को एक साथ देखें तो फैज की ताकत इस बात में छिपी लगती है कि वे न्याय के बीहड़ संघर्ष की सच्चाई, सुंदरता और जटिलता को पूरी गहराई से समझते हैं, उसका सरलीकरण नहीं करते। इस इश्‍क के गुरूर, इसकी आबरू और शान को वे दिल से जानते और समझते हैं, इसके तमाम बोझ और जानलेवा तकाजों के साथ। इस दर्द का सौदा उन्होंने अपनी इन्सानी गरिमा की हिफाजत की ज्यादा गहरी खुशी के लिए किया है, यह जानते हुए कि इस लड़ाई में कामयाबी की या मंजिल पा लेने की कोई गारंटी नहीं। इसमें बार-बार की नाकामी कोई खास मानी नहीं रखती यह मश्‍क ही खुद में कामयाब है। फैज ही कह सकते थे ‘फैज की राह सर-ब-सर मंजिल, हम जहां पहुंचे कामयाब आये’। इस कठिन रास्ते का तमाम अधूरापन इसके तमाम पेच-ओ-खम के साथ उन्हें मंजूर है। बेगानगी, उदासी, अकेलेपन, विकलता और बेबसी के भयानक रेगिस्तान को वे जिस बड़प्पन, धीरज और साहस से पार करते हैं और जिस संलग्नता और आत्मगर्व के साथ अपने स्वप्न की स्वच्छता और अपनी आशिकी की उत्कटता को हर कीमत पर बचाना चाहते हैं, वह फैज के कवि व्यक्तित्व की पुख्तगी की ही एक मिसाल है।

अपनी एक नज्म में फैज ने कवि के अंतःकरण को “अत्याचार और न्याय का रणक्षेत्र” (‘तबअ-ए-शायर है जंगाह-ए-अद्लोसितम’) कहा है। कहना गैरजरूरी है कि सबसे ज्यादा ये फैज के अपने भावजगत का ही बखान है। प्रामाणिक ढंग से वही कह सकते थे “दुख भरी खल्क का दुख भरा दिल हैं हम”। हम आगे की उनकी तमाम शायरी में ‘अत्याचार’ और ‘न्याय’ के इस भीषण संग्राम की बदलती शक्‍लों के साथ कवि की दुर्द्धर्षता की अनेक सुंदर और शानदार छवियां देखते हैं। बार-बार हार कर भी इस ‘बदी हुई बाजी’ में कवि हारता नहीं; अपने शोक और एकाकीपन को एक ‘ट्रैजिक हीरो’ की शान, आत्मगरिमा और बड़प्पन के साथ धारण करता है, अपनी सजा को कुबूल करता है और समर्पण से इनकार करता है। दरअसल फैज एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने मंसूर और फरहाद की पुरानी परंपराओं से लेकर कुर्बानियों से भरी प्रतिरोध की तमाम साम्राज्यवाद विरोधी, फासीवाद विरोधी मुक्तिकामी आधुनिक परंपराओं को आत्मसात किया और उनकी कीमत समझते और चुकाते हुए उनके संवाहक बने। हम जानते है कि एशिया, अफ्रीका, लातीनी अमरीका और तमाम दुनिया के मुक्तिकामी जनगण के संघर्षों के साथ कैसे उनके दिल की धड़कनें पैबस्त थीं। वे सबसे अच्छी तरह यह जानते थे कि अंदर से यह एक ही लड़ाई है। यह बात अलग है कि अपने इस सफर में फैज को कभी यह लगा कि “उठेगा जब जम्म-ए-सरफरोशां/पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले/कोई न होगा के जो बचा ले” तो कभी ऐसा भी वक्त रहा और ज्यादातर रहा, कि लगा, “न रहा जुनूने-रुखे-वफा/ये रसन ये दार करोगे क्या”। लेकिन फैज इन सब स्थितियों के बीच अपनी खुदी को बचाना जानते हैं। उनकी खूबसूरत नज्म “आज बाजार में पा-ब-जौलां चलो” जालिमों के निजाम में अपने लांछित और अपमानित प्रेम की सुंदरता, शान और आत्मगर्व को जिस तरह पूरे कद में सामने लाती है और उसका जश्‍न मनाती है, उससे फैज की आशिकी की गहराई और नैतिक तड़प का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। यह कविता अत्याचार और न्याय के बीच के रणक्षेत्र को उसी तरह एक ऐतिहासिक थिएटर में बदलती है, जैसे मुक्तिबोध की कविता “भूलगलती”।

फैज सच्चे वतनपरस्त और सच्चे अंतर्राष्ट्रीयतावादी थे। दुनिया भर के जनसंघर्षों के साथ एकजुटता व्यक्त करके अंतर्राष्ट्रीयतावादी हो जाना आसान है लेकिन अंतर्राष्ट्रीयतावाद की असल परख तब होती है, जब आपका मुल्क एक अविवेकपूर्ण युद्ध में झोंक दिया जाता है।

यह उल्लेखनीय है कि 1965 की भारत के साथ अनावश्‍यक जंग का और 1971 में बांग्लादेश के आधिपत्य के लिए फौजी हुक्मरानों के द्वारा की गयी कत्लोगारत का फैज ने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रतिकार किया और अपने मुल्क की अंधराष्ट्रवादी धारा का विरोध मोल लिया जबकि 1962 में चीन के साथ भारत के युद्ध के हक में प्रगतिशील आंदोलन के उनके हिंदुस्तानी दोस्तों का एक अच्छा-खासा तबका अंधराष्ट्रवादी मुहिम का शिकार हुआ।

एक बात जो खासतौर पर समझने की है, वो ये कि फैज का खुद के सरोकारों से रिश्‍ता कोरा वैचारिक, नैतिक या कोई रस्मी रिश्‍ता नहीं है। वे उनके खुद के सरोकार हैं, खु़द कमाये हुए, ‘ऑर्गेनिक’ और अपरिहार्य। इनमें उनके वास्तविक और निजी ‘स्टेक्स’ थे। सामाजिक सरोकार और निजी सरोकारों में, ऐतिहासिक कार्यसूची और निजी कार्यसूची में उनके लिए कोई अंतर न था। इसीलिए ‘रेहटरिक’ का सहारा लेने की जरूरत उन्हें कभी महसूस नहीं हुई जबकि उनके निरूपण काल में इसका चलन आम था। एक अमूर्त क्रांतिकारी रूमान, अमूर्त देशप्रेम या अमूर्त आवारगी और दीवानगी की अनुष्ठानिक भंगिमाएं उकेरने के लिए यह काफी मुफीद है। ‘रेहटरिक’ कई बार एक कर्मकांड के खोल या परिधान की तरह होता है, जिसे पहन कर दिए हुए ‘पार्ट’ को अदा करने की सहूलियत काफी मिल जाती है लेकिन उस कवि का काम कोरी ‘परफोरमेंस’ से कैसे चल सकता है, जिसका अपना अनुभव और बोध एक बाध्यकारी और निर्विकल्प अस्तित्वमूलक संघर्ष के जरिये पारिभाषित हो रहा हो और इसी को चलाने के लिए उसे भाषा की जरूरत पड़ती हो। फैज के शब्‍द अगर बजने के बजाय गूंजते हैं, सच्चे लगते हैं और दिल में उतरते हैं तो उसकी बड़ी वजह यही है कि वे असल की ताकत लेकर आते हैं। उनमें वही उत्कटता और मार्मिकता है जो फैज की अपनी जद्दोजहद में थी।

जिस चुनौती से फैज का सामना था, वह आज और भी विकराल हो कर सामने है। उनका सपना चाहे ऊपर-ऊपर टूट गया लगता हो, इतिहास के गर्भ में फिर से स्पंदित और जीवित है। इस समय का संघर्ष ज्यादा भीषण और जटिल है, लेकिन उसी अनुपात में प्रतिरोध की संभावनाएं ज्यादा सघन, व्यापक और मूलगामी हुई हैं। इस लज्जित और पराजित युग में भी तमाम थकन, उदासी, विछोह और व्यथापूर्ण अकेलेपन के बीच फैज का अंतःसंघर्ष, उनका जीवट, धैर्य, उनकी हठी पक्षधरता और उनका अप्रतिहत प्रतिरोध हमारी स्मृति में अपनी सच्चाई और प्राणमयता के साथ तब तक जीवित है, जब तक यह लड़ाई जारी है। कठिन आशिकी की फैज की यह परंपरा आने वाले लंबे दौर में हमारे साथ चलेगी।

( लेखक रोहतक विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफ़ेसर हैं )