शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली। 16 सितंबर .दिल्ली के दो केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ चुनावों से जो संकेत आ रहे हैं उन्हें नज़र अंदाज़ कर पाना लगभग असंभव है .दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए छात्र संघ चुनावों के नतीजों से साफ़ है कि दोनों ही विश्वविद्यालयों के छात्रों ने साम्प्रदायिक ताक़तों को नकार दिया है . दिल्ली में छात्र संघों के चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं होते . पूरे शहर में बाकायदा प्रचार होता है और इन विश्वविद्यालयों में पूरे देश से छात्र आते हैं .
यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि चुनाव में जीत किसकी हुई है . दिल्ली विश्वविद्यालय में कांग्रेस का छात्र संगठन एन एस यू आई बीजेपी के छात्र संगठन के मुक़ाबिल था तो छात्रों ने उसे जिता दिया जबकि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र संगठन मज़बूत था तो उन्हें जिता दिया.गौर तलब यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय तो ए बी वी पी का गढ़ माना जाता है जबकि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी एकाधिक बार ए बी वी पी काफी मजबूती के साथ चुनाव लड़ चुकी है .और अध्यक्ष की सीट पर भी क़ब्ज़ा कर चुकी है .
अक्सर ऐसा होता रहा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनावों को बीजेपी अपनी पार्टी के बढ़ते क़दम के रूप में पेश करती रही है . आज बातचीत में एक बड़े कांग्रेसी नेता ने बताया कि अगर दिल्ली विश्वविद्यालय यूनियन के चुनाव में बीजेपी समर्थित विश्वविद्यालय जीत गए होते तो बीजेपी एक प्रवक्ता गण प्रधान मंत्री सहित पूरी सरकार का इस्तीफ़ा और ज्यादा जोर से मांग रहे होते . लेकिन अब सारे लोग सन्न हैं . चुनाव हारने के बाद बीजेपी समर्थित छात्रों ने जो हंगामा किया उस पर भी बीजेपी के किसी बड़े नेता की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है .दूसरी तरफ छात्रसंघ के चुनाव में अपने छात्र संगठन के उम्मीदवारों की भारी जीत से कांग्रेस के नेता बहुत उत्साहित हैं .वैसे तो छात्रसंघ चुनावों और उनके नतीजों की राष्ट्रीय राजनीति में खास अहमियत नहीं होती लेकिन भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे-केजरीवाल और बाबा रामदेव के आंदोलनों का केंद्र दिल्ली ही थी. कोयला खंडों के आवंटन पर संसद को जाम करने, डीज़ल की मूल्यवृद्धि और खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के विरोध में भी हमलावर रही बीजेपी कैम्प में चिंता की लकीरें साफ़ नज़र आ रही हैं ..
भाजपा सर्मथित, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इस चुनाव में भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाया था. लेकिन उसके उम्मीदवार हार गए. कांग्रेस के छात्र नेताओं की इस जीत को कांग्रेस के नेता भावी राजनीति का संकेत बता रहे हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार यह बताता है कि मध्यमवर्ग के लोग और खासतौर से युवा किस दिशा में सोच रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव विशुद्ध रूप से राजनीतिक आधार पर लडे. जाते हैं.
बीजेपी के नेता अरुण जेटली, विजय गोयल, और विजेंद्र गुप्ता और कांग्रेस के कपिल सिब्ब्ल, अजय माकन, अलका लांबा आदि दिल्ली विश्वविद्यालय के एचात्र राजनीति से आये हैं जबकि प्रकाश करात , सीताराम येचुरी, और डी पी त्रिपाठी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं .ज़ाहिर है कि यह चुनाव कुछ न कुछ बड़े संकेत तो दे ई रहा है . दिल्ली में मौजूद के एपार्टियों के नेताओं ने इन चुनावों को देश में साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ बन रहे माहौल का संकेत बताया. |
Tuesday, September 18, 2012
दिल्ली के छात्रों ने साम्प्रदायिक ताक़तों को ठुकराया
हंगामा कर रहे विपक्ष ने संसदीय समितियां भी नहीं बनाने दीं
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,१७ सितम्बर . संसद में मानसून सत्र के हंगामे के कारण लोक सभा और राज्य सभा में कोई बहस नहीं हो सकी है लेकिन वे काम भी नहीं हुए जिनपर कोई विवाद नहीं था. पता चला है कि मंत्रालयों से सम्बंधित संसद की कमेटियों का गठन भी नहीं हो सका है .संसद में काम बहुत होता है और ज़ाहिर है कि सारा काम सदनों में बहस के ज़रिये ही नहीं निपटाया जा सकता .संसद के पास इस कार्य को निपटाने के लिए सीमित समय होता है। इसलिए संसद उन सभी विधायी तथा अन्य मामलों पर, जो उसके समक्ष आते हैं, गहराई के साथ विचार नहीं कर सकती। अत: संसद का बहुत सा काम सभा की समितियों द्वारा निपटाया जाता है, जिन्हें संसदीय समितियां कहते हैं। संसदीय समिति से तात्पर्य उस समिति से है, जो सभा द्वारा नियुक्त या निर्वाचित की जाती है अथवा अध्यक्ष द्वारा नाम-निर्देशित की जाती है और अध्यक्ष के निदेशानुसार कार्य करती है तथा अपना प्रतिवेदन सभा को या अध्यक्ष को प्रस्तुत करती है और समिति का सचिवालय लोक सभा सचिवालय द्वारा उपलब्घ कराया जाता है। अपनी प्रकृति के अनुसार संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं: स्थायी समितियां और तदर्थ समितियां। स्थायी समितियां स्थायी एवं नियमित समितियां हैं जिनका गठन समय-समय पर संसद के अधिनियम के उपबंधों अथवा लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन नियम के अनुसरण में किया जाता है।
नई दिल्ली,१७ सितम्बर . संसद में मानसून सत्र के हंगामे के कारण लोक सभा और राज्य सभा में कोई बहस नहीं हो सकी है लेकिन वे काम भी नहीं हुए जिनपर कोई विवाद नहीं था. पता चला है कि मंत्रालयों से सम्बंधित संसद की कमेटियों का गठन भी नहीं हो सका है .संसद में काम बहुत होता है और ज़ाहिर है कि सारा काम सदनों में बहस के ज़रिये ही नहीं निपटाया जा सकता .संसद के पास इस कार्य को निपटाने के लिए सीमित समय होता है। इसलिए संसद उन सभी विधायी तथा अन्य मामलों पर, जो उसके समक्ष आते हैं, गहराई के साथ विचार नहीं कर सकती। अत: संसद का बहुत सा काम सभा की समितियों द्वारा निपटाया जाता है, जिन्हें संसदीय समितियां कहते हैं। संसदीय समिति से तात्पर्य उस समिति से है, जो सभा द्वारा नियुक्त या निर्वाचित की जाती है अथवा अध्यक्ष द्वारा नाम-निर्देशित की जाती है और अध्यक्ष के निदेशानुसार कार्य करती है तथा अपना प्रतिवेदन सभा को या अध्यक्ष को प्रस्तुत करती है और समिति का सचिवालय लोक सभा सचिवालय द्वारा उपलब्घ कराया जाता है। अपनी प्रकृति के अनुसार संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं: स्थायी समितियां और तदर्थ समितियां। स्थायी समितियां स्थायी एवं नियमित समितियां हैं जिनका गठन समय-समय पर संसद के अधिनियम के उपबंधों अथवा लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन नियम के अनुसरण में किया जाता है।
मंत्रालयों की सलाहकार समितियों का कार्य काल २१ अगस्त को पूरा हो गया है . हालांकि पीठासीन अधिकारी ही समितियों का गठन करती हैं लेकिन सभी पार्टियों को अपने सदस्यों का नाम भेजना ज़रूरी होता है . इस बार कोयले की हलचल में सबंधित कमेटियों का गठन इसलिए नहीं हो सका क्योंकि राजनीतिक पार्टियों ने नाम ही नहीं भेजा. परम्परा यह है कि मानसून सत्र के दौरान ही नई कमेटियों का गठन हो जाता है लेकिन अभी तक इन कमेटियों का गठन नहीं हो सका है . कमेटियों का कार्यकाल २१ अगस्त को पूरा हो चुका है . आम तौर पर १ सितम्बर तक कमेटियों का गठन हो जाता है लेकिन इस बार अभी तक यह काम नहीं हो सका है.
Sunday, September 16, 2012
पाकिस्तान ने जिन्नाह की विरासत को तबाह कर दिया
शेष नारायण सिंह
सितम्बर १९४८ में मुहम्मद अली जिन्नाह का इंतकाल हो गया था. आज ६४ साल बाद जिन्नाह की विरासत को एक बार पाकिस्तान में भी नए सिरे से समझने की कोशिश की जा रही है . ज़रुरत इस बात की है कि भारत और पाकिस्तान के संबंधों में हो रहे विकास के मद्दे नज़र भारत में भी जिन्नाह की विरासत को समझा जाये इस बात में दो राय नहीं है जिन्नाह भारत की आज़ादी के सबसे बड़े सूत्रधारों में गिने जाते थे. कांग्रेस के संस्थापकों दादाभाई नौरोजी और फीरोज़ शाह मेहता के तो वे बहुत बड़े प्रशंसक थे , गोपाल कृष्ण गोखले का भी अपार स्नेह मुहम्मद अली जिन्नाह को हासिल था. आज़ादी की लड़ाई के बहुत शुरुआती वर्षों में ही उन्होंने कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बुनियाद रख दी थी. जो महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के युग में इस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का आधार बना रहा . बाद के वर्षों में साफ्ट हिंदुत्व के चक्कर में कांग्रेस की राजनीति का दार्शनिक आधार बहुत उलटे सीधे रास्तों से गुज़रा लेकिन जिन्नाह ने जिस देश की स्थापना की थी वहां तो धर्मनिरपेक्ष राजनीति पता नहीं कब की ख़त्म हो चुकी है . हालांकि इस बात में भी दो राय नहीं है कि पाकिस्तान में मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा सेकुलर है और वह भारत से दुश्मनी को पाकिस्तान के विकास में सबसे बडी बाधा मानता है .जिन्नाह को जब पाकिस्तान की संविधान सभा का सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया था तो उस पद को स्वीकार करने के लिए उन्होंने जो भाषण दिया था , आम तौर पर माना जाता है कि वही भाषण पाकिस्तान की भविष्य की राजनीति का आदर्श बनने वाला था . ११ अगस्त १९४७ का उनका भाषण इतिहास की एक अहम धरोहर है.नए जन्म ले रहे पाकिस्तान के राष्ट्र के भविष्य का नुस्खा था उस भाषण में था . लेकिन पाकिस्तान, भारत और इस इलाके में रहने वाले लोगों का दुर्भाग्य है कि उनके उस भाषण में कही गयी गयी हर बात को आज़ाद पाकिस्तान के शासकों ने तबाह कर दिया . अपने नए मुल्क के लोगों से मुखातिब पाकिस्तान के संस्थापक, मुहम्मद अली जिन्नाह ने उस मशहूर भाषण में कहा कि , " अब आप आज़ाद हैं .पाकिस्तान में आप अपने मंदिरों ,अपनी मस्जिदों और अन्य पूजा के स्थलों पर जाने के लिए स्वतन्त्र हैं . आप का धर्म या जाति कुछ भी हो सकती है लेकिन पाकिस्तान के नए राज्य का उस से कोई लेना देना नहीं हैं .. हम एक ऐसा देश शुरू करने जा रहे हैं जिसमें धर्म या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा . हम यह मानते हैं कि हम सभी एक स्वतन्त्र देश के नागरिक हैं जिसमें हर नागरिक एक दूसरे के बराबर हैं . " इसी भाषण में जिन्नाह ने कहा था कि " हमें अपना आदर्श याद रखना चाहिए कि कि कुछ समय बाद पाकिस्तान में न कोई हिन्दू रहेगा ,न कोई मुसलमान सभी लोग पाकिस्तान के स्वतन्त्र नागरिक के रूप में रहेगें . हालांकि व्यक्तिगत रूप से सब अपने धर्म का अनुसरण करेगें लेकिन राष्ट्र के रूप में कोई धर्म नहीं रहेगा, "
मुहम्मद अली जिनाह के इस रूप से इतिहास का हर विद्यार्थी वाकिफ है .१९२० के पहले जब जिन्नाह कांग्रेस के बड़े नेता हुआ करते थे उन्होंने हमेशा ही धर्म निरपेक्ष राजनीति का समर्थन किया . उन्होंने तो महात्मा गांधी की खिलाफत को बचाने के लिए चल रही मुहिम का भी विरोध किया था लेकिन बाद में वे धार्मिक आधार पर बन रहे एक राष्ट्र के संस्थापक बने . लेकिन जिन्नाह के दिमाग में तस्वीर बहुत ही स्पष्ट थी. उन्होंने १४ अगस्त १९४७ को पाकिस्तान की विधिवत स्थापना होने के तीन दिन पहले ११ अगस्त को ही साफ़ कह दिया था कि पाकिस्तान एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनेगा.
हम सभी जानते हैं कि जिन्नाह का वह सपना धूल में मिल चुका है . विभाजन के तुरंत बाद से ही पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों ने स्वतंत्र देश की राजनीति पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश शुरू कर दी थी और आज पाकिस्तान में उनका ही पूरी तरह से क़ब्ज़ा है . पाकिस्तान की फौज भी पूरी तरह से धार्मिक कट्टरपंथियों की मर्जी से चलती है . सही बात यह है कि पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में स्थापित करवाने के लिए तो जिन्नाह ने १९३६ के बाद से लगातार कोशिश की और केवल १० साल की मेहनत के बाद अंग्रेजों और कांग्रेस को मजबूर कर दिया कि भारत का बंटवारा हो गया लेकिन जिन्नाह मूल रूप से सेकुलर इंसान थे जो उन्होंने अपने ११ अगस्त के भाषण में साफ़ कह दिया था. पाकिस्तान में भी जिन्नाह की विरासत को लेकर ज़बरदस्त बहस चल रही है . लेकिन वहां आम तौर पर यही चर्चा होती है कि जिन्नाह ने धार्मिक आधार पर राज्य स्थापित करने की बात की थी या धर्म को निजी जीवन का आदर्श बताकर राज्य को सेकुलर बनाने की बात की थी . . पाकिस्तान के पहले प्रधान मंत्री और कायद-ए-आज़म के सबसे करीबी शिष्य लियाक़त अली के क़त्ल के बाद यह साफ़ हो गया था कि जिन्नाह ने जिन मान्याताओं को ध्यान में रख कर पाकिस्तान के भविष्य को डिजाइन करने के सपने देखे थे वे नहीं चलने वाले थे . पाकिस्तान की आजादी के करीब १५ साल बाद या यूं कहिये कि जनरल अयूब की हुकूमत के खात्मे के बाद से ही पाकिस्तान में जिन्ना की विरासत को तोड़ने मरोड़ने का काम पूरी शिद्दत से चल रहा है . उसमें सभी ने अपनी तरह से योगदान किया है . ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने इस्लामिक सोशलिज्म का आयाम भी जोड़ने की कोशिश की .हालांकि १९४८ में चिटगांव के किसी भाषण में जिन्नाह ने एक बाद इस शब्द का इस्तेमाल कर दिया था ,बाकी कहीं कोई ज़िक्र नहीं है . लेकिन भुट्टो को शेख मुजीब से जो दहशत मिल रही थी उसके चलते उन्होंने पाकिस्तान की राजनीति में तरह तरह के विरोधाभासों को जन्म दिया, उसी में से एक यह भी हो सकता. है. जब भुट्टो को जिया उल हक ने बेदखल किया उसके बाद तो जिनाह के धर्म निरपेक्ष पाकिस्तान के सपने की कोई भी बात चर्चा में नहीं आने नहीं दी गयी , लागू करना तो अलग बात है .
मुहम्मद अली जिन्नाह के ११ अगस्त १९४७ के प्रसिद्द भाषण में कहे गए धर्म निरपेक्षता वाले विचारों को तो उनके उत्तराधिकारियों ने दफ़न कर ही दिया , उस भाषण में कहीं गयी हर बात को आज़ाद पाकिस्तान के नेताओं ने तबाह करने में कोई कसर नहीं छोडी है . जब उनको कराची में उस ११ अगस्त की सुबह पाकिस्तान की संविधान सभा का अध्यक्ष चुना गया था तो उन्होंने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि उनकी संविधान सभा दुनिया के लिए मिसाल बनेगी. उन्होंने कहा था कि किसी भी सरकार का पहला कर्तव्य होता है कि वह कानून -व्यवस्था को दुरुस्त करे जिस से देश में रहने वाले लोग भय मुक्त रह सकें. लेकिन दुनिया जानती है कि पाकिस्तान में कभी कोई भी भयमुक्त नहीं रह सका. जहां तक हिन्दू और मुसलमानों के बराबर अधिकार का सवाल है वह तो पाकिस्तान में कभी था ही नहीं . अजीब बात यह है कि मुसलमानों के अलग अलग सम्प्रदायों के लोगों के बीच भी लगातार झगडे होते रहे हैं और खून खराबा होता रहा है .अपने उस भाषण में जिन्नाह ने घूसखोरी और आर्थिक भ्रष्टाचार के बारे में चिंता जताई थी. उन्होंने कहा था कि यह ब्रिटिश भारत की जड़ों को खोखला कर रहा था. लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने घूस और भ्रष्टाचार को इतना महत्व दिया कि बाद के पाकिस्तान में यह सर्वोच्च स्तर भी चलता रहा और आज भी पाकिस्तानी जीवन का स्थायी भाव है. उन्होंने कालाबाजारी के खिलाफ मजबूती से काम करने की भी बात की थी लेकिन आज तो पाकिस्तान एक राष्ट्र के रूप में राशनिंग और कालाबाजारी का शिकार है . यह काम १९४७ से अब तक कभी नहीं रुका . ज़ाहिर है कि कायद-ए-एअज़म की वह बात भी नहीं मानी गयी. . उन्होंने उसी भाषण में कहा था कि बहुत ही मजबूती से पाकिस्तान को भाई भतीजावाद को ख़त्म कर देना चाहिए . जिसको पाकिस्तानी हुक्मरान ने पूरी तरह से नज़र अंदाज़ किया .
सही बात यह है कि पाकिस्तान के शासक वर्ग ने पहले दिन से ही अपने संस्थापक की हर बात को नज़र अंदाज़ किया और कई मामलों में तो उल्टा किया. अगर उनके धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान के सपने को पूरा करने की कोशिश पाकिस्तान के शासकों ने की होती तो न आज तालिबान होता ,न हक्कानी होता , न जिया उल हक की सत्ता आती , न ही हुदूद का कानून बनता और न ही एक गरीब देश की संपत्ति को पाकिस्तानी फौज के आला अफसर आतंकवादियों की मदद के लिए इस्तेमाल कार पाते . उनकी मौत की ६४ साल बाद आज पाकिस्तान उस मुकाम पर खड़ा है जब उसका सबसे बड़ा दानदाता अमरीका इस बात पर बहस कर रहा है कि पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित होने से कैसे बचाया जाए. ज़ाहिर है पाकिस्तान के संस्थापक की हर बात को पाकिस्तानी सत्ताधीश भूल चुके हैं और मौजूदा हालात में यह मुश्किल है कि जिन्नाह के आदर्शों पर पाकिस्तान को चलाया जा सकेगा.
उत्तर प्रदेश की राजनीति तय करेगी देश की आगामी राजनीति की दिशा
( 10 सितम्बर को लिखा था )
शेष नारायण सिंह
इस सत्र में उत्तर प्रदेश की राजनीति के अंतर कलह भी सामने आये तो वहां की राजनीति की वह ताकत भी नज़र आई जिसके हिसाब से वह देश की राजनीति को प्रभावित करता है . करीब दो हफ्ते तक संसद के काम में बाधा डाल कर कोयले पर बहस न होने देने की बीजेपी और कांग्रेस की संयुक्त रणनीति से जब परदे लगभग हट गए तो लेफ्ट फ्रंट के पुराने साथी मुलायम सिंह यादव ने मोर्चा संभाला और वामपंथी पार्टियों के साथ अखबार वालों को संबोधित किया . उस दिन तो ऐसा लगा कि तीसरे मोर्चे के गठन की शुरुआत हो गयी है. बात अगले दिन भी चली जब मुलायम सिंह यादव ने संसद के मुख्य प्रवेश द्वार पर तीसरे मोर्चे के संभावित साथियों के साथ धरना दिया . लेकिन उसके बाद ही कांग्रेस ने उनके हाथ एक ऐसा अवसर थमा दिया जिसके बाद उत्तर प्रदेश में लोक सभा चुनावों में उनकी जीत की संभावना बहुत बढ़ गयी है . कांग्रेस ने तय किया कि वह सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति वालों प्रमोशन देने के बारे में आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रभाव हीन साबित करने के लिए राज्य सभा में एक बिल लायेगी.उत्तर प्रदेश में मायावती की राजनीति के चलते दलित बिरादरी के लोग मुलायम सिंह को वोट नहीं देते . ज़ाहिर है इस बिल का समर्थन करने से उनको कोई चुनावी फायदा नहीं होने वाला था . लेकिन विरोध करने से उत्तर प्रदेश के ओ बी सी ,ब्राह्मणों, कायस्थों और ठाकुरों का वोट एकमुश्त मिलने की संभावना थी. मुलायम सिंह यादव ने अवसर को फ़ौरन भांप लिया और दलितों के लिए प्रमोशन में आरक्षण और परिणामी ज्येष्ठता को प्रमोशन के आधार के रूप में मान्यता देने वाले बिल का विरोध करने का फैसला किया . भाग्य भी साथ दे रहा था . जब राज्य सभा में हल्ला गुल्ला के बीच सरकार ने इस बिल को पेश करने की कोशिश की तो समाजवादी पार्टी के सदस्य वेल में जाने के लिए आगे बढे . लेकिन बहुजन समाज पार्टी के एक सदस्य ने सपा के नरेश अग्रवाल को घेरकर रोकने की कोशिश की. नरेश अग्रवाल ने उसको धकेल दिया और आगे चले गए लेकिन इस प्रक्रिया में धक्का मुक्की हुई जिसको टेलिविज़न पर पूरे देश ने देखा. सन्देश साफ़ था कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी उत्तर प्रदेश की ८० फीसदी आबादी के कल्याण के लिए किसी भी हद तक जा सकती है . जहां मायावती बाकी देश में अपनी बिरादरी के वोटरों को खींचने में कुछ हद तक सफल रहीं वहीं मुलायम सिंह यादव ने यह लगभग तय कर दिया कि उत्तर प्रदेश में अब सभी सीटों पर मायावती के साथ ब्राहमण नहीं खड़ा होगा. सरकारी नौकरियों में अगड़ी जातियों में सबसे ज्यादा संख्या ब्राह्मणों की ही है . मायावती की प्रमोशन में आरक्षण की नीति से सबसे ज्यादा ब्राह् मण ही परेशान हैं . कुछ ब्राह्मणों को राजनीतिक संरक्षण देकर मायावती ने अपनी छवि ब्राह्मणों की शुभचिंतक के रूप में स्थापित करने की कोशिश की थी लेकिन जब आरक्षण में प्रमोशन की सबसे बड़ी समर्थक के रूप में उन्होंने अपने आप को स्थापित कर दिया है तो उन्हें ब्राह्मण नेता, दलाल या ठेकेदार तो समर्थन देते रहेगें लेकिन मध्यवर्ग का ब्राह्मण अब मायावती को किसी भी हाल में समर्थन नहीं देगा. राज्यसभा में इस बिल को पेश करने की प्रक्रिया में कांग्रेस ने जिस उतावली का परिचय दिया है उसके बाद उसे भी उत्तर प्रदेश में अगड़ी जाति के सरकारी कर्मचारियों के शत्रु के रूप में ही राजनीति करनी पड़ेगी. इस सारी प्रक्रिया में मुलायम सिंह यादव ही एक ऐसे नेता हैं जो उत्तर प्रदेश की गैर दलित आबादी के सबसे प्रिय नेता के रूप में उभरे हैं .
जो लोग मुलायम सिंह यादव को जानते हैं उन्हें मालूम है कि एक बार जो उनके साथ आ जाता है उसे वे भागने का मौक़ा बिलकुल नहीं देते. मुसलमानों के भी वे हमेशा से नेता नहीं थे लेकिन जब बाबरी मस्जिद की हिफाज़त के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया तो मुसलमान उनके साथ हो गए . कल्याण सिंह को साथ लेने के हादसे के बाद थोडा दूर गए थे लेकिन जैसे ही उन्होंने कल्याण सिंह से किनारा किया मुसलमानों ने उन्हें फिर अपना लिया . आज मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के सबसे बड़े नेता हैं . ऐसा इसलिए संभव हुआ कि उन्होंने जब मुसलमानों का विश्वास जीता तो उनकी तरक्की के लिए बहुत काम भी किया. आज मुसलमान उनके ऊपर भरोसा करता है . अभी तक बीजेपी और कांग्रेस के प्रचार की मुख्य धारा यही रही है कि हर हाल में अगड़ी जातियों को मुलायम सिंह यादव से दूर रखा जाए, इसके लिए बीजेपी ने उन्हें मुल्ला मुलायम सिंह तक कह डाला था. लेकिन आज जब सरकारी नौकरियों में उनकी राजनीति के कारण अगड़ी जातियों के लोग उनके साथ जुड़ जाते हैं तो वे भी कभी साथ नहीं छोड़ेगें. मुलायम सिंह यादव अपने साथ रहने वालों के लिए चिंतित रहते हैं, उसमें दो राय नहीं है.
इस तरह से बहुत ही भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि संसद का मानसून सत्र विधायी कार्य के लिहाज़ से तो शायद बेकार साबित हुआ लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह निश्चित रूप से उफान लाएगा. इस बात की संभावना बहुत बढ़ गयी है कि उत्तर प्रदेश से आने वाला कोई नेता देश की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाला है . यह काम चौ.चरण सिंह और इंदिरा गांधी के बाद उत्तर प्रदेश के किसी नेता ने नहीं किया . राजीव गांधी को इस श्रेणी में नहीं रखा जाएगा क्योंकि उन्होंने अपनी माँ की मौत से पैदा हुई सहानुभूति के बाद सत्ता पायी थी . मुलायम सिंह यादव की मौजूदा राजनीति उन्हें देश भर में ओ बी सी और सवर्ण जातियों का नेता बनाने की क्षमता रखती है . हालांकि यह देखना भी दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश का यह नेता साथ छोड़कर जाने वाले अपने विरोधियों से साथ किस तरह से व्यवहार करता है . अब तक के संकेत से तो यही लगता है कि बेनी प्रसाद वर्मा की तरह उन्होंने राजनीतिक विरोधियों को हमेशा शून्य तक पंहुचाया है . इस बार भी लगभग पक्का है कि नए राजनीतिक व्याकरण की रचना कर रहे मुलायम सिंह यादव के नए साथियों के आने के बाद उनका साथ छोड़ने वालों की खासी संख्या होगी . देखना यह है कि राज्य में सत्ता के नए समीकरण क्या रूप लेते हैं .
राजनीतिक चंदा देने वाले ही घोटालों में भी पाए जाते हैं
(10सितम्बर को लिखा था )
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,१० सितम्बर.लोक प्रतिनधित्व कानून २०५१ में साफ़ लिखा है कि अगर कोई राजनीतिक पार्टी किसी से २० हज़ार रूपये से ज्यादा चंदा लेती है तो उसके बारे में चुनाव आयोग को सूचित करना अनिवार्य है . राजनीतिक पार्टियां किसी विदेशी कंपनी ,संस्था या व्यक्ति से राजनीतिक काम के लिए चंदा नहीं ले सकतीं.चुनाव सुधारों के लिए काम कर रही संस्था, ए डी आर ने २००३ से २०११ तक राष्ट्रीय पार्टियों और कुछ क्षेत्रीय पार्टियों को मिले चंदे की जानकारी हासिल की है जिससे पता चलता है कि बड़ी पार्टियों ने खूब झूमकर चंदा लिया है . एक दिलचस्प बात यह है कि दान दाता कंपनियों में बड़ी संख्या उन कारपोरेट घरानों की है जो दूरसंचार और खनिज सम्पदा के घपलों में नाम कमा चुके हैं
पिछले सात वर्षों में सबसे ज्यादा आमदनी कांग्रेस को हुई है . उसे २००८ करोड़ रूपये का चंदा मिला है . दूसरे नंबर पर बीजेपी है इसी कालखंड में जिसकी आमदनी ९९४ करोड़ रूपये की है. इसके बाद उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी है जिसकी आमदनी ४८४ करोड़ रूपये हैं ,मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को ४१७ करोड़ रूपये मिले हैं जबकि समाजवादी पार्टी ओ २७९ करोड़ रूपये की आमदनी हुई है.दिलचस्प बात यह है कि बहुजन समाज पार्टी ने दावा किय है कि २००९ और २०११ के बीच में उसे एक भी स्रोत से २० हज़ार से ज़्यादा चंदा नहीं मिला है लेकिन इसी काल खंड में उसे १७२ करोड़ रूपये का चंदा नंबर एक में मिला है .यानी इतनी बड़ी रक़म २० हज़ार से कम के दान दाताओं ने दी है . यह वही काल खंड है जब उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी.
इस काल खंड में जिन कंपनियों ने राजनीतिक दलों को खूब प्रेम से दान दिया है उनमें कई कम्पनियां ऐसी हैं जो या तो कोयला घोटाले से सम्बंधित हैं या अन्य किसी घोटाले में उनका नाम है . नरेंद्र मोदी के विवादित वाइव्रेंट गुजरात प्रोजेक्ट के समर्थक सेठ भी राजनीतिक चंदे के दान दाताओं में प्रमुख रूप से पाए जा रहे हैं . सबसे बड़े दान दाताओं में टोरेंट पावर , एशियानेट टीवी होल्डिंग ,स्टरलाईट , आई टी सी ,वीडियोकान ,लार्सेन & टुब्रो आदि हैं . बहुत सारी कम्पनियाँ ऐसी हैं जिन्होंने सभी सत्ताधारी पार्टियों को चंदा दिया है . कारपोरेट घरानों ने चंदा देने के लिए एक नया तरीका निकाला है . कई बड़े घरानों ने इलेक्टोरल ट्रस्ट बना रखा है .इनमें से कुछ के नाम से तो उसकी प्रमोटर कंपनी को पहचाना जा सकता है लेकिन कुछ ऐसे हैं जिनके नाम से आसानी से उसके सेठ के बारे में जानकारी हासिल कर पाना बहुत ही मुश्किल है . ट्रस्टों के नाम बड़े ही सम्माननीय हैं . जनरल एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट ,पब्लिक एंड पालिटिकल अवेयरनेस ट्रस्ट ,भारती एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट ,एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट,हार्मनी एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट ,सत्या एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट ,चौगले एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट और कारपोरेट एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट. जिस एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट ने सबसे ज़्यादा चंदा दिया है उसका नाम है, जनरल एलेक्ट्रोरल ट्रस्ट . इसने कांग्रेस और बीजेपी को खूब खुल कर चंदा दिया है . यह वेदान्त ग्रुप का ट्रस्ट बताया जाता है . एयरटेल वाली कंपनी का भी एक ट्रस्ट है और उसने भी खूब दान किया है .
पूरी ताक़त प्रधानमंत्री की छवि संवारने में लगी लेकिन राज्यों में कांग्रेस ने हार स्वीकार कर ली है .
( 5 सितम्बर को लिखा था)
शेष नारायण सिंह
अब कोयला भी एक ऐसा मुद्दा बन गया है जिसमें कांग्रेस का भ्रष्टाचार उजागर होता है तो बीजेपी भी उस से कम भ्रष्ट नहीं है . संसद में बहस न करवाकर बीजेपी ने जो अपनी पोल खुलने से बचाने की कोशिश की थी , मनमोहन सिंह की सरकार के कुछ अफसरों ने वह काम फाइलें मीडिया को लीक करके पूरी कर दी हैं .. देश के सबसे महत्वपूर्ण अंग्रेज़ी चैनल के पास रोज़ ही कोई ऐसी फ़ाइल ज़रूर होती है जिस से कांग्रेस के साथ साथ बीजेपी की भी किरकिरी हो रही है . संसद में जारी गतिरोध को राजनीतिक रूप से बीजेपी के खिलाफ इस्तेमाल करने की मुहिम में प्रधान मंत्री ने खुद मोर्चा संभाल लिया है . कोयला आवंटन के तकनीकी पक्ष की बात तो उनके मंत्री और कांग्रेस के प्रवक्ता लोग कर रहे हैं लेकिन बीजेपी को राजनीतिक रूप से कमज़ोर साबित करने का ज़िम्मा खुद प्रधान मंत्री ने संभाल लिया है . खबर है कि बीजेपी के साथ साथ कांग्रेस के भी उन संसद सदस्यों को बेनकाब किया जाएगा जिन्होंने कोयले के ब्लाक ले रखे हैं . इस काम में सी बी आई का इस्तेमाल भी शुरू हो गया है .४ सितम्बर को सी बी आई ने जिन पांच कंपनियों के दफ्तरों पर छापे मारे हैं उनमें से कई दफ्तर कांग्रेसी सांसदों के बताये जा रहे हैं . यह लगभग पक्का माना जा रहा है कि अब सी बी आई बीजेपी नेताओं के दोस्तों के ठिकानों पर छापेमारी करेगी जो कोयले के ब्लाक के लाभार्थी हैं .
प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि हमारी अर्थव्यवस्था ९ प्रतिशत के आर्थिक विकास दर को हासिल नहीं कर पा रही है इसका मुख्य कारण यह है अपने देश में राजनीतिक माहौल विकास के पक्ष में नहीं है . उन्होंने गुड्स और सर्विसेज़ टैक्स को लागू न कर पाने के लिए भी विपक्ष को ही ज़िम्मेदार ठहराया . उन्होंने दावा किया कि अगर यह टैक्स लागू हो जाए तो आर्थिक विकास की दर कम से कम २ प्रतिशत बढ़ जायेगी.और टैक्स न देने वालों पर काबू किया जा सकेगा.उन्होंने विपक्ष पर सीधा हमला किया और कहा कि गरीबी,भूख और बीमारी जैसी समस्याओं को हल करने में भी विपक्ष बाधा डाल रहा है . उनका दावा है कि अगर विपक्ष सरकार को ठीक से काम करने दे तो इन समस्याओं को हल करना आसान हो जाएगा. देश एक संकट से दूसरे संकट की ओर बढ़ रहा है और बीजेपी वाले संसद की कार्यवाही में लगातार बाधा डाल रहे हैं .यह मुख्य समस्याओं से आम आदमी का ध्यान हटाने की कोशिश है .काम के लिए केवल २४ घंटे मिलते है और उसमें अगर बड़ा वक़्त बीजेपी की ध्यान बांटने वाली कारस्तानियों को संभालने में लग जायेगें तो काम कैसे हो पायेगा.इस चक्कर में सरकार अपना बुनियादी काम भी नहीं कर पाती . इस से सरकार के काम कर सकने की क्षमता पर असर पड़ता है .डॉ मनमोहन सिंह का कहना है कि उनकी सरकार का मुख्य काम गरीबी , बीमारी और अशिक्षा से मुकाबला करना है.अगर उनकी सरकार यह काम करने में सफल होती है तो देश के करोड़ों लोगों को लाभ पंहुचेगा. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बीजेपी इस काम को करने नहीं दे रही है .
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस चुनाव के लिए तैयार है, जिन राज्यों में जल्द ही चुनाव होने हैं वहां कांग्रेस ने अपनी हार का सही इंतज़ाम कर रखा है . गुजरात में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है लेकिन वहां कांग्रेस का कोई अभियान नहीं है . वाइब्रेंट गुजरात के ज़रिये नरेंद्र मोदी ने मीडिया में अपनी छवि को चमकाने का कार्यक्रम नियमित रूप से चला रखा है . गुजरात में कांग्रेसी पूरी तरह से हतप्रभ हैं और नरेंद्र मोदी के तय किये हुए एजेंडा पर केवल प्रतिक्रिया देने का काम कर रहे हैं . हिमाचल प्रदेश में काग्रेस की कमान वीरभद्र सिंह के हाथ में दे दी गयी है . समझ में नहीं आता कि जो आदमी केंद्र सरकार से इसलिए निकाल दिया गया हो कि वह अपना काम ठीक से नहीं कर रहा था, उसे सत्ताधारी बीजेपी को चुनौती देने का काम क्यों सौंपा गया. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी विधान सभा के चुनाव जल्द होने हैं . छत्तीस गढ़ में तो कांग्रेस की तरफ से लगभग वाकओवर देने की तैयारी हो चुकी है . रमन सिंह को वहां का कांग्रेसी आगामी मुख्यमंत्री के रूप में देख रहा है जबकि मध्य प्रदेश में राहुल उर्फ़ अजय सिंह के अलावा कोई भी कद्दावर कांग्रेसी मध्य प्रदेश की राजनीति में रूचि नहीं ले रहा है . राहुल गाँधी के कृपा पात्र सिंधिया जी के परिवार की ग्वालियर राज में थोड़ी बहुत हैसियत है. बाकी राज्य तो खाली ही पड़ा है . छिंदवाडा में कमलनाथ जीत जायेगें लेकिन उसके बाहर उनकी कोई राजनीति नहीं है. दिग्विजय सिंह ने मध्य प्रदेश के अलावा बाकी भारत में अपना साम्राज्य फैला रखा है और राम देव से लेकर अन्ना हजारे तक को औकातबोध करा रहे हैं . मध्य प्रदेश में वे २०१३ में जाने वाले हैं लेकिन फिलहाल तो वहां भी शिवराज सिंह का डंका बज रहा है .
राजस्थान में भी चुनाव होने हैं . वहां कांग्रेस का राज है लेकिन सबका कहना है कि मौजूदा मुख्य मंत्री की अगुवाई में तो कांग्रेस की वर्तमान सीटों की आधी संख्या भी नहीं बचेगीं.कांग्रेस आलाकमान तय भी कर चुका है कि मुख्य मंत्री बदलना है. बताते हैं कि राहुल गांधी के एक प्रिय शिष्य राजस्थान की किसी रियासत के राजा के परिवार के कोई श्रीमानजी उनके मुख्य सलाहकार हैं , वे खुद ठाकुर हैं और ठाकुरों के नेता बनने के सपने पाल चुके हैं इसलिए ब वहां किसी ठाकुर को आगे नहीं आने दे रहे हैं . राहुल गांधी उनकी नज़र से ही देख रहे हैं इसलिए उनके मरजी चल रही है . बताया जा रहा है कि किसी ठाकुर मुख्य मंत्री के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाने वाला है . राहुल गांधी के यह शिष्य नेता अपने आपको ही मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित करने के चक्कर में हैं .शायद इसी लिए इन्होने राजस्थान में ठाकुरों को कांग्रेस में किसी भी महत्वपूर्ण पद पर नहीं बैठने दिया है . अजीब लगता है जब ठाकुर प्रभाव वाले राज्य में कांग्रेस के किसी भी संगठन का मुखिया ठाकुर नहीं है. राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष जाट है जिसके ऊपर किसी ब्राह्मण के क़त्ल का आरोप है . यह व्यक्ति जब भी चुनाव लड़ता है,हार जाता है . युवक कांग्रेस का अध्यक्ष भी जाट है . सेवा दल भी जाटों के कब्जे में है एन एस यू आई ,इंटक और महिला कांग्रेस के अध्यक्ष भी जाट हैं . जाटों के इस दबदबे का कोई कारण समझ में नहीं आता क्योंकि इसकी वजह से ब्राहमण , और ठाकुर जो कांग्रेस की तरफ खिंच रहे थे अब दूर भाग रहे हैं . इस तरह से एक महत्वपूर्ण राज्य जहां कांग्रेस मज़बूत हो सकती थी ,वहां एक नौजवान राजपूत कांग्रेसी नेता की महत्वाकांक्षा के चलते कांग्रेस की हार की तैयारी हो चुकी है .
हालांकि अभी दूर है लेकिन लोक सभा चुनाव 2014 में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में भी हार मान ली है . वहां फैजाबाद के सांसद निर्मल खत्री को पार्टी की कमान सौंप दी गयी है . निर्मल खत्री बहुत भले आदमी हैं लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं . फैजाबाद जिले में कभी कभार चुनाव जीतने के अलावा उन्होंने कभी कोई बड़ी सफलता नहीं हासिल ही है . उनको उनके समकालीनों में कोई भी नेता नहीं मानता . लगता है कि राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश का मैदान पूरी तरह से सपा बनाम बसपा की लड़ाई के लिए छोड़ दिया है .ऐसी हालत में लगता है कि अपने वफादार लोगों को स्थापित करने के चक्कर में कांग्रेस केंद्र की सत्ता से बेदखल होने की योजना पर काम कर रही है . दिल्ली में तो मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत छवि को ठीक करने के लिए सारी ताकतें एकजुट हो गयी हैं लेकिन राज्यों में कांग्रेस आलाकमान हार की इबारत लिख रहा है .
Monday, August 20, 2012
भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है
शेष नारायण सिंह
अन्ना हजारे के आन्दोलन को तहस नहस कर दिया गया. शासक वर्गों को इसमें मज़ा आ गया. पूरे देश में भ्रष्टाचार से त्राहि त्राहि कर रही जनता के लिए अन्ना हजारे एक ऐसे मसीहा के रूप में उभरे थे जो उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आने वाली भ्रष्टाचार की परेशानी से मुक्ति दिला सकता था. अन्ना हजारे के साथ गोपाल राय जैसा क्रांतिकारी भी था जो साम्राज्यवादी सत्ता प्रतिष्टानों के खिलाफ संघर्ष करता रहा है . गोपाल और उनके जैसे बहुत सारे सही क्रांतिकारियों को उम्मीद हो गयी थी कि अन्ना हजारे के साथ भारत की जनता को एकजुट किया जा सकेगा और सत्ता प्रतिष्टान के खिलाफ लामबंद किया जा सकेगा . लेकिन ऐसा न हो सका. अपने ब्लॉग पर 4 नवम्बर २०११ को प्रकाशित एक लेख से कुछ अंश आज याद आते हैं . उस दिन भी मेरे मन में यह डर था कि कहीं सत्ता प्रतिष्ठानों के मालिक अन्ना के साथ मिलकर आम आदमी के गुस्से को बोतल में न बंद कर दें . आखिर में वही हुआ और अन्ना हजारे के आन्दोलन से पैदा हुआ जागरण योग गुरु रामदेव के ज़रिये शासक वर्गों की गोद में जा बैठा. अन्ना हजारे के आन्दोलन की विफलता के कारणों की बाद में जांच होती रहेगी लेकिन फिलहाल आम आदमी पस्त है और उसे मालूम है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की उसके क्षमता पर सवाल उठने लगे हैं .
अन्ना हजारे की टीम के सदस्यों की व्यक्तिगत ईमानदारी पर सवाल उठने के बाद भी अन्ना का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में जिस पारदर्शिता के साथ भ्रष्टाचार के किलों को ढहाया है उसके चलते उनकी ख्याति ऐसी है कि उनको कोई भी बेईमान नहीं कह सकता . उनके ऊपर उनके विरोधी भी धन की उगाही का आरोप नहीं लगा सकते . उनके साथियों के तथाकथित भ्रष्ट आचरण से भी आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है . आम आदमी की चिंता यह है कि क्या अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो लड़ाई शुरू की थी वह भ्रष्टाचार को वास्तव में मिटा पायेगी ? अन्ना के आन्दोलन से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता को बहुत उम्मीदें हैं . लेकिन अब तक टकटकी लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं .पिछले दिनों ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसके बाद भरोसा टूटना जायज़ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे इस आन्दोलन में कारपोरेट सेक्टर के भ्रष्टाचार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है . जबकि सच्चाई यह है कि अब सरकारी अफसर के साथ साथ निजी कम्पनियां भी ऐसे भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जा रही हैं जिसकी वजह से आम आदमी परेशान होता है .एक उदाहरण से बात को साफ़ करने की कोशिश की जा सकती है . दिल्ली में घरेलू बिजली सप्लाई का ज़िम्मा निजी कंपनियों के पास है . अगर यह कम्पनियां या इनके अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं तो उसका सीधा नुकसान आम आदमी को होगा. ऐसी ही और भी बहुत सी सेवाएं हैं . बैंकिंग और इंश्योरेंस भी उसी श्रेणी में आता है . इसलिए वह सवाल जो अब बहुत लोगों के दिमाग में घूम फिर कर चक्कर काट रहा है, उसका जवाब भी तलाशा जाना चाहिए . कहीं ऐसा तो नहीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उबल रहे जन आक्रोश को दिशा भ्रमित करने के लिए धन्नासेठों ने अन्ना हजारे के ज़रिये हस्तक्षेप किया हो . यह डर बेबुनियाद नहीं है क्योंकि आज से करीब सवा सौ वर्ष पहले ऐसा हो चुका है . १८५७ में जब पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा फूटा था तो अंग्रेजों ने ईस्ट इण्डिया कंपनी की हुकूमत को हटाकर ब्रिटिश सामाज्य की हुकूमत कायम कर दी थी. उस से भी लोग नाराज़ हो रहे थे . साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भांप लिया और ब्रिटिश इम्पायर के चाकर एक अधिकारी को आगे करके १८८५ में कांग्रेस बनवा दी . इतिहास के कई विद्वानों का कहना है कि १८८५ में कांग्रेस की स्थापना आज़ादी की लड़ाई में इम्पीरियल हस्तक्षेप था , भारतीय जनता के गुस्से को अंग्रेजों के हित की दिशा में ले जाने की एक कोशिश था. उसके बाद कांग्रेस के अधिवेशनो में जागरूक मध्य वर्ग के लोग बिटिश सम्राट की जय जय कार करते रहे . कांग्रेस के स्थापना के ३५ साल बाद वह संगठन आम आदमी का संगठन बन सका जब गाँधी ने देश की जनता का नेतृत्व संभाला. तब जाकर कहीं ब्रिटिश साम्राज्यवाद को प्रभावी चुनौती दी जा सकी. आज भी समकालीन इतिहास के जानकार पूछना शुरू कर चुके हैं कि कहीं अन्ना हजारे का आन्दोलन वर्तमान शासक वर्गों और धन्नासेठों के आशीर्वाद से अवाम के गुस्से को भोथरा करने के लिए तो नहीं चलाया गया था. क्योंकि अगर भ्रष्टाचार ख़त्म होगा तो नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों की आमदनी निश्चित रूप से घटेगी. इस सवाल का जवाब इतिहास की कोख में है लेकिन फिलहाल ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की आग में जल रही जनता का गुस्सा जिन्न की तरह बोतल में बंद किया जा चुका है
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मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के सर्वमान्य राजनीतिक नेता हैं .
शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश में बहुत साल बाद पहली बार स्पष्ट बहुमत की सरकार २००७ में बनी थी जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गयी थीं. पांच साल तक उन्होंने एकछत्र राज किया जिसका नतीजा यह हुआ कि जनता ऊब गयी और उसने २०१२ में उनकी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंप दी. समाजवादी पार्टी की साफ़ जीत में मायावती की अलोकप्रियता एक महत्वपूर्ण कारण है लेकिन उनकी जीत नकारात्मक नहीं है. मायावती को स्पष्ट बहुमत देकर जो उम्मीदें एक समाज के रूप में उत्तर प्रदेश की जनता ने पालीं थीं, वे कहीं भी पूरी नहीं हुईं. उन्हीं उम्मीदों को फलीभूत करने के लिए इस बार उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंप दी है . स्पष्ट बहुमत की सरकार के गठन में राज्य के मुसलमानों का योगदान बहुत ज़्यादा है . पूरे राज्य में मुसलमानों ने एकजुट होकर समाजवादी पार्टी को वोट दिया . ऐसा शायद इसलिए था कि मायावती के बारे में सबको मालूम है कि २००७ के पहले वे जब भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, उनको आर एस एस और बीजेपी ने ही समर्थन किया था . इस बार भी चर्चा थी कि अगर कुछ सीटें कम पड़ गयीं तो मायावती को बीजेपी सत्ता तक पंहुचा सकती थी. ज़ाहिर है राज्य की धर्मनिरपेक्ष ताक़तों के सामने इस बार डबल चुनौती थी . एक तो यह कि बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना है और दूसरा कि मायावती को भी सत्ता से बेदखल करना है क्योंकि अगर इस बार मायावती बीजेपी के समर्थन से सत्ता में आयीं तो साम्प्रदायिक ताक़तों को ज़बरदस्त उछाल मिलेगा और इस बात की आशंका चारों तरफ थी कि कहीं गुजरात के २००२ जैसा माहौल न बनाया जाए . इसका कारण यह है कि अब बीजेपी में जो थोड़े बहुत लिबरल नेता हैं वे हाशिये पर हैं और पार्टी के एक बड़े ताक़तवर वर्ग ने तय कर रखा है कि गुजरात वाले नरेंद्र मोदी को ही पार्टी का मुख्य नेता बना दिया जाए. अब तो खुले आम यह भी कहा जाने लगा है कि लाल कृष्ण आडवाणी नहीं, नरेंद्र मोदी को ही बीजेपी वाले प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करेगें.
साम्प्रदायिकता के इस माहौल में उत्तर प्रदेश विधान सभा का चुनाव हुआ था. साम्प्रदायिकता विरोधी सभी ताक़तों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया .मुसलमानों ने भी लगभग एकमुश्त समाजवादी पार्टी को समर्थन किया . आज राज्य में सरकार है और आजकल लगभग हर शहर में ऐसे बहुत सारे मुसलमान मिल जाते हैं जो यह दावा करते हैं कि वे ही मुसलमानों के असली नेता हैं और उनकी वजह से ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी है . पिछले छः महीनों में ऐसे बहुत सारे नेताओं से मुलाक़ात हुई . बात बहुत अजीब लगती है लेकिन कल तक जो नेता अपनी खुद की राजनीति चमकाने के लिए तरह तरह की कोशिश करते रहते थे , तरह के लोगों के दरवाजों के चक्कर काटा करते थे ,वे आज इतने बड़े नेता कैसे हो गए कि पूरे उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने उनकी बात मान ली और समाजवादी पार्टी को जिता दिया. कई ऐसे लोग भी मिल जायेगें जो यह दावा करेगें कि अल्पसंख्यकों के बारे में कोई भी फैसला बिना उनकी सलाह के नहीं किया जाता. उत्तर प्रदेश और मुलायम सिंह यादव की राजनीति को जानने वाले जानते हैं कि वे सुनते तो सबकी हैं लेकिन फैसला किसी के दबाव से भी नहीं लेते और पूरी तरह से किसी की सलाह भी नहीं मानते . हाँ समाज के हर वर्ग से मिलते जुलते रहने की अपनी आदत के कारण उनके फैसलों में सब का हित समाहित रहता है .
इस पृष्ठभूमि में मैंने इस बात का एक बार फिर पड़ताल करने का फैसला किया कि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का सबसे बड़ा राजनीतिक नेता कौन है . पूरे राज्य में ऐसे लोगों से बात की जो सच कहने के लिए मशहूर हैं .,बड़े पत्रकारों से बात की, मुस्लिम धार्मिक नेताओं से बात की ,बुद्धिजीवियों से बात की . लगभग सबने यही कहा कि उत्तर प्रदेश में के मुसलमानों के राजनीतिक नेता सिर्फ और सिर्फ मुलायम सिंह यादव हैं . वे ही तरह तरह के समुदायों में बँटे हुए मुस्लिम समाज के सर्वमान्य राजनीतिक नेता हैं . इतना ही नहीं ,जो भी मुस्लिम नेता उनके करीब आ जाता है अपने समाज में उसका सम्मान बढ़ जाता है. मुलायम सिंह यादव अकेले ऐसे राजनेता हैं जिनकी बात राज्य के सभी मुसलमान तो मानते ही हैं , मुस्लिम नेताओं के पास भी उनको नेता मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. अपनी पार्टी को मुसलमानों के वोट का हक़दार मानने वाले कांग्रेसी भी निजी बातचीत में यह बात स्वीकार करते हैं कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के अलावा मुसलमान किसी की बात पर भरोसा नहीं करता . विधान सभा चुनाव के दौरान मुस्लिम वोटों के बल पर चुनाव की सफलता की उम्मीद लगाकर बैठे रहे एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि अब तो उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को किसी नई रण नीति पर काम करना पडेगा क्योंकि अगर मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह को भर्ती करने जैसी कोई गलती न कर दी तो अब मुसलमान उनका साथ छोड़ने को तैयार नहीं हैं. मुलायम सिंह यादव ने एक बात चीत में इस संवाददाता से बताया था कि कल्याण सिंह को साथ लेना उनकी ज़िंदगी की एक बहुत बड़ी राजनीतिक गलती थी . उन्होंने यह भी कहा कि हालांकि और भी कुछ लोग उस काम के लिए ज़िम्मेदार थे लेकिन आखिर में तो वह फैसला उनका ही था और अब वह गलती दुबारा कभी नहीं होगी.
एक धर्म निरपेक्ष नेता के रूप में उनकी पहचान १९८४ के बाद से बनना शुरू हुई.जब बीजेपी और आर एस एस ने १९८४ के लोक सभा चुनाव में बुरी तरह से हार के बाद हिंदुत्व को अपनी राजनीति का स्थायी भाव बनाने का फैसला तो सब कुछ बदल गया . उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गया, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगे बढ़ गयीं.और धर्म निरपेक्ष राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे , रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी.
आर एस एस और बीजेपी के उस विभाजक दौर में उत्तर प्रदेश में उनको पुरानी धर्मनिरपेक्ष पार्टी ,कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिली लेकिन जब १९८९ के चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव ने सत्ता संभाली तो साम्प्रदायिक ताक़तों को हर मुकाम पर रोकने की राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गयी. उसी दौर की राजनीति में गाफिल पाए जाने के कारण ही उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये पर आ गयी . मुलायम सिंह यादव ने अपने आपको एक धर्मनिरपेक्ष विकल्प के रूप में पेश किया और आज तक उसी कमाई के सहारे राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का दबदबा बना हुआ है . धर्मनिरपेक्ष राजनीति के बारे में मुलायम सिंह यादव की प्रतिबद्धता बहुत ज़्यादा है . १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद उत्तर प्रदेश में जब मुलायम सिंह यादव ने देखा कि आर एस एस की ताक़त रोज़ ही बढ़ रही है तो उन्होंने बीजेपी और कल्याण सिंह को बेदखल करने के लिए बहुजन समाज पार्टी से हाथ मिला लिया. उस दौर में मैंने उनसे बात की थी और कहा था कि कांशीराम और मायावती की टोली का साथ करके उन्होंने अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो उन्होंने साफ़ कहा कि अगर मैं कांशीराम को साथ न ले लेता तो वह बीजेपी के साथ चले जाते और वह देश के लिए अच्छा न होता . इसलिए कुछ इलाकों में अपनी ताक़त से उन लोगों को कुछ सीटें देकर मैं साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रख सकूंगा . वह काम मुलायम सिंह ने किया भी. अपने जिले की इटावा सीट से कांशीराम को लोकसभा का सदस्य बनवाया , राज्य में कई जिलों में जहां उनकी पार्टी मज़बूत थी ,वहां से बहुजन समाज पार्टी को जिताया ,कांशी राम की पार्टी की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण नेता ,मायावती थीं. उन्हें फैजाबाद जिले की राजनीति में जमाया लेकिन कांशीराम को बीजेपी की शरण में जाने से रोक नहीं सके. बाद में तो मुलायम सिंह यादव कहते रहते थे कि मायावती की राजनीति साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है.
जब दुबारा मुख्यमंत्री पद पर वे बैठे तो उन्होंने मुसलमानों के लिए जो किया वह तब तक किसी भी मुख्य मंत्री ने नहीं किया था. उर्दू जानने वालों को सरकारी नौकरियों में जगह दिया, पुलिस में बड़ी संख्या में मुसलमानों को भर्ती करवाया, साम्प्रदायिक दंगों की आग में बार बार झुलस रही मुस्लिम आबादी को सुकून से रहने के मौक़े उपलब्ध करवाए, सरकारी काम काज में मुसलमानों को बहुत सारे अवसर दिए . जो भी मुस्लिम नौजवान अपनी बिरादरी में लोगों के साथ खड़े देखे गए उन्हें राजनीति में महत्व दिया , कुछ को तो राज्य स्तर का नेता बना दिया और ऐसा माहौल बना दिया कि आम मुसलमान समाजवादी पार्टी के राज में अपने को सुरक्षित महसूस करता है . कुल मिलाकर यह बिना संकोच कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की राजनीति के सबसे भरोसेमंद नेता मुलायम सिंह यादव ही हैं.
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Friday, August 10, 2012
रामदेव का उपवास उल्लासपूर्ण माहौल में शुरू,कांग्रेस को दिक्क़त नहीं
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,९ अगस्त. योग शिक्षक रामदेव का तीन दिन का उपवास आज रामलीला मैदान में पूरे जोश खरोश के साथ शुरू हो गया. तीन दिन के इस उपवास में उनके करीब २० हज़ार समर्थक सवेरे ही रामलीला मैदान पंहुच चुके थे. खबर है कि उनके बहुत सारे समर्थक भी उनके साथ उपवास कर रहे हैं . राम लीला मैदान में रामदेव के भाषण के बाद माहौल बहुत ही उल्लासपूर्ण था क्योंकि अब समर्थकों को भरोसा हो गया है कि पिछली बार की तरह इस बार रामलीला मैदान में पुलिस की लाठियां नहीं चलेगीं. शुक्रवार को जन्माष्टमी है . उस दिन लोग वैसे भी व्रत रखते हैं और शनिवार को तीन दिन पूरे हो जायेगें. रामदेव ने इस बार बहुत ही चतुराई से अपने आपको अन्ना हजारे की टीम से अलग कर दिया है.. उन्होंने मंच से ऐलान किया कि उनका आन्दोलन किसी भी पार्टी के खिलाफ नहीं है और वे काले धन को वापस लाने के अलावा अब एक मज़बूत लोकपाल के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं .रामदेव ने साफ़ कहा कि वे उसी लोकपाल को पास करवाने की माग कर रहे हैं जिसे लोक सभा में पास किया जा चुका है. उन्होंने कहा वे सी बी आई के निदेशक , सी ए जी, मुख्य विजिलेंस कमिशनर , और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को पारदर्शी बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं .
रामदेव ने अपने भाषण में साफ़ किया कि वे किसी भी नेता के खिलाफ कुछ नहीं बोलेगें. अन्ना हजारे की टीम वालों की तरह वे किसी भी मंत्री के खिलाफ कुछ नहीं बोलेगें. उन्होंने यह भी कहा कि अगर लोकसभा में पास हुए लोकपाल में कुछ कमियाँ हैं और वह ९८ प्रतिशत सही है तो उसे पास करवा लेना चाहिए , बाकी २ प्रतिशत की जो कमी रह जायेगी उसे बाद में ठीक करवा लिया जाएगा लेकिन एक मज़बूत लोकपाल पास होना बहुत ज़रूरी है .बाबा के इस नरम रुख के बाद उनके समर्थको में बहुत उत्साह है . कांग्रेस पार्टी ने भी राहत की साँस ली है. बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी रामदेव के पाँव छुए और रामदेव ने गुजरात जाकर अपने भाषण में नरेंद्र मोदी को महान बताया तो कांग्रेस पार्टी में दहशत थी लेकिन आज कांग्रेसी बहुत खुश हैं . कांग्रेस पार्टी के एक बड़े नता ने बताया कि रामदेव जिन मुद्दों पर आन्दोलन कर रहे हैं उन पर तो कांग्रेस का भी भरोसा है . ज़ाहिर है कि कांग्रेस में इस आन्दोलन को लेकर अब कोई चिंता नहीं है . रामदेव की तरफ पार्टी न बनाने जाने के फैसले से बीजेपी भी खुश है . यह अलग बात है कि कांग्रेस के प्रति नरम हो जाने एक बाद बीजेपी के नेता अभी निजी बातचीत में रामदेव के प्रति नाराज़गी जाता रहे हैं .
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गांधी की नक़ल के चक्कर में अन्ना हजारे ने अपनी टीम को भंग किया था.
शेष नारायण सिंह
एक अन्य प्रभावशाली सदस्य डॉ सुनीलम भी अलग हो गए . वे एक राजनीतिक पार्टी के महासचिव रह चुके हिना उर उसे छोड़कर वे जनांदोलनों में शामिल हुए थे. एक सोशलिस्ट के रूप में भी उन्होंने आम आदमी की पक्षधरता की कई लडाइयां लड़ी हैं. उनसे बात करके अन्ना हजारे के दिमाग में चल रही सारी उथल पुथल समझ में आ गयी. अन्ना हजारे का अब तक जो इतिहास हैं उसमें वे कभी भी खुद चुनावी तिकड़म में नहीं पड़े. जन आन्दोलनों के ज़रिये ही उन्होंने अपनी बात कही और उसे आगे बढ़ाया . कभी किसी भी राजनीतिक पार्टी के पक्षधर नहीं रहे और जो भी राजनीतिक पक्ष उनको भ्रष्ट नज़र आया उसके खिलाफ उन्होंने मैदान लेने में संकोच नहीं किया. महाराष्ट्र सरकार के कई मंत्री उनके अभियान के कारण इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर हो चुके हैं . इस बार भी उनके आन्दोलन में वह ताक़त थी कि केंद्र सरकार झुक गयी . शुरुआती दौर में केंद्र सरकार के जिन मंत्रियों के खिलाफ उन्होंने टिप्पणी कर दी उनको चुप होना पड़ा . सरकारी कमेटी के सदस्य के रूप में उनकी हर बात मानने का वादा सरकार की तरफ से किया गया लेकिन उनके अति उत्साही साथी ऐसी ऐसी मांगें करने लगे जिनका हल निकाला ही नहीं जा सकता. बस यहीं गड़बड़ हो गयी . जिस अन्ना हजारे की मर्जी का आदर करके केंद्र सरकार ने कपिल सिब्बल को उनके खिलाफ बयान देने से रोक दिया था उसी केंद्र सरकार ने उनके ९ दिन के आन्दोलन को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया. ज़ाहिर है कि उनका आन्दोलन रास्ते से भटक गया था . और अन्ना की अथारिटी कमज़ोर हुई थी . अन्ना हजारे की भूखों रह सकने की क्षमता अदम्य है लेकिन उनको अपना अनशन ख़त्म करवाने के लिए अपने कुछ प्रबुद्ध नागरिकों की एक चिट्ठी का सहारा लेना पड़ा.
डॉ सुनीलम को अन्ना हजारे ने बताया कि महात्मा गांधी का आन्दोलन देश से अंग्रेजों को भगाने के लिए था . उसके बाद उनकी इच्छा थी कांग्रेस को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में मान्यता न दी जाए और वह सामाजिक परिवर्तन के एक आन्दोलन के रूप में चलता रहे . लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने कांग्रेस को चुनावी राजनीति की एक पार्टी बना दिया और महात्मा गाँधी की राह से अलग सामाजिक न्याय की गाडी चलाने का फैसला किया . अन्ना हजारे का मानना है कि महात्मा गांधी को कांग्रेस को भंग करने की एकतरफा घोषणा कर देनी चाहिए थी. अगर उन्होंने ऐसा कर दिया होता तो आज़ादी की लड़ाई में शामिल नेता अपनी अपनी राजनीतिक पार्टी बनाते और चुनाव लड़ते . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस बहुत भारी गुडविल के साथ चुनावी अखाड़े में कूदी और भारी बहुमत से जीती . यह सिलसिला लगातार चलता रहा और कांग्रेस में भ्रष्ट लोग भरते गए. महात्मा गांधी की राजनीति के जानकार और उनके अनुयायी अन्ना हजारे ने वह काम कर दिया जो महात्मा जी करने से चूक गए थे . उन्होंने लोकपाल बिल के लिए बात करने के लिए बनायी गयी टीम को भंग कर दिया और यह कहा कि यह टीम अब किसी काम की नहीं है क्योंकि केंद्र सरकार से लोकपाल के मुद्दे पर बात करने के लिए बनाई गयी थी और लोकपाल के मामले में सरकार किसी से बात करने को तैयार नहीं है . यह सारी घोषणा अन्ना हजारे ने अपने ब्लॉग के ज़रिये की और अपने किसी भी साथी को इसकी भनक तक न लगने दी. बताते हैं कि उनको शक़ था कि अगर उन्होंने इस बात को अपनी टीम के सदस्यों की नोटिस में लाने की भूल की तो वे हर बार की तरह इस बार भी सब गड़बड़ कर देगें . पता चला है कि उनको भरोसा था कि उनकी शख्सियत का लाभ उठाकर उनके साथी राजनीतिक लाभ लेगें इसलिए उन्होंने अपने आपको चुनावी राजनीति से अलग कर लिया और राजनीतिक पार्टी बनाने वालों को मुक्त कर दिया . उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में भी वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखेगें . राजनेताओं की गड़बड़ियों को दुनिया के सामने लाते रहेगें . यह भी उम्मीद की जानी चाहिए कि अब उनके साथी जो राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं,उसको भी अन्ना हजारे भ्रष्ट आचरण करने से रोकेगें . यह भी सच है कि प्रस्तावित राजनीतिक पार्टी से अपने आपको अलग करके उन्होंने भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता की उम्मीदों को जिंदा रखा है .
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शेष नारायण सिंह
Thursday, August 9, 2012
२००९ चुनाव के पहले जनेश्वर ने कहा था - बीजेपी एक ज़हरीली जमात है.
शेष नारायण सिंह
लोक सभा चुनाव २००९ के पहले ३ मई २००९ को मैंने स्व जनेश्वर मिश्र का एक इंटरव्यू किया था. उस इंटर व्यू के नोट्स तो मेरे पास नहीं हैं लेकिन उस वक़्त के मेरे उर्दू अखबार के अलावा , एक बड़े हिन्दी अखबार ने भी इसे छापा था. आज जब वे नहीं है तो उनकी बातों को एक बार फिर प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूँ . एक पत्रकार के रूप में यह इंटरव्यू मुझे ज़िंदगीभर याद रहेगा. उन्होंने इस इंटरव्यू के खतम होने के बाद मुझे जो बात आफ द रिकार्ड कही थी . वह लोकसभा २००९ के नतीजे आने के बाद सही साबित हुई थी. और उनकी पार्टी को भारी नुकसान हुआ था. उन्होंने यह भी साफ़ कहा था कि जिस व्यक्ति के कारण उनकी पार्टी को राजनीतिक नुकसान पंहुच रहा है उसे मुलायम सिंह यादव जल्दी ही पार्टी से निकाल देगें . प्रस्तुत है उस दिन का शब्दशः इंटरव्यू --------------
Sunday, August 5, 2012
अमरीकी विदेशनीति ने हक्कानी नेटवर्क के सामने घुटने टेके
शेष नारायण सिंह
पाकिस्तान से अब अमरीकी हुकूमत को खासी परेशानी होने लगी है .लेकिन अमरीका की मुसीबत यह है कि वह सिविलियन सरकार से बातचीत जारी रखने के चक्कर में पाकिस्तानी फौज से सीधे संवाद नहीं कायम कर रही है . पाकिस्तान के ६५ साल के इतिहास में अमरीका ने लगभग हमेशा ही फौज से ही रिश्ता रखा. हालांकि शुरू के कुछ साल तक वह लोकतान्त्रिक सरकार से भी मिलकर काम करते थे लेकिन पहले प्रधान मंत्री लियाक़त अली के क़त्ल के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ. शुरू से ही भारत पर नकेल कसने की गरज से अमरीका पाकिस्तान को अपने साथ रखता रहा है लेकिन हमेशा ही उसका संवाद पाकिस्तानी फौज से ही रहा . लेकिन इस बार अमरीका की कोशिश है कि वह सिविलियन हुकूमत से बात करे क्योंकि उसकी लड़ाई अब आतंक से है . ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए शुरू किया गया अमरीकी अभियान लगभग पूरी तरह से पाकिस्तान की मदद से ही चला . यह अलग बात है कि पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को अपने यह पनाह दे रखी थी. और अमरीका को लगातार बेवकूफ बना अरह था. ओसामा बिन लादेन के नाम पर रक़म भी एंटी जा रही थी लेकिन सबसे बड़े आतंकी को अपने यहाँ हिफाज़त भी दे रखी थी. आतंक के मुकाबले के लिए अमरीकी प्रशासन ने पाकिस्तान को अरबों डालर की मदद की.
अब खबर आ रही है कि अब अमरीकी कांग्रेस पूरी तरह से
पाकिस्तान से खीझ चुकी है और पाकिस्तान की सरकार से गुजारिश की है कि वह आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तानी फौज की दोस्ती को तोड़ दे.
अमरीकी प्रशासन में ताज़ा परेशानी हक्कानी नेटवर्क को लेकर है आरोप लगते रहे हैं कि हक्कानी नेटवर्क बम बनाने का सामान अफगानिस्तान में भेजता रहा है. आरोप यह भी है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ,आई एस आई ने ही हक्कानी नेटवर्क का सारा ताम झाम बनवाया है और वही उसकी मदद कर रहा है .आजकल हक्कानी नेटवर्क अमरीका का ख़ासा सिरदर्द बना हुआ है.यह अफगानिस्तान में काम कर रही पाकिस्तानी सेना को चैन से काम नहीं करने दे रहा है , पाकिस्तान में नैटो की गतिविधियों पर हक्कानी ग्रुप वाले हर मुकाम पर अड़चन खडी कर रहे हैं .सच्चाई यह है कि ओसामा बिन लादेन के अलकायदा और तालिबान जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ साथ अमरीकी सी आई ए ने पाकिस्तान की आई एस आई की मदद से अस्सी के दशक में हक्कानी नेटवर्क को भी शुरू करवाया था. यह तालिबान का ही एक अन्य रूप था . उन दिनों इसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ने के लिए किया गया . अब इसी हक्कानी नेटवर्क ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा के दोनों तरफ अमरीका की नाक में दम कर रखा है .अमरीकी फौज का कहना है कि इस इलाके में हक्कानी नेटवर्क उसका सबसे बड़ा दुश्मन है और नैटो की सेना और उसके साजो सामान को सबसे बडा ख़तरा इसी ग्रुप से है . अभी २०११ तक अमरीकी हुकूमत को उम्मीद थी कि हक्कानी ग्रुप के मौलवी जलालुद्दीन और इनके बेटे सिराजुद्दीन की कृपा से चल रहे आतंक के राज को सीधी बात चीत के ज़रिये ख़त्म किया जा सकता है लेकिन अब अमरीका को भरोसा हो गया है कि बिना पाकिस्तान की सरकार को शामिल किये हक्कानी नेटवर्क पर हाथ डालना बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है .
पाकिस्तान सरकार ने ओसामा बिन लादेन को ख़त्म करने में भी अमरीका की कोई मदद नहीं की थी लेकिन कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए अमरीकी विदेश विभाग
ओसामा बिन लादेन के केस में पाकिस्तान की तारीफ़ करता है . विदेश विभाग के ताज़ा बयान में कहा गया है कि पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क और लश्करे तैय्यबा के मामले में सही काम नहीं कर रहा है .अमरीका की तरफ से पाकिस्तान में राजदूत बनकर जाने को तैयार रिचर्ड ओस्लोन ने सेनेट के सामने अपनी पेशी में बताया कि हक्कानी नेटवर्क को काबू में करना उनकी मुख्य प्राथमिकता होगी. हालांकि पाकिस्तानी हुकूमत ने अंतर राष्ट्रीय दुनिया में अपने आत्मसम्मान को बहुत नीचे गिरा लिया है लेकिन पाकिस्तान में तैनात होने वाले किसी भी राजदूत के लिए पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी निश्चित रूप से गलत बात है . पाकिस्तान का दावा है कि वह हक्कानी नेटवर्क को काबू में करने के लिए पूरी तरह से कोशिश कर रहा है लेकिन अमरीकी विदेश विभाग उनकी बात को सुनने के लिए तैयार नहीं है.
अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धरता लोगों को पाकिस्तानी बयानों पर विश्वास नहीं है क्योंकि पाकिस्तान ने हर बार अमरीकी हितों के खिलाफ काम किया है . लेकिन अमरीका भी ईमानदारी ने अपनी आतंकवाद विरोधी नीति का संचालन नहीं करता है .उनकी नीति में बुनियादी खोट है . वह पाकिस्तान की ज़मीन से अफगानिस्तान में हो रही आतंकवादी गतिविधियों की तो मुखालफत करते हैं लेकिन वही आतंकवादी जब पाकिस्तानी ज़मीन से भारत के खिलाफ आतंक फैलाते हैं तो अमरीका आँख बंद कर लेता है . अमरीका के वर्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के पहले अमरीकी विदेश नीति के मालिक लोग दक्षिण एशिया के आंतंकवाद के बारे में बिलकुल बात नहीं करते थे लेकिन जब उनके ऊपर ही हमला हो गया तो उन्हें अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चल रहे आतंक के तालिबानी साम्राज्य को गंभीरता से लेने की ज़रुरत महसूस हुई . पाकिस्तान की ज़मीन से उठ रहे आतंकवाद के तूफ़ान को रोकने का तरीका यह है कि हर तरह के आतंकवाद पर काबू किया जाए. अमरीका को चाहिए कि वह पाकिस्तानी सरकार ,फौज और आई एस आई को बता दे कि वह हर तरह के आतंक के खिलाफ है . अगर हर तरह के आतंकवाद पर लगाम न लगाई गयी तो अमरीका से मिलने वाली खैरात बंद कर दी जायेगी. अगर पाकिस्तान यह रुख अपनाता है तो उसे भारत का भी पूरा सहयोग मिलेगा क्योंकि भारत भी अपनी आतंरिक सुरक्षा के लिए कोशिश कर रहा है और उसके ऊपर आतंकवादी हमले आई एस आई की कृपा से ही हो रहे हैं .
अमरीकी सरकार की तरफ से इस हीला हवाली के चलते ही सारी गड़बड़ है क्योंकि अमरीकी संसद ने तो अभी पिछले हफ्ते सरकार से आग्रह किया था कि हक्कानी नेटवर्क विदेशी आतंकवादी संगठन के रूप में नामजद किया जाए . जब सरकार ने ना नुकुर की तो एक प्रस्ताव पास करके अमरीकी विदेशी विदेश विभाग से जवाब तलब किया गया कि वह हक्कानी नेटवर्क को क्यों नहीं आतंकवादी संगठन घोषित कर रहा है .विदेश विभाग से रिपोर्ट आ जाने के बाद इस प्रस्ताव पर आगे विचार होगा और अमरीकी संसद का दबाव अमरीकी सरकार पर और भारी पड़ना शुरू हो जाएगा
जो बात समझ में नहीं आती है वह यह है कि जब अमरीकी सरकार हक्कानी नेटवर्क से परेशान है और आतंक के क्षेत्र में उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है तो उसे आतंकवादी संगठन क्यों नहीं घोषित कर देता. अमरीकी सरकार का कहना है कि उन्होंने हक्कानी नेटवर्क के सभी बड़े पदाधिकारियों के खिलाफ पाबंदी लगा दी गयी है लेकिन अभी उसे एक संगठन के रूप में प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव विचाराधीन है .कांग्रेस के सदस्य जल्द से जल्द कोई कार्रवाई चाहते हैं लेकिन ओबामा प्रशासन को उम्मीद है कि अभी तालिबान से जो बातचीत की जा रही है उसके बाद शायद
हक्कानी नेटवर्क
भी अमरीका से अपने रिश्तों को दोबारा जांचना चाहेगा. अमरीकी विदेश नीति के ज़्यादातर विद्वान् यह मानते हैं कि यह दुविधा ही अमरीकी विदेश नीति की सबसे बड़ी कमजोरी है और इसी कमजोरी के कारण उन्हें बार बार परेशानी का सामना करना पड़ता है. पिछले दो साल में आई अमरीकी विदेश विभाग की हर रिपोर्ट में लिखा है कि अफगानिस्तान में आतंक का राज कायम करने की कोशिश कर रहे संगठनों को पाकिस्तान में शरण मिलती है लेकिन फिर भी उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं कर रहे हैं
ऐसा लगता है कि अमरीका दुनिया को दिखाने एक लिए तो अमरीकी फौज को लोकतंत्र के लिए ज़हर मानता है लेकिन अभी वह फौज को ही पाकिस्तान का शासक मानने की अपने पुरानी नीति से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . उन्होंने साफ़ देखा है कि उनका दुश्मन नंबर एक ओसामा बिन लादेन कई साल तक अमरीकी फौज की शरण में रहा और परवेज़ मुशर्रफ समेत सभी फौज़ी आला हाकिम अमरीका से झूठ बोलते रहे फिर भी फौज पर विश्वास करने की अपनी नीति से अमरीका पता नहीं क्यों बाज़ नहीं आ रहा है . यह देखना दिलचस्प होगा कि अमरीकी कांग्रेस के दबाव के बाद भी क्या ओबामा प्रशासन सबसे खतरनाक हक्कानी नेटवर्क के अंदर अपने दोस्त तलाशने की कोशिश से बाज़ आता है या अब वह वक़्त करीब आ गया है जब हक्कानियों के तख़्त को उछाल दिया जाए..
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